ऊंचे सुर और ऊंचे स्थान का सम्बंध

ब तक हुए कई अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हम मनुष्य आम तौर पर उच्च तारत्व (या आवृत्ति) वाली ध्वनियों यानी तीखी आवाज़ों, जैसे सीटी की आवाज़ के साथ किसी ऊंची जगह की कल्पना करते हैं। और अब बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि कुत्ते भी ऐसा ही करते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार यह अध्ययन इस बात को समझने में मदद कर सकता है कि क्यों हम कुछ आवाज़ों को खास भौतिक लक्षणों से जोड़कर देखते हैं।

दरअसल कई अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हम उच्च तारत्व की ध्वनियों के साथ ऊंचाई, उजली या छोटी वस्तुओं की कल्पना करते हैं। लेकिन अब तक वैज्ञानिक आवाज़ के साथ इनके जुड़ाव के कारण की कोई तार्किक व्याख्या नहीं कर पाए हैं। जैसे अध्ययन कहते हैं कि संभवत: ध्वनि और स्थान, आकार या रंग आदि का यह जुड़ाव अनुभव से बना है। उदाहरण के तौर पर चूहे और पक्षियों जैसे छोटे जीव आम तौर पर तीखी (पतली) आवाज़ निकालते हैं जबकि भालू जैसे बड़े जानवर भारी (निम्न तारत्व वाली) आवाज़ें निकालते हैं। या यह भी हो सकता कि यह सम्बंध इसलिए बन गया कि अंग्रेजी में ‘हाई’ और ‘लो’ शब्दों का इस्तेमाल आवाज़ और ऊंचाई दोनों के लिए होता है।

युनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स की जीव व्यवहार विज्ञानी ऐना कोर्ज़ेनिवोस्का और उनके साथियों का कुत्तों पर किया गया एक अध्ययन इस बात को और समझने में मदद कर सकता है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 101 कुत्तों को एक गेंद के ऊपर-नीचे जाने का एनीमेशन दिखाया और कभी-कभी गेंद की गति के साथ ध्वनियां सुनाई गर्इं। कभी गेंद के ऊपर जाने के साथ ध्वनि का तारत्व बढ़ता और नीचे आने के साथ कम होता या, कभी इसके विपरीत होता। 64 प्रयोगों के बाद उन्होंने पाया कि जब गेंद के ऊपर जाने के साथ तारत्व बढ़ता है तो  कुत्तों ने गेंद को 10 प्रतिशत अधिक वक्त तक देखा। इससे लगता है कि जानवर आवाज़ का तारत्व बढ़ने को ऊंचे स्थान से जोड़कर देखते हैं। इस निष्कर्ष के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि आवाज़ के प्रकार के साथ स्थान का सम्बंध भाषा की वजह से नहीं बल्कि जन्मजात होता है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता है।

बर्मिंगहैम युनिवर्सिटी के संज्ञान विज्ञानी मार्कस पर्लमेन का कहना है कि इस अध्ययन की डिज़ाइन तो उचित है लेकिन संभावना है कि कुछ अन्य कारक भी नतीजों पर असर डाल रहे हों। जैसे प्रयोग के दौरान कुत्तों के मालिक नज़दीक बैठे थे, हो सकता है गेंद के ऊपर जाने और उसके साथ उच्च तारत्व वाली आवाज़ बजने के वक्त अनजाने में उन्होंने कुत्तों को कुछ संकेत दिए हों। या हो सकता है कि कुत्तों के मालिकों ने पहले कभी कुत्तों को आवाज़ पर प्रतिक्रिया देने के लिए प्रशिक्षित किया हो।

लिहाज़ा, पर्लमैन का सुझाव है कि एक अन्य अध्ययन किया जाना चाहिए जिसमें कुत्ते के मालिक ऐसी भाषा बोलते हों जिसमें ध्वनि के तारत्व को स्थान सम्बंधी शब्द से संबोधित ना किया जाता हो, जैसे फारसी। फारसी भाषा में उच्च तारत्व की आवाज़ को पतली आवाज़ और निम्न तारत्व की आवाज़ को मोटी आवाज़ कहते हैं।

बहरहाल इस सम्बंध की व्याख्या के लिए आगे और विस्तार से अध्ययन करने की आवश्कता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पफरफिश को तनाव-मुक्त रखता है विष

टेट्रॉडोटॉक्सिन ज़हर पफरफिश का घातक हथियार है। यह ज़हर ऐसा खतरनाक तंत्रिका विष है कि एक अकेली पफरफिश में मौजूद इसकी मात्रा दर्जनों शिकारियों को पंगु कर सकती है और मार सकती है। और यदि कोई मनुष्य पफरफिश का मांस खा ले तो पंगु हो सकता है। लेकिन टॉक्सिकॉन पत्रिका में प्रकाशित ताज़ा अध्ययन बताता है कि यह ज़हर स्वयं पफरफिश में सर्वथा अलग उद्देश्य की पूर्ति करता है: यह पफरफिश को तनाव-मुक्त रखता है।

टेट्रॉडोटॉक्सिन (TTX) दरअसल एक तंत्रिका विष है। टाइगर पफरफिश (Takifugu rubripes) स्वयं TTX नहीं बनातीं बल्कि अपने आहार में शामिल बैक्टीरिया द्वारा बनाए गए TTX को अपने अंगों और त्वचा में जमा करके रखती है। प्रयोगशाला में देखा गया है कि जिन पफरफिश के आहार में बदलाव किया गया उन्होंने अपनी विषाक्तता खो दी थी। 

विकसित होती पफरफिश को TTX किस तरह प्रभावित करता है यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में एक महीने तक कुछ युवा पफरफिश के आहार में शुद्ध TTX मिलाया। अध्ययन में पाया गया कि TTX रहित आहार वाली पफरफिश की तुलना में TTX युक्त आहार वाली पफरफिश 6 प्रतिशत अधिक लंबी और 24 प्रतिशत अधिक भारी थीं। इसके अलावा वे कम आक्रामक थीं और एक-दूसरे के पिछले पिच्छ को कम कुतर रहीं थीं।

वृद्धि की दर और आक्रामकता, दोनों पर तनाव का असर होता है। इसलिए शोधकर्ताओं ने पफरफिश में तनाव सम्बंधी दो हार्मोन का भी अध्ययन किया: रक्त में कॉर्टिसोल और मस्तिष्क में कॉर्टिकोट्रॉपिन-रीलीज़िंग हार्मोन। पाया गया कि जिन पफरफिश को TTX नहीं दिया गया था उनमें इन हार्मोन्स का स्तर अधिक था। यानी वे अधिक तनावग्रस्त थीं।

अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि इन मछलियों में TTX ना सिर्फ शिकारियों से बचने या उन्हें दूर रखने का काम करता है बल्कि युवा पफरफिश के स्वस्थ विकास के लिए भी ज़रूरी होता है। कुछ अन्य अध्ययन बताते हैं कि TTX से रहित युवा पफरफिश घातक और जोखिमपूर्ण निर्णय लेती हैं। फिलहाल यह अस्पष्ट है कि TTX पफरफिश में तनाव कैसे कम करता है। (स्रोत फीचर्स)
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छछूंदर: तौबा ये मतवाली चाल

वैसे तो छछूंदर ज़मीन में तेज़ी से बिल बनाने के लिए जानी जाती हैं, लेकिन अब पता चला है कि उनके चलने का तरीका भी अन्य चौपाया जानवरों से अलग है। कुत्ता या बिल्ली जैसे अन्य रीढ़धारी चौपाया जानवरों के पैर चलते वक्त उनके शरीर के नीचे रहते हैं। लेकिन बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि छंछूदर चलते वक्त अपने आगे के दो पैर सामने की ओर फैलाए रखती है, जिससे चलते वक्त बिल की दीवारों से टकराने की संभावना कम रहती है।

छछूंदर कैसे चलती हैं यह देखने के लिए शोधकर्ताओं ने एक्स-रे मशीन के साथ एक हाई स्पीड कैमरा जोड़ा और उसकी मदद से प्लास्टिक सुरंग में चलती एक ईस्टर्न छछूंदर (Scalopus aquaticus) की चाल को रिकॉर्ड किया। वीडियो का अध्ययन करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि चलते समय छछूंदर के पैर हमेशा सामने की ओर फैले रहते हैं और उनका बाकी का शरीर इनके पीछे रहता है। दरअसल आगे बढ़ने के लिए छछूंदर अपनी छठी उंगली या फाल्स थंब (हथेली के पास उभरी उंगली समान रचना) को ज़मीन पर टेकती हैं और इसकी मदद से अपने शरीर को आगे बढ़ाती हैं, बिलकुल उसी तरह जिस तरह लाठी टेककर चलने वाला व्यक्ति आगे बढ़ता है। इस तरीके से चलने में ज़मीन के साथ कम-से-कम संपर्क बनता है, वैसे ही जैसे तेज़ दौड़ते व्यक्ति के पैर पलभर के लिए ही ज़मीन पर पड़ते हैं। इस तरह की चाल पैर सामने फैलाए रखने में मदद करती है। चूंकि संकरे बिल में चलते वक्त मुड़े हुए अंगों के साथ बिल की दीवारों से टकराने की संभावना रहती है, जिससे बिल नष्ट हो सकता है इसलिए सामने की ओर पैर फैले होने से दीवारों से टकराने से की संभावना कम हो जाती है और बिल सलामत रहता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि बिल में रहने वाले छछूंदर जैसे जीवों के चलने के तरीकों को समझ कर, बेहतर बचाव और राहत रोबोट डिज़ाइन करने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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मोनार्क तितली ज़हर को कैसे पचाती है

काले-नारंगी पंखों वाली मोनार्क तितली देखने में काफी सुंदर लगती है। एक ज़हरीले पौधे (मिल्कवीड) का सेवन करके यह तितली ज़हरीली हो जाती है और अपने रंग-रूप से संभावित शिकारियों को आगाह कर देती है कि वह ज़हरीली है। लेकिन एक ज़हरीले आहार के प्रति प्रतिरक्षा विकसित करना काफी हैरानी की बात है। बात जीन्स पर टिकी है। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं की दो स्वतंत्र टीमों ने एक फल मक्खी (ड्रॉसोफिला) में तीन प्रकार के आनुवंशिक परिवर्तन करके इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है।

वास्तव में मिल्कवीड पौधा कार्डिएक ग्लाइकोसाइड नामक यौगिक का उत्पादन करता है, जो कोशिकाओं के अंदर और बाहर आयनों के उचित प्रवाह को नियंत्रित करने वाले आणविक पंपों को बाधित करता है। इस पौधे का सेवन करने वाली मोनार्क तितली और अन्य जीवों में इन पंपों का ऐसा संस्करण विकसित हुआ है कि इन जीवों पर इस रसायन का गलत असर नहीं पड़ता।

मिल्कवीड खाने वाले विभिन्न जीवों में क्या समानता है, इसे समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के जीव विज्ञानी नोहा वाइटमन और उनके सहयोगियों ने मोनार्क तितली समेत 21 कीटों के आणविक पंप के जीन का मिलान किया। शोधकर्ताओं को तीन उत्परिवर्तन मिले जो इस प्रोटीन पंप के तीन एमीनो एसिड्स को बदल देते हैं। कीट परिवार में इन परिवर्तनों को देखकर टीम ने यह अनुमान लगाया कि ये एमीनो एसिड परिवर्तन किस क्रम में हुए थे। यह क्रम महत्वपूर्ण लगता है। उन्होंने जीन-संपादन तकनीक की मदद से उन परिवर्तनों को क्रमबद्ध ढंग से फल मक्खियों में करने की कोशिश की।

नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मोनार्क तितली के पूर्वजों में उत्पन्न एक उत्परिवर्तन जब फल मक्खियों में किया गया तो वह मिल्कवीड के प्रति थोड़ी प्रतिरोधी हुई। लेकिन जब उसमें एक और उत्परिवर्तन किया गया तो फल मक्खी और अधिक सुरक्षित हो गई। इसके बाद तीसरा उत्परिवर्तन करने पर तो फल मक्खी मोनार्क तितली की तरह मिल्कवीड पर बखूबी पनपने लगी। और तो और, मोनार्क तितली की तरह फल मक्खियों ने खुद के शरीर में भी कुछ विष संचित रखा जो तितली को शिकारियों से बचाता है। (स्रोत फीचर्स)

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शीतनिद्रा में बिना पानी कैसे जीवित रहती है गिलहरी

ज़्यादातर गिलहरियां ठंड के मौसम के लिए अपने घोसलों में पहले से भोजन की व्यवस्था करके रखती है और सर्दियां अपने घोसले में ही बिताती हैं। लेकिन यू.एस. मिडवेस्ट में पाई जाने वाली तेरह धारियों वाली एक गिलहरी (Ictidomys tridecemlineatus) ऐसा करने की बजाय ठंड बढ़ने पर शीतनिद्रा (हाइबरनेशन) में चली जाती है। इसकी शीतनिद्रा की अवधि लगभग आठ महीने की होती है जो प्राणि जगत में सबसे लंबी अवधि है। और वैज्ञानिकों ने अब यह पता लगा लिया है कि वह भोजन-पानी के बगैर इतनी लंबी शीतनिद्रा कैसे कर पाती है।

शीतनिद्रा करने वाले भालू जैसे अन्य जीवों की तरह हाइबरनेशन के दौरान गिलहरी के दिल की धड़कन, चयापचय प्रक्रिया और शरीर का तापमान नाटकीय रूप से बहुत कम हो जाते हैं। इस दौरान गिलहरी अपनी प्यास को दबाए रखती है, जिसका एहसास होने पर वे शीतनिद्रा की अवस्था से जाग सकती हैं। लेकिन वे अपनी प्यास पर काबू कैसे रख पाती हैं? इस बात का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने दर्जनों गिलहरियों के रक्त सीरम को जांचा। सीरम रक्त के तरल अंश को कहते हैं। उन्होंने गिलहरियों को तीन समूहों में बांटा। एक समूह में गिलहरियां सक्रिय अवस्था में थीं, दूसरे समूह की गिलहरियां मृतप्राय शीतनिद्रा की अवस्था थीं, जिसे तंद्रा कहते हैं और तीसरे समूह की गिलहरियां शीतनिद्रा और सक्रियता के बीच की अवस्था में थीं।

सामान्य तौर पर मनुष्यों सहित सभी जानवरों में प्यास का एहसास सीरम गाढ़ा होने पर होता है। येल विश्वविद्यालय की लीडिया हॉफस्टेटर और साथियों द्वारा किए गए इस अध्ययन में शीतनिद्रा अवस्था की गिलहरियों में सीरम कम गाढ़ा पाया गया जिसके उन्हें प्यास का एहसास नहीं हुआ और वे सोती रहीं। यहां तक कि शोधकर्ताओं द्वारा जगाए जाने पर भी इन गिलहरियों ने एक बूंद भी पानी नहीं पिया। लेकिन जब शोधकर्ताओं ने उनके सीरम की सांद्रता बढ़ाई तो उन्होंने पानी पिया।

इसके बाद शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि शीतनिद्रा के दौरान गिलहरियों का सीरम इतना पतला कैसे हो जाता है? उनका अनुमान था कि शीतनिद्रा में जाने के पहले गिलहरियां ढेर सारा पानी पीकर अपने खून को पतला रखती होंगी। लेकिन सर्दियों में गिलहरियों द्वारा शीतनिद्रा अवस्था में जाने की पूर्व-तैयारी के वक्त बनाए गए वीडियो में दिखा कि आश्चर्यजनक रूप से इस दौरान तो गिलहरियों ने सामान्य से भी कम पानी पिया। 

रासायनिक जांच में पता चला कि वे अपने रक्त में सीरम की सांद्रता पर नियंत्रण सोडियम जैसे इलेक्ट्रोलाइट और ग्लूकोज़ और यूरिया जैसे अन्य रसायनों को हटाकर करती हैं। वे इन्हें शरीर में अन्यत्र कहीं (संभवत:) मूत्राशय में एकत्रित करती हैं। यह अध्ययन करंट बॉयोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

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कई ततैयों को काबू में करती है क्रिप्ट कीपर

ई परजीवी अपने मेज़बान के व्यवहार में बदलाव करते हैं ताकि वे अपना जीवन चक्र पूरा कर सकें। अब तक ऐसा लगता था कि कोई भी परजीवी एक मेज़बान या मेज़बानों की करीबी प्रजातियों के व्यवहार में ही बदलाव करते हैं। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि क्रिप्ट कीपर नाम की ततैया (Euderus set) 6 से भी अधिक प्रजातियों की ततैयों को अपना मेज़बान बनाती है और उनके व्यवहार में परिवर्तन करती है।

आम तौर पर क्रिप्ट कीपर ततैया बैसेटिया पैलिडा (Bassettia pallida) नामक ततैयों को अपना मेज़बान बनाती है। बैसेटिया पैलिडा ओक के पेड़ की शाखाओं या तने पर अंडे देती है, और उस स्थान पर गॉल (ट्यूमरनुमा उभार) बना देती है। गॉल के अंदर ही इस ततैया के लार्वा बड़े होते हैं और वयस्क होने पर ये गॉल की दीवार भेदकर बाहर निकल आते हैं।

लेकिन बैसेटिया पैलिडा के इस सामान्य व्यवहार में फर्क तब पड़ता है जब क्रिप्ट कीपर ततैया इन गॉल में अपने अंडे दे देती है। क्रिप्ट कीपर के लार्वा या तो बैसेटिया पैलिडा के लार्वा साथ ही बड़े होते हैं या उसके लार्वा के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। जब बैसेटिया पैलिडा गॉल की दीवार को भेदकर बाहर आने के लिए छेद बनाती है तो क्रिप्ट कीपर ततैया के लार्वा बैसेटिया पैलिडा के दिमाग पर नियंत्रण कर या उन्हें कमज़ोर कर उनके व्यवहार में इस तरह बदलाव करते हैं कि वह बाहर निकलने वाला छेद छोटा बनाती हैं। इस छोटे छेद में बैसिटिया पैलिडा का सिर बॉटल में कार्क की तरह फंस जाता है और वह उस छेद से बाहर नहीं निकल पाती। तब क्रिप्ट कीपर के लार्वा उस ततैया के शरीर को चट करके उसके सिर को भेद कर बाहर निकल आते हैं। क्रिप्ट कीपर ततैया के लार्वा के लिए गॉल की तुलना में सिर को भेदना ज़्यादा आसान होता है क्योंकि गॉल की तुलना में सिर ज़्यादा नर्म होता है।

यह जानने के लिए कि क्रिप्ट कीपर ततैया के कितने मेज़बान हैं, शोधकर्ताओं ने कुछ क्रिप्ट कीपर ततैया और 23,000 गॉल एकत्रित किए जिनमें ओक गॉल ततैया की 100 से भी अधिक प्रजातियां थीं। शोधकर्ताओं ने इन गॉल में क्रिप्ट कीपर ततैयों को बड़ा किया। बॉयोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक 6 अलग-अलग प्रजातियों की 305 से भी अधिक ततैयों को क्रिप्ट कीपर ने मेज़बान बनाया था जो एक-दूसरे की करीबी प्रजातियां नहीं थीं। यह भी देखा गया कि क्रिप्ट कीपर ततैया उन गॉल को खास तवज्जो देती है जिन पर फर या कांटे ना हों। (स्रोत फीचर्स) 
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नई खोजी गई ईल मछली का ज़ोरदार झटका

वैज्ञानिक मानते आए थे कि करंट मारने वाली इलेक्ट्रिक ईल नामक मछली की एक ही प्रजाति है। लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं की एक टीम ने दक्षिण अमेरिका के अमेज़न बेसिन में ईल की तीन प्रजातियां देखीं। इनमें से एक प्रजाति जीव जगत में अब तक का सबसे ज़ोरदार करंट मारती है।  

इस जीव के वंशवृक्ष का सटीक निर्धारण करने के लिए शोधकर्ताओं ने ब्राज़ील, सूरीनाम, फ्रेंच गियाना और गुयाना से 107 ईल को पकड़कर उनका अध्ययन किया। इस अध्ययन में ईल के डीएनए का विश्लेषण, शरीर और हड्डियों की संरचना को देखा गया और यह देखा गया कि उसे कहां से पकड़ा गया था। नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं ने पाया कि ईल के तीन अलग-अलग जेनेटिक समूह हैं जिनका भौगोलिक क्षेत्र भी सर्वथा अलग-अलग है। ये तीन प्रजातियां हैं: सुदूर उत्तर (गुयाना और सुरीनाम) में रहने वाली इलेक्ट्रोफोरस इलेक्ट्रिकस, उत्तरी ब्राज़ील के अमेज़न बेसिन के निचले इलाके में पाई जाने वाली ई.वैराई और दक्षिण ब्राज़ील में पाई जाने वाली ई.वोल्टेई। 

वैसे इन सभी प्रजातियों का रंग भूरा और त्वचा झुर्रीदार होती है और त्योरी चढ़ा चेहरा होता है और इनके आधार पर इनके बीच भेद कर पाना तो असंभव था। लेकिन टीम ने उनकी खोपड़ी के आकार और शरीर की संरचना में थोड़ा अंतर पाया। जैसे ई.इलेक्ट्रिकस और ई.वोल्टेई की खोपड़ी थोड़ी दबी हुई थी जो शायद पथरीली नदी में चट्टानों के नीचे भोजन खोजने के लिए या तेज़ बहते पानी में कुशल तैराकी में मददगार साबित होती हो।

इसके बाद वैज्ञानिकों ने इन तीनों के बिजली के झटकों की ताकत नापने के लिए छोटे स्विमिंग पूल का उपयोग किया। नई खोजी गई प्रजाति ई.वोल्टेई ने 860 वोल्ट का झटका दिया जो घरेलू बिजली के वोल्टेज से 4 गुना अधिक है। ई.इलेक्ट्रिकस के झटके का अधिकतम रिकॉर्ड 650 वोल्ट का था।  

शोधकर्ताओं के अनुसार 30 लाख वर्ष से भी अधिक पहले ये प्रजातियां अमेज़न बाढ़ क्षेत्र बनने के बाद एक-दूसरे से अलग हो गई होंगी। अभी यह परीक्षण तो नहीं किया गया है कि यदि इन अलग-अलग प्रजातियों को मौका दिया जाए तो वे आपस में प्रजनन कर सकेंगी या नहीं, लेकिन लाखों वर्षों के अलगाव के बाद इसकी संभावना कम ही है। (स्रोत फीचर्स)

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एक जेनेटिक प्रयोग को लेकर असमंजस

ब्राज़ील में मच्छरों पर नियंत्रण पाने के लिए एक प्रयोग किया गया था। उस प्रयोग को 6 साल हो चुके हैं और अब इस बात को लेकर वैज्ञानिकों के बीच बहस चल रही है कि उस प्रयोग में कितनी सफलता मिली और किस तरह की समस्याएं उभरने की संभावना है।

इंगलैंड की एक जैव-टेक्नॉलॉजी कंपनी ऑक्सीटेक ने 2013 से 2015 के दौरान जेनेटिक रूप से परिवर्तित एडीस मच्छर करोड़ों की संख्या में ब्राज़ील के जेकोबिना शहर में छोड़े थे। इन मच्छरों की विशेषता यह थी कि ये मादा मच्छरों से समागम तो करते थे मगर उसके तुरंत बाद स्वयं मर जाते थे। इसके अलावा, इस समागम के परिणामस्वरूप संतानें पैदा नहीं होती थीं। यदि कोई संतान पैदा होकर जीवित भी रह जाती थी (लगभग 3 प्रतिशत) तो वह आगे संतानोत्पत्ति में असमर्थ होती थी। उम्मीद थी कि इस तरह के मच्छर स्थानीय मादा मच्छरों से समागम के मामले में स्थानीय नर मच्छरों से प्रतिस्पर्धा करेंगे और स्वयं मर जाएंगे और मृत संतानें पैदा करेंगे यानी मच्छरों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आएगी।

कंपनी ने पूरे 27 महीनों तक प्रति सप्ताह साढ़े चार लाख जेनेटिक रूप से परिवर्तित एडीस मच्छर छोड़े थे। शोधकर्ताओं के एक स्वतंत्र दल ने पूरे मामले का अध्ययन किया तो पाया कि इन मच्छरों के कारण जेकोबिना में मच्छरों की संख्या में 85 प्रतिशत गिरावट आई है। दल ने उस इलाके से प्रयोग शुरू होने के 6, 12 और 27 महीनों बाद स्थानीय आबादी के मच्छरों के नमूने भी एकत्रित किए। इन मच्छरों के जेनेटिक विश्लेषण से पता चला है कि उनमें बाहर से छोड़े गए मच्छरों के जीन पहुंच गए हैं। इसका मतलब है कि उन मच्छरों और स्थानीय मच्छरों से उत्पन्न संकर मच्छर न सिर्फ जीवित हैं बल्कि संतानें भी पैदा कर रहे हैं।

शोधकर्ता दल का मत है कि स्थानीय मच्छरों में इस तरह जीन का पहुंचना इस बात का संकेत है कि इनमें कुछ नए गुण पैदा हो रहे हैं और शायद ये नए संकर मच्छर ज़्यादा खतरनाक साबित होंगे। अलबत्ता, कंपनी का कहना है कि जीन का स्थानांतरण तो हुआ है लेकिन ज़रूरी नहीं कि वह किसी खतरे का द्योतक हो। एक बात तो स्पष्ट है कि इस तरह के जेनेटिक हस्तक्षेप में ज़्यादा सावधानी की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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पदचिन्हों के जीवाश्म और चलने-फिरने का इतिहास

कुछ जीवाश्म स्थल अक्सर खरोचों और ऐसे निशानों से भरे होते हैं जो संभवत: किसी चलते-फिरते जीव द्वारा छोड़े गए होते हैं। इन निशानों के स्रोत की पुष्टि नहीं हो पाती क्योंकि उन्हें बनाने वाले जीव अब पाए नहीं जाते हैं।

लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक अपवाद खोज निकाला है। एक जीवाश्म का पता लगाया है जो रेंगने की क्रिया करते अश्मीभूत हुआ है। यह चट्टान लगभग 56 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टान है यानी लगभग उतनी ही पुरानी जितने कि जंतु हैं। यह छोटे-छोटे अनेक पैरों वाला एक चपटा-सा खंडित शरीर वाला जीव है जो काफी कुछ आधुनिक कनखजूरे जैसा दिखता है लेकिन इसका शरीर नर्म मालूम होता है। इस जीवाश्म के पीछे की चट्टान में एक लम्बी खांचेदार किनारों की लकीर-सी दिखाई देती है।

शोधकर्ताओं ने इसे यिलिंगिया स्पाइसीफॉर्मिस नाम दिया है। गौरतलब है कि यिलिंगिया नाम यांगेज़ नदी घाटी के नाम से लिया गया है जहां यह जीवाश्म पाया गया, और स्पाइसीफॉर्मिस नाम जीव के कांटेदार शरीर के कारण दिया गया है। इसके प्रत्येक खंड में तीन भाग हैं, एक बड़ा केंद्रीय भाग जिसके दोनों ओर छोटे-छोटे पीछे की ओर मुड़े हुए भाग जुड़े हुए हैं। वहां मिले 35 यिलिंगिया नमूनों में सबसे लम्बा 27 सेंटीमीटर लम्बा था जो एक वयस्क मानव पैर की लंबाई के बराबर है।

नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जीवाश्म की शारीरिक रचना और उसके पदचिन्हों के आधार पर, इस जगह पाए गए अन्य पदचिन्ह भी इसी तरह की जोड़वाली टांगों वाले जीवों द्वारा बनाए गए होंगे। यह विशेषता शुरुआती विकसित होते जीवों से मेल नहीं खाती और उनके हिसाब से काफी आगे की है। जोड़दार पैरों वाले अधिकांश जंतु तो इसके 15 करोड़ साल बाद तक विकसित नहीं हुए थे।

वैज्ञानिकों का मत है कि इन खंडों का विकास जीवों को चलने-फिरने में मदद करता था। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जीवों के विविधीकरण में मदद मिली। वास्तव में, शोधकर्ताओं को लगता है कि यह जीवाश्म बिना खंड वाले जीवों (जैसे साधारण कृमि) और जोड़वाली टांगों वाले जीवों (जैसे कीड़े और झींगा मछलियों) के बीच की लापता कड़ी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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पक्षी एवरेस्ट की ऊंचाई पर उड़ सकते हैं

र्ष 1953 में, एक पर्वतारोही ने माउंट एवरेस्ट के शिखर पर सिर पर पट्टों वाले हंस (करेयी हंस, एंसर इंडिकस) को उड़ान भरते देखा था। लगभग 9 किलोमीटर की ऊंचाई पर किसी पक्षी का उड़ना शारीरिक क्रियाओं की दृष्टि से असंभव प्रतीत होता है। यह किसी भी पक्षी के उड़ने की अधिकतम ज्ञात ऊंचाई से भी 2 कि.मी. अधिक था। इसको समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 19 हंसों को पाला ताकि इतनी ऊंचाई पर उनकी उड़ान के रहस्य का पता लगाया जा सके।

शोधकर्ताओं की टीम ने एक बड़ी हवाई सुरंग बनाई और युवा करेयी हंसों को बैकपैक और मास्क के साथ उसमें उड़ने के लिए प्रशिक्षित किया। विभिन्न प्रकार के सेंसर की मदद से उन्होंने हंसों की ह्मदय गति, रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा, तापमान और चयापचय दर को दर्ज करके प्रति घंटे उनकी कैलोरी खपत का पता लगाया। शोधकर्ताओं ने मास्क में ऑक्सीजन की सांद्रता में बदलाव करके निम्न, मध्यम और अधिक ऊंचाई जैसी स्थितियां निर्मित कीं।

यह तो पहले से पता था कि स्तनधारियों की तुलना में पक्षियों के पास पहले से ही निरंतर शारीरिक गतिविधि के लिए बेहतर ह्मदय और फेफड़े हैं। गौरतलब है कि करेयी हंस में तो फेफड़े और भी बड़े व पतले होते हैं जो उन्हें अन्य पक्षियों की तुलना में अधिक गहरी सांस लेने में मदद करते हैं और उनके ह्मदय भी अपेक्षाकृत बड़े होते हैं जिसकी मदद से वे मांसपेशियों को अधिक ऑक्सीजन पहुंचा पाते हैं।

हवाई सुरंग में किए गए प्रयोग से पता चला कि जब ऑक्सीजन की सांद्रता माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर 7 प्रतिशत के बराबर थी (जो समुद्र सतह पर 21 प्रतिशत होती है), तब हंस की चयापचय दर में गिरावट तो हुई लेकिन उसके बावजूद ह्मदय की धड़कन और पंखों के फड़फड़ाने की आवृत्ति में कोई कमी नहीं आई। शोधकर्ताओं ने ई-लाइफ में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि किसी तरह यह पक्षी अपने खून को ठंडा करने में कामयाब रहे ताकि वे अधिक ऑक्सीजन ले सकें। गौरतलब है कि गैसों की घुलनशीलता तापमान कम होने पर बढ़ती है। खून की यह ठंडक बहुत विरल हवा की भरपाई करने में मदद करती है।

हालांकि पक्षी अच्छी तरह से प्रशिक्षित थे, लेकिन बैकपैक्स का बोझा लादे कृत्रिम अधिक ऊंचाई की परिस्थितियों में कुछ ही मिनटों के लिए हवा में बने रहे। इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उपरोक्त अनुकूलन की बदौलत ही वे 8 घंटे की उड़ान भरकर माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने में सफल हो जाते हैं। या क्या यही अनुकूलन उन्हें मध्य और दक्षिण एशिया के बीच 4000 किलोमीटर के प्रवास को पूरा करने की क्षमता देते हैं। और ये करतब वे बिना किसी प्रशिक्षण के कर लेते हैं। लेकिन प्रयोग में बिताए गए कुछ मिनटों से इतना तो पता चलता ही है कि ये हंस वास्तव में माउंट एवरेस्ट की चोटी के ऊपर से उड़ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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