जैव-विकास को दिशा देकर संरक्षण के प्रयास

स्ट्रेलिया वह महाद्वीप है जहां स्तनधारियों की आबादी में सबसे तेज़ गिरावट दर्ज की जा रही है। यहां जो स्तनधारी निवास करते हैं उनमें मार्सुपियल बड़ी तादाद में हैं। मार्सुपियल प्राणियों की विशेषता यह होती है कि इनकी संतानें पैदाइश के समय पूर्ण विकसित नहीं होतीं और उन्हें शरीर से बाहर एक थैली में पाला जाता है। इस थैली को मार्सुपियम कहते हैं।

ऐसा एक जोखिमग्रस्त मार्सुपियल प्राणि उत्तरी क्वोल (Dasyurus hallucatus) है। यह गिलहरी के बराबर होता है। इसके साथ दिक्कत यह हुई है कि यह ज़हरीले मेंढकों को पहचान नहीं पाता और उन्हें खा जाता है। यह मेंढक एक टोड (Rhinella marina) है जिसे ऑस्ट्रेलिया के कृषि अधिकारियों ने करीब 80 वर्ष पहले यहां छोड़ा था। इस टोड को वहां एक अन्य जीव – गुबरैलों – पर नियंत्रण पाने के मकसद से छोड़ा गया था। ये गुबरैले ऑस्ट्रेलिया की गन्ने की फसल को बहुत नुकसान पहुंचा रहे थे।

उत्तरी क्वोल को लगा कि यह बढ़िया भोजन है लेकिन यह टोड ज़हरीला था। अपने भोजन को न पहचान पाने के चक्कर में क्वोल की आबादी आज मात्र 25 प्रतिशत रह गई है। मेलबोर्न विश्वविद्यालय के शोधकर्ता एला केली और बेन फिलिप्स को अपने अनुभव से यह पता था कि क्वोल आबादी में कुछ क्वोल ऐसे भी हैं जो इस ज़हरीले टोड को नहीं खाते। तो केली और फिलिप्स ने सोचा कि क्यों न इन होशियार क्वोल का यह प्राणरक्षक गुण सभी क्वोल में पहुंचा दिया जाए ताकि वे इस ज़हरीले भोजन से बचने की क्षमता से लैस होकर अपनी रक्षा कर सकें।

अपने विचार को परखने के लिए उक्त वैज्ञानिकों ने टोड-प्रभावित क्षेत्रों से कुछ ऐसे क्वोल लिए जो ज़हरीले टोड से बचकर रहते थे। फिर वे एक टोड-मुक्त टापू से कुछ क्वोल लेकर आए और इन दो आबादियों के बीच प्रजनन होने दिया। इनकी संतानों को भोजन के रूप में उसी ज़हरीले टोड की टांगें दी गर्इं तो पता चला कि अधिकांश शिशु क्वोल टोड की टांग से दूर ही रहे।

केली और फिलिप्स का मत है कि इस प्रयोग से स्पष्ट हो जाता है कि टोड से कतराने का गुण जेनेटिक है और उसे संकरण के ज़रिए अन्य क्वोलों में भी पहुंचाया जा सकता है। अब वे बड़े पैमाने पर इस परीक्षण को प्राकृतिक परिस्थिति में करने की योजना बना रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्यों ऊंटनी के दूध से दही नहीं जमता? – कालू राम शर्मा

हाल ही में एक स्कूली बच्ची ने सवाल पूछा था कि क्या यह सही है कि ऊंटनी के दूध से दही नहीं बनता? बातचीत के दौरान यह बात भी उठी कि ऊंटनी का दूध काफी मीठा होता है इसलिए उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। सवाल पश्चिम निमाड़ के एक स्कूल की बच्ची ने पूछा था जहां राजस्थान से लाए गए ऊंट सिर्फ ठंड की शुरुआत में दिखाई देते हैं।

ऊंट शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पाया जाने वाला स्तनधारी पालतू पशु है। इसका इस्तेमाल प्राचीन काल से खेती और बोझा ढोने में किया जाता रहा है। वैसे इन इलाकों में ऊंट के मांस, बाल और खाल के अलावा ऊंटनी के दूध का इस्तेमाल भी आम है जहां ये बहुतायत से मिलते हैं। कई देशों, खासकर अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्रों के समुदायों के जीवन में ऊंट अहम भूमिका अदा करते हैं। शुष्क क्षेत्र की प्रतिकूल जलवायु के प्रति अनुकूलन के चलते ऊंटों का इस्तेमाल परिवहन में तो किया ही जाता है साथ ही जब ऊंटनी बच्चे जनती है उस दौरान इनका दूध भी मिल जाता है। ऊंटों का मांस बड़ी मात्रा में खाया जाता है। बहरहाल ऊंटनी के दूध की बात करते हैं।

यह तो हम जानते हैं कि दूध एक कोलायडल विलयन है जिसमें वसा, लेक्टोस शर्करा, कैसीन (एक प्रकार का प्रोटीन), पानी, खनिज तत्व (कैल्शियम, फास्फोरस) प्रमुख हैं।

ऊंटनी का दूध

ऊंटनी का दूध सफेद, अल्पपारदर्शक, सामान्य गंध लिए स्वाद में थोड़ा नमकीन और हल्का-सा तीखापन लिए होता है। बताया जाता है कि रेगिस्तानी इलाकों में इसके दूध का इस्तेमाल ऊंट-पालक चाय, खीर, घेवर बनाने में करते हैं। गड़रियों से यह पूछने पर कि क्या ऊंटनी का दूध जल्दी खराब हो जाता है और इसमें कीड़े पड़ जाते हैं, उन्होंने बताया कि यह सही नहीं है। राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र बीकानेर ने भी इस बात का उल्लेख किया है कि ऊंटनी का दूध 9 से 10 घंटे तक बिना उबाले रखने पर खराब नहीं होता। अगर बराबर मात्रा में पानी मिला दिया जाए तो यह 12-13 घंटे तक खराब नहीं होता।

दुनिया भर में सालाना 53 लाख टन और भारत में लगभग 21 हज़ार टन ऊंट के दूध का उत्पादन होता है। एक ऊंटनी प्रतिदिन लगभग ढाई से दस लीटर तक दूध देती है। बेहतर पोषण और प्रबंधन के चलते इसे 20 लीटर तब बढ़ाया जा सकता है।

पदार्थ गाय बकरी भेड़ उंटनी भैंस मनुष्य
पानी(ग्राम) 87.8 88.9 83.0 88.8 83.3 88.2
ऊर्जा (किलोजूल) 76 253 396 264 385 289
प्रोटीन (ग्राम) 3.2 3.1 5.4 2.0 4.1 1.3
वसा (ग्राम) 3.9 3.5 6.4 4.1 5.9 4.1
लैक्टोस (ग्राम) 4.6 4.4 5.1 4.7 5.9 7.2
कैल्सियम (मि. ग्रा.) 115 100 170 94 175 34

यह सही है कि ऊंटनी के दूध का दही आम तौर पर उन इलाकों में भी नहीं बनाया जाता जहां ऊंट का दूध आसानी से उपलब्ध होता है। बाड़मेर में स्कूली शिक्षा में कार्यरत शोभन सिंह नेगी के अनुसार ऊंटनी के दूध का इस्तेमाल दही बनाने में नहीं होता। उन्होंने बताया कि रेगिस्तानी इलाके में गाय-भैंस के दूध, दही, छांछ और घी का इस्तेमाल आम बात है। मगर ऊंटनी के दूध से दही बनाने का रिवाज़ नहीं है। कारण कि गाय-भैंस के दूध के माफिक ऊंटनी के दूध का दही नहीं जमता।

वैसे, राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र में ऊंटनी के दूध से दही तो 2002 में ही बना लिया गया था लेकिन ऊंटनी के दूध से दही पतला बनता है। इसीलिए इसे ड्रिंकिंग कर्ड कहा गया है। केंद्र के वैज्ञानिक डॉ. राघवेंद्र सिंह के अनुसार दही बनाने में दूध में मौजूद कुल ठोस पदार्थ, खनिज एवं कैसीन की माइसेलर संरचना की अहम भूमिका होती है जिसके कारण दही ठोस रूप धारण करता है।

तो पहले माइसेलर सरंचना को समझा जाए। दूध में एक प्रमुख प्रोटीन कैसीन होता है। कैसीन एक बड़ा अणु होता है और इसकी एक विशेषता होती है। इसके कुछ हिस्से पानी के संपर्क में रहने को तत्पर रहते हैं जबकि अन्य हिस्से पानी से दूर भागने की कोशिश करते हैं। इन्हें क्रमश: जलस्नेही और जलद्वैषी हिस्से कहते हैं। तो पानी में डालने पर कैसीन के अणु गेंद की तरह व्यवस्थित हो जाते हैं। इन गेंदों में जलस्नेही हिस्से बाहर की ओर (गेंद की सतह पर) और जलद्वैषी हिस्से गेंद के अंदर की ओर जमे होते हैं। दूध में कैसीन इसी रूप में पाया जाता है। इस तरह बनी सूक्ष्म गेंदों को माइसेल कहते हैं। दूध में कैसीन के ये माइसेल पानी में तैरते रहते हैं। वैज्ञानिक भाषा में कहें तो निलंबित रहते हैं। इसी के चलते अन्यथा अघुलनशील कैसीन पानी में घुला रहता है।

कैसीन माइसेल की एक और विशेषता है। इनकी सतह पर थोड़ा ऋणावेश होता है। समान आवेश एक-दूसरे को विकर्षित करते हैं। इसलिए ये माइसेल एक-दूसरे से दूर-दूर रहते हैं, आपस में चिपकते नहीं।

दही बनने की प्रक्रिया में इन केसीन माइसेल की अहम भूमिका है। केसीन के ये गेंदाकार माइसेल तापमान, अम्लीयता और दबाव के प्रति संवेदनशील होते हैं। आम तौर पर दूध से दही जमाने के लिए हम जामन का इस्तेमाल करते हैं। जामन में मौजूद बैक्टीरिया, लैक्टोस शर्करा को लैक्टिक अम्ल में बदलते हैं। जामन मिले दूध में ये बैक्टीरिया बढ़ते जाते हैं और दूध की अम्लीयता बढ़ने लगती है। अम्लीयता बढ़ने के कारण दूध खट्टा होने लगता है। इसके अलावा, अम्लीयता में यह परिवर्तन कैसीन माइसेल को प्रभावित करता है। अम्लीयता बढ़ने पर कैसीन माइसेल की बाहरी सतह का ऋणावेश कम होने लगता है। अम्लीयता का एक ऐसा स्तर आता है जब माइसेल की बाहरी सतह पर मौजूद ऋणावेश पूरी तरह समाप्त हो जाता है और माइसेल्स को एक-दूसरे से दूर रखने वाला बल समाप्त हो जाता है और ये आपस में चिपकने लगते हैं। कैसीन माइसेल्स का आपस में चिपककर ठोस रूप धारण करने को ही दही जमना कहते हैं। वैसे दूध में केसीन के माइसेल्स को इस तरह परस्पर चिपकाने के लिए पशुओं, वनस्पतियों व सूक्ष्मजीवीस्रोतों से प्राप्त विभिन्न एंज़ाइम भी कारगर होते हैं।

अब देखते हैं कि क्या कारण है कि ऊंटनी के दूध से दही नहीं बन सकता? ऊंटनी के दूध के एंज़ाइम संघटन को लेकर बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि ऊंटनी के दूध से दही तब तक नहीं बनाया जा सकता जब तक कि इसमें बकरी, भेड़ या भैंस का दूध नहीं मिलाया जाता। ज़ाहिर है कि गाय, भैंस या बकरी के दूध में ऐसा कुछ है जो दही जमने के लिए ज़िम्मेदार है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि  दि इसमें बछड़े से प्राप्त रेनेट अधिक मात्रा में मिलाया जाए तो ऊंटनी के दूध से भी दही जमाया जा सकता है। (रेनेट बछड़े के पेट में मौजूद थक्केदार दूध को कहते हैं। इसका उपयोग चीज़ बनाने में किया जाता है। इसमें रेनिन नामक एंज़ाइम काफी मात्रा में पाया जाता है।) ऊंटनी के दूध से दही जमाने के सारे अध्ययन ऐसे ही एंज़ाइमों की मदद से किए गए हैं।

एक प्रयोग में उत्तरी केन्या से ऊंटनी के दूध के 10 नमूने लेकर उनमें बाज़ार में मिलने वाले बछड़े का रेनेट पावडर मिलाया गया। देखा गया कि गाय के दूध की बनिस्बत ऊंटनी के दूध का दही जमने में दो से तीन गुना अधिक समय लगता है। ऊंटनी और गाय के दूध से दही बनने की प्रक्रिया का अध्ययन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप द्वारा भी किया गया। पता चला कि गाय और ऊंटनी दोनों के कैसीन माइसेल गोलाकार ही होते हैं। किंतु गाय के कैसीन माइसेल पूरे क्षेत्र में फैले हुए थे जबकि ऊंटनी के दूध के माइसेल अपेक्षाकृत एक ही जगह पर समूहित रूप में दिखाई देते हैं।ऊंटनी के कैसीन कण तुलनात्मक रूप से साइज़ में बड़े भी थे। दही जमते दूध के इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप में अवलोकन से पता चला कि गाय के दूध में कैसीन माइसेल्स का एकत्रीकरण लगभग 60 से 80 फीसदी तक हुआ।ऊंटनी के दूध में उतने ही समय में बहुत कम माइसेल का एकत्रीकरण दिखाई दिया। एक मत है कि माइसेल के शीघ्र एकत्रीकरण की वजह से ही गाय/भैंस के दूध से दही जम पाता है।

कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने दूध की अम्लीयता के स्तर और कैल्शियम आयनों के प्रभाव का अध्ययन भी किया। देखा गया कि ऊंटनी के दूध के अम्लीयता-स्तर और तापमान बढ़ाकर उसमें कैल्शियम आयन मिलाने पर जमने के समय में कमी तो आती है मगर अंतर फिर भी बना रहता है। कैल्शियम आयन के असर को देखते हुए यह सिफारिश की गई है कि दही जमाने के लिए ऊंटनी के दूध में कैल्शियम की अतिरिक्त मात्रा मिलाई जा सकती है। लेकिन यहां यह जोड़ना आवश्यक है कि कैल्शियम लवण मिलाने के साथ-साथ रेनेट का उपयोग तो करना ही होगा और कैल्शियम लवण भी काफी अधिक मात्रा में मिलाने पर ही वांछित परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है।

वैसे एक मत यह भी बना है कि गाय-भैंस के दूध और ऊंटनी के दूध में उपस्थित कैसीन की माइसेलर संरचना में कुछ अंतर हैं जिनकी वजह से अम्लीयता बढ़ने पर भी ऊंटनी का दूध ठोस रूप में जम नहीं पाता।

संक्षेप में, दुनिया भर की कई प्रयोगशालाओं में किए गए कई प्रयोगों के परिणामों से स्पष्ट है कि ऊंटनी के दूध से दही जमाना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर है। वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश करते रहे हैं कि क्यों ऊंटनी के दूध से दही नहीं जमता। कोई एक स्पष्ट जवाब तो नहीं मिला है किंतु प्रयोगों के आधार पर कुछ परिकल्पनाएं ज़रूर प्रस्तुत की गई हैं।

जैसे एक परिकल्पना ऊंटनी के दूध में कैसीन के माइसेल्स की संरचना पर आधारित है। जैसा कि ऊपर बताया गया था, गाय/भैंस के दूध की तुलना में ऊंटनी के दूध में कैसीन के माइसेल्स बड़े होते हैं। एक मत यह है कि जब बड़े मायसेल्स के समूहीकरण की बारी आती है तो वे आपस में उतनी निकटता से नहीं जुड़ पाते और इसलिए दही ठोस नहीं बन पाता। कुछ प्रयोगों से माइसेल की साइज़ और जमने के समय में सम्बंध देखा गया है।

एक अवलोकन यह है कि दूध में कैसीन की मात्रा का भी दही जमने की क्रिया पर असर होता है। ऊंटनी के दूध में कैसीन की मात्रा 1.9-2.3 प्रतिशत के बीच होती है जबकि गाय के दूध में 2.4-2.8 प्रतिशत। एक संभावना यह है कि कैसीन की कम मात्रा के कारण ऊंटनी के दूध से दही नहीं जम पाता।

कुछ रोचक प्रयोग इस बात को लेकर भी किए गए हैं कि दही जमने की प्रक्रिया पर इस बात का भी असर पड़ता है कि दही जमाने के लिए एंज़ाइम किस प्रजाति के प्राणि से लिए गए हैं। जैसे भेड़ से प्राप्त एंज़ाइम ऊंटनी के दूध को जमाने में ज़्यादा कारगर पाया गया, बनिस्बत गाय से प्राप्त एंज़ाइम के। इन प्रयोगों से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला तो यह है कि अलग-अलग प्रजातियों में इन एंज़ाइम की संरचना व क्रिया में अंतर होता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि ऊंटनी के दूध में कैसीन ही अलग प्रकार का होता हो या उसकी माइसेलर संरचना भिन्न होती हो।

दही जमने की क्रिया के पहले चरण में कैसीन माइसेल की सतह पर उपस्थित कैसीन के अणुओं का जल-अपघटन होता है। यह देखा गया है कि 80 प्रतिशत अणुओं का जल-अपघटन होने के बाद ही माइसेल्स के एकत्रीकरण और दही जमने की क्रिया शुरू होती है। ऊंटनी के दूध में यह स्थिति आ ही नहीं पाती। इसका कारण यह हो सकता है कि ऊंटनी के दूध में कैसीन की संरचना कुछ ऐसी है कि उनका जल-अपघटन मुश्किल से होता है।

ऊंटनी के दूध से दही जमने में समस्याएं हैं, मगर हम अभी यह नहीं जानते कि इसका ठीक-ठीक कारण क्या है। तब तक ऊंटनी के दूध के अन्य व्यंजनों का लुत्फ उठाने में क्या बुराई है? आजकल ऊंटनी के दूध से बने उत्पादों का पुष्कर और रेगिस्तानी इलाके में जोधपुर, बीकानेर में काफी चलन है। ऊंटनी के दूध से पनीर बनाया जाने लगा है। इसके दूध की चाय और आइस्क्रीम भी आकर्षण के केंद्र हैं। राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र में इस दूध से आइस्क्रीम, रबड़ी और दही भी बनाए जा रहे हैं। ऊंटनी के दूध में मुल्तानी मिट्टी और नारियल का तेल मिलाकर साबुन भी राजस्थान में मिलते हैं। विदेशी पर्यटक इनका खूब इस्तेमाल करते हैं। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि ऊंटनी का दूध डायबिटीज़ के रोगियों के लिए काफी काम का है। (स्रोत फीचर्स)

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घोड़ा फुर्र-फुर्र क्यों करता रहता है? – अरविंद गुप्ते

ह सब जानते हैं कि घोड़े समय-समय पर नाक से फुर्र-फुर्र की आवाज़ निकालते हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करते हैं इसके बारे में जानकारों की अलग-अलग राय है। कुछ लोग मानते हैं कि वे केवल अपनी नाक साफ करने के लिए ऐसा करते हैं – जैसा इंसान करते हैं। कुछ अन्य लोग मानते हैं कि यदि घोड़ा दुखी या नाराज़ हो तो वह ऐसी आवाज़ करता है। तीसरा समूह मानता है कि घोड़ा खुश होने पर फुर्र-फुर्र करता है।

हाल में फ्रांस के रेने विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया है। कुछ घोड़े हमेशा समूहों में खुले चरागाहों में रहते हैं जबकि सवारी के काम आने वाले घोड़े हमेशा संकरे अस्तबलों में अकेले रहते हैं। खुली हवा में रहने वाले घोड़े अधिक बार फुर्र-फुर्र की आवाज़ करते हैं। अध्ययन में शामिल 48 घोड़ों को अस्तबल से चारागाह में ले जाया गया और उनके फुर्र-फुर्र करने की संख्या गिनी गई। यह देखा गया कि अस्तबल की तुलना में खुली हवा में घोड़े अधिक बार फुर्र-फुर्र करते हैं। इसके विपरीत, खुली हवा में रहने वाले घोड़े अस्तबल में रखे जाने पर कम बार फुर्र-फुर्र करते थे। घोड़ों के ‘मूड’का एक अन्य लक्षण उनके कानों की स्थिति होती है। खुश होने पर उनके कान सामने की ओर झुके होते हैं।

इससे पहले एक अध्ययन घोड़ों की एक-दूसरे को पहचानने की क्षमता पर किया गया था। समूह में रहने वाले 24 घोड़ों को इस अध्ययन में शामिल किया गया। एक घोड़े के सामने से उसके अपने समूह के एक परिचित घोड़े को एक अवरोध के पीछे से निकाला गया। दस सेकंड के बाद उस घोड़े को उसी या किसी दूसरे घोड़े की हिनहिनाहट की रिकार्डिंग सुनाई गई। जब आवाज़ उस घोड़े की आवाज़ से मेल नहीं खाती थी जिसे उसने देखा था तो प्रयोग वाला घोड़ा चौंक गया और आवाज़ की दिशा में अधिक समय तक देखता रहा, मानो कह रहा हो कि मैंने इसे देखा तो था लेकिन इसकी आवाज़ को क्या हुआ? इससे यह संकेत मिलता है कि हर घोड़े की हिनहिनाहट अलग होती है और वे एक दूसरे को आवाज़ से पहचान लेते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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घोड़े आपके हावभाव को याद रखते हैं

दियों से घोड़ों का इस्तेमाल विभिन्न कार्यों के लिए किया जाता रहा है। एक समय में घोड़े लड़ाई के मैदानों और सवारी का मुख्य साधन हुआ करते थे। लेकिन घोड़ों में एक और विशेष बात है। घोड़े मानव चेहरों के हावभाव याद रख सकते हैं। वे पिछली मुलाकात में आपके व्यवहार, मुस्कराने या गुस्से, के अनुसार अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं। 

वर्ष 2016 में पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय की लीएन प्रूप्स और ससेक्स विश्वविद्यालय के उनके सहयोगियों ने बताया था कि घोड़े इंसानों के खुश या गुस्से वाले चेहरे की तस्वीरों पर अलगअलग प्रतिक्रिया देते हैं। अब उन्होंने अध्ययन किया है कि क्या घोड़े चेहरे के हावभाव के आधार पर लोगों की स्थायी यादें भी बना सकते हैं।

इस अध्ययन के लिए उन्होंने घोड़ों को दो मानव मॉडल में से एक की तस्वीर दिखाई। दोनों मॉडल एक ही व्यक्ति के थे किंतु एक के चेहरे पर गुस्से का तथा दूसरे के चेहरे पर खुशी का भाव था। कुछ घंटों बाद मॉडल खुद तटस्थ मुद्रा में घोड़ों के सामने आया। तुलना के लिए एक और प्रयोग साथ में किया गया था। इसमें दूसरी बार व्यक्ति की बजाय एक अन्य मॉडल को ही घोड़े के सामने रखा गया था।  

घोड़े नकारात्मक और खतरनाक चीज़ों को बार्इं आंख से एवं सकारात्मक सामाजिक उद्दीपन वाली चीज़ों को दार्इं आंख से देखना पसंद करते हैं। अध्ययन में, जब घोड़ों ने मॉडल को पहले गुस्से में देखा, तो उन्होंने वास्तविक व्यक्ति को देखते समय अपनी बार्इं आंख का अधिक उपयोग किया। इसके साथ ही उन्होंने फर्श को कुरेदने और सूंघने जैसे व्यवहार भी प्रदर्शित किए जो तनाव को दर्शाते हैं। इसके विपरीत, जब उनको दिखाया गया मॉडल मुस्करा रहा था तो वास्तविक व्यक्ति के सामने आने पर उन्होंने दार्इं आंख का अधिक इस्तेमाल किया। इससे पता चलता है कि घोड़ों को याद रहा कि पहली मुलाकात में उस व्यक्ति का व्यवहार कैसा था।

वैसे पहले भी घोड़ों की अद्भुत समझदारी के बारे में काफी चर्चा हुई है। बीसवीं सदी की शुरुआत में क्लेवर हैंस नाम का एक घोड़ा अपने पैरों की टाप से गणितीय समस्याओं का हल बताया करता था। बाद में पता चला था कि घोड़े को उसका प्रशिक्षक कुछ सुराग देता था कि उसे क्या करना है। वर्तमान प्रयोग में इस तरह की कोई चालबाज़ी नहीं थी।

कई अन्य जानवरों, जैसे भेड़ और मछली में मानव चेहरों को याद रखने की क्षमता पाई गई है। जंगली कौवा वर्षों तक उन लोगों का चेहरा याद रखते हैं जिन्होंने उसके साथ बुरा व्यवहार किया हो, और यहां तक वह अन्य कौवों को भी यह बात बता देता है।

इस प्रयोग से खास बात यह पता चली है कि घोड़े केवल तस्वीरों में लोगों की अभिव्यक्ति पर आधार पर राय बना सकते हैं। प्रूप्स के अनुसार यह कुछ ऐसा है जिसे पहले जानवरों में नहीं देखा गया है।(स्रोत फीचर्स)

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चूहों में खोई याददाश्त वापस लाई गई

नुष्यों की तरह चूहों में भी स्मृति लोप होता है जिसमें में वे अपने शैशव अवस्था के अनुभवों या यादों को भूल जाते हैं। हाल ही में करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार चूहों में ये अनुभव पूरी तरह से नहीं मिटते बल्कि उन तक पहुंचना मुश्किल होता है। इन्हें बहाल किया जा सकता है।

19वीं शताब्दी में सिग्मंड फ्रायड के पास कुछ ऐसे मरीज़ आए जिन्हें अपने शुरुआती सालों के अनुभव या बातें याद नहीं थीं। सिग्मंड फ्रायड ने इस बीमारी को शैशव स्मृतिलोप का नाम दिया। तब से लेकर अब तक वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि मनुष्यों, अन्य प्राइमेट्स और कृंतक जीवों में ऐसा क्यों होता है। क्या यह यादों के गड़बड़ भंडारण के कारण होता है या यादों के भंडार में से यादों को वापस ना उभार पाने के कारण होता है। टोरोंटो स्थित हॉस्पिटल ऑफ सिक चिल्ड्रन में कार्यरत मनोवैज्ञानिक पॉल फ्रेकलैंड और उनके साथियों ने चूहों पर इसे समझने की कोशिश की।

शोधकर्ताओं ने चूहों को शुरुआती अनुभव देने के लिए उन्हें एक बक्से में रखा और उनके पैर पर हल्का बिजली का झटका दिया। युवा चूहों ने इस अनुभव को याद रखा और दूसरी बार जब उन्हें बक्से में डाला गया तो वे तुरंत सहम गए। जबकि इसके विपरीत शिशु चूहे एक दिन बाद ही इस वाकये को भूल गए और बक्से में उन्होंने समान्य व्यवहार किया।

हमारे दिमाग में मौजूद हिप्पोकैम्पस का एक हिस्सा नई समृतियां सहेजने के लिए ज़िम्मेदार होता है। चूहों को झटका देने पर भी इस हिस्से की तंत्रिकाएं सक्रिय होती हैं। शोधकर्ताओं ने बिजली का झटका खा चुके चूहों में इस हिस्से की तंत्रिकाओं को सक्रिय करने के लिए लेज़र का उपयोग किया। ऐसा करने पर शिशु चूहों को भी बॉक्स का उनका अनुभव याद आ गया और वे सहम गए।

फ्रेंकलैंड और उनके सहयोगी, झटके के 15, 30 और 90 दिनों के बाद भी उन तंत्रिकाओं को सक्रिय करने में सफल रहे। चूहों को युवावस्था तक बिजली के झटके याद रहे। जब भी उन्हें बक्से में डाला जाता वे डर जाते।

इन्हीं शोधकर्ताओं ने पहले के अध्ययन में शिशुकाल की स्मृतियां ना बचने के पीछे का कारण बताया था कि वयस्क मस्तिष्क में नई स्मृति या अनुभव बनाने के लिए हिप्पोकैम्पस में नई तंत्रिकाएं बनती हैं। ये नई तंत्रिकाएं पुरानी तंत्रिकाओं की जगह ले लेती हैं। यह अध्ययन बताता है कि युवा चूहों में अपने शैशव के अनुभव की स्मृति मिटती नहीं है, पहुचं से दूर हो जाती है।

क्या इस प्रयोग के निष्कर्षों को मनुष्य पर लागू किया जा सकता है? कई वैज्ञानिकों का मत है कि मनुष्यों की स्थिति थोड़ी अलग होती है और सीधेसीधे इन परिणामों को लागू करने में सावधानी रखनी चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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मधुमक्खियां शून्य समझती हैं

तो पहले से पता था कि मधुमक्खियां चार तक गिन सकती हैं। यह क्षमता उन्हें शिकारियों पर निगाह रखने और भोजन के स्रोत तक पहुंचने के रास्ते में आने वाले चिंहों को याद रखने में मदद कर सकती है। मगर अब कुछ प्रयोगों से शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि वे शून्य का मतलब भी समझती हैं।

यह तो स्पष्ट ही है कि जंतुओं पर प्रयोग करके निष्कर्ष निकालना खासा मुश्किल काम है क्योंकि जो भी निष्कर्ष निकाला जाएगा वह मात्र उनके व्यवहार और प्रतिक्रिया को देखकर ही निकाला जाएगा। शोधकर्ताओं ने 10 मधुमक्खियां लीं और उन्हें दी गई दो संख्याओं में से छोटी संख्या को पहचानना सिखा दिया। इसके लिए किया यह गया था कि दो सफेद पर्दों पर कुछ काली आकृतियां बनाई गई थीं। यदि मधुमक्खी कम संख्या में आकृति वाले पर्दे की ओर जाती तो पुरस्कार स्वरूप उसे मीठा शरबत मिलता था और यदि वह ज़्यादा आकृतियों वाले पर्दे की ओर पहुंचती तो उसे जो पानी मिलता उसमें कुनैन घुला होता था यानी एक तरह से उसे दंडित किया जाता था।

धीरेधीरे मधुमक्खियांसहीपर्दा चुनना सीख गईं। अब असली प्रयोग शुरू हुआ। इस प्रयोग में उन्हें दो विकल्प दिए गएएक पर्दे पर कुछ आकृतियां बनी थीं जबकि दूसरे पर्दे पर कोई आकृति नहीं थी। हालांकि मधुमक्खियों ने खाली पर्दा पहले कभी नहीं देखा था मगर जब एक या एक से अधिक आकृति और शून्य आकृति वाले पर्दों के बीच चुनाव का समय आया तो उन्होंने 64  प्रति­शत मर्तबा खाली पर्दा चुना।

अपने प्रयोग का ब्यौरा साइन्स शोध पत्रिका में देते हुए मेलबोर्न के आरएमआईटी विश्वविद्यालय के स्कारलेट हॉवर्ड और उनके साथी शोधकर्ताओं ने कहा है कि इस प्रयोग से यह पता चलता है कि मधुमक्खियां समझती हैं कि कुछकी तुलना मेंकुछ नहींकम होता है। यानी वेकुछ नहींको भी एक संख्या मानती हैं, अर्थात वे शून्य की अवधारणा जानती हैं।

इसी प्रयोग को एक अलग ढंग से भी किया गया था। कुछ मधुमक्खियों को अधिक संख्या में आकृति वाला पर्दा चुनने पर पुरस्कृत किया जाता था। बाद में उपरोक्तानुसारशून्यवाले प्रयोग में इन्होंने ज़्यादा बारी खाली पर्दे की बजाय एक या अधिक आकृतियों वाले पर्दे को चुना।

आम तौर पर माना जाता है कि शून्य की समझ ज़्यादा विकसित जंतुओं में ही होती है मगर उक्त प्रयोग से लगता है कि यह क्षमता जंतु जगत में व्यापक रूप से विद्यमान है। (स्रोत फीचर्स)

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फोटो क्रेडिट : Gephardt Daily

सबसे बड़ा उभयचर विलुप्ति की कगार पर

क नए अध्ययन के अनुसार विश्व के सबसे बड़े उभयचर – चीनी विशाल सेलेमैंडर (Andrias davidianus), को वास्तव में पांच प्रजातियों में बांटा जाना चाहिए। यानी यह एक प्रजाति नहीं है बल्कि पांच प्रजातियां हैं। और पांचों प्रजातियां खतरे में हैं। और तो और, अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि संरक्षण के वर्तमान तौर-तरीके इन अलग-अलग प्रजातियों को एक-दूसरे के साथ प्रजनन करवाकर उन्हें प्रभावी रूप से एक ही प्रजाति में परिवर्तित कर रहे हैं।

एक समय में दक्षिण-पूर्वी चीन की नदियों में बहुतायत से पाए जाने वाले ये सेलेमैंडर 2 मीटर तक लंबे होते हैं। लेकिन आज लक्ज़री व्यंजन के लिए बढ़ती मांग के चलते इन्हें अधिकाधिक संख्या में व्यावसायिक फार्मों में पाला जा रहा है। प्राकृतिक आबादी को बढ़ाने के लिए चीनी सरकार ने फार्म में पले इन सेलेमैंडर को नदियों में छोड़ने के लिए प्रोत्साहन दे रही है। लेकिन यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है कि क्या अब यह जीव आनुवंशिक रूप से कुदरती सेलेमैंडर के समान है।

इस प्रश्न के जवाब की तलाश में, वैज्ञानिकों ने 70 कुदरती और 1034 फार्म सेलेमैंडर के डीएनए का विश्लेषण किया। इस विश्लेषण के आधार पर टीम ने पाया कि जंगली सेलेमैंडर को कम से कम पांच प्रजातियों में बांटा जा सकता है। ये पांच प्रजातियां एक दूसरे से लगभग 50 लाख से 1 करोड़ वर्ष पूर्व अलग-अलग हो गई होंगी। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार फार्म में पाले जाने वाले सेलेमैंडर में व्यापक जेनेटिक घालमेल पाया गया। इससे यह मालूम चलता है कि फ़ार्म में पले जीवों को नदियों में छोड़ने से आनुवंशिक खिचड़ी पैदा होने की आशंका है। ऐसा हुआ तो स्थानीय सेलेमैंडर अन्य सेलेमैंडर्स, जिनमें अन्य प्रजातियों का जेनेटिक पदार्थ होगा, के साथ संकरण के चलते विलुप्त हो सकती हैं।

इसका एक अर्थ यह भी है कि यदि जंगली आबादी विलुप्त हो जाती है, तो दुनिया से विशाल सेलेमैंडर की एक नहीं बल्कि सभी पांच प्रजातियां नदारद हो जाएंगी। जो सेलेमैंडर्स फार्म में बचेंगे वे तो इन पांच प्रजातियों की मिली-जुली खिचड़ी होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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चींटियां भी पशु पालन करती हैं – डॉ. अरविंद गुप्ते

चींटियां और पशुपालन? बात कुछ अटपटी लगती है, किंतु चींटियों के पालतू पशु चार टांगों और दो सींगों वाले नहीं होते जिन्हें इंसान पालते हैं। उनके पालतू जंतु चींटियों के समान ही कीट होते हैं जिनकी छह टांगें होती हैं और सिर के आगे एक नुकीली सूंड होती है जिसकी सहायता से वे पौधों का रस चूसते हैं। खटमल कुल के ये कीट बहुत सूक्ष्म होते हैं। इन्हें माहू (अंग्रेज़ी में एफिड) कहते हैं।

वैसे तो माहू की लगभग 5000 प्रजातियां पूरे संसार में पाई जाती हैं, किंतु समशीतोष्ण प्रदेशों में ये खूब पनपते हैं। इनका आकार इतना छोटा और वज़न इतना कम होता है कि हवा इन्हें उड़ा कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती है। मादा माहू के पंख होते हैं और वे अपने बलबूते पर एक स्थान से दूसरे स्थान तक उड़कर जा सकती हैं। माहू की कुछ प्रजातियों का जीवन चक्र पौधों की दो अलग-अलग प्रजातियों पर पूरा होता है तो कुछ प्रजातियां एक ही प्रजाति के पौधों पर ज़िंदगी गुज़ार देती हैं। कुछ अन्य प्रजातियों की पोषक पौधे को लेकर कोई विशेष पसंद नहीं होती और वे किसी भी प्रजाति के पौधे का रस चूस सकती हैं।

माहू फसलों, जंगल के वृक्षों और बगीचों में लगे पौधों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वे पौधों का रस चूसकर उन्हें कमज़ोर कर देते हैं। दूसरे, माहू पौधों में कई प्रकार के वायरस को फैलाने का काम करते हैं जो रोगों का कारण बनते हैं। इसके अलावा माहू अपने मलद्वार से मधुरस नामक एक तरल, चिपचिपा पदार्थ रुाावित करते हैं जो मीठा होता है। पौधों पर पड़े इस मधुरस पर काले रंग की एक फफूंद उग जाती है जिसके कारण सजावटी पौधों की सुंदरता नष्ट हो जाती है।

माहू का नियंत्रण काफी मुश्किल होता है क्योंकि ये कई प्रकार के कीटनाशकों के प्रतिरोधी बन चुके हैं। इसके अलावा, ये अधिकतर पत्तियों की निचली सतह पर चिपके रहते हैं जहां कीटनाशक के फव्वारे नहीं पहुंच पाते। कई अन्य कीट और कीटों के लार्वा माहू का शिकार करते हैं।

चींटियों और माहू में परस्पर लाभ का रिश्ता होता है। चींटियों को माहू के शरीर से निकलने वाला मधुरस बहुत पसंद होता है। अत: जिस पौधे पर माहू अधिक होते हैं वहां चींटियों की आवाजाही होती रहती है। चींटियां अपने स्पर्शकों (एन्टेना) से माहू के शरीर को थपथपाती हैं। ऐसा करने पर माहू अपने मलद्वार से मधुरस का स्राव करने लगता है और चींटी को स्वादिष्ट पेय मिल जाता है। कुछ मधुमक्खियां माहुओं के मधुरस से शहद बनाती हैं। चींटियां माहुओं को खाने वाले अन्य कीटों को उस पौधे पर से भगाती हैं और इस प्रकार माहू को सुरक्षा प्रदान करती हैं।

कुछ चींटियां माहू के अंडों को जाड़े के दिनों में अपनी बाम्बी में ला कर रख लेती हैं और ठंडा मौसम समाप्त होने पर अंडों में से निकली इल्लियों को वापस पौधों पर छोड़ देती हैं। कुछ पशुपालक चीटियां इससे एक कदम आगे बढ जाती हैं। वे अपनी बाम्बी में माहू के झुंड पालती हैं (ठीक उसी तरह जैसे पशुपालक पशुओं को पालते हैं)। ये माहू बाम्बी में ही रहते हैं और बाम्बी के अंदर फैली हुई पौधों की जड़ों का रस चूसते हैं। इस प्रकार चींटियों को अपने घर में ही मधुरस की मधुशाला मिल जाती है।

जब कोई मादा चींटी अपनी बाम्बी छोड़ कर दूसरी बाम्बी बसाने के लिए निकलती है तब वह माहू के अंडे साथ ले जाती है ताकि नई बसाहट में माहू के झुंड की शुरुआत हो सके।

पशुपालन की इस कहानी में एक रोचक मोड़ तब आता है जब कुछ ठग किस्म के कीट बाम्बी में घुसपैठ करते हैं। कुछ विशेष प्रजातियों की तितलियां उन पौधों पर अंडे दे देती हैं जहां चींटियां माहुओं को पाल रही होती हैं। इन अंडों से निकलने वाली इल्लियां एक प्रकार का रसायन छोड़ती हैं जिसके कारण चींटियां उन्हें भी अपनी ही तरह की चींटियां समझने लगती हैं और उन पर हमला नहीं करतीं। ये इल्लियां चींटियों के पालतू माहुओं को खाती रहती हैं। इल्लियों को चींटी समझकर वयस्क चींटियां इन इल्लियों को अपनी बाम्बी में ले जाती हैं और उनके लिए भोजन जुटाती हैं। इसके बदले में इल्लियां चींटियों के लिए मधुरस का उत्पादन करती हैं। जब इल्लियों की आयु पूरी हो जाती है तब वे शंखी में बदल जाती हैं। शंखी बनने से पहले इल्लियां रेंगकर बाम्बी के दरवाज़े पर पहुंच जाती हैं और वहां निष्क्रिय शंखी में बदल जाती हैं। दो सप्ताह के बाद शंखी फट जाती है और तितली उस में से निकल जाती है। अब चींटियों को पता चल जाता है कि उन्हें किस प्रकार ठगा गया और वे तितलियों पर हमला कर देती हैं। किंतु चींटियां डाल-डाल तो तितलियां पात-पात। उनके पंखों पर एक चिपचिपा पदार्थ लगा होता है जिसके कारण चींटियों के जबड़े काम नहीं कर पाते और तितलियां सुरक्षित रूप से उड़ जाती हैं।

कुछ माहू भी चींटियों के साथ धोखाधड़ी करने से बाज नहीं आते। एक प्रजाति के माहू के दो रूप होते हैं – एक गोल और एक चपटा। गोल रूप के माहुओं को चींटियां उसी प्रकार पालती हैं जैसे वे अन्य प्रजातियों के माहुओं को पालती हैं। किंतु चपटे वाले माहू धोखेबाज़ होते हैं। इनकी त्वचा में उसी प्रकार के रसायन होते हैं जैसे चींटियों की त्वचा में होते हैं। इसके फलस्वरूप चींटियां इन्हें अपनी ही इल्लियां समझ कर बाम्बी में लाकर परवरिश करती हैं। किंतु ये चालाक माहू वास्तविक इल्लियों से शरीर के द्रव चूस लेते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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अंडे के छिलके की महत्वपूर्ण भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मुर्गी का अंडा और उसका छिलका वैज्ञानिकों के विभिन्न समूहों के लिए शोध का विषय रहा है। आम तौर पर एक मुर्गी प्रति वर्ष 300 अंडे देती है, अंडे और उसके छिलके को पूरी तरह से बनने में 25-26 घंटों यानी करीब एक दिन का समय लगता है। अंडा देने के बाद उसे सेने में लगभग 21 दिन का समय लगता है। कनाडा के वैन्कूवर ब्रिाटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के डॉ. मार्विन ए. टुंग्स ने 1967 में अपनी पीएच.डी. थीसिस में मुर्गी के अंडे के भौतिक, रासायनिक और पदार्थ सम्बंधी गुणधर्मों के बारे में बताया था। उन्होंने बताया था कि अंडे को खड़ा रखा जाए तो उस पर 4 किलोग्राम तक भार रखा जा सकता है और अंडे को टूटने से बचाने में उसके छिलके की कठोरता सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मुर्गी के एक अंडे का वज़न 60 ग्राम के लगभग होता है और छिलके में लगभग 6 ग्राम खनिज होता है जो उसे कठोरता प्रदान करता है।

लगभग 200 वर्ष पूर्व, जर्मन खनिज वैज्ञानिक फ्रेडरिक मो ने सामग्रियों की कठोरता का अनुमान लगाने के लिए एक मानक पैमाना तैयार किया था। हीरे को इस पैमाने पर 10 अंकों पर रखा गया है, कीमती पत्थर पुखराज को 8, क्वार्ट्ज़ को 7 और एपेटाइट खनिज पत्थर (कैल्शियम फास्फेट) को 5 अंक पर रखा गया है। इस पैमाने पर हमारे दांतों के एनेमल की कठोरता 5 है, क्योंकि यह मूलत: हाइड्रॉक्सी-एपेटाइट से बना होता है। इस प्रकार यह हमारे शरीर का सबसे कठोर खनिजीकृत ऊतक है। इस पैमाने पर उंगलियों के नाखून की कठोरता केवल 2.5 है जबकि कैल्साइट (कैल्शियम कार्बोनेट) अधिक कठोर है जो मो पैमाने पर 3 है। मुर्गी के अंडे के छिलके में कैल्साइट होता है और यह अंडे को टूटने से बचाता है। लेकिन फिर कैसे चूज़ा बड़ी आसानी से अपनी चोंच से अंडे के छिलके को तोड़कर बाहर आ पाता है?

इस पहेली का जवाब खोज निकाला है क्यूबेक (कनाडा) के मैकगिल विश्वविद्यालय में दंत चिकित्सा, शारीरिकी और कोशिका जीव विज्ञान के प्रोफेसर मार्क मैकी की टीम ने। उनका यह जवाब साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। मेकी की टीम ने अंडे के छिलके की बारीक संरचना निर्धारित करने के लिए इसी विश्वविद्यालय में खनन व पदार्थ विभाग के रिचर्ड क्रोमिक और कनाडा, स्पेन, जर्मनी और यूएस के अन्य वैज्ञानिकों के साथ सहयोग किया। छिलके की मोटाई 0.36 मि.मी. होती है, लेकिन इसमें कई उप-परतें होती हैं और प्रत्येक का प्रोटीन संघटन और संरचना अलग-अलग होती है।

अंडे के छिलके की संरचना, संघटन और खनिज तत्व का विस्तृत अध्ययन फ्रांस, जर्मनी, स्पेन और कनाडा के सहयोगियों के साथ मिलकर कनाडा के ओटावा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मैक्सवेल हिन्के के नेतृत्व में एक अंतर्राष्ट्रीय समूह पहले ही कर चुका था। उनके अलावा अन्य शोधकर्ताओं के कार्य से अंडे के छिलके में 500 प्रोटीन्स की पहचान की गई है। और उन्होंने विशेष रूप से प्रमुख प्रोटीन ओवोक्लेडिन और ओवोकेलिक्सिन की पहचान की है। और एक तीसरा है जिसे ओस्टियोपोन्टिन कहते हैं।

इस प्रकार छिलका एक जटिल मिश्रित पदार्थ है जिसमें खनिजों का सम्मिश्रण होता है (जिसमें वज़न के हिसाब से कैल्साइट 96 प्रतिशत होता है)। शेष 4 प्रतिशत अन्य अल्पमात्रिक तत्वों और तथाकथित मैट्रिक्स प्रोटीन्स से बना होता है। सहस्त्राब्दियों से, डायनासौर के समय से और यहां तक कि जब समुद्री जीव स्थलीय जीवों के रूप में विकसित हो रहे थे उसके पहले से, छिलके में निरंतर सुधार होता रहा है। कैल्साइट क्रिस्टल में सतह पर धनात्मक आवेशित कैल्शियम ऋणात्मक आवेश वाले मैट्रिक्स प्रोटीन से जुड़ जाते हैं। ये सब मिलकर क्रियात्मक संश्लिष्ट जैव-खनिज बनाते हैं।

शोधकर्ताओं ने अंडे के छिलके की एक पतली कटान काटकर देखा तो उन्हें उसकी पांच उप-परतें मिलीं। उन्होंने प्रत्येक परत का अवलोकन उन्नत सूक्ष्मदर्शी तकनीकों से किया और कठोरता के परीक्षण भी किए। उन्होंने खोजा कि बहुत ही पतली कटानों में भी जैव-खनिज की एक नैनो-स्तर की संरचना थी। नैनो संरचना अंडे के सबसे बाहरी छिलके में सबसे सूक्ष्म (30 नैनोमीटर) से लेकर सबसे अंदर की परत में 68 नैनोमीटर तक मोटी थी। ये सारी परतें अंडे को सटकर घेरे रहती हैं जहां चूज़े की वृद्धि और विकास होता है। सबसे आंतरिक पर्त को मैमिलरी परत कहते हैं। यह बहुत ही मुलायम होती है और इसकी नैनोसंरचना चूज़े के विकास में कंकाल-निर्माण हेतु कैल्शियम की ज़रूरत को पूरा करती है। इस प्रकार छिलका न केवल बढ़ते चूज़े की रक्षा करता है बल्कि ज़रूरी कैल्शियम भी प्रदान करता है। छिलके का इस तरह घुल-घुलकर पतला होते जाना चूज़े को अंडे का छिलका तोड़कर बाहरी दुनिया में आने में मदद करता है।

करीब 50 साल पहले, जापानी वैज्ञानिकों की एक टीम ने अंडे में चूज़े के संपूर्ण विकास की एक फिल्म तैयार की थी। इसमें दिखाया गया था कि 21 दिनों के विकास में प्रतिदिन क्या-क्या होता है और अंडे में चूज़ा कैसे बनता है और बाहर कैसे आता है। दुख की बात है कि अब यह फिल्म आसानी से उपलब्ध नहीं है। अलबत्ता, ऑस्ट्रेलिया में पौल्ट्री हब द्वारा बनाई गई एक छोटी फिल्म (2 मिनिट) ‘चिकन एम्ब्रियो डेवलपमेंट’ यूट्यूब पर उपलब्ध है। यह फिल्म देखने लायक है। इसे देखकर पता चलता है कि जैव-विकास ने कैसे यह सुनिश्चित किया है कि अंडे के अंदर नई पीढ़ी की शुरुआत, वृद्धि और विकास सुरक्षित ढंग से हो पाएं। अंडे के छिलके की प्रत्येक परत की बारीक समझ के साथ, हमारे पास इस उल्लेखनीय सुरक्षात्मक संरचना की बेहतर समझ है जिसके भीतर एक नया जीवन जन्म लेता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

 

 

प्रयोगशाला मे अंग निर्माण संभव है – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पिछले कुछ समय से प्रशासन एवं सामाजिक संगठनों के जागरूकता अभियानों के चलते कॉर्निया और त्वचा के दान में काफी वृद्धि हुई है। ब्रेन डेड व्यक्ति के महत्वपूर्ण अंगों जैसे हृदय, गुर्दे, लीवर को मरीज़ों के परिजनों की सहमति से निकालकर, ज़रूरतमंदों को दान देने की अनूठी पहल ने कई लोगों को जीवन दान दिया है।

भारत में प्रत्यारोपण के लिए अंगों की मांग और उपलब्धता के बीच बहुत बड़ी खाई है। प्रति वर्ष देश में करीब 5 लाख लोग अंगों की अनुपलब्धता की वजह से मर जाते हैं। उपरोक्त निराशाजनक आंकड़े न केवल अंगदान करने के लिए समाज में जनचेतना के महत्व को रेखांकित करते हैं अपितु शोध द्वारा प्रयोगशाला में अंग-निर्माण की कल्पना को साकार करने के लिए भी प्रेरित करते हैं।

विश्व के कुछ चुनिंदा वैज्ञानिक 1996 से ही प्रयोगशाला में मानव अंगों के निर्माण का सपना बुनने लगे थे। स्कॉटलैंड स्थित रोसलिन इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिकों को वयस्क कोशिकाओं की सहायता से डॉली नामक भेड़ को क्लोन करने में सफलता प्राप्त हुई थी। उन्होंने अनिषेचित अंडे का केंद्रक हटाकर दूसरी भेड़ की सामान्य कोशिका का केंद्रक उस अंडे में डाला और एक भेड़ (डॉली) को जन्म दिया। डॉली के जन्म के बाद से ही मानव क्लोन और मानव अंग निर्माण जैसे विषयों पर कई वैज्ञानिक उत्साहित हैं तो कई समूह इस प्रकार के प्रयोगों की नैतिकता से जुड़े प्रश्न भी उठाने लगे हैं।

वैज्ञानिक शोध तथा खोज कदम-दर-कदम आगे बढ़ने वाली धीमी किंतु निरंतर प्रक्रिया है। 1996 में देखे गए स्वप्न निश्चित ही अभी पूरे नहीं हुए हैं परंतु वैज्ञानिक शोधों ने कई मील के पत्थर पार किए हैं।

विश्व भर के वैज्ञानिक तीन तरीकों से मानव अंग बनाने के लिए प्रयासरत हैं – पहला आर्गेनॉइड बैंक द्वारा; दूसरा, मानव कोशिका या पालतू पशुओं में संवर्धन के द्वारा; और तीसरा, 3D प्रिंटर की सहायता से अंगों का निर्माण करके।

आर्गेनॉइड बैंक

1900 के प्रारंभ में ही भ्रूण वैज्ञानिक जान चुके थे कि पानी में रहने वाले अल्प विकसित पोरीफेरा (स्पंज) वर्ग के जीवों के शरीर की कोशिकाओं को अलग कर दिया जाए तो कुछ ही समय में ये कोशिकाएं आपस में जुड़कर पूरे स्पंज का निर्माण कर लेती हैं। स्टार फिश की भुजाएं, प्लेनेरिया के शरीर के भाग और छिपकली की पूंछ के पुनर्निर्माण की क्षमता के उदाहरण वैज्ञानिकों को मानव अंग बनाने के लिए प्रेरित करते रहे हैं।

सन 2008 में जापानी वैज्ञानिकों ने बताया कि उन्होंने मानव भ्रूण की स्टेम कोशिका को प्रेरित कर कई परतों वाले सेरेब्राल कॉर्टेक्स (मस्तिष्क का एक भाग) बनाने में सफतता प्राप्त कर ली है। तब से ही स्टेम कोशिकाओं से अंग विकसित करने के प्रयासों को पंख लग गए हैं।

2011 की एक सुबह मेडलीन लेन्केस्टर ने सामान्य सुबह की तरह प्रयोगशाला में अपनी कल्चर प्लेट्स का निरीक्षण करते हुए प्रारंभ की थी। कई सप्ताह से वे मानव के भ्रूण की स्टेम कोशिका से तंत्रिकागुच्छ प्राप्त करना चाह रही थीं। तंत्रिकागुच्छ विभिन्न प्रकार की तंत्रिका कोशिकाओं का समूह होता है जो आगे चलकर तंत्रिकाओं का निर्माण करती हैं। अज्ञात कारणों से तंत्रिका कोशिकाएं कल्चर प्लेट की सतह से चिपकने की बजाय दूधिया रंग की छोटी गेंदों के रूप में दिख रही थीं। अनेक गेंदों में से एक अन्य से अलग तथा गहरे रंग की दिख रही थी। जब इसे सूक्ष्मदर्शी में देखा तो उनकी आंखें फटी की फटी रह गर्इं। भ्रूण के प्रारंभिक मस्तिष्क में ये गहरे रंग की कोशिकाएं  रेटिना (आंख का एक हिस्सा) बना रही थीं। रासायनिक संकेत, वृद्धि कारकों के नियत समय पर उपयोग करके विश्व की कुछ प्रयोगशालाएं आंख, लीवर, किडनी, अग्न्याशय, आमाशय, फेफड़े, स्तन तथा प्रोस्टेट जैसी रचना वाले त्रि-आयामी ऊतक बनाने में सफल रही हैं। ऊतक के इन छोटे समूहों को अंगाभ (ऑर्गेनॉइड) कहते हैं। पूर्ण रूप से विकसित वास्तविक अंगों की संरचना एवं कार्यों की नकल करने वाले ये ऊतक अपूर्ण तथा अल्प-विकसित अंग ही होते हैं। इन अंगाभों का इस्तेमाल उस अंग की बीमारियों का मॉडल बनाने में किया जा सकता है जिससे बीमारी को समझने में मदद मिलती है।

फिलहाल ऑर्गेनाइड पूर्ण मानव अंगों जैसे तो नहीं है और शोधकर्ता इन्हें परिष्कृत करने में जुटे हुए हैं ताकि अधिक जटिल, परिपक्व और संपूर्ण अंग बना सकें। महत्वपूर्ण बात यह समझना है कि कोशिकाओं को वह कौन-सा उद्दीपन (संकेत) चाहिए कि वे आपस में जुड़कर मस्तिष्क बना सकें। कोशिकाओं की स्वयं संगठित होने की कुदरती खूबी के कारण ही अंगों का निर्माण होता है।

कोशिकाओं की इसी खूबी के चलते जापानी वैज्ञानिक सासाई ने सेरेब्राल कॉर्टेक्स बनने के बाद प्रारंभिक ऑप्टिक लोब और पियूष ग्रंथि बनाने में भी सफलता प्राप्त की है। 2007 में क्लेवर्स और साथियों ने पाया कि आंत की स्टेम कोशिकाओं में विभाजन करने और पुरानी कोशिका के बदले नई कोशिका बनाने की असीमित क्षमता होती है। स्टेम कोशिकाएं प्राय: शरीर के भीतर त्रि-आयामी जगह में बेहतर कार्य कर पाती है किंतु कांच की प्लेट में सपाट माध्यम में वे अपने संरचनात्मक लक्षण और कार्य भूल जाती हैं। क्लेवर्स और साथियों ने स्टेम कोशिकाओ को एक तरल माध्यम में कल्चर करने का प्रयास किया। आंत की स्टेम कोशिकाओं को जेल में बिलकुल वैसा ही वातावरण मिला जैसा शरीर में में होता है। कुछ ही समय में विभाजित और विभेदित कोशिकाओं की खोखली गेंद बनती दिखने लगी। इसके भीतर की सतह पर आंत के समान ही भोजन को सोखने के लिए झालर भी दिखाई दी। यह वास्तविक आंत का ही एक छोटा रूप था। इस प्रकार विकसित आंत-अंगाभ भविष्य में आंत की बीमारियों से लड़ने का प्रभावी उपाय रहेगा।

उदाहरण के लिए एक आनुवंशिक बीमारी ‘सिस्टिक फाइब्रोसिस’ में कोशिका में ऐसे विकार पैदा हो जाते हैं कि फेफड़ों तथा आंत के अस्तर में पानी का प्रवाह बाधित हो जाता है। इसके कारगर इलाज के लिए गुदा के भीतरी अस्तर से कोशिकाएं निकालकर अंगाभ बनाकर उपयोग किए जाते हैं।

आंत-अंगाभ के समान अब कैंसर उपचार के लिए लीवर-अंगाभ भी उपलब्ध हैं। क्लेवर्स ने अंगाभ बनाने में वयस्क स्टेम कोशिकाओं का उपयोग किया किंतु एक और वैज्ञानिक वेल्स ने भ्रूणीय स्टेम कोशिका का उपयोग करते हुए आमाशय व अन्य छोटे अंगों के अंगाभ बनाए हैं। वेल्स व उनके साथियों ने प्रयोगों के लंबे अनुभव से उन रसायनों का पता लगा लिया है जिनसे भ्रूणीय स्टेम कोशिका से अंगाभ बनाए जा सकते हैं।

दस वर्षों के अथक प्रयास से  2013 में मेलिस्सा ने सही वृद्धि कारकों का पता लगाकर गुर्दा विकसित कर लिया जिनमें खून को छानकर मूत्र एकत्रित करने वाली रचनाएं बनाने वाली कोशिकाएं भी थीं। अनेक प्रयोगों के बाद वैज्ञानिक टेबेके ने छ: सप्ताह के भ्रूण के समान लीवर कलिका का निर्माण करने में सफलता प्राप्त की। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि यदि ‘लीवर ऑर्गेनाइड’ को चूहे के अक्रियाशील लीवर में पहुंचा दिया जाए तो वे लीवर कोशिकाओं का सामान्य कार्य करने में सक्षम हो जाती हैं। चूहों पर किए गए इन प्रयोगों से मानव परीक्षण में भी सफलता की उम्मीदें बंधी है। वैज्ञानिकों का दीर्घकालिक लक्ष्य अभी भी यही है कि अंगाभ वास्तविक मानव अंग के कार्यो की नकल करने में सक्षम हो जाएं।

पालतू पशुओं में संवर्धन

बेलेमोंटे के जुआन कार्लोस लम्बे समय से मेंढक, मछली तथा सेलेमेण्डर में क्षतिग्रस्त अंगों को फिर से बनाने की क्षमता के कायल हैं। इस अद्भुत क्षमता से प्रभावित होकर उन्होंने खोए भाग को पुन: बनाने की प्रक्रिया को समझने में दशकों खपा दिए हैं। अब उन्होंने अपना पूरा ध्यान गाय, भेड़, बकरी तथा सूअर जैसे पालतू पशुओं पर केंद्रित किया है। वे मानव ऊतकों को पशुओं के भ्रूण में विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि ह्मदय, किडनी, लीवर जैसे मानव अंगों को पालतू पशुओं के भीतर विकसित करके प्रत्यारोपण के लिए अंगदान की कमी को पूरा किया जाए।

स्टेम कोशिकाओं को शरीर के बाहर तश्तरी में विकसित करने की प्रक्रिया में कठिनाइयां आती हैं क्योंकि कोशिकाएं शरीर के बाहर परिवर्तित वातावरण में असहज हो जाती हैं और वयस्क कोशिकाओं में विकसित न होकर ऑर्गेनाइड्स बनाती हैं। अगर मानव स्टेम कोशिआओं का पशुओं के साथ सामंजस्य बैठा सके तो मानव अंग बनाए जा सकेंगे।

यह विज्ञान की काल्पनिक कथा जैसा लगेगा पर वर्जीनिया की एक कम्पनी ने ‘गालसेफ’ नामक सूअर तैयार किए हैं जो मनुष्य से समानता रखते हैं। कंपनी ने मानव में सामान्य सूअर के अंग को अस्वीकार करने को उकसाने वाले एक महत्वपूर्ण जीन, अल्फा-गाल को काबू में कर लिया है। साथ ही, उन्होंने सूअर के लीवर, किडनी और हार्ट में पांच मानव जीन जोड़ दिए हैं। वैज्ञानिक आशांवित हैं कि इस सूअर के अंग मानव में प्रत्यारोपित किए जा सकेंगे।

मानवेतर अंग या कोशिकाओं का मानव शरीर में प्रत्यारोपण ज़ेनोट्रांसप्लांट कहलाता है। वैज्ञानिकों ने आनुवंशिक रूप से परिवर्तित सूअर के हृदय को बैबून में प्रत्यारोपित कर दिया। बैबून के शरीर में यह हृदय 945 दिनों तक जीवित रहा। गौरतलब है कि बैबून मानव से 90 प्रतिशत समानता रखते हैं।

भारत में 22 लाख लोग गुर्दा प्रत्यारोपण और 1 लाख लोग लीवर प्रत्यारोपण का इंतजार कर रहे हैं मगर गुर्दा मात्र 15,000 को और लीवर 1000 लोगों को ही मिल पाता है। शायद जीन परिवर्तित जानवरों के अंगों को मानव में प्रत्यारोपण के उपयुक्त बनाने में वैज्ञानिकों को कुछ और समय लगेगा। यह कितना नैतिक है? प्रत्यारोपण से क्या उन्हें होने वाले रोग मानव में आ जाएंगे?

अंगों का 3D प्रिटिंग

क्या यह संभव है कि हम स्वयं की कोशिका से, शरीर के बाहर अंग का निर्माण करने का प्रयास करें और फिर उन अंगों को आवश्यकतानुसार शरीर में प्रत्यारोपित कर दें। मान लीजिए कि एक व्यक्ति की दोनों किडनी काम नहीं कर रहीं हैं और उसे सप्ताह में दो बार डायलिसिस कराना पड़ता है। क्या यह संभव है कि शरीर के बाहर उस व्यक्ति की स्टेम कोशिकाओं को किडनी बनाने के लिए प्रेरित किया जाए और नई किडनी बनते ही उसे प्रत्यारोपित कर दिया जाए?

3D प्रिटिंग में उपयुक्त पदार्थ की कई परतें सही आकार में एक के ऊपर बिछाकर वस्तु बनाई जा सकती है। उदाहरण के लिए यदि आप एक छोटा ताजमहल बनाना चाहते हैं तो 3D प्रिटिंग मशीन यह काम बखूबी पूरी नक्काशी के साथ पूरा कर देगी। आप को केवल ताजमहल का एक डिजिटल त्रि-आयामी मॉडल चाहिए और वह पदार्थ जिसका उपयोग आप ताजमहल बनाने में करना चाहते हैं। 3D प्रिटिंग में स्याही की बजाय ताजमहल बनाने के लिए उपयुक्त मिश्रण का पतला घोल एक पतली नली या पाइप के मुंह से निकलेगा और त्रि-आयामी आकृति के अनुसार एक के ऊपर एक कई परतें बिछाकर पूरा ताजमहल बना देगा। 3D प्रिटिंग का सबसे पहले उपयोग 1980 में हुआ था। परंतु 2009 में कुछ पेटेंट समस्या से मुक्त होने के बाद अब यह सार्वजनिक उपयोग के लिए प्रयुक्त होने लगा है।

जिस प्रिंटर का उपयोग मानव अंग बनाने में किया जा सकता है उसे 3D बायो प्रिंटर कहते हैं। मानव अंगों के निर्माण के लिए इंक की जगह जीवित कोशिकाएं सामान्य रूप से एक जेली में मिलाकर अंग के सांचे पर डाली जाती हैं। एक के बाद एक परत डाल कर अंग के सांचे का निर्माण किया जाता है। सांचा जैव-विघटनशील जेली या जैविक पदार्थ से बना होता है। चूंकि प्रिटिंग के समय तथा पूरा सांचा या संरचना बनने तक कोशिकाओं को जीवित रखना बेहद ज़रूरी है इसलिए शरीर के समान वातावरण, वृद्धिकारक और ऑक्सीजन भी जेली में होते हैं। सांचे पर कोशिका की परत बनते ही उसे इनक्यूबेटर में रखा जाता है। धीरे-धीरे अंग का निर्माण करनें वाली कोशिकाएं फैलकर पूरे सांचे को ढंक लेती है तथा अंग का सामान्य कार्य प्रारंभ कर देती है। सांचा धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है और वास्तविक अंग बचा रह जाता है। उपरोक्त तकनीक का उपयोग कर अब लीवर, हार्ट, किडनी जैसी बहुत सी जटिल संरचनाएं बनाना संभव हो गया है। लीवर बनाने के लिए उसी मनुष्य के लीवर का कुछ हिस्सा काट कर अलग कर लिया जाता है। कटे हुए टुकड़े से कोशिकाओं को पृथक कर एक सांचे पर डालने से लीवर बन जाता है।

कुछ ही दशकों में इस प्रकार की तकनीक से बहुत बड़ा परिवर्तन आने की संभावना है। आपके शरीर पर कौन-सी दवा कारगर है, यह देखने के लिए ऐसी कोशिका या अंग का उपयोग किया जा सकता है। नई दवा को चुनने या  खोजने में लगने वाले कई वर्षों का समय और पैसा बचाया जा सकता है। लगता तो है कि कुछ ही वर्षों में हम अपने पुराने या खराब हो चुके अंग को भी बदल पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : Proto3000