हर साल विज्ञान की दुनिया में नई—नई खोजें मानव सभ्यता को उत्कृष्ट बनाती हैं। साल 2021 भी इससे कुछ अलग नहीं रहा है। यहां 2021 में हुई कुछ ऐसे ही वैज्ञानिक खोजों की झलकियां प्रस्तुत की जा रही हैं, जो स्वास्थ्य, अंतरिक्ष, खगोलविज्ञान जैसे विषयों से जुड़ी हुई हैं।
अंतरिक्ष में नई दूरबीन
हाल ही में नासा से जुड़े वैज्ञानिकों ने कनाडा तथा युरोपीय संघ की मदद से एक अत्यंत शक्तिशाली अंतरिक्ष दूरबीन लॉन्च की है। नाम है जेम्स वेब। उम्मीद जताई जा रही है अपने 5-10 साल के जीवन में यह ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्य उजागर करने में मददगार होगी ।
पृथ्वी से 15 लाख किलोमीटर दूर स्थापित जेम्स वेब दूरबीन कई मामलों में खास है। यह अंतरिक्ष से आने वाली इंफ्रारेड तरंगों को पकड़ेगी, जिन्हें अन्य दूरबीनें नहीं पकड़ पाती थीं जिसके चलते अंतरिक्ष में छिपे पिंडों को भी देखा जा सकेगा।
इसके अलावा यह गैस के बादलों के पार भी देख सकती है।
नए आई ड्रॉप से दूर होगी चश्मे की समस्या
हाल ही में अमेरिका में ऐसे आई ड्राप – ‘वुइटी’ – पर शोध किया गया है जो ऐसे लोगों के लिए बेहद मददगार होने वाला है, जिन्हें आंखों से धुंधला दिखाई देता है। उपयोग करने पर यह कुछ समय के लिए आंखों में धुंधलेपन की समस्या को दूर कर देती है। इसे यूएस के खाद्य व औषधि प्रसासन (एफडीए) की स्वीकृति भी प्राप्त हो चुकी है। इसके निर्माताओं का दावा है कि इसका असर 6—10 घंटों तक रहता है। इसके एक महीने के डोज़ का खर्च करीब 6 हज़ार रुपए होगा।
प्रयोगशाला में बनाया स्क्वेलीन
युनेस्को के अनुसार सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों, दवाइयों और कोविड वैक्सीन बनाने में इस्तेमाल होने वाले स्क्वेलीन के लिए हर साल 12—13 लाख शार्क के लीवर से 100—150 मिलीलीटर स्क्वेलिन प्राप्त किया जाता है। आईआईटी जोधपुर के वैज्ञानिक प्रो. राकेश शर्मा ने जंगली वनस्पतियों और राज्स्थानी मिट्टी की प्रोसेसिंग से स्क्वेलिन तैयार करने में सफलता पाई है। इस रिसर्च को हाल ही में पेटेंट भी मिल गया है। अब इसके उत्पादन की तैयारी चल रही है।
स्क्वेलीन का इस्तेमाल टीकों में सहायक के रूप में भी होता है। शार्क से मिलने वाले स्क्वेलीन की कीमत 10 लाख रुपए किलो है, जबकि प्रयोगशाला में तैयार स्क्वेलीन की लागत बहुत कम है। प्रयोगशाला में तैयार करने के लिए इसमें धतूरा, आक, रतनज्योत और खेजड़ी के बीजों का इस्तेमाल किया गया है। इन्हें राजस्थानी मिट्टी के साथ प्रोसेस कर स्क्वेलीन बनाने का काम किया जा रहा है।
तंत्रिका रोगों का नया इलाज
हाल ही में किए गए एक अध्ययन में यह संकेत मिले हैं कि एक एथलीट के शरीर का प्रोटीन दूसरे शख्स के तंत्रिका रोगों के इलाज में कारगर साबित हो सकता है। शोधकर्ताओं द्वारा एक्सरसाइज़ व्हील पर कई मील दौड़ लगाने वाले चूहों का खून निष्क्रिय चूहा में डालने पर काफी हैरतअंगेज़ नतीज़े सामने आए। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि कसरती चूहे का खून इंजेक्ट किए जाने के बाद निष्क्रिय चूहे में अल्ज़ाइमर और अन्य तंत्रिका बीमारियों के कारण होने वाली मस्तिष्क की सूजन कम हो गई। मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल एंड हावर्ड मेडिकल स्कूल के न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर रुडोल्फ तान का कहना है कि कसरत के दौरान बनने वाले प्रोटीन से मस्तिष्क की सेहत में सुधार से जुड़े शोध हो रहे हैं। वे खुद वर्ष 2018 में इस विषय पर एक शोध कर चुके हैं, जिसमें देखा गया था कि अल्ज़ाइमर वाले चूहों के मस्तिष्क की सेहत में कसरत से सुधार हुआ है।
बिना तारे वाले ग्रह
ब्रह्मांड में अभी तक जितने भी ग्रह खोजे जा सके हैं, उन्हें उनके अपने सूर्य की चमक में होने वाली कमी के आधार पर खोजा जा सका है। ऐसे में बिना तारों वाले ग्रहों की खोज करना तो असंभव सा ही प्रतीत होता था, लेकिन वैज्ञानिकों ने हाल ही में 100 से भी ज़्यादा ऐसे ग्रहों की खोज की है जिनका अपना कोई सूर्य या तारा नहीं है। पहली बार एक साथ इतनी बड़ी संख्या में ऐसे ग्रहों की खोज हुई है।
खगोलविदों का कहना है कि इन ग्रहों का निर्माण ग्रहों के तंत्र में हुआ होगा और बाद में ये स्वतंत्र विचरण करने लगे होंगे। इन पिंडों की पड़ताल के लिए शोधकर्ताओं ने युवा ‘अपर स्कॉर्पियस’ तारामंडल का अध्ययन किया। यह हमारे सूर्य के सबसे पास तारों का निर्माण करने वाला क्षेत्र है।
खगोलविदों का कहना है कि ब्रह्मांड में मुक्त ग्रहों की खोज आगे के अध्ययनों में बेहद उपयोगी होगी। अब जेम्स वेब स्पेस दूरबीन जैसे उन्नत उपकरण इनके बारे में विस्तृत खोजबीन कर सकते हैं।
चुंबक खत्म करेगा विद्युत संकट
एक निहायत शक्तिशाली चुंबक बनाया गया है, इतना शक्तिशाली कि पूरे विमान को अपनी तरफ खींच सकता है। इसे फ्रांस के इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर (ITER) में असेंबल करके रखा गया है। यह 18 मीटर ऊंचा और 4.3 मीटर चौड़ा है। ITER के वैज्ञानिक नाभिकीय संलयन के ज़रिए ऊर्जा उत्पादन की तलाश कर रहे हैं। इसी संदर्भ में इस विशाल चुंबक का निर्माण किया गया है ताकि परमाणु रिएक्टर में विखंडित होने वाले नाभिकों का संलयन इसकी मदद से करवाया जाए और इससे असीमित ऊर्जा प्राप्त की जाए। अगर वैज्ञानिक कामयाब रहे तो विद्युत संकट का एक समाधान उभर आएगा।
एड्स उपचार में प्रगति
एक नए अध्ययन में भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), बेंगलुरु के शोधकर्ताओं ने एचआईवी संक्रमित प्रतिरक्षा कोशिकाओं में वायरस की वृद्धि दर कम करने एवं उसे रोकने में हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S) गैस की भूमिका का पता लगाया है। उनका कहना है कि यह खोज एचआईवी के विरुद्ध अधिक व्यापक एंटीरेट्रोवायरल उपचार विकसित करने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। देखा जाए, तो वर्तमान एंटीरेट्रोवायरल उपचार एड्स का इलाज नहीं है। यह केवल वायरस को दबाकर रखता है, जिसके चलते बीमारी सुप्त रहती है। आईआईएससी में एसोसिएट प्रोफेसर अमित सिंह के अनुसार, “इससे एचआईवी संक्रमित लाखों लोगों के जीवन में सुधार हो सकता है।”
यह थी गत वर्ष हुईं महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजें। इनके अलावा भी कई सारी अन्य उपयोगी खोजें हुई हैं। उम्मीद है 2022 विज्ञान के लिए बेहतर साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credits : https://scitechdaily.com/images/James-Webb-Space-Telescope-Artists-Impression-scaled.jpg https://nypost.com/wp-content/uploads/sites/2/2021/12/eye-drops_01.jpg?quality=80&strip=all https://www.eurogroupforanimals.org/files/eurogroupforanimals/styles/blog_detail/public/2020-10/gerald-schombs-GBDkr3k96DE-unsplash.jpg?h=717a43c3&itok=c3jeZPqI https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/69505/aImg/44511/mice-ss-article-l.jpg https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2021/06/15142803/15-june_worlds-largest-magnet.jpg?crop=16:9,smart&width=1200&height=675&upscale=true https://images.medindia.net/amp-images/health-images/hiv-infection-by-anti-inflammatory-drugs.jpg
आज के दौर के सोशल मीडिया ने एक ओर जहां लोगों को जोड़ने का काम किया है, वहीं दूसरी ओर इसके माध्यम से भ्रामक खबरों को साझा करने के चलते ध्रुवीकरण, हिंसक उग्रवाद और नस्लवाद में भी काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जो भ्रामक खबरों को साझा करते हैं? एक विश्लेषण के अनुसार रूढ़िवादी लोग काफी हद तक भ्रामक सूचनाओं के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार हैं।
इन भ्रामक सूचनाओं के संकट का समाधान खोजने के लिए एक ऐसे स्पष्ट आकलन की आवश्यकता है जिससे यह पता लगाया जा सके कि झूठ और षडयंत्र के सिद्धांतों को कौन फैला रहा है। इस विषय में ड्यूक युनिवर्सिटी के मैनेजमेंट एंड आर्गेनाइज़ेशन के शोध छात्र अशर लॉसन और इसी युनिवर्सिटी में फुकुआ स्कूल ऑफ बिज़नेस के असिस्टेंट प्रोफेसर हेमंत कक्कड़ ने लोगों के व्यक्तित्व को मुख्य निर्धारक के रूप में जांचने का काम किया।
व्यक्तित्व लक्षणों की पहचान और मापन के लिए उन्होंने प्रचलित फाइव-फैक्टर थ्योरी का इस्तेमाल किया जिसे बिग फाइव भी कहा जाता है। यह थ्योरी व्यक्तित्वों को 5 श्रेणियों में बांटती है: अनुभव के प्रति खुलापन, कर्तव्यनिष्ठा, बहिर्मुखता, सहमत होने की तैयारी और उन्माद। इस ढांचे के अंतर्गत कर्तव्यनिष्ठा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया जिससे लोगों की सलीकापसंदगी, उत्तेजित होने पर आत्म-नियंत्रण, रूढ़िवादिता और विश्वसनीयता में अंतरों का पता चलता है।
शोधकर्ताओं का अनुमान था कि कम-कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी लोग (एलसीसी) अन्य रूढ़िवादियों या कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना में अधिक भ्रामक समाचार साझा करते हैं। उन्होंने व्यक्तित्व, राजनीति और भ्रामक समाचारों को साझा करने के बीच सम्बंधों का पता लगाने के लिए 8 अध्ययन किए जिनमें 4642 प्रतिभागी शामिल थे।
सबसे पहले शोधकर्ताओं ने विभिन्न आकलनों के माध्यम से लोगों की राजनीतिक विचारधारा और कर्तव्यनिष्ठा को मापा जिसमें प्रतिभागियों से उनके मूल्यों और व्यवहारों के बारे में पूछा गया था। इसके बाद प्रतिभागियों को कोविड से सम्बंधित कुछ सत्य और भ्रामक समाचारों की शृंखला दिखाई गई और इन समाचारों की सटीकता के बारे में सवाल किए गए। यह भी पूछा गया कि वे इन समाचारों को साझा करेंगे या नहीं। उन्होंने पाया कि उदारवादी और रूढ़िवादी, दोनों ही प्रकार के लोग कभी-कभी भ्रामक समाचार को सही मान लेते हैं। शायद उन्होंने इन समाचारों को सटीक इसलिए माना क्योंकि ये उनके विश्वासों से मेल खाते थे।
यह भी देखा गया कि विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं से जुड़े लोगों ने भ्रामक समाचार साझा करने की बात कही लेकिन अन्य सभी प्रतिभागियों की तुलना में एलसीसी के बीच यह व्यवहार काफी अधिक देखा गया। हालांकि, उच्च स्तर के कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों और रूढ़िवादियों के बीच कोई अंतर देखने को नहीं मिला जबकि कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों ने उच्च-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना भ्रामक समाचार ज़्यादा साझा नहीं किए।
दूसरे अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने इन परिणामों को स्पष्ट राजनीतिक रुझान वाले भ्रामक समाचारों के साथ दोहराया और पिछले अध्ययन से भी अधिक प्रभाव देखा। इस बार भी विभिन्न स्तर की कर्तव्यनिष्ठा वाले उदारवादी और उच्च कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी व्यापक स्तर पर भ्रामक जानकारी फैलाने में शामिल नहीं थे। भ्रामक समाचार फैलाने वालों में कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी (एलसीसी) आगे रहे।
सवाल यह था कि एलसीसी में भ्रामक समाचार को साझा करने की प्रवृत्ति क्यों होती है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक ऐसा प्रयोग किया जिसमें प्रतिभागियों की राजनीतिक विचारधारा और व्यक्तित्व के बारे में जानकारी के अलावा उनमें अराजकता की चाहत, सामाजिक और आर्थिक रूप से रूढ़िवादी मुद्दों के समर्थन, मुख्यधारा मीडिया पर भरोसे और सोशल मीडिया पर बिताए गए समय का आकलन किया गया। शोधकर्ताओं के अनुसार एलसीसी ने अराजकता की ज़रूरत ज़ाहिर की, और साथ ही वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक संस्थाओं को बाधित करने और नष्ट करने की इच्छा भी व्यक्त की। इनसे भ्रामक जानकारियों को फैलाने की उनकी प्रवृत्ति की व्याख्या हो जाती है। यह किसी अन्य विचारों और समूहों की तुलना में स्वयं को श्रेष्ठ मानने की इच्छा को भी दर्शाता है जो कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादियों में अधिक देखने को मिलती है।
दुर्भाग्य से, शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि समाचारों पर सटीकता का लेबल लगाने से भी भ्रामक जानकारी की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग अंजाम दिया जिसमें सोशल मीडिया पर साझा किए गए सही समाचार के लिए ‘पुष्ट’ और भ्रामक समाचार के लिए ‘विवादित’ टैग का उपयोग किया गया। उन्होंने पाया कि उदारवादियों और रूढ़िवादियों ने ‘पुष्ट’ टैग वाले समाचार को अधिक साझा किया। हालांकि, एलसीसी ने अभी भी जानकारी को गलत या भ्रामक जानते हुए भी साझा करना जारी रखा।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया जिसमें प्रतिभागियों को स्पष्ट रूप से बताया गया कि जिस जानकारी को वे साझा करना चाहते हैं वह गलत है। इसके बाद उनको अपने निर्णय को बदलने का मौका भी दिया गया। इसके बाद भी एलसीसी द्वारा भ्रामक समाचार साझा करने की दर काफी उच्च रही और वे समाचार के गलत होने की चेतावनियों को भी अनदेखा करते रहे।
यह परिणाम काफी चिंताजनक है जिसमें एलसीसी भ्रामक समाचारों के प्रसार के प्राथमिक चालक नज़र आते हैं। इसके लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को चेतावनी का लेबल लगाने के बजाय कोई और समाधान खोजना होगा। एक अन्य विकल्प के रूप में सोशल मीडिया कंपनियों को ऐसे समाचारों को अपने प्लेटफॉर्म्स से हटाने के प्रयास करने चाहिए जो किसी व्यक्ति समुदाय को चोट पहुंचाने की क्षमता रखते हैं। कुल मिलाकर मुद्दा सिर्फ इतना है कि जब तक सोशल मीडिया कंपनियां कोई ठोस तरीका खोज नहीं निकालती हैं तब तक यह समस्या बनी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/29641891-B59E-4081-9382EC78FA3AB9E5_source.jpg
यह लेख “क्या है बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी-1” (https://bit.ly/3EQACFn) का दूसरा भाग है। यदि आपने लेख का पहला भाग नहीं पढ़ा है और/या क्रिप्टोकरेंसी के काम करने की प्रणाली को नहीं समझते हैं तो आप पहला भाग ज़रूर पढ़ें।
हाल ही में, चीन सरकार ने क्रिप्टोकरेंसी
को अवैध घोषित करते हुए इसके क्रय-विक्रय, माइनिंग
(खनन),
मिंटिंग और व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया। अमेरिका के कुछ
नीति निर्माताओं ने भी क्रिप्टोकरेंसी की वैधता और खरेपन पर सवाल उठाया है। कई
सीनेटरों ने तो इसे “असली पैसे का घटिया विकल्प” कहा है।
ऐसा प्रतीत होता है कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) और भारत सरकार ने भी
क्रिप्टोकरेंसी के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने की ठान ली है। ऐसी अफवाह है कि निजी
क्रिप्टोकरेंसी के विरुद्ध एक विधेयक पर काम किया जा रहा है और इस वर्ष के अंत तक
इसे संसद में प्रस्तुत किया जाएगा। सवाल यह उठता है कि सरकारों और नीति निर्माताओं
को क्रिप्टोकरेंसी इतनी नापसंद क्यों है? आइए इसके कारणों पर एक
नज़र डालते हैं।
1. नियंत्रण खो देने का डर
सरकारों द्वारा क्रिप्टोकरेंसियों को नापसंद करने का कारण क्रिप्टोकरेंसियों
का दोहरा उद्देश्य है। क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग निवेश के साधन के साथ-साथ खरीद के साधन
के रूप में भी किया जा सकता है। चूंकि इसे क्रय-विक्रय के साधन के रूप में
इस्तेमाल किया जा सकता है, सरकार के स्वामित्व वाले
केंद्रीय बैंकों द्वारा जारी की गई अधिकारिक मुद्रा के साथ प्रतिस्पर्धा का खतरा
है।
वास्तव में सरकारें नियंत्रण चाहती हैं और क्रिप्टोकरेंसियां इस नियंत्रण को
चुनौती देती हैं। हमारी पारंपरिक मुद्रा प्रणाली में लेन-देन की वैधता प्रमाणित
करने और सत्यापन पर बैंकों का एकाधिकार होता है जिससे सरकारों को यह पता करना आसान
हो जाता है कि किसके पास कितनी धनराशि है जो कर-निर्धारण के लिए ज़रूरी है।
विकेंद्रीकरण से भी नियंत्रण में कमी आती है, अधिदिश्ट
(यानी सरकारी आदेश से प्रचलित) मुद्रा से सरकारें आसानी से चीज़ों को नियंत्रण में
रख सकती हैं। उदाहरण के लिए, सरकारें प्रचलित मुद्रा को
नोटबंदी के माध्यम से समाप्त कर सकती हैं और नई मुद्रा छाप सकती हैं। अर्थव्यवस्था
को नियंत्रित करने के लिए सरकारें मौद्रिक नीति में बदलाव भी कर सकती हैं। दूसरी
ओर,
क्रिप्टोकरेंसियां केंद्रीय प्राधिकरण को नियंत्रण की कोई
गुंजाइश नहीं देतीं और इसलिए क्रिप्टोकरेंसियों को कानूनी वैधता मिलने से सरकारों
के लिए मौद्रिक नीतियों का नियमन कर पाना संभव नहीं होगा।
2. क्रिप्टो-अपराध की संभावना
क्रिप्टोकरेंसी का विकेंद्रीकृत स्वरूप इसका सबसे बड़ा गुण होने के साथ-साथ
सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है। एक ओर, जहां निजता एक मौलिक अधिकार है, वहीं दूसरी ओर, क्रिप्टोकरेंसियों से हासिल गुमनामी से
लोगों को जासूसी,
हत्या, ड्रग व्यापार, आतंकी फंडिंग, साइबर-अपराध जैसी गतिविधियों में लिप्त
होने का मौका भी मिलता है। क्रिप्टोकरेंसियों की गुमनाम प्रकृति के चलते कानून का
उल्लंघन करने वालों पर नकेल कसना काफी कठिन हो जाता है।
क्रिप्टोकरेंसियां कितनी भी सुरक्षित क्यों न हों, धोखाधड़ी
और अनाधिकृत लेनदेन की घटनाएं सुर्खियों में रही हैं। ऐसे में प्रभावित लोगों को
न्याय दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी बन जाती है जबकि उसका इन मुद्राओं पर कोई
नियंत्रण नहीं होता।
3. केंद्रीय बैंकों पर खतरा
एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना कीजिए जिसमें क्रिप्टोकरेंसी किसी देश की एकमात्र
वैध मुद्रा बन जाती है। इस स्थिति में, मुद्रा की विकेंद्रीकृत
प्रकृति के कारण,
केंद्रीय बैंक की कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी क्योंकि तब
किसी भी लेन-देन को मान्य या सत्यापित करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
सरकारें केंद्रीय बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों की मदद से देश के वित्त और
अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करती हैं। बिटकॉइन और अन्य विकेंद्रीकृत
क्रिप्टोकरेंसियों की बढ़ती लोकप्रियता से विश्व भर के कई केंद्रीय बैंकों ने अपना
व्यवसाय खो दिया है और सम्बंधित सरकारों को भी नुकसान हुआ है।
4. अस्थिरता
एक और परिदृश्य की कल्पना कीजिए जब आप एक रबड़ खरीदने के लिए एक रुपया खर्च
करते हैं और अगले ही दिन आपको पता चलता है कि यदि एक दिन इंतज़ार करते तो इसी एक
रुपए से 10 ग्राम सोना खरीद सकते थे। अच्छी बात है कि रुपए की क्रय शक्ति में
प्रतिदिन इतना उतार-चढ़ाव नहीं होता है।
क्रिप्टोकरेंसी के अत्यधिक अस्थिर मूल्य की समस्या का यह एक उदाहरण है। इसी
समस्या का दूसरा पहलू शायद नीति निर्माताओं के लिए और भी गंभीर है। क्रय शक्ति के
आधार पर यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि कोई व्यक्ति कितना अमीर या गरीब है। एक
दिन आपके पास इतनी संपत्ति होगी जिससे आप अपना शेष जीवन आराम से व्यतीत कर सकते
हैं और अगले ही दिन आपकी सारी संपत्ति एक माचिस की डिबिया के मूल्य के बराबर होगी।
इस स्थिति में नीति निर्माताओं को मौद्रिक और कराधान नीतियों को लागू करना अत्यंत
कठिन हो जाएगा।
यदि रुपया क्रय शक्ति के मामले में इतना अस्थिर रहता है तो हमें एक ऐसी लचीली
कराधान दर की आवश्यकता होगी जो हर घंटे परिवर्तित होती रहे।
क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार अपनी अस्थिर प्रकृति, उच्च
जोखिम और उच्च लाभ के लिए जाना जाता है। इसी कारण क्रिप्टोकरेंसी को खरीद के साधन
या मुद्रा के रूप में उपयोग करना कठिन हो जाता है। यह पारंपरिक कागज़ी मुद्रा की
तुलना में काफी नई है तथा इसे उपयोग में लाए काफी समय भी नहीं हुआ है। ऐसे में
मुद्रा के रूप में इसकी उपयोगिता भी कमज़ोर दिख रही है।
5. मुद्रा आपूर्ति में धन का अभाव
क्रिप्टोकरेंसियां विकेंद्रीकृत होती हैं और इसलिए यह कोई भी नहीं जानता कि
अधिदिश्ट मुद्रा के बदले क्रिप्टोकरेंसी खरीदने पर निवेशक के बैंक से पैसा जाता
कहां है। क्रिप्टोकरेंसी को खरीदने वाला व्यक्ति दुनिया में कहीं का भी हो सकता है
और बेचने वाला व्यक्ति भी दुनिया के किसी भी कोने का हो सकता है। इससे नीति
निर्माताओं को काफी समस्या होती है।
यदि आरबीआई अर्थव्यवस्था में प्रचलन के लिए 100 रुपए जारी करे और कोई निवेशक
इनमें से 10 रुपए क्रिप्टोकरेंसी में निवेश कर दे तो अर्थ व्यवस्था में केवल 90
रुपए ही बचेंगे। क्रिप्टोकरेंसियां अर्थव्यवस्था में उपलब्ध धन राशि को कम कर सकती
हैं और एक बार इन वित्तीय साधनों में निवेश होने पर कोई भी नीति निर्माता इस पैसे
को ट्रैक नहीं कर सकता है। यह एक और समस्या है जिसके कारण नीति निर्माता
क्रिप्टोकरेंसियों को नापसंद करते हैं।
अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
अनुमान है कि 2021 तक, भारत में लगभग 1 करोड़ खुदरा
क्रिप्टोकरेंसी निवेशक थे। और क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार में लगातार वृद्धि हो रही है।
भले ही भारतीय निवेशकों में क्रिप्टोकरेंसियों के प्रति उत्साह दिख रहा हो, लेकिन अवैध गतिविधियों के लिए उपयोग होने की आशंका के कारण लाखों निवेशक
क्रिप्टोकरेंसी को अपनाने से कतरा भी रहे हैं। अनियंत्रित प्रकृति के चलते
क्रिप्टोकरेंसियों को गैर-कानूनी मुद्रा मान लिया जाता है।
आने वाले बजट सत्र में क्रिप्टोकरेंसी और डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021 को
प्रस्तुत करने की घोषणा ने निवेशकों के विश्वास को डगमगा दिया है। अनुमान है कि
विधेयक क्रिप्टोकरेंसी के प्रतिकूल होगा।
यदि भारत क्रिप्टोकरेंसी और ब्लॉकचेन तकनीक का ठीक से नियमन करना सीख जाए और
क्रिप्टोकरेंसी से उत्पन्न आय पर कर लगाने की प्रणाली विकसित कर ले तो भारतीय
अर्थव्यवस्था को काफी फायदा हो सकता है। ब्लॉकचेन तकनीक को पारंपरिक बैंकिंग
प्रणाली में भी अपनाया जा सकता है।
वित्त मंत्री के अनुसार सरकार की योजना क्रिप्टोकरेंसी के लिए नपा-तुला
दृष्टिकोण अपनाने की है। हालांकि, सरकार द्वारा ‘नपे-तुले’
दृष्टिकोण में अस्पष्टता से भारतीय क्रिप्टोकरेंसी निवेशकों और प्लेटफॉर्म्स के
बीच पूर्ण प्रतिबंध का डर बना हुआ है।
इतिहास पर नज़र डालें तो इस प्रकार के प्रतिबंध अक्सर अप्रभावी रहे हैं।
प्रतिबंध भविष्य में होने वाले नवाचारों को खत्म कर देगा। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए नियामक ढांचा
आवश्यक नहीं है। यहां कुछ महत्वपूर्ण कानूनी और नियामक जोखिमों पर चर्चा की गई है
जो भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं।
1. सुपरिभाषित कानूनों का अभाव
किसी भी तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाने के लिए अनिवार्य है कि मानकों का
निर्धारण कर लिया जाए। क्योंकि डिस्ट्रिब्यूटेड लेजर तकनीक (जिसे ब्लॉकचेन कहा
जाता है) अभी भी विकसित हो रही है, दुनिया भर के नियामक और नीति
निर्माता इस तरह की तकनीक के निहितार्थ का अध्ययन कर रहे हैं। हालांकि अमेरिका और
जापान जैसे देश नियामक ढांचा विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन अभी तक ऐसा कोई ढांचा सामने नहीं आया है।
2. स्वामित्व और न्याय-क्षेत्र में अस्पष्टता
एक डिस्ट्रीब्यूटेड लेजर तकनीक का मूल सिद्धांत यह है कि इसके नेटवर्क से जुड़े
सभी लोगों के पास लेजर की एक प्रति होती है जिसके चलते लेजर का वास्तविक स्थान
जानने का कोई तरीका नहीं है। इसलिए, ब्लॉकचेन पर किए गए लेनदेन
पारंपरिक बैंकिंग की तुलना में उच्चतर गोपनीयता प्रदान करते हैं। हालांकि, यह एक अच्छी खबर नहीं है क्योंकि इससे न्यायिक क्षेत्राधिकार का मुद्दा भी
उठता है – यदि कोई इस विशेषता का लाभ उठाना चाहे तो निपटना मुश्किल होगा।
हो सकता है कि क्रिप्टोकरेंसियों का उपयोग करके किए गए विभिन्न लेनदेन ऐसे
अलग-अलग कानूनी ढांचों के अंतर्गत आते हों जो एक दूसरे के विपरीत हों। जैसे मैं
जापान में किसी के साथ लेनदेन करता हूं और वहां की सरकार और मेरी सरकार की नीतियां
परस्पर विरोधी हों। इसी क्रम में एक और मुद्दा बहीखाते का कोई भौतिक स्थान न होना
है जिसके कारण क्रिप्टोकरेंसियों का ‘मूल देश’ निर्धारित नहीं किया जा सकता। इसके
अतिरिक्त,
चूंकि ब्लॉकचेंस राष्ट्र-पारी हो सकते हैं, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय विवादों की स्थिति में सम्बंधित देशों के नीति
निर्माताओं के लिए प्रासंगिक कानून और न्याय-क्षेत्र का निर्धारण करना एक बड़ा
सिरदर्द हो सकता है। नीति-निर्माताओं के लिए एक कठिन काम होगा कि वे विभिन्न
उपयोगकर्ताओं,
विनिमयों और परियोजनाओं के बीच कानून को कैसे लागू
करेंगे।
3. अनिश्चित वर्गीकरण
जहां तक कराधान का सवाल है, विभिन्न देशों के बीच
क्रिप्टोकरेंसी के बारे में कोई स्पष्ट सहमति नहीं है कि यह है क्या।
क्रिप्टोकरेंसी को परिसंपत्ति, मुद्रा, कमोडिटी जैसी विभिन्न श्रेणियों में रखने पर विचार चल ही रहा है।
अपुष्ट रिपोर्टों के अनुसार ऐसी संभावना है कि भारत सरकार क्रिप्टोकरेंसी को
परिसंपत्ति श्रेणी में रख सकती है। भारत सरकार की ओर से अभी तक कोई स्पष्ट संकेत
नहीं मिले हैं। यह केवल क्रिप्टोकरेंसी के कराधान के मुद्दे को और उलझाएगा।
4. हवाला के मुद्दे
क्रिप्टोकरेंसी के विरोध का प्रमुख कारण यह रहा है कि इनका उपयोग धोखाधड़ी, मनी लॉन्ड्रिंग और अन्य अपराधों के
लिए किया जा सकता है। क्रिप्टोकरेंसियों का गुमनाम स्वरूप इनके दुरुपयोग की
संभावना का प्रमुख कारण माना जाता है। क्रिप्टोकरेंसियों का उपयोग डीप-वेब की अवैध
वेबसाइटों पर किया जाता है जहां अपराधी अवैध सामग्री (जैसे बंदूक, गोला-बारूद,
विस्फोटक, ड्रग्स, रेडियोधर्मी पदार्थ) का लेनदेन कर सकते हैं या अवैध निगरानी, जासूसी और हत्या जैसी ‘सेवाएं’ खरीद सकते हैं।
5. डैटा चोरी की संभावना
क्रिप्टोकरेंसियां कितनी भी सुरक्षित क्यों न हों, किसी
भी अन्य वित्तीय साधन के समान इसमें भी डैटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के जोखिम तो
हैं ही। इनकी ब्लॉकचेन के कोड में खामियां रह जाएं तो अपराधी इसका फायदा उठा सकते
हैं और गुमनामी के गुण के चलते ऐसे अपराधियों को ट्रैक करना काफी कठिन होगा।
कॉर्नेल युनिवर्सिटी के एक शोध में पिछले वर्ष एथेरियम (एक क्रिप्टोकरेंसी) के
ब्लॉकचेन में एक गंभीर सुरक्षा खामी का पता चला था। इस शोध रिपोर्ट में बताया गया
था कि यदि इस खामी का फायदा उठा लिया जाता तो एथेरियम उपयोगकर्ताओं और निवेशकों को
25 करोड़ डॉलर की चपत लग सकती थी। इसी तरह, क्रिप्टोकरेंसी
वॉलेट निर्माता ‘लेजर’ के डैटा में सेंध के कारण 10 लाख ग्राहकों के नाम, पते और फोन नंबर सहित ईमेल भी उजागर हो गए थे। अभी यह देखना बाकी है कि मौजूदा
डैटा प्रोटोकॉल की मदद से क्रिप्टोकरेंसी से जुड़े डैटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के
मुद्दे को संबोधित किया जा सकता है या नहीं।
6. निवेशकों की चिंताएं
युनाइटेड किंगडम, जापान, कनाडा
और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई देशों द्वारा बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसियों को
वैध घोषित करने के बावजूद विभिन्न देशों के बीच लेनदेन की कानूनी वैधता का सवाल
अभी भी बना हुआ है।
सोने और चांदी के मूल्यों के विपरीत, क्रिप्टोकरेंसी विशुद्ध
रूप से एक काल्पनिक धन है जो बिना किसी केंद्रीकृत प्राधिकरण की आवश्यकता के गणित
और अर्थशास्त्र पर काम करता है और किसी भी भौतिक संपत्ति द्वारा समर्थित नहीं है।
केंद्रीकृत नियमों के अभाव में, निवेशकों के क्रिप्टोकरेंसी
सम्बंधित विवादों को सुलझाने के तरीके का सवाल अभी भी अनुत्तरित है।
भारत का रुख
लगभग 5 वर्षों से, भारत में क्रिप्टोकरेंसियों के विषय पर
उहापोह जारी है। जब पता चला कि देश में क्रिप्टोकरेंसियों के माध्यम से धोखाधड़ी
की जा रही हैं,
तो अप्रैल 2018 में, आरबीआई
ने बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को क्रिप्टोकरेंसी में लेनदेन करने से
प्रतिबंधित कर दिया। इसके निम्नलिखित कारण बताए गए:
1. क्रिप्टोकरेंसी की प्रकृति अत्यधिक अटकल-आधारित है जो उन्हें एक अत्यंत
अस्थिर निवेश बनती है।
2. क्रिप्टोकरेंसी की गुमनाम प्रकृति इसे अवैध गतिविधियों, हवाला और कर चोरी के माध्यम के रूप में उपयोग करने के लिए उपयुक्त बनाती है।
3. क्रिप्टोकरेंसी माइनिंग बहुत अधिक ऊर्जा खाता है जो देश की ऊर्जा सुरक्षा
पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
4. आरबीआई अर्थव्यवस्था में क्रिप्टोकरेंसियों की आपूर्ति को नियंत्रित नहीं
कर सकता है।
आरबीआई द्वारा उठाए गए ये बिंदु वास्तव में उचित और सशक्त हैं। सरकार ने
क्रिप्टकरेंसी पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास तो किया लेकिन फरवरी 2019 में सर्वोच्च
न्यायालय ने इसको प्रतिबंधित करने के बजाय विनियमित करने का सुझाव दिया। सुझाव में
कहा गया कि क्रिप्टोकरेंसियों को माल और सेवाओं की खरीद के लिए भुगतान के वैध
तरीके के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, ज़रूरत
सिर्फ इतनी है कि आरबीआई इसका नियमन करे।
प्रतिबंध लगाने का शायद कोई फायदा न हो क्योंकि लोग इससे निपटने के तरीके खोज
सकते हैं। लोग भारत के बाहर स्थित एक्सचेंजों के ज़रिए व्यापार कर सकते हैं जो
आरबीआई को इस समीकरण से पूरी तरह बाहर कर देगा। भारत के कई स्टार्ट-अप्स ने ठीक
वैसा ही किया है।
प्रतिबंध अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों को नकारात्मक संदेश भेजेगा और निवेश के एक
आकर्षक गंतव्य के रूप में भारत की प्रतिष्ठा को धूमिल करेगा।
आखिरकार,
मार्च 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिबंध को
असंवैधानिक करार दिया। अपने फैसले में न्यायालय ने एक कारण यह भी बताया कि भले ही
भारत में क्रिप्टोकरेंसी का नियमन नहीं किया जा रहा है लेकिन वे निहित रूप से अवैध
नहीं है।
विभिन्न मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, भारत में क्रिप्टोकरेंसी
में अनुमानित 10,000 करोड़ रुपए का निवेश किया गया है। क्रिप्टोकरेंसी के माध्यम से
होने वाली आय का उचित कराधान सुनिश्चित करने के लिए सरकारी विनियमन पर काम किया जा
रहा है। आरबीआई द्वारा खुद की क्रिप्टोकरेंसी शुरू करने की भी योजना है। आरबीआई के
गवर्नर शक्तिकांत दास ने एक बयान में कहा कि ‘सेंट्रल बैंक की डिजिटल करेंसी पर
काम जारी है। आरबीआई की टीम इसके तकनीकी और प्रक्रियात्मक पक्षों पर काम कर रही है
ताकि जनता के बीच इसकी शुरुआत हो सके।’
कुछ ही दिनों पहले, नाइजीरिया के राष्ट्रपति मुहम्मद बुहारी ने
गर्व के साथ यह घोषणा की कि ‘नाइजीरिया अफ्रीका का ऐसा पहला और विश्व के पहले
देशों में से है जिसने अपने नागरिकों के लिए डिजिटल मुद्रा की शुरुआत की है।’
सेंट्रल बैंक की डिजिटल मुद्रा ई-नाइरा को शुरू करने का उद्देश्य कागज़ी नाइरा को
पूरी तरह से बदलने की बजाय उसे पूरक के तौर पर उपयोग करना है। इस तरह नाइजीरिया उन
7 देशों में शामिल हो गया है जिन्होंने आधिकारिक तौर पर अपने केंद्रीय बैंक की
डिजिटल मुद्रा की शुरुआत की है। एटलांटिक काउंसिल की सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी
ट्रैकिंग वेबसाइट के अनुसार चीन जैसे 16 अन्य देश अभी भी इसके प्रायोगिक चरण में
हैं।
अन्य प्रमुख चिंताएं
नेशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनॉमिक रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि
बिटकॉइन और अन्य लोकप्रिय मुद्राएं पहले से कहीं आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन अभी भी
मुट्ठीभर लोग ही अधिकांश क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार को नियंत्रित कर रहे हैं। इस अध्ययन
में पता चला है कि फिलहाल शीर्ष 10,000 बिटकॉइन निवेशक सभी क्रिप्टोकरेंसियों के
लगभग 33% बाज़ार को नियंत्रित करते हैं।
यह भी पता चल पाया कि 2020 में शीर्ष 10,000 बिटकॉइन मालिकों के पास लगभग 85
लाख बिटकॉइन थे जबकि शीर्ष समूहों के पास इसी अवधि में लगभग 50 लाख बिटकॉइन थे। यह
भी स्पष्ट हुआ कि इन शीर्ष 10,000 निवेशकों में से शीर्ष 1000 निवेशक लगभग 30 लाख
बिटकॉइन के मालिक हैं।
माइनिंग (यदि आप माइनिंग के बारे में नहीं जानते हैं या आपको 51% अटैक के बारे
में कोई जानकारी नहीं है तो इस लेख का पहला भाग देखें) की ओर ध्यान दिया जाए तो
चीज़ें और अधिक स्पष्ट हो जाती हैं। ब्यूरो ने पाया कि शीर्ष 10% माइनर्स लगभग 90%
माइनिंग कार्यों को नियंत्रित करते हैं और इससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात तो यह है
कि लगभग आधे माइनिंग आउटपुट शीर्ष 0.1% माइनर्स के नियंत्रण में हैं। इस परिस्थिित
से एक भयावह विचार सामने आता है: यदि किसी समूह के पास क्रिप्टोकरेंसी नेटवर्क की
कम्प्यूटेशनल शक्ति के 51% से अधिक का स्वामित्व हो तो वे अधिकांश नेटवर्क को अपने
नियंत्रण में ले सकते हैं।
डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021
अनुमान है कि ‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021’ में सभी निजी
क्रिप्टोकरेंसियों को प्रतिबंधित किया जाएगा और आरबीआई द्वारा संचालित‘आधिकारिक
डिजिटल मुद्रा’ के लिए एक नियामक ढांचा तैयार किया जाएगा जो वर्तमान बैंकिंग
प्रणाली के साथ काम करेगा। अभी के लिए हम सिर्फ इतना जानते हैं कि विधेयक को इस
वर्ष के केंद्रीय बजट सत्र 2021-22 पेश किया गया था और फिर चर्चा और योजना पर काम
किया जा रहा है।
ऐसी भी संभावना है कि सरकार द्वारा निवेशकों को ट्रेडिंग, माइनिंग और क्रिप्टोकरेंसी जारी करने के लिए 3 से 6 महीने लंबी निकासी अवधि
प्रदान की जाएगी। एक उच्च-स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति ने अपनी सिफारिशों में कहा
है कि सरकार को सभी निजी क्रिप्टोकरेंसियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
आरबीआई का विचार
आरबीआई ने कहा है कि उसकी टीम बाज़ार संरचना में सुधार के लिए डिस्ट्रिब्यूटेड
लेजर टेक्नॉलॉजी के संभावित अनुप्रयोगों की खोज कर रही है। केंद्रीय बैंक की वैध
डिजिटल मुद्रा की शुरुआत पर भी विचार चल रहा है। लगता है कि सरकार भी आरबीआई की
डिजिटल मुद्रा के पक्ष में है जो निजी क्रिप्टोकरेंसी से प्रतिस्पर्धा कर सके।
बैंक ऑफ इंटरनेशनल सेटलमेंट्स द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 80%
केंद्रीय बैंकों ने यह दावा किया है कि उन्होंने पहले से ही सेंट्रल बैंक की डिजिटल
मुद्राओं के संभावित लाभों को समाविष्ट करना या डिजिटल मुद्राओं के उपयोग की खोज
शुरू कर दी है।
क्रिप्टोकरेंसी स्टार्ट-अप्स
वर्तमान में भारत में 200 से अधिक ब्लॉकचेन स्टार्ट-अप काम कर रहे हैं जिनमें
से अधिकांश क्रिप्टोकरेंसी स्पेस के डीलर हैं।
अप्रैल 2018 में आरबीआई ने सभी बैंकों को अधिसूचित किया कि वे भारत में
क्रिप्टोकरेंसी से सम्बंधित सभी सौदों को प्रतिबंधित और रिपोर्ट करें। इन
स्टार्ट-अप्स को अप्रैल 2019 में राहत मिली जब भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने आरबीआई
और सरकार के द्वारा लिए गए निर्णय को असंवैधानिक बताते हुए क्रिप्टोकरेंसियों पर
लगा प्रतिबंध हटा दिया। लेकिन अनुमानित
‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021’ के ज़रिए यदि निजी क्रिप्टोकरेंसियों पर
पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाता है तो हालात बदल सकते हैं।
निष्कर्ष
क्रिप्टोकरेंसियों के मामले में प्रतिबंध केवल सरकार, केंद्रीय
बैंकों और कर एजेंसियों को उन लाभों को प्राप्त करने से वंचित कर देगा जो
क्रिप्टोकरेंसी प्रणाली की कमियों के बाद भी उन्हें प्राप्त हो सकते हैं। अर्थात
प्रतिबंध लगाना तो खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा
इन मुद्राओं के नियमन की आवश्यकता है ताकि निवेशकों पर उचित रूप से कर लगाया
जा सके और अन्य देशों के साथ चर्चा करके वैधता सम्बंधी मुद्दों को भी संबोधित किया
जा सके। हम उन देशों की अर्थव्यवस्था का भी अध्ययन कर सकते हैं जिन्होंने अपनी
अर्थव्यवस्था में क्रिप्टोकरेंसी को एकीकृत किया है। प्रतिबंध तो आलस का द्योतक
है। यह लगभग वैसा ही है जैसे हम मुद्रा पर इसलिए प्रतिबंध लगाना चाहते हैं क्योंकि
इस प्रणाली को स्वीकार करने के लिए बहुत परिश्रम की आवश्यकता है ताकि
क्रिप्टोकरेंसी टेक्नॉलॉजी अर्थ व्यवस्था की पूरक बन जाए।
क्रिप्टोकरेंसी के पीछे की तकनीक नई है और भारतीय अर्थव्यवस्था को इससे फायदा भी हो सकता है। विशेष रूप से ब्लॉकचेन तकनीक को पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में शामिल करके काफी फायदा मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://kryptomoney.com/wp-content/uploads/2018/06/KryptoMoney.com-Indian-Cryptocurrency-Exchanges-Crypto-to-Crypto-Trading-RBI-Crypto-Ban.jpeg
वर्ष 2020 के सहस्राब्दी टेक्नॉलॉजी पुरस्कार की घोषणा मई
में की गई। यह पुरस्कार डीएनए अनुक्रमण (सिक्वेंसिंग) की क्रांतिकारी तकनीक के
विकास हेतु शंकर बालसुब्रमण्यन और डेविड क्लेनरमैन को दिया गया है। उनका काम
विज्ञान और नवाचार का उत्कृष्ट संगम है। यह बहुत प्रासंगिक भी है क्योंकि वर्तमान
महामारी के संदर्भ में हम सबने जीनोम अनुक्रमण के बारे में खूब सुना है।
नवाचार पर ज़ोर
यह पुरस्कार फिनलैंड की सर्वोच्च अकादमियों और उद्योगों के साथ मिलकर फिनलैंड
गणतंत्र द्वारा दिया जाता है। सहस्राब्दी पुरस्कार में इक्कीसवीं सदी का नज़रिया है
जिसमें नवाचार पर बहुत ज़ोर है। अतीत में इस पुरस्कार के विजेताओं में टिम बर्नर्स
ली (वर्ल्ड वाइड वेब के क्रियांवयन के लिए) और फ्रांसिस अरनॉल्ड (प्रयोगशाला की
परिस्थितियों में निर्देशित जैव विकास पर शोध के लिए) शामिल रहे हैं। एक गौरतलब
बात है कि ग्यारह में से सात पुरस्कार विजेताओं को आगे चलकर नोबेल पुरस्कार से भी
सम्मानित किया जा चुका है। तो हम दिल थामकर बालसुब्रमण्यन और क्लेरमैन का इन्तज़ार
करें।
शंकर बालसुब्रमण्यन का जन्म चेन्नै में हुआ था और उन्होंने अपना अधिकांश जीवन
इंग्लैंड में बिताया। पीएच.डी. करने के बाद वे कैम्ब्रिज विश्वविशलय के रसायन
विभाग से जुड़ गए। लगभग उसी समय क्लेरमैन भी विभाग में आए और दोनों की टीम बन गई।
शुरुआती लक्ष्य तो एक ऐसा सूक्ष्मदर्शी बनाने का था जो इकलौते अणुओं को देख सके।
बालसुब्रमण्यन की विशेष रुचि उस आणविक मशीनरी में थी जिसका उपयोग डीएनए अपनी
प्रतिलिपि बनाने में करता है। बातचीत में कभी इस विचार का कीड़ा कुलबुलाया कि डीएनए
की वर्णमाला को पढ़ने का कोई नया तरीका निकाला जाए ताकि डीएनए में संग्रहित सूचना
तक आसानी से पहुंचा जा सके।
डीएनए (या कुछ वायरसों में आरएनए) सजीवों की जेनेटिक सामग्री होती है। यह चार
क्षारों से बना होता है – ए, टी, जी और
सी। आरएन के संदर्भ में टी का स्थान यू नामक क्षार ले लेता है। गुणसूत्र इन्हीं
क्षारों की एक रैखीय दोहरी शृंखला होता है। डीएनए में क्षारों का क्रम ही सूचना
होता है। यही जीवन की कुंडली है। जीवन अपनी प्रतिलिपि बना सकता है और डीएनए एक
एंज़ाइम – डीएनए पोलीमरेज़ – की मदद से स्वयं की प्रतिलिपि बनाता है। इस एंज़ाइम की
मदद से डीएनए का कोई भी सूत्र अपना पूरक सूत्र बना सकता है।
नवाचारी विचार
बालसुब्रमण्यन और क्लेरमैन का नवाचारी विचार यह था कि सूत्र के संश्लेषण की इस
प्रक्रिया की मदद से डीएनए (या आरएनए) का अनुक्रमण किया जाए। उन्होंने चतुराई से ए, टी,
जी और सी क्षारों को इस तरह बदला कि हरेक एक अलग रंग में
चमकता था। जब प्रतिलिपि बनती तो डीएनए की ‘रंगीन’ प्रति के मात्र रंगों के आधार पर
क्षारों का पता लगाया जा सकता था। इसके लिए सूक्ष्म प्रकाशीय व इलेक्ट्रॉनिक
उपकरणों की ज़रूरत पड़ती थी।
उनके इस ‘नई पीढ़ी के अनुक्रमण’ (NGS) की महत्वपूर्ण बात यह है कि इसकी मदद से एक बार में डीएनए की बड़ी साइज़ का
अनुक्रमण किया जा सकता है – एक बार में 10 लाख से ज़्यादा क्षार जोड़ियों का
अनुक्रमण संभव है। इसका मतलब है कि एक बार में सैकड़ों जीन्स और किसी-किसी जीव के
पूरे जीनोम का अनुक्रमण हो सकता है। यह संभव हो पाता है एक साथ डीएनए के सैकड़ों
खंडों का अनुक्रमण करके। एक लंबे डीएनए अणु को बेतरतीबी से छोटे-छोटे टुकड़ों में
तोड़ दिया जाता है। प्रत्येक टुकड़े में चंद सैकड़ा क्षार होते हैं। इन सबका अनुक्रमण
एक साथ किया जाता है। इसके बाद इन अलग-अलग अनुक्रमों को किसी पहेली के समान आपस
में जोड़कर पूरी शृंखला पता की जाती है।
बालसुब्रमण्यन और क्लेरमैन की पहल पर इस टेक्नॉलॉजी ने सोलेक्सा के रूप में
व्यापारिक स्वरूप हासिल कर लिया है। इस निहायत सफल स्टार्टअप को बाद में बायोटेक
कंपनी इल्यूमिना ने अधिग्रहित कर लिया।
घटती लागत
इस सारे अनुक्रमण की लागत की बात करते हैं। जब ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट ने पहला
लगभग पूरा जीनोम अनुक्रमित किया था, तब उसकी अनुमानित लागत 3 अरब
डॉलर थी। चूंकि हमारे सारे गुणसूत्रों में कुल मिलाकर 3 अरब क्षार जोड़ियां हैं, तो यह गणना आसान है कि अनुक्रमण की लागत 1 डॉलर प्रति क्षार जोड़ी थी। वर्ष
2020 तक NGS टेक्नॉलॉजी की बदौलत आपके पूरे
जीनोम के अनुक्रमण की लागत घटकर चंद हज़ार डॉलर रह गई। जब यह टेक्नॉलॉजी भारत में
प्रचलित होगी तब इसकी लागत चंद हज़ार रुपए होगी!
कोरोनावायरस के जीनोम में 3 अरब नहीं बल्कि मात्र 30,000 आरएनए क्षार हैं। तब
कोई अचरज की बात नहीं कि हमारे पास नए कोरोनावायरस और उसके वैरिएन्ट्स के जीनोम को
लेकर जानकारी का अंबार है। यूके में स्वास्थ्य अधिकारियों ने हर सोलह पॉज़िटिव
व्यक्तियों में से 1 के वायरस जीनोम का अनुक्रमण किया है। लोकप्रिय जीनोम डैटा
साझेदारी साइट GSAID पर
172 देशों से 20 लाख से ज़्यादा सार्स-कोव-2 जीनोम अनुक्रम उपलब्ध हैं। दुनिया भर
में कोरोनावायरस के नए-नए संस्करणों के प्रसार और उत्पत्ति की निगरानी NGS के दम पर ही संभव हुई है।
शंकर बालसुब्रमण्यन आज भी एक बढ़िया प्रयोगशाला का संचालन करते हैं, जो ऐसे उपचारात्मक अणु की डिज़ाइन पर केंद्रित है जो कई जीन्स की बेलगाम अभिव्यक्ति को नियंत्रित करके कैंसर जैसी स्थितियों में उनके द्वारा किए जाने वाले नुकसान को रोक सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/c6n9jx/article35254815.ece/ALTERNATES/FREE_660/11TH-SCIWINNERSjpg
आजकल श्रवण यंत्रों में उपयोग
होने वाली छोटी और डिस्पोज़ेबल जिंक बैटरियों को रीचार्ज करके पॉवर ग्रिड से जोड़ने के
प्रयास किए जा रहे हैं। इनका उपयोग सौर ऊर्जा और पवन उर्जा के भंडारण के लिए किया जा
सकता है।
वर्तमान में नवीकरणीय उर्जा
के भंडारण के लिए मुख्य रूप से लीथियम आयन बैटरियों का उपयोग किया जाता है,
लेकिन ये काफी महंगी हैं। ज़िंक बैटरियां सस्ती होती
हैं और पर्यावरण के लिए कम हानिकारक भी हैं। लेकिन इन्हें लंबे समय तक बार-बार रीचार्ज
नहीं किया जा सकता। इस कमी को दूर करने के प्रयास चल रहे हैं।
सौर, पवन और अन्य नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि के साथ बैटरी
भंडारण की आवश्यकता भी बढ़ गई है। ऊर्जा भंडारण की दृष्टि से लीथियम-आयन बैटरियों की
क्षमता काफी अधिक होती है। लेकिन लीथियम एक दुर्लभ व महंगी धातु है। इसके अलावा लीथियम-आयन
बैटरियों में एक तरल ज्वलनशील इलेक्ट्रोलाइट का भी उपयोग किया जाता है। मेगावॉट-क्षमता
की बैटरियों में शीतलन और अग्नि-शमन की महंगी तकनीकों का भी उपयोग करना होता है।
ज़िंक के साथ इस तरह की कोई
समस्या नहीं है। यह एक गैर-विषैली,
सस्ती और प्रचुरता से उपलब्ध
धातु है। हाल ही में ज़िंक आधारित रीचार्जेबल बैटरियां बाज़ार में आई हैं लेकिन उनकी
भंडारण क्षमता सीमित है। वैसे एक अन्य तकनीक ज़िंक फ्लो सेल बैटरियों में भी प्रगति
हुई है लेकिन उनमें अधिक जटिल वाल्व, पंप और टैंकों की आवश्यकता होगी। इसलिए शोधकर्ता ज़िंक-एयर सेल पर कार्य कर रहे
हैं।
इन बैटरियों में एक ज़िंक एनोड
और किसी सुचालक पदार्थ (जैसे रंध्रमय कार्बन)
का कैथोड होता है और एक इलेक्ट्रोलाइट घोल इनके बीच भरा होता है। इलेक्ट्रोलाइट में
पोटेशियम हायड्रॉक्साइड या कोई अन्य क्षार भी मिला होता है। डिस्चार्ज के दौरान,
हवा में उपस्थित ऑक्सीजन कैथोड पर पानी के साथ अभिक्रिया
करके हायड्रॉक्साइड आयन का उत्पादन करती हैं। ये आयन एनोड की ओर जाते हैं जहां ज़िंक
से अभिक्रिया करके ज़िंक ऑक्साइड का निर्माण करते हैं। इस अभिक्रिया में उत्पन्न इलेक्ट्रॉन
एक बाहरी सर्किट के माध्यम से एनोड से कैथोड की ओर प्रवाहित होते हैं। रीचार्जिंग का
मतलब होता है करंट के प्रवाह को उलट देना ताकि एनोड पर ज़िंक धातु पुन: बन सके।
एक समस्या यह है कि ज़िंक बैटरियां
इस विपरीत दिशा में ठीक से काम नहीं करती हैं। एनोड की सतह पर अनियमितताओं के कारण
कुछ स्थानों पर विद्युत क्षेत्र अधिक हो जाता है जिसके चलते उन स्थानों पर ज़िंक अधिक
मात्रा में जमा होने लगता है। बार-बार ऐसा हो तो वहां उभार बन जाते हैं जो बैटरी को
शॉर्ट कर देते हैं। दूसरी समस्या यह है कि इलेक्ट्रोलाइट में उपस्थित पानी एनोड से
अभिक्रिया करके ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस उत्पन्न करता है जिससे सेल के फटने की आशंका
रहती है।
शोधकर्ता इन समस्याओं पर काफी
गंभीरता से काम कर रहे हैं। वर्ष 2017 में कुछ शोधकर्ताओं ने ज़िंक एनोड इस तरह तैयार किया कि उस पर छोटे-छोटे खाली स्थान
थे। सतह का क्षेत्रफल बढ़ जाने से स्थानीय विद्युत क्षेत्र कम हो गए जिससे उभार बनने
की संभावना कम हो गई और पानी के अणुओं के विघटन की आशंका भी।
इसी प्रकार से, मैरीलैंड वि·ाविद्यालय के चुनशेंग वांग की टीम ने इलेक्ट्रोलाइट
में फ्लोरीन युक्त लवण मिलाया है। यह ज़िंक से अभिक्रिया करके एनोड के चारों ओर ठोस
ज़िंक फ्लोराइड का आवरण बना देता है। चार्जिंग-डिस्चार्जिंग के दौरान आयन तो इसमें से
गुज़र जाते हैं लेकिन उभारों में वृद्धि रुक जाती है और पानी के अणु एनोड तक पहुंच नहीं
पाते। वांग के अनुसार ऐसा करने से यह उपकरण काफी धीरे-धीरे डिस्चार्ज होता है। अभिक्रिया
को तेज़ करने के लिए टीम कैथोड पर उत्प्रेरक जोड़ने का प्रयास कर रही है।
इसी तरह की एक रणनीति हैनयैंग
युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भी अपनाई है। उन्होंने कॉपर, फॉस्फोरस और सल्फर के मिश्रण से एक तंतुमय कैथोड बनाया है जो
उत्प्रेरक का भी काम करता है और पानी के साथ ऑक्सीजन की अभिक्रिया को भी तेज़ करता है।
इन प्रयासों से ऐसी बैटरियों का निर्माण किया जा सकता है जिनको काफी तेज़ी से चार्ज-डिस्चार्ज
किया जा सकता है और उनकी क्षमता 460 वॉट-घंटे प्रति किलोग्राम
तक हो सकती है। ये बैटरियां चार्ज और डिस्चार्ज के हज़ारों चक्रों के बाद भी स्थिर रहेंगी।
इन प्रयासों से ऐसी उम्मीद है कि जल्द ही ज़िंक-एयर बैटरियां लीथियम की जगह लेने वाली हैं। कच्चा माल सस्ता होने की वजह से ग्रिड-पैमाने की ज़िंक-एयर बैटरियों की लागत लगभग 7000 रुपए प्रति किलोवॉट घंटा होगी जो आज के समय की सबसे सस्ती लीथियम-आयन बैटरियों के आधे से भी कम है। हालांकि, इस क्षेत्र में काफी काम करने की आवश्यकता है और शोधकर्ताओं को छोटे आकार की बैटरियों के उत्पादन से आगे बढ़ते हुए बड़े आकार की प्रणालियां विकसित करना होगा। ज़ाहिर है, इसमें कई वर्षों का समय लगेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/ca_0528NID_Energy_Storage_Facility_online.jpg?itok=H26S0Lgw
नाभिकीय संलयन ऊर्जा के क्षेत्र में जानी-मानी कंपनी जनरल
फ्यूज़न ने हाल ही में घोषणा की है कि वह अगले साल अपने संलयन आधारित पायलट बिजली
संयंत्र का निर्माण शुरू करेगी। इस संयंत्र का आकार वाणिज्यिक बिजली संयंत्र का 70
प्रतिशत होगा। यूके सरकार द्वारा वित्तीय समर्थन प्राप्त इस संयंत्र को स्थापित
करने का उद्देश्य ऊर्जा उत्पन्न करना नहीं बल्कि यह दर्शाना है कि कंपनी द्वारा
विकसित संलयन का नया तरीका कितना व्यावहारिक है।
दशकों से कार्बन मुक्त ऊर्जा के विकल्प के तौर पर नाभिकीय संलयन शोधकर्ताओं और
निवेशकों को लुभाता आया है। नाभिकीय संलयन में होता यह है कि दो या दो से अधिक
हल्के नाभिक (प्राय: हाइड्रोजन) आपस में जुड़कर एक भारी नाभिक (हीलियम) बनाते हैं; इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है। यही वह प्रक्रिया है जो सूरज को उसकी
ऊर्जा प्रदान करती है। समस्या यह है कि नाभिकों के संलयन के लिए अत्यधिक ताप और
दाब की आवश्यकता होती है। अब तक कोई भी संलयन रिएक्टर खर्च की गई ऊर्जा से अधिक
उर्जा का उत्पादन नहीं कर पाया है।
वैसे लगता है कि फ्रांस की विशाल अंतर्राष्ट्रीय परियोजना ITER यह लक्ष्य पहले हासिल कर
लेगी। इस रिएक्टर में विशाल अतिचालक चुंबकों द्वारा एक पात्र में आयनित गैस (प्लाज़्मा)
बनाए रखी जाती है और इसे माइक्रोवेव या पार्टिकल किरणों द्वारा गर्म किया जाता है।
फिलहाल यह परियोजना कछुआ चाल से आगे बढ़ रही है और ऊर्जा लाभ 2035 के बाद ही मिलने
की उम्मीद है। इसलिए नई परियोजनाओं के लिए मौका है।
जनरल फ्यूज़न कंपनी ने मैग्नेटाइज़्ड टारगेट फ्यूज़न तकनीक का उपयोग किया है।
इसमें एक इंजेक्टर सिगरेट के धुएं के छल्ले जैसा प्लाज़्मा का छल्ला बनाता है, छल्ला अपने घूर्णन से एक चुंबकीय क्षेत्र बनाता है। यह चुंबकीय क्षेत्र कणों
के बादल को जोड़े रखता है। इस बादल का जीवनकाल चंद मिलीसेकंड ही होता है। इन चंद
मिलीसेकंड की अवधि में इसको संपीड़न द्वारा इतना ताप और दाब दिया जाता है कि संलयन
होने लगे। अब कंपनी इस छल्ले को थोड़ी लंबी अवधि तक बनाए रखने में सफल हुई है।
प्लाज़्मा के छल्ले जिस कक्ष में भेजे जाते हैं वहां तरल लीथियम की परत तेज़ी
गति से घूमती रहती है। यह परत नाभिकीय संलयन में मुक्त हुए उच्च ऊर्जा वाले कणों
को अवशोषित कर लेती है, जिससे रिएक्टर सुरक्षित रहता है। जब प्लाज़्मा
कक्ष के मध्य में पहुंचता है तो सैकड़ों पिस्टन नियमित अंतराल से रिएक्टर की दीवार
पर बाहर से प्रहार करते हैं, यह लीथियम को अंदर की ओर धकेलता
है और प्लाज़्मा को संपीड़ित कर देता है ताकि संलयन क्रिया शुरू हो जाए। व्यावसायिक
रिएक्टर से ऊर्जा लाभ लेने के लिए प्रत्येक कुछ सेकंड के अंतराल पर नए प्लाज़्मा
छल्ले संपीड़ित करने होंगे।
फिलहाल इस प्रायोगिक संयंत्र का लक्ष्य संलयन के लिए ज़रूरी 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान हासिल करना और पूरी प्रक्रिया को किफायती दर्शाना है। बड़े व्यावसायिक रिएक्टर में उपयोग किए जाने वाले ड्यूटेरियम-ट्रिशियम मिश्रण के बजाय इसमें अपेक्षाकृत कम क्रियाशील शुद्ध ड्यूटेरियम का उपयोग किया जाएगा। इससे ट्रिशियम की दुर्लभता, अतिरिक्त ऊष्मा और रेडियोधर्मिता जैसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। यदि पायलट संयंत्र काम कर पाता है तो ड्यूटेरियम-ट्रिशियम मिश्रण संलयन भी काम करेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Fusion%20Island-1280×720.jpg?itok=ZTGNCiFC
वर्ष 1907 में संश्लेषित प्लास्टिक के रूप में सबसे पहले
बैकेलाइट का उपयोग किया गया था। वज़न में हल्का, मज़बूत
और आसानी से किसी भी आकार में ढलने योग्य बैकेलाइट को विद्युत कुचालक के रूप में
उपयोग किया जाता था।
प्लास्टिक आधुनिक दुनिया में काफी उपयोगी चीज़ है। देखा जाए तो प्लास्टिक
उत्पादों की डिज़ाइन और निर्माण का एक प्रमुख घटक है। प्लास्टिक विशेष रूप से एकल
उपयोग की चीज़ें बनाने में काम आता है – जैसे पानी की बोतलें और खाद्य उत्पादों के
पैकेजिंग। फिलहाल प्रति वर्ष 38 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है जो वर्ष
2050 तक 90 करोड़ टन होने की संभावना है।
लेकिन जिन जीवाश्म र्इंधनों से प्लास्टिक का निर्माण होता है उन्हीं की तरह
प्लास्टिक के भी नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव हो सकते हैं। एक अनुमान के मुताबिक
2050 तक 12 अरब टन प्लास्टिक लैंडफिल में पड़ा होगा और पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा
होगा। 2015 में इसकी मात्रा 4.9 अरब टन थी।
कचरे से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए जो इंसिनरेटर उपयोग किए जाते हैं उनमें भी
प्रमुख रूप से प्लास्टिक ही जलाया जाता है। इनमें भी काफी मात्रा में कार्बन
उत्सर्जन होता है। कुछ वृत्त चित्रों में प्लास्टिक कचरे के कारण होने वाले
पर्यावरणीय प्रदूषण पर ध्यान आकर्षित किया गया है।
वैसे आजकल प्लास्टिक पुनर्चक्रण किया जाता है लेकिन एक तो यह प्रक्रिया काफी
खर्चीली है और पुनर्चक्रित प्लास्टिक कम गुणवत्ता वाले होते हैं और कमज़ोर भी होते
हैं। आजकल बाज़ार में जैव-विघटनशील प्लास्टिक का भी उपयोग किया जा रहा है। इनका
उत्पादन वनस्पति पदार्थों से किया जाता है या इनमें ऑक्सीजन या अन्य रसायन जोड़े
जाते हैं ताकि ये समय के साथ सड़ जाएं। लेकिन ये प्लास्टिक सामान्य प्लास्टिक के
पुनर्चक्रण में बाधा डालते हैं क्योंकि तब मिले-जुले पुनर्चक्रित प्लास्टिक की
गुणवत्ता और भी खराब होती है। इन्हें अलग करना भी संभव नहीं होता।
ऐसे में अधिक निर्वहनीय प्लास्टिक का निर्माण रसायन विज्ञान का एक महत्वपूर्ण
सवाल बन गया है। वर्तमान में शोधकर्ता प्लास्टिक कचरे को कम करने के प्रयास कर रहे
हैं और साथ ही ऐसे प्लास्टिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिनका बेहतर पुनर्चक्रण
किया जा सके।
ऐसा एक प्रयास नेचर में प्रकाशित हुआ है। जर्मनी स्थित युनिवर्सिटी ऑफ
कॉन्सटेंज़ के स्टीफन मेकिंग और उनके सहयोगियों ने एक नए प्रकार के पॉलिएथीलीन का
वर्णन किया है। पॉलीएथीलीन (या पोलीथीन) सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला एकल-उपयोग
प्लास्टिक है। मेकिंग द्वारा निर्मित पोलीथीन ऐसा पदार्थ है जिसकी अधिकांश शुरुआती
सामग्री को पुर्नप्राप्त करके फिर से काम में लाया जा सकता है। वर्तमान पदार्थों
और तकनीकों के साथ ऐसा कर पाना काफी मुश्किल है।
वैसे इस नए प्लास्टिक पर अभी और परीक्षण की आवश्यकता है। मौजूदा पुनर्चक्रण की
अधोरचना पर इसके प्रभावों का आकलन भी करना होगा। इसके लिए मौजूदा पुनर्चक्रण
केंद्रों में अलग प्रकार की तकनीक की आवश्यकता होगी। यदि इसके उपयोग को लेकर आम
सहमति बनती है और इसे बड़े पैमाने पर किया जा सके तो पुनर्चक्रित प्लास्टिक के
इस्तेमाल में वृद्धि होगी और शायद प्लास्टिक को पर्यावरण के लिए कम हानिकारक बनाया
जा सकेगा।
वास्तव में प्लास्टिक आणविक इकाइयों की शृंखला से बने होते हैं। जाता है।
पुन:उपयोग के लिए इस प्रक्रिया को उल्टा चलाकर शुरुआती पदार्थ प्राप्त करना कठिन
कार्य है। प्लास्टिक पुनर्चक्रण में मुख्य बाधा यह है कि इकाइयों को जोड़ने वाले
रासायनिक बंधनों को कम ऊर्जा खर्च करके इस तरह तोड़ा जाए कि मूल पदार्थों को
पुनप्र्राप्त किया जा सके और एक बार फिर अच्छी गुणवत्ता का प्लास्टिक बनाने में
इस्तेमाल किया जा सके।
वैसे तो इस तरीके की खोज में कई वैज्ञानिक समूह काम कर रहे थे लेकिन मेकिंग की
टीम ने मज़बूत पॉलीएथीलीन-नुमा एक ऐसा पदार्थ विकसित किया जिसके रासायनिक बंधनों को
आसानी से तोड़ा जा सकता है। इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक लगभग सभी शुरुआती पदार्थ पुर्नप्राप्त
करने में सफल रहे।
गौरतलब है कि इसी तरह की खोज एक अन्य टीम द्वारा भी की गई है। युनिवर्सिटी ऑफ
कैलिफोर्निया की सुज़ाना स्कॉट और उनके सहयोगियों ने एक उत्प्रेरक की मदद से
पॉलीएथीलीन के अणुओं को तोड़कर अन्य किस्म की इकाइयां प्राप्त कीं जिनसे शुरू करके
एक अलग प्रकार का प्लास्टिक बनाया जा सकता है। यह एक महत्वपूर्ण शोध है। इसे
विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक और बड़े पैमाने पर उपयोग में लाना चाहिए।
अलबत्ता,
रसायन शास्त्र हमें यहीं तक ला सकता है। जब तक प्लास्टिक के
उपयोग में वृद्धि जारी है, केवल पुनर्चक्रण से प्लास्टिक
प्रदूषण को कम नहीं किया जा सकता है। प्लास्टिक को जलाने और इसे महासागरों या
लैंडफिल में भरने से रोकने के लिए प्लास्टिक निर्माण की दर को कम करना होगा।
कंपनियों को अपने प्लास्टिक उत्पादों के पूरी तरह से पुनर्चक्रण की ज़िम्मेदारी
लेनी होगी। और इसके लिए सरकारों को अधिक नियम-कायदे बनाने होंगे और संयुक्त
राष्ट्र की प्लास्टिक संधि को भी सफल बनाना होगा।
इसके लिए प्लास्टिक पैकेजिंग में शामिल 20 प्रतिशत कंपनियों ने न्यू
प्लास्टिक्स इकॉनॉमी ग्लोबल कमिटमेंट के तरह यह वादा किया है कि प्लास्टिक
पुनर्चक्रण में वृद्धि करेंगे। लेकिन हालिया रिपोर्ट दर्शाती है कि एकल-उपयोग
प्लास्टिक को कम करने और पूर्ण रूप से पुन:उपयोगी पैकेजिंग को अपनाने में प्रगति
उबड़-खाबड़ है।
ज़ाहिर है कि इस संदर्भ में कंपनियों को ठेलने की आवश्यकता है। यदि उन पर दबाव बनाया जाए कि उन्हें प्लास्टिक के पूरे जीवन चक्र की ज़िम्मेदारी लेनी होगी तो वे ऐसे पदार्थों का उपयोग करने को आगे आएंगी जिनका बार-बार उपयोग हो सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-00391-7/d41586-021-00391-7_18864090.jpg
विगत 9 फरवरी को संयुक्त अरब अमीरात का अल-अमल (यानी उम्मीद) ऑर्बाइटर मंगल पर पहुंच गया। किसी अरब राष्ट्र द्वारा किसी अन्य ग्रह पर भेजा गया यह पहला यान है। अल-अमल मंगल की कक्षा में चक्कर काटते हुए वहां के वायुमंडल और जलवायु का अध्ययन करेगा। यदि सभी प्रणालियां ठीक से काम करती रहीं तो यूएसए, सोवियत संघ, युरोप और भारत के बाद संयुक्त अरब अमीरात मंगल पर यान भेजने वाले देशों में शरीक हो जाएगा जबकि अमीरात ने अंतरिक्ष एजेंसी वर्ष 2014 में ही शुरू की है।
ऑर्बाइटर को कक्षा में प्रवेश कराने के लिए अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपक 30 मिनट
के लिए सक्रिय होंगे जो यान की रफ्तार को 1,21,000 किलोमीटर प्रति घंटे से कम करके
18,000 किलोमीटर प्रति घंटे पर लाएंगे, ताकि ऑर्बाइटर मंगल ग्रह
के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में पहुंच जाए। अगले कुछ महीनों में अल-अमल धीरे-धीरे
मंगल की कक्षा में एक अण्डाकार पथ अपना लेगा। इस तरह ऑर्बाइटर कभी मंगल की सतह से
दूर (43,000 किलोमीटर) तो कभी पास (20,000 किलोमीटर) होगा। अब तक अन्य मिशन के
ऑर्बाइटर मंगल की सतह के बहुत करीब स्थापित किए गए हैं जिस कारण वे एक बार में
छोटे स्थान को देख पाते हैं। लेकिन अल-अमल ऑर्बाइटर एक ही स्थान पर विभिन्न समयों
पर नज़र रख सकेगा।
मंगल ग्रह के वायुमंडल की पड़ताल करने के लिए इस ऑर्बाइटर में तीन उपकरण हैं।
इनमें से दो उपकरण हैं इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर और अल्ट्रावायलेट स्पेक्ट्रोमीटर।
और तीसरा उपकरण,
इमेजिंग कैमरा, मंगल की रंगीन तस्वीरें
लेगा। इस तरह ऑर्बाइटर से एकत्र डैटा से पता चलेगा कि मंगल पर चलने वाली आंधियों
की शुरुआत कैसे होती है और वे प्रचण्ड रूप कैसे लेती हैं। इसके अलावा यह जानने में
भी मदद मिलेगी कि अंतरिक्ष के मौसम में होने वाले बदलावों, जैसे
सौर तूफान के प्रति मंगल ग्रह का वायुमंडल किस तरह प्रतिक्रिया देता है। यह भी पता
चलेगा कि कैसे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसें निचले वायुमंडल से निकलकर अंतरिक्ष में
पलायन कर जाती हैं। इसी प्रक्रिया से मंगल का पानी उड़ गया और अतीत की जीवन-क्षमता
को प्रभावित किया।
न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के खगोल वैज्ञानिक दिमित्र अत्री कहते हैं कि मंगल पर
भेजे गए पिछले प्रोब, जैसे नासा का मावेन, भी अच्छे थे लेकिन वे एक समय में एक छोटे क्षेत्र का ही डैटा जुटाते थे।
अल-अमल विहंगम अवलोकन करेगा।
संयुक्त अरब अमीरात को अपने मंगल मिशन से उम्मीद है कि यह इस क्षेत्र के
युवाओं को विज्ञान को करियर के रूप में अपनाने को प्रेरित करेगा।
इसी बीच, चीन का पहला मंगल यान तियानवेन-1 भी अपने ऑर्बाइटर, लैंडर और रोवर के साथ 10 फरवरी को मंगल ग्रह पर पहुंच गया। 18 फरवरी को नासा का परसेवरेंस रोवर जेज़ेरो क्रेटर के ठीक ऊपर था। (स्रोत फीचर्स)
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वैज्ञानिकों ने ऐसा सिस्टम तैयार किया है जो 5G मोबाइल नेटवर्क्स की तुलना में 10 गुना ज़्यादा रफ्तार से डैटा ट्रांसमिट कर सकता है। इससे न सिर्फ डाउनलोड स्पीड बढ़ेगी बल्कि इन-फ्लाइट नेटवर्क कनेक्शंस की स्पीड भी बढ़ेगी। जापान की हिरोशिमा युनिवर्सिटी और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ इन्फर्मेशन एंड कम्यूनिकेशंस टेक्नॉलजी ने टेराहर्ट्ज़ (THz) ट्रांसमिटर बनाने की जानकारी दी है। यह सिंगल चैनल पर 300 गीगाहर्ट्ज़ बैंड का इस्तेमाल करते हुए एक सेकंड में 100 गीगाबिट्स के रेट पर डिजिटल डैटा ट्रांसमिट करता है। THz बैंड नया है और भविष्य में अल्ट्राहाई-स्पीड वायरलेस कम्यूनिकेशंस में इस्तेमाल होगा। रिसर्च ग्रुप का बनाया एक ट्रांसमिटर 290 GHz से 315 GHz फ्रिक्वेंसी रेंज पर 105 गीगाबिट्स प्रति सेकंड की स्पीड से ट्रांसमिशन कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले वैज्ञानिकों ने एक ऐसे पदार्थ की पहचान कर ली है जो
लगभग 4000 डिग्री सेल्सियस के तापमान को सहन कर सकता है। यह खोज बेहद तेज़
हायपरसोनिक अंतरिक्ष वाहनों के लिए बेहतर ऊष्मा प्रतिरोधी कवच बनाने का रास्ता खोल
सकती है।
इंपीरियल कॉलेज, लंदन के शोधकर्ताओं ने खोज की है कि हैफ्नियम कार्बाइड का गलनांक अब तक दर्ज किसी भी पदार्थ के गलनांक से ज़्यादा है। टैंटेलम कार्बाइड और हैफ्नियम कार्बाइड रीफ्रेक्ट्री सिरेमिक्स हैं; अर्थात ये असाधारण रूप से ऊष्मा-सह हैं। अत्यधिक ऊष्मा को सहन कर सकने की इनकी क्षमता का अर्थ है कि इनका इस्तेमाल तेज़ गति के वाहनों में ऊष्मीय सुरक्षा प्रणाली में और परमाणु रिएक्टर के बेहद गर्म पर्यावरण में र्इंधन के आवरण के रूप में किया जा सकता है। इन दोनों ही यौगिकों के गलनांक के परीक्षण प्रयोगशाला में करने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी। अत:, शोधकर्ताओं ने इन दोनों यौगिकों की गर्मी सहन कर सकने की क्षमता के परीक्षण के लिए लेज़र का इस्तेमाल करके तेज़ गर्मी पैदा करने वाली एक नई प्रौद्योगिकी विकसित की है। उन्होंने पाया कि इन दोनों यौगिकों के मिश्रण का गलनांक 3990 डिग्री सेल्सियस था। लेकिन दोनों यौगिकों के अलग-अलग गलनांक अब तक ज्ञात इस तरह के यौगिकों से ज़्यादा पाए गए (टैंटेलम कार्बाइड 3880 डिग्री सेल्सियस, हैफ्नियम कार्बाइड 3928 डिग्री सेल्सियस)। ये पदार्थ तेज़ अंतरिक्ष यानों में उपयोगी होंगे (स्रोत फीचर्स)
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