हीटवेव के लिए ज़िम्मेदार प्रमुख कंपनियां

ई वर्षों से वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि इंसानी गतिविधियां तूफान (Storms), सूखा (Drought)  और ग्रीष्म लहर (Heatwave) जैसी चरम घटनाओं को बढ़ा रही हैं। नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में वर्ष 2000 से 2023 के बीच दुनिया भर में दर्ज हुई कई ग्रीष्म लहरों का सीधा सम्बंध बड़ी जीवाश्म ईंधन कंपनियों से पाया गया है।

शोध के अनुसार, इस अवधि की लगभग एक-चौथाई ग्रीष्म लहरें कोयला (Coal), तेल (Oil) और गैस उत्पादन करने वाली बड़ी ऊर्जा कंपनियों के उत्सर्जन से जुड़ी हैं। वैज्ञानिक यान क्विलकाइल का मानना है कि ये बड़े कार्बन उत्सर्जक (Carbon Emitters) न केवल ग्रीष्म लहर की घटनाओं को बढ़ा रहे हैं बल्कि उन्हें और अधिक खतरनाक बना रहे हैं।

अध्ययन में पाया गया है कि 2000 से 2023 के बीच दर्ज की गई 213 ग्रीष्म लहरों में से एक-चौथाई से ज़्यादा होती ही नहीं यदि मानव-जनित ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming)  न हुआ होता। और भी चौंकाने वाली बात यह है कि इन कंपनियों के उत्सर्जन ने 53 ग्रीष्म लहरों की संभावना को 10,000 गुना तक बढ़ा दिया।

इस अध्ययन की खासियत यह है कि इसने जलवायु आपदाओं (Global Warming)  को सीधे कुछ बड़ी कंपनियों से जोड़ा है, जैसे सऊदी अरामको (Saudi Aramco), गज़प्रोम (Gazprom) और भारत-चीन के बड़े कोयला व सीमेंट उत्पादक। ऐसी कुल 180 ‘कार्बन मेजर’ कंपनियों (Carbon Major Companies) को अब तक के लगभग 57 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार पाया गया है। अन्य बड़े प्रदूषकों में सोवियत संघ के पुराने उद्योग, एक्सॉन मोबिल (ExxonMobil), शेवरॉन (Chevron), ईरान की राष्ट्रीय तेल कंपनी, ब्रिटिश पेट्रोलियम (BP) और शेल (Shell) शामिल हैं।

शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल (Climate Model)  का उपयोग करके यह भी बताया है कि दुनिया ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के साथ और बिना कैसी दिखती। इसके बाद उन्होंने कंपनियों के उत्सर्जन को दर्ज ग्रीष्म लहर की घटनाओं से जोड़ा।

कानूनी विशेषज्ञों (Legal Experts) का मानना है कि यह अध्ययन अदालतों में सबूत के तौर पर इस्तेमाल हो सकता है। मसलन, अमेरिका के ओरेगन राज्य (Oregon State) ने 2021 की ग्रीष्म लहर के लिए जीवाश्म ईंधन कंपनियों पर 52 अरब डॉलर का मुकदमा दायर किया है जहां इस तरह के अध्ययन साक्ष्य बन सकते हैं। ऐसे अध्ययन यह दिखाते हैं कि ज़िम्मेदारी को महज ‘सामूहिक दोष’ मानने की बजाय कंपनियों को दोषी (Corporate Accountability) ठहराया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धरती की कार्बन भंडारण की क्षमता असीमित नहीं है

क हालिया अध्ययन के अनुसार, पृथ्वी की कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) को सुरक्षित रूप से भूमिगत भंडारण (carbon storage) की करने क्षमता पूर्व अनुमानों से कहीं कम है और यह साल 2200 तक खत्म भी हो सकती है। इसका मतलब है कि जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने के लिए कार्बन कैप्चर और स्टोरेज जैसी तकनीकों को लंबी अवधि का हल मानना मुश्किल है।

पेरिस समझौते (Paris Agreement) के तहत धरती के तापमान को औद्योगिक-पूर्व स्तर से डेढ़ से दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए वातावरण से काफी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड को हटाना (CO2 removal) होगा। इसका एक तरीका है उद्योगों से निकलने वाली गैस को कैद करके गहराई में चट्टानों के बीच संग्रहित करना। पहले माना गया था कि धरती 10 से 40 हज़ार गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड संभाल सकती है, लेकिन ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिकों का नया अध्ययन बताता है कि सुरक्षित क्षमता सिर्फ 1460 गीगाटन है।

इस अनुमान में भूकंप (earthquake risk) से होने वाले रिसाव, तकनीकी दिक्कतों और ज़मीन के उपयोग पर राजनीतिक पाबंदियों (land use restrictions) जैसे कारकों को भी शामिल किया गया है। अध्ययन में स्थिर तलछटी चट्टानों (sedimentary rocks) पर ही गौर किया गया है, जहां फिलहाल अधिकांश कार्बन भंडारण की योजनाएं बनाई जा रही हैं।

फिलहाल, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS technology) तकनीक हर साल लगभग 4.9 करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड हटाती है। योजना है कि इसे बढ़ाकर 41.6 करोड़ टन सालाना किया जाए। लेकिन पेरिस समझौते का लक्ष्य हासिल करने के लिए 2050 तक प्रति वर्ष 8.7 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड हटाना होगा – यानी अगले 30 सालों में 175 गुना बढ़ोतरी (emission reduction target)।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगर धरती की सारी सुरक्षित क्षमता भी उपयोग कर ली जाए, तो भी तापमान केवल 0.7 डिग्री सेल्सियस ही घटेगा। जबकि इस सदी में तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने का अंदेशा है। इसलिए सिर्फ कार्बन कैप्चर के भरोसे नहीं रहा जा सकता। ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gases) उत्सर्जन को तेज़ी से घटाना होगा, नवीकरणीय ऊर्जा (renewable energy) को बढ़ाना होगा और टिकाऊ तरीकों को अपनाना होगा।

अध्ययन यह भी बताता है कि ज़मीन में दफन कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 leakage) का रिसाव ज़मीन के पानी में घुलकर कार्बोनिक एसिड बना सकता है। इस तरह बढ़ी हुई अम्लीयता से खनिज घुल सकते हैं और ज़हरीली धातुएं निकल सकती हैं, जो पर्यावरण (environmental risk) और मानव स्वास्थ्य दोनों के लिए खतरनाक है। (स्रोत फीचर्स)

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गर्माती दुनिया में ठंडक देते वस्त्र

वैश्विक तपन (global warming) अब कोई दूर का खतरा नहीं रह गया है। यह हमारी ज़िंदगी, काम और जीने के तरीकों को बदल रहा है। जैसे-जैसे गर्मियां और अधिक गर्म और प्रचंड हो रही हैं, गर्मी में सिर्फ सूती कपड़े पहनना ठंडक के लिए पर्याप्त नहीं है। ऐसे में ठंडक देने के नए उपाय खोजने की मांग बढ़ रही है – ऐसे उपाय (cooling solutions) जो बिना अधिक बिजली खर्च किए गर्मी से बचा सकें।

इसके लिए सबसे पहले यह समझना होगा कि हमें ठंडक कैसे मिलती है। शरीर को ठंडक मुख्यत: चार प्रमुख तरीके से मिलती है:

विकिरण – जब गर्मी अदृश्य ऊर्जा (इन्फ्रारेड विकिरण – (infrared radiation)) के रूप में बाहर निकलती है।

संचरण – जब गर्मी छूने से स्थानांतरित होती है, जैसे गरम तवे को छूना।

संवहन – जब बहती हवा (air circulation) गर्मी को साथ ले जाती है, जैसे ठंडी हवा का झोंका।

वाष्पीकरण – जब पसीना वाष्पित (sweat evaporation) होकर शरीर से गर्मी बाहर ले जाता है।

और, आधुनिक विज्ञान अब ऐसे कपड़े और पहनने योग्य उपकरण (wearable devices) बना रहा है, जो इन चारों तरीकों को और ज़्यादा असरदार बना सकें।

ठंडक देने वाले स्मार्ट कपड़े

वैज्ञानिक ऐसे खास कपड़े (spectrum-selective textiles) (smart textiles) बना रहे हैं, जो सूरज की हानिकारक गर्मी को रोकें और शरीर की प्राकृतिक इन्फ्रारेड ऊर्जा को बाहर निकलने दें। इसके कुछ उदहारण हैं:

नैनोपोरस पॉलीएथिलीन कपड़ा – यह सूती कपड़े से लगभग 2 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा ठंडा रखता है, क्योंकि यह शरीर की गर्मी को बाहर जाने देता है और सूरज की रोशनी को रोकता है।

मेटाफैब्रिक – यह कपड़ा अलग-अलग तरंगदैर्घ्य के प्रकाश को परावर्तित करता है और शरीर की गर्मी को ‘वायुमंडलीय झरोखे’ (यानी वे किरणें जो अंतरिक्ष में बिखर जाती हैं) (atmospheric window)  के ज़रिए बाहर निकलने देता है।

लेकिन ये कपड़े कभी-कभी शहर की इमारतों और सड़कों से निकलने वाली गर्मी को सोख लेते हैं। इसके अलावा नमी और वायु प्रदूषण भी इनके काम में बाधा डालते हैं। इसलिए वैज्ञानिक अब विकिरण प्रक्रिया को संवहन और वाष्पीकरण के साथ मिलाकर ऐसे कपड़े बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो वास्तविक परिस्थितियों में भी काम करें।

संचरण और संवहन

संचरण (thermal conduction) एक कारण है जिससे कुछ कपड़े छूते ही ठंडे लगते हैं। यदि इनमें बोरोन नाइट्राइड जैसे उच्च ऊष्मा चालक कण मिलाए जाएं, तो ये कपड़े त्वचा की गर्मी को जल्दी बाहर खींच लेते हैं। दूसरी ओर, एयरोजेल फाइबर (जो ध्रुवीय भालू के फर से प्रेरित हैं) (aerogel fiber) इंसुलेटर का काम करते हैं और अत्यधिक गर्म माहौल में बाहर की गर्मी को रोकते हैं।

संवहन प्रकृति का अपना एयर कंडीशनर (natural cooling)  है। ढीले, हवादार कपड़े गर्म हवा को बाहर निकालते हैं और ठंडी हवा को अंदर लाते हैं। कुछ स्मार्ट कपड़े तो ऐसे भी हैं जिनमें नमी-संवेदनशील रेशे होते हैं, जो पसीना बढ़ने पर छोटे-छोटे छिद्र खोल देते हैं और पसीने को तेज़ी से सुखा देते हैं।

वाष्पीकरण की भूमिका

साधारण कपड़ों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे पसीना (sweat) सोख लेते हैं और गीले हो जाते हैं, जिससे ये भारी व असुविधाजनक लगते हैं। अब वैज्ञानिक ऐसे कपड़े बना रहे हैं जो हमारी त्वचा (skin-like fabric) की तरह काम करें – यानी पसीने की बूंदों को बाहर निकाल दें। इससे शरीर सूखा बना रहता है। कुछ कपड़े तो छोटे-छोटे विद्युत आवेश का इस्तेमाल करके पसीने को सक्रिय रूप से बाहर पंप कर देते हैं। इससे न सिर्फ पहनने में आराम मिलता है बल्कि कपड़े की कूलिंग क्षमता (cooling capacity) भी बढ़ जाती है क्योंकि भीगे कपड़े ज़्यादा गर्मी सोखते हैं।

पहनने योग्य शीतलक

हमेशा सिर्फ कपड़े ही अत्यधिक गर्मी से नहीं बचा सकते। यहां काम आते हैं पहनने योग्य शीतलक। पंखे से लैस जैकेट (cooling jacket) और लिक्विड-कूलिंग वेस्ट पहले से मौजूद हैं, लेकिन ये भारी, ज़्यादा बैटरी खाने वाले और रोज़मर्रा के इस्तेमाल के लिए असुविधाजनक हैं।

एक नया विकल्प है किरिगामी-आधारित उपकरण (जापानी पेपर-फोल्डिंग कला से प्रेरित) (Kirigami cooling device)। यह आकार और सतह बदलकर गर्मी को नियंत्रित करता है और लैब टेस्ट में शरीर की आरामदायक सीमा को लगभग 5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा देता है।

एक और समाधान है सौर ऊर्जा से चलने वाले कपड़े (solar-powered clothing), जो ऑर्गेनिक सोलर पैनल और इलेक्ट्रोकैलोरिक डिवाइस की मदद से ज़रूरत के हिसाब से शरीर को ठंडा या गर्म रखते हैं। लेकिन अभी इनमें कई चुनौतियां हैं – जैसे बैटरी का जीवन, लचीलापन और तार की फिटिंग।

कृत्रिम बुद्धि और शीतलन

एक हालिया प्रयास स्मार्ट और निजी कूलिंग सिस्टम्स (AI cooling system) है। इसमें ऐसे पहनने योग्य सेंसर (wearable sensors) होंगे जो शरीर का तापमान, पसीना, हार्ट रेट और तनाव के स्तर को मापेंगे। इसके आधार पर एआई खुद ही पहचान लेगा कि शरीर ज़्यादा गर्म हो रहा है और तुरंत कूलिंग सिस्टम चालू कर देगा।

जल्द ही स्मार्ट कपड़ों में ऐसी तकनीकें भी आ सकती हैं जो खुद शरीर से ऊर्जा पैदा करें। जैसे: थर्मोइलेक्ट्रिक जनरेटर (thermoelectric generator), जो शरीर की गर्मी से ऊर्जा बनाएंगे। पिज़ोइलेक्ट्रिक सिस्टम, जो शरीर की हलचल से बिजली बनाएंगे। मॉइस्चर-इलेक्ट्रिक डिवाइस, जो पसीने से बिजली पैदा करेंगे।

लेकिन सिर्फ तकनीक काफी नहीं है। कूलिंग कपड़े तभी सफल होंगे जब वे रोज़ाना पहनने योग्य हों; मज़बूत और धोने योग्य हों; पर्यावरण के अनुकूल (eco-friendly) हों ताकि प्रदूषण न फैले।

पर्सनल कूलिंग (personal cooling) सिर्फ आराम का सवाल नहीं है। धूप में काम करने वाले मज़दूरों, किसानों, डिलीवरी कर्मचारियों और फायरफाइटर्स जैसे लोगों के लिए यह जीवन और मौत (life saving) का फर्क साबित हो सकता है। वहीं एथलीट्स (athletes) और साहसी यात्रियों के लिए भी ऐसे कपड़े मददगार होंगे, जो आपको गर्मी से बचाएं और ज़्यादा ऊर्जा भी न खाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्लोबल वार्मिंग पर विवादित रिपोर्ट से मचा हंगामा

हाल ही में अमेरिका के ऊर्जा विभाग (Department of Energy, USA) द्वारा जारी एक रिपोर्ट से बड़ी बहस छिड़ गई है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग से होने वाला आर्थिक नुकसान पूर्व मान्यता की अपेक्षा कम होगा। लेकिन कई वैज्ञानिकों का कहना है कि यह रिपोर्ट जलवायु विज्ञान (climate science) को गलत तरीके से पेश कर रही है और इसका मकसद अमेरिकी सरकार को 2009 के उस अहम फैसले को रद्द करने में मदद करना है, जिसमें ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) को जन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माना गया था।

गौरतलब है कि बराक ओबामा (Barack Obama) के कार्यकाल में पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (Environmental Protection Agency – EPA) ने ठोस सबूतों के आधार पर निष्कर्ष दिया था कि कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) जैसी ग्रीनहाउस गैसें इंसानों और पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं, और इसी के आधार पर वाहनों, बिजली संयंत्रों और अन्य स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन पर नियंत्रण के नियम बने थे। लेकिन अब सरकार इस फैसले को पलटने की कोशिश कर रही है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति ट्रंप (Donald Trump)  जलवायु परिवर्तन को शिगूफा (climate change hoax) करार दे चुके हैं।

यह रिपोर्ट ऊर्जा सचिव क्रिस राइट (Chris Wright) ने पांच व्यक्तियों से तैयार करवाई है। इनमें वायुमंडलीय वैज्ञानिक जॉन क्रिस्टी, जलवायु वैज्ञानिक जूडिथ करी, भौतिक विज्ञानी स्टीवन कूनिन, अर्थशास्त्री रॉस मैक्किट्रिक व मौसम वैज्ञानिक रॉय स्पेंसर शामिल हैं।

रिपोर्ट के लेखकों ने कहा है कि वे तथ्यों पर आधारित खुली और पारदर्शी चर्चा (scientific debate) के लिए तैयार है, और अगर गंभीर वैज्ञानिक सुझाव मिलते हैं तो रिपोर्ट में बदलाव किया जाएगा। एजेंसी ने इस दस्तावेज़ को जनता और विशेषज्ञों द्वारा समीक्षा (public review) के लिए 2 सितंबर तक खुला रखा है।

लेकिन कई वैज्ञानिक नाराज़ हैं। एरिज़ोना विश्वविद्यालय (University of Arizona)  की महासागर विज्ञानी जोएलेन रसेल का मानना है कि यह रिपोर्ट विज्ञान को आगे बढ़ाने की बजाय दबा रही है। फिलहाल कई शोधकर्ता रिपोर्ट के हर दावे का एक तथ्यात्मक जवाब (scientific rebuttal) तैयार कर रहे हैं। इस मामले में टेक्सास स्थित ए एंड एम युनिवर्सिटी के एंड्रयू डेस्लर सुप्रीम कोर्ट तक जाने को तैयार हैं। कुछ वैज्ञानिक बताते हैं कि वर्तमान जलवायु खतरे (climate risks) के सबूत पहले से कहीं अधिक मज़बूत हैं। ऐसे में इस तरह की रिपोर्ट दुर्भाग्यपूर्ण है।

यदि ट्रंप प्रशासन जोखिम सम्बंधी निष्कर्ष को रद्द करने में सफल हो जाता है, तो पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रित करने का अधिकार समाप्त हो सकता है। इससे जलवायु प्रदूषण व परिवर्तन (climate pollution & change) पर कानूनी कार्रवाई मुश्किल हो जाएगी, और वैश्विक तापमान वृद्धि (global temperature rise) का प्रभाव और अधिक बदतर हो जाएगा। जलवायु वैज्ञानिकों (climate scientists) के लिए यह लड़ाई सिर्फ एक रिपोर्ट की नहीं है बल्कि दशकों के शोध परिणामों की रक्षा, विज्ञान पर भरोसा बनाए रखने और यह सुनिश्चित करने की है कि सार्वजनिक नीतियां ठोस सबूतों पर आधारित हों, न कि संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ पर। (स्रोत फीचर्स)

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निसार सैटेलाइट से धरती की हर हलचल पर नज़र

हाल ही में भारत स्थित श्रीहरिकोटा से निसार (NISAR – NASA–ISRO Synthetic Aperture Radar) उपग्रह का प्रक्षेपण (satellite launch) हुआ है। यह उपग्रह वैज्ञानिकों को पृथ्वी की बदलती सतह की बेहद सटीक (1 सेंटीमीटर की सूक्ष्मता तक) तस्वीर दे सकता है। 1.2 अरब डॉलर की लागत वाला यह नासा (NASA) और इसरो (ISRO) का अब तक का सबसे बड़ा संयुक्त मिशन (joint mission) है, जिसका उद्देश्य ग्रह की निगरानी (planet monitoring) के तरीकों में क्रांतिकारी बदलाव लाना है।

सफलतापूर्क स्थापित हो जाने के बाद, अगले 90 दिनों में, निसार अपनी 12 मीटर चौड़ी रडार एंटेना (radar antenna) फैलाकर पृथ्वी पर सिग्नल (signal transmission) भेजना शुरू कर देगा। यह हर 12 दिन में लगभग पूरी पृथ्वी को दो बार स्कैन (earth scan) करेगा। और चाहे बादल हों या अंधेरा, किसी भी परिस्थिति में यह ज़मीन व बर्फ में होने वाले सभी बदलावों को दर्ज करेगा।

निसार में दो रडार सिस्टम (radar systems) हैं — एक नासा का और एक इसरो का — जो अलग-अलग तरंगदैर्घ्य पर काम करते हैं। ये दुनिया भर में मिट्टी की नमी, जंगलों में पेड़ों की संख्या (forest mapping), ग्लेशियरों की गति (glacier movement) और अन्य पर्यावरणीय बदलावों (environmental changes) पर नज़र रखेंगे।

इसके अलावा, निसार तेज़ निगरानी आपदा प्रबंधन में भी बड़ा बदलाव ला सकता है। यह भूकंप के बाद (earthquake monitoring) ज़मीन में आए बदलाव, भूस्खलन की आशंका वाले ढलानों (landslide detection) और बाढ़ग्रस्त (flood-affected areas) इलाकों का लगभग वास्तविक समय (real-time monitoring) में पता लगा सकता है। ऐसे समय पर मिले ये आंकड़े राहत दलों (rescue teams) को प्राथमिकता तय करने और तेज़ी से कार्रवाई करने में मदद करेंगे, जिससे जानें बचाई जा सकती है।

हालांकि वर्ष 2026 से अमेरिकी सरकार नासा के पृथ्वी विज्ञान बजट (Earth science budget) में 50 फीसदी से अधिक कटौती कर सकती है। इससे कई बड़े मिशन (space missions) रद्द हो सकते हैं और वर्तमान परियोजनाएं बंद हो सकती हैं। फिलहाल निसार को फंडिंग मिली हुई है। लेकिन भविष्य में फंडिग की अनिश्चितता का साया तो डोल ही रहा है। इतनी बड़ी कटौतियां पृथ्वी में हो रहे बदलावों (climate and earth changes) को समझने की क्षमता को कमज़ोर कर सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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होर्मुज़ जलडमरूमध्य का महत्त्व

डॉ. इरफ़ान ह्यूमन

होर्मुज़ जलडमरूमध्य (जलसंधि) (Strait of Hormuz) हाल के दिनों में चर्चा में है क्योंकि यह वैश्विक तेल व्यापार (global oil trade) का एक महत्वपूर्ण मार्ग है, जिससे दुनिया का लगभग 20-25 प्रतिशत तेल और एक तिहाई एलएनजी (Liquified Natural Gas) आपूर्ति होकर गुज़रती है। यह फारस की खाड़ी और ओमान की खाड़ी को जोड़ता है।

हाल के भू-राजनीतिक तनावों (geopolitical tensions), खासकर ईरान और इस्राइल-अमेरिका (Iran-Israel–US) के बीच बढ़ते संघर्ष के कारण, इस जलडमरूमध्य की रणनीतिक स्थिति ने इसे सुर्खियों में ला दिया है। बीते दिनों अमेरिका और इस्राइल द्वारा ईरान के परमाणु ठिकानों (nuclear sites) पर हवाई हमले किए गए, जिसके जवाब में ईरान ने होर्मुज़ जलडमरूमध्य को बंद करने की धमकी दी है, जिससे वैश्विक तेल आपूर्ति(global oil supply) पर संकट मंडरा सकता है। इस बीच होर्मुज़ जलडमरूमध्य में एक बड़ा तेल टैंकर (oil tanker) जलने की घटना सामने आई है, जिसने अफरा-तफरी मचा दी है। अमेरिका और इस्राइल के बीच हुए युद्धविराम के बावजूद, इस क्षेत्र में तनाव बना हुआ है जिससे जलडमरूमध्य और पर्यावरण सुरक्षा को लेकर अनिश्चितता बढ़ी है।

भौगोलिक स्थिति और संरचना

होर्मुज़ जलडमरूमध्य ईरान के दक्षिणी तट और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) व ओमान के उत्तरी तटों के बीच स्थित है। इसकी चौड़ाई सबसे संकीर्ण स्थान पर लगभग 33 किलोमीटर है, और गहराई 30 से 90 मीटर तक है। यह गहराई बड़े तेल टैंकरों (super tankers) के लिए पर्याप्त है, जिससे यह व्यापारिक मार्ग (shipping route) के रूप में महत्वपूर्ण है। हालांकि यह जलडमरूमध्य ऊबड़-खाबड़ है। इसमें कई स्थानों पर चट्टानें और उथले क्षेत्र हैं, जो नौवहन (marine navigation) को दुष्कर बनाते हैं।

यह क्षेत्र पेट्रोलियम (petroleum reserves) और प्राकृतिक गैस (natural gas reserves) के भंडारों से भरपूर है। समुद्र तल की भूगर्भीय परतों में हाइड्रोकार्बन (hydrocarbons) भंडार मौजूद हैं।

होर्मुज़ का जलविज्ञान

होर्मुज़ जलडमरूमध्य की उच्च लवणीयता (high salinity) इसके जल प्रवाह (water circulation) और घनत्व को प्रभावित करती है, जो समुद्री धाराओं और नौवहन के लिए महत्वपूर्ण हैं।

यहां ज्वार-भाटा का असर कम रहता है, लेकिन तेज़ धाराएं नौवहन को प्रभावित कर सकती हैं। यहां का ज्वार प्रतिदिन दो बार चढ़ता है, जिससे जहाज़ों की आवाजाही और समुद्री जीवन प्रभावित होता है। ज्वार की ऊंचाई आम तौर पर 1-2 मीटर होती है।

फारस की खाड़ी से ओमान की खाड़ी की ओर एक सतही धारा बहती है, जो खाड़ी के गर्म और खारे पानी को बाहर ले जाती है। इसके विपरीत, गहराई पर ठंडा और कम खारा पानी ओमान की खाड़ी से फारस की खाड़ी की ओर बहता है।

इसकी लवणीयता की बात करें तो होर्मुज़ जलडमरूमध्य में सतही पानी की लवणीयता सामान्यत: 40-42 पीपीटी के बीच रहती है, जो समुद्री जीवन को चुनौतीपूर्ण बना देता है। पीपीटी लवणीयता नापने की एक इकाई है जो लगभग ग्राम प्रति लीटर के बराबर होती है। यह क्षेत्र ‘अतिलवणीय’ क्षेत्र कहलाता है। यह समुद्र की औसत लवणीयता (लगभग 35 पीपीटी) से काफी अधिक है। इसका कारण फारस की खाड़ी में उच्च वाष्पीकरण दर और (नदियों आदि से) कम मीठे पानी की आपूर्ति है। वहीं, गहरे पानी में लवणीयता थोड़ी कम हो सकती है (लगभग 38-39 पीपीटी), क्योंकि यहां ठंडा और कम खारा पानी ओमान की खाड़ी से प्रवेश करता है। साथ ही, जलडमरूमध्य के बाहर, ओमान की खाड़ी और अरब सागर की ओर जाने पर लवणीयता कम होकर लगभग 36 पीपीटी तक पहुंच जाती है, क्योंकि यह क्षेत्र खुले समुद्र से जुड़ा है और यहां वाष्पीकरण का प्रभाव कम होता है।

लवणीयता को प्रभावित करने वाले कारकों की बात करें तो इसमें पहला है उच्च वाष्पीकरण। होर्मुज़ जलडमरूमध्य और फारस की खाड़ी में गर्म और शुष्क जलवायु के कारण वाष्पीकरण की दर बहुत अधिक है। इस क्षेत्र में वर्षा नगण्य होती है, जिससे पानी में लवण की सांद्रता बढ़ती है। इसका दूसरा कारक है कम मीठा पानी। फारस की खाड़ी में दजला और फरात के संगम से बनी शट्ट-अल-अरब जैसी कुछ नदियां ही मीठा पानी लाती हैं, लेकिन यह लवणीयता को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

पर्यावरण और पारिस्थितिकी

उच्च लवणीयता वाले होर्मुज़ जलडमरूमध्य में मूंगा चट्टानें (coral reefs), मछलियां (marine fish) और अन्य समुद्री जीव (डॉल्फिन, समुद्री कछुए) और प्लवक पाए जाते हैं। उच्च लवणीयता और गर्म पानी के लिए अनुकूलित प्रजातियां ही यहां जीवित रह पाती हैं। लेकिन प्रदूषण और भारी नौवहन से इन जीवों पर असर पड़ रहा है।

होर्मुज़ जलडमरूमध्य में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण तेल रिसाव है। होर्मुज़ जलडमरूमध्य दुनिया के सबसे व्यस्त तेल शिपिंग मार्गों में से एक है, जहां से प्रतिदिन लाखों बैरल तेल गुज़रता है। टैंकरों में आग या तेल रिसाव जैसी घटनाएं समुद्री पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं। तेल प्रदूषण मूंगा चट्टानों, मछलियों और अन्य समुद्री जीवों के लिए घातक है।

यहां की मौसमी हवाएं भी नौवहन को प्रभावित करती हैं, जिससे तेल रिसाव का जोखिम बढ़ जाता है, दूसरी चुनौती है औद्योगिक अपशिष्ट। फारस की खाड़ी के आसपास के देशों से औद्योगिक (industrial waste) और नगरीय अपशिष्ट जलडमरूमध्य में आते हैं, जिससे पानी की गुणवत्ता बिगड़ती है। साथ ही प्लास्टिक (plastic pollution) और माइक्रोप्लास्टिक (micro plastic) भी एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या है। समुद्री कचरे, विशेष रूप से प्लास्टिक, का बढ़ता स्तर जलडमरूमध्य के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रहा है।

जलवायु और मौसम का प्रभाव

होर्मुज़ जलडमरूमध्य का पर्यावरण जलवायु और मौसमी कारकों से भी प्रभावित होता है। जलवायु परिवर्तन (climate change)  के कारण जलडमरूमध्य के सतही पानी का तापमान (sea surface temperature) बढ़ रहा है, जो समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है। चूंकि मूंगे उच्च तापमान सहन नहीं कर पाते इसलिए गर्म पानी मूंगा चट्टानों को नुकसान पहुंचा रहा है। गर्मी के प्रति संवेदनशील मछलियां और अन्य जीव या तो मर रहे हैं या क्षेत्र छोड़ रहे हैं, जिससे मछली पालन प्रभावित हो रहा है।

उच्च वाष्पीकरण के अलावा यहां की शमाल (उत्तर-पश्चिमी) हवाएं और धूल भरी आंधियां पानी की सतह पर धूल की परत जमा देती हैं, जो सूर्य प्रकाश को अवरुद्ध कर प्लवक की वृद्धि को प्रभावित करती हैं।

मानवीय गतिविधियों का प्रभाव भी यहां के पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है। भारी तेल टैंकर और जहाज़ों की आवाजाही से समुद्री ध्वनि प्रदूषण (underwater noise pollution) बढ़ रहा है, जो डॉल्फिन (dolphins) और व्हेल (whales) जैसी प्रजातियों के लिए हानिकारक है। भू-राजनीतिक तनावों के कारण सैन्य अभ्यास और जहाज़ों की मौजूदगी भी पर्यावरण पर दबाव डालती है। फारस की खाड़ी के देशों में डीसेलिनेशन संयंत्रों से निकलने वाला अति-खारा पानी जलडमरूमध्य में छोड़ा जाता है, जो लवणीयता को और बढ़ाता है और पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित करता है।

जलवायु परिवर्तन से दीर्घकालिक जोखिम के चलते समुद्र जलस्तर बढ़ रहा है, जो जलडमरूमध्य के तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों, जैसे मैंग्रोव और दलदली क्षेत्रों, को खतरे में डाल सकता है।

वैसे यहां पर्यावरण संरक्षण के प्रयास भी चल रहे हैं। कुछ तटीय क्षेत्रों में समुद्री संरक्षण क्षेत्र स्थापित किए गए हैं, लेकिन जलडमरूमध्य का अधिकांश हिस्सा इन क्षेत्रों से बाहर है। तेल रिसाव और प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए क्षेत्रीय संगठन काम कर रहे हैं लेकिन इनका प्रभाव सीमित है। वहीं भू-राजनीतिक तनाव और आर्थिक हित पर्यावरण संरक्षण को मुश्किल बनाते हैं।

उपग्रह विज्ञान और निगरानी

इस क्षेत्र में समुद्री गतिविधियों की निगरानी (maritime monitoring) जीआईएस (GIS – Geographic Information System) और रिमोट सेंसिंग तकनीकों के माध्यम से की जाती है। रिमोट सेंसिंग (remote sensing) डैटा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को ट्रैक करने में मदद करता है। समुद्री रास्तों की सुरक्षा और जलवायु अध्ययन के लिए भी उपग्रह डैटा उपयोगी होता है। ये कृत्रिम उपग्रह मल्टी-स्पेक्ट्रल सेंसर का उपयोग करके पानी की गर्मी और लवणीयता में बदलाव का विश्लेषण करते हैं। वहीं, सेंटिनल-1 (Sentinel-1) और सेंटिनल-2 (Sentinel-2) जैसे उपग्रह तेल रिसाव पर नज़र रखते हैं और रिसाव के दायरे और प्रभाव का आकलन करते हैं।

उपग्रह डैटा (satellite data)  से प्लवक घनत्व (plankton density) और पानी में क्लोरोफिल स्तर (chlorophyll level) की निगरानी भी होती है, जो प्रदूषण और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत का संकेतक है। इसके अलावा, धूल भरी आंधियों, नौवहन जोखिम, अवैध गतिविधियों, भू-राजनीतिक और सुरक्षा निगरानी के लिए उपग्रह डैटा का उपयोग करके पर्यावरण का अध्ययन किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेज़ॉन के जंगलों में बढ़ता पारा प्रदूषण

सुदर्शन सोलंकी

मेज़ॉन के जंगल (Amazon rainforest) 1.7 अरब एकड़ में फैले सर्वाधिक जैव विविधता (biodiversity) वाले उष्णकटिबंधीय वर्षावन (tropical rainforest) हैं। अमेज़ॉन क्षेत्र में नौ देशों के क्षेत्र शामिल हैं, ब्राज़ील (60 प्रतिशत), पेरू (13 प्रतिशत), कोलंबिया (10 प्रतिशत) और वेनेज़ुएला, इक्वाडोर, बोलीविया (6 प्रतिशत), गुयाना, सूरीनाम और फ्रेंच गुयाना के हिस्से हैं।

पेरू के अमेज़ॉन में नदी में खुदाई करके सोने का खनन (gold mining) होता है। खनिक सोनायुक्त तलछट में पारा (mercury) मिलाते हैं, जो सोने के साथ अमलगम (amalgam) बना लेता है। अमलगम को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है; पारा वाष्पित हो जाता है और सोना शेष बच जाता है। इस तरह वाष्पीकृत पारा अमेज़ॉन में पारा प्रदूषण (mercury pollution) का मुख्य कारण है।

2011 में, मात्र सोने के खनन के लिए लगभग 1400 टन पारे का उपयोग किया गया था, जो पारे की वैश्विक खपत का 24 प्रतिशत है। अधिकांश पारे का पुनर्चक्रण नहीं किया जाता है, जिससे सोना खनन पर्यावरण (environment) के लिए पारा प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत बन जाता है।

पारा एक शक्तिशाली तंत्रिका-विष (neurotoxin) है जो लोगों और वन्यजीवों दोनों में तंत्रिका सम्बंधी क्षति का कारण बन सकता है।

वन्यजीवों में मिथाइल मर्करी (methylmercury) की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। 12 पक्षी प्रजातियों में कई गुना अधिक पारा पाया गया है। और तो और, 10 में से 7 ब्लैक-स्पॉटेड बेयर आई पक्षियों (black-spotted bare-eye birds) में पारे की मात्रा उनकी प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने के स्तर पर पाई गई।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने पारे को सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता (public health concern) के शीर्ष दस रसायनों में से एक माना है। पारा प्रदूषण वन्यजीवों को खतरे में डाल रहा है, जिससे जगुआर (jaguar) और नदी डॉल्फिन (river dolphin) समेत कई मछलियां खतरे में हैं।

एक नए अध्ययन के अनुसार, वायुमंडल में प्रतिवर्ष मानव निर्मित पारे के उत्सर्जन का लगभग 10 प्रतिशत वैश्विक वनों की कटाई का परिणाम है। वन हवा से विषैले प्रदूषकों को हटाकर सिंक के रूप में कार्य करते हैं। यदि इसी तरह कटाई होती रही तो पारा उत्सर्जन बढ़ेगा।

पारा प्रदूषण एक बड़ी समस्या है क्योंकि यह वाष्पीकृत हो जाता है और हवा के माध्यम से अपने उत्सर्जन स्रोत से बहुत दूर तक जा सकता है, जिससे हवा, पानी और मिट्टी प्रदूषित (air, water, soil pollution) होते हैं। मिट्टी पारे का प्राथमिक भंडार (primary mercury reservoir) है, जिसमें महासागरों में पाए जाने वाले पारे की मात्रा से तीन गुना और वायुमंडल से 150 गुना अधिक पारा संग्रहित होता है। हाल के वर्षों में कोयला दहन (coal combustion) को पीछे छोड़कर सोना खनन दुनिया के सबसे बड़े वायुजनित पारा प्रदूषण स्रोत के रूप में उभरा है। इससे प्रति वर्ष 1000 टन पारा वातावरण में उत्सर्जित होता है।

पारा पक्षियों समेत सभी प्राणियों के लिए एक गंभीर खतरा (environmental threat) है। प्रदूषण को कम करने के लिए कदम उठाना ज़रूरी है। इसके लिए अमेज़ॉन का संरक्षण (Amazon conservation) अत्यंत आवश्यक है क्योंकि अमेज़ॉन वर्षावन पारा सिंक के रूप में विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। ये वैश्विक भूमि सिंक में लगभग 30 प्रतिशत योगदान देते हैं। अमेज़ॉन वनों की कटाई को रोकने से पारा प्रदूषण काफी कम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मिथेन उत्सर्जन पर नज़र रखने वाला उपग्रह लापता

पांच साल के लिए शुरू किए गए MethaneSAT मिशन को अभी 15 महीने ही हुए थे कि अचानक 20 जून को धरती से इसका संपर्क टूट गया। इस उपग्रह को धरती पर हो रहे मीथेन (methane emissions) उत्सर्जन का पता लगाने के लिए बनाया गया था, लेकिन अब इसके खामोश हो जाने से जलवायु (climate monitoring) पर नज़र रखने की वैश्विक कोशिशों को एक बड़ा झटका लगा है। इस उपग्रह को एनवायरनमेंटल डिफेंस फंड (EDF) नामक गैर-मुनाफा संस्था (non-profit organization) ने 754 करोड़ रुपए की लागत से तैयार किया था।

गौरतलब है कि मीथेन एक ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gas) है, जिसका तापमान बढ़ाने वाला असर पिछले 20 वर्षों में बराबर मात्रा की कार्बन डाईऑक्साइड से 80 गुना अधिक पाया गया है। आम तौर पर मीथेन उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत दलदली क्षेत्र हैं, लेकिन सबसे अधिक उत्सर्जन तेल और गैस की रिसती पाइपलाइनों (leaking oil and gas pipelines) से होता है। इन रिसन को रोकना ग्लोबल वॉर्मिंग (global warming) को धीमा करने का तेज़ और सस्ता तरीका माना जाता है, और MethaneSAT इन्हीं रिसावों को पहचानने के लिए अंतरिक्ष में भेजा गया था।

आम तौर पर मौजूदा उपग्रह या तो बहुत बड़े इलाके पर मोटी-मोटी नज़र रखते हैं, या फिर केवल बड़े और स्पष्ट गैस रिसाव (major gas leaks) को पकड़ पाते हैं। लेकिन MethaneSAT समस्त तेल और गैस फील्ड को इतनी बारीकी (अच्छे रिज़ॉल्यूशन – high resolution imaging) से स्कैन करने में सक्षम था कि वह बहुत छोटे उत्सर्जन (minor methane leaks) को भी पकड़ सकता था। यह 2 पार्ट प्रति बिलियन जितनी कम मीथेन सांद्रता को भी भांप सकता था।

इस उपग्रह की एक और खास बात यह थी कि यह सरकारी या निजी कंपनी की बजाय एक गैर-मुनाफा संस्था (NGO) (EDF) द्वारा संचालित किया जा रहा था। वैज्ञानिकों ने इसे जनहित में अंतरिक्ष विज्ञान (space-based climate tracking) का एक नया मॉडल बताया था। हालांकि यह उपग्रह कम समय में बंद हो गया लेकिन इसके पहले वर्ष के डैटा (satellite data analysis) का विश्लेषण अभी जारी है और इससे नए उत्सर्जन सामने आने की संभावना है, जिन पर पहले ध्यान नहीं गया था।

सबसे अहम बात यह है कि MethaneSAT से मिले डैटा को समझने के लिए विकसित उपकरण और एल्गोरिद्म (AI-based detection tools) भविष्य के मिशनों में काम आ सकते हैं। जैसे कि जापान का नया उपग्रह GOSAT-GW, जिसे हाल ही में लॉन्च किया गया है, इन तकनीकों का फायदा उठा सकता है। इसी तरह, कार्बन मैपर (Carbon Mapper satellite) जैसी संस्थाएं भी मीथेन पर निगरानी (methane surveillance) के काम को आगे बढ़ा रही हैं, हालांकि उनके उपग्रहों में MethaneSAT जैसी बड़ी रेंज की क्षमता नहीं है।

फिलहाल EDF टीम थोड़ा समय लेकर दोबारा ऐसा मिशन शुरू करने की योजना पर विचार कर रही है। बहरहाल, MethaneSAT एक प्रेरणा का स्रोत (inspirational satellite mission) है और उसके द्वारा उपलब्ध कराई गई सूचनाएं अब भी अंतरिक्ष से जलवायु निगरानी (space climate observation) के भविष्य को दिशा दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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प्लास्टिक प्रदूषण संधि की चुनौतियां

दुनिया प्लास्टिक कचरे (plastic waste) में डूबती जा रही है। वर्ष 2000 के बाद निर्मित प्लास्टिक की मात्रा अब तक बनाए गए कुल प्लास्टिक की आधी से भी अधिक है, और 2050 तक इसकी मात्रा दुगनी होने की आशंका है। 10 प्रतिशत से भी कम प्लास्टिक का पुनर्चक्रण (plastic recycling) हो पाता है, जबकि ज़्यादातर प्लास्टिक एक बार उपयोग (single-use plastic) के बाद फेंक दिया जाता है। हर जगह तेज़ी से बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण (plastic pollution)  के परिणाम तो सर्वविदित हैं।

इस गंभीर संकट के बीच, आगामी अगस्त में संयुक्त राष्ट्र (UN plastic treaty) की एक अहम बैठक होने जा रही है। दुनिया भर के प्रतिनिधि इसमें प्लास्टिक प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए एक वैश्विक संधि उकेरने की कोशिश करेंगे। लेकिन इस पर एकमत होना आसान नहीं है। कुछ देश – जैसे सऊदी अरब, ईरान, रूस और चीन चाहते हैं कि संधि सिर्फ प्लास्टिक की खपत और पुनर्चक्रण तक सीमित रहे, और वे प्लास्टिक उत्पादन (plastic production) या खतरनाक रसायनों (toxic chemicals) पर कोई नियंत्रण लगाने के खिलाफ हैं।

वैज्ञानिक शोध (scientific studies) से पता चलता है कि सिर्फ प्लास्टिक की खपत और पुनर्चक्रण तक सीमित रहना काफी नहीं है। हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित दो बड़े अध्ययनों ने स्थिति की गंभीरता को उजागर किया है।

पहले अध्ययन में, नेदरलैंड स्थित यूट्रेक्ट युनिवर्सिटी की सोफी टेन हिएटब्रिंक और उनकी टीम ने अटलांटिक महासागर के गहरे और दूर-दराज़ इलाकों से लिए गए हर सैंपल में नैनोप्लास्टिक कण (जो एक माइक्रोमीटर से भी छोटे होते हैं) (nanoplastics in ocean) पाए। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सिर्फ उत्तर अटलांटिक के ऊपरी हिस्से में ही करीब 2.7 करोड़ टन नैनोप्लास्टिक हो सकता है — जो सभी महासागरों में मौजूद प्लास्टिक के पूर्व में लगाए गए कुल अनुमान से भी अधिक है।

दूसरे अध्ययन में, नॉर्वे स्थित युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी की लॉरा मॉन्कलुस और उनकी टीम ने प्लास्टिक निर्माण और उपयोग से जुड़े 16,000 से ज़्यादा रसायनों की पहचान की, जिनमें से 4,200 से अधिक को ‘चिंताजनक रसायन’ (hazardous plastic chemicals) माना गया है — ये या तो इंसानों और जीवों के लिए ज़हरीले हैं या फिर प्रकृति में नष्ट (non-biodegradable) नहीं होते।

ये दोनों शोध इस बात पर ज़ोर देते हैं कि अगर हमें प्लास्टिक संकट (global plastic crisis) से सचमुच निपटना है, तो सिर्फ कचरा प्रबंधन नहीं, बल्कि प्लास्टिक के अंधाधुंध उत्पादन और खतरनाक रसायनों के उपयोग को भी रोकना होगा।

दुनिया के कई देश इस व्यापक दृष्टिकोण के पक्ष में हैं। भले ही पिछली बैठक बिना किसी ठोस नतीजे के खत्म हुई थी, लेकिन 70 से अधिक देशों के एक उच्च महत्वाकांक्षी गठबंधन – जिसमें युरोपीय संघ, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं – ने एक सशक्त वैश्विक संधि (strong global plastics agreement) का समर्थन किया है। इस संधि में प्लास्टिक उत्पादन को घटाने और खतरनाक रसायनों पर नियंत्रण लगाने का आह्वान किया गया है।

हालांकि अमेरिका ने शुरू में प्लास्टिक उत्पादन पर नियंत्रण और खतरनाक रसायनों के उपयोग को रोकने जैसे कड़े उपायों का समर्थन किया था, लेकिन 2024 के अंत में बाइडेन सरकार ने अपने रुख से पीछे हटते हुए स्थिति को अस्पष्ट (US plastic policy reversal) बना दिया है।

इस बीच, कुछ देश और क्षेत्र वैश्विक सहमति से अलग काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, युरोपीय संघ ने 2019 में एक-बार उपयोग वाले प्लास्टिक पर कड़ा निर्देश (EU plastic directive) पारित किया था, जिसके तहत 2029 तक 90 प्रतिशत प्लास्टिक बोतलों का पुनर्चक्रण ज़रूरी होगा और इस साल से PET बोतलों में कम से कम 25 प्रतिशत पुनर्चक्रित प्लास्टिक इस्तेमाल करना होगा। कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स राज्य ने भी एक-बार उपयोग वाले कुछ प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध (plastic ban in Australia) लगाया है।

हालांकि ये प्रयास अच्छे लगते हैं, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ये काफी नहीं हैं। जो लोग कड़ी संधि के खिलाफ हैं, वे कहते हैं कि इससे नौकरियों और अर्थव्यवस्था को नुकसान हो सकता है। लेकिन कठोर संधि के समर्थकों की नज़र में यह तर्क सही नहीं है। प्लास्टिक के उत्पादन पर प्रतिबंध से नए उद्योग और रोज़गार के अवसर (green jobs from plastic alternatives) भी बन सकते हैं। लेकिन इस तरह से किसी चीज़ पर सीधा प्रतिबंध लगाना उचित नहीं। यदि प्लास्टिक का विकल्प (eco-friendly plastic alternatives) बाज़ार में लाया जाए तो प्लास्टिक का उपयोग कम हो सकता है। फिर भी अभी ठोस कदम नहीं उठाए, तो आने वाली पीढ़ियों को ज़हरीला और प्रदूषित पर्यावरण झेलना पड़ेगा।

यदि जेनेवा वार्ता विफल रहती है तो कुछ वैज्ञानिक और नीति-निर्माता प्लान बी पर विचार कर रहे हैं – संयुक्त राष्ट्र की प्रक्रिया से अलग एक सशक्त संधि, जिसे उच्च महत्वाकांक्षी गठबंधन (High Ambition Coalition treaty) के देश बना सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रासायनिक उद्योगों का हरितीकरण

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पृथ्वी के गर्माने को लेकर बढ़ती चिंताओं ने ‘हरित’ और ‘टिकाऊ’ जैसे शब्दों को प्रचलित कर दिया है। ‘हरित होने’ से मतलब है पर्यावरण-हितैषी तौर-तरीके (eco-friendly practices) अपनाकर पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने के प्रयास। टिकाऊ से तात्पर्य है ऐसे बदलाव लाना जो पर्यावरण और अर्थव्यवस्था (green economy) के बीच संतुलन बनाए रखे।

शब्द चाहे जो हो, पर्यावरणीय खतरों को कम या खत्म करने का साझा लक्ष्य हमें हरित रसायन विज्ञान (green chemistry) की ओर ले जाता है। और यह सोच हमें विषाक्तता और प्रदूषण (chemical pollution) से दूर ले जाता है। 1998 में पॉल एनेस्टस और जॉन वार्नर द्वारा प्रस्तुत हरित रसायन विज्ञान के 12 सिद्धांत बुनियादी बातों पर केंद्रित हैं; जैसे रासायनिक प्रक्रियाओं में सुरक्षित विलायकों और अभिकर्मकों को अपनाना; ऊर्जा-कुशल तरीके (energy-efficient chemical processes) विकसित करना जिनसे सुरक्षित रसायन प्राप्त हों जो यथासंभव गैर-विषाक्त हों और पर्यावरण में ज़्यादा देर तक मौजूद न रहे; और अपशिष्ट बनने (waste prevention) से रोकना (ताकि बाद में साफ-सफाई न करना पड़े)।

हरित रसायन विज्ञान कैसे इस्तेमाल में लाया जा सकता है, इसका एक उदाहरण है बायोडीज़ल (biodiesel production) का उत्पादन। इंडियन ऑयल कार्पोरेशन हरित ईंधन मिशन (green fuel initiative) के तहत रतनजोत (जैट्रोफा) जैसे गैर-खाद्य बीजों से बायोडीज़ल का उत्पादन करता है। इन बीजों में 30 प्रतिशत से अधिक तेल होता है, और इसके पेड़ कम वर्षा वाले इलाकों और कम उपजाऊ मिट्टी में भी उग जाते हैं। बायोडीज़ल का उत्पादन ट्रांसएस्टरीफिकेशन अभिक्रिया (transesterification process) से होता है, जिसमें बीज के तेल की मेथनॉल के साथ अभिक्रिया करके बायोडीज़ल बनाता है। इससे उप-उत्पाद के रूप में ग्लिसरॉल भी प्राप्त होता है; यह भी व्यावसायिक रूप से उपयोगी है। कार्बन फुटप्रिंट कम (carbon footprint reduction) करने के लिए मेथनॉल बायोमास से प्राप्त किया जाना चाहिए।

उत्प्रेरक ऐसे पदार्थ होते हैं जो रासायनिक अभिक्रियाओं को तेज़ करते हैं। बायोडीज़ल उत्पादन को एक क्षार (alkaline catalyst) द्वारा सुगम बनाया जाता है। क्षार के तौर पर अक्सर सोडियम हाइड्रॉक्साइड का उपयोग (sodium hydroxide in biodiesel) किया जाता है, लेकिन उत्पादन उपरांत इसे बहा देने से पानी संदूषित हो जाता है, जिसे पर्यावरण में छोड़ने से पहले उपचारित करना पड़ता है। कैल्शियम ऑक्साइड इसका एक हरित विकल्प (green alternative to NaOH) है, क्योंकि यह एक ठोस पदार्थ है और प्रत्येक उत्पादन चक्र के बाद इसका 95 प्रतिशत हिस्सा पुन: प्राप्त किया जा सकता है।

औषधीय उत्पादों (दवा वगैरह) (pharmaceutical manufacturing) के निर्माण में भी अत्यधिक विषैले पदार्थों का उपयोग किया जाता है। ऐसे कुछ कारखानों के आसपास की हवा में एक तीखी गंध आती है जो नाखून पॉलिश जैसी होती है। यह गंध विलायक टॉलुइन की होती है, जिसका व्यापक रूप से उपयोग पैरासिटामोल और कई अन्य दवाओं के संश्लेषण (drug synthesis solvents) या निष्कर्षण में किया जाता है। यह एक तंत्रिका विष (neurotoxic chemical) है। हरित प्रयासों (green alternatives in pharma) के तहत धीरे-धीरे ऐसे वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों के स्थान पर ऐसे विकल्पों का उपयोग होने लगा है जो कम विषाक्त हैं, जैव-विघटनशील (biodegradable solvents) हैं, और गन्ने जैसे बायोमास स्रोतों से प्राप्त किए जा सकते हैं।

हरित रसायन विज्ञान का एक और सिद्धांत जिस पर रसायनज्ञ काम करना पसंद करते हैं, वह है परमाणु किफायत (atom economy principle)। इसका उद्देश्य होता है कि अभिकारकों में मौजूद अधिक से अधिक परमाणुओं से वांछित उत्पाद हासिल कर लिए जाएं। ऊपर वर्णित बायोडीज़ल उत्पादन प्रक्रिया में हरित रसायन विज्ञान की बदौलत 100 प्रतिशत तो नहीं लेकिन 90 प्रतिशत परमाणु किफायत प्राप्त हो पाती है क्योंकि कुछ परमाणु उप-उत्पाद ग्लिसरॉल के निर्माण में खप जाते हैं। लेकिन ग्लिसरॉल का उपयोग अन्य उपयोगी उत्पाद (glycerol as byproduct) बनाने में हो जाता है।

परमाणु किफायत पर ध्यान देना उन उद्योगों में और भी अधिक महत्वपूर्ण है जहां उप-उत्पाद बहुत विषाक्त होते हैं। हरित रसायन विज्ञान की उत्कृष्टता (green chemistry success stories) का एक बेहतरीन उदाहरण बिरला विज्ञान संस्थान, पिलानी के हैदराबाद कैम्पस के रसायनज्ञों ने प्रस्तुत किया है। तन्मय चटर्जी और उनके साथियों की हरित विधि ने कैंसर-रोधी दवा टैमॉक्सीफेन (tamoxifen synthesis) और अन्य औषधियों के उत्पादन में 100 प्रतिशत परमाणु किफायत हासिल की है। यह विधि लागत-क्षम (cost-effective green method) भी है और इससे बड़े पैमाने पर उत्पादन भी संभव है। ऐसी विधियां हमारे पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाने की उम्मीद जगाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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