असाधारण उल्कापिंड से नमूना लाने को तैयार चीन

चीन का एक नवीन मिशन धरती के पास मौजूद एक अनोखे क्षुद्रग्रह 469219 कामोआलेवा (Near-Earth Asteroid) से नमूना लाने को भेजा जा रहा है। अंतरिक्ष मिशन तियानवेन-2 (Tianwen-2 Mission) बहुत जल्द लॉन्च होने वाला है।

2016 में हवाई स्थित वेधशाला से खोजा गया कामोआलेवा कोई साधारण पिंड नहीं है। यह एक अर्ध-उपग्रह (क्वासी-सैटेलाइट) (Quasi-Satellite) है। कामोआलेवा अत्यंत दीर्घ-वृत्ताकार पथ में सूर्य की परिक्रमा करता है। पृथ्वी से देखने पर ऐसा लगता है कि जैसे यह पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा हो।

कामोआलेवा में चीन के वैज्ञानिकों की दिलचस्पी इसकी असाधारण प्रकृति की वजह से जागी। एरिज़ोना की एक शक्तिशाली दूरबीन ने बताया था कि यह चंद्रमा की चट्टानों के समान ही सूर्य की रोशनी परावर्तित करता है। इससे एक संभावना बनती है कि यह क्षुद्रग्रह करोड़ों साल पहले किसी बड़ी टक्कर (Lunar Impact Hypothesis) में चंद्रमा से टूट कर छिटका होगा।

त्सिंगहुआ युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने कंप्यूटर मॉडलिंग से इस संभावना को और मज़बूत किया: उन्होंने इसे चंद्रमा पर मौजूद जियोर्डानो ब्रूनो नामक एक बड़े गड्ढे से जोड़कर देखा था। फिर, एक अन्य अध्ययन में एक और ऐसा क्षुद्रग्रह मिला जिसमें चंद्रमा जैसी विशेषताएं थीं। इससे संकेत मिला कि सिर्फ कामोआलेवा नहीं, चंद्रमा के और भी टुकड़े अंतरिक्ष (Moon Fragments in Space) में बिखरे होंगे।

लेकिन यह साबित करने के लिए कामोआलोवा के नमूनों की जांच करना होगी। दरअसल, कामोआलेवा बहुत ही छोटा पिंड है: एक फुटबॉल मैदान के बराबर। इसकी लंबाई-चौड़ाई बमुश्किल 100 मीटर होगी। यह 28 मिनट में अपनी धुरी पर पूरा घूम जाता है। इसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति बहुत कम है और संभावना है कि इसकी सतह बहुत महीन धूल जैसी है, जिससे लैंडिंग और नमूना लेना काफी मुश्किल होगा (Asteroid Sample Collection Challenges)।

चीन ने इन चुनौतियों से निपटने के लिए एक योजना बनाई है। इसके तहत, पहले तियानवेन-2 और एक रोबोटिक हाथ की मदद से सतह को टटोला जाएगा। फिर, घूमने वाले ब्रश से गुबार उड़ाकर धूल को एक कंटेनर में भर लेंगे। यदि सब ठीक रहा तो यान थोड़ी देर के लिए क्षुद्रग्रह पर उतरेगा, तीन पैरों से खुद को टिकाएगा और पंजे जैसे एक रोबोटिक हाथ से नमूने उठाएगा। इसके बाद यान एक कैप्सूल (Sample Return Capsule) में भरकर नमूने धरती पर भेजेगा – लगभग ढाई साल बाद।

अगर यह साबित हो जाए कि कामोआलेवा सच में चंद्रमा का टुकड़ा है तो इससे वैज्ञानिक यह समझ पाएंगे कि चांद के टुकड़े अंतरिक्ष में कैसे छिटकते हैं और किन रास्तों से यात्रा करते हैं (Moon Debris Trajectory)। और यदि यह चंद्रमा का हिस्सा नहीं निकला, तब भी इससे हमें यह जानने में मदद मिल सकती है कि पृथ्वी के पास पिंड कैसे बने और हमारे सौरमंडल की शुरुआती कहानी क्या थी (Early Solar System Formation)।

कामोआलेवा के नमूने भेजने के साथ यान का मिशन रुकेगा नहीं। इसके बाद यान एक धूमकेतु (Comet 311P/PANSTARRS) की ओर रवाना होगा। और आने वाले कई वर्षों तक इसका अध्ययन करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मैग्नेटार: अंतरिक्ष में बेशकीमती धातुओं का कारखाना

क्या आप जानते हैं कि बेशकीमती सोना-चांदी (gold-silver origin in universe) संभवत: अरबों साल पहले एक ज़बर्दस्त ब्रह्मांडीय विस्फोट (cosmic explosion) में बने थे? दशकों तक वैज्ञानिकों का मानना था कि ऐसे भारी तत्व केवल तब बनते हैं जब दो मृत तारे (न्यूट्रॉन स्टार) (neutron star collision) आपस में टकराते हैं। लेकिन अब शोधकर्ताओं को ऐसी कीमती धातुएं बनने एक और तरीका पता चला है।

दी एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल लेटर्स में प्रकाशित नए अध्ययन (astrophysical journal research) में बताया गया है कि एक विशेष प्रकार के तारे, जिन्हें मैग्नेटार (magnetar flares) कहा जाता है, से निकली उग्र लपटों (flare) में भी सोना, चांदी और प्लेटिनम जैसे भारी तत्व बन सकते हैं।

गौरतलब है कि मैग्नेटार उन विशाल तारों के बचे हुए केंद्र होते हैं जो सुपरनोवा (supernova remnant) में फट चुके होते हैं। इनका चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी के मुकाबले खरबों गुना शक्तिशाली होता है। इस कारण ये तारे कभी-कभी बहुत तेज़ी से भभकते हैं।

2004 में एक मैग्नेटार ऐसी ही भयंकर उग्र लपटें निकली थीं, जिसने कुछ ही सेकंड में उतनी ऊर्जा फेंकी जितना हमारा सूरज लाखों सालों में छोड़ता है। दस मिनट बाद उसी जगह से कुछ और हल्की लपटें निकलीं, जिन्हें आफ्टरग्लो (afterglow radiation) कहा गया। तब वैज्ञानिक इस रहस्यमयी संकेत को समझ नहीं पाए थे लेकिन अब उन्हें इसका मतलब समझ आने लगा है।

इस खोज की अहमियत समझने के लिए पहले यह जान लेते हैं कि भारी तत्व कैसे बनते हैं। सोना, चांदी और प्लेटिनम जैसे भारी तत्व आम तारों के अंदर नहीं बनते। इन्हें बनने के लिए एक बेहद तेज़ और उग्र प्रक्रिया की ज़रूरत होती है, जिसे आर-प्रक्रिया (r-process nucleosynthesis) कहते हैं। इस प्रक्रिया में परमाणु नाभिक बहुत तेज़ी से न्यूट्रॉन्स सोखते हैं और भारी तत्वों में बदल जाते हैं।

अब तक वैज्ञानिकों को आर-प्रक्रिया का एक ही पुष्ट स्रोत पता था – दो न्यूट्रॉन तारों की टक्कर। लेकिन ऐसी टक्करें बहुत बिरली होती हैं और हमारी निहारिका के ‘जीवन’ के आखिरी समय में होती हैं। तो फिर शुरुआती समय में भारी तत्व कैसे बने (early universe element formation)?

कोलंबिया युनिवर्सिटी के खगोलशास्त्री अनिरुद्ध पटेल और उनकी टीम ने 2004 में मैग्नेटार से निकली लपटों के डैटा को फिर से देखा। उन्होंने कंप्यूटर सिमुलेशन (astrophysics simulation) के ज़रिए यह जांचा कि क्या इस तरह की भभक से आर-प्रक्रिया हो सकती है। उन्होंने पाया कि भभक के बाद दिखी आफ्टरग्लो में बिल्कुल वैसी ही गामा किरणें थीं जैसी आर-प्रक्रिया के दौरान निकलती हैं। ये गामा किरणें उस ऊर्जा का संकेत थीं जो भारी तत्व बनने के समय निकलती हैं।

20 साल से ऐसे ही पड़े डैटा ने अंतत: साबित कर दिया कि सोना और अन्य भारी तत्व केवल एक ही तरह की ब्रह्मांडीय घटना से नहीं बनते। बल्कि इन्हें बनाने वाली आर-प्रक्रिया के और भी स्रोत हो सकते हैं (alternative r-process sources), जो अभी तक अनदेखे हैं। ये नतीजे अधिक शोध के रास्ते खोलते हैं। 2017 में हुई न्यूट्रॉन तारों की टक्कर धरती से बहुत दूर थी, इसलिए वैज्ञानिक उस घटना को ठीक से नहीं देख सके। लेकिन भविष्य में अगर किसी नज़दीकी मैग्नेटार से लपटें उठती हैं तो शायद वैज्ञानिक सोना-चांदी बनने के चश्मदीद बन जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक ग्रह को तारे में समाते देखा गया

हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक दुर्लभ और रोमांचक खगोलीय घटना (rare astronomical event) देखी है। उन्होंने पहली बार एक विशाल ग्रह (giant exoplanet) को खुद अपने तारे में समाते देखा है। आम तौर पर माना जाता है कि जब कोई तारा बूढ़ा होता है, तब वह फैलकर एक लाल दानव (red giant) में बदल जाता है और अपने पास के ग्रहों को निगल लेता है। लेकिन यहां ग्रह को खुद-ब-खुद तारे में छलांग लगाते देखा गया है। यह ग्रहों के खत्म होने का एक बिलकुल नया तरीका है।

दरअसल 2023 में वैज्ञानिकों ने हमसे 12,000 प्रकाश वर्ष दूर स्थित एक तारे (distant star system) में अचानक तेज़ चमक देखी थी। उनका अनुमान था कि तारा अपने जीवन के आखिरी दौर में पहुंच गया है, लाल दानव बन रहा है और इस प्रक्रिया में उसने पास के किसी ग्रह को निगल लिया है।

लेकिन वर्तमान घटना में नासा के JWST से मिली नई जानकारी ने यह साफ किया है कि वह तारा बहुत छोटा और युवा है, इसलिए वह लाल दानव तो नहीं बना होगा। तो फिर यह तेज़ चमक कैसी?

वैज्ञानिकों का दावा है कि बृहस्पति जितना बड़ा ग्रह पहले से ही अपने तारे के बेहद पास चक्कर लगा रहा था – उतना ही करीब जितना बुध सूर्य के करीब है। लाखों वर्षों तक तारे का गुरुत्वाकर्षण (stellar gravity pull) ग्रह को धीरे-धीरे खींचता रहा, जैसे चंद्रमा पृथ्वी पर ज्वार लाता है। इस लगातार खिंचाव से ग्रह के अंदर घर्षण हुआ, उसकी ऊर्जा खत्म होने लगी और उसका रास्ता तारे की ओर मुड़ता चला गया।

अंतत:, वह ग्रह तारे के बहुत नज़दीक पहुंच गया। उसने तारे के बाहरी वायुमंडल को छू लिया, जहां उसे भारी खिंचाव का सामना करना पड़ा और उसकी रही-सही ऊर्जा भी खत्म हो गई। फिर हुई उसकी नाटकीय मौत – वह तारे से टकरा गया और उस टक्कर से अंतरिक्ष में बहुत ज़्यादा ऊर्जा, गैस और धूल (cosmic dust and gas explosion) फैल गई। यही था वो चमकदार धमाका जिसे खगोलविदों ने देखा था।

वैज्ञानिक इस घटना को “ग्रह की खुदकुशी” (planetary suicide) कह रहे हैं – क्योंकि यहां ग्रह धीरे-धीरे खुद ही तारे में समाता चला गया। इस तरह किसी ग्रह के अंत होने की प्रक्रिया (planetary destruction process) को पहली बार इतने साफ रूप में देखा गया है।

हालांकि JWST द्वारा प्राप्त यह जानकारी अभी शुरुआती है और इसके हर पहलू की पुष्टि के लिए और अध्ययन करने की ज़रूरत है। साथ ही, यह भी संभव है कि तारे की जो चमक हमें दिख रही है, उसका कारण यह भी हो सकता है पहले अंतरतारकीय धूल (interstellar dust interference) की वजह से वह धुंधला नज़र आ रहा हो। भविष्य में JWST की पूरी इन्फ्रारेड तरंगदैर्घ्य में किए जाने वाले अवलोकनों से तारे के आसपास धूल के गुबार की स्थिति के बारे में और जानकारी मिल सकती है।

यह खोज कुछ बड़े सवाल उठाती है: क्या ग्रह अक्सर इस तरह खत्म होते हैं? क्या हम पहले ऐसी घटनाएं देखने से चूके हैं? नई शक्तिशाली दूरबीनों (next generation telescopes) से इनके जवाब मिलने की उम्मीद है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी की घूर्णन शक्ति से बिजली

क हालिया अध्ययन का दावा है कि पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s magnetic field) में घूर्णन से बिजली उत्पन्न (electricity generation) की जा सकती है। हालांकि अध्ययन में एक विशेष उपकरण से मात्र 17 माइक्रोवोल्ट (17 microvolts) की बेहद कम विद्युत धारा उत्पन्न की गई है, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि यह प्रभाव वास्तविक है और इसे बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकता है, तो यह बिना प्रदूषण के ऊर्जा उत्पादन (pollution-free energy generation) का नया तरीका हो सकता है। खास तौर पर दूरदराज़ के इलाकों (remote areas) और मेडिकल उपकरणों (medical devices) के लिए यह तकनीक बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। यह शोध प्रिंसटन यूनिवर्सिटी (Princeton University) के क्रिस्टोफर चायबा (Christopher Chyba) के नेतृत्व में किया गया और फिजिकल रिव्यू रिसर्च (Physical Review Research) में प्रकाशित हुआ है।

आम तौर पर चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) में एक सुचालक (conductor) को घुमा कर बिजली उत्पन्न की जाती है, जैसा कि पावर प्लांट्स (power plants) में होता है। पृथ्वी का भी एक चुंबकीय क्षेत्र (geomagnetic field) होता है, और जब पृथ्वी घूमती है (Earth’s rotation) तो इस चुंबकीय क्षेत्र का एक हिस्सा स्थिर बना रहता है। सैद्धांतिक रूप से (theoretically), यदि कोई चालक (conductor) पृथ्वी की सतह पर रखा जाए तो वह इस चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) से गुज़रकर विद्युत धारा (electric current) उत्पन्न कर सकता है। हालांकि, पृथ्वी के सामान्य चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s magnetism) में ऐसा नहीं होता, क्योंकि चालक के अंदर मौजूद आवेश (electrons inside the conductor) खुद को इस तरह व्यवस्थित कर लेते हैं कि बिजली पैदा (electricity production) ही नहीं हो पाती।

लेकिन क्रिस्टोफर चायबा (Christopher Chyba) और उनकी टीम का दावा है कि उन्होंने इस समस्या का हल खोज लिया है। खास आकार में बना एक खोखला बेलन (hollow cylindrical conductor) पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से बिजली उत्पन्न (electricity generation from Earth’s magnetic field) कर सकता है।

इस परिकल्पना को जांचने के लिए वैज्ञानिकों ने मैंगनीज़ (manganese), ज़िंक (zinc), और आयरन (iron) वाले चुंबकीय पदार्थ (magnetic material) से एक विशेष उपकरण बनाया। उन्होंने 17 माइक्रोवोल्ट (17 microvolts of electric current) की बहुत हल्की विद्युत धारा दर्ज की, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के सापेक्ष उपकरण की स्थिति बदलने पर भी बदल रही थी। लेकिन जब उन्होंने खोखले सिलेंडर (hollow cylinder) की जगह ठोस सिलेंडर (solid cylinder) का उपयोग किया तो बिजली पैदा (electricity production) नहीं हुई।

विस्कॉन्सिन-यूक्लेयर विश्वविद्यालय (University of Wisconsin-Eau Claire) के पॉल थॉमस (Paul Thomas) जैसे कुछ वैज्ञानिक इस प्रयोग को विश्वसनीय मानते हैं, लेकिन फ्री यूनिवर्सिटी ऑफ एम्स्टर्डम (Free University of Amsterdam) के रिंके विजनगार्डन (Rinke Wijngaarden) जैसे अन्य वैज्ञानिकों को संदेह है। विजनगार्डन ने 2018 में इसी तरह का प्रयोग करने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। उनका मानना है कि चायबा (Chyba) की परिकल्पना सही नहीं हो सकती। उनके मुताबिक चायबा (Chyba) के दल ने काफी सावधानी बरती है, लेकिन यह भी संभव है कि दर्ज किया गया वोल्टेज (voltage measurement) तापमान में बदलाव (temperature variation) जैसी अन्य वजहों से आया हो।

फिलहाल, यह अध्ययन वैज्ञानिक समुदाय (scientific community) में बहस का विषय बन गया है। अगर आगे के प्रयोग इन नतीजों की पुष्टि कर पाते हैं तो यह बिजली उत्पादन (electricity generation technology) के नए रास्ते खोल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चंद्रमा की उम्र लगभग पृथ्वी के बराबर है!

हाल में प्रस्तुत एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि पृथ्वी (Earth) के अस्तित्व में आने के थोड़े समय बाद से ही चंद्रमा (Moon) उसका साथी रहा है। यह नया शोध बताता है कि चंद्रमा का जन्म सौर मंडल (Solar System) बनने के महज 6.5 करोड़ साल बाद ही हो गया था। यानी चंद्रमा की उम्र करीब 4.5 अरब साल है, जो पहले के अनुमानों से अधिक है।

ल्यूनर एंड प्लैनेटरी साइंस कॉन्फ्रेंस (LPSC) में प्रस्तुत इस शोध में बताया गया है कि चंद्रमा का निर्माण पृथ्वी के बनने के तुरंत बाद हुआ था, जब मंगल ग्रह (Mars) के साइज़ जितना एक प्रोटो-प्लैनेट (Proto-planet) ‘थीया’ (Theia) पृथ्वी से टकराया था।

गौरतलब है कि सौर मंडल (Solar System) का निर्माण लगभग 4.56 अरब वर्ष पहले शुरू हुआ, और इसके 2-3 करोड़ साल बाद पृथ्वी आकार लेने लगी। उस समय अंतरिक्ष (Space) में भारी हलचल थी और बड़े-बड़े खगोलीय पिंडों की टक्कर एक आम बात थी। इन्हीं में से एक टक्कर युवा पृथ्वी से थीया नामक पिंड के टकराने की थी। यह टक्कर इतनी भीषण थी कि पृथ्वी से भारी मात्रा में पिघली हुई चट्टान और मलबा अंतरिक्ष में उछला, जो बाद में संघनित होकर चंद्रमा बना।

यह घटना पृथ्वी के विकास में भी महत्वपूर्ण रही। इस टक्कर से पृथ्वी की सतह पिघलकर खौलते मैग्मा के महासागर में बदल गई और इसने पृथ्वी के घूर्णन और झुकाव को स्थिर करने में मदद की। इसलिए चंद्रमा के निर्माण का सटीक समय जानकर वैज्ञानिक यह समझ सकते हैं कि पृथ्वी अपने वर्तमान रूप में कब आई।

चंद्रमा की उम्र कैसे तय की?

कई वर्षों से वैज्ञानिक अपोलो मिशनों (Apollo Missions) द्वारा लाई गईं चंद्रमा की चट्टानों (Lunar Rocks) का अध्ययन करते आ रहे हैं। पूर्व में, जब वैज्ञानिकों ने चट्टानों का अध्ययन किया था तो पता चला था कि चंद्रमा की सतह से प्राप्त चट्टानें लगभग 4.35 अरब साल पुरानी थीं और ये चट्टानें चांद के अपने मैग्मा (Lunar Magma) से बनी थीं। तो माना गया कि चांद की उम्र लगभग उतनी ही है। लेकिन इतना युवा चंद्रमा बाकी प्रमाणों से मेल नहीं खाता।

इस पहेली को सुलझाने में बड़ी सफलता तब मिली जब वैज्ञानिकों ने चंद्रमा से मिले ज़िरकॉन क्रिस्टलों (Zircon Crystals) का अध्ययन किया। इन क्रिस्टल के रेडियोधर्मी तत्वों के विघटन से उनकी सही उम्र का पता लगाया जा सकता है। 2017 में, भू-रसायन वैज्ञानिक मेलानी बारबोनी ने आठ ज़िरकॉन रवों का विश्लेषण करके यह देखा कि इनमें मौजूद युरेनियम (Uranium) के विघटन से कितना लेड (Lead) बन चुका है। इस मापन के आधार पर बारबोनी ने निष्कर्ष निकाला कि चंद्रमा 4.51 अरब साल पुराना है।

2019 में, वैज्ञानिकों को चंद्रमा की चट्टानों में टंगस्टन (Tungsten) के हल्के आइसोटोप मिले। उस अध्ययन के मुखिया मैक्सवेल थीमेन्स ने अनुमान लगाया कि ये आइसोटोप तत्व हाफ्नियम (Hafnium) के अब विलुप्त हो चुके आइसोटोप से बने होंगे। और हाफ्नियम का यह आइसोटोप सौर मंडल के शुरू के 6 करोड़ वर्षों में ही उपस्थित था। इस खोज ने बारबोनी के निष्कर्षों को मज़बूती दी। यानी चंद्रमा उन वर्षों में बना होगा।

अब, वैज्ञानिकों ने रुबिडियम(rubidium) के स्ट्रॉन्शियम(strontium) में विघटन को मापने की एक नई विधि से इस निष्कर्ष  की पुष्टि की है। मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट के थॉर्स्टन क्लाइन और उनकी टीम ने गणना की कि चंद्रमा लगभग 4.5 अरब साल पहले बना था। ये नतीजे पिछले शोधों को पुख्ता करते हैं और चंद्रमा के जन्म की एक सुसंगत समयरेखा देते हैं।

चंद्रमा बनने के बाद भी यह कोई शांत खगोलीय पिंड नहीं था। आरंभ में इसकी पूरी सतह पिघले हुए लावा के महासागर (lava ocean) से ढंकी थी, जो धीरे-धीरे ठंडी होकर ठोस बन गई। लेकिन शोध बताते हैं कि पृथ्वी और सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव ने इसकी सतह को दोबारा गर्म कर दिया, ठीक वैसे ही जैसे बृहस्पति (Jupiter) के असर से उसके चंद्रमा ‘आयो’(Io) पर भीषण ज्वालामुखीय गतिविधि देखी जाती है। एक अन्य सिद्धांत के अनुसार, चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव (lunar south pole) पर किसी विशाल उल्कापिंड की टक्कर (asteroid impact) ने इसकी सतह को नया रूप दिया होगा। इनमें से किसी एक वज़ह से चंद्रमा की उम्र का सही अनुमान लगाना जटिल हो गया। अपोलो द्वारा लाए गए नमूनों को इस नए दृष्टिकोण से देखने की ज़रूरत है। हो सकता है कि वे पिघलकर वापिस ठोस बन गए चंद्रमा के होंगे, मूल रूप में निर्मित चंद्रमा के नहीं।

चीन का चांग’ई-6 मिशन (Chang’e 6 Mission), जो चंद्रमा की दूरस्थ सतह से लगभग 2 किलोग्राम चट्टानें लेकर लौटा है, इस रहस्य पर और प्रकाश डाल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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बृहस्पति के चंद्रमाओं की उत्पत्ति का नया खुलासा

1600 के दशक की शुरुआत में, गैलीलियो गैलीली (Galileo Galilei)  ने पहली बार बृहस्पति (Jupiter) के चार सबसे बड़े चंद्रमाओं – आयो (Io), युरोपा (Europa), गैनीमीड (Ganymede), कैलिस्टो (Callisto) – को देखा था। सदियों बाद भी वैज्ञानिक यह समझने में जुटे हैं कि अरबों साल पहले गैस, धूल और बर्फ की घूमती हुई तश्तरी (protoplanetary disk) से इनका निर्माण कैसे हुआ होगा। 

हाल ही में एक कंप्यूटर सिमुलेशन(computer simulation) के आधार पर वैज्ञानिकों का अनुमान है कि परिग्रहीय तश्तरी (circumplanetary disk – CPD) (CPD यानी किसी ग्रह के आसपास पदार्थों की तश्तरी) के भीतरी भाग की छायाओं ने बाहरी हिस्से में ठंडी जगहें निर्मित की होंगी, जिससे चंद्रमाओं के निर्माण (moon formation process) के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनीं। दी प्लैनेटरी साइंस जर्नल (The Planetary Science Journal) में प्रकाशित इस अध्ययन से यह समझने में मदद मिलती है कि तश्तरी के तापमान में बदलाव (temperature variations in CPD) ने बृहस्पति के चंद्रमाओं के निर्माण को कैसे प्रभावित किया। वैज्ञानिकों ने बृहस्पति की इस प्राचीन तश्तरी (ancient Jovian disk) का एक 2डी मॉडल तैयार कर उसकी संरचना, घनत्व, तापमान और छायाओं के प्रभावों का विश्लेषण किया है।

सिमुलेशन (simulation results) से पता चला कि डिस्क का भीतरी हिस्सा घना और अपारदर्शी था, जिससे गर्मी अंदर कैद रहती थी और रोशनी बाहर नहीं जा पाती थी। वहीं, बाहरी हिस्सा झीना और पारदर्शी था। जब 2000 केल्विन तापमान (2000 Kelvin temperature) पर तपता हुआ नवजात बृहस्पति (young Jupiter) विकसित हो रहा था तब इस डिस्क का भीतरी भाग फैलने लगा और बाहरी हिस्सों पर लंबी छायाएं पड़ने लगीं। इन छायाओं ने कुछ क्षेत्रों को बेहद ठंडा (cold regions in CPD) बना दिया, और ये ठंडे क्षेत्र (cold zones) लगभग 80,000 साल तक बने रहे। 

इन ठंडी जगहों ने चंद्रमाओं के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन क्षेत्रों में अमोनिया, हाइड्रोजन सल्फाइड और कार्बन डाईऑक्साइड जैसी गैसें संघनित होकर जम गईं, जिससे युरोपा वगैरह के ठोस हिस्से बने। सबसे ठंडा क्षेत्र बृहस्पति से लगभग 6,29,000 कि.मी. दूर था, जो युरोपा की कक्षा से मेल खाता है।

अगर यह सिद्धांत सही है तो बाहरी चंद्रमाओं – गैनीमीड और कैलिस्टो – की तुलना में भीतरी चंद्रमाओं – आयो और युरोपा – में अधिक मात्रा में वाष्पशील गैसें होनी चाहिए। भावी अंतरिक्ष मिशन, जैसे युरोपियन स्पेस एजेंसी का JUICE और नासा का युरोपा क्लिपर, इन चंद्रमाओं की संरचना का गहराई से अध्ययन कर इस सिद्धांत की जांच करेंगे। 

हालांकि, यह अध्ययन बृहस्पति के चंद्रमाओं (formation of Jupiter’s moons) के निर्माण को समझने के लिए एक मज़बूत मॉडल प्रस्तुत करता है, लेकिन इसकी कुछ सीमाएं (limitations of the study) भी हैं। यदि चंद्रमाओं का निर्माण अपेक्षा से अधिक समय तक चला था तो छायाओं से हुआ ठंडा प्रभाव (shadow-induced cooling effect) उनके रासायनिक तत्वों को प्रभावित नहीं कर पाया होगा। इसके अलावा, युवा सूर्य (young Sun) की गतिविधियों में हुए बदलावों ने भी बृहस्पति की तश्तरी (Jupiter’s disk) को प्रभावित किया होगा, जिसे यह मॉडल पूरी तरह नहीं दर्शा सकता।

बहरहाल, बृहस्पति के चंद्रमाओं के निर्माण की प्रक्रिया को जानने से पूरे ब्रह्मांड में ग्रहों (planetary formation in the universe) के निर्माण से जुड़े रहस्यों को सुलझाने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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बृहस्पति के चांद युरोपा की मोटी बर्फीली चादर जीवन की संभावना घटाती है

बृहस्पति के एक चांद युरोपा (Europa Moon) को जीवन के लिए संभावित स्थान माना जाता था। लेकिन अब संभावनाएं कम होती लग रही हैं। नासा (NASA) के जूनो अंतरिक्ष यान (Juno Spacecraft) से प्राप्त डैटा के अनुसार, युरोपा की बर्फीली परत पूर्व अनुमान से कहीं अधिक मोटी है। यह औसतन 35 किलोमीटर मोटी है (चार एवरेस्ट की ऊंचाई के बराबर)। यह खोज युरोपा पर जीवन की संभावना (Life on Europa) को कम करती है।

यह मापन जूनो के माइक्रोवेव रेडियोमीटर ((Microwave Radiometer – MWR) द्वारा संभव हो पाया है। उल्काओं की टक्करों (Meteor Impacts) के कारण बने गड्ढों के विश्लेषणों पर आधारित पूर्व अध्ययन ने 7 से 20 किलोमीटर मोटाई की परत का अनुमान दिया था, जिसमें ऊपरी 7 किलोमीटर की परत अचल और अंदरूनी 13 किलोमीटर मोटी परत गतिशील थी। लेकिन जूनो के डैटा से पता चलता है कि यह परत हर जगह मोटी और अचल है, हालांकि मोटाई विभिन्न जगहों पर थोड़ी उन्नीस-बीस हो सकती है।

यह खोज युरोपा के जीवन (Habitability of Europa) योग्य होने पर गहरा प्रभाव डालती है। पतली परत महासागर (Subsurface Ocean) को सतह के साथ रासायनिक संपर्क का मौका देती, जिससे जीवन की उत्पत्ति (Origin of Life) की संभावना बन सकती है। इसके विपरीत, मोटी परत के चलते जटिल रासायनिक क्रियाओं की संभावना कम हो जाती है। इसका मतलब यह भी है कि युरोपा के चट्टानी आंतरिक हिस्से से कम गर्मी आ रही है। यानी हाइड्रोथर्मल वेंटिंग (Hydrothermal Venting) जैसी भूगर्भीय प्रक्रियाओं के लिए भी मौके कम हैं जो जीवन को सहारा दे सकें।

इनके अलावा, अन्य अध्ययन के नतीजे भी जीवनक्षम (Potential for Life) होने की संभावना को नकारते हैं – एक अध्ययन बताता है कि बृहस्पति से निकलने वाले विकिरण (Jovian Radiation) के कारण युरोपा का महासागर पूर्वानुमान से कम ऑक्सीजन बनाएगा। इसके अलावा, जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (James Webb Space Telescope – JWST)  द्वारा युरोपा की सतह से भाप के फव्वारों (Water Plumes) का पता लगाने के प्रयास असफल रहे जिससे हबल स्पेस टेलीस्कोप (Hubble Space Telescope) द्वारा पूर्व में की गई जेट सम्बंधित टिप्पणियों पर संदेह पैदा हो गया है।

अब, 2030 के दशक में पहुंचने वाला नासा का युरोपा क्लिपर मिशन (Europa Clipper Mission)  उन्नत रडार से लैस होगा, जो अधिक स्पष्टता प्रदान करेगा। क्लिपर का विकिरण 30 किलोमीटर की गहराई तक पहुंच सकता है, लेकिन अगर युरोपा की बर्फ जूनो द्वारा सुझाई गई माप जितनी है तो यह यंत्र भी परत का अध्ययन करने में मुश्किलों का सामना करेगा।

बर्फ की मोटी परत भविष्य के उन अभियानों के लिए भी तकनीकी चुनौतियां (Technical Challenges for Exploration) पेश करती है जो समुद्र की गहराई तक पहुंचने के लिए ड्रिलिंग (Ice Drilling on Europa) करना चाहते हैं। जैसे-जैसे शोधकर्ता अपने मॉडल को बेहतर करते हैं और अधिक डैटा इकट्ठा करते हैं, युरोपा हमारी कल्पना और महत्वाकांक्षा को ईंधन प्रदान करता है और सारी दिक्कतों के बावजूद हम पृथ्वी के बाहर जीवन (Extraterrestrial Life) की खोज में जुटे रहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सबसे छोटे तारे कितने छोटे हो सकते हैं

खगोलशास्त्री लंबे समय से एक सवाल का जवाब खोजने का प्रयास कर रहे हैं: कोई तारा (Star) कितना छोटा हो सकता है? नासा के जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (James Webb Space Telescope – JWST) द्वारा एक ब्राउन ड्वार्फ (Brown Dwarf) का हालिया अवलोकन संभवतः इस जवाब के करीब ले जाता है। JWST की पैनी व अवरक्त निगाह ने अब तक देखे गए सबसे छोटे ब्राउन ड्वार्फ में से कुछ की पहचान की है। इनका द्रव्यमान (Mass) बृहस्पति (Jupiter) ग्रह के द्रव्यमान से तीन से आठ गुना के बीच है। 

ब्राउन ड्वार्फ ऐसे खगोलीय पिंड (Astronomical Objects) होते हैं जिनका निर्माण तो तारों की तरह ही होता है, लेकिन इनका द्रव्यमान इतना कम होता है कि इनके केंद्र में नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion) बहुत कम हो पाता है – इतना कम कि वह इन्हें तारों समान चमकीला बनाने के लिए पर्याप्त नहीं होता। इसी कारण से ब्राउन ड्वार्फ को कभी-कभी ‘नाकाम तारे’ (Failed Stars) भी कहा जाता है। गौरतलब है कि संलयन से चमक पैदा करने के लिए सितारों को बृहस्पति ग्रह से लगभग 70 गुना अधिक द्रव्यमान का होना आवश्यक होता है। फिर भी, बृहस्पति के द्रव्यमान से 13 गुना अधिक द्रव्यमान के ब्राउन ड्वार्फ थोड़े समय के लिए ड्यूटेरियम (Deuterium) नामक हाइड्रोजन समस्थानिक परमाणुओं का संलयन करके धीमे-धीमे जल सकते हैं। उससे कम पर वे बिल्कुल भी नहीं जलते हैं। अलबत्ता, सबसे छोटे ब्राउन ड्वार्फ और ग्रहों (Planets) के बीच अंतर करना मुश्किल हो सकता है क्योंकि हो सकता है कि वे एक जैसे दिखाई दें। 

2021 में JWST लॉन्च होने से पहले, खगोलविद बृहस्पति के पांच गुना साइज़ के ब्राउन ड्वार्फ का पता लगा सकते थे। लेकिन अब, JWST के उन्नत अवरक्त सेंसर (Infrared Sensors) के माध्यम से वस्तुओं की अत्यंत मंद रोशनी को देखने की क्षमता ने शोधकर्ताओं को बृहस्पति से तीन गुना द्रव्यमान के हल्के ब्राउन ड्वार्फ को खोजने में सक्षम बनाया है। 

यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (European Space Agency) के मार्क मैककॉग्रेन और सैमुअल पीयर्सन के दल ने ओरायन नेबुला (Orion Nebula) में चतुर्भुजी झुंड (Quadrupole Cluster) के निरीक्षण के दौरान जोड़ियों में परिक्रमा करते हुए 42 ब्राउन ड्वार्फ की खोज की है। इनमें से कुछ जोड़ियां, जिन्हें जुपिटर-मास बायनरी ऑब्जेक्ट्स (JuMBOs) कहा जाता है, लगभग बृहस्पति जितने छोटे हैं। यह खोज वर्तमान तारा निर्माण मॉडल (Star Formation Model) को चुनौती देती है, जो भविष्यवाणी करते हैं कि द्रव्यमान में कमी के साथ-साथ युग्मित तारे दुर्लभ होते जाने चाहिए। यदि ये JuMBOs वास्तव में उतने ही हल्के हैं जितने वे दिखाई देते हैं, तो वे तारों के निर्माण के बारे में हमारी सोच को बदल सकते हैं।  

हालांकि, हर कोई इस व्याख्या से सहमत नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि ये वस्तुएं ब्राउन ड्वार्फ हो ही नहीं हो सकती हैं। उनके मुताबिक, वे दूर के तारे (Distant Stars) या आकाशगंगाएं (Galaxies) हो सकती हैं जिनका प्रकाश ओरायन नेबुला में धूल (Dust) के कारण धुंधला पड़ जाता है, जिसकी वजह वे अपने वास्तविक आकार से छोटे दिखाई देते हैं। हालांकि, मैककॉग्रीन का कहना है कि सांख्यिकीय रूप से इन वस्तुओं का दूर की पृष्ठभूमि की वस्तुएं होना असंभव है, क्योंकि इतने सारे पिंडों का इस तरह पंक्तिबद्ध दिखाई देना संभव नहीं लगता। इन तारों की इस जमावट को वे ‘जंबो एली’ कहते हैं।

बहरहाल, इस मुद्दे पर बहस जारी है। मैककॉग्रीन और पीयर्सन आगे बढ़ रहे हैं। उन्होंने पहले ही चतुर्भुजी झुंड की अधिक विस्तृत तस्वीरें ले ली हैं और जल्द ही नए निष्कर्ष प्रकाशित करेंगे। ये अवलोकन JuMBO के अस्तित्व की पुष्टि कर सकते हैं और खगोलविदों को अपनी पूर्व मान्यताओं पर पुनर्विचार करने को मजबूर कर सकते हैं। मैककॉग्रीन JWST की सीमाओं को बढ़ाने की योजना बना रहे हैं ताकि उन छोटे ब्राउन ड्वार्फ की खोज की जा सके जो शनि (Saturn) जितने हल्के हैं। (स्रोत फीचर्स)

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चांद पर समय का मापन

डॉ. सुशील जोशी

आगामी दशक में चंद्र अभियानों (Lunar Missions) में ज़बर्दस्त उछाल की संभावना जताई जा रही है। एक विचार यह है कि कुछ अभियान चांद पर स्थायी ठिकाना बनाने (Permanent Settlement on Moon) का प्रयास करेंगे। इन प्रयासों के सामने तमाम चुनौतियां हैं। इनमें से एक प्रमुख चुनौती यह है कि चांद पर समय का हिसाब कैसे रखें (Time Measurement on the Moon)। और दुनिया भर के मापन वैज्ञानिक (Measurement Scientists) इससे जूझ रहे हैं। 

फिलहाल चांद का कोई अपना स्वतंत्र समय नहीं है (Independent Time on the Moon)। हर चंद्र अभियान (Lunar Mission) समय का अपना-अपना पैमाना इस्तेमाल करता है और इसे पृथ्वी पर बैठे परिचालक समन्वित सार्वभौमिक समय (coordinated universal time, UTC) से लिंक करके रखते हैं। UTC ही वह पैमाना है जिसके सापेक्ष पृथ्वी की सारी घड़ियों का तालमेल बनाकर रखा जाता है। 

अलबत्ता, यह तरीका थोड़ा कम सटीक है (Less Accurate) और चांद का अन्वेषण करते विभिन्न यान (Lunar Probes) एक-दूसरे के साथ समय को सिंक्रोनाइज़ नहीं करते हैं। दो-चार यान होने तक तो यह तरीका चल जाता है लेकिन दर्जनों यान मिलकर काम करेंगे तो परेशानी शुरू हो जाएगी। इसके अलावा, अंतरिक्ष एजेंसियां (Space Agencies) इन यानों पर अपने उपग्रहों के ज़रिए नज़र रखना चाहेंगी। अब यदि सब अपना-अपना समय रखेंगे तो तालमेल मुश्किल होगा। 

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि चांद के लिए UTC का समकक्ष (universal lunar time) क्या हो। और इसका तालमेल पृथ्वी के समय से कैसे बनाया जाए (Synchronization with Earth Time)। चांद और पृथ्वी पर गुरुत्व बल (Gravitational Force) अलग-अलग होता है। इसलिए दोनों की घड़ियां अलग-अलग गति से चलती है। इस प्रभाव के कारण चांद पर रखी घड़ी पृथ्वी की घड़ियों की तुलना में रोज़ाना 58.7 माइक्रोसेकंड आगे हो जाएगी (Microsecond Time Difference)। अब जब सारा कामकाज अधिक सटीकता से होगा तो इतना अंतर भी अहम साबित होगा। 

पहला सवाल तो यह आएगा कि क्या अधिकारिक चंद्र-समय (Official Lunar Time) ऐसी घड़ियों पर आधारित हो जिन्हें UTC के साथ लयबद्ध कर दिया गया हो या वहां के लिए स्वतंत्र समय का निर्धारण किया जाए। और खगोलविदों (Astronomers) का मानना है कि निर्णय जल्दी करना होगा क्योंकि ऐसा न हुआ तो विभिन्न अंतरिक्ष एजेंसियां और निजी कंपनियां अपना-अपना समाधान लागू करने लगेंगी। 

धरती के चक्कर काट रहे उपग्रहों के लिए एक ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम (GPS) स्थापित की गई है। यह सिस्टम उपग्रहों (Satellites) की मदद से पृथ्वी पर किसी बिंदु की स्थिति का सटीक निर्धारण करने में मददगार होती है। इसी प्रकार का एक सिस्टम – ग्लोबल सेटेलाइट नेविगेशन सिस्टम (Global Satellite Navigation System) – ज़रूरी होगा जो चांद व अन्यत्र भी स्थितियों के निर्धारण में कारगर हो क्योंकि समय के साथ बात सिर्फ चंद्रमा तक सीमित नहीं रहेगी बल्कि मंगल वगैरह भी शामिल हो जाएंगे (Mars and Other Planets)। अंतरिक्ष एजेंसियां चाहती हैं कि ऐसी कोई व्यवस्था 2030 तक स्थापित हो जाए (Space Agencies Aim for 2030)। 

अब तक चंद्र अभियान (Lunar Missions) अपनी स्थिति को पक्का करने के लिए पृथ्वी से निर्धारित समयों पर भेजे गए रेडियो संकेतों (Radio Signals) के भरोसे रहते हैं। लेकिन दर्जनों अभियान होंगे तो ऐसे संकेत भेजने के लिए संसाधनों की कमी पड़ जाएगी। 

इस वर्ष युरोपियन स्पेस एजेंसी (European Space Agency) और नासा (NASA) चंद्रमा पर स्थिति के निर्धारण के लिए पृथ्वी-स्थित दूरबीनों से उपग्रह के क्षीण संकेत भेजने का परीक्षण करेंगे। इसके बाद योजना है कि कुछ ऐसे उपग्रह (Satellites) चंद्रमा के आसपास स्थापित किए जाएंगे जो इसी काम के लिए समर्पित होंगे। इनमें से हरेक पर अपनी-अपनी परमाणु घड़ियां (Atomic Clocks) लगी होंगी। तब चंद्रमा पर रखा कोई रिसीवर इन सबसे प्राप्त संकेतों की मदद से (त्रिकोणमिति की मदद से) अपनी स्थिति पता कर लेगा (Triangulation for Positioning)। इसके लिए इस बात का फायदा उठाया जाएगा कि अलग-अलग उपग्रह से रिसीवर तक संकेत पहुंचने में कितना समय लगता है। युरोपियन स्पेस एजेंसी शुरू में चार अंतरिक्ष यान (Spacecraft) स्थापित करने की योजना बना रही है जो चांद के दक्षिण ध्रुव (South Pole of the Moon) के आसपास स्थिति निर्धारण में मदद करेंगे। दक्षिण ध्रुव को इसलिए चुना गया है क्योंकि वहीं सबसे ज़्यादा पानी है (Water on Moon’s South Pole) और इस वजह से सबसे ज़्यादा अभियान वहीं होने की उम्मीद है। 

युरोपियन स्पेस एजेंसी के यॉर्ग हान का कहना है कि विभिन्न अभियानों के परस्पर संवाद और सहयोग (Communication and Collaboration) करने के लिए एक अधिकारिक चंद्र समय (Official Lunar Time) की ज़रूरत होगी। इसके साथ ही दूसरा सवाल यह है कि क्या अंतरिक्ष यात्री (Astronauts) पूरे चंद्रमा पर युनिवर्सल ल्यूनर टाइम (ULT) का उपयोग करेंगे। हो सकता है कि ULT ही अधिकारिक टाइम रहे लेकिन उसका उपयोग करने वाले चाहें कि वे अलग-अलग टाइम ज़ोन (Time Zones) निर्धारित कर पाएं, जैसा पृथ्वी पर किया गया है। इसका फायदा यह होगा कि वे आकाश में सूरज की स्थिति से जुड़े रह पाएंगे (Sun’s Position). 

कुल मिलाकर चंद्र समय (Lunar Time) को परिभाषित करना आसान नहीं होगा। मसलन, एक सेकंड की परिभाषा तो सब जगह एक ही है लेकिन सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity) बताता है कि ज़्यादा शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण में घड़ियां धीमी चलती हैं। चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की अपेक्षा कमज़ोर है (Weaker Gravitational Force on the Moon)। इसका मतलब होगा कि पृथ्वी के किसी प्रेक्षक को चंद्र-घड़ी तेज़ चलती नज़र आएगी (Faster Lunar Clocks for Earth Observer)। और तो और, चंद्रमा की सतह पर अलग-अलग जगहों के लिए यह अंतर भी अलग-अलग होगा (Varied Time Differences on the Moon’s Surface)। ऐसा लगता है कि एक चंद्र-मानक (Lunar Standard Time) परिभाषित करने के लिए कम से कम तीन मास्टर घड़ियां स्थापित करनी होंगी जो चांद की स्वाभाविक रफ्तार से चलेंगी। फिर इनके समयों पर कोई एल्गोरिद्म लागू करके एक वर्चुअल घड़ी बनेगी और वही मानक होगी। 

वैसे, एक मानक चंद्र समय (Standard Lunar Time) परिभाषित करने की दिशा में काम शुरू भी हो चुका है। अगस्त में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (International Astronomical Union) ने सभी अंतरिक्ष एजेंसियों से औपचारिक रूप से आव्हान किया है कि वे चंद्रमा के लिए एक समय मापन मानक (Time Measurement Standard) स्थापित करें। नासा को कहा गया है कि वह 2026 तक चंद्र समय के मानकीकरण (Lunar Time Standardization) के लिए कोई रणनीति विकसित कर ले। इस नए मानक के लिए चार शर्तें रखी गई हैं: इसका तालमेल यूटीसी से हो सके (Synchronization with UTC), अंतरिक्ष में यातायात की दृष्टि से पर्याप्त सटीकता हो, पृथ्वी से संपर्क टूट जाने की स्थिति में भी यह काम कर सके (Works in Communication Blackouts) और यह मात्र पृथ्वी-चंद्रमा से आगे भी लागू किया जा सके (Applies Beyond Earth-Moon). (स्रोत फीचर्स)  

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चीन ने बनाया विश्व का सबसे शक्तिशाली चुंबक

चीन ने दुनिया का सबसे शक्तिशाली विद्युत चुंबक (Electromagnet) बनाकर वैज्ञानिक नवाचार में एक महत्वपूर्ण छलांग लगाई है। यह पृथ्वी की तुलना में 8 लाख गुना अधिक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (Magnetic Field) उत्पन्न करने में सक्षम है। 22 सितंबर, 2024 को हेफेई में स्थिर उच्च चुंबकीय क्षेत्र केंद्र (SHMFF) में, चुंबक ने 42.02 टेस्ला का स्थिर क्षेत्र उत्पन्न किया। यह 2017 में यूएसए (USA) द्वारा स्थापित 41.4 टेस्ला के रिकॉर्ड से अधिक है।

गौरतलब है कि विद्युत चुंबक तारों की कुंडलियों में विद्युत प्रवाहित करके बनाए जाते हैं। चीन द्वारा विकसित यह शक्तिशाली चुंबक सुपरकंडक्टर (Superconductor) जैसी सामग्रियों के अध्ययन का महत्वपूर्ण उपकरण है।

शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (Powerful Magnetic Field) वाले चुंबक वैज्ञानिकों को पदार्थों के अनजाने गुणों का पता लगाने में मदद करते हैं, जैसे सुपरकंडक्टर में ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow in Superconductors)। शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र में उनका अध्ययन करने से सफलता मिल सकती है। इसके अतिरिक्त, ये चुंबक ऐसे प्रयोगों की क्षमता बढ़ा सकते हैं जिनमें संवेदनशील मापों पर निर्भरता होती है। इससे वैज्ञानिकों को सूक्ष्म भौतिक परिवर्तनों का पता लगाने में मदद मिलती है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, प्रत्येक अतिरिक्त टेस्ला (Tesla Unit) अनुसंधान को अधिक सटीक बनाता है। इस लिहाज़ से यह 42-टेस्ला चुंबक महत्वपूर्ण है।

विद्युत चुंबक अत्यधिक विश्वसनीय और लंबे समय तक शक्तिशाली क्षेत्र बनाए रख सकते हैं, लेकिन ये उच्च ऊर्जा खपत (High Energy Consumption) भी करते हैं। SHMFF के चुंबक को अपने रिकॉर्ड-तोड़ प्रदर्शन के लिए 32.3 मेगावॉट बिजली लगती है। अत: ऐसे शक्तिशाली चुंबकों को चलाना काफी महंगा है, और इतनी ऊर्जा खपत को उचित ठहराने के लिए ठोस वैज्ञानिक तर्क की आवश्यकता होगी।

हालांकि बिजली की खपत को कम करने के लिए शोधकर्ता अपना ध्यान हाइब्रिड (Hybrid Magnets) और पूरी तरह से सुपरकंडक्टिंग चुंबकों (Superconducting Magnets) पर केंद्रित कर रहे हैं। ये नए डिज़ाइन विद्युत चुंबकों को सुपरकंडक्टिंग चुंबक के साथ जोड़ते हैं, जिन्हें शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करने के लिए कम बिजली लगती है। 2022 में, SHMFF के हाइब्रिड चुंबक ने 45.22 टेस्ला का क्षेत्र प्राप्त किया था।

हाइब्रिड और सुपरकंडक्टिंग चुंबक की संभावनाएं तो बहुत हैं, लेकिन कई चुनौतियां भी हैं। इन्हें बनाना काफी महंगा है और काम करने के लिए जटिल कूलिंग सिस्टम (Cooling Systems) की ज़रूरत होती है। बहरहाल, अधिक मज़बूत और कुशल चुंबक बनाने की होड़ जारी है। (स्रोत फीचर्स)

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