अल्बर्ट
आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत ने एक और परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है।
शोधकर्ता लगभग 3 दशकों
से आकाशगंगा के बीच स्थित विशालकाय ब्लैक होल (Sagittarius
A*) के
सबसे निकटतम ज्ञात तारे की कक्षा का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने इस तारे की कक्षा
में मामूली से परिवर्तन का पता लगाया है और यह परिवर्तन पूरी तरह आइंस्टाइन के
सिद्धांत से मेल खाता है।
एस2 नाम का यह तारा 16 वर्ष में अपनी
दीर्घवृत्ताकार कक्षा का एक चक्कर पूरा करता है। यह पिछले वर्ष ब्लैक होल के सबसे
नज़दीक, 20 अरब किलोमीटर की दूरी,
से गुज़रा था। यदि ऐसे में न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत
को माना जाए तो इसे अपनी कक्षा में पहले जैसे कायम रहना था लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
बल्कि इसके पथ में मामूली सा परिवर्तन देखने को मिला। टीम ने यह अध्ययन युरोपियन
सदर्न ऑब्ज़र्वेटरी के एक विशाल टेलिस्कोप की मदद से किया है। इसकी रिपोर्ट को एस्ट्रोनॉमी
एंड एस्ट्रोफिज़िक्स में प्रकाशित किया है। इस घटना को श्वार्ज़स्चाइल्ड
पुरस्सरण का नाम दिया है। सामान्य सापेक्षता की भविष्यवाणी के अनुसार आने वाले समय
में यह अंतरिक्ष में स्पाइरोग्राफ नुमा फूल का पैटर्न अपनाएगा।
शोधकर्ताओं का मानना है कि एस2 की विस्तृत ट्रैकिंग की मदद से सापेक्षता के कई अन्य परीक्षण करने में मदद मिलेगी। इसकी सहायता से ब्लैक होल के आसपास उपस्थित डार्क मैटर और छोटे ब्लैक होल सहित अन्य अध्ययन किए जा सकेंगे। इससे यह समझा जा सकेगा कि इस तरह के विशालकाय पिंड कैसे बनते और विकसित होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://hips.hearstapps.com/hmg-prod.s3.amazonaws.com/images/041520-ec-einstein-feat-1028×579-1587052498.jpg?crop=0.5632295719844358xw:1xh;center,top&resize=768:*
भारत
का पहला मानव-सहित
अंतरिक्ष मिशन गगनयान 2021-22
के दौरान उड़ान भरेगा। अंतरिक्ष में मनुष्य को भेजने से
पहले भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) सभी प्रासंगिक प्रौद्योगिकियों में महारत हासिल करने के लिए
दो मानव-रहित
मिशन भेजेगा।
इसरो ने 22-24 जनवरी, 2020 को बैंगलुरु में एक
तीन दिवसीय संगोष्ठी के दौरान एक महिला रोबोट अंतरिक्ष यात्री ‘व्योम मित्र’ का अनावरण किया। ‘मानव अंतरिक्ष उड़ान
और अन्वेषण – वर्तमान
चुनौतियां और भविष्य के रुझान’ नामक इस संगोष्ठी के उद्घाटन दिवस पर व्योम मित्र आकर्षण का
केंद्र था।
इसरो
के मानव-सहित
अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम के तहत गगनयान पहला यान होगा,
जिसे शक्तिशाली जीएसएलवी एमके III रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाएगा।
गगनयान
कक्षीय कैप्सूल में एक सेवा मॉड्यूल और एक चालक दल मॉड्यूल है। वर्तमान गगनयान योजना
के अंतर्गत दो मानव-रहित
और एक मानव-सहित
उड़ान शामिल हैं। पहली मानव-रहित उड़ान दिसंबर 2020 में और दूसरी जुलाई 2021 में प्रस्तावित है। दो सफल मानव-रहित उड़ानों के बाद,
पहला मानव-सहित मिशन दिसंबर 2021 में निर्धारित किया गया है।
समानव
अंतरिक्ष यान को या तो चालक दल द्वारा या दूर से भू-स्टेशनों द्वारा संचालित किया जा सकता है,
और यह स्वायत्त भी हो सकता है। समानव अंतरिक्ष यान 5-7 दिनों के लिए पृथ्वी
की निम्न कक्षा में परिक्रमा करेगा और फिर उसका चालक दल मॉड्यूल सुरक्षित रूप से
धरती पर वापस लौटेगा।
गगनयान
मिशन का मुख्य उद्देश्य प्रौद्योगिकी प्रदर्शन है। मिशन का दूसरा उद्देश्य देश में
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के स्तर में वृद्धि करना है। गगनयान एक अंतरिक्ष स्टेशन
स्थापित करने का अग्रदूत होगा।
मानव-रोबोट व्योम मित्र
मूल रूप से एक मानव की सूरत वाला रोबोट है। उसके पास सिर्फ सिर,
दो हाथ और धड़ है, निचले
अंग नहीं हैं।
किसी
भी रोबोट की तरह, एक मानव-रोबोट के कार्य उससे
जुड़े कंप्यूटर सिस्टम द्वारा संचालित किए जाते हैं। कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल
इंटेलिजेंस) और
रोबोटिक्स के विकास के साथ मानव-रोबोटों को ऐसे कार्यों के लिए तेज़ी से इस्तेमाल किया जा
रहा है जिनमें बार-बार
एक-सी
क्रियाएं करनी होती हैं, जैसे कि रेस्तरां
में बैरा।
इसरो
की योजना 2022 तक
किसी इंसान को अंतरिक्ष में भेजने की है। वह एक क्रू मॉड्यूल और रॉकेट सिस्टम
विकसित करने में जुटा है जो अंतरिक्ष यात्री की सुरक्षित यात्रा और वापसी
सुनिश्चित कर सके। भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को व्योमनॉट्स के नाम से संबोधित
किया जाएगा। जिन अन्य देशों ने अंतरिक्ष में मनुष्यों को सफलतापूर्वक भेजा है,
उन्होंने अपने रॉकेट और नाविक पुन:प्राप्ति तंत्र (क्रू रिकवरी सिस्टम) के परीक्षणों के लिए जानवरों का इस्तेमाल
किया था, जबकि इसरो अंतरिक्ष
में मानव को ले जाने और वापसी के लिए अपने जीएसएलवी एमके III रॉकेट की प्रभावकारिता का परीक्षण रोबोट
का उपयोग करके सुनिश्चित करेगा। यह रोबोट विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र,
तिरुवनंतपुरम की रोबोटिक्स प्रयोगशाला में विकासाधीन है।
इसरो
का जीएसएलवी एमके क्ष्क्ष्क्ष् रॉकेट इस समय सुधार के दौर से गुज़र रहा है ताकि यह
सुनिश्चित किया जा सके कि यह मनुष्य को अंतरिक्ष में ले जाने के लिए सुरक्षित है।
इसकी पहली मानव-रहित
उड़ान की योजना दिसंबर 2020
में निर्धारित है। क्रू मॉड्यूल प्रणाली भी विकासाधीन है,
और अगले कुछ महीनों में इसके लिए इसरो कई नए परीक्षण करने
का प्रयास करेगा ।
इसरो
को अपनी अंतरिक्ष परियोजनाओं के लिए रोबोटिक सिस्टम बनाने का खासा अनुभव है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पहले से ही कई अंतरिक्ष मिशनों के मूल में है। उदाहरण के
लिए, अंतरिक्ष यानों और प्रक्षेपण यानों में
उन्मुखीकरण, गति,
उपांगों की तैनाती, दूरी
आदि का स्वत: मूल्यांकन,
प्रसंस्करण संग्रहित निर्देशों के माध्यम से किया जाता है।
इसरो का मानव रोबोट 2022
में अंतरिक्ष यात्रियों के अस्तित्व और सुरक्षित यात्रा के
लिए बने क्रू मॉड्यूल का परीक्षण करने में सक्षम होगा।
व्योम
मित्र रोबोट का उपयोग एक प्रयोग के रूप में किया जा रहा है। यह मानव-रहित अंतरिक्ष उड़ान
में मानव शरीर के अधिकांश कार्य करेगा। व्योम मित्र बातचीत करने,
जवाब देने और वापस रिपोर्ट करने के लिये मनुष्य जैसा व्यवहार
करेगा। यह अंतरिक्ष यात्रियों को भी पहचान सकता है, उनसे
बातचीत कर सकता है और उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकता है।
व्योम
मित्र, जिनका मानव अंतरिक्ष
उड़ान के लिए पहले जमीन पर परीक्षण किया जाएगा, मूलभूत
कृत्रिम बुद्धि और रोबोटिक्स प्रणाली पर आधारित होगा। एक बार पूरी तरह से विकसित
होने के बाद, व्योम मित्र मानव-रहित उड़ान के लिए
ग्राउंड स्टेशनों से भेजे गए सभी निर्देशों को अंजाम देने में सक्षम होंगे। इनमें
सुरक्षा तंत्र और स्विच पैनल का संचालन करने की प्रक्रियाएं शामिल होंगी।
प्रक्षेपण और कक्षीय मुद्राओं को प्राप्त करना, मापदंडों
के माध्यम से मॉड्यूल की निगरानी, पर्यावरण पर
प्रतिक्रिया देना, जीवन सहायता प्रणाली
का संचालन, चेतावनी निर्देश
जारी करना, कार्बन डाईऑक्साइड
कनस्तरों को बदलना, स्विच चलाना,
क्रू मॉड्यूल की निगरानी, वॉयस
कमांड प्राप्त करना, आवाज़ के माध्यम से
प्रतिक्रिया देना आदि कार्य मानव रोबोट के लिए सूचीबद्ध किए गए हैं। व्योम मित्र
आवाज़ के अनुसार होंठ हिलाने में सक्षम होगा। वे प्रक्षेपण,
लैंडिंग और मानव मिशन के कक्षीय चरणों के दौरान अंतरिक्ष
यान की सेहत जैसे पहलुओं से सम्बंधित ऑडियो जानकारी प्रदान करने में अंतरिक्ष
यात्री के कृत्रिम दोस्त की भूमिका निभाएंगे।
व्योम
मित्र अंतरिक्ष उड़ान के दौरान क्रू मॉड्यूल में होने वाले बदलावों को पृथ्वी पर
वापस रिपोर्ट भी करेंगे, जैसे ऊष्मा विकिरण
का स्तर, जिससे इसरो को क्रू
मॉड्यूल में आवश्यक सुरक्षा स्तरों को समझने में मदद मिलेगी और अंतत: समानव उड़ान कर
सकेंगे।
डमी
अंतरिक्ष यात्रियों वाले कई अंतरिक्ष मिशन रहे हैं। कुछ मिशनों में व्योम मित्र
जैसे रोबोट का उपयोग भी किया जा चुका है। हाल ही में रिप्ले नामक एक अंतरिक्ष
यात्री पुतले को ड्रैगन क्रू कैप्सूल पर स्पेस एक्स फाल्कन रॉकेट द्वारा मार्च 2019 में अंतर्राष्ट्रीय
अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजा गया था। रिप्ले को नासा के लिए 2020 में अंतरिक्ष में मानव भेजने के लिए स्पेस
एक्स की तैयारी के एक हिस्से के रूप में बनाया गया था।
एयरबस
द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर सिमोन (CIMONक्रू
इंटरएक्टिव मोबाइल कंपेनियन) नामक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस रोबोट बॉल को तैनात किया गया
था। अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर एक फ्लोटिंग कैमरा रोबोट-इंट-बॉल को जापान
एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (जैक्सा) द्वारा तैनात किया गया था ।
जापान में निर्मित एक मानव-रोबोट किरोबो को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के पहले जापानी कमांडर कोइची वाकाता के साथ सहायक के रूप में अंतरिक्ष स्टेशन पर प्रयोगों के संचालन के लिए भेजा गया था। किरोबो आवाज़ पहचान, चेहरे की पहचान, भाषा प्रसंस्करण और दूरसंचार क्षमताओं जैसी प्रौद्योगिकियों से लैस था। यांत्रिक कार्यों को अंजाम देने के लिए एक रूसी मानव-रोबोट, फेडोर को 2019 में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजा गया था।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.cnbctv18.com/optimize/z9ESx0u-XVFdBSaQ5hCeF_5db00=/0x0/images.cnbctv18.com/wp-content/uploads/2020/01/ISRO-Vyomamitra-PTI.jpg
हैंस लिपरशे द्वारा दूरबीन के
आविष्कार के बाद गैलीलियो ने स्वयं दूरबीन का पुनर्निर्माण करके पहली बार खगोलीय
अवलोकन में उपयोग किया था। तब से लगभग चार शताब्दियां बीत चुकी हैं। तब से अब तक
दूरबीनों ने खगोल विज्ञान में कई आकर्षक और पेचीदा खोजों को संभव बनाया है। इनमें
हमारे सूर्य से परे अन्य तारों की परिक्रमा कर रहे ग्रहों की खोज, ब्राहृांड
के फैलने की गति में तेज़ी के सबूत, डार्क मैटर और डार्क एनर्जी का अस्तित्व, क्षुद्र
ग्रहों और धूमकेतुओं वगैरह की खोज शामिल है।
आज
बहुत-सी विशालकाय दूरबीनों का निर्माण किया जा चुका है। इनमें कई धरती पर लगी हैं
तो कुछ अंतरिक्ष में भी स्थापित हैं। खगोलीय पिंड दृश्य प्रकाश के अलावा कई तरह के
विद्युत चुंबकीय विकिरण (इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक रेडिएशन) का भी उत्सर्जन करते हैं।
दूरस्थ खगोलीय पिंडों से उत्सर्जित विद्युत-चुंबकीय विकिरण का ज़्यादातर हिस्सा
पृथ्वी का वायुमंडल सोख लेता है और इस वजह से पृथ्वी पर स्थित विशाल प्रकाशीय
(ऑप्टिकल) दूरबीनों से उन खगोलीय पिंडों को भलीभांति नहीं देखा जा सकता है। पृथ्वी
की वायुमंडलीय बाधा को दूर करने एवं दूरस्थ खगोलीय पिंडों के सटीक प्रेक्षण के लिए
‘अंतरिक्ष दूरबीनों’ का निर्माण किया गया है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने चार
बड़ी दूरबीनों या वेधशालाओं को अंतरिक्ष में उतारा है – हबल स्पेस टेलीस्कोप, कॉम्पटन
गामा रे आब्ज़र्वेटरी (सीजीआरओ), चंद्रा एक्स-रे टेलीस्कोप और आखरी स्पिट्ज़र
टेलीस्कोप।
30
जनवरी 2020 को अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने ‘स्पिट्ज़र टेलीस्कोप मिशन’ की
समाप्ति की घोषणा कर दी। हालांकि इसका निर्धारित जीवनकाल केवल ढाई वर्ष था फिर भी
इसने लगभग 16 वर्षों तक अपनी भूमिका दक्षतापूर्वक निभाई। गौरतलब है कि स्पिट्ज़र
स्पेस टेलीस्कोप 950 किलोग्राम वज़नी एक ऐसा खगोलीय टेलीस्कोप है जिसे अंतरिक्ष में
एक कृत्रिम उपग्रह के रूप में स्थापित किया गया है, इसलिए यह सूर्य के चारों ओर कक्षा में चक्कर लगाता
है। यह ब्राहृांड की विभिन्न वस्तुओं की इन्फ्रारेड प्रकाश में जांच करता है।
दरअसल, स्पिट्ज़र अंतरिक्ष में वह सब कुछ देखने में सक्षम था
जिसे प्रकाशीय दूरबीनों के जरिए नहीं देखा जा सकता है। अंतरिक्ष का ज़्यादातर
हिस्सा गैस और धूल के विशाल बादलों से भरा है जिसके पार देखने की क्षमता हमारे पास
नहीं हैं। मगर इन्फ्रारेड प्रकाश गैस और धूल के बादलों की बड़ी से बड़ी दीवारों को
भी भेद सकता है। स्पिट्ज़र अपने विशाल टेलीस्कोप और क्रायोजनिक सिस्टम से ठंडे रखे
जाने वाले तीन वैज्ञानिक उपकरणों के साथ अब तक का सबसे बड़ा इन्फ्रारेड टेलीस्कोप
है।
स्पिट्ज़र
को 25 अगस्त, 2003 को अमेरिका के केप कैनवरेल से डेल्टा रॉकेट के
जरिए अंतरिक्ष में भेजा गया था। शुरुआत में इसका नाम ‘स्पेस इन्फ्रारेड टेलीस्कोप
फेसिलिटी’ था लेकिन नासा की परंपरा के अनुसार ऑपरेशन के सफल प्रदर्शन के बाद
बीसवीं सदी के एक महान खगोलविद लिमन स्पिट्ज़र के सम्मान में ‘स्पिट्ज़र’ नाम दिया
गया। गौरतलब है कि लिमन स्पिट्ज़र 1940 के दशक में अंतरिक्ष दूरबीनों की अवधारणा को
बढ़ावा देने वाले अग्रणी व्यक्तियों में से एक थे। स्पिट्ज़र टेलीस्कोप में
इन्फ्रारेड ऐरे कैमरा, इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोग्राफ और मल्टीबैंड इमेजिंग
फोटोमीटर नामक तीन उपकरणों को रखा गया था। इन्फ्रारेड चूंकि एक तरह का गर्म विकिरण
होता है, इसलिए इन तीनों उपकरणों को विकिरण से भस्म होने से
बचाने और ठंडा रखने के लिए एब्सोल्यूट ज़ीरो यानी शून्य से 273 डिग्री सेल्सियस से
कुछ ही अधिक तापमान रखने के लिए तरल हीलियम का इस्तेमाल किया गया था। इसके अलावा
सौर विकिरण से बचाव के लिए स्पिट्ज़र को सौर कवच से भी सुसज्जित किया गया था।
यों
तो स्पिट्ज़र टेलीस्कोप द्वारा की गई खोजों की सूची काफी लंबी है, मगर
उसके ज़रिए की गई प्रमुख खोजों की चर्चा ज़रूरी है। इस टेलीस्कोप ने न केवल
ब्राहृांड की सबसे पुरानी निहारिकाओं के बारे में हमें जानकारी उपलब्ध कराई है
बल्कि शनि के चारों ओर मौजूद एक करोड़ तीस लाख किलोमीटर के दायरे में एक नए वलय का
भी खुलासा किया है। इसने धूल कणों के विशालकाय भंडार के माध्यम से नए तारों और
ब्लैक होल्स का भी अध्ययन किया। स्पिट्ज़र ने हमारे सौर मंडल से परे अन्य ग्रहों की
खोज में सहायता की, जिसमें पृथ्वी के आकार वाले सात ग्रह जो
ट्रैपिस्ट-1 नामक तारे के चारों ओर परिक्रमा कर रहे थे, के बारे में पता लगाना भी शामिल है। इसके अलावा
क्षुद्रग्रहों और ग्रहों के टुकड़ों, बेबी ब्लैक होल्स, तारों की नर्सरियों यानी नेब्युला (जहां नए तारों
का निर्माण होता है) की खोज, अंतरिक्ष में 60 कार्बन परमाणुओं से बनी त्रि-आयामी
और गोलाकार संरचनाओं यानी बकीबॉल्स की खोज, निहारिकाओं के विशाल समूहों की खोज, हमारी
आकाशगंगा (मिल्की-वे) का सबसे विस्तृत मानचित्रण आदि स्पिट्ज़र टेलीस्कोप की प्रमुख
उपलब्धियों में शामिल हैं।
स्पिट्ज़र
को ठंडा रखने के लिए तरल हीलियम बेहद ज़रूरी था, लेकिन 15 मई 2009 को इसका तरल हीलियम का टैंक खाली
हो गया। वर्तमान में इसके ज़्यादातर उपकरण खराब हो चुके हैं। अलबत्ता, इसके
दो कैमरे अभी भी काम कर रहे हैं और स्पिट्ज़र सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। नासा ने
स्पिट्ज़र मिशन की हालिया समीक्षा की और पाया कि इसके कैमरे अभी भी काम कर रहे हैं।
मगर इस टेलीस्कोप को अब संचालन के योग्य नहीं पाया गया, तो इसे रिटायर करने का फैसला लिया। नासा डीप स्पेस
नेटवर्क के जरिए प्राप्त स्पिट्ज़र के सभी आंकड़ों के विश्लेषण में लगा हुआ है।
नासा
में खगोल भौतिकी विभाग के निदेशक पॉल हर्ट्ज़ कहना है कि “अच्छा होगा अगर हमारे सभी
टेलीस्कोप हमेशा के लिए कार्य करने में सक्षम होते, लेकिन यह संभव नहीं है। 16 साल से अधिक समय तक
स्पिट्ज़र ने खगोलविदों को अपनी सीमाओं से आगे बढ़कर अंतरिक्ष में काम करने का मौका
दिया।” कुल मिलाकर, स्पिट्ज़र ने अपने 140 करोड़ डॉलर के मिशन के तहत 8
लाख आकाशीय लक्ष्यों की छानबीन की।
बहरहाल, ब्राहृांड की गहराइयों में झांकने के लिए और खोजों के इस सिलसिले को जारी रखने के लिए स्पिट्ज़र की जगह लेने को तैयार है लंबे समय से प्रतीक्षित इसका उत्तराधिकारी बेहद शक्तिशाली ‘जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप’। हालांकि जेम्स वेब और स्पिट्ज़र की कार्यप्रणाली में ज़मीन-आसमान का अंतर होगा, मगर जेम्स वेब भी स्पिट्ज़र की भांति इन्फ्रारेड की खिड़की का इस्तेमाल करके ब्राहृांड के अध्ययन में सक्षम होगा। अलविदा स्पिट्ज़र! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://solarsystem.nasa.gov/system/news_items/main_images/513_TOP-SpitzerPlanets_ArtistConcept.jpg
नए साल में इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन (इसरो) ने अपने
नए इरादे ज़ाहिर किए हैं। महीने की शुरुआत में ही एक पत्रकार वार्ता में इसरो
प्रमुख के. सिवन ने मीडिया को बतलाया था कि इसरो ने अंतरिक्ष में भारत के पहले
मानव मिशन ‘गगनयान’ की तैयारी कर ली है। ‘गगनयान’ के डिज़ाइन को अंतिम रूप दिया जा
चुका है। ‘गगनयान’ के लिए चार अंतरिक्ष यात्रियों के चयन की प्रक्रिया पूरी हो गई
है। चारों यात्री वायुसेना के हैं। इन पायलटों को मेडिकल टेस्ट के बाद, भारत और रूस में इस मिशन सम्बंधी ट्रेनिंग दी जाएगी। अंतरिक्ष यात्रियों को ले
जाने के लिए 3.7 टन का अंतरिक्ष यान डिज़ाइन किया गया है। अंतरिक्ष यात्रियों को इस
मिशन के लिए प्रशिक्षित करने और क्रू कैप्सूल में लाइफ सपोर्ट सिस्टम बनाने के लिए
रूस की मदद ली जाएगी।
गगनयान के अलावा सरकार ने मिशन ‘चंद्रयान-3’ को भी मंज़ूरी दे दी है। इससे जुड़ी
सभी गतिविधियां सुचारु रूप से चल रही हैं। यदि सब कुछ योजना के मुताबिक चला, तो यान अगले साल चांद की सतह को छूने के अपने सफर पर निकल सकता है। इसरो की
गतिविधियों में तेज़ी लाने के लिए एक और महत्वपूर्ण निर्णय हुआ है। देश का दूसरा
अंतरिक्ष प्रक्षेपण केंद्र, तमिलनाडु के थुथुकुडी में
बनेगा। केन्द्र के लिए भूमि अधिग्रहण का काम शुरू कर दिया गया है। अभी अंतरिक्ष
में उपग्रह,
यान और रॉकेट प्रक्षेपित करने का पूरा भार आंध्र प्रदेश के
श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन स्पेस सेंटर पर ही है।
बीते साल की तरह, नए साल में भी इसरो के अंतरिक्ष अभियान
जारी रहेंगे। साल 2020 के लिए उसने तकरीबन 25 अभियान तय किए हैं। साल 2019 में जो
मिशन अधूरे रह गए थे, उन्हें भी मार्च 2020 तक पूरा करने का
लक्ष्य रखा गया है। इस दिशा में शुरुआत करते हुए इसरो ने हाल ही में उच्च गुणवत्ता
वाले संचार उपग्रह जीसैट-30 का फ्रेंच गुयाना से सफल प्रक्षेपण किया। जीसैट-30
इनसैट/जीसैट शृंखला का उपग्रह है और यह 12 सी और 12 केयू बैंड ट्रांस्पॉन्डरों से
लैस है। जीसैट-30 इनसैट-4 ए की जगह लेगा और इसकी कवरेज क्षमता भी अधिक होगी। इस
उपग्रह से देश को बेहतर दूरसंचार एवं प्रसारण सेवाएं मिलेंगी। भारत अंतरिक्ष में
पहली ही कोशिश में मानव यात्री भेजने वाला दुनिया का पहला देश होगा। बाकी देशों ने
किसी वस्तु या जानवर को भेजा था। हालांकि, मानव
मिशन भेजने से पहले यान कई दौर की आज़माइश से गुज़रेगा। ‘गगनयान’ की पहली मानवरहित
उड़ान इसी साल आयोजित करने की योजना है। मानवरहित ‘गगनयान’ के लिए इसरो के
वैज्ञानिकों ने एक महिला रोबोट बनाया है। जिसका नाम ‘व्योममित्र’ है। इस रोबोट का
नाम संस्कृत के दो शब्दों ‘व्योम’ यानी अंतरिक्ष और मित्र को मिलाकर रखा गया है।
गगनयान की उड़ान से ठीक पहले इसरो ‘व्योममित्र’ को अंतरिक्ष में भेजेगा और अध्ययन
करेगा। यह इंसानी महिला रोबोट अंतरिक्ष से इसरो को अपनी रिपोर्ट भेजेगी। इसरो ने
हाल ही में व्योममित्र को दुनिया के सामने पेश किया और इसकी खूबियों के बारे में
बताया। इसरो का कहना है कि व्योममित्र अंतरिक्ष में एक मानव शरीर की एक्टिविटी का
अध्ययन करेगी और हमारे पास रिपोर्ट भेजेगी। यह अंतरिक्ष में अंतरिक्ष यात्रियों की
साथी होगी और उनसे बातचीत करेगी। यह महिला रोबोट जांच करेगी कि सभी प्रणालियां सही
ढंग से काम कर रही हैं या नहीं।
मिशन गगनयान और चंद्रयान-3, दोनों का काम एक साथ चल रहा
है। ‘चंद्रयान-3’ की संरचना बहुत हद तक ‘चंद्रयान-2’ जैसी होगी। फर्क सिर्फ इतना
रहेगा कि ‘चंद्रयान-2’ में ऑर्बाइटर, लैंडर और रोवर मौजूद था, जबकि ‘चंद्रयान-3’ को लैंडर व रोवर के अलावा प्रोपल्शन मॉड्यूल से भी लैस किया
जाएगा। यानी इस बार ऑर्बाइटर नहीं जाएगा। मिशन ‘चंद्रयान-3’ की कुल लागत 600 करोड़
रुपए अनुमानित है। इसरो ने पिछले साल अपने महत्वाकांक्षी मिशन ‘चंद्रयान-2’ की
बहुत अच्छी तैयारी की थी। लेकिन चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम लैंडर की
सॉफ्ट लैंडिंग कराने के दौरान, मून लैंडर विक्रम का इसरो से
उस समय संपर्क टूट गया, जब वह चंद्रमा की सतह से महज दो किलोमीटर
की दूरी पर था। यानी मिशन कामयाब होते-होते रह गया। भले ही चंद्रयान-2 सफलतापूर्वक
लैंड नहीं कर सका लेकिन ऑर्बाइटर अभी भी काम कर रहा है। इससे अगले सात वर्षों के
लिए वैज्ञानिक डैटा के उत्पादन करने का काम होता रहेगा।
चंद्रयान-3 और गगनयान के बाद इसरो का अंतरिक्ष में अपना स्पेस स्टेशन बनाने का
इरादा है। स्पेस स्टेशन से इसरो की अंतरिक्ष के साथ-साथ पृथ्वी की निगरानी की
क्षमता बढ़ेगी। इस स्टेशन पर भारतीय वैज्ञानिक कई तरह के प्रयोग कर पाएंगे। स्पेस
स्टेशन में लगे कैमरों से वे अच्छी गुणवत्ता वाली तस्वीरें लेने के अलावा जो देखना
चाहेंगे,
उसे आसानी से देख सकेंगे। इससे अंतरिक्ष में बार-बार
निगरानी उपग्रह भेजने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी और खर्च में भी कमी आएगी।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की
योजना है कि पृथ्वी की निचली कक्षा यानी पृथ्वी की सतह से 400 किलोमीटर की ऊंचाई
पर परिक्रमा करने वाले इस स्पेस स्टेशन में तीन अंतरिक्ष यात्री 15-20 दिन तक रह
सकें। गगनयान की कामयाबी के बाद इस मिशन पर सिलसिलेवार काम शुरू होगा जिसे पांच से
सात साल में पूरा किए जाने की संभावना है। अभी इसकी योजना-निर्माण पर काम शुरू ही
हुआ है। इसरो के अध्यक्ष के. सिवन के मुताबिक यह स्टेशन महज 20 टन का होगा।
इसरो यदि स्पेस स्टेशन बनाने में कामयाब हुआ तो अंतरिक्ष में उसकी धाक जम जाएगी। अंतरिक्ष अनुसंधान और उपग्रह प्रक्षेपण के क्षेत्र में उसका काम और भी बढ़ेगा। वर्तमान में वैश्विक अंतरिक्ष उद्योग का आकार 350 अरब डॉलर है। साल 2025 तक इसके बढ़कर 550 अरब डॉलर होने की संभावना है। ज़ाहिर है, दुनिया में अंतरिक्ष एक महत्वपूर्ण बाज़ार के तौर पर विकसित हो रहा है। बीते एक दशक में अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसरो ने निश्चित तौर पर महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन भारत का अंतरिक्ष उद्योग अभी भी 7 अरब डॉलर के आस-पास है, जो वैश्विक बाज़ार का सिर्फ 2 फीसदी है। अंतरिक्ष उद्योग में भारत को अपनी भागीदारी बढ़ाना है, तो उसे और भी ज़्यादा गंभीर प्रयास करने होंगे। ना सिर्फ उसे इसरो का सालाना बजट बढ़ाना होगा, बल्कि नए वैज्ञानिकों को भी अंतरिक्ष अभियान में जोड़ना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.financialexpress.com/2019/11/isro-reuters.jpg
आज से तकरीबन पचास साल पहले 21 जुलाई 1969 को नील
आर्मस्ट्रांग ने जब चंद्रमा पर कदम रखा था, तब
उन्होंने कहा था कि “मनुष्य का यह छोटा-सा कदम, मानवता
के लिए एक बड़ी छलांग है।” अपोलो मिशन के तहत अमेरिका ने 1969 से 1972 के बीच चांद
की ओर कुल नौ अंतरिक्ष यान भेजे और छह बार इंसान को चांद पर उतारा।
अपोलो मिशन खत्म होने के तीन दशक बाद तक चंद्र अभियानों के प्रति एक बेरुखी-सी
दिखाई दी थी। मगर चांद की चाहत दोबारा बढ़ रही है। बीता साल चंद्र अभियानों के
लिहाज़ से बेहद खास रहा। 16 जुलाई, 2019 को इंसान के चांद पर
पहुंचने की पचासवीं वर्षगांठ थी। जनवरी 2019 में एक चीनी अंतरिक्ष यान चांग-4 ने
एक छोटे से रोबोटिक रोवर के साथ चांद की सुदूर सतह पर उतरकर इतिहास रचा।
भारत ने अपने महत्वाकांक्षी चंद्र अभियान चंद्रयान-2 को चांद पर भेजा हालांकि
इसको उतनी सफलता नहीं मिली जितनी अपेक्षित थी। बीते साल इस्राइल ने भी एक छोटा
रोबोटिक लैंडर चंद्रमा की ओर भेजा था, लेकिन वह दुर्घटनाग्रस्त
हो गया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने भी साल 2023-24 तक चांद पर इंसानी मिशन
भेजने के प्रयास तेज़ करने के संकेत दिए हैं।
अंतरिक्ष में हमारा सबसे नज़दीकी पड़ोसी चांद प्राचीन काल से ही कौतुहल का
केंद्र रहा है। पिछली सदी के उत्तरार्ध से पहले हम चंद्रमा सम्बंधी अपनी जिज्ञासा
को दूरबीन और उसके ज़रिए ली गई तस्वीरों से शांत करने पर मजबूर थे। पहली बार साल
1959 में रूसी (तत्कालीन सोवियत संघ) अंतरिक्ष यान लूना-1 ने चंद्रमा के काफी
नज़दीक पहुंचने में कामयाबी हासिल की थी। इसके बाद रूसी यान लूना-2 पहली बार
चंद्रमा की सतह पर उतरा। सोवियत संघ ने 1959 से लेकर 1966 तक एक के बाद एक कई
मानवरहित अंतरिक्ष यान चंद्रमा की धरती पर उतारे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध जब अपने
उत्कर्ष पर था,
तभी 12 अप्रैल 1961 को सोवियत संघ ने यूरी गागरिन को
अंतरिक्ष में पहुंचाकर अमेरिका से बाज़ी मार ली। इससे अमेरिकी राष्ट्र के अहं तथा
गौरव पर कहीं न कहीं चोट पहुंची थी। उसके बाद अमेरिका ने अंतरिक्ष अन्वेषण में
अपनी श्रेष्ठता को साबित करने के लिए आर्थिक और वैज्ञानिक संसाधन झोंक दिए।
अंततोगत्वा नील आर्मस्ट्रांग चंद्रमा की सतह पर कदम रखने वाले पहले इंसान के रूप
में इतिहास में दर्ज हुए।
अपोलो मिशन के ज़रिए दो दर्जन इंसानों को चंद्रमा तक पहुंचाया गया। शीतयुद्ध की
राजनयिक,
सैन्य विवशताओं और मिशन के बेहद खर्चीला होने के कारण
अपोलो-17 के बाद इसे समाप्त कर दिया गया। तब से लेकर आधी सदी तक अंतरिक्ष
कार्यक्रमों को मंज़ूरी देने वाले नियंताओं की आंखों से चांद मानो ओझल हो गया।
मगर आज चांद पर पहुंचने के लिए जिस तरह से विभिन्न देशों में होड़ लगती हुई
दिखाई दे रही है,
यही कहा जा सकता है कि चांद फिर निकल रहा है! इसरो को
चंद्रयान-2 मिशन की आंशिक विफलता ने उन्नत संस्करण चंद्रयान-3 के लिए नए जोश के
साथ प्रेरित किया है, चीन इस मामले में वैश्विक ताकत बनने को
इच्छुक है,
वहीं 2024 तक नासा चंद्रमा पर अपने अंतरिक्ष यात्री को
उतारने की तैयारी कर रहा है। रूस 2030 तक चांद पर अपने अंतरिक्ष यात्री को उतारने
की तैयारी में है।
चांद के प्रति यह आकर्षण सिर्फ राष्ट्रों तक सीमित नहीं है। कई निजी कंपनियां
चांद पर उपकरण पहुंचाने और प्रयोगों को गति देने के उद्देश्य से नासा का ठेका
हासिल करने की कतार में खड़ी हैं। अमेज़न के संस्थापक जेफ बेजोस की रॉकेट कंपनी ब्लू
ओरिजिन एक विशाल लैंडर विकसित करने के काम में लगी है, जो
अंतरिक्ष यात्रियों और माल को चांद की सतह तक ले जा सके। कंपनी की योजना यह लैंडर
नासा को बेचने की है। तकरीबन दो दशकों से अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में काम कर
रही कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां चांद पर पर्यटन करवाने से लेकर कॉलोनी बनाने तक की
महत्वाकांक्षा दिखा चुकी हैं। धरती से चांद की दूरी सिर्फ पौने चार लाख किलोमीटर
के करीब है जो किसी भी अन्य ग्रह की तुलना में बहुत कम है। इस दूरी को सिर्फ तीन
दिन में तय किया जा सकता है। इसके अलावा, चांद से धरती पर रेडियो
संवाद करने में महज एक-दो सेकंड का फर्क आता है। इसीलिए भी स्पेस कंपनियां
अंतरिक्ष में पर्यटन की योजनाओं पर धड़ल्ले से काम कर रही हैं।
ध्यान देने की बात यह है कि बीते पचास सालों में किसी भी देश ने चांद पर
पहुंचने के लिए कोई बड़ा सफल-असफल प्रयास नहीं किया, तो फिर
अचानक ऐसा क्या हुआ कि हम इंसानों को वहां पर जाने की दोबारा ज़रूरत महसूस होने लगी
है। इसके लिए अलग-अलग देशों के पास अपनी-अपनी वजहें हैं। मसलन, भारत जैसे देशों की बात करें तो उनके लिए चंद्र अभियान खुद को तकनीकी तौर पर
उत्कृष्ट दिखाने का सुनहरा मौका होगा। दूसरी तरफ चीन अपने ग्रह के बाहर खुद को
ताकतवर दिखाकर विश्व शक्ति बनने की दिशा में और आगे बढ़ जाना चाहता है। इनसे अलग
अमेरिका के लिए चांद पर जाना, मंगल पर पहुंचने से पहले आने
वाला एक अहम पड़ाव मात्र है।
चांद के प्रति दुनिया के बढ़ते आकर्षण का प्रमुख कारण पानी भी है। दरअसल हालिया
अध्ययनों में चांद के ध्रुवीय गड्ढों के नीचे बर्फ होने की संभावना जताई गई है। यह
भविष्य में चांद पर पहुंचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिए बेशकीमती पेयजल का स्रोत
तो हो ही सकता है, कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण के जरिए पानी को
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में तोड़ा भी जा सकता है। जहां ऑक्सीजन सांस लेने के काम आएगी, वहीं हाइड्रोजन का उपयोग रॉकेट र्इंधन के रूप में किया जा सकता है। इस तरह
चांद पर एक रिफ्यूलिंग स्टेशन भविष्य में अंतरिक्ष यानों के लिए पड़ाव का काम कर
सकता है,
जहां रुककर अपने टैंक भरकर वे आगे जा सकते हैं।
विभिन्न देशों की नज़र चंद्रमा के कई दुर्लभ खनिजों, जैसे
सोने,
चांदी, टाइटेनियम के अलावा उससे
टकराने वाले क्षुद्र ग्रहों के मलबों की ओर तो है ही, मगर
वैज्ञानिकों की विशेष रुचि चंद्रमा के हीलियम-3 के भंडार में है। हीलियम-3 हमारी
ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के साथ-साथ खरबों डॉलर भी दिला सकता है। हीलियम-3
नाभिकीय रिएक्टरों में इस्तेमाल किया जा सकने वाला एक बेहतरीन और साफ-सुथरा र्इंधन
है।
बहरहाल,
आगामी दशकों में चांद इंसानी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र
बनेगा क्योंकि यहां होटल से लेकर मानव बस्तियां तक बसाने की योजनाओं पर काम चल रहा
है। चंद्रमा की दुर्लभ खनिज संपदा ने इसे सबका चहेता बना दिया है। चांद तक पहुंचने
की इस रेस में भारत, जापान, इस्राइल, उत्तर और दक्षिण कोरिया जैसे देश भी शामिल हैं।
कुल मिलाकर, आने वाले वक्त में जल्दी ही चांद पर पहुंचने के लिए भगदड़ मचती दिख सकती है। देखना है, चांद को छू लेने की यह नई होड़ क्या गुल खिलाती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.teslarati.com/wp-content/uploads/2019/02/BFR-2018-Moon-burn-render-SpaceX-crop-2.jpg
विदा हो चुके वर्ष 2019 में
भारतीय विज्ञान लगातार आगे बढ़ता रहा। हमारे देश के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष
विज्ञान से लेकर जीनोम अनुक्रम के अनुसंधान में बड़ी सफलताएं हासिल कीं। गुज़रे साल
में भारत की अंतरिक्ष विज्ञान की उपलब्धियों में नए और ऐतिहासिक अध्याय जुड़ते रहे।
वर्ष के उत्तरार्ध में 22 जुलाई को चंद्रयान-2 का सफल प्रक्षेपण किया गया। आखरी
क्षणों की छोटी-सी विफलता को छोड़ दें तो भारत ने यह साबित कर दिया कि वह चंद्रमा
के उस हिस्से पर अपना यान पहुंचा सकता है, जिसे दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है।
चंद्रयान-2 मिशन में आठ महिला
वैज्ञानिकों ने सहभागिता की। वनिता मुथैया मिशन की प्रोजेक्ट डायरेक्टर थीं,
जो काफी समय से उपग्रहों पर शोध करती रही हैं। मुथैया
चंद्रयान-1 मिशन में भी योगदान कर चुकी हैं। रितु करिधान मिशन डायरेक्टर थीं,
जिन्हें ‘रॉकेट वुमन ऑफ इंडिया’ कहा जाता है।
दरअसल, चंद्रयान-2 एक विशेष उपग्रह था, जिसे जीएसएलवी मार्क-3 प्रक्षेपण यान के ज़रिए अंतरिक्ष में
सफलतापूर्वक भेजा गया था। चंद्रयान-2 के तीन महत्वपूर्ण घटक हैं – ऑर्बाइटर,
विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर। लैंडर का नामकरण भारतीय
अंतरिक्ष कार्यक्रम के संस्थापक विक्रम साराभाई के नाम पर किया गया है। चंद्रयान-2
का वज़न लगभग चार हज़ार किलोग्राम था। इसरो के अनुसार चंद्रयान-2 मिशन पर 978 करोड़
रुपए खर्च हुए। इससे पहले अक्टूबर 2008 में चंद्रयान-1 भेजा गया था। चंद्रयान-1 की
सबसे बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि चंद्रमा पर पानी की खोज थी। यह भारत का पहला
इंटरप्लेनेटरी मिशन था, जिसने मंगल
और चंद्रयान-2 का मार्ग प्रशस्त किया।
इस वर्ष 25 जनवरी को भारतीय
अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने पीएसएलवीसी-44 के ज़रिए इमेजिंग उपग्रह
माइक्रोसैट-आर और कलामसैट को पृथ्वी की कक्षा में सफलतापूर्वक विदा किया। कलामसैट
उपग्रह का निर्माण विद्यार्थियों ने किया था। यह विश्व का सबसे कम वज़न का और सबसे
छोटा उपग्रह था। कलामसैट का जीवन काल भी बहुत छोटा था। कलामसैट अपने साथ दो
बॉयोलाजिकल पेलोड ले गया, जिसमें तुलसी और सूरजमुखी के बीज थे। 1 फरवरी को पीएसएलवी-सी-45 द्वारा एमीसैट
और अन्य 28 उपग्रहों का प्रक्षेपण किया गया। 6 फरवरी को संचार उपग्रह जीसैट-31 को
फ्रेंच गुयाना से सफलतापूर्वक विदा किया गया। यह भारत का 40वां संचार उपग्रह है।
जीसैट-31 का वजन 40 किलोग्राम है। यह 15 वर्षों तक अंतरिक्ष में रहेगा। इस उपग्रह
से शेेयर बाजार, ई-प्रशासन और
दूर संचार से जुड़ी अन्य सेवाओं के विस्तार में मदद मिल रही है।
27 मार्च को भारत ने
उपग्रहरोधी मिसाइल क्षमता का सफलतापूर्वक परीक्षण किया। इसके साथ ही हमारा देश
अमेरिका, रूस और चीन
की विशिष्ट बिरादरी में सम्मिलित हो गया। एक अप्रैल को पीएसएलवी-सी-45 प्रक्षेपण
यान से एमिसैट सहित 29 उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके नया
इतिहास रचा गया। एमिसैट का निर्माण इसरो और भारतीय प्रतिरक्षा अनुसंधान संगठन
(डीआरडीओ) ने किया है। एमिसैट सीमा पर नज़र रखने में मददगार होगा। मई में इसरो ने
पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह रीसैट-2 बी का प्रक्षेपण किया। रीसैट-2 बी वास्तव में
राडार इमेजिंग उपग्रह है। इससे प्राप्त आंकड़ों का उपयोग कृषि,
वानिकी, आपदा प्रबंधन और मौसम की नवीनतम जानकारियां प्राप्त करने में हो रहा है।
गुज़रे साल इसरो ने अंतरिक्ष
में उपग्रहों को भेजने का सिलसिला जारी रखते हुए 27 नवम्बर को कार्टोसैट-3 और
अमेरिका के 13 नैनौ उपग्रहों का प्रक्षेपण किया। कार्टोसैट-3 उन्नत और भू-अवलोकन
उपग्रह है, जो अंतरिक्ष
से पृथ्वी पर पैनी निगाह रख रहा है। 11 दिसंबर को पीएसएलवी-सी-48 की पीठ पर सवार
होकर रीसैट-2बी-1अंतरिक्ष में पहुंचा। यह पीएसएलवी का 50वां सफल प्रक्षेपण था। रीसैट-2बी-1का
जीवनकाल पांच वर्ष है। यह उपग्रह निगरानी की भूमिका निभाएगा। इसरो ने शोध और विकास
के लिए बजट में न्यू इंडिया स्पेस लिमिटेड बनाने का प्रस्ताव भी रखा। नेशनल रिसर्च
फाउंडेशन की स्थापना का प्रस्ताव भी रखा गया।
यह वही वर्ष है,
जब नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड
इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन की तकनीक क्रिस्पर कॉस-9 का
एक नया स्वरूप विकसित किया। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार अब जीन सम्पादन अत्यधिक सटीक
तरीके से किया जा सकेगा। इस सफलता से भविष्य में सिकल सेल विकार का प्रभावी तरीके
से इलाज किया जा सकेगा।
इसी साल वैज्ञानिक एवं
औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की आठ प्रयोगशालाओं के संघ ने दीपावली पर
आतिशबाज़ी से होने वाले वायु प्रदूषण को घटाने के लिए इको फ्रेंडली पटाखों – ग्रीन
क्रैकर्स – का निर्माण किया। अनुमान है कि इको फ्रेंडली पटाखों से तीस प्रतिशत तक
पार्टिक्युलेट उत्सर्जन कम करने में मदद मिली।
वर्ष 2019 में अक्टूबर में
आरंभ की गई एक नई और महत्वाकांक्षी परियोजना इंडिजेन के अंतर्गत हैदराबाद स्थित
सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी और दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स
एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने देश के विभिन्न समुदायों के लोगों का
सम्पूर्ण जीनोम अनुक्रम तैयार किया। इस परियोजना से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग
आनुवंशिक बीमारियों के इलाज, नई औषधियों के विकास और विवाह के पहले आनुवंशिकी परीक्षणों में किया जा सकेगा।
इसी वर्ष कोशिकीय एवं आणविक
जीव विज्ञान संस्थान (सीसीएमबी), हैदराबाद के वैज्ञानिकों ने भारतीय पुरुषों में बांझपन के आनुवंशिक कारणों का
पता लगाया। यह शोध भारतीय पुरुषों में बांझपन की चिकित्सा में सहायक हो सकता है।
वर्ष 2019 में एक भारतीय
इंजीनियर ने थर्टी मीटर टेलीस्कोप (टीएमटी) के लिए सॉफ्टवेयर विकसित किया। यह वि·ा का सबसे बड़ा भू-आधारित टेलीस्कोप है। बीते साल में टाटा
मूलभूत अनुसंधान संस्थान, मुम्बई के डॉ.सुनील गुप्ता और उनकी शोध टीम ने गर्जन मेघों के मापन के लिए
म्यूऑनों के उपयोग की विधि का आविष्कार किया।
विदा हो चुके वर्ष में भारत
सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी
(सीएसआर) की तर्ज पर साइंटिफिक सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (एसएसआर) का ड्रॉफ्ट जारी
किया। इसका उद्देश्य वैज्ञानिकों को सामाजिक ज़िम्मेदाारी में सहभागी बनाना है।
बीते साल में संसद द्वारा डीएनए प्रौद्योगिकी नियमन विधेयक को मंज़ूरी दी गई। इस
विधेयक का उद्देश्य लापता लोगों, अपराधियों और अज्ञात मृतकों के लिए डीएनए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना है।
नवम्बर में कोलकाता में
पांचवां भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव आयोजित किया गया। चार दिनों तक चले
महोत्सव में वैज्ञानिकों, अनुसंधानकर्ताओं, विज्ञान
संचारकों और स्कूली बच्चों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। महोत्सव में समाज के हर
व्यक्ति के लिए कुछ-न-कुछ था। महोत्सव में विज्ञान साहित्य समारोह और विज्ञान
फिल्में सम्मिलित थे। स्कूली बच्चों के लिए ‘छात्र विज्ञान ग्राम’ बनाया गया था।
इसी वर्ष 8 मई को मुम्बई स्थित
नेहरू साइंस सेंटर में ‘विज्ञान समागम’ प्रदर्शनी का शुभारंभ हुआ। देश में ऐसा
पहली बार हुआ है, जब विश्व की
वृहत विज्ञान परियोजनाओं को विज्ञान समागम में एक साथ प्रदर्शित किया गया है।
विज्ञान समागम प्रदर्शनी वैश्विक परियोजनाओं की वैज्ञानिक जानकारी आम लोगों तक
पहुंचाने के लिए विज्ञान संचार के एक सशक्त मंच के रूप में सामने आई है। प्रदर्शनी
में विश्व स्तर की विज्ञान परियोजनाओं में भारत के योगदान को विशेष रूप से
रेखांकित किया गया है। वृहत विज्ञान प्रदर्शनी ग्यारह महीने की यात्रा में मुंबई,
बैंगलुरु और कोलकाता होते हुए दिल्ली में समाप्त होगी।
वर्ष 2019 में विद्यार्थियों
की प्रतिभा को तराशने के लिए प्रधानमंत्री नवाचारी शिक्षण कार्यक्रम ‘ध्रुव’ शुरू
किया गया। इसरो ने विद्यार्थियों की अंतरिक्ष अनुसंधान में दिलचस्पी बढ़ाने के लिए
‘संवाद’ कार्यक्रम आरंभ किया।
इसी वर्ष भारतीय अंतरिक्ष
कार्यक्रम के संस्थापक विक्रम साराभाई का जन्म शताब्दी वर्ष मनाया गया।
अंतर्राष्ट्रीय एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने चंद्रमा के एक क्रेटर का नाम उनकी स्मृति
में रखकर उन्हें सम्मानित किया था। इसी साल विख्यात प्रकृतिविद् और बांग्ला भाषा
में लोकप्रिय विज्ञान लेखन से जुड़े रहे गोपालचंद्र भट्टाचार्य की 125 वीं जयंती
विचार गोष्ठी और व्याख्यान आयोजनों के साथ मनाई गई।
प्रोफेसर गगन दीप कांग पहली
भारतीय महिला वैज्ञानिक हैं, जिन्हें इस वर्ष फेलो ऑफ रॉयल सोसायटी चुना गया है। 360 वर्षों बाद पहली महिला
वैज्ञानिक को यह सम्मान मिला है। उन्होंने रोटा वायरस पर विशेष अनुसंधान किया है।
भारत में जन स्वास्थ्य अनुसंधान में उनका विशेष योगदान है। प्रोफेसर कांग वर्तमान
में फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी इंस्टीट्यूट में
कार्यकारी निदेशक हैं।
वर्ष 2019 के शांतिस्वरूप
भटनागर पुरस्कार के लिए विभिन्न विषयों से जुड़े
12 वैज्ञानिकों का चयन किया गया। इसके अलावा, इसी वर्ष इसरो के वैज्ञानिक नांबी नारायण को पद्मभूषण से
सम्मानित किया गया।
वर्ष 2019 में शोध अभिव्यक्ति
हेतु लेखन कौशल सुदृढ़ीकरण (Augmenting Writing Skills for Articulating Research – अवसर) पुरस्कार से चार युवा वैज्ञानिकों को पुरस्कृत
किया गया। पीएच. डी. वर्ग में सर्वश्रेष्ठ शोधपत्र के लिए आशीष श्रीवास्तव को
प्रथम पुरस्कार दिया गया। पोस्ट डॉक्टरेट वर्ग में डॉ. पालोमी संघवी को प्रथम
पुरस्कार प्रदान किया गया। इस पुरस्कार की शुरुआत 2018 में विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी विभाग ने की थी, जिसका उद्देश्य विज्ञान को आम लोगों के बीच लोकप्रिय बनाना है।
17 दिसंबर को इंटरनेशनल
एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने सेक्सटेंस नक्षत्र के एक तारे को भारतीय महिला वैज्ञानिक
बिभा चौधरी के नाम पर ‘बिभा’ और उसके एक ग्रह को ‘संतमस’ नाम दिया। संतमस संस्कृत
शब्द है जिसका अर्थ है बादली। पहले इस तारे का नाम एचडी 86081 और ग्रह का नाम
86081-बी रखा गया था।
इस वर्ष 3 दिसंबर को भारत में पोषण अनुसंधान के जनक डॉ. सी.गोपालन का निधन हो गया। इसी साल 14 नवंबर को भारतीय गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह नहीं रहे। उन्होंने आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत को चुनौती दी थी। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में
याद किया जाएगा,
जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की।
यह वही वर्ष था,
जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप
का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता
हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु
बनाने की घोषणा की।
इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की।
यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है।
भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ
ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन
व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।
इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का
चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना,
स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस
परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य
मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर
एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक
होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।
उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है।
ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल
का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में
वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।
इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु
की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित
डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान
डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है।
संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द
है,
जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर
बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का
खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम
योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।
सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54
क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा
किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे
पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा
सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।
वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं
वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की
घोषणा की थी,
जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का
विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम
आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए
मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा
गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर
एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का
शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के
प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन
का अहम योगदान रहा है।
विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन
वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके
साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन
परमाणु हैं,
जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं
के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा।
लिहाज़ा,
कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग
की संभावनाएं हैं।
गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस
वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए
चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के
79 चंद्रमा हैं।
गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान
पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी
बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार
इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।
कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में
वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी)
का पता लगाया है,
जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना
बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि
तापमान भी अनुकूल है।
साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे
हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4
जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी
ले गया था।
अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया
गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की
मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय
अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह
निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन
चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।
बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद
अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन
तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे।
जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही
प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का
दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की
नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे
जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस
जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258
वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने
‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण
कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त
राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी
का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।
इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी।
हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों
में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के
प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और
प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा
पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक
व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।
विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स
में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल
मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी
अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।
इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा
को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई
परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।
गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र
और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार
विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी
के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ
नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया –
विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ।
इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों
की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स
पीबल्स,
मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों
अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।
ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का
अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले
वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।
वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन
उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना
2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन
उहलेनबेक पहली महिला हैं।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख
वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया
है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी
ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में
पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।
5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencenews.org/wp-content/uploads/2019/12/122119_YE_landing_full.jpg
टार्डिग्रेड्स, जिनको जलीय-भालू के नाम से भी
जाना जाता है,
पृथ्वी के सबसे कठोर और लचीले जीव हैं। आठ टांगों वाले ये
सूक्ष्मजीव किसी भी वातावरण में (चाहे अंतरिक्ष ही क्यों न हो) जीवित रहने में
सक्षम हैं। ऐसी ही एक घटना आज से कुछ महीने पहले एक इस्राइली अंतरिक्ष यान की चांद
पर दुर्घटनाग्रस्त लैंडिंग के दौरान हुई।
जब टार्डिग्रेड्स को इस्राइली चंद्र मिशन बारेशीट पर लादा गया था तब वे
निर्जलित अवस्था में थे और उनकी सभी चयापचय गतिविधियां अस्थायी रूप से मंद पड़ी
थीं। लेकिन चंद्रमा पर इनका आगमन काफी विस्फोटक रहा। 11 अप्रैल के दिन चंद्रमा पर
बारेशीट की क्रैश लैंडिंग ने चांद की सतह पर इन सूक्ष्मजीवों को बिखेर दिया होगा।
वैसे तो यह जीव काफी सख्तजान है लेकिन पता नहीं इनमें से कितने इस टक्कर में
बच पाए होंगे। फिर भी, निश्चित रूप से उनमें से कुछ के जीवित रहने
की संभावना तो है। दुनिया भर की अंतरिक्ष एजेंसियां चांद पर वस्तुएं छोड़ने की
अनुमति के लिए 1967 की बाह्र अंतरिक्ष संधि का पालन करती हैं। यह संधि स्पष्ट रूप
से मात्र हथियारों, प्रयोगों और ऐसे उपकरणों को चांद पर छोड़ने
का निषेध करती है जो अन्य एजेंसियों के मिशन में दखल दे सकती हैं।
इस संधि के बाद कई अन्य दिशानिर्देश भी जारी किए गए हैं जिनमें पृथ्वी से ले
जाए गए सूक्ष्मजीवों और बीजों के जोखिम स्वीकार किया गया है। लाइव साइंस के
अनुसार विश्व स्तर पर इसे लागू करने वाली कोई संस्था नहीं है, फिर भी बड़ी अंतरिक्ष एजेंसियां आम तौर पर इन नियमों का पालन करती आई हैं।
अभी तक चांद पर जीवन के कोई संकेत तो नहीं मिले हैं जिनको टार्डिग्रेड्स से
खतरा हो। लेकिन अन्य ग्रहों पर जीवन मिलने की संभावना को निरस्त नहीं किया जा सकता
और पृथ्वी के सूक्ष्मजीव इन मूल निवासी सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर सकते हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि मंगल पर जीवन बसाने से पृथ्वी के सूक्ष्मजीवों द्वारा
मंगल के सूक्ष्मजीवों को नुकसान हो सकता है।
देखा जाए तो टार्डिग्रेड ऐसी स्थितियों में खुद को जीवित रख सकते हैं जिन
स्थितियों में अन्य सूक्ष्मजीव खत्म हो जाते हैं। वे अपने शरीर से पानी को बाहर
निकालकर कुछ ऐसे यौगिक उत्पन्न करते हैं जो उनको सुरक्षित रखते हैं। ये जीव कई
महीनों तक इस हालत में रह सकते हैं और पानी मिलने पर वापिस जीवित हो जाते हैं।
प्रयोगशाला में 30 वर्ष पुराने 2 टार्डिग्रेड को पुनर्जीवित किया जा चुका है।
युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने 2008 में टार्डिग्रेड को पृथ्वी की कक्षा में
भेजने पर पाया था कि एक टार्डिग्रेड उबलते हुए और ठंडे पानी, उच्च दबाव और यहां तक कि अंतरिक्ष के वैक्यूम में भी जीवित रहा। अलबत्ता, टार्डिग्रेड्स पर पराबैंगनी विकिरण का काफी प्रभाव हुआ था और थोड़े से ही बच
पाए थे। यानी टार्डिग्रेड्स के जीवित रहने की संभावना है यदि वे चांद पर ऐसे स्थान
पर हों जहां पराबैंगनी विकिरण न हो।
लेकिन जब तक चंद्रमा पर टार्डिग्रेड हैं तब तक बिना पानी के उनके पुन: जीवित होने की संभावना कम ही है। और यदि कहीं से उन्हें चांद पर पानी मिल भी जाता है तब भी बिना भोजन, हवा और सही तापमान के जीवित रहना संभव नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcR4eamJtrUUzFZ157D-qnz4W1fEseCnrftp9oLQW-zNrkBmveQg
अब तक ज्ञात ब्रह्मांड में केवल हमारी धरती पर ही जीवन है।
और मानव जाति ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में इतनी प्रगति की है कि आज हम एक
सुविधाजनक,
स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जीने में भी सक्षम हैं। मगर हमारी
वर्तमान दुनिया राजनैतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि
से उथल-पुथल के दौर में है। ऐसी परिस्थिति में सवाल है कि क्या मानव जाति अपना
वजूद अगले दो सौ वर्षों तक कायम रख पाएगी?
हम इंसानों के लिए सबसे डरावना भविष्य वह है जिसमें मानव सभ्यता के ही खत्म हो
जाने की कल्पना की जाती है। ये कल्पनाएं निराधार नहीं हैं। इस समय मानवजाति जलवायु
परिवर्तन,
परमाणु युद्ध, जैव विविधता का विनाश, ओज़ोन परत में सुराख, जनसंख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी
आदि समस्याओं के अलावा आसमानी खतरों, जैसे किसी उल्का या
धूमकेतु के टकरा जाने के जानलेवा खतरे, का भी सामना कर रही है।
बीसवीं शताब्दी तक हम सोचते थे कि हम बहुत सुरक्षित जगह पर रह रहे हैं लेकिन अब
स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है। मानव जाति के लुप्त होने के खतरे चिंताजनक रूप से
बहुत अधिक और बहुत तरह से बढ़ गए हैं। महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग यह कहकर धरती
से रुखसत हो चुके हैं कि महज़ 200 वर्षों के भीतर मानव जाति का अस्तित्व हमेशा के
लिए खत्म हो सकता है और इस संकट का एक ही समाधान है कि हम अंतरिक्ष में कॉलोनियां
बसाएं।
इधर हाल के वर्षों में हुए अनुसंधानों से यह पता चलता है कि भविष्य में हम
पृथ्वीवासियों द्वारा रिहायशी कॉलोनी बनाने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान हमारा पड़ोसी
ग्रह मंगल है। मंगल ग्रह और पृथ्वी में अनेक समानताएं हैं। हालांकि मंगल एक शुष्क
और ठंडा ग्रह है,
लेकिन इसमें वे तमाम तत्व मौजूद हैं जो इसे जीवन के अनुकूल
बनाते हैं। जैसे पानी, कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन
वगैरह। हालांकि पृथ्वी का जुड़वा समझे जाने वाले शुक्र ग्रह की आंतरिक संरचना
पृथ्वी से काफी मिलती-जुलती है, लेकिन जब बात जीवन योग्य
परिस्थितियों की हो तो मंगल अनोखे रूप से सर्वाधिक उपयोगी और उपयुक्त ग्रह है।
मंगल अपनी धुरी एक चक्कर लगाने में लगभग पृथ्वी के बराबर समय लेता है (24 घंटे, 39 मिनट और 35 सेकंड)। मंगल पर पृथ्वी के समान ऋतुचक्र होता है। पृथ्वी की तरह
मंगल पर भी वायुमंडल मौजूद है, हालांकि यह बहुत विरल है।
लेकिन इन समानताओं के साथ कुछ भिन्नताएं भी हैं, जो
मंगल को मानव के लिए रिहायशी कॉलोनियों में तबदील करने में बड़ी चुनौती पेश करती
हैं। मंगल पर न तो वायु पर्याप्त है और न ही सूरज की रोशनी। वहां का अधिकतम तापमान
अंटार्कटिका के न्यूनतम तापमान के लगभग बराबर है। हानिकारक सौर किरणें मंगल की सतह
पर सीधे धावा बोलती हैं। 95 प्रतिशत कार्बन डाईऑॅक्साइड से बना इसका वायुमंडल
हमारे लिए दमघोंटू है।
अलबत्ता,
वैज्ञानिकों का मानना है कि मंगल के परिवेश को पृथ्वी जैसा
बनाना संभव है। मंगल को रूपांतरित करके पृथ्वी जैसा बनाने को वैज्ञानिक
‘टेराफॉर्मेशन’ का नाम देते हैं। भले ही यह कल्पना रोमांचक लगती हो मगर
टेराफॉर्मिंग आसान नहीं है। इसके साथ अनेक तकनीकी और पर्यावरण से जुड़ी समस्याएं
हैं।
इससे जुड़ा हालिया सुझाव यह है कि अगर मंगल ग्रह पर परमाणु विस्फोट किए जाएं, तो उसके वातावरण को रहने लायक बनाया जा सकता है। इसे न्यूक मार्स की संज्ञा दी
गई है। सैद्धांतिक रूप से यह दावा है कि परमाणु हथियारों के विस्फोट से कार्बन
डाईऑॅक्साइड मुक्त होगी, जिससे एक ग्रीनहाउस प्रभाव
पैदा होगा जो मंगल की ठंडी जलवायु को गर्म कर देगा।
निजी स्वामित्व वाली स्पेसएक्स एक ऐसी कंपनी है जो मंगल ग्रह पर पहुंचने और
वहां कॉलोनी बसाने के मामले में विभिन्न देशों के सरकारी संगठनों (मसलन नासा, ईसा,
जैकसा और इसरो) से काफी आगे है। यह कंपनी केवल 17 साल
पुरानी है लेकिन दुनिया भर में उपग्रह प्रक्षेपण के मामले में अपना दबदबा बनाए हुए
है। स्पेसएक्स के अरबपति मुखिया एलन मस्क का यह मानना है कि नाभिकीय विस्फोट मंगल
के बर्फीले ग्लेशियरों को पिघला देगा। यह कुछ-कुछ कृत्रिम सूरज (आर्टिफिशियल सन)
के जैसा होगा और स्पेसएक्स के पास ऐसी तकनीकी क्षमता है जो मंगल के वातावरण को
रेडियोधर्मी (रेडियोएक्टिव) किए बगैर उसे इंसानी जीवन के अनुकूल बना सकती है।
पर इस तकनीक में काफी पैसा खर्च होगा और साथ ही इस तकनीक में कई खतरे भी हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि भले ही सुनने में यह आसान और रोमांचक लगता हो, मगर वैसा है नहीं। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार मंगल पर परमाणु विस्फोट से वहां
का वातावरण बहुत ठंडा हो सकता है जिसकी वजह से वहां का तापमान गर्म होने की बजाय
और ठंडा हो सकता है। परमाणु विस्फोट से राख और धूल की चादर मंगल ग्रह को ढंक लेगी
जिससे मंगल के औसत तापमान में भारी गिरावट आ जाएगी और वहां नाभिकीय जाड़ा
(न्यूक्लियर विंटर) शुरू हो सकता है।
और तो और, इस तकनीक में मंगल ग्रह के वातावरण और उसकी सतह पर विकिरण फैलने का खतरा भी है जो हमारे भविष्य की इकलौती उम्मीद यानी मंगल ग्रह को तबाह कर सकता है। इस लिहाज़ से देखें तो मस्क के विचार बेहद भयानक हैं। बेहतर होगा कि हम मंगल पर कदम सावधानी से रखें। और वहां ज़मीन के नीचे पनप रहे किसी सूक्ष्मजीवी जीवन (माइक्रोबियल लाइफ) को तबाह न कर दें। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRo10qvvQYgzIKbO2uSTXjXkL-oE5EfWF3Gh2wHZk_RN3FyeuXL
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो की कामयाबी की
फेहरिस्त में एक और नई उपलब्धि जुड़ गई है। हाल ही में उसने अंतरिक्ष से धरती की
निगरानी की क्षमता प्रदान करने वाले कार्टोसैट-3 उपग्रह का सफल प्रक्षेपण किया है।
कार्टोसैट-3,
कार्टोसैट शृंखला का नौवां उपग्रह है। यह उपग्रह पूर्ववर्ती
कार्टोसैट-2,
2ए और 2बी के समान है। कार्टोसैट-3 तीसरी पीढ़ी का बेहद
चुस्त और उन्नत उपग्रह है। यह धरती की उच्च गुणवत्ता वाली तस्वीरें लेने के
साथ-साथ उसका मानचित्र तैयार करने की क्षमता रखता है। 44.4 मीटर लंबे स्वदेशी
पीएसएलवी-सी 47 रॉकेट की यह 49वीं उड़ान थी, जिसने
कार्टोसैट-3 के साथ-साथ अमेरिका के 13 वाणिज्यिक नैनो उपग्रहों को भी अंतरिक्ष में
कामयाबी से प्रक्षेपित किया।
इस प्रक्षेपण के साथ ही इसरो अब तक तकरीबन दो दर्जन देशों के 310 उपग्रहों को
अलग-अलग मिशन में सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर चुका है। अंतरिक्ष कार्यक्रम में इस
बेमिसाल कामयाबी के ज़रिए हमारे वैज्ञानिकों ने एक बार फिर अपनी प्रतिभा का
प्रदर्शन किया है।
आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित
कार्टोसैट-3 उपग्रह का वज़न 1625 किलोग्राम है। प्रक्षेपण के 17 मिनट 46 सेकंड बाद
ही पीएसएलवी-सी 47 ने इस उपग्रह को पृथ्वी से 509 किलोमीटर की ऊंचाई पर सूर्य
स्थैतिक कक्षा में स्थापित कर दिया। यह पांच साल तक काम करेगा।
इन उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करना आसान काम नहीं था। इसरो के सामने इस
बार एक अलग ही किस्म की चुनौती थी, क्योंकि मुख्य उपग्रह
कार्टोसैट-3 को एक अलग कक्षा में स्थापित करना था और बाकी उपग्रहों को अलग कक्षा
में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थापित करना था।
कार्टोसैट-3 संचार और निगरानी का दोहरा काम करेगा। यह हाई रेज़ॉल्यूशन उपग्रह
है जो अंतरिक्ष से पृथ्वी की स्पष्ट तस्वीरें लेने में सक्षम है जिनमें 1 फुट दूर
स्थित वस्तुएं अलग-अलग दिखाई देंगी। एडॉप्टिव ऑप्टिक्स तकनीक की मौजूदगी फोटो को
धुंधला होने से रोकेगी। अपनी इस खूबी के चलते यह सैन्य कार्यों के लिए बहुत उपयोगी
होगा। सेना इसकी मदद से दुश्मनों पर पैनी नज़र रखेगी। यही नहीं इसकी वजह से शहरी
क्षेत्रों में नियोजन, ग्रामीण क्षेत्रों में ढांचागत विकास और
संसाधनों का मानचित्रण, तटवर्ती क्षेत्रों में भू-उपयोग इत्यादि
कामों में मदद मिलेगी। इन्हीं विशेषताओं को देखते हुए कार्टोसैट-3 को अंतरिक्ष में
भारत की आंख कहा जा रहा है।
बीते एक दशक में विज्ञान प्रौद्योगिकी व अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में
इसरो की कामयाबियों से भारत का सिर ऊपर उठा है। अत्याधुनिक अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी
में तो इसरो ने अब महारत हासिल कर ली है। चंद्रमा पर मानवरहित यान चंद्रयान-1 के
सफल प्रक्षेपण,
खुद का नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम, एस्ट्रोसैट, स्वदेश में बने अंतरिक्ष यान रीयूज़ेबल लॉन्च व्हीकल-टेक्नॉलॉजी डेमॉनस्ट्रेटर
(आरएलवी-टीडी) से लेकर मंगलयान का सफल प्रक्षेपण इन कामयाबियों की बानगी है। संचार
सेवाओं के अतिरिक्त धरती के अवलोकन एवं मौसम पूर्वानुमान समेत देश के अधिकांश
मंत्रालयों एवं विभागों को अंतरिक्ष तकनीक उपलब्ध कराने के लिए अंतरिक्ष में इसरो
के अनेक उपग्रह सक्रिय हैं। इसरो अपने पोलर सेटेलाइट लांच वेहिकल (पीएसएलवी-सी 47)
से अब तक सिंगापुर, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे विकसित देशों समेत
कई देशों के दर्जनों उपग्रहों का प्रक्षेपण कर चुका है। इस काम से इसरो को अब
आमदनी भी होने लगी है। यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। आने वाले सालों में यह रफ्तार
और भी बढ़ेगी। अंतरिक्ष अनुसंधान और उपग्रह प्रक्षेपण के क्षेत्र में इसरो फिलहाल
कई योजनाओं पर एक साथ काम कर रहा है। अगले साल नवंबर तक चंद्रमा पर दोबारा सॉफ्ट
लैंडिंग के अलावा कई उन्नत उपग्रह प्रक्षेपित किए जाएंगे। इसरो की वाणिज्यिक शाखा
एंट्रिक्स कार्पोरेशन ने कई देशों के उपग्रह छोड़ने के लिए समझौता किया हुआ है।
मार्च 2020 तक इसरो 13 मिशन पूरे करेगा। इनमें छह प्रक्षेपण यान और सात उपग्रह
मिशन शामिल हैं। आदित्य एल-1 सौर मिशन, छोटा उपग्रह प्रक्षेपण
यान (एसएसएलवी) के साथ ही 200 टन के सेमीक्रायो इंजन पर काम शुरू होने वाला है। यही
नहीं मानव को अंतरिक्ष में भेजने के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम पर भी गंभीरता से काम
चल रहा है।
अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसरो ने जिस तरह से कुछ सालों में बड़ी-बड़ी उपलब्धियां
हासिल की हैं,
उससे देश की क्षमता बढ़ी है। 2013 से पहले व्यावसायिक संचार
उपग्रहों का प्रक्षेपण करने में रूस, अमेरिका आदि का ही दबदबा
था,
लेकिन इसरो ने अब इन देशों के दबदबे को तोड़ा है। अमेरिका और
रूस की अंतरिक्ष कार्यक्रमों से जुड़ी एजेंसियों नासा और रॉसकॉसमोस को लगने लगा है
कि यदि भारत इसी तरह नित नई कामयाबी हासिल करता रहा, तो
उनके अंतरिक्ष कारोबार पर असर पड़ेगा। जहां दूसरे देशों का उपग्रह प्रक्षेपण में
भारी खर्च आता है, वहीं भारत अपने सस्ते लांच वेहिकल
पीएसएलवी-सी 24 और पीएसएलवी-सी 47 के जरिए कम खर्च में ही उपग्रह प्रक्षेपित करने
में सक्षम है। बाकी अंतरिक्ष एजेंसियों के मुकाबले वह 60 फीसदी कम पैसे लेता है।
एक महत्वपूर्ण बात इसरो के हक में जाती है कि उसने अभी तक जितने भी विदेशी
उपग्रहों का प्रक्षेपण किया है, वे सब सफल रहे हैं। यही वजह है
कि 20 देशों की 57 से ज़्यादा अंतरिक्ष एजेंसियां साल 1999 से ही उपग्रह प्रक्षेपण
में इसरो की मदद ले रही हैं। मार्स ऑर्बाइटर जैसे बड़े मिशन को महज 450 करोड़ रुपए
में पूरा करने वाले इसरो से अब अमेरिका भी अपने संचार उपग्रहों का प्रक्षेपण करने
में सहायता ले रहा है। एक दर्जन से ज़्यादा उपग्रहों को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित
करके इसरो ने अमेरिका, रूस की अंतरिक्ष एजेंसियों को बड़ी चुनौती
दी है।
दुनिया में फिलवक्त तीन अरब डॉलर का अंतरिक्ष बाज़ार है, वह दिन दूर नहीं जब इसके बड़े हिस्से पर इसरो का कब्ज़ा होगा। इसरो की सफलता के पीछे यकीनन हमारे देश के वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों की विशेष दक्षता, कड़ी मेहनत और प्रतिबद्धता शामिल हैं। अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों की इस कामयाबी को देखते हुए, सरकार को भी इस क्षेत्र में अब ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcR5JwVcdG057WqLbLn8XJDJEVmDOaxM0azXuP5_mID66vyd8Rjn