नोबेल पुरस्कारों में पुरुषों का बोलबाला क्यों?

स वर्ष भी विज्ञान के सभी क्षेत्रों यानी भौतिकी, रसायन विज्ञान, और कार्यिकी/चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार विजेता पुरुष ही रहे। नोबेल पुरस्कार के 121 वर्ष के इतिहास में सिर्फ 18 वर्षों में ही ऐसा हुआ है जब किसी महिला को विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला हो। हाल ही में नोबेल पुरस्कार देने वाली दो समितियों ने साइंस पत्रिका के साथ आंतरिक संख्याओं को साझा किया है जो इस तरह की असमानता के पीछे के कारण उजागर करती है: नोबेल पुरस्कार के लिए महिलाओं का कम नामांकन। हालांकि महिलाओं के नामांकन पिछले कुछ वर्षों में दुगने हुए हैं लेकिन इनका प्रतिशत अभी भी काफी कम है।

कार्यिकी/चिकित्सा विज्ञान पुरस्कार के लिए नामांकित वैज्ञानिकों में महिलाएं 13 प्रतिशत और रसायन विज्ञान में मात्र 7-8 प्रतिशत थीं। इस मुद्दे पर युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन की आणविक जीवविज्ञानी और वैज्ञानिक समुदाय में जेंडर असमानता की अध्येता जो हैण्डल्समैन इसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों की सामान्य समस्या के रूप में देखती हैं। यदि कोई नामांकित ही नहीं है, तो उसका चयन कैसे करें। गौरतलब है कि पिछले वर्ष 2020 में विज्ञान के 8 नोबेल विजेताओं में से 3 महिलाएं थीं। और तो और, रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार सिर्फ दो महिलाओं को दिया गया था। इसे देखते हुए सकारात्मक बदलाव की उम्मीद थी लेकिन इस बार के निर्णयों से हालात पहले जैसे ही नज़र आ रहे हैं।

हाल के वर्षों में नोबेल विजेताओं के बीच जेंडर असमानता को दूर करने तथा यूएस और युरोप के बाहर के लोगों और अश्वेत वैज्ञानिकों की कमी के मुद्दे पर काफी ज़ोर दिया गया है। 2018 में, भौतिकी और रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कार देने वाली रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ ने अधिक विविधता को प्रोत्साहित करने के लिए नामांकन प्रक्रिया में बदलाव की घोषणा की थी। समितियों ने विश्व भर के अधिक से अधिक महिलाओं और वैज्ञानिकों को नामांकित करने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने अपने निमंत्रण में कम प्रतिनिधित्व वाले लोगों को शामिल करने के लिए परिवर्तन किए और वैज्ञानिकों को केवल एक नहीं बल्कि 3 खोजों को नामांकित करने की अनुमति दी गई। कुछ इसी तरह के परिवर्तन चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने भी किए। 

गौरतलब है कि नोबेल फाउंडेशन नियम के चलते समितियां नामांकन सम्बंधी सूचनाओं को 50 वर्ष तक गुप्त रखती हैं। लेकिन समिति के सदस्यों ने इस बार साइंस पत्रिका के साथ इस डैटा का सार साझा किया है। कार्यिकी/चिकित्सा के लिए कुल नामांकन वर्ष 2015 में 350 थे और इस वर्ष बढ़कर 874 हो गए। इसी दौरान महिलाओं के नामांकन भी 5 प्रतिशत से बढ़कर 13 प्रतिशत हो गए। रसायन विज्ञान में भी महिला नामांकन 2018 की तुलना में दुगना हो गए हैं। हालांकि, भौतिकी समिति ने डैटा साझा करने से मना कर दिया लेकिन यह बताया कि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के प्रतिशत में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है।          

अलबत्ता, कई वैज्ञानिक इस वृद्धि से संतुष्ट नहीं है जब तक कि पुरस्कृत महिलाओं की संख्या में भी वृद्धि नहीं होती। नामांकनों की छंटाई करने वाली समितियों के सदस्य भी इस वृद्धि से संतुष्ट नहीं है। चाल्मर्स युनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलॉजी की जैव-भौतिक रसायनज्ञ और रसायन विज्ञान समिति की सदस्य पेरनीला विटुंग स्टैफशी के अनुसार नामांकित लोगों में से महिलाओं का प्रतिशत काफी कम है और इसमें वृद्धि की आवश्यकता है।

विटुंग स्टैफशी का मानना यह भी है कि महिलाओं का प्रतिशत बढ़ाने के लिए समितियों को नोबेल-योग्य खोज की समझ को विस्तार देने की आवश्यकता है। हो सकता है कि हम कुछ विषयों और उम्मीदवारों को देख न पाते हों क्योंकि हम इस बात को लेकर संकीर्ण नज़रिया रखते हैं कि रसायन विज्ञान की महत्वपूर्ण खोज क्या है।       

नोबेल पुरस्कार में महिलाओं के कम नामांकन के अलावा एक और समस्या है। पिछले 4 वर्षों में विज्ञान के नोबेल पुरस्कार चयन समितियों में अपेक्षाकृत कम महिलाएं रही हैं। यह भी सत्य है कि अपने पूरे करियर में प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण पुरस्कार जीतने वाली महिलाओं की संख्या कम होती है। लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है। यह तो समस्या को देखने का एक निष्क्रिय ढंग है जबकि नोबेल समितियों को आगे आकर कुछ करना चाहिए।

चयन समितियों के स्वरूप में परिवर्तन की आवश्यकता है। समितियों के सदस्य रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के सदस्यों और कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट के प्रोफेसरों में से चुने जाते हैं। इस वर्ष भौतिकी समिति में 7 पुरुष और 1 महिला, रसायन समिति में 6 पुरुष और 2 महिला और कार्यिकी/चिकित्सा समिति में सबसे अधिक 13 पुरुष और 5 महिलाएं थीं।

विटुंग स्टैफशी बताती हैं कि समिति में उनकी उपस्थिति से जेंडर सम्बंधी मुद्दों पर चर्चा संभव हुई है। समिति की एक महिला सदस्य बताती हैं कि हालांकि नोबेल पुरस्कार देते समय जेंडर पर नहीं बल्कि पूरा ध्यान सिर्फ विज्ञान पर होता है। फिर भी महिलाओं के लिए चयन प्रक्रिया और समारोहों में भाग लेना काफी महत्वपूर्ण होगा ताकि वे अन्य महिलाओं के लिए अनुकरणीय उदाहरण के रूप में नज़र आएं। अलबत्ता, सिर्फ नज़र आना पर्याप्त नहीं होगा। अधिक पारदर्शी नामांकन प्रक्रिया से प्रस्तावक अधिक महिलाओं को नामांकित कर सकेंगे। फिलहाल कोई नहीं जानता कि किसी का नामांकन कैसे किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9351/abs/_20211012_on_noblgender.jpg

क्या हैं बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरंसी – 1 – सोमेश केलकर

हालिया दिनों में, क्रिप्टोकरंसी के आगमन ने डिजिटल मुद्राओं को हमारे जीवन में काफी प्रासंगिक बना दिया है। नियमन के अभाव और इसकी अनाम प्रकृति के कारण कई सरकारों ने तो इस पर प्रतिबंध लगा दिया है जबकि अल-साल्वाडोर जैसे कुछ देशों ने तो इसे वैध मुद्रा का दर्जा दे दिया है।

दिलचस्प बात तो यह है कि अधिकांश लोगों को यह नहीं मालूम है कि क्रिप्टोकरंसी काम कैसे करती है। इस दो भाग के लेख में हम पहले क्रिप्टोकरंसियों के काम करने की प्रणाली को समझने का प्रयास करेंगे। इसको सरल तरीके से समझने के लिए हम कुछ दोस्तों का उदाहरण लेते हुए स्वयं के क्रिप्टोकरंसी मॉडल का निर्माण करेंगे और इस आधार पर क्रिप्टोकरंसी मॉडल की पूरी कार्यप्रणाली को समझेंगे। दूसरे भाग में हम राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं, विशेष रूप से भारत, पर क्रिप्टोकरंसी के प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करेंगे और मामले का गहराई से विश्लेषण करके इसके विभिन्न पहलुओं को समझने की कोशिश करेंगे।

क्रिप्टोकरंसी क्या है?

क्रिप्टोकरंसी पूरी तरह से एक डिजिटल मुद्रा है जो निवेश के साथ-साथ खरीदारी का भी एक साधन है। चूंकि इसका कोई भौतिक वजूद नहीं है इसलिए इसे डिजिटल मुद्रा कहा जाता है। यह सरकार द्वारा विनियमित नहीं है और एक ऐसी प्रणाली के तहत काम करती है जिसके कामकाज के लिए किसी भी उपयोगकर्ता से सम्बंधित मुद्रा में किसी प्रकार के भरोसे की अपेक्षा नहीं होती।

पारंपरिक मुद्राओं के संदर्भ में सरकार इस बात की गारंटी देती है कि 10 रुपए का नोट आपको देशभर में कहीं भी 10 रूपए की क्रय शक्ति देता है जबकि क्रिप्टोकरंसी के साथ ऐसा कोई वचन नहीं जुड़ा है। प्रणाली की गैर-भरोसा आधारित प्रकृति के चलते, क्रिप्टोकरंसी लेनदेन को सत्यापित करने के लिए बैंकों की आवश्यकता नहीं होती है और यह पूरी तरह से विकेंद्रीकृत होती है (हालांकि, केंद्रीकृत क्रिप्टोकरेंसी के कई उदाहरण मौजूद हैं)। कोई नहीं जानता कि क्रिप्टोकरेंसी प्रणाली का आविष्कार किसने किया लेकिन दुनिया भर के उपयोगकर्ता इसमें निवेश करते हैं और लेनदेन के लिए भी इसका उपयोग करते हैं।

क्रिप्टोकरंसी प्रणाली कैसे काम करती है?

क्रिप्टोकरंसी के काम करने की प्रणाली और बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरंसी का मालिक होने के मतलब को हम एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। हो सकता है इसको समझने की प्रक्रिया में हम अनजाने में बिटकॉइन के समान अपनी खुद की एक क्रिप्टोकरेंसी विकसित कर लें।

1. लेजर (बहीखाता)

मान लीजिए कि चार दोस्त सुशील, सोमेश, प्रतिका और ज़ुबैर हर सप्ताह के अंत में एक साथ डिनर के लिए पास के एक रेस्तरां में जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति बिल को बराबर विभाजित करने पर सहमत हैं लेकिन हर सप्ताह कोई एक व्यक्ति पूरे बिल का भुगतान करता है। महीने के अंत में खर्चों का मिलान किया जाता है और यह गणना की जाती है कि कौन देनदार है और कौन लेनदार। इसके बाद चारों दोस्त आपस में लेनदेन कर हिसाब का निपटारा करते हैं।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि कौन, किसका, कितने पैसे का देनदार है, पूरे महीने के दौरान किए गए भुगतानों को रिकॉर्ड किया जाता है। चार दोस्तों द्वारा तैयार किया गया यह छोटा सा रिकॉर्ड बहीखाते का एक उदाहरण है।

2. गैर-भरोसा आधारित प्रणाली

आइए, अब इस उदाहरण में एक दिलचस्प शर्त जोड़ते हैं। जैसा कि हमने पहले बताया था कि क्रिप्टोकरंसी एक गैर-भरोसा आधारित प्रणाली है। तो क्या होगा यदि ये चार दोस्त एक-दूसरे पर भरोसा न करते हों? यानी यदि चारों को एक दूसरे पर संदेह हो कि प्रत्येक मौका मिलने पर अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए खाते में हेरफेर कर सकता है? इस मामले में, सभी दोस्तों को कुछ ऐसे परिवर्तन करने होंगे ताकि यह प्रणाली निजी विश्वास के बगैर भी काम कर सके और वे बेफिक्री से अपने डिनर का आनंद ले सकें। इसके लिए क्रिप्टोग्राफी क्षेत्र के कुछ विचारों को उधार लिया गया है। संक्षेप में,

बहीखाता – भरोसा + क्रिप्टोग्राफी  =  क्रिप्टोकरंसी

यह क्रिप्टोकरंसी का सटीक विवरण तो नहीं है लेकिन हम अपने उदाहरण को आगे थोड़ा और जटिल बनाएंगे ताकि हम एक ऐसा मॉडल विकसित कर लें जो बिटकॉइन के समान हो।

बिटकॉइन क्रिप्टोकरंसी का मात्र पहला उदाहरण है। इसकी शुरुआत तो 2009 में हुई थी लेकिन इसकी जड़ें 1983 में डेविड चौम की क्रिप्टोग्राफिक इलेक्ट्रॉनिक मनी से जुड़ी हैं जिसे ई-कैश भी कहा जाता है। यह क्रिप्टोग्राफिक इलेक्ट्रॉनिक भुगतान का एक प्रारंभिक रूप था। इसमें किसी बैंक से धन निकालने के लिए एक सॉफ्टवेयर की आवश्यकता होती थी और किसी विशेष व्यक्ति को भेजे जाने से पहले विशिष्ट एन्क्रिप्टेड कुंजियां निर्धारित की जाती थीं। धन स्थानांतरण करने की इस पद्धति ने जारीकर्ता बैंक, सरकार या किसी अन्य तीसरी पार्टी के लिए डिजिटल मुद्रा का अता-पता लगाना असंभव कर दिया।

डेविड चौम के प्रारंभिक विचार ने एक दशक से भी अधिक समय बाद अधिक औपचारिक क्रिप्टोकरंसी को जन्म दिया। आज बाज़ार में हज़ारों क्रिप्टोकरंसी मौजूद हैं। इसकी बुनियादी प्रणाली को समझकर इस प्रक्रिया के प्रमुख अदाकारों को पहचानने और डिज़ाइन के विभिन्न विकल्पों को समझने में मदद मिल सकती है।

3. डिजिटल हस्ताक्षर

क्रिप्टोकरंसी और पेपर मनी के बीच का अंतर यह है कि क्रिप्टोकरंसी में लेनदेन की पुष्टि करने वाला कोई बैंक नहीं होता है, बल्कि यह प्रणाली एक विकेंद्रीकृत लेनदेन के आधार पर काम करती है जहां डिजिटल हस्ताक्षर और क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन्स की कूट-प्रकृति के कारण परस्पर भरोसे की आवश्यकता नहीं होती। यहां दो बहुत ही जटिल शब्दों का उपयोग किया गया है जिन्हें समझना ज़रूरी है।

आइए एक बार फिर अपने चार दोस्त सुशील, सोमेश, प्रतिका और ज़ुबैर से मिलते हैं। सुशील, सोमेश, प्रतिका और ज़ुबैर अक्सर डिनर के लिए बाहर जा रहे हैं इसलिए उन्हें नकदी लेनदेन में काफी असुविधा हो रही है। इसके लिए वे पहले से ही एक सामूहिक बहीखाते का उपयोग कर रहे हैं ताकि महीने के अंत में लेनदेन को निपटा सकें।

यह बहीखाता तालिका 1 जैसा दिखेगा।

तालिका 1

दिनांक                       लेनदेन                                                       राशि (रुपए)

xyz                          सुशील ने सोमेश को भुगतान किया                180

abc                          सोमेश ने प्रतिका को भुगतान किया                290

def                           प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया  210

ghi                          ज़ुबैर ने सुशील को भुगतान किया  300

ऐसे बहीखाते का सार्वजनिक होना आवश्यक है ताकि चारों दोस्त जब चाहें इसे देख सकें। यह एक वेबसाइट की तरह भी हो सकता है जहां चारों दोस्त जाकर नई लेनदेन पंक्ति जोड़ सकते हैं। हर महीने के अंत में, यदि आपने भुगतान से अधिक पैसे प्राप्त किए हैं तो आपको भुगतान करना होगा और यदि आपने प्राप्त करने से अधिक भुगतान किया है तो आपको राशि प्राप्त होगी।

बहीखाते का प्रोटोकॉल तालिका 2 जैसा होगा।

तालिका 2

क्र.            प्रोटोकॉल

1.             चारों में से कोई भी भुगतान सम्बंधी नई पंक्ति जोड़ सकता है

2.             प्रत्येक माह के अंत में, सभी इंदराज़ों का पैसे अदा करके हिसाब साफ कर दिया जाएगा

अब इस तरह के सार्वजनिक बहीखाते से एक समस्या हो सकती है खासकर जब चार दोस्त एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते हैं। जब इनमें कोई भी नई पंक्ति जोड़ सकता है तो फिर सुशील को गुपचुप ऐसी लाइन जोड़ने से कैसे रोका जा सकता है जिसमें लिखा हो:

ज़ुबैर ने सुशील को भुगतान किया 500 रुपए

तो हम कैसे विश्वास कर सकते हैं कि बहीखाते की सभी पंक्तियां वैध हैं? यहीं पर डिजिटल हस्ताक्षर की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। यहां मुख्य विचार यह है कि जिस तरह हम हस्तलिखित हस्ताक्षर के माध्यम से लेनदेन या किसी अनुबंध को वैधता प्रदान करते हैं उसी तरह ज़ुबैर के लिए यह संभव होना चाहिए कि वह बहीखाते में किसी के द्वारा उससे सम्बंधित जोड़ी गई पंक्ति में ऐसा कुछ जोड़ सके जिससे यह साबित हो कि उसने इस इंदराज़ को देखा है और स्वीकृत किया है। किसी के लिए भी जाली हस्ताक्षर बनाना असंभव होना चाहिए।

पहली नज़र में आपको लगेगा कि डिजिटल हस्ताक्षर के साथ तो यह आसानी से संभव है क्योंकि कॉपी-पेस्ट का निर्देश तो लंबे समय से मौजूद रहा है। तो डिजिटल हस्ताक्षर की जालसाज़ी को कैसे रोका जाए क्योंकि जब हाथ से किए गए हस्ताक्षर की तुलना में डिजिटल हस्ताक्षर को कॉपी करना काफी आसान है?

लेकिन क्रिप्टोकरंसी में यह व्यवस्था निम्नानुसार काम करती है – प्रत्येक उपयोगकर्ता एक सार्वजनिक कुंजी/ निजी कुंजी की जोड़ी बनाता है। ये कुंजियां अंकों की एक अर्थहीन शृंखला की तरह दिखती हैं। जैसा कि नाम से साफ है, निजी कुंजी को हर व्यक्ति गोपनीय रखना चाहता है।

बैंक के लेनदेन में, आपके हस्तलिखित हस्ताक्षर किसी दस्तावेज़ या लेनदेन की प्रकृति से स्वतंत्र एक जैसे दिखते हैं। इस मामले में, डिजिटल हस्ताक्षर वास्तव में हस्तलिखित हस्ताक्षर से अधिक सुरक्षित साबित हो सकता है क्योंकि यह प्रत्येक लेनदेन में बदलता रहता है। यह 1 और 0 अंकों की लंबी शृंखला होती है, जिसे संदेश से जोड़ने पर पूरा डिजिटल हस्ताक्षर बनता है। संदेश में थोड़ा सा परिवर्तन करने पर भी डिजिटल हस्ताक्षर में बड़ा परिवर्तन आ जाता है। अर्थात

संदेश + निजी कुंजी = डिजिटल हस्ताक्षर

इस तरह, हस्ताक्षर फंक्शन सत्यापित करता है कि हस्ताक्षर मान्य है। सत्यापन में सार्वजनिक कुंजी की भूमिका सामने आती है।

सत्यापन फंक्शन (संदेश + 256-बिट शृंखला + सार्वजनिक कुंजी) =  सत्य या असत्य

सार्वजनिक कुंजी वास्तव में सत्यापन के काम आती है। इससे यह निर्धारित होता है कि क्या कोई विशेष डिजिटल हस्ताक्षर उपयोगकर्ता की निजी कुंजी से उत्पन्न किया गया है जो सार्वजनिक कुंजी से जुड़ी है।

सरल शब्दों में कहें तो इन दोनों फंक्शन के पीछे का तर्क वास्तव में यह सुनिश्चित करना है कि यदि किसी व्यक्ति के पास निजी कुंजी नहीं है तो उसके लिए वैध हस्ताक्षर उत्पन्न करना भी असंभव है। इस कुंजी का अनुमान लगाने का एकमात्र तरीका यह है कि 0 और 1 के सारे संयोजनों का अनुमान लगाया जाए और तब तक लगाया जाए जब तक कि काम करने वाली सही कुंजी हाथ न लग जाए। इसको ब्रूट फोर्स अटैक या ज़बरदस्ती के रूप में जाना जाता है। 256 बिट की संख्या में 0 और 1 के कुल 2^(256) संभावित संयोजन हो सकते हैं। 2^(256) एक बहुत विशाल संख्या है और इसलिए सभी संभावित संयोजनों को आज़माने के लिए जितना समय और कंप्यूटर शक्ति चाहिए वह जुटा पाना असंभव हो जाता है। फिर भी यदि कोई इस तरीके से कोशिश करता है तो उसे रोका जा सकता है – असफल मिलानों की संख्या को सीमित करके। इस तरह से हस्ताक्षर और सत्यापन की पूरी प्रक्रिया बेहद सुरक्षित बन जाती है।

यहां एक और समस्या का सामना करना पड़ सकता है। आइए हम एक बार फिर अपने चार दोस्तों से मिलते हैं और इस लेनदेन पर एक नज़र डालते हैं (तालिका 3)।

तालिका 3

दिनांक       लेनदेन                                                       राशि (रुपए)                               हस्ताक्षरित

abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया 500                  010001011110101101

यह तो सही है कि ज़ुबैर किसी अन्य लेनदेन में प्रतिका के हस्ताक्षर की नकल नहीं कर सकता लेकिन अभी भी वह एक युक्ति से फायदा उठा सकता है। ज़ुबैर एक ही लेनदेन को एक ही कुंजी के साथ बार-बार कॉपी पेस्ट कर सकता है, और यह काम कर जाएगा क्योंकि संदेश और हस्ताक्षर का संयोजन अपरिवर्तित रहता है (तालिका 4)।

तालिका 4

दिनांक       लेनदेन                                                       राशि (रुपए)               हस्ताक्षरित

abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया  500                          010001011110101101

abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया  500                          010001011110101101

abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया  500                          010001011110101101

abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया  500                          010001011110101101

यानी यह प्रणाली अभी भी त्रुटिपूर्ण है क्योंकि “हस्ताक्षर सत्यापन” फंक्शन हर लेनदेन पर “सत्य” ही दर्शाएगा। तो, कोई तरीका खोजना होगा जिसमें यह सुनिश्चित किया जा सके कि एक ही लेनदेन के ऐसे दो प्रकरण न दर्ज किए जा सकें जिनमें एक ही डिजिटल हस्ताक्षर का उपयोग किया गया हो।

क्रिप्टोकरंसी प्रणाली और पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में प्रत्येक लेनदेन को एक विशिष्ट नंबर दिया जाता है जिसे युनीक आईडी कहा जाता है।  इस तरह यदि लेनदेन को बहीखाते पर दोहराया जाता है तो हर बार एक नई आईडी की आवश्यकता होगी। चूंकि प्रतिका को लेनदेन की आईडी पता होगी जिससे उसने ज़ुबैर को 500 रुपए का भुगतान किया है, ऐसे में ज़ुबैर एक ही लेनदेन को बार-बार कॉपी पेस्ट नहीं कर सकता क्योंकि बहीखाते में जोड़ी गई प्रत्येक नई लाइन के लिए एक सर्वथा नई लेनदेन आईडी होगी।  

इस तरह से चारों दोस्तों के बीच बहीखाते का प्रोटोकॉल अब कुछ इस प्रकार होगा; 

1.             कोई भी नई पंक्ति जोड़ सकता है

2.             प्रत्येक माह के अंत में, सभी टैब्स को पैसे अदा करके साफ कर दिया जाएगा

3.             प्रत्येक लेनदेन की एक युनीक लेनदेन आईडी होगी

4.             केवल हस्ताक्षरित लेनदेन ही मान्य होंगे 

हालांकि, इस प्रणाली में अभी भी समस्याएं हैं। क्योंकि क्रिप्टोकरंसी एक गैर-भरोसा आधारित प्रणाली है और चार दोस्तों की हमारी प्रणाली अभी भी इस भरोसे पर काम करती है कि महीने के अंत में हर कोई भुगतान कर देगा। तो भरोसे का यह तत्व भी क्यों रहे?

क्या होगा यदि किसी महीने के दौरान सोमेश पर हज़ारों रुपए का कर्ज़ हो जाए और वह भुगतान करने या फिर डिनर में आने से ही इन्कार कर दे? अब एक ऐसी प्रणाली बनाने की ज़रुरत है जिसमें चारों दोस्त एक सामूहिक गुल्लक में 500-500 रुपए डाल दें और उनको इससे अधिक खर्च करने अनुमति न मिले। इस मामले में, बहीखाते की पहली कुछ पंक्तियां तालिका 5 में दिखाए अनुसार होंगी।

तालिका 5

लेनदेन       दिनांक       लेनदेन                       राशि         

आईडी                                                       (रुपए)       हस्ताक्षरित

00001      abc          सुशील को मिले           500          0101101111010110

00002      abc          सोमेश को मिले           500          1001011100001010

00003      abc          प्रतिका को मिले          500          1111100101101001

00004      abc          ज़ुबैर को मिले             500          1011001101000111

इसके बाद, “बहीखाते के प्रोटोकॉल” में “प्रत्येक माह के अंत में, सभी टैब्स के पैसे अदा करके हिसाब साफ कर दिया जाएगा” की जगह “तय राशि से अधिक खर्च नहीं करना” हो जाएगा। इस तरह से चार दोस्त उस लेनदेन को स्वीकार नहीं करेंगे जहां कोई व्यक्ति गुल्लक में डाली गई राशि से अधिक खर्च करता है। उदाहरण के लिए तालिका 6 देखें।

तालिका 6

लेनदेन    दिनांक   लेनदेन                                            राशि          

आईडी                                                                        (रुपए)         हस्ताक्षरित

00001     abc        सोमेश ने प्रतीका को दिए                   200           0101101111010110

00002     abc        सोमेश ने ज़ुबैर को दिए                      250           1001011100001010

00003     abc        सोमेश ने सुशील को दिए                   50            1111100101101001

00004   abc     सोमेश ने ज़ुबैर को दिए                      100          अमान्य!

इसमें अंतिम पंक्ति को अमान्य माना जाएगा क्योंकि सोमेश ने सामूहिक गुल्लक में 500 रुपए डाले थे और 600 रुपए खर्च करने की कोशिश की। इसका मतलब यह हुआ कि लेनदेन को सत्यापित करने के लिए हमें सोमेश द्वारा पिछले लेनदेन की जानकारी भी होनी चाहिए। यह लगभग वैसा ही है जैसे सोमेश का उस बहीखाते में स्वयं का बैंक खाता हो। यह बात क्रिप्टोकरंसी और पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में कमोबेश एक समान है। यहां एक दिलचस्प बात यह है कि यह प्रक्रिया सैद्धांतिक रूप से बहीखाता और वास्तविक भौतिक नकद के बीच के सम्बंध को हटा देती है। यदि हर कोई इस बहीखाते का उपयोग करे तो कोई भी अपना पूरा जीवन इस बहीखाते के माध्यम से चला सकता है बहीखाते के अपने धन को नकद में परिवर्तित किए बगैर।    

आइए अब इस उदाहरण में एक जटिलता और जोड़ते हैं और बहीखाते में लिखे गए इस धन को “फ्रेंडकॉइन्स” या संक्षिप्त में “एफसी” का नाम देते हैं। यहां 1 रुपया = 1 एफसी हो सकता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि हमेशा एक एफसी का मूल्य एक रुपया ही हो। इस स्थिति में सभी को अपनी इच्छा के अनुसार रुपयों के बदले एफसी खरीदने और बहीखाते में दर्ज करने के लिए एफसी के बदले सामूहिक गुल्लक में रुपए डालने की अनुमति होगी। उदाहरण के लिए, सुशील सोमेश को वास्तविक दुनिया में 100 रुपए दे सकता है और उसके बदले सामूहिक बहीखाते में निम्नलिखित लेनदेन को जोड़ने और हस्ताक्षर करने की अनुमति देता है।       

सोमेश ने सुशील को भुगतान किया                100 एफसी  

वैसे हमारे बहीखाते के प्रोटोकॉल में इस तरह के आदान-प्रदान की कोई गारंटी नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे विदेशी मुद्रा का विनिमय होता है जिसमें आदान-प्रदान की दरें बाज़ार में मांग और आपूर्ति की स्थिति से प्रभावित होती हैं।

और यही चीज़ बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरंसी के बारे में पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात है: क्रिप्टोकरेंसी मूल रूप से एक बहीखाता और पूर्व में किए गए लेनदेन का ब्यौरा है। और पूर्व के लेनदेन का यही ब्यौरा मुद्रा या करंसी है। यहां बिटकॉइन के मामले में यह ध्यान रखना काफी महत्वपूर्ण है कि लोगों द्वारा नकदी से खरीदारी को बहीखाते में लिखा नहीं जाता है। इस लेख में हम आगे पढ़ेंगे कि नए धन को बहीखाते में कैसे लिखा जाता है।       

इससे पहले कि हम इस बारे में बात करें कि बहीखाते में धन को कैसे लिखा जाता है; हमें पहले एक और समस्या से निपटना होगा जिसका चार दोस्तों को फ्रेंडकॉइन के साथ सामना करना पड़ रहा है जो उनकी मुद्रा को पारंपरिक क्रिप्टोकरंसी से अलग करता है।

जैसा कि आपको याद होगा कि क्रिप्टोकरंसी एक गैर-भरोसा-आधारित प्रणाली है यानी यह एक ऐसी प्रणाली है जहां मुद्रा के मूल्य का निर्धारण करने के लिए मुद्रा में भरोसे की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन हमारे पास अभी भी फ्रेंडकॉइन प्रणाली में एक ऐसा बिंदु है जो भरोसे पर काम करता है: हमारा बहीखाता जिसे चार दोस्तों द्वारा एक वेबसाइट पर साझा किया जाता है। यह वेबसाइट किसी के स्वामित्व में है, जिसका मतलब यह है कि बहीखाता इस भरोसे पर काम करता है कि वेबसाइट का मालिक बहीखाते की जानकारी में हेरफेर नहीं करेगा और चार दोस्तों द्वारा झूठी प्रविष्टियों के लिए उसे रिश्वत नहीं दी जाएगी। 

इससे बचने के लिए और वेबसाइट मालिकों में विश्वास की आवश्यकता को खत्म करने के लिए हम सुशील, सोमेश, प्रतिका और ज़ुबैर, प्रत्येक को बहीखाते की एक-एक प्रति देते हैं। अब तालिका 7 के लेनदेन को प्रतिका ज़ुबैर, सोमेश और सुशील को प्रसारित करेगी जिससे प्रत्येक उस लेनदेन को अपने-अपने बहीखाते में नोट कर लेगा और यदि कोई लेनदेन सभी बहीखातों पर मौजूद नहीं हुआ तो उसे अमान्य माना जाएगा और इससे जाली बहीखाता बनाने की संभावना समाप्त हो जाएगी।

तालिका 7

लेनदेन       दिनांक       लेनदेन                                       राशि          हस्ताक्षरित

आईडी                                                                       (एफसी)   

00036      abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को                      100          010010001000010

वास्तविक दुनिया में तो यह प्रणाली अत्यंत अव्यावहारिक और बेतुकी साबित होगी। एक कठिन सवाल यह है कि सभी को इस बात पर सहमत कैसे कराया जाए कि सही बहीखाता क्या है?

जब ज़ुबैर को प्रतिका से 100 एफसी प्राप्त होते हैं, तो यह कैसे सुनिश्चित होगा कि सुशील और सोमेश भी इस लेनदेन पर विश्वास करेंगे और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि क्या उन्होंने भी इस लेनदेन को अपने बहीखाते में दर्ज कर लिया है ताकि ज़ुबैर सुशील या सोमेश को 100 एफसी का भुगतान कर सके जो उसे पिछली तारीख में प्रतिका से प्राप्त हुए हैं? प्रसारित लेनदेन को निरंतर रिकॉर्ड करना और यह उम्मीद करना कि कोई आपके द्वारा प्रसारित लेनदेन को सही क्रम में दर्ज कर रहा है यह प्रक्रिया उनकी दोस्ती को एक खटाई में डाल सकती है।

स्वयं का क्रिप्टोकरंसी मॉडल डिज़ाइन करके क्रिप्टोकरंसी के वास्तविक कार्य को समझते-समझते हम एक बहुत दिलचस्प मोड़ पर आ गए हैं। क्या हम एक ऐसा बहीखाता प्रोटोकॉल बना सकते हैं जिसके आधार पर लेनदेन को स्वीकार या अस्वीकार किया जाएगा और हम कैसे यह सुनिश्चित करेंगे कि पूरी दुनिया में इसी प्रोटोकॉल का पालन करने वाले लोगों के पास मौजूद बहीखाते हूबहू हमारे जैसे हैं?

कूटनाम के तहत काम करने वाले “सातोशी नकामोतो” नामक एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा लिखित बिटकॉइन पर मूल पेपर में इसी समस्या का समाधान प्रस्तुत किया गया है।     

सातोशी नाकामोतो ने एक योजना सुझाई जिसे “प्रूफ ऑफ वर्क” (मेहनत का प्रमाण) के रूप में जाना जाता है। सरल शब्दों में, जिस बहीखाते के पीछे सबसे अधिक मात्रा में गणनात्मक कार्य होगा, उसे सबसे विश्वसनीय बहीखाता माना जाएगा। वैसे तो यह एक बहुत ही बेतुका विचार लगता है। लेकिन जैसे-जैसे आप आगे पढ़ते जाएंगे आपको प्रूफ ऑफ वर्क की व्यवस्था स्पष्ट होती जाएगी।

प्रूफ ऑफ वर्क योजना का मुख्य उपकरण क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन है। प्रूफ ऑफ वर्क योजना में क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन की भूमिका को समझने से पहले इसके पीछे के सामान्य विचार को समझते हैं। सामान्य विचार यह है कि हम भरोसे के एक आधार के रूप में गणना कार्य का उपयोग करते हैं। इसके लिए हम ऐसी व्यवस्था बनाएंगे कि धोखाधड़ी वाले लेनदेन और परस्पर विरोधी बहीखातों के लिए अव्यवहारिक मात्रा में गणना शक्ति की आवश्यकता होगी। एक बार जब हम इसके काम करने के तरीके को पूरी तरह समझ जाते हैं तो हम आज के समय में उपयोग किए जाने वाले क्रिप्टोकरंसी मॉडल को समझ पाएंगे।      

4. क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन

अब हम यह समझने का प्रयास करते हैं कि हैश फंक्शन क्या है। आम तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला हैश फंक्शन SHA-256 है।

हैश फंक्शन किसी भी प्रकार के संदेश (‘इनपुट’) या फाइल को लेता है और इसे 0 और 1 की 256 बिट शृंखला (या निश्चित बिट्स की लंबाई की किसी अन्य शृंखला) के अनुक्रम में परिवर्तित करता है। यह कार्य भारी-भरकम कंप्यूटर शक्ति की मदद से किया जाता है। आउटपुट को ‘हैश’ कहा जाता है और यह पूरी तरह से 0 और 1 से बनी बेतरतीब संख्या के रूप में दिखाई देता है। वास्तव में यह संख्या बेतरतीब नहीं होती है क्योंकि एक ही इनपुट हमेशा एक ही आउटपुट देता है लेकिन यदि इस इनपुट में थोड़ा भी बदलाव करते हैं तो हैश का मान बदल जाता है। SHA-256 में, मान में होने वाले परिवर्तन इस तरह से होते हैं कि उनका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है और इसीलिए ‘हैश’ से शुरू करके उल्टी गणना करके इनपुट का पता नहीं लगाया जा सकता। SHA-256 को क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन कहते हैं और सामान्य हैश फंक्शन के विपरीत इसकी उल्टी गणना नहीं की जा सकती है। सभी क्रिप्टोकरंसियां अलग-अलग क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शंस का उपयोग करती हैं।

SHA-256 हैश-फंक्शन के कार्य को देखते हुए अब आपको यह विचार आ सकता है कि आउटपुट को रिवर्स-इंजीनियर करके (यानी उल्टी गणना करके), इनपुट पता लगाया जा सकता है। लेकिन अभी तक किसी को ऐसा कोई रास्ता नहीं मिला है और अभी तक के सबसे शक्तिशाली आधुनिक कंप्यूटर का उपयोग करने वाली वर्तमान गणनात्मक शक्तियां भी इतनी सक्षम नहीं हैं कि वे किसी मनुष्य के जीवन काल में इस तरह से इनपुट को उजागर कर सकें।

हैश-फंक्शन और उसके सुरक्षित स्वरूप को समझने के बाद, अब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि कैसे यह फंक्शन यह प्रमाणित कर सकता है कि लेनदेन की कोई सूची उच्च गणनात्मक प्रयासों से जुड़ी है।

मान लीजिए कि आपको तालिका 8 जैसा लेनदेन दिखाया जाता है। और फिर आपको यह बताया जाता है कि किसी ने बहीखाते के अंत में दी गई संख्या को डालने के बाद इसे SHA-256 के माध्यम से चलाया है। इस संख्या की खास बात यह है कि जब आप संख्या को इस विशिष्ट बहीखाते के अंत में डालते हैं तो SHA-256 हैश आउटपुट के पहले 50 अंक शून्य हो जाते हैं। 

तालिका 8

लेनदेन       दिनांक       लेनदेन                                                       राशि          हस्ताक्षरित

आईडी                                                                                       (एफसी)

00001      abc          सोमेश ने प्रतिका को भुगतान किया                2000        0101101111010110

00002      abc          सोमेश ने ज़ुबैर को भुगतान किया 2530        1001011100001010

00003      abc          सोमेश ने सुशील को भुगतान किया                500          1111100101101001

00004      abc          सोमेश ने ज़ुबैर को भुगतान किया 1000        1011011001011011

आपके विचार में किसी के लिए उस संख्या को खोज पाना कितना मुश्किल है? किसी भी बेतरतीब संख्या के लिए, हैश के शुरुआत में 50 लगातार अंक शून्य होने की संभावना 1/{2^(50)} = 1/1,125,899,906,842,624होती है। यह एक अत्यंत बड़ी संख्या है।

इस गुण वाली विशेष संख्या खोजने का एकमात्र तरीका है कि 1,125,899,906,842,624 बार अनुमान लगाया जाए।    

5. प्रूफ ऑफ वर्क

एक बार यह संख्या मिल जाए, तो बगैर किसी मेहनत के यह सत्यापित करना बहुत आसान हो जाता है कि वास्तव में आउटपुट में 50 शून्य हैं या नहीं। दूसरे शब्दों में, यह सत्यापित करना संभव हो जाता है कि इस संख्या को खोजने के लिए भारी मात्रा में गणनात्मक काम किया गया है। इसको प्रूफ ऑफ वर्क कहा जाता है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह पूरा कार्य लेनदेन की उस सूची विशेष से जुड़ा हुआ है। यदि हम उस लेनदेन में ‘somesh’ को बदलकर ‘5omesh’ कर दें, तो आउटपुट पूरी तरह बदल जाता है। तो अब हमें 50 शून्य वाले आउटपुट को प्राप्त करने के लिए 250 प्रयासों के साथ एक विशेष संख्या की भी आवश्यकता होगी।   

क्योंकि अब हम प्रूफ ऑफ वर्क योजना और इसके काम करने में क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन की भूमिका को समझ चुके हैं तो आइए अब हम अपने चार दोस्तों से एक बार फिर मिलते हैं।

अब हमारे चार दोस्त एक भारी-भरकम गणनात्मक प्रयास के आधार पर बहीखाते पर भरोसा करना जान गए हैं। उनमें से प्रत्येक अपने लेनदेन का प्रसारण कर रहा है और अब हम एक ऐसे तरीके पर चारों की सहमति चाहते हैं कि कौन-सा बहीखाता सबसे सही बहीखाता है।  

6. ब्लॉक चेंस

अब हम प्रूफ ऑफ वर्क के विचार का उपयोग करते हुए बहीखाते को पृष्ठों में विभाजित कर सकते हैं। क्रिप्टोकरंसी की दुनिया में, इनमें से प्रत्येक पृष्ठ को ब्लॉक कहा जाता है। प्रत्येक पृष्ठ में प्रूफ ऑफ वर्क होता है और सारे दोस्त इस बात से सहमत होते हैं कि केवल उन्हीं पृष्ठों को मान्य माना जाएगा जिनमें प्रूफ ऑफ वर्क है। बहीखाते का प्रत्येक पृष्ठ एक ऐसी संख्या के साथ समाप्त होगा कि पृष्ठ या ब्लाक पर SHA-256 को लागू करने के बाद हैश आउटपुट शून्य की एक शृंखला से शुरू हो। उदाहरण के लिए हम यह निर्णय ले सकते हैं कि इसकी शुरुआत 60 शून्यों से होनी चाहिए।

बहीखाते की सुरक्षा को और बढ़ाने के लिए बहीखाते के प्रत्येक पृष्ठ को पिछले पृष्ठ के हैश से शुरू करना चाहिए। चार दोस्त यह निर्णय लेते हैं ताकि कोई भी बहीखाते के पृष्ठ में बाद में कोई परिवर्तन या बदलाव न कर सके। किसी पृष्ठ को बदलने से अगले पृष्ठ पर लिखे गए हैश से भिन्न हैश प्राप्त होगा और परिणामस्वरूप बाद के पृष्ठ भी इससे प्रभावित होंगे। यानी एक पृष्ठ को बदलने के लिए सभी पृष्ठों को नए सिरे से ठीक करना होगा जिसके लिए ज़रूरी प्रूफ ऑफ वर्क की मात्रा गणनात्मक लिहाज़ से असंभव हो जाएगी। क्रिप्टोकरंसी की दुनिया में, पृष्ठों (ब्लॉक) की परस्पर जुड़ी शृंखला को ब्लॉक चेन कहते हैं।   

यह कुछ ऐसे काम करता है – सुशील, सोमेश, ज़ुबैर और प्रतिका दुनिया में किसी को भी अपने लेनदेन को रिकॉर्ड करने और ब्लॉक के अंत में जोड़ने के लिए विशेष संख्या खोजने (ताकि हैश 60 शून्य वाला हैश मिले) के लिए प्रूफ ऑफ वर्क की अनुमति देते हैं। यह अज्ञात व्यक्ति इस पूरे काम के बदले चार दोस्तों द्वारा किए गए सभी लेनदेन के ऊपर एक विशेष लेनदेन जोड़ता है (तालिका 9)।

तालिका 9

लेनदेन       दिनांक       लेनदेन                                                                       राशि          हस्ताक्षरित

आईडी                                                                                                       (एफसी)    आवश्यक नहीं

000001    abc          ब्लॉक निर्माता को मिलता है ब्लॉक रिवॉर्ड       100

7. माइनिंग 

यह लेनदेन काफी खास है क्योंकि किसी को भी इसके लिए कोई हस्ताक्षर या भुगतान नहीं करना पड़ता है। ब्लॉक निर्माता को मिले इन फ्रेंडकॉइन्स को ब्लॉक-रिवॉर्ड कहते हैं। ये नए कॉइन्स फ्रेंडकॉइन अर्थव्यवस्था में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, ये कुल धन की आपूर्ति में वृद्धि करते हैं। जब भी ब्लॉक निर्माता एफसी के बदले वास्तविक धन चाहता है तो वह इसे किसी ऐसे व्यक्ति को बेच सकता है जो एफसी खरीदना चाहता है। ऐसे नए ब्लॉक का निर्माण काफी मेहनत का काम है और इसके ज़रिए अर्थव्यवस्था में नई फ्रेंडकॉइन्स शामिल होती हैं। अत: नए ब्लॉक निर्माण को ‘माइनिंग’ या खनन कहा जाता है।

तो खनिक वास्तव में करते क्या हैं; वे

1. प्रसारित लेनदेन पर नज़र रखते हैं

2. ब्लॉक निर्माण करते हैं

3. प्रूफ ऑफ वर्क जोड़ते हैं

4. नए बनाए गए ब्लॉकों को प्रसारित करते हैं।

यह एक लॉटरी में प्रतिस्पर्धा करने जैसा है जहां कई खनिक किसी विशेष ब्लॉक के प्रूफ ऑफ वर्क को पूरा करने के लिए एक-दूसरे से मुकाबला करते हैं और जो इसमें जो अव्वल आता है उसको पुरस्कृत किया जाता है।  

8. विकेंद्रित सर्वसम्मति

ऐसे में यदि कोई स्वयं के ब्लॉक चेन को अपडेट करते समय ब्लॉक चेन में परस्पर विरोधी लेनदेन देखता है, तो वह लंबे ब्लॉकचेन को चुन सकता है क्योंकि इसको तैयार करने में अधिक काम किया गया है। बराबरी की स्थिति में थोड़ी प्रतीक्षा करनी होती है जब तक कि उनमें से कोई एक ब्लॉकचेन थोड़ी लंबी न हो जाए। ऐसे में भले ही कोई केंद्रीय प्राधिकरण न हो और हर कोई बहीखाते की स्वयं की एक कॉपी रखता हो, सबसे लंबे ब्लॉक चेन पर सबसे अधिक भरोसा करने की बात से सभी को स्वयं के व्यक्तिगत बहीखातों को अपडेट करना आसान हो जाता है। इसे विकेंद्रित सर्वसम्मति कहते हैं।  

यह समझने के लिए कि वह कौन-सी चीज़ है जो विकेंद्रित सर्वसम्मति की प्रणाली को भरोसेमंद बनाती है, हम इन चार दोस्तों को बेवकूफ बनाने की कोशिश करते हैं और यह देखते हैं कि इस तरह की प्रणाली को चकमा देने के लिए क्या करना होगा। मान लीजिए कि ज़ुबैर को मूर्ख बनाने के लिए सुशील यह विश्वास दिलाता है कि ज़ुबैर पर उसके 100 एफसी बकाया हैं। इसके लिए सुशील क्या कर सकता है? वह गुप्त तौर पर एक ब्लॉक (S) को माइन करेगा और उसे सिर्फ ज़ुबैर को प्रसारित करेगा। हालांकि, सोमेश और प्रतिका के बहीखाते में इस तरह का कोई ब्लॉक नहीं है, इसलिए वे अभी भी बाकी दुनिया (ROW) से ब्लॉक स्वीकार कर रहे हैं।

अब ज़ुबैर के पास आने वाले ब्लॉकों के दो परस्पर विरोधी संस्करण हैं, एक तो सुशील का कपटपूर्ण ब्लॉक (S1) और दूसरा बाकी दुनिया से आने वाले (ROW1, ROW2,……)। अब सुशील को अपने कपटपूर्ण 100 एफसी के लेनदेन को जारी रखने के लिए न केवल यहां से प्रत्येक ब्लॉक की माइनिंग को सबसे पहले पूरा करना होगा बल्कि इस प्रक्रिया को जारी रखना होगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विश्वभर के लाखों माइनर्स द्वारा तैयार की गई ब्लॉक चेन की लंबाई उसके द्वारा बनाई गई ब्लॉकचेन से लंबी न हो जाए अन्यथा उसका सारा काम बेकार हो जाएगा। सुशील के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं हो पाएगा क्योंकि दुनियाभर के लाखों माइनर्स के पास इस स्तर की गणनात्मक शक्ति है जिसका मुकाबला सुशील का इकलौता लैपटॉप नहीं कर सकता।       

अंतत:, ज़ुबैर यह देखेगा कि शेष दुनिया की ब्लॉक चेन की लंबाई सुशील द्वारा प्रसारित ब्लॉक चेन से अधिक है या नहीं। इस तरह वह लंबे ब्लॉक चेन के अनुसार अपने बहीखाते को अपडेट करेगा। यह पूरी घटना सुशील के पक्ष में तभी हो सकती है जब उनके पास दुनियाभर की गणनात्मक शक्ति के 51 प्रतिशत या उससे अधिक का स्वामित्व हो और वह इस पूरी क्षमता का उपयोग अपनी बाकी की जिंदगी में 100 एफसी के कपटपूर्ण लेनदेन के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए करता रहे। उसके बाद भी, सुशील को अधिक से अधिक प्रोसेसिंग शक्ति खरीदना होगी क्योंकि दुनियाभर के लोग लगातार नए कंप्यूटर खरीद रहे हैं और सुशील को दुनिया की कुल कंप्यूटिंग शक्ति का 51 प्रतिशत या उससे अधिक अपने पास रखना होगा। आप खुद देख सकते हैं कि यह पूरी प्रक्रिया अत्यधिक असंभाव्य है।

इसका मतलब यह हुआ कि हाल ही में जोड़े गए ब्लॉक पर तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता जब तक कि इसके ऊपर कम से कम कुछ और ब्लॉक्स नहीं जोड़े जाते। यह सुनिश्चित करता है कि ज़ुबैर जिस ब्लॉक चेन को अपडेट करता है उसी का उपयोग सोमेश, प्रतिका और सुशील भी कर रहे हैं।

अब हमने मोटे तौर पर क्रिप्टोकरंसी के काम करने के मुख्य विचारों को प्रस्तुत कर दिया है। कमोबेश बिटकॉइन और अन्य क्रिप्टोकरंसियां भी कुछ इसी तरह काम करती हैं।

बिटकॉइन में सारा धन अंतत: ब्लॉक रिवार्ड्स से आता है और हर चार वर्ष में ब्लॉक रिवॉर्ड को आधा कर दिया जाता है। शुरुआत में, यानी 2009 से 2012 के बीच यह रिवॉर्ड 50 बीटीसी प्रति ब्लॉक था और आज यह 6.25 बीटीसी प्रति ब्लॉक है। हर चार वर्षों में, लगभग 2,01,000 बिटकॉइन ब्लॉक्स को माइन किया जाता है क्योंकि समय के साथ इनाम तेज़ी से कम हो जाता है जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि कभी भी बिटकॉइन की संख्या 21 मिलियन (2 करोड़ 10 लाख) से अधिक नहीं होगी।    

हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि माइनर्स अंतत: पैसा कमाना बंद कर देंगे। जिनके लेनदेन अभी भी ब्लॉक में हैं उनसे माइनर्स अभी भी लेनदेन शुल्क के माध्यम से स्वेच्छा से पैसा कमा सकते हैं। लोगों द्वारा लेनदेन शुल्क का भुगतान भी इसलिए किया जाएगा ताकि माइनर्स उनका लेनदेन एकदम अगले ब्लॉक में शामिल करें।

बिटकॉइन में, प्रत्येक ब्लॉक में केवल 2400 लेनदेन ही हो सकते हैं जो लेनदेन की प्रक्रिया को काफी धीमा कर सकते हैं। तुलना के लिए देखें कि VISA और Rupay प्रति सेकंड 20,000 से अधिक लेनदेन को संभाल सकते हैं। ऐसे में लेनदेन शुल्क माइनर्स को बढ़ावा देता है कि वे आपके लेनदेन को अगले ही ब्लॉक में जोड़ें, बजाय इसके कि उसे 5-6 ब्लॉक के बाद आप खुद निशुल्क जोड़ दें।

निष्कर्ष

हमारे समक्ष क्रिप्टोकरंसी के काम करने की प्रणाली को समझने का एक मोटा-मोटा मॉडल तैयार है। हालांकि, अभी भी कई ऐसे सवाल होंगे जिनका उत्तर नहीं दिया गया है। लोग इन मुद्राओं में निवेश क्यों करते हैं। यह दुनियाभर में भुगतान करने का प्रचलित तरीका क्यों नहीं है? कई सरकारें अपने देश में इन मुद्राओं को वैध मुद्रा बनाने के विचार के खिलाफ क्यों हैं? क्रिप्टोकरंसियों के साथ ऐसी क्या समस्याएं हैं जिनका प्रणाली के पास कोई जवाब नहीं है? इसकी अस्पष्ट प्रकृति के कारण कर चोरी, अवैध खरीद-फरोख्त और आतंकी फंडिंग के प्रयोजनों के लिए क्रिप्टोकरंसी के दुरुपयोग की संभावना से कैसे निपटा जा सकता है? क्या सरकारें क्रिप्टोग्राफी और ब्लॉक चेन तकनीक को लागू करके केंद्रीकृत पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली को मज़बूत कर सकती हैं? लेख के अगले भाग में ऐसे ही कुछ मुद्दों पर चर्चा की जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डबल्यूएचओ कर्मचारियों पर यौन उत्पीड़न का आरोप

हाल ही में एक स्वतंत्र आयोग ने डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में एबोला प्रकोप के दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन के कर्मचारियों पर यौन उत्पीड़न और शोषण सम्बंधी मामलों पर अपनी अंतिम रिपोर्ट जारी की है। इनमें मुख्य रूप से नौकरियों और अन्य संसाधनों के बदले सेक्स की मांग और नौ बलात्कार के मामलों का उल्लेख है।

इन मामलों में संगठन द्वारा नियुक्त अल्पकालिक ठेकेदारों से लेकर उच्च प्रशिक्षित अंतर्राष्ट्रीय स्तर के 21 पुरुष कर्मचारियों पर आरोप लगाए गए हैं। ये आरोप डबल्यूएचओ की इमानदारी, विश्वास और प्रबंधन पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं।

इस तरह की घटनाओं से पता चलता है कि कम आय वाले देशों में आपातकाल के दौरान भी सत्ता और संसाधनों से लैस पुरुषों ने कमज़ोर वर्ग की महिलाओं और लड़कियों का जमकर शोषण किया है। संगठन जिन लोगों की हिफाज़त करना चाहता है उनके साथ ऐसा सलूक लचर प्रशासन का परिणाम है।            

इस रिपोर्ट में संगठन की संरचनात्मक विफलताओं का भी वर्णन किया गया है। गौरतलब है कि डबल्यूएचओ में नियम है कि किसी भी शिकायत को लिखित में दर्ज करना अनिवार्य है। यह कम पढ़े-लिखे लोगों के साथ स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण है। इसके अतिरिक्त, कई मामलों में जांच को इसलिए आगे नहीं बढ़ाया गया क्योंकि आरोप लगाने वाले व्यक्ति और डबल्यूएचओ कर्मचारी के बीच “सुलह” हो गई थी। अत्यधिक दबाव के बावजूद जो महिलाएं और लड़कियां आगे आती हैं उनकी शिकायतों पर विश्वास करके पूरी पारदर्शिता के साथ उचित प्रक्रिया लागू करने की आवश्यकता है। ऐसे मामलों को उठाने वालों को भी संगठन द्वारा पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाना चाहिए।     

देखा जाए तो मानवीय कार्यों के दौरान इस तरह के मामले अन्यत्र भी हुए हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इन्हें स्वाभाविक मान लिया जाए। हैटी में ऑक्सफेम और मध्य अफ्रीकी गणराज्य में संयुक्त राज्य के मानवीय मिशन में ऐसी समस्याएं देखी गई हैं। दरअसल, इन संगठनों को अपने कार्यस्थलों में विषैले और महिला-द्वैषी पहलुओं का सामना करने और संरचनात्मक स्तर पर बदलाव करने की आवश्यकता है। 

डीआरसी में दसवीं एबोला महामारी से एक महत्वपूर्ण सबक यह मिला है कि चाहे कितने भी तकनीकी संसाधन उपलब्ध क्यों न हों, समुदाय के विश्वास के बिना कोई भी परियोजना सफल नहीं हो सकती। इस घटना के बाद से लोगों ने टीकाकरण से इन्कार कर दिया, और उपचार केंद्रों पर हमला भी हुए। स्वास्थ्य कर्मियों के खिलाफ हिंसा या धमकियों के 450 मामले सामने आए। इसके अलावा 25 स्वास्थ्य कर्मियों की हत्या और 27 अन्य का अपहरण कर लिया गया। रिपोर्ट में दर्ज की गई शोषण की घटनाएं समुदाय के विश्वास को नष्ट कर देती हैं। ऐसे देशों में सदियों के औपनिवेशक शोषण के बाद पहले से ही अविश्वास व्याप्त है, और इन घटनाओं से डबल्यूएचओ अपने कर्मचारियों को और अपने मिशन को खतरे में डाल रहा है।

इन आरोपों पर डबल्यूएचओ की प्रतिक्रिया काफी देर से आई। वीमन इन ग्लोबल हेल्थ की कार्यकारी निर्देशक डॉ. रूपा धत्त बताती हैं कि डबल्यूएचओ के एबोला कार्यक्रम के 2800 कर्मचारियों में से 73 प्रतिशत पुरुष थे और उनमें से 77 प्रतिशत पुरुष प्रमुख पदों पर थे। यदि पुरुषों की तुलना में महिला कर्मचारियों की संख्या अधिक होती और वे प्रमुख पदों पर होतीं परिणाम अलग हो सकते थे। इसके लिए डबल्यूएचओ के सभी कार्यक्रमों में जेंडर-संतुलन बहुत आवश्यक है। शक्तिशाली पुरुषों के रहमोकरम पर कमज़ोर महिलाओं और लड़कियों का शोषण मानवीय मिशन को क्षति पहुंचा सकता है।   हालांकि, इस घटना के बाद से डबल्यूएचओ के नेतृत्व ने यौन शोषण और दुर्व्यवहार को बरदाश्त न करने और दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई करने पर ज़ोर दिया है ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोका जा सके। लेकिन इसका सही आकलन तो तभी हो पाएगा जब इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महिला चिकित्सा शोधकर्ताओं को कम मान्यता

हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि महिला शोधकर्ताओं द्वारा शीर्ष चिकित्सा जर्नल्स में प्रकाशित किए गए काम को पुरुष शोधकर्ता द्वारा प्रकाशित किए गए उसी गुणवत्ता के काम की तुलना में काफी कम उल्लेख मिलते हैं।

JAMA नेटवर्क ओपन में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजे शीर्ष चिकित्सा पत्रिकाओं में वर्ष 2015 और 2018 के बीच प्रकाशित 5,500 से अधिक शोधपत्रों के उल्लेख डैटा के विश्लेषण के आधार पर निकाले गए हैं। ‘उल्लेख’ से आशय है कि किसी शोध पत्र का उल्लेख कितने अन्य शोधपत्रों में किया गया।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि अन्य विषयों में पुरुष लेखकों के आलेखों को महिला लेखकों के आलेखों की तुलना में अधिक उल्लेख मिलते हैं। कुछ लोगों का तर्क रहा है कि इसका कारण है कि पुरुष शोधकर्ताओं का काम अधिक गुणवत्तापूर्ण और अधिक प्रभावी होता है। पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय की पाउला चटर्जी इसे परखना चाहती थीं। उन्होंने देखा था कि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बावजूद भी महिलाओं के काम को पुरुषों के समतुल्य काम की तुलना में कम उल्लेख मिले थे। इसलिए चटर्जी और उनके साथियों ने 6 जर्नल्स में प्रकाशित 5554 लेखों का विश्लेषण किया – एनल्स ऑफ इंटरनल मेडिसिन, ब्रिटिश मेडिकल जर्नल, जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन, जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन-इंटर्नल मेडिसिन और दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन। उन्होंने एक ऑनलाइन डैटाबेस की मदद से प्रत्येक शोधपत्र के प्रथम और वरिष्ठ लेखकों के लिंग की पहचान की। उन्होंने पाया कि इन शोधपत्रों में सिर्फ 36 प्रतिशत प्रथम लेखक महिला और 26 प्रतिशत वरिष्ठ लेखक महिला थीं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रत्येक शोधपत्र को मिले उल्लेखों की संख्या का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि जिन शोधपत्रों की प्रथम लेखक महिला थी उन शोधपत्रों को पुरुष प्रथम लेखक वाले शोधपत्रों की तुलना में एक तिहाई कम उल्लेख मिले थे; जिन शोधपत्रों की वरिष्ठ लेखक महिला थी उन शोधपत्रों को पुरुष वरिष्ठ लेखक वाले शोधपत्रों की तुलना में एक-चौथाई कम उल्लेख मिले थे। और तो और, जिन शोधपत्रों में प्राथमिक और वरिष्ठ दोनों लेखक महिलाए थीं, उन्हें दोनों लेखक पुरुष वाले शोधपत्रों की तुलना में आधे ही उल्लेख मिले थे।

ये निष्कर्ष महिला शोधकर्ताओं की करियर प्रगति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। माना जाता है कि किसी शोधपत्र को जितने अधिक उल्लेख मिलते हैं वह उतना ही महत्वपूर्ण है। विश्वविद्यालय और वित्तदाता अक्सर शोध के लिए वित्त या अनुदान देते समय, या नियुक्ति और प्रमोशन के समय भी उल्लेखों को महत्व देते हैं।

चटर्जी को लगता है कि ये पूर्वाग्रह इरादतन हैं। और इस असमानता का सबसे संभावित कारण है कि चिकित्सा क्षेत्र में पुरुष और महिलाएं असमान रूप से नज़र आते हैं। जैसे, वैज्ञानिक और चिकित्सा सम्मेलनों में वक्ता के तौर पर पुरुष शोधकर्ताओं को समकक्ष महिला शोधकर्ताओं की तुलना में अधिक आमंत्रित जाता है। सोशल मीडिया पर पुरुष शोधकर्ता समकक्ष महिला शोधकर्ता की तुलना में खुद के काम को अधिक बढ़ावा देते हैं। इसके अलावा, महिला शोधकर्ताओं का पुरुषों की तुलना में पेशेवर सामाजिक नेटवर्क छोटा होता है। नतीजतन, जब उल्लेख की बारी आती है तो पुरुष लेखकों काम याद रहने या सामने आने की संभावना बढ़ जाती है।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि इसमें और भी कई कारक भूमिका निभाते हैं। जैसे, महिलाओं की तुलना में पुरुष शोधकर्ता स्वयं के शोधपत्रों का हवाला अधिक देते हैं। 2019 में हुए एक अध्ययन में पाया गया था कि पुरुष लेखक अपने काम के लिए ‘नवीन’ और ‘आशाजनक’ जैसे विशेषणों का उपयोग ज़्यादा करते हैं, जिससे अन्य शोधकर्ताओं द्वारा उल्लेख संभावना बढ़ जाती है।

इसके अलावा, अदृश्य पूर्वाग्रह की भी भूमिका है। जैसे, लोग महिला वक्ता को सुनने के लिए कम जाते हैं, या उनके काम को कमतर महत्व देते हैं। जिसका मतलब है कि वे अपना शोधपत्र तैयार करते समय महिलाओं के काम को याद नहीं करते। इसके अलावा, पत्रिकाएं और संस्थान भी महिला लेखकों के काम को बढ़ावा देने के लिए उतने संसाधन नहीं लगाते। एक शोध में पाया गया था कि चिकित्सा संगठनों के न्यूज़लेटर्स में महिला वैज्ञानिकों के काम का उल्लेख कम किया जाता है या उन्हें कम मान्यता दी जाती है। इसी कारण महिलाएं इन क्षेत्रों में कम दिखती हैं।

अगर महिलाओं के उच्च गुणवत्ता वाले काम का ज़िक्र कम किया जाता है, तो यह लैंगिक असमानता को आगे बढ़ाता है। जिनके काम को बढ़ावा मिलेगा, वे अपने क्षेत्र के अग्रणी बनेंगे यानी उनके काम को अन्य की तुलना में अधिक उद्धृत किया जाएगा और यह दुष्चक्र ऐसे ही चलता रहेगा।

इस स्थिति से उबरने के लिए चिकित्सा संगठनों द्वारा सम्मेलनों में महिला वक्ताओं को आमंत्रित किया जा सकता है। इसके अलावा फंडिंग एजेंसियां यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि स्त्री रोग जैसे जिन क्षेत्रों में उल्लेखनीय रूप से महिला शोधकर्ता अधिक हैं उनमें उतना ही वित्त मिले जितना पुरुषों की अधिकता वाले क्षेत्रों में मिलता है।

खुशी की बात है कि चिकित्सा प्रकाशन में लैंगिक अंतर कम हो रहा है। 1994-2014 के दरम्यान चिकित्सा पत्रिकाओं में महिला प्रमुख शोध पत्रों का प्रतिशत 27 से बढ़कर 37 हो गया। सम्मेलनों में भी महिला वक्ता अधिक दिखने लगी हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जनसंख्या वृद्धि दर घट रही है – सोमेश केलकर

र्ष 1951 की जनगणना में भारत की जनसंख्या 36.1 करोड़ थी। वर्ष 2011 में हम 1.21 अरब लोगों की शक्ति बन गए। भारत की जनसंख्या में तथाकथित ‘जनसंख्या विस्फोट’ से कई समस्याएं बढ़ीं – जैसे बेरोज़गारी जो कई पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी हमारे साथ है, गरीबी, संसाधनों की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं व उनकी उपलब्धता में कमी।

हालांकि, कुछ राहत देने वाली खबर भी है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोश द्वारा जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2010-2019 के दौरान भारत की जनसंख्या वृद्धि दर काफी धीमी पड़ी है। रिपोर्ट के अनुसार, 2001-2011 के दशक की तुलना में 2010-2019 के दशक में भारत की जनसंख्या वृद्धि 0.4 अंक कम होने की संभावना है। 2011 की जनगणना के अनुसार 2001-2011 के बीच औसत वार्षिक वृद्धि दर 1.64 प्रतिशत थी।

रिपोर्ट आगे बताती है कि अब अधिक भारतीय महिलाएं जन्म नियंत्रण के लिए गर्भ निरोधक उपयोग कर रही हैं और परिवार नियोजन के आधुनिक तरीके अपना रही हैं, जो इस बात का संकेत भी देता है कि पिछले दशक में महिलाओं की अपने शरीर पर स्वायत्तता बढ़ी है और महिलाओं द्वारा अपने प्रजनन अधिकार हासिल करने में वृद्धि हुई है। हालांकि, बाल विवाह की समस्या अब भी बनी हुई है और ऐसे विवाहों की संख्या बढ़ी है।

2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1.21 अरब थी और 2036 तक इसमें 31.1 करोड़ का इजाफा हो जाएगा। अर्थात 2031 में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश हो जाएगा। यह पड़ाव संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अनुमान (वर्ष 2022) की तुलना में लगभग एक दशक देर से आएगा।

तेज़ गिरावट

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि कई प्रांतों की जनसंख्या वृद्धि दर प्रतिस्थापन-स्तर तक पहुंच गई है, हालांकि कुछ उत्तरी प्रांत अपवाद हैं। प्रतिस्थापन-स्तर से तात्पर्य है कि जन्म दर इतनी हो कि वह मृतकों की क्षतिपूर्ति कर दे।

जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट पहले लगाए गए अनुमानों की तुलना में अधिक तेज़ी से हो रही है। जनांकिकीविदों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जनसंख्या वृद्धि अब योजनाकारों के लिए कोई गंभीर समस्या नहीं रह गई है। हालांकि, भारत के संदर्भ में बात इतनी सीधी नहीं है। उत्तर और दक्षिण में जनसंख्या वृद्धि दर में असमान कमी आई है। यदि यही रुझान जारी रहा तो कुछ जगहों पर श्रमिकों की कमी हो सकती है और इस कमी की भरपाई के लिए अन्य जगहों से प्रवासन हो सकता है।

विषमता

उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के सरकारी आंकड़ों को देखें तो इन राज्यों की औसत प्रजनन दर 3 से अधिक है, जो दर्शाती है कि सरकार के सामने यह अब भी एक चुनौती है। पूरे देश की तुलना में इन राज्यों में स्थिति काफी चिंताजनक है – देश की औसत प्रजनन दर लगभग 2.3 है जो आदर्श प्रतिस्थापन दर (2.1) के लगभग बराबर है।

संयुक्त राष्ट्र की पिछली रिपोर्ट में महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश वे राज्य हैं जिनकी प्रजनन दर आदर्श प्रतिस्थापन प्रजनन दर से बहुत कम हो चुकी है।

विकास अर्थशास्त्री ए. के. शिव कुमार बताते हैं कि विषम आंकड़ों वाले राज्यों में भी प्रजनन दर में कमी आ रही है, हालांकि इसके कम होने की रफ्तार उतनी अधिक नहीं है। इसका कारण है कि इन राज्यों में महिलाओं को पर्याप्त प्रजनन अधिकार और अपने शरीर पर स्वायत्तता हासिल नहीं हुई है। महिलाओं पर संभवत: समाज, माता-पिता, ससुराल और जीवन साथी की ओर से बच्चे पैदा करने का दबाव भी पड़ता है।

रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत की दो-तिहाई से अधिक आबादी कामकाजी आयु वर्ग (15-64 वर्ष) की है। एक चौथाई से अधिक आबादी 0-14 आयु वर्ग की है और लगभग 6 प्रतिशत आबादी 65 से अधिक उम्र के लोगों की है। अर्थशास्त्रियों का मत है कि यदि भारत इस जनांकिक वितरण का लाभ उठाना चाहता है तो उसे अभी से ही शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बहुत कुछ करना होगा।

जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट

राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग द्वारा प्रकाशित जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट बताती है कि

  • वर्ष 2011-2036 के दौरान भारत की जनसंख्या 2011 की जनसंख्या से 25 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है, यानी 36.1 करोड़ की वृद्धि के साथ यह लगभग 1.6 अरब होने की संभावना है
  • भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 2011-2021 के दशक में सबसे कम (12.5 प्रतिशत प्रति दशक) रहने की उम्मीद है। रिपोर्ट के अनुसार 2021-2031 के दशक में भी यह गिरावट जारी रहेगी और जनसंख्या वृद्धि दर 8.4 प्रतिशत प्रति दशक रह जाएगी।
  • इन अनुमानों के हिसाब से भारत दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश चीन से आगे निकल जाएगा। यदि इन अनुमानों की मानें तो यह स्थिति संयुक्त राष्ट्र के अनुमानित वर्ष 2022 के लगभग एक दशक बाद बनेगी।

शहरी आबादी में वृद्धि

जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट में भारत की शहरी आबादी में वृद्धि का दावा भी किया गया है। जबकि वास्तविकता कुछ और ही है, और यह इससे स्पष्ट होती है कि हम शहरी आबादी किसे कहते हैं। जिस तरह दुनिया भर की सरकारें गरीबी में कमी दिखाने के लिए गरीबी कम करने के उपाय अपनाने की बजाय परिभाषाओं में हेरफेर का सहारा लेती रही हैं, यहां भी ऐसा ही कुछ मामला लगता है।

रिपोर्ट का अनुमान है कि लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि ग्रामीण क्षेत्रों में होगी। 2036 में भारत की शहरी आबादी 37.7 करोड़ से बढ़कर 59.4 करोड़ हो जाएगी। यानी 2011 में जो शहरी आबादी 31 प्रतिशत थी, 2036 में वह बढ़कर 39 प्रतिशत हो जाएगी। ग्रामीण से शहरी आबादी में बदलाव सबसे नाटकीय ढंग से केरल में दिखेगा। वर्ष 2036 तक यहां 92 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही होगी। जबकि 2011-2015 में यह सिर्फ 52 प्रतिशत थी।

तकनीकी समूह के सदस्य और वर्तमान में नई दिल्ली में विकासशील देशों के लिए अनुसंधान और सूचना प्रणाली से जुड़े अमिताभ कुंडु के अनुसार केरल में यह बदलाव वास्तव में अनुमान लगाने के लिए उपयोग किए गए तरीकों के कारण दिखेगा।

2001 से 2011 के बीच केरल में हुए ग्रामीण क्षेत्रों के शहरी क्षेत्र में पुन:वर्गीकरण के चलते केरल में कस्बों की संख्या 159 से बढ़कर 520 हो गई। इस तरह वर्ष 2001 में केरल का 26 प्रतिशत शहरी क्षेत्र, 2011 में बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया। यानी केरल में 2001-2011 के बीच शहरी आबादी में वृद्धि दर में बदलाव नए तरह से वर्गीकरण के कारण दिखा, ना कि ज़बरदस्त विकास के कारण। इन्हीं नई परिभाषाओं का उपयोग वर्ष 2036 के लिए जनसंख्या वृद्धि का अनुमान लगाने में किया गया है, जो इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर सवाल उठाता है। रिपोर्ट मानकर चलती है कि भारत के सभी राज्य जनसंख्या गणना के लिए वर्तमान परिभाषा और वर्गीकरण का उपयोग करेंगे। लेकिन ऐसा करेंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है क्योंकि यह पक्के तौर पर नहीं बताया जा सकता कि भविष्य में पुन:वर्गीकरण या पुन:परिभाषित किया जाएगा या नहीं। यदि पुन:वर्गीकरण या पुन:परिभाषित किया गया तो जनसंख्या के आंकड़े और इसे मापने के हमारे तरीके बदल जाएंगे।

प्रवासन की भूमिका

भारत के जनसांख्यिकीय परिवर्तन में प्रवासन की भी भूमिका है। अनुमान लगाने में उपयोग किए गए कोहोर्ट कंपोनेंट मॉडल में प्रजनन दर, मृत्यु दर और प्रवासन दर को शामिल किया गया है। जबकि ‘अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन’ को नगण्य मानते हुए शामिल नहीं किया गया है। अनुमान के लिए 2001-2011 के दशक का अंतर्राज्यीय प्रवासन डैटा लिया गया है और माना गया है कि अनुमानित वर्ष के लिए राज्यों के बीच प्रवासन दर अपरिवर्तित रहेगी।

इस अवधि में, उत्तर प्रदेश और बिहार से लोगों का प्रवासन सर्वाधिक हुआ, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली में प्रवास करके लोग आए।

जनसंख्या वृद्धि में अंतर

यदि उत्तर प्रदेश एक स्वतंत्र देश होता तो यह विश्व का आठवां सबसे अधिक आबादी वाला देश होता। 2011 में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19.9 करोड़ थी जो वर्ष 2036 में बढ़कर 25.8 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी – यानी आबादी में लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि होगी।

बिहार की जनसंख्या को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बिहार जनसंख्या वृद्धि दर के मामले में उत्तर प्रदेश को भी पछाड़ सकता है। 2011 में बिहार की जनसंख्या 10.4 करोड़ थी, और अनुमान है कि लगभग 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी के बाद वर्ष 2036 में यह 14.8 करोड़ हो जाएगी। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि 2011-2036 के बीच भारत की जनसंख्या वृद्धि में 54 प्रतिशत योगदान पांच राज्यों – उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश का होगा। वहीं दूसरी ओर, पांच दक्षिणी राज्य – केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु का कुल जनसंख्या वृद्धि में योगदान केवल नौ प्रतिशत होगा। उपरोक्त सभी दक्षिणी राज्यों की कुल जनसंख्या वृद्धि 2.9 करोड़ होगी जो सिर्फ उत्तर प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि की आधी है।

घटती प्रजनन दर

उत्तर प्रदेश और बिहार सर्वाधिक कुल प्रजनन दर वाले राज्य हैं। कुल प्रजनन दर यानी प्रत्येक महिला से पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या। 2011 में उत्तर प्रदेश और बिहार की कुल प्रजनन दर क्रमश: 3.5 और 3.7 थी। ये भारत की कुल प्रजनन दर 2.5 से काफी अधिक थीं। जबकि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों की कुल प्रजनन दर 2 से कम थी। यदि वर्तमान रफ्तार से कुल प्रजनन दर कम होती रही तो अनुमान है कि 2011-2036 के दशक में भारत की कुल प्रजनन दर 1.73 हो जाएगी। और, 2035 तक बिहार ऐसा एकमात्र राज्य होगा जिसकी कुल प्रजनन दर 2 से अधिक (2.38) होगी।

वर्ष 2011 में मध्यमान आयु 24.9 वर्ष थी। प्रजनन दर में गिरावट के कारण वर्ष 2036 तक यह बढ़कर 35.5 वर्ष हो जाएगी। भारत में, जन्म के समय जीवन प्रत्याशा लड़कों के लिए 66 और लड़कियों के लिए 69 वर्ष थी, जो बढ़कर क्रमश: 71 और 74 वर्ष होने की उम्मीद है। इस मामले में भी केरल के शीर्ष पर होने की उम्मीद है। यह जन्म के समय लड़कियों की 80 से अधिक और लड़कों की 74 वर्ष से अधिक जीवन प्रत्याशा वाला एकमात्र भारतीय राज्य होगा। 2011 की तुलना में 2036 में स्त्री-पुरुष अनुपात में भी सुधार होने की संभावना है। 2036 तक यह वर्तमान प्रति 1000 पुरुष पर 943 महिलाओं से बढ़कर 952 हो जाएगा। 2036 तक कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक होने की संभावना है।

श्रम शक्ति पर प्रभाव

दोनों रिपोर्ट देखकर यह स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे देश की औसत आयु बढ़ेगी, वैसे-वैसे देश चलाने वाले लोगों की ज़रूरतें भी बढ़ेंगी। चूंकि अधिकांश श्रमिक आबादी 30-40 वर्ष की आयु वर्ग की होगी इसलिए संघर्षण दर (एट्रीशन रेट) में गिरावट देखी जा सकती है; यह उम्र आम तौर पर ऐसी उम्र होती है जब लोगों पर पारिवारिक दायित्व होते हैं और इसलिए वे जिस नौकरी में हैं उसी में बने रहना चाहते हैं और जीवन में स्थिरता चाहते हैं। उनकी स्वास्थ्य सम्बंधी ज़रूरतों में भी देश में बदलाव दिखने की संभावना है।

जनसंख्या में असमान वृद्धि के कारण श्रमिकों की अधिकता वाले राज्यों से श्रमिकों का प्रवासन श्रमिकों की कमी वाले राज्यों की ओर होने की संभावना है। यदि राज्य अभी से स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा पर अपना खर्च बढ़ा दें तो राज्यों के पास नवजात बच्चों के लिए एक सुदृढ़ सरकारी बुनियादी ढांचा होगा, जो भविष्य में इन्हें कुशल कामगार बना सकता है और राज्य अपने मानव संसाधन का अधिक से अधिक लाभ उठा सकते हैं। अकुशल श्रमिक की तुलना में एक कुशल श्रमिक का अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक योगदान होता है।

स्वास्थ्य सुविधाओं पर प्रभाव

अगर अनुमानों की मानें तो देश में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या में वृद्धि भी देश की स्वास्थ्य सम्बंधी प्राथमिकताओं को प्रभावित कर सकती है और उसे बदल भी सकती है। जब किसी देश में प्रजनन दर में कमी के साथ-साथ जीवन प्रत्याशा बढ़ती है, तो जनसांख्यिकीय औसत आयु बढ़ती है। यानी देश की स्वास्थ्य सम्बंधी प्राथमिकताएं तेज़ी से बदलेंगी। वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बढ़ने के चलते बुज़ुर्गों के लिए सार्वजनिक व्यय बढ़ाने की ज़रूरत पड़ भी सकती है और नहीं भी। यह इस बात पर निर्भर होगा कि देश की सार्वजनिक पूंजी और सामाजिक कल्याण, और समाज के लिए इनकी उपलब्धता और पहुंच की स्थिति क्या है।

आज़ादी के समय से ही भारत में असमान आय, स्वास्थ्य देखभाल की उपलब्धता और पहुंच की कमी जैसी समस्याएं बनी हुई हैं, भविष्य में भी ये चुनौतियां बढ़ेंगी। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकार यदि अभी से ही स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय और निवेश में वृद्धि नहीं करती तो आने वाले दशकों में स्वास्थ्य सेवा पर सार्वजनिक खर्च सरकार के लिए बोझ बन सकता है। और भविष्य में हमें अधिक प्रवासन झेलना पड़ेगा, सेवानिवृत्ति की आयु में बहुत अधिक वृद्धि होगी और बुज़ुर्गों की देखभाल में लगने वाले सार्वजनिक खर्च जुटाने के उपाय खोजने पड़ेंगे।

जनसंख्या नियंत्रण नीतियां

पिछले कुछ समय में जनसंख्या नियंत्रण जैसी बातें भी सामने आई हैं। इसमें असम और उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने दो बच्चों की नीति को बढ़ावा देने वाले प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण विधेयक का एक मसौदा जारी किया है। इसका उल्लंघन करने का मतलब होगा कि उल्लंघनकर्ता स्थानीय चुनाव लड़ने, सरकारी नौकरियों में आवेदन करने या किसी भी तरह की सरकारी सब्सिडी प्राप्त करने से वंचित कर दिया जाएगा। असम में यह कानून पहले से ही लागू है और उत्तर प्रदेश यह कानून लागू करने वाला दूसरा राज्य होगा।

ये प्रावधान ‘उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) विधेयक, 2021’ नामक मसौदे का हिस्सा हैं। विधेयक का उद्देश्य न केवल लोगों को दो से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए दंडित करना है, बल्कि निरोध (कंडोम) और गर्भ निरोधकों के मुफ्त वितरण के माध्यम से परिवार नियोजन के बारे में जागरूकता बढ़ाना और गैर-सरकारी संगठनों की मदद से छोटे परिवार के महत्व और लाभ समझाना भी है।

सरकार सभी माध्यमिक विद्यालयों में जनसंख्या नियंत्रण सम्बंधी विषय अनिवार्य रूप से शामिल करना चाहती है। दो बच्चों का नियम लागू कर सरकार जनसंख्या नियंत्रण के प्रयासों को फिर गति देना चाहती है और इसे नियंत्रित और स्थिर करना चाहती है।

दो बच्चों के नियम को मानने वाले वाले लोक सेवकों को प्रोत्साहित भी किया जाएगा। मसौदा विधेयक के अनुसार दो बच्चे के मानदंड को मानने वाले लोक सेवकों को पूरी सेवा में दो अतिरिक्त वेतन वृद्धि मिलेगी, पूर्ण वेतन और भत्तों के साथ 12 महीनों का मातृत्व या पितृत्व अवकाश दिया जाएगा, और राष्ट्रीय पेंशन योजना के तहत नियोक्ता अंशदान निधि में तीन प्रतिशत की वृद्धि की जाएगी।

कागज़ों में तो यह अधिनियम ठीक ही नज़र आता है, लेकिन वास्तव में इसमें कई समस्याएं हैं। विशेषज्ञों का दावा है कि ये जबरन की नीतियां लाने से जन्म दर कम करने पर वांछित प्रभाव नहीं पड़ेगा।

चीन ने हाल ही में अपनी दो बच्चों की नीति में संशोधन किया है। और पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने एक बयान जारी कर कहा है कि भारत को चीन की इस जबरन की नीति की विफलता से सबक लेना चाहिए। धर्म प्रजनन स्तर में बहुत कम बदलाव लाएगा। वास्तविक बदलाव तो ‘शिक्षा, रोज़गार के अवसर और गर्भ निरोधकों की उपलब्धता और उन तक पहुंच’ से निर्धारित होगा।

जनसंख्या नियंत्रण नीति की कुछ अंतर्निहित समस्याएं भी हैं। यह तो सब जानते हैं कि भारत में लड़का पैदा करने पर ज़ोर रहता है। लड़के की उम्मीद में कभी-कभी कई लड़कियां होती जाती हैं। लोग इस तथ्य को पूरी तरह नज़अंदाज़ कर देते हैं कि प्रत्येक अतिरिक्त बच्चा घर का खर्चा बढ़ाता है। दो बच्चों की नीति से लिंग चयन और अवैध गर्भपात में वृद्धि हो सकती है, जिससे महिला-पुरुष अनुपात और कम हो सकता है।

विधेयक में बलात्कार या अनाचार से, या शादी के बिना, या किशोरावस्था में हुए गर्भधारण से पैदा हुए बच्चों के लिए कोई जगह नहीं है। कई बार या तो बलात्कार के कारण, या किसी एक या दोनों पक्षों की लापरवाही के कारण, या नादानी में गर्भ ठहर जाता है। इस नियम के अनुसार दो से अधिक बच्चों वाली महिला सरकारी नौकरी से या स्थानीय चुनाव लड़ने के अवसर से वंचित कर दी जाएगी, जो कि अनुचित है क्योंकि काफी संभावना है कि उसके साथ बलात्कार हुआ हो और इस कारण तीसरा बच्चा हुआ हो।

इस तरह के विधेयक के साथ एक वैचारिक समस्या भी है। क्या सरकार उसे सत्ता में लाने वाली अपनी जनता पर यह नियंत्रण रखना चाहती है कि वे कितने बच्चे पैदा कर सकते हैं? स्वतंत्रता के बाद से भारत में, एक परिवार में बच्चों की औसत संख्या में लगातार कमी आई है। इसमें कमी लाने के लिए हमें किसी जनसंख्या नियंत्रण कानून की आवश्यकता नहीं है। विकास, परिवार नियोजन की जागरूकता और एक प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीति ने अब तक काम किया है, न कि तानाशाही नीति ने। रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में 2011 से 2021 के दौरान प्रजनन दर में कमी आई है, और यह कमी तब आई है जब हमारे पास सिर्फ प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीतियां थीं। हमें अपने आप से यह सवाल करने की ज़रूरत है कि उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित सख्त सत्तावादी नीति की क्या वास्तव में हमें आवश्यकता है? भले ही हमें गुमराह करने का प्रयास हमारी धार्मिक पहचान के आधार पर किया गया हो – जैसे ‘बिल का उद्देश्य विभिन्न समुदायों की आबादी के बीच संतुलन स्थापित करना है’ – हमें इस तरह के कानून की उपयोगिता पर ध्यान देना चाहिए और देखना चाहिए कि क्या वास्तव में यह जनसंख्या को नियंत्रित करने में मदद करेगा, न कि हमारी धार्मिक पहचान को हमारे तर्कसंगत निर्णय पर हावी होने देना चाहिए।

निष्कर्ष

विभिन्न जनसंख्या रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि हमारी जनसंख्या वृद्धि दर में काफी कमी आई है, जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है, आबादी में बुज़ुर्गों की संख्या बढ़ने वाली है और राज्य स्तर पर श्रमिकों का प्रवासन हो सकता है। एक राष्ट्र के रूप में हमें भविष्य के लिए एक सुदृढ़ स्वास्थ्य ढांचे के साथ तैयार रहना चाहिए। बेहतर शिक्षा उपलब्ध करवाकर नवजात शिशु को भविष्य के कुशल मानव संसाधन बनाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें अगले दशक के लिए यह सुनिश्चित करने वाली एक व्यापक और विस्तृत योजना बनानी चाहिए कि प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर तक पहुंच जाए और उसी स्तर पर बनी रहे। विकास, परिवार नियोजन पर जागरूकता बढ़ाने, राष्ट्र की औसत साक्षरता दर बढ़ाने, स्वास्थ्य सेवा को वहनीय, सुलभ बनाने व उपलब्ध कराने, और बेरोज़गारी कम करने के लिए भी निवेश योजना की आवश्यकता है। ये सभी कारक जनसंख्या नियंत्रण में सीधे-सीधे योगदान देते हैं। लेकिन, जिस तरह की स्थितियां बनी हुई हैं उससे इस कानून के लागू होने की संभावना लगती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अपने उपकरण की मरम्मत का अधिकार – सोमेश केलकर

प जब कुछ खरीदते हैं तो क्या वास्तव में आप उसके मालिक होते हैं? क्या कोई और यह तय कर सकता है या करना चाहिए कि आपके अपने पैसों से खरीदी चीज़ के साथ आप क्या करें और क्या नहीं?

खुदा-ना-ख्वास्ता आपके मोबाइल फोन की स्क्रीन टूट जाती है, तो क्या यह चुनाव आपका नहीं होना चाहिए कि इसकी नई स्क्रीन आप कहां से खरीदेंगे/लगवाएंगे या आप खुद ही इसकी मरम्मत करना चाहेंगे? आजकल निर्माता ऐसे प्रयास कर रहे हैं कि उपयोगकर्ता के लिए खुद किसी वस्तु को सुधारना मुश्किल हो। यदि आप अपने ही मोबाइल फोन्स पर गौर करें तो पाएंगे कि कुछ समय पहले तक आपके पास ऐसा मोबाइल फोन हुआ करता था जिसकी बैटरी आप खुद बदल सकते थे, लेकिन स्मार्टफोन की बैटरी एक औसत उपयोगकर्ता की पहुंच में नहीं होती। इसी बिंदु पर मरम्मत का अधिकार (राइट टू रिपेयर) की भूमिका शुरू होती है।

मरम्मत का अधिकार

अमरीका में प्रस्तावित कानून उपभोक्ताओं को अपनी वस्तुओं में बदलाव करने और मरम्मत करने की अनुमति देगा, जबकि उपकरण निर्माता चाहते हैं कि उपभोक्ता सिर्फ उनके द्वारा पेश की गई सेवाओं का उपयोग करें। उपभोक्ताओं के इसी अधिकार को मरम्मत का अधिकार कहा जा रहा है। हालांकि मरम्मत का अधिकार एक वैश्विक चिंता का विषय है, लेकिन फिलहाल यह मुद्दा यूएसए और युरोपीय संघ में केंद्रित है।

सांसद जोसेफ मोरेल ने जून में संसद के समक्ष मरम्मत के अधिकार का राष्ट्रीय विधेयक पेश किया। इसे फेयर रिपेयर एक्ट (उचित मरम्मत कानून) कहा जा रहा है। इसके तहत निर्माताओं को उपकरण मालिकों और स्वतंत्र रूप से मरम्मत करने वालों के लिए मरम्मत के औज़ार या साधन, पुर्ज़े और सुधारने के तरीकों की जानकारी उपलब्ध करानी होगी। विधेयक पारित हो गया तो कोई भी व्यक्ति अपने उपकरण की स्वयं मरम्मत कर/करवा सकेगा। किसान अपने ट्रैक्टर की स्वयं मरम्मत कर सकेंगे, और न्यूयॉर्क निवासी अपने इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण आसानी से सुधार सकेंगे।

मरम्मत के अधिकार के कई उद्देश्यों में से एक है कि निर्माताओं द्वारा योजनाबद्ध तरीके से उत्पाद या उपकरणों को चलन से बाहर करने की रणनीति के विरुद्ध लड़ना। यह रणनीति 1954 में अमेरिकी औद्योगिक डिज़ाइनर ब्रूक्स स्टीवंस ने बिक्री बढ़ाने के लिए सुझाई थी। इसमें कहा गया था कि उत्पाद के पूर्णत: कंडम हो जाने (या अपने उपयोगी जीवनकाल) के पहले ही उसे योजनाबद्ध तरीके से चलन से बाहर कर दिया जाए ताकि उपभोक्ताओं को बार-बार उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर करके आर्थिक विकास दर को बढ़ाया जा सके।

अतीत में भी निम्न गुणवत्ता वाले टंगस्टन बल्ब बनाकर उपभक्ताओं को बारंबार खरीद के लिए मजबूर किया जा चुका है, जबकि निर्माताओं के पास ऐसे बल्ब बनाने की तकनीक थी जिससे बल्ब बरसों चलता। और तो और, इस रणनीति के समर्थकों और निर्माताओं ने टिकाऊ बल्ब बनाने वाले निर्माताओं को दंडित तक किया।

वैसे मरम्मत का अधिकार शब्द थोड़ा भ्रामक है। वर्तमान में ऐसा कोई कानून नहीं है जो उपभोक्ता को अपनी चीज़ को खुद सुधारने का अधिकार देता हो या इस अधिकार से वंचित करता हो। मरम्मत का अधिकार उपभोक्ताओं द्वारा निर्माताओं के उन तौर-तरीकों खिलाफ छेड़ा गया एक आंदोलन है जो किसी वस्तु के सुधार कार्य को अनावश्यक ही मुश्किल बनाते हैं – चाहे उन सॉफ्टवेयर के माध्यम से जो किसी अन्य को मरम्मत करने की इज़ाजत नहीं देते या उपकरणों के पुर्ज़े बनाने वालों के साथ विशेष खरीद-अधिकार अनुबंध करके जो खुले बाज़ार में पुर्ज़ों की उपलब्धता रोक देते हैं या नियंत्रित करते हैं।

इसे मरम्मत का अधिकार कहने से कुछ गलतफहमियां भी पैदा हुई हैं। कुछ लोगों को लगता है कि मरम्मत के अधिकार का उद्देश्य किसी वस्तु की वारंटी की अवधि के बाद भी निर्माताओं को उस वस्तु की मरम्मत करने के लिए बाध्य करना है। ऐसा नहीं है। सरल शब्दों में, मरम्मत के अधिकार का उद्देश्य उपभोक्ता को अपने मुताबिक वस्तु को सुधारने/सुधरवाने का अधिकार देना है। उद्देश्य निर्माताओं के उन गलत तरीकों को रोकना है जिनसे निर्माता या तो विशेष मरम्मत की पेशकश कर, मरम्मत का अधिक शुल्क वसूल कर, उत्पाद को चलन से बाहर करने की योजना बनाकर, पुर्ज़ों के विशेष आपूर्ति अनुबंध करके या अन्य किसी माध्यम से उत्पादों की मरम्मत को मुश्किल बनाते हैं।

उल्लंघन के उदाहरण

हाल ही में नेब्रास्का के एक किसान ने जॉन डीरे के खिलाफ मुकदमा दायर किया। मुद्दा उसे उसके 8 लाख डॉलर के अत्याधुनिक ट्रैक्टर को सुधारने की इजाज़त न होने का था। फसल का मौसम था और ट्रैक्टर को मरम्मत के लिए कंपनी भेजकर वह कई हफ्ते इंतज़ार नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने ट्रैक्टर को स्वयं सुधारने की कोशिश की थी। कंपनी ने अपने बचाव में कहा कि जो सॉफ्टवेयर ट्रैक्टर को चलाता है उसमें सुरक्षा लॉक लगा है, और यह सुरक्षा की दृष्टि से किसी अन्य को मरम्मत नहीं करने देता। वैसे भी, ट्रैक्टर के सॉफ्टवेयर पर किसान का स्वामित्व नहीं है, उसे सिर्फ इसका उपयोग करने का लाइसेंस दिया गया है।

एक अन्य उदाहरण सॉफ्टवेयर संचालित इलेक्ट्रिक कारों के निर्माता टेस्ला का है। पूरे यूएसए में टेस्ला के अपने सुपरचार्ज स्टेशन हैं। ये सुपरचार्ज स्टेशन साधारण चार्जिंग की तुलना में कार को काफी जल्दी चार्ज करते हैं। लेकिन टेस्ला के इन सुपरचार्ज स्टेशन पर कोई अपनी कार तभी चार्ज कर सकता है जब उसकी कार टेस्ला के सुपरचार्जर नेटवर्क पर पंजीकृत हो, पंजीकरण के बिना टेस्ला के चार्जिंग स्टेशन से कार चार्ज करना संभव नहीं है। अब यदि कार मालिक टेस्ला कार में कुछ बदलाव कर ले या उसमें ऐसे पुर्ज़े लगवा ले जो टेस्ला के नहीं हैं तो सॉफ्टवेयर इसे भांप लेता है और सुपरचार्जर नेटवर्क द्वारा वह कार प्रतिबंधित कर दी जाती है।

उपभोक्ता के स्वामित्व वाली वस्तु में अपनी इच्छानुसार तब्दीलियां या मरम्मत करने पर निर्माता उन्हें इसी तरह से दंडित करते हैं, और मरम्मत के अधिकार की लड़ाई इसी के खिलाफ है।

ऐप्पल भी ऐसे कामों के लिए कुख्यात है; वह अपने बनाए उत्पादों पर अपना नियंत्रण रखना चाहती है। पहले ऐप्पल अपने खास स्क्रू, चार्जिंग पोर्ट और अन्य तकनीकों के मालिकाना मानकों का उपयोग करती थी जो या तो उन्हें सहायक उपकरणों के माध्यम से या मरम्मत के माध्यम से कमाई करने में मदद करते थे, क्योंकि कई सुधारकों के पास ऐप्पल उपकरण को सुरक्षित रूप से खोलने के औज़ार नहीं थे।

आईफोन-12 लाने के बाद ऐप्पल इसके भी एक कदम आगे गई। उसने अपने फोन के सभी पुर्ज़ों को ऐप्पल से पंजीकृत एक-एक संख्या दे दी, जिसके चलते स्क्रीन बदलवाने जैसे सरल से काम के बाद भी लोगों को सॉफ्टवेयर सम्बंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा। एक यू-ट्यूबर ने हाल ही में दो आईफोन-12S खरीदे थे और उसने दोनों के पुर्ज़े आपस में बदल दिए। ऐसा करने के बाद उसके फोन दिक्कत देने लगे। तब पता चला कि प्रत्येक पुर्ज़ा केवल एक ही मदरबोर्ड के साथ काम करने के लिए बना है, और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यदि आप खुद उसी कंपनी के दूसरे पुर्ज़े लगा देंगे तो फोन में कोई दिक्कत नहीं आएगी। फोन कोई दिक्कत न करे यह सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीका है कि मरम्मत सिर्फ ऐप्पल स्टोर पर कराई जाए।

जल्दी ही चायनीज़ मरम्मत दुकानों ने ऐप्पल द्वारा खड़ी की गई इस चुनौती का तोड़ ढूंढ लिया। उन्होंने कुछ ही समय में एक ऐसा उपकरण बना लिया है जो ऐप्पल फोन के टूटे पुर्ज़े से उसका सीरियल नंबर पता कर लेता है और उसे वहां से कॉपी कर नए पुर्ज़े पर चस्पा कर देता है। इससे ऐप्पल का सॉफ्टवेयर इस झांसे में रहता है कि फोन उसी स्क्रीन (या पुर्ज़े) का उपयोग कर रहा है जो फोन के साथ आई थी।

मरम्मत के अधिकार का उल्लंघन करना केवल मोबाइल फोन और ऑटोमोबाइल के क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा। इस्तरी, सायकल, म्यूज़िक प्लेयर, पानी के फिल्टर वगैरह को कुछ साल पहले तक सुधारा जा सकता था, लेकिन आज निर्माता किसी न किसी तरह से इन सभी की मरम्मत या पुर्ज़ों की अदला-बदली पर नियंत्रण रखे हुए हैं।

कुछ टूट जाए तो?

किसी वस्तु के टूटने पर उपभोक्ता और निर्माता दोनों के अलग-अलग उद्देश्य होते हैं। उपभोक्ता उसकी मरम्मत पर कम से कम खर्च करना चाहता है जबकि निर्माता मरम्मत के लिए अधिक से अधिक रकम वसूल करना चाहता है।

उपभोक्ता का दृष्टिकोण

उपभोक्ता निम्नलिखित कारणों से नई वस्तु खरीदने की बजाय अपनी टूटी हुई वस्तु का पुर्ज़ा बदलवाना चाहता है:

  • इससे पैसों की बचत होती है, क्योंकि आम तौर नए उत्पाद की तुलना में पुर्ज़ा बदलवाना कम खर्चीला होता है।
  • यह पर्यावरण के लिए अच्छा है क्योंकि मरम्मत करवाने में कम कचरा निकलता है, बजाय पूरी वस्तु फेंकने के।
  • हर किसी को कंपनी द्वारा बाज़ार में उतारे गए नवीनतम उपकरणों/वस्तुओं की ज़रूरत नहीं होती। मरम्मत करने से वस्तु या उपकरण लंबे समय तक उपभोक्ता द्वारा उपयोग किए जा सकते हैं या किसी और को दिए जा सकते हैं।
  • कभी-कभी उपयोगकर्ताओं को किसी वस्तु से भावनात्मक लगाव होता है और वे उसे लंबे समय तक अपने पास रखना चाहते हैं, मरम्मत करना उस वस्तु का भावनात्मक मूल्य बनाए रखता है।
  • मरम्मत करना उपभोक्तावाद की समकालीन संस्कृति, जो ग्राहक और पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक है, को हतोत्साहित करता है।
  • उपयोगकर्ता द्वारा खुद मरम्मत करने के विकल्प को सशक्त बनाता है।

निर्माता का दृष्टिकोण

निर्माता निम्नलिखित कारणों से नियंत्रित करना चाहता है कि क्या बदला जा सकता है और क्या नहीं, और किसे उनके द्वारा उत्पादित वस्तु की मरम्मत करने की अनुमति है;

  • इससे वे उपयोगकर्ता के अनुभव को नियंत्रित कर सकते हैं और उन्हें एकरूप अनुभव प्रदान कर सकते हैं।
  • यदि वे पुर्ज़ों और सहायक उपकरणों के मालिकाना मानकों का उपयोग करते हैं तो वे मरम्मत बाज़ार को नियंत्रित कर सकेंगे।
  • वे उपकरण को बेचने के बाद भी उस पर सेवा शुल्क लेकर उससे पैसा कमाना जारी रख सकते हैं।

निर्माता विरोध क्यों कर रहे

2014 में repair.org के पहले बिल के बाद से, यूएसए के 32 राज्यों ने repair.org द्वारा प्रदान किए गए मरम्मत के अधिकार के विधेयक के प्रारूप का उपयोग कर कानून पर काम करना शुरू कर दिया है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि निर्माताओं ने इस आंदोलन और कानून का विरोध करने का फैसला किया है। निर्माताओं के तर्क इस प्रकार हैं;

1. यह नवाचार को रोकता है

निर्माताओं का तर्क है कि यह कानून नवाचार को हतोत्साहित करता है क्योंकि वे अधिक शक्तिशाली मशीन बनाने के प्रयास के साथ उन्हें कॉम्पैक्ट बनाने की भी कोशिश कर रहे हैं। इस प्रयास में वे पुर्ज़ों को एक-दूसरे में एकीकृत करते हैं, और यह मरम्मत को मुश्किल बनाता है। उदाहरण के लिए, लैपटॉप सुधारना डेस्कटॉप सुधारने की तुलना में कठिन है, क्योंकि लैपटॉप एक कॉम्पैक्ट मशीन है। निर्माताओं का दावा है कि मरम्मत योग्य बनाने को ध्यान में रखकर कोई नवाचार करना मुश्किल होगा।

2. उत्पादन-लागत को बढ़ाता है

कुछ निर्माता जैसे कॉरसैर अपनी मर्ज़ी से अपने ऑडियो उत्पादों की मरम्मत करते हैं, वह भी बिना किसी शुल्क के (चाहे पहले भी उनको बदला या सुधारा जा चुका हो)। इसके साथ ही यदि उत्पाद वारंटी की अवधि में हो तो वे शिपिंग शुल्क का भुगतान भी करते हैं। यह उपभोक्ताओं के लिए बहुत अच्छा है, लेकिन निर्माताओं के हिसाब से इससे लागत बढ़ सकती है, जिसकी मार अधिक कीमत के रूप में उपभोक्ताओं पर ही पड़ेगी। परिणामस्वरूप उत्पाद की मांग प्रभावित हो सकती है।

3. अनुसंधान व विकास को रोकता है

निर्माताओं ने न्यूयॉर्क में इस बिल के विरोध में कहा है कि यह बिल अनुसंधान और विकास को हतोत्साहित करता है, क्योंकि नई तकनीक बनाने में निर्माताओं के लाखों डॉलर खर्च होते हैं। दूसरी ओर, अन्य पार्टी द्वारा पुर्ज़ों की नकल बनाने में इसका अंशमात्र ही खर्च होता है।

हकीकत में उनका यह दावा सच्चाई से कोसों दूर है क्योंकि अधिकांश मरम्मत करने वाले लोग छोटी दुकानों के मालिक होते हैं, जिनके पास अरबों डॉलर के उद्यमियों द्वारा बनाए गए पुर्ज़ों की नकल बनाने का कोई साधन नहीं होता। और इन छोटे पुर्ज़ों को बनाने वाले अधिकांश उद्योग मूल उपकरण निर्माताओं के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ होते हैं।

4. हमेशा एक-सा अनुभव नहीं दे सकते

कोई कार जो कंपनी द्वारा उपयुक्त बैटरी का उपयोग नहीं करती, वह उसी तरह का प्रदर्शन नहीं कर सकती है जैसा वह एकदम नई होने पर करती थी। अन्य निर्माता द्वारा बनाए गए पुर्ज़ों का परीक्षण मूल निर्माता द्वारा नहीं किया जाता इसलिए वे हमेशा एक-समान अनुभव की गारंटी नहीं दे सकते, जो कि वे देना चाहते हैं।

5. उपभोक्ता की सुरक्षा चिंता

जब कभी फोन की बैटरी फट जाती है और इससे किसी को शारीरिक नुकसान पहुंचता है, तो यह खबर तुरंत सुर्खियों में आ जाती है जिसमें उस फोन निर्माता का भी उल्लेख किया जाता है। चीन के स्वेटशॉप में बनी नकली या वैकल्पिक बैटरी में वे सुरक्षा मानक नहीं रखे जाते जो मूल निमाताओं द्वारा रखे जाते हैं। इस तरह की खबरों से अक्सर निर्माता की प्रतिष्ठा को बहुत नुकसान पहुंचता है और बिक्री पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि उपभोक्ता उनके उत्पादों को सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं।

निर्माताओं और गुटों के इस बिल का विरोध करने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन इस विरोध का मूल कारण बिल्कुल स्पष्ट है। वे मरम्मत शृंखला पर नियंत्रण और एकाधिकार स्थापित करना चाहते हैं, जो उन्हें मरम्मत के लिए भारी कीमत वसूलने दे। वे बेची जा चुकी चीज़ से अधिकाधिक कमाई करते रहना चाहते हैं।

भारत में भी यह कानून हो

दुनिया की सबसे सस्ती इंटरनेट योजनाएं भारत की हैं, और इसी के कारण यहां पिछले पांच वर्षों में स्मार्टफोन तक पहुंच लगभग दुगनी हो गई है। अपनी आबादी के चलते हम दुनिया के अन्य घरेलू इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों के एक बड़े हिस्से के उपभोक्ता भी हैं।

हम कृषि से लेकर, उद्योग और सेवा क्षेत्रों तक प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रहे हैं, हालांकि यह भी सच है कि हमारे कृषि क्षेत्र तक वे तकनीकें अब तक नहीं पहुंची हैं जो विश्व के आला देशों के पास हैं। इस विधेयक को अभी इसलिए भी पारित करना चाहिए क्योंकि अभी इसका विरोध कम होगा और इसका विरोध करने वाले भी कम होंगे।

आज अधिकांश भारतीय किसान या तो कृषि के पारंपरिक तरीकों का उपयोग कर रहे हैं या बुनियादी ट्रैक्टर और हार्वेस्टर व अन्य मशीनरी का उपयोग कर रहे हैं जो सॉफ्टवेयर नियंत्रित नहीं होते। इसलिए अभी उपरोक्त अधिनियम को पारित करना और भी आसान होगा। उद्योगों द्वारा इस बिल का विरोध करने की संभावना भी कम होगी क्योंकि वे अभी तक बड़े पैमाने पर परिष्कृत कृषि मशीनरी भारत में नहीं लाए हैं।

वैसे भारत में यह स्थिति काफी पहले से ही दिखाई देने लगी है, बस हम अपनी आंखें मूंदे हुए हैं। आजकल फोन की बैटरी बदलवाने के लिए फोन को दुकान पर ले जाना पड़ता है, जबकि कुछ साल पहले तक पीछे का कवर हटाकर हम खुद बैटरी बदल सकते थे।

कुछ साल पहले तक घर में काम आने वाली इस्तरियों में भी बदले जा सकने वाले प्रतिरोधक होते थे; आधुनिक इस्तरियों में ये प्लास्टिक के आवरण से ढंके होते हैं, जो मरम्मत करने से रोकते हैं क्योंकि प्लास्टिक के टूटने का खतरा अधिक होता है।

पुरानी शैली के कैंडल वाले पानी के फिल्टर की जगह अब प्यूरीफायर ने ले ली है, जिनका फिल्टर बदलने के लिए तकनीशियनों की ज़रूरत पड़ती है। पुराने फिल्टर में एक सामान्य सी कैंडल लगती थी, जिसे कोई भी बदल सकता था और किसी भी ब्रांड की कैंडल काम करती थी।

पुराने टेलीविज़न की पिक्चर ट्यूब को भी आसानी से बदला जा सकता था। लेकिन आधुनिक OLED डिस्प्ले वाले टीवी में रंगों के प्रदर्शन के लिए एक छोटी चिप होती है। यह चिप 28 सोल्डरिंग की मदद से सर्किट में लगाई जाती है और इस पूरे ताम-झाम को जमाने के लिए विशेष उपकरणों और सूक्ष्मदर्शी की आवश्यकता होती है।

कहने का मतलब यह नहीं है कि प्रौद्योगिकी परिष्कृत नहीं होनी चाहिए, या हम सभी को पुराने ज़माने की पुरानी तकनीकों पर लौट जाना चाहिए ताकि मरम्मत आसान हो। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब निर्माता मरम्मत बाज़ार पर अनुचित नियंत्रण हासिल करने या उपभोक्ता को मरम्मत करने से रोकने के हथकंडे अपनाते हैं।

उपरोक्त सभी उदाहरणों ने भारतीयों को भी प्रभावित किया है, फिर भी भारत में किसी को भी मरम्मत के अधिकार का कानून लाने की ज़रूरत नहीं लगती। लोगों को ज़रूरत न लगने और लोगों में जागरूकता की कमी के कारण ही हमारी दिनचर्या में इस्तेमाल होने वाले घरेलू उपकरणों को योजनाबद्ध तरीके से एक निश्चित समय के बाद बेकार किया जा रहा है और जानबूझकर उन्हें इस तरह बनाया जा रहा है कि उनकी मरम्मत करना मुश्किल हो जाता है, और इसलिए भारत को अपने मरम्मत के अधिकार अधिनियम की आवश्यकता है। हम जितनी जल्दी इस वास्तविकता के प्रति जागरूक होंगे और कदम उठाएंगे, लोगों के लिए उतना ही अच्छा होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तालाबंदी की सामाजिक कीमत – सोमेश केलकर

म तौर पर कीमत को हम मुद्रा से जोड़कर देखते हैं। लेकिन यहां हम सामाजिक कीमत की बात करेंगे। सामाजिक कीमत वह है जिसे किसी उद्देश्य पूर्ति के लिए समाज सामूहिक रूप से वहन करता है। भारत के संदर्भ में यह पिछले साल मार्च और फिर इस साल अप्रैल-मई में की गई तालाबंदी के कारण समाज द्वारा झेली गई पीड़ा और क्षति है। इस लेख में हम देखेंगे कि कैसे आनन-फानन तालाबंदी ने लोगों का जीवन प्रभावित किया और किस तरह तालाबंदी की सामाजिक कीमत कम की जा सकती थी।

तालाबंदी के कारण मौतें

भारत में मई 2021 तक मरने वालों की अधिकारिक संख्या 2,95,525 थी जिसका कारण सिर्फ महामारी नहीं थी। समाचार वेबसाइट theprint.in के अनुसार सिर्फ केरल में अप्रैल 2020 तक तालाबंदी के दौरान भूख, पुलिस की बर्बरता, चिकित्सा सहायता में देरी, आय के स्रोत चले जाने, भोजन व आश्रय न मिलने, सड़क दुर्घटनाओं, शराब की तलब, अकेलेपन या बाहर निकलने पर पाबंदी और तालाबंदी से जुड़े अपराध (गैर-सांप्रदायिक) के कारण 186 लोगों की जान चली गई थी।

अनौपचारिक क्षेत्र

देशव्यापी तालाबंदी के दौरान भारत के अधिकांश हिस्सों में कोविड-19 से लड़ने के लिए आवश्यक वस्तुओं की निर्बाध आपूर्ति की कोशिश हो रही थी। लेकिन मुख्य सवाल यह है कि इतने बड़े पैमाने पर उत्पादन और कम लागत पर वितरण की मांग को पूरा करने के लिए श्रमिकों को क्या कीमत चुकानी पड़ी? ये ऐसे सवाल हैं जिनमें संक्रमण काल से परे दीर्घकालिक मानवीय चिंता झलकती है।

असंगठित और प्रवासी श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग (39 करोड़) है, जो सबसे कमज़ोर है और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के दायरे से या तो बाहर है या उसकी परिधि पर है। तालाबंदी की सामाजिक कीमत सबसे अधिक इसी मज़दूर वर्ग ने चुकाई है। और इसी वजह से यह तबका शोषण और मानव तस्करी जैसे संगठित अपराधों का आसानी से शिकार बन जाता है।

प्रवासी मज़दूरों के लिए अपने गांव वापस जाना भी आसान नहीं था। कई राज्यों में श्रमिकों को अपने गांव पहुंचने से पहले और बाद में अभाव और भूख का सामना करना पड़ा। उन्हें अपने दैनिक निर्वाह के लिए महंगा कर्ज़ लेने को मजबूर होना पड़ा। इसने बच्चों को अपने माता-पिता द्वारा लिया कर्ज चुकाने के लिए बंधुआ मज़दूरी और भुगतान-रहित मज़दूरी करने की ओर धकेल दिया।

2020 के उत्तरार्ध में तालाबंदी के बाद जब चीज़ें सामान्य होने लगीं और कारखाने पूरी क्षमता के साथ शुरू हो गए तो कारखाना मालिकों ने अपने नुकसान की भरपाई के लिए श्रमिकों को कम पैसों पर रखना शुरू किया। ज़रूरतमंद, कमज़ोर और असंगठित श्रमिक पर्याप्त मज़दूरी या अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने की स्थिति में न होने के कारण कम मज़दूरी पर काम करने लगे। कई राज्य सरकारों ने अर्थ व्यवस्था दुरुस्त करने की आड़ में श्रमिक कानूनों में ढील देकर श्रमिकों की मुसीबत और बढ़ा दी।

काम पर रखे गए नए मज़दूरों में बड़ी संख्या में बच्चे थे, परिवार की मदद करने के कारण उनका स्कूल छूट गया। कारखानों में मज़दूरी के लिए हज़ारों बच्चों की तस्करी भी हुई, जहां उन्हें अत्यंत कम मज़दूरी पर काम करना पड़ा और संभवत: शारीरिक, मानसिक और यौन उत्पीड़न भी झेलना पड़ा।

केंद्र और राज्य सरकारों को इन चुनौतियों से निपटने के लिए वृहद योजना बनाने की ज़रूरत है। खासकर असुरक्षित/हाशिएकृत बच्चों की सुरक्षा के लिए। यहां कुछ ऐसे तरीकों का उल्लेख किया जा रहा है जिन्हें अपनाकर दोनों तालाबंदी का बेहतर प्रबंधन किया जा सकता था –

1. कानूनी ढांचे का आकलन और समीक्षा: केंद्र सरकार को मानव तस्करी के मौजूदा आपराधिक कानून, इसकी अपराध रोकने की क्षमता और पीड़ितों की ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता का आकलन करके लंबित मानव तस्करी विरोधी विधेयक को संशोधित करके संसद में पारित करवाना चाहिए।

2. कारखानों और विनिर्माण इकाइयों का निरीक्षण: छोटे और मध्यम व्यवसायी कारखानों को गैर-कानूनी ढंग से न चला पाएं, इसके लिए उनका निरीक्षण करना और उन्हें जवाबदेह बनाना चाहिए। बाल श्रम कानूनों के अनुपालन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। साथ ही बाल श्रम रोकने के लिए कम से कम अगले दो वर्षों तक पंजीकृत कारखानों और अन्य निर्माण इकाइयों का गहन निरीक्षण किया जाना चाहिए।

3. कानून के अमल और पीड़ितों के पुनर्वास हेतु बजट आवंटन में वृद्धि: विमुक्त बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास के लिए 2016 में केंद्र सरकार ने अपनी योजना के तहत पीड़ितों को तीन लाख रुपए तक के मुआवज़े का प्रावधान रखा था। लेकिन बजट में योजना के लिए कुल आवंटन महज़ 100 करोड़ रुपए है जबकि योजना को बनाए रखने का न्यूनतम खर्च ही 100.2 करोड़ रुपए है। इसमें तत्काल वृद्धि आवश्यक है।

4. ऋण प्रणाली का विनियमन: ग्रामीण भारत में स्थानीय साहूकारों द्वारा तालाबंदी से प्रभावित लोगों का शोषण रोकने के लिए विनियमन की आवश्यकता है। इसमें उधार देने के लिए लायसेंस और ब्याज दर की उच्चतम सीमा निर्धारित करने के अलावा, सरकारी बैंकों द्वारा उचित शर्तों पर दीर्घावधि कर्ज़ देना व उदार वसूली प्रक्रियाएं शामिल हों। बंधुआ मज़दूरी को समाप्त करने में राज्य सरकारों की सक्रिय भूमिका हो।

महिलाएं

तालाबंदी की सामाजिक कीमत महिलाओं और बच्चों को भी चुकानी पड़ी है। आर्थिक के अलावा मनोवैज्ञानिक असर भी देखे जा रहे हैं। लोग पहले ही गंदगी और बदतर स्थितियों में रहने को मजबूर थे और अनियोजित तालाबंदी के कारण लिंग-आधारित हिंसा, बाल-दुर्व्यवहार, सुरक्षा में कमी, धन और स्वास्थ्य जैसी सामाजिक असमानताएं बढ़ी हैं। महिलाएं वैसे ही अपने स्वास्थ्य की उपेक्षा करती हैं। ऊपर से लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के स्वास्थ्य – मासिक स्राव सम्बंधी स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य और पोषण – की और उपेक्षा हुई है और सीमित हुए संसाधनों ने स्थिति को और भी बदतर बनाया है।

तालाबंदी के दौरान बाल विवाह की संख्या में भी वृद्धि देखी गई है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2020 की तालाबंदी के दौरान, बाल विवाह से सम्बंधित लगभग 5584 फोन आए थे।

स्कूल बंद होने के कारण परिवारों और युवा लड़कियों तक पहुंच पाना और बाल-विवाह के मुद्दे पर बात करना मुश्किल हो गया है। बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार बाल विवाह के चलते लड़कियों का स्कूल छूट जाता है। और यदि हालात बिगड़ते हैं तो उन्हें गुलामी और घरेलू हिंसा भी झेलनी पड़ती है।

तालाबंदी में नौकरी गंवाने और आय न होने के चलते प्रवासी कामगार और मज़दूर भुखमरी और कर्ज़ की ओर धकेले गए। इस स्थिति में उन्हें बेटियों का शीघ्र विवाह करना ही उनकी सुरक्षा और जीवन के लिए उचित लगा।

शिक्षा

शिक्षा पर तालाबंदी का प्रभाव विनाशकारी रहा। मार्च 2020 में सख्त तालाबंदी लगते ही स्कूल भी बंद कर दिए गए। और बंद पड़े स्कूल अब तक सबसे उपेक्षित मुद्दा रहा है। विश्व बैंक ने अपनी 2020 की रिपोर्ट बीटन ऑर ब्रोकन: इनफॉर्मेलिटी एंड कोविड-19 इन साउथ एशिया में पर्याप्त डैटा के साथ इस पर एक व्यापक विश्लेषण प्रकाशित किया है कि कैसे महामारी ने दक्षिण एशियाई क्षेत्र को प्रभावित किया।

इस रिपोर्ट का एक दिलचस्प बिंदु है अर्थव्यवस्था पर स्कूल बंदी का प्रभाव। तालाबंदी की घोषणा के बाद से ही दक्षिण एशिया में स्कूल बंद हैं। भारत में भी मार्च 2020 से स्कूल बंद कर दिए गए थे। अधिकतर शहरी निजी स्कूलों ने ऑनलाइन शैली में कक्षाएं शुरू कर दी थीं। लेकिन सरकारी स्कूल अब भी कक्षाएं संचालित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि सुदूर और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले बच्चों की इंटरनेट तक पहुंच नहीं है या उसका खर्च वहन करने की सामथ्र्य नहीं है। यह एक गंभीर मुद्दा है।

विश्व बैंक ने शायद पहली बार अपनी रिपोर्ट में स्कूल बंदी के प्रभावों के मौद्रिक आकलन की कोशिश की है। रिपोर्ट के नतीजे चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशियाई क्षेत्र में 39.1 करोड़ बच्चे स्कूलों से वंचित हुए जिसके कारण सीखने का गंभीर संकट पैदा हो गया है। महामारी के कारण 55 लाख बच्चे पढ़ाई छोड़ भी सकते हैं। इसके अलावा, स्कूल बंदी से स्कूली शिक्षा के 6 महीनों के समय का नुकसान हुआ है।

रिपोर्ट कहती है कि स्कूल बंद होने से न केवल सीखने पर अस्थायी रोक लगती है, बल्कि छात्रों द्वारा पूर्व में सीखी गई चीज़ों को भूलने का भी खतरा होता है। इसका आर्थिक असर भी चौंकाने वाला है। स्कूल बंदी के परिणामस्वरूप दक्षिण एशियाई क्षेत्र को 622 अरब डॉलर से 880 अरब डॉलर तक का नुकसान होने का अंदेशा है।

रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में एक औसत बच्चे के वयस्क होने के बाद उसकी जीवन भर की कमाई में कुल 4400 डॉलर की कमी आएगी जो उसकी संभावित आमदनी का 5 प्रतिशत है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि वर्तमान तालाबंदी से होने वाला कुल आर्थिक नुकसान, वर्तमान में शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च से काफी अधिक है।

सामाजिक पतन

भारत और अन्य देशों में कई तरह के नस्लवाद ने लोगों को बांट दिया है। धर्म-आधारित घृणा, जाति आधारित भेदभाव और उत्तर-पूर्वी लोगों को कलंकित करना किसी भी अन्य भेदभाव के समान ही घातक है। अनभिज्ञ और पक्षपाती मीडिया और लोगों ने देश के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाया है और कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई को सामाजिक रूप से बहुत प्रभावित किया है। सार्स-कोव-2 वायरस को उसकी उत्पत्ति के चलते चीनी वायरस कहकर चीन के लोगों के साथ भेदभाव का माहौल बना। यह संवेदनशीलता के गिरते स्तर का द्योतक है। समाज ने तालाबंदी की यह एक और कीमत चुकाई है।

यदि उचित उपाय नहीं किए गए तो जातिवाद के विचार स्वाभाविक रूप से लोगों की मानसिकता में बने रहेंगे जो समाज की शांति और स्थिरता के लिए खतरा होगा। नस्लवाद के इस अदृश्य घातक वायरस से लड़ने के लिए व्यक्तिगत, सामुदायिक और सरकारी स्तर पर, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के स्तर पर दीर्घकालिक नियोजन और सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। भारत में नेताओं को भाषा और मुद्दों के प्रति अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है। उन्हें समस्या के समाधान निकालने के प्रयास करने चाहिए न कि समाधान में अड़ंगा लगाना चाहिए।

निष्कर्ष

यहां हमने तालाबंदी की समाज द्वारा चुकाई गई कुछ कीमतों पर ध्यान दिया। लेकिन हमारे आसपास कई और भी मुद्दे हैं जो दिखते तो हैं लेकिन उपेक्षित रह जाते हैं। जैसे किराए की दुकान में अपना व्यवसाय करने वाले छोटे व्यवसाय, तालाबंदी में दुकान बंद रखने के कारण उनकी आय तो रुक गई लेकिन दुकान का किराया तो देना ही पड़ा होगा।

भले ही आकलन करना कठिन हो, लेकिन स्पष्ट है कि 2020 और 2021 दोनों में भारत के लॉकडाउन की सामाजिक कीमत काफी अधिक रही है। तालाबंदी जैसे कठोर उपायों को लागू करने से पहले व्यवस्थित योजना तालाबंदी की सामाजिक कीमत कम करने और लोगों का नुकसान कम करने व कम से कम असुविधा सुनिश्चित कर सकती है। यह सभी के लिए हितकर होगा कि हम अपनी गलतियों से सीखें, स्वास्थ्य व स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने पर अधिक ध्यान दें, चिकित्सा अध्ययन को प्रोत्साहित करने के तरीके खोजें, और यह सुनिश्चित करें कि हमारे डॉक्टर देश छोड़कर न जाएं।

तालाबंदी अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवा की भरपाई का अंतिम उपाय है, महामारी का समाधान नहीं। ज़रूरत है कि समाज के कमज़ोर वर्गों को होने वाले नुकसान को कम से कम करने के लिए उचित योजना बनाई जाए, और स्वास्थ्य सेवा में भारी निवेश किया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भविष्य में ऐसी स्थिति फिर से उत्पन्न होने पर हमें स्वास्थ्य के कमज़ोर ढांचे की वजह से तालाबंदी न करनी पड़े। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीके से जुड़े झूठे प्रचार को रोकने की पहल

हाल ही में ट्विटर ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म से ऐसे अकाउंट्स को निलंबित या बंद कर दिया है जो नियमित रूप से कोविड-19 टीकों से जुड़ी भ्रामक जानकारी फैला रहे थे। इसी तरह की एक पहल के तहत अमेरिकी वैज्ञानिकों ने कोविड-19 टीके के बारे में भ्रामक जानकारियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है।

कुछ सर्वेक्षणों से पता चला है भ्रामक खबरों के परिणामस्वरूप अमेरिका की 20 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या टीकाकरण के विरोध में है। शोधकर्ता सोशल मीडिया पर टीके से सम्बंधित गलत सूचनाओं को ट्रैक करने और भ्रामक सूचनाओं, राजनैतिक बयानबाज़ी और जन नीतियों से टीकाकरण पर पड़ने वाले प्रभावों का डैटा एकत्र कर रहे हैं। इन भ्रामक सूचनाओं में षड्यंत्र सिद्धांत काफी प्रचलित है जिसके अनुसार महामारी को समाज पर नियंत्रण या अस्पतालों का मुनाफा बढ़ाने के लिए बनाया-फैलाया गया है। यहां तक कहा जा रहा है कि टीका लगवाना जोखिम से भरा और अनावश्यक है।

इस संदर्भ में वायरेलिटी प्रोजेक्ट नामक समूह ट्विटर और फेसबुक जैसे प्लेटफार्म द्वारा टीकों से जुड़ी गलत जानकारियों से निपटने के प्रयासों में तथा जन स्वास्थ्य एजेंसियों और सोशल-मीडिया कंपनियों के साथ मिलकर नियमों का उल्लंघन करने वालों की पहचान करने में मदद कर रहा है।

स्टैनफोर्ड इंटरनेट ऑब्ज़र्वेटरी की अनुसंधान प्रबंधक रिनी डीरेस्टा के अनुसार शोधकर्ताओं ने टीकाकरण के संदर्भ में भ्रामक प्रचार के चलते सार्वजनिक नुकसान की आशंका के कारण इस पर ध्यान केंद्रित किया गया है। हालांकि, सोशल मीडिया कंपनियां सभी मामलों में तो सच-झूठ की पहरेदार नहीं बन सकती लेकिन नुकसान की संभावना को देखते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ संतुलन अनिवार्य है।

फरवरी में ट्विटर, फेसबुक (इंस्टाग्राम समेत) ने झूठे दावों को हटाने के प्रयासों को विस्तार दिया है। दोनों ही कंपनियों ने घोषणा की है कि झूठी खबरें फैलाने वाली पोस्ट और ट्वीट को हटाया जाएगा और बार-बार नीतियों का उल्लंघन करने वालों के अकाउंट्स बंद भी कर दिए जाएंगे।

यह देखा गया है कि वेब पर गलत जानकारी अपेक्षाकृत थोड़े-से लोगों (सुपरस्प्रेडर्स) द्वारा फैलाई जाती है। इनमें अक्सर पक्षपाती मीडिया, सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर और राजनीतिक हस्तियां शामिल होती हैं।  

गौरतलब है कि कोविड-19 के बारे में लोगों की सोच का अनुमान लगाने के लिए बोस्टन स्थित नार्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी, मेसाचुसेट्स के राजनीति वैज्ञानिक डेविड लेज़र के नेतृत्व में अमेरिका के सभी 50 राज्यों में प्रति माह 25,000 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया जा रहा है और साथ ही ट्विटर का उपयोग करने वाले 16 लाख लोगों की जानकारी भी एकत्रित की जा रही है। 

फरवरी में लगभग 21 प्रतिशत लोगों ने टीकाकरण करवाने से इनकार किया। स्वास्थ्य कर्मियों में यह आंकड़ा लगभग 24 प्रतिशत था। देखा गया कि इस फैसले के पीछे शिक्षा का स्तर एक मुख्य कारक रहा। टीम यह समझने का प्रयास कर रही है कि स्वास्थ्य सम्बंधी गलत जानकारी का सामना करने में कौन-सी चीज़ें प्रभावी हो सकती हैं। लगता है कि डॉक्टर और वैज्ञानिकों को सबसे भरोसेमंद माना जाता है जबकि पक्षपातपूर्ण राजनीतिक नेताओं के संदेशों पर विश्वास की संभावना कम होती है। ऐसे में डॉक्टर की सकारात्मक सलाह लोगों की पसंद को प्रभावित कर सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लॉकडाउन की कीमत – सोमेश केलकर

गभग एक वर्ष पूर्व भारत में लॉकडाउन को अपनाया गया था। उसके बाद से अर्थव्यवस्था को लगातार ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ रही है। इस लॉकडाउन के सामाजिक व आर्थिक असर आज भी दिख रहे हैं।

इस लॉकडाउन ने भारत के सभी वर्गों को किसी न किसी स्तर पर प्रभावित किया है। कुछ लोगों के लिए लॉकडाउन एक सुनहरा मौका रहा जहां वे अपने परिवार के साथ एक लंबी छुट्टी का आनंद ले सके, वहीं अन्य लोगों के लिए यह बेरोज़गारी, भुखमरी, पलायन और कुछ के लिए जान के जोखिम से भरा दौर रहा। आइए हम उन नुकसानों का पता लगाने का प्रयास करते हैं जो सख्त लॉकडाउन के कारण देश को झेलने पड़े। हम यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि लॉकडाउन से किस हद तक वायरस संक्रमण रोका जा सका।

व्यापक अर्थ व्यवस्था

कोरोनावायरस जीवन और आजीविका के नुकसान के केंद्र में रहा। लॉकडाउन के एक वर्ष बाद भी भारत में जन स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था दोनों को ही पटरी पर लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार भारत में लॉकडाउन से अनुमानित 26-33 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। गौरतलब है कि अधिकांश अनुमान पिछले वर्ष प्रकाशित रिपोर्टों के आधार पर लगाए गए हैं जब लॉकडाउन से होने वाले नुकसान ठीक तरह से स्पष्ट नहीं थे। देखा जाए तो इन गणनाओं में उन कारकों को ध्यान में नहीं लिया गया जिन्हें धन के रूप में बता पाना मुश्किल या असंभव था लेकिन नुकसान में इनका हिस्सा काफी था। 

लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था को कई प्रकार की रुकावटों का सामना करना पड़ा। इसे ऐसे समय में अपनाया गया जब अर्थव्यवस्था पहले से ही संघर्ष के दौर से गुज़र रही थी। विभिन्न क्षेत्रों का व्यापार पहले से ही प्रभावित हो रहा था और लॉकडाउन के कारण जांच उपकरणों सहित आवश्यक वस्तुओं की खरीद पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।   

विदेश यात्रा और परिवहन पर प्रतिबंध ने परोक्ष रूप से आयात-निर्यात के व्यवसाय को प्रभावित किया। यह आय का एक प्रमुख स्रोत है। इसके अलावा, हवाई और रेल यात्रा पर प्रतिबंध के कारण पर्यटन उद्योग को झटका लगा जो आमदनी का एक बड़ा स्रोत है।

भारतीय अर्थव्यवस्था की एक विशेषता बड़ी संख्या में असंगठित खुदरा बाज़ार हैं। लॉकडाउन ने इन्हें भी झकझोर दिया। इसके चलते ऑनलाइन खुदरा बाज़ार पर दबाव बढ़ा जिसे कंपनियों ने चुनौती के रूप में स्वीकार किया और परिणामस्वरूप डिजिटल भुगतान की सुविधा प्रदान करने वाली कंपनियों ने अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन किया। 

अधिकारिक स्रोतों से उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर इस वर्ष पर नज़र डालें, तो हालात गंभीर दिखाई देते हैं। यह डैटा अगस्त के अंत में जारी किया गया था। सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियांवयन मंत्रालय की रिपोर्ट ने अप्रैल से जून तिमाही में जीडीपी में 23.9 प्रतिशत की गिरावट के संकेत दिए हैं। लेकिन यह समस्या कम करके आंकती है क्योंकि इसमें अनौपचारिक क्षेत्र को ध्यान में नहीं रखा गया है जिसे लॉकडाउन का सबसे अधिक खामियाजा उठाना पड़ा था। यह इतिहास में दर्ज अत्यंत खराब गिरावटों में से है और पिछले चार-पांच दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है।         

भारत के प्रमुख सांख्यिकीविद जाने-माने अर्थशास्त्री प्रणब सेन का मानना है कि यदि हम सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियांवयन मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आकड़ों में अनौपचारिक क्षेत्र को भी शामिल करते हैं तो जीडीपी में गिरावट बढ़कर 33 प्रतिशत तक हो जाएगी। सेन के अनुसार लॉकडाउन के बाद भारत की आर्थिक स्थिति गंभीर है और भविष्य में और बदतर होने की संभावना है। उनका अनुमान है कि मार्च 2021 के अंत तक भारत की जीडीपी में 10 प्रतिशत की और कमी हो सकती है।

जन स्वास्थ्य

अर्थव्यवस्था का गंभीर रूप से प्रभावित होना तो एक समस्या रही ही, लोगों की जान के जोखिम को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है जिसके चलते जन स्वास्थ्य सेवा इस अभूतपूर्व स्थिति में सबसे आगे आई। महामारी से पहले भी जन स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच एक प्रमुख चिंता रही है। गौरतलब है कि प्रत्येक देश में एक स्वास्थ्य सेवा क्षमता होती है जिससे यह पता चलता है किसी देश में एक समय पर कितने रोगियों को संभाला जा सकता है। 1947 के बाद से भारत की स्वास्थ्य सेवा क्षमता कभी भी उल्लेखनीय नहीं रही है।

वर्ष 2018 से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, भारत का अनुमानित सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय लगभग 1.6 लाख करोड़ रुपए है। अधिकांश लोगों के लिए सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं सबसे सस्ता विकल्प हैं। देखा जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों के सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों की उपलब्धता अनुपातिक रूप से अधिक है। महामारी के दौरान सरकार ने वायरस की पहचान और उससे निपटने में मदद के लिए कई सरकारी और निजी जांच प्रयोगशालाओं को आवंटन किया था।  

विश्व भर के मंत्रालय रोकथाम के उपायों के माध्यम से ‘संक्रमण ग्राफ को समतल’ करने की बात कर रहे हैं लेकिन यह दशकों से स्वास्थ्य सेवा में अपर्याप्त निवेश की ज़िम्मेदारी से बचने का तरीका भर है। यह सच है कि महामारी के कारण विश्व के विकसित देश भी काफी उलझे रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि उनमें से किसी भी देश को अपनी स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक बोझ के डर से भारत की तरह सख्त लॉकडाउन को अपनाना नहीं पड़ा। वैसे भी, महामारी से निपटने में विकसित देशों की स्वास्थ्य सेवाओं की नाकामी न तो हमारी तैयारी में कमी और न ही हमारे खराब प्रदर्शन का बहाना होना चाहिए। आदर्श रूप से तो किसी भी देश की स्वास्थ्य सेवा क्षमता इतनी होनी चाहिए कि वह अपनी आधी आबादी को संभाल पाए।

वर्ष 2021 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने 2021-22 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य और कल्याण के लिए 2.23 लाख करोड़ रुपए व्यय करने का प्रस्ताव रखा था जो पिछले वर्ष में स्वास्थ्य सेवा पर खर्च किए गए 94,452 करोड़ रुपए के बजट से 137 प्रतिशत अधिक है।

वित्त मंत्री ने अगले वित्त वर्ष में कोविड-19 टीकों के लिए 35,000 करोड़ रुपए खर्च करने का भी प्रस्ताव रखा है। इसके साथ ही न्यूमोकोकल टीकों को जारी करने की भी घोषणा की गई है। उनका दावा है कि इन टीकों की मदद से प्रति वर्ष 50,000 से अधिक बच्चों को मौत से बचाया जा सकता है।

स्वास्थ्य सेवा के आवंटन में वृद्धि के शोरगुल के बीच इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि इनमें से कुछ खर्च एकबारगी किए जाने वाले खर्च हैं – जैसे 13,000 करोड़ का वित्त आयोग अनुदान और कोविड-19 टीकाकरण के लिए 35,000 करोड़ रुपए। गौरतलब है कि पानी एवं स्वच्छता के लिए आवंटित 21,158 करोड़ का बजट भी स्वास्थ्य सेवा खर्च में शामिल किया गया है जिसके परिणामस्वरूप कुल 137 प्रतिशत की वृद्धि नज़र आ रही है।

सच तो यह है कि बजट में इस तरह के कुछ आवंटन केवल वर्तमान महामारी से निपटने के लिए हैं जिनसे स्वास्थ्य सेवा में समग्र सुधार में कोई मदद नहीं मिलेगी। इसलिए स्वास्थ्य सेवा आवंटन में तीन गुना वृद्धि वास्तविक नहीं है। अगले कुछ वर्षों में स्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए निरंतर प्रयास करना आवश्यक है। इसके लिए अनुसंधान और विकास पर निवेश बढ़ाना होगा। स्वास्थ्य सेवा के संदर्भ में देखा जाए तो हमारी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली वैश्विक महामारी से निपटने के लिए न तो तैयार थी और न ही ठीक तरह से सुसज्जित। ऐसी स्थित में लॉकडाउन एक फौरी उपाय ही था।

आम आदमी

जून में प्रकाशित ग्लोबल अलायंस फॉर मास एंटरप्रेन्योरशिप की एक रिपोर्ट के अनुसार महामारी के पूर्व कई सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम ‘अनौपचारिकता और कम उत्पादकता के दुष्चक्र में स्थायी रूप से फंसे हुए थे’ और ‘विकसित नहीं हो रहे थे’। लॉकडाउन के बाद सरकार का मुख्य उद्देश्य सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को व्यवसाय के लिए एक विशेष ऋण शृंखला तैयार करना रहा। ऐसे समय में जब नौकरी की कोई गारंटी नहीं है, लोग खर्च करने के अनिच्छुक हैं और मांग में कमी है, तब कई सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के सुचारु रूप से काम करने की संभावना सवालों के घेरे में हैं। ऐसे में विशेष ऋण लेने की क्षमता प्रदान करना अधिक सहायक नहीं लगता है। अर्थव्यवस्था में मांग और आपूर्ति दोनों की गंभीर कमी के चलते सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के लिए अधिक ऋण निरर्थक ही हैं।

ग्लोबल अलायंस फॉर मास एंटरप्रेन्योरशिप की रिपोर्ट का अनुमान है कि कोविड-19 छोटे अनौपचारिक व्यवसायों के लिए सामूहिक-विलुप्ति की घटना बन सकता है और लगभग 30-40 प्रतिशत सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के अंत की संभावना है। इन संख्याओं का मतलब है कि भारत में बहुत कम समय में उद्योग और खुदरा व्यापारी अपने व्यवसाय खो चुके होंगे। ये छोटी स्व-रोज़गार इकाइयां भारतीय अर्थव्यवस्था की एक विशेषता है। इनमें से कई इकाइयां किराए पर दुकान लेती हैं, नगर पालिकाओं को भुगतान करती हैं और इन पर अन्य कई वित्तीय दायित्व होते हैं। वैसे भी अपने छोटे स्तर के व्यवसाय के कारण उनकी आय अधिक नहीं होती है और लॉकडाउन के कारण उन्हें अपने व्यवसाय को कई महीनों तक पूरी तरह बंद रखना पड़ा जबकि उनके वित्तीय दायित्व तो निरंतर जारी रहे। चूंकि इन्हें मोटे तौर पर अनौपचारिक आर्थिक गतिविधियों में वर्गीकृत किया जाता है, व्यापक अर्थ व्यवस्था के नुकसान के हिसाब-किताब में इन्हें हुए नुकसान को इन्हें शामिल नहीं किया गया। यह लॉकडाउन के दौरान होने वाले नुकसान का अदृश्य रूप है।

आजीविका ब्यूरो के अनुसार प्रवासी महिलाओं पर होने वाला प्रभाव अधिक अदृश्य और हानिकारक रहा है। यह एक ऐसी श्रेणी है जिसे लॉकडाउन में भारी नुकसान चुकाना पड़ा है लेकिन इस नुकसान को वित्तीय शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है क्योंकि महिलाएं देखभाल के अवैतनिक कार्य का सबसे बड़ा स्रोत हैं।

आजीविका ब्यूरो ने यह भी पाया कि भारत के कपड़ा केंद्र अहमदाबाद में घरेलू और वैश्विक व्यवसाय द्वारा महिलाओं को घर-आधारित श्रमिकों के रूप में रखा जाता है। महामारी से पहले भी वहां की महिलाएं औसतन 40 से 50 रुपए प्रतिदिन कमा रही थीं (किसी प्रकार के श्रम अधिकार, आश्रय या रोज़गार एवं स्वास्थ्य सुरक्षा के बगैर)। लॉकडाउन के बाद वे केवल 10 से 15 रुपए प्रतिदिन कमा रही थीं। कई महिलाएं इसलिए भी काम जारी रखना चाहती हैं ताकि वे अपने पति की हिंसा से बच सकें। घर में किसी भी तरह से आय लाने में असमर्थ होने पर उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा, काम छोड़ देने का मतलब अपने ठेकेदार से सम्बंध खो देना जिसे वे किसी भी हाल में खोना नहीं चाहती हैं।   

नारीवादी अर्थशास्त्री अश्विनी देशपांडे ने लॉकडाउन के कारण नौकरी जाने के मामले में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत बदतर पाई है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कई वर्षों से रोज़गार में महिला भागीदारी दर में गिरावट देखी जा रही है। अश्विनी देशपांडे का अनुमान है कि लॉकडाउन के दौरान दस में से चार महिलाओं ने अपनी नौकरी खो दी है। 

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी ने बेरोज़गारी से जुड़े कुछ और चौंकाने वाले आंकड़े प्रकाशित किए हैं। लॉकडाउन के महीनों में नौकरी गंवाने के आंकड़ों को देखिए:

  • अप्रैल 2020 में 177 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार खो दिया।
  • मई 2020 में 10 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।
  • जून 2020 में 39 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।
  • जुलाई 2020 में 50 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।

कुल मिलाकर भारत में केवल चार महीनों में 1.9 करोड़ लोग नौकरियों से हाथ धो बैठे। गौरतलब है कि ये आंकड़े औपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के हैं, अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को तो उनके नियोक्ता की इच्छा पर नौकरी पर रखा और निकाला जाता है।

लॉकडाउन के कारण भोजन खरीदने के लिए आय की कमी और खाद्य पदार्थों के वितरण में अक्षमताओं के कारण कई क्षेत्रों में भुखमरी और अकाल जैसे हालात उत्पन्न हुए। गांव कनेक्शन द्वारा लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण संकट पर एक रिपोर्ट में काफी निराशाजनक आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। तालाबंदी के दौरान:

  • 35 प्रतिशत परिवारों को कई बार या फिर कभी-कभी पूरे दिन के लिए भोजन प्राप्त नहीं हो सका।
  • 38 प्रतिशत परिवारों को कई बार या फिर कभी-कभी दिन में एक समय का भोजन प्राप्त नहीं हो सका।
  • 46 प्रतिशत परिवारों ने अक्सर या कभी-कभी अपने भोजन में से कुछ चीज़ें कम कर दीं।
  • 68 प्रतिशत ग्रामीण भारतीयों को मौद्रिक संकट से गुज़रना पड़ा।
  • 78 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिनके आमदनी प्राप्त करने वाले काम पूरी तरह रुक गए।
  • 23 प्रतिशत लोगों को अपने घर के खर्चे चलाने के लिए उधार लेना पड़ा।
  • 8 प्रतिशत लोगों को अपनी आवश्यक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अपनी बहुमूल्य संपत्ति जैसे मोबाइल फोन या घड़ी बेचना पड़ी।  

एक और बात जिसे बहुत लोग अनदेखा कर देते हैं, यह है कि लॉकडाउन के कारण नुकसान सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे के लोगों का नहीं हुआ है। उन लोगों ने भी नुकसान उठाया है जो गरीबी रेखा के ठीक ऊपर हैं और सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के दायरे से बाहर हैं। वैश्विक महामारी जैसी कठिन परिस्थितियों में इस वर्ग को अत्यंत विकट समस्याओं का सामना करना पड़ता है। और तो और, सरकारी योजनाओं में पात्रता की कमी हालात और बिगाड़ देती है। एक मायने में ये परिवार सरकार द्वारा अधिकारिक रूप से पहचाने गए असुरक्षित परिवारों की तुलना में कहीं अधिक असुरक्षित हैं।

विकल्प

अब तक यह तो स्पष्ट है कि भारत ने लॉकडाउन को अपनाकर एक भारी कीमत चुकाई है। ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल यह है कि क्या लॉकडाउन के दौरान होने वाले आर्थिक नुकसान को उचित ठहराया जा सकता है? दावा किया गया था कि वायरस को फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन आवश्यक है। लेकिन वायरस अभी भी काफी तेज़ी से फैल रहा है और रोज़ नए मामले सामने आ रहे हैं। इसलिए लॉकडाउन और इसके कारण होने वाले नुकसान को उचित नहीं ठहराया जा सकता। हमें लॉकडाउन को अपनाने के लिए कम से कम एक महीने और इंतज़ार करना चाहिए था। यदि लॉकडाउन से वास्तव में संक्रमण की दर में कमी आई थी तो सख्त लॉकडाउन को अपनाने का पक्ष सही ठहराया जा सकता है। हम लॉकडाउन में थोड़ा विलंब करके अर्थव्यवस्था को बेहतर तरीके से संगठित कर सकते थे। लोगों को अपने घर जाने, आवश्यक वस्तुओं को स्टॉक करने और यदि राशन कार्ड नहीं है तो बनवाने के लिए कहा जा सकता था। इस तरह से मध्य-लॉकडाउन प्रवास के कारण बड़ी संख्या में लोगों की जान बचाई जा सकती थी। यदि पुनरावलोकन किया जाए तो एक महीने इंतज़ार करने पर कुछ भयावह नहीं हुआ होता।

एक और तरीका जो ऋण आधारित प्रोत्साहन के स्थान पर अपनाया जा सकता था। यह पोर्टेबल राशन कार्ड के माध्यम से किया जा सकता था। हम राशन कार्ड का डिजिटलीकरण कर सकते थे ताकि कोई व्यक्ति राशन कार्ड की हार्ड कॉपी के बिना भी उसका लाभ उठा सके।

हम आधार कार्ड को एकीकृत करके आधार आधारित बैंक-लिंक्ड मनी ट्रांसफर सिस्टम तैयार कर सकते थे जिसे विभिन्न उपकरणों द्वारा एक्सेस किया जा सके। इस तरीके से सभी सुरक्षा नियमों का पालन करते हुए तेज़ी और सुरक्षित रूप से धन का स्थानांतरण किया जा सकता है। लॉकडाउन के दौरान ऐसे कई लोग थे जिनके पास किसी प्रकार की आय का सहारा नहीं था। इस प्रणाली से उपयोगकर्ता से उपयोगकर्ता और सरकार से उपयोगकर्ता को सीधे तौर पर पैसा भेजने की सुविधा मिल पाती। यह उन लोगों को काफी फायदा पहुंचा सकता था जो लॉकडाउन के दौरान जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे थे।

हम और अधिक पैसा छाप सकते थे। भारत की आर्थिक स्थिति के बावजूद हम इसे वहन कर सकते थे। अमेरिका ने ज़रूरतमंद लोगों तक धन पहुंचाने के लिए तीन ट्रिलियन डॉलर की अतिरिक्त मुद्रा छापने का काम किया। जर्मन सेंट्रल बैंक ने यूरोप के लोगों को सीधे धन पहुंचाने के लिए लगभग एक बिलियन डॉलर छापने की अनुमति दी। यदि भारत ने अपने जीडीपी की 3 प्रतिशत रकम भी छापी होती तो आज अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में होती। यह लॉकडाउन के दौरान एक बड़ा अंतर पैदा कर सकता था जिसका अब कोई फायदा नहीं है। क्योंकि अब तो अर्थव्यवस्था वापस पूर्ण रोज़गार की ओर बढ़ रही है इसलिए अधिक पैसा छापने से मुद्रास्फीति में वृद्धि होगी।

निष्कर्ष

लॉकडाउन से हमें क्या नुकसान हुआ है? इस सवाल का जवाब देने के लिए सवाल करना चाहिए कि हम नुकसान को कैसे परिभाषित करते हैं। यदि हम इसे केवल मौद्रिक नुकसान के रूप में परिभाषित करते हैं तो लॉकडाउन के कारण हमें लगभग 26-33 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। लेकिन यहां अर्थशास्त्र के साथ एक समस्या है – इसने लोगों के जीवन, उनकी मृत्यु और उनकी पीड़ा को संख्याओं के रूप में देखा है। इसके बावजूद बहुत सी चीज़ों को ध्यान में नहीं रखा है जिन्हें मौद्रिक रूप से व्यक्त किया जा सकता है।

और इसलिए नुकसान की हमारी परिभाषा और व्यापक होनी चाहिए है। क्योंकि लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा, उन परिवारों की पीड़ा जिन्हें खाली पेट सोना पड़ा, उन प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा जिन्हें शहर की सीमाओं पर पुलिस की बदसलूकी झेलते हुए सैकड़ों किलोमीटर पैदल या साइकलों पर अपने घरों के लिए निकलना पड़ा। वास्तव में ये नुकसान के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें व्यक्त कर पाना अर्थशास्त्र की क्षमताओं से परे है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पर्यावरण नीतियों में बदलाव और जैव-विविधता – माधव गाडगिल

पिछले कई दशकों में हमने विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसने हमें पर्यावरण संकट के दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। पर्यावरण संकट के इस दौर में देश के पर्यावरण विनियमन में पिछले कुछ सालों में कई बड़े बदलाव किए गए हैं और पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) के नियमों में भी बदलाव की कोशिश जारी है। इन बदलावों से भारत की जैव-विविधता पर क्या असर होगा। इस तरह के मसलों पर रोशनी डालता प्रो. माधव गाडगिल का यह व्याख्यान।

र्यावरणीय मसलों पर बहस तो कई सालों से छिड़ी हुई है लेकिन पिछले एक साल से पर्यावरण के संदर्भ में तीन विषयों पर काफी गंभीर बहस चल रही है। पहला विषय है पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना यानी पर्यावरण पर होने वाले असर का मूल्यांकन करने वाले मौजूदा नियमों में बदलाव करने के लिए जारी की गई अधिसूचना।

दूसरा, राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (NGT) में जैव-विविधता कानून के संदर्भ में दायर की गई याचिका। जैव विविधता कानून 2004 में लागू हुआ था। इस कानून के मुताबिक हर स्थानीय निकाय (पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम) में एक जैव-विविधता प्रबंधन समिति स्थापित की जानी चाहिए। समिति के सदस्य वहां के स्थानीय लोग होंगे जो अपने क्षेत्र की पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं और पर्यावरणीय स्थिति का अध्ययन करके एक दस्तावेज़ तैयार करेंगे। इसे पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर (लोक जैव विविधता पंजी) कहा गया। लेकिन वर्ष 2004 से 2020 तक, यानी 16 सालों की अवधि में इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। इस कार्य को संपन्न कराने के अधिकार वन विभाग को दे दिए गए।

यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि वन विभाग स्थानीय लोगों के खिलाफ है। दस्तावेज़ीकरण जैसे कामों में स्थानीय लोगों को शामिल करने का मतलब है कि लोगों को इससे कुछ अधिकार प्राप्त हो जाएंगे, और विभाग यही तो नहीं चाहता। इसलिए 16 वर्षों तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

इस सम्बंध में एक याचिका दायर की गई, लेकिन जब यह याचिका दायर हुई तो एक अजीब ही स्थिति बन गई। वन विभाग द्वारा पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर तैयार करने के लिए बाहर की कई एजेंसियों को ठेका दे दिया गया। ठेका एजेंसियों ने गांव वालों की जानकारी के बिना खुद ही ये दस्तावेज़ तैयार कर दिए और वन विभाग को सौंप दिए। वन विभाग ने इसे NGT को सौंप दिया और कहा कि हमने काम पूरा कर दिया। यह बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ और इसी पर बहस चल रही है। यह भी जैव-विविधता से ही जुड़ा हुआ विषय है।

और बहस का तीसरा मुद्दा है कि कुछ दिनों पहले पता चला कि पूरे देश के कृषि महाविद्यालयों को कहा गया था कि वे इस बात का अध्ययन करके बताएं कि उनके अपने क्षेत्र के खाद्य पदार्थों, पेय पदार्थों या अन्य चीज़ों में कीटनाशक कितनी मात्रा में उपस्थित हैं। जब महाविद्यालय यह काम कर रहे थे तो उनको आदेश दिया गया कि इस जांच के जो भी निष्कर्ष मिलें उन्हें लोगों के सामने बिलकुल भी ज़ाहिर न होने दें, इन्हें गोपनीय रखा जाए। यानी लोगों को यह पता नहीं चलना चाहिए कि हमारे खाद्य और पेय पदार्थों में बड़े पैमाने पर कीटनाशक पहुंच गए हैं।

इस देश को विषयुक्त बनाया जा रहा है और क्यों बनाया जा रहा है। विषयुक्त देश बनाए रखे जाने का भी इस अधिसूचना में समर्थन किया गया; इसके समर्थन में कहा गया कि यह सब भारत के संरक्षण के लिए बहुत ज़रूरी है। लेकिन पूरा देश विषाक्त करके भारत का संरक्षण किस तरह होगा, यह समझना बहुत मुश्किल है। इससे तो ऐसा ही लगता है कि जो भी प्रदूषण फैलाने वाले उद्यम हैं उनको बेधड़क प्रदूषण फैलाने की छूट देकर देश को खत्म करने की अनुमति दे दी गई है। एक तो पहले से ही देश का पर्यावरण संरक्षण पर नियंत्रण बहुत ही कमज़ोर था, अब तो इसे पूरी तरह से ध्वस्त करने की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं।

इस तरह की शासन प्रणाली को हमें चुनौती ज़रूर देना चाहिए। हमें यह समझ लेना चाहिए कि चुनौती देने के लिए हमारे हाथ में अब कई बहुत शक्तिशाली साधन आ गए हैं। ये शक्तिशाली साधन हैं पूरे विश्व में तेज़ी से बदलती ज्ञान प्रणाली।

पहले बहुत थोड़े लोगों के हाथों में ज्ञान का एकाधिकार था। लेकिन अब यह एकाधिकार खत्म हो रहा है और आम व्यक्ति तक ज्ञान पहुंच रहा है। यह एक बहुत ही क्रांतिकारी और आशाजनक बदलाव है। एकलव्य द्वारा प्रकाशित मेरी किताब जीवन की बहार में अंत में एक विवेचना इसी विषय पर की गई है कि पृथ्वी पर जीवन की इस चार अरब साल की अवधि में जो प्रगति हुई है और हो रही है, वह है कि ज्ञान को अपनाने या हासिल करने के लिए जीवधारी अधिक से अधिक समर्थ बनते गए हैं। इस अवधि में हुए जो मुख्य बड़े परिवर्तन बताए गए हैं, उसमें सबसे आखिरी नौवां चरण है मनुष्य की सांकेतिक भाषा का निर्माण। इस सांकेतिक भाषा के आधार पर हम एक समझ और ज्ञान प्राप्त करने लगे। ज्ञान ऐसी अजब चीज़ है कि जो बांटने से कम नहीं होती, बल्कि बढ़ती है।

लेकिन ज्ञान अर्जन की जो भी प्रवृत्तियां थीं, इन प्रवृत्तियों का अंतिम स्वरूप क्या होगा? इस विषय में मैनार्ड स्मिथ ने बहुत ही अच्छी विवेचना करते हुए बताया है कि दसवां परिवर्तन होगा कि विश्व में सभी लोगों के हाथ में सारा ज्ञान आ जाएगा। कोई भी किसी तरह के ज्ञान से वंचित नहीं होगा और ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं रहेगा। लेकिन अफसोस कि हमारी शासन प्रणाली ज्ञान पर केवल चंद लोगों को एकाधिकार देकर बाकी लोगों को ज्ञान से वंचित करने का प्रयत्न कर रही है।

लेकिन अब हम शासन के इस प्रयत्न को बहुत ही अच्छे-से चुनौती दे सकते हैं। जिस तरह आम व्यक्ति के हाथ तक ज्ञान पहुंच रहा है उसकी मदद लेकर। इसका एक बहुत ही अच्छा उदाहरण देखने में आया था। स्थानीय लोगों को शामिल करके पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने का जो काम किया जाना था, उस पर शासन (वन विभाग) का कहना है कि स्थानीय लोग ये दस्तावेज़ बनाने में सक्षम में नहीं हैं, उनको अपने आसपास मिलने वाली वनस्पतियों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, कीटों वगैरह के नाम तक पता नहीं होते। इनके बारे में जानकारी का आधार इनके वैज्ञानिक नाम ही हैं। जब वे ये नहीं जानते, तो दस्तावेज़ कैसे बना पाएंगे। इसीलिए, उनका तर्क था कि हमने बाहर के विशेषज्ञों को इन्हें तैयार करने का ठेका दे दिया।

मगर इस तर्क के विपरीत एक बहुत ही उत्साहवर्धक उदाहरण मेरे देखने में आया। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले में कई गांवों को सामूहिक वनाधिकार प्राप्त हुए। सामूहिक वनाधिकार प्राप्त होने के बाद वहां रहने वाले आदिवासी (अधिकतर गौंड) लोगों के लिए पहली बार ऐसा हुआ कि उनका घर के बाहर कदम रखना अपराध नहीं कहलाया। इसके पहले तक उनका घर से बाहर कदम रखना भी अपराध होता था क्योंकि जहां वे रहते हैं वह रिज़र्व फॉरेस्ट है, और रिज़र्व फॉरेस्ट में किसी का भी प्रवेश अपराध है। इसके पीछे वन विभाग की लोगों से रिश्वत लेने की मंशा थी। जीवनयापन के लिए उन लोगों को बाहर निकलने के बदले वन विभाग को विश्वत देनी पड़ती थी। आज भी यह स्थिति कई जगह बनी हुई है। लेकिन सौभाग्य से गढ़चिरौली में अच्छा नेतृत्व मिला और वहां के डिप्टी कलेक्टर द्वारा वनाधिकार कानून ठीक से लागू किया गया; इससे ग्यारह सौ गांवों को वन संसाधन और वन क्षेत्र पर अधिकार मिल गए। इस अधिकार के आधार पर वे वहां की गैर-काष्ठ वनोपज जैसे बांस, तेंदूपत्ता, औषधियों, वनस्पतियों वगैरह का दोहन कर सकते हैं और उनको बेच सकते हैं। इस तरह वे लोग सक्षम बन रहे हैं।

इन गांवों के युवक-युवतियों को सामूहिक वन संसाधन का ठीक से प्रबंधन करने में समर्थ बनाने के लिए उनको प्रशिक्षण भी दिया गया। इसमें हमने उनके गांव में ही उन्हें पांच महीनों का विस्तृत प्रशिक्षण दिया। कई युवक-युवतियों ने प्रशिक्षण लिया। हमने पाया कि इन युवक-युवतियों को उनके आसपास के पर्यावरण के बारे में बहुत ही गहरा ज्ञान था क्योंकि वे बचपन से ही वे वहां रह रहे थे और ठेकेदार के लिए तेंदूपत्ता, बांस आदि वनोपज एकत्र करके देते थे। इस प्रशिक्षण के बाद उनमें और भी जानने का कौतूहल जागा।

प्रशिक्षण में हमने युवक-युवतियों को स्मार्ट फोन के उपयोग के बारे में भी सिखाया था। कम से कम महाराष्ट्र के सारे गांवों में परिवार में एक स्मार्टफोन तो पहुंच गया है; इंटरनेट यदि गांव में ना उपलब्ध हो तो भी नज़दीकी बाज़ार वाले नगर में होता है। गांव वाले अक्सर बाज़ार के लिए जाते हैं तो वहां इंटरनेट उपयोग कर पाते हैं। काफी समय तक स्मार्टफोन को भारतीय भाषाओं में उपयोग करने में मुश्किल होती थी। हमारे यहां की कंपनियां और शासन की संस्थाओं (जैसे सी-डैक) को भारतीय भाषाओं में इसका उपयोग करने की प्रणाली बनाने का काम दिया गया था जो उन्होंने अब तक ठीक से नहीं किया है। दक्षिण कोरिया की कंपनी सैमसंग चाहती थी कि अधिक से अधिक लोग स्मार्टफोन का उपयोग करें ताकि मांग बढ़े। इसलिए सैमसंग कंपनी ने भारतीय भाषाओं में उपयोग की सुविधा उपलब्ध कराई, जो भारत इतने सालों में नहीं कर सका था। और अब गूगल में भी सारी भाषाओं में उपयोग सुविधा उपलब्ध है। गूगल कंपनी ने दो साल पहले एक सर्वे किया था जिसमें उन्होंने पाया था कि भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी अपनी भाषा में स्मार्टफोन का उपयोग कर रही है, केवल 20 प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन भारत में ऐसी अजीब स्थिति बन गई है कि जब यहां के सुशिक्षित लोगों को यह बात बताई जाती है तो वे कहते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है।

प्रशिक्षण में हमने यह भी सिखाया था कि गूगल के एक एप का उपयोग करके वे लोग अपने सामूहिक वनाधिकार की सीमा कैसे पता कर सकते हैं। स्थानीय लोगों द्वारा वन विभाग से काफी समय से सामूहिक सीमा का नक्शा मांगने के बावजूद विभाग नक्शा नहीं दे रहा था क्योंकि इससे लोग अपने सामूहिक वन क्षेत्र की सीमा निश्चित करके उसका ठीक से लाभ उठा सकते हैं। अब ये लोग गूगल एप की मदद से खुद ही नक्शा बना सकते हैं। गूगल एप से सीमांकन बहुत ही सटीक हो जाता है, सैकड़ों मीटर में 2-3 मीटर ही ऊपर-नीचे होता है।

हमने प्रशिक्षण समूह का एक व्हाट्सएप ग्रुप भी बनाया था जिसमें वे जानकारियों के लिए आपस में बात करते थे, एक-दूसरे से जानकारी साझा करते, सवाल करते थे। जब किसी भी फल, वनस्पति या जीव के बारे में उन्हें जानना होता वे उसकी फोटो ग्रुप में भेज देते थे। इस ग्रुप में 22-23 साल का एक बहुत ही होशियार लड़का था लेकिन अंग्रेज़ी ना आने के कारण वह दसवीं में फेल हो गया था। ग्रुप में जब भी कोई इस तरह की फोटो भेजता तो वह तुरंत ही उसका ठीक-ठीक वैज्ञानिक नाम बता देता। यदि किसी भी वनोपज का वैज्ञानिक नाम मालूम हो तो इससे उसके बारे में बहुत कुछ पता किया जा सकता है। जैसे उसके क्या-क्या उपयोग हैं, उसका व्यापार कहां है, उसका बाज़ार कहां अधिक है, किस प्रक्रिया से उस वनोपज का मूल्यवर्धन किया जा सकता है। इस युवक के तुरंत नाम बताने पर मुझे आश्चर्य हुआ तो मैंने उससे पूछा कि तुम यह कैसे पता कर रहे हो। तो उसने बताया कि प्रशिक्षण में जब स्मार्टफोन का उपयोग करना सिखाया गया तो हमने यह भी समझना शुरू किया कि अन्य गूगल एप्स क्या हैं। गूगल फोटो और गूगल लेंस एप के बारे में पता चला। इसमें किसी भी प्राणी या वनस्पति का फोटो डालो तो तुरंत ही उसका वैज्ञानिक नाम मिलने की संभावना होती है। आज से दस साल पहले तक गूगल के पास लगभग दस अरब फोटो संग्रहित थे, जो अब शायद कई अरब होंगे। इस संग्रह में हरेक किस्म की तस्वीरें हैं, जिनमें से शायद पांच से दस अरब चित्र पशु-पक्षियों, कीटों, वनस्पतियों वगैरह के होंगे।

एक नई ज्ञान प्रणाली का बड़े पैमाने पर विकास विकास हुआ है, जिसे कृत्रिम बुद्धि कहते हैं। तस्वीर डालने पर गूगल का शक्तिशाली सर्च इंजन अपने भंडार से सबसे नज़दीकी चित्र ढूंढकर उस तस्वीर सम्बंधी जानकारी, वैज्ञानिक नाम वगैरह बता देता है। इसके बारे में उस युवक ने खुद से सीख लिया था और जानकारियां व्हाट्सएप ग्रुप और अपने अन्य साथियों को दे रहा था। अब गढ़चिरौली के वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक भी उस युवक को किसी पौधे का नाम ढूंढकर बताने को कहते हैं। जैसा कि मैनार्ड स्मिथ कहते हैं, ऐसी नई ज्ञान प्रणाली लोगों के हाथों में आने से सारे लोगों के पास वि·ा का समस्त ज्ञान पहुंचने की ओर कदम बढ़ रहे हैं।

किसी खाद्य पदार्थ में या हमारे आसपास कीटनाशकों की कितनी मात्रा मौजूद है यह जानकारी भी शासन द्वारा लोगों को नहीं दी जा रही है। अब तक, किसी भी चीज़ में कीटनाशक की मात्रा पता लगाने के लिए स्पेक्ट्रोफोटोमीटर चाहिए होता था। स्पेक्ट्रोफोटोमीटर तो कुछ ही आधुनिक प्रयोगशालाओं में उपलब्ध था, जैसे किसी कृषि महाविद्यालय या इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में। लेकिन यह आम लोगों की पहुंच में नहीं था। इसलिए पर्यावरण में मौजूद कीटनाशक की मात्रा पता करना आम लोगों के लिए मुश्किल था। कीटनाशकों से काफी बड़े स्तर पर जैव-विविधता की हानि हुई है। इस सम्बंध में मेरा अपना एक अनुभव है। मुझे और मेरे पिताजी को पक्षी निरीक्षण का शौक था। तो मैंने बचपन (लगभग 1947) में ही पक्षियों की पहचान करना सीख लिया था। तब हमारे यहां कीटनाशक बिलकुल नहीं थे और उस वक्त (1947-1960) हमारे घर के बगीचे और पास की छोटी-छोटी पहाड़ियों पर प्रचुर जैव-विविधता थी और काफी संख्या में पक्षी थे। जैसे-जैसे कीटनाशक भारत में फैले, पक्षी बुरी तरह तबाह हुए। उस समय की अपेक्षा अब उस पहाड़ी पर पांच-दस प्रतिशत ही प्रजातियां दिखाई पड़ती हैं, बाकी सारी समाप्त हो गई हैं या उनकी संख्या बहुत कम हो गई है।

सवाल है कि कीटनाशक कितनी मात्रा में है यह कैसे जानें? शासन तो लोगों को इसकी जानकारी ना मिले इसके लिए कार्यरत है। 1975-76 में मैसूर के सेंट्रल फूड टेक्नॉलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट में जीवन के उद्विकास व्याख्यान के लिए मेरा जाना हुआ। उनका कीटनाशक सम्बंधी एक विभाग था। वहां के प्रमुख ने बताया कि मैसूर के बाज़ार में जो खाद्य पदार्थ मिलते हैं उनमें कितनी मात्रा में कीटनाशक हैं हम इसका तो पता करते हैं, लेकिन हमें कहा गया है कि इन नतीजों को लोगों को बिलकुल नहीं बताना है। आज तक शासन लोगों से इस जानकारी को छुपाना चाहता है।

लेकिन अब, कीटनाशक की मात्रा पता लगाने वाले स्पेक्ट्रोफोटोमीटर जैसा एक यंत्र बाज़ार में उपलब्ध है जिसे खरीदा जा सकता है। हालांकि इसकी कीमत (20-25 हज़ार रुपए) के चलते आम लोग अब भी इसे नहीं खरीद सकते लेकिन एक समूह मिलकर या कोई संस्था इसे खरीद सकती है और कई लोग मिलकर उपयोग कर सकते हैं। बैंगलुरु के तुमकुर ज़िले में शाला शिक्षकों का एक संगठन है तुमकुर साइंस फोरम। इस फोरम के एक प्रोजेक्ट के तहत वे इस यंत्र की मदद से कई स्थानों, खाद्य व पेय पदार्थों में कीटनाशकों का पता लगा रहे हैं। यह जानकारी वे लोगों के लिए उपलब्ध करा देंगे। आजकल इंटरनेट आर्काइव्स नामक एक वेबसाइट पर तमाम तरह की जानकारियां अपलोड की जा सकती हैं, जिसे कोई भी देख-पढ़ सकता है। इस तरह इस नई ज्ञान प्रणाली से कुछ लोगों का ही ज्ञान पर एकाधिकार खत्म हो रहा है। लोग इस तरह की पड़ताल खुद कर सकते हैं।

 अब तक यह स्पष्ट हो गया है कि जो कुछ शासन की मंशा है वह पर्यावरण संरक्षण पूरा नष्ट करेगी। इसका असर जैव-विविधता पर भी होगा। लेकिन जैसा कि अब तक की बातों में झलकता है, हमारे पास भारत की जैव-विविधता सम्बंधी डैटा बहुत सीमित है। इसका एक बेहतर डैटाबेस बन सकता था यदि पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने का काम ठीक से किया जाता, लेकिन अफसोस, यह ठीक से नहीं किया गया। इसलिए हमारे पास बहुत ही सीमित जानकारी है, जो चुनिंदा अच्छे शोध संस्थाओं ने अपने खुद के अध्ययन करके शोध पत्रों के माध्यम से लोगों को उपलब्ध कराई है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के अध्ययनों में सामने आया है कि जैव-विविधता कम हो रही है। इस संदर्भ में यह अधिसूचना और भी खतरनाक है, लेकिन यह भी सीमित रूप से ही कहा जा सकता है क्योंकि हमारी जैव-विविधता के बारे में जानकारी ही अधूरी है।

अच्छी विज्ञान शिक्षा के प्रयास में हम सारे लोग काफी कुछ कर सकते हैं। इस दिशा में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे लोग अपने-अपने स्थानों की पंचायत, नगर पालिका या नगर निगम में प्रयत्न करके उपरोक्त जैव-विविधता प्रबंधन समिति का प्रस्ताव रख सकते हैं और जैव-विविधता रजिस्टर बना सकते हैं। इससे जैव-विविधता के बारे में बहुत ही समृद्ध जानकारी उपलब्ध होगी। और यह बनाना आसान है। गूगल फोटो या गूगल लेंस की मदद से किसी भी जगह की वनस्पति या जीव के नाम और जानकारी पता चल सकती है। इस तरह अब तक अर्जित ज्ञान को फैलाने के साथ-साथ बच्चे-युवा खुद अपने ज्ञान का निर्माण कर सकते हैं। स्कूल के स्तर पर भी शालाएं पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने में सहयोग कर सकती हैं और बना सकती हैं। गढ़चिरौली ज़िले और कई अन्य जगहों पर कई स्कूलों में इस तरह का काम किया जा रहा है, कई स्कूलों ने बहुत अच्छे से रजिस्टर बनाए हैं। इससे बच्चे दस्तावेज़ीकरण की प्रक्रिया भी सीख सकते हैं। और इन दस्तावेज़ों के आधार पर जैव-विविधता का संरक्षण कैसे किया जाए इसके बारे में पता कर सकते हैं।

अफसोस की बात है कि भारत को  छोड़कर बाकि सभी देश ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से निपटने के लिए कुछ ना कुछ कर रहे हैं। अधिक मात्रा में कोयले जैसे र्इंधनों का उपयोग करने वाले देश चीन ने भी अब साल 2050 तक कोयला जलाना बंद करना तय किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प के जाने और बाइडेन के आने से अमरीका में कोयला और पेट्रोलियम जैसे र्इंधन का इस्तेमाल कम होने की आशा है। केवल भारत ही कोयले-पेट्रोलियम का उपयोग बढ़ाता जा रहा है। माना कि हमें भी विकास और बदलाव की ओर जाना है, लेकिन किस कीमत पर। इस बारे में हमें स्वयं ही ज्ञान संपन्न होकर कदम उठाने होंगे।

लोगों में एक बड़ी गलतफहमी व्याप्त है कि विकास (या उत्पादन) और पर्यावरण इन दो के बीच प्रतिकूल (या विरोधाभासी) सम्बंध है। एक को बढ़ाने से दूसरा प्रभावित होगा। हमारे सामने कई ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जो बहुत उच्छा उत्पादन कर रहे हैं और उतनी ही अच्छी तरह से पर्यावरण की देखभाल भी कर रहे हैं। जैसे जर्मनी, स्विटज़रलैंड, डैनमार्क, स्वीडन। ये राष्ट्र उद्योगों के मामले में विश्व में अग्रणी हैं। आज भारत यह बातें करता है कि हमने उत्पादन बढ़ाया है लेकिन जिन देशों को हम पिछड़ा मानते थे (जैसे बांग्लादेश) उनका उत्पादन भारत से ज़्यादा है। भारत में जो हो रहा है, वह केवल पर्यावरण नष्ट करने वाले कई बहुत ही चुनिंदा लोगों के हित में हो रहा है।  वियतनाम, जिसका आबादी घनत्व भारत से ज़्यादा है, जो कई युद्धों के कारण बर्बाद हुआ, जहां अमरीका और फ्रांस ने मिलकर 1955-75 के दौरान विनाश किया, आज वह उद्योग में भारत से थोड़ा आगे ही है और पर्यावरण सम्बंधी सूचकांक में भी हमसे आगे है।

इन नई ज्ञान प्रणाली का उपयोग कर लोग सक्षम हो सकते हैं और शासन को चुनौती देने के लिए तैयार हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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