खराब प्रतिरक्षा कोशिकाएं हमें बूढ़ा बना सकती हैं

हाल ही में चूहों पर किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि शरीर में उपस्थित टी-कोशिकाएं हमें रोगाणुओं से बचाने के अलावा उम्र बढ़ने की गति को भी तेज़ कर सकती हैं।

देखा जाए तो आयु में वृद्धि के साथ टी-कोशिकाओं की रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता भी कम हो जाती है। इसके कारण वृद्धजन संक्रमण के प्रति अधिक और टीकों के प्रति कम संवेदनशील हो जाते हैं। टी-कोशिकाओं के कमज़ोर होने का एक कारण उनके माइटोकांड्रिया की सक्रियता में कमी है, जो कोशिकाओं को शक्ति प्रदान करने का काम करते हैं। लेकिन टी-कोशिकाओं के आधार पर न सिर्फ बुढ़ापे का अनुमान लगाया जा सकता है बल्कि ये बुढ़ापे को तेज़ करने में मदद भी करती हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि टी-कोशिकाएं शोथ-उत्तेजक अणु छोड़ती हैं जिससे बुढ़ाने की प्रक्रिया तेज़ हो जाती है।    

इन परिकल्पनाओं का परीक्षण करने के लिए युनिवर्सिटी हॉस्पिटल 12 की प्रतिरक्षा विज्ञानी मारिया मिटलब्रान और उनके सहयोगियों ने कुछ चूहों में आनुवंशिक रूप से ऐसा बदलाव किया कि उनके माइटोकांड्रिया में एक प्रोटीन समाप्त हो गया। इसकी वजह से ये कोशिकाएं माइटोकांड्रिया-आधारित कुशल ऊर्जा तंत्र की बजाय मजबूरन एक कम कार्यकुशल प्रणाली का उपयोग करने लगती हैं। साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस परिवर्तन के बाद चूहों में 7 माह की आयु, जो उनकी युवावस्था होती है, में ही बुढ़ापे के लक्षण नज़र आने लगे। वे सुस्त हो गए थे, मांसपेशियां कमज़ोर हो गई थीं और संक्रमण के प्रति प्रतिरोध भी कम हो गया था।

वैज्ञानिकों ने देखा कि परिवर्तित चूहों की टी-कोशिकाएं ऐसे अणु छोड़ रही थीं जो शोथ पैदा करते हैं। इससे लगता है कि इन चूहों के शारीरिक क्षय में टी-कोशिकाओं की भी भूमिका है।

तो वैज्ञानिकों ने उम्र बढ़ने की गति को धीमा करने के लिए इससे उल्टे प्रयोग भी करके देखे। सबसे पहले उन्होंने ट्यूमर नेक्रोसिस फैक्टर अल्फा (टीएनएफ-अल्फा) को ब्लॉक करने वाली दवा दी। टीएनएफ-अल्फा वास्तव में टी-कोशिकाओं द्वारा छोड़ा जाने वाला शोथ-उत्प्रेरक अणु है। टीएनएक-अल्फा को ब्लॉक करने से चूहों की पकड़ मज़बूत हुई, भूलभुलैया में रास्ता खोजने में उनका प्रदर्शन बेहतर हुआ और ह्मदय की क्षमता में भी वृद्धि हुई।

इसके अलावा मिटलब्रन ने चूहों को एक ऐसा पदार्थ भी दिया जो एनएडी नामक अणु के स्तर को बढ़ाता है। यह अणु कोशिकाओं को भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के सक्षम बनता है और उम्र के साथ इसके स्तर में कमी आती है। लेकिन चूहों में इसका स्तर बढ़ाने से वे अधिक सक्रिय बन गए और उनके ह्मदय भी मज़बूत हो गए।

वर्तमान में रुमेटाइड आथ्र्राइटिस और क्रोहन रोग जैसी बीमारियों के लिए टीएनएफ-अल्फा का उपयोग किया जा रहा है और कई कम्पनियां एनएडी का स्तर बढ़ाने वाली औषधियां बेचती हैं। इसलिए मिटलब्रान का सुझाव है कि इनके क्लीनिकल परीक्षण करना चाहिए कि क्या ये बुढ़ाने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती हैं। वैसे कई शोधकर्ताओं को इन परिणामों की प्रासंगिकता पर संदेह है। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/mice2_1280p.jpg

कोरोनावायरस: टीकों की प्रगति

टीकों पर काम जनवरी में कोविड-19 के लिए ज़िम्मेदार SARS-CoV-2 के जीनोम के खुलासे के बाद शुरू हुआ था। इंसानों में टीके की सुरक्षा का पहला परीक्षण मार्च मे शुरू हुआ। इस समय दुनिया भर में वैज्ञानिक कोरोनावायरस के खिलाफ 135 से ज़्यादा टीकों पर काम कर रहे हैं। हो सकता है कि इनमें से कुछ मनुष्य के प्रतिरक्षा तंत्र को वायरस के खिलाफ कारगर एंटीबॉडी बनाने को तैयार करे।

टीका विकसित करने की प्रक्रिया आसान नहीं होती। इसके कई चरण होते हैं:

  • प्रीक्लीनिकल चरण: वैज्ञानिक संभावित टीका चूहों या बंदर जैसे किसी जंतु को देकर देखते हैं कि उनमें प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा होती है या नहीं।
  • चरण 1: टीका थोड़े से मनुष्यों को दिया जाता है ताकि उसकी सुरक्षितता, खुराक की जांच के अलावा यह देखा जा सके कि मनुष्य में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उभरती है या नहीं।
  • चरण 2: टीका सैकड़ों लोगों को दिया जाता है, और विभिन्न समूहों (जैसे बच्चों, बुज़ुर्गों) को अलग-अलग दिया जाता है। मकसद चरण 1 के समान ही होता है।
  • चरण 3: टीका हज़ारों लोगों को देकर इंतज़ार किया जाता है कि उनमें से कितनों को संक्रमण हो जाता है। इस चरण में एक समूह ऐसे लोगों का भी होता है जिन्हें टीके की बजाय वैसी ही कोई औषधि दी जाती है। इस चरण में पता चलता है कि क्या वह टीका लोगों को संक्रमण से बचाता है।

फिलहाल विकसित किए जा रहे टीके विभिन्न चरणों में हैं:           

प्रीक्लीनिकल चरण चरण 1 चरण 2 चरण 3 स्वीकृत
125 8 8 2 0
अभी इंसानी परीक्षण तक नहीं पहुंचे हैं सुरक्षा और खुराक की जांच विस्तृत सुरक्षा जांच असर की व्यापक जांच स्वीकृत

कभी-कभी टीके के विकास को गति देने के लिए एकाधिक चरणों को जोड़कर एक साथ सम्पन्न किया जाता है। इस वायरस के मामले में ऑपरेशन वार्प स्पीड के तहत ऐसा किया जा रहा है। टीके विभिन्न किस्म के हैं।

जेनेटिक टीके

ये ऐसे टीके हैं जिनमें वायरस की अपनी जेनेटिक सामग्री के किसी खंड का उपयोग किया जाता है।

  • मॉडर्ना ने ऑपरेशन वार्प स्पीड के तहत वायरस के एम-आरएनए पर आधारित टीके का परीक्षण मात्र 8 लोगों पर करके चरण 1 व 2 को साथ-साथ पूरा किया, हालांकि वैज्ञानिकों ने इसके परिणामों पर शंका ज़ाहिर की है।
  • ऑपरेशन वार्प स्पीड के तहत ही जर्मन कम्पनी बायोएनटेक, फाइज़र और एक चीनी दवा कम्पनी ने मई में अपने टीके के इंसानी परीक्षण की घोषणा की और उम्मीद है कि जल्दी ही यह बाज़ार में आ जाएगा।
  • इम्पीरियल कॉलेज लंदन के वैज्ञानिकों ने आरएनए टीका विकसित किया है जो खुद अपनी प्रतिलिपियां बनाता है। उन्होंने 15 जून से चरण 1 व 2 के परीक्षण शुरू किए हैं।
  • अमेरिकी कम्पनी इनोवियो ने मई में प्रकाशित किया कि उसका डीएनए-आधारित टीका चूहों में एंटीबॉडी पैदा करता है। अब चरण 1 का परीक्षण चल रहा है।

वायरसवाहित टीके

इन टीकों में किसी वायरस की मदद से कोरोनावायरस के जीन्स को कोशिका में पहुंचाकर प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उकसाई जाती है।

  • ब्रिटिश-स्वीडिश कम्पनी एस्ट्रा-ज़ेनेका और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय मिलकर जो टीका विकसित कर रहे हैं उसमें चिम्पैंज़ी एडीनोवायरस ChAdOx1 का उपयोग एक वाहक के रूप में किया गया है। इसके चरण 2 व 3 के परीक्षण इंग्लैंड व ब्राज़ील में जारी हैं और अक्टूबर तक इमर्जेंसी टीका मिलने की उम्मीद है।
  • चीनी कम्पनी कैनसाइनो बॉयोलॉजिक्स और चीन की ही एकेडमी ऑफ मिलिट्री साइन्सेज़ के इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजी मिलकर एक एडीनोवायरस Ad5 पर आधारित टीके के विकास में लगे हैं। मई में पहली बार कोविड-19 के किसी टीके के चरण 1 के परिणाम किसी वैज्ञानिक जर्नल (लैंसेट) में प्रकाशित हुए थे।
  • बोस्टन का बेथ इस्राइल डेकोनेस मेडिकल सेंटर बंदरों के एडीनोवायरस Ad26 पर आधारित टीके का परीक्षण कर रहा है।
  • जॉनसन एंड जॉनसन ऑपरेशन वार्प स्पीड के तहत जुलाई में चरण 1 व 2 के परीक्षण शुरू करने वाला है।
  • स्विस कम्पनी नोवार्टिस जीन उपचार पर आधारित टीके का उत्पादन करेगा जिसके चरण 1 के परीक्षण 2020 के अंत तक शुरू होंगे। इस टीके में एडीनो-एसोसिएटेड वायरस की मदद से कोरानावायरस के जीन के टुकड़े कोशिकाओं में पहुंचाए जाएंगे।
  • मर्क नामक अमरीकी कम्पनी ने घोषणा की है कि वह वेसिकुलर स्टोमेटाइटिस वायरस से टीके का विकास करेगी। वह इसी तरीके से एबोला के खिलाफ एकमात्र स्वीकृत टीका बना चुकी है।

प्रोटीनआधारित टीके

ये वे टीके हैं जो कोरोनावायरस के प्रोटीन या प्रोटीन-खंड की मदद से हमारे शरीर में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उकसाते हैं।

  • मई में नोवावैक्स ने कोरोनावायरस प्रोटीन्स के अत्यंत सूक्ष्म कणों से बने टीके पर चरण 1 व 2 के परीक्षण शुरू किए।
  • क्लोवर वायोफार्माश्यूटिकल्स ने कोरोनावायरस के एक प्रोटीन के आधार पर टीका विकसित किया है जिसका परीक्षण जंतुओं पर किया जाएगा।
  • बेलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने 2002 की सार्स महामारी के बाद जो टीका विकसित किया था, उसी पर वे टेक्सास बाल चिकित्सालय के साथ मिलकर आगे काम कर रहे हैं क्योंकि सार्स का वायरस और नया वायरस काफी मिलते-जुलते हैं। अभी यह जंतु परीक्षण के चरण में है।
  • पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय ने PittCoVacc नामक टीका विकसित किया है। यह चमड़ी पर एक पट्टी के रूप में लगाया जाता है जिसके ज़रिए वायरस-प्रोटीन शरीर में पहुंच जाता है। अभी यह जंतु परीक्षण के चरण में है।
  • क्वींसलैंड विश्वविद्यालय (ऑस्ट्रेलिया) द्वारा एक परिवर्तित वायरस प्रोटीन से विकसित टीका चरण 1 में है।
  • सैनोफी नामक कम्पनी ने जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिए परिवर्तित कोरोनावायरस से प्रोटीन प्राप्त करके टीके के जंतु परीक्षण शुरू किए हैं। यह वायरस कीटों के शरीर में पाला जा सकता है।
  • वेक्सार्ट द्वारा विकसित टीका एक गोली के रूप में है, जिसमे विभिन्न वायरस प्रोटीन्स हैं। इसके चरण 1 के परीक्षण जल्दी ही शुरू होंगे।

संपूर्ण वायरस के टीके

इन टीकों में दुर्बलीकृत या निष्क्रिय कोरोनावायरस का उपयोग करके प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को उकसाया जाता है।

  • चीनी कम्पनी साइनोवैक निष्क्रिय किए गए कोरोनावायरस से बने टीके (CoronaVac) के चरण 1 व 2 के परीक्षण पूरे करके चरण 3 के परीक्षण की तैयारी कर रही है।
  • सरकारी चीनी कम्पनी साइनोफार्म ने निष्क्रिय किए गए वायरस से बने टीके के चरण 1 व 2 का परीक्षण शुरू किया है।
  • चाइनीज़ एकेडमी ऑफ मेडिकल साइन्सेज़ का इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल बायोलॉजी, जिसने पोलियो और हिपेटाइटिस-ए का टीका बनाया था, कोविड-19 के लिए निष्क्रिय वायरस आधारित टीके का चरण 1 का परीक्षण कर रहा है।

पुराने टीकों का नया उपयोग

ऐसे टीकों को उपयोग करना जो अन्य बीमारियों के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं।

  • टीबी के खिलाफ बीसीजी टीके का आविष्कार 1900 के दशक में हुआ था। ऑस्ट्रेलिया के मर्डोक चिल्ड्रंस रिसर्च इंस्टीट्यूट तथा कई अन्य स्थानों पर चरण 3 के परीक्षण चल रहे हैं कि क्या बीसीजी टीका कोरोनावायरस के खिलाफ कुछ सुरक्षा प्रदान करता है।

स्रोत: विश्व स्वास्थ्य संगठन, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिसीज़ेस, नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नॉनॉलॉजी इंफर्मेशन, न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://api.time.com/wp-content/uploads/2020/03/moderna-labs.jpg?quality=85&w=1012&h=569&crop=1

नाक के सूक्ष्मजीव संसार में मिला नया बैक्टीरिया

भारत यह तो सब जानते हैं कि कई बैक्टीरिया हमारे लिए फायदेमंद होते हैं। जैसे हमारी आंत में बसे बैक्टीरिया भोजन पचाने में मददगार हैं, जीभ और त्वचा पर बसे बैक्टीरिया हमें रोगजनकों से सुरक्षा देते हैं। और अब हाल ही में शोधकर्ताओं को हमारी नाक में भी लाभदायक बैक्टीरिया मिले हैं। सेल पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह नासिका सूक्ष्मजीव संसार नासूर (गंभीर साइनस समस्या) या एलर्जी से बचाने में मददगार हो सकता है।

युनिवर्सिटी ऑफ एंटवर्प की सूक्ष्मजीव विज्ञानी सारा लेबीर और उनके साथियों ने 100 स्वस्थ लोगों की नाक में बसे सूक्ष्मजीवों की जासूसी की और उनकी तुलना नाक या साइनस की जीर्ण सूजन वाले मरीज़ों की नाक के सूक्ष्मजीवों से की। उन्हें सामान्य तौर पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों के अलावा एक बैक्टीरिया समूह लैक्टोबेसिलस दिखा, जो स्वस्थ लोगों की नाक में 10 गुना अधिक संख्या में था। लैक्टोबेसिलस सूक्ष्मजीव-रोधी और सूजन-रोधी होते हैं।

आम तौर पर लैक्टोबेसिलस बैक्टीरिया कम ऑक्सीजन वाले क्षेत्रों में पनपते हैं, इसलिए इंसानों की नाक में इनकी मौजूदगी से शोधकर्ता हैरान थे, क्योंकि नाक तो ताज़ा हवा से भरपूर होती है। लेकिन बारीकी से अवलोकन करने पर पता चला है कि इस बैक्टीरिया में केटालेसेस नामक खास जीन्स मौजूद हैं जो अन्य लैक्टोबेसिलस बैक्टीरिया से अलग हैं। केटालेसेस सुरक्षित तरीके से ऑक्सीजन को बेअसर कर देते हैं। अर्थात ये लैक्टोबेसिलस नाक के परिवेश के लिए अनुकूलित हैं।

बैक्टीरिया पर बहुत छोटे-छोटे बाल के समान उपांग भी दिखे जो बैक्टीरिया को नाक की आंतरिक सतह पर लंगर डालने में मदद करते हैं। और लेबीर का विचार है कि बैक्टीरिया इन रोमिल उपांगों का उपयोग नाक की त्वचा की कोशिकाओं के ग्राहियों से जुड़ने के लिए करते हैं, जिससे कोशिकाओं में प्रवेश मार्ग बंद हो जाता है। यदि कोशिकाएं कम खुली रहेंगी तो एलर्जी पैदा करने वाले और नुकसानदेह बैक्टीरिया का कोशिका में प्रवेश मुश्किल होगा।

लेकिन लेबीर यह भी जानती हैं कि स्वस्थ लोगों की नाक में लैक्टोबेसिलस बैक्टीरिया की उपस्थिति मात्र के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि ये बीमारी से सुरक्षा देते हैं। इसकी पुष्टि के लिए जंतु मॉडल पर परीक्षण करना भी मुश्किल होता है क्योंकि उनकी नाक हम मनुष्यों से बहुत अलग होती है।

कुछ विशेषज्ञ इस बात से भी सहमत नहीं है कि जो लैक्टोबेसिलस मनुष्यों की नाक में मिले हैं वे नाक में बसने के लिए अनुकूलित हैं। हमारे मुंह में भी लाखों लैक्टोबेसिलस बसते हैं और हो सकता है कि छींक के माध्यम से वे नाक में पहुंच गए हों।

बहरहाल लेबीर का इरादा नासिका प्रोबायोटिक्स का उपयोग करके इलाज विकसित करने का है। वैसे तो साइनस का उपचार उपलब्ध है लेकिन गंभीर साइनस की समस्या में लगातार उपचार करने की ज़रूरत होती है जिससे एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध विकसित होने की संभावना होती है। इन बैक्टीरिया के लाभकारी हिस्से का उपयोग कर दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध हासिल करने के जोखिम को कम किया जा सकता है। इसके पहले चरण में उन्होंने नाक के लिए एक स्प्रे विकसित किया है जिसमें लैक्टोबैसिलस बैक्टीरिया हैं। इसके परीक्षण में रोगियों की नाक में बिना किसी दुष्प्रभाव के लैक्टोबेसिलस बैक्टीरिया बस गए। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/bacteria_700p.jpg?itok=SuPZStNn

कोविड-19: न टीका चाहिए, न सामूहिक प्रतिरोध – मिलिंद वाटवे

मैंने पहले एक लेख में कहा था कि इस बात की प्रबल संभावना है कि वर्तमान महामारी के लिए ज़िम्मेदार वायरस (SARS-Cov-2) का विकास इस तरह होगा कि उसकी उग्रता या अनिष्टकारी प्रवृत्ति कम होती जाएगी। मुझे ऐसी उम्मीद इसलिए है कि एक ओर तो लगभग सारे देश सारे ज्ञात कोरोना-पॉज़िटिव प्रकरणों में सख्त क्वारेंटाइन लागू कर रहे हैं। लेकिन दूसरी ओर, हम बहुत व्यापक परीक्षण नहीं करवा पाएंगे, जिसका परिणाम यह होगा कि बहुत सारे प्रकरणों में लक्षण-रहित व्यक्तियों की जांच नहीं हो पाएगी। ये लोग घूमते-फिरते रहेंगे और वायरस को फैलाते रहेंगे।

वायरस बड़ी आबादी तक पहुंचता है और इसकी उत्परिवर्तन की दर भी काफी अधिक होती है। इस वजह से तमाम परिवर्तित रूप उभरते रहेंगे। जो किस्में अधिक उग्र व अनिष्टकारी होंगी, वे गंभीर संक्रमण पैदा करेंगी, जिसके चलते ऐसे मरीज़ों की जांच होगी और उन्हें क्वारेंटाइन किया जाएगा।

दूसरी ओर, कम उग्र रूप लक्षण-रहित या हल्के-फुल्के लक्षणों वाले संक्रमण पैदा करेंगे, जो शायद स्क्रीनिंग और उसके बाद होने वाले क्वारेंटाइन से बच निकलेंगे। इसका मतलब है कि ये फैलते रहेंगे। वायरस की कई पीढियों, जो बहुत लंबी अवधि नहीं होती, में प्राकृतिक चयन कम उग्र रूपों को तरजीह देगा।

जहां वायरस सम्बंधी सारा अनुसंधान टीके के विकास, उसकी रोगजनक पद्धति या उपचार विकसित करने पर है, वहीं वायरस के जैव विकास पर कोई बात नहीं हो रही है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह है कि चिकित्सा के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को जैव विकास के लिहाज़ से सोचने की तालीम ही नहीं दी जाती। दूसरा कारण यह है कि उग्रता/अनिष्टकारी प्रवृत्ति को नापना संभव नहीं है। वायरस के डीएनए का अनुक्रमण करना, उसके द्वारा बनाए गए प्रोटीन्स का अध्ययन करना, संक्रमित व्यक्ति में एंटीबॉडी खोजना वगैरह आसान है। शोधकर्ता आम तौर वही करते हैं, जो सरल हो, न कि वह जो वैज्ञानिक दृष्टि से ज़्यादा प्रासंगिक हो।

चूंकि आप उग्रता में परिवर्तन को आसानी से नाप नहीं सकते, इसलिए इस पर आधारित परिकल्पना की कोई बात भी नहीं करता। मैं इसे विज्ञान में ‘प्रमाण-पूर्वाग्रह’ कहता हूं। यदि किसी परिकल्पना को सिद्ध करने या उसका खंडन करने के लिए प्रमाण जुटाना मुश्किल हो, तो लोग उसके बारे में चर्चा करने से कतराते हैं, क्योंकि उसके आधार पर शोध पत्र तो तैयार नहीं हो सकता। महत्व इस बात का नहीं होता कि कोई परिकल्पना जन स्वास्थ्य के लिहाज़ से वैज्ञानिक महत्व रखती है या नहीं बल्कि इस बात का होता है कि क्या आप शोध पत्र प्रकाशित कर पाएंगे।

अलबत्ता, विश्व स्तर पर रोग प्रसार के रुझान और भारतीय परिदृश्य से भी निश्चित संकेत मिल रहे हैं कि वायरस की उग्रता कम हो रही है। यद्यपि संक्रमण बढ़ रहा है, लेकिन समय के साथ मृत्यु दर लगातार कम हो रही है। पैटर्न पर नज़र डालिए। मध्य अप्रैल से, हालांकि प्रतिदिन नए संक्रमित व्यक्तियों की संख्या बढ़ी है, लेकिन प्रतिदिन मौतों की संख्या कम हुई है।

यही भारत में भी दिख रहा है। दरअसल, भारत में रोगी मृत्यु दर (यानी कोविड-19 के मरीज़ों की संख्या के अनुपात में मौतें) पहले से ही कम थी। और यह दर लगातार कम हो रही है, हालांकि प्रतिदिन कुल मौतों की संख्या में गिरावट आना शेष है।

मैंने यहां भारत में प्रतिदिन रिपोर्टेड पॉज़िटिव केसेस को प्रतिदिन रिपोर्टेड मौतों के अनुपात के रूप में प्रस्तुत किया है। यह ग्राफ उस दिन से शुरू किया है जिस दिन प्रतिदिन मृत्यु का आंकड़ा 50 से ऊपर हो गया था। यह सही है कि दिन-ब-दिन उतार-चढ़ाव दिखते हैं लेकिन फिर भी मृत्यु में लगातार कमी की प्रवृत्ति स्पष्ट है।

अब यदि हम एक सरल सी मान्यता लेकर चलें कि यही प्रवृत्ति जारी रहेगी, तो हम कह सकते हैं कि भारत में 35 दिनों में कोविड-19  साधारण फ्लू जितना खतरनाक रह जाएगा। ज़ाहिर है, यह सरल मान्यता थोड़ी ज़्यादा ही सरल है, क्योंकि ग्राफ लगातार एक सरीखा नहीं रहेगा।

दूसरी शर्त यह है कि केस-मृत्यु दर को मृत्यु दर के तुल्य नहीं माना जा सकता। किसी बढ़ती महामारी में केस-मृत्यु दर मृत्यु दर को कम करके आंकती है। 35 दिन का उपरोक्त अनुमान थोड़ा आशावादी हो सकता है। हो सकता है थोड़ा ज़्यादा समय लगे लेकिन दिशा तसल्ली देती है। मैंने अपने कुछ चिकित्सक दोस्तों से यह भी सुना है कि अब सघन देखभाल की ज़रूरत वाले मरीज़ों की संख्या भी कम हो रही है।

टीके के परीक्षण और बड़े पैमाने पर उत्पादन में कई महीने लग जाएगे और यह तत्काल उपलब्ध नहीं हो पाएगा। और शायद यह जन साधारण के लिए बहुत महंगा साबित हो।

भारत जैसे विशाल देश के लिए सामूहिक प्रतिरोध (हर्ड इम्यूनिटी) हासिल करना दूर की कौड़ी है और यह शायद एक-दो सालों में संभव न हो।

लेकिन इन दोनों चीज़ों से पहले संभवत: जैव विकास इस वायरस की जानलेवा प्रवृत्ति से निपट लेगा। इसमें कोई शक नहीं कि हमें क्वारेंटाइन को जारी रखना होगा और लक्षण-सहित मरीज़ों की बढ़िया चिकित्सकीय देखभाल करनी चाहिए लेकिन लक्षण-रहित व्यक्तियों को लेकर ज़्यादा हाय-तौबा करने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि वही हमें बचाने वाले हैं। हमें एकाध महीने इन्तज़ार करके देखना चाहिए कि क्या यह भविष्यवाणी सही होती है या नहीं। यदि यह गुणात्मक या मात्रात्मक रूप से सही साबित होती है तो चिकित्सा विज्ञान के लिए अच्छी दूरगामी सीख होगी। उग्रता प्रबंधन की रणनीति सार्वजनिक स्वास्थ्य नियोजन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। यह पहली या आखरी बार नहीं है कि कोई नया वायरस प्रकट हुआ है। ऐसा तो होता रहेगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रबंधन हेतु जैव विकास की गतिशीलता को समझना निश्चित रूप से ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/height-450,width-600,resizemode-4,imgsize-200519,msid-75397580/coronavirus-updates-india-records-28380-confirmed-cases-death-toll-rises-to-886.jpg

चमगादड़ हमारे दुश्मन नहीं हैं

रावनी फिल्मों से लेकर सांस्कृतिक चित्रणों में चमगादड़ को हमेशा से एक निराधार भय से जोड़कर दिखाया गया है। और अब कोविड-19 महामारी का मुख्य रुाोत होने के कारण चमगादड़ और भी बदनाम हुए हैं। ऐसे में हो सकता है कि चमगादड़ों को खत्म करने के प्रयास किए जाएं। तब चमगादड़ों का संरक्षण करना कठिन हो जाएगा, साथ ही उनसे मिलने वाले महत्वपूर्ण लाभों की रक्षा करना भी मुश्किल हो जाएगा। संभावना तो यह भी है कि चमगादड़ों के खात्मे से नई परेशानियों खड़ी हो जाएं।

वास्तव में चमगादड़ों की कुछ रोगाणुओं के प्रति बहुत आक्रामक प्रतिरक्षा प्रणाली होती है, जिसकी वजह से वायरस और भी घातक रूप में विकसित हो जाते हैं। ऐसे में मनुष्यों में यदि इस तरह का कोई वायरस प्रवेश कर जाता है तो यह जानलेवा बन सकता है।

लेकिन यहां चमगादड़ों से मिलने वाले लाभों पर बात करना भी आवश्यक है। चमगादड़ हमारे जंगलों को पुनर्जीवित करते हैं और उर्वरक प्रदान करते हैं। ये 300 से अधिक प्रजातियों की फसलों का परागण करते हैं। ककाओ, कपास, मकई और अन्य पौधों को कीटों से बचाते हैं। कम विकसित देशों में कीटों का सफाया करते हैं। जब अमेरिका के कृषि क्षेत्रों में कीटों का सफाया करने वाले चमगादड़ों की संख्या में कमी हुई थी तब कृषि क्षेत्रों में वाइट-नोज़ सिंड्रोम से शिशु रुग्णता और मृत्यु दर में तेज़ी से वृद्धि हुई थी क्योंकि कीटों से निपटने के लिए हानिकारक कीटनाशकों का छिड़काव बढ़ा था। चमगादड़ मलेरिया फैलाने वाले कीटनाशक प्रतिरोधी मच्छरों का भी भक्षण करते हैं।

भविष्य में सार्स और एबोला के जोखिम को कम करने के लिए चमगादड़ों को नुकसान पहुंचने से रोगों का खतरा बढ़ सकता है। पूर्व में इस तरह के असफल प्रयास पेरू, युगांडा, मिस्र, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया में किए जा चुके हैं।          

लेकिन अभी भी यह सवाल बना हुआ है कि आने वाली महामारियों को कैसे रोका जा सकता है। चमगादड़ों के संरक्षण की आवश्यकता है, साथ ही उनके क्षेत्रों में मानव गतिविधियों को कम करके संक्रमण से बचा जा सकता है। उदाहरण के लिए जंगलों के कम होने से फलभक्षी चमगादड़ों का प्रवास बांग्लादेश के खजूर के पेड़ों पर हुआ और देखते ही देखते वहां निपाह वायरस का संक्रमण शुरू हो गया। लेकिन अपने मूल निवास में रहते हुए चमगादड़ों द्वारा पालतू जानवरों में वायरस के फैलने की संभावना न के बराबर है।

ऐसे में बड़े पैमाने पर उनके प्राकृतिक वास की बहाली से हम चमगादड़ों का संपर्क मनुष्यों और पालतू जानवरों से कम कर सकते हैं। इसके अलावा हम कृत्रिम आवास और देशी फलों के वृक्षों को विशेष रूप से उनके लिए लगा सकते हैं। इसके साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके व्यापार को सीमित या समाप्त करने पर विचार करना चाहिए। यह मनुष्यों से चमगादड़ों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क को रोकने का सबसे आसान तरीका है। 

सौभाग्य से हमारे पास इस तरह के वायरसों से निपटने के कुछ नए तरीके सामने आ रहे हैं। आधुनिक जीनोम अनुक्रमण विधियों से चमगादड़-वायरस सम्बंध के रहस्यमयी क्षेत्र में कुछ रास्ता साफ हुआ। हालांकि टीकों और आधुनिक तकनीकों पर काम करने के साथ यह भी आवश्यक है कि हम चमगादड़ों को संरक्षित करने, उनकी उपस्थिति को स्वीकार करने और उनसे मिलने वाले लाभों के संदेश को लोगों तक पहुंचाएं ताकि स्वास्थ्यप्रद भविष्य संभव हो सके।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/blogs/cache/file/52212421-B891-4E87-B186500307C69CA9_source.jpg?w=590&h=800&FA38BC9D-BDDE-44EE-A1FB0FCF3C387FAF

कोविड-19 से उत्पन्न छ: संकट – रामचंद्र गुहा

ज़ादी के बाद से ही भारत कई मुश्किल दौर से गुज़रा है। भारत ने विभाजन की पीड़ा; 1960 के दशक का अकाल और युद्ध; 1970 के दशक में इंदिरा गांधी का आपातकाल; और 1980 के दशक के अंत एवं 1990 की शुरुआत में सांप्रदायिक दंगों का दर्द झेला है। हमारा देश एक बार फिर अब तक के सबसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुज़र रहा है। कारण यह है कि कोविड-19 महामारी ने कम से कम छह अलग-अलग संकटों को जन्म दिया है।

सबसे पहला और सबसे प्रत्यक्ष संकट चिकित्सा सम्बंधी है। जैसे-जैसे वायरस संक्रमण के मामले बढ़ेंगे, हमारे पहले से कमज़ोर और अति-व्यस्त स्वास्थ्य तंत्र पर और अधिक दबाव पड़ेगा। ऐसे समय में, महामारी से निपटने के प्रबंधन पर अत्यधिक ध्यान देने का मतलब होगा कि अन्य प्रमुख स्वास्थ्य समस्याएं उपेक्षित रह जाएंगी। टीबी, ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप और कई अन्य रोगों से पीड़ित करोड़ों भारतीयों को पता चल रहा है कि इलाज के लिए डॉक्टर व अस्पताल मिलना मुश्किल है, जो पहले उपलब्ध थे। इससे अधिक चिंता तो भारत में हर माह पैदा होने वाले लाखों शिशुओं की है। कई वर्षों की मेहनत से इन नवजात शिशुओं को खसरा, मम्स, पोलियो, डिप्थीरिया जैसी घातक बीमारियों के विरुद्ध टीकाकरण का एक संस्थागत ढांचा तैयार किया गया था। लेकिन हालिया ज़मीनी रिपोर्ट्स से पता चला है कि कोविड-19 की ओर अधिक ध्यान होने से राज्य सरकारें बच्चों के टीकाकरण कार्यक्रमों में पिछड़ रही हैं।        

दूसरा और स्पष्ट संकट आर्थिक संकट है। महामारी ने कपड़ा, एयरलाइन्स, पर्यटन और आतिथ्य उद्यमों जैसे रोज़गार पैदा करने वाले उद्योगों को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। इस तालाबंदी का अनौपचारिक क्षेत्र पर और भी अधिक प्रभाव पड़ा होगा। कई हज़ारों लाखों मज़दूरों, पथ-विक्रेताओं और दस्तकारों का रोज़गार छिन गया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी का अनुमान है कि मार्च की शुरुआत में जो बेरोज़गारी दर 7 फीसदी थी वह अब 27 फीसदी से अधिक हो गई है। पश्चिमी युरोप के अमीर और बेहतर प्रबंधित देशों में बेरोज़गार लोगों को इस संकट से निपटने के लिए पर्याप्त वित्तीय राहत प्रदान की जा रही है। वहीं दूसरी ओर, हमारे गरीब और खराब ढंग से प्रबंधित गणराज्य में राज्य द्वारा निराश्रित लोगों की थोड़ी ही सहायता की जाती है।

हमारे सामने तीसरा सबसे बड़ा संकट मानवीय संकट है। इस महामारी को परिभाषित करने वाली छवियां वे फोटो और वीडियो होंगे जिनमें प्रवासी मज़दूर अपने पैतृक गांव या कस्बों तक पहुंचने के लिए सैकड़ों मील की दूरी पैदल तय करते दिख रहे हैं। महामारी की गंभीरता को देखते हुए शायद एक अस्थायी राष्ट्रव्यापी तालाबंदी तो अनिवार्य थी लेकिन इसकी योजना ज़्यादा अकलमंदी से बनाई जानी चाहिए थी। हालात की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि लाखों भारतीय प्रवासी कामगार हैं जो एक बेहतर ज़िंदगी के लिए अपने परिवारों से दूर रहकर काम कर रहे हैं। पता नहीं यह तथ्य प्रधानमंत्री या उनके सलाहकारों की नज़रों में क्यों नहीं आया। यदि देश के नागरिकों को ट्रेनों और बसों की मौजूदा सुव्यवस्थित प्रणाली के साथ एक हफ्ते (न कि 4 घंटे) का समय दिया जाता तो वे सुरक्षा और सहजता से अपने घर पहुंच जाते।        

जैसा कि विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है, तालाबंदी की उपयुक्त योजना बनाने में विफलता ने जन स्वास्थ्य संकट को बढ़ाया है। बेरोज़गार श्रमिकों को मार्च के शुरू में ही अपने-अपने घर लौटने की अनुमति दी जानी चाहिए थी। उस समय वायरस के वाहकों की संख्या बहुत कम थी। लेकिन अब दो महीने के बाद केंद्र सरकार द्वारा ट्रेनों को दोबारा से शुरू करने से हज़ारों वायरस-वाहक अपने गृह-ज़िलों में वायरस ले जाएंगे।

वास्तव में यह मानवीय संकट एक व्यापक सामाजिक संकट का हिस्सा है जिसका देश आज सामना कर रहा है। कोविड-19 से काफी पहले से ही भारतीय समाज वर्ग और जाति के आधार पर बंटा ही था, धर्म को लेकर भी काफी पूर्वाग्रह से ग्रस्त था। महामारी और इसके कुप्रबंधन ने इन विभाजनों को और बढ़ावा दिया है। पहले से ही आर्थिक रूप से वंचित लोगों पर इन कष्टों का बोझ अनुपात से अधिक पड़ा है। इसी दौरान, सत्तारूढ़ दल के सांसदों (और चिंताजनक रूप से वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों) द्वारा कोविड-19 मामलों का धार्मिक चित्रण करने से भारत के पहले से ही कमज़ोर मुस्लिम अल्पसंख्यक और भी असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। एक ओर तो मुसलमानों पर दोषारोपण बेरोकटोक चलता रहा और इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री चुप रहे। खाड़ी देशों की तीखी आलोचना के बाद ही उन्होंने एक बयान जारी कर कहा कि यह वायरस किसी धर्म के बीच फर्क नहीं करता। लेकिन उस समय तक सत्तारूढ़ दल और उसके ‘पालतू मीडिया’ द्वारा फैलाया गया ज़हर आम भारतीयों की चेतना में गहराई से घर बना चुका था।            

चौथा संकट पहले के तीन संकटों की तरह स्पष्ट तो नहीं है फिर भी यह काफी गंभीर हो सकता है। यह एक उभरता हुआ मनोवैज्ञानिक संकट है। बेरोज़गार और अपने घरों के लिए पैदल निकलने के लिए मजबूर लोगों में शायद ही छोड़े गए शहरों में वापस जाने का हौसला पैदा हो पाए। एक बड़ी चिंता स्कूली बच्चों और कॉलेज के छात्रों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव की है जिनका सामना आने वाले महीनों में उनको स्वयं करना है। आर्थिक असुरक्षा के कारण वयस्कों में भी अवसाद और अन्य मानसिक बीमारियों में वृद्धि हो सकती है। इसके परिणाम स्वयं उनके लिए और उनके परिवार के लिए काफी गंभीर हो सकते हैं।            

पांचवां संकट भारत के संघीय ढांचे का कमज़ोर होना है। आपदा प्रबंधन अधिनियम के आधार पर केंद्र को स्वयं में अत्यधिक शक्तियों को केंद्रित करने की अनुमति मिल गई है। कम से कम महामारी के शुरुआती महीनों में, राज्यों को इतनी ज़रूरी स्वायत्तता भी नहीं दी गई कि अपने स्थानीय संदर्भों के अनुकूल सर्वोत्तम तरीकों से चुनौतियों से निपट सकें। केंद्र ऊपर से एक के बाद एक मनमाने और परस्पर विरोधी निर्देश जारी करता रहा। इस बीच, केंद्र द्वारा राज्यों को वित्तीय संसाधनों से वंचित रखा गया; यहां तक कि उनके हिस्से के जीएसटी संग्रहण के उनके हिस्से का भुगतान भी नहीं किया गया। 

छठा संकट, जो पांचवे संकट से जुड़ा है, भारतीय लोकतंत्र का कमज़ोर होना है। इस महामारी की आड़ में बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे निष्ठुर कानूनों के तहत हिरासत में लिया जा रहा है। कई अध्यादेश पारित किए जा रहे हैं और संसद में चर्चा किए बिना ही महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लिए जा रहे हैं। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के मालिकों पर सरकार की आलोचना न करने का दबाव डाला जा रहा है। इसी बीच, राज्य और सत्तारूढ़ दल प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व को चमकाने में लगे हैं। आपातकाल के दौरान, एक अकेले देवकांत बरुआ ने कहा था कि ‘इंदिरा भारत है और भारत इंदिरा है’; लेकिन अब तो चाटुकारिता की होड़ लगी है।   

भारतीय चिकित्सा तंत्र अत्यंत दबाव में रहा है; भारतीय अर्थव्यवस्था जर्जर स्थिति में है; भारतीय समाज विभाजित और नाज़ुक है; भारत का संघीय ढांचा पहले से कहीं अधिक कमज़ोर है। भारतीय राज्य तेज़ी से सत्तावादी बन रहा है। इन सबका मिला-जुला प्रभाव ही इसे देश के विभाजन के बाद का सबसे बड़ा संकट बना देता है। 

एक देश के रूप में हम कैसे अपनी अर्थव्यवस्था, समाज और राजतंत्र के लिए इस कठिन समय में से बगैर किसी बड़े नुकसान के उबर सकते हैं? सबसे पहले तो, सरकार को उन समस्याओं के विभिन्न (और परस्पर सम्बंधित) आयामों को पहचानना होगा जिनका सामना वर्तमान में हमारा राष्ट्र कर रहा है। दूसरा, सरकार को 1947 में जवाहरलाल नेहरु और वल्लभभाई पटेल द्वारा लिए गए फैसलों से कुछ सीख लेना चाहिए। उन्होंने उस समय की चुनौतियों की गंभीरता को पहचानते हुए अपने वैचारिक मतभेदों को अलग रखकर बी. आर. अंबेडकर जैसे भूतपूर्व विरोधियों को भी कैबिनेट में शामिल किया था। इस तरह की एक राष्ट्रीय सरकार बनाना तो अब संभव नहीं है लेकिन प्रधानमंत्री जानकार और समझदार विपक्षी नेताओं से सक्रिय परामर्श तो ले ही सकते हैं। तीसरा, प्रधानमंत्री को बिना सोचे-विचारे लिए गए नाटकीय असर वाले आकस्मिक फैसले लेने की बजाय अर्थशास्त्र, विज्ञान और सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञों का सम्मान करना चाहिए और उन पर भरोसा करना सीखना चाहिए। चौथा, केंद्र और सत्तारूढ़ दल को उन राज्यों को परेशान करने की अपनी इच्छा को पूरी तरह छोड़ देना चाहिए जहां उनका शासन नहीं है। पांचवां, केंद्र को सिविल सेवाओं, सशस्त्र बलों, न्यायपालिका और जांच एजेंसियों को सत्ता का हथियार बनाने के बजाय पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करनी चाहिए।  

यह हमारे अतीत और वर्तमान पर एक व्यक्ति की समझ पर आधारित सुझावों की एक आंशिक सूची है। यह कोई साधारण संकट नहीं है, बल्कि शायद गणतंत्र के इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती है। इससे निपटने के लिए हमारे सारे संसाधनों और संवेदना की आवश्यकता होगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://thekootneeti.in/wp-content/uploads/2020/03/139023-nikhclfcox-1585308116-720×340.jpg

आधा मस्तिष्क भी काम करता है! – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

‘सिर में भूसा भरा है क्या?’ ऐसे ताने अक्सर यह जताने वाले होते हैं कि मस्तिष्क नहीं है। सही भी है अगर मस्तिष्क नहीं है तो शरीर मुर्दे के समान बिस्तर पर पड़ा रहता है जैसा अक्सर ब्रोन डेथ के मामले में होता है। मस्तिष्क हमारी चेतना, विचार, स्मृति, बोलचाल, हाथ-पैरों की गति और हमारे शरीर के भीतर अनेक अंगों के कार्य को नियंत्रित करता है। कुछ लोगों को लगता है कि उनका मस्तिष्क जानकारियों से ठूंस-ठूंस कर भरा है और उसका इंच भर हिस्सा भी निकालकर अलग कर दिया जाए तो मस्तिष्क कार्य नहीं कर सकेगा। तो ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जिसके पास आधा मस्तिष्क हो। तो क्या वह सामान्य क्रियाकलाप कर सकेगा या ज़िंदा भी बचेगा?

हेनरी के जन्म के कुछ ही घंटों के पश्चात मां मोनिका जोन्स यह समझ गई थी कि उनका नवजात बेटा एक दुर्लभ और गंभीर न्यूरोलॉजिकल समस्या से पीड़ित है। हेनरी के मस्तिष्क का एक तरफ का हिस्सा असामान्य रूप से बड़ा था और उसे प्रतिदिन सैकड़ों मिर्गी जैसे दौरे पड़ते थे। दवाएं भी बेअसर लग रही थी। फिर डॉक्टरों के सुझाव से अनेक ऑपरेशन का दौर साढ़े तीन माह की उम्र में प्रारंभ हुआ और 3 साल का होते-होते हेनरी आधा मस्तिष्क विहीन हो गया।

मस्तिष्क के ऑपरेशन की प्रक्रिया कोई नई नहीं है। 1920 में पहली बार मस्तिष्क का ऑपरेशन किया गया था जिसमें मस्तिष्क का कैंसर युक्त हिस्सा निकालकर अलग कर दिया गया था। उसके बाद कई ऑपरेशन किए जा चुके हैं। यह ज्ञात है कि यदि किसी बच्चे का आधा मस्तिष्क बीमारियों के कारण ठीक से कार्य नहीं कर पाता है तो ऑपरेशन करके निकाल देने पर भी वह भला चंगा होकर पढ़ना-लिखना, खेलना-कूदना जैसे सामान्य कार्य कर लेता है। आधे मस्तिष्क को सही तरीके से कार्य करता देखकर वैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित हैं।

मोटे तौर पर आधे मस्तिष्क वाले ऐसे मरीज़ों में से 20 प्रतिशत तो वयस्क होकर सामान्य रोज़गार भी प्राप्त कर लेते हैं। शोध पत्रिका सेल रिपोट्र्स में प्रकाशित एक हालिया शोध से पता चलता है कि आधे मस्तिष्क में पुनर्गठन के कारण कुछ व्यक्ति पहले की तरह ठीक हो जाते हैं।

कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में कार्यरत संज्ञान वैज्ञानिक डॉरिट किलमैन कहते हैं कि मस्तिष्क बहुत ही लचीला यानी अपने कार्य को पुनर्गठित करने में सक्षम होता है। यह मस्तिष्क की संरचना में अचानक उत्पन्न हुए नुकसान की भरपाई भी कर सकता है। कुछ मामलों में नेटवर्क खो चुके हिस्से के कार्य को शेष मस्तिष्क पूरी तरह अपना लेता है।

उपरोक्त अध्ययन को आंशिक रूप से एक गैर-लाभकारी संगठन द्वारा वित्त पोषित किया गया। श्रीमती जोन्स और उनके पति ने यह संगठन ऐसे मरीज़ों की मदद के लिए बनाया था जो मिर्गी जैसे दौरे रोकने के लिए ऑपरेशन कराने के इच्छुक थे। अध्ययन के निष्कर्ष बड़े बच्चों में भी आधा मस्तिष्क निकालने के संदर्भ में उत्साहवर्धक हैं।

सेरेब्राम मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग है। यह वाणि, विचार, भावनाएं, पढ़ने, लिखने और सीखने तथा मांसपेशियों के कार्यों को नियंत्रित करता है। इसका दायां भाग शरीर के बार्इं ओर की मांसपेशियों और बायां भाग शरीर के दार्इं ओर की मांसपेशियों को नियंत्रित करता है। यद्यपि सेरेब्राम के दोनों भाग (हेमीस्फीयर) दिखने में एक जैसे दिखते हैं किन्तु कार्य में एक-से नहीं होते। इसका बायां भाग उन कार्यों को भी करता है जिनमें तर्क लगते हैं जैसे विज्ञान और गणित की समझ। जबकि दायां भाग अन्य कार्यों के अलावा रचनात्मक और कला से सम्बंधित कार्यों को नियंत्रित करता है। सेरेब्राम के दोनों आधे भाग कार्पस केलोसम से जुड़े हुए होते हैं। मस्तिष्क का यह भाग ऊपर से सपाट न होकर कई दरारों एवं उभारों से मिलकर बनता है और अखरोट जैसी संरचना वाला होता है। राइट हेंडेड व्यक्तियों में सेरेब्राम का बायां भाग प्रभावी होता है तथा मुख्य रूप से भाषा की समझ, बोलने को नियंत्रण करता है।

ऐसे लोग जिनका हेमिस्फेरोक्टोमी (सेरेब्राम का आधा हिस्सा निकाल देने का ऑपरेशन) हुआ हो, सामान्य व्यक्ति की तरह ही दिखते और व्यवहार करते हैं। पर मेग्नेटिक रेसोनेन्स इमेजिंग (एम.आर.आई.) की रिपोर्ट बताती है कि उनके मस्तिष्क का आधा भाग बचपन में ही निकाल दिया गया था। यह ज्ञात होते ही ऐसा लगता है कि ऐसे व्यक्तियों का सामान्य कार्य करना असंभव है। खास कर जब इसकी तुलना ह्मदय जैसे किसी अंग से की जाए।

क्या ह्मदय को दो बराबर हिस्सों में बांटने पर वह कार्य कर पाएगा? बिलकुल नहीं। आप अपने मोबाइल को अगर दो हिस्सों में बांट दे तो यह काम नहीं करेगा। इस प्रकार मस्तिष्क के बहुत से कार्य ऐसे हैं जहां सेरेब्राम के दोनों भाग मिलकर कार्य करते हैं जैसे चेहरे की पहचान। परंतु हाथ हिलाने जैसे कार्य मस्तिष्क के एक भाग से होते हैं। एक मधुर संगीत के लिए गायक और अनेक वाद्य यंत्रों की जुगलबंदी ज़रूरी है। लगभग ऐसा ही मस्तिष्क के भागों का कार्य है। इस सबकी बजाय शोधकर्ताओं ने पाया कि सामान्य कनेक्शन की तुलना में आधे बचे मस्तिष्क ने बचे हुए कनेक्शन को मज़बूत किया और तंत्रिकाओं के बीच बेहतर तालमेल एवं संवाद बैठाया। यह बिल्कुल उस परिस्थिति के जैसा था जहां युगल गीत के कार्यक्रम में जोड़ीदार की अनुपस्थिति में एक ही गायक ने महिला एवं पुरुष दोनों की आवाज निकालकर गाना गाया हो। वैसे ही मस्तिष्क के भाग भी मल्टीटाÏस्कग यानी बहु-कार्य करने लगे थे।

शोधकर्ताओं के लिए ये परिणाम उत्साहजनक हैं और वे अभी भी इस प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे हैं। लगभग 200 बच्चों में मस्तिष्क के ऑपरेशन करने वाले बाल न्यूरोलाजिस्ट डॉ. अजय गुप्ता कहते हैं कि मस्तिष्क परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालने में बेहद कामयाब रहता है। अक्सर हेमिस्फेरेक्टोमी के ऑपरेशन्स 4 या 5 वर्ष की आयु के बच्चों में बेहद सफल रहे हैं क्योंकि बड़े होने से पहले उनका मस्तिष्क कमियों की पूर्ति कर लेता है। यद्यपि दौरे पड़ने वाले वयस्क मरीज़ों में मस्तिष्क का ऑपरेशन अंतिम उपाय ही माना जाता है।

बच्चों में भी ये ऑपरेशन बेहद गंभीर होते हैं। मस्तिष्क के निकले हुए हिस्से में तरल भरने से लगातार सिर दुखने जैसी अवस्था बनी रहती है। ऑपरेशन के बाद बच्चे कमज़ोर हो जाते हैं और एक तरफ के हाथ-पैर पर नियंत्रण नहीं रह पाता है। इसके अलावा एक तरफ का दिखना बंद हो सकता है तथा आवाज़ किस दिशा से आ रही है यह बोध भी नहीं हो पाता है। बच्चे की शिक्षा के दौरान पढ़ने, लिखने और गणित पर ज़्यादा ध्यान देना होता है। वयस्क होते-होते ऐसे बच्चे मस्तिष्क के द्वारा मल्टी टास्किंग अपनाने के कारण सामान्य हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/SRECiGdPSyaum7JeLPaQfQ-650-80.jpg

पारंपरिक विश्वास और आज का विज्ञान – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कुछ दिनों पहले राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा अभियान के केंद्रीय प्रभारी मंत्री ने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) से संपर्क करके यह सुझाव दिया था कि परिषद कोरोनावायरस के संक्रमण (कोविड-19) के इलाज में गंगाजल के उपयोग पर शोध करे। इस पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने स्पष्ट किया कि इस सम्बंध में उपलब्ध डैटा इतना पुख्ता नहीं है कि इसके नैदानिक परीक्षण शुरू किए जा सकें और इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया – क्या बात है!

लाखों लोग गंगा नदी को दुनिया की सबसे पवित्र और पूजनीय नदी मानते हैं। समुद्र तल से 3.9 कि.मी. या 13,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित, हिमालय के गंगोत्री ग्लेशियर के गौमुख से निकलने के बाद, रास्ते में कई धाराओं का जल अपने में समाहित करते हुए, हरिद्वार के पास देवप्रयाग में आकर यह गंगा नदी कहलाती है। गंगा उत्तर भारत के मैदानी इलाकों – उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से होते हुए 2525 किलोमीटर की दूरी तय कर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती हैं। गंगा के किनारे बसे लोग (ज़्यादातर हिंदू, लेकिन कुछ अन्य भी) इसे पूजते हैं, इसमें स्नान करते हैं, और पूजा और अन्य धार्मिक कार्यों के लिए इसका जल अपने घरों में रखते हैं (गंगाजल विदेशों में बेचा भी जाता है जैसे कैलिफोर्निया की भारतीय दुकानों में मैंने खुद देखा है)। गंगा मैया के प्रति लोगों की श्रद्धा और भक्ति ऐसी ही है।

पवित्र और अपवित्र

यह दुर्भाग्य है कि सदियों से हरिद्वार क्षेत्र में ही मानव अवशिष्ट निपटान और व्यवसायिक कारणों से गंगा का जल प्रदूषित होता जा रहा है। एप्लाइड वॉटर साइंस पत्रिका में आर. भूटानिया और उनके साथियों ने 2016 में जल गुणवत्ता सूचकांक के संदर्भ में हरिद्वार में गंगा नदी के पारिस्थितिकी तंत्र का आकलन शीर्षक से एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसे पढ़कर निराशा ही होती है। गंगा के प्रदूषण पर सबसे ताज़ा अध्ययन न्यूयॉर्क टाइम्स के 23 दिसंबर 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस आलेख में आईआईटी दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा गंगा के संदूषण और इसमें हानिकारक बैक्टीरिया, जो वर्तमान में उपयोग की जाने वाली एंटीबयोटिक दवाइयों के प्रतिरोधी भी हैं, की उपस्थिति के बारे में प्रस्तुत रिपोर्ट का सार प्रस्तुत किया गया है। दूसरे शब्दों में, जहां से गंगा बहना शुरू होती है ठेठ वहीं से  इसका जल (गंगाजल) मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। जैसे-जैसे यह आगे बहती है कारखानों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा इसमें डाल दिया जाता है, जिससे इसके पानी की गुणवत्ता और सुरक्षा और भी कम हो जाती है। और, हाल ही में पुण्य नगरी वाराणसी की एक रिपोर्ट कहती है कि वर्तमान लॉकडाउन के दौरान गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में 40-50 प्रतिशत सुधार हुआ है (इंडिया टुडे, 6 अप्रैल 2020)।

हमने यह लौकिक अनाचार होने कैसे दिया? निश्चित रूप से, गंगा जल का उपयोग करने वाले अधिकतर लोग श्रद्धालु हैं; यहां तक कि कई उद्योगों के प्रमुख या मालिक भी गंगा को पवित्र मानते होंगे। और तो और, समय-समय पर इसके जल का पूजा में उपयोग करते होंगे। लेकिन फिर भी वे इसे प्रदूषित करते हैं। (यहां यह ज़रूरी नहीं कि ‘लौकिक’ शब्द इन लोगों के विश्वास को नकारता है बल्कि यह लोगों के सांसारिक सरोकार दर्शाता है, और यह  ‘अच्छाई बनाम बुराई’ या ‘देवता बनाम शैतान’ का मामला नहीं है)। दरअसल, ‘इससे मुझे क्या फायदा होगा’ वाला रवैया लोकाचार की दृष्टि से (और शायद नैतिक रूप से भी) गलत है। इस दोहरेपन के चलते लगता नहीं कि गंगा मैया का भविष्य स्वच्छ और सुरक्षित है।

डॉल्फिनघड़ियाल से सीख

वापस विज्ञान पर आते हैं। जैसा कि उल्लेख है गंगा में अत्यधिक ज़हरीले रोगाणु (और हानिकारक रासायनिक अपशिष्ट) मौजूद हैं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि इसमें रहने वाली मछलियों की 140 प्रजातियां, उभयचरों की 90 प्रजातियां, सरीसृप, पक्षी, और गंगा नदी की प्रसिद्ध डॉल्फिन और घड़ियाल (मछली खाने वाले मगरमच्छ) इस प्रदूषित पानी का सामना कर पाते हैं, खासकर अब, जब यह कोविड-19 वायरस से भी संदूषित है। क्या उनके पास विशेष प्रतिरक्षा है, और क्या वे ऐसे रोगजनकों से लड़ने के लिए इनके खिलाफ एंटीबॉडी बनाते हैं? यह एक ऐसा मुद्दा है जिसका ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए और इसे मानव की रक्षा के लिए अपनाया जाना चाहिए।

ऐसे ही कुछ दिलचस्प अवलोकन लामा, ऊंट और शार्क जैसे जानवरों की प्रतिरक्षा के अध्ययनों में सामने आए हैं। साइंस पत्रिका के 1 मई 2020 के अंक में मिच लेसली बताते हैं कि जीव विज्ञानियों ने लामा के रक्त और आणविक सुपरग्लू की मदद से वायरस से लड़ने का एक नया तरीका खोजा है। यह देखा गया है कि लामा, ऊंट और शार्क की प्रतिरक्षा कोशिकाएं लघु एंटीबॉडी छोड़ती हैं जो सामान्य एंटीबॉडी से लगभग आधी साइज़ की होती हैं। मुख्य बात यह है कि ये जानवर लघु एंटीबॉडी बनाते हैं जिन्हें प्रयोगशाला में आसानी से संश्लेषित किया जा सकता है और वायरस के खिलाफ हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इस बारे में विस्तार से बताता एक शोध पत्र हाल ही में सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। डॉल्फिन के संदर्भ में सी. सेंटलेग और उनके साथियों का पेपर अधिक प्रासंगिक है। यह अध्ययन भूमध्यसागर और अटलांटिक सागर के केनेरी द्वीप के डॉल्फिन्स पर किया गया है। भूमध्य सागर अत्यधिक प्रदूषित है जबकि केनरी द्वीप का पानी शुद्ध है।

मुझे लगता है कि हम इन अध्ययनों से सीख सकते हैं। गंगा नदी की डॉल्फिन और घड़ियालों पर शोध करके उनकी लघु-एंटीबॉडी की पहचान कर सकते हैं, उन्हें लैब में संश्लेषित कर सकते हैं, और इन्हें कोविड-19 और ऐसे अन्य वायरसों से मनुष्य की सुरक्षा के लिए अपना सकते हैं। हैदराबाद स्थित डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी प्रयोगशाला, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बायोटेक्नोलॉजी में यह शोध किया सकता है।

संगम कैसे हो

उपरोक्त मंत्री के विपरीत आयुष मंत्रालय के प्रभारी मंत्री का अनुरोध है कि अश्वगंधा, मुलेठी, गिलोय और पॉलीहर्बल औषधि (जिसे आयुष 64 कहते हैं) की कोविड-19 के खिलाफ रोग-निरोधन की प्रभाविता जांचने के लिए एक नियंत्रित रैंडम अध्ययन करवाया जाए। यह अध्ययन किया जाना चाहिए क्योंकि पर्याप्त प्रमाण हैं कि पारंपरिक जड़ी-बूटियों और पादप रसायनों में चिकित्सकीय गुण होते हैं, और दवा कंपनियां उनके सक्रिय रसायनों को खोजकर, संश्लेषित करके उपयोग करती हैं। बहुविद एम. एस. वलियाथन पिछले दो दशकों से आयुर्वेद चिकित्सकों, जैव रसायनविदों,कोशिका जीव विज्ञानियों, आनुवंशिकीविदों और नैनोप्रौद्योगिकीविदों के साथ मिलकर आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करके पारंपरिक औषधियों के प्रभावों को परखने का काम कर रहे हैं। (जैसे आप उनका 1 मार्च 2016 के प्रोसीडिंग्स ऑफ दी इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी में प्रकाशित पदक व्याख्यान ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान : पहला दशक’ पढ़ सकते हैं। इसमें वे आधुनिक विज्ञान की मदद से आयुर्वेद पर किए गए प्रयोगों, और उनके प्रमाणित परिणामों के बारे में बताते हैं।) 2012 में प्लॉस वन पत्रिका में वी. द्विवेदी का ऐसा ही एक पेपर ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर मॉडल पर पारंपरिक आयुर्वेदिक औषधियों के प्रभावों का चिकित्सीय अनुप्रयोगों से सम्बंध प्रकाशित हुआ था। तो इस तरह से परंपरा और आज के विज्ञान का संगम संभव, वे साथ आ सकते हैं।

आयुष शायद कोविड-19 से लड़ सकता है, गंगा जल तो मात्र इसे धारण कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/cxc8i6/article31602048.ece/ALTERNATES/FREE_960/17TH-SCIGHARIAL

महामारी के अगले दो वर्ष

वैसे तो कोई नहीं जानता कि कोविड-19 महामारी के अगले अंकों में क्या होने वाला है लेकिन अधिकांश विशेषज्ञ सहमत हैं कि यह महामारी लगभग दो साल जारी रहेगी। युनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा के शोधकर्ताओं द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट में वर्ष 1700 से लेकर अब तक की 8 फ्लू महामारियों की जानकारी के साथ कोविड-19 महामारी का डैटा भी शामिल किया गया है। 

इस रिपोर्ट के अनुसार SARS-CoV-2 (नया कोरोनावायरस) इन्फ्लुएंज़ा के वायरस की एक किस्म तो नहीं है लेकिन इसमें और फ्लू महामारी के वायरसों के बीच कुछ समानताएं हैं। दोनों ही श्वसन मार्ग के वायरस हैं जिनकी लोगों में कोई पूर्व प्रतिरक्षा उपस्थित नहीं है। दोनों ही लक्षण-रहित लोगों से अन्य लोगों में फैल सकते हैं। लेकिन अंतर यह है कि कोविड-19 वायरस अन्य फ्लू वायरस की तुलना में अधिक आसानी से फैलता नज़र आ रहा है और SARS-CoV-2 संक्रमणों का एक ज़्यादा बड़ा हिस्सा लक्षण-रहित लोगों से फैलाव के कारण हो रहा है।

इसके आसानी से फैलने की क्षमता को देखते हुए लगभग 60 प्रतिशत से 70 प्रतिशत आबादी को प्रतिरक्षा विकसित करना होगा, तभी हम हर्ड इम्यूनिटी यानी झुंड प्रतिरक्षा से लाभांवित हो पाएंगे। हालांकि इसमें अभी काफी समय लगेगा क्योंकि अभी कुल आबादी की तुलना में बहुत कम लोग इससे संक्रमित हुए हैं।

रिपोर्ट में कोविड-19 के भविष्य को लेकर तीन संभावित परिदृश्य प्रस्तुत किए गए हैं।

परिदृश्य 1: इस परिदृश्य में, वर्तमान कोविड-19 तूफान के बाद कुछ छोटे-छोटे सैलाबों की शृंखलाएं आएंगी। ये दो साल की अवधि तक निरंतर आती रहेंगी और धीरे-धीरे 2021 तक खत्म हो जाएंगी।

परिदृश्य 2: एक संभावना यह है कि 2020 के वसंत में प्रारंभिक लहर के बाद सर्दियों के मौसम में एक बड़ा सैलाब उभरे, जैसा कि 1918 की फ्लू महामारी में हुआ था। हो सकता है इसके बाद एक-दो छोटी लहरें 2021 में भी सामने आएं।

परिदृश्य 3: कोविड-19 की शुरुआती वसंती लहर के बाद इसके संक्रमण की रफ्तार कम हो जाए और आगे कोई विशेष पैटर्न नज़र न आए।

रिपोर्ट के अनुसार नई लहरों का सामना करने के लिए समय-समय पर अलग-अलग क्षेत्रो में आवश्यकतानुसार नियंत्रण के उपाय करने होंगे और छूट देना होगा ताकि स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक बोझ न पड़े। फिलहाल जो भी परिदृश्य उभरकर आता हो, हमें कम से कम 18 से 24 महीनों तक कोविड-19 की सक्रियता के लिए तैयार रहना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/iJ7gwqmNTVngaCTdF9UAg6-650-80.jpg

ऑटिज़्म अध्ययन को एक नई दिशा

प्रोफेशनल बर्नऑउट यानी काम के बोझ से उपजे तनाव और काम के प्रति अरुचि से तो हम वाकिफ हैं। लेकिन ऑटिज़्म इन एडल्टहुड पत्रिका में प्रकाशित एक ताज़ा शोध कहता है कि ऑटिस्टिक लोगों को बर्नआउट महज़ अधिक काम के दबाव से नहीं होता बल्कि ऑफिस में गैर-ऑटिस्टिक लोगों के साथ काम करते वक्त अपने ऑटिस्टिक व्यवहार को छिपाने का जो अभिनय करना पड़ता है वह एकदम थकाऊ होता है। इसके चलते उनमें ध्वनि और प्रकाश को बर्दाश्त करने की क्षमता में कमी आती है और वे अपने हुनर भी गंवा बैठते हैं।

पोर्टलैंड स्टेट युनिवर्सिटी के डोरा रेमेकर और साथियों ने अपने अध्ययन में ऑटिस्टिक लोगों के साक्षात्कार लिए और सोशल मीडिया पर लिखी टिप्पणियों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि हमें ऑटिस्टिक-हितैषी कार्यस्थलों की ज़रूरत है जहां लोगों को अपने ऑटिस्टिक व्यवहार को छिपाना ना पड़े। रेमेकर बताते हैं कि अक्सर ऑटिस्टिक व्यक्ति पर ही इस समस्या से निपटने का दबाव होता है। बल्कि कार्यस्थलों पर ऐसे माहौल की ज़रूरत है जो ऑटिस्टिक व्यक्ति को उसी रूप में स्वीकार करें जैसे वे हैं, और काम में लचीलापन दें।

रेमेकर ने ऑटिज़्म अध्ययन को एक नई दिशा दी है। ऑटिज़्म के परंपरागत अध्ययन ऑटिज़्म के कारण और इलाज की पड़ताल करते हैं और बच्चों पर केंद्रित रहते हैं। इसके विपरीत इस अध्ययन ने ऑटिज़्म की व्यवहारगत मुश्किलों की ओर ध्यान दिलाया है और इसमें ऑटिस्टिक वयस्कों को शामिल किया गया है, जिन्होंने अपने अनुभव अध्ययन में जोड़े। ऐसे ही एक अन्य अध्ययन में यह देखने की कोशिश की जा रही है कि कैसे शिक्षक और कर्मचारी कॉलेज में ऑटिस्टिक छात्रों के अनुभवों को बेहतर बना सकते हैं।

वैसे तो कई अध्ययन हाशिएकृत लोगों को ध्यान में रखकर किए जा रहे हैं लेकिन अब भी अध्ययन में ऑटिस्टिक लोगों को शामिल करना आसान नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि अध्ययन करने वालों में यदि ऑटिस्टिक व्यक्ति होंगे तो हो सकता है कि उनके पूर्वाग्रहों के चलते अध्ययनों की वस्तुनिष्ठता में कमी आए। इस पर अध्ययन की सह-लेखिका निकोलेडिस का कहना है कि ऑटिस्टिक लोगों ने ही उनके सर्वेक्षण उपकरणों में तब्दीली करने में मदद की। जैसे एक सवाल था: ‘आप इस गतिविधि को ____ प्रतिशत समय करते हैं।’ बौद्धिक विकलांगता वाले ऑटिस्टिक लोगों ने प्रतिशत के साथ काम करने में असुविधा व्यक्त की इसलिए उनकी टीम ने प्रतिशत के स्थान पर रंगभरे चित्रों का उपयोग किया। उनका कहना है कि यदि ऑटिस्टिक लोगों के साथ किए गए अध्ययन में सामान्य साधन उपयोग किए होते तो परिणाम सही नहीं आते।

इसी तरह की पहल पिछले वर्ष शुरू हुए जर्नल ऑटिज़्म इन एडल्टहुड ने की है, जिसकी मुख्य संपादक निकोलेडिस हैं और एक संपादक स्व-घोषित ऑटिस्टिक रेमेकर हैं। कई लोग इसकी नीतियों से हैरान हो सकते हैं। जैसे इसमें प्रकाशन के लिए आने वाले हर अध्ययन की कम से कम एक समीक्षा ऑटिस्टिक समीक्षक द्वारा की जाती है। ऑटिस्टिक समीक्षक शोध पत्र की भाषा और जानकारी की बोधगम्यता पर टिप्पणी करते हैं। यह पहली बार है कि ऑटिस्टिक लोगों की बात को सुना गया है, अहम माना गया है। ऑटिस्टिक वयस्कों का अपने लिए बोलने का अधिकार और कर्तव्य बनता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0501NID_Autism_Adulthood_online.jpg?itok=OuQloFzX