डेपो-प्रॉवेरा और एड्स: एक विवादास्पद जांच – डॉ. सी. सत्यमाला

यह आलेख डॉ. सी. सत्यमाला के ब्लॉग डेपो-प्रॉवेरा एंड एच.आई.वी. ट्रांसमिशन: दी ज्यूरी इस स्टिल आउट का अनुवाद है। मूल आलेख को निम्नलिखित लिंक पर पढ़ा जा सकता है: https://issblog.nl/2019/07/23/depo-provera-and-hiv-transmission-the-jurys-still-out-by-c-sathyamala/

एड्स वायरस (एच.आई.वी.) के प्रसार और डेपो-प्रॉवेरा नामक एक गर्भनिरोधक इंजेक्शन के बीच सम्बंध की संभावना ने कई चिंताओं को जन्म दिया है। एक प्रमुख चिंता यह है कि यदि इस गर्भनिरोधक इंजेक्शन के इस्तेमाल से एच.आई.वी. संक्रमण का खतरा बढ़ता है तो क्या उन इलाकों में इसका उपयोग किया जाना चाहिए जहां एच.आई.वी. का प्रकोप ज़्यादा है। जुलाई के अंत में विश्व स्वास्थ्य संगठन इस संदर्भ में दिशानिर्देश विकसित करने के लिए एक समूह का गठन करने जा रहा है ताकि हाल ही में सम्पन्न एक अध्ययन के परिणामों पर विचार करके डेपो-प्रॉवेरा की स्थिति की समीक्षा की जा सके। अलबत्ता, जिस अध्ययन के आधार पर यह समीक्षा करने का प्रस्ताव है, उसके अपने नतीजे स्पष्ट नहीं हैं। इसलिए ज़रूरी होगा कि जल्दबाज़ी न करते हुए विशेषज्ञों, सम्बंधित देशों के स्वास्थ्य अधिकारियों और सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों को अपनी राय व्यक्त करने हेतु पर्याप्त समय दिया जाए।

जुलाई 29-31 को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) एक दिशानिर्देश विकास समूह का गठन करने जा रहा है जो “एच.आई.वी. का उच्च जोखिम झेल रही” महिलाओं के लिए गर्भनिरोधक विधियों के बारे में मौजूदा सिफारिशों की समीक्षा करेगा। इस समीक्षा में खास तौर से एक रैंडमाइज़्ड क्लीनिकल ट्रायल के नतीजों पर ध्यान दिया जाएगा। एविडेंस फॉर कॉन्ट्रासेप्टिव ऑप्शन्स एंड एच.आई.वी. आउटकम्स (गर्भनिरोधक के विकल्प और एच.आई.वी. सम्बंधी परिणाम, ECHO) नामक इस अध्ययन के परिणाम पिछले महीने लैन्सेट नामक पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं। ECHO ट्रायल चार अफ्रीकी देशों (दक्षिण अफ्रीका, केन्या, स्वाज़ीलैंड और ज़ाम्बिया) में किया गया था। इसका मकसद लंबे समय से चले आ रहे उस विवाद का पटाक्षेप करना था कि डेपो-प्रॉवेरा इंजेक्शन लेने से महिलाओं में एच.आई.वी. प्रसार की संभावना बढ़ती है। गौरतलब है कि डेपो-प्रॉवेरा एक गर्भनिरोधक इंजेक्शन है जो महिला को तीन महीने में एक बार लेना होता है।

डेपो-प्रॉवेरा कोई नया गर्भनिरोधक नहीं है। 1960 के दशक में अमरीकी दवा कंपनी अपजॉन ने गर्भनिरोधक के रूप में इसके उपयोग का लायसेंस प्राप्त करने के लिए आवेदन किया था। तब से ही यह विवादों से घिरा रहा है। डेपो-प्रॉवेरा को खतरनाक माना जाता है क्योंकि इसके कैंसरकारी, भ्रूण-विकृतिकारी और उत्परिवर्तनकारी असर होते हैं।

अलबत्ता, 1992 में मंज़ूरी मिलने के बाद इस बात के प्रमाण मिलने लगे थे कि इसका उपयोग करने वाली महिलाओं में एच.आई.वी. संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है। 2012 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी जारी की थी कि इसका उपयोग करने वाली महिलाओं को “स्पष्ट सलाह दी जानी चाहिए कि वे हमेशा कंडोम का उपयोग भी करें।” अवलोकन आधारित अध्ययनों के परिणामों में अनिश्चितताओं को देखते हुए एक रैंडमाइज़्ड ट्रायल डिज़ाइन करने हेतु 2012 में ECHO संघ का गठन किया गया। रैंडमाइज़ का मतलब होता है सहभागियों को दिए जाने उपचार का चयन पूरी तरह बेतरतीबी से किया जाता है। चूंकि इस ट्रायल में तीन अलग-अलग गर्भनिरोधकों का उपयोग किया जाना था, इसलिए रैंडमाइज़ का अर्थ होगा कि बेतरतीब तरीके से प्रत्येक महिला के लिए इनमें से कोई तरीका निर्धारित कर दिया जाएगा।

शुरू से ही इस ट्रायल लेकर कई आशंकाएं भी ज़ाहिर की गर्इं। जैसे यह कहा गया कि रैंडमाइज़ेशन समस्यामूलक है क्योंकि इसके ज़रिए कुछ सहभागियों को एक ऐसे गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करवाया जाएगा जो एच.आई.वी. संक्रमण की संभावना को बढ़ा सकता है। ऐसी सारी शंकाओं के बावजूद कक्क्तग्र् संघ ने 2015 में ट्रायल का काम किया। अपेक्षाओं के विपरीत, पर्याप्त संख्या में महिलाएं इस अध्ययन में शामिल हो गर्इं और उन्होंने स्वीकार कर लिया कि उन्हें बेतरतीबी से तीन में से किसी एक गर्भनिरोधक इस्तेमाल करने वाले समूह में रख दिया जाएगा। ये तीन गर्भनिरोधक थे: डेपो-प्रॉवेरा, लेवोनोजेस्ट्रल युक्त त्वचा के नीचे लगाया जाने वाला एक इम्प्लांट और कॉपर-टी जैसा कोई गर्भाशय में रखा जाने वाला गर्भनिरोधक साधन। पूरा अध्ययन डेपो-प्रॉवेरा के बारे में तो निष्कर्ष निकालने के लिए था। शेष दो गर्भनिरोधक इसलिए रखे गए थे ताकि एच.आई.वी. प्रसार के साथ डेपो-प्रॉवेरा के सम्बंधों की तुलना की जा सके। कई लोगों ने कहा है कि इतनी संख्या में महिलाओं को अध्ययन में भर्ती कर पाना और उन्हें बेतरतीबी से विभिन्न गर्भनिरोधक समूहों में बांट पाना इसलिए संभव हुआ है क्योंकि उन पर दबाव डाला गया था और ट्रायल के वास्तविक मकसद को छिपाया गया था। इस दृष्टि से ECHO ट्रायल ने विश्व चिकित्सा संघ के हेलसिंकी घोषणा पत्र के एक प्रमुख बिंदु का उल्लंघन किया है। हेलसिंकी घोषणा पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि “यह सही है कि चिकित्सा अनुसंधान का मुख्य उद्देश्य नए ज्ञान का सृजन करना है किंतु यह लक्ष्य कभी भी अध्ययन के सहभागियों के अधिकारों व हितों के ऊपर नहीं हो सकता।” स्पष्ट है कि संघ ने महिलाओं को पूरी जानकारी न देकर अपने मकसद को उनके अधिकारों व हितों से ऊपर रखा।

एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अध्ययन में सैम्पल साइज़ (यानी उसमें कितनी महिलाओं को शामिल किया जाए) का निर्धारण यह जानने के हिसाब से किया गया था कि क्या डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. के प्रसार के जोखिम में 30 प्रतिशत से ज़्यादा की वृद्धि होती है। जोखिम में इससे कम वृद्धि को पहचानने की क्षमता इस अध्ययन में नहीं रखी गई थी। इसका मतलब है कि यदि त्वचा के नीचे लगाए जाने वाले इम्प्लांट के मुकाबले डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से एच.आई.वी. प्रसार की दर 23-29 प्रतिशत तक अधिक होती है, तो उसे यह कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा कि वह सांख्यिकीय दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं है। जो महिला डेपो-प्रॉवेरा का इस्तेमाल करती है या ट्रायल के दौरान जिसे डेपो-प्रॉवेरा समूह में रखा जाएगा, उसकी दृष्टि से यह सीमा-रेखा बेमानी है। यह सीमा-रेखा सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बंधी निर्णयों की दृष्टि से भी निरर्थक है।

विभिन्न परिदृश्यों को समझने के लिए मॉडल विकसित करने के एक प्रयास में देखा गया है कि यदि डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से एच.आई.वी. का प्रसार बढ़कर 1.2 गुना भी हो जाए, तो इसकी वजह से प्रति वर्ष एच.आई.वी. संक्रमण के 27,000 नए मामले सामने आएंगे। इसकी तुलना प्राय: गर्भ निरोधक के रूप में डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से मातृत्व सम्बंधी कारणों से होने वाली मौतों में संभावित कमी से की जाती है। डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से मातृत्व सम्बंधी मृत्यु दर में जितनी कमी आने की संभावना है, उससे कहीं ज़्यादा महिलाएं तो इस गर्भनिरोधक का उपयोग करने की वजह से एच.आई.वी. से संक्रमित हो जाएंगी। ऐसा नहीं है कि कक्क्तग्र् टीम इस बात से अनभिज्ञ थी। उन्होंने माना है कि उनकी ट्रायल में 30 प्रतिशत से कम जोखिम पता करने की शक्ति नहीं है।

पूरे अध्ययन का एक और पहलू अत्यधिक चिंताजनक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. संक्रमण का खतरा बढ़ने के कुछ प्रमाण हैं। संगठन का मत है कि जिन महिलाओं को एच.आई.वी. संक्रमण का खतरा अधिक है वे इसका उपयोग कर सकती हैं क्योंकि गर्भनिरोध के रूप में जो फायदे इससे मिलेंगे वे एच.आई.वी. के बढ़े हुए जोखिम से कहीं अधिक हैं। साफ है कि इस ट्रायल में शामिल एक-तिहाई महिलाओं को जानते-बूझते इस बढ़े हुए जोखिम को झेलना होगा। दवा सम्बंधी अधिकांश ट्रायल में जो लोग भाग लेते हैं उन्हें कोई बीमारी होती है जिसके लिए विकसित दवा का परीक्षण किया जा रहा होता है। मगर गर्भनिरोध का मामला बिलकुल भिन्न है। गर्भनिरोधकों का परीक्षण स्वस्थ महिलाओं पर किया जाता है। बीमार व्यक्ति को एक आशा होती है कि बीमारी का इलाज इस परीक्षण से मिल सकेगा लेकिन इन महिलाओं को तो मात्र जोखिम ही झेलना है।

इसी संदर्भ में ECHO ट्रायल की एक और खासियत है। इस अध्ययन का एक जानलेवा अंजाम ही यह है कि शायद वह महिला एच.आई.वी. से संक्रमित हो जाएगी। यही जांचने के लिए तो अध्ययन हो रहा है कि क्या डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. संक्रमित होने की संभावना बढ़ती है। यह शायद क्लीनिकल ट्रायल के इतिहास में पहली बार है कि कुछ स्वस्थ महिलाओं को जान-बूझकर एक गर्भनिरोधक दिया जा रहा है जिसका मकसद यह जानना नहीं है कि वह गर्भनिरोधक गर्भावस्था को रोकने/टालने में कितना कारगर है बल्कि यह जानना है कि उसका उपयोग खतरनाक या जानलेवा है या नहीं। यानी ट्रायल के दौरान कुछ स्वस्थ शरीरों को बीमार शरीरों में बदल दिया जाएगा।

इस सबके बावजूद मीडिया में भ्रामक जानकारी का एक अभियान छेड़ दिया गया है। इस अभियान को स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन के इस वक्तव्य से हवा मिली है कि ट्रायल में इस्तेमाल की गई गर्भनिरोधक विधियों और एच.आई.वी. प्रसार का कोई सम्बंध नहीं देखा गया है। इससे तो लगता है कि डेपो-प्रॉवेरा को उच्च जोखिम वाली आबादी में उपयोग के लिए सुरक्षित घोषित करने का निर्णय पहले ही लिया जा चुका है। हकीकत यह है कि ECHO ट्रायल ने मुद्दे का पटाक्षेप करने की बजाय नई अनिश्चितताएं उत्पन्न कर दी हैं। लिहाज़ा, यह ज़रूरी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन का दिशानिर्देश विकास समूह जल्दबाज़ी में कोई निर्णय न करे। बेहतर यह होगा कि विशेषज्ञों, सम्बंधित देशों के स्वास्थ्य अधिकारियों और सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों को समय दिया जाए कि वे कक्क्तग्र् और इसके नीतिगत निहितार्थों को उजागर कर सकें। तभी एक ऐसे मुद्दे पर जानकारी-आधारित निर्णय हो सकेगा जो करोड़ों महिलाओं को प्रभावित करने वाला है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शरीर के अंदर झांकती परा-ध्वनि तरंगें – नरेंद्र देवांगन

‘तुम्हें कुछ भी महसूस नहीं होगा।’ यह आश्वासन था महिला सोनोग्राफर का। न कोई इंजेक्शन, न निश्चेतक। वह केवल एक ठंडी और चिकनी जेल काफी मात्रा में मरीज़ की छाती पर पोत देती है। वॉशिंग मशीन के बराबर स्कैनर को ठेलती हुई वह मरीज़ के पलंग के पास लाती है। उसके ऊपर टेलीविज़न स्क्रीन लगा है। फिर वह एक छोटे माइक्रोफोन से मिलते-जुलते ट्रांसड्यूसर को मरीज़ की पांचवीं और छठी पसली के बीच में रखती है।

मशीन को चालू करने के बाद वीडियो पर एक विचित्र-सी चीज़ का चित्र प्रकट होता है जिसका गड्ढेनुमा मुंह लयबद्ध तरीके से फूलता और पिचकता है। यह होता है परा-ध्वनि (अल्ट्रासाउंड) की सहायता से, जिसकी ध्वनि तरंगों की आवृत्ति इतनी अधिक है कि मनुष्य उन्हें नहीं सुन सकते। मरीज़ अपने धड़कते हुए ह्मदय के महाधमनी वाल्व को खुलते और बंद होते देख रहा है। एकदम भीतर तक उतर जाने वाली यह दृष्टि चिकित्सा के लिए एक क्रांतिकारी आयाम है। अब चिकित्सक बगैर चीरफाड़ शरीर के लगभग हर भाग की गहन जांच कर सकते हैं।

पराध्वनि तरंगों की मदद से देखा जा सकता है कि कौन-सी धमनियां मोटी या अवरुद्ध हो गई हैं, किन मांसपेशियों को रक्त नहीं मिल पा रहा है। वास्तव में शरीर के लगभग हर भाग की ऐसी जांच संभव है। चिकित्सक ग्रंथियों, घावों, अवरोधों के बारे में पता लगा सकते हैं।

जांच के अलावा परा-ध्वनि तरंगों को लेंस की मदद से संकेंद्रित किया जा सकता है जिससे वे शरीर के भीतर एक सूक्ष्म स्थान पर प्रहार कर सकें। नेत्र रोग विशेषज्ञ इनका प्रयोग आंखों के ट्यूमर का उपचार करने के अलावा उस दबाव को कम करने में भी करते हैं जिससे मोतियाबिंद होता है। अति तीव्र पराध्वनि की केवल एक चोट गुर्दे की पथरी को चूर-चूर कर देती है, और पीड़ादायक ऑपरेशनों की ज़रूरत ही नहीं रहती।

एक्सरे के विपरीत परा-ध्वनि के कोई दुष्प्रभाव नहीं हैं। लगभग हर किस्म की जांच में इनका प्रयोग किया जा सकता है। जांच के अन्य तरीकों की तुलना में यह तेज़ भी है और सस्ता भी।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान समुद्र की गहराइयों को नाप कर जर्मन पनडुब्बियों का पता लगाने के लिए ईजाद किया गया प्रतिध्वनि मापी परा-ध्वनि पर आधारित था। ध्वनि तरंगों के रास्ते में कोई वस्तु आए (चाहे वह समुद्र में पनडुब्बी हो, हमारे कान के पर्दे हों या स्टील के टुकड़े में दरार हो) तो तरंगें टकरा कर बिखर जाती हैं और कुछ वहीं लौट आती हैं, जहां से शुरू हुई थीं। इस तरह प्राप्त प्रतिध्वनियों को एकत्रित करके इलेक्ट्रॉनिक के ज़रिए चित्र में परिवर्तित किया जा सकता है।

प्रतिध्वनि चित्र द्वारा शारीरिक जांच का विचार द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपजा था। पर वे चित्र इतने अस्पष्ट थे कि उनसे विश्वसनीय निदान नहीं हो सकते थे। सत्तर के दशक में सॉलिड स्टेट इलेक्ट्रॉनिक तकनीक के विकास के कारण बहुत सारी जानकारी का लगभग तत्क्षण विश्लेषण किया जाने लगा।

उपरोक्त ट्रांसड्यूसर में पिन के सिरे के आकार के 64 लाउडस्पीकर लगे थे। हर लाउडस्पीकर मरीज़ की त्वचा से ध्वनि के अविश्वसनीय 25 लाख स्पंदन प्रति सेकंड भेजता है, और लौटती हुई मंद प्रतिध्वनियों को सुनता है। कंप्यूटर गणना करता है कि वे कितने सेंटीमीटर तक चली हैं और तुरंत उस जानकारी को एक चित्र में परिवर्तित कर देता है।

अपने अनुभवी हाथों से ट्रांसड्यूसर को फिराती हुई महिला सोनोग्राफर ह्मदय के विभिन्न वाल्व और प्रकोष्ठों के चित्र दिखा सकी। मरीज़ अपने मिट्रल वाल्व को भी तितली के पंख की तरह फड़फड़ाते देख सकता था।

एक महिला मरीज़ को सांस लेने में कठिनाई हो रही थी। महिला सोनोग्राफर स्कैनर को उसके पास लाई और कुछ ही क्षणों में उसकी तकलीफ स्पष्ट दिखाई दी। ह्मदय के आसपास तरल पदार्थ इकट्ठा हो कर उसे दबा रहा था जिससे उसके प्रकोष्ठ हवा नहीं भर पा रहे थे। उसका ह्मदय किसी भी क्षण रुक सकता था। रोग का पता तुरंत चल गया और तरल पदार्थ को निकाल दिया गया।

अगर तब परा-ध्वनि उपलब्ध नहीं होता तो रोग का पता चलाने के लिए चिकित्सकों को एक्सरे और अन्य चिकित्सा तकनीकों की सहायता लेनी पड़ती या फिर तारों को शिराओं में घुसाकर ह्मदय तक पहुंचाने वाला लंबा और अंतरवेधी तरीका अपनाना पड़ता।

परा-ध्वनि गर्भवती महिलाओं के लिए भी उपयोगी है। क्या बच्चे जुड़वां हैं? क्या शिशु ठीक जगह पर है? क्या उसका दिल धड़क रहा है? परा-ध्वनि की सहायता से शल्य चिकित्सक भ्रूण का ऑपरेशन भी कर सकते हैं।

पूर्व में यकृत के कुछ रोगों का पता कई सप्ताहों तक किए जाने वाले जटिल रक्त परीक्षणों या फिर जोखिम भरे ऑपरेशन के बाद चलता था। परा-ध्वनि की सहायता से चिकित्सक तुरंत ही अवरोध या घाव को देख सकते हैं, एकदम सही स्थान पर सुई डाल कर परीक्षण के लिए कोशिकाएं प्राप्त कर सकते हैं और कुछ ही घंटों के भीतर रोग का कारण, गंभीरता और विस्तार जान सकते हैं।

चिकित्सा के अलावा भी परा-ध्वनि से तकनीकी उपलब्धियों के नए आयाम खुले हैं। प्रबल ध्वनि तरंगें प्लास्टिक और पोलीमर को जोड़ने का काम करती हैं। वैक्यूम क्लीनर के थैले, जूस के गत्ते के डिब्बे, कैसेट टेप, डिब्बे वगैरह परा-ध्वनि द्वारा पैक किए जाते हैं। और आपको अंगवस्त्र या मूंगफलियों का पैकेट खोलने में जो मुश्किल होती है वह इसलिए कि उनके जोड़ों को संकेंद्रित परा-ध्वनि से तब तक गरम किया जाता है जब तक वे पिघलते नहीं और दोनों भाग जुड़कर एक नहीं बन जाते।

परा-ध्वनि से सफाई भी कर सकते हैं। तरल पदार्थ पर परा-ध्वनि ऊर्जा की बौछार करने से वह नन्हे बुलबुलों वाला झाग बन जाता है जो सूक्ष्म दरारों में घुस कर मैल को निकाल फेंकते हैं। हालांकि यह तकनीक रसोईघर में इस्तेमाल करने के लिए अभी भी बहुत महंगी है। इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल प्रयोगशालाओं, युद्ध पोतों, कारखानों और आभूषणों की सफाई में होता है।

परा-ध्वनि गहराई मापी की मदद से मछुआरे समुद्रों में मछलियों के समूहों का पता लगा सकते हैं। फिलहाल विमानों में छोटी-मोटी खराबियों का पता लगाने के लिए विमान को खोल कर उसके ज़रूरी कलपुर्जों की जांच करने में लाखों डॉलर खर्च होते हैं। एक जेट विमान के रोटर की जांच में 40 घंटे लगते हैं। परा-ध्वनि तकनीक से यह काम चंद मिनटों में हो सकता है।

जब धातु के एक कलपुर्ज़े से ध्वनि तरंगें टकराती हैं तो वह एक निश्चित आवृत्ति पर ‘बजता’ है। अनुनाद का पैटर्न फिंगर प्रिंट की भांति अनूठा होता है, और कोई खराबी होने पर ही बदलता है। परा-ध्वनि टेस्टिंग प्रोजेक्ट के मुख्य भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट मिगलिमोरी के अनुसार, “हर कलपुर्ज़े के बनने के समय उसके ध्वनि चित्र को संचित करने का प्रस्ताव है। बाद में जांच करने पर अगर यह उससे भिन्न निकलता है तो उस कलपुर्ज़े को निकाल देंगे। आशा है कि हर कॉकपिट में एक बॉक्स होगा जिससे विमान अपनी जांच स्वयं करेगा।”

सबसे अधिक रोचक प्रगति चिकित्सा के क्षेत्र में हुई है। नई प्रणालियां, जिनमें डिजिटल तकनीक का प्रयोग होता है, उनके द्वारा महज़ एक मिलीमीटर मोटी शिराओं को देखा जा सकता है और रक्त प्रवाह का पता लग सकता है। पर चिकित्सक केवल उनको देख पाने से ही संतुष्ट नहीं हैं। परा-ध्वनि के उन्नत तरीकों द्वारा ह्मदय रोग विशेषज्ञ को इस बात की सटीक जानकारी मिलेगी कि आपके ह्मदय के वाल्व से कितनी मात्रा में रक्त प्रवाहित हो रहा है।

सान फ्रांसिस्को हार्ट इंस्टीट्यूट में शोधकर्ताओं का एक दल ट्रांसड्यूसर को ही ह्मदय तक ले जाने और अल्ट्रासाउंड के द्वारा अवरुद्ध और सख्त हो गई धमनियों की सफाई के तरीके खोजने में जुटा है। धमनियों में जमा हुआ प्लाक परा-ध्वनि के प्रहार से गायब हो जाता है। इसमें धमनी के क्षतिग्रस्त होने का कोई खतरा नहीं है।

प्रतिदिन नई खोजें हो रही हैं। चिकित्सक परा-ध्वनि की सहायता से वह सब देख रहे हैं जिसे पहले कभी नहीं देखा गया था और ऐसे नतीजे पा रहे हैं जिनकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। (स्रोत फीचर्स)

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छोटा-सा बाल बना दर्दनाक

पैर में कांटा चुभने पर दर्द का अनुभव तो कमोबेश सभी ने किया होगा लेकिन क्या छोटा-सा बाल भी दर्द का कारण बन सकता है?

मानव शरीर पर बाल हर जगह होते हैं, लेकिन ब्राज़ील में एक व्यक्ति के लिए एक बाल परेशानी का कारण बन गया। वास्तव में बाल का एक टुकड़ा उसके पैर की त्वचा के अंदर घुस गया। ऐसा बहुत कम देखा गया है और इस स्थिति को ‘हेयर स्प्लिन्टर’ कहा जाता है। एक मायने वह बाल उसके लिए फांस बन गया।

दी जर्नल ऑफ इमरजेंसी मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक 35 वर्षीय व्यक्ति को दाहिनी एड़ी में अकारण दर्द होने लगा। दर्द बढ़ने पर उसे आपातकालीन कक्ष में ले जाया गया।

गौरतलब है कि इससे पहले उसे कभी भी पैर या टखने में चोट नहीं लगी थी। शुरुआती जांच में डॉक्टरों को भी दर्द की वजह समझ नहीं आई और न ही किसी प्रकार की चोट नज़र आई। डॉक्टरों ने उसे पहले पंजे के बल और फिर एड़ी के बल चलने को कहा तो उसने दार्इं एड़ी में दर्द महसूस किया।

साओ पौलो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अनुसार एड़ी को करीब से देखने पर बाल का एक किनारा दिखाई दिया। लेंस से जांच करने पर मालूम चला कि एक छोटा-सा बाल एड़ी की त्वचा को भेदते हुए अंदर घुस गया है। चिमटी की मदद से जो बाल निकाला गया वह 1 से.मी. लंबा था। बाल निकल जाने के बाद व्यक्ति को तुरंत राहत महसूस हुई।

दरअसल उस व्यक्ति को जो तकलीफ हुई थी वह त्वचीय रोम प्रवासन की वजह से हुई थी। इसमें बाल या उसका टुकड़ा त्वचा की सतह के नीचे घुस जाता है। 2016 में मेडिकल जर्नल आर्मड फोर्सेस इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 60 वर्षों में ऐसे मात्र 26 मामले रिकॉर्ड हुए हैं।

एक बार त्वचा में घुसने के बाद, यह बाल रोगी की हलचल से रेंगते हुए और अंदर घुसता चला जाता है। यह रेंगने वाला आकार हुकवर्म के कारण होने वाली त्वचा की समस्या त्वचीय लार्वा प्रवासन से ग्रस्त लागों में पाए जाने वाले चकत्ते के जैसा दिखता है। लेकिन यह लाल और उभरा हुआ नहीं होता बल्कि त्वचा के नीचे काले, धागे जैसा दिखाई देता है। (स्रोत फीचर्स)

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रक्त समूह A को O में बदलने की संभावना

आम तौर पर दुनिया में चार तरह के रक्त समूह (A, B, AB, और O) होते है। हर व्यक्ति इनमें से किसी एक रक्त समूह का होता है। इन रक्त समूहों की पहचान लाल रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट या उन पर मौजूद एंटीजन से होती है। किसी व्यक्ति को ज़रूरत पड़ने पर सही समूह का रक्त चढ़ाना ज़रूरी होता है अन्यथा शरीर की एंटीबॉडी लाल रक्त कोशिकाओं पर उपस्थित एंटीजन को भांपकर उसे बाहरी समझकर मार देती है। यह जानलेवा साबित हो सकता है।

चूंकि O रक्त समूह की कोशिकाओं पर कोई एंटीजन मौजूद नहीं होता इसलिए इस समूह का रक्त किसी भी व्यक्ति को चढ़ाया जा सकता है। और इसी कारण कई बार आपात स्थिति में ज़रूरी होने पर मरीज़ के रक्त समूह की जांच किए बिना O समूह का रक्त चढ़ा दिया जाता है। अर्थात इस समूह का रक्त अत्यंत कीमती है। यह रक्त समूह और भी सहजता से उपलब्ध हो सके, इसके लिए शोधकर्ता पिछले कुछ वर्षों से A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन को हटाकर इसे O रक्त समूह में परिवर्तित करने की कोशिश कर रहे हैं। और इस दिशा में हाल ही में वेन्कूवर स्थित ब्रिाटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी के स्टीफन वीथर्स ने दो ऐसे एंज़ाइम्स की पहचान की है जो A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन को पचाने में सक्षम है।

शोधकर्ताओं ने देखा कि मानव आंत में मौजूद कुछ बैक्टीरिया म्यूसिन का पाचन करते हैं। म्यूसिन दरअसल श्लेष्मा में पाया जाने वाला एक ग्लायकोप्रोटीन है जिसकी बनावट A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन के समान होती है। इसलिए शोधकर्ताओं ने अपना ध्यान मानव आंत में मौजूद उन बैक्टीरिया पर केन्द्रित किया जिनमें म्यूसिन पचाने की क्षमता थी।

उन्होंने मानव मल से डीएनए के उन हिस्सों को अलग किया जिनमें म्यूसिन पचाने वाले जीन मौजूद थे। फिर हर हिस्से को ई. कोली बैक्टीरिया के साथ जोड़ दिया और देखा कि क्या कोई बैक्टीरिया A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन को पचाने वाला एंज़ाइम बनाता है। उन्होंने पाया कि ऐसे दो एंजाइम का एक साथ उपयोग करने पर वे A रक्त समूह के एंटीजन को हटाने में सक्षम थे। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन के बारे में शोध पत्रिका नेचर माइक्रोबायोलॉजी में बताया है कि इन एंजाइम्स का निर्माण फ्लेवोनिफ्रेक्टर प्लॉटी नामक बैक्टीरिया द्वारा किया जाता है। इसके बाद उन्होंने रक्त के नमूनों साथ भी यही परीक्षण दोहराया और उन्हें संतोषजनक परिणाम मिले। हालांकि अभी इस बात की पुष्टि बाकी है कि इन एंजाइम्स द्वारा सारे एंटीजन हटा दिए जाते हैं या नहीं। साथ ही इस बात की पुष्टि की भी ज़रूरत है कि ये एंजाइम्स लाल रक्त कोशिकाओं की सतह से एंटीजन हटाने के अलावा कोई अन्य फेरबदल तो नहीं करते। (स्रोत फीचर्स)

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खोपड़ी में इतनी हड्डियां क्यों?

अनुमान लगाइए आपकी खोपड़ी में कितनी हड्डियां होंगी। शायद आपका अनुमान दो, या शायद कुछ अधिक हड्डियों का हो। लेकिन वास्तव में मानव खोपड़ी में अनुमान से कहीं अधिक हड्डियां होती हैं। नेशनल सेंटर फॉर बॉयोटेक्नॉलॉजी इंफॉर्मेशन के मुताबिक मानव खोपड़ी में हड्डियों की संख्या 22 होती है: 8 हड्डियां कपाल में और 14 हड्डियां चेहरे की।  

अलग-अलग जीवों की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अलग-अलग होती है। ओहायो युनिवर्सिटी के शोधकर्ता के मुताबिक मगरमच्छ की खोपड़ी में 53 हड्डियां होती हैं। अब तक खोपड़ी में सबसे अधिक हड्डियां लुप्त हो चुकी एक मछली के जीवाश्म में मिली है (156)। सामान्यत: मछलियों की खोपड़ी में तकरीबन 130 हड्डियां होती हैं।

विभिन्न रीढ़धारी जीवों में जन्म के समय खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अधिक होती है, लेकिन कुछ में युवावस्था आने तक कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं जबकि कुछ जीवों में ये हड्डियां अलग-अलग बनी रहती हैं। जैसे स्तनधारी जीवों के भ्रूण की खोपड़ी में लगभग 43 हड्डियां होती हैं, लेकिन उम्र के साथ इनमें से कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं। मानव शिशु में जन्म के समय के माथे की दो हड्डियां होती हैं जो उम्र बढ़ने पर जुड़कर एक हो जाती हैं।

प्रत्येक रीढ़धारी जीव की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या, आगे चलकर कितनी हड्डियां जुड़ेंगी, जुड़ाव का स्थान और समय में विविधता होती है। और इससे पता लगता है कि उस जीव की खोपड़ी का उपयोग कैसा है, और खोपड़ी में कितने लचीलेपन की ज़रूरत है। जीव की खोपड़ी जितनी अधिक लचीली होगी, उसकी खोपड़ी में उतनी अधिक हड्डियां होंगी। मसलन मछिलयों की खोपड़ी बहुत लचीली होती है और उनकी खोपड़ी में हड्डियों की संख्या बहुत अधिक होती है और उनमें बहुत कम हड्डियां आपस में जुड़ती हैं। वैसे ज़मीन पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की तुलना में मछलियों को अपने सिर का संतुलन बनाए रखने के लिए गुरुत्व बल से जूझना नहीं पड़ता, इसलिए उनकी हड्डियां हल्की और लचीली होती हैं। पक्षियों की भी खोपड़ी काफी लचीली होती है। जैव विकास में जीवों की खोपड़ी अलग-अलग तरह से विकसित हुर्इं हैं। खोपड़ी की हड्डियों में यह विविधता जीव विकास की समृद्ध प्रक्रिया के बारे में बताती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर कोशिकाओं को मारने हेतु लेज़र

अर्कान्सास आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक नई तकनीक विकसित की है जिसकी मदद से खून में से उन कैंसर कोशिकाओं को नष्ट किया जा सकेगा जो किसी कैंसर गठान से टूटकर अलग हुई हैं। ऐसी कोशिकाएं शरीर में कैंसर के फैलने की प्रमुख वजह होती हैं। यह तकनीक एक विशेष किस्म के लेज़र पर आधारित है।

फिलहाल कैंसर के फैलने का पता लगाने के लिए डॉक्टर रक्त के नमूनों का परीक्षण करके उनमें कैंसर कोशिकाओं की उपस्थिति का पता लगाते हैं। किंतु यह परीक्षण तभी सही परिणाम देता है जब रक्त में ऐसी कोशिकाओं की संख्या काफी ज़्यादा हो, जिसका मतलब है कि उस समय तक कैंसर काफी फैल चुका होता है।

शोध के प्रमुख व्लादिमिर ज़ारोव द्वारा विकसित तकनीक को सायटोफोन नाम दिया गया है। इसमें त्वचा पर लेज़र प्रकाश के पुंज दागे जाते हैं ताकि रक्त की कोशिकाएं गर्म हो जाएं। लेज़र की खूबी यह होती है कि वह सिर्फ मेलेनोमा कोशिकाओं को गर्म करता है, स्वस्थ कोशिकाओं को नहीं। मेलेनोमा एक किस्म का कैंसर होता है। इसकी कोशिकाओं में मेलेनीन नामक रंजक पाया जाता है जो लेज़र किरणों को अवशोषित कर कोशिका को गर्म कर देता है। जब ये पर्याप्त गर्म हो जाती हैं, तो इस ऊष्मन प्रभाव से उत्पन्न सूक्ष्म ध्वनि तरंगों को सायटोफोन द्वारा पकड़ा जाता है।

साइंस ट्रासंसलेशन मेडिसिन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि तकनीक का परीक्षण सबसे पहले हल्के रंग की त्वचा वाले मरीज़ों पर किया गया। इनमें से 28 को मेलेनोमा था जबकि 19 स्वस्थ थे। उन्होंने इनके हाथों पर लेज़र चमकाया और पाया कि 10 सेकंड से 60 मिनट के अंदर वे 28 में से 27 के रक्त प्रवाह में भटकती कैंसर कोशिकाओं को पहचानने में सफल रहे। सबसे अच्छी बात यह रही कि इस तकनीक ने एक भी स्वस्थ व्यक्ति के बारे में मिथ्या पॉजि़टिव परिणाम नहीं दिए। इसके कोई साइड प्रभाव भी नहीं देखे गए।

गौरतलब बात है कि त्वचा की कोशिकाओं में भी मेलेनीन पाया जाता है किंतु परीक्षण के दौरान उन कोशिकाओं को कोई क्षति नहीं पहुंची। कारण यह है कि लेज़र पुंज को इस तरह फोकस किया गया था कि वह त्वचा पर नहीं बल्कि थोड़ी गहराई में जाकर रक्त वाहिनियों पर केंद्रित होता है।

परीक्षण का एक अनपेक्षित परिणाम यह रहा कि परीक्षण के बाद मरीज़ों के शरीर में रक्त प्रवाह में भटकती कैंसर कोशिकाओं की संख्या में कमी आई। अर्थात यह तकनीक कैंसर कोशिकाओं को खत्म करने में भी उपयोगी साबित हो सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब मेलेनीन लेज़र द्वारा उत्पन्न ऊष्मा को सोखता है तो कोशिका में उसके आसपास उपस्थित पानी वाष्पित होने लगता है और एक बुलबुला बना लेता है। यह बुलबुला पहले तो फैलता है और फिर पिचक जाता है। इस प्रक्रिया में कोशिका मारी जाती है।

अभी इस तकनीक का परीक्षण गहरे रंग की त्वचा वाले व्यक्तियों पर नहीं किया गया है, जिनकी त्वचा कोशिकाओं में मेलेनीन काफी अधिक होता है।

अभी यह तकनीक सिर्फ मेलेनोमा से उत्पन्न कोशिकाओं पर आज़माई गई है। शोधकर्ता दल इसे अन्य किस्म की कैंसर कोशिकाओं के लिए भी विकसित करना चाहता है। इनमें मेलेनीन तो होता नहीं, इसलिए पहले इनको किसी मार्कर से चिंहित करना होगा।

टीम का कहना है कि अभी इस तकनीक को नैदानिक तकनीक में विकसित करने में समय लगेगा। वैसे उन्होंने प्रयोगशाला में उपलब्ध स्तन कैंसर की कोशिकाओं पर इसे कारगर साबित किया है। (स्रोत फीचर्स)

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आंखों पर इतने बैक्टीरिया का अड्डा क्यों है?

आजकल यह बात तो आम जानकारी का विषय है कि हमारी आंतों में बड़ी संख्या में सूक्ष्मजीव निवास करते हैं और इनमें से कई हमें स्वस्थ रहने में मदद करते हैं। हमारी आंतों का यह सूक्ष्मजीव जगत असंतुलित हो जाए तो कई तकलीफों का सबब बन जाता है। मगर यह बात नई है कि हमारी आंखों का भी अपना सूक्ष्मजीव जगत (माइक्रोबायोम) होता है और इसमें असंतुलन कई बीमारियों को जन्म दे सकता है।

हाल ही में एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि हमारी आंख की सतह पर रहने वाले कुछ बैक्टीरिया प्रतिरक्षा तंत्र को प्रोत्साहित करते हैं। पिछले दशक में आंखों की तंदुरुस्ती में सूक्ष्मजीवों की भूमिका विवादास्पद थी। और तो और, वैज्ञानिकों का ख्याल था कि आंखों में कोई सुगठित सूक्ष्मजीव संसार नहीं होता है। अध्ययन बताते थे कि हवा से, हाथों से आंखों पर बैक्टीरिया पहुंच सकते हैं जिन्हें आंसुओं के साथ बहा दिया जाता है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि आंखों में एक सूक्ष्मजीव संसार बसता है और इसका संघटन उम्र, भौगोलिक क्षेत्र, जनजातीय सम्बद्धता, कॉन्टैक्ट लेंस पहनने और आंखों की बीमारी से निर्धारित होता है। आंखों के इस सूक्ष्मजीव संसार का ‘प्रमुख हिस्सा’ बैक्टीरिया के चार वंशों से मिलकर बनता है: स्टेफिलोकॉकस, डिफ्थेरॉइड्स, प्रोपियोनीबैक्टीरिया और स्ट्रेप्टोकॉकस। इनके अलावा एक वायरस (टॉर्क टेनो वायरस) भी इस सूक्ष्मजीव संसार का मूल निवासी है।

इसका पहला मतलब तो यह है कि नेत्र विशेषज्ञों को एंटीबायोटिक दवाइयां देते समय इस सूक्ष्मजीव संसार का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि एंटीबायोटिक कुछ लाभदायक बैक्टीरिया को भी मार डालें। यू.एस. के करीब साढ़े तीन लाख मरीज़ों पर किए एक अध्ययन में पता चला था कि कंजंक्टिवाइटिस के 60 प्रतिशत मामलों में एंटीबायोटिक्स का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया जबकि यह बीमारी एक वायरस के कारण होती है और स्वत: ठीक हो जाती है।

2016 में रेशेल कास्पी और उनके साथियों द्वारा किए गए एक अध्ययन में पता चला था कि चूहे की आंखों में एक बैक्टीरिया सी. मास्ट पाया जाता है जो प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सूक्ष्मजीवरोधी रसायन बनाने को प्रेरित करता है। ऐसे और अध्ययनों की आवश्यकता है ताकि सूक्ष्मजीव संसार के असर को परखा जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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कुछ लोगों को मच्छर ज़्यादा क्यों काटते हैं?

यह तो जानी-मानी बात है कि कुछ लोगों को मच्छर बहुत ज़्यादा काटते हैं जबकि कुछ लोग खुले में बैठे रहें तो भी मच्छर उन्हें नहीं काटते। वैज्ञानिकों का मत है कि मच्छरों द्वारा व्यक्तियों के बीच यह भेदभाव उन व्यक्तियों के आसपास उपस्थित निजी वायुमंडल के कारण होता है। मच्छर इस वायुमंडल में छोटे-छोटे परिवर्तनों का लाभ उठाते हैं।

सबसे पहले तो मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की मदद से अपने शिकार को ढूंढते हैं। हम जो सांस छोड़ते हैं उसमें कार्बन डाईऑक्साइड अधिक मात्रा में होती है। यह कार्बन डाईऑक्साइड तुरंत आसपास की हवा में विलीन नहीं हो जाती बल्कि कुछ समय तक हमारे आसपास ही टिकी रहती है। मच्छर इस कार्बन डाईऑक्साइड के सहारे आपकी ओर बढ़ते हैं।

मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता की ओर रुख करके उड़ते रहते हैं जो उन्हें आपके करीब ले आता है। देखा गया है कि मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता की मदद से 50 मीटर दूर के लक्ष्य को भांप सकते हैं। यह तो हुई सामान्य सी बात – कार्बन डाईऑक्साइड के पैमाने पर तो सारे मनुष्य लगभग बराबर होंगे। इसके बाद आती है बात व्यक्तियों के बीच भेद करने की।

वैज्ञानिकों का मत है कि इस मामले में मच्छर कई चीज़ों का सहारा लेते हैं। इनमें त्वचा का तापमान, व्यक्ति के आसपास मौजूद जलवाष्प और व्यक्ति का रंग महत्वपूर्ण हैं। मगर सबसे महत्वपूर्ण अंतर उन रसायनों से पड़ता है जो व्यक्ति की त्वचा पर उपस्थित सूक्ष्मजीव हवा में छोड़ते रहते हैं। त्वचा पर मौजूद बैक्टीरिया हमारे पसीने के साथ निकलने वाले रसायनों को वाष्पशील रसायनों में तबदील कर देते हैं जो हमारे आसपास की हवा में तैरते रहते हैं। जब मच्छर व्यक्ति से करीब 1 मीटर दूर पहुंच जाता है तो वह इन रसायनों की उपस्थिति को अपने गंध संवेदना तंत्र से ग्रहण करके इनके बीच भेद कर सकता है। सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पन्न इस रासायनिक गुलदस्ते में 300 से ज़्यादा यौगिक पाए गए हैं और यह मिश्रण व्यक्ति की जेनेटिक बनावट और उसकी त्वचा पर मौजूद सूक्ष्मजीवों से तय होता है। तो यह है आपकी युनीक आइडेंटिटी मच्छर के दृष्टिकोण से।

2011 में प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि जिन इंसानों की त्वचा पर सूक्ष्मजीवों की ज़्यादा विविधता पाई जाती है, उन्हें मच्छर कम काटते हैं। कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले लोग मच्छरों को ज़्यादा लुभाते हैं। और तो और, यह भी देखा गया कि कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरीर पर निम्नलिखित बैक्टीरिया पाए गए: लेप्टोट्रिचिया, डेल्फ्टिया, एक्टिनोबैक्टीरिया जीपी3, और स्टेफिलोकॉकस। दूसरी ओर, भरपूर सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरी़र पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया में स्यूडोमोनास और वेरिओवोरेक्स ज़्यादा पाए गए।

वॉशिगटन विश्वविद्यालय के जेफ रिफेल का कहना है कि इन रासायनिक गुलदस्तों के संघटन में छोटे-मोटे परिवर्तनों से मच्छरों द्वारा काटे जाने की संभावना में बहुत अंतर पड़ता है। वही व्यक्ति बीमार हो तो यह संघटन बदल भी सकता है। वैसे रिफेल यह भी कहते हैं कि सूक्ष्मजीव विविधता को बदलने के बारे में तो आप खास कुछ कर नहीं सकते मगर अपने शोध कार्य के आधार पर उन्होंने पाया है कि मच्छरों को काला रंग पसंद है। इसलिए उनकी सलाह है कि बाहर पिकनिक मनाने का इरादा हो, तो हल्के रंग के कपड़े पहनकर जाएं। (स्रोत फीचर्स)

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आयुष अनुसंधान पर मंत्रालय का अवैज्ञानिक दृष्टिकोण – लखोटिया, पटवर्धन, रस्तोगी

आयुष मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी एक परामर्श पत्र की पड़ताल जिसमें आयुर्वेद पर किसी भी अध्ययन में आयुष विशेषज्ञों को शामिल करने का निर्देश दिया गया है।

 

आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी (आयुष) मंत्रालय द्वारा दिनांक 2 अप्रैल 2019 को जारी एक परामर्श पत्र (एडवायज़री) में “गैर-आयुष वैज्ञानिकों/शोधकर्ताओं द्वारा आयुष औषधियों और उपचारों को लेकर बेबुनियाद वक्तव्यों तथा निष्कर्षों वाले शोध पत्रों के प्रकाशन तथा वैज्ञानिक अध्ययनों, जो पूरी प्रणाली की वि·ासनीयता और शुचिता को नुकसान पहुंचाते हैं,” पर चिंता व्यक्त की गई है क्योंकि “इन शोध पत्रों व अध्ययनों में योग्यता प्राप्त आयुष विशेषज्ञों को शामिल नहीं किया गया या उनसे परामर्श नहीं किया गया।”

परामर्श पत्र में आगे कहा गया है कि “सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में आयुष की संभावना और विस्तार को खतरे में नहीं डाला जा सकता है। साथ ही आयुष से सम्बंधित वैज्ञानिक अध्ययन और अनुसंधान में मनमाने बयानों तथा बेबुनियाद निष्कर्षों से जनता को आयुष का उपयोग करने से विमुख नहीं किया जा सकता है।” इसलिए परामर्श पत्र में कहा गया है कि “सभी गैर-आयुष शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों, संस्थानों और चिकित्सा/वैज्ञानिक पत्रिकाओं के संपादकों को सलाह दी जाती है कि वे किसी भी आयुष औषधि या उपचार का आकलन करने हेतु किए गए वैज्ञानिक अध्ययन/नैदानिक परीक्षण/अनुसंधान हस्तक्षेप के संचालन के लिए या ऐसे परीक्षणों के परिणामों के पुनरीक्षण हेतु उपयुक्त आयुष विशेषज्ञ/संस्थान/अनुसंधान परिषद को शामिल करें ताकि आयुष के बारे में गलत, मनमाने और अस्पष्ट बयानों एवं निष्कर्षों से बचा जा सके।” 

हालांकि हम आयुष मंत्रालय की इस चिंता से पूरी तरह सहमत हैं कि कुछ शोध प्रकाशनों में प्रस्तुत निराधार, एकतरफा और दोटूक निष्कर्षों के कारण पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों की छवि को क्षति पहुंचना संभव है, लेकिन हमारा मानना है कि इन्हें रोकने के लिए इस परामर्श पत्र में अनुशंसित व्यवस्था उपयुक्त नहीं है।

परामर्श पत्र में आग्रह किया गया है कि इसकी अनुशंसाओं पर “सम्बंधित शोधकर्ता/वैज्ञानिक/जांचकर्ता” ध्यान दें और इनका पालन करें, लेकिन देखा जाए, तो इनका अनुपालन और क्रियांवयन लगभग असंभव है। अलबत्ता, इस परामर्श अधिक गंभीर और चिंताजनक अर्थ यह है कि इस तरह के कदमों से न केवल इन पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में आवश्यक निष्पक्ष शोध पर अंकुश लगेगा, बल्कि सोचने की स्वतंत्रता पर भी काफी असर पड़ेगा। निष्पक्ष शोध और सोचने की स्वतंत्रता, ये दोनों ही किसी भी क्षेत्र में हमारी समझ में सुधार के लिए बुनियादी ज़रूरतें हैं। 

हमारा मानना है कि आयुर्वेद सहित विभिन्न पारंपरिक भारतीय स्वास्थ्य प्रणालियों की प्रतिष्ठा में कमी का वास्तविक कारण निम्न-गुणवत्ता वाली शोध पत्रिकाओं का तेज़ी से उभरना है। ये पत्रिकाएं खुद आयुष ‘विशेषज्ञों’ द्वारा किए गए घटिया गुणवत्ता के शोध को प्रकाशित करती रहती हैं। यह निम्न गुणवत्ता का शोध कुकुरमुत्तों की तरह तेज़ी से पनपते कॉलेजों और वि·ाविद्यालयों में किए जा रहे स्नातकोत्तर/पीएचडी शोध ग्रंथों में अप्रामाणिक डेटा को शामिल करने का परिणाम है। यह बात भी किसी छुपी नहीं है कि इनमें से कई आयुष कॉलेज ‘छद्म’ रोगियों, शिक्षकों और यहां तक कि फजऱ्ी छात्रों के माध्यम से अपनी मान्यता बनाए रखे हैं। ज़ाहिर  है, ऐसे संस्थानों में किया गया छद्म शोध न केवल आयुष को बदनाम करता है, बल्कि एक ऐसा कार्य-बल तैयार करता है जो इन प्रणालियों को नुकसान पहुंचा सकता है।

अप्रामाणिक व संदिग्ध फार्मेसियों द्वारा खराब गुणवत्ता वाली औषधियों का विपणन भी आयुष को बदनाम कर रहा है। पारंपरिक विचारों से पूरी तरह सहमत न होने वाले अध्ययनों पर प्रतिबंध और ऐसे शोध और आवाज़ों को दबाने की बजाय मंत्रालय की वास्तविक चिंता इन मुद्दों पर होनी चाहिए।

यह भी संभव है कि ऐसे गैर-आयुष शोधकर्ता मौजूद हैं जो घटिया अनुसंधान करके प्रकाशित करते हैं। हालांकि, जैसे अच्छे और गुणवत्ता के प्रति सजग आयुष शोधकर्ता होते हैं, वैसे ही गैर-आयुष शोधकर्ता भी हैं जिन्होंने इन उपचारों की क्रियाविधियों और सिद्धांतों को समझने में सकारात्मक और महत्वपूर्ण योगदान दिया है और दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, कार्बनिक रसायन विज्ञानी आसीमा चटर्जी, टी. टी. गोविंदाचारी और अन्य द्वारा आयुर्वेद में प्रयुक्त हर्बल उत्पादों के रसायन शास्त्र के क्षेत्र में अग्रणी और व्यापक योगदान जाना-माना है। इसी तरह, कई प्रकार के हर्बल और आयुर्वेदिक औषधि मिश्रणों की क्रियाविधियों पर किए गए बुनियादी वैज्ञानिक अध्ययनों ने उनकी जैविक क्रियाविधियों को उजागर करके नए एवं प्रभावी चिकित्सीय अनुप्रयोग के रास्ते खोले हैं। ऐसे कई अध्ययनों ने हर्बल और आधुनिक दवाइयों के बीच सकारात्मक और नकारात्मक अंतर्क्रियाओं को समझने में मदद दी है। कुछ जीनोमिक और आणविक जीव विज्ञानियों ने आयुर्वेद की त्रिदोष/प्रकृति जैसी अवधारणाओं को वर्तमान जीव विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ये गैर-आयुष शोधकर्ताओं के योगदान के कुछ चंद उदाहरण भर हैं, जो वास्तव में आयुष को समृद्ध बना रहे हैं।

यह कहना ठीक नहीं होगा कि समकालीन संदर्भों में बगैर प्रमाणित किए, प्राचीन ज्ञान और तौर-तरीकों को सिर्फ इसलिए बगैर सोचे-समझे स्वीकार कर लिया जाए कि वे पारंपरिक हैं। आयुष प्रथाओं और नुस्खों को प्रमाणों की बुनियाद मिलना आवश्यक है। शोध चाहे आयुष शोधकर्ताओं द्वारा किया जाए या गैर-आयुष शोधकर्ताओं द्वारा, यदि वह परंपरागत रूप से मान्य वि·ाासों पर सवाल उठाता है और ऐसे व्यवस्थित प्रमाण उपलब्ध कराता है जो उनकी तार्किकता को चुनौती दें, तो इसे प्राचीन ज्ञान का ‘अपमान’ न समझकर गंभीरता से लेना चाहिए। बुद्धि और सामाजिक व्यवस्था केवल उस ज्ञान और समझ के साथ आगे बढ़ती है जो हमारे पूर्वजों के ज्ञान और समझ से भी आगे ले जाए।

यदि इस परामर्श पत्र को गंभीरता से लिया गया, तो यह केवल एक ही विचार को पनपने देगा और उन सभी लोगों को अपने विचार रखने से रोकेगा जो इससे असहमत हैं। एक अच्छा विज्ञान बाहरी सत्यापन के लिए सदैव खुला रहना चाहिए। वास्तव में, सारे दरवाज़े बंद करने की व्यवस्था, जिसमें सिर्फ सहमत लोग हों, अपनाने की बजाय, निष्पक्ष बहु-विषयी अनुसंधान को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। बंद दरवाज़ा व्यवस्था आयुष के लिए खतरनाक साबित होगी। कल्पना कीजिए, अगर जीव विज्ञान के शोधकर्ताओं ने बीसवीं सदी में श्रोडिंजर, डेलब्राुक, पौलिंग, क्रिक, रोसलिंड फ्रेंंकलिन, बेन्ज़र जैसे गैर-जीव वैज्ञानिकों को जीव विज्ञान में कार्य न करने देने का फैसला किया होता, तो आज जीव विज्ञान या आधुनिक विज्ञान कहां होता?

आयुष को अन्य शोधकर्ताओं से केवल समर्थक साक्ष्य की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। यदि हम अलग-अलग राय रखते हैं, तो बहस को आगे बढ़ाने और तर्क-वितर्क के लिए अकादमिक मंच और पत्रिकाएं मौजूद हैं। यह समझना चाहिए कि आयुष और गैर-आयुष शोधकर्ताओं के जो शोध-परिणाम आयुर्वेद और अन्य पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों को समर्पित अच्छी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं, वे अच्छी सहकर्मी-समीक्षा प्रणाली से गुज़रे होंगे और इस प्रकार वे वास्तव में पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणाली के विकास में योगदान दे रहे हैं। संपादकों से यह कहना कि शोध पत्र में एक लेखक के रूप में आयुष विशेषज्ञ को अनिवार्य रूप से शामिल करें, न केवल शोधकर्ताओं की स्वायत्तता के खिलाफ है, बल्कि ऐसे  ‘विज्ञान प्रकाशन’ की प्रतिष्ठा के लिए काफी अपमानजनक भी है जहां प्रकाशन से पूर्व लेखक की औपचारिक शैक्षणिक योग्यता की बजाय सिर्फ यह देखा जाता है कि शोध पत्र में व्यक्त विज्ञान अच्छी गुणवत्ता का है या नहीं। उक्त परामर्श पत्र संभावित रूप से आयुष और गैर-आयुष विशेषज्ञों के बीच गलतफहमी पैदा कर सकता है। क्लीनिकल ट्रायल सम्बंधी अनुसंधान में आयुष विशेषज्ञों को शामिल करना वांछनीय होगा, लेकिन प्रयोगशाला में और/या जंतु अध्ययनों में आयुष प्रभाविता की जांच करने वाले सभी अध्ययनों में यह अनिवार्य नहीं किया जा सकता। जैसे भी हो, आयुष विशेषज्ञ मॉनिटर या वॉचडॉग नहीं बल्कि सहयोगी होंगे। 

आयुष मंत्रालय और आयुर्वेद चिकित्सकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि एक दशक से थोड़ा अधिक समय पहले शुरू किए गए ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान’ मिशन के अंतर्गत विभिन्न शोधकर्ताओं ने आयुर्वेद में उल्लेखनीय योगदान दिया है। आयुर्वेदिक जीव विज्ञान के उत्प्रेरक, मूलत: एक ह्मदय शल्य चिकित्सक और नवाचारकर्ता एम.एस. वालियाथन की टिप्पणी है, “इस समय कोई ऐसा सामान्य धरातल नहीं है जहां भौतिक विज्ञानी, रसायनज्ञ, प्रतिरक्षा विज्ञानी और आणविक जीव विज्ञानी आयुर्वेदिक चिकित्सकों के साथ बातचीत कर सकें। भारत में आयुर्वेद केवल चिकित्सा विज्ञान की ही नहीं, सारे जीव विज्ञानों की जननी है। इसके बावजूद, विज्ञान आयुर्वेद से पूरी तरह अलग हो चुका है।” ज़ाहिर है, पारंपरिक और आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों का एकीकरण हासिल करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के शोधकर्ताओं की स्वतंत्र और निष्पक्ष भागीदारी तथा सचमुच के अंतर-विषयी अध्ययनों की आवश्यकता है। ऐसा एकीकरण ही मानव समाज को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर सकेगा।

हमारा मानना है कि आयुष मंत्रालय के लिए सही दृष्टिकोण यह होगा कि वह पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणालियों के क्षेत्र में खराब गुणवत्ता वाली शोध पत्रिकाओं पर रोक लगाए बनिस्बत इसके कि विभिन्न विषयों के उन शोधकर्ताओं पर रोक लगाए जो वास्तव में आयुर्वेदिक सिद्धांतों और कामकाज का सत्यापन आधुनिक वैज्ञानिक गहनता के तहत कर सकते हैं जो आय़ुर्वेद के लिए ज़रूरी है। आयुष की प्रामाणिकता को बढ़ावा देने के लिए, एक ऐसी प्रणाली विकसित करनी होगी जो मज़बूत वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित हो। आयुष मंत्रालय विभिन्न आयुष महाविद्यालयों और उनके शैक्षणिक कार्यक्रमों में शिक्षण और अनुसंधान के उच्च मानक स्थापित करके इसको बढ़ावा दे सकता है। आगे की सोच और आगे बढ़ना आयुष के लिए लाभदायक होगा। (स्रोत फीचर्स)

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स्मार्टफोन के उपयोग से खोपड़ी में परिवर्तन

हमारी खोपड़ी में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है और कई चिकित्सकों का मत है कि यह परिवर्तन कई घंटों तक गर्दन झुकाकर स्मार्टफोन के उपयोग की वजह से हो रहा है। वैसे तो कुछ लोगों में गर्दन के ऊपर खोपड़ी के निचले हिस्से की हड्डी थोड़ी उभरी होती है। इसे बाहरी पश्चकपाल गूमड़ कहते हैं। मगर हाल के कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि सामान्य से ज़्यादा लोगों में, विशेष रूप से युवाओं में, यह गूमड़ कुछ ज़्यादा ही उभरने लगा है।

20 वर्षों से चिकित्सक रहे यूनिवर्सिटी ऑफ दी सनशाइन कोस्ट, ऑस्ट्रेलिया के स्वास्थ्य वैज्ञानिक डेविड शाहर के अनुसार उनको पिछले एक दशक में इस तरह के बदलाव देखने को मिले हैं। इसके कारण की स्पष्ट पहचान तो नहीं हो सकी है, लेकिन इस बात की संभावना है कि स्मार्ट उपकरणों को देखने के लिए असहज कोणों पर गर्दन को झुकाने से इस खोपड़ी के पिछले भाग की हड्डी बढ़ रही है। लंबे समय तक सर को झुकाकर रखने से गर्दन पर भारी तनाव पड़ता है। इसको कई बार ‘पढ़ाकू गर्दन’ (टेक्स्ट नेक) के नाम से भी जाना जाता है।

शाहर के  अनुसार पढ़ाकू गर्दन की वजह से गर्दन और खोपड़ी से जुड़ी मांसपेशियों पर दबाव बढ़ता है जिसके  जवाब में खोपड़ी के पिछले भाग (पश्चकपाल) की हड्डी बढ़ने लगती है। यह हड्डी सिर के वज़न को एक बड़े क्षेत्र में वितरित कर देती है।

वर्ष 2016 में शाहर और उनके सहयोगियों ने इस गूमड़ का अध्ययन करने के  लिए 18 से 30 वर्ष की आयु के 218 युवा रोगियों के रेडियोग्राफ देखे। एक सामान्य नियमित उभार 5 मि.मी. माना गया और 10 मि.मी. से बड़े उभार को बढ़ा हुआ माना गया।

कुल मिलाकर समूह के 41 प्रतिशत लोगों में उभार बढ़ा हुआ निकला और 10 प्रतिशत में उभार 20 मि.मी. से बड़ा पाया गया। सामान्य तौर पर, महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में यह उभार अधिक देखा गया। सबसे बड़ा उभार एक पुरुष में 35.7 मि.मी. का था।

18 से 86 वर्ष के 1200 लोगों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि यह समस्या कम उम्र के लोगों में अधिक दिखती है। जहां पूरे समूह के 33 प्रतिशत लोगों में बढ़ा हुआ उभार देखा गया, वहीं 18-30 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में यह स्थिति 40 प्रतिशत से अधिक में पाई गई। यह परिणाम चिंताजनक है क्योंकि आम तौर पर इस तरह की विकृतियां उम्र के साथ बढ़ती हैं मगर हो रहा है उसका एकदम उल्टा।

शाहर का मानना है कि इस हड्डी की यह हालत बनी रहेगी हालांकि यह स्वास्थ्य की समस्या शायद न बने। बहरहाल, यदि आपको इसके कारण असुविधा हो रही है तो अपने उठने-बैठने के ढंग में परिवर्तन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

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