एक फफूंद मच्छरों और मलेरिया से बचाएगी

1980 के दशक में बुर्किना फासो के गांव सूमोसो ने मलेरिया के खिलाफ एक ज़ोरदार हथियार मुहैया करया था। यह था कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानी। इसने लाखों लोगों को मलेरिया से बचाने में मदद की थी। मगर मच्छरों में इन कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो गया और इन मच्छरदानियों का असर कम हो गया। अब यही गांव एक बार फिर मलेरिया के खिलाफ एक और हथियार उपलब्ध कराने जा रहा है।

इस बार एक फफूंद में जेनेटिक फेरबदल करके एक ऐसी फफूंद तैयार की गई है जो मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को मारती है। इसके परीक्षण सूमोसो में 600 वर्ग मीटर के एक ढांचे में किए गए हैं जिसे मॉस्किटोस्फीयर नाम दिया गया है। यह एक ग्रीनहाउस जैसा है, फर्क सिर्फ इतना है कि कांच के स्थान पर यह मच्छरदानी के कपड़े से बना है। परीक्षण में पता चला है कि यह फफूंद एक महीने में 90 फीसदी मच्छरों का सफाया कर देती है।

व्यापक उपयोग से पहले इसे कई नियम कानूनों से गुज़रना होगा क्योंकि फफूंद जेनेटिक रूप से परिवर्तित है। इसकी एक खूबी यह है कि यह मच्छरों के अलावा बाकी कीटों को बख्श देती है। तेज़ धूप में यह बहुत देर तक जीवित नहीं रह पाती। इसलिए इसके दूर-दूर तक फैलने की आशंका भी नहीं है।

फफूंदें कई कीटों को संक्रमित करती हैं और उनके आंतरिक अंगों को चट कर जाती है। इनका उपयोग कीट नियंत्रण में किया जाता रहा है। 2005 में शोधकर्ताओं ने पाया था कि मेटाराइज़ियम नामक फफूंद मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों का सफाया कर देती है। किंतु उसकी क्रिया बहुत धीमी होती है और संक्रमण के बाद भी मच्छर काफी समय तक जीवित रहकर मलेरिया फैलाते रहते हैं। इसके बाद कई फफूंदों पर शोध किए गए और अंतत: शोधकर्ताओं ने इसी फफूंद की एक किस्म मेटाराइज़ियम पिंगशेंस में एक मकड़ी से प्राप्त जीन जोड़ दिया। यह जीन एक विष का निर्माण करता है और तभी सक्रिय होता है जब यह कीटों के रक्त (हीमोलिम्फ) के संपर्क में आता है। प्रयोगशाला में तो यह कामयाब रहा। इससे प्रेरित होकर बुर्किना फासो में मॉस्किटोस्फीयर स्थापित किया गया।

स्थानीय बाशिंदों की मदद से आसपास के डबरों से कीटनाशक प्रतिरोधी लार्वा इकट्ठे किए गए और इन्हें मॉस्किटोस्फीयर के अंदर मच्छर बनने दिया गया। यह देखा गया है कि मनुष्य को काटने के बाद मादा मच्छर आम तौर पर किसी गहरे रंग की सतह पर आराम फरमाना पसंद करती है। लिहाज़ा, मॉस्किटोस्फीयर टीम ने फफूंद को तिल के तेल में घोलकर काली चादरों पर पोत दिया और चादरों को स्फीयर के अंदर लटका दिया।

शोधकर्ताओं ने स्फीयर के अंदर अलग-अलग कक्षों में 500 मादा और 1000 नर मच्छर छोड़े। विभिन्न कक्षों में चादरों पर कुदरती फफूंद, जेनेटिक रूप से परिवर्तित फफूंद और बगैर फफूंद वाला तेल पोता गया था। मच्छरों को काटने के लिए बछड़े रखे गए थे। यह देखा गया कि मात्र 2 पीढ़ी के अंदर (यानी 45 दिनों में) जेनेटिक रूप से परिवर्तित फफूंद वाले कक्ष में मात्र 13 मच्छर बचे थे जबकि अन्य दो कक्षों में ढाई हज़ार और सात सौ मच्छर थे।

यह तो स्पष्ट है कि यह टेक्नॉलॉजी मलेरिया वाले इलाकों में महत्वपूर्ण होगी किंतु इसे एक व्यावहारिक रूप देने में समय लगेगा।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रशांतक दवाइयों की लत लगती है – नरेन्द्र देवांगन

हर तरह की भावनात्मक परेशानी, दर्द या मांसपेशियों को आराम पहुंचाने के नुस्खे में चिकित्सक प्रशांतक (ट्रेंक्विलाइज़र) दवाएं लिखते हैं। ब्रिटेन में हर साल तंत्रिका रोगों के 2 करोड़ नुस्खे लिखे जाते हैं और 15 लाख लोग नियमित रूप से प्रशांतक दवाएं लेते हैं। चिकित्सकों को बहुत बाद में पता चला कि किसी व्यक्ति को इन रोगों से मुक्ति दिलाने में इन दवाओं का प्रभाव निश्चित रूप से बहुत कम समय के लिए पड़ता है और लंबी अवधि तक उनका इस्तेमाल करने के गंभीर प्रतिकूल प्रभाव होते हैं और लत लगने का खतरा भी रहता है। इसके प्रतिकूल प्रभावों में याददाश्त और एकाग्रता में कमी, बेहद थकान और आलस, संतुलन बिगड़ना और अलगाव की अनुभूति शामिल है।

न्यू कासल विश्वविद्यालय में मनौषधि विज्ञानी डॉ. हीथर ऐशटन के अनुसार प्रशांतकों के प्रभाव में कुछ स्वभाव से लड़ाकू लोग और ज़्यादा लड़ाकू हो जाते हैं। इन गोलियों का सम्बंध बच्चों को पीटने जैसे हिंसक कामों और दुकान से चोरी करने जैसे छोटे अपराधों से देखा गया है।

प्रशांतक दवाएं मुख्यत: बेंज़ोडाइज़ेपाइन वर्ग की होती हैं। इनमें अधिक प्रचलित हैं डाएज़ेपाम, क्लोरोडायज़ेपॉक्साइड, लोराज़ेपाम और नींद की गोली नाइट्राज़ेपाम। इन्हें वेलियम, लिब्रियम, ऐटिवन और मोगाडन के नाम से लिखा जाता है। ये सभी मस्तिष्क की तंत्रिका कोशिकाओं की सक्रियता को मंद करने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। इसके कारण एक तरह की शांति का अनुभव होता है।

पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां दोगुनी संख्या में प्रशांतक दवाओं का सेवन करती हैं। सबसे अधिक सेवन चालीस के आसपास की उम्र के लोग करते हैं। वृद्ध लोग नींद की गोलियों का अक्सर सेवन करते हैं। 1988 के एक सर्वेक्षण से पता चला कि 65 वर्ष से ऊपर के 15 प्रतिशत लोगों को हर रात नींद की गोलियां लेनी पड़ती हैं। कोई 5 लाख लोग प्रशांतक लेने के आदी हो चुके हैं जबकि हेरोइन के लती लोगों की अनुमानित संख्या दो लाख के करीब है। मनोरोग संस्थान के प्रोफेसर मैल्कम लेडर के अनुसार, “प्रशांतक की लत छुड़ाना हेरोइन से कहीं अधिक कठिन है। हेरोइन छोड़ने के बाद की परेशानियां कुछ दिनों में खत्म हो जाती हैं। लेकिन प्रशांतक छोड़ने के बाद के लक्षण (जैसे पेशियों में ऐंठन, वज़न और स्फूर्ति में कमी, दृष्टि और श्रवण दोष और खुले स्थान का भय) तीन या चार सप्ताह तक रहता है। कुछ लोगों में तो कई महीने तक यही हालत रहती है।”

लेकिन प्रशांतकों पर निर्भरता के खिलाफ संघर्ष में कई लोग सफल हो रहे हैं। बर्टन आन ट्रेंट में तीन गिरजों का संकुल चलाने वाले पादरी बर्नार्ड ब्राउन ने काम के दबाव से राहत पाने के लिए वेलियम लेना शुरू किया। उसके बाद वे कई प्रशांतकों को मिलाकर लेने लगे। परिणामस्वरूप वे गंभीर रूप से अवसादग्रस्त हो गए। उन्हें बिजली के झटके तक दिए गए। उनके चिकित्सक ने उन्हें अधिक तेज़ दवा ऐटिवन दी तब कहीं जाकर वे अधिक दवाओं के प्रभाव से मुक्ति की ओर बढ़े। प्रशांतक दवाइयां लेने की आदत छोड़ने के प्रयासरत लोगों को स्व-सहायता दल ज़बरदस्त सहारा देते हैं। समूह का हर सदस्य जानता है कि दूसरे पर क्या गुज़र रही है। वे एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं और उनकी जीत में भागीदार बनते हैं। नवागंतुकों के लिए उनका संदेश होता है, ‘हमने किया। आप भी कर सकते हैं।’

जॉय एक फैशन मॉडल थी। वह चोटी के लिबास डिज़ाइनरों के लिए काम करती थी। 29 साल पहले वह तलाक के दर्दनाक मुकदमे में फंस गई थी, और तब नींद आने के लिए उसने प्रशांतकों का सेवन शुरू किया। फिर बड़े-बड़े फैशन शो के पहले उन्हें लेने लगी। जल्द ही उसे दिल की धड़कन बढ़ने का रोग हो गया और सांस लेने में तकलीफ होने लगी। आखिरकार उसे अपना काम छोड़ देना पड़ा और कई साल अस्पताल के अंदर-बाहर होती रही। चिकित्सक यह ज्ञात करने में असफल रहे कि उसे हो क्या गया है। वह कहती है, “मैंने ज़िंदगी के कई साल खो दिए। मेरे बच्चों को याद है कि मैं उनमें कोई दिलचस्पी नहीं लेती थी। मैं जैसे कुहासे में जी रही थी।” जॉय एक स्व-सहायता दल के पास गई और उनकी सहायता से प्रशांतकों से मुक्ति पा ली। आज उसका अपना व्यवसाय है और एक व्यस्त दादी मां के रूप में ज़िंदगी का आनंद उठा रही है।

प्रशांतकों का लंबी अवधि तक सेवन करने से वे उस हालत को और खराब कर देते हैं जिन्हें दुरुस्त करने की उनसे उम्मीद की जाती है। उनका अवरोधक प्रभाव मस्तिष्क की उस कार्य शैली को गड़बड़ा देता है जो एड्रिनेलीन के प्रवाह को नियंत्रित करती है और जिससे पूरी प्रणाली में उसकी बाढ़ आ जाती है। लिवरपूल की नर्स पैम आर्मस्ट्रांग उपरोक्त व्यसन मुक्ति परिषद चलाती हैं। वे समझाती हैं, “ऐड्रिनेलीन खून का प्रवाह और ह्मदय की धड़कन बढ़ाता है। सामान्य अवस्था में किसी खतरे को देखते हुए शरीर की यह प्रतिक्रिया होती है। लेकिन अगर कोई शांतिपूर्वक बैठा हो और उसके दिल की धड़कन बढ़ जाए तो उसे दिल का दौरा भी पड़ सकता है।” 

अनुसंधान से पता चला है कि गर्भ के अंतिम महीनों में प्रशांतक लेने से गर्भस्थ शिशु पर बुरा असर पड़ता है। इनसे बच्चा नशे में डूब जाता है, जिसके कारण उसे फ्लॉपी इंफेंट सिंड्रोम हो सकता है। इसका मतलब है नवजात शिशु ठीक तरह से स्तनपान करने में असमर्थ होता है और उसे सांस लेने और दूध पीने में दिक्कत होती है।

बेंज़ोडाइज़ेपाइन वर्ग के प्रशांतक 60 के दशक में आए थे। उस समय बार्बिच्युरेट का प्रयोग सबसे ज़्यादा प्रचलित प्रशांतक के रूप में होता था। बार्बिच्युरेट के विपरीत इनकी लत नहीं लगती प्रतीत होती थी और अधिक मात्रा में लेने से मौत भी नहीं होती थी। इसलिए चिकित्सकों ने कई समस्याओं से छुट्टी पाने के सरल उपाय के रूप में बेंज़ोडाइज़ेपाइन्स का स्वागत किया।

चिकित्सकों को पहले ही बोध होना चाहिए था कि जिस दवा के लेने से लोग अच्छा महसूस करने लगते हैं, उसकी लत पड़ने का भी खतरा है। लेकिन प्रशांतकों के नुस्खे बड़ी संख्या में लिखे जाने लगे। फिर मरीज़ों का भी दबाव था। लोगों ने उनके बारे में सुना और चिकित्सकों से उन्हें लिखने की फरमाइश भी करने लगे। इसलिए चिकित्सक परीक्षा के तनाव से परेशान छात्रों को प्रशांतक लिखने लगे। वे 25 साल बाद आज तक उन्हें ले रहे हैं। प्रसूति के बाद के अवसाद को दूर करने के लिए औरतों को प्रशांतक दिए गए, और वे आज दादी बन जाने तक उन्हें ले रही हैं।

70 के दशक के उत्तरार्ध के पहले प्रशांतकों की लत लगने का पता नहीं चला था। नशीली दवाओं की आदत छुड़ाने में सहायता करने वाली ‘रिलीज़’ नामक संस्था के उपनिदेशक को याद है, “पहले हम अवैध नशीली दवाओं से चिंतित रहते थे। उसके बाद वे लोग आने लगे जिन्हें चिकित्सकों द्वारा बताई गई दवाओं के कारण परेशानी होने लगी थी। और तब हमने इस नई स्थिति को महसूस किया। लेकिन इस समस्या को स्वीकार करने में चिकित्सकों को काफी देर लगी।” 

प्रोफेसर लेडर स्पष्ट करते हैं कि इस खतरे को समझने में चिकित्सकों को इतनी देर क्यों लगी। नशीली दवाइयों के व्यसन की विशेषता होती है कि प्रभाव को बरकरार रखने के लिए उस व्यक्ति को नशीली दवा की खुराक बढ़ानी पड़ती है। लेकिन प्रशांतक लेने वालों को दवा की मात्रा बढ़ाने की ज़रूरत नहीं होती। वे उतनी ही मात्रा लेते रह सकते हैं।

कुछ लोग प्रतिकूल प्रभावों के कारण प्रशांतक लेने की आदत छोड़ना चाहते हैं। उन्हें इस आदत का गुलाम बनना गंवारा नहीं। लॉर्ड एनल्स ने स्वीकार किया कि वे भी 17 साल तक वेलियम के आदी रहे थे। इसमें 1976 से 1979 का वह समय भी शामिल था जिन दिनों वे स्वास्थ्य विभाग के सचिव थे। उन्हें चिकित्सकों ने प्रशांतक लेने की सलाह दी थी। उन दिनों वे पारिवारिक परेशानियों में उलझे थे। प्रशांतकों का कोई प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं हुआ, लेकिन वे गोलियों पर निर्भर रहना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने कई बार उनसे मुक्ति पाने की कोशिश की। आखिरकार उन्हें लेना अचानक बिलकुल बंद कर दिया। छह महीने तक बहुत परेशानी हुई, बुरे सपने आते, घबराहट होती और नींद नहीं आती थी।

चिकित्सक अचानक प्रशांतक का सेवन रोकने की सलाह नहीं देते हैं। इससे तेज़ सिरदर्द हो सकता है और यह खतरनाक भी हो सकता है। एक महिला ने ऐटिवन लेना अचानक बंद कर दिया तो उसने आत्महत्या करने की कोशिश की। अत: रोगियों को इन दवाओं की खुराक धीरे-धीरे कम करने में सहायता दी जाती है। चिकित्सीय निरीक्षण में व्यक्ति 8 सप्ताह में प्रशांतकों से मुक्ति पा सकता है।

आज अधिकतर चिकित्सक यह देखने की कोशिश करते हैं कि बेंज़ोडाइज़ेपाइन का इस्तेमाल तीव्र भावनात्मक कष्टों के निवारण में अस्थायी तौर पर किया जाए। ब्रिाटेन की दवा सुरक्षा समिति के मुताबिक रोग के लक्षणों को नियंत्रित करने के लिए चिकित्सक कम से कम खुराक लेने की सलाह दें। प्रशांतक चार हफ्ते से अधिक तक न लिए जाएं और नींद की गोलियां नियमित रूप से लेने के बजाए रुक-रुक कर ली जाएं।

प्रशांतक की आदत छोड़ने के लिए संघर्षरत लोगों को परामर्शदाता अपने परिवारों से सहायता लेने की सलाह देते हैं जो कि उनकी समस्या को समझते हुए उनका हौसला बुलंद कर सकें। चिकित्सक ऐसी दवाएं लिख सकते हैं जिनकी आदत नहीं पड़ती। गहरे अवसाद से पीड़ित लोगों को व्यसन न बनने वाली अवसादरोधी गोलियां या ऐसे बीटा ब्लॉकर दे सकते हैं जो दवा छोड़ने के बाद के शारीरिक प्रभाव यानी घबराहट और ह्मदय गति का बढ़ना रोकती हैं। वे परामर्श लेने या मनोचिकित्सा कराने की भी सलाह दे सकते हैं।

आपको लगता है कि प्रशांतक या नींद की गोलियां आपके लिए समस्या बन गई हैं तो निसंकोच अपने चिकित्सक की सलाह लें। इसके अलावा स्वयंसेवी दल हैं और कुछ अस्पतालों से सम्बद्ध विशेष इकाइयां भी हैं, जो लोगों की प्रशांतकों की लत छुड़ाने में सहायता करती हैं। यह याद रखें कि प्रशांतक ‘आनंद की गोलियां’ नहीं हैं जैसा कभी उनके बारे में सोचा जाता था और जो लोग लंबे अरसे तक उनका सेवन करते हैं, उन्हें अस्थायी राहत की ऊंची कीमत चुकानी पड़ सकती है। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विलुप्त होती हड्डी दोबारा उभरने लगी

वैज्ञानिकों का मानना था कि मनुष्य के घुटने पर उभरने वाली हड्डी फेबेला विकास क्रम में विलुप्त होने लगी थी। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि फेबेला फिर उभरने लगी है। इम्पीरियल कॉलेज की मिशेल बर्थोम और उनके साथियों का यह अध्ययन जर्नल ऑफ एनॉटॉमी में प्रकाशित हुआ है।

सेम की साइज़ की यह हड्डी सीसेमॉइड हड्डी है, जिसका मतलब है कि यह कंडरा के बीच धंसी रहती है। समय के साथ यह हड्डी कैसे विलुप्त हुई यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने 27 अलग-अलग देशों के 21,000 घुटनों के एक्स-रे, एमआरआई और अंग-विच्छेदन का अध्ययन किया। इन सभी से प्राप्त डैटा को एक साथ किया और उनका सांख्यिकीय विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि लगभग एक शताब्दी पूर्व की तुलना में वर्तमान समय में यह हड्डी तीन गुना अधिक मामलों में दिखती है। अध्ययन के अनुसार साल 1875 में लगभग 17.9 प्रतिशत लोगों में फेबेला उपस्थित थी जबकि वर्ष 1918 में यह लगभग 11.2 लोगों में उपस्थित थी। और 2018 में यह 39 प्रतिशत लोगों में देखी गई।

पूर्व में फेबेला बंदरों में नी कैप (घुटनों के कवच) की तरह काम करती थी। मनुष्य में विकास के साथ फेबेला की ज़रूरत कम होती गई। और यह विलुप्त होने लगी। लेकिन यह मनुष्यों में पुन: दिखने लगी है। ऐसा माना जाता है कि इस हड्डी की उपस्थित का सम्बंध घुटनों के दर्द वगैरह से है। फेबेला को गठिया या घुटनों की सूजन, दर्द और अन्य समस्याओं के साथ जोड़कर देखा जाता है। वास्तव में हड्डियों के गठिया से पीड़ित लोगों में सामान्य लोगों के मुकाबले फेबेला अधिक देखी गई है। तो आखिर किस वजह से यह लोगों में फिर उभरने लगी है।

मिशेल का कहना है कि सीसेमॉइड हड्डियां समान्यतः किसी यांत्रिक बल की प्रतिक्रिया स्वरूप विकसित होती हैं। आधुनिक मनुष्य अपने पूर्वजों की तुलना में बेहतर पोषित है, यानी पूर्वजों की तुलना में हम अधिक लंबे और भारी हैं। अधिक वज़न से घुटनों पर अधिक ज़ोर पड़ता है जिसके फलस्वरूप लोगों में फेबेला उभरने लगी है। (स्रोत फीचर्स)

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कोशिका भित्ती बंद, बैक्टीरिया संक्रमण से सुरक्षा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पृथ्वी पर बैक्टीरिया लगभग 3.8 से 4 अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आए थे। पर्यावरण ने जीवित रहने और प्रजनन करने के लिए जो कुछ भी उपलब्ध कराया, वे उसी से काम चलाते रहे हैं। उनकी तुलना में मनुष्य पृथ्वी पर बहुत बाद में अस्तित्व में आए, कुछ लाख साल पहले। वर्तमान में पृथ्वी पर मनुष्य की कुल आबादी लगभग 7 अरब है। जबकि पृथ्वी पर बैक्टीरिया की कुल आबादी लगभग 50 लाख खरब खरब है। ब्राहृांड में जितने तारे हैं उससे भी कहीं ज़्यादा बैक्टीरिया पृथ्वी पर हैं।

कई बैक्टीरिया मनुष्यों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं। इनमें से कई बैक्टीरिया मनुष्यों के लिए निरापद ही नहीं बल्कि फायदेमंद भी हैं। मनुष्य की आंत में लगभग 100 खरब बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो हमारी वृद्धि और विकास में मदद करते हैं। लेकिन कुछ बैक्टीरिया हमें बीमार कर देते हैं और यहां तक कि जान भी ले लेते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य ने जड़ी-बूटियों और औषधियों की मदद से इनके संक्रमण से निपटने के तमाम तरीके अपनाए हैं। इसी संदर्भ में डॉ. रुस्तम एमिनोव ने फ्रंटियर्स इन माइक्रोबॉयोलॉजी में प्रकाशित अपने शोघ पत्र “A brief history of the antibiotic era: Lessons learned and challenges for the future” (एंटीबायोटिक युग का संक्षिप्त इतिहास: सबक और भविष्य की चुनौतियां) में बताया है कि प्राचीन काल में मिरुा के लोग संक्रमण से निपटने के लिए फफूंद लगी ब्रोड की पुल्टिस लगाते थे। सूडान में पाए गए कंकालों में एंटीबायोटिक ट्रेट्रासायक्लीन के अवशेष मिले हैं, जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वे लोग सूक्ष्मजीव से हुए संक्रमण के इलाज में किसी बूटी का उपयोग करते थे।

एक हालिया रास्ता

आधुनिक चिकित्सा आधारित उपचार कुछ ही वर्ष पुराना है। सन 1909 में डॉ. हारा ने सिफलिस संक्रमण से लड़ने के लिए आर्सफेनामाइन यौगिक खोजा था। फिर सन 1910 में डॉ. बर्थाइम ने इसका संश्लेषण किया और सेलवार्सन नाम दिया। इसके बाद 1928 में एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन की खोज की थी। पेनिसिलीन कई सारे संक्रामक बैक्टीरिया को मार सकती थी।

बैक्टीरिया से लड़ने के लिए हम जितनी नई दवाएं और रसायन खोजते हैं, उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के ज़रिए उतनी ही तेज़ी से बैक्टीरिया की जेनेटिक संरचना बदल जाती है और बैक्टीरिया उस दवा के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं। इस तरह वैज्ञानिक और बैक्टीरिया के बीच यह रस्साकशी चलती ही रहती है। अब हम यह समझ गए हैं कि जब तक हम बैक्टीरिया संक्रमण फैलने में शामिल बुनियादी जीव वैज्ञानिक चरणों को नहीं समझ नहीं लेते तब तक हम बैक्टीरिया पर विजय नहीं पा सकेंगे।

बैक्टीरिया के जीव विज्ञान को समझने की दिशा में सूक्ष्मजीव विज्ञानी एशरीशिया कोली (ई. कोली) नामक बैक्टीरिया पर अध्ययन कर रहे हैं। अब हम जानते हैं कि बैक्टीरिया की कोशिका एक रक्षात्मक कोशिका भित्ती से घिरी होती है। यह कोशिका भित्ती एक बड़ी थैली-नुमा संरचना से बनी होती है जिसे पेप्टीडोग्लायकेन या PG कहते हैं। जिस PG का उपयोग बैक्टीरिया करते हैं, वह सिर्फ बैक्टीरिया में पाया जाता है, अन्यत्र कहीं नहीं।

PG थैलीनुमा संरचना होती है जो दो शर्करा अणुओं (NAG और NAM) की शृंखलाओं से निर्मित कई परतों से मिलकर बनी होती हैं। ये परतें आपस में एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और बैक्टीरिया की कोशिका के इर्द-गिर्द एक निरंतर परत का निर्माण करती हैं। अर्थात जब बैक्टीरिया का आकार बढ़ता है तो ज़रूरी होता है कि यह PG थैली भी फैलती जाए। PG थैली फैलने के लिए पहले परतों के बीच की कड़िया खुलेंगी, फिर नए पदार्थ जुड़ेंगे और एक बार फिर ये परतें आपस में कड़ियों के माध्यम से जुड़ जाएंगी। तभी तो बैक्टीरिया की वृद्धि हो पाएगी।

 

निर्णायक चरण

बैक्टीरिया पर काबू पाने की दिशा में हैदराबाद स्थित कोशिकीय व आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB) की डॉ. मंजुला रेड्डी और उनके साथियों ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है। उन्होंने इस बात का बारीकी से अध्ययन किया है कि बैक्टीरिया कैसे कोशिका भित्ती बनाता है और वृद्धि को संभव बनाने के लिए कैसे PG थैली खोलता है, और इस थैली को खोलने में कौन से रसायन मदद करते हैं। अध्ययन में उन्होंने PG थैली खुलने के लिए एंज़ाइम्स के खास समूह को ज़िम्मेदार पाया है (उनके शोध पत्र इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं https://doi.org/10.1073/pnas.1816893116)। उनके अनुसार, यदि जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से बैक्टीरिया में से इनमें से किसी एक या सभी एंज़ाइम को हटा दिया जाए तो PG थैली नहीं खुलेगी, और बैक्टीरिया भूखा मर जाएगा।

इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि यदि हम ऐसे कोई अणु या तरीके ढूंढ लेते हैं जिनकी मदद से हम इन एंज़ाइम्स को रोकने में सफल हो जाते हैं तो हम जीवाणुओं को उनके सुरक्षा कवच यानी कोशिका भित्ती को बनाने से रोक पाएंगे। इस तरह से संक्रमण पर काबू पा सकेंगे और सुरक्षित हो सकेंगे।

अन्य तरीके

प्रसंगवश, एंटीबायोटिक पेनिसिलीन भी उन्हीं एंज़ाइम्स को रोकती है जो कोशिका भित्ती खुलने के बाद उसे बंद करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। भित्ती बंद ना हो पाने के कारण जीवाणु कमज़ोर हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। तो यह तरीका हुआ “भित्ती बंद ना होने देना”। CCMB के शोधकर्ताओं द्वारा सुझाया तरीका है “कोशिका भित्ती हमेशा बंद रहे, कभी ना खुले”। वर्तमान में लोकप्रिय एंटीबायोटिक औषधियां जिन्हें फ्लोरोक्विनोलॉन्स कहते हैं (जैसे सिप्रॉफ्लॉक्सेसिन) कोशिका भित्ती पर सीधे असर नहीं करती लेकिन उन एंज़ाइम्स को रोकती हैं जो बैक्टीरिया के डीएनए को खुलने और प्रतियां बनाने में मदद करता है। इस तरह की औषधियां संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया को अपनी प्रतियां बनाकर संख्यावृद्धि करने और अपने जीन्स की मरम्मत करने से रोकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्म खून के जंतुओं में ह्रदय मरम्मत की क्षमता समाप्त हुई

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि जो जंतु गर्म खून वाले होते हैं उनमें ह्दय की मरम्मत की क्षमता कम होती है। गर्म खून वाले जंतु से आशय उन जंतुओं से है जिनके खून का तापमान स्थिर रहता है, चाहे आसपास के पर्यावरण में कमी-बेशी होती रहे। शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि गर्म खून का विकास और ह्दय की मरम्मत की क्षमता का ह्यास परस्पर सम्बंधित हैं।

सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी गुओ हुआंग और उनके साथियों ने विभिन्न जंतुओं के ह्दय का अध्ययन करके उक्त निष्कर्ष साइन्स शोध पत्रिका में प्रस्तुत किया है।

हुआंग की टीम दरअसल यह देखना चाहती थी कि विभिन्न जंतुओं के ह्दय की कोशिकाओं में कितने गुणसूत्र होते हैं। यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि जंतुओं के शेष शरीर की कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम की दो प्रतियां पाई जाती हैं किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाओं में गुणसूत्रों की 4-4, 6-6 प्रतियां होती हैं।

जंतु कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति मां से और दूसरी पिता से आती है। इन कोशिकाओं को द्विगुणित कहते हैं। किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाएं बहुगुणित होती हैं। इनमें दो या दो से अधिक प्रतियां पिता से और दो या दो से अधिक प्रतियां माता से आती हैं।

हुआंग की टीम को पता यह चला कि जब आप मछली से शुरू करके छिपकलियों, उभयचर जीवों और प्लेटीपस जैसी मध्यवर्ती प्रजातियों से लेकर स्तनधारियों की ओर बढ़ते हैं वैसे-वैसे ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात बढ़ता है। यह तथ्य तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब आप यह देखें कि ज़्यादा द्विगुणित कोशिकाओं वाले ह्रदय  – जैसे ज़ेब्रा मछली का ह्रदय  – में पुनर्जनन हो सकता है और मरम्मत हो सकती है। जैसे-जैसे बहुगुणित कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है (जैसे चूहों और मनुष्यों में) तो मरम्मत की क्षमता कम होने लगती है।

अब सवाल यह है कि किसी ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात कौन तय करता है। यह सवाल वैसे तो अनुत्तरित है किंतु हुआंग की टीम को एक जवाब मिला है। उन्होंने पाया है कि इस मामले में थायरॉइड हारमोन की कुछ भूमिका हो सकती है। थायरॉइड हारमोन शरीर क्रियाओं (मेटाबोलिज़्म) को नियंत्रित करता है और हमें गर्म खून वाला बनाता है। टीम ने देखा कि जब उन्होंने ज़ेब्रा मछली के टैंक में अतिरिक्त थायरॉइड हारमोन डाल दिया तो उनके ह्रदय  में पुनर्जनन नहीं हो पाया। दूसरी ओर, उन्होंने ऐसे चूहे विकसित किए जिनके ह्रदय  थायरॉइड के प्रति असंवेदी थे तो चोट लगने के बाद उनके ह्रदय  दुरुस्त हो गए। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि अभी कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि इस संदर्भ में थायरॉइड शायद अकेला ज़िम्मेदार नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बीमारी के इलाज में वायरसों का उपयोग

वैसे तो बैक्टीरिया जनित रोगों के इलाज में वायरसों के उपयोग का विचार कई दशकों पहले उभरा था और कुछ चिकित्सकों ने इस पर हाथ भी आज़माए थे किंतु एंटीबायोटिक दवाइयों की आसान उपलब्धता के चलते यह विचार उपेक्षित ही रहा। यह आम जानकारी है कि वायरस स्वयं कई बीमारियां पैदा करते हैं। तो यह सवाल अस्वाभाविक नहीं है कि फिर इनका उपयोग बैक्टीरिया से लड़ने में कैसे होगा।

बरसों पहले यह पता चल चुका था कि कई वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित करके उन्हें मार डालते हैं। ऐसे वायरसों को बैक्टीरिया-भक्षी वायरस या बैक्टीरियोफेज कहते हैं। इसके आधार पर यह सोचा गया था कि यदि आपके पास सही बैक्टीरिया-भक्षी है तो आप बैक्टीरिया संक्रमण से निपट सकते हैं। प्रत्येक बैक्टीरिया के लिए विशिष्ट भक्षी होता है। अत: सबसे पहले तो आपको भक्षी की खोज करना होती है। ये प्रकृति में हर जगह पाए जाते हैं किंतु सही भक्षी की खोज करना आसान नहीं होता। इसके बाद समस्या यह आती थी कि एक भक्षी सारे मरीज़ों के लिए कारगर नहीं होता था। और सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि एक बार एकत्रित करने के बाद इन वायरसों को सहेजना पड़ता था। इन सब मामलों में एंटीबायोटिक कहीं ज़्यादा सुविधानक थे। इसलिए वायरस उपचार की बात चली नहीं।

मगर आज बड़े पैमाने पर बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाइयों के प्रतिरोधी हो चले हैं। दुनिया भर में यह चिंता व्याप्त है कि एंटीबायोटिक के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध के चलते कहीं हम उस युग में न लौट जाएं जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं। यदि वैसा हुआ तो आधुनिक चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा खतरे में पड़ जाएगी। इस माहौल में एक बार फिर वायरस चिकित्सा की चर्चा शुरू हुई है।

हाल ही में कुछ अस्पतालों में वायरस-उपचार के सफल उपयोग के समाचार मिले हैं। टेक्नॉलॉजी के स्तर पर भी हम काफी आगे बढ़े हैं। भक्षी वायरसों को पहचानना, एकत्रित करना और सहेजना अब ज़्यादा आसान हो गया है। अत: वायरस-उपचार अनुसंधान में तेज़ी आई है। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया, जेनेटिक्स और मूल विज्ञान की समझ – अश्विन साई नारायण शेषशायी

दार्शनिक बातों से हटकर जीवन के दो सत्य हैं। सबसे पहला तो यह कि हम सूक्ष्मजीवों की दुनिया में रहते हैं। सूक्ष्मजीवों से हमारा मतलब उन जीवों से है जो आम तौर पर आंखों से दिखाई नहीं देते हैं। इनमें एक-कोशिकीय बैक्टीरिया आते हैं, जो खमीर जैसे अन्य एक कोशिकीय जीवों से भिन्न हैं और उन कोशिकाओं से भी भिन्न हैं जो खरबों की संख्या में मिलकर मनुष्य व अन्य जीवों का निर्माण करती हैं। सरल माने जाने वाले बैक्टीरिया, अब तक इस ग्रह पर ज्ञात मुक्त जीवन के सबसे प्रमुख रूप हैं। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी पर इनकी संख्या एक के बाद तीस शून्य लगाने पर मिलेगी; मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि इतनी बड़ी संख्या को क्या कहा जाना चाहिए।

मानव कल्पना में, कई बैक्टीरिया शरारती होते हैं और सबसे बदतरीन मामलों में इनसे बचकर रहना चाहिए। बैक्टीरिया कई संक्रामक रोग उत्पन्न करते हैं जो काफी लोगों को बीमार करते हैं और मृत्यु का भी कारण बनते हैं। दूसरी ओर, यह भी सच है कि इन जीवाणुओं के बिना हमारा अस्तित्व वैसा नहीं होता जैसा आज है। यह तो अब एक जानी-मानी बात है कि मानव शरीर में अपनी कोशिकाओं की तुलना में बैक्टीरिया की संख्या दस-गुना अधिक हैं, और जिन प्रायोगिक जीवों में ये बैक्टीरिया नहीं होते उन्हें सामान्य जीवन जीने में गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

उदाहरण के लिए, कोई एंटीबायोटिक्स लेने के बाद हम जिस अतिसार (दस्त) का शिकार हो जाते हैं वह आंत में बसने वाले इन उपयोगी बैक्टीरिया के खत्म हो जाने की वजह से होता है। इसीलिए एंटीबायोटिक की खुराक के साथ इन दोस्ताना बैक्टीरिया को बहाल करने के लिए प्रोबायोटिक औषधि दी जाती है जिसमें अनुकूल बैक्टीरिया होते हैं।

यह सच है कि अगर मैं बेतरतीब ढंग से 10 बैक्टीरिया ले लूं, तो संभवत: इनमें से कोई भी बैक्टीरिया, स्वस्थ मानव को बीमार करने का कारक नहीं होगा। जीवन के संकीर्ण मानव-केंद्रित दृष्टिकोण से हटकर देखें, तो बैक्टीरिया इस ग्रह पर कई जैव-रासायनिक अभिक्रियाओं को भी उत्प्रेरित करते हैं जिनकी विश्व निर्माण में प्रमुख भूमिका है। यहां हम जीवाणुओं के जीवन के तरीकों पर चर्चा करेंगे और देखेंगे कि वे हमारे परितंत्र की आधारशिला हैं, और उनके साथ अपने शत्रुवत व्यवहार के परिणामस्वरूप हमें कई संकटों का सामना भी करना पड़ता है।

जीवन का दूसरा सच जिसमें हमें काफी दिलचस्पी है उसका सम्बंध आनुवंशिकी से है। जैव विकास के सिद्धांत के अनुसार जीवन का सार फिटनेस है। फिटनेस एक तकनीकी शब्द है। इस फिटनेस को जिम में बिताए गए समय से नहीं बल्कि एक व्यक्ति की जीवनक्षम संतान पैदा करने की क्षमता से निर्धारित किया जाता है। समस्त जीव यह करते हैं लेकिन संतान पैदा करने की यह दर अलग-अलग प्रजातियों में अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिए, ई. कोली नामक बैक्टीरिया की 100 कोशिकाएं सिर्फ 20 मिनट के समय में दुगनी हो सकती हैं। इस समय को एक पीढ़ी की अवधि कहा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर, मनुष्य का एक जोड़ा अपने पूरे जीवन काल, जो एक सदी के बड़े भाग के बराबर है, में एक या दो संतान पैदा कर सकता है। इतनी भिन्नता के बाद भी हम सभी एक साथ रहते हैं। इस तरह के विविध प्रकार के जीवों के सह अस्तित्व को समझना अपने आप में शोध का एक रोमांचक और चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है (लेकिन यहां इसे हम विस्तार में नहीं देखेंगे)। यह बात ध्यान देने वाली है कि एक-कोशिकीय जीवाणु और एक मनुष्य के बीच प्रजनन दर की यह तुलना पूरी तरह से उचित नहीं है, लेकिन ऐसा क्यों नहीं है इसकी बात किसी और दिन करेंगे। अभी के लिए यह कहना पर्याप्त है कि प्रजनन जीवन की निरंतरता के लिए महत्वपूर्ण है, अब चाहे वो प्रजाति हर 20 मिनट में द्विगुणित हो या फिर 20 साल में।

यह तो हम सभी जानते हैं कि हमारी आनुवंशिक सामग्री यानी हमारा जीनोम, हमारे अस्तित्व को निर्धारित करने का महत्वपूर्ण कारक है। न केवल यह हमारी कई विशेषताओं को निर्धारित करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि इसकी प्रतिलिपि पूरी ईमानदारी से बने और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रेषित हो। हालांकि जीवन की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है किंतु आनुवंशिक सामग्री की सही प्रतिलिपि बनाने में निष्ठा बहुत ज़्यादा भी नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो हम सब, बैक्टीरिया से लेकर मनुष्य तक, एक समान होते। यह तो हम जानते हैं कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक उत्परिवर्तन का एक निश्चित स्तर जीवन के लिए आवश्यक है। और अगर हमको विकसित होना है – और हम विकसित हो ही रहे हैं – तो कुछ उत्परिवर्तनों को स्वीकार करना ही होगा। बैक्टीरिया इस कला में माहिर हैं। वे सटीकता और लचीलेपन बीच संतुलन बनाकर रखते हैं जिससे वह विविधता बनी रहती है जिसने उन्हें लंबे समय तक धरती पर जीवित रखा है। पर्याप्त विविधता उत्पन्न करके वे धरती के हर कोने में जीवित रहने से लेकर एंटीबायोटिक्स को पराजित करने का रास्ता भी खोज पाए हैं।

जीवाणुओं के अध्ययन ने जीवन की निरंतरता को समझने के तरीके समझने में मदद की है; बैक्टीरिया की आनुवंशिकी को समझना चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है: कैसे थोड़े-से बैक्टीरिया बीमारी के कारक बन जाते हैं और किस तरह वे हमारे द्वारा बनाए गए बचाव के तरीकों (एंटीबायोटिक समेत) से बच निकलते हैं।

जीवाणु जीव विज्ञान के बारे में हमारी वर्तमान समझ का अधिकांश विकास तत्काल उपयोगी अनुसंधान के कारण नहीं, बल्कि दशकों से चली आ रही मूल सवालों के जवाब खोजने की कोशिशों  से संभव हुआ है। इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए दुनिया भर के कई शोधकर्ताओं ने प्रयास किए हैं, इन प्रयासों के आधार पर एक के बाद एक शोध पत्र या थीसिस ने हमारे ज्ञान को बढ़ाया है। ‘नवाचार’ जैसा प्रचलित शब्द अचानक से प्रकट नहीं होता है, यह काफी हद तक मूलभूत विज्ञान द्वारा निर्धारित मजबूत नींव पर आधारित होता है। ऐसे भी उदाहरण हैं जहां समाज के लिए प्रासंगिक अध्ययनों ने ऐसे अमूर्त प्रश्नों को प्रभावित किया है जो जिज्ञासा से प्रेरित थे, जिज्ञासा जो एक अनिवार्य मानवीय गुण है। जहां लक्ष्य आधारित प्रायोगिक अनुसंधान का महत्व है, वहीं विज्ञान के मूलभूत पहलुओं की समझ के बिना इनका कोई अस्तित्व नहीं।

ये ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिनसे रोज़मर्रा के जीवन में हमारा सामना होता है। लेकिन मूलभूत विज्ञान के लिए धन उपलब्ध कराने को लेकर सार्वजनिक और राजनीतिक अविश्वास के सामने, समाज में मूल विज्ञान की भूमिका के बारे में सोचने के लिए यह सबसे उचित समय है। (स्रोत फीचर्स)

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भारत में नियंत्रित मानव संक्रमण मॉडल की आवश्यकता – मनीष मनीष और स्मृति मिश्रा

ज विज्ञान इस स्तर तक पहुंच चुका है कि मलेरिया और टाइफाइड जैसी संक्रामक बीमारियों का इलाज मानक दवाइयों के नियमानुसार सेवन से किया जा सकता है। हालांकि भारत में अतिसंवेदनशील आबादी तक अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में अभी भी मलेरिया के कारण मौतें हो रही हैं। एक अप्रभावी उपचार क्रम एंटीबायोटिक-रोधी किस्मों को जन्म दे सकता है। यह आगे चलकर देश की जटिल स्वास्थ्य सम्बंधी चुनौतियों को और बढ़ा देगा।

भारत में रोग निरीक्षण सहित वर्तमान स्वास्थ्य सेवा प्रणाली अभी भी मध्य युग में हैं। भारत ने आर्थिक रूप से और अंतरिक्ष अन्वेषण जैसे कुछ अनुसंधान क्षेत्रों में बेहद उन्नत की है। किंतु विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मलेरिया रिपोर्ट 2017 के अनुसार, भारतीय मलेरिया रोग निरीक्षण प्रणाली केवल 8 प्रतिशत मामलों का पता लगा पाती है, जबकि नाइजीरिया की प्रणाली 16 प्रतिशत मामलों का पता लगा लेती है। इसलिए भारत सरकार बीमारी के वास्तविक बोझ का अनुमान लगाने और उसके आधार पर संसाधन आवंटन करने में असमर्थ है। जबकि किसी भी अन्य राष्ट्र की तरह, भारत को भी सतत विकास के लिए एक स्वस्थ आबादी की आवश्यकता है।

भारत टीकों का सबसे बड़ा निर्माता है। भारत सरकार का राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम, हाल ही में शुरू किए गए इंद्रधनुष कार्यक्रम सहित, एक मज़बूत प्रणाली है जिसने स्वच्छता एवं स्वास्थ्य सेवा के कमतर स्तर, उच्च तापमान, बड़ी विविधतापूर्ण आबादी और भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद सफलतापूर्वक पोलियो उन्मूलन का लक्ष्य हासिल किया है। इसके अलावा, भारत सरकार द्वारा टीकाकरण क्षेत्र को मज़बूत करने के लिए विभिन्न शोध कार्यक्रम शुरू किए जा रहे हैं, जैसे इम्यूनाइज़ेशन डैटा: इनोवेटिंग फॉर एक्शन (आईडीआईए)।

भारत में मूलभूत अनुसंधान उस स्थिति में पहुंच चुका है, जहां वह विकास की चुनौती के बावजूद सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार समाधान विकसित कर सकता है। अकादमिक शोध में कम से कम तीन संभावित मलेरिया वैक्सीन तैयार हुए हैं, जबकि एक भारतीय कंपनी (भारत बायोटेक) द्वारा हाल ही में डब्ल्यूएचओ प्रीक्वालिफाइड टाइफाइड वैक्सीन विकसित किया गया है। अलबत्ता, आश्चर्य की बात तो यह है कि इस डब्ल्यूएचओ प्रीक्वालिफाइड टाइफाइड वैक्सीन की रोकथाम-क्षमता का डैटा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में नियंत्रित मानव संक्रमण मॉडल (CHIM) का उपयोग करके हासिल किया गया है। इसका कारण यह हो सकता है कि भारत में नैदानिक परीक्षण व्यवस्था कमज़ोर और जटिल है।

भारत की पारंपरिक नैदानिक परीक्षण व्यवस्था बहुत जटिल है। 2005 के बाद से चिकित्सा शोध पत्रिका संपादकों की अंतर्राष्ट्रीय समिति मांग करती है कि किसी भी क्लीनिकल परीक्षण का पूर्व-पंजीकरण (यानी प्रथम व्यक्ति को परीक्षण में शामिल करने से पहले पंजीकरण) किया जाए ताकि प्रकाशन में पक्षपात को रोका जा सके। हालांकि भारत की क्लीनिकल परीक्षण रजिस्ट्री अभी भी परीक्षण के बाद किए गए पंजीकरण को स्वीकार करती है। ह्रूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) वैक्सीन के क्लीनिकल परीक्षण पर काफी हल्ला-गुल्ला हुआ था जिसके चलते संसदीय स्थायी समिति और एक विशेषज्ञ समिति द्वारा जांच हुई, मीडिया में काफी चर्चा हुई और सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि सार्वजनिक विश्वास में गिरावट आई। भारत में एचपीवी परीक्षणों की जांच करने वाली विशेषज्ञ समिति ने पाया कि गंभीर घटनाओं का पता लगाने में हमारी क्लीनिकल अनुसंधान प्रणाली विफल है।

टीकों के उपयोग से रोग का प्रकोप कम हो जाता है जिसके चलते दवा का उपयोग कम करना पड़ता है। इस प्रकार टीकाकरण एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या को भी कम कर सकता है। भारत में बेहतर टीकाकरण कार्यक्रम, वैक्सीन उत्पादन सुविधाओं और बुनियादी वैक्सीन अनुसंधान को देखते हुए, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत में वैक्सीन विकास को किस तरह तेज़ किया जा सकता है? जब हमारे पास टीके की रोकथाम-क्षमता पर पर्याप्त डैटा न हो तो क्या हम एक बड़ी आबादी को एक संभावित टीका देने का खतरा मोल ले सकते हैं? या क्या यह बेहतर होगा कि पहले अत्यधिक नियंत्रित परिस्थिति में टीके की रोकथाम-क्षमता का मूल्यांकन किया जाए और फिर बड़ी जनसंख्या पर परीक्षण शुरू किए जाएं?

सीएचआईएम (मलेरिया के लिए, नियंत्रित मानव मलेरिया संक्रमण, सीएचएमआई) एक संभावित वैक्सीन की रोकथाम-क्षमता का ठीक-ठाक मूल्यांकन करने के लिए एक मंच प्रदान करता है, जिसमें बड़े परीक्षण की ज़रूरत नहीं है। सीएचएमआई में ‘नियंत्रित’ शब्द अत्यधिक नियंत्रित परिस्थिति का द्योतक है। जैसे भलीभांति परिभाषित परजीवी स्ट्रेन, संक्रमण उन्मूलन के लिए प्रभावी दवा और कड़ी निगरानी के लिए अत्यधिक कुशल निदान प्रणाली। ‘संक्रमण’ शब्द से आशय है कि परीक्षण के दौरान संक्रमण शुरू किया जाएगा, बीमारी नहीं। शब्द ‘मानव’ का मतलब है कि प्रयोग इंसानों पर होंगे जैसा कि किसी भी क्लीनिकल टीका अनुसंधान में रोकथाम-क्षमता के आकलन में किया जाता है।

अमेरिका, ब्रिाटेन, जर्मनी, तंजानिया और केन्या जैसे कई देशों में सीएचआईएम अध्ययन करने की क्षमता विकसित की गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में पिछले 25 वर्षों से सीएचएमआई परीक्षण में 1000 से अधिक वालंटियर्स ने भाग लिया है और कोई प्रतिकूल घटना सामने नहीं आई है। पहले संक्रामक बीमारी के लिए हम ज़्यादातर दवाइयां/टीके बाहर से मंगाते थे, लेकिन स्थिति तेज़ी से बदल रही है। उदाहरण के लिए भारत में रोटावायरस टीके का विकास हुआ है। 

यह सही है कि स्वदेशी समाधान विकसित करने की बजाय आयात करना हमेशा आसान होता है लेकिन यदि पोलियो टीका भारत में विकसित किया गया होता, तो हम एक पीढ़ी पहले पोलियो से मुक्त हो सकते थे। भारत में सीएचआईएम अध्ययन विकसित करने के लिए कड़ी मेहनत की आवश्यकता होगी। वर्तमान स्थिति में, यह मलेरिया और टाइफाइड जैसी बीमारियों के लिए किया जा सकता है लेकिन शायद ज़ीका, डेंगू और टीबी के लिए नहीं। अलबत्ता, यदि उच्चतम मानकों को पालन नहीं किया जा सकता है तो बेहतर होगा कि सीएचआईएम अध्ययन न किए जाएं।

सीएचआईएम में सबसे बड़ी बाधा लोगों की धारणा की है। इस धारणा को केवल तभी संबोधित किया जा सकता है जब हम सीएचआईएम अध्ययन के लिए वैज्ञानिक, नैतिक और नियामक ढांचा विकसित कर सकें जिसमें बुनियादी अनुसंधान, क्लीनिकल अनुसंधान, नैतिकता, विनियमन, कानून और सामाजिक विज्ञान में सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञता का समावेश हो। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह ढांचा सीएचआईएम के लिए उच्चतम मानकों को परिभाषित करे। मीडिया को उनकी मूल्यवान आलोचना और कार्यवाही के व्यापक पारदर्शी प्रसार की अनुमति दी जानी चाहिए।

इसकी शुरुआत किसी सरकारी संगठन द्वारा की जानी चाहिए ताकि जनता में यह संदेह पनपने से रोका जा सके कि यह दवा कंपनियों द्वारा वाणिज्यिक लाभ के लिए किया जा रहा है। एक या दो उत्कृष्ट अकादमिक संस्थानों को चुना जाना चाहिए और सीएचआईएम अध्ययन करने की क्षमता विकसित की जानी चाहिए। चूंकि संक्रामक बीमारियां निरंतर परिवर्तनशील हैं, भारत में सीएचआईएम अध्ययन पर चर्चा के लिए गहन प्रयासों की तत्काल आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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स्कूल स्वच्छता अभियान से शिक्षा व स्वास्थ्य में सुधार – भारत डोगरा

स्कूलों में स्वच्छता अभियान अपने आप में तो बहुत ज़रूरी है ही, साथ ही इससे शिक्षा व स्वास्थ्य में व्यापक स्तर पर सुधार की बहुत संभावनाएं हैं। अनेक किशोरियों के स्कूल छोड़ने व अध्यापिकाओं के ग्रामीण स्कूलों में न जाने का एक कारण शौचालयों का अभाव रहा है। अब शौचालय का निर्माण तो तेज़ी से हो रहा है, पर निर्माण में गुणवत्ता सुनिश्चित करना ज़रूरी है। चारदीवारी न होने से शौचालय के रख-रखाव में कठिनाई होती है। छात्राओं व अध्यापिकाओं के लिए अलग शौचालयों का निर्माण कई जगह नहीं हुआ है।

एक बहुत बड़ी कमी यह है कि हमारे मिडिल स्तर तक के अधिकांश स्कूलों में, विशेषकर दूर-दूर के गांवों में एक भी सफाईकर्मी की व्यवस्था नहीं है। इस वजह से सफाई का बहुत-सा भार छोटी उम्र के बच्चों पर आ जाता है। सफाई रखने की आदत डालना, स्वच्छता अभियान में कुछ हद तक भागीदारी करना तो बच्चों के लिए अच्छा है, पर सफाई का अधिकांश बोझ उन पर डालना उचित नहीं है। अत: शीघ्र से शीघ्र यह निर्देश निकलने चाहिए कि प्रत्येक स्कूल में कम से कम एक सफाईकर्मी अवश्य हो। जो स्कूल छोटे से हैं, वहां सफाईकर्मी को सुबह के 2 या 3 घंटे के लिए नियुक्त करने से भी काम चलेगा।

मध्यान्ह भोजन पकाने की रसोई को साफ व सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक है। रसोई में स्वच्छता के उच्च मानदंड तय होने चाहिए व इसके लिए ज़रूरी व्यवस्थाएं होनी चाहिए। मध्यान्ह भोजन पकाने वाली महिलाओं का वेतन बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। इस समय तो उनका वेतन बहुत कम है जबकि ज़िम्मेदारी बहुत अधिक है।

मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम की वजह से स्कूल में स्वच्छ पानी की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। इस ओर समुचित ध्यान देना चाहिए। ठीक से हाथ धोने की आदत वैसे तो सदा ज़रूरी रही है, पर अब और ज़रूरी हो गई है। ऐसी व्यवस्था स्कूल में होनी चाहिए कि बच्चे आसानी से खाना खाने से पहले व बाद में तथा शौचालय उपयोग करने के बाद भलीभांति हाथ धो सकें।

इनमें से कई कमियों को दूर कर स्कूल में स्वच्छता का एक मॉडल मैयार करने का प्रयास आगा खां विकास नेटवर्क से जुड़े संस्थानों ने बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात के सैकड़ों स्कूलों में किया है। बिहार में ऐसे कुछ स्कूल देखने पर पता चला कि छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग अच्छी गुणवत्ता के शौचालय बनवाए गए हैं। उनमें भीतर पानी की व्यवस्था है व बाहर वाटर स्टेशन है। पानी के नलों व बेसिन की एक लाइन है जिससे विद्यार्थी बहुत सुविधा से हाथ धो सकते हैं। स्कूलों में साबुन उपलब्ध रहे इसके लिए सोप बैंक बनाया गया है। बच्चे अपने जन्मदिन पर इस सोप बैंक को एक साबुन का उपहार देते हैं।

किशोरियों को मीना मंच के माध्यम से माहवारी सम्बंधी स्वच्छता की जानकारी दी जाती है। स्कूल में एक ‘स्वच्छता कोना’ बनाकर वहां स्वच्छता सम्बंधी जानकारी या उपकरण रखवाए जाते हैं। बाल संसद व मीना मंच में स्वच्छता की चर्चा बराबर होती है। छात्र समय-समय पर गांव में स्वच्छता रैली निकालते हैं। स्वच्छता की रोचक शिक्षा के लिए विशेष पुस्तक व खेल तैयार किए गए हैं। सप्ताह में एक विशेष क्लास इस विषय पर होती है। स्वच्छता के खेल को सांप-सीढ़ी खेल के मॉडल पर तैयार कर रोचक बनाया गया है।

इन प्रयासों में छात्रों व अध्यापकों दोनों की बहुत अच्छी भागीदारी रही है, जिससे भविष्य के लिए उम्मीद मिलती है कि ऐसे प्रयास अधिक व्यापक स्तर पर भी सफल हो सकते हैं। अभिभावकों ने बताया कि जब स्कूल में बच्चे स्वच्छता के प्रति अधिक जागरूक होते हैं तो इसका असर घर-परिवार व पड़ौस तक भी ले आते हैं। जिन स्कूलों में सफल स्वच्छता अभियान चले हैं व स्वच्छता में सुधार हुआ है, वहां शिक्षा के बेहतर परिणाम प्राप्त करने में भी मदद मिली है तथा बच्चों में बीमार पड़ने की प्रवृत्ति कम हुई है।

अलबत्ता, एक बड़ी कमी यह रह गई है कि बहुत से स्कूलों के लिए बजट में सफाईकर्मी का प्रावधान ही नहीं है और किसी स्कूल में एक भी सफाईकर्मी न हो तो उस स्कूल की सफाई व्यवस्था पिछड़ जाती है। इस कमी को सरकार को शीघ्र दूर करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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जुड़वां बच्चों के संसार में एक विचित्रता – सुशील जोशी

म तौर पर माना जाता है कि जुड़वां बच्चे हूबहू एक समान होते हैं। जुड़वां बच्चों की थीम पर बनी हिंदी फिल्मों ने इस धारणा को काफी बल दिया है। लेकिन तथ्य यह है कि दुनिया भर में जितने जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं उनमें से मात्र लगभग 10 प्रतिशत ही ऐसे ‘फिल्मी’ जुड़वां होते हैं। आम तौर पर जुड़वां बच्चे दो प्रकार के होते हैं – समान और असमान। इन दोनों के निर्माण के तरीके में अंतर है। तकनीकी भाषा में इन्हें एकयुग्मज (समान) और द्वियुग्मज (असमान) जुड़वां कहते हैं। हाल ही में एक रिपोर्ट आई है कि ऐसे जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ है जो न तो पूरी तरह समान हैं न पूरी तरह असमान; ये आंशिक रूप से समान हैं। इस बात को समझने के लिए पहले जुड़वां बच्चों की बात को समझना आवश्यक है।

द्वियुग्मज जुड़वां बच्चे दो अलग-अलग अंडाणुओं के दो अलग-अलग शुक्राणुओं के साथ मेल के द्वारा विकसित होते हैं। स्त्री शरीर में सामान्य व्यवस्था यह है कि प्रति माह दो में से किसी एक अंडाशय में से अंडाणु मुक्त होता है। इस अंडाणु के किसी शुक्राणु से मिलन (निषेचन) के फलस्वरूप युग्मज यानी ज़ायगोट बनता है। यही ज़ायगोट विकसित होकर भ्रूण तथा शिशु का रूप लेता है। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि एक ही समय पर दोनों अंडाशयों में से एक-एक अंडाणु मुक्त हो जाता है। यदि इन दोनों का निषेचन हो जाए तो दो ज़ायगोट बन जाते हैं। दोनों ज़ायगोट बच्चादानी में जुड़ सकते हैं और आगे विकास जारी रख सकते हैं। चूंकि ये दोनों अलग-अलग अंडाणुओं और अलग-अलग शुक्राणुओं के निषेचन से बने हैं इसलिए इनमें उतनी ही समानता होती है जितनी किन्हीं भी दो भाई-बहनों के बीच होती है। अंतर सिर्फ यह होता है कि ये दोनों एक साथ एक ही समय पर गर्भाशय में पलते हैं। इनमें दोनों लड़के, दोनों लड़कियां या एक लड़का और एक लड़की भी हो सकते हैं।

दूसरी ओर, एकयुग्मज जुड़वां (यानी समान जुड़वां) एक ही अंडाणु के एक ही शुक्राणु द्वारा निषेचन से पैदा होते हैं। इनमें जो ज़ायगोट बनता है वह निषेचन के बाद दो भागों में बंट जाता है और दोनों से शिशुओं का विकास होता है। इनमें आनुवंशिक सामग्री एक ही होती है और इसलिए ये हूबहू एक जैसे होते हैं। एकयुग्मज जुड़वां या तो दोनों लड़के होते हैं या दोनों लड़कियां।

जिन कोशिकाओं से शुक्राणु और अंडाणु बनते हैं उनमें प्रत्येक गुणसूत्र की दो-दो प्रतियां पाई जाती हैं। शुक्राणु/अंडाणु बनते समय इनमें से एक ही प्रति उनमें जाती है। इस प्रकार से शुक्राणु/अंडाणु में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति होती है। निषेचन के समय हरेक गुणसूत्र की एक प्रति शुक्राणु से और एक प्रति अंडाणु से आती है। इस प्रकार से बच्चे अपने माता या पिता से 50-50 प्रतिशत आनुवंशिक सामग्री प्राप्त करते हैं।

लेकिन यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि इनके अलावा एक तीसरे किस्म के जुड़वां बच्चे भी होते हैं जिन्हें अर्ध-समान जुड़वां या सेमी-आइडेंटिकल ट्विन्स कहते हैं। ये बहुत बिरले होते हैं और यह भी पता नहीं है कि दुनिया में ऐसे आंशिक-समान जुड़वां कितने हैं – रिकॉर्ड में तो मात्र 1 था। हाल ही में दी न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन में ऐसे ही अर्ध-समान जुड़वां के जन्म की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इनका जन्म जनवरी 2014 में ऑस्ट्रेलिया में हुआ था। रिपोर्ट में बताया गया है कि इनमें मां से मिलने वाले तो सारे जीन्स एक जैसे हैं मगर पिता से आए तीन-चौथाई जीन्स ही एक-दूसरे से मेल खाते हैं।

उक्त शोधपत्र के प्रमुख लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड बायोमेडिकल इनोवेशन के माइकेल गैबेट ने बताया है कि ऐसे अर्ध-समान जुड़वां पहली बार 2007 में यूएस में जन्म के बाद पहचाने गए थे। इस बार जो जुड़वां पहचाने गए हैं उन्हें सबसे पहले गर्भ में ही सोनोग्राफी की मदद से पहचाना गया था। पहली सोनोग्राफी में पता चला था कि वे समान जुड़वां हैं। मगर कुछ समय बाद यह देखकर डॉक्टरों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि ये दो बच्चे एक लड़का और एक लड़की थे। समान जुड़वां या तो दोनों लड़के होते हैं या दोनों लड़की।

इसके बाद डॉक्टरों ने उनके गर्भजल की जांच की। दोनों बच्चे अलग-अलग गर्भजल थैलियों में बढ़ रहे थे। इस जांच में पता चला कि इन जुड़वां में मां के 100 प्रतिशत जीन्स एक समान थे किंतु पिता के मात्र 78 प्रतिशत जीन्स ही समान थे।

तो ये अर्ध-समान जुड़वां कैसे बने? गैबेट ने इसे समझाने के लिए एक परिकल्पना प्रस्तुत की है। उनके मुताबिक संभवत: हुआ यह है कि एक अंडाणु को दो शुक्राणुओं ने निषेचित किया। प्रत्येक शुक्राणु में गुणसूत्र का अपना-अपना सेट होता है। यानी अंडाणु के गुणसूत्र दो शुक्राणुओं के गुणसूत्रों से मिल गए। एक बार निषेचन हो जाने के बाद अंडाणु अभेद्य हो जाता है – एक शुक्राणु के अंडाणु में प्रवेश के बाद दूसरे शुक्राणु अंदर नहीं पहुंच सकते। यानी संयोगवश ये दो शुक्राणु एक ही समय पर अंडाणु से टकराए होंगे और दोनों को प्रवेश मिल गया होगा। तो अंदर गुणसूत्रों के तीन सेट हो गए होंगे। ये तीन कोशिकाओं में बंटे होंगे – एक में अंडाणु और प्रथम शुक्राणु के गुणसूत्र, दूसरी में अंडाणु और दूसरे शुक्राणु के गुणसूत्र तथा तीसरी में दोनों शुक्राणुओं के गुणसूत्र। संतान के विकास के लिए माता-पिता दोनों के गुणसूत्र होना ज़रूरी है। लिहाज़ा तीसरी कोशिका की मृत्यु हो गई होगी। शेष दो कोशिकाएं आपस में मिल गई होंगी और फिर दो में विभाजित होकर दो शिशु विकसित हुए होंगे।

एक परिकल्पना यह भी प्रस्तुत की गई है कि पहले कोई अनिषेचित अंडाणु दो में बंट जाता है और ये दोनों भाग आपस में जुड़े रह जाते हैं। इन दोनों का ही निषेचन हो सकता है। इन दोनों अंडाणुओं का निषेचन अलग-अलग शुक्राणुओं से हो जाता है और निषेचन के बाद ये आपस में मिल जाते हैं। कुछ समय विकास के बाद यह मिला-जुला अंडा फिर से दो में विभाजित होकर दो शिशुओं को जन्म देता है। इस तरह से इन दोनों में मां के तो सारे गुणसूत्र एक जैसे होंगे मगर पिता के दो शुक्राणुओं से प्राप्त मिले-जुले गुणसूत्र होंगे।

इन जुड़वां में कुछ और भी विचित्रताएं हैं। जैसे दोनों में नर व मादा दोनों लिगों के गुणसूत्र हैं। मनुष्य में कुल 23 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। इनमें से 22 जोड़ियों में तो दोनों गुणसूत्र एक-दूसरे के पूरक होते हैं मगर 23वीं जोड़ी के गुणसूत्र भिन्न-भिन्न होते हैं। इन्हें एक्स और वाय गुणसूत्र कहते हैं। 23वीं जोड़ी के दोनों गुणसूत्र एक्स हों तो लड़की बनती है और यदि 23वीं जोड़ी में एक एक्स तथा दूसरा वाय गुणसूत्र हो तो लड़का बनता है। ऑस्ट्रेलियाई जुड़वां में दोनों की कुछ कोशिकाओं में एक्स-एक्स जोड़ी है जबकि कुछ कोशिकाओं में एक्स-वाय जोड़ी है। विभिन्न कोशिकाओं में इस तरह से नर व मादा गुणसूत्र जोड़ियों का पाया जाना कई समस्याओं को जन्म देता है। जब डॉक्टरों ने जुड़वां में से लड़की के अंडाशय की जांच की तो पाया कि उसमें कुछ ऐसे परिवर्तन हुए हैं जो कैंसर को जन्म दे सकते हैं। ऐहतियात के तौर पर उसके अंडाशय हटा दिए हैं। अच्छी खबर यह है कि ये दो जुड़वां बच्चे अब साढ़े चार साल के हो चुके हैं और सामान्य ढंग से विकसित हो रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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