बच्चों का हास-परिहास और विकास

हास्य-विनोद (humor) इंसानी व्यक्तित्व (human personality)  का बहुत पुराना और रोचक पहलू है। बच्चे पूरे वाक्य बोलने या किताब पढ़ने से पहले ही हंसी-मज़ाक और शरारतें करने लगते हैं। यह उनके विकास (child development), दूसरों से जुड़ाव और बुद्धिमत्ता से जुड़ा होता है।

शोध बताता है कि बच्चे जन्म के कुछ ही महीनों बाद मुस्कराने और थोड़े समय बाद हंसने लगते है। शुरू में वे सरल खेलों (play activities) से मज़ा लेते हैं; जैसे आंख-मिचौली, गुदगुदी या टेढ़े-मेढ़े चेहरे बनाना। फिर वे अजीब जगहों पर छिपने का नाटक, उछल-कूद या चीज़ों को खिलौने बना कर मज़ा लेने लगते हैं।

धीरे-धीरे बच्चे और उन्नत हास्य (sense of humor) करने लगते हैं; जैसे चिढ़ाना, भूमिकाएं निभाना, बेतुके शब्द बोलना और अंत में शब्दों के खेल (wordplay) और चुटकुले समझना। मनोवैज्ञानिकों ने इसे ‘अर्ली ह्यूमर सर्वे’ (early humor survey) जैसे शोधों में दर्ज किया है। इससे स्पष्ट होता है कि बच्चे अचानक मज़ाकिया नहीं बन जाते बल्कि धीरे-धीरे यह कौशल विकसित करते हैं, जो आगे चलकर उनकी सोच और संवाद की क्षमता को मज़बूत बनाता है।

हास्य सिर्फ मनोरंजन (entertainment) नहीं है, बल्कि यह सीखने (learning process) और सामाजिक विकास का एक महत्वपूर्ण ज़रिया है। जब कोई बच्चा मज़ाक या चुटकुला समझता है, तो उसे कई बातों पर ध्यान देना पड़ता है – जैसे किसी चीज़ का सामान्य उपयोग क्या है, उसमें क्या अलग या अजीब किया गया है और क्यों वह मज़ेदार लग रहा है। इसका मतलब है कि बच्चा चीज़ों को केवल अपनी नज़र से नहीं बल्कि दूसरों के दृष्टिकोण से भी देखना सीखता है। मनोवैज्ञानिक इसे ‘थ्योरी ऑफ माइंड’ (theory of mind) कहते हैं। जो बच्चे ज़्यादा मज़ाक करते हैं या खेल-खेल में हंसी-मज़ाक करते हैं, वे सामाजिक और मानसिक रूप से ज़्यादा तेज़ी से विकसित होते हैं। वे जल्दी सीखते हैं, बेहतर संवाद करते हैं और अच्छे रिश्ते बना पाते हैं।

हंसी-विनोद हमारे रिश्तों (relationships) को मज़बूत करने का काम करते हैं। मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट प्रोवाइन के अध्ययन में पाया गया कि हम दूसरों के साथ रहते हुए लगभग 30 गुना अधिक हंसते हैं। दिलचस्प बात यह है कि हम केवल 20 प्रतिशत मज़ाक या चुटकुलों पर हंसते है, बकाया तो आम बातचीत के दौरान हंसते हैं। यानी हंसी जुड़ाव, भरोसे और अपनेपन से जुड़ा मामला है।

यह आदत सिर्फ इंसानों तक सीमित नहीं है। चिम्पैंजी और गोरिल्ला जैसे अन्य प्राइमेट (primates) भी खेलते समय हंसी जैसी हरकतें दिखाते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि शुरू में हंसी का विकास ‘सोशल ग्रूमिंग’ (social grooming) के लिए हुआ था। क्योंकि शारीरिक ग्रूमिंग (जैसे एक-दूसरे को साफ करना) छोटे समूहों तक सीमित था और समय लेता था, हंसी शायद एक आसान और तेज़ तरीका बनी जिससे बड़े समूहों में भी अपनापन बढ़ सके। मनुष्यों में हंसी और भी मज़बूत भूमिका निभाती है। यह दो तरह की होती है। एक, स्वाभाविक हंसी (जब हमें सच में कुछ मज़ेदार लगता है)। दूसरी, जान-बूझकर की गई हंसी (जिसे हम दोस्ती जताने, तनाव घटाने या रुचि दिखाने के लिए करते हैं)। दोनों ही तरह की हंसी लोगों को जोड़ने और समूहों को एकजुट रखने में अहम भूमिका निभाती है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि इंसानी हंसी (human laughter) हमारी निहायत ‘नैसर्गिक’ अभिव्यक्तियों (natural expressions) में से एक है। इंसानों की खासियत यह है कि हम केवल खेल-खेल में नहीं, बल्कि व्यंग्य, कटाक्ष और यहां तक कि गहरी दार्शनिक बातों पर भी हंस सकते हैं। यह दिखाता है कि हास्य मानव स्वभाव की बुनियादी विशेषता है। इतिहास में कई दार्शनिकों ने इंसान की अनोखी पहचान को परिभाषित करने की कोशिश की है – अरस्तू ने इसे तार्किकता का नाम दिया, विट्गेंस्टाइन ने इसे भाषा बताया, और सार्त्र ने स्वतंत्र निर्णय। लेकिन हास्य की सर्वव्यापकता और बच्चों द्वारा इसे इतनी जल्दी अपनाना यह संकेत देता है कि हास्य हमारी पहचान के लिए उतना ही ज़रूरी है जितनी तार्किकता या भाषा। कहना गलत न होगा कि हम हंसते हैं इसलिए हम इंसान हैं।

सीखने में हास्य का महत्व (importance of humor in learning)

हास्य सीखने को आसान और मज़ेदार बना देता है। शोध बताते हैं कि यदि बच्चों को पढ़ाते समय हंसी-मज़ाक (fun learning) का इस्तेमाल किया जाता है तो बच्चे जल्दी और बेहतर सीखते हैं। यहां तक कि खबरें भी मज़ेदार अंदाज़ में सुनाई जाएं तो लोग उन्हें ज़्यादा दिलचस्पी से सुनते हैं।

बच्चों द्वारा हास्य और कल्पना (creativity) को मिलाना भी सीखने का हिस्सा है। जैसे केले को फोन बनाना या अजीब से शब्द गढ़ना – ये केवल खेल नहीं बल्कि रचनात्मकता की शुरुआत हैं। हास्य बच्चों को सुरक्षित और मज़ेदार तरीके से नियम तोड़ने का मौका देता है, जिससे वे नई बातें सोच पाते हैं और आगे बढ़ते हैं। धीरे-धीरे यही खेल-खेल में किया गया हास्य उन्हें कहानी कहने, नकल करने और गहराई से सोचने की क्षमता तक ले जाता है।

हालांकि बच्चों में हास्य (child humor) बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इस पर उतना शोध नहीं हुआ है जितना अन्य मनोवैज्ञानिक विषयों (psychology research) पर हुआ है। इसका कारण यह है कि छोटे बच्चे अक्सर कहे जाने पर मज़ाक नहीं करते और शोधकर्ताओं के सामने शर्माते भी हैं। कभी-कभी उनका हास्य समझना भी मुश्किल होता है। फिर, कुछ विद्वान हास्य को हल्का-फुल्का विषय मानते हैं और शोध के लायक नहीं समझते।

लेकिन हाल के अध्ययनों (recent studies) ने इस सोच को बदला है। एलेना होइका जैसे मनोवैज्ञानिकों ने बच्चों के हास्य के विकास (humor development) को बारीकी से ट्रैक किया और दिखाया कि यह उनके मानसिक विकास से जुड़ा है। यानी यह केवल हंसी-मज़ाक नहीं है, बल्कि बच्चों के विकास में गंभीर और अहम भूमिका निभाता है।

बहरहाल, हास्य का महत्व (importance of humor) सिर्फ बचपन के विकास या सामाजिक रिश्तों तक सीमित नहीं है। इसकी असली ताकत यह है कि यह हमें इंसान बनाता है। हास्य हमें दुनिया को अलग नज़रिए से देखने, नियमों पर सवाल उठाने, दूसरों से जुड़ने और समाज निर्माण (social development) की क्षमता देता है। यह हमारी बुद्धि, रचनात्मकता और खुश रहने की क्षमता को दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विकलांगजन समावेशी कानून

सुबोध जोशी

भारत में विकलांगजन (disabled persons) के लिए कानून (disability law) बनने के बाद उनके समावेश की बात होने लगी। समावेश का अर्थ यह सुनिश्चित करना है कि विकलांगजन भी गैर-विकलांगों की तरह रोज़मर्रा की गतिविधियों और जीवन के सभी क्षेत्रों में समान रूप से पूरी तरह भाग ले सकें। इसमें समाज में उनकी पूर्ण भागीदारी की राह में आने वाली सभी बाधाएं दूर करते हुए उन्हें बाधामुक्त वातावरण (accessible environment) एवं सुगमता उपलब्ध कराना, भागीदारी के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना और यह सुनिश्चित करना शामिल है कि समाज, समुदाय या संगठन में पर्याप्त विकलांग-हितैषी दृष्टिकोण, नीतियां और प्रथाएं लागू हों। सफल समावेश उसे कहा जा सकता है जिसकी बदौलत जीवन की सामाजिक रूप से अपेक्षित भूमिकाओं और गतिविधियों में उनकी भागीदारी बढ़े। यह समावेश संपूर्ण समाज का कार्य है।

वर्तमान में विकलांगजन के हित में की जाने वाली बातें और कार्रवाई मुख्य रूप से विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के संधि पत्र (UNCRPD) की रोशनी में की जाती है। यह मौजूदा मानव अधिकारों को विकलांग व्यक्तियों की जीवन स्थितियों से जोड़ने वाला सार्वभौमिक दस्तावेज है। इस संधि पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले देशों की संख्या 200 से कुछ ही कम है जिनमें से भारत भी एक है। UNCRPD एक तरह से विकलांगजन के हित में कार्य करने के लिए दुनिया के अधिकांश देशों के लिए एक साझा मार्गदर्शिका (disability rights treaty) है। भारत सहित अधिकांश देशों में इसी के आधार पर विकलांगता सम्बंधी कानून, नीतियां और योजनाएं तैयार कर उन पर अमल करने की कोशिशें की जा रही हैं। इसके अनुसार, “विकलांग व्यक्तियों में वे लोग शामिल हैं जिन्हें ऐसी दीर्घकालिक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी क्षतियां हुई हैं, जो विभिन्न बाधाओं के कारण समाज में दूसरों के साथ समानता से उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।” इस प्रकार विकलांगता उन क्षतियों और बाधाओं के मेलजोल से निर्मित होती है जिनका सामना प्रभावित व्यक्ति को करना होता है। बाधाओं का अर्थ सिर्फ भौतिक बाधाओं के रूप में लगाया जाना गलत है। इसमें दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं भी शामिल होती हैं जिनकी तरफ न के बराबर ध्यान दिया जाता है।

विकलांगजन के समावेश के लिए इन दोनों प्रकार की बाधाओं को हटाया जाना ज़रूरी है। जीवन का कोई भी क्षेत्र केवल भौतिक बाधाओं (physical barriers) के ही हटने पर सुगम्य नहीं हो सकता। इसके लिए दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाओं (attitudinal barriers) का हटना भी उतना ही ज़रूरी है। सच तो यह है कि सुगम्यता और समावेश की राह में आने वाली भौतिक बाधाओं का मूल कारण ही विकलांगजन के प्रति समाज के दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं हैं। दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं पूर्वाग्रह और विचार-पद्धतियां हैं जो विकलांग व्यक्तियों के प्रति भेदभाव को बढ़ावा देती हैं। उन्हें ज़रूरतमंद और असमर्थ बताना गलत है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे समाज का एक अंग होते हैं। गहराई से देखने पर यह मालूम पड़ता है कि विकलांग व्यक्तियों को अपनी क्षति के कारण उतनी असुविधाओं और बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता जितना अपने प्रति समाज के दृष्टिकोण के कारण करना पड़ता है। उनके प्रति अन्य व्यक्तियों, समुदाय, समाज और संगठनों का यह उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण वास्तव में वह बाधा है जो भौतिक बाधाओं से कहीं ज़्यादा गंभीर होता है। जहां ऐसी स्थिति होती है वहां एक तरह से समाज ही उन्हें विकलांग बनाता है।

बाधामुक्त वातावरण में केवल चलने-फिरने सम्बंधी विकलांगता के कारण व्हीलचेयर (wheelchair users), बैसाखी वगैरह सहायक उपकरण इस्तेमाल करने वाले व्यक्तियों के लिए रैंप, चौड़े दरवाज़े और सुगम्य शौचालय की व्यवस्था करना ही शामिल नहीं है। इसमें दृष्टिबाधित (visually impaired), श्रवणबाधित (hearing impaired), बहु-विकलांग व्यक्तियों और यहां तक कि बौद्धिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के लिए विकलांगता-विशिष्ट व्यवस्थाएं करना भी शामिल है। इनके अलावा और भी विकलांगताएं होती हैं; भारत में विकलांगजन के लिए बनाए गए पहले कानून में सात विकलांगताएं परिभाषित कर शामिल की गई थी जिनकी संख्या वर्तमान में लागू दूसरे कानून में इक्कीस कर दी गई है। बाधामुक्त वातावरण में विकलांगता-विशिष्ट व्यवस्थाएं करने की यह ज़रूरत सभी सेवाओं, अवसरों, सार्वजनिक स्थलों, यातायात, आयोजनों, सूचना सामग्री, शिक्षा प्रणाली, रोज़गार, स्वास्थ्य सेवाओं, देखभाल, मनोरंजन आदि सभी क्षेत्रों में लागू होती हैं ताकि विभिन्न विकलांगताओं वाले व्यक्ति जानकारी प्राप्त कर सकें और निर्बाध भागीदारी कर सकें। शिक्षा और प्रशिक्षण की कमी के चलते भारत में बड़ी संख्या में ऐसे विकलांग व्यक्ति हैं जो सूचनाओं, जानकारी और विभिन्न उपायों, जैसे ब्रेल लिपि, दृश्य संकेत, सांकेतिक भाषा वगैरह का लाभ नहीं ले पाते हैं। इसलिए उनकी सहायता के लिए जगह-जगह संवेदनशील एवं प्रशिक्षित व्यक्ति होने चाहिए। चलने-फिरने और हाथों का इस्तेमाल करने में असमर्थ व्यक्तियों के लिए भी इस तरह की व्यक्तिगत सहायता उपलब्ध होनी चाहिए।

यह एक सच्चाई है कि भारत में विकलांगता के सामाजिक पहलू (social aspect of disability) पर न के बराबर ध्यान दिया जाता है, और इसे विशुद्ध रूप से एक चिकित्सीय विषय (medical model) माना जाता है। शिक्षा की कमी, विकलांगता के बारे में सही जानकारी का अभाव और गलत धारणाओं की व्यापकता के कारण देश में दृष्टिकोण सम्बंधी बाधा एक बहुत बड़ी समस्या है। स्थिति इतनी खराब है कि वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी यह माना जाता है कि विकलांगता विकलांग व्यक्ति और उसके परिजनों के पूर्वजन्म के कर्मों का फल है जो उन्हें भोगना ही होगा। यह सोचकर समाज खुद को विकलांग व्यक्ति और उसके परिवार से दूर कर लेता है और यह मान लेता है कि प्रभावित व्यक्ति या परिवार के प्रति उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। नतीजतन विकलांग व्यक्ति की ज़िम्मेदारी पूरी तरह उसके परिवार पर छोड़ दी जाती है। उसे कोई सामाजिक सहायता या सामाजिक सुरक्षा नहीं मिल पाती है। शिक्षा की कमी और गरीबी समस्या को और बढ़ा देती है।

देश में विकलांगजन के लिए कानून बहुत देर से आने का मुख्य कारण संवेदनशीलता (social sensitivity) की कमी ही है और यह कमी कानून के अमल (policy implementation) में भी साफ देखी जा सकती है। न तो देश में विकलांगजन-हितैषी वातावरण बन सका है, न ही उनकी  ज़रूरतों के मान से पर्याप्त नीति निर्माण और नियोजन हो रहा है और न ही कल्याणकारी योजनाएं लागू की जा रही हैं। संवेदनशीलता की कमी दूर करना पहली प्राथमिकता मानकर इसके लिए विशेष अभियानों के माध्यम से संपूर्ण समाज को विकलांगता की सामाजिक और मानवाधिकार-आधारित समझ के बारे में जागरूक किया जाना ज़रूरी है। विकलांगजन के समावेश पर राजनैतिक और शासन के स्तर पर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। भारत में यह विशेष रूप से ज़रूरी है क्योंकि बदकिस्मती से यहां सामाजिक बदलाव का कार्य भी राज्य को करना पड़ता है। इसके लिए समावेश का मुद्दा नीति निर्माण और नियोजन का एक अनिवार्य पहलू होना चाहिए क्योंकि शायद ही कोई विभाग ऐसा होता होगा जिसका समावेश से किसी न किसी तरह से सम्बंध न हो। नीतियों और योजनाओं के अमल में भी ईमानदारी होनी चाहिए। कार्यप्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि समावेश की पुष्टि भी की जा सके। समावेश कोई ऐसा कार्य नहीं है जो एक बार कर दिया जाने के बाद बंद कर दिया जाए, बल्कि यह हमेशा जारी रहने वाली एक सतत प्रक्रिया है। इसलिए इसकी सतत मॉनीटरिंग भी ज़रूरी है।

यहां एक और महत्वपूर्ण बात जोड़ना उचित होगा। समावेशिता (inclusivity) के दायरे में विकलांगजन के साथ बुज़ुर्गों (elderly people), किसी क्षति के कारण अस्थाई रूप से अशक्त व्यक्तियों और गंभीर रूप से बीमार व्यक्तियों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि इनकी ज़रूरतें विकलांगजन की ज़रूरतों के समान ही हो जाती हैं। इन ज़रूरतों में देखभाल की ज़रूरत भी शामिल है। इसी तरह विकलांग व्यक्ति के बुज़ुर्गावस्था में पहुंचने पर उसकी भी आयु-आधारित कठिनाइयां एवं ज़रूरतें शुरू हो जाती हैं और उम्र के साथ-साथ बढ़ती जाती हैं।

भारत एक ऐसा देश है जहां अब तक गैर-विकलांगों के लिए भी बुनियादी ढांचा (infrastructure) हर जगह तैयार नहीं हुआ है। उनके लिए भी अवसरों और भागीदारी की समानता (equal opportunities) सुनिश्चित नहीं हुई है। स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा के क्षेत्रों पर नज़र डालने से ही यह सच्चाई आसानी से समझी जा सकती है। आज भी अनेक इलाके ऐसे हैं जहां स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध न होने के साथ आवागमन की सुविधा का भी अभाव है जिसके कारण प्रसव और इलाज के लिए कष्टप्रद यात्रा कर दूर जाना पड़ता है। आए दिन गर्भवती महिला और गंभीर मरीज़ को गांव या बस्ती वालों द्वारा खटिया पर दूरस्थ अस्पताल ले जाए जाने की घटनाएं सुनने में आती है। ऐसे में विकलांगजन और बुज़ुर्गों की मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। इसके अलावा बड़े-छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में बुनियादी ढांचे तथा सेवाओं एवं सुविधाओं में ज़मीन-आसमान का फर्क है।

ऐसी स्थिति में विकलांगजन और बुज़ुर्गों के समावेश की कितनी भी बात कर ली जाए वह बेमानी ही होगी। इतने बड़े देश में इक्का-दुक्का विकलांग-अनुकूल स्थल या सेवा (disabled-friendly services) उपलब्ध करा देना सिर्फ एक ‘नमूना’ कहा जा सकता है; उदाहरण के लिए दिल्ली मेट्रो रेल सेवा। किसी खास स्थल या खास योजना के तहत आने वाले शहर या फिर कुछ ही समय के लिए होने वाले किसी खास आयोजन को सुगम्य बनाना मन समझाने की कवायद मात्र है। सिर्फ हेरिटेज सिटी या स्मार्ट सिटी परियोजना के अधीन आने वाले खास शहरों को ही सुगम्य बनाने से क्या होगा? सिर्फ कुंभ जैसे खास आयोजन को ही सुगम्य बनाने से क्या होगा?

वास्तव में ज़रूरत इस बात की है कि समावेशिता (inclusive development) के लिए पूरे देश को एक इकाई मानकर काम किया जाए। निश्चित लक्ष्य और ज़िम्मेदारियों के साथ एक समयबद्ध योजना बनाकर लागू की जाए। पूरे देश में जागरूकता एवं संवेदनशीलता (awareness) पैदा की जाए। दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं और भौतिक बाधाएं एक साथ हटाने के लिए काम किया जाए। चूंकि बुनियादी ढांचे पर काफी काम किया जाना अब भी बाकी है इसलिए सख्ती से ऐसी नीति लागू की जानी चाहिए कि बनाया जाने वाला हर नया ढांचा शुरू से ही समावेशी हो। और पूर्ववर्ती ढांचों को समावेशी ढांचे में ज़रूर बदला जाना चाहिए। एक निश्चित समय बाद समाज में ऐसा वातावरण बन जाना चाहिए कि समावेश के लिए अलग से बात करने या प्रयास करने की ज़रूरत ही न पड़े।

अंत में, विकलांगजन के समावेश (social inclusion) के विषय में यह समझ लेना सबसे महत्वपूर्ण है कि समस्या विकलांगजन में नहीं बल्कि समाज (society) में निहित है। उनका समावेश समाज में होना है लेकिन समाज यह होने नहीं दे रहा है। इसलिए ध्यान समाज पर केंद्रित किया जाना चाहिए, न कि विकलांगजन पर। समावेश के लिए ज़रूरत समाज में बदलाव लाकर उसे समावेशी बनाने की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारतीय उपमहाद्वीप की आबादी

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

म, भारत के लोग (Indian population), कहां से और कैसे आए? इस सम्बंध में 2009 में हारवर्ड और एमआईटी युनिवर्सिटी (Harvard University, MIT) के डेविड रीच और सीसीएमबी (हैदराबाद – CCMB Hyderabad) के के. थंगराज और लालजी सिंह ने संयुक्त रूप से एक शोध पत्र लिखा था, जिसका शीर्षक था ‘रिकंस्ट्रक्टिंग इंडियन पॉप्युलेशन हिस्ट्री (भारतीय आबादी के इतिहास का पुनर्निर्माण – Reconstructing Indian Population History)’। इसमें भारत में 25 विविध समूहों का आनुवंशिक विश्लेषण (genetic analysis) किया गया था। इसमें पता चला था कि अधिकांश भारतीयों के पूर्वज जेनेटिक रूप से पृथक दो प्राचीन आबादियों के हैं।  

मेरी सलाह है कि आप यह शोधपत्र डाउनलोड करें और पढ़ें। (लिंक यह रही – https://pmc.ncbi.nlm.nih.gov/articles/PMC2842210/.) खासकर इसमें प्रस्तुत चित्र 1 देखें और तालिका 1 पढ़ें।

हम कितने जुदा हैं? उन्होंने हमारे पूर्वजों के मुख्य रूप से दो अलग समूह पाए हैं। ‘उत्तर भारतीय पूर्वज’ (ANI- Ancestral North Indians) समूह, इस समूह के लोग जेनेटिक रूप से पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और युरोप के लोगों के नज़दीकी है। अधिकांश ANI वंशज मुख्य रूप से भारत के उत्तरी राज्यों के रहवासी हैं। दूसरा है ‘दक्षिण भारतीय पूर्वज (ASI- Ancestral South Indians)’ समूह, जो स्पष्ट रूप से ANI से अलग है और इनके पूर्वज पूर्वी युरेशियन मूल के हैं।

एक अधिक विस्तृत विश्लेषण में उन्होंने मध्य एशिया और उत्तरी दक्षिण एशिया के 500 से अधिक लोगों के प्राचीन जीनोम-व्यापी डैटा (ancient DNA data) का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि ASI प्रत्यक्ष वंशज हैं जो दक्षिण भारत में जनजातीय समूहों में रहते हैं। और ऐसा लगता है कि ANI और ASI समूह के लोगों का प्रवास (migration) लगभग 3-4 हज़ार साल पहले हुआ था। इस प्रकार देश भर में उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय (जिन्हें द्रविड़ – Dravidian भी कहा जाता है) लोगों का मिश्रण रहता है।

39-71 प्रतिशत तक ANI वंशज समूह देश भर में पारंपरिक (तथाकथित) उच्च जाति (upper caste population) के लोगों में देखे जाते हैं। लेकिन कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों में विशिष्ट ASI वंश वाले लोग दिखते हैं। हालांकि, वास्तविक ASI, जिन्हें AASI भी कहा है, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह (Andaman and Nicobar tribes) के आदिवासी हैं जो लगभग 60,000 साल पहले पूर्वी एशियाई-प्रशांत क्षेत्रों से आकर यहां बसे थे, और सामाजिक या जेनेटिक रूप से भारतीय मुख्यभूमि के निवासियों के साथ घुले-मिले नहीं हैं।

सेल (Cell journal) में प्रकाशित एक हालिया शोधपत्र में बताया गया है कि भारतीय मूल के सभी लोगों की जड़ें एक ही बड़े प्रवास से जुड़ी हैं, जिसमें लगभग 50,000 साल पहले अफ्रीका से मनुष्य बाहर निकले (Out of Africa migration) और फैले थे।

ध्यान दें कि हारवर्ड-सीसीएमबी के शोधपत्र में ‘उच्च जाति’ शब्द का उल्लेख है। तो, ‘जाति व्यवस्था’ (caste system in India) कब आई? यह भेदभावपूर्ण व्यवस्था हिंदुओं में 2000 से अधिक वर्षों से है। इस चार-स्तरीय व्यवस्था में, आदिवासी सबसे निचले पायदान पर हैं। अंतर्जातीय विवाह (inter-caste marriage) बहुत कम होते हैं, और यदि होते भी हैं तो वे हिंसा का कारण बन सकते हैं।

जातीयता और हैप्लोटाइप (ethnicity and haplotype)

प्रो. पी. पी. मजूमदार के दल ने ‘हैप्लोग्रुप’ (haplogroup) नामक पद्धति का उपयोग करके जातीयता का अध्ययन किया था। हैप्लोग्रुप किसी सामाजिक समूह में साझा पितृवंश या मातृवंश के जेनेटिक संकेतक होते हैं। इस शोधपत्र में बताया गया है कि भारत भर की विभिन्न आबादियों के हैप्लोग्रुप विवरण भारत की जाति व्यवस्था की जानकारी देते हैं, जिसमें कुछ पूर्वज घटक जनजातियों में सबसे अधिक, निम्न जातियों में थोड़े कम और उच्च जातियों में सबसे कम पाए जाते हैं।

यह जाति व्यवस्था समय के साथ, विशेष रूप से शिक्षित वर्गों में, लोकतंत्र और देश के आधुनिकीकरण (modernization of India) के साथ धीरे-धीरे बदल रही है। जैसे-जैसे लोग स्कूल-कॉलेज जाने लगे, अधिक भाषाएं सीखने लगे और नौकरियों व अन्य अवसरों के लिए अपने मूल स्थानों से बाहर जाने लगे, अंतर्जातीय और अंतर्क्षेत्रीय विवाह बढ़े। 2011 की जनगणना के अनुसार, अंतर्जातीय विवाह लगभग 6 प्रतिशत और अंतर्धार्मिक विवाह (inter-religious marriage) लगभग एक प्रतिशत हुए थे। यह संभावना है कि आगामी 2027 की जनगणना तक ये संख्याएं, विशेष रूप से शहरी समूहों में, उल्लेखनीय रूप से बढ़ चुकी होंगी। (स्रोत फीचर्स)

लेखक इस लेख पर डॉ. थंगराज की सलाह और टिप्पणियों के लिए आभारी हैं।

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ऑनलाइन आलोचना से स्वास्थ्य एजेंसियों पर घटता विश्वास

डिजिटल दौर (digital age) में जन स्वास्थ्य एजेंसियों (public health agencies) के सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गई है। उन्हें अब सिर्फ बीमारियों के प्रसार (disease outbreaks) से ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर फैल रही भ्रामक जानकारियों (health misinformation) और व्यक्तिगत हमलों से भी निपटना पड़ रहा है। एक हालिया अध्ययन बताता है कि यूएस के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) जैसी स्वास्थ्य संस्थाओं के खिलाफ सोशल मीडिया पर की गई नकारात्मक टिप्पणियां लोगों के भरोसे (public trust) को तोड़ रही हैं, उनमें गुस्सा (public anger) बढ़ा रही हैं।

हाल ही में CDC ने टेक्सास और न्यू मेक्सिको में खसरे के प्रकोप (measles outbreak)  को लेकर एक चेतावनी ट्विट की थी, जिसमें यात्रियों को टीका लगवाने (vaccination) की सलाह दी गई थी। कुछ लोगों ने इसका समर्थन किया। लेकिन कई लोगों ने इस पर शक जताया, साज़िश के आरोप (conspiracy theories) लगाए और यहां तक कि आपराधिक व्यवहार का इल्ज़ाम तक लगाया। ऐसी तीखी प्रतिक्रियाएं अब आम हो रही हैं।

इसका असर समझने के लिए स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी (Stanford University) के शोधकर्ताओं ने 6800 अमरीकियों पर अध्ययन किया। प्रतिभागियों को एक काल्पनिक सोशल मीडिया पोस्ट दिखाई, जिसमें CDC जैसी संस्था ने एक दुविधामयी स्वास्थ्य सलाह दी थी – जैसे सबको स्लीप एप्निया की जांच (sleep apnea screening) करवाने की सलाह। इसके बाद उन्हें आलोचनात्मक टिप्पणियां (critical comments) दिखाईं, जो असली ऑनलाइन टिप्पणियों की तरह बनाई गई थीं।

इन आलोचनात्मक टिप्पणियों की प्रकृति अलग-अलग थी – कुछ में सलाह से सिर्फ असहमति जताई थी, तो कुछ में संस्था की क्षमता (competence) पर या ईमानदारी (integrity) पर सवाल उठाया था, जैसे राजनीतिक हित या छुपे हुए इरादे होना।

अध्ययन के नतीजे चौंकाने वाले थे। महज़ एक नकारात्मक टिप्पणी (negative comment) – भले ही हल्की-फुल्की ही क्यों न हो – भी लोगों का भरोसा कम कर देती है। लेकिन सबसे ज़्यादा नुकसान वे टिप्पणियां करती हैं जो संस्था की सच्चाई (credibility)  और नैतिकता (ethics)  पर हमला करती हैं। ऐसी टिप्पणियां न सिर्फ भरोसा घटाती हैं, बल्कि लोगों में गुस्सा पैदा करती हैं और उन्हें उसे साझा करने, भावनात्मक प्रतिक्रिया देने या जवाब देने के लिए उकसाती हैं।

दिलचस्प बात यह रही कि यह असर राजनीतिक सोच (political orientation) पर निर्भर नहीं था – चाहे व्यक्ति रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट, संस्था की ईमानदारी पर हमला देखकर दोनों ने समान प्रतिक्रिया दी। इससे पता चलता है कि भरोसे में कमी सिर्फ राजनीति का मसला नहीं, बल्कि इंसानों की सामान्य प्रवृत्ति है। यह अध्ययन दर्शाता है कि हर तरह की आलोचना का असर एक जैसा नहीं होता – किस तरह की आलोचना (type of criticism) की जाती है, इससे बहुत फर्क पड़ता है।

हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक (political analyst) जेम्स ड्रकमैन का कहना है कि गुस्से जैसी भावनाओं (anger perception) को सर्वेक्षण के ज़रिए मापना मुश्किल है – जो बात एक व्यक्ति को गुस्से जैसी लगे, वह दूसरे को चिंता जैसी लग सकती है। फिर भी, इस अध्ययन में जो पैटर्न सामने आया है, वह चिंता की बात (cause for concern) है।

स्वास्थ्य एजेंसी की तरफ से सफाई देने (official clarification) पर भी लोगों का भरोसा पहले जैसा नहीं लौटा। शोधकर्ता एवं मनोरोग विशेषज्ञ जोनाथन ली का मानना है कि इसका एक कारण यह हो सकता है कि लोग तुरंत सही बात सुनने के लिए तैयार नहीं होते – उन्हें पहले थोड़ा शांत होने (cool-down time) के लिए समय की ज़रूरत होती है।

इस अध्ययन से यह बात साफ होती है कि पारदर्शिता (transparency) यानी ईमानदारी बहुत ज़रूरी है। सलाह है कि स्वास्थ्य एजेंसियों को यह स्वीकार करने में हिचकना नहीं चाहिए कि उन्हें हर सवाल का जवाब नहीं पता। खासकर महामारी (pandemic) जैसी तेज़ी से बदलती परिस्थितियों में यह ईमानदारी भरोसा बढ़ा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विकास के लिए ज़रूरी है समावेशी संस्थाएं

अरविंद सरदाना

डैरन ऐसीमोगुलू (Daron Acemoglu), जेम्स रॉबिन्सन (James Robinson) एवं साइमन जॉनसन (Simon Johnson) को इस वर्ष के अर्थशास्त्र नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize in Economics) से नवाज़ा गया है। यह कई मायनों में महत्वपूर्ण है। उनका अध्ययन किसी भी देश में विकास (Economic Growth) के न होने पर केंद्रित है। 

डैरन ऐसीमोगुलू और जेम्स रॉबिन्सन अपनी चर्चित किताब व्हाय नेशन्स फेल: दी ओरिजिन ऑफ पॉवर, प्रॉस्पेरिटी एंड पॉवर्टी (Why Nations Fail: The Origins of Power, Prosperity, and Poverty) में पूछते हैं कि विभिन्न देशों में किस प्रकार की सामाजिक और आर्थिक संस्थाएं बनीं और उनमें क्या अंतर रहा, जिसने विकास की राह को प्रभावित किया? 

यह राजनीतिक अर्थशास्त्र (Political Economy) का पुराना सवाल है। जैसे लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व एडम स्मिथ (Adam Smith) की मशहूर किताब दी वेल्थ ऑफ नेशन्स (The Wealth of Nations) थी। इस वर्ष का पुरस्कार इस बात की स्वीकार्यता का द्योतक है कि अर्थशास्त्रीय अध्ययन (Economic Analysis) में विभिन्न दृष्टिकोणों से विश्लेषण किया जाता है। 

“विभाजन के लगभग आधी सदी बाद, 1990 के दशक के आखिर में, दक्षिण कोरिया (South Korea) का विकास और उत्तर कोरिया (North Korea) के ठहराव ने इस एक देश के दो हिस्सों के बीच दस गुना का अंतर पैदा कर दिया है। उत्तर कोरिया की आर्थिक आपदा (Economic Crisis), जिसके कारण लाखों लोग भुखमरी का शिकार हुए, की तुलना जब दक्षिण कोरिया की आर्थिक सफलता (Economic Success) के साथ की जाती है, तो यह चौंकाने वाली बात है: उत्तर और दक्षिण कोरिया के अलग-अलग विकास मार्ग की व्याख्या न तो संस्कृति (Culture), न भूगोल (Geography) और न ही अज्ञानता (Ignorance) कर सकती है। हमें जवाब के लिए संस्थाओं (Institutions) को देखना होगा (व्हाय नेशन्स फेल)।” 

उनका मुख्य फोकस इस बात पर है कि किसी देश में सामाजिक और आर्थिक संस्थाओं का स्वररूप समावेशी यानी इंक्लूसिव (Inclusive Institutions) रहा है या फिर शोषणकारी। उनका विश्लेषण बताता है कि समावेशी संस्थाएं आम लोगों को मौके देती हैं, बाज़ार व्यवस्था (Market Economy) को बढ़ने का अवसर प्रधान करती हैं और नई टेक्नोलॉजी (New Technology) को अपनाने का वातावरण बनाए रखती हैं। किसी भी व्यवस्था में जब विकास का लाभ अधिक लोगों में बंटता है और उसकी नींव संस्थानों में है, तो यह समावेशी स्वरूप लेता है। इसके विपरीत जब विकास एक सीमित वर्ग की ओर केन्द्रित होता है तो वहां शोषणकारी संस्थाएं बनती हैं और उन्हें पोषित करती रहती हैं। इस प्रकार एक अभिजात्य वर्ग का मज़बूत वर्चस्व लगातार बना रहता है। 

यह बात इतनी नई नहीं है, परंतु उनका शोध अलग-अलग देशों का तुलनात्मक विश्लेषण (Comparative Analysis) इस दृष्टिकोण को आंकड़ों के साथ अनूठे रूप से प्रस्तुत करता है।   इसे एक उदाहरण से समझते हैं। स्वतंत्रता के समय 1966 में बोत्सवाना (Botswana), दुनिया के सबसे गरीब देशों (Poorest Countries) में से एक था। यहां “कुल बारह किलोमीटर पक्की सड़कें थीं, बाईस व्यक्ति विश्वविद्यालय से स्नातक थे, और सौ माध्यमिक विद्यालय थे। यह दक्षिण अफ्रीका (South Africa), नामीबिया (Namibia) और रोडेशिया (Rhodesia) के श्वेत शासनों से घिरा हुआ था, जो सभी अश्वेतों द्वारा संचालित स्वतंत्र अफ्रीकी देशों (Independent African Nations) के प्रति नफरत पालते थे। फिर भी अगले चालीस वर्षों में, बोत्सवाना दुनिया के सबसे तेज़ी से बढ़ते देशों (Fastest Growing Economies) में शुमार हो गया। आज सब-सहारा अफ्रीका (Sub-Saharan Africa) में बोत्सवाना की प्रति व्यक्ति आय (Per Capita Income) सबसे अधिक है, और यह एस्टोनिया (Estonia) और हंगरी (Hungary) जैसे सफल पूर्वी युरोपीय देशों के बराबर के स्तर पर है। 

बोत्सवाना ने तेज़ी से समावेशी आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं (Inclusive Economic and Political Institutions) का विकास किया। वह लोकतांत्रिक (Democratic Governance) बना रहा है और वहां नियमित रूप से चुनाव होते रहे हैं। उसने कभी भी गृह युद्ध (Civil War) या सैन्य हस्तक्षेप (Military Intervention) का सामना नहीं किया है। सरकार ने संपत्ति के अधिकार (Property Rights) को लागू करने, व्यापक आर्थिक स्थिरता (Economic Stability) सुनिश्चित करने और समावेशी बाज़ार अर्थव्यवस्था (Inclusive Market Economy) के विकास को प्रोत्साहित किया। सब-सहारा अफ्रीका के अधिकांश देशों, जैसे सिएरा लियोन और जिम्बाब्वे, में स्वतंत्रता के बाद बदलाव का जो अवसर मिला था, उसे उन्होंने खो दिया। आज़ादी के बाद, औपनिवेशिक काल के दौरान मौजूद शोषणकारी संस्थाओं का फिर से निर्माण हुआ। इनकी तुलना में स्वतंत्रता के शुरुआती चरण में बोत्सवाना अलग था और कबीला मुखियाओं का लोगों के प्रति कुछ हद तक जवाबदेही वाली संस्थाओं का इतिहास बना रहा। “इस तरह की संस्थाओं के लिए बोत्सवाना निश्चित रूप से अफ्रीका में अद्वितीय नहीं था लेकिन इस हद तक तो अद्वितीय था कि ये संस्थाएं औपनिवेशिक काल में बिना ज़्यादा नुकसान के बची रहीं।”

उदाहरण के लिए, आज़ादी के बाद बोत्सवाना में बने मांस आयोग ने पशु अर्थव्यवस्था को विकसित करने में केंद्रीय भूमिका निभाई, फुट एण्ड माउथ रोग को नियंत्रित करने के लिए काम किया और निर्यात को बढ़ावा दिया। इससे आर्थिक विकास में योगदान मिला और समावेशी आर्थिक संस्थाओं के लिए समर्थन बढ़ा। बोत्सवाना में शुरुआती विकास मांस निर्यात पर निर्भर था, लेकिन हीरे की खोज के बाद चीज़ें नाटकीय रूप से बदल गईं। बोत्सवाना में प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन भी अन्य अफ्रीकी देशों से काफी अलग था। औपनिवेशिक काल के दौरान, बोत्सवाना प्रमुखों ने खनिजों की खोज को रोकने का प्रयास किया था क्योंकि वे जानते थे कि अगर युरोपीय लोगों ने कीमती धातुओं या पत्थरों की खोज की, तो उनकी स्वायत्तता खत्म हो जाएगी। आज़ादी के बाद सबसे बड़ी हीरे की खोज नग्वाटो भूमि के नीचे हुई थी, जो एक कबीले की पारंपरिक मातृभूमि थी। देश के नेताओं ने खोज की घोषणा से पहले, कानून में बदलाव किया ताकि खनिज सम्पदा का अधिकार राष्ट्र में निहित हो, न कि जनजाति में। इसने राज्य में केंद्रीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया। हीरे के राजस्व का इस्तेमाल अब नौकरशाही, बुनियादी ढांचे के निर्माण और शिक्षा में निवेश के लिए किया गया। यह अन्य अफ्रीकी देशों से अलग है।

इस प्रकार कई तुलनात्मक अध्ययनों (Comparative Studies) से यह स्पष्ट होता है कि विकास के लिए समावेशी संस्थाओं का बनना ज़रूरी है। इनके बनने के पीछे राजनीतिक समीकरण (Political Equations) और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Context) का विश्लेषण करना होगा। बदलाव के खास मौके कुछ देशों में कैसे बने? इस अध्ययन से कुछ सीख ली जा सकती है पर इतिहास भविष्य के लिए कोई नुस्खे नहीं प्रदान करता। पुस्तक में बताया गया है कि आजकल एक्सपर्ट यह भ्रम पालते हैं कि विकास को ढांचाबद्ध किया जा सकता है, बस जानकारी की कमी है। पर वास्तव में वे संस्थाओं की जटिलता को नज़रअंदाज कर रहे होते हैं जो उनकी योजनाओं को विफल कर देती हैं। उसी प्रकार, यह भी बताया गया है कि विदेशी मदद की भूमिका नहीं है। इसी प्रकार से, आजकल कई मुल्कों में तानाशाही व्यवस्था विकास के लिए लुभावनी दिखती है और कुछ समय के लिए इसका असर होता भी है, परन्तु यह एक समय बाद बिखरने लगता है क्योंकि केंद्रीकृत सत्ता समय के साथ आने वाले आवश्यक बदलाव नहीं होने देती।

बहरहाल, चाहे हम सहमत हों या नहीं, इनकी पुस्तक पढ़ने योग्य है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हड्डियों के विश्लेषण से धूम्रपान आदतों की खोज

हालिया अध्ययन में सदियों पुरानी हड्डियों (bones) का सूक्ष्म विश्लेषण कर धूम्रपान (smoking) करने वालों की पहचान की गई है। ये नतीजे इंग्लैंड (England) में 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान तम्बाकू सेवन की आश्चर्यजनक जानकारी देते हैं कि न केवल पुरुष, बल्कि महिलाएं और समाज के सभी वर्गों के लोग तम्बाकू (tobacco) सेवन किया करते थे। 

ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में यह उल्लेख तो मिलता था कि 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड में धूम्रपान एक आम आदत थी – हर वर्ग के पुरुष तम्बाकूपान (tobacco consumption) करते थे। यहां तक कि मांग को पूरा करने के लिए अमेरिका (America) से भारी मात्रा में तम्बाकू आयात होती थी। लेकिन धूम्रपान के पुरातात्विक साक्ष्य दुर्लभ हैं। क्योंकि पहचान के पारंपरिक तरीके दांतों के घिसाव (teeth wear) और मिट्टी के पाइप जैसे सुरागों पर निर्भर थे, लेकिन खुदाई में सलामत बत्तीसी वाले कंकाल और पाइप बहुत ही कम मिले हैं। और कंकाल से फेफड़ों की क्षति का भी पता नहीं चलता। फिर, यह भी ज़रूरी नहीं कि हर व्यक्ति धूम्रपान करके ही तम्बाकू सेवन करता हो, नसवार या खैनी भी तम्बाकू सेवन का माध्यम हो सकते हैं।  

इसलिए साइंस एडवांसेस (Science Advances) में प्रकाशित इस अध्ययन में मानव हड्डियों में तम्बाकू के रासायनिक हस्ताक्षर (chemical signatures) पता लगाने के लिए मेटाबोलोमिक्स (metabolomics) का उपयोग किया गया। मेटाबोलोमिक्स का मतलब होता है कि शरीर में भोजन, दवाइयों व अन्य पदार्थों के पाचन से उत्पन्न पदार्थों का विश्लेषण। शोधकर्ताओं ने तरल क्रोमेटोग्राफी (liquid chromatography) की मदद से हड्डियों से चयापचय पदार्थ अलग किए। ये रासायनिक उप-उत्पाद (chemical byproducts) हैं और तम्बाकू जैसे पदार्थों को पचाने के बाद शरीर में बने रहते हैं। फिर उन्होंने इंग्लैंड में तम्बाकू के आने से पहले की हड्डियों और बाद की हड्डियों की तुलना करके रासायनिक अंतरों से उन लोगों की पहचान की जिन्होंने तम्बाकू सेवन किया था। विश्लेषण किए गए 323 से अधिक कंकालों में से आधे से अधिक नमूनों में लंबे समय तक तम्बाकू सेवन के प्रमाण मिले हैं। ये आंकड़े वर्तमान ब्रिटेन (Britain)  में धूम्रपान दर से चार गुना अधिक हैं।

हालांकि ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि विक्टोरिया युग (1830 से 1900) में धूम्रपान मुख्यत: पुरुष करते थे, इसमें बहुत कम महिलाओं का उल्लेख मिलता है। लेकिन यह अध्ययन स्पष्ट करता है कि विक्टोरियन महिलाएं (Victorian women), यहां तक कि अमीर घरानों की महिलाएं, भी अक्सर धूम्रपान करती थीं। गरीब महिलाएं धूम्रपान के लिए सस्ते मिट्टी के पाइप का इस्तेमाल करती थीं जिससे उनके दांतों में गड्ढे बन जाते थे, वहीं अमीर महिलाएं एम्बर, लकड़ी या हड्डी से बने पाइप का इस्तेमाल करती थीं। ऐसे पाइप दांतों पर कोई स्पष्ट निशान नहीं छोड़ते। इससे यह समझा जा सकता है कि पिछले अध्ययनों में महिलाओं की धूम्रपान आदतें क्यों अनदेखी रहीं। शोध से स्पष्ट है कि तम्बाकू सेवन सभी सामाजिक वर्गों में आम था।

चूंकि ये चयापचय जनित पदार्थ लाखों वर्षों तक हड्डियों में बने रह सकते हैं, यह तकनीक प्राचीन मनुष्यों के व्यवहार (behavior) जैसे उनके आहार, मादक सेवन या तपेदिक जैसी बीमारियों को उजागर करने में मदद कर सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अभिव्यक्ति में कविताएं गद्य से बेहतर हैं

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

युनिसेफ ने 21 मार्च के दिन को विश्व कविता दिवस (World Poetry Day) के रूप में घोषित किया है। विश्व कविता दिवस मनाने का उद्देश्य काव्यात्मक अभिव्यक्ति (poetic expression) के माध्यम से भाषाई विविधता को बढ़ावा देना है। हर साल इस दिन के लिए कोई एक थीम (theme) चुनी जाती है। वर्ष 2022 में इस दिन की थीम ‘पर्यावरण’ रखी गई थी। 2023 की थीम थी, ‘सदैव कवि, गद्य में भी (Always a poet, even in prose)’ और इस साल की थीम है ‘दिग्गजों के अनुभव पर बढ़ना (Standing on the shoulders of giants)’।

कविता का उपयोग भावनाएं जगाने के लिए, बिंब रचने के लिए, और विचारों को सुगठित और कल्पनाशील तरीके से व्यक्त करने के लिए किया जाता है। इसमें लय होती है, छंद या मीटर (meter) होता है, भावनात्मक अनुनाद होता है। पाठक या गायक कवि की भावना को महसूस करते हैं और यह उनके दिल-ओ-दिमाग में प्रभावी ढंग से उतर जाती हैं। इसमें किफायत, अलंकरण (embellishment) और लय की समझ होती है। ये अक्सर गाई जा सकती हैं। जैसे, हमारा राष्ट्रगान ‘जन गण मन’; यह रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई एक कविता है, जिसे हम सभी जोश-ओ-खरोश से गाते हैं। वहीं, हममें से कई अपनी भाषा में दुख-दर्द भरे नगमे भी गुनगुनाते हैं, गाते हैं, सुनते हैं।

वर्ष 2022 का विश्व कविता दिवस लुप्तप्राय भाषाओं (endangered languages), इन भाषाओं में कविताओं, गद्य और गीतों पर केंद्रित था। दुनिया भर में, 7000 से अधिक भाषाएं लुप्तप्राय हैं। यूनेस्को के अनुसार भारत में, 42 भाषाएं लुप्तप्राय (10-10 हज़ार से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली) हैं। 2013 से, भारत ने अपनी लुप्तप्राय भाषाओं के बचाव और संरक्षण (preservation) के लिए एक योजना शुरू की है। वेबसाइट ‘Endangered languages in India (भारत में लुप्तप्राय भाषाएं)’ पर इन लुप्तप्राय भाषाओं की सूची दी गई है। इस सूची में ‘ग्रेट अंडमानी’, लद्दाख में बोली जाने वाली ‘तिब्बती बलती’ और झारखंड की ‘असुर’ भाषाएं शामिल हैं। मैसूर स्थित स्कीम फॉर प्रोटेक्शन एंड प्रिवेंशन ऑफ एन्डेंजर्ड लैंग्वैज (SPPEL) इस क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्यरत है।

2023 में विश्व कविता दिवस की थीम थी: ‘Always a poet, even in prose’। शेक्सपियर इसका एक बेहतरीन उदाहरण हैं। उनके गद्य (prose) में भी काव्यात्मक लय थी। यहां कुछ उदाहरण दिए गए हैं: ‘Brevity is the soul of wit’; और ‘my words fly up, but my thoughts remain below’। हिंदी, उर्दू और तमिल में कई विद्वानों ने इसी तरह की कविताएं/बातें लिखी हैं।

जब हम गद्य में अपने मन की बात कह सकते हैं तो कविता क्यों लिखना? जहां गद्य में प्रयुक्त भाषा स्वाभाविक और व्याकरण-सम्मत होती है, वहीं काव्यात्मक भाषा आलंकारिक (figurative) और प्रतीकात्मक होती है। ऑक्सफोर्ड स्कोलेस्टिका एकेडमी बताती है कि कविता साहित्यिक अभिव्यक्ति का एक ऐसा रूप है जिसमें भाषा का उपयोग होता है। और एनसायक्लोपीडिया ब्रिटानिका (Encyclopedia Britannica) कहता है, कविता में आप भाषा (के शब्दों) को अर्थ, ध्वनि और लय के मुताबिक काफी सोच-समझकर चुनते और जमाते हैं। कविता पढ़ते या सुनते समय, आपके मस्तिष्क का ‘आनंद केंद्र’ (pleasure center) सक्रियता से बिंबों का अर्थ खोजने और रूपकों की व्याख्या करने में तल्लीन हो जाता है।

वैज्ञानिक और कविता

‘Scientists take on poetry (साइंटिस्ट टेक ऑन पोएट्री)’ नामक साइट बताती है कि गणितज्ञ एडा लवलेस, रसायनज्ञ हम्फ्री डेवी और भौतिक विज्ञानी जेम्स मैक्सवेल ने अपने काम के बारे में कविताएं लिखी हैं। भारत में, वैज्ञानिक एस. एस. भटनागर ने हिंदी में कविताएं लिखीं। वैसे सी. वी. रमन कवि तो नहीं थे, लेकिन वायलिन की संगीतमय ध्वनियों (musical tones) का वैज्ञानिक आधार जानने में उनकी रुचि थी और उन्होंने ‘Experiment with mechanically played violin (यांत्रिक तरीके से बजाए जाने वाले वायलिन के साथ प्रयोग)’ शीर्षक से एक शोधपत्र लिखा था, जो 1920 में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी इंडियन एसोसिएशन फॉर दी कल्टीवेशन ऑफ साइंस में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने भारतीय आघात वाद्य यंत्रों (percussion instruments) की विशिष्टता का भी अध्ययन किया। तबला और मृदंग की ध्वनियों की हारमोनिक प्रकृति का उनका विश्लेषण भारतीय ताल वाद्यों पर पहला वैज्ञानिक अध्ययन था।

इसी तरह, भौतिक विज्ञानी एस. एन. बोस तंतु वाद्य एसराज बजाया करते थे। बर्डमैन ऑफ इंडिया के नाम से मशहूर प्रकृतिविद सालिम अली ने भारत के पक्षियों पर कई किताबें लिखीं। और इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर श्रीराम रंगराजन (जिनका तखल्लुस ‘सुजाता’ है) ने तमिल में बेहतरीन किताबें और लेख लिखे, जिन्हें उनके भाषा कौशल (language proficiency) के कारण हर जगह सराहा जाता है। क्या ऐसे और वैज्ञानिक नहीं होने चाहिए जो संगीत पर कविताएं और निबंध लिखें? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिंदी विज्ञान पत्रिकाएं: एक समीक्षा – मनीष श्रीवास्तव

विगत दो सदी में भारत में विज्ञान लेखन वृहद स्तर पर हुआ है और कई विशिष्ट शैलियों का विकास हुआ है। इन्हें पुस्तकों तथा पत्रिकाओं के ज़रिए पाठकों तक पहुंचाया जा चुका है। यहां मूलत: विज्ञान पत्रिकाओं की चर्चा की गई है।

पत्रिकाओं की विषयवस्तु

शुरुआत में भारतीय विज्ञान पत्रिकाओं में 19वीं सदी का समय मूल रूप से साहित्य, सूचना और शिक्षा पर केंद्रित रहा। विज्ञान को भी प्राथमिक स्तर पर साहित्यिक मनीषियों, पत्रिकाओं ने जगह दी। भारतीय संदर्भ में विज्ञान जागृति की अलख जगाने की शुरुआत सर्वप्रथम साहित्यिक पत्रिकाओं से हुई। साहित्यिक पत्रिकाओं ने जनमानस में विज्ञान जागरण के प्रति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विज्ञान जागरण की पहली आधार स्तंभ बांग्ला भाषा बनी। अप्रैल 1818 में श्रीरामपुर (ज़िला हुगली, पश्चिम बंगाल) के बेपटिस्ट मिशनरियों ने बांग्ला और अंग्रेज़ी में मासिक दिग्दर्शन पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। इसके संपादक थे क्लार्क मार्शमैन (1793-1877)। दिग्दर्शन का हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित किया गया था। पत्रिका के हिंदी में अंक में दो वैज्ञानिक लेख प्रकाशित किए गए थे – ‘अमेरिका की खोज’ और ‘बैलून द्वारा आकाश यात्रा’। यह भारत में विज्ञान प्रकाशन का पहला कदम था।

जनवरी 1878 से बनारस से प्रकाशित द्विभाषी पत्रिका काशी को हिंदी में विज्ञान लोकप्रियकरण का पहला उदाहरण माना जा सकता है। बालेश्वर प्रसाद के संपादन और रामानंद के प्रबंधन में चन्द्रप्रभा प्रेस द्वारा हिंदी और उर्दू में यह पत्रिका हर शुक्रवार को प्रकाशित होती थी। इसके मुखपृष्ठ पर छपा होता था – ‘ए वीकली एजुकेशनल जर्नल ऑफ साइंस, लिटरेचर एण्ड न्यूज़ इन हिन्दुस्तानी’।

विज्ञान पत्रिकाओं का आरंभ

विज्ञान पत्रिकाओं में सर्वप्रथम विज्ञान के किसी एक विषय को ही आधार बनाते हुए प्रकाशन आरंभ हुआ। चिकित्सा पहला मुख्य विषय रहा जिस पर किसी विज्ञान पत्रिका का प्रकाशन हुआ। डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित के अनुसार चिकित्सा विषय की पहली पत्रिका 1842 में चिकित्सा सोपान नाम से श्रीराम शास्त्री के संपादन में प्रकाशित हुई। इसके बाद सन 1881 में प्रयाग से आरोग्य दर्पण नाम से चिकित्सा सम्बंधी विषयों को लेकर एक और पत्रिका प्रकाशित हुई।

चिकित्सा के बाद कृषि मुख्य विषय रहा जिस पर पत्रिका प्रकाशन हुआ। डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित के अनुसार कृषि की पहली पत्रिका 1911 में किसान मित्र नाम से पटना से रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा हिंदी भाषा में प्रकाशित की गई।

अलबत्ता विज्ञान के और भी विविध विषय थे जो अभी तक अछूते रहे थे। 20वीं सदी के दूसरे दशक में विज्ञान के सभी विषयों को समावेशित कर उन पर लेख, समाचार और जानकारी प्रकाशित करने का कार्य हुआ। विशुद्ध रूप से विज्ञान पत्रिका होने का श्रेय विज्ञान नामक पत्रिका को जाता है। 1913 में प्रयागराज में विज्ञान परिषद की स्थापना की गई थी जिसने 1915 से विज्ञान पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया था।

विज्ञान पत्रिका के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम प्राणिशास्त्र नामक पत्रिका का आता है। इसका प्रकाशन प्रसिद्ध विद्वान देवी शंकर मिश्र द्वारा किया गया। 1948 में देवी शंकर द्वारा भारतीय प्राणिशास्त्र परिषद की स्थापना की गई थी और इसी परिषद के अंतर्गत 1948 में प्राणिशास्त्र का प्रकाशन आरंभ किया गया।

भारत सरकार द्वारा भी आज़ादी के बाद विज्ञान प्रसार को बढ़ावा देने का कार्य आरंभ किया गया। इसके लिए सन 1952 से भारत सरकार की वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद द्वारा विज्ञान प्रगति पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया गया। पत्रिका अपने उत्कृष्ट प्रकाशन तथा सामग्री के लिए सन 2022 में राष्ट्रीय राजभाषा कीर्ति सम्मान से भी सम्मानित हो चुकी है।

विज्ञान संसार की एक और महत्वपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन 1961 में इंडियन प्रेस, प्रयाग द्वारा विज्ञान जगत नाम से हुआ। इस सचित्र मासिक पत्रिका के संपादक आर. डी. विद्यार्थी थे।

सन 1969 से भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई द्वारा वैज्ञानिक विषयों पर वैज्ञानिक नामक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन किया जा रहा है। पत्रिका के शुरुआती अंकों का संपादन ब्रजमोहन पांडे, डॉ. प्रताप कुमार माथुर, उमेश चंद्र मिश्र तथा माधव सक्सेना द्वारा किया गया था।

भारत सरकार के उपक्रम द्वारा एक और राष्ट्रीय पत्रिका आविष्कार का प्रकाशन सन 1971 से नेशनल रिसर्च डेवलेपमेंट कॉर्पोरेशन, नई दिल्ली द्वारा किया जा रहा है।

हिंदी विज्ञान पत्रिकाओं के प्रकाशन इतिहास के क्रम में सन 2018 तक कई अन्य पत्रिकाएं भी प्रकाशित की गईं। इनकी सूची लेख के अंत में दी गई है।

सामाजिक प्रभाव

साक्षरता के स्तर को बढ़ाने तथा जन-जागृति पैदा करने में पत्र-पत्रिकाओं की विशेष भूमिका रही है। इस दृष्टिकोण से हिंदी की विज्ञान पत्रिकाओं ने अपने सौ वर्षों से भी लंबे सफर में महत्वपूर्ण कार्य किया है। पत्रिकाओं ने जनमानस और विद्यार्थियों में तार्किक वैज्ञानिक सोच विकसित करने का कार्य किया। नवागत विज्ञान लेखकों का सृजन हुआ। हिंदी विज्ञान लेखन हिंदी साहित्य की नई विधा के रूप में स्थापित हुआ। महिलाओं को भी विज्ञान लेखन के प्रति आकृष्ट करने का कार्य विज्ञान पत्रिकाओं ने किया। विज्ञान विषयों पर प्रकाशित महत्वपूर्ण विशेषांकों ने विषय विशेष पर सामाजिक जागरूकता उत्पन्न की। (स्रोत फीचर्स)

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भारत में प्रकाशित हिन्दी भाषीय विज्ञान पत्रिकाओं की सूची
क्र.पत्रिका प्रकाशन प्रकाषन वर्ष
1 विज्ञान मासिक 1915
2 धनवन्तरी मासिक 1924
3 बालक मासिक 1926
4 मैसूर मासिक 1942
5 कृषक जगत मासिक 1945
6 सचित्रा आयुर्वेद मासिक 1948
7 होम्योपैथी संदेश मासिक 1948
8 किसानी समाचार मासिक 1948
9 प्राकृतिक जीवन मासिक 1948
10 बाल भारती मासिक 1948
11 खेती मासिक 1949
12 प्राणिशास्त्रमासिक 1950
13 स्वास्थ्य और जीवन मासिक 1950
14 कृषि और पशुपालन मासिक 1952
15 उन्नत कृषि मासिक 1952
16 गौ संवर्धन मासिक 1952
17 विज्ञान प्रगति मासिक 1958
18 विज्ञान परिषद् अनुसंधान पत्रिका त्रैमासिक 1960
19 आयुर्वेद महासम्मेलन पत्रिका मासिक 1960
20 साइंस टुडे मासिक 1960
21 लोक विज्ञान मासिक 1960
22 विज्ञान जगत मासिक 1961
23 विज्ञान लोक मासिक 1961
24 नंदन मासिक 1964
25 वैज्ञानिक बालक मासिक 1964
26 वैज्ञानिक त्रैमासिक 1968
27 कृषि चयनिका त्रैमासिक 1969
28 आविष्कार मासिक 1971
29 भारतीय चिकित्सा संपदा मासिक 1975
30 विज्ञान डाइजेस्ट मासिक 1975
31 विज्ञान भारती द्वैमासिक 1978
32 निरोगधाम मासिक 1979
33 फल-फूल द्वैमासिक 1979
34 विज्ञान परिचय मासिक 1979
35 ज्ञान-विज्ञान मासिक 1979
36 होशंगाबाद विज्ञान मासिक 1980
37 आयुर्वेदिक विज्ञान औषधि अनुसंधान मासिक 1980
38 ग्राम शिल्प त्रैमासिक 1981
39 विज्ञानपुरी त्रैमासिक 1981
40 विज्ञानदूत मासिक 1982
41 पर्यावरण अर्धवार्षिक 1983
42 विज्ञान प्रवाह मासिक 1983
43 चकमक मासिक 1985
44 ब्रिटिश वैज्ञानिक एवं आर्थिक समीक्षा त्रैमासिक 1985
45 विज्ञान गरिमा सिंधु त्रैमासिक 1986
46 आई.सी.एम.आर. मासिक 1986
47 साइफन मासिक 1986
48 विज्ञान विथिका मासिक 1986
49 विज्ञान बन्धु साप्ताहिक 1987
50 जिज्ञासा अर्धवार्षिक 1987
51 पर्यावरण डाइजेस्ट मासिक 1987
52 स्पेस इंडिया त्रैमासिक 1987
53 इलेक्ट्रानिकी आपके लिए मासिक 1988
54 विज्ञान गंगा त्रैमासिक 1988
55 स्रोत मासिक 1989
56 पर्यावरण मासिक 1990
57 भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान अर्धवार्षिक 1993
58 बालवाटिका मासिक 1995
59 प्रसार दूत अर्धवार्षिक 1996
60 ड्रीम 2047 मासिक 1998
61 पर्यावरण ऊर्जा टाइम्स मासिक 1998
62 विज्ञान आपके लिए मासिक 1998
63 विज्ञान आलोक त्रैमासिक 1998
64 नवसंचेतना (राजभाषा पत्रिका) अर्धवार्षिक 1998
65 ज्ञान गारिमा सिंधु त्रैमासिक 2000
66 तरंग वार्षिक2000
67 विज्ञान कथा त्रैमासिक 2001
68 ऊर्जायन वार्षिक2001
69 विपनेट मासिक 2002
70 विज्ञान प्रकाश त्रैमासिक 2002
71 स्पैन मासिक 2003
72 बच्चों का इंद्रधनुष मासिक 2004
73 ज्ञान विज्ञान बुलेटिन मासिक 2004
74 बच्चों का इंद्रधनुष मासिक 2004
75 बाल प्रहरी मासिक 2004
76 साइंस टाइम्स न्यूज एवं व्यूज मासिक 2005
77 मुक्त शिक्षा अर्धवार्षिक 2005
78 साइंस इंडिया मासिक 2005
79 गर्भनाल वार्षिक2006
80 कृषि प्रसंस्करण दर्पण अर्धवार्षिक 2006
81 अक्षय ऊर्जा द्वैमासिक 2006
82 पैदावार मासिक कृषि मासिक 2007
83 विज्ञान गंगा वार्षिक2007
84 साइंटिफिक वर्ल्ड मासिक 2007
85 हरबोला मासिक 2007
86 विज्ञान परिचर्चा त्रैमासिक 2009
87 दुधवा लाइव मासिक 2010
88 सर्प संसार मासिक 2010
89 हरियाणा साइंस बुलेटिन मासिक 2010
90 हमारा भूमंडल मासिक 2010
91 जल चेतना त्रैमासिक 2011
92 भूगोल और आप द्वैमासिक 2011
93 भारतीय मसाला फसल अनुसंधान संस्थानवार्षिक2012
94 कृषि का शोध वार्षिक2012
95 जिज्ञासा वार्षिक2012
96 अनुसंधान शोध वार्षिक2013
97 किसान खेती त्रैमासिक 2014
98 विपनेट क्यूरीसिटी मासिक 2016
99 डाउन टू अर्थ मासिक 2016
100 टेक्निकल टुडे त्रैमासिक 2016
101 बालवाणी द्वैमासिक 2016
102 आई वंडर अर्धवार्षिक 2017
103 प्रौद्योगिकी विशेष द्वैमासिक 2018
104 कृषि मंजूषा अर्धवार्षिक 2018

भारत में महिलाओं का प्रदर्शन कैसा रहा है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

त 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) अपने ‘लैंगिक सामाजिक मानदंड सूचकांक’ में महिलाओं के प्रति व्याप्त पूर्वाग्रहों को नापता है और चार आयामों – राजनैतिक, शैक्षिक, आर्थिक और शारीरिक स्वायत्तता – में महिलाओं की भूमिका के बारे में लोगों का नज़रिया पता करता है। आखिरी दो आयाम पुरुष महिलाओं के लिए छोड़ते हैं। विश्व की आठ अरब आबादी में से 45 प्रतिशत महिलाएं हैं। पुरुषों का कहना है कि महिलाओं का काम घरों की देखभाल करना, खाना बनाना, बच्चों की देखभाल करना है जबकि घर चलाने के लिए पैसे कमाना पुरुषों का काम है। दुनिया के कई ‘विकासशील देशों’ में महिलाएं स्कूल नहीं जाती हैं, लेकिन खेतों में और बाइयों के तौर पर काम करती हैं। इस तरह शैक्षिक आयाम उनके हाथ से फिसल जाता है।

हालांकि, पश्चिमी मीडिया द्वारा करार दिया गया ‘विकासशील देश’ भारत अपनी समावेशी नीतियों के चलते इससे आगे बढ़ा है। पिछले दो दशकों से भारत अपने सभी 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सभी बच्चों – गरीब या अमीर, शहरी या ग्रामीण – को हाई स्कूल तक मुफ्त शिक्षा की पेशकश कर रहा है। और इनमें से लगभग 12 करोड़ लड़कियां हैं। उच्च शिक्षा की बात करें तो स्नातक/स्नातकोत्तर और पी.एचडी. स्तर पर अधिकांश लड़कियां कला और विज्ञान या नर्सिंग और चिकित्सा चुनती हैं, जबकि लड़के इस स्तर पर कंप्यूटर साइंस, जैव प्रौद्योगिकी और डिजिटल प्रौद्योगिकी चुनते हैं। लेकिन देश भर के अधिकांश STEM (साइंस, टेक्नॉलॉजी, इंजीनियरिंग और मेथेमेटिक्स) संस्थानों में केवल 20 प्रतिशत महिलाएं हैं। इसके अलावा, IIT, CSIR प्रयोगशालाओं, AIIMs, IISER और IIM में केवल 20 प्रतिशत शिक्षक/प्रोफेसर महिलाएं हैं। ज़ाहिर है, हमें इस लैंगिक खाई को पाटने की ज़रूरत है।

खुशी की बात यह है कि आज पूरे भारत में ऐसी सैकड़ों महिलाएं हैं जो उद्यमी बन गई हैं। हालांकि इनमें से कई महिलाएं मनोरंजन जगत, विज्ञापनों, फिल्म उद्योग और सौंदर्य प्रसाधन जैसे व्यवसायों में रत हैं, लेकिन साइंस एंड टेक्नॉलॉजी की डिग्रीधारी कुछ महिलाओं ने अपनी जैव-प्रौद्योगिकी और दवा कंपनियां स्थापित की हैं जो उपयोगी और मुनाफादायक उत्पाद बनाती हैं। इसके अलावा, एम.डी. (डॉक्टर ऑफ मेडिसिन) की डिग्रीधारी कई महिलाएं नेत्र विज्ञान, न्यूरोलॉजी, स्त्री स्वास्थ्य से सम्बंधित मुद्दों और अन्य चिकित्सा विषयों में विशेषज्ञ हैं।

इस तरह संपूर्ण भारत में सरकार के, निजी क्षेत्रों के और लोक-हितैषी महिला उद्यमियों के प्रयासों के चलते भारत शीघ्र ही ‘विकासशील देश’ से आगे जाकर  विकसित देश बन रहा है!

यह बात सरकारी और राजनीतिक स्तर पर भी दिखती है। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के लगभग आधे लोगों का मानना है कि महिलाओं की तुलना में पुरुष बेहतर राजनीतिक नेता और व्यवसायी बनते हैं। यह लैंगिक पूर्वाग्रह निम्न और उच्च मानव विकास सूचकांक (एचडीआई), दोनों तरह के देशों में काफी हावी है। ये पूर्वाग्रह क्षेत्रों, आय, विकास के स्तर और संस्कृतियों से स्वतंत्र नज़र आते हैं, और इस मायने में ये वैश्विक मुद्दा हैं।

इस संदर्भ में, भारत ने उल्लेखनीय रूप से बेहतर प्रदर्शन किया है। इसकी एक मिसाल ही काफी होगी। अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन ने 1789 में राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी। तब से अब तक अमेरिका में 46 राष्ट्रपति हो चुके हैं। लेकिन उनमें से कोई भी महिला नहीं थी! इस मामले में भारत ने बाज़ी मार ली है। भारत के अब तक 15 राष्ट्रपतियों में से दो राष्ट्रपति महिलाएं रही हैं: प्रतिभा पाटिल (2007-2012) और द्रौपदी मुर्मू (वर्तमान राष्ट्रपति)। और तो और, हमारे पड़ोसी देशों में भी कई पदों पर महिलाओं ने नेतृत्व किया है। बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रहीं, शेख हसीना बांग्लादेश की वर्तमान प्रधानमंत्री हैं, बिद्या देवी भंडारी नेपाल की दूसरी राष्ट्रपति रहीं, और डोलमा ग्यारी 1991-2011 के बीच तिब्बत की प्रधानमंत्री रही हैं। यहां तक कि लैटिन अमेरिका के कई ‘विकासशील देशों’ में महिला राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री रही हैं। (वैसे इसमें भारत की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और विश्व की प्रथम महिला प्रधान मंत्री श्रीलंका की श्रीमाओ भंडारनायके और राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा के नाम भी जोड़े जा सकते हैं।)

तो आइए, हम महिला दिवस और महिला वर्ष को महिलाओं के लिए मंगलमय बनाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/elections/lok-sabha/na3bkt/article67958594.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/Science.JPG

लोग सच के लिए वैज्ञानिकों पर भरोसा करते हैं

क हालिया अध्ययन के अनुसार दुनिया भर के लोगों ने वैज्ञानिकों पर भरोसा व्यक्त किया है, लेकिन वे अनुसंधान में सरकारों के हस्तक्षेप को लेकर चिंतित भी हैं। यह निष्कर्ष वैश्विक संचार संस्थान एडेलमैन द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट ट्रस्ट बैरोमीटर का है जिसके लिए मेक्सिको से लेकर जापान तक 28 देशों के 32,000 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया गया था।

सर्वेक्षण के 74 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने नवाचारों और नई प्रौद्योगिकियों सम्बंधित सही जानकारी प्रदान करने के लिए वैज्ञानिकों पर विश्वास जताया है। इतने ही प्रतिशत लोगों ने चाहा है कि वैज्ञानिक इन नवाचारों को पेश करने में स्वयं आगे आएं। इसके विपरीत, सही जानकारी देने के संदर्भ में लोगों ने पत्रकारों और सरकारी नेताओं पर क्रमश: 47 प्रतिशत और 45 प्रतिशत ही भरोसा जताया है।

हालांकि, अध्ययन में 53 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने देश में विज्ञान के राजनीतिकरण की बात कही है, जो राजनेताओं के हस्तक्षेप की ओर इशारा करता है। विश्व स्तर पर 59 प्रतिशत का मानना है कि सरकारें और अनुसंधान वित्तपोषक एजेंसियां वैज्ञानिक प्रयासों पर अत्यधिक प्रभाव डालते हैं। ये आंकड़े भारत में 70 प्रतिशत और चीन में 75 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। इसके अतिरिक्त, लगभग 60 प्रतिशत लोगों का मानना है कि सरकारों में उभरते नवाचारों के नियमन की क्षमता का अभाव है।

यह भरोसा वैज्ञानिकों के लिए एक अवसर के साथ चुनौती भी है। इस विश्वास के दम पर वैज्ञानिक प्रयास कर सकते हैं कि सरकारी नीतियां प्रमाण-आधारित बनें। इसके साथ ही वे सरकारी हस्तक्षेप और नियामक शक्तियों पर लोगों के अविश्वास सम्बंधी चिंताओं को भी संबोधित कर सकते हैं। सवाल यह उठता है कि सार्वजनिक हितों को ध्यान में रखते हुए, नीतियों की दिशा सुनिश्चित करने के लिए वैज्ञानिक सरकारों के साथ कैसे सहयोग कर सकते हैं?

कई विशेषज्ञ इस रिपोर्ट को काफी महत्वपूर्ण बताते हैं जो कोविड-19 महामारी और कृत्रिम बुद्धि के उदय जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए विज्ञान और नवाचार पर वैश्विक फोकस के साथ मेल खाती है। हालिया समय में दुनिया भर की सरकारें क्लस्टरिंग विश्वविद्यालयों से लेकर उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करने और नवीन परियोजनाओं के लिए वित्तीय सहायता की सुविधा प्रदान करने की विभिन्न रणनीतियों की तलाश कर रही हैं। एक हालिया प्रस्ताव में चिकित्सा विज्ञान में एआई की बड़ी भूमिका की वकालत की गई है लेकिन नियामक सुधारों को भी आवश्यक बताया है।

गौरतलब है कि इस पूरे मामले में सामाजिक विज्ञान एक ऐसे उपकरण के रूप में उभरा है जिसका उपयोग नहीं किया गया है। यूके एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज़ की एक रिपोर्ट में डैटा वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, नैतिकताविदों, कानूनी विद्वानों और समाजशास्त्रियों की विशेषज्ञता की चर्चा करते हुए नीति निर्माण में सामाजिक विज्ञान को जोड़ने पर ज़ोर दिया गया है। इन क्षेत्रों के पेशेवर लोग नई प्रौद्योगिकियों, आर्थिक मॉडलों और नियामक ढांचे की ताकत और सीमाओं का आकलन कर सकते हैं और उनमें निहित अनिश्चितताओं को भी संबोधित कर सकते हैं।

यदि लोगों को लगता है कि विज्ञान का राजनीतिकरण हो चुका है और सरकारें बहुत अधिक हस्तक्षेप कर रही हैं, तो  यह सिर्फ विज्ञान के लिए नहीं बल्कि समाज के लिए भी समस्या है क्योंकि इससे लोगों के इस विश्वास में कमी आ सकती है कि सरकारें इन नवाचारों के लाभ उन तक पहुंचाएंगी और संभावित नुकसानों से बचाएंगी। ऐसे में वैज्ञानिकों को नवाचार के बारे में विश्वसनीय स्रोत बनने के अवसर का लाभ उठाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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