फसल उत्पादन में मिट्टी के सूक्ष्मजीवों की भूमिका

कई और अन्य प्रमुख फसलों का विपुल उत्पादन संकरण तकनीक पर निर्भर है। जब अलग-अलग अंत:जनित किस्मों का संकरण किया जाता है तो पैदा होने वाली नस्ल लंबी और मज़बूत होती है तथा अधिक पैदावार देती है। इसे संकर ओज कहते हैं और इसके कारणों को भलीभांति समझा नहीं गया है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने इसके पीछे मृदा में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों की भूमिका की संभावना जताई है, जो शायद पौधे की प्रतिरक्षा प्रणाली के माध्यम से अपना असर दिखाते हैं।

20वीं सदी की शुरुआत में, जीव विज्ञानियों ने संकर बीजों का निर्माण करके इस प्रभाव को कृषि क्षेत्र में लागू किया था। 1940 के दशक तक, अमेरिका के लगभग सभी किसानों ने संकर मकई लगाना शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप फसल में कई गुना वृद्धि हुई। संकर ओज के बारे में कई सिद्धांत दिए गए हैं लेकिन अब तक कोई निश्चित व्याख्या नहीं मिल सकी है।  

इसे समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैन्सास की पादप आनुवंशिकीविद मैगी वैगनर और उनके साथियों ने सोचा कि शायद इसमें सूक्ष्मजीवों की भूमिका होगी। वास्तव में इन सूक्ष्मजीवों का पौधों पर प्रभाव काफी व्यापक होता है। जैसे लाभदायक बैक्टीरिया और कवक अक्सर पत्तियों और जड़ों में बसेरा बनाते हैं और पौधे को रोगजनक सूक्ष्मजीवों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। सोयाबीन और अन्य फलियों वाली फसलें ऐसे सूक्ष्मजीवों की मेज़बानी करती हैं जो नाइट्रोजन उपलब्ध कराते हैं।

पिछले वर्ष वैगनर ने संकर मकई की पत्तियों और जड़ों में ऐसे सूक्ष्मजीव पाए थे जो मकई की अंत:जनित किस्म से भिन्न थे। वैगनर ने प्रयोगशाला में इस निष्कर्ष को दोहराने की कोशिश की। उन्होंने मिट्टी जैसे पदार्थ से भरी थैलियों में बीज लगाए। इस मिट्टी को पूरी तरह सूक्ष्मजीव रहित (स्टेरिलाइज़) कर दिया गया था। फिर कुछ थैलियों में मृदा बैक्टीरिया का एक सामान्य समूह (मकई की जड़ों में सामान्यत: पाए जाने वाले सात स्ट्रेन) मिलाया जबकि अन्य बैग्स को स्टेरिलाइज़ ही रहने दिया।

अपेक्षा के अनुरूप, सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति में संकर बीज की पैदावार अधिक हुई – उनकी जड़ें अंत:जनित किस्म की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक वज़नी थीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार आश्चर्यजनक रूप से सूक्ष्मजीव-रहित मिट्टी में संकर और अंत:जनित, दोनों किस्मों का विकास एक जैसा रहा।

वैगनर के अनुसार संभवत: संकर पौधे सूक्ष्मजीवों से अलग प्रकार से अंतर्क्रिया करते हैं। परिणामों के आधार पर टीम ने मत व्यक्त किया है कि सूक्ष्मजीवों ने संकर किस्म को बढ़ावा नहीं दिया बल्कि अंत:जनित किस्मों के विकास को धीमा किया। 

हो सकता है कि अंत:जनित किस्मों की प्रतिरक्षा प्रणाली लाभदायक सूक्ष्मजीवों के प्रति अधिक प्रतिक्रिया देती है जिसका प्रतिकूल असर उनके विकास पर पड़ता है। दूसरी ओर, संकर पौधे मृदा के कमज़ोर रोगजनकों से बचाव में बेहतर होते हैं। इस विचार पर और अध्ययन की ज़रूरत है। फिर भी कुछ विशेषज्ञों के अनुसार ये परिणाम दर्शाते हैं कि पौध प्रजनकों को फसल की आनुवंशिकी और उस क्षेत्र के मृदा सूक्ष्मजीवों के बीच तालमेल बनाना चाहिए ताकि खेती को अधिक उत्पादक और टिकाऊ बनाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शोध डैटा में हेर-फेर

क एक डच सर्वेक्षण में लगभग आठ प्रतिशत वैज्ञानिकों ने यह बात मानी है कि वर्ष 2017 से 2020 के बीच उन्होंने कम से कम एक बार मिथ्या डैटा या मनगढ़ंत डैटा का उपयोग किया था। सर्वेक्षण में वैज्ञानिकों के नाम गोपनीय रखे गए थे। लगभग 10 प्रतिशत से अधिक चिकित्सा और जीव विज्ञान के शोधकर्ताओं ने भी डैटा में इस तरह के हेर-फेर की बात स्वीकार की है। मेटाआर्काइव (MetaArxiv) प्रीप्रिंट में प्रकाशित इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने अक्टूबर 2020 से दिसंबर 2020 के बीच नेदरलैंड के 22 विश्वविद्यालयों के लगभग 64,000 शोधकर्ताओं से संपर्क किया था, जिनमें से 6,813 ने उत्तर दिए थे।

वर्ष 2005 में यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ द्वारा इसी मुद्दे पर एक अध्ययन किया गया था जिसमें बहुत कम वैज्ञानिकों ने माना था कि उन्होंने मिथ्या डैटा का उपयोग किया है या डैटा गढ़ा है; अध्ययन में शामिल 3,000 वैज्ञानिकों में से 0.3 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने यह बात कबूली थी।

डच सर्वेक्षण की अध्ययनकर्ता गौरी गोपालकृष्णन का कहना है कि संभावना है कि पूर्व अध्ययन में डैटा में हेर-फेर की बात स्वीकार करने वाले शोधकर्ताओं का प्रतिशत कम आंका गया हो। क्योंकि पूर्व अध्ययनों में इस मुद्दे पर सवाल घुमा-फिरा कर पूछे गए थे जबकि डच अध्ययन में सवाल सीधे-सीधे किए थे। और इसी कारण से अन्य अध्ययनों के परिणामों से डच अध्ययन के परिणाम की तुलना करने में सावधानी रखनी होगी। वैसे, वर्ष 2001 में डच अध्ययन के तरीके से ही किए गए एक अन्य अध्ययन में लगभग 4.5 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने माना था कि कम से कम एक बार उन्होंने डैटा के साथ छेड़छाड़ की है।

डच सर्वेक्षण में 51 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने 11 ‘आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण’ (क्यूआरपी) में से कम से कम एक की बात भी स्वीकारी – जैसे शोध की अपर्याप्त योजना के साथ काम करना, या जानबूझकर पांडुलिपियों या अनुदान प्रस्तावों का निष्पक्ष आकलन न करना। आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण को डैटा में हेर-फेर, साहित्यिक चोरी वगैरह की तुलना में कम बुरा माना जाता है।

आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण कबूल करने वालों में पीएच.डी. छात्रों, पोस्टडॉक और जूनियर फैकल्टी के होने की संभावना ज़्यादा थी लेकिन डैटा में हेर-फेर और डैटा गढ़ने की बात स्वीकार करने का कोई उल्लेखनीय सम्बंध इस बात से नहीं दिखा कि शोधकर्ता अपने करियर के किस मुकाम पर थे। अलबत्ता, पूर्व अध्ययनों में पाया गया था कि जो शोधकर्ता अपने करियर के मध्य स्तर पर हैं उनकी तुलना में जूनियर शोधकर्ता ऐसे आचरणों में कम लिप्त होते हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि डैटा मिथ्याकरण के इन आंकड़ों पर सावधानी से विचार किया जाना चाहिए। लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस में शोध दुराचार, नैतिकता और पूर्वाग्रह का अध्ययन करने वाले डेनियल फेनेली ने 2009 में एक मेटा-विश्लेषण किया था जिसमें लगभग दो प्रतिशत शोधकर्ताओं ने मिथ्या डैटा, डैटा गढ़ने या उसमें हेर-फेर करने की बात स्वीकार की थी। इसके अलावा, डच अध्ययन में यह भी स्पष्ट नहीं है कि पिछले तीन वर्ष में ऐसा करने की बात कबूलने वाले शोधकर्ताओं ने वास्तव में ऐसा कितनी बार किया, उनके कितने शोधपत्रों में परिवर्तित डैटा था और क्या उन्होंने वह काम प्रकाशित किया था। अनुसंधान दुराचार होते रहते हैं, लेकिन ये हो रहे हैं इसका पता लगाना और इन्हें साबित करना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा अनुसंधान संस्थान भी इन मुद्दों पर पारदर्शिता नहीं दर्शाते।

गोपालकृष्णन और उनके साथियों ने इसी सर्वेक्षण के डैटा का उपयोग कर ज़िम्मेदार अनुसंधान आचरण की पड़ताल करता हुआ एक अन्य अध्ययन मेटाआर्काइव प्रीप्रिंट में प्रकाशित किया है। अध्ययन में पाया गया कि 99 प्रतिशत वैज्ञानिक आम तौर पर साहित्यिक चोरी से बचते हैं, 97 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने हितों के टकराव का खुलासा किया और 94 प्रतिशत वैज्ञानिक प्रकाशन से पहले पांडुलिपि में त्रुटियों की जांच करते हैं। लगभग 43 प्रतिशत शोधकर्ताओं ने ही कहा कि वे प्रयोग सम्बंधी प्रोटोकॉल पहले से पंजीकृत करते हैं, 47 प्रतिशत वैज्ञानिक ही मूल डैटा उपलब्ध कराते हैं, और 56 प्रतिशत वैज्ञानिक ही व्यापक शोध रिकॉर्ड रखते हैं। गोपालकृष्णन का कहना है कि डैटा में हेर-फेर जैसे अनुसंधान दुराचार पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है, लेकिन अनुसंधान में लापरवाही को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। हमें एक ऐसे माहौल की ज़रूरत है जहां गलतियों को अपराध न माना जाए, आचरण ज़िम्मेदारीपूर्ण हो, और धीमी गति से लेकिन अच्छी गुणवत्ता वाले शोध पर अधिक ध्यान दिया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 टीकों को पूर्ण स्वीकृति का सवाल

क ओर कोविड-19 की तीसरी लहर की बातें हो रही हैं और टीकाकरण की रफ्तार बहुत धीमी है। वैज्ञानिकों और चिकित्सकों का मानना है कि वर्तमान में टीकों को पूर्ण स्वीकृति की बजाय आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी मिलने की वजह से कई लोग टीका लगवाने में झिझक रहे हैं। इसके अतिरिक्त कई देशों में टीका विरोधी कार्यकर्ताओं, टॉक शो और दक्षिणपंथी राजनेताओं द्वारा भी टीकाकरण का विरोध किया जा रहा है।

कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी की संक्रामक रोग चिकित्सक मोनिका गांधी के अनुसार यूएस के खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा टीकों के पूर्ण अनुमोदन के बाद ही लोगों में टीकाकरण के प्रति संदेह खत्म किया जा सकता है। वर्तमान में फाइज़र और मॉडर्ना ने टीकों के पूर्ण अनुमोदन के लिए एफडीए में आवेदन दिया है लेकिन इस प्रक्रिया में कई महीने लग सकते हैं। टीकों की पूर्ण स्वीकृति के संदर्भ में कुछ सवालों पर चर्चा की गई है। चर्चा एफडीए के संदर्भ में है लेकिन दुनिया भर के सभी नियामकों पर लागू होती है।

टीकों को अभी तक पूर्ण स्वीकृति क्यों नहीं मिली है?

महामारी के संकट को देखते हुए एफडीए तथा कई अन्य नियामकों ने फाइज़र, मॉडर्ना, जॉनसन एंड जॉनसन (जे-एंड-जे) व अन्य द्वारा निर्मित टीकों को आपातकालीन उपयोग की अनुमति (ईयूए) प्रदान की है। पूर्व में भी दवाओं को आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई थी लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि टीकों को आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई है। गौरतलब है कि ईयूए प्राप्त करने के लिए भी टीका निर्माताओं को कई दिशा-निर्देशों का पालन करना होता है। इसमें सैकड़ों-हज़ारों प्रतिभागियों के साथ क्लीनिकल परीक्षणों से सुरक्षा और प्रभाविता डैटा के अलावा टीकों की स्थिरता और उत्पादन की गुणवत्ता सम्बंधी जानकारी भी मांगी जाती है। फाइज़र और मॉडर्ना को यह स्वीकृति दिसंबर 2020 में मिली थी जबकि जे-एंड-जे को फरवरी 2021 में। तब से लेकर अब तक जुटाए गए वास्तविक उपयोग के डैटा के आधार पर फाइज़र ने इस वर्ष मई की शुरुआत में और मॉडर्ना ने जून में पूर्ण अनुमोदन के लिए आवेदन दिया है, और जे-एंड-जे जल्द ही आवेदन देने वाला है।

पूर्ण अनुमोदन और ईयूए में अंतर?

पूर्ण अनुमोदन प्रदान करने के लिए एफडीए को लंबी अवधि में एकत्रित किए गए विस्तृत डैटा की समीक्षा करनी होती है। इसके तहत टीकों की प्रभाविता और सुरक्षा के लिए अतिरिक्त क्लीनिकल परीक्षण डैटा के साथ-साथ वास्तविक उपयोग के डैटा का गहराई से अध्ययन करना होता है। इसके साथ ही एफडीए द्वारा टीका उत्पादन सुविधाओं का निरीक्षण और गुणवत्ता का बहुत ही सख्ती से ध्यान रखा जाता है। इसमें टीकों के बिरले दुष्प्रभावों पर ध्यान दिया जाता है जो शायद क्लीनिकल परीक्षण में सामने न आए हों।

स्वीकृति कब तक मिल सकती है?

16 जुलाई को एफडीए ने फाइज़र का आवेदन ‘प्राथमिकता’ के आधार पर स्वीकार किया है। यानी इसकी समीक्षा जल्द की जाएगी; यह निर्णय अगले दो महीने में आने की संभावना है। वहीं, मॉडर्ना द्वारा आवश्यक दस्तावेज़ जमा न करने के कारण एफडीए ने कंपनी के आवेदन को औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं किया है।

टीके की जल्द से जल्द स्वीकृति की मांग क्यों की जा रही है?

ज़ाहिर है कि पूर्ण अनुमोदन से टीकाकरण के प्रति लोगों की हिचक कम हो सकती है। ऐसे में कई चिकित्सक और जन स्वास्थ्य अधिकारी भी टीकों को जल्द से जल्द अनुमोदन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।   

क्या पूर्ण अनुमोदन से अधिक लोग टीकाकरण के लिए तैयार होंगे?

कैसर फैमिली फाउंडेशन द्वारा जून में 1,888 लोगों पर किए गए सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 30 प्रतिशत लोग पूर्ण अनुमोदन के बाद टीका लगवाने के लिए तैयार हैं। लेकिन अभी भी कई लोगों के लिए एफडीए द्वारा दिया जाने वाला अनुमोदन एक सामान्य सुरक्षा का ही द्योतक होता है। ऐसा ज़रूरी नहीं कि जो लोग पूर्ण अनुमोदन का इंतज़ार कर रहे हैं वो वास्तव में टीका लगवा ही लेंगे, क्योंकि अनुमोदन प्रक्रिया को जल्दबाज़ी या राजनीतिक रूप से प्रेरित माना जा रहा है। जो लोग पूरी तरह से टीकाकरण के विरोध में हैं उनके लिए एफडीए का अनुमोदन भी कोई मायने नहीं रखता।

लेकिन पूर्ण स्वीकृति कुछ लोगों को प्रभावित भी कर सकती है। उदाहरण के तौर पर, कई लोगों को टीकाकरण के लिए एफडीए के सहमति फॉर्म पर हस्ताक्षर करना एक बड़ी मनोवैज्ञानिक बाधा हो सकती है। एक ऐसे सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करना जिसमें ‘प्रायोगिक’ शब्द का उपयोग किया गया हो, वह अश्वेत समुदायों में एक गंभीर मुद्दा रहा है।      

क्या अनुमोदन अनिवार्य टीकाकरण का मार्ग प्रशस्त करेगा?

देखा जाए तो अमेरिका के 500 से अधिक विश्वविद्यालयों और बड़े अस्पतालों ने अपने छात्रों और कर्मचारियों को अनिवार्य टीकाकरण का आदेश जारी किया है। लेकिन तकनीकी रूप से प्रायोगिक टीका लेने के लिए कई स्कूल, अस्पताल और यहां तक कि अमेरिकी फौज भी संकोच कर रही है और पूर्ण अनुमोदन के इंतज़ार में है। ऐसा दावा किया जा रहा है कि पूर्ण अनुमोदन मिलने पर कई संगठन और उद्योग टीकाकरण अनिवार्य कर देंगे।

गौरतलब है कि फ्रांस में टीकाकरण के प्रति लोगों में संकोच के बाद भी सरकार ने मॉल, बार्स, रेस्टॉरेंट और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर ‘हेल्थ पास’ जारी करने की घोषणा की है जो टीकाकृत लोगों को प्रदान किया जाएगा। इसके समर्थन में 10 लाख से अधिक लोग टीकाकरण के लिए तैयार हुए हैं जबकि हज़ारों लोग इसके विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं।

क्या एफडीए अनुमोदन की प्रक्रिया को तेज़ कर सकता है?

उच्च गुणवत्ता समीक्षा और मूल्यांकन की प्रक्रिया को पूरा किए बिना अनुमोदन देना एफडीए की वैधानिक ज़िम्मेदारी को कमज़ोर करना होगा। इससे जनता के बीच एजेंसी पर भरोसा कम होगा और टीकाकारण के प्रति झिझक और अधिक बढ़ जाएगी। mRNA आधारित टीकों के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये पूरी तरह से नई तकनीक पर आधारित हैं।

क्या आपातकालीन मंज़ूरी वाले टीके लगवाना सुरक्षित है?

विशेषज्ञों का मत है कि अब तक एकत्र किए गए डैटा के अनुसार आपातकालीन मंज़ूरी प्राप्त सभी टीके सुरक्षित और प्रभावी हैं। गांधी के अनुसार क्लीनिकल परीक्षणों में टीकों के इतने अच्छे परिणाम काफी आश्चर्यजनक हैं। इन परिणामों को देखते हुए फिलहाल चिकित्सकों और विशेषज्ञों का सुझाव है कि हर वयस्क को अनिवार्य रूप से टीका लगवाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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शोथ आधारित आयु-घड़ी

कोई व्यक्ति वर्तमान में कितना स्वस्थ है, यह पता लगाने के लिए वैज्ञानिक लंबे समय से आयु-घड़ी के विचार पर काम कर रहे हैं। आयु-घड़ी का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की अपनी वास्तविक उम्र की तुलना में जैविक रूप से उम्र कितनी है। एपिजेनेटिक्स-आधारित घड़ियों ने इस क्षेत्र में कुछ उम्मीद जगाई थी, लेकिन डीएनए में हुए एपिजेनेटिक परिवर्तनों को मापकर किसी व्यक्ति की जैविक उम्र पता करना थोड़ा जटिल काम है। एपिजेनेटिक परिवर्तन मतलब डीएनए में अस्थायी परिवर्तन जो जीन्स की अभिव्यक्ति को प्रभावित करते हैं।

अब इस दिशा में शोधकर्ताओं ने एक नए तरह की आयु-घड़ी, iAge, विकसित की है जो जीर्ण शोथ (इन्फ्लेमेशन) का आकलन कर यह बता सकती है कि आपको उम्र-सम्बंधी किसी रोग, जैसे हृदय रोग या तंत्रिका-विघटन सम्बंधी रोग, के विकसित होने का खतरा तो नहीं है। यह घड़ी व्यक्ति की ‘जैविक आयु’ बताती है जो उसकी वास्तविक आयु से कम-ज़्यादा हो सकती है।

दरअसल, जब किसी व्यक्ति की उम्र बढ़ती है तो शरीर की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने लगती हैं और शोथ पैदा करने वाले अणु स्रावित करने लगती हैं, नतीजतन संपूर्ण देह में जीर्ण शोथ का अनुभव होता है। यह अंतत: ऊतकों और अंगों की टूट-फूट का कारण बनता है। जिन लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली अच्छी होती है वे कुछ हद तक इस शोथ को बेअसर करने में सक्षम होते हैं, लेकिन कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले लोगों की जैविक उम्र तेज़ी से बढ़ने लगती है।

इंफ्लेमेटरी एजिंग क्लॉक (iAge) को विकसित करने के लिए कैलिफोर्निया में स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के सिस्टम बायोलॉजिस्ट डेविड फरमैन और रक्त-वाहिनी विशेषज्ञ नाज़िश सैयद की टीम ने 8-96 वर्ष की आयु के 1001 लोगों के रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने रक्त में दैहिक शोथ का संकेत देने वाले प्रोटीन संकेतकों को पहचानने के लिए मशीन-लर्निंग एल्गोरिदम की मदद ली। इसके अलावा उन्होंने प्रतिभागियों की वास्तविक उम्र और स्वास्थ्य जानकारी का भी उपयोग किया। उन्होंने प्रतिरक्षा-संकेत प्रोटीन (या साइटोकाइन) CXCL9 को शोथ के मुख्य जैविक चिंह के तौर पर पहचाना; CXCL9 मुख्य रूप से रक्त वाहिकाओं की आंतरिक परत द्वारा निर्मित होता है और इसके चलते हृदय रोग विकसित हो सकते हैं।

iAge के परीक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने कम से कम 99 वर्ष तक जीवित रहने वाले 19 लोगों के रक्त के नमूने लेकर iAge की मदद से उनकी जैविक आयु की गणना की। ये लोग इम्यूनोम नामक एक प्रोजेक्ट के सदस्य थे। इस प्रोजेक्ट में इस बात का अध्ययन किया जा रहा है कि उम्र बढ़ने के साथ लोगों में जीर्ण, तंत्रगत शोथ में कैसे परिवर्तन होते हैं। पाया गया कि उम्र की शतक लगाने वाले इन लोगों की iAge आयु उनकी वास्तविक आयु से औसतन 40 वर्ष कम थी – ये नतीजे इस विचार से मेल खाते हैं कि स्वस्थ प्रतिरक्षा प्रणाली वाले लोग लंबे समय तक जीवित रहते हैं।

चूंकि रक्त परीक्षण करके शोथ को मापना आसान है, इसलिए नैदानिक परीक्षण के लिए iAge जैसे साधन व्यावहारिक हो सकते हैं। इसके अलावा उम्मीद है कि iAge और अन्य आयुमापी घड़ियां व्यक्ति के मुताबिक उपचार करना संभव कर सकती हैं।

दैहिक शोथ के जैविक चिंह के रूप में CXCL9 की जांच करते समय फरमैन और उनके साथियों ने मानव एंडोथेलियल कोशिकाओं को विकसित किया है। उन्होंने तश्तरी में रक्त वाहिकाओं की दीवारों को विकसित किया और उनमें बार-बार विभाजन करवाकर उनको कृत्रिम रूप से वृद्ध बना दिया। शोधकर्ताओं ने पाया कि CXCL9 प्रोटीन का उच्च स्तर कोशिकाओं को निष्क्रिय कर देता है। जब शोधकर्ताओं ने CXCL9 को एनकोड करने वाले जीन की अभिव्यक्ति को रोक दिया तो कोशिकाएं पुन: कुछ हद तक काम करने लगीं। इससे लगता है कि प्रोटीन के हानिकारक प्रभाव को पलटा जा सकता है।

अगर शोथ की पहचान शुरुआत में ही कर ली जाए तो इसका इलाज किया जा सकता है। इसके लिए हमारे पास कई साधन उपलब्ध हैं। जैसे सैलिसिलिक एसिड (एस्पिरिन बनाने की एक प्रारंभिक सामग्री), और रूमेटोइड गठिया शोथ रोधी जैनस काइनेस अवरोधक/सिग्नल ट्रांसड्यूसर एंड एक्टिवेटर ऑफ ट्रांसक्रिप्शन (JK/STAT) अवरोधक। चूंकि शोथ का उपचार किया जा सकता है इसलिए उम्मीद है कि यह साधन यह निर्धारित करने में मदद कर सकता है कि उपचार से किसे लाभ हो सकता है – संभवत: यह किसी व्यक्ति के तंदुरुस्त वर्षों में इज़ाफा कर सकता है। उम्मीद है कि भविष्य में कोई भी व्यक्ति नियमित रूप से अपनी शोथ-जैविक चिंह प्रोफायलिंग करा सकेगा ताकि वह आयु-सम्बंधी रोग होने की संभावना देख सके।

इसके अलावा, अध्ययन इस तथ्य को भी पुख्ता करता है कि प्रतिरक्षा प्रणाली महत्वपूर्ण है, न केवल स्वस्थ उम्र की भविष्यवाणी करने के लिए बल्कि इसका संचालन करने वाले तंत्र के रूप में भी। (स्रोत फीचर्स)

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दिमाग को सतर्क और सक्रिय रखें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया की 15 प्रतिशत आबादी (लगभग 78.5 करोड़ लोग) स्मृतिभ्रंश (डिमेंशिया), याददाश्त की कमज़ोरी, दुश्चिंता व तनाव सम्बंधी विकार, अल्ज़ाइमर या इसी तरह की मानसिक अक्षमताओं से पीड़ित हैं। दी हिंदू में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार भारत में कोविड-19 महामारी और इसके कारण हुई तालाबंदी के बाद 74 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिकों (60 वर्ष से अधिक उम्र के लोग) में तनाव और 88 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिकों में दुश्चिंता की समस्या देखी गई। वर्ष 2050 तक भारत में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 20 प्रतिशत होगी।

वृद्ध लोगों का इलाज

इस स्थिति में हमें वरिष्ठ नागरिकों में (साथ ही ‘कनिष्ठ नागरिकों’ में भी, उनके वरिष्ठ होने के पहले) इस तरह की मानसिक अक्षमताओं का पता लगाने और उनका इलाज करने के विभिन्न तरीकों की आवश्यकता है। आयुर्वेद, यूनानी, योग और प्राणायाम जैसी कई पारंपरिक पद्धतियां सदियों से अपनाई जा रही हैं। फिर भी, हमें आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी, नई पहचान और उपचार विधियां अपनाने की आवश्यकता है।

दुश्चिंता में कमी

इस संदर्भ में इस्राइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट के एक समूह की हालिया रिपोर्ट काफी दिलचस्प है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि बीटा-सिटोस्टेरॉल (BSS) नामक यौगिक दुश्चिंता कम करता है और चूहों में यह जानी-मानी दुश्चिंता की औषधियों के सहायक की तरह काम करता है। सेल रिपोर्ट्स मेडिसिन में प्रकाशित यह पेपर मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों और उनके रसायन विज्ञान पर BSS के प्रभाव की जांच करता है (इसे इंटरनेट पर पढ़ सकते हैं – (Panayotis et al., 2021, Cell Reports Medicine 2,100281)।

दुश्चिंता और तनाव सम्बंधी विकारों के इलाज के लिए हमें और भी औषधियों की आवश्यकता है। इस तरह के यौगिकों की खोज करना और उन्हें विकसित करना एक चुनौती भरा काम है। BSS एक फायटोस्टेरॉल है और पौधे इसका मुख्य स्रोत हैं। पारंपरिक भारतीय औषधियों में फायटोस्टेरॉल्स का उपयोग होता आया है। और चूंकि ये पौधों से प्राप्त की जाती हैं तो ये शाकाहार हैं। सबसे प्रचुर मात्रा में BSS सफेद सरसों (कैनोला) के तेल में पाया जाता है; प्रति 100 ग्राम सफेद सरसों के तेल में यह 400 मिलीग्राम से भी अधिक होता है। और लगभग इतना ही BSS मक्का और इसके तेल में भी पाया जाता है। हालांकि, सफेद सरसों भारत में आसानी से उपलब्ध नहीं है। लेकिन BSS के सबसे सुलभ स्रोत हैं पिस्ता, बादाम, अखरोट और चने जो भारतीय दुकानों पर आसानी से मिल जाते हैं। इनमें प्रति 100 ग्राम में क्रमश: 198, 132, 103 और 160 मिलीग्राम BSS होता है।

स्मृतिभ्रंश, मस्तिष्क के कामकाज में क्रमिक क्षति की स्थितियां दर्शाता है। यह स्मृतिलोप, और संज्ञान क्षमता और गतिशीलता में गड़बड़ी से सम्बंधित है। इस तरह की समस्या किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व भी बदल सकती हैं, और समस्या बढ़ने पर काम करने की क्षमता कम हो जाती है। स्मृतिभ्रंश की समस्या पीड़ित और उसके परिवार पर बोझ बन सकती है। इस संदर्भ में इंडियन जर्नल ऑफ साइकिएट्री में आर. साथियानाथन और एस. जे. कांतिपुड़ी ने एक उत्कृष्ट और व्यापक समीक्षा प्रकाशित की है जिसका शीर्षक है स्मृतिभ्रंश महामारी: प्रभाव, बचाव और भारत के लिए चुनौतियां (The Dementia Epidemic: Impact, Prevention and Challenges for India – Indian Journal of Psychiatry (2018, Vol 60(2), p 165-167)। इसे नेट पर मुफ्त में पढ़ा जा सकता है।

स्मृतिभ्रंश के जैविक चिंह

वैज्ञानिक और चिकित्सक स्मृतिभ्रंश और अल्ज़ाइमर को शुरुआती अवस्था में ही पता लगाने की कोशिश में हैं। इसके लिए वे तंत्रिका-क्षति के द्योतक जैविक चिंहों की तलाश कर रहे हैं – जैसे अघुलनशील प्लाक का जमाव। इसके अलावा, मैग्नेटिक रेसोनेंस इमेंजिंग (MRI) और पॉज़िट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी (PET) जैसी इमेजिंग विधियां समय से पहले स्मृतिभ्रंश की स्थिति का पता लगा सकती हैं। हमारे कई शहरों में MRI और PET स्कैनिंग के लिए केंद्र हैं। लेकिन हमें ऐसी चिकित्सकीय व जैविक प्रयोगशालाओं की आवश्यकता है जो इमेजिंग तकनीकों के उपयोग के पहले ही आनुवंशिक और तंत्रिका-जीव वैज्ञानिक पहलुओं की भूमिका पता लगा सके। हमें ऐसे कार्बनिक रसायनज्ञों की भी आवश्यकता है, जो तंत्रिका सम्बंधी समस्याओं पर शुरुआती चरण में ही कार्य करने वाले नए और अधिक कुशल औषधि अणु संश्लेषित करें, ताकि तंत्रिका तंत्र को विघटन से बचाया जा सके।

भारत प्राकृतिक उत्पादों के रसायन विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी रहा है – स्वास्थ्य के लिए लाभकारी अणुओं की पहचान तथा उनका संश्लेषण करके देश व दुनिया भर में विपणन करता रहा है। हमारे पास विश्व स्तरीय जीव विज्ञान प्रयोगशालाएं भी हैं जो आनुवंशिक और आणविक जैविक पहलुओं का अध्ययन करती हैं। हमारे पास सदियों पुराने जड़ी-बूटी औषधि केंद्र (आयुर्वेद और यूनानी प्रणाली के) भी हैं जो समृतिभ्रंश का प्रभावी इलाज विकसित करते रहते हैं। यदि केंद्र व राज्य सरकारें और निजी प्रतिष्ठान मिलकर अनुसंधान का समर्थन करें, तो कोई कारण नहीं कि हम स्मृतिभ्रंश और अल्ज़ाइमर के मामलों को कम न कर सकें। वरिष्ठ (और कनिष्ठ) नागरिक शरीर और दिमाग को चुस्त-दुरुस्त रखने वाले उपाय अपनाकर – जैसे BSS समृद्ध आहार, शाकीय भोजन और गिरियां खाकर, पैदल चलना, साइकिल चलाना, कोई खेल खेलना जैसे व्यायाम और योग अभ्यास करके इन रोगों से लड़ने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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चंद्रमा के डगमगाने से बाढ़ों की संभावना – सुदर्शन सोलंकी

पिछली शताब्दी में वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि हुई है और हाल के दशकों में इसकी दर तेज़ी से बढ़ रही है। यूएस नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएएस) के अनुसार वर्ष 1880 और 2015 के बीच औसत वैश्विक समुद्र स्तर लगभग 22 से.मी. बढ़ा है। इसमें से एक-तिहाई वृद्धि तो पिछले 25 साल में ही हुई।

विश्व के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को लेकर अध्ययन करके संभावित नुकसान से बचने के लिए चेतावनियां भी जारी करते हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण ही प्राकृतिक आपदाओं की दुर्घटनाएं एवं विनाशकारिता बढ़ी है। वर्तमान में पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रही है। परंतु अब इसमें एक नया कारक जुड़ गया है।

नेचर क्लाइमेट चेंज में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी के साथ-साथ चंद्रमा की कक्षा डगमगाने से भी पृथ्वी पर विनाशकारी बाढ़ें आ सकती है। इस अध्ययन में यह पूर्वानुमान लगाया गया है कि अमेरिकी तटीय इलाकों में 2030 के दशक में उच्च ज्वार के कारण बाढ़ के स्तर में बढ़ोतरी होगी। नासा के अनुसार ये विनाशकारी बाढ़ें लगातार और अनियमित रूप से जनजीवन को प्रभावित करेगी। अमेरिका में तटीय क्षेत्र जो अभी महीने में सिर्फ दो या तीन बाढ़ का सामना करते हैं, वे अब एक दर्जन या उससे भी अधिक का सामना कर सकते हैं। अध्ययन में यह चेतावनी भी दी गई है कि यह बाढ़ पूरे साल प्रभावित नहीं करेगी बल्कि कुछ ही महीनों में बड़े पैमाने पर अपना असर दिखाएगी।

ज्वार आने में चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण की भूमिका होती है। गुरुत्वाकर्षण में उथल-पुथल उसकी कक्षा के डगमगाने से होता है। चंद्रमा की कक्षा में होने वाली इस तरह की डगमग को मून वॉबल कहते हैं, जिसे सन 1728 में खोजा गया था। एनओएएस के अनुसार वर्ष 2019 में अटलांटिक और खाड़ी तटों पर बाढ़ की 600 से ज़्यादा इस तरह की घटनाएं देखी गई थीं।

समुद्र के स्तर के साथ चंद्रमा की कक्षा के डगमगाने का जुड़ना अत्यधिक खतरनाक है। शोधकर्ताओं के अनुसार, चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव, समुद्र के बढ़ते स्तर और जलवायु परिवर्तन का संयोजन पृथ्वी पर समुद्र तटों और दुनिया भर में तटीय बाढ़ को बढ़ाता है। इस अध्ययन के प्रमुख लेखक और हवाई विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर फिल थॉम्पसन ने कहा है कि चंद्रमा की कक्षा में इस डगमग को एक चक्र पूरा करने में 18.6 वर्ष लगते हैं। नासा के अनुसार 18.6 सालों की आधी अवधि में पृथ्वी पर नियमित दैनिक ज्वार कम ऊंचे हो जाते हैं और बाकी आधी अवधि में ठीक इसका उलटा होता है।

नासा ने यह भी कहा कि जलवायु चक्र में अल-नीनो जैसी घटनाएं भी बाढ़ को बढ़ावा देंगी। नासा की जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी के वैज्ञानिक बेन हैमलिंगटन ने कहा कि इस तरह की घटनाएं पूरे महीने होंगी। यह भी संभावना है कि साल के किसी एक हिस्से में बहुत ज़्यादा बाढ़ें आ जाएंगी। यह सबसे ज़्यादा अमेरिका को प्रभावित करेगा क्योंकि इस देश में तटीय पर्यटन स्थल बहुत ज़्यादा हैं। शोधकर्ताओं ने आगाह किया कि अगर देशों ने अभी से इससे निपटने की योजना शुरू नहीं की, तो तटीय बाढ़ से लंबे समय तक जीवन और आजीविका बुरी तरह प्रभावित होगी। (स्रोत फीचर्स)

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मादा नेवलों में विचित्र प्रसव-तालमेल

हाल ही में नेवलों की आबादी पर किए गए अध्ययन से प्रजनन सम्बंधी कुछ अद्भुत परिणाम सामने आए हैं।

युगांडा में किए गए इस अध्ययन में पाया गया कि एक समूह की 60 प्रतिशत मादा गर्भवती नेवले एक ही रात बच्चों को जन्म देती हैं भले ही उनके गर्भधारण का समय अलग-अलग ही क्यों न हो। बायोलॉजी लेटर्स नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह तालमेल वास्तव में घातक प्रतियोगिता को टालने के इरादे से प्रेरित है।

युनाइटेड किंगडम स्थित युनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर की जीव विज्ञानी सारा हॉज के अनुसार इन समूहों में शावक नेवलों का जल्दी या देर से जन्म लेना, दोनों ही खतरनाक हो सकते हैं। जल्दी जन्म लेने वाले नवजात नेवले अन्य मादा नेवलों के लिए आसान शिकार बन जाते हैं। ये मादाएं इन नन्हे नेवलों को अपनी आने वाली संतान के लिए बाधा मानती हैं। दूसरी ओर, देर से जन्म लेने वाले नेवलों के जीवित रहने की संभावना कम हो जाती है क्योंकि उनको भोजन के लिए अधिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना होता है और समूह के अन्य वयस्क नेवलों की देखभाल भी नहीं मिलती।

अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओ ने शिशुओं के जन्म के समय का वज़न भी नियंत्रित किया। इसके लिए उन्होंने कुछ गर्भवती नेवलों को गर्भावस्था के दौरान अतिरिक्त भोजन दिया। यह देखा गया कि सुपोषित मादाओं ने अपने तंदुरुस्त बच्चों की बजाय कम भोजन प्राप्त मादा नेवलों के कम वज़न वाले बच्चों का ज़्यादा ध्यान रखा – उन्हें दूध पिलाया, देखभाल की और रक्षा की। यानी साथ-साथ बच्चे पैदा होने से कमज़ोर बच्चों को कुछ फायदा तो मिलता है।    

वैज्ञानिकों को लगता है कि इस उत्कृष्ट तालमेल में फेरेमोन की भूमिका हो सकती है।

युगांडा स्थित क्वीन एलिज़ाबेथ नेशनल पार्क में नेवलों (मंगोस मंगो) के 11 समूहों पर लगभग सात वर्ष लंबा अध्ययन किया गया। इस अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के प्रोफेसर माइकल केंट और उनके सहयोगियों ने कुछ मादाओं को अल्प अवधि के गर्भनिरोधक देकर निर्धारित किया कि कौन-सी मादाएं संतान का योगदान करेंगी। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि यदि प्रभावशाली मादाएं समूह में संतान का योगदान नहीं कर पाती हैं तो वे सभी नवजात नेवलों को मार देती हैं। लेकिन यदि उन्हें लगता है कि इन नवजात नेवलों में उनकी संतानें भी हैं, तो वे उन सबको बख्श देती हैं।

निष्कर्ष बताते हैं कि कशेरुकियों के बीच सहयोग के विकास में इस तरह की रणनीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इससे यह भी पता चलता है कि जनसंख्या नियंत्रण में अन्य मादाओं के नवजात शिशुओं की हत्या एक महत्वपूर्ण प्रतिकूल रणनीति हो सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार कई सामाजिक स्तनधारियों में एक प्रमुख मादा प्रजनक होती है। इन नेवलों में लगभग 12 मादाएं एक साथ गर्भवती होती हैं और एक ही दिन जन्म देने के लिए तालमेल बनाती हैं। केंट बताते हैं कि इस प्रयोग में मादा नेवलों के बीच तालमेल बनाने का मुख्य उद्देश्य प्रजनन में इस तरह की जानलेवा घटनाओं को टालना है। (स्रोत फीचर्स)

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शिपिंग नियम: हवा तो स्वच्छ लेकिन जल प्रदूषण

हाल ही में हुआ अध्ययन बताता है कि जहाज़ों के ईंधन से होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से शिपिंग नियम में किए गए बदलावों के कारण जल प्रदूषण बढ़ा है। दरअसल नए नियमों के बाद अधिकांश जहाज़ मालिकों ने जहाज़ में स्क्रबिंग उपकरण लगा लिए हैं जो प्रदूषकों को पानी में रोक लेते हैं। फिर यह पानी समुद्र में फेंक दिया जाता है, जो प्रदूषण का कारण बन रहा है।

अध्ययन के अनुसार स्क्रबर से लैस लगभग 4300 जहाज़ हर साल कम से कम 10 गीगाटन अपशिष्ट जल समुद्र में, अक्सर बंदरगाहों और कोरल चट्टानों के पास छोड़ रहे हैं। लेकिन शिपिंग उद्योग का कहना है कि इस पानी में प्रदूषकों का स्तर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सीमा से अधिक नहीं हैं, और इससे नुकसान के भी कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। लेकिन कुछ शोधकर्ता अपशिष्ट जल इस तरह बहाए जाने से चिंतित हैं क्योंकि इसमें तांबा जैसी विषैली धातुएं और पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन जैसे कैंसरजनक यौगिक होते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक इस तरह की प्रणालियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।

दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय सामुद्रिक संगठन (आईएमओ) ने वर्ष 2020 में अम्लीय वर्षा और स्मॉग के लिए ज़िम्मेदार प्रदूषकों के उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से जहाज़ों में अति सल्फर युक्त ईंधन के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया था। अनुमान था कि इससे सल्फर उत्सर्जन में 77 प्रतिशत तक की कमी आएगी, और बंदरगाहों व तटीय इलाकों के नज़दीक रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य को हानि से बचाया जा सकेगा।

लेकिन स्वच्छ ईंधन की लागत सल्फर-युक्त ईंधन से 50 प्रतिशत अधिक है। और नया नियम छूट देता है कि जहाज़ों में स्क्रबर लगा कर सल्फर-युक्त सस्ता ईंधन उपयोग किया जा सकता है। जहाज़रानी उद्योग के अनुसार वर्ष 2015 तक ढाई सौ से भी कम जहाज़ों में स्क्रबर लगे थे और वर्ष 2020 में इनकी संख्या बढ़कर 4300 से भी अधिक हो गई।

स्क्रबर पानी का छिड़काव कर प्रदूषकों को आगे जाने से रोक देता है। सबसे प्रचलित ओपन लूप स्क्रबर में प्रदूषक युक्त अपशिष्ट जल को बहुत कम उपचारित करके या बिना कोई उपचार किए वापस समुद्र में छोड़ दिया जाता है। अन्य तरह के स्क्रबर अपशिष्ट को कीचड़ के रूप में जमा करते जाते हैं और अंतत: भूमि पर फेंक देते हैं। अपशिष्ट जल की तुलना में इस दलदली अपशिष्ट की मात्रा कम होती है लेकिन इसमें प्रदूषक अधिक मात्रा में होते हैं।

इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन के पर्यावरण नीति शोधकर्ता ब्रायन कॉमर और उनके दल ने स्क्रबर से लैस लगभग 3600 जहाज़ों का विश्लेषण करके पाया कि एक वर्ष में 10 गीगाटन से कहीं अधिक अपशिष्ट समुद्र में छोड़ा जा रहा है। यह अनुमान से बहुत अधिक है क्योंकि एक तो अनुमान से अधिक जहाज़ स्क्रबर लगा रहे हैं, और प्रत्येक जहाज़ का अपशिष्ट भी अनुमान से कहीं अधिक है।

2019 में जहाज़ों के मार्गों के एक अध्ययन में पता चला है कि व्यस्त मार्गों पर अधिक प्रदूषक अपशिष्ट बहाया जा रहा है, जैसे उत्तरी सागर और मलक्का जलडमरूमध्य। साथ ही यह प्रदूषण कई देशों के अपने एकाधिकार वाले आर्थिक मार्गों में भी दिखा।

पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में प्रदूषण मिलना चिंता का विषय है – जैसे ग्रेट बैरियर रीफ, जिसके नज़दीक से कोयला शिपिंग का मुख्य मार्ग है और यहां प्रति वर्ष लगभग 3.2 करोड़ टन अपशिष्ट बहाया जा रहा है।

समुद्री मार्गों पर ही नहीं, बंदरगाहों के पास भी काफी प्रदूषित अपशिष्ट बहाया जाता है, जिसमें सबसे अधिक योगदान पर्यटन जहाज़ों का है। 10 सबसे अधिक प्रदूषित बंदरगाहों में से सात बंदरगाहों में लगभग 96 प्रतिशत स्क्रबर-प्रदूषण पर्यटन जहाज़ों के कारण होता है क्योंकि इन जहाज़ों को किनारे पर भी अपने कैसीनो, गर्म पानी के पूल, एयर कंडीशनिंग और अन्य सुविधाओं को संचालित करने के लिए र्इंधन जलाना पड़ता है। बंदरगाहों पर पानी उथला होने के कारण समस्या और विकट हो जाती है।

इस पर क्लीन शिपिंग एलायंस 2020 सहित उद्योग संगठनों का कहना है कि अपशिष्ट जल के आंकड़े भ्रामक हैं। उनका तर्क है कि महत्व इस बात का है कि कचरे की विषाक्तता कितनी है, उसकी मात्रा का नहीं।

इस सम्बंध में कुछ शोधकर्ताओं ने स्क्रबर निष्कासित अपशिष्ट जल के समुद्री जीवन पर प्रभाव का परीक्षण किया। एनवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि उत्तरी सागर में चलने वाले तीन जहाज़ों से निकलने वाले अपशिष्ट जल ने कोपेपॉड (कैलेनस हेल्गोलैंडिकस) के विकास को नुकसान पहुंचाया है। कोपेपॉड एक सूक्ष्म क्रस्टेशियन है जो अटलांटिक महासागर के खाद्य जाल का एक महत्वपूर्ण अंग है। बहुत कम प्रदूषण से भी कोपेपॉड की निर्मोचन प्रक्रिया बाधित हुई, और इनकी मृत्यु दर भी जंगली कोपेपॉड से तीन गुना अधिक देखी गई। ऐसे प्रभाव खाद्य संजाल को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं।

अब शोधकर्ता स्क्रबर अपशिष्ट का प्रभाव मछलियों के लार्वा पर देखना चाहते हैं, क्योंकि वे कोपेपॉड की तुलना में अधिक संवेदनशील हैं। लेकिन शिपर्स वैज्ञानिकों के साथ नमूने और डैटा साझा करने में झिझक रहे हैं। क्लीन शिपिंग एलायंस 2020 के अध्यक्ष माइक कैज़मारेक का कहना है कि हम नमूने और डैटा उन संगठनों को देने के अनिच्छुक हैं जिनकी पहले से ही एक स्थापित धारणा है। हम सिर्फ उन समूहों के साथ डैटा साझा करेंगे जो तटस्थ रहकर काम करें। समाधान तो यही है कि जहाज़ों में स्वच्छ र्इंधन (मरीन गैस ऑइल) का उपयोग किया जाए। 16 देशों और कुछ क्षेत्रों ने सबसे प्रचलित स्क्रबर्स पर प्रतिबंध लगाया है, जिसके चलते स्क्रबर अपशिष्ट में चार प्रतिशत की कमी आई है। ऐसे कदम वैश्विक स्तर पर उठाने की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कोयला बिजली संयंत्रों की समय-पूर्व सेवानिवृत्ति – मारिया चिरायिल, अशोक श्रीनिवास

भारतीय बिजली क्षेत्र में ताप बिजली ने एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। हालांकि, हाल ही के घटनाक्रम ने कोयले की अब तक की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए हैं। प्रतिस्पर्धी नवीकरणीय बिजली उत्पादन की तीव्र वृद्धि, राज्यों के पास बिजली की अतिशेष उत्पादन क्षमता, अनुमानित से कम मांग और कोयला आधारित उत्पादन से जुड़े सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों जैसे विभिन्न कारकों के चलते भविष्य में कोयले पर निर्भरता कम होने की संभावना है।  

इस संदर्भ में, लगभग 20-25 वर्ष पुराने कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्रों (टीपीपी) को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने के समर्थन में चर्चा जारी है। समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के पीछे लागत में बचत और दक्षता में सुधार जैसे लाभ बताए जा रहे हैं, जो नए, सस्ते और अधिक कुशल स्रोतों द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं।        

आयु-आधारित सेवानिवृत्ति का एक कारण यह बताया जा रहा है कि पुराने संयंत्रों की दक्षता काफी कम है और इस कारण वे महंगे भी हैं। लेकिन सभी मामलों में यह बात सही नहीं है। उदाहरण के लिए रिहंद, सिंगरौली और विंध्याचल के टीपीपी 30 वर्ष से अधिक पुराने होने के बाद भी वित्त वर्ष 2020 में 70 प्रतिशत से अधिक लोड फैक्टर पर संचालित हुए हैं। इसके साथ ही इनकी औसत परिवर्तनीय लागत (वीसी) 1.7 रुपए प्रति युनिट है और कुल औसत लागत 2 रुपए प्रति युनिट है जो वित्त वर्ष 2020 में राष्ट्रीय क्रय औसत 3.6 रुपए प्रति युनिट से काफी कम है। इसके अतिरिक्त, बिजली उत्पादन की पुरानी क्षमता वर्तमान में बढ़ते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के साथ सहायक होगी और अधिकतम मांग (पीक डिमांड) को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। हालांकि, उन्हें पर्यावरणीय मानदंडों को पूरा करना होगा।       

यह स्पष्ट है कि कोयला आधारित क्षमता की सेवानिवृत्ति एक जटिल मुद्दा है और बिजली क्षेत्र के सभी हितधारकों पर इसके आर्थिक, पर्यावरणीय और परिचालन सम्बंधी दूरगामी प्रभाव भी होंगे। इसे देखते हुए वर्तमान क्षमता की सेवानिवृत्ति के सम्बंध में निर्णय के लिए ज़्यादा गहन छानबीन ज़रूरी है।

टीपीपी की समय-पूर्व सेवानिवृत्ति को निम्नलिखित कारणों से उचित ठहराया जा रहा है:

  • पुराने संयंत्र कम कुशल हैं और इनको संचालित करना भी काफी महंगा है। इसकी बजाय नई उत्पादन क्षमता का उपयोग करने से वीसी में काफी बचत हो सकती है।
  • नए संयंत्रों के बेहतर प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) से उत्पादन लागत में कमी आएगी और परिसंपत्तियों पर दबाव को कम किया जा सकता है।
  • नए संयंत्रों की बेहतर परिचालन क्षमता के कारण कोयले की बचत।
  • पुराने संयंत्रों का जीवन अंत की ओर है, ऐसे में उनके शेष जीवन में पर्यावरण मानदंडों को पूरा करने के लिए आवश्यक प्रदूषण नियंत्रण उपकरण (पीसीई) पर निवेश की प्रतिपूर्ति शायद संभव न हो।

उपरोक्त बातें एक औसत विश्लेषण के आधार पर कही जा रही हैं। अलबत्ता, ऐसे निर्णयों के लिए विस्तृत बिजली क्षेत्र मॉडलिंग पर आधारित सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने की आवश्यकता होगी।

इस तरह के विश्लेषण उपलब्ध न होने के कारण इस अध्ययन में हमने राष्ट्र स्तरीय औसत आंकड़ों के आधार पर समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के लाभों का मूल्यांकन किया है। इस अध्ययन में हमने पुरानी क्षमता के आक्रामक समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के संभावित जोखिमों पर भी चर्चा की है। 

अध्ययन में दिसंबर 2000 या उससे पहले स्थापित कोयला आधारित उत्पादन इकाइयों को पुरानी इकाइयां माना गया है क्योंकि आम तौर पर टीपीपी के लिए बिजली खरीद के अनुबंध 25 वर्ष के लिए किए जाते हैं। वैसे, अच्छी तरह से परिचालित संयंत्रों का जीवन काल 40 वर्ष तक होता है। भारत में ऐसे कोयला आधारित पुराने संयंत्रों की कुल क्षमता 55.7 गीगावॉट है। इसमें से 9.1 गीगावॉट क्षमता को पहले ही सेवानिवृत्त किया जा चुका है। यानी वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 46.6 गीगावॉट कोयला आधारित क्षमता ही उपयोग में है।

पुराने संयंत्रों की जगह नए बिजली संयंत्र लगाने के संभावित लाभ

समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के लाभ के लिए लागत में बचत को महत्वपूर्ण बताया जा रहा है। यह बचत मुख्य रूप से परिवर्तनीय लागत (वीसी) में होती है जबकि स्थिर लागत (एफसी) तो डूबी लागत है। इसलिए समय-पूर्व सेवानिवृत्ति आर्थिक रूप से व्यवहार्य होनी चाहिए और इससे वीसी में बचत होनी चाहिए। इसके लिए संभावित उम्मीदवार हैं नए कोयला-आधारित संयंत्र या नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्र।

वर्ष 2015 के बाद कोयला-आधारित ऊर्जा संयंत्रों को स्थापित करने की कुल लागत 2.5 रुपए प्रति युनिट है। नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के लिए भी वीसी लगभग इतनी ही है। अत: इस विश्लेषण में इसे ही बेंचमार्क माना गया है। इससे कम वीसी के पुराने संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना अलाभकारी होगा।

46.6 गीगावॉट पुरानी क्षमता में से 5.3 गिगावॉट के लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। 21.6 गीगावॉट को प्रतिस्थापित करना अलाभप्रद होगा क्योंकि इनकी परिवर्तनीय लागत मानक से कम है। इनकी दक्षता (59 प्रतिशत) भी औसत (56 प्रतिशत) से बेहतर है।    

शेष 19.8 गीगावॉट क्षमता की वीसी 2.5 रुपए प्रति युनिट से अधिक है। इन संयंत्रों को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने पर विचार किया जा सकता है। आगे इसी 19.8 गीगावॉट क्षमता को लेकर संभावित लागत, पीएलएफ में सुधार, और कोयला बचत के आधार पर विचार किया गया है।             

लागत में बचत, पीएलएफ में सुधार और कोयले की बचत

वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता वाले संयंत्रों ने वित्त वर्ष 2020 में 81 अरब युनिट का उत्पादन किया। 2000-पूर्व क्षमता की तुलना 2015-पश्चात स्थापित 64 गीगावॉट की कोयला-आधारित क्षमता से की गई है। 2015 के बाद स्थापित किए गए संयंत्र वित्त वर्ष 2020 में 41 प्रतिशत के औसत पीएलएफ पर संचालित किए गए।

  परिवर्तनीय लागत प्रति युनिट
  2.5 रुपए से कम 2.5 रुपए से अधिक
क्षमता (मेगावॉट) 21,500 27,760
पीएलएफ 50 प्रतिशत 28 प्रतिशत
औसत परिवर्तनीय लागत 2.06 3.04
तालिका 1: 2015 के बाद स्थापित क्षमता का विवरण

 वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता को सेवानिवृत्त करने पर 2015 के बाद स्थापित क्षमता को इस कमी को पूरा करना होता। अर्थात वित्त वर्ष 2020 में वर्ष 2015 के बाद स्थापित क्षमता को अतिरिक्त 81 अरब युनिट की पूर्ति करनी होती। इससे 2015 के बाद स्थापित क्षमता का पीएलएफ वर्तमान 41 प्रतिशत से बढ़कर 56 प्रतिशत हो जाता जो दबाव को कुछ कम करने में सहायक हो सकता था।

2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता की औसत वीसी 3.1 रुपए प्रति युनिट है जबकि 2015 के बाद के संयंत्रों के लिए यह 2.5 प्रति युनिट है। अत: इस प्रक्रिया से 81 अरब युनिट का प्रतिस्थापन प्रति वर्ष 5043 करोड़ रुपए की बचत कर सकता है। यह बचत वर्ष 2020 के सभी कोयला आधारित बिजली उत्पादन का मात्र 2 प्रतिशत है। दरअसल, बचत और भी कम होने की संभावना है।

तालिका 1 के अनुसार, वित्त वर्ष 2020 में, 2015 के बाद स्थापित कम वीसी वाले संयंत्र अधिक वीसी वाले संयंत्रों की तुलना में अधिक पीएलएफ पर संचालित हुए थे। चूंकि 2015 के बाद स्थापित किफायती संयंत्र तो पहले से ही अधिक पीएलएफ पर संचालित हैं, इसलिए 2000 से पूर्व की क्षमताओं की क्षतिपूर्ति की ज़िम्मेदारी 2015 के बाद स्थापित महंगे संयंत्रों पर ही आएगी। लिहाज़ा, बचत भी कम होगी।

इसके अतिरिक्त, वित्त वर्ष 2020 में 2000 से पूर्व स्थापित क्षमता द्वारा उत्पादित 81 अरब युनिट की औसत कोयला खपत 0.696 कि.ग्रा. प्रति युनिट रही और इसने 5.7 करोड़ टन कोयले का उपयोग किया। इन परिस्थितियों में 2015 के बाद की क्षमता पर स्थानांतरित होने से कोयले की खपत कम होगी। गौरतलब है कि वित्त वर्ष 2020 में भारत की प्रति युनिट कोयला खपत का औसत 0.612 कि.ग्रा. है जो 2000 से पहले स्थापित क्षमता से 12 प्रतिशत बेहतर है। यदि नई क्षमता से 81 अरब युनिट का उत्पादन राष्ट्रीय औसत 0.612 कि.ग्रा. प्रति युनिट की दर से किया जाए तो 5.0 करोड़ टन कोयले की आवश्यकता होगी यानी मात्र 70 लाख टन कोयले की बचत। यहां तक कि यदि औसत कोयला खपत कि.ग्रा. युनिट में 20 प्रतिशत सुधार मान लिया जाए, (यानी 0.557 कि.ग्रा. प्रति युनिट जो भारतीय उर्जा क्षेत्र में कम ही देखा गया है) तब भी 81 अरब युनिट उत्पादन में कोयले की बचत मात्र 1.2 करोड़ टन होगी। मतलब कोयले में कुल बचत मात्र 1-2 प्रतिशत ही होगी।

डैटा की अनुपलब्धता के चलते समस्त क्षमता को 2.5 रुपए प्रति युनिट ही मान लिया जाए तो भी निष्कर्ष कमोबेश ऐसे ही रहेंगे – वार्षिक वीसी में बचत लगभग 2.5 प्रतिशत और कोयले की बचत प्रति वर्ष 1.3-2.2 प्रतिशत के बीच ही रहेगी।

इस प्रकार, पुराने संयंत्रों के सेवानिवृत्त होने से बचत तो होगी लेकिन यह बचत इस क्षेत्र के पैमाने को देखते हुए बहुत अधिक नहीं है।

बचत के अलावा, मिश्रित बिजली उत्पादन के हिमायतियों का एक तर्क समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से दक्षता में सुधार भी है। हालांकि यह वांछनीय है लेकिन इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समय-पूर्व सेवानिवृत्ति एक बोथरा साधन है। अक्षमता को दंडित करने जैसे उपायों को अपनाकर अक्षम उत्पादन में कटौती की जा सकती है।  

परिवर्तनीय लागत में बचत से सेवानिवृत्ति में सुगमता

वर्ष 2000 से पहले स्थापित क्षमता की पूंजीगत लागत नई परियोजना की तुलना में कम होने की संभावना है क्योंकि इतने वर्षों में उनकी अधिकांश पूंजीगत लागत का भुगतान हो चुका होगा। इसका परिणाम कम अग्रिम (अपफ्रंट) भुगतान और पुराने टीपीपी को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने की कम लागत के रूप में होगा। भले ही 2000 से पूर्व की क्षमता को सेवानिवृत्त करने से वीसी में प्रति वर्ष मात्र 5000 करोड़ की बचत होगी, फिर भी यह फायदेमंद होगा यदि इससे पुराने संयंत्रों की एफसी का भुगतान हो जाए।

देखा जाए, तो 2000 से पूर्व की अधिकांश (60 प्रतिशत) सेवा-निवृत्ति के लिए विचाराधीन क्षमता की स्थिर लागत कम है – 40 लाख रुपए प्रति मेगावाट प्रति वर्ष से भी कम। वित्त वर्ष 2020 में इस 11.8 गिगावॉट क्षमता ने 44.6 अरब युनिट का उत्पादन किया है। इस उत्पादन की कुल लागत औसतन 3.7 रुपए प्रति युनिट है जिसमें 3.1 रुपए वीसी और 0.6 रुपए एफसी है। यह ऊर्जा खरीद लागत के राष्ट्रीय औसत 3.6 रुपए प्रति युनिट के बराबर ही है।  

वर्तमान परिदृश्य में, यदि इस 11.8 गिगावॉट उत्पादन को 2015 के बाद के उत्पादन से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है (जिसकी औसत वीसी 2.5 रुपए प्रति युनिट है) तो इससे वीसी में 2447 करोड़ रुपए की सालाना बचत होगी। वहीं दूसरी ओर, वित्त वर्ष 2020 में इस क्षमता के लिए भुगतान की गई एफसी 3083 करोड़ रुपए थी। लिहाज़ा अकेले समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से वीसी में बचत द्वारा एफसी की भरपाई की संभावना बहुत कम है।

वैसे वीसी में बचत की ही तरह वीसी और एफसी भुगतान की तुलना भी सीधा-सा मामला नहीं है। इसके लिए गहन विश्लेषण की आवश्यकता है। समय से पहले सेवानिवृत्ति के लिए भुगतान की जाने वाली वास्तविक एफसी विभिन्न कारकों पर निर्भर करेगी।

अक्षय उर्जा से प्रतिस्थापन पर विचार

अब तक की गई चर्चा में सिर्फ ऐसे परिदृश्य पर विचार किया है जिसमें सभी कोयला आधारित उत्पादन को उसी के समान आधुनिक विकल्पों से बदला जाएगा। वास्तव में हटाए गए कोयला उत्पादन को कोयला और नवीकरणीय ऊर्जा के मिश्रित उपयोग से बदलने की संभावना है। इसलिए, सभी पुराने कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलने के निहितार्थ को समझना काफी दिलचस्प होगा।

इस बात पर ज़ोर दिया जाना चाहिए कि नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन परिवर्तनशील और अनिरंतर है। उदाहरण के लिए, सौर ऊर्जा केवल दिन के समय और हवा कुछ विशेष मौसमों में उपलब्ध होती है। इसके अलावा, नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग गुणांक ताप-बिजली की तुलना में काफी कम है। इसलिए, नवीकरणीय ऊर्जा से उसी समय पर बिजली सप्लाई नहीं की जा सकती जिस समय कोयला आधारित उत्पादन से की जाती थी। इस कारण, नवीकरणीय ऊर्जा और कोयला आधारित उत्पादन के बीच तुलना उपयुक्त नहीं है। लेकिन यहां हम सभी पुराने कोयला आधारित उत्पादन को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलने की व्यापक समझ के लिए ऐसा कर रहे हैं।                             

यदि प्रतिस्थापन नवीकरणीय ऊर्जा से करना है तो नए टीपीपी के कम पीएलएफ में सुधार और ऐसी तनावग्रस्त परिसंपत्तियों को संबोधित करने से लाभ नहीं मिलेगा। वहीं दूसरी ओर, नवीकरणीय ऊर्जा की ओर प्रतिस्थापन से कोयले की बचत अधिक होगी। लेकिन नवीकरणीय उर्जा की उत्पादन लागत लगभग 2.5 रुपए प्रति युनिट के मानक के बराबर है, ऐसे में अनुमानित वीसी में बचत पहले जितनी ही होने की संभावना है। यह देखते हुए कि पुराने कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को पूरी तरह से नवीकरणीय ऊर्जा से बदलना और इनका मिश्रित उपयोग करना संभव नहीं है, मामले की गहरी छानबीन ज़रूरी है।

प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों (पीसीई) में सुधार से संभावित लाभ

दिसंबर 2015 में संशोधित पर्यावरण मानकों के अनुपालन के लिए टीपीपी को पीसीई स्थापित करने या अन्य समाधान लागू करने के लिए अतिरिक्त खर्च करना होगा। ताप बिजली उत्पादन से होने वाले प्रदूषण को देखते हुए इन मानदंडों का पालन महत्वपूर्ण है। लेकिन यह अतिरिक्त पूंजीगत व्यय खासकर पुराने टीपीपी के लिए चिंता का विषय है। यह देखते हुए कि पुराने टीपीपी अपने अंत की ओर हैं, उनके शेष जीवन में ऐसे निवेश की भरपाई करना मुश्किल हो सकता है। इसलिए यह दलील दी गई है कि पीसीई पर अतिरिक्त पूंजीगत खर्च करने की बजाय पुराने कोयला संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना बेहतर है।

पीसीई लागत चिंता का विषय है। हालांकि, यह मुद्दा सिर्फ परियोजना की अवधि से सम्बंधित नहीं है। डैटा से पता चलता है कि 2000 से पूर्व शुरू की गई 46.6 गिगावॉट क्षमता में से 14.9 गिगावॉट की कुल लागत (यानी एफसीअवीसी) 3 रुपए प्रति युनिट से भी कम है। शुल्क पर पीसीई का प्रभाव 0.25-0.75 रुपए प्रति युनिट के आसपास होगा। यदि इसे 1 रुपए प्रति युनिट भी मान लिया जाए तो वर्ष 2000 से पूर्व पीसीई के साथ स्थापित 14.9 गिगावॉट उत्पादन का कुल शुल्क 4 रुपए प्रति युनिट से कम ही रहेगा। अर्थात यह राष्ट्रीय औसत बिजली खरीद लागत (3.6 रुपए प्रति युनिट) से बहुत अधिक नहीं होगा।

इसके अलावा, वर्ष 2000 से पूर्व शुरू की गई 46.6 गिगावॉट क्षमता में से 23.6 गिगावॉट में पीसीई स्थापित करने हेतु निविदाएं जारी हो चुकी हैं। कुछ निवेश किए जा चुके हैं। इसमें से 14.2 गिगावॉट के लिए तो बोलियां मंज़ूर की जा चुकी हैं और इनमें से भी 1995 के पूर्व स्थापित 80 मेगावॉट क्षमता में पहले से ही पीसीई लगाए जा चुके हैं। स्पष्ट है कि कुछ पुराने संयंत्र पहले ही पीसीई सम्बंधी व्यय कर चुके हैं और अन्य भी ऐसे खर्च के बावजूद व्यवहार्य हो सकते हैं। ऐसा विचार भी किया जा रहा है कि यदि पीसीई पर और अधिक निवेश करने से जन-स्वास्थ्य में लाभ होता है तो इस खर्च को उचित माना जा सकता है।

और तो और, 1 अप्रैल 2021 को मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, सेवानिवृत्ति के करीब पहुंच चुके पुराने संयंत्र भी थोड़ी पेनल्टी का भुगतान करके पीसीई स्थापित किए बिना उत्पादन जारी रख सकते हैं। ऐसे में उन्हें कानूनी तौर पर पीसीई स्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कुल मिलाकर, पेनल्टी के कारण पुराने संयंत्रों से उत्पादन लागत में वृद्धि हो जाएगी जिसके परिणास्वरूप उन संयंत्रों से उत्पादन कम हो जाएगा।

इसलिए, पीसीई स्थापना की वित्तीय व्यवहार्यता के सम्बंध में सिर्फ आयु के आधार पर सेवानिवृत्ति करना एक प्रभावी उपाय नहीं है। इसकी बजाय अधिक उपयुक्त तो यह होता कि सेवानिवृत्ति के सम्बंध में निर्णय इकाई के आधार पर किए जाते जिसमें शेष जीवन, पीएलएफ, उत्पादन की वर्तमान लागत, पर्यावरण मानदंडों को पूरा करने के लिए आवश्यक उपायों की लागत, आदि बातों को ध्यान में रखा जाता।

समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के उपेक्षित पहलू

कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने के लाभों पर चर्चा के दौरान अक्सर इन संयंत्रों के संचालन के लाभों और सेवानिवृत्ति के नतीजों पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

उदाहरण के लिए, यह ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से बचत के सभी दावे पुराने ऊर्जा संयंत्रों की क्षमता के महत्व को हिसाब में नहीं लेते हैं। बढ़ती अक्षय ऊर्जा उत्पादन वाली बिजली प्रणाली में, वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित क्षमताएं मौसमी और पीक डिमांड को पूरा करने में सहायक हो सकती हैं। यदि ऐसे लाभों पर विचार किया जाए तो समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से होने वाली संभावित बचत काफी कम हो नज़र आएगी।   

इसके अतिरिक्त, कोयला आधारित क्षमताओं की समय-पूर्व अनियोजित सेवानिवृत्ति के विचित्र परिणाम हो सकते हैं। आक्रामक समय-पूर्व सेवानिवृत्ति की वजह से बिजली के अभाव की मानसिकता उत्पन्न हो सकती है, खास तौर से राज्यों में। चूंकि कथित अभाव राज्य की ऊर्जा राजनीति के लिए अभिशाप हैं, इससे हड़बड़ी में कोयला आधारित क्षमता में निवेश की नई लहर उठ सकती है जो सरकारी संस्थानों में केंद्रित होगी।   

उदाहरण के लिए हालिया अतीत में महाराष्ट्र और तेलंगाना जैसे राज्यों में खराब नियोजन और अभाव की धारणा के कारण उत्पादन क्षमता में अत्यधिक वृद्धि की गई है। इसका एक और ताज़ा उदाहरण मुंबई में देखा गया जब शहर में एक दिन के लिए बिजली गुल होने पर नई उत्पादन क्षमता के लिए प्रयास किए जाने लगे थे। 

इसलिए, हो सकता है कि समय-पूर्व अनियोजित सेवानिवृत्ति से अनावश्यक क्षमता वृद्धि हो जिसके अपने आर्थिक व पर्यावरणीय निहितार्थ होंगे।

अनावश्यक ज़ोर

जैसा कि हमने देखा, आयु के आधार पर टीपीपी को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने से किसी उल्लेखनीय बचत की संभावना नहीं है। परिवर्तनीय लागत में वार्षिक बचत लगभग 2 प्रतिशत और वार्षिक कोयला बचत 1-2 प्रतिशत ही होगी।     

प्रणाली की दक्षता में सुधार एक वांछित लक्ष्य है लेकिन समय-पूर्व सेवानिवृत्ति की बजाय अन्य विकल्प इस दृष्टि से अधिक प्रभावी होंगे।

यह तर्क भी ठीक नहीं है कि पर्यावरणीय उपाय स्थापित करने पर पुराने संयंत्र अव्यावहारिक हो जाएंगे। दरअसल, इनमें से कई संयंत्र उसके बाद भी आर्थिक रूप से लाभदायक रहेंगे। और तो और, मंत्रालय ने यह दिशानिर्देश भी जारी कर दिया है कि पुराने संयंत्र सेवानवृत्ति की तारीख तक बगैर ऐसे उपकरण स्थापित किए भी चल सकते हैं।

कहने का मतलब यह नहीं है कि पुराने संयंत्रों में किसी को भी समय-पूर्व सेवानिवृत्त नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, संयंत्रों और इकाइयों पर अलग-अलग अधिक विस्तृत विश्लेषण किया जाना चाहिए। ऐसा करके यह पता लगाया जा सकता है कि कौन-सी विशिष्ट इकाइयों/संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना लाभदायक हो सकता है।

किसी भी निर्णय के लिए गहन विश्लेषण की ज़रूरत होगी जिसमें कई मापदंडों का ध्यान रखना होगा – जैसे संयंत्र/इकाई स्तर का विवरण, संविदात्मक प्रतिबद्धताएं, भार की प्रकृति, उत्पादन की प्रकृति, क्षमता का महत्व, आदि। पर्याप्त विश्लेषण के बिना समय-पूर्व सेवानिवृत्ति अनुपयुक्त उपाय प्रतीत होता है और बेहतर होगा कि अतिरिक्त कोयला आधारित क्षमता वृद्धि को रोका जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हबल दूरबीन लौट आई है!

प्रतिष्ठित अंतरिक्ष दूरबीन हबल में लगभग एक महीने पहले कंप्यूटर सम्बंधी गड़बड़ी आ जाने के कारण उसने काम करना बंद कर दिया था, अब यह फिर से काम करने लगी है। साइंस पत्रिका के अनुसार दूरबीन का नियंत्रण ऑपरेटिंग पेलोड कंट्रोल कंप्यूटर से हटाकर बैकअप उपकरणों पर लाने के बाद हबल दूरबीन के सभी उपकरणों के साथ पुन: संवाद स्थापित कर लिया गया है।

दरअसल 13 जून को हबल के विज्ञान उपकरणों को नियंत्रित करने वाला और इनकी सेहत की निगरानी करने वाला पेलोड कंप्यूटर उपकरणों के साथ संवाद नहीं कर पा रहा था, इसलिए उसने इन्हें सामान्य मोड से हटाकर सुरक्षित मोड में डाल दिया था। हबल के ऑपरेटरों को पहले तो लगा कि मेमोरी मॉड्यूल में गड़बड़ी हुई होगी जिसके चलते यह समस्या हो रही है। लेकिन तीन में से एक बैकअप मॉड्यूल पर डालने के बावजूद भी समस्या बरकरार थी। कई अन्य उपकरणों को भी जांचा गया लेकिन गड़बड़ी का कारण उनमें भी नहीं मिला।

अंतत: यह निर्णय लिया गया कि पूरी की पूरी साइंस इंस्ट्रूमेंट कमांड एंड डैटा हैंडलिंग (SIC&DH) युनिट को बैकअप पर डाल दिया जाए, पेलोड कंप्यूटर इस युनिट का ही एक हिस्सा है। मरम्मत दल ने पहले पृथ्वी पर ही हार्डवेयर के साथ इस पूरी प्रक्रिया का अभ्यास किया और यह सुनिश्चित किया कि ऐसा करने से दूरबीन को कोई अन्य नुकसान न पहुंचे। युनिट को जैसे ही स्थानांतरित करना शुरू किया गया समस्या की जड़ पकड़ में आ गई। समस्या SIC&DH के पावर कंट्रोल युनिट में थी। यह युनिट पेलोड कंप्यूटर को स्थिर वोल्टेज देता है और समस्या इस कारण थी कि या तो सामान्य से कम-ज़्यादा वोल्टेज मिल रहा था या वोल्टेज का पता लगाने वाला सेंसर गलत रीडिंग दे रहा था। चूंकि SIC&DH में अतिरिक्त पॉवर कंट्रोल युनिट भी होती है इसलिए पूरी युनिट को बैकअप पर डाला जाना जारी रहा।

हबल मिशन कार्यालय के प्रमुख टॉम ब्राउन ने बताया कि SIC&DH के साइड ए पर हबल को सामान्य मोड में सफलतापूर्वक ले आया गया है। यदि सब कुछ सामान्य रहा तो इस सप्ताहांत तक हबल फिर से अवलोकन का अपना काम शुरू कर देगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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