यह तो जानी-मानी बात है कि
बुढ़ापे के साथ दिमाग धीमा होने लगता है, आप भूलने लगते हैं और
नए हुनर सीखने में परेशानी महसूस करते हैं। लेकिन अब चूहों पर किए गए प्रयोगों ने
उम्मीद की एक धुंधली सी किरण दिखाई है। इस शोध ने दर्शाया है कि युवा चूहे के आमत
के बैक्टीरिया (मल के रूप में) बूढ़े चूहों को देने पर बुढ़ाते दिमाग के कुछ लक्षण
पलटे जा सकते हैं।
वैज्ञानिकों का मत है कि हमारी आंत में बसने वाले
बैक्टीरिया हमारे मूड से लेकर आम तंदुरुस्ती तक हर चीज़ को प्रभावित करते हैं। और
आंतों का यह सूक्ष्मजीव संसार उम्र के साथ बदलता रहता है। लेकिन इसका असर भलीभांति
परखा नहीं गया था।
इसी असर को परखने के लिए शोधकर्ताओं ने 3-4 माह के चूहों की
विष्ठा के नमूने लिए (3-4 माह चूहों की जवानी होती है) और इन्हें 20 माह उम्र के
चूहों में प्रत्यारोपित कर दिया (20 माह के चूहे वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में आते
हैं)। तुलना के लिए कुछ चूहों को उनकी ही उम्र के चूहों की विष्ठा दी गई थी (यानी
युवाओं को युवाओं की तथा बूढ़ों को बूढ़ों की)।
शोधकर्ताओं ने सबसे पहले तो यह देखा कि युवा चूहों का
सूक्ष्मजीव संसार पाने वाले बूढ़े चूहों का सूक्ष्मजीव संसार युवाओं के समान हो गया
था। उदाहरण के लिए युवाओं की आंत में बहुतायत से पाए जाने वाले एंटरोकॉकस
बैक्टीरिया बूढ़ो में भी प्रचुर हो गए।
और तो और, दिमाग पर भी असर देखा गया। दिमाग का हिप्पोकैम्पस नामक हिस्सा सीखने तथा याददाश्त से सम्बंधित होता है। युवा विष्ठा पाने के बाद बूढ़े चूहों में भी यह हिस्सा भौतिक व रासायनिक रूप से युवा चूहों जैसा हो गया। यह भी देखा गया कि युवा विष्ठा पाए बूढ़े चूहे भूलभुलैया वाली पहेलियां सुलझाने में भी बेहतर हो गए और भूलभुलैया के रास्तों को याद रखने में भी निपुण साबित हुए। युनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क के तंत्रिका वैज्ञानिक जॉन क्रायन और उनके साथियों द्वारा नेचर एजिंग नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित परिणामों के मुताबिक हमउम्र चूहों की विष्ठा के ऐसे कोई असर नहीं हुए।
शोधकर्ताओं ने बताया है कि कुछ चीज़ें नहीं बदलीं। जैसे इस उपचार के बाद बूढ़े चूहे ज़्यादा मिलनसार नहीं हुए थे। आंतों के कई बैक्टीरिया वैसे के वैसे बने रहे। वैसे अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि इस टीम ने अभी प्रामाणिक रूप से यह नहीं दर्शाया है कि आंतों का सूक्ष्मजीव संसार किस हद तक बदला और क्या स्थायी रूप से बदल गया। वैसे क्रायन ने चेताया है अभी तुरंत मनुष्यों पर छलांग लगाने का वक्त नहीं आया है क्योंकि ऐसे अन्य अध्ययनों के परिणाम मिश्रित रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-thumbnailer.cdn-si-edu.com/4F4WL8ikhPZvBde0IidruAppsiw=/1000×750/filters:no_upscale()/https://tf-cmsv2-smithsonianmag-media.s3.amazonaws.com/filer/0a/b6/0ab62b3b-12b8-4ab0-a9e1-34958bb8ae66/gettyimages-579216324.jpg
कोविड-19 वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने की संभावना पर
चर्चा जारी है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो इसे ‘चीनी वायरस’ तक कहा। दूसरी ओर, कई शोधकर्ताओं ने दी लैसेंट के माध्यम से प्रयोगशाला उत्पत्ति के
सिद्धांत को खारिज कर दिया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के संयुक्त
मिशन की रिपोर्ट में भी वायरस के प्रयोगशाला जनित होने के सिद्धांत को ‘असंभाव्य’
बताया गया था।
फिर इस वर्ष के वसंत तक कुछ बदलाव देखने को मिले और ऐसा लगने लगा कि वायरस की
प्रयोगशाला उत्पत्ति की परिकल्पना को सस्ते में खारिज कर दिया गया था। एक नोबेल
पुरस्कार विजेता ने वैज्ञानिकों और मुख्यधारा के मीडिया पर ‘पर्याप्त साक्ष्य’ की
अनदेखी करने का आरोप लगाया। डब्ल्यूएचओ के प्रमुख ने भी संयुक्त मिशन के
निष्कर्षों पर शंका ज़ाहिर की और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने खुफिया समुदाय को
वायरस के प्रयोगशाला से निकलने की संभावना का पुनर्मूल्यांकन करने का आदेश दिया।
इसके साथ ही वायरोलॉजी और इवॉल्यूशनरी बायोलॉजी के जाने-माने विशेषज्ञों सहित 18
वैज्ञानिकों ने साइंस में प्रकाशित एक पत्र के माध्यम से ‘प्रयोगशाला
उत्पत्ति’ का अधिक संतुलित मूल्यांकन करने का आह्वान किया। अलबत्ता, बाइडेन द्वारा गठित खुफिया समुदाय भी किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका और
फिलहाल वायरस उत्पत्ति प्राकृतिक स्रोत से ही नज़र आ रही है।
यह तो ज़ाहिर है कि इन सवालों की छानबीन के लिए साक्ष्य हेतु चीन का सहयोग ज़रूरी
है लेकिन चीन की ओर से संयुक्त मिशन के दौरान उचित सहयोग नहीं मिल सका है। चीनी
अधिकारियों ने वुहान की प्रयोगशालाओं के स्वतंत्र ऑडिट से भी इन्कार किया है। बढ़ते
दबाव के चलते चीन ने संयुक्त मिशन द्वारा सुझाए गए अध्ययनों पर रोक लगा दी है
जिनसे अलग-अलग प्रजातियों के बीच वायरस के संचरण का पता लगाया जा सकता था। अलबत्ता, मौजूदा साक्ष्य, महामारी के शुरुआती पैटर्न, सार्स-कोव-2 की जेनेटिक बनावट और वुहान पशु बाज़ार पर हालिया शोध पत्र के आधार
पर कई वैज्ञानिकों का मानना है कि यह वायरस भी अन्य रोगजनकों के समान प्राकृतिक तौर
पर जीवों से मनुष्यों में आया है।
युनिवर्सिटी ऑफ एरिज़ोना के इवॉल्यूशनरी जीव विज्ञानी माइकल वोरोबे इन
साक्ष्यों के आधार पर प्रयोगशाला उत्पत्ति की बात से दूर हटे हैं। वोरोबे एचआईवी
और 1918 के फ्लू की उत्पत्ति पर महत्वपूर्ण कार्य कर चुके हैं और उन्होंने उपरोक्त
पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। उनका तथा एक अन्य हस्ताक्षरकर्ता फ्रेड हचिन्सन कैंसर
रिसर्च सेंटर के जीव विज्ञानी जेसी ब्लूम का कहना है इस बहस ने राजनैतिक तनाव
बढ़ाने का काम किया है और इसके चलते चीन से जानकारी प्राप्त करना मुश्किल हो गया
है।
देखा जाए तो प्रयोगशाला से उत्पत्ति की मूल परिकल्पना निकटता पर आधारित है –
नया कोरोनावायरस एक ऐसे शहर में पाया गया जहां वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी
(डब्ल्यूआईवी) स्थित है। डब्ल्यूआईवी और दो अन्य छोटी प्रयोगशालाओं में काफी समय
से चमगादड़ कोरोनावायरस पर अध्ययन किए जा रहे हैं। संभावना यह जताई गई है कि
प्रयोगशाला के कुछ कर्मचारी दुर्घटनावश संक्रमित हुए और अन्य लोगों को भी संक्रमित
किया। गौरतलब है कि प्रयोगशाला आधारित दुर्घटनाएं कोई नई बात नहीं है; सार्स का वैश्विक प्रकोप खत्म होने के बाद शोधकर्ता इससे 6 बार संक्रमित हुए
हैं।
ऐसा ज़रूरी नहीं कि शोधकर्ता का सार्स-कोव-2 से संक्रमण वुहान में हुआ हो। ब्रॉड
इंस्टीट्यूट की शोधकर्ता और उपरोक्त पत्र की हस्ताक्षरकर्ता एलीना चैन ने 2018 के
एक अध्ययन का हवाला दिया है जिसमें 218 लोगों के रक्त के नमूने लिए गए थे जो शहर
से 1000 किलोमीटर दूर ऐसी गुफाओं के पास रहते थे जिनमें बड़ी संख्या में चमगादड़ पाए
जाते हैं। इनमें से 6 लोगों में एंटीबॉडी की उपस्थिति से कोरोनावायरस संक्रमण की
संभावना दिखी थी। यह कोरोनावायरस सार्स-कोव और सार्स-कोव-2 से काफी निकटता से
सम्बंधित है। चैन के अनुसार वुहान के शोधकर्ता अक्सर वहां आते-जाते थे और यह वायरस
संक्रमित लोगों से उनमें प्रवेश कर गया होगा।
हालांकि,
डब्ल्यूआईवी की प्रमुख चमगादड़ कोरोनावायरस वैज्ञानिक शी
ज़ेंगली ने कोविड-19 का प्रकोप शुरू होने के समय प्रयोगशाला में किसी के बीमार होने
की बात से इन्कार किया है। दूसरी ओर, यूएस डिपार्टमेंट ऑफ
स्टेट ने 2019 की शरद ऋतु में डब्ल्यूआईवी में शोधकर्ताओं के बीमार होने की आशंका
जताई थी। दी वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार एक अज्ञात यूएस इंटेलिजेंस
रिपोर्ट में यह ज़ाहिर किया गया है कि नवंबर 2019 में डब्ल्यूआईवी के तीन
शोधकर्ताओं ने अस्पताल में इलाज चाहा था। हालांकि रिपोर्ट में बीमारी के बारे में
कोई जानकारी नहीं है और कई लोगों का कहना है चीन के अस्पताल सभी बीमारियों का इलाज
करते हैं।
टूलेन युनिवर्सिटी के वायरोलॉजिस्ट रोबेरी गैरी वुहान के कर्मचारी के संक्रमित
होने और शहर में वायरस के फैलाने की घटना को असंभव मानते हैं। जैसा कि डब्ल्यूआईवी
का अध्ययन बताता है कि गुफाओं के पास रहने वाले लोगों में संक्रमण आम बात है। तो
सवाल यह है कि यह वायरस कुछ शोधकर्ताओं को ही क्यों निशाना बनाएगा। हो सकता है कि
इस वायरस ने भी मनुष्यों में प्रवेश करने से पहले किसी अन्य जीव में प्रवेश किया
हो। फिर भी यह सवाल है कि इसने सबसे पहले प्रयोगशाला के कर्मचारी को कैसे संक्रमित
किया?
गैरी का यह भी कहना है कि डैटा से यह भी पता चला है कि
कोविड-19 के शुरुआती मामलों का सम्बंध वुहान के विभिन्न बाज़ारों से था। इससे लगता
है कि वायरस ने संक्रमित जीवों और पशु व्यापारियों के माध्यम से शहर में प्रवेश
किया था।
लेकिन उपरोक्त पत्र के एक हस्ताक्षरकर्ता स्टेनफोर्ड युनिवर्सिटी के डेविड
रेलमन के मुताबिक कोविड-19 के शुरुआती डैटा की बहुत कमी है जिसके कारण कोई स्पष्ट
चित्र नहीं उभर पा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार वायरस का लीक होना तभी संभव
है जब जीवित वायरस को कल्चर किया जा रहा हो जो काफी मुश्किल काम है। शी के मुताबिक
उनकी प्रयोगशाला में 2000 से अधिक चमगादड़ के विभिन्न नमूने हैं जिनमें से पिछले 15
वर्षों में केवल तीन वायरसों को अलग करके विकसित किया गया है और तीनों ही
सार्स-कोव-2 से सम्बंधित नहीं हैं। कुछ लोगों ने शी पर सरकार के दबाव की बात कही
है लेकिन चीन के बाहर के तमाम वैज्ञानिक शी की सत्यनिष्ठा पर पूरा भरोसा करते हैं।
महामारी के स्रोत सम्बंधी सारी अटकलें 6 व्यक्तियों पर केंद्रित है जिन्हें
वर्ष 2012 में मोजियांग स्थित तांबे की खदान में चमगादड़ों का मल साफ करने के बाद
गंभीर श्वसन रोग हुआ था। इनमें से तीन की तो मृत्यु हो गई थी। प्रयोगशाला से वायरस
निकलने के सिद्धांत का समर्थन करने वालों का मानना है कि ये लोग कोरोनावायरस से
संक्रमित हुए थे। उनका मानना है कि यह वायरस या तो सार्स-कोव-2 था या बाद में इसे
आनुवंशिक रूप से परिवर्तित करके सार्स-कोव-2 को तैयार किया गया है। वास्तव में जब
खदान के कर्मचारी बीमार हुए थे तब शी और उनके सहयोगियों ने विभिन्न समय पर
चमगादड़ों के नमूने एकत्रित किए थे। उन्होंने इन नमूनों में नौ नए प्रकार के
सार्स-सम्बंधित वायरस का पता लगाया था।
शी बताती हैं कि खदान में काम करने वाले कर्मचारियों के रक्त परीक्षण में
कोरोनावायरस या एंटीबॉडी के साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं। इस विश्लेषण में काम
करने वाले आणविक जीवविज्ञानी लिन्फा वैंग के मुताबिक खदान में मिले सार्स-कोव-2 से
सम्बंधित साक्ष्यों को दबाने की बात बेतुकी है क्योंकि वे तो यह सिद्ध करना चाहते
थे कि यह बीमारी कोरोनावायरस के कारण हुई थी और यदि ऐसा पता चलता तो वे इसे तुरंत
प्रकाशित करते। कई अन्य वैज्ञानिकों ने भी वैंग का समर्थन किया है लेकिन उनका
मानना है कि अधिक पारदर्शिता से मामले को सुलझाया जा सकता है।
प्रयोगशाला उत्पत्ति के सबसे इन्तहाई तर्क के अनुसार सार्स-कोव-2 डब्ल्यूआईवी
में जानबूझकर तैयार किया गया है। ऐसे में न सिर्फ चीन की निंदा होगी बल्कि
वायरोलॉजी के क्षेत्र को भी गंभीर नुकसान होगा। पिछले एक दशक में ‘गेन-ऑफ-फंक्शन’
(जीओएफ) सम्बंधी शोध के वैज्ञानिक महत्व पर तीखी चर्चा हुई है। गेन-ऑफ-फंक्शन शोध
में ऐसे रोगजनकों का निर्माण किया जाता है जो मनुष्यों में अधिक संक्रामक होते
हैं। कुछ जीओएफ अध्ययन भविष्य में आने वाले खतरों की पहचान करने और उनको खत्म करने
में मदद करते हैं लेकिन आलोचकों का मत है कि इसके फायदे नए रोगजनकों को बनाने और
निकल भागने के जोखिम की तुलना में बहुत कम हैं।
पूर्व में शी ने कोरोनावायरस को विकसित करने में कठिनाइयों के कारण कुछ
शिमेरिक (मिश्रित) वायरस तैयार किए थे। डब्ल्यूआईवी में विकसित इन मिश्रित वायरसों
में ऐसे चमगादड़ कोरोनावायरस की जेनेटिक सामग्री का उपयोग किया गया जिसे प्रयोगशाला
में कल्चर किया जा सकता था और नए कोरोनावायरस के स्पाइक प्रोटीन जीन्स जोड़े गए थे।
वैज्ञानिक इसे जीओएफ शोध नहीं मानते। शी का कहना है कि उनकी टीम द्वारा तैयार किया
गया वायरस किसी भी प्रकार से मूल वायरस से अधिक खतरनाक होने की आशंका नहीं थी।
अलबत्ता,
प्रयोगशाला-उत्पत्ति के समर्थकों का कहना है कि हो सकता है
कि सार्स-कोव-2 शी द्वारा तैयार किया गया कोई मिश्रित वायरस ही हो। वे यह भी कहते
हैं कि उसी समय प्रयोगशाला में जैव सुरक्षा सम्बंधी ढील भी दी गई थी। हालांकि शी
इस बात पर ज़ोर देती हैं कि उन्होंने अपना काम चीनी नियमों के अनुसार किया है और
किसी तरह की सुरक्षा ढील नहीं दी गई थी।
हालांकि अभी तक कोई भी ऐसा वायरस नहीं मिला है जो इसको तैयार करने की
प्रारंभिक सामग्री के रूप में उपयोग किया जा सके। कुछ लोग मोजियांग खदान में मिले
वायरस RaTG13 को सार्स-कोव-2 के मुख्य आधार के रूप में देखते हैं लेकिन सेल में
प्रकाशित एक पेपर के अनुसार दोनों के बीच 1100 क्षार का अंतर है और ये अंतर पूरे
आरएनए में बिखरे हुए हैं।
इस विषय में वायरोलॉजिस्ट और नोबेल पुरस्कार विजेता डेविड बाल्टीमोर द्वारा
सार्स-कोव-2 को प्रयोगशाला में तैयार करने सम्बंधी साक्ष्य भी गैर-तार्किक हैं।
उनका कहना था कि वायरस के स्पाइक पर एक क्लीवेज साइट होती है जहां फ्यूरिन नामक
मानव एंज़ाइम प्रोटीन को तोड़ता है और सार्स-कोव-2 को कोशिकाओं को प्रवेश करने में
मदद करता है। प्रयोगशाला उत्पत्ति के समर्थकों का मत है कि यह क्लीवेज साइट
प्रयोगशाला में जोड़ी गई है। लेकिन यह आगे चलकर गलत साबित हुआ। गौरतलब है कि इस
जीनस के कई सदस्यों में फ्यूरिन क्लीवेज साइट कुदरती रूप से मौजूद होती हैं और कई
बार विकसित हुई हैं। यह बात सामने आने के बाद बाल्टीमोर ने अपना बयान वापिस ले
लिया है।
प्रयोगशाला-उत्पत्ति के पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि वायरस को
प्रयोगशाला में आनुवंशिक रूप से परिवर्तित करने की बजाय हो सकता है कि किसी वायरस
को प्रयोगशाला में बार-बार संवर्धित किया गया होगा ताकि हर बार होने वाले
उत्परिवर्तन इकट्ठे होते जाएं। लेकिन इसके लिए भी सार्स-कोव-2 के किसी निकट
सम्बंधी से शुरुआत करनी होगी। इस तरह का कोई प्रारंभिक वायरस किसी प्रयोगशाला में
उपस्थित नहीं है। दरअसल अमेरिकी खुफिया समुदाय भी सार्स-कोव-2 के मानव-निर्मित
होने के सुझाव को खारिज कर चुका है। उसकी रिपोर्ट में भी कहा गया कि इस वायरस को
आनुवंशिक रूप से तैयार नहीं किया गया है।
हुआनन सीफूड बाज़ार में अचानक से निमोनिया के मामलों में वृद्धि के बाद 31
दिसंबर 2019 को आधिकारिक रूप से महामारी की घोषणा की गई थी। हालांकि डब्ल्यूएचओ की
रिपोर्ट ने हुआनन व अन्य बाज़ारों पर काफी ध्यान दिया लेकिन अस्पष्टता बनी रही
क्योंकि कई मामलों का किसी भी बाज़ार से कोई सम्बंध नहीं था।
लेकिन डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में बताया गया था कि वैज्ञानिकों ने वुहान बाज़ार
के फर्श,
दीवारों और अन्य सतहों से कई नमूने एकत्रित किए थे जिससे
पता चला था कि बाज़ार वायरसों से भरा हुआ था। वैंग बताते हैं कि पर्यावरण के नमूनों
से कोरोनावायरस को अलग करना एक मुश्किल कार्य है। इसके अतिरिक्त इस रिपोर्ट में
कुछ बड़ी त्रुटियां भी हैं। जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है कि शुरुआती मामलों के
सम्बंध में हुआनन और अन्य बाज़ार में 2019 में जीवित स्तनधारी बेचे जाने की
सत्यापित रिपोर्ट नहीं मिली है। लेकिन चाइना वेस्ट नार्मल युनिवर्सिटी के
ज़ाउ-ज़ाओ-मिन और उनके साथियों ने जून में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें इस तथ्य
को चुनौती दी गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार मई 2017 से नवंबर 2019 के बीच हुआनन और
वुहान के तीन बाज़ारों की 17 दुकानों में 38 प्रजाति के लगभग 50,000 जीवित जीव बेचे
गए थे।
गौरतलब है कि मांस की बजाय जीवित जीवों से श्वसन सम्बंधी वायरस के फैलने की
अधिक संभावना होती है। इन जीवों में ऐसे जीव थे जो प्राकृतिक रूप से इस वायरस के
वाहक होते हैं और प्रयोगशाला में इनको सार्स-कोव-2 से संक्रमित भी किया जा चुका
है। यह अभी तक स्पष्ट नहीं कि डब्ल्यूएचओ के संयुक्त मिशन में शामिल चीनी सदस्यों
ने बाज़ार में जीवित स्तनधारियों के बारे में कोई जानकारी क्यों नहीं दी।
हो सकता है कि जीवों से मनुष्यों में जाने-आने की प्रक्रिया के दौरान वायरस
लगातार नए मेज़बान के अनुसार ढलता गया। यह प्रक्रिया काफी समय तक चलती रही होगी
जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया गया और बीमारी का गंभीर रूप लेने के बाद यह उभरकर सामने
आया। यह भी संभव है कि वायरस ने पहले किसी किसान को दूरदराज़ के ग्रामीण क्षेत्र
में संक्रमित किया होगा और वहां से यह वुहान बाज़ार में प्रवेश कर गया। कुछ
वैज्ञानिकों ने फर उद्योग की ओर भी ध्यान दिलाया है जहां मनुष्य रैकून डॉग और
लोमड़ियों के संपर्क में आते हैं।
हालांकि कुछ भी स्पष्ट रूप से कहने के लिए वैज्ञानिक मनुष्यों में कोविड के शुरुआती मामलों के बारे में अधिक जानकारी चाहते हैं और डब्ल्यूआईवी से चमगादड़ कोरोनावायरस का जीनोम अनुक्रम हासिल करना चाहते हैं जिसको चीन ने वेबसाइट हैक होने का कारण बताकर सितंबर 2019 में इंटरनेट से हटा लिया था। यदि यह डैटा प्राप्त हो जाता है तो काफी जानकारी प्राप्त हो सकती है। चीन की ओर से भी यह दावा किया जा रहा है कि यह वायरस फ्रोज़न फूड के माध्यम से किसी अन्य देश से चीन में आया है और जिसका इल्ज़ाम झूठे प्रचार के माध्यम से अमेरिका द्वारा चीन पर लगाया जा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार चीन हर संभव प्रयास कर रहा है जिससे यह साबित किया जा सके कि इस महामारी की शुरुआत चीन के बाहर से हुई है। इस संदर्भ में अन्य स्थानों पर किए गए अध्ययनों से काफी चुनौतीपूर्ण परिणाम सामने आए हैं। पड़ोसी देशों के चमगादड़ों में कोरोनावायरस मिला है जिससे सार्स-कोव-2 के उत्पन्न होने के जैव विकास मार्ग को देखने का सुराग मिलता है। दक्षिण-एशिया के जंगली पैंगोलिन से अधिक साक्ष्य मिलने की सभावना है। बहरहाल, उत्पत्ति को लेकर कई परिकल्पनाएं हैं लेकिन फिलहाल प्राकृतिक उत्पत्ति ही सबसे संभावित व्याख्या है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9018/abs/_2021_0903_nf_bat_sampling.jpg
कई लोगों में कोविड-19 से उबरने के बाद भी कई हफ्तों या
महीनों तक थकान,
याददाश्त की समस्या और सिरदर्द जैसे लक्षण बने रहते हैं।
ऐसा क्यों होता और इसका उपचार क्या है यह पूरी तरह पता करने के लिए बड़े पैमाने पर
अध्ययन की ज़रूरत है। और हाल ही में यूएस के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच)
ने ऐसे ही एक अध्ययन के लिए लगभग 47 करोड़ डॉलर के अनुदान की घोषणा की है। इस
अध्ययन में कोविड-19 के संक्रमण उपरांत प्रभावों – जिसे दीर्घ कोविड कहते हैं – के
कारण पता लगाने के अलावा उपचार और रोकथाम के उपाय पता लगाए जाएंगे। यह अध्ययन सार्स-कोव-2 के संक्रमण
से नए पीड़ित और पूर्व में इसका संक्रमण झेल चुके 40,000 वयस्कों और बच्चों पर किया
जाएगा।
दीर्घ कोविड को सार्स-कोव-2 के विलंबित लक्षण भी कहते हैं। इसमें दर्द, थकान,
याद रखने में परेशानी, नींद
की समस्या,
सिरदर्द, सांस लेने में तकलीफ, बुखार,
पुरानी खांसी, अवसाद और दुÏश्चता जैसे लक्षण हो सकते हैं जो प्रारंभिक संक्रमण के चार
सप्ताह से अधिक समय तक बने रहते हैं। कभी-कभी ये लक्षण इतने गंभीर होते हैं कि
व्यक्ति काम नहीं कर पाता, उसे रोज़मर्रा के काम करने में
भी मुश्किल होती है।
यूएस रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्रों (सीडीसी) का अनुमान है कि कोविड-19 के
10 से 30 प्रतिशत रोगियों में दीर्घ कोविड विकसित होता है। यह संभवत: वायरस के
शरीर में छिप कर बैठे भंडार के कारण, अनियंत्रित प्रतिरक्षा
प्रणाली के कारण,
या संक्रमण से उपजी किसी चयापचय समस्या के कारण होता है।
लेकिन वास्तव में यह होता क्यों है, इसका सटीक और स्पष्ट कारण अब
तक पता नहीं है।
एनआईएच ने फरवरी में दीर्घ कोविड अनुसंधान कार्यक्रम की अपनी प्रारंभिक योजना
की रूपरेखा तैयार की थी। अब इसे रिसर्चिंग कोविड टू एनहान्स रिकवरी (RECOVER)
इनिशिएटिव का रूप दिया गया है जिसके लिए न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय को 47 करोड़ का
अनुदान मिला है। विश्वविद्यालय 35 संस्थानों के 100 से अधिक शोधकर्ताओं को शामिल
करेगा जो एक साझे प्रोटोकॉल के तहत संक्रमितों को अध्ययन में शामिल करेंगे।
अक्टूबर से शुरू होने वाले इस कार्यक्रम का लक्ष्य 12 महीने में सभी 50
राज्यों की विविध आबादी से 30 से 40 हज़ार प्रतिभागियों को शामिल करना है। इसमें
कुछ लोग जो दीर्घ कोविड से गुज़र रहे हैं, उन पर अध्ययन किया जाएगा
लेकिन इसमें शामिल अधिकांश लोग कोविड-19 संक्रमित होंगे यानी वे लोग होंगे जो हाल
ही में कोविड-19 से बीमार हुए हैं। अध्ययन में अस्पताल में भर्ती मरीजों के अलावा
मामूली कोविड-19 से पीड़ित लोग भी शामिल होंगे – क्योंकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि
क्या शुरुआत में अधिक गंभीर संक्रमण दीर्घ कोविड की ओर ले जाता है?
इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड की मदद से और प्रतिभागियों को पहनने योग्य उपकरण
देकर उनकी हृदय गति, नींद वगैरह की निगरानी की जाएगी। इस तरह यह
अध्ययन उन लोगों के स्वास्थ्य की तुलना करेगा जो जल्दी ही ठीक हो जाते हैं और
जिनके लक्षण लंबे समय तक बने रहते हैं। इसके आधार पर दीर्घ कोविड का जोखिम पैदा
करने वाले कारकों और जैविक संकेतों का पता लगाया जाएगा। शोधकर्ता यह भी पता
लगाएंगे कि क्या कोविड-19 का टीका लेने से दीर्घ कोविड के लक्षण कम होते हैं?
अध्ययन में लगभग आधे प्रतिभागी बच्चे होंगे और नवजात शिशु भी होंगे। भले ही आम
तौर पर बच्चों में कोविड-19 के हल्के या कोई भी लक्षण नहीं होते हैं लेकिन यह
चिंता उभरी है कि क्या उनमें विलंबित लक्षण पैदा होंगे। एक कारण यह भी है कि इस
समय जितने बच्चे पीड़ित हैं, पूरी महामारी के दौरान इतने
नहीं थे।
हालांकि यह अध्ययन दीर्घ कोविड के लिए नए उपचारों का परीक्षण नहीं करेगा।
लेकिन शोधकर्ता उन प्रोटीन या आणविक प्रक्रियाओं की पहचान करेंगे जो दीर्घ कोविड
में भूमिका निभाते हैं और मौजूदा औषधियों द्वारा इन्हें अवरुद्ध करने की संभावना
जांचेंगे।
हालांकि इस अध्ययन के तरीके से इस क्षेत्र की एक प्रमुख कार्यकर्ता निराश हैं क्योंकि यह प्रयास बड़े पैमाने पर उन लोगों को अध्ययन में शामिल करेगा जिनमें अब तक दीर्घ कोविड विकसित नहीं हुआ है चूंकि वे हाल ही में संक्रमित हुए हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लोग टीके ले चुके हैं। दरअसल इसमें उन लाखों लोगों को शामिल किया जाना चाहिए जो वर्तमान में इससे पीड़ित हैं। सर्वाइवर कोर की संस्थापक डायना बेरेंट का कहना है कि एनआईएच का यह अध्ययन छलावा है। इससे हम किसी नतीजे तक नहीं पहुंचेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/69066/aImg/43308/09-21-longcovid-article2-m.jpg
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी पहली नज़र में हास्यास्पद लेकिन
महत्वपूर्ण खोजों को पुरस्कृत करने के लिए 31वां इग्नोबेल पुरस्कार समारोह आयोजित
किया गया। कोरोना महामारी के चलते इस वर्ष भी यह समारोह ऑनलाइन किया गया जिसमें
संगीतमय बिल्लियां, औंधे गेंडे और पनडुब्बी में कॉकरोच से बचाव
आकर्षण का केंद्र रहे। इस वर्ष की थीम इंजीनियरिंग थी और इग्नोबेल पुरस्कारों का
वितरण फ्रांसिस अर्नाल्ड और एरिक मैसकिन सहित अन्य नोबेल विजेताओं ने किया।
कुल 10 इग्नोबेल पुरस्कारों में से जीव विज्ञान का पुरस्कार बिल्लियों की
विभिन्न ध्वनियों के अध्ययनों की एक शृंखला को दिया गया है। ऐसा लगता है कि
बिल्लियां इन ध्वनियों का उपयोग मनुष्यों को अपनी इच्छाओं से अवगत कराने के लिए
करती हैं। लुंड युनिवर्सिटी की बिल्ली-वाणि शोधकर्ता सुज़ैन शॉट्ज़ 2011 से
माइक्रोफोन को बिल्लियों के हाथ में देकर उनकी विभिन्न ध्वनियों को सुनने और उनकी
म्याऊं का मतलब खोजने का प्रयास कर रही थीं।
शॉट्ज़ को यह सम्मान कई शोध पत्रों के लिए दिया गया है। इनमें वह शोध पत्र भी
शामिल है जिसमें यह बताया गया है कि मनुष्य कितनी अच्छी तरह से बिल्लियों की
म्याऊंसिकी को समझ पाते हैं। शॉट्ज़ बताती हैं कि जब बिल्लियों को अपने मालिकों से
भोजन चाहिए होता है तो उनकी ध्वनि अंत में ऊंचे तारत्व की होती है। यदि वे
चिकित्सक के पास जाने को लेकर डर रही होती हैं तब वे तारत्व को कम कर देती हैं।
गौरतलब है कि तारत्व का सम्बंध आवाज़ के पतली-मोटी होने से है – अधिक तारत्व मतलब
ज़्यादा पतली आवाज़। उन्होंने जब 30 लोगों के समूह को बिल्लियों की ध्वनियों के
उतार-चढ़ाव सुनाए तो अधिकांश समय वे बिल्लियों की भावनाओं का अनुमान लगा पाए थे।
इनमें बिल्लियों के मालिकों के अनुमान बेहतर रहे।
जीव विज्ञान के अन्य पुरस्कार ऐसे जीवों पर शोध करने के लिए दिए गए जिन्होंने
आसमान की बुलंदियों को छुआ या समुद्र की गहराइयों में गोते लगाए।
ट्रांसपोर्टेशन पुरस्कार से उन शोधकर्ताओं को सम्मानित किया गया जिन्होंने यह
पता लगाया कि हेलीकॉप्टर से गैंडों को लाने-ले जाने की सबसे अच्छी तकनीक उनको
उल्टा करके (पीठ के बल) ले जाना है। यह तकनीक संरक्षणवादियों के लिए काफी उपयोगी
साबित हुई है जो चाहते हैं कि गैंडों और हाथियों जैसे बड़े जीवों को शिकारियों से
सुरक्षित रखा जाए या उनकी आनुवंशिक विविधता को बनाए रखा जाए। इसमें मज़ेदार बात यह
है कि शोधकर्ताओं ने पुरस्कार लेते समय यह बताया कि गैंडों पर यह तकनीक अपनाने से
पहले इसे वे खुद पर आज़मा चुके थे। अलबत्ता, पुरस्कार
देने वाले नोबेल विजेता रिचर्ड रॉबट्र्स ने स्पष्ट कर दिया कि यदि उन्हें कभी कहीं
ले जाना पड़े तो मेहरबानी करके सीधा ही ले जाएं।
कीट विज्ञान के पुरस्कार ने मानव-पशु तनावपूर्ण सम्बंधों को उजागर किया।
मनुष्यों और तिलचट्टों की लड़ाई काफी प्राचीन रही है। इस पुरस्कार के लिए समिति ने
विज्ञान साहित्य के संग्रहालय में डुबकी लगाकर 1971 का एक अध्ययन A new
method of cockroach control on submarines
(पनडुब्बियों में तिलटट्टा नियंत्रण की एक नई विधि) खोज निकाला। पुरस्कार अमेरिकी
नौसेना के सेवानिवृत्त कमोडोर जॉन मुलरीनन जूनियर को दिया गया। उन्होंने नौसेना की
पनडुब्बियों में तिलचट्टों से छुटकारा पाने के लिए डाइक्लोरवॉस नामक कीटनाशक का
उपयोग किया था। इससे पहले एथिलीन ऑक्साइड गैस का उपयोग किया जाता था जिसके उपयोग
से कोई बीमार हो गया था। उस समय तो नौसेना को यह तकनीक काफी उपयोगी व कारगर लगी थी, हालांकि कमोडोर मुलरेनिन ने कहा कि वे नहीं जानते कि क्या आजकल भी नौसेना इसका
इस्तेमाल करती है।
भौतिकी पुरस्कार एक ऐसे शोध के लिए दिया गया जिसमें यह विश्लेषण किया गया था
कि भीड़ में चलते समय लोग एक दूसरे से टकराते क्यों नहीं हैं और काइनेटिक्स
पुरस्कार इस अध्ययन के लिए दिया गया कि लोग कभी-कभी टकरा क्यों जाते हैं।
इकॉलॉजी पुरस्कार एक बैक्टीरिया के विश्लेषण पर दिया गया जो उपयोग की गई
च्युइंग गम पर पनपता है। इसके अलावा शांति पुरस्कार इस अध्ययन पर दिया गया कि दाढ़ी
कितने प्रभावी ढंग से घूंसे से चेहरे की रक्षा करती है (यह झटके को कम कर देती
है)। चिकित्सा पुरस्कार ऐसे अध्ययन के लिए दिया गया जिसमें यह बताया गया कि यौन
चरमोत्कर्ष बंद नाक खोलने में प्रभावी हो सकता है (होता है, लेकिन असर सिर्फ एक घंटे रहता है)।
विजेताओं को एनल्स ऑफ इम्प्रॉबेबल रिसर्च के संपादक और इस समारोह के मेज़बान मार्क अब्राहम की ओर से एक नकली 10 ट्रिलियन ज़िम्बाब्वे डॉलर का नोट भी दिया गया। ट्राफी के रूप में खुद से बनाने के लिए एक घनाकार पेपर का गियर दिया गया जिस पर दांतों की तस्वीरें बनी थीं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.abc.net.au/science/k2/lint/img/trophy.jpg
जब जीव अपने लिए प्रणय-साथी, अधिकार
क्षेत्र या स्थान के लिए एक-दूसरे से लड़ते हैं, तो
नज़ारा दर्शनीय व डरावना होता है। हाल ही में वैज्ञानिकों को इस बात के सबूत मिले
हैं कि टायरेनोसॉरस रेक्स जैसे डायनासौर भी ऐसा ही करते थे, और इस लड़ाई में वे एक-दूसरे के चेहरे पर काटते थे।
शोधकर्ताओं ने विभिन्न तरह के डायनासौर (थेरापॉड) की 528 जीवाश्मित
खोपड़ियों का विश्लेषण किया। इनमें से 122 खोपड़ियों पर उन्हें काटने के गहरे निशान
और ठीक हो चुके घावों के निशान मिले। ये निशान लगभग 60 प्रतिशत वयस्क डायनासौर में
दिखाई दिए,
लेकिन किसी भी कम उम्र डायनासौर में नहीं दिखे। पैलियोबायोलॉजी
में शोधकर्ता बताते हैं कि इससे पता चलता है कि डायनासौर एक-दूसरे को तभी काटते थे
जब वे किशोरावस्था पार कर जाते थे (यानी यौन परिपक्वता पर पहुंच जाते थे)। लगभग
इसी समय वे अपने लिए प्रणय-साथियों की तलाश में होते थे या अपना सामाजिक प्रभुत्व
स्थापित करने की कोशिश कर रहे होते थे।
काटने के निशान की जगह से पता चलता है कि लड़ाई में डायनासौर अधिकतर
प्रतिद्वंदी को थोड़ा बाजू से काटते थे, जिसमें दोनों डायनासौर
थोड़ा सिर झुकाकर अपने प्रतिद्वंद्वी की खोपड़ी या निचला जबड़ा दबोचते थे।
शोधकर्ताओं ने उन छोटे आकार के डायनासौर की खोपड़ी की भी जांच की, जिनसे आज के सभी पक्षी विकसित हुए हैं। लेकिन इनमें से किसी भी डायनासौर के चेहरे पर काटने के निशान नहीं थे। इससे लगता है कि अपने वंशज पक्षियों की तरह इन डायनासौर ने भी मादाओं के लिए हिंसक तरीके से लड़ना बंद कर दिया था, और इसकी बजाय वे मादाओं को अपने चमकदार पंखों से लुभाने लगे थे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9081/full/_20210910_on_trexlovebites.jpg
भारत सरकार ने 18 अगस्त को घोषित 11,040 करोड़ रुपए की स्कीम
में पाम आयल का घरेलू उत्पादन तेज़ी से बढ़ाने के लिए इसके वृक्ष बड़े पैमाने पर
लगाने का निर्णय किया है। इसके लिए खासकर उत्तर-पूर्वी राज्यों और अंडमान व
निकोबार द्वीप समूह पर ध्यान दिया जाएगा। इस दौर में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि
खाद्य तेल का घरेलू उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों में परंपरागत तिलहनों की उपेक्षा न
हो जाए।
भारत में तिलहनों की समृद्ध परंपरा रही है व इन तिलहनों तथा इनसे प्राप्त
तेलों का हमारी संस्कृति व पर्व-त्यौहारों में भी विशेष महत्व रहा है। विशेषकर
सरसों,
तिल, मूंगफली व नारियल का तो बहुत
महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इसके अतिरिक्त अपेक्षाकृत कम उत्पादन क्षेत्र के ऐसे
अनेक तिलहन हैं जिनमें से कुछ का हिमालय क्षेत्र में, कुछ का
आदिवासी क्षेत्रों में, कुछ का औषधि व अन्य विशिष्ट उपयोगों में महत्व
रहा है। इसके अतिरिक्त कपासिया तेल का अपना महत्त्व है और यह अपेक्षाकृत सस्ता भी
है।
जहां तक पोषण का सवाल है, तो देश के अलग-अलग क्षेत्रों
के व्यंजनों के अनुसार हमारे परंपरागत तेल उपलब्ध हैं, व
अच्छे पोषण व स्वाद की दृष्टि से इनका स्थान बाहरी तेल नहीं ले सकते हैं। इनसे
केवल तेल नहीं मिलता है, अपितु मूंगफली, सरसों का साग, तिल, नारियल
का पानी व गिरी भी मिलते हैं। पौष्टिक गजक, लड्डू, रेवड़ी,
मिठाई आदि के रूप में इनका सेवन विशेषकर सर्दी के दिनों में
अनुकूल है। अरंडी व अलसी के तेल औषधीय गुणों के लिए जाने जाते हैं। लोहड़ी के त्यौहार
में रेवड़ी-गजक होना ज़रूरी है। सर्द शामों में गर्म मूंगफली खाने का अपना ही मज़ा
है। ये सभी खाद्य स्वास्थ्य व स्वाद दोनों की दृष्टि से अच्छे हैं। सरसों के साग
के बिना तो सर्दी के दिन कटते ही नहीं हैं, तो
गर्मी व उमस के दिनों में सबसे अधिक राहत नारियल के पानी से ही मिलती है।
सवाल यह है कि तिलहन की इतनी समृद्ध विरासत के बावजूद हमारा देश खाद्य-तेलों
के आयात पर इतना निर्भर क्यों हो गया? इसकी वजह यह है कि
परंपरागत तिलहन के किसानों को उचित समर्थन व प्रोत्साहन नहीं मिल पाया। बाहरी
सस्ते तेलों के आयात को एक सकल विकल्प मान लिया गया। हाइड्रोजिनेशन की तकनीक से यह
समस्या सुलझा ली गई कि कोई तेल स्थानीय स्वाद के अनुकूल है या नहीं। पर हम यह भूल
गए कि जहां तक स्वास्थ्य का सवाल है, तो स्थानीय शुद्ध तेल ही
सर्वोत्तम हैं व खेती-किसानी की खुशहाली के लिए भी इनको प्रोत्साहित करना ही सबसे
उचित है।
जब तिलहन-किसानों को अनुकूल माहौल दिया गया है, उन्होंने
तिलहन उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पर जब प्रतिकूल स्थितियां
मिलीं तो खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता बढ़ी। खाद्य तेलों के आयात का वार्षिक
बिल असहनीय हद तक बढ़ गया क्योंकि 60 प्रतिशत या उससे अधिक खाद्य तेल आयात करना पड़
रहा था।
भारत में ढाई करोड़ हैक्टर भूमि पर तिलहन की खेती होती है। इससे पता चलता है कि
तिलहन के किसानों की संख्या बहुत अधिक है। तिस पर यदि शुद्ध तेल देने वाली कुटीर व
लघु प्रोसेसिंग इकाई कच्ची घानी व कोल्हू का उपयोग हो तो इससे भी तिलहन व खाद्य
तेल क्षेत्र में रोज़गार बहुत बढ़ता है। इसी आधार पर स्थानीय स्तर पर खली की
उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है जिससे डेयरी कार्य व पशुपालन की संभावनाएं बढ़ सकती हैं।
आजीविका सुरक्षा व आत्म-निर्भरता दोनों के उद्देश्यों को समान महत्व देते हुए
हमें तिलहन उत्पादन वृद्धि का एक ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिए जो मूलत: देश के
स्थानीय तिलहनों पर आधारित हो, ऐसे तिलहनों पर जिनके बारे में
हमारे किसानों के पास भरपूर ज्ञान पहले से उपलब्ध है, जो
हमारी पोषण आवश्यकताओं के साथ मिट्टी, जल व जलवायु स्थिति के अनुकूल
हों। इस खेती के साथ स्थानीय स्तर की कुटीर इकाइयों द्वारा तिलहन से तेल प्राप्त
करने की पर्याप्त इकाइयां स्थापित करना चाहिए व साथ में खली की पर्याप्त उपलब्धता
स्थानीय पशुपालकों को करनी चाहिए। मुख्य तिलहनों के अलावा जो औषधि व विशिष्ट उपयोगों
के तिलहन हैं,
उनके साथ जुड़े कुटीर व लघु उद्योगों को भी विकसित करना
चाहिए। आर्गेनिक खेती को प्रोत्साहित करना चाहिए। इस राह पर चले तो भारत निकट
भविष्य में तिलहन क्षेत्र में विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण व विशिष्ट स्थान बना सकता
है।
यह बहुत ज़रूरी है कि हम अपनी क्षमताओं और विशिष्ट आवश्यकताओं को पहचानें व उनके अनुकूल कार्य करें। इस तरह तिलहन के क्षेत्र की जो प्रगति होगी वह अपने देश की मिट्टी, फसल चक्र, पोषण, जल, जलवायु की स्थिति के अनुकूल होगी व यही प्रगति की राह सफल व टिकाऊ सिद्ध होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://iasgatewayy.com/wp-content/uploads/2020/02/Oil-Seeds-Production-1.jpg
16 जनवरी 2020 को इरेस्मस युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के पशु
रोग विशेषज्ञ थीस कुइकेन को दी लैंसेट से समीक्षा के लिए एक शोधपत्र मिला
था, जिसने उन्हें दुविधा में डाल दिया।
हांगकांग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के इस शोधपत्र में बताया गया था कि चीन
के शेन्ज़ेन शहर के एक परिवार के छह सदस्य वुहान गए थे, और उनमें से पांच सदस्य कोविड-19 से संक्रमित पाए गए। इनमें से कोई वुहान के
सार्स-कोव-2 के शुरुआत मामलों से जुड़े हुआनन सीफूड बाज़ार नहीं गया था। इस परिवार
के शेन्ज़ेन वापस लौटने के बाद परिवार का सातवां सदस्य भी इससे संक्रमित हो गया, जो वुहान गया ही नहीं था।
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष स्पष्ट था: सार्स-कोव-2 मनुष्य से मनुष्य में फैल सकता
था। उनके दो निष्कर्षों और थे। एक, परिवार
के संक्रमित लोगों में से दो सदस्यों में कोई लक्षण नहीं दिख रहे थे, यानी यह बीमारी दबे पांव आ सकती है। दूसरा, एक सदस्य में इस नई बीमारी का सबसे आम लक्षण (श्वसन
सम्बंधी) नहीं था लेकिन उसे पेचिश हो रही थी। मतलब था कि यह बीमारी चिकित्सकों को
चकमा दे सकती है।
इन निष्कर्षों ने कुइकेन को दुविधा में डाल दिया। कुछ लोगों को पहले ही संदेह
था कि सार्स-कोव-2 मनुष्य से मनुष्य में फैल सकता है; और दो दिन पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने आशंका भी ज़ाहिर की
थी। अब कुइकेन के सामने इस बात के प्रमाण मौजूद थे। उन्हें लग रहा था कि लोगों को
इस बारे में जल्द से जल्द बताना चाहिए, क्योंकि
वर्ष 2003 में फैले सार्स के अनुभव से कुइकेन जानते थे कि किसी घातक और तेज़ी से
प्रसारित होने वाले वायरस के प्रसार को थामने के लिए शुरुआत के दिन कितने
महत्वपूर्ण होते हैं। और सार्स-कोव-2 सम्बंधी इस जानकारी में देरी होने से लोगों
को खतरा था।
लेकिन यदि वे इसका खुलासा करते तो उनकी वैज्ञानिक प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती।
दरअसल, जर्नल के समीक्षकों को किसी भी परिस्थिति
में अप्रकाशित पांडुलिपियों को साझा करने या उनके निष्कर्षों का खुलासा करने की
अनुमति नहीं होती है।
कुइकेन की यह दुविधा जुलाई में प्रकाशित हुई वेलकम ट्रस्ट की जेरेमी फरार और
अंजना आहूजा द्वारा लिखित पुस्तक स्पाइक: दी वायरस वर्सेस दी पीपल – दी इनसाइड
स्टोरी में उजागर की गई है। साइंस पत्रिका ने इस मामले पर अतिरिक्त प्रकाश
डाला है।
साइंस पत्रिका से बात करते हुए फरार कहती हैं कि इस मामले ने
वेलकम ट्रस्ट की इस पहल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी कि कोविड-19 के निष्कर्षों
को शीघ्रातिशीघ्र साझा किया जाए। इसी के तहत दी लैंसेट और चाइनीज़ सेंटर फॉर
डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन सहित कई पत्रिकाओं और शोध संगठनों ने जनवरी 2020 में
यह करार किया कि प्रकाशन के लिए भेजे गए कोविड-19 से सम्बंधी शोध पत्रों को वे
डब्ल्यूएचओ को तुरंत उपलब्ध कराएंगे।
इसी बीच कुइकेन को दी लैंसेट के संपादक ने फोन पर बताया कि शोधकर्ता
स्वयं अपने परिणामों का खुलासा करने के लिए स्वतंत्र हैं। (दी लैंसेट के
अनुसार, दी लैसेंट को भेजी गई पांडुलिपियों के लेखकों को अपने अप्रकाशित शोध पत्रों को सम्बंधित
चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य निकायों, वित्तदाताओं के साथ और प्रीप्रिंट सर्वर पर साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया
जाता है)। तो 17 जनवरी 2020 की सुबह पत्रिका को भेजी अपनी समीक्षा में कुइकेन ने
शोधकर्ताओं से एक असामान्य अनुरोध किया कि वे अपने डैटा को ‘तुरंत’ सार्वजनिक कर
दें। दी लैंसेट के संपादकों ने उनके अनुरोध का समर्थन किया।
एक संपादक के मुताबिक शोधकर्ता तो अपने निष्कर्षों का खुलासा करना चाहते थे
लेकिन वे चीन सरकार की अनुमति के बिना ऐसा नहीं कर सकते। दरअसल संचारी रोगों के
नियंत्रण और रोकथाम पर चीन का कानून कहता है कि केवल राज्य परिषद, या अधिकृत नगरीय/प्रांतीय स्वास्थ्य अधिकारी ही संचारी
रोगों के प्रकोप के बारे में जानकारी प्रकाशित कर सकते हैं। कुइकेन को बताया गया
कि प्रमुख शोधकर्ता युएन क्वोक-युंग को चीन के अधिकारियों के साथ निष्कर्षों पर
चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया गया है।
शनिवार दोपहर कुइकेन ने फरार से इस मामले पर सलाह मांगी। फरार ने तीन विकल्प
सुझाए। पहला, सोमवार तक इंतजार किया जाए। दूसरा, स्वयं जानकारी का खुलासा कर दें। और तीसरा, सीधे ही डब्ल्यूएचओ को इसकी जानकारी दे दी जाए।
कुइकेन ने तीसरा विकल्प चुना। शनिवार शाम कुइकेन ने डब्ल्यूएचओ के स्वास्थ्य
आपात कार्यक्रम की तकनीकी प्रमुख मारिया वैन केरखोव से कहा कि यदि रविवार सुबह तक
यह जानकारी सार्वजनिक नहीं होती तो वे उन्हें पांडुलिपि भेज देंगे। दी लैंसेट
के संपादक से पता चला कि चीन सरकार के साथ शोधकर्ताओं की चर्चा अभी जारी है।
लेकिन रविवार सुबह कुइकेन फिर दुविधा में थे। उन्होंने सोचा कि यदि शोधकर्ताओं
की अनुमति के बिना इन निष्कर्षों को दर्शाने वाले आंकड़े भर ऑनलाइन कर दिए गए तो यह
बहुत अपमानजनक होगा। इसलिए उन्होंने पांडुलिपि का एक विस्तृत सारांश लिखा, और उसे रविवार सुबह वैन केरखोव को भेज दिया।
बहरहाल, सोमवार को चीन ने दी लैसेंट की
पांडुलिपि का हवाला देते हुए आधिकारिक स्तर पर यह घोषणा कर दी कि यह बीमारी मनुष्य
से मनुष्य में फैल सकती है। इस घोषणा ने कुइकेन को बड़ी राहत दी।
हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि डब्ल्यूएचओ से संपर्क करने के उनके फैसले ने चीन
की घोषणा को गति दी या नहीं। केरखोव ने यह नहीं बताया कि उन्होंने या डब्ल्यूएचओ
के अन्य किसी सदस्य ने चीन के सरकारी अधिकारियों या शोधकर्ताओं को इस बारे में
बताया था या नहीं।
वहीं शोधकर्ता युएन के अनुसार, 18 से
20 जनवरी 2020 तक वुहान और बीजिंग में वे सरकार की विशेषज्ञ टीम से मिले, जहां इन निष्कर्षों पर चर्चा हुई। युएन का कहना है कि मुझे
नहीं लगता कि कुइकेन का निर्णय बहुत प्रासंगिक था क्योंकि मैंने देखा कि चीन के
स्वास्थ्य अधिकारी हमारी रिपोर्ट के प्रति सकारात्मक थे, और उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य नियंत्रण उपायों को बढ़ाने के लिए तत्काल
कार्रवाई की। जिसमें 20 जनवरी, 2020
को मनुष्य से मनुष्य में संचरण की बात का खुलासा और 23 जनवरी, 2020 को वुहान को बंद करना शामिल था।
वेलकम ट्रस्ट के आह्वान के एक हफ्ते बाद यह शोधपत्र दी लैंसेट ने 24
जनवरी 2020 को ऑनलाइन प्रकाशित किया। 2016 में ज़ीका वायरस के प्रकोप के समय भी इसी
तरह के कदम उठाए गए थे, लेकिन तब पत्रिकाओं
द्वारा अप्रकाशित शोधपत्र साझा करने की बात नहीं हुई थी, जो कोविड-19 के समय हुई जो कि महत्वपूर्ण थी।
कुइकेन को अपने उठाए गए कदम का कोई खामियाजा नहीं भुगतना पड़ा। कुइकेन उम्मीद करते हैं कि वैज्ञानिक समुदाय में उनकी दुविधा पर चर्चा की जाएगी। कुइकेन का कहना है कि वेलकम ट्रस्ट का बयान बहुत अच्छा है, लेकिन इसमें इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है कि आपात स्थितियों में पांडुलिपियों के समीक्षकों को ऐसी महत्वपूर्ण जानकारी का क्या करना चाहिए। मैंने नियमों के बाहर जाकर कदम उठाए। दरअसल, यह नियमानुसार संभव होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9033/full/_20210830_on_dutchscientist.jpg
पौधे अपनी बनावट में काफी सरल जान पड़ते हैं। चाहे छोटी
झाड़ियां हों या ऊंचे पेड़ हों – सभी जड़, तना, पत्तियों,
फूलों, फलों से मिलकर बनी संरचना दिखाई
देते हैं। लेकिन उनकी बनावट जितनी सरल दिखती है उतने सरल वे होते नहीं हैं।
एक ही स्थान पर जमे रहने के लिए कई विशेष लक्षण ज़रूरी होते हैं। सूर्य के
प्रकाश और कार्बन डाईऑक्साइड से भोजन बनाने की क्षमता ने उन्हें पृथ्वी पर मौजूद
जीवन में एक महत्वपूर्ण मुकाम दिया है। वे दौड़ नहीं सकते, लेकिन
अपनी रक्षा कर सकते हैं। अलबत्ता, उनकी क्षमताओं का एक दिलचस्प
पहलू,
जो हमें दिखाई नहीं देता, वह
मिट्टी में छिपा है – जिस मिट्टी में वे अंकुरित होते हैं, और
जिससे पानी,
तमाम सूक्ष्म पोषक तत्व और कई अन्य लाभ प्राप्त करते हैं।
पुराना साथ
पौधों और कवक (फफूंद) का साथ काफी पुराना है। लगभग 40 करोड़ वर्ष पूर्व के
पौधों के जीवाश्मों में जड़ों के पहले सबूत मिलते हैं। और इन जड़ों (राइज़ॉइड्स) के
साथ कवक भी सम्बद्ध हैं, जो यह बताते हैं कि जड़ें और
कवक साथ-साथ विकसित हुए हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण पेनिसिलियम की एक
प्रजाति है;
वही कवक जिससे अलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने सूक्ष्मजीव-रोधी
पेनिसिलिन को पृथक किया था।
कवक और जड़ का साथ, जिन्हें मायकोराइज़ा कहते हैं, पहली नज़र में सरल आपसी सम्बंध लगता है जो दोनों के लिए फायदेमंद होता है। जड़
पर घुसपैठ करने वाले कवक पौधे द्वारा बनाए गए पोषक तत्व लेते हैं, और पौधों को इन सूक्ष्मजीवों से फॉस्फोरस जैसे दुर्लभ खनिज मिलते हैं। लेकिन
यह सम्बंध इससे कहीं अधिक गहरा है।
डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू.
पैसिफिक नॉर्थवेस्ट के घने जंगलों में काम करने वाली, युनिवर्सिटी
ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया की सुज़ाने सिमर्ड ने एक दिलचस्प खोज की। उन्होंने एक पारदर्शी
प्लास्टिक थैली में सनोबर और देवदार के नन्हें पौधों के साथ सावधानीपूर्वक
नियंत्रित प्रयोग किया। इस थैली में रेडियोधर्मी कार्बन डाईऑक्साइड भरी थी।
उन्होंने पाया कि सनोबर के पौधों ने प्रकाश संश्लेषण द्वारा इस रेडियोधर्मी कार्बन
डाईऑक्साइड गैस को रेडियोधर्मी शर्करा में बदल दिया था, और दो
घंटे के भीतर पास ही लगे देवदार के पौधों की पत्तियों में रेडियोधर्मी शर्करा के
कुछ अंश पाए गए। शर्करा का यह आदान-प्रदान मुख्यत: कवक के मायसेलिया (धागे नुमा
संरचना) के ज़रिए होता है, और यह संजाल पूरे जंगल में
फैला हो सकता है। इस तरह का हस्तांतरण सूखे स्थानों पर लगे छोटे पेड़ों को भोजन
प्राप्त करने में मदद कर सकता है। नेचर पत्रिका के एक समीक्षक ने तो इस जाल
को वर्ल्ड वाइड वेब की तर्ज़ पर वुड वाइड वेब (डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू.) की संज्ञा
दी है।
जड़ों से जो बैक्टीरिया जुड़ते हैं उन्हें राइज़ोबैक्टीरिया कहते हैं, और इनमें से कई प्रजातियां पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देती हैं। कवक की तरह, इन बैक्टीरिया के साथ भी पौधों का सम्बंध सहजीविता का होता है। शर्करा के बदले
बैक्टीरिया पौधों को कई लाभ पहुंचाते हैं। ये पौधों को उन रोगाणुओं से बचाते हैं
जो जड़ के रोगों का कारण बन सकते हैं। इसके अलावा, वे
पूरे पौधे में रोगजनकों के खिलाफ बहुतंत्रीय प्रतिरोध भी शुरू कर सकते हैं।
संकर ओज
हरित क्रांति ने हमारे देश की कृषि पैदावार में बहुत वृद्धि की। हरित क्रांति
की कुंजी है फसल पौधों की संकर किस्में तैयार करना। आज, व्यावसायिक
रूप से उगाई जाने वाली अधिकांश फसलें संकर किस्म की हैं। यानी इनमें एक ही प्रजाति
के पौधों की दो शुद्ध किस्मों के बीच संकरण किया जाता है। और इससे तैयार प्रथम
पीढ़ी के पौधों में ऐसी ओज पैदा हो जाती है जो दोनों में से किसी भी मूल पौधे में
नहीं थी। संकर ओज के इस गुण को हेटेरोसिस कहते हैं और इसके बारे में सदियों से
मालूम है। लेकिन इसे थोड़ा ही समझा गया है।
हाल ही में हुए अध्ययन में संकर ओज का एक नया और आकर्षक पहलू देखा गया है –
सूक्ष्मजीवों के समृद्ध समूह राइज़ोमाइक्रोबायोम में जो हरेक पौधे की जड़ों के इर्द-गिर्द
पाया जाता है। कैंसास विश्वविद्यालय की मैगी वैगनर ने हेटेरोसिस को पौधों और जड़ से
सम्बद्ध सूक्ष्मजीवों के परस्पर संपर्क के नज़रिए देखा। (कैंसास दुनिया के विपुल
मकई उत्पादक क्षेत्रों में से एक है।) मक्के को मॉडल फसल के रूप में उपयोग करके
उनके समूह ने दर्शाया है कि संकर मक्का की जड़ों का भरपूर जैव पदार्थ और अन्य
सकारात्मक लक्षण,
मिट्टी के उपयुक्त सूक्ष्मजीवों पर निर्भर करते हैं। यह
अध्ययन पीएनएएस में 27 जुलाई 2021 को प्रकाशित हुआ है। प्रयोगशाला की पूरी
तरह से सूक्ष्मजीव रहित मिट्टी में शुद्ध किस्म के पौधे और उनके संकरण से उपजे
पौधे,
दोनों एक जैसी गुणवत्ता से विकसित हुए और संकर ओज कहीं नज़र
नहीं आई। उसके बाद शोधकर्ताओं ने मिट्टी का पर्यावरण ‘बदलना’ शुरू किया, जिसके लिए उन्होंने मिट्टी में एक-एक करके बैक्टीरिया जोड़े।
सूक्ष्मजीव रहित मिट्टी में बैक्टीरिया की सिर्फ सात प्रजातियां जोड़ने पर
शुद्ध किस्म के पौधों और उनकी संकर संतानों में संकर ओज का अंतर दिखने लगा। यह
प्रयोग खेतों में करके भी देखा गया: एक प्रायोगिक भूखंड की मिट्टी को धुंआ देने या
भाप देने से उसमें हेटेरोसिस कम हो गया था, क्योंकि
मिट्टी में सूक्ष्मजीवों की कमी हो गई थी।
कृषि विशेषज्ञों का अनुमान है कि मिट्टी की उर्वरता के आधार पर, संकर मक्का की प्रति हैक्टर नौ टन उपज के लिए 180-225 किलोग्राम कृत्रिम उर्वरक की ज़रूरत होती है। इन उर्वरकों का उत्पादन काफी ऊर्जा मांगता है। चूंकि हमारा देश टिकाऊ कृषि के ऊंचे लक्ष्य पाने का प्रयास कर रहा है, फसल की गुणवत्ता (और मात्रा) बढ़ाने के लिए सरल सूक्ष्मजीवी तरीकों का उपयोग करना इस दिशा में एक छोटा मगर सही कदम होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/yly3r0/article36294017.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/05TH-SCIROOTSjpg
दो साल पहले वैज्ञानिकों ने ‘मिलेनियम फाल्कन’ को पृथ्वी के पहले समुद्री शिकारी की उपाधि से नवाज़ा था। उसके दो साल बाद उन्हीं शोधकर्ताओं को कनाडा के बर्जेस शेल के उसी स्थान पर एक बड़े अंतरिक्ष यान जैसे जीव का जीवाश्म मिला। युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के जीवाश्म विज्ञानी जोसेफ मोयसियक के अनुसार आधा मीटर लंबा यह आर्थोपॉड (सन्धिपाद) मूलत: एक विशाल ‘तैरता सिर’ था, जो 50 करोड़ साल पहले कैम्ब्रियन समुद्र में रहता था।
टाइटेनोकोरिस गेनेसी का सिर उसके शरीर की लगभग आधी
लंबाई के बराबर था, और वह एक गुंबदनुमा, नुकीले सिरे वाले कवच से ढंका हुआ था। इसी विशेषता के कारण इसे लैटिन नाम मिला
जिसका अर्थ है ‘टाइटन का हेलमेट’। यह जीव समुद्र के पेंदे से सटकर तैरता था, और अपने कांटेनुमा उपांगों से कीचड़ से अपना शिकार खोदता था। संभवत: इसका नुकीला
हेलमेट इस खुदाई में मदद करता था।
इसकी आंखें खोल के पीछे की तरफ ऊपर की ओर थीं जो शिकार खोजने के काम में
मददगार तो नहीं रही होंगी बल्कि शिकारियों को भांपने के लिए होंगी।
टाइटेनोकोरिस आर्थोपोड्स के एक विविध समूह
(रेडियोडोन्ट्स) से सम्बंधित है, जो लगभग 52 करोड़ वर्ष पहले हुए
कैम्ब्रियन विस्फोट के तुरंत बाद मकड़ियों, कीड़ों
और हॉर्सशू केकड़ों के पूर्वजों से अलग हो गए थे। इस समय जब कशेरुकी जीव छिंगली
बराबर मछली से थोड़े ही बड़े थे, तब
रेडियोडोन्ट्स का कैम्ब्रियन समुद्र पर दबदबा था।
सभी रेडियोडोन्ट्स की तीन विशेषताएं होती हैं: इनका मुंह गोलाकार होता है जो
एक अनानास की खड़ी काट की तरह दिखता है और इनमें मांस को फाड़ने वाले पैने दांत होते
हैं,
मुंह के सामने एक जोड़ी कांटेदार उपांग होते हैं और बड़ी
संयुक्त आंखें होती हैं। इस नई जीवाश्म प्रजाति में ये सभी लक्षण दिखते हैं।
शोधकर्ताओं को जब इसका जीवाश्म मिला तब पहले तो उन्होंने सोचा कि यह जीवाश्म
केवल एक विशाल कैम्ब्रोरेस्टर है, क्योंकि कैम्ब्रोरेस्टर उस
स्थान पर बहुतायत में पाए जाते थे। लेकिन जब उन्होंने 11 सम्बंधित नमूनों से इस
जीवाश्म की तुलना की तो इसे बहुत अलग पाया। रॉयल सोसाइटी ओपन एक्सेस में
शोधकर्ता बताते हैं कि यह कुछ नया था। और उनके अनुसार टाइटेनोकोरिस को नया
जीनस मिलना चाहिए था।
कैम्ब्रोरेस्टर के स्थान पर टाइटेनोकोरिस का मिलना कैम्ब्रियन
पारिस्थितिक तंत्र की विविधता को रेखांकित करता है – यहां शिकारी जीव बहुतायत में
हैं। पृथ्वी पर शुरुआत में समुद्रों में प्रचुर मात्रा में शिकार उपलब्ध रहा होगा
जिससे एक ही स्थान पर एक साथ कई शिकारी जीवों को पर्याप्त भोजन मिल जाता होगा।
बहरहाल, शोधकर्ता अगली गर्मियों में उस स्थान पर जाकर अधिक संपूर्ण टाइटेनोकोरिस जीवाश्म खोजने के लिए जाएंगे। हो सकता है कि उन्हें चट्टानों में छिपी कोई नई प्रजाति भी मिल जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.independent.co.uk/2021/09/09/20/Titanokorys_anterior.jpeg?width=1200&auto=webp&quality=75
हाल ही में अमेरिकी सरकार ने mRNA आधारित टीकों की
दूसरी खुराक के आठ महीने बाद अधिकांश लोगों को बूस्टर शॉट देने का निर्णय लिया है।
टीका सलाहकार समिति की स्वीकृति के बाद 20 सितंबर से बूस्टर शॉट देना शुरू किए
जाएंगे। इसमें स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और नर्सिंग होम कर्मियों को प्राथमिकता दी
जाएगी।
वैज्ञानिक समुदाय में बूस्टर शॉट देने पर
काफी पहले से बहस चल रही है कि यह किन लोगों को और कब दिया जाना चाहिए। दुर्बल
प्रतिरक्षा वाले लोगों में दो खुराक पर्याप्त नहीं हैं इसलिए सीडीसी ने ऐसे लोगों
को बूस्टर शॉट देने का सुझाव दिया था। वर्तमान घोषणा इस्राइल, टीका
निर्माताओं और अमेरिका में किए गए विभिन्न अध्ययनों से प्राप्त डैटा के आधार पर
लिया गया है। इन अध्ययनों के अनुसार कोविड के विरुद्ध टीकों से मिलने वाली
प्रतिरक्षा 6 माह में कम हो सकती है और डेल्टा संस्करण को रोकने में कम प्रभावी
होगी।
कई विशेषज्ञ स्वस्थ लोगों को बूस्टर शॉट
देने के पक्ष में नहीं हैं। जब कई देशों में लोगों को एक खुराक भी नहीं मिली है तब
उच्च आय वाले देशों द्वारा बूस्टर शॉट देने को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनैतिक
बताया है। लेकिन अमेरिकी सरकार अपने नागरिकों की सुरक्षा पर अधिक ज़ोर दे रही है। कुछ
विशेषज्ञों का मत है कि बूस्टर शॉट की बजाय अधिक से अधिक लोगों के टीकाकरण पर
ध्यान देना अधिक प्रभावी होगा।
इस विषय में साइंटिफिक अमेरिकन ने
ला जोला इंस्टिट्यूट फॉर इम्यूनोलॉजी के वायरोलॉजिस्ट और प्रोफेसर शेन क्रोटी और
बाइडेन-हैरिस ट्रांज़ीशन कोविड-19 एडवाइज़री बोर्ड की सदस्य सेलिन गाउंडर से बूस्टर
शॉट के सम्बंध में कुछ सवाल किए हैं।
क्या बूस्टर शॉट आवश्यक है? और किसके लिए?
सेलिन गाउंडर: डैटा के अनुसार टीके गंभीर रूप से बीमार होने, अस्पताल
में भर्ती होने और मृत्यु से सुरक्षा प्रदान करते हैं। यह सुरक्षा डेल्टा संस्करण
के विरुद्ध भी देखने को मिली है। हालांकि,
हमें डेल्टा संस्करण
के विरुद्ध कम प्रतिरक्षा देखने को मिली है। यहां जिन समूहों को बूस्टर शॉट देने
की बात की जा रही है वे अत्यधिक दुर्बल प्रतिरक्षा वाले लोग हैं जिनमें टीकाकरण से
कम प्रतिक्रिया देखने को मिली है। इनमें से सभी तो नहीं लेकिन कुछ लोगों में
अतिरिक्त खुराक से प्रतिक्रिया अवश्य विकसित होगी। इसके अलावा नर्सिंग होम जैसे
स्थान, जहां ब्रेकथ्रू संक्रमण का खतरा है,
वहां भी अतिरिक्त
खुराक देना समझदारी का निर्णय है। इससे आगे बढ़कर,
आम जनता को अतिरिक्त खुराक
देने के लिए कोई स्पष्ट डैटा अभी उपलब्ध नहीं है।
शेन क्रोटी: डेल्टा संस्करण के बारे में
अनिश्चितता और इसके विरुद्ध सुरक्षा को लेकर अस्पष्टता के कारण सरकार ने बूस्टर
शॉट देने का निर्णय लिया होगा। निश्चित रूप से दुर्बल प्रतिरक्षा वाले लोगों को
बूस्टर शॉट दिया जाना चाहिए। मई, जून और जुलाई के डैटा से पता चला है कि
दुर्बल प्रतिरक्षा वाले लोगों को दो खुराक मिलने पर अच्छी प्रतिक्रिया तो नहीं
मिली लेकिन तीसरी खुराक से बेहतर प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है। यह स्पष्ट हुआ है कि
दुर्बल प्रतिरक्षा वाले कुछ लोगों को तीसरी खुराक से फायदा हुआ है। 80 से अधिक आयु
के लोगों को बूस्टर देने की बात भी उचित लगती है। लेकिन 70, 60, 50
वर्ष की आयु वर्ग के लिए निर्णय मुश्किल है।
टीकों द्वारा उत्पन्न प्रतिरक्षा
प्रतिक्रिया कितनी प्रभावी है?
क्रोटी: अभी तक ऐसा प्रतीत होता है कि टीका उच्च-गुणवत्ता वाली
प्रतिरक्षा स्मृति उत्पन्न करता है। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार
मॉडर्ना टीके की दूसरी खुराक के छ: माह बाद भी एंटीबॉडीज़ में कोई कमी नहीं पाई गई।
टीकाकरण के एक से छ: माह के दौरान स्मृति टी-कोशिका में भी लगभग कोई बदलाव नहीं
आया। इंग्लैंड का डैटा दर्शाता है कि टीका डेल्टा संस्करण के विरुद्ध बहुत ही
अच्छा प्रदर्शन कर रहा है। सर्दियों में आई लहर के दौरान अस्पताल में भर्ती होने
और मौतों के बीच भारी अंतर था। मेरे खयाल से अस्पताल में दाखिले और मौतों से बचाव
के लिए तो बूस्टर नहीं चाहिए।
इस्राइल के डैटा के बारे में आपका क्या
विचार है जो समय के साथ प्रतिरक्षा कम होना दर्शाता है?
क्रोटी: टीके की प्रभाविता कम होने के मामले में इस्राइल का डैटा
काफी अच्छा है। लेकिन अभी तक इस्राइली अधिकारियों ने इसे किसी वैज्ञानिक पत्रिका
में प्रकाशित नहीं किया है। भ्रमित करने वाले कारक भी काफी अधिक हैं। सबसे पहले इस्राइल
को फरवरी और मार्च में टीके की प्रभाविता को लेकर काफी समस्याएं थीं। उसके बाद
उन्होंने एक पेपर प्रकशित किया जिसमें टीके को अच्छा बताया गया। अब इस्राइल को लग
रहा है कि टीके की प्रभाविता में कमी आ रही है।
गाउंडर: इस्राइल के डैटा के साथ काफी समस्याएं हैं। उनमें उम्र
एवं अन्य कारकों को अलग-अलग नहीं किया गया है। इसके लिए मूल डैटा प्रदान करना
होगा। इस्राइल के डैटा के आधार पर कोई निर्णय लेना मुझे उचित नहीं लगता है। इसके
अलावा, प्रयोगशाला डैटा से भी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। तथाकथित
न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी सुरक्षा का सबसे अच्छा मापदंड है। लेकिन यदि उन्हें छ:
माह बाद मापा जाए तो यह स्पष्ट नहीं होता है। यदि आपके पास अब तक के हर संक्रमण की
एंटीबॉडी होगी तो आपका रक्त वास्तव में एंटीबॉडी से पट जाएगा।
क्या टीकों का मिला-जुला उपयोग किया जा
सकता है?
क्रोटी: जिन लोगों को वायरस आधारित (जैसे एस्ट्राज़ेनेका या जॉनसन
एंड जॉनसन टीका) टीका मिला है उनके लिए उसी टीके की एक और खुराक की बजाय mRNA टीका लेना बेहतर है। टीकों का क्रम काफी महत्वपूर्ण है।
गाउंडर: इसके अलावा हमें नाक से दिए जाने वाले टीकों पर भी विचार
करना चाहिए। इनसे नाक और ऊपरी श्वसन मार्ग में प्रतिरक्षा विकसित की जा सकती है।
क्या तीसरी खुराक के कुछ दुष्प्रभाव होंगे? यदि हां, तो कितने गंभीर हो सकते हैं?
गाउंडर: लक्षण कमोबेश हल्का बुखार,
बदनदर्द, थकान
जैसे हो सकते हैं। लेकिन ऐसा ज़रूरी नहीं कि सभी को ऐसे लक्षण हों।
जब विश्व के अधिकांश लोगों को टीका नहीं
लगा है तब टीकाकृत लोगों को बूस्टर शॉट देना कितना नैतिक है?
क्रोटी: मुझे लगता है कि यह एक झूठा विवाद है। समय के साथ टीके
एक्सपायर हो जाएंगे। ऐसी स्थिति में बेहतर तो यह है कि अमेरिका में जिन लोगों को
टीका नहीं लगा है उनको टीकाकृत कर दिया जाए। यह विकल्प बूस्टर शॉट देने से बेहतर
होगा।
गाउंडर: यह तो स्पष्ट है कि लोगों को अतिरिक्त खुराक देने से कुछ खास परिणाम नहीं मिलने वाले हैं। बल्कि बिना टीका लगे लोगों का टीकाकरण करना सामुदायिक रूप से प्रसार को थामने के लिए अधिक प्रभावी हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/45882622-B7C5-4384-83C86CB283E0ADBA_source.jpg?w=590&h=800&F1000449-DBC9-462A-A1A54C9CBEF04B14