ग्लासगो में आयोजित जलवायु सम्मेलन में कई देशों ने ग्रीनहाउस
गैसों के उत्सर्जन में कटौती की घोषणा की है। यदि यह सभी देश इन घोषणाओं पर अमल
करते हैं तो 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के प्रमुख लक्ष्यों को पूरा किया जा सकता
है। एक नए विश्लेषण से पता चला है कि भारत,
चीन और अन्य देशों की
संशोधित प्रतिबद्धताएं इस सदी में तापमान की वृद्धि को 1.9 डिग्री सेल्सियस तक
सीमित कर सकती हैं। लेकिन मेलबोर्न युनिवर्सिटी के जलवायु वैज्ञानिक माल्टे
मायनसुआज़ेन को लगता है कि इन घोषणाओं को पूरा करने के लिए काफी काम करना होगा।
ब्रेकथ्रू इंस्टीट्यूट के जलवायु वैज्ञानिक
ज़ेके हौसफादर के अनुसार जलवायु के नए अनुमान हालिया अनुमानों से नीचे नहीं हैं।
अक्टूबर में जारी यू.एन. की रिपोर्ट में हालिया और पिछली प्रतिज्ञाओं को शामिल
किया गया है जिसमें लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की अनुमानित वार्मिंग को ध्यान में
रखते हुए कार्बन स्थिरीकरण के साथ उत्सर्जन को संतुलित करते हुए नेट-ज़ीरो प्राप्त
करने की दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं को भी शामिल किया गया है। इसी तरह, इंटरनेशनल
एनर्जी एजेंसी (आईईए) की रिपोर्ट का अनुमान है कि वर्तमान प्रतिबद्धताएं वार्मिंग
को 1.8 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर देंगी। भारत और चीन की प्रतिबद्धताएं कुछ बड़े
बदलाव कर सकती हैं।
मायनसुआज़ेन और उनके सहयोगियों ने सम्मेलन
के शुरू होते ही राष्ट्रों द्वारा प्रस्तुत प्रतिज्ञाओं का संकलन किया। इनमें 2050
से 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं को भी शामिल किया गया
है। इनमें से कुछ लक्ष्य वित्तीय सहायता पर निर्भर हैं जबकि अन्य बिना किसी शर्त
के निर्धारित किए गए हैं। इन उत्सर्जन अनुमानों को जलवायु मॉडल में डालने पर
वार्मिंग के संभावित परिणाम पता चले हैं।
सम्मेलन के पहले की प्रतिज्ञाओं के आधार पर
इस सदी की वार्मिंग 1.5-3.2 डिग्री सेल्सियस के बीच अनुमानित थी। लेकिन नई
प्रतिज्ञाओं के आधार पर काफी संभावना 1.9 डिग्री सेल्सियस से कम वृद्धि की है। इन
में भारत का 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य प्राप्त करने,
चीन की नई जलवायु
प्रतिज्ञाएं और 2030 तक उत्सर्जन को कम करने के लिए 11 अन्य राष्ट्रीय प्रतिज्ञाएं
भी शामिल हैं।
इम्पीरियल कॉलेज लंदन के एक जलवायु
वैज्ञानिक जोएरी रोगेली के अनुसार यदि देश अपने वादों का पूरी तरह से पालन करते
हैं तब भी तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ने की काफी संभावना होगी क्योंकि कई
मामलों में स्पष्टता की कमी है। उदाहरण के लिए भारत ने यह स्पष्ट नहीं किया कि
नेट-ज़ीरो की प्रतिबद्धता केवल कार्बन डाईऑक्साइड के लिए है या सभी ग्रीनहाउस गैसों
पर लागू होती है।
इसके अलावा, कई घोषणाएं महज दिखावा भी हो सकती हैं। जैसे, ऑस्ट्रेलिया में जलवायु लक्ष्यों का दिखावा करने के साथ-साथ जीवाश्म ईंधन के उपयोग में विस्तार किया जा रहा है। इसके अलावा, विकासशील देशों को कई योजनाओं हेतु वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी। फिर भी प्रतिज्ञाएं एक महत्वपूर्ण सुधार की द्योतक हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ukcop26.org/wp-content/uploads/2021/11/WLS_960x640.jpg
भरतपुर अभयारण्य के नाम से मशहूर कीलादू घाना राष्ट्रीय
उद्यान, भरतपुर, राजस्थान के क्षेत्र में काम करने वाले
पारिस्थितिकीविदों ने 1970 के दशक में स्थानीय निवासियों द्वारा मवेशियों को
अनियंत्रित तरीके से चराने पर आपत्ति ज़ाहिर की थी। पारिस्थितिकीविदों का मानना था
कि मवेशियों के चरने से अभयारण्य में जल राशियों के आसपास के क्षेत्र की घास से
ढकी जगह भी नष्ट हो जाएगी। तब हज़ारों प्रवासी पक्षियों के लिए यह स्थान रहने
योग्य नहीं रहेगा जिनके लिए यह अभयारण्य विश्व प्रसिद्ध है। मवेशियों के चरने के
विरुद्ध पर्यावरण कार्यकर्ताओं के निरंतर विरोध और पर्यावरण विशेषज्ञों तथा वन
प्रबंधकों की लगातार बयानबाज़ी ने राजस्थान सरकार को 1982 में मवेशियों के चरने पर
औपचारिक रूप से प्रतिबंध लगाने पर मजबूर किया। सरकार के इस निर्णय को एक बड़ी सफलता
के रूप में देखा गया जिसमें कार्यकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने मिलकर एक पर्यावरणीय
मुद्दे पर काम किया। हालांकि, इससे पहले कि इस कामयाबी के जश्न का शोर
थमता, चराई पर इस प्रतिबंध ने एक और अप्रत्याशित आपदा को जन्म दे
दिया।
चराई पर प्रतिबंध लगने से उस क्षेत्र की
घास इतनी लंबी हो गई कि प्रवासी पक्षियों को जल राशियों के किनारों पर उतरने और
पोषण के लिए भोजन तलाश करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसके
परिणामस्वरूप, पारिस्थितिकीविदों की अपेक्षा के विपरीत, अभयारण्य
में प्रवासी पक्षियों की संख्या निरंतर घटती गई। तो क्या यह कहना उचित होगा कि इस
मामले में विज्ञान असफल हुआ? शायद नहीं। जैसा कि माइकल लेविस ने कहा है
(कंज़रवेशन सोसाइटी, 2003,
1, 1-21), भरतपुर
अभयारण्य आपदा ‘अपर्याप्त रूप से जांचे-परखे सिद्धांतों पर आधारित मान्यताओं’ का
मामला था। इसके अलावा, यह वैज्ञानिकों और वन प्रबंधकों के उतावलेपन का भी नतीजा था
जो पर्याप्त तथ्य उपलब्ध न होने के बावजूद चेतावनी देने पर आमादा रहे।
वनों और जैव विविधता का ह्रास, प्रजातियों
की विलुप्ति, जलवायु परिवर्तन, पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश, जेनेटिक
पूल का क्षरण, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों का अनिर्वहनीय उपयोग जैसे
मुद्दे विशेष रूप से मीडिया और कार्यकर्ताओं के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं। वैज्ञानिकों
एवं विशेषज्ञ समितियों द्वारा दिया गया कोई भी बयान यदि सही ढंग से और उपयुक्त
डैटा के साथ व्यक्त नहीं किया जाता, तो पूरी संभावना होती है कि मीडिया इसे
तोड़-मरोड़ कर और सनसनीखेज़ बनाकर पेश कर देगा। इस प्रक्रिया में, मूल
संदेश का अर्थ आंशिक या पूर्ण रूप से विकृत कर दिया दिया जाता है या कोई सर्वथा
नया संदेश ही बना दिया जाता है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण नेचर पत्रिका (2004, 427, 145-148)
में जलवायु परिवर्तन पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के आधार पर मानव-निर्मित आपदा की एक
बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई तस्वीर में दिखा। इस रिपोर्ट में 1103 प्रजातियों के
विश्लेषण के आधार पर दावा किया गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण अगले 50 वर्षों
में इनमें से कुछ प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। लेकिन यूके के मीडिया ने इस
चेतावनी को बहुत गलत तरीके से प्रस्तुत करते हुए बताया कि: ‘पूरे विश्व की एक-तिहाई
प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी’ या ‘2050 तक दस लाख प्रजातियां’ विलुप्त हो सकती
हैं। इस गलत रिपोर्टिंग की उत्पत्ति पता लगाने के लिए की गई एक समीक्षा से पता चला
कि समस्या वास्तव में वैज्ञानिकों द्वारा प्रेस को जारी की गई सामग्री में उपयोग
की गई भाषा में थी। इस घटना से पता चलता है कि यदि किसी वैज्ञानिक दावे को जनता या
मीडिया तक ठीक तरह से सूचित न किया जाए तो विज्ञान और वैज्ञानिकों की विश्वसनीयता
दांव पर लग सकती है।
वैज्ञानिक और विशेष रूप से जैव विविधता, प्राकृतिक
पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण, जलवायु परिवर्तन आदि के क्षेत्र में काम कर
रहे वैज्ञानिक अक्सर अपने निष्कर्षों के ग्रह के भविष्य और मनुष्यों के अस्तित्व
पर निहितार्थ को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। उनके द्वारा दिए गए बयानों से लोगों
में डर पैदा हो सकता है। वे ऐसा अनजाने में या जानबूझकर करते हैं ताकि नीति
निर्माताओं और प्रशासन तंत्रो का ध्यान आकर्षित कर सकें और उन्हें तत्काल कार्रवाई
के लिए प्रेरित कर सकें। लेकिन कई बार ऐसे बयानों की गुणवत्ता की जांच उस सख्ती से
नहीं की जाती है जितनी विज्ञान की मांग होती है। यह अत्यंत आवश्यक है कि वैज्ञानिक
सार्वजनिक बयानों पर गंभीरता से विचार करें ताकि उन पर सनसनी फैलाने का दोष न लगे।
प्रजातियों के विलुप्त होने के दावे इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकते हैं।
1980 के दशक के बाद से, कुछ
प्रमुख वैज्ञानिकों द्वारा हर दशक में हज़ारों प्रजातियों के विलुप्त होने सम्बंधी
बयान आते रहे हैं। उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध अमेरिकी जीवविज्ञानी ई. ओ. विल्सन
ने जैव विविधता संरक्षण का आव्हान करते हुए कहा था: ‘मानव गतिविधियों के कारण
प्रजातियों के विलुप्त होने की प्रक्रिया तेज़ी से जारी है,
यदि ऐसा चलता रहा तो
इस सदी के अंत तक आधी से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी’ (न्यू यॉर्क
टाइम्स सन्डे रिव्यू, 4 मार्च 2018;
https://eowilsonfoundation.org/the-8-millionspecies-wedont-know/)। मानवजनित गतिविधियों के कारण प्रजातियों
के विलुप्त होने की ऐसी उच्च दर की बात विश्वभर के प्रसिद्ध जीवविज्ञानी दोहराते
रहे हैं ताकि जैव-विविधता संरक्षण के प्रयासों को गति मिल सके। हाल ही में
अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के संदर्भ में भारत में प्रकाशित हुए एक लेख में कहा
गया था: ‘वर्ष 2000 के बाद से हमने विश्व स्तर पर 7 प्रतिशत अछूते वनों को खो दिया
है, और हाल ही के आकलनों से संकेत मिलता है कि आने वाले दशकों
में 10 लाख से अधिक प्रजातियां हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएंगी। हमारा देश भी इन
रुझानों का अपवाद नहीं है।’ (दी हिंदू,
5 जून 2021)। हालांकि
प्रजातियों के विलुप्त होने की दर में संभावित वृद्धि से इन्कार तो नहीं किया जा
सकता है लेकिन यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी उच्च दरों के दावों के समर्थन में
शायद ही कोई डैटा उपलब्ध है। यदि वास्तव में प्रजातियां इतनी उच्च दर से विलुप्त
हो रही हैं, तो पिछले कुछ दशकों के दौरान लाखों प्रजातियों को हमेशा के
लिए विलुप्त हो जाना चाहिए था। और यदि इनमें से एक अंश को ही सूचीबद्ध किया जाए तो
भी विलुप्त प्रजातियों की संख्या चंद हज़ार से अधिक तो होनी चाहिए थी। लेकिन हमारे
पास विश्व भर की ऐसी एक हज़ार प्रजातियों की सूची भी नहीं है जिन्हें पिछले कुछ
दशकों में निश्चित रूप से विलुप्त प्रजातियों की सूची में रखा जा सके। आईयूसीएन की
रेड लिस्ट वेबसाइट (https://www.iucn.org/sites/dev/files/import/downloads/species_extinction_05_2007.pdf),
के अनुसार ‘पिछले 500
वर्षों में मानव गतिविधियों ने 869 प्रजातियों को विलुप्त (या प्राकृतिक स्थिति
में गायब) होने के लिए मजबूर किया है।‘ ज़ाहिर है,
पिछले 50 वर्षों में
यह संख्या बहुत ही कम रही होगी! यानी हमारे दावों का समर्थन करने के लिए हमारे पास
डैटा ही नहीं है। यदि जनता के द्वारा इस मुद्दे को उठाया जाता है, तो
वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिकों के रूप में हम खुद को कहां पर खड़ा पाते हैं?
यकीनन इस असहज स्थिति से बच निकलने का एक
रास्ता तो हमेशा रहता है। कहा जा सकता है कि ‘जब हमारे पास इस बात की पूरी जानकारी
नहीं है कि हमारे पास क्या है, तो हम यह कैसे बता सकते हैं कि हम क्या खो
रहे हैं?’ चलिए इसे सही मान लेते हैं। लेकिन विलुप्त होने की दर इतनी
अधिक बताई जा रही है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान ‘ज्ञात और वर्णित प्रजातियों में
से कुछ सैकड़ा को तो विलुप्त हो ही जाना चाहिए था।’ लेकिन तथ्य यह है कि जैव
विविधता पर काम शुरू होने के पिछले चार दशकों के दौरान हमारे पास निश्चित रूप से
विलुप्त हो चुकी 100 प्रजातियों की भी सत्यापित सूची नहीं है। हालांकि, मीडिया
में अक्सर ऐसे सनसनीखेज़ दावे किए जाते रहे हैं कि आईयूसीएन के अनुसार, पिछले
दशक में, 160 प्रजातियां विलुप्त हुई हैं,
और इसके तुरंत बाद ही
एक पुछल्ला जोड़ दिया जाता है: हालांकि ‘अधिकांश प्रजातियां काफी लंबे समय से
विलुप्त हैं’ (https://www.lifegate.com/extinct-specieslist-decade-2010-2019)। दूसरे शब्दों में, विलुप्त
प्रजातियों के दावों का समर्थन करने के लिए हमारे पास कोई डैटा भी मौजूद नहीं है, और
यदि है भी तो जिन प्रजातियों को ‘संभवत: विलुप्त प्रजाति माना जा रहा था’ उनमें से
कई प्रजातियों के बारे में पता चल रहा है कि वे अभी मौजूद या जीवित हैं!!
इसके अतिरिक्त,
संरक्षण
जीवविज्ञानियों द्वारा प्रजातियों को लाल सूची में डलवाकर डर का माहौल भी बनाया
जाता है ताकि प्रजातियों के संरक्षण की ओर ध्यान आकर्षित किया जा सके। हालांकि इस
कवायद के पीछे की भावना काफी प्रशंसनीय है लेकिन इसकी कार्य प्रणाली की जांच-परख
आवश्यक है। प्रजातियों की लाल सूची तैयार करने का कार्य आईयूसीएन और कई अन्य
एजेंसियों को सौंपा गया है जिन्होंने ऐसे कई मानदंड तैयार किए हैं जिनके आधार पर
प्रजातियों को खतरे की विभिन्न श्रेणियों (जैसे विलुप्त,
प्राकृतिक स्थिति में
विलुप्त, लुप्तप्राय, जोखिमग्रस्त आदि) में वर्गीकृत किया जा
सकता है (https://www.iucnredlist.org/resources/categories-and-criteria)। अलबत्ता,
खतरे के आकलन के लिए
आवश्यक डैटा प्राप्त करने के कष्टदायी कार्य के कारण सभी मानदंडों को पूरी तरह
लागू नहीं किया जाता है। इस प्रकार, ठोस डैटा की अनुपस्थिति में, ‘एहतियाती
सिद्धांत’ का सहारा लेते हुए, सख्त मानकों का पालन नहीं किया जाता और
प्रजातियों को लाल सूची या अन्य श्रेणियों में व्यक्तिपरक मूल्यांकन के आधार पर सूचीबद्ध
किया जाता है। कुछ वर्ष पहले, दक्षिण भारत के लाल-सूचिबद्ध औषधीय पौधों
की प्रजातियों के डैटा का उपयोग करते हुए हमने यह जानने का प्रयास किया कि क्या ये
पौधे वास्तव में लाल सूची से बाहर की प्रजातियों की तुलना में दुर्लभ (फैलाव में)
हैं और कम प्रजनन करते हैं (करंट साइंस,
2005, 88, 258-265)।
खोज के परिणाम आश्चर्यजनक थे: सांख्यिकीय दृष्टि से लाल-सूचीबद्ध प्रजातियां इस
सूची के बाहर की प्रजातियों की तुलना में दुर्लभ नहीं हैं और न ही वे अपनी
जनसंख्या संरचना में किसी प्रकार से कम हैं। हालांकि,
औषधीय पौधों की प्रजातियों
पर मंडराते खतरों को कम न आंकते हुए और यह मानते हुए कि संरक्षण प्रयासों के लिए
आमतौर पर अत्यधिक मेहनत और धन की आवश्यकता होती है,
क्या यह बेहतर नहीं
होगा कि उन प्रजातियों की सूची तैयार करने में सावधानी बरती जा जाए जिन्हें
‘वास्तव में’ संरक्षण की आवश्यकता है?
आइए अब हम ऐसे दावों के खतरों पर चर्चा करते हैं। ऐसे अपुष्ट दावों का इस्तेमाल नीति निर्माताओं और शासन तंत्र पर दबाव बनाने के लिए किया जाता है ताकि वे जैव विविधता पर ध्यान दें। वे इसके लिए अपने लक्षित पाठकों/श्रोताओं के बीच भय की स्थिति (यह शब्द माइकल क्रेटन द्वारा जलवायु परिवर्तन सम्बंधी इसी नाम के एक उपन्यास से लिया गया है) बनाते हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि चूंकि हमारे पास अपने दावे के समर्थन में ठोस डैटा नहीं है इसलिए भय की इस स्थिति का निर्वाह नहीं किया जा सकता! इस तरह की रणनीति उस उद्देश्य को ही परास्त कर सकती है जिसके लिए ये दावे किए (या रचे!!) जा रहे हैं। वास्तव में, एक असमर्थित और अस्थिर ‘भय की स्थिति’ बनाना लंबे समय में काफी खतरनाक है; और इस विषय में उन वैज्ञानिकों को गंभीर रूप से विचार-विमर्श करना चाहिए जो निर्वाह-योग्य भविष्य का ढोल आए दिन पीटते रहते हैं। ध्यान आकर्षित करने, धन जुटाने, नीति और शासन को प्रभावित करने के उत्साह में हम एक जवाबदेह मूल्यांकन और रिपोर्टिंग की परंपरा की बजाय जनता और मीडिया के बीच एक अस्थिर भय पैदा करने की जल्दबाज़ी में हैं। ऐसे समय में हम वैज्ञानिकों को एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वैज्ञानिक समुदाय अपनी विश्वसनीयता ही खो दे। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख पूर्व में करंट साइंस (अंक 121, क्रमांक 1, 10 जुलाई 2021) में प्रकाशित हुआ था।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://timesofindia.indiatimes.com/img/68307032/Master.jpg
पश्चिम अफ्रीका के चिम्पैंज़ी ताड़ के फल से गिरी निकालने के
लिए एक युक्ति इस्तेमाल करते हैं – फल को एक सपाट पत्थर पर रखकर दूसरे पत्थर का
हथौड़े की तरह इस्तेमाल करते हुए फल पर मारते हैं,
ताकि उसकी बाहरी सख्त
खोल चटक जाए।
अब तक वैज्ञानिकों को चिम्पैंज़ी के इस
औज़ार के बारे में अधिक जानने के लिए चिम्पैंजियों की घंटों लंबी रिकॉर्डिंग को
निहारना पड़ता जिसमें हफ्तों लग जाते थे। अब इस काम में कृत्रिम बुद्धि मदद कर
सकती है, जो चिम्पैंजि़यों के वीडियो फुटेज में से सही क्लिप को ढूंढ
सकती है।
युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की प्राइमेटोलॉजिस्ट
सुज़ाना कार्वाल्हो और उनके साथियों ने चिम्पैंज़ी के दो व्यवहारों का अध्ययन
किया: फल से गिरी निकालना और नगाड़ेबाज़ी (चिम्पैंज़ी द्वारा हाथों या पैरों से
पेड़ की सहारा जड़ों को पीटना।) वैज्ञानिकों के अनुसार ये दोनों व्यवहार
प्राइमेट्स में सीखने की प्रक्रिया और संवाद को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण
हैं। इसके अलावा इन हरकतों के दौरान आवाज़ भी उत्पन्न होती है, यानी
शोधकर्ता दृश्य के साथ-साथ ध्वनि से भी कंप्यूटर मॉडल को प्रशिक्षित कर सकते हैं।
उक्त मॉडल को गिरी निकालने का व्यवहार
समझाने के लिए शोधकर्ताओं ने लगभग 40 घंटे की और ड्रमिंग के लिए लगभग 10 घंटे लंबी
वीडियो रिकॉर्डिंग का इस्तेमाल किया। ड्रमिंग की क्लिप खास तौर से उग्र व्यवहार की
थी जिसे “बट्रेस ड्रमिंग” कहा जाता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि अलग-अलग
चिम्पैंज़ी-समूहों में ड्रमिंग का तरीका अलग-अलग हो सकता है।
पहले तो शोधकर्ताओं ने ऑडियो और वीडियो की
कोडिंग के ज़रिए कंप्यूटर को प्रशिक्षित किया। वीडियो में जहां-जहां चिम्पैंज़ी थे
उनके आसपास चौकोर दायरा खींचा और उनमें वे क्या गतिविधि कर रहे हैं उसे लिखा। इस
तरह उन्होंने कंप्यूटर को सिखाया कि क्या देखना है और क्या अनदेखा करना है।
कभी-कभी चिम्पैंज़ी नज़र नहीं आते थे। इसलिए शोधकर्ताओं ने ध्वनि से पहचानने के
लिए भी प्रशिक्षित किया।
जब कंप्यूटर का प्रशिक्षण पूरा हो गया तो
शोधकर्ताओं ने उसका परीक्षण किया। उन्होंने उसे दोनों व्यवहारों के ऐसे वीडियो
दिखाए जो उसने पहले कभी नहीं देखे थे। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित शोध
पत्र के अनुसार कंप्यूटर ने गिरी निकालने के व्यवहार 77 प्रतिशत और नगाड़ेबाज़ी का
व्यवहार 86 प्रतिशत बार सही-सही पहचाना।
शोधकर्ताओं ने इस कंप्यूटर के ज़रिए पता किया कि चिम्पैंज़ी गिरी निकालने और नगाड़ेबाज़ी जैसे व्यवहार में कितना वक्त बिताते हैं, और नर और मादा में कोई अंतर है क्या। उम्मीद है कि नए मॉडल को अन्य प्रजातियों और अन्य व्यवहारों की निगरानी के लिए भी प्रशिक्षित किया जा सकेगा। यह भी देखा जा सकता है कि कोई एक चिम्पैंज़ी कौशल कैसे विकसित करता है। फुटेज का विश्लेषण यह समझने में मदद कर सकता है कि जलवायु परिवर्तन और आवास की क्षति प्राइमेट्स के व्यवहार को कैसे प्रभावित कर रहे हैं। संभावनाएं तो अपार हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://im.indiatimes.in/media/content/2017/Oct/chim_1506840084_725x725.jpg
मच्छर वाहित बीमारियां हज़ारों वर्षों से अभिशाप रही हैं, इनकी वजह से कई सेनाएं परास्त हुईं और अर्थव्यवस्थाएं डगमगाई हैं। ऐसे में मलेरिया के लिए एक प्रभावी टीका आने की रिपोर्ट हमें राहत देती है। इस टीके के क्लीनिकल परीक्षण ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और अन्य ने बुर्किना फासो में किए हैं।
पश्चिम अफ्रीकी देश बुर्किना फासो में
मानसून के बाद लंबे समय तक गर्मी पड़ती है,
और तब ही मच्छर बड़े
झुंडों में निकलते हैं। R21 नामक टीके ने 77 प्रतिशत प्रभाविता
दर्शाई है। यह टीका मलेरिया परजीवी, प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम, के
सर्कमस्पोरोज़ाइट प्रोटीन (CSP) को लक्षित करता है। इस परजीवी की
स्पोरोज़ाइट अवस्था CSP स्रावित करती है। मच्छर के काटने से CSP और
स्पोरोज़ाइट्स मानव रक्तप्रवाह में प्रवेश कर जाते हैं। CSP
परजीवी को यकृत (लीवर)
में ले जाता है जहां यह यकृत कोशिकाओं में प्रवेश कर जाता है, परिपक्व
होता है और संख्या वृद्धि करता है। फिर, परिपक्व मेरोज़ाइट्स मुक्त होते हैं और
मलेरिया के लक्षण दिखाई देने शुरू हो जाते हैं।
मलेरिया के टीके
हाल ही में डब्ल्यूएचओ ने एक टीके, मॉस्क्यूरिक्स, को
मंज़ूरी दी है। यह टीका यूके के ग्लैक्सो स्मिथ क्लाइन (जीएसके) ने लंदन स्कूल ऑफ
हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के सहयोग से तैयार किया है। इस टीके का परीक्षण
केन्या, मलावी और घाना के 8 लाख से अधिक बच्चों पर किया गया है।
टीका लेने के पहले साल में इसकी प्रभाविता 50 प्रतिशत से अधिक देखी गई है, लेकिन
वक्त बीतने के साथ प्रभाविता कम होती गई। ग्लोबल वैक्सीन एलायंस (जीएवीआई) उन
देशों के लिए टीके खरीदने की योजना बना रहा है जिन्होंने इसकी मांग की है।
हैदराबाद की भारत बायोटेक ने भारत में इस
टीके को विकसित करने के लिए जीएसके के साथ अनुबंध किया है,
जिसके लिए भुवनेश्वर
में विशेष व्यवस्था होगी।
डेंगू से जंग
एक और तेज़ी से फैलने वाली बीमारी है
डेंगू। यह एडीज़ एजिप्टी मच्छरों से फैलती है,
जो ठहरे हुए पानी में
पनपते हैं, जैसे टायर वगैरह में भरा पानी। डेंगू वायरस के चार सीरोटाइप
पाए जाते हैं। सीरोटाइप टीका निर्माण को मुश्किल बनाते हैं, क्योंकि
प्रत्येक सीरोटाइप के लिए अलग टीके की आवश्यकता होती है। सेनोफी पाश्चर द्वारा
डेंगू के खिलाफ तैयार किया गया टीका, डेंगवैक्सिया,
कई देशों में स्वीकृत
है और वायरस के चारों सीरोटाइप के खिलाफ 42 प्रतिशत से 78 प्रतिशत तक कारगर है।
भारत में ज़ायडस कैडिला डेंगू के खिलाफ
डीएनए आधारित एक टीका विकसित कर रही है। तिरुवनंतपुरम स्थित राजीव गांधी सेंटर फॉर
बायोटेक्नॉलॉजी के डॉ. ईश्वरन श्रीकुमार ने चारों सीरोटाइप का एक साझा संस्करण
तैयार किया है जो ज़ायडस कैडिला के डीएनए आधारित टीके की बुनियाद है। इस कार्य में
कोविड-19 टीका विकसित करने के अनुभव का लाभ मिल रहा है।
डेंगू से लड़ने के अन्य नए तरीकों पर भी
काम चल रहा है। इनमें से एक दिलचस्प तरीके में एक बैक्टीरिया, वॉल्बेचिया
पाइपिएंटिस, का उपयोग किया जाता है। वॉल्बेचिया पाइपिएंटिस
एक-कोशिकीय परजीवी है। यह परजीवी सामान्यत: कई कीटों में पाया जाता है, लेकिन
यह डेंगू फैलाने वाले मच्छरों में नहीं होता। जब इस परजीवी को डेंगू फैलाने वाले
मच्छरों की कोशिकाओं में प्रवेश कराया जाता है तो यह डेंगू, चिकनगुनिया, पीत
ज्वर और ज़ीका का कारण बनने वाले अन्य परजीवियों से सफल प्रतिस्पर्धा करता है।
प्रयोगशाला में वॉल्बेचिया से ग्रस्त किए
गए एडीज़ मच्छर उन इलाकों में छोड़े जाते हैं जहां यह बीमारी अधिक होती है। ये
मच्छर फौरन ही स्थानीय एडीज़ मच्छरों में इस बैक्टीरिया को फैला देते हैं, और
डेंगू के नए मामले कम होने लगते हैं। गादजाह मादा विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने
जकार्ता में किए गए एक नियंत्रित अध्ययन में दिसंबर 2017 में शहर के 12 इलाकों में
वॉल्बेचिया से संक्रमित एडीज़ मच्छर के अंडे रखे (9 अन्य इलाकों में नियंत्रण के
तौर पर वॉल्बेचिया-रहित अंडे रखे गए)। मार्च 2020 में कोविड महामारी के कारण
अध्ययन थम जाने तक नियंत्रण वाले 9 इलाकों की तुलना में 12 प्रायोगिक इलाकों में
डेंगू के 77 प्रतिशत कम मामले दर्ज हुए थे। डेंगू के कारण अस्पताल में भर्ती होने
वालों की संख्या में 86 प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी और बुखार की तीव्रता भी कम
हुई थी।
रोकथाम
मच्छर वाहित बीमारियों का इलाज करने की
बजाय उनसे बचाव का एक और तरीका यह है इनके अगले प्रकोप की सटीक भविष्यवाणी कर ली
जाए। और उसके मुताबिक अपने स्वास्थ्य तंत्र और मच्छर नियंत्रण प्रणालियों का उपयोग
किया जाए।
मच्छर और प्लास्मोडियम परजीवी दोनों को पनपने के लिए गर्म और नम मौसम की आवश्यकता होती है। NOAA-19 जैसे पर्यावरण उपग्रहों द्वारा लगातार एकत्रित किए गए डैटा का उपयोग करते हुए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च के वैज्ञानिकों ने ऐसे मॉडल तैयार किए हैं जो मासिक वर्षा डैटा और डेंगू और मलेरिया के वार्षिक राज्य-वार प्रकोप के डैटा को अल-नीनो-सदर्न ऑसीलेशन के साथ जोड़ता है। अल-नीनो-सदर्न ऑसीलेशन वैश्विक वायुमंडलीय प्रवाह को प्रभावित करता है। इस तरह, यह एक पूर्व-चेतावनी उपकरण है जो प्रकोप के शुरू होने, उसके फैलने और संभावित मामलों की संख्या का पूर्वानुमान लगाता है। इस तरह स्वास्थ्य अधिकारी प्रकोप के प्रभाव को कम करने के लिए कई हफ्तों पहले से ही एहतियाती उपाय शुरू कर सकते हैं। भारत में वर्तमान में यह जानकारी राज्य स्तर के लिए उपलब्ध है। अगला कदम ज़िला स्तर पर जानकारी उपलब्ध कराना होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/9he5xs/article37475340.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_1200/14TH-SCIAEDESjpg
यह तो अंदाज़ा था कि व्हेल जैसे विशाल प्राणी की भूख भी
विशाल होगी। लेकिन कितनी विशाल? हाल ही में शोधकर्ताओं ने पता
लगाया है कि बलीन व्हेल की खुराक अनुमान से तीन गुना अधिक है। इनके मुंह में
कंघीनुमा छन्ना होता है, जिसे बलीन कहते हैं। यह समुद्र
में तैरते हुए पानी के साथ अंदर आए अपने शिकार (छोटे-छोट क्रस्टेशियन जंतु और
प्लवक) को छानकर ग्रहण करने में मदद करता है।
इस अध्ययन ने एक विरोधाभास को भी दूर कर दिया है। क्रस्टेशियन जंतुओं का जितनी
मात्रा में ये व्हेल भक्षण करती हैं, उसे देखते हुए कहा जा
सकता है कि यदि व्हेल न हों तो इन नन्हें जंतुओं की आबादी बढ़ेगी। लेकिन वास्तव
में शिकार के चलते समुद्रों में व्हेल की संख्या में गिरावट के बाद क्रस्टेशियन की
संख्या में भी तेज़ गिरावट देखी गई है।
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि ये व्हेल समुद्र में पोषक तत्वो का संवहन भी
करती हैं: वे समुद्र के पेंदे से भोजन ग्रहण करती हैं और ऊपरी सतह पर आकर अपशिष्ट
उत्सर्जित करती हैं, जिससे समंदर में पोषक तत्वों का चक्रण होता
रहता है। यह क्रस्टेशियन्स के लिए पोषण का महत्वपूर्ण स्रोत होता है। इसलिए व्हेल
के जाने पर क्रस्टेशियन्स को पोषण मिलना भी बंद हो गया।
युनिवर्सिटी ऑफ हॉपकिंस मरीन स्टेशन के पारिस्थितिकीविद मैथ्यू सावोका यह पता
लगाना चाहते थे कि व्हेल के पेट में कितना प्लास्टिक चला जाता है? लेकिन पहले उन्हें एक अधिक बुनियादी सवाल का जवाब पता लगाना पड़ा: व्हेल की
कुल खुराक कितनी है? क्योंकि अब तक इस सम्बंध में मोटे-मोटे
अनुमान ही लगाए गए थे।
सवोका और उनके दल ने ड्रोन, इको-साउंडिंग उपकरण और सक्शन
कप ट्रैकिंग डिवाइस की मदद से 321 व्हेल पर नज़र रखी। नौ वर्ष (2010-19) चले इस
अध्ययन में उन्होंने अटलांटिक, प्रशांत और दक्षिणी महासागर की
सात व्हेल प्रजातियों का भोजन सम्बंधी डैटा जुटाया। पूरी प्रक्रिया काफी कठिन थी।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित निष्कर्षों के अनुसार बलीन व्हेल अनुमान
से तीन गुना अधिक भोजन गटकती हैं। उदाहरण के लिए, उत्तरी
प्रशांत की ब्लू व्हेल एक दिन में औसतन 16 टन छोटे क्रस्टेशियंस खा जाती है – लगभग
दो ट्रक भरकर। इसी प्रकार से, धनुषाकार सिर वाली व्हेल
प्रतिदिन लगभग 6 टन जंतु-प्लवक खाती है। इस आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि
बीसवीं सदी में बड़े पैमाने पर व्हेल का शिकार शुरू होने से पहले दक्षिणी महासागर
की बलीन व्हेल प्रति वर्ष लगभग 43 करोड़ टन क्रस्टेशियन्स खा जाती थीं।
अध्ययन में विशेष रूप से यह भी देखा गया कि व्हेल अनुमान से अधिक लौह जैसे
पोषक तत्वों का उत्पादन और मिश्रण करती हैं। परिणामस्वरूप समुद्री खाद्य शृंखला की
बुनियाद – प्रकाश संश्लेषक प्लवक – की संख्या में वृद्धि होती है। जिसका अर्थ है
व्हेल के लिए अधिक क्रस्टेशियन्स और शिकार के लिए अधिक मछलियां उपलब्ध होना। इसके
अलावा प्रकाश संश्लेषण अधिक होने से वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड भी अधिक
अवशोषित होगी।
यह अध्ययन ध्यान दिलाता है कि व्हेल का शिकार महासागरों को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह से प्रभावित करता है और पारिस्थितिकी काफी पेचीदा मामला है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://uk.whales.org/wp-content/uploads/sites/6/2018/12/humpback-whale-wdc-1024×682.jpg
जलवायु परिवर्तन पर ग्लासगो में आयोजित महासम्मेलन के साथ ही
जलवायु परिवर्तन के लिए स्थापित कोश पर चर्चा बढ़ गई है। इस कोश की स्थापना वर्ष
2009 में कोपनहेगन में आयोजित जलवायु परिवर्तन के महासम्मेलन में की गई थी। इस
घोषणा के अनुसार विकासशील व निर्धन देशों की जलवायु सम्बंधी कार्रवाइयों में
सहायता के लिए सम्पन्न देशों को 2020 तक 100 अरब डॉलर के जलवायु परिवर्तन कोश की
स्थापना करनी थी।
इस कोश की वास्तविक प्रगति निराशाजनक रही है। इसके लिए उपलब्ध धनराशि इस समय
भी 100 अरब डॉलर वार्षिक से कहीं कम है। इतना ही नहीं, जहां
पूरी उम्मीद थी कि यह सहायता अनुदान के रूप में उपलब्ध होगी, वहां वास्तव में इस सहायता का मात्र लगभग 20 प्रतिशत ही अनुदान के रूप में
उपलब्ध करवाया गया व शेष राशि तरह-तरह के कर्ज़ के रूप में दी गई। यह एक तरह से
विश्वास तोड़ने वाली बात है। भला जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के उपाय को ब्याज पर दिए
गए कर्ज़ से कैसे पाया जा सकेगा? आरोप तो यह भी है कि इसी कोश
से धनी देशों की अपनी परियोजनाओं को भी धन दिया जा रहा है।
इस तरह यह कोश इस समय बुरी तरह भटक गया है। अब यह मांग ज़ोर पकड़ रही है कि इसे
अपने मूल उद्देश्य के अनुरूप पटरी पर लाया जाए तथा विकासशील व निर्धन देशों के लिए
100 अरब डालर के वार्षिक अनुदान की व्यवस्था मूल उद्देश्य के अनुरूप की जाए।
इतना ही नहीं, अब इससे आगे यह मांग भी उठ रही है कि निकट
भविष्य में 100 अरब डॉलर की अनुदान राशि में और वृद्धि भी की जाए। यह मांग अफ्रीका
महाद्वीप के अनेक गणमान्य विशेषज्ञों व जलवायु परिवर्तन वार्ताकारों ने रखी है और
स्पष्ट किया है कि अकेले उनके अपने महाद्वीप की ही ज़रूरत इससे कहीं अधिक है।
तुलना के लिए यह देखा जा सकता है कि विश्व के अरबपतियों की कुल संपदा 13,000
अरब डालर है। यदि इस पर मात्र 2 प्रतिशत टैक्स भी जलवायु परिवर्तन सम्बंधी कार्यों
के लिए अलग से लगाया जाए तो इससे 260 अरब डॉलर उपलब्ध हो सकते हैं।
यदि विश्व के केवल 10 सबसे बड़े अरबपतियों की ही बात की जाए तो इनकी कुल संपदा
1153 अरब डॉलर है। इनमें से 4 सबसे बड़े अरबपति ऐसे हैं जिनकी संपदा 100-100 अरब
डॉलर से अधिक है।
केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में एक वर्ष में मात्र शराब पर 252 अरब डॉलर खर्च
होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका व युरोपीय संघ में सिगरेट पर 1 वर्ष में 210 अरब
डॉलर से अधिक खर्च होते हैं। इस तरह के अनाप-शनाप खर्च को देखते हुए जलवायु
परिवर्तन के लिए यह कोई बड़ी मांग नहीं है। जिस समस्या को सबसे बड़ी वैश्विक समस्या
माना जा रहा है उसके कोश के लिए 100 अरब डॉलर से कहीं अधिक की व्यवस्था की जानी
चाहिए।
यदि इस धन की व्यवस्था अनुदान के रूप में सुनिश्चित हो जाती है तो इससे ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने व जलवायु परिवर्तन के दौर में बढ़ने वाली आपदाओं व कठिनाइयों का सामना करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य हो सकते हैं। विशेषकर वनों की रक्षा, नए वृक्षारोपण, चारागाहों की हिफाज़त, मिट्टी व जल संरक्षण, प्राकृतिक खेती के क्षेत्र में ऐसे कार्य संभव हो सकते हैं। अक्षय ऊर्जा को सही ढंग से बढ़ावा दिया जा सकता है। किसानों की टिकाऊ आजीविका को अधिक मजबूत किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, टिकाऊ आजीविका की रक्षा व जलवायु परिवर्तन के संकट को कम करने के कार्य एक साथ बढ़ाए जा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-03036-x/d41586-021-03036-x_19825822.jpg
हाल ही में आयोजित 26वें जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-26) में
लगभग 200 देशों ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को जल्द से जल्द खत्म करने और कोयले के
उपयोग को कम करने का अभूतपूर्व और ऐतिहासिक संकल्प लिया है। ग्लासगो में आयोजित 14
दिवसीय सम्मेलन में 196 देशों ने अगले वर्ष ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के
लिए अधिक मज़बूत जलवायु योजनाएं तैयार करने की प्रतिबद्धता दिखाई है।
कॉप-26 में लिए गए संकल्पों के आधार पर अनुमान है कि इस सदी में वैश्विक
तापमान 2.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा जबकि सम्मेलन से पहले 2.7 डिग्री सेल्सियस
का अनुमान था। बहरहाल, 2.4 डिग्री की वृद्धि भी गंभीर जलवायु
प्रभाव पैदा कर सकती है। यह पेरिस समझौते के तहत निर्धारित 1.5 डिग्री या 2 डिग्री
सेल्सियस के लक्ष्य से अधिक ही है।
ऐसा माना जा रहा है कि 2022 के अंत में नई योजनाओं को प्रस्तुत करने का मतलब
यह है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य छोड़ा नहीं गया है। यह भी कहा जा रहा है
कि उनमें यह बात भी शामिल की जानी चाहिए कि यदि सरकारें अपने लक्ष्य को पूरा नहीं
कर पाती हैं तो वे जवाबदेह होंगी। कई देशों की वर्तमान योजनाएं अपर्याप्त हैं और
उन्हें मज़बूत करने की आवश्यकता है।
26 वर्षों से चली आ रही जलवायु वार्ता में ऐसा पहली बार हुआ है जब कोयला और
जीवाश्म ईंधन सब्सिडी का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। गौरतलब है कि कोयला
दहन ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख कारणों में से एक है और कोयला, तेल एवं गैस पर विश्व स्तर पर प्रति वर्ष 5.9 ट्रिलियन डॉलर की सब्सिडी दी
जाती है।
ग्लासगो क्लाइमेट संधि के अंतिम मसौदे में सभी देशों ने अक्षम सब्सिडीज़ को
खत्म करने के प्रयासों में तेज़ी लाने के प्रति सहमति दिखाई। लेकिन अंतिम समय में
भारत के हस्तक्षेप ने कोयले के उपयोग सम्बंधी निर्णय को कमज़ोर कर दिया और कोयले के
उपयोग को “चरणबद्ध तरीके से खत्म” करने की बजाय “चरणबद्ध तरीके से कम” करने को ही
मंज़ूरी मिली। इस निर्णय में “नियंत्रित” कोयले को शामिल किया गया यानी कोयले का
ऐसा उपयोग जिसके साथ कार्बन को अवशोषित करके भंडारण की व्यवस्था हो।
सम्मेलन में लिए गए निर्णयों से जलवायु कार्यकर्ताओं को काफी निराशा हुई है।
सम्मेलन में 2030 तक उत्सर्जनों को आधा करने का निर्णय लिया जाना था जो 1.5 डिग्री
सेल्सियस तक तापमान में वृद्धि को सीमित करने के लिए आवश्यक है। लेकिन विशेषज्ञों
के अनुसार एक ही सम्मेलन से अत्यधिक उम्मीद रखना उचित नहीं है। यह निर्णय पर्याप्त
तो नहीं हैं लेकिन यह एक प्रक्रिया है जिसकी शुरुआत में कुछ अच्छे परिणाम देखने को
मिले हैं। 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य काफी कमज़ोर डोरी से टंगा है लेकिन अच्छी
बात है कि यह आज भी जीवित है।
एक अच्छी बात यह भी है कि कई देशों ने माना है कि उनकी योजनाएं संतोषप्रद नहीं
हैं और वादा किया है कि वे अगले वर्ष अधिक बेहतर योजनाओं के साथ शामिल होंगे
जिसमें 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि के लक्ष्य को ध्यान में रखा जाएगा।
इस सम्मेलन में वित्त सम्बंधी पिछले संकल्पों की भी चर्चा रही। उच्च-आय वाले
देशों द्वारा कम-आय वाले देशों को 2020 तक प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर की वित्तीय
सहायता के वादे को पूरा करने में अभी 2 वर्ष का समय और लगेगा। देशों ने इस विषय
में खेद व्यक्त करते हुए बताया कि 2019 में 80 अरब डॉलर ही प्रदान किए गए हैं और
उसमें से भी एक चौथाई राशि तो जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन बैठाने के लिए थी।
अगले तीन वर्षों में एक नई योजना तैयार करने पर भी सहमति बनी है जिसमें 2025 के
बाद जलवायु वित्त लक्ष्यों पर चर्चा की जाएगी।
पिछले कई सम्मेलनों में उत्सर्जन में कटौती की चर्चा में अनदेखा किए गए
अनुकूलन के मुद्दे को भी उठाया गया। इस बार, उच्च-आय
वाले देशों ने 2025 तक अनुकूलन वित्त को दोगुना करते हुए प्रति वर्ष 40 अरब डॉलर
करने का निर्णय लिया है और भविष्य की वार्ताओं में भी वैश्विक अनुकूलन लक्ष्य पर
काम करने के लिए भी सहमत हुए हैं।
सम्मेलन में 77 विकासशील देशों के एक समूह और चीन द्वारा “नुकसान और
क्षतिपूर्ति” के मुद्दे के लिए वित्तीय सहायता की मांग के प्रस्ताव स्वीकृति नहीं
मिल सकी। यदि इस प्रस्ताव को मान लिया जाता तो यह समुद्र के बढ़ते स्तर और इन्तहाई
मौसम जैसे प्रभावों के लिए उच्च-आय वाले देशों से कम-आय वाले देशों को वित्तीय
क्षतिपूर्ति के क्षेत्र में पहला कदम होता। फिर भी देशों ने जलवायु परिवर्तन के
प्रतिकूल प्रभावों से जुड़े नुकसान और क्षतिपूर्ति के लिए वित्त के विषय में चर्चा
जारी रखने का वादा किया है।
देशों ने पेरिस समझौते के महत्वपूर्ण तकनीकी नियमों पर भी स्पष्टीकरण किए हैं
जो पहली वैश्विक जलवायु संधि के समय से अबूझ रहे हैं। ऐसा एक मुद्दा “वैश्विक
कार्बन बाज़ार” का है। देशों के लिए नए कार्बन लक्ष्यों के लिए “सामान्य समय-सीमा”
की समस्या को भी हल किया गया। उत्सर्जन में कटौती की रिपोर्टिंग में पारदर्शिता
नियमों की समस्या को भी हल किया गया।
इस सम्मेलन के शुरुआत में देशों ने वनों की कटाई को रोकने, कोयले के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण को रोकने, तेल और गैस की नई परियोजनाओं को रोकने और शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन पर अंकुश लगाने के लिए स्वैच्छिक रूप से सौदे किए। सम्मेलन में भारत ने 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की घोषणा की। ऑस्ट्रेलिया और सऊदी अरब सहित कई देशों नें भी नेट-ज़ीरो लक्ष्य को प्राप्त करने की घोषणा की है। इसका मतलब यह हुआ कि वर्तमान विश्व उत्सर्जन का लगभग 90 प्रतिशत नेट-ज़ीरो लक्ष्य में शामिल हो गया है। अगला जलवायु सम्मेलन मिस्र में आयोजित करने का निर्णय लिया गया। (स्रोत फीचर्स)
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यदि आपको किसी ऊंची जगह पर छोटे, सफेद बीजाणुओं से घिरी मृत
मक्खी दिखे तो समझ जाइए कि यहां मौत का जाल बिछा हुआ है। ऐसी मक्खी पर एक फफूंद
(कवक) का हमला हुआ था जिसने मक्खी के मस्तिष्क पर काबू किया और मक्खी को किसी ऊंची
जगह पर जाकर बैठकर मरने को मजबूर किया ताकि फफूंद अपने बीजाणुओं को बिखराकर अधिक
से अधिक स्वस्थ मक्खियों को संक्रमित कर सके। इससे भी विचित्र बात यह है कि नर
मक्खियां उस फफूंद संक्रमित मृत मादा मक्खी के साथ संभोग करने की कोशिश भी करती
हैं।
अब,
एक ताज़ा अध्ययन से पता चला है कि यह फफूंद हवा में एक
प्रेम-रस छोड़ती है जो मक्खियों को आकर्षित करके संक्रमण की संभावना बढ़ाता है।
पूर्व में कुछ शोधकर्ताओं ने नर घरेलू मक्खी को ऐसी मादा मक्खी के शव के साथ
संभोग की कोशिश करते हुए देखा था, जो एंटोमोफथोरा म्यूसके
नामक फफूंद के संक्रमण से मारी गईं थीं। लगता तो था कि इस तरह की कोशिश फफूंद को
फैलने में मदद करती है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि क्या फफूंद नर
मक्खियों को आकर्षित करने में कोई भूमिका निभाती है।
कोपेनहेगन युनिवर्सिटी के वैकासिक पारिस्थितिकीविद हेनरिक डी फाइन लिश्ट और
एंड्रियास नौनड्रप हैनसेन ने जांच की कि क्या यह आकर्षण लैंगिक है और क्या फफूंद
इसके लिए ज़िम्मेदार है।
इसके लिए उन्होंने मादा मक्खियों को फफूंद से संक्रमित किया और उनके मरने के
ठीक बाद उन्हें एक-एक करके पेट्री डिश में रखा। और हर बार उन्होंने पेट्री डिश में
एक स्वस्थ नर भी छोड़ा और देखा कि क्या नर मृत मादा के पास गया, कितनी देर मादा के नज़दीक रहा, और क्या उसने संभोग करने की
कोशिश की?
नियंत्रण के तौर पर उन्होंने एक अलग पेट्री डिश में
असंक्रमित मादाएं रखीं जिन्हें ठंड से मारा गया था।
बायोआर्काइव्स में प्रकाशन-पूर्व नतीजों के अनुसार नर
मक्खी ने स्वस्थ मादा की तुलना में संक्रमित मादा से संभोग करने की कोशिश पांच
गुना अधिक की। नर का साधारण-सा संपर्क भी उसे संक्रमित करने के लिए पर्याप्त होता
है हालांकि कभी-कभी ज़ोरदार संभोग बीजाणुओं का गुबार हवा में उड़ाता है।
इसके बाद,
एक अन्य प्रयोग में शोधकर्ताओं ने स्वस्थ नर मक्खी के सामने
दो मृत मादा मक्खी रखी – एक संक्रमित और दूसरी सामान्य। इस स्थिति में, नर ने अधिक बार संभोग की कोशिश की (बनिस्बत उस स्थिति के जब कोई मादा संक्रमित
नहीं थी) लेकिन वे संक्रमित और असंक्रमित मादा में फर्क नहीं कर पाए। इस आधार पर
नौनड्रप का अनुमान है कि फफूंद कोई रसायन छोड़ती है जो नर को संभोग के लिए उकसाता
है।
अब शोधकर्ता जांचना चाहते थे कि क्या नर फफूंद के बीजाणुओं की ओर आकर्षित होते
हैं?
इसके लिए उन्होंने चार नर मक्खियों को एक छोटे प्रकोष्ठ में
रखा। इस प्रकोष्ठ में दो अपारदर्शी पेट्री डिश थीं – एक में फफूंद के बीजाणुओं से
सना कागज़ था और दूसरी में नहीं। प्रत्येक पेट्री डिश के ढक्कन में मक्खी के अंदर
जाने के लिए एक छोटा सुराख था। 43 बार ऐसा हुआ कि चारों मक्खियां बीजाणु युक्त
पेट्री डिश में गईं, जबकि चारों मक्खियां बीजाणु रहित पेट्री
डिश में गई हों ऐसा मात्र 17 बार हुआ।
शोधकर्ताओं का अनुमान था कि नर मक्खी को फफूंद की तेज़ गंध आकर्षित करती है।
अपने अनुमान की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने मक्खी के एंटीना के सिरे पर एक
इलेक्ट्रोड लगाकर दर्शाया कि फफूंद की महक के झोके से मस्तिष्क में विद्युत प्रवाह
शुरू हो जाता है।
यह जानने के लिए कि फफूंद कौन से रसायन छोड़ते हैं, शोधकर्ताओं ने मृत मक्खियों से कई रसायनों पृथक किए। उन्होंने पाया कि स्वस्थ मक्खियों की तुलना में संक्रमित मक्खियों में कहीं अधिक रसायन मौजूद थे, और इनमें से कई रसायनों की उपस्थिति और प्रचुरता इस बात पर निर्भर करती थी कि मक्खी कितने समय से संक्रमित है। पूर्व में यह देखा जा चुका है कि इनमें से कुछ रसायन, जिन्हें मिथाइल-शाखित एल्केन्स कहा जाता है, नर घरेलू मक्खी को यौन-उत्तेजित करने में भूमिका निभाते हैं। लेकिन शोधकर्ता फफूंद के ऐसे आकर्षक रसायन की पहचान नहीं कर पाए हैं। यदि इन्हें प्रयोगशाला में बनाया जा सका तो ये घरेलू मक्खियों को फंसा कर मारने में उपयोगी हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में वैज्ञानिकों के एक संघ ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट ने
बताया है कि लॉकडाउन के चलते कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में आई गिरावट इस वर्ष के
अंत तक वापस अपने पुराने स्तर पर पहुंच सकती है। रिपोर्ट का अनुमान है कि जीवाश्म
ईंधन के जलने से कार्बन उत्सर्जन बढ़कर 36.4 अरब टन हो जाएगा जो पिछले वर्ष की
तुलना में 4.9 प्रतिशत अधिक है। चीन और भारत में कोयले की बढ़ती मांग को देखते हुए
शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि यदि सरकारें कोई ठोस कदम नहीं उठातीं तो यह
उत्सर्जन अगले वर्ष नए सिरे से बढ़ना शुरू हो जाएगा।
रिपोर्ट में भूमि-उपयोग में परिवर्तन – जैसे सड़कों के लिए जंगल कटाई या
चारागाह को जंगल में तबदील करना – की वजह से उत्सर्जन के नए अनुमान भी प्रस्तुत
किए गए हैं। हालांकि, जीवाश्म ईंधनों के उपयोग में वृद्धि जारी
है लेकिन पिछले एक दशक में भूमि-उपयोग में परिवर्तन से उत्सर्जन में कमी के चलते
कुल उत्सर्जन थमा रहा है। अलबत्ता, विशेषज्ञों के अनुसार
भूमि-उपयोग के रुझानों में काफी अनिश्चितता बनी रहती है और कुछ भी तय करना जल्दबाज़ी
होगी।
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के मुताबिक 2020 में लॉकडाउन के चलते जीवाश्म ईंधनों
से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में 5.4 प्रतिशत की गिरावट आई थी। एक अन्य संगठन
कार्बन मॉनीटर का अनुमान थोड़ी अधिक गिरावट का था।
वैज्ञानिकों को उत्सर्जन में वापिस कुछ हद तक वृद्धि की तो उम्मीद थी लेकिन यह
अटकल का मामला था कि कितनी और किस दर से यह वृद्धि होगी। खास तौर से सवाल यह था कि
लड़खड़ाती अर्थव्यवस्थाएं हरित ऊर्जा में कितना निवेश करेंगी।
इस विषय में कार्बन मॉनीटर के अनुसार लॉकडाउन खुलने के बाद से ऊर्जा की मांग
में वृद्धि को जीवाश्म ईंधनों से ही पूरा किया जा रहा है। वैज्ञानिकों का ऐसा
अनुमान है कि आने वाले वर्ष में उत्सर्जन और बढ़ेगा।
जलवायु परिवर्तन पर सरकारों की समिति के ग्लासगो सम्मेलन (कॉप 26) में पहले ही
राष्ट्रीय,
कॉर्पोरेट और वैश्विक स्तर पर कई महत्वपूर्ण संकल्प लिए जा
चुके हैं। इस सम्मेलन में भारत सहित कई देशों ने एक समयावधि में नेट-ज़ीरो उत्सर्जन
का वादा किया है। सम्मेलन में 130 से अधिक देशों ने 2030 तक वनों की कटाई पर
प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है जो ग्रीनहाउस गैसों का प्रमुख स्रोत है।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की अंतर सरकारी पैनल का अनुमान है कि 2015
के पैरिस जलवायु समझौते में तय किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूरी
दुनिया को 2030 तक अपने उत्सर्जनों को लगभग आधा करना होगा ताकि वैश्विक तापमान में
वृद्धि को औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जा सके। लेकिन
यह लक्ष्य काफी कठिन लग रहा है। हालांकि, अक्षय-उर्जा तकनीकों का
उपयोग तो बढ़ रहा है लेकिन आशंका है कि बिजली की मांग को पूरा करने में प्रमुख रूप
से अक्षय ऊर्जा का उपयोग होने में लंबा समय लगेगा।
इस रिपोर्ट में ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक संयुक्त राज्य अमेरिका, युरोपीय संघ,
भारत और चीन के रुझानों का स्वतंत्र रूप से विश्लेषण करके
बताया गया है कि उत्सर्जन अपने महामारी-पूर्व स्तर पर लौट रहा है। अमेरिका और
युरोपीय संघ में जहां महामारी के पहले जीवाश्म-ईंधन का उपयोग कम होने लगा था वहां
2021 में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के तेज़ी से बढ़ने का अनुमान है लेकिन यह 2019
से 4 प्रतिशत नीचे है। भारत में इस वर्ष कार्बन उत्सर्जन में 12.6 प्रतिशत वृद्धि
की संभावना है। विश्व के सबसे बड़े उत्सर्जक चीन ने महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था
को बढ़ाने के लिए कोयले का पुन:उपयोग शुरू कर दिया।
रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि इस वर्ष चीन द्वारा जीवाश्म-ईंधन उत्सर्जन चार
प्रतिशत बढ़कर 11.1 अरब टन हो जाएगा जो महामारी-पूर्व के स्तर से 5.5 प्रतिशत अधिक
है।
रिपोर्ट में कुछ सकारात्मक पहलू भी बताए गए हैं। इसमें 23 ऐसे देशों का ज़िक्र किया गया है जिनका उत्सर्जन कुल वैश्विक उत्सर्जन का लगभग एक-चौथाई है। ये वे देश हैं जिन्होंने महामारी के पूर्व एक दशक से अधिक के समय में अपनी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के साथ-साथ जीवाश्म-ईंधन जनित उत्सर्जन पर अंकुश लगाया है। देखा जाए तो आज हमारे पास तकनीक है और पता है कि क्या करना है। मुद्दा निर्णय लेने और उसके कार्यान्वयन का है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-03036-x/d41586-021-03036-x_19825822.jpg
आज हम ज्ञान उत्पन्न करने में लगे वैज्ञानिकों और इस ज्ञान
को लोगों तक पहुंचाकर संतुष्ट विज्ञान लेखकों के बीच बढ़ता विभाजन देख रहे हैं। हम
इस विभाजन को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि आज का विज्ञान इतना जटिल हो गया है कि
वैज्ञानिकों के पास इसे आम जनता तक पहुंचाने का न तो समय है और न ही इसके संप्रेषण
का कौशल है तथा दूसरी ओर, विज्ञान लेखकों के पास ज्ञान
उत्पत्ति के न तो कोई अवसर हैं और न ही आवश्यक कौशल। हालांकि, यह कुछ हद तक सही हो सकता है लेकिन मेरी चिंता यह है कि वैज्ञानिक अपनी
ज़िम्मेदारी से बचने के लिए विज्ञान की कथित जटिलता का बहाना कर रहे हैं और इस
विभाजन को बेवजह बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं।
आदर्श रूप में, वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों के बीच किसी
प्रकार का विभाजन नहीं होना चाहिए। न तो वैज्ञानिकों को आम जनता के बीच विज्ञान के
संप्रेषण को पूरी तरह से विज्ञान लेखकों के भरोसे छोड़ना चाहिए और न ही विज्ञान
लेखक ज्ञान सृजन के कार्य को पूरी तरह से वैज्ञानिकों पर छोड़ सकते हैं। विज्ञान के
संप्रेषण का आनंद ज्ञान निर्माण का एक महत्वपूर्ण प्रेरक बल होना चाहिए और ज्ञान
के सृजन का आनंद विज्ञान लेखन का एक महत्वपूर्ण प्रेरक बल होना चाहिए। अपने कार्य
का पूरा आनंद प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिकों को प्रभावी संप्रेषक बनना चाहिए। हम
यह बदलाव कैसे ला सकते हैं?
सबसे पहले,
वैज्ञानिकों में अच्छे लेखन की इच्छा होनी चाहिए। हमें लेखन
शैली को प्रतिष्ठा का विषय बनाना चाहिए। आश्चर्य की बात है कि ऐसा आम तौर पर होता
नहीं है।
सी.पी. स्नो की पुस्तक दी टू कल्चर्स की भूमिका में कैंब्रिज
युनिवर्सिटी में इंटेलेक्चुअल हिस्ट्री एंड इंग्लिश लिटरेचर के प्रोफेसर स्टीफन
कॉलिनी ने हमारी उलझन का बढ़िया वर्णन किया है:
“प्रायोगिक विज्ञान के कई
रूपों में लेखन वास्तव में कोई रचनात्मक भूमिका नहीं निभाता है: यह अपने आप में
खोज की प्रक्रिया नहीं होता, जैसा कि मानविकी में
होता है,
बल्कि किसी घटना के बाद की रिपोर्ट होता है जिसको लिख डालना
कहते हैं। परिणामों की प्रस्तुति में सटीकता, स्पष्टता, किफायत तो यकीनन आवश्यक हैं
लेकिन अपने निष्कर्षों को बोधगम्य तरीके से व्यवस्थित करने को कई शोध वैज्ञानिक एक
बोझ मानते हैं…शैली के लालित्य को एक पेशेवर आदर्श के रूप में विकसित नहीं किया
जाता,
न महत्व दिया जाता है, हालांकि इक्का-दुक्का वैज्ञानिक इसे पसंद कर सकते हैं।”
मैं सहमत हूं। लेकिन हमें विज्ञान की दुनिया में ऐसे सुधार करना चाहिए ताकि
कॉलिनी का विवरण सही न रहे।
कैसे?
इस मामले में मेरे कुछ पसंदीदा विचार हैं। हमें सबसे पहले
तो भरपूर और अंधाधुंध तरीके से पढ़ना चाहिए। जब तक हम अच्छे-बुरे-भौंडे हर प्रकार
की रचनाएं नहीं पढ़ेंगे तब तक हम विवेकी पाठक और अच्छे लेखक नहीं बन सकते। हमें
कथा-साहित्य भी काफी मात्रा में पढ़ना चाहिए। कथेतर साहित्य की तुलना में
कथा-साहित्य बेहतर शैली प्रस्तुत करने के अलावा हमारी कल्पना करने की क्षमता को
विकसित करने में मदद करता है। विज्ञान में कल्पना का बहुत महत्व है; खासकर परिकल्पनाएं प्रस्तावित करने में, ख्याली
प्रयोगों में और अपने सिद्धांतों के निहितार्थों का अनुमान लगाने में। कल्पना तो
कौशल का एक महत्वपूर्ण घटक भी है जो नए-नए पाठकों की मानसिक दुनिया में प्रवेश
करने और जटिल वैज्ञानिक अवधारणाओं को समझने में उनकी मदद करने के लिए आवश्यक है।
अच्छा लेखन सीखने के लिए, हमें बेझिझक गाइडबुक्स का
भरपूर उपयोग करना चाहिए। हालांकि, हमारा उद्देश्य सिर्फ उनमें दी
गई सलाहों को पालन करना नहीं होना चाहिए। बल्कि हमें तो उन्हें पढ़कर, समझकर उनके उल्लंघन के प्रयोग करने चाहिए और नतीजे देखने चाहिए (ठीक वैसे ही
जैसे हम विज्ञान में कोई कंट्रोलशुदा प्रयोग करते हैं)।
लेखन के लिए अनगिनत गाइडबुक्स उपलब्ध हैं, लेकिन
यदि वास्तव में हमारा उद्देश्य उन्हें पढ़ना, समझना
और उल्लंघन का प्रयास करना है तो फिर कोई भी गाइडबुक उपयुक्त रहेगी। वैसे, मेरा सुझाव है कि शुरुआत स्ट्रंक और वाइट द्वारा लिखित दी एलीमेंट्स ऑफ
स्टाइल या फिर स्टीफन किंग द्वारा लिखित ऑन राइटिंग: ए मेमॉयर ऑफ दी
क्राफ्ट से करनी चाहिए। दोनों ही ‘पढ़ने और उल्लंघन’ के लिहाज़ से बढ़िया हैं।
लेकिन हमारे भीतर स्टीफन फ्राय का आत्मविश्वास भी ज़रूरी है जो कहते हैं कि
उन्होंने किंग की सलाह का पालन करने का प्रयास किया लेकिन “यह बिलकुल भी ठीक
नहीं है,
एक लेखक (यानी मैं) है और यदि लोगों को लगता है कि उसने
लेखन में अति कर दी है…. उसे अति आलंकारिक बनाया है, तो लगने दो, वे ऐसी किताब को पटक देंगे और
किसी और की किताब को उठा लेंगे।”
मेरी एक और ‘सलाह पुस्तक’ स्टीवन पिंकर की किताब दी सेंस ऑफ स्टाइल: दी
थिंकिंग पर्सन्स गाइड टू राइटिंग इन 21st सेंचुरी है। एक मनोवैज्ञानिक, भाषाविद
और शानदार लेखक होने के नाते, पिंकर ने न केवल लेखन पर सलाह
दी है बल्कि उस सलाह के पीछे का तर्क भी प्रस्तुत किया है, जिससे
सलाह की सकारण उपेक्षा का मार्ग भी खुला रहता है। वैज्ञानिकों को पिंकर के लेखन
दर्शन को आत्मसात करना चाहिए: ‘शैली से जीवन में सुंदरता पनपती है…किसी
साक्षर पाठक के लिए, एक खस्ता वाक्य, एक आकर्षक रूपक, एक मज़ाकिया भटकाव, मुहावरों का उपयोग अत्यधिक प्रसन्नता देता है।‘
मुझे विशेष रूप से इतालवी हरफनमौला, उम्बर्टो इको द्वारा
लिखित हाउ टू राइट ए थीसिस (1997/2012) काफी पसंद आई। इको विशेष रूप से
उनके दार्शनिक उपन्यास दी नेम ऑफ दी रोज़ (1994) के लिए मशहूर हैं। पहली नज़र
में देखें तो इको की सलाह विशेष रूप से इंडेक्स कार्ड, नोटपैड
और इंटरलाइब्रेरी लोन के युग के मानविकी विज्ञान के छात्रों के लिए है। लेकिन मेरा
ऐसा मानना है कि इंटरनेट, वेब ऑफ साइंस और गूगल स्कॉलर
युग के प्राकृतिक वैज्ञानिकों को भी इसे पढ़ना चाहिए। ‘हाउ टू राइट ए थीसिस’
पर सलाह देने की आड़ में इको ने ‘शोध कैसे करें’ पर अधिक सलाह दी है।
हालांकि,
शैली और विषयवस्तु में से किसी एक को चुनना ज़रूरी नहीं है।
रिचर्ड डॉकिंस ने इस बात को अपनी हालिया पुस्तक बुक्स डू फर्निश ए लाइफ में
व्यक्त किया है। यह डॉकिंस की निहायत पठनीय पूर्व रचनाओं का संकलन है। आश्चर्यजनक
रूप से इसमें बड़ी संख्या में अन्य लोगों की पुस्तकों के लिए लिखी गई भूमिकाएं, प्रस्तावनाएं, उपसंहार और समीक्षाएं शामिल हैं। यह विधा
मुझे बहुत पसंद है क्योंकि यह उन सख्त नियमों से मुक्त है जो अक्सर अधिक तकनीकी
वैज्ञानिक लेखन पर लागू होते हैं। आम तौर पर ये नियम लेख की गुणवत्ता को अनावश्यक
रूप से कम करते हैं। इसलिए निबंध शैली के वैज्ञानिक लेखन को बेहतर बनाने का यह
बढ़िया तरीका हो सकता है, लेकिन बहुत कम देखने को मिलता
है।
दुर्भाग्य से, हम इस विधा की उपेक्षा इस गलत आधार पर करते
हैं कि यह किसी नए ज्ञान की द्योतक नहीं है। कई चयन एवं मूल्यांकन समितियों में
काम करते हुए मुझे इस बात ने काफी व्यथित किया है कि व्यक्ति का मूल्यांकन करते
समय इस विधा के सभी प्रकाशनों को दरकिनार कर दिया जाता है। और तो और, इसके साथ ही हम छात्रों के असाइनमेंट में निबंध प्रारूप की जगह बहु-विकल्पी
सवालों (MCQ)
को तरजीह देने लगे हैं। इसके परिणामस्वरूप, आज के छात्र किसी विषय पर उपलब्ध सारी जानकारी इकट्ठा करके एक निबंध तैयार
करने में बिलकुल भी आनंद नहीं लेते।
वैज्ञानिकों को लेखन के लिए अनुकरणीय उदाहरणों की ज़रूरत है। मेरी शिकायत रही
है कि वैज्ञानिक खराब लिखते हैं या पर्याप्त नहीं लिखते, लेकिन
सच्चाई यह है कि कई अनुकरणीय आदर्श मौजूद हैं। डॉकिंस की किताब दी ऑक्सफोर्ड
बुक ऑफ मॉडर्न साइंस राइटिंग (2008) ऐसे 394 उदाहरणों का एक प्रेरक संग्रह है
जिसमें मार्टिन रीस, फ्रांसिस क्रिक, फ्रेड
हॉयल,
जेरेड डायमंड, रैशेल कार्लसन, एडवर्ड ओ. विल्सन, फ्रीमैन डायसन, जे.बी.एस.
हाल्डेन,
जैकब ब्रोनोस्की, ओलिवर सैक्स, लेविस वोलपर्ट, कार्ल सेगन, जॉन
टायलर बोनर,
सिडनी ब्रेनर, जॉन मेनार्ड स्मिथ, डी’आर्ची थॉमसन, निको टिनबरगन, आर्थर
एडिंगटन,
पीटर मेडावर जैसे शानदार वैज्ञानिकों के आलेख शामिल हैं।
मेरे एक आदर्श हैं ज़्यां हेनरी फैबर (1823-1915)। फैबर एक फ्रांसीसी
कीटविज्ञानी,
प्रकृतिविद और एक उत्कृष्ट लेखक थे। उन्हें एक बेलेट्रिस्ट
(एक ऐसा व्यक्ति जो विशेष रूप से साहित्यिक और कलात्मक समालोचना पर निबंध लिखता है
जिनको मुख्य रूप से उनके सौंदर्यबोध के लिए रचा और पढ़ा जाता है), ‘विज्ञान कवि’ और ‘कीट विज्ञान का होमर’ कहा जाता है। जब मैं फैबर की रचना दी
बुक ऑफ इंसेक्ट्स को पढ़ता हूं, तब मेरे कानों में पिंकर के
शब्द गूंजने लगते हैं कि ‘…एक खस्ता वाक्य, एक आकर्षक रूपक, एक मज़ाकिया भटकाव, मुहावरों का उपयोग अत्यधिक प्रसन्नता देता है‘ और
लगता है कि मुझमें लिखने की चाह पैदा हो जाती है।
विज्ञान की संस्कृति को बदलने की ज़रूरत है ताकि यह संभव हो सके कि वैज्ञानिक न
केवल उच्च गुणवत्ता के शोध में योगदान दें बल्कि साथ ही बेहतर संचार के लिए समय दे
सकें और उससे आनंद भी प्राप्त कर सकें। व्यापक गैर-तकनीकी पाठकों के लिए लिखने का
काम तकनीकी पेपर लिखने के कार्य से काफी पहले शुरू हो जाना चाहिए, तकनीकी पेपर लिखने के साथ-साथ निरंतर चलते रहना चाहिए और तकनीकी पेपर का लेखन
कार्य पूरा होने के बाद भी लंबे समय तक जारी रहना चाहिए। हम पाएंगे कि प्राकृतिक
विज्ञान में भी,
‘लेखन की प्रक्रिया के दौरान सबसे रचनात्मक सोच किया जा सकता
है।’ मेरा तो निश्चित रूप से यही अनुभव रहा है।
तो फिर पेशेवर विज्ञान लेखकों की क्या भूमिका होनी चाहिए? हमें यह भय नहीं पालना चाहिए कि यदि वैज्ञानिक अच्छा लिखेंगे और आम जनता के
लिए लिखने लगेंगे तो वे पेशेवर विज्ञान लेखकों को खदेड़ देंगे। विज्ञान लेखकों की
भूमिका तो अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन मेरी इच्छा उनको भी
ज्ञान निर्माताओं के रूप में देखने की है। विज्ञान लेखकों का काम केवल रिपोर्टिंग
करने से कहीं ज़्यादा होना चाहिए। उनका काम वैज्ञानिकों की अस्पष्ट भाषा को
अंग्रेज़ी में या फिर किसी अन्य भाषा में अनुवाद करने से कहीं अधिक होना चाहिए।
यदि वैज्ञानिक जनता के बीच विज्ञान के संप्रेषण का काम अच्छे से करते हैं, तो विज्ञान लेखक अपने प्रयासों को नए ज्ञान के निर्माण पर केंद्रित कर सकते
हैं। देखा जाए तो विज्ञान लेखक पार्श्विक तुलना करने, विज्ञान
की प्रक्रिया को समझने तथा संभावित पूर्वाग्रहों और हितों के टकराव को समझने की
बेहतर स्थिति में होते हैं जिनको वैज्ञानिक, अंदरूनी
व्यक्ति होने के कारण, सही तरह से समझ नहीं सकते हैं। अत:
अस्त-व्यस्त गद्य में सुधार करने की अपेक्षा करने की बजाय, हमें
विज्ञान लेखकों को ज्ञान परिष्कारकों की भूमिका के तौर पर बढ़ावा देना चाहिए।
विज्ञान लेखकों को अपने लेखन में इतिहास, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र और विज्ञान की राजनीति को भी शामिल करना चाहिए। विज्ञान की संस्कृति में बदलाव लाना चाहिए ताकि विज्ञान लेखकों को प्रतिष्ठा मिल सके और उन्हें ज्ञान परिष्कारक के रूप में स्वीकार करके वैज्ञानिकों की श्रेणी में शुमार किया जाए। वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों, दोनों को प्रभावी ढंग से ज्ञान का प्रसार करना चाहिए। इस तरह के सांस्कृतिक परिवर्तन विज्ञान के कामकाज की प्रक्रिया को अधिक समावेशी और लोकतांत्रिक बनाएंगे और विज्ञान की सीमाओं का भी विस्तार करेंगे। इसी परिवर्तन का एक हिस्सा यह भी होगा कि विज्ञान को एक जटिल और महंगी गतिविधि के रूप में पैकेजिंग से मुक्त करना है जिसमें केवल उच्च प्रशिक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही प्रवेश कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख मूलत: करंट साइंस (25 अगस्त 2021) में प्रकाशित हुआ था।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://blog.writers.work/wp-content/uploads/2019/02/WW.FreelanceScience-01.png