कोयला बिजली संयंत्रों की समय-पूर्व सेवानिवृत्ति – मारिया चिरायिल, अशोक श्रीनिवास

भारतीय बिजली क्षेत्र में ताप बिजली ने एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। हालांकि, हाल ही के घटनाक्रम ने कोयले की अब तक की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए हैं। प्रतिस्पर्धी नवीकरणीय बिजली उत्पादन की तीव्र वृद्धि, राज्यों के पास बिजली की अतिशेष उत्पादन क्षमता, अनुमानित से कम मांग और कोयला आधारित उत्पादन से जुड़े सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों जैसे विभिन्न कारकों के चलते भविष्य में कोयले पर निर्भरता कम होने की संभावना है।  

इस संदर्भ में, लगभग 20-25 वर्ष पुराने कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्रों (टीपीपी) को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने के समर्थन में चर्चा जारी है। समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के पीछे लागत में बचत और दक्षता में सुधार जैसे लाभ बताए जा रहे हैं, जो नए, सस्ते और अधिक कुशल स्रोतों द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं।        

आयु-आधारित सेवानिवृत्ति का एक कारण यह बताया जा रहा है कि पुराने संयंत्रों की दक्षता काफी कम है और इस कारण वे महंगे भी हैं। लेकिन सभी मामलों में यह बात सही नहीं है। उदाहरण के लिए रिहंद, सिंगरौली और विंध्याचल के टीपीपी 30 वर्ष से अधिक पुराने होने के बाद भी वित्त वर्ष 2020 में 70 प्रतिशत से अधिक लोड फैक्टर पर संचालित हुए हैं। इसके साथ ही इनकी औसत परिवर्तनीय लागत (वीसी) 1.7 रुपए प्रति युनिट है और कुल औसत लागत 2 रुपए प्रति युनिट है जो वित्त वर्ष 2020 में राष्ट्रीय क्रय औसत 3.6 रुपए प्रति युनिट से काफी कम है। इसके अतिरिक्त, बिजली उत्पादन की पुरानी क्षमता वर्तमान में बढ़ते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के साथ सहायक होगी और अधिकतम मांग (पीक डिमांड) को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। हालांकि, उन्हें पर्यावरणीय मानदंडों को पूरा करना होगा।       

यह स्पष्ट है कि कोयला आधारित क्षमता की सेवानिवृत्ति एक जटिल मुद्दा है और बिजली क्षेत्र के सभी हितधारकों पर इसके आर्थिक, पर्यावरणीय और परिचालन सम्बंधी दूरगामी प्रभाव भी होंगे। इसे देखते हुए वर्तमान क्षमता की सेवानिवृत्ति के सम्बंध में निर्णय के लिए ज़्यादा गहन छानबीन ज़रूरी है।

टीपीपी की समय-पूर्व सेवानिवृत्ति को निम्नलिखित कारणों से उचित ठहराया जा रहा है:

  • पुराने संयंत्र कम कुशल हैं और इनको संचालित करना भी काफी महंगा है। इसकी बजाय नई उत्पादन क्षमता का उपयोग करने से वीसी में काफी बचत हो सकती है।
  • नए संयंत्रों के बेहतर प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) से उत्पादन लागत में कमी आएगी और परिसंपत्तियों पर दबाव को कम किया जा सकता है।
  • नए संयंत्रों की बेहतर परिचालन क्षमता के कारण कोयले की बचत।
  • पुराने संयंत्रों का जीवन अंत की ओर है, ऐसे में उनके शेष जीवन में पर्यावरण मानदंडों को पूरा करने के लिए आवश्यक प्रदूषण नियंत्रण उपकरण (पीसीई) पर निवेश की प्रतिपूर्ति शायद संभव न हो।

उपरोक्त बातें एक औसत विश्लेषण के आधार पर कही जा रही हैं। अलबत्ता, ऐसे निर्णयों के लिए विस्तृत बिजली क्षेत्र मॉडलिंग पर आधारित सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने की आवश्यकता होगी।

इस तरह के विश्लेषण उपलब्ध न होने के कारण इस अध्ययन में हमने राष्ट्र स्तरीय औसत आंकड़ों के आधार पर समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के लाभों का मूल्यांकन किया है। इस अध्ययन में हमने पुरानी क्षमता के आक्रामक समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के संभावित जोखिमों पर भी चर्चा की है। 

अध्ययन में दिसंबर 2000 या उससे पहले स्थापित कोयला आधारित उत्पादन इकाइयों को पुरानी इकाइयां माना गया है क्योंकि आम तौर पर टीपीपी के लिए बिजली खरीद के अनुबंध 25 वर्ष के लिए किए जाते हैं। वैसे, अच्छी तरह से परिचालित संयंत्रों का जीवन काल 40 वर्ष तक होता है। भारत में ऐसे कोयला आधारित पुराने संयंत्रों की कुल क्षमता 55.7 गीगावॉट है। इसमें से 9.1 गीगावॉट क्षमता को पहले ही सेवानिवृत्त किया जा चुका है। यानी वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 46.6 गीगावॉट कोयला आधारित क्षमता ही उपयोग में है।

पुराने संयंत्रों की जगह नए बिजली संयंत्र लगाने के संभावित लाभ

समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के लाभ के लिए लागत में बचत को महत्वपूर्ण बताया जा रहा है। यह बचत मुख्य रूप से परिवर्तनीय लागत (वीसी) में होती है जबकि स्थिर लागत (एफसी) तो डूबी लागत है। इसलिए समय-पूर्व सेवानिवृत्ति आर्थिक रूप से व्यवहार्य होनी चाहिए और इससे वीसी में बचत होनी चाहिए। इसके लिए संभावित उम्मीदवार हैं नए कोयला-आधारित संयंत्र या नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्र।

वर्ष 2015 के बाद कोयला-आधारित ऊर्जा संयंत्रों को स्थापित करने की कुल लागत 2.5 रुपए प्रति युनिट है। नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के लिए भी वीसी लगभग इतनी ही है। अत: इस विश्लेषण में इसे ही बेंचमार्क माना गया है। इससे कम वीसी के पुराने संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना अलाभकारी होगा।

46.6 गीगावॉट पुरानी क्षमता में से 5.3 गिगावॉट के लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। 21.6 गीगावॉट को प्रतिस्थापित करना अलाभप्रद होगा क्योंकि इनकी परिवर्तनीय लागत मानक से कम है। इनकी दक्षता (59 प्रतिशत) भी औसत (56 प्रतिशत) से बेहतर है।    

शेष 19.8 गीगावॉट क्षमता की वीसी 2.5 रुपए प्रति युनिट से अधिक है। इन संयंत्रों को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने पर विचार किया जा सकता है। आगे इसी 19.8 गीगावॉट क्षमता को लेकर संभावित लागत, पीएलएफ में सुधार, और कोयला बचत के आधार पर विचार किया गया है।             

लागत में बचत, पीएलएफ में सुधार और कोयले की बचत

वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता वाले संयंत्रों ने वित्त वर्ष 2020 में 81 अरब युनिट का उत्पादन किया। 2000-पूर्व क्षमता की तुलना 2015-पश्चात स्थापित 64 गीगावॉट की कोयला-आधारित क्षमता से की गई है। 2015 के बाद स्थापित किए गए संयंत्र वित्त वर्ष 2020 में 41 प्रतिशत के औसत पीएलएफ पर संचालित किए गए।

  परिवर्तनीय लागत प्रति युनिट
  2.5 रुपए से कम 2.5 रुपए से अधिक
क्षमता (मेगावॉट) 21,500 27,760
पीएलएफ 50 प्रतिशत 28 प्रतिशत
औसत परिवर्तनीय लागत 2.06 3.04
तालिका 1: 2015 के बाद स्थापित क्षमता का विवरण

 वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता को सेवानिवृत्त करने पर 2015 के बाद स्थापित क्षमता को इस कमी को पूरा करना होता। अर्थात वित्त वर्ष 2020 में वर्ष 2015 के बाद स्थापित क्षमता को अतिरिक्त 81 अरब युनिट की पूर्ति करनी होती। इससे 2015 के बाद स्थापित क्षमता का पीएलएफ वर्तमान 41 प्रतिशत से बढ़कर 56 प्रतिशत हो जाता जो दबाव को कुछ कम करने में सहायक हो सकता था।

2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता की औसत वीसी 3.1 रुपए प्रति युनिट है जबकि 2015 के बाद के संयंत्रों के लिए यह 2.5 प्रति युनिट है। अत: इस प्रक्रिया से 81 अरब युनिट का प्रतिस्थापन प्रति वर्ष 5043 करोड़ रुपए की बचत कर सकता है। यह बचत वर्ष 2020 के सभी कोयला आधारित बिजली उत्पादन का मात्र 2 प्रतिशत है। दरअसल, बचत और भी कम होने की संभावना है।

तालिका 1 के अनुसार, वित्त वर्ष 2020 में, 2015 के बाद स्थापित कम वीसी वाले संयंत्र अधिक वीसी वाले संयंत्रों की तुलना में अधिक पीएलएफ पर संचालित हुए थे। चूंकि 2015 के बाद स्थापित किफायती संयंत्र तो पहले से ही अधिक पीएलएफ पर संचालित हैं, इसलिए 2000 से पूर्व की क्षमताओं की क्षतिपूर्ति की ज़िम्मेदारी 2015 के बाद स्थापित महंगे संयंत्रों पर ही आएगी। लिहाज़ा, बचत भी कम होगी।

इसके अतिरिक्त, वित्त वर्ष 2020 में 2000 से पूर्व स्थापित क्षमता द्वारा उत्पादित 81 अरब युनिट की औसत कोयला खपत 0.696 कि.ग्रा. प्रति युनिट रही और इसने 5.7 करोड़ टन कोयले का उपयोग किया। इन परिस्थितियों में 2015 के बाद की क्षमता पर स्थानांतरित होने से कोयले की खपत कम होगी। गौरतलब है कि वित्त वर्ष 2020 में भारत की प्रति युनिट कोयला खपत का औसत 0.612 कि.ग्रा. है जो 2000 से पहले स्थापित क्षमता से 12 प्रतिशत बेहतर है। यदि नई क्षमता से 81 अरब युनिट का उत्पादन राष्ट्रीय औसत 0.612 कि.ग्रा. प्रति युनिट की दर से किया जाए तो 5.0 करोड़ टन कोयले की आवश्यकता होगी यानी मात्र 70 लाख टन कोयले की बचत। यहां तक कि यदि औसत कोयला खपत कि.ग्रा. युनिट में 20 प्रतिशत सुधार मान लिया जाए, (यानी 0.557 कि.ग्रा. प्रति युनिट जो भारतीय उर्जा क्षेत्र में कम ही देखा गया है) तब भी 81 अरब युनिट उत्पादन में कोयले की बचत मात्र 1.2 करोड़ टन होगी। मतलब कोयले में कुल बचत मात्र 1-2 प्रतिशत ही होगी।

डैटा की अनुपलब्धता के चलते समस्त क्षमता को 2.5 रुपए प्रति युनिट ही मान लिया जाए तो भी निष्कर्ष कमोबेश ऐसे ही रहेंगे – वार्षिक वीसी में बचत लगभग 2.5 प्रतिशत और कोयले की बचत प्रति वर्ष 1.3-2.2 प्रतिशत के बीच ही रहेगी।

इस प्रकार, पुराने संयंत्रों के सेवानिवृत्त होने से बचत तो होगी लेकिन यह बचत इस क्षेत्र के पैमाने को देखते हुए बहुत अधिक नहीं है।

बचत के अलावा, मिश्रित बिजली उत्पादन के हिमायतियों का एक तर्क समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से दक्षता में सुधार भी है। हालांकि यह वांछनीय है लेकिन इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समय-पूर्व सेवानिवृत्ति एक बोथरा साधन है। अक्षमता को दंडित करने जैसे उपायों को अपनाकर अक्षम उत्पादन में कटौती की जा सकती है।  

परिवर्तनीय लागत में बचत से सेवानिवृत्ति में सुगमता

वर्ष 2000 से पहले स्थापित क्षमता की पूंजीगत लागत नई परियोजना की तुलना में कम होने की संभावना है क्योंकि इतने वर्षों में उनकी अधिकांश पूंजीगत लागत का भुगतान हो चुका होगा। इसका परिणाम कम अग्रिम (अपफ्रंट) भुगतान और पुराने टीपीपी को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने की कम लागत के रूप में होगा। भले ही 2000 से पूर्व की क्षमता को सेवानिवृत्त करने से वीसी में प्रति वर्ष मात्र 5000 करोड़ की बचत होगी, फिर भी यह फायदेमंद होगा यदि इससे पुराने संयंत्रों की एफसी का भुगतान हो जाए।

देखा जाए, तो 2000 से पूर्व की अधिकांश (60 प्रतिशत) सेवा-निवृत्ति के लिए विचाराधीन क्षमता की स्थिर लागत कम है – 40 लाख रुपए प्रति मेगावाट प्रति वर्ष से भी कम। वित्त वर्ष 2020 में इस 11.8 गिगावॉट क्षमता ने 44.6 अरब युनिट का उत्पादन किया है। इस उत्पादन की कुल लागत औसतन 3.7 रुपए प्रति युनिट है जिसमें 3.1 रुपए वीसी और 0.6 रुपए एफसी है। यह ऊर्जा खरीद लागत के राष्ट्रीय औसत 3.6 रुपए प्रति युनिट के बराबर ही है।  

वर्तमान परिदृश्य में, यदि इस 11.8 गिगावॉट उत्पादन को 2015 के बाद के उत्पादन से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है (जिसकी औसत वीसी 2.5 रुपए प्रति युनिट है) तो इससे वीसी में 2447 करोड़ रुपए की सालाना बचत होगी। वहीं दूसरी ओर, वित्त वर्ष 2020 में इस क्षमता के लिए भुगतान की गई एफसी 3083 करोड़ रुपए थी। लिहाज़ा अकेले समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से वीसी में बचत द्वारा एफसी की भरपाई की संभावना बहुत कम है।

वैसे वीसी में बचत की ही तरह वीसी और एफसी भुगतान की तुलना भी सीधा-सा मामला नहीं है। इसके लिए गहन विश्लेषण की आवश्यकता है। समय से पहले सेवानिवृत्ति के लिए भुगतान की जाने वाली वास्तविक एफसी विभिन्न कारकों पर निर्भर करेगी।

अक्षय उर्जा से प्रतिस्थापन पर विचार

अब तक की गई चर्चा में सिर्फ ऐसे परिदृश्य पर विचार किया है जिसमें सभी कोयला आधारित उत्पादन को उसी के समान आधुनिक विकल्पों से बदला जाएगा। वास्तव में हटाए गए कोयला उत्पादन को कोयला और नवीकरणीय ऊर्जा के मिश्रित उपयोग से बदलने की संभावना है। इसलिए, सभी पुराने कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलने के निहितार्थ को समझना काफी दिलचस्प होगा।

इस बात पर ज़ोर दिया जाना चाहिए कि नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन परिवर्तनशील और अनिरंतर है। उदाहरण के लिए, सौर ऊर्जा केवल दिन के समय और हवा कुछ विशेष मौसमों में उपलब्ध होती है। इसके अलावा, नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग गुणांक ताप-बिजली की तुलना में काफी कम है। इसलिए, नवीकरणीय ऊर्जा से उसी समय पर बिजली सप्लाई नहीं की जा सकती जिस समय कोयला आधारित उत्पादन से की जाती थी। इस कारण, नवीकरणीय ऊर्जा और कोयला आधारित उत्पादन के बीच तुलना उपयुक्त नहीं है। लेकिन यहां हम सभी पुराने कोयला आधारित उत्पादन को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलने की व्यापक समझ के लिए ऐसा कर रहे हैं।                             

यदि प्रतिस्थापन नवीकरणीय ऊर्जा से करना है तो नए टीपीपी के कम पीएलएफ में सुधार और ऐसी तनावग्रस्त परिसंपत्तियों को संबोधित करने से लाभ नहीं मिलेगा। वहीं दूसरी ओर, नवीकरणीय ऊर्जा की ओर प्रतिस्थापन से कोयले की बचत अधिक होगी। लेकिन नवीकरणीय उर्जा की उत्पादन लागत लगभग 2.5 रुपए प्रति युनिट के मानक के बराबर है, ऐसे में अनुमानित वीसी में बचत पहले जितनी ही होने की संभावना है। यह देखते हुए कि पुराने कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को पूरी तरह से नवीकरणीय ऊर्जा से बदलना और इनका मिश्रित उपयोग करना संभव नहीं है, मामले की गहरी छानबीन ज़रूरी है।

प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों (पीसीई) में सुधार से संभावित लाभ

दिसंबर 2015 में संशोधित पर्यावरण मानकों के अनुपालन के लिए टीपीपी को पीसीई स्थापित करने या अन्य समाधान लागू करने के लिए अतिरिक्त खर्च करना होगा। ताप बिजली उत्पादन से होने वाले प्रदूषण को देखते हुए इन मानदंडों का पालन महत्वपूर्ण है। लेकिन यह अतिरिक्त पूंजीगत व्यय खासकर पुराने टीपीपी के लिए चिंता का विषय है। यह देखते हुए कि पुराने टीपीपी अपने अंत की ओर हैं, उनके शेष जीवन में ऐसे निवेश की भरपाई करना मुश्किल हो सकता है। इसलिए यह दलील दी गई है कि पीसीई पर अतिरिक्त पूंजीगत खर्च करने की बजाय पुराने कोयला संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना बेहतर है।

पीसीई लागत चिंता का विषय है। हालांकि, यह मुद्दा सिर्फ परियोजना की अवधि से सम्बंधित नहीं है। डैटा से पता चलता है कि 2000 से पूर्व शुरू की गई 46.6 गिगावॉट क्षमता में से 14.9 गिगावॉट की कुल लागत (यानी एफसीअवीसी) 3 रुपए प्रति युनिट से भी कम है। शुल्क पर पीसीई का प्रभाव 0.25-0.75 रुपए प्रति युनिट के आसपास होगा। यदि इसे 1 रुपए प्रति युनिट भी मान लिया जाए तो वर्ष 2000 से पूर्व पीसीई के साथ स्थापित 14.9 गिगावॉट उत्पादन का कुल शुल्क 4 रुपए प्रति युनिट से कम ही रहेगा। अर्थात यह राष्ट्रीय औसत बिजली खरीद लागत (3.6 रुपए प्रति युनिट) से बहुत अधिक नहीं होगा।

इसके अलावा, वर्ष 2000 से पूर्व शुरू की गई 46.6 गिगावॉट क्षमता में से 23.6 गिगावॉट में पीसीई स्थापित करने हेतु निविदाएं जारी हो चुकी हैं। कुछ निवेश किए जा चुके हैं। इसमें से 14.2 गिगावॉट के लिए तो बोलियां मंज़ूर की जा चुकी हैं और इनमें से भी 1995 के पूर्व स्थापित 80 मेगावॉट क्षमता में पहले से ही पीसीई लगाए जा चुके हैं। स्पष्ट है कि कुछ पुराने संयंत्र पहले ही पीसीई सम्बंधी व्यय कर चुके हैं और अन्य भी ऐसे खर्च के बावजूद व्यवहार्य हो सकते हैं। ऐसा विचार भी किया जा रहा है कि यदि पीसीई पर और अधिक निवेश करने से जन-स्वास्थ्य में लाभ होता है तो इस खर्च को उचित माना जा सकता है।

और तो और, 1 अप्रैल 2021 को मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, सेवानिवृत्ति के करीब पहुंच चुके पुराने संयंत्र भी थोड़ी पेनल्टी का भुगतान करके पीसीई स्थापित किए बिना उत्पादन जारी रख सकते हैं। ऐसे में उन्हें कानूनी तौर पर पीसीई स्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कुल मिलाकर, पेनल्टी के कारण पुराने संयंत्रों से उत्पादन लागत में वृद्धि हो जाएगी जिसके परिणास्वरूप उन संयंत्रों से उत्पादन कम हो जाएगा।

इसलिए, पीसीई स्थापना की वित्तीय व्यवहार्यता के सम्बंध में सिर्फ आयु के आधार पर सेवानिवृत्ति करना एक प्रभावी उपाय नहीं है। इसकी बजाय अधिक उपयुक्त तो यह होता कि सेवानिवृत्ति के सम्बंध में निर्णय इकाई के आधार पर किए जाते जिसमें शेष जीवन, पीएलएफ, उत्पादन की वर्तमान लागत, पर्यावरण मानदंडों को पूरा करने के लिए आवश्यक उपायों की लागत, आदि बातों को ध्यान में रखा जाता।

समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के उपेक्षित पहलू

कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने के लाभों पर चर्चा के दौरान अक्सर इन संयंत्रों के संचालन के लाभों और सेवानिवृत्ति के नतीजों पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

उदाहरण के लिए, यह ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से बचत के सभी दावे पुराने ऊर्जा संयंत्रों की क्षमता के महत्व को हिसाब में नहीं लेते हैं। बढ़ती अक्षय ऊर्जा उत्पादन वाली बिजली प्रणाली में, वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित क्षमताएं मौसमी और पीक डिमांड को पूरा करने में सहायक हो सकती हैं। यदि ऐसे लाभों पर विचार किया जाए तो समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से होने वाली संभावित बचत काफी कम हो नज़र आएगी।   

इसके अतिरिक्त, कोयला आधारित क्षमताओं की समय-पूर्व अनियोजित सेवानिवृत्ति के विचित्र परिणाम हो सकते हैं। आक्रामक समय-पूर्व सेवानिवृत्ति की वजह से बिजली के अभाव की मानसिकता उत्पन्न हो सकती है, खास तौर से राज्यों में। चूंकि कथित अभाव राज्य की ऊर्जा राजनीति के लिए अभिशाप हैं, इससे हड़बड़ी में कोयला आधारित क्षमता में निवेश की नई लहर उठ सकती है जो सरकारी संस्थानों में केंद्रित होगी।   

उदाहरण के लिए हालिया अतीत में महाराष्ट्र और तेलंगाना जैसे राज्यों में खराब नियोजन और अभाव की धारणा के कारण उत्पादन क्षमता में अत्यधिक वृद्धि की गई है। इसका एक और ताज़ा उदाहरण मुंबई में देखा गया जब शहर में एक दिन के लिए बिजली गुल होने पर नई उत्पादन क्षमता के लिए प्रयास किए जाने लगे थे। 

इसलिए, हो सकता है कि समय-पूर्व अनियोजित सेवानिवृत्ति से अनावश्यक क्षमता वृद्धि हो जिसके अपने आर्थिक व पर्यावरणीय निहितार्थ होंगे।

अनावश्यक ज़ोर

जैसा कि हमने देखा, आयु के आधार पर टीपीपी को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने से किसी उल्लेखनीय बचत की संभावना नहीं है। परिवर्तनीय लागत में वार्षिक बचत लगभग 2 प्रतिशत और वार्षिक कोयला बचत 1-2 प्रतिशत ही होगी।     

प्रणाली की दक्षता में सुधार एक वांछित लक्ष्य है लेकिन समय-पूर्व सेवानिवृत्ति की बजाय अन्य विकल्प इस दृष्टि से अधिक प्रभावी होंगे।

यह तर्क भी ठीक नहीं है कि पर्यावरणीय उपाय स्थापित करने पर पुराने संयंत्र अव्यावहारिक हो जाएंगे। दरअसल, इनमें से कई संयंत्र उसके बाद भी आर्थिक रूप से लाभदायक रहेंगे। और तो और, मंत्रालय ने यह दिशानिर्देश भी जारी कर दिया है कि पुराने संयंत्र सेवानवृत्ति की तारीख तक बगैर ऐसे उपकरण स्थापित किए भी चल सकते हैं।

कहने का मतलब यह नहीं है कि पुराने संयंत्रों में किसी को भी समय-पूर्व सेवानिवृत्त नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, संयंत्रों और इकाइयों पर अलग-अलग अधिक विस्तृत विश्लेषण किया जाना चाहिए। ऐसा करके यह पता लगाया जा सकता है कि कौन-सी विशिष्ट इकाइयों/संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना लाभदायक हो सकता है।

किसी भी निर्णय के लिए गहन विश्लेषण की ज़रूरत होगी जिसमें कई मापदंडों का ध्यान रखना होगा – जैसे संयंत्र/इकाई स्तर का विवरण, संविदात्मक प्रतिबद्धताएं, भार की प्रकृति, उत्पादन की प्रकृति, क्षमता का महत्व, आदि। पर्याप्त विश्लेषण के बिना समय-पूर्व सेवानिवृत्ति अनुपयुक्त उपाय प्रतीत होता है और बेहतर होगा कि अतिरिक्त कोयला आधारित क्षमता वृद्धि को रोका जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://imgs.mongabay.com/wp-content/uploads/sites/20/2021/06/08140518/Piece_of_coal_in_front_of_a_coal_firing_power_plant-scaled.jpg

हबल दूरबीन लौट आई है!

प्रतिष्ठित अंतरिक्ष दूरबीन हबल में लगभग एक महीने पहले कंप्यूटर सम्बंधी गड़बड़ी आ जाने के कारण उसने काम करना बंद कर दिया था, अब यह फिर से काम करने लगी है। साइंस पत्रिका के अनुसार दूरबीन का नियंत्रण ऑपरेटिंग पेलोड कंट्रोल कंप्यूटर से हटाकर बैकअप उपकरणों पर लाने के बाद हबल दूरबीन के सभी उपकरणों के साथ पुन: संवाद स्थापित कर लिया गया है।

दरअसल 13 जून को हबल के विज्ञान उपकरणों को नियंत्रित करने वाला और इनकी सेहत की निगरानी करने वाला पेलोड कंप्यूटर उपकरणों के साथ संवाद नहीं कर पा रहा था, इसलिए उसने इन्हें सामान्य मोड से हटाकर सुरक्षित मोड में डाल दिया था। हबल के ऑपरेटरों को पहले तो लगा कि मेमोरी मॉड्यूल में गड़बड़ी हुई होगी जिसके चलते यह समस्या हो रही है। लेकिन तीन में से एक बैकअप मॉड्यूल पर डालने के बावजूद भी समस्या बरकरार थी। कई अन्य उपकरणों को भी जांचा गया लेकिन गड़बड़ी का कारण उनमें भी नहीं मिला।

अंतत: यह निर्णय लिया गया कि पूरी की पूरी साइंस इंस्ट्रूमेंट कमांड एंड डैटा हैंडलिंग (SIC&DH) युनिट को बैकअप पर डाल दिया जाए, पेलोड कंप्यूटर इस युनिट का ही एक हिस्सा है। मरम्मत दल ने पहले पृथ्वी पर ही हार्डवेयर के साथ इस पूरी प्रक्रिया का अभ्यास किया और यह सुनिश्चित किया कि ऐसा करने से दूरबीन को कोई अन्य नुकसान न पहुंचे। युनिट को जैसे ही स्थानांतरित करना शुरू किया गया समस्या की जड़ पकड़ में आ गई। समस्या SIC&DH के पावर कंट्रोल युनिट में थी। यह युनिट पेलोड कंप्यूटर को स्थिर वोल्टेज देता है और समस्या इस कारण थी कि या तो सामान्य से कम-ज़्यादा वोल्टेज मिल रहा था या वोल्टेज का पता लगाने वाला सेंसर गलत रीडिंग दे रहा था। चूंकि SIC&DH में अतिरिक्त पॉवर कंट्रोल युनिट भी होती है इसलिए पूरी युनिट को बैकअप पर डाला जाना जारी रहा।

हबल मिशन कार्यालय के प्रमुख टॉम ब्राउन ने बताया कि SIC&DH के साइड ए पर हबल को सामान्य मोड में सफलतापूर्वक ले आया गया है। यदि सब कुछ सामान्य रहा तो इस सप्ताहांत तक हबल फिर से अवलोकन का अपना काम शुरू कर देगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i2.wp.com/regmedia.co.uk/2018/10/29/hubble_by_nasa.jpg?ssl=1

सुपर-एंटीबॉडी से भविष्य की महामारियों पर नियंत्रण

हाल ही में यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने सोट्रोविमैब को आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी है। सोट्रोविमैब सार्स-कोव-2 के विरुद्ध एक प्रभावी हथियार है जिसे भविष्य में विभिन्न कोरोनावायरस के कारण होने वाली संभावित महामारियों के लिए भी प्रभावी माना जा रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार सोट्रोविमैब जैसी तथाकथित सुपर-एंटीबॉडीज़ की वर्तमान वायरस संस्करणों के विरुद्ध व्यापक प्रभाविता इसे कोविड-19 के लिए पहली पीढ़ी के मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (mAb) उपचारों से बेहतर बनाती है। चिकित्सकों के लिए यह तो संभव नहीं है कि हर बार वायरस का अनुक्रमण करके इलाज करें। इसलिए ऐसी एंटीबॉडीज़ बेहतर हैं जो प्रतिरोध पैदा न होने दें और विभिन्न ज्ञात संस्करणों के खिलाफ कारगर हों।

विर बायोटेक्नोलॉजी और ग्लैक्सो-स्मिथ-क्लाइन द्वारा निर्मित एंटीबॉडी उपचार वास्तव में तीसरा mAb आधारित उपचार है जो हल्के से मध्यम कोविड-19 से पीड़ित व्यक्तियों के लिए उपयोग किया जा रहा है ताकि उन्हें गंभीर रूप से बीमार होने से बचाया जा सके। हालांकि, टीकाकरण में वृद्धि के साथ ऐसे उत्पादों की आवश्यकता कम हो जाएगी लेकिन जिन लोगों को किसी वजह से टीका नहीं लगता या टीकाकरण से पर्याप्त प्रतिरक्षा नहीं मिल पाती, उनके लिए mAb हमेशा आवश्यक रहेंगी।

हालांकि कुछ अन्य क्रॉस-रिएक्टिव mAb भी जल्द ही बाज़ार में आने वाले हैं। एडैजिओ थेराप्यूटिक्स ने व्यापक स्तर पर ADG20 नामक mAb के परीक्षण के लिए काफी निवेश किया है। इसका उपयोग उपचार और रोकथाम के लिए किया जाएगा। इस क्षेत्र में कई स्टार्ट-अप भी कोविड-19 के लिए अगली पीढ़ी के mAb पर काम कर रहे हैं।

दरअसल, सोट्रोविमैब की शुरुआत 2013 में हुई थी जब 2003 के सार्स प्रकोप से उबर चुके एक व्यक्ति के रक्त का नमूना लिया गया था। ADG20 को भी इसी तरह से तैयार किया गया है। दूसरी ओर, अधिकांश अन्य mAb हाल ही में कोविड-19 से उबर चुके लोगों के एंटीबॉडीज़ से प्रेरित हैं। कई कंपनियों ने mAb को अनुकूलित करने के लिए उनके अर्ध-जीवनकाल में विस्तार, निष्प्रभावन क्रिया में वृद्धि, स्थिर क्षेत्र में हेरफेर या फिर इन सभी के संयोजन का उपयोग किया है।

हालांकि, यूके बायोइंडस्ट्री एसोसिएशन की पूर्व प्रमुख जेन ओस्बॉर्न के अनुसार mAb विकसित करने में वायरस के विकास का विशेष ध्यान रखना होगा। कई परीक्षणों में नए संस्करणों के विरुद्ध नकारात्मक परिणाम मिले हैं। ऐसे में वायरस के उत्परिवर्तन पर काफी गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। हालांकि प्रयोगशाला में किए गए अध्ययनों में सोट्रोविमैब ने दक्षिण अफ्रीका, ज़ील और भारत में पाए गए सबसे चिंताजनक संस्करणों के प्रति निष्प्रभावन क्षमता को बनाए रखा है। कई अन्य mAb ने तीसरे चरण में अच्छे परिणाम दर्शाए हैं। लेकिन कुछ अन्य नए संस्करण के विरुद्ध कम प्रभावी रहे हैं। कुछ विशेषज्ञों का दावा है कि एकल एंटीबॉडीज़ एकल उत्परिवर्तन के विरुद्ध कमज़ोर हो सकते हैं जबकि एंटीबॉडीज़ का मिश्रण अधिक प्रभावी और शक्तिशाली हो सकता है।

लेकिन एक बेहतर रणनीति के तहत एडैजिओ और विर दोनों ने स्वतंत्र रूप से ऐसी mAb की जांच की जो सार्स जैसे कोरोनावायरस परिवार में पाए जाने वाले लगभग स्थिर चिंहों की पहचान करते हैं। ऐसे स्थिर हिस्से आम तौर पर वायरस के लिए आवश्यक कार्य करते हैं, ऐसे में वायरस अपने जीवन को दांव पर लगाकर ही इनमें उत्परिवर्तन का जोखिम मोल ले सकता है।

हालांकि, एंटीबॉडी सिर्फ इतना नहीं करते कि वायरल प्रोटीन को निष्क्रिय कर दें। mAb जन्मजात और अनुकूली प्रतिरक्षा को भी प्रेरित करते हैं जो संक्रमित कोशिकाओं को नष्ट करने में मदद करती हैं और यही द्वितीयक क्रियाएं सार्स और कोविड-19 के उपचार के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं।

चूहों पर किए गए अध्ययन (सेल और जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल मेडिसिन में प्रकाशित) से इस विचार को समर्थन मिला है। लेकिन पिछले वर्ष जब कोविड-19 mAb काफी चर्चा में थे तब एस्ट्राज़ेनेका, एली लिली, एबप्रो और अन्य कंपनियों अपने-अपने mAb में इन क्रियाओं का दमन करने का निर्णय लिया था। वे वायरल संक्रमण में एंटीबॉडी-निर्भर वृद्धि के जोखिम को कम से कम करना चाहते थे जिसमें एंटीबॉडीज़ रोग को कम करने की बजाय बढ़ावा दे सकते हैं। कुछ रोगजनकों के मामले में यह एक वास्तविक समस्या हो सकती है। लेकिन शोधकर्ताओं को जल्दी ही समझ आ गया कि सार्स-कोव-2 के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है। ऐसे में विर ने ऐसी क्रियाओं को रोकने पर ध्यान देना बंद कर दिया। इस कंपनी ने सोट्रोविमैब के लिए न सिर्फ इन क्रियाओं को अछूता छोड़ दिया बल्कि इन्हें बढ़ाने के प्रयास भी किए। वास्तव में इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसी एंटीबॉडी का निर्माण करना है जो न सिर्फ सुरक्षा प्रदान करे बल्कि एक दीर्घावधि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित करे। इसके लिए पिछले वर्ष विर की एक टीम ने चूहों में एंटी-इन्फ्लुएंजा mAb पर काम किया है।

इस संदर्भ में एक टीम ने 2003 के सार्स संक्रमण के जवाब में तैयार किए गए प्राकृतिक mAb से शुरुआत की। इसके पहले चरण के परीक्षण में चिकित्सकों ने पाया कि ADG20 की एक खुराक से रक्त में वायरस को निष्क्रिय करने वाली क्रिया उतनी ही थी जितनी mRNA आधारित टीकाकारण के बाद लोगों में देखने को मिली थी। अध्ययनों से संकेत मिले हैं कि यह सुरक्षा एक वर्ष तक बनी रहती है। दो वैश्विक परीक्षण अभी जारी हैं।

कुछ कंपनियां मांसपेशियों में देने वाले टीके के साथ-साथ श्वसन के माध्यम से भी इसे देने के तरीकों की खोज कर रही हैं। इस नेज़ल स्प्रे को संक्रमण के स्थान पर ही वायरस को कमज़ोर करने के लिए तैयार किया गया है। बहरहाल जो भी तरीका हो लेकिन यह काफी अच्छी खबर है कि कोविड-19 के जवाब में ऐसे प्रयोग किया जा रहे हैं ताकि भविष्य में ऐसे हालात का डटकर सामना किया जा सके। गौरतलब है कि फिलहाल ये सभी अनुमानित लाभ है जिनको लोगों में नहीं देखा गया है। वास्तविक परिस्थिति में परीक्षण के बाद ही स्थिति स्पष्ट होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.springernature.com/relative-r300-703_m1050/springer-static/image/art%3A10.1038%2Fs41587-021-00980-x/MediaObjects/41587_2021_980_Figa_HTML.jpg?as=webp

अमेरिका में चार बांधों को हटाने का अभियान – भारत डोगरा

र्ष 2020 में संयुक्त राज्य अमेरिका में स्नेक नदी को यहां की सबसे अधिक संकटग्रस्त नदी घोषित किया गया। इसकी मुख्य वजह यह बताई गई है कि चार बांध बनने से इस नदी से जुड़े समस्त जीव संकटग्रस्त हो गए हैं।

इस नदी के इकोसिस्टम के केंद्र में साल्मन मछली है व इसके साथ 130 अन्य जीवों का जीवन जुड़ा है। आज से लगभग 100 वर्ष पहले इस नदी में साल्मन मछली की संख्या आज से लगभग 40-50 गुना अधिक थी। इसका जीवन-चक्र बहुत खूबसूरत व रोचक था। अंडों से मछली निकलने का स्थान पहाड़ों की सहायक नदियों के अधिक ठंडे व साफ क्षेत्र में तय रहा है। वहां से साल्मन की शिशु मछली तेज़ी से नीचे की ओर तैर कर मुख्य स्नेक नदी में आती है और फिर आगे बढ़ते हुए समुद्र में जाती रही है। मीठे पानी से खारे पानी में जाना इस मछली की वृद्धि से जुड़ा है। समुद्र में भरपूर जीवन बिताने के बाद लगभग 1500 किलोमीटर के इसी मार्ग से मछली पहले स्नेक नदी में व फिर उसी पर्वतीय ठंडे पानी वाली सहायक नदी में पहुंचती है जहां उसका जन्म हुआ था। यहां अंडे देने के बाद नया जीवन-चक्र शुरू होता है। कुछ समय बाद वह मछली मर जाती है।

लेकिन वर्ष 1955-75 के दो दशकों के दौरान स्नेक नदी के निचले हिस्से में चार बांध बना दिए गए जिनसे साल्मन मछली का यह मार्ग व इस पर आधारित जीवन-चक्र बुरी तरह प्रभावित हो गया। मार्ग अवरुद्ध कर रहे बांधों में फंसकर नदी से समुद्र की ओर जाने वाले लाखों साल्मन शिशु मरने लगे। वर्ष-दर-वर्ष यह जारी रहने से साल्मन की अनेक प्रजातियां बुरी तरह संकटग्रस्त हो गर्इं व इनके साथ इस इकोसिस्टम के अन्य जीव भी संकटग्रस्त हो गए।

कुछ समय पहले यहां के मूल निवासियों ने सबसे पहले साल्मन की रक्षा व इकोसिस्टम संरक्षण की मांग अधिक संजीदगी से उठानी आरंभ की व इसके लिए चारों बांधों को हटाने की मांग रखी। इन मूल निवासियों ने कहा कि उनका अपना जीवन भी नदी व इस मछली की रक्षा से जुड़ा है।

इस मांग को कुछ पर्यावरण संगठनों व स्थानीय नेताओं का समर्थन भी मिला तो इसने ज़ोर पकड़ा। इससे पहले इसी देश की एलव्हा नदी पर साल्मन व नदी की इकोसिस्टम की रक्षा के लिए दो बांध हटाए गए थे व इसी आधार पर स्नेक नदी से भी चारों बांध हटाने की मांग रखी गई।

दूसरी ओर कुछ लोगों ने कहा है कि उनके लिए बांधों से मिलने वाली बिजली अधिक ज़रूरी है। इसके जवाब में बांध हटाने की मांग रखने वालों ने ऊर्जा व कृषि विकास की वैकल्पिक राह सुझाई है।

आगे व्यापक सवाल यह है कि नदियों के इकोसिस्टम, उनमें रहने वाले जीवों की रक्षा के लिए पहले से बने बांधों को हटाने की मांग विश्व के अन्य देशों में कितना आगे बढ़ सकती है। कई वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों का मानना है कि यदि बांध से गंभीर क्षति होती है तो इसे हटाना उचित है। पर अभी अधिकांश सरकारें इस पर समुचित ध्यान नहीं दे रही है। उम्मीद है कि भविष्य में इस प्रश्न पर अधिक खुले माहौल में विचार हो सकेगा व जिस तरह के प्रयास आज स्नेक नदी के संदर्भ में हो रहे हैं उनसे ऐसा खुला माहौल बनाने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://assets.change.org/photos/7/ll/vz/VGllVzqqymXsTyh-800×450-noPad.jpg?1530193888

मोटापे से बचाने वाला दुर्लभ उत्परिवर्तन

कुछ लोग कितना भी व्यायाम कर लें, डाइटिंग कर लें लेकिन उनका वज़न है कि कम ही नहीं होता। वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग होते हैं कि वे कितना भी खा लें, चर्बी उनके शरीर पर चढ़ती ही नहीं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने मोटापे की आनुवंशिकी के एक विस्तृत अध्ययन में ऐसे दुर्लभ जीन संस्करणों की पहचान की है जो वज़न बढ़ने से रोकते हैं।

आम तौर पर आनुवंशिकीविद ऐसे उत्परिवर्तनों की तलाश करते हैं जो किसी न किसी बीमारी का कारण बनते हैं। लेकिन शरीर में ऐसे जीन संस्करण भी मौजूद होते हैं जो स्वास्थ्य को बेहतर बनाते हैं, और इन जीन संस्करणों को पहचानना मुश्किल होता है क्योंकि इसके लिए बड़े पैमाने पर जीनोम अनुक्रमण करने की ज़रूरत पड़ती है।

हर साल तकरीबन 28 लाख लोगों की मृत्यु अधिक वज़न या मोटापे की वजह से होती है। मोटापा विभिन्न रोगों जैसे टाइप-2 मधुमेह, हृदय रोग, कुछ तरह के कैंसर और गंभीर कोविड-19 के जोखिम को बढ़ाता है।

आहार और व्यायाम वज़न कम करने में मदद कर सकते हैं, लेकिन आनुवंशिकी भी इसे प्रभावित करती है। अत्यधिक मोटापे से ग्रसित लोगों पर हुए अध्ययनों में कुछ आम जीन संस्करण पहचाने गए थे जो मोटापे की संभावना बढ़ाते हैं – जैसे MC4R जीन की ‘खण्डित’ प्रति जो भूख के नियमन से जुड़ी है। अन्य अध्ययनों में हज़ारों ऐसे जीन संस्करण पहचाने गए थे जो स्वयं तो वज़न को बहुत प्रभावित नहीं करते, लेकिन ये संयुक्त रूप से मोटापे की संभावना बढ़ाते हैं।

हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यूएस और यूके के 6,40,000 से अधिक लोगों के जीनोम का अनुक्रमण किया। उन्होंने जीनोम के सिर्फ एक्सोम यानी उस हिस्से पर ध्यान केंद्रित किया जो प्रोटीन्स के लिए कोड करता है। उन्होंने ऐसे जीन तलाशे जो दुबलेपन या मोटापे से जुड़े थे। इस तरह उन्हें 16 जीन मिले। इनमें से पांच जीन कोशिका की सतह के जी-प्रोटीन युग्मित ग्राही के कोड हैं। ये पांचों जीन मस्तिष्क के उस हिस्से, हायपोथैलेमस, में व्यक्त होते हैं जो भूख और चयापचय को नियंत्रित करता है। इनमें से एक जीन (GPR75) में एक उत्परिवर्तन मोटापे को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, इस उत्परिवर्तन वाले व्यक्तियों में वज़न बढ़ाने वाले जीन की एक प्रति निष्क्रिय थी जिसकी वजह से उनके वज़न में औसतन 5.3 किलोग्राम की कमी आई थी और सक्रिय जीन वाले लोगों की तुलना में इनके मोटे होने की संभावना आधी थी।

GPR75 जीन वज़न बढ़ने को किस तरह प्रभावित करता है, यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों में इस जीन को निष्क्रिय किया और फिर उन्हें उच्च वसा वाला भोजन खिलाया। अपरिवर्तित नियंत्रण समूह की तुलना में परिवर्तित चूहों का वज़न 44 प्रतिशत कम बढ़ा। इसके अलावा उनमें रक्त शर्करा का बेहतर नियंत्रण था और वे इंसुलिन के प्रति अधिक संवेदनशील थे।

लेकिन GPR75 के ऐसे उत्परिवर्तन दुर्लभ हैं जो जीन की एक प्रति को अक्रिय करते हैं – ऐसा 3,000 में से केवल एक ही व्यक्ति में होता है। लेकिन चूहों पर किए गए प्रयोग से स्पष्ट है कि इसका प्रभाव काफी अधिक होता है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि मोटापा कम करने के लिए GPR75 एक संभावित लक्ष्य हो सकता है; GPR75 ग्राहियों को निष्क्रिय करने वाले अणु मोटापे से जूझ रहे लोगों की मदद कर सकते हैं।

शोध का यह तरीका अन्य बीमारियों जैसे टाइप-2 मधुमेह या अन्य चयापचय सम्बंधी विकारों के अध्ययन के लिए भी उपयोगी हो सकता है। लेकिन इसके लिए बड़े पैमाने पर अनुक्रमण ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/scale_1280p_0.jpg?itok=wZlkk0Dv

कोविड-19: विभिन्न देशों के स्कूल सम्बंधी अनुभव

पिछला एक वर्ष हम सभी के लिए चुनौती भरा दौर रहा है। एक ओर तो महामारी का दंश तथा दूसरी ओर लॉकडाउन के कारण मानसिक तनाव। साथ ही समस्त शिक्षण का ऑनलाइन हो जाना। इस एक वर्ष में प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा एवं शोध कार्य प्रभावित हुए हैं। पहली बार स्कूल जाने वाले बच्चों को तो यह भी नहीं मालूम कि स्कूल कैसा दिखता है।

लेकिन इस वर्ष मार्च में अमेरिका के कई क्षेत्रों में स्कूल दोबारा से शुरू करने के विचार पर गरमागरम बहस छिड़ गई है। अमेरिका के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) ने वायरस संचरण को रोकने के सुरक्षात्मक प्रयासों के साथ स्कूल दोबारा से खोलने का सुझाव दिया लेकिन इस घोषणा से अभिभावक, स्कूल कर्मचारी और यहां तक कि वैज्ञानिक भी असंतुष्ट नज़र आए। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की संक्रामक रोग शोधकर्ता मोनिका गांधी ने स्कूल खोलने का पक्ष लिया तो उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा और उन पर बच्चों की जान से खिलवाड़ करने जैसे आरोप लगे।

जैसे-जैसे यह शैक्षिक सत्र समाप्त हो रहा है, कई देशों में स्कूल प्रबंधन अपने पुराने अनुभव के आधार पर नए सत्र की तैयारी कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि स्वास्थ्य महकमा उनका मार्गदर्शन करे। यूके में बच्चों ने मार्च-अप्रैल में स्कूल जाना शुरू कर दिया। फ्रांस में तीसरी लहर के कारण कुछ समय के लिए तो स्कूल बंद रहे लेकिन मई में दोबारा शुरू कर दिए गए। अमेरिका में भी जून के अंत तक लगभग आधे से अधिक शाला संकुल खोल दिए गए थे और सभी स्कूलों में प्रत्यक्ष शिक्षण शुरू कर दिया गया।

लेकिन सच तो यह है कि विश्व भर में 77 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो अभी तक भी पूर्णकालिक रूप से स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। इसके अलावा 19 देशों के 15 करोड़ बच्चों के पास प्रत्यक्ष शिक्षण तक भी पहुंच नहीं है। ऐसे बच्चे या तो वर्चुअल ढंग से पढ़ रहे हैं या फिर पढ़ाई से पूरी तरह कटे हुए हैं। ऐसी संभावना भी है कि यदि स्कूल खुल भी जाते हैं तो कई बच्चे वापस स्कूल नहीं जा पाएंगे।

युनेस्को ने पिछले वर्ष अनुमान व्यक्त किया था कि महामारी के कारण लगभग 2.4 करोड़ बच्चे स्कूल छोड़ देंगे। न्यूयॉर्क में युनिसेफ के शिक्षा प्रमुख रॉबर्ट जेनकिंस का मत है कि स्कूल शिक्षण के अलावा भी बहुत सारी सेवाएं प्रदान करते हैं। अत: स्कूल सबसे आखरी में बंद और सबसे पहले खुलना चाहिए। अजीब बात है कि कई देशों में माता-पिता परिवार के साथ बाहर खाना खाने तो जा सकते हैं लेकिन उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं।

हालांकि, इस सम्बंध में काफी प्रमाण मौजूद हैं कि स्कूलों को सुरक्षित रूप से खोला जा सकता है लेकिन यह बहस अभी भी जारी है कि स्कूल खोले जाएं या नहीं और वायरस संचरण को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय अपनाए जाएं। संभावना है कि कई देशों में सितंबर में नए सत्र में स्कूल शुरू होने पर यह बहस एक बार फिर शुरू हो जाएगी।

जहां अमेरिका और अन्य सम्पन्न देशों में किशोरों और बच्चों को भी टीका लग चुका है वहीं कम और मध्यम आय वाले देशों में टीकों तक पहुंच अभी भी सीमित ही है। टीकाकरण के लिए इन देशों में बच्चों को अभी काफी इंतज़ार करना है। और वायरस के नए-नए संस्करण चिंता का विषय बने रहेंगे।

पिछले वर्ष सार्स-कोव-2 के बारे में हमारी पास बहुत कम जानकारी थी और ऐसा माना गया कि बीमारी का सबसे अधिक जोखिम बच्चों पर होगा इसलिए मार्च में सभी स्कूलों को बंद कर दिया गया। लेकिन जल्द ही वैज्ञानिकों ने बताया कि बच्चों में गंभीर बीमारी विकसित होने की संभावना कम है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि क्या बच्चे भी संक्रमित हो सकते हैं और क्या वे अन्य लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का मानना था कि बच्चों को स्कूल भेजने से महामारी और अधिक फैल सकती है। लेकिन जल्दी ही यह बहस वैज्ञानिक न रहकर राजनीतिक हो गई।

तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जुलाई 2020 में सितंबर से स्कूल शुरू करने की बात कही। वैज्ञानिक समुदाय स्कूल खोलने के पक्ष में था। ट्रम्प के प्रति अविश्वास के चलते स्कूल दोबारा से शुरू करने की बात का समर्थन करना मुश्किल हो गया। अन्य देशों में भी इस तरह की तकरार देखने को मिली। अप्रैल 2020 में डेनमार्क में प्राथमिक स्कूल शुरू करने पर अभिभावकों के विरोध का सामना करना पड़ा। फ्रांस में अधिकांश स्कूल खुले रहे लेकिन नवंबर माह में विद्यार्थियों ने विरोध किया कि कक्षाओं के अंदर कोविड-19 से सुरक्षा के पर्याप्त उपाय नहीं किए जा रहे हैं। कुछ ज़िलों में सामुदायिक प्रसार के कारण शिक्षक भी स्कूल से गैर-हाज़िर रहे। इसी तरह बर्लिन में इस वर्ष जनवरी में आंशिक रूप से स्कूल खोलने की योजना को अभिभावकों, शिक्षकों और सरकारी अधिकारियों के विरोध के बाद रद्द कर दिया गया।

इस बीच टीकाकारण में प्राथमिकता का भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा। मार्च-अप्रैल में स्कूल खुलने के बाद भी अधिकांश शिक्षकों का टीकाकारण नहीं हुआ था। इस कारण स्कूल शिक्षकों और अन्य कर्मचारियों पर बीमार होने का जोखिम बना रहा और इसके चलते कक्षा में शिक्षकों की अनुपस्थिति भी रही।

इसके अलावा, शोधकर्ताओं ने दावा किया कि दूरस्थ शिक्षा से कई देशों के श्वेत और अश्वेत विद्यार्थियों के बीच असमानताओं में वृद्धि होगी। सिर्फ यही नहीं इससे विकलांग और भिन्न सक्षम बच्चों के पिछड़ने की भी आशंका है। महामारी से पहले भी यूएस की शिक्षा प्रणाली अश्वेत लोगों को साथ लेकर चलने में विफल रही है।

अब महामारी को एक वर्ष से अधिक हो चुका है और शोधकर्ताओं के पास कोविड-19 और उसके संचरण के बारे में काफी जानकारी है। हालांकि, कुछ बच्चे और शिक्षक कोविड-19 से पीड़ित अवश्य हुए लेकिन स्कूलों का वातावरण ऐसा नहीं है जहां व्यापक स्तर पर कोविड-19 के फैलने की संभावना हो। देखा गया है कि स्कूल में संक्रमण की दर समुदाय में संक्रमण की तुलना में काफी कम हैं।

अमेरिका के स्कूलों में कोविड-19 पर कई व्यापक अध्ययन किए गए हैं। इनमें से शरद ऋतु में उत्तरी कैरोलिना में 90,000 से अधिक विद्यार्थियों और शिक्षकों का अध्ययन शामिल है। इस अध्ययन की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने सामुदायिक संक्रमण दर के आधार पर स्कूलों में लगभग 900 मामलों का अनुमान लगाया था लेकिन विश्लेषण करने पर स्कूल-संचारित 32 मामले ही सामने आए। इन परिणामों के बाद भी अधिकांश स्कूल बंद रहे। एक अन्य अध्ययन में विस्कॉन्सिन के ग्रामीण क्षेत्र के 17 स्कूलों का अध्ययन किया गया। शरद ऋतु के 13 सप्ताह के दौरान जब संक्रमण काफी तेज़ी से फैल रहा था तब स्कूल कर्मचारियों और विद्यार्थियों में कुल 191 मामलों का पता चला जिनमें से केवल सात मामले स्कूल से उत्पन्न हुए थे। इसके अलावा नेब्राास्का में किए गए एक अप्रकाशित अध्ययन में पता चला था कि साल भर संचालित 20,000 से अधिक छात्रों और कर्मचारियों वाले स्कूल में पूरी अवधि के दौरान संचरण के केवल दो मामले ही सामने आए।       

हालांकि, आलोचकों का कहना है कि इस अध्ययन में बिना लक्षण वाले बच्चों की पहचान नहीं की गई थी, इसलिए वास्तविक संख्या अधिक हो सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इन आंकड़ों को यदि दुगना या तिगुना भी कर दिया जाए तब भी स्कूल की संक्रमण दर सामुदायिक संक्रमण दर से काफी कम रहेगी। नॉर्वे के एक स्कूल में 5 से 13 वर्ष की आयु के 13 संपुष्ट मामलों की पहचान के बाद उन बच्चों के 300 निकटतम संपर्कों का भी परीक्षण किया गया। संपर्क में आए केवल 0.9 प्रतिशत बच्चों में और 1.7 प्रतिशत वयस्कों में वायरस संक्रमण के मामले पाए गए।

साल्ट लेक सिटी में शोधकर्ताओं ने ऐसे 700 से अधिक विद्यार्थियों और स्कूल कर्मचारियों का कोविड-19 परीक्षण किया जो 51 कोविड पॉज़िटिव विद्यार्थियों में से किसी भी एक के संपर्क में आए थे। इनमें से केवल 12 मामले पॉज़िटिव पाए गए जिनमें से केवल पांच मामले स्कूल से सम्बंधित थे। इससे पता चलता है कि वायरस से संक्रमित विद्यार्थियों के माध्यम से स्कूल में संक्रमण नहीं फैला है। न्यूयॉर्क में किए गए इसी तरह के अध्ययन में भी ऐसे परिणाम मिले।

हालांकि, सुरक्षात्मक उपायों के अभाव में संचरण दर काफी अधिक हो सकती है। जैसे इरुााइल में मई 2020 में स्कूल खोलने पर मात्र दो सप्ताह में ही एक माध्यमिक शाला में बड़ा प्रकोप उभरा। यहां विद्यार्थियों में 13.2 प्रतिशत और स्कूल कर्मचारियों एवं शिक्षकों में 16.6 प्रतिशत की संक्रमण दर दर्ज की गई। जून के मध्य तक इन लोगों के निकटतम संपर्कों में 90 मामले देखने को मिले।

कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि स्कूल के बच्चे वायरस संक्रमण नहीं फैला रहे हैं। फिर भी यह कहना तो उचित नहीं है कि बच्चों में किसी प्रकार का कोई जोखिम नहीं है। इस रोग से कुछ बच्चों की मृत्यु भी हुई है। मार्च 2020 से फरवरी 2021 के बीच सात देशों में कोविड-19 से सम्बंधित मौतों में 231 बच्चे शामिल थे। अमेरिका में जून तक यह संख्या 471 थी। अध्ययनों में यह भी देखा गया कि संक्रमित बच्चों में काफी लंबे समय तक लक्षण बने रहे। लिहाज़ा कुछ विशेषज्ञ बच्चों को इस वायरस के प्रकोप से दूर रखने का ही सुझाव देते हैं।

लेकिन बच्चों का स्कूल से दूर रहना भी किसी जोखिम से कम नहीं है। बच्चों का सामाजिक अलगाव और ऑनलाइन शिक्षण काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। कुछ हालिया अध्ययनों से पता चला है कि दूरस्थ शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चे अकादमिक रूप से पिछड़ रहे हैं। स्कूल शिक्षा के अलावा भी बहुत कुछ प्रदान करता है। यह बच्चों को सुरक्षा प्रदान करता है, मुफ्त खाना और अपना दिन गुज़ारने के लिए एक सुरक्षित स्थान देता है। स्कूल में आने वाले बच्चों पर घरेलू हिंसा या यौन शोषण के लक्षण भी शिक्षक और स्कूल काउंसलर समझ जाते हैं और आवश्यक हस्तक्षेप भी कर पाते हैं। कामकाजी अविभावकों के लिए स्कूल बंद होना किसी आपदा से कम नहीं है। ऐसे में उनको अपनी ज़िम्मेदारियां निभाना काफी मुश्किल हो गया है। ऐसी परिस्थिति में भी स्कूल का खुलना काफी ज़रूरी हो गया है।

गौरतलब है कि जिन देशों में टीकाकारण कार्यक्रम तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं वहां कुछ प्रतिबंधों और सुरक्षात्मक उपायों के साथ स्कूल खुलने की संभावना है। हालांकि, वायरस के नए संस्करणों से काफी अनिश्चितता बनी हुई है। डेल्टा संस्करण अल्फा संस्करण की तुलना में 40 से 60 प्रतिशत अधिक संक्रामक बताया जा रहा है। यूके में इस संस्करण के मामले काफी तेज़ी से बढ़े हैं। इसमें चिंताजनक बात यह है कि पांच से 12 वर्ष के बच्चों में इसका प्रभाव अधिक पाया गया है।

स्कूलों में वायरस के अधिक संक्रामक संस्करणों के प्रसार को रोकने के लिए मास्क पहनने और बेहतर वेंटिलेशन जैसे तरीके अपनाए जा सकते हैं। अलबत्ता, इन सुरक्षात्मक उपायों को लेकर असमंजस की स्थिति है। जैसे, पहले सीडीसी ने स्कूलों में छह फुट की दूरी रखने की सलाह दी थी लेकिन मार्च में कुछ अध्ययनों के आधार पर इसे आधा कर दिया गया। यूके में केवल यथासंभव दूरी बनाए रखने के दिशानिर्देश जारी किए गए। देखा जाए तो वसंत ऋतु में विस्कॉन्सिन के स्कूलों में कक्षा में तीन फुट से भी कम दूरी पर बच्चों को बैठाया गया। इसके बाद भी परीक्षण में केवल दो ही मामले सामने आए।

बंद जगहों में मास्क के उपयोग को लेकर भी दुविधा है। मार्च में इंग्लैंड में स्कूल खुलने पर सिर्फ माध्यमिक शाला के विद्यार्थियों को मास्क पहनना आवश्यक था लेकिन यूके डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन ने 17 मई को बच्चों तथा शिक्षकों और स्कूल कर्मचारियों को मास्क न लगाने का सुझाव दिया। फिर जिन स्कूलों में मामले बढ़ने लगे वहां एक बार फिर मास्क का उपयोग करने की घोषणा की गई। इसी तरह अमेरिका के अलग-अलग ज़िलों तथा राज्यों में भी मास्क के उपयोग को लेकर विभिन्न निर्णय लिए गए। मई में सीडीसी ने मास्क के उपयोग में बदलाव करते हुए बताया कि टीकाकृत लोगों को मास्क का उपयोग करने की ज़रूरत नहीं है।

फिर भी कुछ विशेषज्ञों का मत है कि एहतियात के तौर पर मास्क का उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि अमेरिका में बिना टीकाकृत लोगों में अभी भी संक्रमण का जोखिम काफी अधिक है और बच्चों का अभी तक टीकाकरण नहीं हो पाया है। इसलिए अभी भी सावधानी बरतना आवश्यक है। कुछ विशेषज्ञों को उम्मीद है कि स्कूलों का बंद होना स्कूल प्रणाली की पुन: रचना करने का मौका देगा। इस महामारी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की व्यापक खामियों को उजागर किया है।

युनिसेफ के जेनकिंस के अनुसार ऐसी परिस्थितियों में शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन को रचनात्मक तरीके सीखने व अपनाने की आवश्यकता है। किस प्रकार से वे प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए वर्चुअल शिक्षण प्रदान कर सकते हैं, सवाल छुड़ाने जैसे महत्वपूर्ण कौशल को कैसे पढ़ाएंगे, शिक्षण के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक-भावनात्मक विकास को कैसे सम्बोधित करेंगे। देखा जाए तो हमें कुछ बदलाव लाने का मौका मिला है। इस अवसर से फायदा न उठा पाना हमारे लिए काफी शर्म की बात होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.npr.org/assets/img/2020/07/31/schoolreopening-promo_wide-e6eec4f6547cf3793ae8536e89b49771770a61bc-s800-c85.jpg

फलियों को सख्त खोल कैसे मिला

गुलाब से लेकर बेशरम और चावल तक के फूलदार पौधे (आवृतबीजी या एंजियोस्पर्म) पृथ्वी के सबसे विविध और सफल जीवों में से हैं। इनकी 3,50,000 से अधिक प्रजातियां सुंदर, पौष्टिक और अपने-अपने पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं। लेकिन डारविन के समय से ही जैव विकास के अध्येताओं के लिए यह एक गुत्थी रही है कि इनका विकास किस तरह हुआ। अब अत्याधुनिक तकनीक और मंगोलिया में मिले जीवाश्मों की मदद से शोधकर्ता इसे हल करने की दिशा में आगे बढ़े हैं।

आवृतबीजी लगभग 12.5 करोड़ वर्ष पहले विकसित हुए और पूरी पृथ्वी पर छा गए। ये बीजों के माध्यम से प्रजनन करते हैं, कुछ उसी तरह जिस तरह इनके पूर्व विकसित हुए चीड़, देवदार, गिंकगो जैसे नग्नबीजी (जिम्नोस्पर्म) करते हैं। लेकिन आवृतबीजियों में बीज निर्माण में कुछ नवाचार हुए जिससे वे फैलने में अधिक सफल हुए।

इनके फूलों के केंद्र में एक नलीदार संरचना स्त्रीकेसर होती है। स्त्रीकेसर का वर्तिकाग्र पराग ग्रहण करता और उसे अंडाशय में भेज देता है, जहां बीज विकसित होते हैं। यही अंडाशय आगे जाकर फली के रूप में परिपक्व होता है। इस तरह एंजियोस्पर्म के बीजों पर दो आवरण – आंतरिक और बाहरी आवरण – बनते हैं। बाहरी आवरण जैसे मटर के दाने का बाहरी छिलका या सेम की रंगीन सतह।

एंजियोस्पर्म का विकास जिम्नोस्पर्म से हुआ है। लेकिन यह रहस्य ही रहा है कि इनमें स्त्रीकेसर और बीज की दूसरी परत कैसे विकसित हुई। पूर्व में, चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के जीवाश्म-वनस्पति विज्ञानी गोंगल शी और उनके साथियों को यूके, चीन और अंटार्कटिका से ऐसे जिम्नोस्पर्म के जीवाश्म मिले थे जिनके बीज कप जैसे आकार के बाहरी आवरण से ढंके थे। इन कप-नुमा बाहरी आवरण को उन्होंने कप्यूल नाम दिया और संभावना जताई कि इसी रचना से एंजियोस्पर्म में बीज के दूसरे बाहरी कवच के विकास की शुरुआत हुई होगी।

लेकिन वर्तमान में किसी भी जीवित पौधे में इस तरह के कप्यूल नहीं दिखते और शोधकर्ताओं को जो जीवाश्म मिले थे वे आंशिक रूप से सड़ चुके पौधों के थे, जिससे इनका पूरी तरह से विश्लेषण करना असंभव रहा।

इसके बाद 2015 में शोधकर्ताओं को मंगोलिया की जारूद बैनर नामक कोयला खदान से पत्थर में बहुत ही अच्छी तरह से संरक्षित दलदली पौधे का जीवाश्म मिला; इस जीवाश्म में भी कप्यूल थे। सूक्ष्मदर्शी से अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने पत्थर को हीरे की आरी से काटा, पॉलिश किया और सतह को एसिड की मदद से तराशा ताकि जीवाश्म की छीलन तैयार की जा सके। इसके अलावा त्रि-आयामी संरचना बनाने के लिए उन्होंने कप्यूल्स का सीटी स्कैन भी किया। उन्होंने पाया कि आधुनिक एंजियोस्पर्म बीजों के बाहरी आवरण की तरह ही इस कप्यूल के ऊतक भी विकसित होते बीजों के चारों ओर लिपटे हुए थे।

कप्यूल-युक्त अन्य जीवाश्मों से इनकी तुलना करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि ये सभी पौधों के उस समूह में आते हैं जिनमें विभिन्न तरह के कप्यूल होते हैं। इन जीवाश्मों से न सिर्फ यह पता चलता है कि बीज में दूसरा आवरण कैसे आया, बल्कि यह भी पता चलता है कि स्त्रीकेसर कैसे विकसित हुए – इन कप्यूल्स में कुछ इस तरह की पत्तियां भी दिखाई दीं जो आगे जाकर स्त्रीकेसर में विकसित हुई होंगी। बहरहाल, इस तरह की और भी खोज और अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/peas_1280p.jpg?itok=8YoEjulZ

ठंडक देने वाले ‘दर्पण’ वस्त्र

ठंड से बचने के लिए गर्म कपड़े बनाना तो आसान है लेकिन झुलसाती गर्मी में शरीर को ठंडा रखने वाले कपड़े बनाना मुश्किल है। और अब, वैज्ञानिकों ने ऐसा कपड़ा तैयार किया है जो दिखने में साधारण कपड़े जैसा लगता है लेकिन यह शरीर का तापमान लगभग पांच डिग्री सेल्सियस तक कम कर सकता है।

वैसे तो हम गर्मी से राहत पाने के लिए हल्के रंग के कपड़े पहनते हैं ताकि ऊष्मा कम अवशोषित हो। इसके अलावा ऐसा कपड़ा भी तैयार किया जा चुका है जो पराबैंगनी विकिरण और निकट-अवरक्त विकिरण को भी परावर्तित कर देता है। निकट-अवरक्त विकिरण का अवशोषण किसी वस्तु को गर्म कर देता है और उसका उत्सर्जन होने पर धीरे-धीरे वस्तु ठंडी हो जाती है। लेकिन शीतलन की इस प्रक्रिया में वातावरण बाधक बन जाता है: उत्सर्जित होने के बाद निकट-अवरक्त विकिरण को अक्सर आसपास मौजूद पानी के अणु सोख लेते हैं और नतीजतन वातावरण को गर्म कर देते हैं।

शीतलन को तेज़ करने के लिए शोधकर्ताओं ने निकट-अवरक्त विकिरण की जगह मध्यम-अवरक्त विकिरण का रुख किया। मध्यम-अवरक्त विकिरण की तरंग लंबाई अधिक होती है, और मध्यम-अवरक्त विकिरण आसपास की हवा में अवशोषित होने की बजाय सीधे अंतरिक्ष में बिखर जाता है। लिहाज़ा, वस्तु व उसका परिवेश दोनों ठंडे रहते हैं। पिछले एक दशक से इस तकनीक की मदद से छतें, प्लास्टिक फिल्म, लकड़ी और अति-सफेद पेंट्स बनाए जा रहे हैं।

गौरतलब है कि मानव शरीर प्राकृतिक तौर पर मध्यम-अवरक्त विकिरण का उत्सर्जन करता है। 2017 में, स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने ऐसा कपड़ा तैयार किया था जो मानव शरीर से उत्सर्जित इस मध्यम-अवरक्त विकिरण को अवशोषित करने की बजाय उसे अपने में से गुज़रने देता है, जिससे इस कपड़े को पहनने वाले के शरीर का तापमान लगभग तीन डिग्री सेल्सियस तक कम हो जाता है। लेकिन यह कपड़ा बहुत पतला – लगभग 45 माइक्रोमीटर या हल्के लिनेन के कपड़े की एक-तिहाई मोटाई का – होने पर ही काम कर सकता था। और इतना पतला होने पर संभवत: यह टिकाऊ न रहता।

टिकाऊ कपड़ा बनाने के लिए झेजियांग विश्वविद्यालय और हुआज़ोंग विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मध्यम-अवरक्त विकिरण वाला ऐसा कपड़ा बनाया जो मानव शरीर से उत्सर्जित ऊष्मा को अपने में से गुज़रने देने की बजाय पहले रासायनिक बंधनों की मदद से उसे अवशोषित करे और फिर मध्यम-अवरक्त विकिरण के रूप में उत्सर्जित कर दे। 550 माइक्रोमीटर मोटाई का यह कपड़ा पॉलीलैक्टिक एसिड और सिंथेटिक फाइबर से बना है जिसमें टाइटेनियम डाईऑक्साइड के नैनोपार्टिकल्स छितरे हुए हैं। यह कपड़ा पराबैंगनी, दृश्य प्रकाश और अवरक्त प्रकाश को परावर्तित भी करता है जो पहनने वाले को और भी ठंडा रखता है। यह कपड़ा दिखने में तो आम शर्ट जैसा है लेकिन वास्तव में यह एक दर्पण है।

इस कपड़े की कारगरता जानने के लिए शोधकर्ताओं ने एक चुस्त फिटिंग वाली बनियान बनाई जिसके आधे हिस्से को दर्पण वाले कपड़े से और बाकी आधे हिस्से को उतनी ही मोटाई के सामान्य सूती कपड़े से बनाया गया था। इस तरह तैयार बनियान को एक व्यक्ति को पहनाकर एक घंटे के लिए धूप में बैठाया गया। साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार सामान्य सूती कपड़े की तुलना में दर्पण वाले कपड़े के नीचे की त्वचा का तापमान लगभग पांच डिग्री सेल्सियस कम था। अवरक्त कैमरे से देखने पर यह अंतर एकदम स्पष्ट था, और वह व्यक्ति भी तापमान का यह अंतर महसूस कर पा रहा था।

वैसे, मध्यम-अवरक्त उत्सर्जन तकनीक अब तक धूप में रखी स्थिर सतहों पर ही उपयोग की गई है। इसलिए यह देखना होगा कि खड़े या चलते-फिरते व्यक्ति के मामले में यह कपड़ा शरीर को कितना ठंडा रख पाता है। ढीले-ढाले साधारण फिटिंग वाले वस्त्रों पर भी जांच करनी होगी क्योंकि ठंडक पैदा करने वाले तत्वों की क्रिया तो इस बात पर निर्भर है कि वे त्वचा से कितने सटे हुए हैं।

बहरहाल यह काम विकिरण शीतलन के क्षेत्र में तेज़ी से हो रही प्रगति दर्शाता है। इस तरह के कपड़े सूती कपड़ों जैसे ही महसूस होंगे, जो उपयोगकर्ता के लिए महत्वपूर्ण है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस तरह के कपड़े निर्माण लागत में केवल 10 प्रतिशत की ही बढ़ोतरी करेंगे, इसलिए इन तक सबकी पहुंच संभव है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/cooling-shirt_700p.jpg?itok=4eJ-RfAw

अपने उपकरण की मरम्मत का अधिकार – सोमेश केलकर

प जब कुछ खरीदते हैं तो क्या वास्तव में आप उसके मालिक होते हैं? क्या कोई और यह तय कर सकता है या करना चाहिए कि आपके अपने पैसों से खरीदी चीज़ के साथ आप क्या करें और क्या नहीं?

खुदा-ना-ख्वास्ता आपके मोबाइल फोन की स्क्रीन टूट जाती है, तो क्या यह चुनाव आपका नहीं होना चाहिए कि इसकी नई स्क्रीन आप कहां से खरीदेंगे/लगवाएंगे या आप खुद ही इसकी मरम्मत करना चाहेंगे? आजकल निर्माता ऐसे प्रयास कर रहे हैं कि उपयोगकर्ता के लिए खुद किसी वस्तु को सुधारना मुश्किल हो। यदि आप अपने ही मोबाइल फोन्स पर गौर करें तो पाएंगे कि कुछ समय पहले तक आपके पास ऐसा मोबाइल फोन हुआ करता था जिसकी बैटरी आप खुद बदल सकते थे, लेकिन स्मार्टफोन की बैटरी एक औसत उपयोगकर्ता की पहुंच में नहीं होती। इसी बिंदु पर मरम्मत का अधिकार (राइट टू रिपेयर) की भूमिका शुरू होती है।

मरम्मत का अधिकार

अमरीका में प्रस्तावित कानून उपभोक्ताओं को अपनी वस्तुओं में बदलाव करने और मरम्मत करने की अनुमति देगा, जबकि उपकरण निर्माता चाहते हैं कि उपभोक्ता सिर्फ उनके द्वारा पेश की गई सेवाओं का उपयोग करें। उपभोक्ताओं के इसी अधिकार को मरम्मत का अधिकार कहा जा रहा है। हालांकि मरम्मत का अधिकार एक वैश्विक चिंता का विषय है, लेकिन फिलहाल यह मुद्दा यूएसए और युरोपीय संघ में केंद्रित है।

सांसद जोसेफ मोरेल ने जून में संसद के समक्ष मरम्मत के अधिकार का राष्ट्रीय विधेयक पेश किया। इसे फेयर रिपेयर एक्ट (उचित मरम्मत कानून) कहा जा रहा है। इसके तहत निर्माताओं को उपकरण मालिकों और स्वतंत्र रूप से मरम्मत करने वालों के लिए मरम्मत के औज़ार या साधन, पुर्ज़े और सुधारने के तरीकों की जानकारी उपलब्ध करानी होगी। विधेयक पारित हो गया तो कोई भी व्यक्ति अपने उपकरण की स्वयं मरम्मत कर/करवा सकेगा। किसान अपने ट्रैक्टर की स्वयं मरम्मत कर सकेंगे, और न्यूयॉर्क निवासी अपने इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण आसानी से सुधार सकेंगे।

मरम्मत के अधिकार के कई उद्देश्यों में से एक है कि निर्माताओं द्वारा योजनाबद्ध तरीके से उत्पाद या उपकरणों को चलन से बाहर करने की रणनीति के विरुद्ध लड़ना। यह रणनीति 1954 में अमेरिकी औद्योगिक डिज़ाइनर ब्रूक्स स्टीवंस ने बिक्री बढ़ाने के लिए सुझाई थी। इसमें कहा गया था कि उत्पाद के पूर्णत: कंडम हो जाने (या अपने उपयोगी जीवनकाल) के पहले ही उसे योजनाबद्ध तरीके से चलन से बाहर कर दिया जाए ताकि उपभोक्ताओं को बार-बार उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर करके आर्थिक विकास दर को बढ़ाया जा सके।

अतीत में भी निम्न गुणवत्ता वाले टंगस्टन बल्ब बनाकर उपभक्ताओं को बारंबार खरीद के लिए मजबूर किया जा चुका है, जबकि निर्माताओं के पास ऐसे बल्ब बनाने की तकनीक थी जिससे बल्ब बरसों चलता। और तो और, इस रणनीति के समर्थकों और निर्माताओं ने टिकाऊ बल्ब बनाने वाले निर्माताओं को दंडित तक किया।

वैसे मरम्मत का अधिकार शब्द थोड़ा भ्रामक है। वर्तमान में ऐसा कोई कानून नहीं है जो उपभोक्ता को अपनी चीज़ को खुद सुधारने का अधिकार देता हो या इस अधिकार से वंचित करता हो। मरम्मत का अधिकार उपभोक्ताओं द्वारा निर्माताओं के उन तौर-तरीकों खिलाफ छेड़ा गया एक आंदोलन है जो किसी वस्तु के सुधार कार्य को अनावश्यक ही मुश्किल बनाते हैं – चाहे उन सॉफ्टवेयर के माध्यम से जो किसी अन्य को मरम्मत करने की इज़ाजत नहीं देते या उपकरणों के पुर्ज़े बनाने वालों के साथ विशेष खरीद-अधिकार अनुबंध करके जो खुले बाज़ार में पुर्ज़ों की उपलब्धता रोक देते हैं या नियंत्रित करते हैं।

इसे मरम्मत का अधिकार कहने से कुछ गलतफहमियां भी पैदा हुई हैं। कुछ लोगों को लगता है कि मरम्मत के अधिकार का उद्देश्य किसी वस्तु की वारंटी की अवधि के बाद भी निर्माताओं को उस वस्तु की मरम्मत करने के लिए बाध्य करना है। ऐसा नहीं है। सरल शब्दों में, मरम्मत के अधिकार का उद्देश्य उपभोक्ता को अपने मुताबिक वस्तु को सुधारने/सुधरवाने का अधिकार देना है। उद्देश्य निर्माताओं के उन गलत तरीकों को रोकना है जिनसे निर्माता या तो विशेष मरम्मत की पेशकश कर, मरम्मत का अधिक शुल्क वसूल कर, उत्पाद को चलन से बाहर करने की योजना बनाकर, पुर्ज़ों के विशेष आपूर्ति अनुबंध करके या अन्य किसी माध्यम से उत्पादों की मरम्मत को मुश्किल बनाते हैं।

उल्लंघन के उदाहरण

हाल ही में नेब्रास्का के एक किसान ने जॉन डीरे के खिलाफ मुकदमा दायर किया। मुद्दा उसे उसके 8 लाख डॉलर के अत्याधुनिक ट्रैक्टर को सुधारने की इजाज़त न होने का था। फसल का मौसम था और ट्रैक्टर को मरम्मत के लिए कंपनी भेजकर वह कई हफ्ते इंतज़ार नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने ट्रैक्टर को स्वयं सुधारने की कोशिश की थी। कंपनी ने अपने बचाव में कहा कि जो सॉफ्टवेयर ट्रैक्टर को चलाता है उसमें सुरक्षा लॉक लगा है, और यह सुरक्षा की दृष्टि से किसी अन्य को मरम्मत नहीं करने देता। वैसे भी, ट्रैक्टर के सॉफ्टवेयर पर किसान का स्वामित्व नहीं है, उसे सिर्फ इसका उपयोग करने का लाइसेंस दिया गया है।

एक अन्य उदाहरण सॉफ्टवेयर संचालित इलेक्ट्रिक कारों के निर्माता टेस्ला का है। पूरे यूएसए में टेस्ला के अपने सुपरचार्ज स्टेशन हैं। ये सुपरचार्ज स्टेशन साधारण चार्जिंग की तुलना में कार को काफी जल्दी चार्ज करते हैं। लेकिन टेस्ला के इन सुपरचार्ज स्टेशन पर कोई अपनी कार तभी चार्ज कर सकता है जब उसकी कार टेस्ला के सुपरचार्जर नेटवर्क पर पंजीकृत हो, पंजीकरण के बिना टेस्ला के चार्जिंग स्टेशन से कार चार्ज करना संभव नहीं है। अब यदि कार मालिक टेस्ला कार में कुछ बदलाव कर ले या उसमें ऐसे पुर्ज़े लगवा ले जो टेस्ला के नहीं हैं तो सॉफ्टवेयर इसे भांप लेता है और सुपरचार्जर नेटवर्क द्वारा वह कार प्रतिबंधित कर दी जाती है।

उपभोक्ता के स्वामित्व वाली वस्तु में अपनी इच्छानुसार तब्दीलियां या मरम्मत करने पर निर्माता उन्हें इसी तरह से दंडित करते हैं, और मरम्मत के अधिकार की लड़ाई इसी के खिलाफ है।

ऐप्पल भी ऐसे कामों के लिए कुख्यात है; वह अपने बनाए उत्पादों पर अपना नियंत्रण रखना चाहती है। पहले ऐप्पल अपने खास स्क्रू, चार्जिंग पोर्ट और अन्य तकनीकों के मालिकाना मानकों का उपयोग करती थी जो या तो उन्हें सहायक उपकरणों के माध्यम से या मरम्मत के माध्यम से कमाई करने में मदद करते थे, क्योंकि कई सुधारकों के पास ऐप्पल उपकरण को सुरक्षित रूप से खोलने के औज़ार नहीं थे।

आईफोन-12 लाने के बाद ऐप्पल इसके भी एक कदम आगे गई। उसने अपने फोन के सभी पुर्ज़ों को ऐप्पल से पंजीकृत एक-एक संख्या दे दी, जिसके चलते स्क्रीन बदलवाने जैसे सरल से काम के बाद भी लोगों को सॉफ्टवेयर सम्बंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा। एक यू-ट्यूबर ने हाल ही में दो आईफोन-12S खरीदे थे और उसने दोनों के पुर्ज़े आपस में बदल दिए। ऐसा करने के बाद उसके फोन दिक्कत देने लगे। तब पता चला कि प्रत्येक पुर्ज़ा केवल एक ही मदरबोर्ड के साथ काम करने के लिए बना है, और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यदि आप खुद उसी कंपनी के दूसरे पुर्ज़े लगा देंगे तो फोन में कोई दिक्कत नहीं आएगी। फोन कोई दिक्कत न करे यह सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीका है कि मरम्मत सिर्फ ऐप्पल स्टोर पर कराई जाए।

जल्दी ही चायनीज़ मरम्मत दुकानों ने ऐप्पल द्वारा खड़ी की गई इस चुनौती का तोड़ ढूंढ लिया। उन्होंने कुछ ही समय में एक ऐसा उपकरण बना लिया है जो ऐप्पल फोन के टूटे पुर्ज़े से उसका सीरियल नंबर पता कर लेता है और उसे वहां से कॉपी कर नए पुर्ज़े पर चस्पा कर देता है। इससे ऐप्पल का सॉफ्टवेयर इस झांसे में रहता है कि फोन उसी स्क्रीन (या पुर्ज़े) का उपयोग कर रहा है जो फोन के साथ आई थी।

मरम्मत के अधिकार का उल्लंघन करना केवल मोबाइल फोन और ऑटोमोबाइल के क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा। इस्तरी, सायकल, म्यूज़िक प्लेयर, पानी के फिल्टर वगैरह को कुछ साल पहले तक सुधारा जा सकता था, लेकिन आज निर्माता किसी न किसी तरह से इन सभी की मरम्मत या पुर्ज़ों की अदला-बदली पर नियंत्रण रखे हुए हैं।

कुछ टूट जाए तो?

किसी वस्तु के टूटने पर उपभोक्ता और निर्माता दोनों के अलग-अलग उद्देश्य होते हैं। उपभोक्ता उसकी मरम्मत पर कम से कम खर्च करना चाहता है जबकि निर्माता मरम्मत के लिए अधिक से अधिक रकम वसूल करना चाहता है।

उपभोक्ता का दृष्टिकोण

उपभोक्ता निम्नलिखित कारणों से नई वस्तु खरीदने की बजाय अपनी टूटी हुई वस्तु का पुर्ज़ा बदलवाना चाहता है:

  • इससे पैसों की बचत होती है, क्योंकि आम तौर नए उत्पाद की तुलना में पुर्ज़ा बदलवाना कम खर्चीला होता है।
  • यह पर्यावरण के लिए अच्छा है क्योंकि मरम्मत करवाने में कम कचरा निकलता है, बजाय पूरी वस्तु फेंकने के।
  • हर किसी को कंपनी द्वारा बाज़ार में उतारे गए नवीनतम उपकरणों/वस्तुओं की ज़रूरत नहीं होती। मरम्मत करने से वस्तु या उपकरण लंबे समय तक उपभोक्ता द्वारा उपयोग किए जा सकते हैं या किसी और को दिए जा सकते हैं।
  • कभी-कभी उपयोगकर्ताओं को किसी वस्तु से भावनात्मक लगाव होता है और वे उसे लंबे समय तक अपने पास रखना चाहते हैं, मरम्मत करना उस वस्तु का भावनात्मक मूल्य बनाए रखता है।
  • मरम्मत करना उपभोक्तावाद की समकालीन संस्कृति, जो ग्राहक और पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक है, को हतोत्साहित करता है।
  • उपयोगकर्ता द्वारा खुद मरम्मत करने के विकल्प को सशक्त बनाता है।

निर्माता का दृष्टिकोण

निर्माता निम्नलिखित कारणों से नियंत्रित करना चाहता है कि क्या बदला जा सकता है और क्या नहीं, और किसे उनके द्वारा उत्पादित वस्तु की मरम्मत करने की अनुमति है;

  • इससे वे उपयोगकर्ता के अनुभव को नियंत्रित कर सकते हैं और उन्हें एकरूप अनुभव प्रदान कर सकते हैं।
  • यदि वे पुर्ज़ों और सहायक उपकरणों के मालिकाना मानकों का उपयोग करते हैं तो वे मरम्मत बाज़ार को नियंत्रित कर सकेंगे।
  • वे उपकरण को बेचने के बाद भी उस पर सेवा शुल्क लेकर उससे पैसा कमाना जारी रख सकते हैं।

निर्माता विरोध क्यों कर रहे

2014 में repair.org के पहले बिल के बाद से, यूएसए के 32 राज्यों ने repair.org द्वारा प्रदान किए गए मरम्मत के अधिकार के विधेयक के प्रारूप का उपयोग कर कानून पर काम करना शुरू कर दिया है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि निर्माताओं ने इस आंदोलन और कानून का विरोध करने का फैसला किया है। निर्माताओं के तर्क इस प्रकार हैं;

1. यह नवाचार को रोकता है

निर्माताओं का तर्क है कि यह कानून नवाचार को हतोत्साहित करता है क्योंकि वे अधिक शक्तिशाली मशीन बनाने के प्रयास के साथ उन्हें कॉम्पैक्ट बनाने की भी कोशिश कर रहे हैं। इस प्रयास में वे पुर्ज़ों को एक-दूसरे में एकीकृत करते हैं, और यह मरम्मत को मुश्किल बनाता है। उदाहरण के लिए, लैपटॉप सुधारना डेस्कटॉप सुधारने की तुलना में कठिन है, क्योंकि लैपटॉप एक कॉम्पैक्ट मशीन है। निर्माताओं का दावा है कि मरम्मत योग्य बनाने को ध्यान में रखकर कोई नवाचार करना मुश्किल होगा।

2. उत्पादन-लागत को बढ़ाता है

कुछ निर्माता जैसे कॉरसैर अपनी मर्ज़ी से अपने ऑडियो उत्पादों की मरम्मत करते हैं, वह भी बिना किसी शुल्क के (चाहे पहले भी उनको बदला या सुधारा जा चुका हो)। इसके साथ ही यदि उत्पाद वारंटी की अवधि में हो तो वे शिपिंग शुल्क का भुगतान भी करते हैं। यह उपभोक्ताओं के लिए बहुत अच्छा है, लेकिन निर्माताओं के हिसाब से इससे लागत बढ़ सकती है, जिसकी मार अधिक कीमत के रूप में उपभोक्ताओं पर ही पड़ेगी। परिणामस्वरूप उत्पाद की मांग प्रभावित हो सकती है।

3. अनुसंधान व विकास को रोकता है

निर्माताओं ने न्यूयॉर्क में इस बिल के विरोध में कहा है कि यह बिल अनुसंधान और विकास को हतोत्साहित करता है, क्योंकि नई तकनीक बनाने में निर्माताओं के लाखों डॉलर खर्च होते हैं। दूसरी ओर, अन्य पार्टी द्वारा पुर्ज़ों की नकल बनाने में इसका अंशमात्र ही खर्च होता है।

हकीकत में उनका यह दावा सच्चाई से कोसों दूर है क्योंकि अधिकांश मरम्मत करने वाले लोग छोटी दुकानों के मालिक होते हैं, जिनके पास अरबों डॉलर के उद्यमियों द्वारा बनाए गए पुर्ज़ों की नकल बनाने का कोई साधन नहीं होता। और इन छोटे पुर्ज़ों को बनाने वाले अधिकांश उद्योग मूल उपकरण निर्माताओं के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ होते हैं।

4. हमेशा एक-सा अनुभव नहीं दे सकते

कोई कार जो कंपनी द्वारा उपयुक्त बैटरी का उपयोग नहीं करती, वह उसी तरह का प्रदर्शन नहीं कर सकती है जैसा वह एकदम नई होने पर करती थी। अन्य निर्माता द्वारा बनाए गए पुर्ज़ों का परीक्षण मूल निर्माता द्वारा नहीं किया जाता इसलिए वे हमेशा एक-समान अनुभव की गारंटी नहीं दे सकते, जो कि वे देना चाहते हैं।

5. उपभोक्ता की सुरक्षा चिंता

जब कभी फोन की बैटरी फट जाती है और इससे किसी को शारीरिक नुकसान पहुंचता है, तो यह खबर तुरंत सुर्खियों में आ जाती है जिसमें उस फोन निर्माता का भी उल्लेख किया जाता है। चीन के स्वेटशॉप में बनी नकली या वैकल्पिक बैटरी में वे सुरक्षा मानक नहीं रखे जाते जो मूल निमाताओं द्वारा रखे जाते हैं। इस तरह की खबरों से अक्सर निर्माता की प्रतिष्ठा को बहुत नुकसान पहुंचता है और बिक्री पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि उपभोक्ता उनके उत्पादों को सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं।

निर्माताओं और गुटों के इस बिल का विरोध करने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन इस विरोध का मूल कारण बिल्कुल स्पष्ट है। वे मरम्मत शृंखला पर नियंत्रण और एकाधिकार स्थापित करना चाहते हैं, जो उन्हें मरम्मत के लिए भारी कीमत वसूलने दे। वे बेची जा चुकी चीज़ से अधिकाधिक कमाई करते रहना चाहते हैं।

भारत में भी यह कानून हो

दुनिया की सबसे सस्ती इंटरनेट योजनाएं भारत की हैं, और इसी के कारण यहां पिछले पांच वर्षों में स्मार्टफोन तक पहुंच लगभग दुगनी हो गई है। अपनी आबादी के चलते हम दुनिया के अन्य घरेलू इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों के एक बड़े हिस्से के उपभोक्ता भी हैं।

हम कृषि से लेकर, उद्योग और सेवा क्षेत्रों तक प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रहे हैं, हालांकि यह भी सच है कि हमारे कृषि क्षेत्र तक वे तकनीकें अब तक नहीं पहुंची हैं जो विश्व के आला देशों के पास हैं। इस विधेयक को अभी इसलिए भी पारित करना चाहिए क्योंकि अभी इसका विरोध कम होगा और इसका विरोध करने वाले भी कम होंगे।

आज अधिकांश भारतीय किसान या तो कृषि के पारंपरिक तरीकों का उपयोग कर रहे हैं या बुनियादी ट्रैक्टर और हार्वेस्टर व अन्य मशीनरी का उपयोग कर रहे हैं जो सॉफ्टवेयर नियंत्रित नहीं होते। इसलिए अभी उपरोक्त अधिनियम को पारित करना और भी आसान होगा। उद्योगों द्वारा इस बिल का विरोध करने की संभावना भी कम होगी क्योंकि वे अभी तक बड़े पैमाने पर परिष्कृत कृषि मशीनरी भारत में नहीं लाए हैं।

वैसे भारत में यह स्थिति काफी पहले से ही दिखाई देने लगी है, बस हम अपनी आंखें मूंदे हुए हैं। आजकल फोन की बैटरी बदलवाने के लिए फोन को दुकान पर ले जाना पड़ता है, जबकि कुछ साल पहले तक पीछे का कवर हटाकर हम खुद बैटरी बदल सकते थे।

कुछ साल पहले तक घर में काम आने वाली इस्तरियों में भी बदले जा सकने वाले प्रतिरोधक होते थे; आधुनिक इस्तरियों में ये प्लास्टिक के आवरण से ढंके होते हैं, जो मरम्मत करने से रोकते हैं क्योंकि प्लास्टिक के टूटने का खतरा अधिक होता है।

पुरानी शैली के कैंडल वाले पानी के फिल्टर की जगह अब प्यूरीफायर ने ले ली है, जिनका फिल्टर बदलने के लिए तकनीशियनों की ज़रूरत पड़ती है। पुराने फिल्टर में एक सामान्य सी कैंडल लगती थी, जिसे कोई भी बदल सकता था और किसी भी ब्रांड की कैंडल काम करती थी।

पुराने टेलीविज़न की पिक्चर ट्यूब को भी आसानी से बदला जा सकता था। लेकिन आधुनिक OLED डिस्प्ले वाले टीवी में रंगों के प्रदर्शन के लिए एक छोटी चिप होती है। यह चिप 28 सोल्डरिंग की मदद से सर्किट में लगाई जाती है और इस पूरे ताम-झाम को जमाने के लिए विशेष उपकरणों और सूक्ष्मदर्शी की आवश्यकता होती है।

कहने का मतलब यह नहीं है कि प्रौद्योगिकी परिष्कृत नहीं होनी चाहिए, या हम सभी को पुराने ज़माने की पुरानी तकनीकों पर लौट जाना चाहिए ताकि मरम्मत आसान हो। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब निर्माता मरम्मत बाज़ार पर अनुचित नियंत्रण हासिल करने या उपभोक्ता को मरम्मत करने से रोकने के हथकंडे अपनाते हैं।

उपरोक्त सभी उदाहरणों ने भारतीयों को भी प्रभावित किया है, फिर भी भारत में किसी को भी मरम्मत के अधिकार का कानून लाने की ज़रूरत नहीं लगती। लोगों को ज़रूरत न लगने और लोगों में जागरूकता की कमी के कारण ही हमारी दिनचर्या में इस्तेमाल होने वाले घरेलू उपकरणों को योजनाबद्ध तरीके से एक निश्चित समय के बाद बेकार किया जा रहा है और जानबूझकर उन्हें इस तरह बनाया जा रहा है कि उनकी मरम्मत करना मुश्किल हो जाता है, और इसलिए भारत को अपने मरम्मत के अधिकार अधिनियम की आवश्यकता है। हम जितनी जल्दी इस वास्तविकता के प्रति जागरूक होंगे और कदम उठाएंगे, लोगों के लिए उतना ही अच्छा होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.therecycler.com/wp-content/uploads/2021/06/Fair-Repair-USA.png

जीवित मलेरिया परजीवी से निर्मित टीके की सफलता

र वर्ष मलेरिया से लगभग चार लाख लोगों की मौत होती है। दवाइयों तथा कीटनाशक युक्त मच्छरदानी वगैरह से मलेरिया पर नियंत्रण में मदद मिली है लेकिन टीका मलेरिया नियंत्रण में मील का पत्थर साबित हो सकता है। मलेरिया के एक प्रायोगिक टीके के शुरुआती चरण में आशाजनक परिणाम मिले हैं।

नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस टीके में जीवित मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम फाल्सीपैरम) का उपयोग किया गया है। टीके के साथ ऐसी दवाइयां भी दी गई थीं जो लीवर या रक्तप्रवाह में पहुंचने वाले परजीवियों को खत्म करती हैं। टीकाकरण के तीन माह बाद प्रतिभागियों को मलेरिया से संक्रमित किया गया। शोधकर्ताओं ने पाया कि टीके में प्रयुक्त संस्करण से लगभग 87.5 प्रतिशत लोगों को सुरक्षा प्राप्त हुई जबकि अन्य संस्करणों से 77.5 प्रतिशत लोगों को सुरक्षा मिली। जीवित परजीवी पर आधारित टीकों में इसे महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा रहा है।

वर्तमान में कई मलेरिया टीके विकसित किए जा रहे हैं। इनमें से सबसे विकसित RTS,S टीका है जिसकी प्रभाविता और सुरक्षा का पता लगाने के लिए तीन अफ्रीकी देशों में पायलट कार्यक्रम के तहत 6.5 लाख से अधिक बच्चों को टीका दिया जा चुका है। इसके अलावा R21 नामक एक अन्य टीके का हाल ही में 450 छोटे बच्चों पर परीक्षण किया गया जिसमें 77 प्रतिशत प्रभाविता दर्ज की गई। एक व्यापक अध्ययन जारी है। गौरतलब है कि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को ट्रिगर करने के लिए इन दोनों ही टीको में एक ही मलेरिया प्रोटीन, सर्कमस्पोरोज़ॉइट प्रोटीन, का उपयोग किया गया है। यह प्रोटीन परजीवी की स्पोरोज़ॉइट अवस्था के बाह्य आवरण पर पाया जाता है। मच्छरों से मानव शरीर में यही अवस्था प्रवेश करती है।

पिछले कई दशकों से टीका निर्माण के लिए संपूर्ण स्पोरोज़ॉइट्स का उपयोग करने के तरीकों की खोज चल रही है। संपूर्ण परजीवी के उपयोग से प्रतिरक्षा प्रणाली को कई लक्ष्य मिल जाते हैं। वायरसों के मामले में यह रणनीति कारगर रही है लेकिन मलेरिया के संदर्भ में सफलता सीमित रही है। एक अध्ययन में देखा गया कि दुर्बलीकृत स्पोरोज़ॉइट्स टीके के बाद व्यक्ति को परजीवी के अलग संस्करण से संक्रमित करने पर मात्र 20 प्रतिशत सुरक्षा मिली।

कई वैज्ञानिकों का तर्क था कि जीवित परजीवी शरीर में खुद की प्रतिलिपियां बनाएगा और इस प्रक्रिया में अधिक से अधिक प्रोटीन पैदा करेगा, इसलिए प्रतिरक्षा भी अधिक उत्पन्न होनी चाहिए। इस संदर्भ में प्रयास जारी हैं।     

नए टीके में शोधकर्ताओं ने 42 लोगों में जीवित स्पोरोज़ॉइट्स इंजेक्ट किए। साथ ही उन्हें दवाइयां भी दी गर्इं ताकि परजीवी को लीवर या रक्त में बीमारी पैदा करने से रोका जा सके। यह तरीका काफी प्रभावी पाया गया और परजीवी के दक्षिण अमेरिका में पाए जाने वाले एक अन्य संस्करण के विरुद्ध भी प्रभावी साबित हुआ। फिलहाल माली में वयस्कों पर परीक्षण किया जा रहा है।

आशाजनक परिणाम के बावजूद बड़े पैमाने पर स्पोरोज़ॉइट टीकों का उत्पादन सबसे बड़ी चुनौती है। स्पोरोज़ॉइट्स को मच्छरों की लार ग्रंथियों से प्राप्त करना और उनको अत्यधिक कम तापमान पर रखना आवश्यक है जो वितरण में एक बड़ी बाधा है। पूर्व में इतने बड़े स्तर पर मच्छरों का उपयोग करके कोई भी टीका नहीं बनाया गया है।

लेकिन मैरीलैंड स्थित एक जैव प्रौद्योगिकी कंपनी सनारिया स्पोरोज़ॉइट्स का उत्पादन मच्छरों के बिना करने के प्रयास कर रही है। कंपनी का प्रयास है कि जीन संपादन तकनीकों की मदद से मलेरिया परजीवी को जेनेटिक स्तर पर कमज़ोर किया जा सके ताकि टीके के साथ दवाइयां न देनी पड़ें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-01806-1/d41586-021-01806-1_19314502.jp