प्रतिरक्षा व्यवस्था और शरीर की हिफाज़त – 5 – विनीता बाल, सत्यजीत रथ

सचमुच अनंत खज़ाना कैसे बनता है?

प्रतिरक्षा तंत्र उन तालों की चाभियां कैसे बनाता है, जिन्हें उसने पहले कभी न देखा हो? और यह कैसे सुनिश्चित करता है कि हर किरदार के पास एक अनोखी चाभी हो?

प्रतिरक्षा तंत्र की अंतहीन विविधता

हमने पिछली बार बात की थी प्रतिरक्षा तंत्र के लिए एक सचमुच खुले खज़ाने के निर्माण की। अब तक हमने जो बातें की हैं उनसे तो जीन्स के पुन:संयोजन के करतबों से मात्र एक काफी बड़े खज़ाने के निर्माण तक पहुंच पाए हैं। वास्तव में एक अनंत खज़ाना बनाने का एकमात्र तरीका तो यही होगा कि प्रतिरक्षा ग्राहियों की प्रत्येक शृंखला के परिवर्ती क्षेत्र बनाने वाले VDJ या VJ एक्सॉन में उत्परिवर्तन की मदद ली जाए। भेड़ जैसे कुछ प्राणि ऐसा करते भी हैं और मुर्गों जैसे कुछ जीव इस विधि का थोड़ा परिवर्तित रूप इस्तेमाल करते हैं।

अलबत्ता, माइस (एक किस्म का चूहा, जिसके प्रतिरक्षा तंत्र का सर्वाधिक अध्ययन किया गया है) और मनुष्य इसकी बजाय एक ज़्यादा आसान जुगाड़ का सहारा लेते हैं। सबसे पहले तो वे V, D और J मिनी-जीन्स को जोड़ने में एक बुनियादी पुनर्मिश्रण मशीनरी का उपयोग करते हैं। यह मशीनरी जोड़े जाने वाले दो जीन्स को पंक्तिबद्ध कर देती है। पंक्तिबद्ध करने में वह पहचान व सीध मिलाने के लिए अनुक्रम पहचान का उपयोग करती है। प्रत्येक मिनी-जीन के कोडिंग क्षेत्र के नज़दीक एक चिंह होता है जो दो संरक्षित अनुक्रमों से बना होता है – एक हैप्टोमर (7 क्षार) और एक नैनोमर (9 क्षार)। ये एक-दूसरे से 12 अथवा 23 क्षारों की दूरी पर होते हैं। सीध मिलाने की क्रियाविधि ऐसी है कि 7-12-9 संकेत चिंह सिर्फ 7-23-9 संकेत चिंह से जुड़ सकता है। चूंकि V और J दोनों भारी शृंखला मिनी-जीन्स पर एक ही किस्म के संकेत-चिंह होते हैं, इसलिए यह व्यवस्था सुनिश्चित कर देती है कि वे भारी शृंखला में D मिनी-जीन को छोड़कर गलती से भी एक-दूसरे से नहीं जुड़ेंगे।

विविधता उत्पन्न करने का अगला जुगाड़ इस तथ्य पर टिका है कि VDJ को जोड़ते समय पुनर्मिश्रण की घटना में डीएनए दोहरी कुंडली में से एक सूत्र को काटना अनिवार्य होता है। इसके चलते कोशिकीय रख-रखाव की इस मशीनरी को मौका मिल जाता है कि कटे हुए सूत्र का उपयोग करते हुए दूसरे सूत्र को भी तोड़ दे और फिर दोनों सिरों को जोड़कर एक हेयरपिन जैसा छल्ला बना दे। तो अब पुनर्मिश्रण की मशीनरी डीएनए के इन दो हेयरपिन छल्लों को पकड़ लेती है – प्रत्येक मिनी-जीन का एक छल्ला – और उन्हें पास-पास लाकर सिल देती है। सिलने के बाद वह इन्हें फिर से काटकर खोल देती है। इस काटने की वजह से वह छल्ला दूसरी बार जहां से खुलता है वह मूल स्थान से अलग होता है। तो अब डीएनए के दो सूत्र एक ही बिंदु पर समाप्त नहीं होते। वास्तव में एक दूसरे की अपेक्षा थोड़ा आगे तक लटका होता है। यह बाहर लटकता टुकड़ा डीएनए सफाई करने वाले एंज़ाइम्स (एक्सोन्यूक्लिएज़) के प्रति बहुत संवेदनशील होता है। ये एंज़ाइम तत्काल इनका मुंह पकड़कर इन्हें चबाना शुरू कर देते हैं। कई बार जोश में आकर वे बाहर लटकते हिस्से से भी अधिक चबा डालते हैं। ज़ाहिर है, यह प्रक्रिया जुड़ाव बिंदु पर डीएनए के अनुक्रम को इस तरह बदल देती है, जैसा जीनोम के द्वारा अपेक्षित नहीं था। दूसरे शब्दों में, अब जीनोम सांचे से इतर बेतरतीबी VDJ एक्सॉन में शामिल हो चुकी है।

एक अन्य रख-रखाव एंज़ाइम (टर्मिनल डीऑक्सीन्यूक्लियोटाइड ट्रांसफरेज़) डीएनए में से क्षारों को इस तरह हटा सकता है जो मूल योजना का हिस्सा नहीं था। यह एंज़ाइम अनुक्रम को और बदल देता है।

क्या बी-कोशिका और टी-कोशिका ग्राही विविधता में कुछ पैटर्न हैं?

हमने बात की थी कि बी-कोशिकाएं और टी-कोशिकाएं अपने लक्ष्यों को अलग-अलग ढंग से पहचानती हैं। बी-कोशिका के ग्राही सारे लक्ष्यों को पहचानते हैं और उनमें कोई स्थान-आधारित रुकावट नहीं होती। दूसरी ओर, टी-कोशिकाएं किसी लक्ष्य को तभी पहचानती हैं जब वह किसी कोशिका की सतह पर एमएचसी प्रोटीन से जुड़ा कोई पेप्टाइड हो। ज़ाहिर है, इन एमएचसी प्रोटीन्स में बहुत अधिक विविधता नहीं होगी। हमने कहा भी था कि मात्र उन टी-कोशिकाओं को चुना जाता है जो शरीर में उपलब्ध एमएचसी प्रोटीन से सम्बद्ध अज्ञात पेप्टाइड को पहचान पाए। इस प्रक्रिया को सकारात्मक चयन कहते हैं।

तो बी- एवं टी-कोशिकाओं के ग्राहियों के विभिन्न खंडों में विविधता का इससे क्या सम्बंध है?

स्पष्ट है कि बी-कोशिकाओं के ग्राहियों के सारे हिस्सों में काफी विविधता की ज़रूरत होगी क्योंकि ग्राही के सारे घटकों का संपर्क लक्ष्यों के निहायत विविध आकारों से होने की संभावना है। इसके विपरीत टी-कोशिका ग्राहियों के जो हिस्से एमएचसी अणु से संपर्क बनाएं उनमें उतनी विविधता की ज़रूरत नहीं है जितनी कि उस हिस्से में जो पेप्टाइड के संपर्क में आएगा।

तो टी-कोशिकाओं के ग्राहियों के निर्माण में VDJ मिनी-जीन हिस्सों का योगदान कितना है (जो सांचे के रूप में काम करते हैं) और जोड़ वाले हिस्सों का क्या योगदान है जो गैर-सांचा गत ढंग से काम करते हैं? रोचक बात है कि टी-कोशिका ग्राही के वे हिस्से जो पेप्टाइड के संपर्क में आते हैं, उनका कोडिंग गैर-सांचागत विविधता-जनक हिस्से में होता है। V, D और J जीन्स में विविधता स्वाभाविक रूप से V, D और J समूहों में उपलब्ध वैकल्पिक समूहों से आती है। यहां, टी-कोशिका ग्राहियों के लिए उपलब्ध संख्या कहीं कम होती है, बनिस्बत बी-कोशिका ग्राहियों के। इससे एक बार फिर यह बात रेखांकित होती है कि पेप्टाइड के संपर्क में आने वाले ग्राहियों की अपेक्षा एमएचसी प्रोटीन्स के संपर्क में आने वाले टी-कोशिका ग्राहियों में विविधता काफी कम होती है। दूसरी ओर, बी-कोशिका ग्राहियों के लिए मिनी-जीन्स के विकल्पों की संख्या बहुत अधिक होती है क्योंकि उन्हें बहुत अधिक कुल विविधता की ज़रूरत होती है। यानी पूरी व्यवस्था में न सिर्फ विविधता बढ़ाने का इंतज़ाम है बल्कि उन हिस्सों में विविधता और अधिक बढ़ाने का इंतज़ाम है जहां इसकी ज़्यादा ज़रूरत हो।

प्रत्येक कोशिका पर एक ही ग्राही होता है जबकि गुणसूत्र दो होते हैं

लक्ष्य-पहचान के क्लोनल विविधरूपी मॉडल के फायदों की बात करते हुए हमने कहा था कि बेहतर होगा यदि प्रत्येक कोशिका पर एक ही लक्ष्य का ग्राही हो ताकि अनजाने में लक्ष्य-पहचान में कोई घालमेल न हो। लेकिन यदि ग्राही शृंखला बनाने के लिए VDJ सम्मिश्रण होना है तो जब प्रत्येक कोशिका में गुणसूत्रों की दो प्रतिलिपियां होती हैं तो प्रत्येक कोशिका पर दो ग्राही शृंखलाएं क्यों नहीं बन जाती?

इसके दो समाधान हैं। एक तो यह कि पूरी प्रक्रिया बेतरतीबी से चलती है, इसलिए संयोगवश हो सकता कि दो में से एक शृंखला ऐसी बने जो निरर्थक हो। दरअसल, इसकी वजह से ही कई बी- और टी-कोशिकाएं नाकाम रहती हैं और मर जाती हैं। इसका मतलब है कि इन कोशिकाओं को बनाने की प्रक्रिया में काफी बरबादी निहित है।

एक ही कोशिका पर दो ग्राही नहीं बनने देने का एक तरीका यह है कि दोनों ग्राहियों को परस्पर होड़ करने दी जाए। जो शृंखला पहले बन जाए वह दूसरी शृंखला के निर्माण की प्रक्रिया को रोक दे।

अलबत्ता, ये दोनों ही प्रक्रियाएं पूर्ण रूप से कारगर नहीं हैं। ऐसी कई बी- व टी-कोशिकाएं होती हैं जिन पर दो-दो पहचान-ग्राही होते हैं। ये प्रतिरक्षा गफलत की वाहक होती हैं, खासकर यदि किसी कोशिका पर एक ग्राही ऐसा हो जो शरीर के अपने किसी अणु को पहचानता हो। लेकिन इस मसले को तब संभाल लिया जाता है जब उन कोशिकाओं को नष्ट किया जाता है जो शरीर के अपने अणु को प्रतिरक्षा-लक्ष्य के रूप में पहचानती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में फैल रहे कोरोनावायरस संस्करण

भारत में कोविड-19 की दूसरी भयावह लहर ने देश को गंभीर स्थिति में पहुंचा दिया है। वैज्ञानिक समुदाय यह समझने के प्रयास कर रहा है कि कोरोनावायरस के कौन-से संस्करण इसके लिए ज़िम्मेदार हैं।

ऐसा बताया जा रहा है कि संस्करण बी.1.617 अधिक संक्रामक और प्रतिरक्षा को चकमा देने में सक्षम है। जंतुओं पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि यह संस्करण गंभीर रूप से बीमार करने में सक्षम हो सकता है। गौरतलब है कि बी.1.617 संस्करण पूरे भारत में प्रमुख संस्करण के रूप में उभरा है।

कुछ समय पूर्व भारत में कोविड-19 के मामलों में अचानक वृद्धि के पीछे कई संस्करणों के होने का कारण बताया जा रहा था। जीनोमिक डैटा के आधार पर यूके में पहचाना गया बी.1.1.7 संस्करण दिल्ली और पंजाब में देखा गया था जबकि पश्चिम बंगाल में नया संस्करण बी.1.618 और महाराष्ट्र में बी.1.617 संस्करण प्रमुख रूप से पाया गया है। बी.1.617 संस्करण सबसे प्रमुख संस्करण के रूप में उभरा है जिसके मामले दिल्ली में काफी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। इस सम्बंध में नेशनल सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के निदेशक सुरजीत सिंह कई राज्यों में उछाल के पीछे बी.1.617 संस्करण को प्रमुख मान रहे हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बी.1.617 को ‘चिंताजनक संस्करण’ की श्रेणी में रखा है। इसका मतलब है कि यह संस्करण पूर्व के ज्ञात संस्करणों की तुलना में तेज़ी से फैलता है, गंभीर रूप से बीमार करता है या फिर प्रतिरक्षा से बच निकलने में सक्षम है। हाल ही में यूके सरकार ने बी.1.617.2 उप-प्रकार को भी इसी श्रेणी में डाला है। कुछ अन्य ‘चिंताजनक संस्करण’ भी उभरे हैं। पी.1 संस्करण ब्राज़ील में दूसरी लहर का प्रमुख कारण बताया गया है जबकि यूके में बी.1.1.7 संस्करण के कारण कोविड मामलों में काफी वृद्धि देखी गई।

हालांकि, बी.1.617 पर डैटा अभी जारी हुआ है लेकिन ऐसा अनुमान है कि यह भारत में पहले से उपस्थित कई संस्करणों में से उभरा है। सबसे पहले इस संस्करण का पता अक्टूबर में चला था। इसके बाद से जनवरी के अंत में बढ़ते मामलों को देखते हुए इस संस्करण पर निगरानी बढ़ा दी गई और महाराष्ट्र में बी.1.617 एक प्रमुख संस्करण के रूप में पाया गया। तब से इसके कई उपवंश उभरने लगे। बी.1.617 में वैज्ञानिकों ने वायरस के स्पाइक प्रोटीन में आठ उत्परिवर्तन देखे हैं। इनमें से दो उत्परिवर्तन ऐसे थे जो इसे अधिक संक्रामक बनाते हैं और तीसरा उत्परिवर्तन वही है जिसने पी.1 को प्रतिरक्षा को चकमा देने में सक्षम बनाया है।

यह भी पता चला है कि बी.1.617 संस्करण पिछले संस्करणों की तुलना में आंतों और फेफड़ों की कोशिकाओं में प्रवेश करने में थोड़ा अधिक सक्षम है। हालांकि, इससे अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि यह मामूली-सा बदलाव कैसे संचरण में वृद्धि करता है। फिर भी जीवों पर किए गए अध्ययन में बी.1.617 संस्करण ने काफी गंभीर रूप से बीमार किया है।

इस विषय में युनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज के वायरोलॉजिस्ट रविन्द्र गुप्ता के शोध से पता चला है कि टीकाकृत लोगों की एंटीबॉडीज़ अन्य संस्करणों की तुलना में बी.1.617 के विरुद्ध कम प्रभावी हैं। टीकाकृत लोगों के सीरम में आम तौर पर एंटीबॉडी उपस्थित होते हैं जो वायरस को बेअसर करते हुए कोशिकाओं को संक्रमित होने से बचाते हैं। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि दिल्ली में जिन स्वास्थ्य सेवा कर्मचारियों को कोवीशील्ड का टीका लगाया गया है और जो दोबारा से संक्रमित हुए हैं उनमें अधिकांश में बी.1.617 संस्करण पाया गया है। लेकिन उनके अनुसार यह टीके को किसी भी तरह से असरहीन नहीं बनाते हैं।    

इसी तरह जर्मनी की टीम ने पूर्व में सार्स-कोव-2 से ग्रसित 15 लोगों के सीरम का परीक्षण किया और पाया कि उनके एंटीबॉडीज़ पिछले संस्करणों की तुलना में बी.1.617 के विरुद्ध लगभग 50 प्रतिशत कम प्रभावी हैं। फाइज़र टीके की दो खुराक प्राप्त लोगों के सीरम का परीक्षण करने पर देखा गया कि एंटीबॉडीज़ बी.1.617 के विरुद्ध लगभग 67 प्रतिशत कम प्रभावी हैं। इसके साथ ही भारत बायोटेक द्वारा निर्मित कोवैक्सीन टीका और कोवीशील्ड पर एक अप्रकाशित अध्ययन टीके को प्रभावी बताते हैं। जबकि वैज्ञानिकों ने कोवैक्सीन द्वारा उत्पन्न एंटीबॉडीज़ की प्रभाविता में कुछ कमी पाई है।

फिर भी गुप्ता ने चेतावनी दी है कि प्रयोगशाला में किए गए ये सभी अध्ययन छोटे समूहों पर किए गए हैं जिनमें अन्य ‘चिंताजनक संस्करणों’ की तुलना में एंटीबॉडी प्रभावशीलता में मामूली कमी देखी गई है। इसके अलावा वैज्ञानिकों ने किसी संस्करण के टीके की प्रतिरक्षा से बच निकलने की क्षमता का पता लगाने के लिए सीरम परीक्षण को उचित नहीं बताया है। टीकों से बड़ी संख्या में एंटीबॉडी का उत्पादन होता है जिसके चलते टीके की क्षमता में मामूली गिरावट महत्वपूर्ण नहीं होती है। इसके अलावा, प्रतिरक्षा प्रणाली के अन्य भाग जैसे टी-कोशिकाओं पर भी कोई प्रभाव नहीं देखा गया है।

उदाहरण के तौर पर, बी.1.351 संस्करण को एंटीबॉडी को निष्क्रिय करने की क्षमता के रूप में देखा जाता है जबकि मनुष्यों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि कई टीके गंभीर बीमारी को रोकने में इस संस्करण के विरुद्ध काफी प्रभावी रहे हैं। इन्हीं कारणों से टीकों को बी.1.617 के विरुद्ध भी काफी प्रभावी माना जा रहा है जो गंभीर रूप से बीमार पड़ने से बचा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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काली फफूंद का कहर: म्यूकरमायकोसिस – डॉ. भोलेश्वर दुबे, डॉ. किशोर पवार

रीब डेढ़ साल से पूरी दुनिया में वायरस जनित रोग कोविड-19 से त्राहि-त्राहि मची हुई है। कोविड-19 से जैसे-तैसे मरीज़ अपनी जान बचाकर राहत महसूस करे उसके पहले ही एक और विकट समस्या उसे घेर लेती है। यह नई समस्या पिछले कुछ महीनों से व्यापक असर दिखा रही है। यह एक अत्यंत साधारण और आम तौर पर हमारे आसपास पाई जाने वाली फफूंद (ब्रेड मोल्ड) की देन है। इन दिनों इससे होने वाले रोग म्यूकरमाइकोसिस के संदर्भ में यह ब्लैक फंगस के नाम से जानी जा रही है।

ब्लैक फंगस या काली फफूंद सामान्यत: बासी रोटियों, ब्रेड, सड़े-गले पदार्थों, चमड़े की चीज़ों, गोबर, मिट्टी और नमी वाले स्थानों पर पाई जाती है। कवक विज्ञान की दृष्टि से ये ज़ायगोमाइकोटिना समूह की सदस्य हैं जो मुख्य रूप से मृतोपजीवी हैं (यानी सड़ते-गलते पदार्थों से पोषण प्राप्त करती हैं)। अपवादस्वरूप ये दुर्बल परजीवी की तरह व्यवहार करती हैं। इनका शरीर महीन सफेद तंतुओं के जाल से बना होता है और पर्याप्त पोषण और अनुकूल पर्यावरण में ये असंख्य गहरे भूरे या काले बीजाणु का उत्पादन करती हैं। ये बीजाणु ही फफूंद के फैलाव और रोग के कारण बनते हैं।

दुर्बल माने जाने वाले ये परजीवी भी इन दिनों उग्र रूप धारण कर चुके हैं। इस रोग के कारण कई लोगों को अपनी आंखें गंवाना पड़ी हैं, लकवा हो गया और यहां तक कि कई लोगों की जान भी जा चुकी है।

यह फफूंद रक्त वाहिनी में घुसपैठ करती है और नाक, आंख, फेफड़ों, मस्तिष्क और गुर्दों सहित शरीर के प्रमुख अंगों को नुकसान पहुंचाती है। पूरे विश्व में म्यूकरमाइकोसिस पैदा करने वाली प्रमुख फफूंद राइज़ोपस ओराइज़ी है। इसके अलावा अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में इसी वर्ग के म्यूकर सहित 11 वंश और 27 प्रजातियां मनुष्य में संक्रमण का कारण बनती हैं।

हवा में उपस्थित बीजाणु जब सांस के माध्यम से मानव शरीर में पहुंचते हैं तो ये संक्रमण की शुरुआत कर सकते हैं।  म्यूकरमाइकोसिस का संक्रमण उन व्यक्तियों में जल्दी हो जाता है जिनको डायबिटीज़ अथवा रक्त सम्बंधी कोई गंभीर रोग हो, या जिनका अंग प्रत्यारोपण हुआ हो। कॉर्टिकोस्टेरॉइड (बीटामेथेसोन, प्रेड्निसोलोन, डेक्सामेथेसोन वगैरह) उपचार ले रहे व्यक्तियों में भी इस रोग की संभावना अधिक होती है। एशियाई देशों में डायबिटीज़ इस रोग का खतरा बढ़ाने वाला सबसे प्रमुख कारण है, वहीं रक्त रोग और अंग प्रत्यारोपण युरोपीय देशों और अमेरिका में इस रोग का खतरा बढ़ाते हैं।

वर्तमान परिदृश्य में वैश्विक स्तर पर म्यूकरमाइकोसिस के प्रकरणों में वृद्धि हो रही है मगर यह वृद्धि भारत और चीन में बहुत अधिक है क्योंकि यहां अनियंत्रित डायबिटीज़ के मरीज़ों की संख्या ज़्यादा है। अलग-अलग अध्ययनों में पाया गया है कि भारत में इस रोग से संक्रमित 57 प्रतिशत लोग अनियंत्रित डायबिटीज़ से ग्रस्त थे वहीं वैश्विक स्तर पर यह प्रतिशत 40 के आसपास है। भारत में अधिक संक्रमण के पीछे एक कारण यह भी है कि यहां की जनता नियमित स्वास्थ्य जांच नहीं करवा पाती है और डायबिटीज़ के प्रति भी लापरवाही बरती जाती है। यह म्यूकरमाइकोसिस संक्रमण को न्यौता देने जैसा है।

भारत में कई गहन चिकित्सा इकाइयों पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि इनमें से 24 प्रतिशत में म्यूकरमाइकोसिस संक्रमण उपस्थित था। भारत में इस संक्रमण की दर बहुत अधिक है। यहां प्रति वर्ष नौ लाख लोग इससे संक्रमित होते हैं जबकि शेष विश्व में दस हज़ार लोग ही प्रति वर्ष संक्रमित होते हैं।

अध्ययन में यह भी पाया गया है कि इस संक्रमण में लौह तत्व की अधिकता और डीफेरोक्सामाइन उपचार की भी बड़ी भूमिका है। पहले डायबिटीज़ जन्य कीटोएसिडोसिस, डाएलिसिस और गुर्दे खराब होने की दशा में लौह तत्व की अधिकता को नियंत्रित करने के लिए डीफेरोक्सामाइन का काफी उपयोग किया जाता था। डीफेरोक्सामाइन के द्वारा अलग किया गया लौह तत्व राइज़ोपस द्वारा पकड़ लिया जाता है, जिससे इस फफूंद की अच्छी वृद्धि होने लगती है। ऐसे रोगियों की मृत्यु दर 80 प्रतिशत तक होती है।

उपचार से बचाव बेहतर कुछ सावधानियां हैं जो इस कवक के जानलेवा संक्रमण से बचा सकती हैं: अस्पताल के उपकरणों के अलावा ब्लैक फंगस सूक्ष्म बीजाणुओं द्वारा मुंह और नाक के रास्ते प्रवेश करती है। अत: बचाव का एक तरीका घर पर भी मास्क का उपयोग करना है। मास्क गीला ना हो और कपड़े का हो तो बेहतर। विशेषकर डायबिटीज़ मरीज़ों के लिए मास्क बहुत उपयोगी हो सकता है। घर पर या ऑफिस में जब सफाई की जाती है तब ट्रिपल लेयर मास्क लगा ही लेना चाहिए क्योंकि इस दौरान उड़ने वाली धूल के कणों में विभिन्न प्रकार की फफूंद के बीजाणु पाए जाने की संभावना ज़्यादा होती है। कवक के संक्रमण का एक और रुाोत कूलर के पैड भी हैं क्योंकि वहां लगातार नमी फफूंद की वृद्धि के लिए अनुकूल पर्यावरण उपलब्ध कराती है।

म्यूकरमाइकोसिस के मामले संदूषित उपचार उपकरणों और चिपकने वाली (एडहेसिव) पट्टियों के कारण भी बढ़ते हैं। अमेरिका के अस्पतालों में उपयोग किए जाने वाले कपड़े और बिस्तर संदूषित पाए गए और उनमें राइज़ोपस की प्रजातियां मिलीं।

कुछ मामलों में म्यूकरमाइकोसिस से होने वाली मौत का आंकड़ा बहुत अधिक है: शारीरिक रूप से कमज़ोर, गंभीर बीमारी से अभी-अभी ठीक हुए, सर्जरी करवा चुके, कैंसर, एड्स से पीड़ित और रोग प्रतिरोधक क्षमता की दिक्कतों से जूझ रहे रोगी।

आज के हालात में म्यूकरमाइकोसिस के भारत में लगातार बढ़ते मामलों के पीछे रोगियों की कमजोर पड़ चुकी प्रतिरोधक क्षमता और गंभीर रोग से ग्रस्त होना तो एक कारण है ही किंतु विगत कुछ माह से कोविड-19 के प्रकरणों में अप्रत्याशित वृद्धि के कारण पूरे चिकित्सा तंत्र में जो अफरा-तफरी मच गई, उसके चलते अस्पतालों द्वारा स्वच्छता की अनदेखी संक्रमण को विस्फोटक स्थिति में पहुंचाने का एक प्रमुख कारण माना जा सकता है। ऑक्सीजन प्रदाय उपकरणों, बिस्तरों आदि की समुचित सफाई ना होना भी इस संक्रमण को बढ़ाने में सहायक रहा।

एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि आनन-फानन औद्योगिक ऑक्सीजन का उपयोग अस्पतालों में किए जाने की वजह से भी फफूंद संक्रमण में वृद्धि हुई है। आक्सीजन की भारी डिमांड देखते हुए उद्योगों में प्रयोग होने वाले ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, आर्गन व नाइट्रोजन गैसों के सिलेंडरों में गैस भरकर अस्पतालों में पहुंचाना पड़ा। लेकिन इन्हें अस्पतालों में भेजने से पहले पूरी तरह कीटाणु रहित नहीं किया जा सका। डाक्टरों का कहना है कि ऑक्सीजन आपूर्ति की पाइपलाइन व ह्यूमिडीफायर में फंगस जमा होने व कंटेनर में साधारण पानी का उपयोग करने से भी बीमारी बढ़ी। वैसे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने स्पष्ट किया है कि ऑक्सीजन उपचार और फफूंद संक्रमण के बीच निश्चित सम्बंध नहीं देखा गया है। संस्थान का मत है कि इसके पीछे डायबिटीज़ और स्टेरॉइड चिकित्सा की भूमिका हो सकती है।

फफूंद जन्य रोग हवा में इनके बीजाणुओं की उपस्थिति या संदूषित चिकित्सा सामग्री के माध्यम से फैलते हैं। अत: अब प्राथमिकता के आधार पर सभी अस्पतालों और वहां की सामग्री की स्वच्छता सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि बिना महंगे इलाज के लोगों को इस संक्रमण से बचाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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स्तनधारी अपनी आंतों से सांस ले सकते हैं

म तौर पर हमारी आंत भोजन से पोषण लेने का काम करती है और गुदा मल को बाहर निकालने का। लेकिन कृंतकों और सूअरों पर हुए ताज़ा अध्ययन में देखा गया है कि स्तनधारियों की आंत ऑक्सीजन का भी अवशोषण कर सकती है, जो श्वसन संकट की स्थिति से उबरने में मदद कर सकता है। कहा जा रहा है कि भविष्य में इस तरीके से मनुष्यों को ऑक्सीजन की कमी से बचाया जा सकेगा, खासकर उन जगहों पर जहां ऑक्सीजन देने की अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।

अधिकांश स्तनधारी जीव अपने मुंह और नाक से सांस लेते हैं, और फेफड़े के ज़रिए पूरे शरीर में ऑक्सीजन भेजते हैं। यह तो ज्ञात था कि समुद्री कुकंबर और कैटफिश जैसे जलीय जीव आंत से सांस लेते हैं। स्तनधारी जीव आंतों से दवाइयों का अवशोषण तो कर लेते हैं लेकिन यह मालूम नहीं था कि क्या वे श्वसन भी कर सकते हैं।

यही पता लगाने के लिए सिनसिनाटी चिल्ड्रन हॉस्पिटल के गैस्ट्रोएंटरोलॉजिस्ट ताकानोरी ताकबे और उनके साथियों ने चूहों और सूअरों पर कई परीक्षण किए। पहले 11 चूहे लिए। इनमें से चार चूहों की आंतों के अस्तर को रगड़ कर पतला किया ताकि ऑक्सीजन अच्छी तरह अवशोषित हो सके, और फिर इन चूहों के मलाशय से शुद्ध, दाबयुक्त ऑक्सीजन प्रवेश कराई। शेष 7 चूहों की आंत के अस्तर को पतला नहीं किया गया था। उनमें से 4 की आंत में ऑक्सीजन प्रवेश कराई। और शेष तीन चूहों की न तो आंतों की सफाई की और न उन्हें ऑक्सीजन दी। इसके बाद सभी चूहों के शरीर में ऑक्सीजन की कमी पैदा कर दी (वे ‘हाइपॉक्सिक’ हो गए)।

मेड पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार जिन चूहों की आंत की सफाई नहीं की गई थी और ऑक्सीजन भी नहीं दी गई थी वे औसतन 11 मिनट जीए। जिन्हें आंत साफ किए बिना गुदा के माध्यम से ऑक्सीजन दी गई थी वे 18 मिनट तक जीए। और जिन्हें आंत साफ कर ऑक्सीजन दी गई थी वे चूहे लगभग एक घंटा जीवित रहे।

लेकिन शोधकर्ता आंत साफ करने की मुश्किल और जोखिमपूर्ण प्रक्रिया हटाना चाहते थे। इसलिए अगले अध्ययन में उन्होंने दाबयुक्त ऑक्सीजन की जगह परफ्लोरोकार्बन का उपयोग किया, जो ऑक्सीजन अधिक मात्रा में संग्रह करता है और अक्सर सर्जरी के दौरान रक्त के विकल्प के रूप में इसका उपयोग किया जाता है। उन्होंने तीन हाइपॉक्सिक चूहों और सात हाइपॉक्सिक सूअरों की आंत में ऑक्सीजन युक्त परफ्लोरोकार्बन प्रवेश कराया। नियंत्रण समूह के दो हाइपॉक्सिक चूहों और पांच हाइपॉक्सिक सूअरों की आंत में सलाइन प्रवेश कराई।

नियंत्रण समूह के चूहों और सूअरों में ऑक्सीजन का स्तर घट गया। लेकिन जिन चूहों में ऑक्सीजन प्रवेश कराई गई थी उनमें ऑक्सीजन का स्तर सामान्य रहा व सूअरों में ऑक्सीजन में लगभग 15 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई जिससे वे हाइपॉक्सिया के लक्षणों से उबर पाए। कुछ ही देर में उनकी त्वचा की रंगत और गर्माहट भी लौट आई थी।

दोनों अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि स्तनधारी अपनी आंतों के माध्यम से ऑक्सीजन को अवशोषित कर सकते हैं, और ऑक्सीजन देने का यह नया तरीका सुरक्षित है। हालांकि मनुष्यों में इसके प्रभावों और सुरक्षा को देखा जाना अभी बाकी है लेकिन उम्मीद है कि यह तरीका ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे लोगों को बचाने में कारगर साबित हो सकता है। अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि पारंपरिक श्वसन उपचारों से इसकी तुलना करके देखना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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टीके की दूसरी खुराक में देरी और प्रतिरक्षा प्रक्रिया

पिछले वर्ष के अंत में, टीकों की सीमित आपूर्ति के चलते, यूके ने एक साहसिक प्रयोग शुरू किया था। इस प्रयोग में टीके की दूसरी खुराक में देरी करने का उद्देश्य वास्तव में अधिक से अधिक लोगों को टीका लगाना था ताकि उनको कुछ हद अस्पताल में भर्ती होने या फिर जान के जोखिम से बचाया जा सके।

लेकिन हाल ही में एक अध्ययन से पता चला है कि mRNA आधारित फाइज़र-बायोएनटेक टीके की दूसरी खुराक में देरी की जाए तो 80 से अधिक उम्र के लोगों में दूसरी खुराक मिलने पर एंटीबॉडी प्रतिक्रिया में तीन गुना तक बढ़ावा होता है। यह पहला ऐसा प्रत्यक्ष अध्ययन है जो टीके की दूसरी खुराक में देरी से एंटीबॉडी स्तर पर होने वाले प्रभाव का आकलन करता है। इसके निष्कर्षों का असर अन्य देशों के टीकाकरण कार्यक्रमों पर पड़ सकता है। पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड की महामारी विज्ञानी और इस अध्ययन की सह-लेखक गायत्री अमृतालिंगम के अनुसार यह निष्कर्ष टीके की दूसरी खुराक में देरी से मिलने वाले बेहतर नतीजों की पुष्टि करता है।

कई कोविड-19 टीकों की दो खुराकें दी जाती हैं जिनमें से पहली खुराक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया आरंभ करती है तो दूसरी ‘बूस्टर’ का काम करती है। यूके में उपयोग किए जाने वाले तीनों टीकों के क्लीनिकल परीक्षणों में आम तौर पर तीन से चार सप्ताह का अंतर रखा गया था। लेकिन देखा गया कि कुछ टीकों में पहली और दूसरी खुराक के बीच लंबे अंतराल से अधिक मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है।

इन निष्कर्षों की पुष्टि करने के लिए अमृतालिंगम और उनके सहयोगियों ने 80 से अधिक उम्र वाले 175 टीका प्राप्तकर्ताओं का अध्ययन किया जिनको फाइज़र टीके की दूसरी खुराक पहली खुराक के या तो तीन सप्ताह बाद या फिर 11-12 सप्ताह बाद दी गई थी। टीम ने सार्स-कोव-2 स्पाइक प्रोटीन के विरुद्ध एंटीबॉडीज़ के स्तर का मापन किया और टी-कोशिकाओं का भी आकलन किया। टी-कोशिकाएं लंबे समय तक एंटीबॉडी के स्तर को बनाए रखने में मदद कर सकती हैं।

उन्होंने पाया कि जिन लोगों को बूस्टर शॉट 12 सप्ताह बाद दिया गया है उनमें अधिकतम एंटीबॉडी का स्तर दूसरे समूह (जिसे दूसरी खुराक 3 सप्ताह बाद मिली थी) की तुलना में 3.5 गुना अधिक था। हालांकि अधिक अंतराल वाले लोगों में टी-कोशिकाएं कम पाई गई लेकिन इसके कारण बूस्टर शॉट के नौ सप्ताह बाद भी एंटीबॉडी के स्तर में अधिक तेज़ी से गिरावट नहीं आई थी।     

यह परिणाम काफी तसल्लीदायक हैं लेकिन सिर्फ फाइज़र टीके पर लागू होता है जो गरीब देशों में उपलब्ध नहीं है। इस संदर्भ में देशों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि उनके यहां प्रचलित संस्करण कहीं मात्र एक खुराक के बाद संक्रमण के जोखिम को बढ़ाते तो नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रतिरक्षा व्यवस्था और शरीर की हिफाज़त – 4 – विनीता बाल, सत्यजीत रथ

प्रतिरक्षा तंत्र हर चीज़ को कैसे पहचान लेता है?

प्रतिरक्षा तंत्र यह कैसे सुनिश्चित करता है कि उसके पास दुनिया के हर ताले की चाभी हो?

हम पहले बता चुके हैं कि लक्ष्य की पहचान का क्लोनल विविधरूपी मॉडल या अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र रीढ़धारी प्राणियों में हिफाज़त का प्रमुख आधार है। लेकिन इस तरह की डिज़ाइन में कुछ बड़ी-बड़ी समस्याएं आती हैं। पहली समस्या तो यह है कि विकसित होते प्रतिरक्षा तंत्र को पता नहीं होता कि इस विशाल बुरी दुनिया में उसका सामना किस-किस चीज़ से होने वाला है। पता नहीं, उसकी मुठभेड़ शायद किसी मंगलवासी कीटाणु से हो जाए। चूंकि इस तंत्र को हर संभव लक्ष्य के लिए तैयार रहना है, इसलिए विकास का पूर्व अनुभव यहां काम नहीं आएगा क्योंकि वैकासिक अनुभव तो सिर्फ यह बताता है कि तंत्र अतीत में किन चीज़ों से टकरा चुका है। लेकिन इससे इस बात की कोई गारंटी नहीं मिलती कि भविष्य में कोई नई चीज़ सामने नहीं आ सकती। लिहाज़ा, संभावित लक्ष्यों के मामले में विविधता की कोई सीमा नहीं है।

ऐसा भी कोई तरीका नहीं है जिससे प्रतिरक्षा तंत्र (या जीव) नए दुश्मनों से संपर्क को सीमित कर सके। आखिर बाहरी पर्यावरण तो कमोबेश जीव के नियंत्रण से परे है। हां, मनुष्य काफी हद तक अपने पर्यावरण पर नियंत्रण करता है।

बहरहाल, यदि संभावित लक्ष्यों की तादाद अनगिनत है, तो स्वाभाविक है कि इन लक्ष्यों (एंटीजन्स) को पहचानने की संरचनाएं (ग्राही) भी अनगिनत होना चाहिए। लेकिन किसी भी जीव के जीनोम में असंख्य ‘रेडीमेड’ जीन्स तो नहीं हो सकते। तो सवाल है कि यह विविधतापूर्ण फौज या पहचान का खजाना कैसे पैदा होता है। ग्राहियों की ऐसी अनंत संख्या तैयार करने का एकमात्र तरीका है कि एक बुनियादी ग्राही आकृति के जीन को लिया जाए, और उसमें बेतरतीबी से काट-छांट, फेरबदल करके विभिन्न आकृतियों के जीन्स बनाए जाएं। और यह काम हर जीव में हर बार नए सिरे से किया जाए। यह प्रक्रिया प्रतिरक्षा तंत्र की एक और विशेषता की व्याख्या करती है, जिसकी चर्चा हमने शुरू में की थी – कि प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं विकास के दौरान अपने डीएनए को पुन:संयोजित करती रहती हैं।

ग्राही निर्माण: जीनोम की काट-छांट

ग्राही के पूरे जीन की इस तरह की काट-छांट का परिणाम यह होगा कि ग्राही के उस हिस्से में तो परिवर्तन नहीं होगा जो लक्ष्य अणु (एंटीजन) से जुड़ता है बल्कि अन्य हिस्सों में होगा – जैसे किसी ऐसे हिस्से में जो ग्राही को कोशिका की झिल्ली पर जमने में मदद करता है। लिहाज़ा, बेहतर होगा कि काट-छांट की प्रक्रिया को ग्राही अणु के कुछ हिस्सों तक सीमित रखा जाए। 

इसके अलावा, इस काट-छांट के अंतर्गत डीएनए के सम्बंधित अनुक्रम में बेतरतीबी से जोड़ना, हटाना या फेरबदल करना शामिल होगा। डीएनए में ऐसा बेतरतीब परिवर्तन किसी कोशिका के लिए काफी जोखिम भरा काम हो सकता है। तो बेहतर होगा कि कोशिका ऐसे परिवर्तनों का कम से कम उपयोग करे। इसलिए यह बेहतर और सुरक्षित होगा कि ग्राहियों का विशाल भंडार तैयार करने के लिए उत्परिवर्तनों का सहारा कम से कम लिया जाए।

इस सबके लिए सबसे पहले तो हमें ग्राही को उसकी बुनियादी कामकाजी इकाइयों में तोड़ना होगा ताकि पुन:संयोजन की मशीनरी को पूरे ग्राही की बजाय ग्राही के बहुत छोटे हिस्से के साथ छेड़छाड़ करनी पड़े। हमें ज़रूरत इस बात की है कि प्रत्येक बी-कोशिका और प्रत्येक टी-कोशिका पर ऐसे ग्राही हों जो किसी अलग एंटीजन को पहचानते हों। लेकिन एक बार अपने अनोखे लक्ष्य को पहचानने के बाद ग्राही को अपनी कोशिका (बी या टी) को इस बात का संदेश प्रेषित करना चाहिए। यह संदेश हरेक ग्राही के मामले में एक जैसा होगा जो कोशिका को अपने काम के लिए तैयार कर दे। कुल मिलाकर, चाहे प्रत्येक ग्राही का लक्ष्य अनोखा होगा लेकिन कोशिका से जुड़ने और संदेश प्रेषण का काम सारी बी-कोशिकाओं के मामले में एक जैसा और सारी टी कोशिकाओं के संदर्भ में एक जैसा होगा। तो सारी बी-कोशिकाओं के ग्राहियों की रचना एक जैसी और सारी टी-कोशिकाओं के ग्राहियों की रचना एक जैसी होगी।

संदेश प्रेषण ग्राहियों का वह बुनियादी तत्व है जो कई ग्राहियों में एक जैसा होगा। अर्थात यह ‘स्थिर’ क्षेत्र है जबकि लक्ष्य को पहचानने वाला तत्व ‘परिवर्ती’ क्षेत्र है। तो अब हमारे पास जीन के दो हिस्से हो सकते हैं – ग्राही जीन का एक्सॉन जो स्थिर क्षेत्र का कोड होगा जिसे विविधता उत्पन्न करने की प्रक्रिया में अछूता छोड़ दिया जाएगा। जीन का दूसरा भाग परिवर्ती क्षेत्र का कोड होगा।

उत्परिवर्तन के बगैर विविधता

अब सवाल यह उठता है कि क्या जीन अनुक्रम में स्थायी परिवर्तनों का सहारा लिए बगैर विविधता उत्पन्न की जा सकती है। यानी क्या जीन में उत्परिवर्तन न करके मात्र पुन:संयोजन करके यह काम संभव है?

एक तरीका यह है कि परिवर्ती क्षेत्र के लिए कुछ निर्माण इकाइयों को लिया जाए और उन्हें अलग-अलग क्रम में जोड़ दिया जाए। ऐसे पुन:संयोजन से अधिकतम विविधता प्राप्त करने के लिए अच्छा होगा कि परिवर्ती क्षेत्र में कई घटक हों।

सबसे पहले तो यह देखिए कि बी-कोशिका किसी भी लक्ष्य की आकृति को पहचानेगी जबकि टी-कोशिका लक्ष्य को तभी पहचानेगी जब वह एमएचसी अणु से जुड़ा कोई पेप्टाइड हो। इसके अलावा इन दो कोशिकाओं में एक अंतर यह है कि ये ग्राही द्वारा मिलने वाले अलग-अलग किस्म के संदेश पर प्रतिक्रिया देती हैं।

लिहाज़ा, इन दो के संदर्भ में स्थिर क्षेत्र अलग-अलग किस्म के होने चाहिए। अर्थात बेहतर होगा कि बी-कोशिका और टी-कोशिका के ग्राहियों के निर्माण हेतु अलग-अलग जीन्स हों।

दूसरा, यह भी फायदेमंद होगा कि ग्राही दो प्रोटीन शृंखलाओं से बना हो – शृंखला-1A और शृंखला-2B एक किस्म के ग्राही बनाएंगी जबकि शृंखला-1A और शृंखला-2B मिलकर अलग गुणों वाला ग्राही बनाएंगी। कई जैविक तंत्रों में दोहरी शृंखला ग्राहियों का उपयोग किया जाता है। तो यह कोई बड़ी दिक्कत नहीं है। लिहाज़ा बी और टी दोनों कोशिकाओं के ग्राहियों में 2-2 शृंखलाएं होती हैं – छोटी वाली शृंखला को अल्फा (या हल्की) शृंखला तथा बड़ी शृंखला को बीटा (या भारी) शृंखला कहते हैं।

तीसरा, प्रत्येक शृंखला के लिए परिवर्ती क्षेत्र के छोटे से भंडार (जिसमें से प्रत्येक बी व टी कोशिका के ग्राही को बनाने के लिए लॉटरी निकाली जाएगी) का उपयोग करने की बजाय बेहतर यह होगा कि परिवर्ती क्षेत्र को छोटे-छोटे खंडों में विभक्त कर दिया जाए। अब ऐसे प्रत्येक छोटे खंड के लिए बेतरतीबी से लॉटरी निकाली जाए। वास्तव में बड़ी वाली शृंखला के लिए जीन्स के ऐसे तीन मिनी जीन संग्रह होते हैं – वी समूह, डी समूह और जे समूह। छोटी वाली शृंखला के लिए ऐसे दो समूह होते हैं – वी समूह और जे समूह।

अर्थात इनमें से प्रत्येक मिनी-जीन एक-एक र्इंट जोड़ता है जिसके परिणामस्वरूप ग्राही के परिवर्ती क्षेत्र की एक प्रोटीन शृंखला की विविधतापूर्ण रचना बन जाती है। प्रत्येक मिन-जीन समूह में कई वैकल्पिक र्इंटें उपलब्ध होती हैं और प्रत्येक कोशिका में प्रत्येक समूह में से इन्हें बेतरतीबी से चुना जाता है। यह दूसरे समूह के अपने समकक्ष प्रोटीन से जुड़कर पूरा परिवर्ती क्षेत्र बना देता है। इनमें से प्रत्येक र्इंट के अंतिम छोर पर एक निशान होता है। इसके चलते इनके आपस में जुड़ने का क्रम कुछ हद निश्चित होता है – जैसे भारी शृंखला के वी समूह का प्रोटीन भारी शृंखला के जे समूह के घटक से सीधे नहीं जुड़ सकता, बीच में डी समूह का घटक होना ज़रूरी होता है। पुनर्मिश्रण की यह प्रक्रिया काफी क्रमबद्ध ढंग से विविधतापूर्ण खजाना पैदा कर देती है।

लेकिन अभी भी यह खजाना अनंत तो कदापि नहीं है क्योंकि सारी सूचना तो जीनोम से ही आ रही है और जीनोम तो सीमित ही है ना! तो सवाल है खजाना निर्माण की इस प्रक्रिया में वास्तविक खुलापन कैसे हासिल किया जाता है। और खजाने में सचमुच की बेतरतीबी के जिन्न को सक्रिय करने की समस्याएं क्या हैं? अगली बार हम इसी सवाल पर विचार करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान की उपेक्षा की मानवीय कीमत

कुछ सप्ताह पूर्व ब्राज़ील में कोविड से होने वाली मौतों ने 4 लाख का आंकड़ा पार कर लिया। कुछ ऐसी ही स्थिति भारत में भी देखी जा सकती है जहां प्रतिदिन लगभग 3500 लोगों की मृत्यु हो रही है। इसके चलते विश्व भर से ऑक्सीजन, वेंटीलेटर, बेड और अन्य आवश्यक वस्तुओं के माध्यम से सहायता के प्रयास किए जा रहे हैं। हालांकि, ये दो देश हज़ारों किमी दूर हैं लेकिन दोनों के संकट राजनैतिक विफलताओं के परिणाम हैं। दोनों ही देशों के नेताओं ने या तो शोधकर्ताओं की सलाह की उपेक्षा की या कार्रवाई में कोताही की। परिणाम: मानव जीवन की अक्षम्य क्षति।

ब्राज़ील के राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो कोविड-19 को साधारण फ्लू कहते रहे और मास्क के उपयोग और शारीरिक दूरी जैसी वैज्ञानिक सलाह को भी शामिल करने से इन्कार करते रहे। यही स्थिति ट्रंप प्रशासन के दौरान यूएस में बनी थी जहां 5,70,000 जानें गर्इं।

नेचर में प्रकाशित एक लेख के अनुसार सितंबर में कोविड-19 के प्रतिदिन 96,000 मामले और उसके बाद गिरकर मार्च 2021 में लगभग 12,000 मामले प्रतिदिन रह जाने के बाद भारत के नेता मुगालते में आ गए। कारोबार पहले की तरह खोल दिए गए, बड़ी संख्या में सभाओं के आयोजन होने लगे, विवादास्पद कृषि कानून के विरोध में हज़ारों किसान दिल्ली की सीमाओं पर एकत्रित हो गए और मार्च-अप्रैल में चुनावी रैलियां और धार्मिक आयोजन भी होते रहे।  

एक समस्या और भी रही – भारत में वैज्ञानिकों के लिए शोध के आंकड़ों तक पहुंच आसान नहीं रही। ऐसे में उनको सटीक अनुमान और साक्ष्य-आधारित सुझाव देने में काफी परेशानी होती है। फिर भी इस तरह के डैटा के अभाव में शोधकर्ताओं ने पिछले वर्ष सितंबर में सरकार को कोविड-19 प्रतिबंध में ढील देने के प्रति सतर्क रहने की चेतावनी दी थी। उन्होंने अप्रैल माह के अंत तक प्रतिदिन लगभग एक लाख मामलों की चेतावनी भी दी थी।  

इस संदर्भ में, 29 अप्रैल को 700 से अधिक वैज्ञानिकों ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था जिसमें अस्पतालों में कोविड-19 परीक्षण के परिणामों और रोगियों के स्वास्थ्य सम्बंधी नतीजों जैसे डैटा तक बेहतर पहुंच की मांग की गई थी। इसके अलावा, नए संस्करणों की पहचान करने के लिए बड़े स्तर पर जीनोम-निगरानी कार्यक्रम शुरू करने का भी आग्रह किया था। इसके अगले दिन सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार कृष्णस्वामी विजयराघवन ने इन चिंताओं को स्वीकार करते हुए यह स्पष्ट किया कि सरकार के बाहर के शोधकर्ताओं को आंकड़ों तक पहुंच कैसे मिल सकती है। इस कदम का सभी ने स्वागत किया, लेकिन डैटा प्राप्त करने के कुछ पहलू अभी भी अस्पष्ट हैं। गौरतलब है कि पूर्व में भी सरकार ने नीतियों के आलोचक शोधकर्ताओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। दो वर्ष पूर्व, 100 से अधिक अर्थशास्त्रियों और सांख्यिकीविदों ने एक पत्र में आधिकारिक आंकड़ों में राजनीतिक हस्तक्षेप समाप्त करने का आग्रह किया था जिस पर अधिकारियों ने अच्छी प्रतिक्रिया नहीं दी थी।

सामान्य स्थिति में भी अनुसंधान समुदाय और सरकार के बीच इस तरह के कठिन सम्बंध उचित नहीं होते। महामारी के दौरान तो फैसले त्वरित और साक्ष्य आधारित होने चाहिए। तब इस तरह की स्थिति काफी घातक हो सकती है। विज्ञान और वैज्ञानिकों की उपेक्षा से भारत और ब्राज़ील सरकारों ने जीवन की हानि को कम करने का एक महत्वपूर्ण अवसर खो दिया है। अपर्याप्त जानकारी के कारण त्वरित निर्णय लेने में परेशानी होती है। अत: शोधकर्ताओं और चिकित्सकों दोनों को स्वास्थ्य डैटा सुलभता से प्राप्त होना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

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कार्बन चोर सूक्ष्मजीव

दुनिया पृथ्वी की सतह के नीचे भी सूक्ष्मजीवों का एक संसार बसता है। हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि इनमें से कुछ सूक्ष्मजीव पृथ्वी के अंदर जाकर ज़ब्त होने वाले कार्बन में से काफी मात्रा में कार्बन चुरा लेते हैं और नीचे के प्रकाश-विहीन पर्यावरण में र्इंधन के रूप में उपयोग करते हैं। सूक्ष्मजीवों की इस करतूत का परिणाम काफी नकारात्मक हो सकता है। जो कार्बन पृथ्वी की गहराई में समा जाने वाला था और कभी वापस लौटकर वायुमंडल में नहीं आता, वह इन सूक्ष्मजीवों की वजह से कम गहराई पर ही बना रह जाता है। यह भविष्य में वायुमंडल में वापस आ सकता है और पृथ्वी का तापमान बढ़ा सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि पृथ्वी की गहराई में चल रहे कार्बन चक्र को समझने में अब तक इन सूक्ष्मजीवों की भूमिका अनदेखी रही थी।

वैसे तो मानव-जनित कार्बन डाईऑक्साइड पृथ्वी के भावी तापमान में निर्णायक भूमिका निभाएगी लेकिन पृथ्वी में एक गहरा कार्बन चक्र भी है जिसकी अवधि करोड़ों साल की होती है। दरअसल, धंसान क्षेत्र में पृथ्वी की एक प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे धंसती हैं और पृथ्वी के मेंटल में पहुंचती हैं। धंसती हुई प्लेट अपने साथ-साथ कार्बन भी पृथ्वी के अंदर ले जाती हैं। यह लंबे समय तक मैंटल में जमा रहता है। इसमें से कुछ कार्बन ज्वालामुखी विस्फोट के साथ वापस वायुमंडल में आ जाता है। लेकिन पृथ्वी के नीचे पहुंचने वाला अधिकतर कार्बन वापस नहीं आता, और क्यों वापस नहीं आता यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं था।

2017 में कोस्टा रिका के 20 विभिन्न गर्म सोतों से निकलने वाली गैसों और तरल का अध्ययन करते समय युनिवर्सिटी ऑफ टेनेसी की सूक्ष्मजीव विज्ञानी केरेन लॉयड और उनके साथियों ने पाया था कि पृथ्वी के नीचे जाने वाली कुछ कार्बन डाईऑक्साइड चट्टानों में बदल जाती है, जो मैंटल की गहराई तक कभी नहीं पहुंचती और वापस वायुमंडल में भी नहीं आती। ये सोते उस धंसान क्षेत्र से 40 से 120 किलोमीटर ऊपर स्थित है जहां कोकोस प्लेट सेंट्रल अमेरिका के नीचे धंस रही है। इसके अलावा उन्हें यह भी संकेत मिले थे कि जितनी कार्बन डाईऑक्साइड चट्टान में बदल रही है उससे अधिक कार्बन डाईऑक्साइड कहीं और रिस रही है।

नमूनों का बारीकी से विश्लेषण करने पर शोधकर्ताओं ने ऐसी रासायनिक अभिक्रियाओं के संकेत पाए हैं जिन्हें केवल सजीव ही अंजाम देते हैं। उन्हें नमूनों में कई ऐसे बैक्टीरिया मिले हैं जिनमें इन रासायनिक अभिक्रियाओं को अंजाम देने वाले आवश्यक जीन मौजूद हैं। नमूनों से प्राप्त कार्बन समस्थानिकों के अनुपात से पता चलता है कि सूक्ष्मजीव इन धंसती प्लेटों से कार्बन डाईऑक्साइड चुरा लेते हैं और इसे कार्बनिक कार्बन में बदलकर इसका उपयोग करके फलते-फूलते हैं।

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ कोस्टा रिका के नीचे रहने वाले सूक्ष्मजीव हज़ारों ब्लू व्हेल के द्रव्यमान के बराबर कार्बन प्रति वर्ष चुरा लेते हैं, जो कभी न कभी वापस वायुमंडल में पहुंच जाएगा और पृथ्वी का तापमान बढ़ाएगा। हालांकि अभी इन नतीजों की पुष्टि होना बाकी है, लेकिन यह अध्ययन भविष्य में पृथ्वी के तापमान में होने वाली वृद्धि में सूक्ष्मजीवों की भूमिका को उजागर करता है और ध्यान दिलाता है कि यह पृथ्वी के तापमान सम्बंधी अनुमानों को प्रभावित कर सकती है।

इसके अलावा शोधकर्ताओं को वे सूक्ष्मजीव भी मिले हैं जो कार्बन चुराने वाले बैक्टीरिया के मलबे पर निर्भर करते हैं। शोधकर्ता यह भी संभावना जताते हैं कि कोस्टा रिका के अलावा इस तरह की गतिविधियां अन्य धंसान क्षेत्रों के नीचे भी चल रही होंगी। (स्रोत फीचर्स)

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अमेरिकी शहद में परमाणु बमों के अवशेष

हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार लगभग पांच दशक पूर्व किए परमाणु बम परीक्षणों के अवशेष आज भी दिखाई दे रहे हैं। शोधकर्ताओं ने शहद में रेडियोधर्मी तत्व मौजूद पाया है। हालांकि शहद में रेडियोधर्मी तत्व का स्तर खतरनाक नहीं है, लेकिन अंदाज़ है कि 1970-80 के दशक में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ और अन्य कई देशों ने सैकड़ों परमाणु बम परीक्षण धरती की सतह पर किए थे। इन बमों से रेडियोधर्मी सीज़ियम निकला और ऊपरी वायुमंडल में पहुंचा। हवाओं ने इसे दुनिया भर में फैलाया, हालांकि हर जगह यह एक समान मात्रा में नहीं फैला था। उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय हवाओं और वर्षा के पैटर्न के कारण अमेरिका के पूर्वी तट पर बहुत अधिक रेडियोधर्मी कण पहुंचे।

रेडियोधर्मी सीज़ियम पानी में घुलनशील है, और चूंकि इसके रासायनिक गुण पोटेशियम के समान हैं इसलिए पौधे इसे पोटेशियम मानकर उपयोग कर लेते हैं। यह देखने के लिए कि क्या अब भी पौधों में यह परमाणु संदूषण पहुंच रहा है, विलियम एंड मैरी कॉलेज के भूविज्ञानी जेम्स कास्ट ने विभिन्न स्थानों के स्थानीय खाद्य पदार्थों में रेडियोधर्मी सीज़ियम की जांच की।

उत्तरी कैरोलिना से लिए गए शहद के नमूनों के परिणाम आश्चर्यजनक थे। उन्हें इस शहद में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में 100 गुना अधिक मिला। यह जानने के लिए कि क्या पूर्वी यूएस में मधुमक्खियां पौधों से मकरंद लेकर शहद बना रही हैं, और सीज़ियम का सांद्रण कर रही हैं, उनकी टीम ने पूर्वी यूएस के विभिन्न स्थानों से शहद के 122 नमूने एकत्रित किए और उनमें रेडियोधर्मी सीज़ियम का मापन किया। उन्हें 68 नमूनों में प्रति किलोग्राम 0.03 बेकरेल से अधिक रेडियोधर्मी सीज़ियम मिला (यानी लगभग एक चम्मच शहद में 8,70,000 रेडियोधर्मी सीज़ियम परमाणु)। सबसे अधिक (19.1 बेकरेल प्रति किलोग्राम) रेडियोधर्मी सीज़ियम फ्लोरिडा से प्राप्त नमूने में मिला।

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक परमाणु बम परीक्षण स्थल से हज़ारों किलोमीटर दूर और बम परीक्षण के 50 साल बाद तक रेडियोधर्मी तत्व पौधों और जानवरों के माध्यम से पर्यावरण में घूम रहा है। हालांकि अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने स्पष्ट किया है यह स्तर चिंताजनक नहीं है। यह सुरक्षित स्तर (1200 बेकरेल प्रति किलोग्राम) से बहुत कम है।

समय के साथ रेडियोधर्मी तत्वों की मात्रा कम होती जाती है। इसलिए भले ही वर्तमान में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर कम है, लेकिन पूर्व में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा। पूर्व में यह मात्रा कितनी होगी यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने दूध के नमूनों में सीज़ियम का स्तर मापा, और संग्रहालय में रखे पौधों के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि 1960 के दशक के बाद से दोनों तरह के नमूनों में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर बहुत कम हुआ है, और कमी आने की यही प्रवृत्ति शहद में भी रही होगी। अनुमान है कि 1970 के दशक में शहद में सीज़ियम का स्तर मौजूदा स्तर से 10 गुना अधिक रहा होगा। सवाल उठता है कि पिछले 50 सालों में रेडियोधर्मी सीज़ियम ने मधुमक्खियों को किस तरह प्रभावित किया होगा? कीटनाशकों के अलावा अन्य मानव जनित प्रभाव भी इनके अस्तित्व को खतरे में डाल सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 के उपचार में नई दवाओं से उम्मीद

कोविड-19 के उपचार के लिए कई औषधियों के विकास पर काम चल रहा है। हाल ही में भारत में दो औषधियों को इलाज में आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी मिली है, व एक औषधि को क्लीनिकल परीक्षण की मंज़ूरी मिली है।

इनमें से एक औषधि है 2-डिऑक्सी-डी-ग्लूकोज़ (2-डीजी), जिसे डीआरडीओ के इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर मेडिसिन एंड एलाइड साइंसेज़ ने डॉ. रेड्डीस लैब के साथ मिलकर विकसित किया है। पावडर के रूप में उपलब्ध इस दवा को ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने कोविड-19 के उपचार में आपात उपयोग की मंज़ूरी दे दी है।

प्रारंभिक परीक्षणों में यह दवा शरीर में सार्स-कोव-2 वायरस के प्रसार को कम करने में कारगर पाई गई थी। क्लीनिकल परीक्षणों में यह दवा मध्यम और गंभीर रूप से पीड़ित कोविड-19 मरीज़ों पर अन्य मानक उपचारों के साथ प्रभावी पाई गई है। मरीज़ों में इसके कोई साइड इफेक्ट भी दिखाई नहीं दिए हैं। द्वितीय चरण के परीक्षण में इससे मरीज़ों के स्वस्थ होने की दर अधिक देखी गई और तृतीय चरण के परीक्षण में पाया गया कि इस दवा के उपयोग ने बाहरी ऑक्सीजन पर निर्भरता भी कम कर दी।

ग्लूकोज़ के समान 2-डीजी भी पूरे शरीर में फैलकर वायरस संक्रमित कोशिकाओं तक पहुंचता है, और वायरस संश्लेषण को अवरुद्ध करके तथा वायरस प्रोटीन निर्माण प्रणाली को ध्वस्त करके वायरस की वृद्धि को रोक देता है। यह फेफड़ों में फैले संक्रमण को भी रोकता है, जिससे ऑक्सीजन पर निर्भरता कम हो जाती है। जल्दी ही यह दवा देश भर के अस्पतालों में उपलब्ध हो जाएगी।

दूसरी औषधि – रोश और रीजेनेरॉन द्वारा विकसित एंटीबॉडी ड्रग-कॉकटेल – को सेंट्रल ड्रग्स स्टैण्डर्ड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइज़ेशन ने आपात उपयोग के लिए मंज़ूरी दी है। भारत में उपयोग के लिए कैसिरिविमैब और इमडेविमैब के इस कॉकटेल को मंज़ूरी अमेरिका में प्रस्तुत आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी के आवेदन और युरोपीय संघ की कमेटी फॉर मेडिकल प्रोडक्ट फॉर ह्यूमन यूज़ के डैटा के आधार पर दी गई है। इस मंज़ूरी के बाद रोश इंडिया और सिप्ला मिलकर इसे भारत में आयात और वितरित कर सकेंगे।

दवा के इस कॉकटेल का परीक्षण 12 वर्ष से अधिक उम्र के कोविड-19 के हल्के और मध्यम लक्षणों वाले उन लोगों पर किया गया था, जिनमें कोविड-19 का संक्रमण गंभीर रूप लेने की संभावना थी। पाया गया कि इसके उपयोग से इन लोगों में कोविड-19 का संक्रमण गंभीर रूप नहीं ले पाया था। उम्मीद है कि इस औषधि से उच्च जोखिम वाले लोगों को गंभीर स्थिति में पहुंचने से बचाया जा सकेगा।

तीसरी दवा है, पीएनबी वेस्पर लाइफ साइंस प्राइवेट लिमिटेड द्वारा विकसित PNB-001 – बेलाडोल। ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया द्वारा कोविड-19 के मरीज़ों पर इसे द्वितीय चरण के क्लीनिकल परीक्षण करने की मंज़ूरी मिली है। प्रारंभिक क्लीनिकल परीक्षणों में इसके सकारात्मक परिणाम मिले हैं, जिसमें यह फेफड़ों की सूजन और उग्र श्वसन संकट सिंड्रोम (ARDS) को कम करने में कारगर पाई गई है। अब, द्वितीय चरण में पुणे स्थित बीएमजे मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन सहायता के साथ कोविड-19 के मध्यम रूप से पीड़ित 40 मरीज़ों पर इसकी प्रभाविता जांची जाएगी। इसके बाद 350 मरीज़ों पर तृतीय चरण का परीक्षण किया जाएगा।

कोविड-19 के मुख्य लक्षण हैं बुखार, शरीर में दर्द और फेफड़ों में सूजन। कोविड-19 से मृत्यु का मुख्य कारण साइटोकाइन आक्रमण और उग्र श्वसन संकट है। पूर्व-क्लीनिकल परीक्षणों में बेलाडोल बुखार, शरीर के दर्द और फेफड़ों की सूजन को कम करने में प्रभावी पाई गई है, और इससे मृत्यु दर में 80 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है। इसके विपरीत, वर्तमान में दुनिया भर में कोविड-19 से बचने के लिए इस्तेमाल की जा रही दवा, डेक्सामेथासोन, मृत्यु दर में केवल 20 प्रतिशत की कमी लाती है। उम्मीद है क्लीनिकल परीक्षणों में भी इसके अच्छे परिणाम मिलेंगे और इसकी मदद से मृत्यु दर में कमी लाई जा सकेगी।

इसके अलावा, बुखार और बदन दर्द को कम करने में यह दवा एस्पिरिन की तुलना में भी 20 गुना अधिक प्रभावी पाई गई है। यह भी देखा गया है कि साइटोकाइन आक्रमण को घटाने और तिल्ली की साइज़ को कम करने में भी यह कारगर है।

उम्मीद है कि इन दवाओं से कोविड-19 के हालातों को बेहतर करने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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