बुलेटिन ऑफ दी एटॉमिक साइंटिस्ट्स ने इस साल कयामत की घड़ी के
कांटों को मध्यरात्रि से बस 100 सेकंड की देरी पर सेट किया है। जब 1947 में इस घड़ी
की शुरुआत हुई थी तब से यह कयामत के सबसे नज़दीक रखी गई है। यह इस बात की चेतावनी
है कि पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष हम विनाश के और करीब आ गए हैं। पिछले वर्ष
घड़ी के कांटे मध्यरात्रि से दो मिनट (120 सेकंड) की दूरी पर थे।
कयामत की घड़ी (डूम्सडे क्लॉक) बुलेटिन ऑफ दी एटॉमिक साइंटिस्ट्स द्वारा
संचालित एक प्रतीकात्मक घड़ी है, जिसके कांटों का ठीक
मध्यरात्रि पर होना सर्वनाश या कयामत का प्रतीक माना जाता है। घड़ी के कांटों को हर
साल विश्व में बढ़ती गंभीर समस्याओं को देखते हुए सेट किया जाता है।
इस वर्ष बढ़ते सूचना संग्राम और अंतरिक्ष हथियारों की होड़ से बढ़ते खतरों को
देखते हुए वैज्ञानिकों ने घड़ी को मध्यरात्रि से 100 सेकंड की देरी पर सेट करना तय
किया। इसके अलावा परमाणु हथियारों के तनाव को कम करने में विफलता और जलवायु
परिवर्तन की बढ़ती चिंता ने भी घड़ी को मध्यरात्रि के और करीब ला दिया है।
इस दौरान,
अमेरिका और ईरान के बीच सैन्य टकराव बढ़ा है, उत्तर कोरिया ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता तोड़ दिया है, और अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने रूस के साथ मध्यम रेंज परमाणु बल संधि तोड़
दी है,
जिसके चलते लोगों की चिंताएं और बढ़ गई हैं। जॉर्ज वाशिंगटन
युनिवर्सिटी से परमाणु हथियार का अध्ययन करने वाली शेरन स्केवसनी का कहना है कि
परमाणु हथियारों के मामले में असमंजस बहुत तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। साथ ही, हथियार विकास के लिए अंतरिक्ष एक नया क्षेत्र बनता जा रहा है। भारत, रूस और अमेरिका द्वारा उपग्रह-भेदी हथियारों को विकसित करने के कदम अंतरिक्ष
हथियारों को बढ़ावा दे सकते हैं। इसके अलावा भ्रामक और झूठी खबरें, अनियंत्रित जेनेटिक इंजीनियरिंग और अमेरिका और रूस द्वारा हायपरसोनिक हथियारों
के विकास से उत्पन्न संभावित खतरों ने घड़ी के कांटों को आधी रात के और नज़दीक ला
दिया है।
इन हालात पर कैलिफोर्निया के पूर्व गवर्नर और वर्तमान में बुलेटिन के कार्यकारी अध्यक्ष जेरी ब्राउन ने आव्हान किया है, “जागो अमेरिका, जागो विश्व, हमें बहुत कुछ करने की ज़रूरत है… अभी कयामत की घड़ी आई नहीं है। हम अभी भी वक्त को पीछे खींच सकते हैं।” वे आगे कहते हैं कि हमारे पास अभी भी वक्त है कि हम परमाणु हथियारों की होड़, कार्बन उत्सर्जन और खतरनाक और विनाशकारी टेक्नॉलॉजी छोड़ दें और इस धरती को बचा लें। हम सब कुछ ना कुछ तो कर ही सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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आज चीन सहित दुनिया में एक नया कोरोना वायरस तेज़ी से फैल रहा है। वैज्ञानिक इस
नए वायरस का स्रोत का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में किए गए एक अध्ययन
के अनुसार इस वायरस के स्रोत के बारे में कुछ सुराग प्राप्त हुए हैं। दी लैंसेट
में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं ने चीन में नौ संक्रमित लोगों से
प्राप्त इस नए वायरस (2019-nCoV) के 10
जीनोम अनुक्रमों का विश्लेषण
किया।
अध्ययन में पाया गया कि सभी 10 जीनोम
अनुक्रम एकदम समान थे। चूंकि वायरस काफी तेज़ी से उत्परिवर्तित और विकसित होते हैं, और यदि यह वायरस मानव शरीर में काफी समय से होता तो
अनुक्रमों में भिन्नता होती। लेकिन इस शोधपत्र के सह-लेखक और युनिवर्सिटी ऑफ शैनडांग प्रॉविंस के प्रोफेसर
वीफेंग शी के अनुसार इन अनुक्रमों में 99.98 प्रतिशत समानता पाई गई। इससे पता चलता है कि मानव शरीर में इस वायरस ने हाल ही में प्रवेश किया है।
मनुष्यों में हाल ही में उभरने
के बावजूद यह वायरस अभी तक हज़ारों लोगों को संक्रमित कर चुका है। विश्व स्वास्थ्य
संगठन के आंकड़ों के अनुसार यह चीन सहित 15 अन्य देशों में फैल चुका है और चीन में इससे अब तक 700
से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। इसके शुरुआती मामले चीन के वुहान शहर स्थित हुआनन
सीफूड बाज़ार के संपर्क में रहे लोगों में पाए गए, जहां कई तरह के जंगली जीव बेचे जाते हैं।
वायरस के मूल स्रोत के बारे
में जानने के लिए शोधकर्ताओं ने 2019-nCoV के जेनेटिक अनुक्रमों की तुलना जीनोम संग्रहालय में उपलब्ध
कोरोना वायरस से की। जो दो वायरस 2019-nCoV सबसे नज़दीक पाए गए वे चमगादड़ से उत्पन्न हुए थे। इन दोनों
वायरसों के आनुवंशिक अनुक्रम का 88 प्रतिशत हिस्सा 2019-nCoV से मेल खाता है।
इन परिणामों के आधार पर
शोधकर्ता चमगादड़ को इसकी उत्पत्ति का संभावित स्रोत कह रहे हैं। चूंकि हुआनन सीफूड
बाज़ार में चमगादड़ नहीं बेचे जाते, इससे लगता है कि इस वायरस के चमगादड़ से मनुष्य में पहुंचने की कड़ी में एक और
मध्यस्थ जीव होगा। कुल मिलाकर यह बात तो स्पष्ट है कि वन्य जीवों में वायरस का एक
छिपा भंडार है जो मनुष्यों में फैलने की क्षमता रखता है।
एक अध्ययन में कोरोना वायरस का संभावित स्रोत हुआनन बाज़ार में बिकने वाले सांपों को बताया गया था। लेकिन कई वैज्ञानिकों ने कहा है कि सांपों में कोरोना वायरस का संक्रमण होने का कोई प्रमाण नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में रूस के नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय के पशु चिकित्सकों
ने अपने चारों पैर गंवा चुकी एक बिल्ली में 3-डी प्रिंटिंग की मदद से बनाए गए
कृत्रिम पैर सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिए हैं। इनकी मदद से वह चल-फिर सकती है, दौड़ सकती है और यहां तक कि सीढ़ियां भी चढ़ सकती है।
भूरे बालों वाली डाइमका नामक यह बिल्ली दिसंबर 2018 में साइबेरिया के
नोवाकुज़नेत्स्क नाम की जगह पर एक मुसाफिर को बर्फ में दबी हुई मिली थी। उसने उसे
वहां से निकालकर नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय पहुंचा दिया था। डाइमका तुषाराघात की
शिकार हुई थी और अपने चारों पैर, कान और पूंछ गंवा चुकी थी।
तुषाराघात यानी फ्रॉस्ट बाइट तब होता है जब अत्यंत कम तापमान त्वचा व अंदर के
ऊतकों को जमा देता है। खासकर नाक, उंगलियां और पंजे ज़्यादा
प्रभावित होते हैं। पैरों की हालात देखकर पशु चिकित्सक सर्जेई गोर्शकोव ने उसे
कृत्रिम पैर लगाना तय किया। उन्होंने टोम्स पॉलिटेक्निक युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं
के साथ मिलकर डाइमका के लिए कृत्रिम पैर तैयार किए।
इसके लिए उन्होंने कंप्यूटेड टोमोग्राफी (सीटी) एक्स-रे स्कैन की मदद से
डाइमका के पैरों की माप लेकर टाइटेनियम रॉड की त्रि-आयामी प्रिंटिंग करके कृत्रिम
पैर बनाए। प्रत्यारोपण के बाद डाइमका में संक्रमण और रिजेक्शन की संभावना कम करने
के लिए टाइटेनियम से बने पैरों पर कैल्शियम फॉस्फेट की परत चढ़ाई गई। जुलाई 2019
में डाइमका को सामने के दो और उसके बाद पीछे के दो कृत्रिम पैर प्रत्यारोपित किए
गए। प्रत्यारोपण के सात महीने बाद जारी किए गए वीडियो में डाइमका अंगड़ाई लेती, चलती और कंबल के कोने से खेलती दिखाई दी।
गोर्शकोव ने दी मास्को टाइम्स को बताया कि साइबेरिया के हाड़-मांस गला
देने वाले ठंड के मौसम के दौरान उनके चिकित्सालय में हर साल ऐसी पांच से सात
बिल्लियों का उपचार किया जाता है जो तुषाराघात के कारण अपने पैर, नाक,
कान और पूंछ गंवा देती हैं।
डाइमका अब दुनिया की दूसरी बिल्ली है जिसे धातु से बने चारों पैर सफलतापूर्वक लगाए जा चुके हैं। इसके पहले साल 2016 में भी इसी प्रक्रिया से एक नर बिल्ली को चारों पैर लगाए गए थे। (स्रोत फीचर्स)
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शायद यह बात सुनने में अटपटी लगे कि कोई मुर्दा बोला। लेकिन
हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक ऐसी ऑडियो क्लिप रिलीज़ की है जिसमें उन्होंने मृत
व्यक्ति की आवाज़ रिकॉर्ड की है। और यह जिस मृत व्यक्ति की आवाज़ है वह एक 3000 साल
पुरानी मिस्र की ममी है जिसका नाम नेसियामुन रखा गया है।
चूंकि हर व्यक्ति की भिन्न आवाज़ के लिए वोकल ट्रैक्ट (ध्वनि मार्ग) की
लंबाई-चौड़ाई ज़िम्मेदार होती है, इसलिए वैज्ञानिकों ने ममी की
आवाज़ को पुन: निर्मित करने के लिए ममी का कंप्यूटेड टोमोग्राफी स्कैन (सी.टी.
स्कैन) किया और ममी के ध्वनि मार्ग के आकार की माप हासिल कर ली। और इसकी मदद से
उन्होंने नेसियामुन के ध्वनि मार्ग का एक त्रि-आयामी मॉडल बनाया। फिर इसे
इलेक्ट्रॉनिक स्वर यंत्र (कृत्रिम लैरिंक्स) से जोड़ा जिसने ध्वनि मार्ग के लिए
ध्वनि के स्रोत की तरह कार्य किया। इस सेटअप से वैज्ञानिकों ने नेसियामुन की आवाज़
पैदा की। हालांकि जो आवाज़ वे पैदा कर पाए हैं वो सुनने में भेड़ के मिमियाने जैसी
सुनाई पड़ती है लेकिन इससे नेसियामुन के आवाज़ कैसी होगी इसका अंदाज़ लगता है।
नेसियामुन के ताबूत पर लिखी जानकारी और उसके साथ दफन चीज़ों के आधार पर वैज्ञानिक बताते हैं कि वह एक मिस्री पादरी और मुंशी थे, जो संभवत: गुनगुनाते रहे होंगे और भगवान से बातें करते रहे होंगे। यह उनके धार्मिक कामकाज का ही हिस्सा रहा होगा। उनके ताबूत पर लिखी इबारत से पता चलता है कि नेसियामुन की इच्छा थी कि वे भगवान के दर्शन करें और उससे बातचीत करें, जैसा कि वे अपने जीवनकाल में भी करते रहे थे। शुक्र है आधुनिक टेक्नॉलॉजी का, अब मरने के बाद, वे हम सबसे बातें कर पा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
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रासायनिक हथियारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध के बावजूद कई
देश अपने दुश्मन देश की फौज और आम नागरिकों पर घातक नर्व एजेंट (तंत्रिका-सक्रिय
पदार्थ) का हमला करते हैं। ऐसे रासायनिक हमलों के उपचार उपलब्ध तो हैं लेकिन उपचार
तुरंत देने आवश्कता होती है और कई बार ये उपचार रासायनिक हमले के प्रभाव (जैसे
मांसपेशियों की ऐंठन या मस्तिष्क क्षति) से बचाव भी नहीं कर पाते।
हाल ही में अमेरिकी सेना के शोधकर्ताओं ने एक ऐसा जीन उपचार विकसित किया है
जिसके माध्यम से शरीर में नर्व एजेंट को तहस-नहस करने वाला प्रोटीन बनने लगता है।
गौरतलब है कि इसे अभी केवल चूहों पर ही आज़माया गया है। सैद्धांतिक रूप से इस
रणनीति को सैनिकों के लिए अपनाया तो जा सकता है लेकिन यह काफी जोखिम भरा होगा। हो
सकता है कि शरीर इस प्रोटीन के विरुद्ध हानिकारक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित कर
ले।
नर्व एजेंट मूलत: ऑर्गनोफॉस्फेट यौगिक होते हैं। ये मांसपेशियों में एक
तंत्रिका-संदेशवाहक रसायन एसीटाइलकोलीन के स्तर को नियंत्रित करने वाले एंज़ाइम को
बाधित करते हैं। एसीटाइलकोलीन की मात्रा बढ़ने की वजह से मांसपेशियों में ऐंठन, सांस लेने में तकलीफ होती है और मृत्यु भी हो सकती है। एट्रोपीन और डायज़ेपाम
जैसे मौजूदा उपचार एसीटाइलकोलीन के ग्राही को अवरुद्ध कर देते हैं। लेकिन यदि
तुरंत उपचार न किया जाए तो इससे तंत्रिका सम्बंधी स्थायी क्षति हो सकती है।
बेहतर उपचार खोजने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में जंतुओं में ऐसा मानव
एंज़ाइम इंजेक्ट किया जो ज़्यादा तेज़ गति से क्रिया करता है और ऑर्गनोफॉस्फेट द्वारा
नुकसान पहुंचाए जाने से पहले ही उसे विघटित कर देता है। इससे पहले, वाइज़मैन इंस्टीट्यूट के जैव-रसायनयज्ञ मोशे गोल्डस्मिथ और उनके साथियों ने
पैराऑक्सीनेज़-1 (PON-1) नामक एंज़ाइम में फेरबदल किया
था ताकि यह नर्व एजेंटों को तेज़ी से खत्म करने में मदद करे। लेकिन पूरी सेना के
लिए इतनी बड़ी मात्रा में PON-1 बनाकर
भंडारण करना और शरीर में पहुंचने के बाद उसे प्रतिरक्षा तंत्र से बचाकर रखना काफी
मशक्कत का काम है।
यू.एस. आर्मी मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल डिफेंस के वैज्ञानिकों ने
लीवर को यह अणु बनाने के लिए तैयार करने की सोची। इसके लिए जैव-रसायनयज्ञ नागेश्वर
राव चिलुकुरी और उनकी टीम ने एक वायरस की मदद से चूहों की लीवर कोशिकाओं में डीएनए
निर्देश पहुंचाने की व्यवस्था की। परिणामस्वरूप चूहों के लीवर से PON-1 एंज़ाइम स्रावित होने लगा, जो 5 महीनों तक चले अध्ययन में
स्थिर बना रहा। साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार
चूहे लगभग 6 सप्ताह तक नर्व एजेंटों के 9 घातक इंजेक्शन झेल सके।
जीन उपचार से चूहों को किसी प्रकार का नुकसान तो नहीं हुआ लेकिन PON-1 प्रोटीन के खिलाफ उन्होंने एंटीबॉडी विकसित कर लिए लेकिन एंटीबॉडी की मात्रा इतनी कम थी कि वे PON-1 की क्रिया को रोक नहीं पाए। टीम का मानना है कि इस उपचार से सैनिकों, मेडिकल स्टाफ और सैन्य कुत्तों की रक्षा की जा सकती है तथा खेतों में काम करने वाले मज़दूरों को भी ऑर्गनोफॉस्फेट कीटनाशकों के प्रभाव से बचाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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आज़ादी के बाद के दशकों में हमारे देश ने काफी विकास किया है, फिर भी उच्च शिक्षा और विज्ञान व टेक्नॉलॉजी सम्बंधी नीतियों के निर्माण और
संशोधन के बाद अभी भी काफी कुछ करना बाकी है। यह आलेख उच्च शिक्षा की पिछली
नीतियों और सीखने के परिणाम आधारित उच्च शिक्षा से सम्बंधित है। यहां एक विशिष्ट
उदाहरण की मदद से परिणाम आधारित यूजी और पीजी शिक्षा के बारे में कुछ सुझाव दिए गए
हैं।
“विज्ञान और वैज्ञानिकों से समाज एवं सरकार को तथा सरकार व समाज से
वैज्ञानिकों को क्या उम्मीदें हैं,” यह सवाल जितना महत्वपूर्ण है
उतना ही महत्वपूर्ण महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में शिक्षण की गुणवत्ता का
सवाल भी है। देश के युवाओं को उच्च शिक्षा का उद्देश्य अस्पष्ट है। क्योंकि उच्च
शिक्षा या तो बेहतरीन कैरियर हेतु प्रमाण पत्र हासिल करने की एक प्रक्रिया बनकर रह
गई है या फिर इसने ऐसा मानव संसाधन पैदा किया है जो एक अनुपयोगी संपदा बनकर रह गया
है। जनता की राय भी इस दृष्टिकोण का समर्थन करती है।
व्यवहार में उच्च शिक्षा को विज्ञान और प्रौद्योगिकी (एसएंडटी) नीतियों से अलग
करना,
खास तौर से विज्ञान शिक्षा और उसके अपेक्षित परिणामों के
सम्बंध में,
काफी निराशाजनक रहा है। इसके अलावा राजनीतिक, शैक्षिक,
वैज्ञानिक, सामाजिक और यहां तक कि
नौकरशाही संस्थानों जैसे कई स्तरों पर स्पष्टता और निष्पक्षता की काफी कमी रही है।
नाभिकीय उर्जा व अंतरिक्ष और कुछ हद तक डेयरी एवं कृषि के क्षेत्र को छोड़ दें तो
हमारे पास,
खासकर जीव विज्ञान में, ज़्यादा
नया ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ है। आम तौर पर जिस ज्ञान का दावा किया जा रहा है वह
दरअसल पुराने ज्ञान का पुनर्निर्माण भर है।
जीव विज्ञान की इस स्थिति का कारण कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित
वैज्ञानिक-राजनीतिज्ञ सम्बंधों के इतिहास में दफन है जिसके चलते चुनिंदा क्षेत्रों
में वैश्विक दृश्यता हासिल हुई है। इसके अलावा, 1980 व
1990 के दशक में संस्था निर्माता खुद को प्रभावी ढंग से स्थापित करने और अपने
पूर्ववर्तियों की तरह सफलता अर्जित करने में विफल रहे हैं। कुछ अन्य कारण रहे हैं
– जैसे टुकड़ा-टुकड़ा योगदान जो विश्व स्तर पर जीव विज्ञान में स्थायी प्रभाव छोड़ने
के लिए पर्याप्त नहीं है और देश में मात्र गिने-चुने लोगों द्वारा कुछ ही
क्षेत्रों में किए जा रहे छिटपुट प्रयास।
दुर्भाग्यवश,
उचित दिशा और मार्ग के अभाव के अलावा, एक कारण यह भी रहा है कि इन संस्थानों में राष्ट्रीय की बजाय निजी उद्देश्यों
पर ज़ोर देने के चलते बहुत सारी प्रतिभाएं बेकार पड़ी रह गई हैं। 40 वर्षों के कार्य
अनुभव के आधार पर मेरी निजी राय है कि इसके परिणामस्वरूप, कुछ
व्यक्तियों को छोड़कर, लगभग एक पीढ़ी का योगदान बिलकुल नहीं मिल
सका है। इसका दोष सरकारों और प्रशासन से जुड़े उन लोगों पर जाता है जो जीव विज्ञान
के विषय में एक ‘विशाल-विज्ञान’ के लिए गुंजाइश विकसित नहीं कर पाए, जैसा कि नाभिकीय ऊर्जा और अंतरिक्ष विज्ञान में संभव हो सका था।
इस बहु-आयामी समस्या का एक दिलचस्प परिणाम यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर
स्पष्टता की कमी है और व्यक्तिगत कारक प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसलिए, जीव विज्ञान के लिए ‘विशाल-विज्ञान’ का स्थान बनाने के लिए एक ऐसा
परिप्रेक्ष्य विकसित करने की आवश्यकता है जिसके तहत मौजूदा प्रतिभा का उपयोग किया
जा सके। साथ ही विज्ञान में उच्च शिक्षा को आकार देने की चुनौतियों का सामना करने
के लिए एसएंडटी नीति को विकसित करने की भी आवश्यकता है।
इस बात से तो कोई इन्कार नहीं कर सकता कि एक अच्छा विज्ञान कर्म उपलब्ध मानव
संसाधन की गुणवत्ता पर और निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इसे तैयार
करने के तरीकों पर निर्भर है। इन लक्ष्यों का निर्धारण व्यापक भागीदारी और गंभीर
मंथन के आधार पर किया जाना चाहिए। हमें अपनी मौजूदा शक्तियों का उपयोग वर्तमान
परिस्थितियों के अनुसार करना होगा और बार-बार पहिए का आविष्कार करने की कवायद से
बचना होगा।
कोई भी देख सकता है कि जीव विज्ञान के क्षेत्र में, अपनी
नीतियों को धरातल पर उतारने और उनके द्वारा निर्धारित आत्म निर्भरता, टिकाऊपन और न्यायसंगत विकास के लक्ष्य को हासिल करने में हम कितने सफल रहे
हैं। अतीत में प्रधान मंत्रियों और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रियों के तमाम
बयानों में ‘टिकाऊपन’ तथा ‘आत्म-निर्भरता’ जैसे नारे कई बार मुखरित हुए हैं लेकिन
ज़मीनी हकीकत निराशाजनक बनी हुई है।
स्वास्थ्य के संदर्भ में समाज की बुनियादी न्यूनतम आवश्यकताओं, जैसे जल जमाव रोकना, जल निकासी का प्रबंधन, ठोस एवं इलेक्ट्रॉनिक कचरे के कुशल और कम लागत वाले प्रभावी निपटान के अलावा
प्रदूषण नियंत्रण, पर पिछले कई दशकों से प्रभावी रूप से कोई
ध्यान नहीं दिया गया है। आज जब स्वच्छ भारत से लेकर स्किल्ड और डिजिटल इंडिया जैसे
कई अभियान चल रहे हैं, यह देखना बाकी है कि क्या इनसे ज़मीनी हकीकत
में बदलाव आएगा और क्या वैज्ञानिक और शिक्षित वर्ग इनमें अपेक्षित भागीदारी करेगा।
अब हमें प्रशिक्षित मानव संसाधन के बारे में ‘रटंत विद्या और उसके आधार पर सफल
कैरियर’ से आगे बढ़कर भविष्य में ऐसे पाठ्यक्रम के बारे में सोचना चाहिए जिसमें
सीखने के परिणामों को मापा जा सके। इस प्रकार प्राप्त किए गए ज्ञान का उपयोग उपरोक्त
मुद्दों का हल निकालने के साथ-साथ नए ज्ञान के सृजन के लिए करना चाहिए।
यदि आप इस बात का अध्ययन करें कि क्या उच्च शिक्षा नीतियों, खासकर विज्ञान की उच्च शिक्षा नीतियों को एसएंडटी नीतियों के अनुरूप ढालने की
कोशिश हुई है,
तो आपको पता चलेगा कि ऐसा कोई विचार ही नहीं है। इसके अलावा, हमारी नीतियों के कारण उच्च शिक्षा में महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के
बीच अधोसंरचना की संस्थागत असमानता पैदा हुई है और ये अलग-अलग रोडमैप के साथ काम
करते हैं। नतीजा यह है, अलग-अलग पाठ्यक्रम हैं, अलग-अलग शिक्षण विधियां हैं, प्रायोगिक प्रशिक्षण में अंतर
हैं और सीखने के परिणाम भी अलग-अलग हैं। जब भी और जहां भी एकरूपता लाने की कोशिश
की गई,
हर बार असफलता ही हाथ लगी है।
इसके साथ ही,
उभरते हुए ज्ञान के साथ कदम मिलाकर चलने में असफलता, अन्य विषयों से सम्बद्धता और एकीकरण का अधमना प्रयास, और
छात्रों की बदलती ज़रूरतों के हिसाब से आवश्यक कौशल प्रदान करने में असफलता ने पाठ्यक्रम
में क्रमिक संशोधनों की बजाय यकायक परिवर्तन को आवश्यक बना दिया है। विषय विशेष की
पाठ्यक्रम संरचना को बदलने और मापन योग्य परिणाम हासिल करने के लिए यह दृष्टिकोण
और रवैया आवश्यक है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि नए कलेवर में वही पुरानी चीज़
भर दी जाए,
जिसमें पाठ्यक्रमों में टुकड़ा-टुकड़ा संशोधन करके उन्हें
सीखने के परिणामों पर आधारित शिक्षा का नाम दे दिया जाता है।
शिक्षा नीतियों के माध्यम से समय-समय पर शिक्षा सम्बंधी बहसें होती रही हैं:
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948); माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952); राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (डी. एस. कोठारी, 1964-66), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968); राष्ट्रीय शिक्षा नीति का
मसौदा (1979),
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) और राष्ट्रीय शिक्षा नीति
(1992)। हालांकि,
ये नीतियां कागज़ पर प्रशंसनीय दिखती थीं तथा अपने समय के
लिए प्रासंगिक दिशा प्रदान करती थीं, लेकिन खराब क्रियान्वयन
और निगरानी के कारण उत्कृष्टता लाने में विफल रहीं।
हाल ही में,
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर प्रबंधन के लिए नियामक
एजेंसियों में सुधार की घोषणा की गई है। इसके लिए 2018 में उच्च शिक्षा आयोग का
गठन किया गया है ताकि महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की निगरानी और धन आवंटन के
नियामक ढांचे में सुधार किया जा सके। इसने यूजीसी, अखिल
भारतीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) जैसी स्थापित संस्थाओं के स्वतंत्र कामकाज
से सम्बंधित मुद्दों को उजागर किया है जो अपेक्षित कार्य नहीं कर रही हैं। एक
विचार यह भी रहा है कि इन संस्थाओं को हटाकर नई संस्थाएं बनाने की बजाय इनसे सही
तरह से काम करवाया जाए और इन्हें जवाबदेह बनाया जाए। डर इस बात का है कि मौजूदा
संस्थाओं की तरह,
कहीं यह विशालकाय उच्च शिक्षा आयोग भी उन्हीं बुराइयों का
शिकार न हो जाए। लिहाज़ा इसका समाधान यह है कि मौजूदा संस्थाओं के कामकाज को सुधारा
जाए और उन्हें चुस्त बनाया जाए, ताकि हम फिर से वही बातें
सीखने में समय न बर्बाद करें।
एक देश के रूप में प्रतिभा को खोजने, उसे पोषित करने तथा
सहायता करने में हमने बहुत कम काम किया है। हां, इक्का-दुक्का
अपवाद हैं लेकिन उनकी संख्या काफी कम है। अर्थात जिस पैमाने पर यह काम किया जाना
है वह नहीं हुआ है और विभिन्न ज़रूरतों के लिए ज़रूरी क्षमता का निर्धारण करना भी
बाकी है। सत्ता के गलियारों में अधिकतर लोग एक उबड़-खाबड़ रास्ते पर हैं। सभी के लिए
समान रूप से आवश्यक डिज़ाइन और क्रियान्वयन के लिए उन्हें गहरे चिंतन और मनन की
ज़रूरत है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के माध्यम से देश के सामने अवसर है कि यूजीसी को
एक अंग के रूप में शामिल करके स्वयम के माध्यम से मुफ्त ऑॅनलाइन शिक्षा आसानी से
उपलब्ध कराई जा सकती है। अभी सबसे बड़ा कार्य, विभिन्न
विषयों में यूजी और पीजी के लिए बड़े पैमाने पर ऑॅनलाइन कोर्सेज़ और लर्निंग आउटकम
आधारित पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क के तहत ऑॅनलाइन मॉड्यूल विकसित करना है। यह प्रक्रिया
काफी समय से कई देशों में लागू है। इसकी रूपरेखा विकसित करने के लिए कोर समिति और
विषय विशेषज्ञों की बैठक हुई थी जिसका उद्देश्य रूपरेखा तैयार करके उसे चर्चा, संशोधन और आखिर में अपनाने के लिए प्रसारित करना था। मुझे लगता है कि यह
(स्वयम) विज्ञान के विभिन्न विषयों में पाठ्यक्रम संरचनाओं में गुणात्मक बदलाव
लाने का उपयुक्त मौका है, जिसमें सीखने के परिणामों को
सटीक रूप से परिभाषित किया जाए और मूल्यांकन किया जाए ताकि इन्हें देश की एसएंडटी
नीति में व्यक्त आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया जा सके। पाठ्यक्रम संरचनाओं को एकीकृत, बहु-विषयी और अंतर-विषयी तरीके से तैयार करने की आवश्यकता है ताकि वैज्ञानिक
विषयों के एक बड़े परास को साथ लाया जा सके और जटिल समस्याओं को हल करने के लिए नई
विधियों,
अवधारणाओं और दृष्टिकोणों का विकास हो सके। एसएंडटी और उच्च
शिक्षा नीतियों में संतुलन बनाने के लिए यदि और जब इस दृष्टिकोण को अपनाया जाता है
तो इस बदलाव का विरोध करने वाले शिक्षकों और छात्रों के बीच अभिमत उत्पन्न हो सकते
हैं। दूसरी ओर,
इसे सामाजिक आवश्यकताओं के लिए प्रासंगिक एवं नई खोजों और
नवाचारों के लिए मानव संसाधन तैयार करके उच्च शिक्षा को आकार देने के एक अवसर के
रूप में भी देखा जा सकता है।
उदाहरण के तौर पर मैं यहां एक विषय क्षेत्र की झलक प्रदान करता हूं कि किस तरह
एसएंडटी में नवाचार के घोषित लक्ष्य को पाठ्यक्रम में सीखने के सुपरिभाषित व
सार्थक परिणामों के अनुरूप फेरबदल करके प्राप्त किया जा सकता है। एक अध्ययन के तौर
पर मैं जंतु विज्ञान को चुन रहा हूं जो हमारे पारंपरिक महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों
में पढ़ाया जाता है। यूजी और पीजी पाठ्यक्रम में कुछ बदलाव लाने के लिए हमें जंतु
विज्ञान को आधुनिक जैविक परिप्रेक्ष्य में समझना होगा जिसमें जीवों को परमाणु स्तर
पर देखा जाता है। जीवों की प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन हेतु रासायनिक, भौतिक,
गणितीय और आणविक पहलुओं का कारगर तरीके से एकीकृत अध्ययन
करने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न जीवों के आंतरिक कामकाज को आकारिकी, कोशिकीय,
आणविक, परस्पर क्रियात्मक एवं जैव
विकास जैसे विभिन्न स्तरों पर समझा जा सके।
पाठ्यक्रम को संस्था में उपलब्ध संसाधनों और भौगोलिक स्थिति के आधार पर
अलग-अलग आकार दिया जा सकता है। लेकिन, इसे सीखने के कमोबेश
एकरूप परिणामों के अनुरूप होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, विभिन्न
भौगोलिक क्षेत्रों में, विभिन्न कौशलों के साथ शिक्षण और प्रायोगिक
प्रदर्शन में जैव विकास के विभिन्न सोपानों की क्षेत्रीय प्रजातियों का उपयोग किया
जा सकता है और फिर भी तुलनात्मक जीव विज्ञान की समझ एक जैसी हो सकती है। आखिरकार, इसका उद्देश्य अकशेरुकी और कशेरुकी जीवों यानी एकल कोशिकीय प्रोटोज़ोआ से लेकर
बहुकोशिकीय मनुष्यों तक में विभिन्न प्रणालियों की तुलना करते हुए जीव जगत के
आंतरिक कामकाज को समझने में मदद देने का होना चाहिए। इसमें सूचना व संचार
टेक्नॉलॉजी (आईसीटी) के औज़ारों की मदद ली जा सकती है तथा प्रायोगिक कार्य और
मैदानी अध्ययन को भी जोड़ा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, यदि
विभिन्न फायलम को समझने के लिए एक ही सैद्धांतिक ढांचे का इस्तेमाल किया जाए और
आकारिकी और आणविक औज़ारों के आधार पर वर्गीकरण को जैव विकास के आधार पर समझने की
कोशिश हो और साथ में उपयुक्त मैदानी व प्रयोगशाला कार्य को जोड़ा जाए तो छात्र रटंत
प्रणाली से मुक्त रहेंगे।
यदि कोई छात्र जंतु विज्ञान में उद्यम स्थापित करने में रुचि रखता है तो उसे
जीवन के विभिन्न रूपों में विविधता को एक सामाजिक-आर्थिक संपदा के रूप में देखने
की आवश्यकता होगी। इसमें प्राणि विज्ञान के प्रयुक्त पहलुओं को ध्यान में रखना
होगा। शोध को अपना कैरियर बनाने में रुचि रखने वाले छात्र के लिए ज़रूरी होगा कि वह
रासायनिक और भौतिक सिद्धांतों को अणुओं से लेकर स्व-संगठित एवं संगठित जीवों पर
इन्हें लागू करना समझे। जीन, जीनोम, कोशिका, ऊतक,
अंग और तंत्रों के स्तर पर संरचना व कार्य के परस्पर
सम्बंधों का व्यापक व समग्र ज्ञान सीखने के परिणामों में और अधिक योगदान देगा।
इसके अलावा ज्ञान का यह आधार औद्योगिक अनुप्रयोग एवं विशुद्ध शोध कार्य, दोनों के लिए जीन एवं जीनोम संपादन के संदर्भ में भी काफी उपयोगी होगा।
छात्रों को प्रायोगिक अनुभव प्रदान करने तथा भविष्य में उपयोग के लिए कौशल प्रदान
करने के लिए इन समस्याओं से जुड़े लघु शोध प्रबंध हाथ में लिए जा सकते हैं। अर्जित
ज्ञान का संश्लेषण और उससे हासिल परिणाम भविष्य में यूजी एवं पीजी के छात्रों के
सीखने के परिणामों को परिभाषित करेंगे।
इस तरह जो मानव संसाधन तैयार होगा वह भविष्य की ज़रूरतों, बुनियादी तथा अनुप्रयुक्त दोनों, को पूरा करने के लिए
भली-भांति तैयार होगा। वैसे भी अब बुनियादी तथा अनुप्रयुक्त शोध को अलग-अलग करके
देखना मुनासिब नहीं है। प्रसंगवश बता दें कि यदि इस दृष्टिकोण को अपनाया जाता है
तो शिक्षकों का अध्यापन बोझ अनुकूलित और कम किया जा सकता है, हालांकि शुरू में पाठ्यक्रम की सामग्री को आकार देने के लिए थोड़ी मेहनत करना
होगी। शिक्षकों को इसके लिए तथा एकरूप तरीका अपनाने के लिए प्रशिक्षित करने की
आवश्यकता होगी।
हालांकि उपरोक्त विशेषताओं की उम्मीद जंतु विज्ञान के यूजी/पीजी के ऐसे समस्त
छात्रों से की जा सकती है, जो एक एकीकृत और अंतर-विषयी
तरीके से पारिस्थितिक तंत्र के भीतर के अंतर्सम्बंधों के आधार पर विषय का अध्ययन
करेंगे लेकिन संस्थान-संस्थान में इसका पैमाना, प्रकृति
और गहनता को लेकर भिन्नता हो सकती है। अन्य विषयों के लिए भी ऐसा ही होने की
संभावना है।
विषय कोई भी हो, अध्ययन के विषय और उससे जुड़े ‘सामाजिक
कौशल’ से सम्बंधित सीखने के परिणामों में एकरूपता लाना अनिवार्य है। विषय से जुड़े
कौशलों की एक व्यापक श्रेणी के के भीतर ज़रूरत इस बात की है कि आलोचनात्मक चिंतन, विश्लेषणात्मक और वैज्ञानिक तर्क, तार्किक सोच, सूचना एवं डिजिटल साक्षरता, और समस्याएं सुलझाने की
क्षमताएं प्रदान की जाएं एवं उनका आकलन किया जाए। ये वे गुण हैं जो यूजीसी की कोर
समिति द्वारा यूजी/पीजी के प्रत्येक छात्र के लिए निर्धारित किए गए हैं।
यदि विज्ञान के विभिन्न विषयों के विभिन्न टॉपिक्स को पढ़ाने के इन तरीकों को अपनाया जाता है, जिसमें विषयों को अनुप्रयोगों के एक दायरे से जोड़ा जाएगा, तो उससे लोगों और भावी पीढ़ियों में विश्वास पैदा होगा क्योंकि इससे उनकी सामाजिक ज़रूरतों की पूर्ति होगी। जो लोग खोजी अनुसंधान की क्षमता दर्शाते हैं उन्हें किसी अप्रासंगिक खोज को दोहराते रहने की बजाय अपनी जिज्ञासा से उभरे अनूठे सवालों के जवाब खोजने का मौका दिया जा सकता है। आखिरकार, प्राप्त शिक्षा और इसके सीखने के परिणाम या तो नए ज्ञान के रूप में होना चाहिए या फिर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक लाभों के रूप में या शायद दोनों रूपों में होने चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि आज का तथाकथित ‘बुनियादी’ ज्ञान कल एक अनुप्रयोगी मूल्य प्राप्त कर सकता है। विषय क्षेत्रों की बुनियादी और एकीकृत वैचारिक समझ में स्पष्टता आविष्कारों, खोजों और नवाचार का आधार है। यह समय एसएंडटी मिशन और राष्ट्र निर्माण को पूरा करने के लिए उच्च शिक्षा प्रणाली में पाठ्यक्रम और सीखने के परिणामों को आकार देने का है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://dailytimes.com.pk/assets/uploads/2018/02/14/Science-education.jpg
बढ़ता वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन आज काफी गंभीर
समस्या है। इसे कम करने के प्रयास में लंबे समय से वैज्ञानिक जीवाश्म र्इंधनों के
विकल्प के रूप में, सौर ऊर्जा का दोहन कर, मीथेन बनाने के प्रयास कर रहे हैं। मिशिगन युनिवर्सिटी के ज़ेटियन माई और उनके साथियों
का हालिया शोध इसी दिशा में एक और कदम है। उन्होंने तांबा और लोहा आधारित ऐसा
उत्प्रेरक विकसित किया है जो सौर ऊर्जा का उपयोग कर कार्बन डाईऑक्साइड को मीथेन
में परिवर्तित करता है, जिसे र्इंधन के रूप में उपयोग किया जा सकता
है।
हाल ही में अमेरिका में बिजली पैदा करने के प्राथमिक स्रोत के रूप में मीथेन
ने कोयले को मात दी है। मीथेन से बिजली पैदा करने की प्रक्रिया में होता यह है कि
मीथेन जलने पर कार्बन डाईऑक्साइड और पानी में बदल जाती है और इस प्रक्रिया में
ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस ऊष्मा का उपयोग बिजली बनाने में किया जाता है।
सौर ऊर्जा की मदद से मीथेन बनाने की प्रक्रिया इसके विपरीत है। इसमें विद्युत
की मदद से कार्बन डाईऑक्साइड और पानी को मीथेन में बदला जाता है। हालांकि इस तरह
मीथेन बनाना इतना आसान नहीं है। कार्बन डाईऑक्साइड के एक अणु में आठ इलेक्ट्रॉन और
चार प्रोटॉन जुड़ने पर मीथेन का एक अणु बनता है। हर इलेक्ट्रॉन और हर प्रोटॉन को
अणु में जोड़ने के लिए ऊर्जा की ज़रूरत होती है।
वैज्ञानिक यह तो पहले ही पता लगा चुके थे कि जब तांबे के कण प्रकाश-अवशोषक
पदार्थों के साथ जुड़ते हैं तब वे कार्बन डाईऑक्साइड को अधिक ऊर्जा वाले यौगिकों
में परिवर्तित कर देते हैं। लेकिन इसमें समस्या यह थी कि इनकी दक्षता और अभिक्रिया
दर कम थी। इसलिए वे तांबे और अन्य धातुओं की जोड़ियों को प्रकाश-अवशोषकों के साथ
जोड़ने का प्रयास कर रहे थे।
इसी प्रयास में माई और उनके साथियों ने सिलिकॉन पापड़ (सिलिकॉन अर्धचालक की
पतली चादर) के ऊपर प्रकाश-अवशोषक गैलियम नाइट्राइड से बने नैनोवायर विकसित किए।
नैनोवायर पर उन्होंने विद्युत-लेपन करके तांबा और लोहे के 5-10 नैनोमीटर बड़े कण
जोड़े। इस तरह तैयार सेटअप ने सूक्ष्म सौर-सेलों की तरह काम किया, यानी सूर्य के प्रकाश को अवशोषित कर उसे विद्युत ऊर्जा में बदल दिया। इसका
उपयोग कार्बन डाइऑक्साइड को मीथेन में परिवर्तित करने के लिए किया गया।
तैयार सेटअप ने प्रकाश और कार्बन डाईऑक्साइड व पानी की मौजूदगी में प्रकाश में
मौजूद 51 प्रतिशत ऊर्जा को मीथेन में परिवर्तित किया। प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल
एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक तांबा-लोहा आधारित यह नया
उत्प्रेरक अब तक की सबसे तीव्र दर से और सबसे अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने वाला है।
माई का कहना है कि इस सेटअप का एक और फायदा है – इसमें इस्तेमाल किए गए प्रकाश-अवशोषक और उत्प्रेरक सस्ते और आसानी से उपलब्ध हैं, और उद्योगों में उपयोग किए जा रहे हैं। लेकिन मीथेन उत्पादन को व्यावहारिक रूप में लाने के लिए अभी उत्पादन दक्षता और दर, दोनों ही बढ़ाने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/Methane_Recyling_1280x720.jpg?itok=NY6d1vic
पर्यावरण वैज्ञानिकों ने वर्ष 2019 को पुन: काफी गर्म बताया, परंतु इस गर्म वर्ष में भी दुनिया भर में पर्यावरण बचाने के अनुकरणीय एवं
प्रेरक प्रयास हुए।
कोलंबिया की सरकार ने दक्षिण अफ्रीका की एक कंपनी एंग्लोगोल्ड को छोटे से गांव
काज़मारका में ज़मीन के नीचे दबे सोने के खनन की अनुमति प्रदान की थी। यहां लगभग 680
टन सोना होने की संभावना बताई गई थी। लगभग 30 हज़ार की आबादी वाले इस गांव में खनन
कार्य के संदर्भ में अप्रैल में एक जनमत संग्रह का आयोजन किया। केवल 80 लोगों ने
खनन के पक्ष मत रखा एवं शेष लोगों ने विरोध किया। लोगों का कहना था कि सोने से
ज़्यादा महत्वपूर्ण पर्यावरण है; पर्यावरण बचेगा तो ही हम
बचेंगे। हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियों को बेहतर पर्यावरण मिले। जनमत के
परिणाम से सरकार काफी परेशान हो गई।
इसी तरह,
म.प्र. के सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व में केंद्र सरकार के
युरेनियम खनन के प्रस्ताव का राज्य सरकार ने विरोध किया एवं कहा कि वन्य प्राणियों
की कीमत पर युरेनियम खनन नहीं करने दिया जाएगा। बैतूल ज़िले में युरेनियम होने की
संभावना बताई गई थी।
मंगोलिया के दक्षिण गोबी रेगिस्तान में बड़े पैमाने पर खनन की योजना लगभग 10
वर्ष पूर्व वहां की सरकार ने बनाई थी। यह वह क्षेत्र है जहां हिम तेंदुए बहुतायत
में पाए जाते हैं। अन्य स्थानों पर शिकार एवं अन्य पर्यावरणीय कारकों की वजह से
इनकी संख्या काफी कम हो गई थी। दक्षिण मंगोलिया की 50 वर्षीय शिक्षिका बयारजारगल
आगवांतसेरेन ने खनन की इस योजना का विरोध शुरू किया। उन्होंने लोगों को समझाया कि
हिम तेंदुए उनकी पहचान हैं। खनन कार्य से यदि हिम तेंदुए समाप्त होते हैं तो उनकी
पहचान भी मिट जाएगी। किसानों, चरवाहों एवं स्थानीय ग्रामीणों
को लेकर अगवांतसेरेन ने कई स्थानों पर इस योजना का लगातार विरोध किया। बढ़ते
जन-विरोध को देखते हुए सरकार ने 34 खदानों के लायसेंस निरस्त कर दिए और 18 लाख एकड़
क्षेत्र को प्राकृतिक संरक्षित पार्क घोषित किया। अगवांतसेरेन को इस कार्य के लिए
2019 में एशिया का प्रसिद्ध गोल्डमैन पुरस्कार प्रदान किया गया।
समुद्र के अंदर पाई जाने वाली मूंगे की चट्टानें (कोरल रीफ) कई समुद्री जीवों
के लिए प्राकृतिक आवास तथा प्रजनन स्थल होती हैं। पिछले 30-40 वर्षों में प्रदूषण
के कारण लगभग आधी कोरल रीफ समाप्त हो गई हैं। इस समस्या से निपटने हेतु दो युवाओं –
सेम टीचर तथा गैटोर हाल्पर्न – ने केरेबियन द्वीप के बहामास नामक स्थान पर 14 करोड़
रुपए की लागत से दुनिया का पहला व्यावसायिक कोरल-रीफ फार्म प्रारंभ किया। फार्म
में कोरल रीफ के छोटे-छोटे टुकड़े समुद्र से लाकर ज़मीन पर बनी पानी की टंकियों में
उगाए जाते हैं। इन टंकियों में कोरल के टुकड़े 50 गुना तेज़ी से बढ़ते हैं। उगे हुए
टुकड़ों को समुद्र में डाल दिया जाता है।
वाहनों से पैदा वायु प्रदूषण को थोड़ा नियंत्रित करने हेतु लंदन में प्रदूषण
फैलाने वाले वाहनों पर 8 अप्रैल से प्रदूषण टैक्स लगाया गया। लंदन के मध्य में
अल्ट्रा-लो-टूरिज़्म ज़ोन बनाया गया जिसमें प्रवेश करने पर प्रदूषण फैलाने वाले
वाहनों को 1150 से 9000 रुपए तक टैक्स देना होगा।
पर्यावरण में कार्बन उत्सर्जन कम करने एवं र्इंधन की बचत करने हेतु सिंगापुर
में छत पर बगीचे वाली बसें शुरू की गर्इं। अभी सिंगापुर के चार मार्गों पर दस बसें
चलाई जा रही हैं एवं धीरे-धीरे इनकी संख्या 400 तक बढ़ाई जाएगी। प्रत्येक बस से
कार्बन उत्सर्जन में 52 प्रतिशत कमी तथा 25 प्रतिशत ईधन बचने का अनुमान है।
प्रदूषण की सही ढंग से रोकथाम नहीं करने एवं इसके कारण स्वास्थ्य बिगड़ने से
मांट्रल (फ्रांस) की प्रशासनिक अदालत में एक मां-बेटी ने याचिका दायर कर सरकार से
1.25 करोड़ रुपए के हर्जाने की मांग की।
अधिकांश विकसित देश अपना प्लास्टिक व इलेक्ट्रॉनिक कचरा विकासशील देशों को भेज
देते हैं। कई देश इस खतरनाक कचरे का अवैज्ञानिक तरीके से निपटान करते हैं जिससे
पर्यावरण प्रदूषित होता है तथा मानव स्वास्थ्य प्रभावित होता है। इस खतरनाक सच्चाई
को जानकर मलेशिया की महिला पर्यावरण मंत्री यिओ बी यीन ने 3000 मीट्रिक टन कचरा
अमेरिका,
चीन, ब्रिटेन, कनाडा,
ऑस्ट्रेलिया सहित अन्य देशों को वापस भेजने का निर्णय लिया।
पानी पर्यावरण का महत्वपूर्ण भाग है परंतु इसकी उपलब्धता घटती जा रही है। इसी
संदर्भ में सूखे से प्रभावित ऑस्ट्रेलिया के शहर सिडनी में जल प्रतिबंध नियमों के
तहत जल खुला छोड़ना अपराध घोषित किया गया। न्यू साउथ वेल्स सरकार के अनुसार यह नियम
जून से लागू कर दिया गया है।
जंगल एवं पेड़ भी पर्यावरण के अहम भाग होते हैं। अत: उनको बचाने के प्रयास भी
सराहनीय है। ब्रिाटिश कोलंबिया प्रान्त (कनाडा) के डार्कवुड नामक संरक्षित क्षेत्र
में पेड़ पौधों एवं जीवों की 40 दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं। नेचर कंज़रवेंसी ऑफ
कनाडा नामक एक स्वैच्छिक संगठन इस क्षेत्र की देखभाल करता है। इस क्षेत्र का लगभग
80 वर्ग कि.मी. का भाग किसी की निजी मिल्कियत में था जो संरक्षण कार्य में बाधा
पैदा करता था। इस परेशानी को देखकर उपरोक्त संगठन ने जुलाई 2019 में यह निजी
मिल्कियत का भाग 104 करोड़ रुपए में खरीद लिया एवं संरक्षण का कार्य बेहतर तरीके से
किया।
लगभग ऐसा ही स्कॉटलैंड में भी हुआ। यहां एक पहाड़ी पर देवदार के प्राचीन पेड़
बड़ी संख्या में लगे हैं। सरकारी रिकॉर्ड में यह पहाड़ी किसी की निजी संपत्ति के रूप
में दर्ज थी। पहाड़ी के आसपास बसे लोगों को यह डर हमेशा बना रहता था कि संपत्ति का
मालिक कभी भी देवदार के प्राचीन पेड़ों को कटवा देगा। इन प्राचीन पेड़ों को बचाने
हेतु लोगों ने एक ट्रस्ट बनाया। ट्रस्ट के माध्यम से धन एकत्र करके 15 करोड़ रुपए
में पहाड़ी को ही खरीद लिया। ट्रस्ट के लोग अब देवदार पेड़ों को तो बचा ही रहे हैं, साथ में अन्य पेड़ पौधे भी लगा रहे हैं ताकि पूरी पहाड़ी हरी-भरी हो जाएं।
जापान के हिरोशिमा तथा नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों से पैदा विकिरण के
कारण ज़्यादातर पेड़ क्षतिग्रस्त हो गए थे। वर्तमान में 4 कि.मी. के क्षेत्र में 46
में से 30 पेड़ ज़्यादा क्षतिग्रस्त पाए गए। इन सभी पेड़ों को बचाने हेतु अगस्त 2019
तक लगभग 1.60 करोड़ रुपए की राशि एकत्र हो गई थी। पेड़ों को बचाने हेतु प्रभावित भाग
हटाए जाएंगे एवं रसायनों का लेप लगाया जाएगा ताकि भविष्य में और संक्रमण न हो।
कमज़ोर तनों एवं शाखाओं को सहारा देकर जड़ों में खाद भी दी जाएगी।
ब्रिटेन के कई शहरों (डार्लिंगटन, बकिंगहैम, ग्लॉचेस्टर,
वार्विकशावर) में भवन निर्माताओं ने 500 पेड़ों को जालियों
से ढंक दिया ताकि पक्षी घोंसला न बनाएं एवं गंदगी न फैले। स्थानीय लोग इस कार्य से
नाराज़ हुए एवं इसके विरोध में न्यायालय में याचिका दायर की। विरोध स्वरूप कई
स्थानों पर जालियां तोड़ी गई एवं पेड़ों पर हरी पट्टियां बांधी गई। लगातार बढ़ता
विरोध देखकर भवन निर्माताओं ने सारे पेड़ों से जालियां हटा लीं।
हमारे देश में हरियाणा, दिल्ली तथा छत्तीसगढ़ में पेड़
बचाने के प्रयास हुए। हरियाणा सरकार ने 24 फरवरी 2019 को विधान सभा में पंजाब भूमि
संरक्षण अधिनियम में संशोधन को स्वीकृति प्रदान की थी। इस स्वीकृति से 60 हज़ार एकड़
वन भूमि पर गैर-वानिकी एवं निर्माण कार्य को छूट दी गई। इसके विरोध में फरीदाबाद
तथा गुड़गांव में कई प्रदर्शन हुए एवं कहा गया कि इससे अरावली का बड़ा जंगल क्षेत्र
समाप्त हो जाएगा। विरोध के मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर नाराज़ी व्यक्त करते
हुए संशोधन पर रोक लगाई। दिल्ली सरकार ने कहा कि विकास कार्यों के लिए पेड़ काटने
की अनुमति तभी मिलेगी जब पेड़ों की कुल संख्या में से 80 प्रतिशत स्थानांतरित किए
जाएंगे। इस अधिसूचना पर लोगों से सुझाव भी मांगे गए थे।
जगदलपुर (छत्तीसगढ़) के बेलाडीला में खनन की अनुमति के विरोध में जून में 200 गांवों के लोगों ने कई दिनों तक प्रदर्शन किए। खनन हेतु 20 हज़ार पेड़ काटे जाने थे। कई स्थानों पर तीर-कमान के साथ पेड़ों की पहरेदारी की गई। (स्रोत फीचर्स)
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शोधकर्ताओं को एक ऐसे व्यक्ति की खोपड़ी और दिमाग मिले हैं
जिसका लगभग 2600 वर्ष पहले सिरकलम किया गया था। यह घटना जिस जगह हुई थी वह आजकल के
यॉर्क (यू.के.) में है। वर्ष 2008 में शोधकर्ताओं को जब खोपड़ी मिली थी, तो उसमें से मस्तिष्क का ऊतक प्राप्त हुआ जो आम तौर पर मृत्यु के तुरंत बाद
सड़ने लगता है। इसलिए यह आश्चर्य की बात है कि यह ढाई हज़ार वर्षों तक संरक्षित रहा।
और तो और,
मस्तिष्क की सिलवटों और खांचों में भी कोई परिवर्तन नहीं
आया था। ऐसा लगता है कि धड़ से अलग होकर वह सिर तुरंत ही कीचड़ वाली मिट्टी में दब
गया था।
शोधकर्ताओं ने मामले को समझने के लिए विभिन्न आणविक तकनीकों का उपयोग करके बचे
हुए ऊतकों का परीक्षण किया। शोधकर्ताओं ने इस प्राचीन मस्तिष्क में दो संरचनात्मक
प्रोटीन पाए जो न्यूरॉन्स और ताराकृति ग्लियल कोशिकाओं दोनों के लिए एक किस्म के कंकाल
या ढांचे का काम करते हैं। लगभग एक वर्ष तक चले इस अध्ययन में पाया गया कि उक्त
प्राचीन मस्तिष्क में यह प्रोटीन-पुंज ज़्यादा सघन रूप से भरा हुआ था और आधुनिक
मस्तिष्क की तुलना में अधिक स्थिर भी था। जर्नल ऑफ रॉयल सोसाइटी इंटरफेस
में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस प्राचीन प्रोटीन-पुंज ने ही मस्तिष्क के नरम
ऊतक की संरचना को दो सहस्राब्दियों तक संरक्षित रखने में मदद की होगी।
पुंजबद्ध प्रोटीन उम्र के बढ़ने और मस्तिष्क की अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियों की पहचान हैं। लेकिन शोधकर्ताओं को इनसे जुड़े कोई विशिष्ट पुंजबद्ध प्रोटीन नहीं मिले। वैज्ञानिकों को अभी भी मालूम नहीं है कि ऐसे पुंज बनने की वजह क्या है लेकिन उनका अनुमान है कि इसका सम्बंध दफनाने के तरीकों से है जो परंपरागत ढंग से हुआ होगा। ये नए निष्कर्ष शोधकर्ताओं को ऐसे अन्य प्राचीन ऊतकों के प्रोटीन से जानकारी इकट्ठा करने में मदद कर सकते हैं जिनसे आसानी से डीएनए बरामद नहीं किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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इंडोनेशिया के स्वास्थ्य मंत्री तेरावन एगस पुत्रान्तो द्वारा
वहां के अस्पतालों में एक विवादास्पद उपचार की सिफारिश ने चिकित्सकों को चौंका
दिया है। मंत्री जी ने इंट्रा-आर्टीरियल हेपेरिन फ्लशिंग (IAHF) नामक यह उपचार स्ट्रोक के इलाज के लिए सुझाया है। लेकिन कई चिकित्सकों और
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है कि IAHF कारगर है। और तो और, इससे नुकसान भी हो सकते हैं। आलोचकों का कहना है कि तेरावन जिस आक्रामक ढंग से
इस उपचार की पैरवी कर रहे हैं उसके चलते वे देश की स्वास्थ्य नीतियों का नेतृत्व
करने के अयोग्य हैं।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार IAHF एक निदान तकनीक डिजिटल सबट्रेक्शन एंजियोग्राफी (DSA) का थोड़ा परिवर्तित रूप है। मस्तिष्क की रक्त वाहिकाओं को दृश्यमान बनाने के
लिए DSA की मदद ली जाती है, जिसमें मरीज़ के पैर से
मस्तिष्क की रक्त वाहिका तक एक कैथेटर के ज़रिए ऐसी स्याही डाली जाती है जो एक्स-रे
में दिखाई दे। कैथेटर पर रक्त के थक्के जमने से रोकने के लिए हेपेरिन डाला जाता
है।
तेरावन जब गातोत सोब्राोतो आर्मी अस्पताल में रेडियोलॉजिस्ट थे तब उन्होंने
हेपेरिन की मात्रा बढ़ाकर इस नैदानिक तकनीक को स्ट्रोक के उपचार में तबदील कर दिया।
उनका विचार था कि हेपेरिन जब ऑपरेशन के दौरान खून के थक्के बनने से रोकता है तो
उसे मस्तिष्क की रक्त वाहिनियों में ज़्यादा मात्रा में पहुंचाकर वहां से रक्त के
थक्के हटाकर स्ट्रोक से बचाव किया जा सकेगा। उन्होंने IAHF की मदद से इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति सुशीलो बम्बांग
युधोयोनो के अलावा कई नामी व्यवसायियों, राजनेताओं और सैन्य
अधिकारियों सहित हज़ारों मरीज़ों में ना सिर्फ स्ट्रोक का इलाज किया बल्कि बचाव के
लिए भी उपयोग किया। तेरावन का मानना है कि अब इस उपचार को बड़े पैमाने पर शुरू कर
देना चाहिए।
लेकिन इंडोनेशिया के तंत्रिका चिकित्सकों का कहना है कि इस उपचार के प्रभावी
होने का कोई प्रमाण नहीं है, और यह तकनीक अंतर्राष्ट्रीय
मानकों का पालन भी नहीं करती। इसके अलावा इस तरीके में स्नायु सम्बंधी और
गैर-स्नायु सम्बंधी दोनों तरह के जोखिमों की थोड़ी संभावना है और 0.05-0.08 प्रतिशत
तक मृत्यु का जोखिम भी है।
तेरावन द्वारा 75 लोगों पर किए गए क्लीनिकल परीक्षण के परिणाम बाली मेडिकल
जर्नल में प्रकाशित हुए थे। इसके अनुसार क्रोनिक स्ट्रोक के मामले में IAHF से मांसपेशियां मज़बूत होती
हैं। लेकिन मांसपेशियों की मज़बूती जांचने के लिए जो परीक्षण किया गया था, वह बहुत सटीक नहीं है।
इंडोनेशिया के चिकित्सा समुदाय ने पहले भी तेरावन को रोकने की कोशिश की है। 2018 में इंडोनेशियन मेडिकल एसोसिएशन (IDI) की नैतिकता परिषद ने तेरावन को अपना काम समझाने के लिए तलब किया था। लेकिन उन्होंने अपना काम नहीं समझाया। परिषद ने तेरावन को कई नैतिक उद्दंडता का दोषी पाया – पहला, अप्रमाणित उपचार के लिए मोटी रकम वसूलना। दूसरा, मरीज़ों को ठीक करने का झूठा वादा करना। तीसरा, ज़रूरत से ज़्यादा अपना विज्ञापन या प्रचार-प्रसार करना। और चौथा, परिषद के साथ सहयोग ना करना। IDI ने तेरावन की सदस्यता भी एक साल के निरस्त कर दी थी। अलबत्ता, इंडोनेशिया सरकार ने अब तक इस मामले में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। (स्रोत फीचर्स)
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