लोग खुद के सोच से ज़्यादा ईमानदार होते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय विकास के लिए ईमानदारी अनिवार्य है। लेकिन आजकल हम देखते हैं कि कैसे लोग, कंपनियां और सरकार अपने मतलब और फायदे के लिए धोखाधड़ी कर रहे हैं। क्या दुनिया के सभी 205 देशों में ऐसा ही होता है? क्या लोग व्यक्तिगत लेन-देन में ईमानदारी को तवज़्जो देते हैं? यही सवाल ए. कोह्न और उनके साथियों के शोध पत्र का विषय था (कोह्न और उनके साथी जानकारी संग्रहण और विश्लेषण, अर्थशास्त्र और प्रबंधन विषयों के विशेषज्ञ हैं)। उनका शोध पत्र “civic honesty around the globeसाइंस पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित हुआ है। यह अध्ययन उन्होंने 40 देशों के 355 शहरों में लगभग 17,000 लोगों के साथ किया, जिसमें उन्होंने लोगों में ईमानदारी और खुदगर्ज़ी के बीच संतुलन को जांचा। इस अध्ययन के नतीजे काफी दिलचस्प रहे। अध्ययन में उन्होंने पाया कि लोग व्यक्तिगत स्तर पर वास्तव में उससे ज़्यादा ईमानदार होते हैं जितना वे खुद अपने बारे में सोचते हैं।

यह प्रयोग उन्होंने कैसे किया। शोधकर्ताओं ने कुछ वालन्टियर चुने जो किसी बैंक, पुलिस स्टेशन या होटल के पास एक बटुआ गिरा देते थे। हर बटुए के एक तरफ एक पारदर्शी कवर लगा था, जिसके अंदर एक कार्ड रखा होता था। इस कार्ड पर बटुए के मालिक का नाम और उससे संपर्क सम्बंधी जानकारी होती थी। कार्ड के साथ घर के लिए खरीदने के कुछ सामान (जैसे दूध, ब्रोड, दवाई वगैरह) की एक सूची भी होती थी। इस जानकारी के साथ बटुओं के अलग-अलग सेट बनाए गए। जैसे, कुछ बटुए बिना रुपयों के थे, कुछ बटुओं में थोड़े-से रुपए (14 डॉलर या उस देश के उतने ही मूल्य की नगदी) और कुछ में अधिक (95 डॉलर या समान मूल्य की नगदी) रखे गए। अर्थात बटुओं के 5 अलग-अलग सेट थे। पहले सेट में नगदी नहीं थी, दूसरे सेट में मामूली रकम थी, तीसरे सेट में अधिक रकम थी, चौथे सेट में नगदी नहीं लेकिन एक चाबी रखी गई थी, और पांचवे सेट में नगदी के साथ एक चाबी रखी थी।

वालन्टियर्स ने इन बटुओं को किसी सार्वजनिक स्थल (जैसे पुलिस स्टेशन, होटल या बैंक के पास) पर गिराया और इस बात पर नज़र रखी कि जब बटुआ किसी व्यक्ति को मिलता है तो वह उसके साथ क्या करता है। क्या वह नज़दीकी सहायता काउंटर पर जाकर सम्बंधित व्यक्ति तक बटुआ वापस पहुंचाने को कहता है? अध्ययन के नतीजे क्या रहे?

अध्ययन में उन्होंने पाया कि उन बटुओं को लोगों ने अधिक लौटाया जिनमें पैसे थे, बजाए बिना पैसों वाले बटुओं के। सभी 40 देशों में उन्हें इसी तरह के नतीजे मिले।

और यदि बटुओं में बहुत अधिक रुपए रहे हों, तो? क्या वे बटुआ लौटाने के पहले उसमें से थोड़े या सारे रुपए निकाल लेते? क्या उन्होंने सिर्फ सज़ा के डर से बटुए लौटाए? या इनाम मिलने की उम्मीद में लोगों ने पूरे रुपयों सहित बटुआ लौटाया? या ऐसा सिर्फ परोपकार की मंशा से किया गया था? यह वाला प्रयोग उन्होंने तीन देशों (यूके, यूएस और पोलैंड) में किया, जिसके नतीजे काफी उल्लेखनीय रहे। 98 प्रतिशत से अधिक लोगों ने अधिक रुपयों से भरा बटुआ भी लौटाया। (यह अध्ययन उन देशों में करना काफी दिलचस्प होगा जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं।)

अपने अगले प्रयोग में उन्होंने बटुओं के तीन सेट बनाए। पहले सेट में बटुए में सिर्फ थोड़े रुपए रखे, दूसरे सेट में बटुए में थोड़ी-सी रकम और एक चाबी रखी, और तीसरे सेट में बटुए में काफी सारे रुपए और चाबी दोनों रखे। इस अध्ययन में देखा गया कि बिना चाबी वाले बटुओं की तुलना में चाबी वाले बटुओं को अधिक लोगों ने लौटाया। इन नतीजों को देखकर लगता है कि लोग बटुए के मालिक को परेशानी में नहीं देखना चाहते। इसी तरह के नतीजे सभी देशों में देखने को मिले।

भारतीय शहर

इस अध्ययन में हमारे लिए दिलचस्प बात यह है कि शोधकर्ताओं ने भारत के दिल्ली, बैंगलुरू, मुंबई, अहमदाबाद, कोयम्बटूर और कोलकाता शहर में लगभग 400 लोगों के साथ यह अध्ययन किया। इन शहरों के नतीजे अन्य जगहों के समान ही रहे। एशिया के थाईलैंड, मलेशिया और चीन, और केन्या और साउथ अफ्रीका के शहरों में भी इसी तरह के परिणाम मिले।

शोधकर्ताओं के अनुसार “हमने यह जानने के लिए 40 देशों में प्रयोग किया कि क्या लोग तब ज़्यादा बेईमान होते हैं जब प्रलोभन बड़ा हो, लेकिन नतीजे इसके विपरीत रहे। ज़्यादा नगदी से भरे बटुओं को अधिक लोगों द्वारा लौटाया गया। यह व्यवहार समस्त देशों और संस्थानों में मज़बूती से देखने को मिला, तब भी जब बटुओं में बेईमानी उकसाने के लिए पर्याप्त रकम थी। हमारे अध्ययन के नतीजे उन सैद्धांतिक मॉडल्स से मेल खाते हैं जिनमें परोपकार और आत्म-छवि को स्थान दिया जाता है, साथ ही यह भी दर्शाते हैं कि बेईमानी करने पर मिलने वाले भौतिक लाभ के साथ गैर-आर्थिक प्रेरणाओं का भी प्रत्यक्ष योगदान होता है। जब बेईमानी करने पर बड़ा लाभ मिलता है तो बेईमानी करने या धोखा देने की इच्छा बढ़ती है, लेकिन अपने आप को चोर के रूप में देखने की कल्पना इस इच्छा पर हावी हो जाती है। …तुलनात्मक अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि आर्थिक रूप से अनुकूल भौगोलिक परिवेश, समावेशी राजनैतिक संस्थान, राष्ट्रीय शिक्षा और नैतिक मानदंडों पर ज़ोर देने वाले सांस्कृतिक मूल्यों का सीधा सम्बंध नागरिक ईमानदारी से है।”

ऐसे अध्ययन भारत के विभिन्न स्थानों, गांवों (गरीब और सम्पन्न दोनों), कस्बों, नगरों, शहरों और आदिवासी इलाकों में करना चाहिए और देखना चाहिए कि यहां के नतीजे उपरोक्त अध्ययन से निकले सामान्य निष्कर्षों से मेल खाते हैं या नहीं। भारत उन 40 देशों का प्रतिनिधित्व करता है जो आर्थिक और सामाजिक आदर्शों, मूल्यों और विश्वासों को साझा करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भूकंप निर्मित द्वीप गायब

पाकिस्तान के तट के समीप 6 साल पहले भूकंप के कारण अस्तित्व में आया एक छोटा-सा द्वीप हाल ही में लहरों में समा गया है।

दरअसल साल 2013 में पाकिस्तान में आए तीव्र भूकंप के कारण तट के नज़दीक समुद्र में एक द्वीप बन गया था। रिक्टर पैमाने पर 7.7 की तीव्रता के इस प्रलयंकारी भूकंप में लगभग 320 लोग मारे गए थे और हज़ारों लोग बेघर हो गए थे। अरेबियन टेक्टॉनिक प्लेट के युरेशियन प्लेट पर रगड़ने के कारण नीचे दबी मिट्टी ज्वालामुखी से बाहर निकलने लगी। ऐसे ज्वालामुखी जो आग और लावा की बजाय कीचड़ उगलते हैं, उन्हें मड वॉल्केनो या पंक ज्वालामुखी कहते हैं। यह इतनी तेज़ी से बाहर निकली कि इसके साथ चट्टान और चिकने पत्थर भी ऊपर आ गए और इस द्वीप की सतह पर जमा हो गए। यह द्वीप 20 मीटर ऊंचा, 90 मीटर चौड़ा और 40 मीटर लंबा था। इस पंक ज्वालामुखी विस्फोट से निकले मलबे से बने इस द्वीप को ज़लज़ला कोह नाम दिया गया था।

इस दौरान लिए गए उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि समय के साथ यह द्वीप किनारों से धीरे-धीरे खत्म होता गया और 27 अप्रैल के चित्रों में यह पूरी तरह ओझल हो गया। लेकिन ज़लज़ला कोह अभी पूरी तरह गायब नहीं हुआ है। द्वीप के स्थान के आसपास इस द्वीप के पदार्थ मंडरा रहे हैं। नासा के अनुसार इस क्षेत्र में पंक ज्वालामुखी विस्फोटों से द्वीपों के बनने और गायब हो जाने का लंबा इतिहास रहा है। तेज़ी से जमा हुई गाद से बने इस ज़लज़ला कोह द्वीप की लंबे समय तक रहने की संभावना वैसे भी नहीं थी। नासा के अनुसार इन दरारों से भविष्य में और भी द्वीप बनने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

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खरबों पेड़ लगाने के लिए जगह है धरती पर

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग पर रोक लगाने के लिए 1 अरब हैक्टर अतिरिक्त जंगल लगाने की आवश्यकता है। यह क्षेत्र लगभग संयुक्त राज्य अमेरिका के बराबर बैठता है। हालांकि यह काफी कठिन मालूम होता है लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, पृथ्वी पर पेड़ लगाने के लिए इतनी जगह तो मौजूद है।

कृषि क्षेत्रों, शहरों और मौजूदा जंगलों को न भी गिना जाए तो दुनिया में 0.9 अरब हैक्टर अतिरिक्त वन लगाया जा सकता है। इतने बड़े वन क्षेत्र को विकसित किया जाए तो अनुमानित 205 गीगाटन कार्बन का स्थिरीकरण हो सकता है। यह उस कार्बन का लगभग दो-तिहाई होगा जो पिछले दो सौ वर्षां में मनुष्य ने वायुमंडल में उड़ेला है। इस अध्ययन का नेतृत्व करने वाले थॉमस क्रॉथर के अनुसार यह जलवायु परिवर्तन से निपटने का सबसे सस्ता समाधान है और सबसे कारगर भी है।

आखिर यह कैसे संभव है? यह पता लगाने के लिए क्रॉथर और उनके सहयोगियों ने लगभग 80,000 उपग्रह तस्वीरों का विश्लेषण किया और यह देखने की कोशिश की कि कौन-से क्षेत्र जंगल के लिए उपयुक्त होंगे। इसमें से उन्होंने मौजूदा जंगलों, कृषि क्षेत्रों और शहरी क्षेत्रों को घटाकर पता किया कि नए जंगल लगाने के लिए कितनी जमीन बची है। आंकड़ा आया 0.9 अरब हैक्टर। एक अनुमान के मुताबिक 0.9 अरब हैक्टर में 10-15 खरब पेड़ लगाए जा सकते हैं। पृथ्वी पर इस समय पेड़ों की संख्या 30 खरब है। इसमें आधी से अधिक बहाली क्षमता तो मात्र छह देशों – रूस, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील और चीन – में है।

परिणाम बताते हैं कि यह लक्ष्य वर्तमान जलवायु के तहत प्राप्त करने योग्य है। लेकिन जलवायु बदल रही है, इसलिए हमें इस संभावित समाधान का लाभ लेने के लिए तेज़ी से कार्य करना होगा। यदि धरती के गर्म होने का मौजूदा रुझान जारी रहता है तो 2050 तक नए जंगलों के लिए उपलब्ध क्षेत्र में 22.3 करोड़ हैक्टर की कमी आ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

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ध्वनि के उपयोग से ओझल दृश्यों के चित्र

पूर्व में शोधकर्ताओं द्वारा ऐसे उपकरण विकसित किए जा चुके हैं जो कोनों के पीछे ओझल चीज़ों को देखने के लिए प्रकाश तरंगों का उपयोग करते थे। इस प्रक्रिया में प्रकाश तरंगों को कोनों पर टकराकर उछलने दिया जाता था ताकि जो वस्तुएं आंखों की सीध में नहीं हैं उन्हें भी देखा जा सके। हाल ही में इसी से प्रेरित एक प्रयोग में वैज्ञानिकों के एक अन्य समूह ने प्रकाश तरंगों की बजाय ध्वनि का प्रयोग किया। माइक्रोफोन और कार में उपयोग किए जाने वाले छोटे स्पीकरों की सहायता से एक खंभे जैसा हार्डवेयर तैयार किया गया है।

ये स्पीकर ध्वनियों की एक शृंखला उत्सर्जित करते हैं जो एक दीवार पर एक कोण पर टकराने के बाद दूसरी दीवार पर छिपी हुई वस्तु पर पड़ती है। वैज्ञानिकों ने दूसरी दीवार पर H अक्षर का एक पोस्टर बोर्ड रखा था। इसके बाद उन्होंने इस उपकरण को धीरे-धीरे घुमाया और हर बार अधिक ध्वनियों की संख्या बढ़ाते गए। हर बार ध्वनियां एक दीवार से परावर्तित होकर दूसरी दीवार पर रखे पोस्टर बोर्ड से टकराकर माइक्रोफोन में वापस आई।

भूकंपीय इमेजिंग एल्गोरिदम का उपयोग करते हुए उनके यंत्र ने H अक्षर की एक मोटी-मोटी छवि बना दी। शोधकर्ताओं ने एल (L) और टी (T) अक्षरों के साथ भी प्रयोग किया और अपने परिणामों की तुलना प्रकाशीय विधि से की। प्रकाशीय विधि, जिसके लिए महंगे उपकरणों की आवश्यकता होती है, अधिक दूरी के L की छवि बनाने में विफल रही। इसके साथ ही ध्वनि-आधारित विधि में केवल 4-5 मिनट लगे जबकि प्रकाशीय विधि में एक घंटे से अधिक समय लगता है। शोधकर्ता अपने इस कार्य को कंप्यूटर विज़न एंड पैटर्न रिकॉग्निशन काफ्रेंस में प्रस्तुत करेंगे।

इस तकनीक की व्यावहारिक उपयोगिता में अभी काफी समय है, लेकिन शोधपत्र के लेखकों का ऐसा मानना है कि आगे चलकर इस तकनीक का उपयोग वाहनों में अनदेखी बाधाओं को देखने के लिए किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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शरीर के अंदर झांकती परा-ध्वनि तरंगें – नरेंद्र देवांगन

‘तुम्हें कुछ भी महसूस नहीं होगा।’ यह आश्वासन था महिला सोनोग्राफर का। न कोई इंजेक्शन, न निश्चेतक। वह केवल एक ठंडी और चिकनी जेल काफी मात्रा में मरीज़ की छाती पर पोत देती है। वॉशिंग मशीन के बराबर स्कैनर को ठेलती हुई वह मरीज़ के पलंग के पास लाती है। उसके ऊपर टेलीविज़न स्क्रीन लगा है। फिर वह एक छोटे माइक्रोफोन से मिलते-जुलते ट्रांसड्यूसर को मरीज़ की पांचवीं और छठी पसली के बीच में रखती है।

मशीन को चालू करने के बाद वीडियो पर एक विचित्र-सी चीज़ का चित्र प्रकट होता है जिसका गड्ढेनुमा मुंह लयबद्ध तरीके से फूलता और पिचकता है। यह होता है परा-ध्वनि (अल्ट्रासाउंड) की सहायता से, जिसकी ध्वनि तरंगों की आवृत्ति इतनी अधिक है कि मनुष्य उन्हें नहीं सुन सकते। मरीज़ अपने धड़कते हुए ह्मदय के महाधमनी वाल्व को खुलते और बंद होते देख रहा है। एकदम भीतर तक उतर जाने वाली यह दृष्टि चिकित्सा के लिए एक क्रांतिकारी आयाम है। अब चिकित्सक बगैर चीरफाड़ शरीर के लगभग हर भाग की गहन जांच कर सकते हैं।

पराध्वनि तरंगों की मदद से देखा जा सकता है कि कौन-सी धमनियां मोटी या अवरुद्ध हो गई हैं, किन मांसपेशियों को रक्त नहीं मिल पा रहा है। वास्तव में शरीर के लगभग हर भाग की ऐसी जांच संभव है। चिकित्सक ग्रंथियों, घावों, अवरोधों के बारे में पता लगा सकते हैं।

जांच के अलावा परा-ध्वनि तरंगों को लेंस की मदद से संकेंद्रित किया जा सकता है जिससे वे शरीर के भीतर एक सूक्ष्म स्थान पर प्रहार कर सकें। नेत्र रोग विशेषज्ञ इनका प्रयोग आंखों के ट्यूमर का उपचार करने के अलावा उस दबाव को कम करने में भी करते हैं जिससे मोतियाबिंद होता है। अति तीव्र पराध्वनि की केवल एक चोट गुर्दे की पथरी को चूर-चूर कर देती है, और पीड़ादायक ऑपरेशनों की ज़रूरत ही नहीं रहती।

एक्सरे के विपरीत परा-ध्वनि के कोई दुष्प्रभाव नहीं हैं। लगभग हर किस्म की जांच में इनका प्रयोग किया जा सकता है। जांच के अन्य तरीकों की तुलना में यह तेज़ भी है और सस्ता भी।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान समुद्र की गहराइयों को नाप कर जर्मन पनडुब्बियों का पता लगाने के लिए ईजाद किया गया प्रतिध्वनि मापी परा-ध्वनि पर आधारित था। ध्वनि तरंगों के रास्ते में कोई वस्तु आए (चाहे वह समुद्र में पनडुब्बी हो, हमारे कान के पर्दे हों या स्टील के टुकड़े में दरार हो) तो तरंगें टकरा कर बिखर जाती हैं और कुछ वहीं लौट आती हैं, जहां से शुरू हुई थीं। इस तरह प्राप्त प्रतिध्वनियों को एकत्रित करके इलेक्ट्रॉनिक के ज़रिए चित्र में परिवर्तित किया जा सकता है।

प्रतिध्वनि चित्र द्वारा शारीरिक जांच का विचार द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपजा था। पर वे चित्र इतने अस्पष्ट थे कि उनसे विश्वसनीय निदान नहीं हो सकते थे। सत्तर के दशक में सॉलिड स्टेट इलेक्ट्रॉनिक तकनीक के विकास के कारण बहुत सारी जानकारी का लगभग तत्क्षण विश्लेषण किया जाने लगा।

उपरोक्त ट्रांसड्यूसर में पिन के सिरे के आकार के 64 लाउडस्पीकर लगे थे। हर लाउडस्पीकर मरीज़ की त्वचा से ध्वनि के अविश्वसनीय 25 लाख स्पंदन प्रति सेकंड भेजता है, और लौटती हुई मंद प्रतिध्वनियों को सुनता है। कंप्यूटर गणना करता है कि वे कितने सेंटीमीटर तक चली हैं और तुरंत उस जानकारी को एक चित्र में परिवर्तित कर देता है।

अपने अनुभवी हाथों से ट्रांसड्यूसर को फिराती हुई महिला सोनोग्राफर ह्मदय के विभिन्न वाल्व और प्रकोष्ठों के चित्र दिखा सकी। मरीज़ अपने मिट्रल वाल्व को भी तितली के पंख की तरह फड़फड़ाते देख सकता था।

एक महिला मरीज़ को सांस लेने में कठिनाई हो रही थी। महिला सोनोग्राफर स्कैनर को उसके पास लाई और कुछ ही क्षणों में उसकी तकलीफ स्पष्ट दिखाई दी। ह्मदय के आसपास तरल पदार्थ इकट्ठा हो कर उसे दबा रहा था जिससे उसके प्रकोष्ठ हवा नहीं भर पा रहे थे। उसका ह्मदय किसी भी क्षण रुक सकता था। रोग का पता तुरंत चल गया और तरल पदार्थ को निकाल दिया गया।

अगर तब परा-ध्वनि उपलब्ध नहीं होता तो रोग का पता चलाने के लिए चिकित्सकों को एक्सरे और अन्य चिकित्सा तकनीकों की सहायता लेनी पड़ती या फिर तारों को शिराओं में घुसाकर ह्मदय तक पहुंचाने वाला लंबा और अंतरवेधी तरीका अपनाना पड़ता।

परा-ध्वनि गर्भवती महिलाओं के लिए भी उपयोगी है। क्या बच्चे जुड़वां हैं? क्या शिशु ठीक जगह पर है? क्या उसका दिल धड़क रहा है? परा-ध्वनि की सहायता से शल्य चिकित्सक भ्रूण का ऑपरेशन भी कर सकते हैं।

पूर्व में यकृत के कुछ रोगों का पता कई सप्ताहों तक किए जाने वाले जटिल रक्त परीक्षणों या फिर जोखिम भरे ऑपरेशन के बाद चलता था। परा-ध्वनि की सहायता से चिकित्सक तुरंत ही अवरोध या घाव को देख सकते हैं, एकदम सही स्थान पर सुई डाल कर परीक्षण के लिए कोशिकाएं प्राप्त कर सकते हैं और कुछ ही घंटों के भीतर रोग का कारण, गंभीरता और विस्तार जान सकते हैं।

चिकित्सा के अलावा भी परा-ध्वनि से तकनीकी उपलब्धियों के नए आयाम खुले हैं। प्रबल ध्वनि तरंगें प्लास्टिक और पोलीमर को जोड़ने का काम करती हैं। वैक्यूम क्लीनर के थैले, जूस के गत्ते के डिब्बे, कैसेट टेप, डिब्बे वगैरह परा-ध्वनि द्वारा पैक किए जाते हैं। और आपको अंगवस्त्र या मूंगफलियों का पैकेट खोलने में जो मुश्किल होती है वह इसलिए कि उनके जोड़ों को संकेंद्रित परा-ध्वनि से तब तक गरम किया जाता है जब तक वे पिघलते नहीं और दोनों भाग जुड़कर एक नहीं बन जाते।

परा-ध्वनि से सफाई भी कर सकते हैं। तरल पदार्थ पर परा-ध्वनि ऊर्जा की बौछार करने से वह नन्हे बुलबुलों वाला झाग बन जाता है जो सूक्ष्म दरारों में घुस कर मैल को निकाल फेंकते हैं। हालांकि यह तकनीक रसोईघर में इस्तेमाल करने के लिए अभी भी बहुत महंगी है। इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल प्रयोगशालाओं, युद्ध पोतों, कारखानों और आभूषणों की सफाई में होता है।

परा-ध्वनि गहराई मापी की मदद से मछुआरे समुद्रों में मछलियों के समूहों का पता लगा सकते हैं। फिलहाल विमानों में छोटी-मोटी खराबियों का पता लगाने के लिए विमान को खोल कर उसके ज़रूरी कलपुर्जों की जांच करने में लाखों डॉलर खर्च होते हैं। एक जेट विमान के रोटर की जांच में 40 घंटे लगते हैं। परा-ध्वनि तकनीक से यह काम चंद मिनटों में हो सकता है।

जब धातु के एक कलपुर्ज़े से ध्वनि तरंगें टकराती हैं तो वह एक निश्चित आवृत्ति पर ‘बजता’ है। अनुनाद का पैटर्न फिंगर प्रिंट की भांति अनूठा होता है, और कोई खराबी होने पर ही बदलता है। परा-ध्वनि टेस्टिंग प्रोजेक्ट के मुख्य भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट मिगलिमोरी के अनुसार, “हर कलपुर्ज़े के बनने के समय उसके ध्वनि चित्र को संचित करने का प्रस्ताव है। बाद में जांच करने पर अगर यह उससे भिन्न निकलता है तो उस कलपुर्ज़े को निकाल देंगे। आशा है कि हर कॉकपिट में एक बॉक्स होगा जिससे विमान अपनी जांच स्वयं करेगा।”

सबसे अधिक रोचक प्रगति चिकित्सा के क्षेत्र में हुई है। नई प्रणालियां, जिनमें डिजिटल तकनीक का प्रयोग होता है, उनके द्वारा महज़ एक मिलीमीटर मोटी शिराओं को देखा जा सकता है और रक्त प्रवाह का पता लग सकता है। पर चिकित्सक केवल उनको देख पाने से ही संतुष्ट नहीं हैं। परा-ध्वनि के उन्नत तरीकों द्वारा ह्मदय रोग विशेषज्ञ को इस बात की सटीक जानकारी मिलेगी कि आपके ह्मदय के वाल्व से कितनी मात्रा में रक्त प्रवाहित हो रहा है।

सान फ्रांसिस्को हार्ट इंस्टीट्यूट में शोधकर्ताओं का एक दल ट्रांसड्यूसर को ही ह्मदय तक ले जाने और अल्ट्रासाउंड के द्वारा अवरुद्ध और सख्त हो गई धमनियों की सफाई के तरीके खोजने में जुटा है। धमनियों में जमा हुआ प्लाक परा-ध्वनि के प्रहार से गायब हो जाता है। इसमें धमनी के क्षतिग्रस्त होने का कोई खतरा नहीं है।

प्रतिदिन नई खोजें हो रही हैं। चिकित्सक परा-ध्वनि की सहायता से वह सब देख रहे हैं जिसे पहले कभी नहीं देखा गया था और ऐसे नतीजे पा रहे हैं जिनकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। (स्रोत फीचर्स)

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आंगन की गौरैया – कालू राम शर्मा

गौरैया के साथ मेरा रिश्ता बचपन से ही रहा है। गौरैया छत में लकड़ी व बांस की बल्लियों के बीच की जगह और दीवारों पर टंगे फोटो के पीछे दुबकी रहती और सुबह होते ही यहां-वहां चहकती फिरती, गली-मोहल्ले में धूल में नहाती। आंगन में झूठे बर्तनों में बचे हुए अन्न कणों को चुगना आम बात थी। कई बार तो खाना खाने के दौरान इतना पास आ जाती कि बस चले तो थाली में ही चोंच मार दे। वे घर की दीवार पर टंगे शीशे में अपने को ही चोंच मारती रहती। शाम होते अनेक गौरैया एक साथ मिलकर कलरव मचाती।

बरसात के दिनों में हम बच्चों का एक प्रमुख काम होता गौरैया को पकड़ने का। तकनीक का खुलासा नहीं करूंगा। गौरैया को पकड़कर उसके पंखों को स्याही से रंगकर वापस छोड़ देते। उस रंगी हुई चिड़िया को देखकर हम खुश होते रहते।

अब गौरैया की संख्या काफी कम हो चुकी है, खासकर महानगरों व शहरों में। रहन-सहन व घरों की डिज़ाइन में बदलाव के साथ गौरैया शहरी घरों से अमूमन विदा ले चुकी है। अनेक गांवों-कस्बों में आज भी गौरैया बहुतायत से दिखाई देती है। यह सही है कि गौरैया कम होती जा रही है लेकिन इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की जोखिमग्रस्त प्रजातियों की रेड लिस्ट में गौरैया को अभी भी कम चिंताजनक ही बताया गया है।

मैं यहां यह बात करना चाहता हूं कि इसने कैसे और कब मानव के साथ जीना सीखा? माना जाता है कि गौरैया ने मानव के साथ जीना तब शुरू किया था जब उसने कृषि की शुरुआत की थी। जब गौरैया ने मानव के साथ जीना सीखा तो इसमें क्या बदलाव आया होगा? उसके खान-पान में बदलाव ज़रूर आए होंगे। इसके चलते इसकी शारीरिक बनावट में क्या कोई अंतर आए होंगे?

गौरैया (पैसर डोमेस्टिकस) को अक्सर हम पालतू चिड़िया की श्रेणी में रखने की भूल कर बैठते हैं। सच तो यह है कि वह मानव के निकट रहती है मगर पालतू नहीं है। दरअसल, गौरैया को कुत्ते, गाय, घोड़े, मुर्गी की तरह मानव ने पालतू नहीं बनाया है बल्कि इसने मानव के निकट जीना सीख लिया है। सलीम अली ने अपनी पुस्तक ‘भारत के पक्षी’ में लिखा है कि यह मनुष्य की बस्तियों से अलग नहीं रह सकती।

गौरैया एक नन्ही चिड़िया है जो पैसेराइन समूह की सदस्य है। इसकी लगभग 25 प्रजातियां हैं जो पैसर वंश के अंतर्गत आती हैं। घरेलू चिड़िया युरोप, भूमध्यसागर के तटों और अधिकांश एशिया में पाई जाती है। ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, और अमेरिका व अन्य कई क्षेत्रों में इसे जानबूझकर पहुंचाया गया या आकस्मिक कारणों से पहुंच गई।

जहां भी हो, यह मानव बस्तियों के इर्द-गिर्द ही पाई जाती है। जहां-जहां मनुष्य गए, गौरैया साथ गई! घने जंगलों, घास के मैदानों और रेगिस्तान, जहां मानव की मौजूदगी नहीं होती वहां गौरैया नहीं पाई जाती।

यह अनाज और खरपतवार के बीज खाती है। वैसे यह एक अवसरवादी भक्षक है, जिसे जो मिल जाए खा लेती है। कीट और इल्लियों को भी खाती है। इसके शिकारियों में बाज, उल्लू जैसे शिकारी पक्षी और बिल्ली जैसे स्तनधारी शामिल हैं।

पक्षियों की चोंच

पक्षियों की चोंच और इससे सम्बंधित लक्षण विकास की विशेषताओं को समझने में कारगर रहे हैं। चोंच भोजन प्राप्त करने का प्रमुख औज़ार है। पक्षियों के अध्ययन के दौरान अक्सर उनकी चोंच का अवलोकन करने को कहा जाता है। चोंच के आधार पर पक्षी के भोजन का अनुमान लगाया जा सकता है।

डार्विन ने गैलापेगोस द्वीपसमूह पर फिंच पक्षियों का अध्ययन कर बताया था कि वास्तव में पक्षियों की चोंच की शक्ल और आकृति को प्राकृतिक चयन द्वारा इस तरह से तराशा जाता है कि वह उपलब्ध भोजन के साथ फिट बैठ सके। डार्विन ने बताया था कि फिंच की अलग-अलग प्रजातियों में भोजन के अनुसार चोंच का आकार विकसित हुआ है। गौरैया जब मानव के साथ रहने लगी तो खेती में उपलब्ध बीजों को खाने के मुताबिक गौरैया की चोंच में परिवर्तन हुआ।

दो गौरैया की तुलना

गौरैया की एक उप प्रजाति है: पैसर डोमेस्टिकस बैक्ट्रिएनस। यह हमारी घरेलू गौरैया पैसर डोमेस्टिकस की ही तरह दिखती है। बैक्ट्रिएनस गौरैया शर्मिली और मानवों से दूर रहने की कोशिश करती है। यह प्रवासी पक्षी है। दोनों के डीएनए विश्लेषण से पता चला है कि लगभग 10 हजार वर्ष पहले गौरैया का एक उपसमूह मुख्य समूह से अलग होकर घरेलू गौरैया बन गया।

गौरैया का मानव के साथ सहभोजिता का रिश्ता रहा है। लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्यों ने जब मध्य-पूर्व में खेती प्रारंभ की उसी समय गौरैया ने मानव के साथ रिश्ता बिठाना शुरू किया। लगभग चार हज़ार वर्ष पूर्व खेती के फैलाव के साथ-साथ गौरैया भी तेज़ी से फैलती गई। हालांकि घरेलू गौरैया की कई उपप्रजातियां हैं लेकिन जेनेटिक विश्लेषण से पता चलता है कि ये हाल ही में अलग-अलग हुई हैं।

अलबत्ता, बैक्ट्रिएनस गौरैया ने आज तक अपने प्राचीन पारिस्थितिक गुणधर्म बचाकर रखे हैं। बैक्ट्रिएनस मानव के साथ नहीं जुड़ी है बल्कि मानव बस्तियों से दूर प्राकृतिक आवासों में (जैसे नदी, झाड़ियों, घास के मैदानों और पेड़ों पर) रहती है। इनकी तुलना करके हम घरेलू गौरैया के मनुष्यों से रिश्ता बनने में हुए परिवर्तनों को देख सकते हैं।

शरद ऋतु में बैक्ट्रिएनस गौरैया अपने प्रजनन स्थल मध्य एशिया से बड़ी तादाद में सर्दियां बिताने के लिए उड़कर दक्षिण-पूर्वी ईरान और भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी भागों में पहुंच जाती है। गौरतलब है कि बैक्ट्रिएनस मुख्य रूप से जंगली घास के बीज खाती है जबकि मानव के साथ रहने वाली गौरैया खेती में उगने वाली गेहूं और जौं जैसी फसलों के बीज खाती हैं। अध्ययन से पता चला है कि अस्थि संरचनाओं का विकास प्रवासी बैक्ट्रिएनस गौरैया की तुलना में घरेलू गौरैया में संभवत: जल्दी हुआ क्योंकि प्रवासी व्यवहार के चलते पक्षी पर वज़न सम्बंधी अड़चनें ज़्यादा आएंगी जबकि एक ही जगह पर रहने वाली गौरैया के लिए इस तरह की अड़चन बाधक नहीं बनेगी क्योंकि उन्हें दूर-दूर तक उड़कर तो जाना नहीं है। इसलिए प्रवासी व्यवहार का परित्याग करने के साथ ही घरेलू गौरैया की चोंच और खोपड़ी मज़बूत होने लगी।

गौरैया में प्रवास के परित्याग के फलस्वरूप चोंच व खोपड़ी में होने वाले परिवर्तन एक प्रकार से अपने नए भोजन के साथ अनुकूलन है। जंगली अनाज के दानों और खेती में उगाए गए अनाज के दानों के बीच कई अंतर हैं। फसली बीजों का आकार बढ़ने लगा और ये बीज जंगली बीजों से कठोर व बनावट में अलग थे। अत: बीजों के गुणधर्मों में परिवर्तन के चलते खोपडी और चोंच पर प्राकृतिक चयन का दबाव बढा। 

खेती में उगाए जाने वाले अनाज के दाने पौधे में एक डंडी (रेकिस) पर काफी पास-पास मज़बूती से बंधे होते हैं जबकि जंगली घास के पौधों में पकने पर रेचिस के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। बैक्ट्रिएनस उप प्रजाति मानवों से दूर ही रही और उनकी चोंच व खोपड़ी में कोई फर्क नहीं आया। यह भी देखा गया कि मानव के निकट रहने वाली गौरैया की उप प्रजाति डील-डौल में भी थोड़ी बड़ी है।

गौरैया ने मानव सभ्यता के साथ रहते हुए अपने आपको मानव-निर्भर पर्यावरण के अनुसार ढाल लिया है। प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया ने उन आनुवंशिक परिवर्तनों को सहारा दिया या उन्हें संजोया जिनके चलते इनकी खोपड़ी के आकार में बदलाव के अलावा इनमें मांड या स्टार्च को पचाने की क्षमता भी विकसित होती गई।

आखिर कृषि ने कैसे गौरैया के जीनोम को प्रभावित किया होगा? घरेलू गौरैया में ऐसे जीन मिले हैं जो इसके करीबी जंगली रिश्तेदार में नहीं हैं।

घरेलू गौरैया में प्रमुख रूप से ऐसे दो जीन मिले हैं। इनमें से एक जीन जानवरों की खोपड़ी की संरचना के लिए ज़िम्मेदार होता है और दूसरा स्टार्च के पाचन में प्रमुख भूमिका अदा करता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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छोटा-सा बाल बना दर्दनाक

पैर में कांटा चुभने पर दर्द का अनुभव तो कमोबेश सभी ने किया होगा लेकिन क्या छोटा-सा बाल भी दर्द का कारण बन सकता है?

मानव शरीर पर बाल हर जगह होते हैं, लेकिन ब्राज़ील में एक व्यक्ति के लिए एक बाल परेशानी का कारण बन गया। वास्तव में बाल का एक टुकड़ा उसके पैर की त्वचा के अंदर घुस गया। ऐसा बहुत कम देखा गया है और इस स्थिति को ‘हेयर स्प्लिन्टर’ कहा जाता है। एक मायने वह बाल उसके लिए फांस बन गया।

दी जर्नल ऑफ इमरजेंसी मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक 35 वर्षीय व्यक्ति को दाहिनी एड़ी में अकारण दर्द होने लगा। दर्द बढ़ने पर उसे आपातकालीन कक्ष में ले जाया गया।

गौरतलब है कि इससे पहले उसे कभी भी पैर या टखने में चोट नहीं लगी थी। शुरुआती जांच में डॉक्टरों को भी दर्द की वजह समझ नहीं आई और न ही किसी प्रकार की चोट नज़र आई। डॉक्टरों ने उसे पहले पंजे के बल और फिर एड़ी के बल चलने को कहा तो उसने दार्इं एड़ी में दर्द महसूस किया।

साओ पौलो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अनुसार एड़ी को करीब से देखने पर बाल का एक किनारा दिखाई दिया। लेंस से जांच करने पर मालूम चला कि एक छोटा-सा बाल एड़ी की त्वचा को भेदते हुए अंदर घुस गया है। चिमटी की मदद से जो बाल निकाला गया वह 1 से.मी. लंबा था। बाल निकल जाने के बाद व्यक्ति को तुरंत राहत महसूस हुई।

दरअसल उस व्यक्ति को जो तकलीफ हुई थी वह त्वचीय रोम प्रवासन की वजह से हुई थी। इसमें बाल या उसका टुकड़ा त्वचा की सतह के नीचे घुस जाता है। 2016 में मेडिकल जर्नल आर्मड फोर्सेस इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 60 वर्षों में ऐसे मात्र 26 मामले रिकॉर्ड हुए हैं।

एक बार त्वचा में घुसने के बाद, यह बाल रोगी की हलचल से रेंगते हुए और अंदर घुसता चला जाता है। यह रेंगने वाला आकार हुकवर्म के कारण होने वाली त्वचा की समस्या त्वचीय लार्वा प्रवासन से ग्रस्त लागों में पाए जाने वाले चकत्ते के जैसा दिखता है। लेकिन यह लाल और उभरा हुआ नहीं होता बल्कि त्वचा के नीचे काले, धागे जैसा दिखाई देता है। (स्रोत फीचर्स)

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तिलचट्टा जल्द ही अजेय हो सकता है

खिरकार जिस दिन का हम सबको डर था वह जल्द ही आ सकता है। एक हालिया अध्ययन से मालूम चला है कि तिलचट्टे धीरे-धीरे अजेय होते जा रहे हैं। अध्ययनों के अनुसार कम से कम जर्मन तिलचट्टा (Blattella germanica) लगभग हर तरह के रासायनिक कीटनाशकों के प्रति तेज़ी से प्रतिरोध विकसित कर रहा है।

गौरतलब है कि सभी कीटनाशक एक समान क्रिया नहीं करते। कुछ तंत्रिका तंत्र को नष्ट करते हैं, जबकि अन्य बाहरी कंकाल पर हमला करते हैं और उन्हें अलग-अलग अवधि तक छिड़कना होता है। लेकिन तिलचट्टे सहित कई कीड़ों ने सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशक के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर लिया है। तिलचट्टे का जीवन लगभग 100 दिनों का होता है, इसलिए प्रतिरोध तेज़ी से फैल सकता है। सबसे ज़्यादा प्रतिरोधी काकरोचों का प्रतिरोधी जीन अगली पीढ़ी को मिल जाता है।

जर्मन तिलचट्टे में प्रतिरोध का परीक्षण करने के लिए, शोधकर्ताओं ने 6 महीनों तक इंडियाना और इलिनॉय में कई इमारतों में तीन अलग-अलग तिलचट्टा कॉलोनियों का चयन किया किया। उन्होंने तिलचट्टों की आबादी पर तीन अलग-अलग कीटनाशकों – एबामेक्टिन, बोरिक एसिड और थियामेथोक्सैम – के खिलाफ प्रतिरोध स्तर की जांच की। एक उपचार में उन्होंने 3-3 महीने के दो चक्रों में एक-के-बाद-एक तीनों कीटनाशकों का उपयोग किया। अन्य उपचार में, शोधकर्ताओं ने पूरे 6 महीनों तक कीटनाशकों के मिश्रण का उपयोग किया। अंतिम उपचार में केवल एक रसायन का उपयोग किया गया जिसके प्रति तिलचट्टों की आबादी में कम प्रतिरोध था।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अलग-अलग उपचारों के बावजूद, अधिकतर तिलचट्टा आबादियों में समय के साथ कोई कमी देखने को नहीं मिली। ठीक यही स्थिति तब भी रही जब कई कीटनाशकों का मिलाकर इस्तेमाल किया गया। अक्सर कीट नियंत्रण में इसी तरीके का इस्तेमाल किया जाता है। इन परिणामों से यह अनुमान लगाया गया कि तिलचट्टे तीनों रसायनों के खिलाफ तेज़ी से प्रतिरोध विकसित कर रहे हैं। एक सकारात्मक बात यह दिखी कि यदि तिलचट्टों में निम्न स्तर का प्रतिरोध है तो एबामेक्टिन उपचार कॉलोनी के एक बड़े हिस्से को मिटा सकता है।

अगर इन निष्कर्षों को मान लिया जाए तो मात्र रसायनों से तिलचट्टों के प्रकोप का मुकाबला करना असंभव हो सकता है। शोधकर्ताओं के सुझाव में एकीकृत कीट प्रबंधन का उपयोग करना होगा। रसायनों के साथ-साथ पिंजड़ों, सतहों की सफाई या वैक्यूम से खींचकर इनको खत्म किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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जलसंकट हल करने में परंपरा और नए ज्ञान की भूमिका – भारत डोगरा

हाल के समय में बढ़ते जल संकट के बीच एक सार्थक प्रयास यह हुआ है कि परंपरागत जल ज्ञान व प्रबंधन के महत्व व उसकी उपयोगिता को नए सिरे से समझने का प्रयास किया गया है।

परंपरागत स्रोतों व तकनीक को महत्व देने का यह अर्थ नहीं है कि विज्ञान की नई उपलब्धियों के आधार पर उनमें बदलाव या सुधार नहीं होने चाहिए। बदलाव या सुधार अवश्य हो सकते हैं पर ध्यान देने की बात यह है कि परंपरागत तकनीक की स्थानीय स्थिति की जो मूल समझ है उसके विरुद्ध कोई बदलाव नहीं करना चाहिए।

कुछ समय पहले बुंदेलखंड में परंपरागत तालाबों की बेहतरी के कुछ प्रयास विफल हुए क्योंकि इन प्रयासों में परंपरागत तकनीक की समझ नहीं थी, इस बात की पूरी समझ नहीं थी कि ये तालाब एक-दूसरे से कैसे जुड़े हुए हैं। एक अन्य स्थान पर तालाबों को मज़बूत बनाने के लिए उनकी दीवार ऊंची करने का सुझाव दिया गया, मगर इस बात को ध्यान नहीं रखा गया कि एक तालाब के भरने पर दूसरे तालाब में उसके पानी को भेजने का जो सिलसिला पहले से चला आ रहा था वह इस उपाय से टूट जाएगा।

आधुनिक और अधिक सुविधापूर्ण तकनीक आने से प्राय: परंपरागत तकनीक की उपेक्षा होती है। अब नए साधन भी उपलब्ध हो रहे हैं तो गांव समुदाय को विशेष ध्यान रखना होगा कि परंपरागत रुाोतों की उपेक्षा न हो। भूजल स्तर नीचे न गिरे, इसका निरंतर ध्यान रखना होगा और इस बारे में गांव में साझी समझ बनानी होगी कि थोड़े से लोगों द्वारा जल के अत्यधिक दोहन से पूरे गांव के लिए जल संकट न उत्पन्न हो। जो परंपरागत स्रोत गांव में व आसपास हैं उनके संरक्षण के अनेक प्रयास हो सकते हैं, जैसे उनकी सफाई, सही किस्म के पेड़ों व अन्य वनस्पतियों को लगाना, अतिक्रमण हटाने का प्रयास करना आदि। जो परंपरागत स्रोत काफी बुरी स्थिति में हैं, उनके विषय में देखना होगा कि जलागम क्षेत्र कितना बचा है। यदि किसी तालाब का जलागम क्षेत्र ही नहीं बचा है तो फिर तालाबों का उद्धार नहीं हो सकता। परंपरागत सोच के अनुकूल नए छोटे स्तर के जल संरक्षण कार्यों पर भी काम हो सकता है। जैसे चैक डैम बनाना आदि।

इसके साथ यदि हरियाली बचाने, वृक्षारोपण आदि के कार्यक्रम जोड़ दिए जाएं, तो कार्य अधिक सार्थक होगा। जहां वन विनाश हुआ है पर मिट्टी की उपजाऊ परत बची है, वहां सामुदायिक प्रयास से, कुछ समय के लिए, चुनी हुई भूमि को पशुओं की चराई से विश्राम देने से वन की वापसी कुछ ही समय में हो सकती है। इस तरह के कार्य को चैक डैम, तालाब आदि से जोड़ा जा सके तो दोनों कार्य एक-दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे व गांव में पशुपालन, कृषि, फलदार वृक्षों सभी की उन्नति होगी। ऐसा एक आदर्श प्रयास आसपास के कई गांवों को प्रेरित कर सकता है। साथ ही यदि कृषि में रसायनों के उपयोग को दूर करने या कम करने के प्रयास जोड़े जाएं तो जल स्रोतों का प्रदूषण भी दूर होगा व भूमि का उपजाऊपन भी बढ़ेगा। इन प्रयासों में गांव की जो जातियां परंपरागत तौर पर विशेष भूमिका निभाती रही हैं, जैसे ढीमर, केवट, मल्लाह, कहार, कुम्हार आदि, उन्हें विशेष प्रोत्साहन देने व उनकी परंपरागत कुशलता का भरपूर उपयोग करने की आवश्यकता है। महिलाएं ही जल संकट को सबसे अधिक झेलती हैं, अत: उनकी उत्साहवर्धक भागीदारी तो अति आवश्यक है और इस पूरे प्रयास में बहुत लाभदायक सिद्ध होगी।

जल वितरण और उपलब्धि में जाति के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न हो इसका विशेष ध्यान तो रखना ही होगा। भूमि सुधार के जो प्रयास हो रहे हैं तथा जहां गरीबों, भूमिहीन लोगों को ज़मीन मिल रही है विशेषकर वहां जल संरक्षण व संग्रहण के प्रयासों से गरीब वर्ग को लाभ पंहुचने की अच्छी संभावना है। बिहार में बोधगया संघर्ष से जुड़े एक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता ने मुझे कुछ समय पहले बताया था कि भूमि जोतने के उत्साह में उन्होंने परंपरागत अहार पाइन व्यवस्था का ध्यान नहीं रखा व बाद में इस परंपरागत व्यवस्था के नष्ट होने का उन्हें बहुत दुःख हुआ। अत: ऐसे प्रयासों में यदि पहले से ही जल संग्रहण व जल संरक्षण के प्रयासों का ध्यान रखा जाए तो यह बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

जल स्रोतों को और उनके जलागम क्षेत्र को साफ स्वच्छ रखने की पहले बहुत अच्छी परंपरा थी। इस अनुशासन का प्रसार गांव के परिवारों में और स्कूल की शिक्षा के माध्यम से भी होना चाहिए। इस तरह के सांस्कृतिक पर्व आयोजित हो सकते हैं जिनसे तालाबों आदि को साफ करने के श्रम दान को जोड़ा जाए।

कई शहरों में भी परंपरागत जल व्यवस्था को नया जीवन देकर काफी हद तक जल संकट का समाधान किया जा सकता है। जोधपुर, बांदा, सागर, महोबा जैसे नगरों में इसकी अच्छी संभावना है। ऐसे प्रयासों की चर्चा तो अब दिल्ली में भी चल रही है। बड़े शहरों में कई संस्थाओं को आपसी मेलजोल व तालमेल से कार्य करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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प्रलय टालने के लिए ज़रूरी विश्वस्तरीय कदम – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

सूर्य से आने वाले विकिरण के कारण पृथ्वी और उसके चारों ओर मौजूद वायुमंडल गर्म हो जाता है। होता यह है कि पृथ्वी की सतह से वापिस निकलने वाली ऊष्मा को वायुमंडल में मौजूद कुछ गैसें, जैसे कार्बन डाईऑक्साइड, सोख लेती हैं और इसे वापस पृथ्वी पर भेज देती हैं। इस तरह समुद्र और भूमि सहित पूरी पृथ्वी पर मनुष्यों और अन्य जीवों के रहने के लिए आरामदायक या अनुकूल तापमान बना रहता है। तो हम एक विशाल ‘ग्रीनहाउस’ में रहते हैं।

लेकिन तब क्या होगा जब ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में एक निश्चित सीमा से अधिक हो जाएंगी? ऐसा होने पर तापमान में वृद्धि होगी। और यह वृद्धि मूलत: कार्बन उत्सर्जन करने वाले र्इंधन जैसे कोयला, लकड़ी, पेट्रोलियम आदि जलाने के फलस्वरूप बनने वाली कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य गैसों के वायुमंडल में बढ़ते स्तर के कारण होती है। सिर्फ पिछले सौ वर्षों में वैश्विक तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। और यदि हमने इन र्इंधनों का उपयोग बंद या कम करके, ऊर्जा के अन्य विकल्पों (जैसे सौर, पवन वगैरह) को नहीं अपनाया तो वैश्विक तापमान इसी तरह बढ़ता जाएगा।

पिछले कुछ समय में हम बढ़ते तापमान के परिणाम हिमच्छदों (आइस कैप्स) और ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में देख चुके हैं, जिसके फलस्वरूप समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। समुद्रों के बढ़ते जलस्तर के चलते मालदीव और मॉरीशस जैसे द्वीप-राष्ट्र जलमग्न हो सकते हैं। बढ़ते तापमान से वैश्विक जलवायु में परिवर्तन आया है जिससे अनिश्चित मानसून, चक्रवात, सुनामी, एल-नीनो प्रभावित हुए। इसके अलावा भूमि और समुद्र दोनों ही जगह पर जीवन (मछलियां, शैवाल, मूंगा चट्टानें) भी प्रभावित हुआ है।

बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से सिर्फ कुछ देश नहीं बल्कि पूरी धरती ही प्रभावित हो रही है। इस धरती पर मानव, जंतु, पेड़-पौधे, मछलियां, सूक्ष्मजीव सहित विभिन्न प्रजातियां रहती हैं। यदि बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो पृथ्वी पर मौजूद समस्त जीवन पर संकट गहराता जाएगा। जलवायु परिवर्तन के साथ निरंतर औद्योगिक खेती और मत्स्याखेट के चलते कुछ ही दशकों में पृथ्वी से लगभग दस लाख प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।

पेरिस समझौता 2015

इस तबाही को रोकने के लिए राष्ट्र संघ ने विश्व के देशों को एकजुट किया और 2015 में पेरिस समझौता पारित किया, जिसके तहत सभी देशों को मिलकर प्रयास करना था कि वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री से अधिक की वृद्धि न हो। पेरिस समझौते पर दुनिया के लगभग 195 देशों ने हस्ताक्षर किए थे और इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ज़रूरी कदम उठाने का वादा किया था, लेकिन कुछ तेल निर्माता या निर्यात करने वाले देश जैसे टर्की, सीरिया, ईरान और अमेरिका इससे पीछे हट गए। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प का तो कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन कोरी कल्पना है।

इस बारे में हमें 2 कदम तत्काल उठाने की ज़रूरत है। पहले तो कार्बन उत्सर्जन करने वाले र्इंधन के उपयोग को समाप्त नहीं तो कम करके इनकी जगह अन्य वैकल्पिक ऊर्जा रुाोतों का उपयोग करना होगा, जो ग्रीन हाऊस गैस का उत्सर्जन नहीं करते (जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा)।

दूसरा, कार्बन डाईऑक्साइड को प्राकृतिक रूप से सोखने के तरीकों को बढ़ावा देना होगा। और यह काम जंगल और पेड़-पौधे बहुत अच्छे से करते हैं। पानी में शैवाल, तटीय इलाके के मैंग्रोव, जमीन पर उगने वाली फसलें और वन सभी तरह के पौधे प्रकाश संश्लेषण करते हैं। ये वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं। ऊष्णकटिबंधीय वन यह काम बेहतर करते हैं। इसलिए अमेज़न, अफ्रीका और भारत में हो रही वनों की अंधाधुंध कटाई को बंद किया जाना चाहिए। इन क्षेत्रों में वनस्पतियों, जानवरों और कवकों की 20 करोड़ से अधिक प्रजातियां रहती हैं। इसलिए इन्हें प्रमुख जैव विविधता क्षेत्र (Key Biodiversity Areas) कहा जाता है। इसी तरह समुद्री संरक्षण क्षेत्र (Marine Protection Areas) भी हैं। ये जैव विविधता को बहाल करते हैं और उसकी रक्षा करते हैं, पैदावार बढ़ाते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र के बचाव और सुरक्षा को सुदृढ़ करते हैं। केवल ये क्षेत्र 2020 तक लगभग 17 प्रतिशत भूमि और 10 प्रतिशत जलीय क्षेत्र का संरक्षण करेंगे और लाखों प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाएंगे। लेकिन आने वाले सालों में हमें इससेअधिक करने की ज़रूरत है।

वैश्विक प्रकृति समझौता

इन्ही सब बातों को ध्यान में रखते हुए विश्व के वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के समूह ने पेरिस समझौते का एक सह-समझौता प्रस्तावित  किया है जिसे उन्होंने नाम दिया है: ‘प्रकृति के लिए वैश्विक समझौता: मार्गदर्शक सिद्धांत, पड़ाव और लक्ष्य’। यह नीति दस्तावेज़ साइंस एडवांसेस पत्रिका के 19 अप्रैल 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ है। पर्यावरण और पर्यावरणीय मुद्दों से सरोकार रखने वाले प्रत्येक नागरिक और सरकार को यह नीति दस्तावेज़ अवश्य पढ़ना चाहिए। प्रकृति के लिए समझौते के पांच मूलभूत लक्ष्य हैं: (1) स्थानीय पारिस्थितिक तंत्रों की सभी किस्मों और अवस्थाओं तथा उनमें प्राकृतिक विविधता का निरूपण; (2) ‘प्रजातियों को बचाना’ अर्थात स्थानीय प्रजातियों की आबादियों को उनके प्राकृतिक बाहुल्य और वितरण के मुताबिक बनाए रखना; (3) पारिस्थितिक कार्यों और सेवाओं को बनाए रखना; (4) प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषण को बढ़ावा देना; और (5) जलवायु परिवर्तन को संबोधित करना ताकि वैकासिक प्रक्रियाओं को बनाए रखा जा सके और जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बनाया जा सके।

इन पांच लक्ष्यों की तीन मुख्य थीम हैं। पहली थीम है जैव विविधता को बचाना। इसके तहत विश्व के 846 पारिस्थितिकी क्षेत्रों को चुना गया है और बताया गया है कि साल 2030 तक इन क्षेत्रों को कम से कम 30 प्रतिशत तक कैसे बचाया जाए। दूसरी थीम है जलवायु परिवर्तन को रोकना। इसके अंतर्गत कार्बन संग्रहण क्षेत्र और संरक्षण के अन्य क्षेत्र-आधारित उपायों की मदद से जलवायु परिवर्तन को कम करना शामिल है। इसके तहत विश्व के मौजूदा क्षेत्रों (जैसे टुंड्रा, वर्षावन) के लगभग 18 प्रतिशत क्षेत्र को जलवायु स्थिरीकरण क्षेत्र की तरह संरक्षित करना और लगभग 37 प्रतिशत क्षेत्र (जैसे अमेज़न कछार, कॉन्गो कछार, उत्तर-पूर्वी एशिया वगैरह में देशज लोगों की ज़मीनों) को क्षेत्र-आधारित उपायों की तरह संरक्षित करना। तीसरी थीम है, पारिस्थितिकी के खतरों को कम करना और इसका मुख्य सरोकार प्रमुख खतरों जैसे अत्यधिक मत्स्याखेट, वन्यजीवों का व्यापार, नई सड़कों के लिए जंगल कटाई, बड़े बांध बनाने जैसे जोखिमों को कम करने से है।

हम कर सकते हैं

इन उदेश्यों को पूरा करने में सालाना तकरीबन सौ करोड़ डॉलर का खर्च आएगा। और यह खर्चा दुनिया के 200 देशों (साथ ही प्रायवेट सेक्टर) को मिलकर करना है। यदि हम इस धरती को आने वाली पीढ़ी, जीवों और वनस्पतियों (जो पिछले 55 करोड़ वर्ष से पृथ्वी को समृद्ध बनाए हुए हैं) के लिए रहने लायक छोड़कर जाना चाहते हैं तो यह राशि बहुत अधिक नहीं है। और यदि कोई इस कार्य में लगाई गई लागत का लाभ जानना चाहता है तो उपरोक्त पेपर में बताया गया है कि जैव-विविधता संरक्षण से समुद्री खाद्य उद्योग का सालाना लाभ 50 अरब डॉलर तक हो सकता है और बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई से बीमा उद्योग सालाना 52 अरब डॉलर की बचत कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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