मच्छर की आंखों से बनी कृत्रिम दृष्टि – एस. अनंतनारायणन

आंखें और दृष्टि, विकास और विशिष्टीकरण का ज़बर्दस्त चमत्कार हैं। अंधकार और प्रकाश के प्रति संवेदनशील कोशिकाएं लेंस द्वारा संकेंद्रित छवियां बनाने के लिए परिष्कृत की गर्इं। प्रकाश-संवेदी कोशिकाओं से मिलकर परदे बने। ये परदे और कुछ नहीं, बेजोड़ संवेदनशीलता और रंग भेद करने वाले ग्राहियों की जमावट हैं। उसके बाद आता है प्रोसेसिंग का कार्य ताकि इस तंत्र द्वारा एकत्रित सूचना से कुछ मतलब निकाला जा सके।   

जंतु एक कदम आगे बढ़े हैं और उनके पास दो आंखें होती हैं। इससे उनको गहराई की अनुभूति करने में मदद मिलती है। संधिपाद प्राणियों या बाह्र कंकाल वाले प्राणियों (आर्थोपोड्स) में इस विशेषता की इंतहा हो जाती है। उनमें एक जोड़ी संयुक्त आंखें होती हैं। या यों कहें कि जोड़ी की प्रत्येक आंख हज़ारों इकाइयों में विभाजित होती है जिससे दृश्य पटल काफी विस्तृत हो जाता है।

टेक्नॉलॉजी ने प्रकाश संवेदना का उपयोग कैमरे के रूप में किया है। कैमरे के लेंस और अधिक विशिष्ट हो गए हैं। और रेटिना का स्थान फोटो फिल्म के सूक्ष्म कणों या कैमरा स्क्रीन के पिक्सेल ने ले लिया है। संयुक्त नेत्र की नकल करते हुए, वैज्ञानिकों ने पोलीमर शीट्स पर लेंस का ताना-बाना विकसित किया है। इसे एक अर्धगोलाकार रूप दिया जा सकता है। ये लेंस सिलिकॉन फोटो-डिटेक्टर के एक ताने-बाने पर अलग-अलग छवियां छोड़ते हैं। 180 ऐसे सक्रिय लेंस वाले 2 से.मी. से भी छोटे एक उपकरण से और बढ़िया काम की उम्मीद जगी थी। लेकिन प्रकृति में मौजूद आंखों के नैनोमीटर स्तर के खंडों की नकल उतारना और ऐसे खंडों की पर्याप्त संख्या बनाकर एक बड़ी संयुक्त आंख तैयार करना पहुंच से बाहर साबित हुआ है।    

अमेरिकन केमिकल सोसाइटी के जर्नल एसीएस एप्लाइड मटेरियल्स एंड इंटरफेसेस में जॉन हॉपकिंस युनिवर्सिटी के डोंगली शिन, तियानज़ू हुआंग, डेनिस नीब्लूम, माइकल ए. बेवन और जोएल फ्रेशेट ने एक विधि का विवरण दिया है जिसकी मदद से इन बाधाओं से पार पाया जा सकता है। सूक्ष्म घटकों के स्तर पर काम करने की बजाय जोएल फ्रेशेट की टीम ने नैनोमीटर आकार की तेल की बूंदों का उपयोग लेंस के रूप में किया है। इनको तेल की एक और बूंद पर एक परत के रूप में जमा किया गया ताकि यह एक लचीली कृत्रिम संयुक्त आंख के रूप में काम कर सके।    

बाल्टिमोर के इस समूह ने मच्छर की आंख के मॉडल का उपयोग किया है। पेपर के अनुसार मच्छर की आंख के प्रकाशीय और सतह के गुणों ने टीम के लिए प्रेरणा स्रोत का काम किया। सूक्ष्म-लेंस के नैनो स्तर गुणधर्म एंटीफॉगिंग और एंटीरेफ्लेक्टिव गुण प्रदान करते हैं। लेंस की फोकस दूरी बहुत कम है, इसलिए सभी वस्तुएं फोकस में रहती हैं। सूक्ष्म लेंसों की गोलार्ध में जमावट चारों ओर से छवियों को पकड़ती है। मस्तिष्क इन्हें एकीकृत करता है। इसकी मदद से आंख को बगैर हिलाए-डुलाए आंखों की परिधि पर स्थित वस्तुएं भी देखी जा सकती हैं।

इस छोटी संयुक्त आंख की विशेषता यह है कि इसकी इकाइयां कम विभेदन वाली और काफी किफायती होती हैं। यह मस्तिष्क को भोजन की तलाश या खतरे को भांपने में कुशल बनाता है, जबकि गंध जैसी अन्य इंद्रियां बारीकियों का ख्याल रखती हैं। एएससी की एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार “संयुक्त आंख की सरलता और बहु-सक्षमता उन्हें दृष्टि की सूक्ष्म प्रणालियों के काबिल बनाती हैं जिसका उपयोग ड्रोन या रोबोट में किया जा सकता है।”  

पेपर के अनुसार इस संरचना की नकल करना काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। पूरा ध्यान लचीले धरातल पर कृत्रिम लेंसों को जमाकर इस संरचना की नकल करने पर रहा है, किंतु वास्तविक आंख की सूक्ष्मस्तरीय विशेषताएं भी नदारद रहीं और कृत्रिम संयुक्त नेत्र में एक साथ कई लेंसों के निर्माण की विधि भी। वर्तमान कार्य में, टीम ने इस चुनौती को बूंद-रूपी नैनो कणों में निहित वक्रता से संभाला। यह एक ऐसी संरचना है जिसे तरल कंचा कहते हैं।  

तरल कंचा वास्तव में एक बूंद है जिस पर एक ऐसी सामग्री का लेप किया जाता है जो तरल पदार्थ को अन्य सामग्रियों से अलग रखता है। सामान्यत: पानी की गोलाकार बूंद कांच की शीट पर रखने पर फैल जाती है। अलबत्ता, कांच की शीट पर ग्रीस लगाकर इसे रोका जा सकता है। एक अन्य तरीका यह है कि बूंद पर ऐसी सामग्री का लेप किया जाए कि अंदर का तरल पदार्थ कांच के संपर्क में न आए। इस तरह से बूंद एक लचीली वस्तु होगी जो कंचे की तरह गोल बनी रहेगी। जब तेल और पानी को मिलाया जाता है तो तेल की बूंदें बन जाती हैं, लेकिन इन छोटी बूंदों को एकसार ढंग से पानी में फैलाया जा सकता है, जैसे पायस में होता है। लेकिन यदि इन बूंदों पर किसी पदार्थ का लेप करके उनको सीधे संपर्क में आने से न रोका जाए, तो ये छोटी-छोटी बूंदें आपस में जुड़कर बड़ी बूंदें बन जाएंगी।  

बाल्टिमोर टीम ने तेल की नैनो बूंदें बनाने के लिए केश-नलिका उपकरण का उपयोग किया और इन बूंदों को सिलिकॉन के नैनो कणों से लेप दिया। लेप की वजह से बूंदें जुड़ी नहीं बल्कि एक नियमित, तैरते पटिए के आकार की इकहरी परत के रूप में जम गर्इं। इस तरह से एक बड़ी बूंद पर छोटी-छोटी बूंदों की एक परत बन गई। परिणामस्वरूप एक नैनोमीटर आकार के गोले पर उसी सामग्री की छोटी-छोटी बूंदों वाला एक तरल कंचा तैयार हो गया। यह संरचना ठीक संयुक्त आंख की संरचना जैसी होती है।       

पेपर के अनुसार अंत में इस तरह बनी संरचना को संसाधित किया जाता है ताकि वह यांत्रिक दृष्टि से एक मज़बूत सामग्री के रूप में तैयार हो जाए। ठीक उसी तरह से जैसे एक संयुक्त आंख एक ही सामग्री के कई सारे लेंस से मिलकर बनी होती है।  

 यह प्रक्रिया निर्माण की पारंपरिक चुनौतियों से बचते हुए मच्छर की आंख के प्रकाशीय और एंटीफॉगिंग गुणों की नकल करती है। इस पेपर के अनुसार इस प्रक्रिया से तरल कंचा लेंस की आकृति में फेरबदल संभव हो जाता है। इसके चलते अन्य किस्म के लेंस भी बनाए जा सकेंगे। इस पेपर के अनुसार “इस प्रक्रिया का और विकास करके चिकित्सकीय इमेजिंग, टोही उपकरणों और रोबोटिक्स के क्षेत्र में लघुकरण को बढ़ावा मिलेगा।” (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक मस्तिष्कहीन जीव के जटिल निर्णय

गभग एक सदी पहले अमेरिकी जीव विज्ञानी हर्बर्ट स्पेंसर जेनिंग्स ने तुरही के आकार के एक-कोशिकीय जीव स्टेंटर रोसेली पर एक प्रयोग किया था। इस प्रयोग में जेनिंग्स ने इस जीव के आसपास तकलीफदेह कार्मीन पाउडर डाला था। बिहेवियर ऑफ दी लोअर ऑर्गेनिज़्म्स नामक लेख में जेनिंग्स ने बताया था कि पावडर से बचने के लिए यह जीव पहले तो पाउडर के चारों ओर अपने शरीर को मोड़ने की कोशिश करेगा। यदि इससे काम न चले तो वह अपने सिलिया (सतह पर उपस्थित रोम) को उल्टा चलाकर पावडर के कणों को दूर करने की कोशिश करेगा। यदि फिर भी नाकाम रहता है तो वह खुद को सिकोड़ लेगा और यदि ये सारे तरीके काम नहीं करते, तो वह वहां से रुखसत हो जाएगा।  

बाद में इन निष्कर्षों को दोहराया नहीं जा सका और इन्हें खारिज कर दिया गया। लेकिन हाल ही में हार्वर्ड युनिवर्सिटी के शोधकर्ता जेरेमी गुणवर्दना और उनकी टीम ने इसे फिर से दोहराने का निर्णय लिया। शोधकर्ताओं ने स्टेंटर रोसेली के व्यवहार को सूक्ष्मदर्शी की मदद से देखकर रिकॉर्ड किया। 

उन्होंने सबसे पहले जंतु के आसपास कार्मीन पावडर डाला, लेकिन जंतु पर कोई असर नहीं हुआ। शोधकर्ता बताते हैं कि प्राकृतिक उत्पाद होने के चलते कार्मीन की संरचना जेनिंग्स के समय से काफी बदल चुकी है। लिहाज़ा उन्होंने कार्मीन की बजाय सूक्ष्म प्लास्टिक मोतियों का उपयोग किया। जैसा कि अनुमान था, स्टेंटर रोसेली ने प्लास्टिक मोतियों से बचने के लिए ठीक वैसा ही व्यवहार किया जैसा कि जेनिंग्स ने बताया था। सारे जंतुओं के व्यवहार किसी विशेष क्रम में तो नहीं थे लेकिन सांख्यिकीय विश्लेषण करने पर पता चला कि औसतन उनके निर्णय लेने की प्रक्रिया एक समान है। इस एक-कोशिकीय जीव ने तैरकर भाग निकलने से पहले खुद को मोड़ने, सिलिया की गति की दिशा को बदलकर कणों को हटाने और सिकुड़ने की क्रियाओं को चुना।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि यदि जीव खुद को सतह से अलग करने या सिकोड़ने के चरण तक पहुंचता है तब इनमें से किसी एक को चुनने की संभावना बराबर होती है। इस अध्ययन से पता चला कि स्टेंटर रोसेली के पास कोई मस्तिष्क तो नहीं है लेकिन फिर भी पहले वे आसान उपाय करते हैं, उसके बाद भी यदि आप उन्हें छेड़ते रहें तो वे कुछ और करने का निर्णय लेते हैं। यानी कोई व्यवस्था है जिसकी बदौलत उकसावा देर तक जारी रहने पर वे ‘मन बदल लेते हैं’।

ये निष्कर्ष कैंसर अनुसंधान में काफी सहायक हो सकते हैं। साथ ही अपनी कोशिकाओं को लेकर हमारी समझ में भी बदलाव ला सकते हैं। कोशिकाएं एक जटिल पारिस्थितिक तंत्र में जीती हैं और वे मात्र अपने जीन्स द्वारा निर्धारित ढंग से काम नहीं करतीं। गुणवर्दना के अनुसार एक-कोशिकीय जीव, जो एक समय में इस धरती पर राज करते थे, हमारी सोच से भी कहीं अधिक जटिल हो सकते हैं। यह निष्कर्ष 5 दिसंबर की करंट बायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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करीबी प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन का उल्टा असर

मानव बसाहट से दूर होने के बावजूद अंटार्कटिका की पारिस्थितिकी और जीवन मानव गतिविधियों से प्रभावित रहा है। जैसे व्हेल और सील के अंधाधुंध शिकार के चलते वे लगभग विलुप्त हो गर्इं थीं। व्हेल और सील की संख्या में कमी आने की वजह से क्रिल नामक एक क्रस्टेशियन जंतु की संख्या काफी बढ़ गई थी, जो उनका भोजन है। और अब, मानव गतिविधियों चलते तेज़ी से हो रहा जलवायु परिवर्तन सीधे-सीधे अंटार्कटिका के जीवन को प्रभावित कर रहा है। इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित अध्ययन कहता है कि जलवायु परिवर्तन से पेंगुइन की दो प्रजातियां विपरीत तरह से प्रभावित हुई हैं: पेंगुइन की एक प्रजाति की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी प्रजाति विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी है।

दरअसल, लुइसिआना स्टेट युनिवर्सिटी के माइकल पोलिटो और उनके साथी अपने अध्ययन में यह देखना चाहते थे कि पिछली एक सदी में अंटार्कटिका की पारिस्थितिकी में हुए मानव हस्तक्षेप के कारण पेंगुइन के मुख्य भोजन, अंटार्कटिका क्रिल, की संख्या किस तरह प्रभावित हुई है। चूंकि मानवों ने कभी पेंगुइन का व्यावसायिक स्तर पर आखेट नहीं किया और क्रिल पेंगुइन का मुख्य भोजन हैं इसलिए उन्होंने पेंगुइन के आहार में बदलाव से क्रिल की आबादी का हिसाब लगाने का सोचा। और, चूंकि अंटार्कटिका में पिछले 50 सालों में गेन्टू पेंगुइन (पाएगोसेलिस पेपुआ) की आबादी में लगभग 6 गुना वृद्धि दिखी है और चिनस्ट्रेप पेंगुइन (पाएगोसेलिस अंटार्कटिका) की आबादी में काफी कमी दिखी है इसलिए अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने इन दोनों प्रजातियों को चुना। पिछली एक सदी के दौरान इन पेंगुइन का आहार कैसा था यह जानने के लिए अध्ययनकर्ताओं ने म्यूज़ियम में रखे पेंगुइन के पंखों में अमीनो अम्लों में नाइट्रोजन के स्थिर समस्थानिकों की मात्रा पता लगाई।

उन्होंने पाया कि शुरुआत में, 1900 के दशक में, जब क्रिल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे तो दोनों ही प्रजाति का मुख्य आहार क्रिल थे। लेकिन लगभग पिछले 50 सालों में, तेज़ी से बदलती जलवायु के चलते समुद्र जल के बढ़ते तापमान और बर्फ-आच्छादन में कमी से क्रिल की संख्या में काफी कमी हुई। तब गेन्टू पेंगुइन ने अपना आहार सिर्फ क्रिल तक सीमित ना रखकर मछली और श्रिम्प को भी आहार में शामिल कर लिया। लिहाज़ा वे फलती-फूलती रहीं। दूसरी ओर, चिनस्ट्रेप पेंगुइन ने अपने आहार में कोई परिवर्तन नहीं किया और विलुप्ति की कगार पर पहुंच गर्इं। शोधकर्ताओं का कहना है कि पेंगुइन का यह व्यवहार दर्शाता है कि विशिष्ट आहार पर निर्भर प्रजातियां जैसे चिनस्ट्रेप पेंगुइन पर्यावरणीय बदलाव के प्रभाव की चपेट में अधिक हैं और अतीत में हुए आखेट और हालिया जलवायु परिवर्तन ने अंटार्कटिक समुद्री खाद्य शृंखला को प्रभावित किया है। पिछले कुछ सालों में व्हेल और सील की आबादी में सुधार देखा गया है और यह देखना रोचक होगा कि इसका पेंगुइन की उक्त दो प्रजातियों पर कैसा असर होता है। (स्रोत फीचर्स)
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बिना भोजन के जीवित एक सूक्ष्मजीव

सिंथेटिक जीव विज्ञानियों ने हाल ही में जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से एक ऐसा जीवाणु तैयार किया है जो पेड़-पौधों की तरह हवा से कार्बन डाईऑक्साइड लेकर अपनी कोशिकाओं का निर्माण करता है। इसके आधार ऐसे सूक्ष्मजीव तैयार किए जा सकते हैं जो कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग करके दवाइयों और अन्य उपयोगी यौगिकों का निर्माण कर सकेंगे। जीव वैज्ञानिकों के अनुसार सभी जीवों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है: स्वपोषी, जो प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए अपनी कोशिकाओं का निर्माण करते हैं और परपोषी, जो बाहर से मिलने वाले भोजन के भरोसे रहते हैं।  

सिंथेटिक जीव विज्ञानी लंबे समय से ऐसे पौधे और स्वपोषी बैक्टीरिया बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो पानी और कार्बन डाईऑक्साइड की मदद से मूल्यवान रसायन और र्इंधन का उत्पादन सकें। अन्य तरीकों की अपेक्षा यह तरीका सस्ता है। अभी तक हमारी आंत में पाए जाने वाले परपोषी बैक्टीरिया ई.कोली को ही एथेनॉल और अन्य वांछित उत्पाद बनाने के लिए तैयार किया जा सका है। लेकिन इन्हें शर्करा की खुराक चाहिए।     

इस्राइल स्थित वाइज़मैन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के सिंथेटिक जीव विज्ञानी रॉन मिलो और उनके सहयोगियों ने ई. कोली को स्वपोषी में बदलने के लिए इस बैक्टीरिया के चयापचय के दो हिस्सों को फिर से तैयार किया: उसकी ऊर्जा प्राप्त करने की विधि और उसका कार्बन का स्रोत।    

शोधकर्ता सूक्ष्मजीव को प्रकाश संश्लेषण की क्षमता तो प्रदान नहीं कर पाए लेकिन वे एक ऐसे एंज़ाइम का जीन डालने में कामयाब रहे जिससे बैक्टीरिया सबसे सरल कार्बन यौगिक फॉर्मेट को पचाने में सक्षम हो गया। यह सूक्ष्मजीव इसके बाद फॉर्मेट को ATP में बदल देता है जो कोशिकाओं के लिए ऊर्जा का काम करता है। ऊर्जा के इस स्रोत के साथ सूक्ष्मजीव में तीन नए एंज़ाइम जोड़े जा सके जो कार्बन डाईऑक्साइड को शर्करा और अन्य कार्बनिक अणुओं का उत्पादन करने में समर्थ बनाते हैं। शोधकर्ताओं ने चयापचय में भूमिका निभाने वाले कई अन्य एंजाइम को नष्ट कर दिया ताकि बैक्टीरिया इस नए तरीके पर ही निर्भर हो जाए।       

हालांकि, ये परिवर्तन शुरू में कारगर नहीं रहे क्योंकि शायद बैक्टीरिया पोषक पदार्थों को अपने पुराने ढंग से इस्तेमाल कर रहा था। इसके लिए शोधकर्ताओं ने परिवर्तित ई.कोली को नियंत्रित आहार पर रखा जिसमें ज़ायलोज़ नामक शर्करा के साथ फॉर्मेट और कार्बन डाईऑक्साइड थे। इससे सूक्ष्मजीवों को कम से कम जीवित रहने और प्रजनन करने की गुंजाइश मिली।

इससे विकास की प्रक्रिया शुरू हुई। जो बैक्टीरिया कम ज़ायलोज़ में जीवित रह पाते, वे ज़्यादा विभाजन करते। शोधकर्ताओं ने ज़ायलोज़ की मात्रा में लगातार कमी की। 300 दिन और सैकड़ों पीढ़ियों के बाद ज़ायलोज़ को बिलकुल ही खत्म कर दिया गया। केवल वही बैक्टीरिया बच गए जो स्वपोषी में तबदील हुए थे। सेल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इन बैक्टीरिया ने 11 नए आनुवांशिक परिवर्तन हासिल किए जिन्होंने उन्हें स्वपोषी जीवन अपनाने में समर्थ बनाया। इससे पता चलता है कि जैव विकास कितना कारगर हो सकता है।   

पूर्व में वैज्ञानिकों ने ई.कोली को दवा वगैरह विभिन्न उपयोगी पदार्थ का उत्पादन करने में सक्षम बनाया है। यदि यही काम स्वपोषी ई.कोली से करवाया जा सके तो वे हवा और सौर उर्जा से निर्मित फॉर्मेट से एथेनॉल, दवाइयां, र्इंधन वगैरह बनाने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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5जी सेवाओं से मौसम पूर्वानुमान पर प्रभाव

हाल ही में मिस्र के शहर शर्म अल शेख में आयोजित विश्व रेडियो संचार सम्मेलन में 5जी सेवाओं से उत्सर्जित इलेक्ट्रॉनिक शोर के लिए मानक निर्धारित कर दिए गए हैं। लेकिन मौसम विज्ञानियों का कहना है कि निर्धारित मानक के बावजूद यह शोर मौसम सम्बंधी अवलोकनों को प्रभावित करेगा।

दरअसल मार्च 2019 में अमरीका के फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) ने 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन किया था, जिसके अनुसार वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्टज़ पर अपनी सेवाएं देना शुरू कर सकती थीं। लेकिन इस पर मौसम विज्ञानियों की चिंता थी कि 5जी सेवाओं के लिए इस स्पेक्ट्रम पर होने वाले प्रसारण मौसम पूर्वानुमान के काम को प्रभावित करेंगे क्योंकि आवंटित स्पेक्ट्रम मौसम सम्बंधी अवलोकन करने वाले सेंसर्स के स्पेक्ट्रम (23.6 गीगा हर्टज़) के करीब ही है और प्रसारण से होने वाला शोर सेंसर्स को प्रभावित करेगा।

उपरोक्त राष्ट्र संघ विश्व रेडियो-संचार सम्मेलन में 5जी सेवाओं के लिए प्रस्तावित 24 गीगाहर्टज़ पर होने वाले प्रसारण से उत्पन्न शोर को -33 डेसिबल वॉट (dBW) तक सीमित रखना तय किया गया है। और यह मानते हुए कि 8 साल बाद 5जी सेवाएं इतने व्यापक स्तर पर नहीं रहेगीं, 8 साल बाद प्रसारण से उत्पन्न ध्वनि को -39 dBW तक सीमित कर दिया जाएगा।

वैसे विश्व मौसम संगठन की मांग प्रसारण से उत्पन्न शोर को -55 dBW पर सीमित रखने की थी ताकि वातावरण में उपस्थित जलवाष्प स्तर सम्बंधी अवलोकन प्रभावित ना हो। लेकिन तय मानक इससे कम हैं, हालांकि ये युरोपीय सिफारिशों के अनुरूप हैं और पूर्व में FCC द्वारा तय मानक (-20 dBW) से अधिक सख्त हैं। विश्व मौसम संगठन के अध्यक्ष एरिक एलेक्स का कहना है कि जब 5जी सेवाएं पूरी तरह शुरू हो जाएंगी तो जलवाष्प संकेतों को थोड़ा कमज़ोर तो करेंगी ही (स्रोत फीचर्स)
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विष्ठा प्रत्यारोपण से मौत?

विष्ठा प्रत्यारोपण यानी किसी स्वस्थ व्यक्ति की विष्ठा में उपस्थित सूक्ष्मजीव किसी ऐसे व्यक्ति की आंतों में प्रविष्ट कराए जाते हैं जो आंतों में सूक्ष्मजीव संसार के अभाव के कारण रोगग्रस्त है। फिलहाल विष्ठा प्रत्यारोपण जैसे उपचार का सहारा उन मामलों में लिया जा रहा है जहां कोई व्यक्ति क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल के संक्रमण से त्रस्त हो, जो जानलेवा भी साबित हो सकता है। अब विष्ठा प्रत्यारोपण को सामान्य रूप से ऐसी तकलीफों के लिए भी आज़माया जा रहा है जो क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल के कारण उत्पन्न न हुई हों।

पहले किसी स्वस्थ व्यक्ति की विष्ठा में से सूक्ष्मजीवों को पृथक किया जाता है और फिर इनकी गोली/कैप्सूल बनाकर या एनिमा के माध्यम से रोगी व्यक्ति की आंतों में पहुंचाया जाता है। इस उपचार के क्लीनिकल परीक्षण के दौरान काफी सावधानी की आवश्यकता होती है। यह क्लीनिकल परीक्षण मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में किया जा रहा है। दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक इस परीक्षण में दो व्यक्ति शामिल थे और दोनों को एक ही व्यक्ति की विष्ठा प्रत्यारोपित की गई थी। जांच इस बात की हो रही थी कि लीवर के रोग के मामले में विष्ठा प्रत्यारोपण कितना कारगर हो सकता है।

प्रत्यारोपण के अंतिम चरण के आठ दिन बाद एक 73 वर्षीय मरीज़ को बुखार आ गया और ठंड लगने लगी। उसकी मानसिक हालत भी बिगड़ गई और पूरे शरीर में ऐसे लक्षण दिखने लगे जैसे उसका शरीर किसी संक्रमण से लड़ रहा हो। दो दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसके रक्त में दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया ई. कोली पाया गया।

दूसरा मरीज़ 69 वर्षीय था। वह भी इसी प्रकार की अस्वस्थता का शिकार हुआ और उसके खून में भी दवा-प्रतिरोधी ई. कोली मिला लेकिन उसके संक्रमण को दवाइयों से काबू कर लिया गया। इस क्लीनिकल परीक्षण की सुनवाई करके तय किया जाएगा कि यदि आगे बढ़ना है तो कैसे कदम उठाने होंगे। (स्रोत फीचर्स)
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खसरा का आक्रमण प्रतिरक्षा तंत्र को बिगाड़ता है

सरा एक वायरस-जन्य रोग है जो प्राय: बच्चों में होता है। बुखार, सूखी खांसी, नाक बहना, मुंह के अंदर फुंसियां और शरीर पर लाल-लाल चकत्ते इसके प्रमुख लक्षण हैं। एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग एक लाख बच्चों की मृत्यु खसरा यानी मीज़ल्स के कारण होती है।

खसरा अपने आप में तो एक घातक रोग है ही, हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि यह शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को भी तहस-नहस कर देता है। इसके चलते बच्चे अन्य रोगों के प्रति भी दुर्बल हो जाते हैं। सबसे पहले इस बात का अंदाज़ ऐसे लगा था कि किसी आबादी में खसरा के प्रकोप के बाद अन्य बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ जाता है। मामले की तह तक जाने के लिए नेदरलैंड के ऐसे बच्चों के समूह का अध्ययन किया गया जिन्हें कोई टीका नहीं लगा था। यू.के. स्थिति वेलकम सैंगर इंस्टीट्यूट की वेलिस्लावा पेट्रोवा के समूह और हारवर्ड विश्वविद्यालय के स्टीफन एलिज के समूह ने इनमें से 77 बच्चों के खून के नमूने लिए। जब इलाके में खसरा फैला तो उसके बाद फिर से इन बच्चों के खून के नमूनों की जांच की गई। जांच का मकसद यह देखना था कि उनके खून में सामान्य रोगजनक वायरसों के खिलाफ एंटीबॉडी की क्या स्थिति थी।

पता चला कि खसरा के प्रकोप से पहले सभी बच्चों में विभिन्न वायरसों के विरुद्ध एंटीबॉडी मौजूद थीं। अर्थात ये तंदुरुस्त बच्चे थे। लेकिन खसरा संक्रमण के बाद के नमूनों में एंटीबॉडी खज़ाने में से 20 प्रतिशत नष्ट हो चुका था। कुछ में तो एंटीबॉडी की क्षति 70 प्रतिशत तक देखी गई। जिन बच्चों (जिन्हें खसरा का टीका नहीं लगा था) को खसरा संक्रमण नहीं हुआ था उनमें ऐसा नहीं हुआ। जिन बच्चों को टीका लगा था, उनमें भी एंटीबॉडी को कोई नुकसान नहीं हुआ था।

इसका मतलब है कि यदि गैर-टीकाकृत बच्चे को खसरा होता है तो उसका प्रतिरक्षा तंत्र वह सब भूल जाता है जो उसने रोगजनकों से लड़ने के बारे में सीखा था। दूसरे शब्दों में बच्चा प्रतिरक्षा-विस्मृति का शिकार हो जाता है। जंतुओं पर किए गए प्रयोगों से भी पता चला है कि खसरा वायरस प्रतिरक्षा तंत्र को कमज़ोर करता है।

अध्ययन का एक ही संदेश है। आज जब खसरा का संक्रमण फिर से बढ़ रहा है तो खसरा से बचाव तथा अन्य रोगों से बचाव के लिए भी खसरा टीकाकरण अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)
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कॉफी स्वास्थ्यवर्धक है, मगर अति न करें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ह जानी-मानी बात है कि काली चाय (जो हम हिंदुस्तान पीते हैं) वह एक स्वास्थ्यवर्धक पेय है। हेल्थलाइन के 16 मई 2018 के अंक में डॉ. ए. एनलो ने एक सारगर्भित समीक्षा में इसके दस फायदे गिनाए हैं। इसी प्रकार से कॉफी के स्वास्थ्यवर्धक गुणों का विश्लेषण स्पेशलिटी मेडिकल डायलॉग्स नामक शोध पत्रिका के 28 नवंबर 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ है। इसमें डॉ. हिना ज़ाहिद लिखती हैं, “कॉफी संभवत: हमारे आहार का वह घटक है जिसका सबसे ज़्यादा अध्ययन किया गया है। इस संदर्भ में मानसिक प्रदर्शन, खेलकूद में प्रदर्शन, शरीर में तरल पदार्थों के संतुलन, टाइप-2 मधुमेह, लीवर के कामकाज, तंत्रिका विघटन विकारों, गर्भावस्था, कैंसर और ह्रदय-रक्त वाहिनी रोगों पर इसके असर को लेकर काफी शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं।” एक अनुमान के मुताबिक मेटाबोलिक सिंड्रोम (चयापचय सम्बंधी लक्षण) दुनिया भर में 1 अरब से ज़्यादा लोगों को प्रभावितकरता है। (मेटाबोलिक सिंड्रोम कुछ लक्षणों का समूह है जिसमें उच्च रक्तचाप, कमर के आसपास चर्बी जमा होना तथा असामान्य कोलेस्ट्रॉल स्तर शामिल हैं।) मेटाबोलिक सिंड्रोम होने पर ह्रदय-रक्तवाहिनी रोगों की आशंका बढ़ती है (जिनमें ह्रदयधमनी रोग तथा स्ट्रोक शामिल हैं)। इंस्टीट्यूट फॉर साइन्टिफिक इन्फॉर्मेशन ऑन कॉफी की एक रिपोर्ट में मेटोबोलिक सिंड्रोम कम करने में कॉफी की संभावित भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि “मेटा-एनालिसिस की ताज़ा रिपोर्ट से लगता है कि रोज़ाना 1-4 कप कॉफी के सेवन और मेटाबोलिक सिंड्रोम में गिरावट का सम्बंध है।”

मेटा-एनालिसिस का मतलब होता है कि एक ही विषय पर किए गए कई वैज्ञानिक अध्ययनों के परिणामों का विश्लेषण करके यह देखा जाए कि क्या ये सब एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं और यदि नहीं तो इनके निष्कर्षों में क्या अंतर हैं। इसका फायदा यह होता है कि निष्कर्ष ज़्यादा भरोसेमंद होते हैं और संदेश स्पष्ट होता है। इटली के कैटेनिया विश्वविद्यालय के डॉ. गिसेप ग्रॉसो और उनके साथियों का निष्कर्ष है कि कॉफी के सेवन से टाइप-2 मधुमेह, उच्च रक्तचाप वगैरह की आशंका कम होती है। नवारो व साथियों द्वारा किए गए एक अन्य मेटा एनालिसिस में पता चला कि कॉफी का नियमित सेवन उच्च रक्तचाप का खतरा कम करता है।

कॉफी और स्वास्थ्य के बारे में और जानने चाहते हैं, तो http://www.coffeeandhealth.org पर जाएं, जहां कॉफी के स्वास्थ्य सम्बंधी फायदों की विस्तृत चर्चा की गई है। इन सबसे तो लगता है कि कॉफी एक स्वास्थ्यवर्धक पेय है। लेकिन थोड़ी मात्रा में (3-5 कप प्रतिदिन)। ज़्यादा पिएंगे तो यह हानिकारक भी हो सकती है। मेयो क्लीनिक का मत है कि इससे ज़्यादा कॉफी का सेवन ओवरडोज़ की श्रेणी में आएगा और कैफीन के उच्च स्तर की वजह से माइग्रेननुमा सिरदर्द, अनिद्रा, बेचैनी, मांसपेशीय कंपकंपाहट और ह्रदय गति बढ़ना जैसे लक्षण उभर सकते हैं। लिहाज़ा कपों की संख्या पर नियंत्रण रखने में ही होशियारी है। गर्भवती स्त्रियों को तो कपों की संख्या पर ज़्यादा नियंत्रण रखना चाहिए। बच्चों को तो कॉफी दोनी ही नहीं चाहिए।

भारत में आगमन

कॉफी वस्तुत: इथियोपियन मूल की है। इसे जल्दी ही अरब लोगों ने अपना लिया और पेय पदार्थ के रूप में इससे चिपके रहे ताकि इमाम और अन्य श्रद्धालु लोगों चौकन्ने रहें (क्योंकि शराब उनके लिए प्रतिबंधित थी)। http://madrascouriers.com के 19 जून 2017 के इनसाइट स्तंभ में बताया गया है कि सोलहवीं सदी के सूफी संत बाबा बुदन कॉफी के कई सारे बीज अरब एकाधिकार से चोरी-छिपे निकाल लाए थे और 1670 में उन्हें मैसूर साम्राज्य के चिकमगलूर नामक स्थान पर बोया था। वैसे हो सकता है कि इससे पहले ही अरब व्यापारी कॉफी को मलाबार तट पर ला चुके थे। इस प्रकार से कॉफी कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में उगाई जाने लगी। हाल ही में इसे आंध्र प्रदेश की अरकू घाटी में उगाया जाने लगा है। इसके अलावा, उत्तर-पूर्वी भारत के राज्यों में भी कॉफी उगाई जाती है। ऐसा लगता है कि इसी तरह से कॉफी कई सदियों से प्रायद्वीपीय भारत में एक लोकप्रिय पेय बन गई।

अलबत्ता, अधिकांश दक्षिण भारतीय लोग शुद्ध कॉफी नहीं पीते, बल्कि कॉफी और चिकरी का मिश्रण पीते हैं। चिकरी एक देशी पौधा है जिसे स्पैन, यूनान और तुर्की के भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में उगाया जाता है। युरोप में यह कॉफी में मिलाने के लिहाज़ से भी और अपने आप में भी लोकप्रिय हो गया। वेबसाइट Bynemara Tales-Medium के 19 जुलाई 2017 के अंक में बताया गया है कि फ्रांस में 1880 के दशक की शुरुआत में कॉफी की कमी के चलते चिकरी का उपयोग किया जाने लगा था। उसी समय से कॉफी-चिकरी मिश्रण लोकप्रिय हो गया। डेविड कॉपरफील्ड और ए टेल ऑफ टू सिटीज़ जैसे उपन्यासों के लेखक लेखक चार्ल्स डिकेंस ने कहा है, “कॉफी में थोड़ी-सी चिकरी मिलाने से कॉफी की खुशबू नष्ट नहीं होती बल्कि खुशबू में इज़ाफा होता है, और रंगत में गाढ़ापन आता है जिसके चलते यह कई लोगों के लिए स्वागत-योग्य से भी बढ़कर हो जाती है।” यह भी एक रोचक तथ्य है कि ब्रिटिश लोगों ने ‘कैम्प कॉफी’ नामक एक पेय की शुरुआत की थी। यह पानी, शकर, 4 प्रतिशत कैफीन-रहित कॉफी का अर्क और 26 प्रतिशत चिकरी के अर्क से बना एक मिश्रण होता था। हिंदुस्तानी सिपाहियों और अन्य लोगों को यह पेय खूब भाता था। समय के साथ दक्षिण भारतीय कॉफी विभिन्न अनुपातों में कॉफी और चिकरी का एक मिश्रण बन गई – 80 प्रतिशत कॉफी-20 प्रतिशत चिकरी से लेकर 60 प्रतिशत कॉफी-40 प्रतिशत चिकरी तक। चिकरी भारत में भी गुजरात और उत्तर प्रदेश में उगाई जाती है।

दक्षिण भारत के पार

पारंपरिक रूप से दक्षिण भारतीय कॉफी चार दक्षिणी राज्यों तक सीमित रही जबकि उत्तरी भारत में चाय लोकप्रिय रही और लगभग यही एकमात्र पेय रही। चाय का उत्पादन आसाम, पश्चिम बंगाल के अलावा कुछ अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में किया जाता था। यहां की जलवायु और मिट्टी इसके लिए उपयुक्त है। अलबत्ता, हाल के वर्षों में ‘दक्षिणियों’ ने भी चाय को अपनाया है – कॉफी के विकल्प के रूप में नहीं बल्कि एक पूरक के रूप में। दूसरी ओर, ‘उत्तरियों’ ने कॉफी पीना शुरू कर दिया है। इसका कारण मूलत: मार्केटिंग में छिपा है। और कॉफी के मामले में भी पारंपरिक ‘फिल्टर कॉफी’ के अलावा आजकल कई अन्य कॉफियां मिलती हैं – एस्प्रेसो, कैपुचिनो वगैरह। ये सब पाश्चात्य आविष्कार हैं और खास तौर से शहरों में लोकप्रिय हुए हैं।

एक समय था जब ‘चाय पर चर्चा’ लोकप्रिय थी जहां हर किस्म की बातचीत, बहस, और विचारों का मेलजोल, लेन-देन हो सकता था। नए-नए राजनैतिक विचार चाय की चुस्कियों पर जन्म लिया करते थे, जैसा कि सत्यजीत राय ने अपनी मशहूर फिल्म आगंतुक में दर्शाया है। आजकल इस विचार में कॉफी शॉप (वाई-फाई कनेक्टिविटी समेत) जुड़ गई है, जिनके बारे में विज्ञापन किया जा रहा है कि ‘कॉफी के साथ बहुत कुछ हो सकता है’। लेकिन ये बीते समय के अड्डों जैसे तो कदापि नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतरिक्ष में भारत के बढ़ते कदम – ज़ाहिद खान

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो की कामयाबी की फेहरिस्त में एक और नई उपलब्धि जुड़ गई है। हाल ही में उसने अंतरिक्ष से धरती की निगरानी की क्षमता प्रदान करने वाले कार्टोसैट-3 उपग्रह का सफल प्रक्षेपण किया है। कार्टोसैट-3, कार्टोसैट शृंखला का नौवां उपग्रह है। यह उपग्रह पूर्ववर्ती कार्टोसैट-2, 2ए और 2बी के समान है। कार्टोसैट-3 तीसरी पीढ़ी का बेहद चुस्त और उन्नत उपग्रह है। यह धरती की उच्च गुणवत्ता वाली तस्वीरें लेने के साथ-साथ उसका मानचित्र तैयार करने की क्षमता रखता है। 44.4 मीटर लंबे स्वदेशी पीएसएलवी-सी 47 रॉकेट की यह 49वीं उड़ान थी, जिसने कार्टोसैट-3 के साथ-साथ अमेरिका के 13 वाणिज्यिक नैनो उपग्रहों को भी अंतरिक्ष में कामयाबी से प्रक्षेपित किया।

इस प्रक्षेपण के साथ ही इसरो अब तक तकरीबन दो दर्जन देशों के 310 उपग्रहों को अलग-अलग मिशन में सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर चुका है। अंतरिक्ष कार्यक्रम में इस बेमिसाल कामयाबी के ज़रिए हमारे वैज्ञानिकों ने एक बार फिर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है।

आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित कार्टोसैट-3 उपग्रह का वज़न 1625 किलोग्राम है। प्रक्षेपण के 17 मिनट 46 सेकंड बाद ही पीएसएलवी-सी 47 ने इस उपग्रह को पृथ्वी से 509 किलोमीटर की ऊंचाई पर सूर्य स्थैतिक कक्षा में स्थापित कर दिया। यह पांच साल तक काम करेगा।

इन उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करना आसान काम नहीं था। इसरो के सामने इस बार एक अलग ही किस्म की चुनौती थी, क्योंकि मुख्य उपग्रह कार्टोसैट-3 को एक अलग कक्षा में स्थापित करना था और बाकी उपग्रहों को अलग कक्षा में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थापित करना था।

कार्टोसैट-3 संचार और निगरानी का दोहरा काम करेगा। यह हाई रेज़ॉल्यूशन उपग्रह है जो अंतरिक्ष से पृथ्वी की स्पष्ट तस्वीरें लेने में सक्षम है जिनमें 1 फुट दूर स्थित वस्तुएं अलग-अलग दिखाई देंगी। एडॉप्टिव ऑप्टिक्स तकनीक की मौजूदगी फोटो को धुंधला होने से रोकेगी। अपनी इस खूबी के चलते यह सैन्य कार्यों के लिए बहुत उपयोगी होगा। सेना इसकी मदद से दुश्मनों पर पैनी नज़र रखेगी। यही नहीं इसकी वजह से शहरी क्षेत्रों में नियोजन, ग्रामीण क्षेत्रों में ढांचागत विकास और संसाधनों का मानचित्रण, तटवर्ती क्षेत्रों में भू-उपयोग इत्यादि कामों में मदद मिलेगी। इन्हीं विशेषताओं को देखते हुए कार्टोसैट-3 को अंतरिक्ष में भारत की आंख कहा जा रहा है।

बीते एक दशक में विज्ञान प्रौद्योगिकी व अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इसरो की कामयाबियों से भारत का सिर ऊपर उठा है। अत्याधुनिक अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में तो इसरो ने अब महारत हासिल कर ली है। चंद्रमा पर मानवरहित यान चंद्रयान-1 के सफल प्रक्षेपण, खुद का नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम, एस्ट्रोसैट, स्वदेश में बने अंतरिक्ष यान रीयूज़ेबल लॉन्च व्हीकल-टेक्नॉलॉजी डेमॉनस्ट्रेटर (आरएलवी-टीडी) से लेकर मंगलयान का सफल प्रक्षेपण इन कामयाबियों की बानगी है। संचार सेवाओं के अतिरिक्त धरती के अवलोकन एवं मौसम पूर्वानुमान समेत देश के अधिकांश मंत्रालयों एवं विभागों को अंतरिक्ष तकनीक उपलब्ध कराने के लिए अंतरिक्ष में इसरो के अनेक उपग्रह सक्रिय हैं। इसरो अपने पोलर सेटेलाइट लांच वेहिकल (पीएसएलवी-सी 47) से अब तक सिंगापुर, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे विकसित देशों समेत कई देशों के दर्जनों उपग्रहों का प्रक्षेपण कर चुका है। इस काम से इसरो को अब आमदनी भी होने लगी है। यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। आने वाले सालों में यह रफ्तार और भी बढ़ेगी। अंतरिक्ष अनुसंधान और उपग्रह प्रक्षेपण के क्षेत्र में इसरो फिलहाल कई योजनाओं पर एक साथ काम कर रहा है। अगले साल नवंबर तक चंद्रमा पर दोबारा सॉफ्ट लैंडिंग के अलावा कई उन्नत उपग्रह प्रक्षेपित किए जाएंगे। इसरो की वाणिज्यिक शाखा एंट्रिक्स कार्पोरेशन ने कई देशों के उपग्रह छोड़ने के लिए समझौता किया हुआ है।

मार्च 2020 तक इसरो 13 मिशन पूरे करेगा। इनमें छह प्रक्षेपण यान और सात उपग्रह मिशन शामिल हैं। आदित्य एल-1 सौर मिशन, छोटा उपग्रह प्रक्षेपण यान (एसएसएलवी) के साथ ही 200 टन के सेमीक्रायो इंजन पर काम शुरू होने वाला है। यही नहीं मानव को अंतरिक्ष में भेजने के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम पर भी गंभीरता से काम चल रहा है।

अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसरो ने जिस तरह से कुछ सालों में बड़ी-बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं, उससे देश की क्षमता बढ़ी है। 2013 से पहले व्यावसायिक संचार उपग्रहों का प्रक्षेपण करने में रूस, अमेरिका आदि का ही दबदबा था, लेकिन इसरो ने अब इन देशों के दबदबे को तोड़ा है। अमेरिका और रूस की अंतरिक्ष कार्यक्रमों से जुड़ी एजेंसियों नासा और रॉसकॉसमोस को लगने लगा है कि यदि भारत इसी तरह नित नई कामयाबी हासिल करता रहा, तो उनके अंतरिक्ष कारोबार पर असर पड़ेगा। जहां दूसरे देशों का उपग्रह प्रक्षेपण में भारी खर्च आता है, वहीं भारत अपने सस्ते लांच वेहिकल पीएसएलवी-सी 24 और पीएसएलवी-सी 47 के जरिए कम खर्च में ही उपग्रह प्रक्षेपित करने में सक्षम है। बाकी अंतरिक्ष एजेंसियों के मुकाबले वह 60 फीसदी कम पैसे लेता है।

एक महत्वपूर्ण बात इसरो के हक में जाती है कि उसने अभी तक जितने भी विदेशी उपग्रहों का प्रक्षेपण किया है, वे सब सफल रहे हैं। यही वजह है कि 20 देशों की 57 से ज़्यादा अंतरिक्ष एजेंसियां साल 1999 से ही उपग्रह प्रक्षेपण में इसरो की मदद ले रही हैं। मार्स ऑर्बाइटर जैसे बड़े मिशन को महज 450 करोड़ रुपए में पूरा करने वाले इसरो से अब अमेरिका भी अपने संचार उपग्रहों का प्रक्षेपण करने में सहायता ले रहा है। एक दर्जन से ज़्यादा उपग्रहों को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित करके इसरो ने अमेरिका, रूस की अंतरिक्ष एजेंसियों को बड़ी चुनौती दी है।

दुनिया में फिलवक्त तीन अरब डॉलर का अंतरिक्ष बाज़ार है, वह दिन दूर नहीं जब इसके बड़े हिस्से पर इसरो का कब्ज़ा होगा। इसरो की सफलता के पीछे यकीनन हमारे देश के वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों की विशेष दक्षता, कड़ी मेहनत और प्रतिबद्धता शामिल हैं। अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों की इस कामयाबी को देखते हुए, सरकार को भी इस क्षेत्र में अब ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निमोनिया का बढ़ता प्रभाव और नाकाफी प्रयास – मनीष श्रीवास्तव

युनिसेफ की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार निमोनिया विश्व स्तर पर एक घातक बीमारी के रूप में उभर रही है। वर्ष 2018 में दुनिया भर में हर 39 सेकंड में एक बच्चे की निमोनिया से मौत हुई है। युनिसेफ के अनुसार 2018 में 8 लाख बच्चों की मौत निमोनिया से हुई। इस मामले में प्रथम स्थान पर नाइजीरिया (1,62,000 मृत्यु) के बाद दूसरे स्थान पर भारत (1,27,000 मत्यु) और तीसरे स्थान पर पाकिस्तान (58,000 मृत्यु) है। यहां बच्चों से आशय पांच साल से कम उम्र के बच्चों से है। निमोनिया से पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे सबसे ज़्यादा ग्रस्त हुए हैं। वर्ष 2018 में वैश्विक स्तर पर जन्म के पहले महीने में 1,53,000 बच्चों की मृत्यु हुई।

इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की असमय मौत चिंता का विषय है। भारत सरकार द्वारा स्वास्थ्य जागरूकता के कार्यक्रम चलाने तथा संसाधन उपलब्ध कराने के बावजूद, सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं के क्रियान्वयन में कहीं न कहीं बड़ी समस्या है जिसे जल्द से जल्द दूर करना ज़रूरी है।

युनिसेफ की उक्त रिपोर्ट में एक महत्वपूर्ण बात यह सामने आई है कि इतने भयावह आंकड़ों के बाद भी संक्रामक रोग अनुसंधान पर विभिन्न देश केवल तीन प्रतिशत ही खर्च करते हैं।

निमोनिया एक सांस सम्बंधी बीमारी है जो फेफड़ों को प्रभावित करती है। इसमें फेफड़ों के अल्वियोली (फेफड़ों में उपस्थित वायु प्रकोष्ठ) में मवाद व पानी भर जाता है जिससे सांस लेने में कठिनाई होने लगती है जो ऑक्सीजन की कमी का कारण बन जाती है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार कुछ कारण ऐसे हैं जिनकी पूर्ति न होने पर निमोनिया जैसी घातक बीमारी का प्रभाव बढ़ता जाता है:

  • साफ पेयजल का अभाव
  • पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल का अभाव
  • घरेलू और बाह्य वायु प्रदूषण 
  • कुपोषण

भारत के एक एनजीओ सेव दी चिल्ड्रन के अनुसार भारत में हर 4 मिनट में एक बच्चे की मौत निमोनिया की वजह से होती है। इसमें कुपोषण और प्रदूषण की बड़ी भूमिका है। बच्चों की निमोनिया से मौत में घर के अंदर के प्रदूषण की 22 प्रतिशत और बाह्य प्रदूषण की 27 प्रतिशत भूमिका है। इसलिए भारत में विविध राष्ट्रीय अभियान(जैसे – एमएए, यूआईपी, आईसीडीएस) के माध्यम से सामुदायिक कार्यकर्ता आशा/एएनएम/आंगनवाड़ी के द्वारा निमोनिया से बचाव, रोकथाम और उपचार को लेकर जागरूकता लाई जाती है।

कई बार बच्चों में नाक या गले में पाया जाने वाला वायरस सांस लेने के दौरान फेफड़ों में पहुंच जाता है। इससे निमोनिया होने की संभावना बढ़ जाती है। छींक या खांसी के साथ निकली बूंदों के माध्यम से भी यह रोग फैलता है। इसलिए इस रोग के मामले में बेहद सावधानी बरतने की आवश्यकता है। मौसम बदलने, फेफड़ों में चोट लगने से भी इस रोग की आशंका बढ़ जाती है। बच्चों में निमोनिया होने के संभावित लक्षण होते हैं कि उन्हें बुखार होने के साथ सांस लेने में कठिनाई महसूस होती है, वे ठीक से खाते-पीते नहीं है, उनमें बेहोशी और अकड़न महसूस होती है। 

ग्लोबल एक्शन प्लान के अंतर्गत कुछ उपाय सुझाए गए हैं जिनका पालन कर इस रोग से बच्चों को बचा जा सकता है।

  • छह माह तक स्तनपान 
  • पोषक आहार
  • स्वच्छ पेयजल
  • घरेलू वायु प्रदूषण न हो
  • हाथ साबुन से धोना

निमोनिया का टीका 2 साल से कम उम्र के बच्चों और 65 साल से ज़्यादा उम्र के बुज़ुर्गों को अवश्य लगवाना चाहिए। 2 साल से कम उम्र के बच्चों में निमोनिया की रोकथाम के लिए PCV13 टीका लगाया जाता है। यह करीब 13 तरह के निमोनिया से बचाता है और तीन साल तक असरदार होता है। वहीं अगर 2 साल से ज़्यादा उम्र के बच्चों में टीका लगाया जाता है तो PPSV23 लगता है। यह 23 तरह के निमोनिया से रक्षा करता है। 2 साल से बड़े बच्चों में सिर्फ खास परिस्थितियों में ही यह टीका लगाया जाता है। जैसे अगर बच्चे को कैंसर हो या लीवर या दिल की बीमारी वगैरह हो।

युनिसेफ ने रिपोर्ट में कहा है कि देश यह भूल गए हैं कि निमोनिया एक महामारी है। इसलिए युनिसेफ के साथ अन्य स्वास्थ्य और बाल संगठनों ने इस बीमारी के प्रति जागरूकता लाने के लिए वैश्विक कार्रवाई की अपील की है। सन 2020 के जनवरी माह में स्पेन में ‘ग्लोबल फोरम ऑन चाइल्डहुड निमोनिया’ विषय पर मंथन होगा, जिसमें दुनिया भर के प्रतिनिधि शामिल होंगे।

निमोनिया की रोकथाम और इसके प्रति जन जागरूकता लाने के लिए हर वर्ष 12 नवंबर को विश्व निमोनिया दिवस मनाया जाता है। वैश्विक संगठन, सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं तथा रिसर्च अकादमियों ने मिलकर इस दिन को विश्व निमोनिया दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत सन 2009 में की थी। इसमें यह लक्ष्य रखा गया था कि हर देश में इस दिन निमोनिया को लेकर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। लोगों को इसके उपचार और रोकथाम के उपाए बताए जाएंगे। सन 2013 में वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन और युनिसेफ ने संयुक्त रूप से एक ग्लोबल एक्शन प्लान तैयार किया था जिसका लक्ष्य है कि सन 2025 तक प्रत्येक 1000 बच्चे के जन्म होने पर इस बीमारी से मरने वाले बच्चों की संख्या तीन से कम की जा सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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