अंतरिक्ष यात्रा के दौरान शरीर में बदलाव – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

दुनिया के पहले अंतरिक्ष यात्री यूरी गागरिन थे, उन्होंने 12 अप्रैल 1961 को पृथ्वी का एक चक्कर पूरा किया था। इस से भड़ककर यू.एस. ने ‘प्रोजेक्ट अपोलो’ लॉन्च किया था जिसके तहत पहली बार मनुष्य चांद पर उतरा था। चंद्रमा से वापस धरती पर आने के बाद आर्मस्ट्रॉन्ग ने कहा था कि “मनुष्य का एक छोटा कदम मानवजाति के लिए बड़ी छलांग है।” उसके बाद से अब तक 37 देशों के लगभग 536 लोग अंतरिक्ष की यात्रा कर चुके हैं। और आज यदि आपके पास पर्याप्त पैसा और जज़्बा है तो दुनिया की कम-से-कम चार कंपनियां आपको अंतरिक्ष की सैर करवाने की पेशकश कर रही हैं।

लेकिन अंतरिक्ष यात्रा मानव शरीर पर क्या प्रभाव डालती है- इस दौरान शरीर के रसायन शास्त्र, शरीर क्रियाओं, जीव विज्ञान और उससे जुड़ी चिकित्सीय परिस्थितियां कैसे प्रभावित होती हैं। मसलन, मंगल से पृथ्वी की दूरी औसतन 5 करोड़ 70 लाख किलोमीटर है और वहां पहुंचने में लगभग 300 दिन लगते है। तो इस एक साल की यात्रा के दौरान शरीर में क्या-क्या बदलाव होंगे? इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए नासा ने अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर में होने वाले परिवर्तनों को जानने के लिए एक प्रयोग किया था जिसमें एक अंतरिक्ष यात्री को पृथ्वी से 400 किलोमीटर दूर स्थित इंटनेशनल स्पेस स्टेशन (आइएसए) में रखा गया।

इस अध्ययन में अंतरिक्ष यात्री स्कॉट केली को एक साल तक अंतरिक्ष स्टेशन में रखा गया और इस दौरान उनकी कई जीव वैज्ञानिक पैमानों पर जांच की गई। अंतरिक्ष यात्रा के कारण होने वाले प्रभावों की पुष्टि के लिए कंट्रोल के तौर पर स्कॉट के आइडेंटिकल जुड़वां भाई मार्क केली पृथ्वी पर ही रुके थे। इस दौरान मार्क की भी उन्हीं पैमानों पर जांच की गई। इस अध्ययन में कंट्रोल रखना एक बेहतरीन योजना है, क्योंकि स्कॉट में आए बदलाव अंतरिक्ष यात्रा का ही प्रभाव है इसकी पुष्टि मार्क के साथ तुलना करके की जा सकती है।

अंतरिक्ष के कौन से कारक शरीर को प्रभावित करते हैं। शरीर को प्रभावित करने वाले कारकों में से एक कारक है अंतरिक्ष का शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रो ग्रेविटी। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के कारण भारहीनता का एहसास होता है, जो शरीर को प्रभावित करता है। पृथ्वी पर हमें सीधा या तनकर खड़े होने में गुरुत्वाकर्षण मदद करता है। खड़े होने या चलने की स्थिति में हमारे शरीर में रक्त या अन्य तरल का प्रवाह नीचे की ओर होता है (शरीर में मौजूद पंप और वाल्व, इस नैसर्गिक प्रवाह के विपरीत, इन तरल पदार्थों का पूरे शरीर में संचार करते हैं)। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के कारण शरीर का तरल या रक्त संचार प्रभावित होता है। डॉ. लॉबरिच और डॉ. जेग्गो साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने पेपर में बताते हैं कि पृथ्वी पर जीवन ने पृथ्वी की सतह पर लगने वाले गुरुत्वाकर्षण के अनुरूप आकार लिया है, और लगभग सभी शारीरिक क्रियाएं इसके अनुकूल ढली हैं। तो शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रो ग्रेविटी उन्हें कैसे प्रभावित करेगी।

अंतरिक्ष में शरीर को प्रभावित करने वाला दूसरा कारक है आयनीकारक विकिरण से संपर्क। आयनीकारक विकिरण ब्राहृांडीय किरणों तथा सौर किरणों जैसे रुाोत से निकलती हैं। यह विकिरण अंतरिक्ष यात्रियों पर प्रभाव डालता है। पृथ्वी पर मौजूद वायुमंडल और पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र इस विकिरण से हमारी सुरक्षा करता है। यानी अध्ययन के दौरान अंतरिक्ष स्टेशन निवासी स्कॉट पृथ्वी पर रुके मार्क की तुलना में आयनीकारक किरणों के संपर्क में अधिक आए थे।

जुड़वां भाइयों के इस अध्ययन में उनके शरीर में हुए रसायनिक, भौतिक और जैव-रासायनिक बदलावों की विस्तारपूर्वक तुलना फ्रेंसिन गेरेट, बैकलमेन और उनके साथियों द्वारा की गई। उन्होंने अंतरिक्ष यात्रा से पहले, यात्रा के दौरान, यात्रा से वापसी के तुरंत और 6 महीने बाद स्कॉट में संज्ञान सम्बंधी, शारीरिक, जैव-रासायनिक परिवर्तनों, सूक्ष्मजीव विज्ञान और जीन के व्यवहार और टेलोमेयर (क्रोमोसोम के सिरों वाले खंड) का अध्ययन किया। साथ ही साथ यही अध्ययन पृथ्वी पर रुके मार्क के साथ भी किए गए। उनका यह अध्ययन 25 महीने तक चला।

अध्ययन के नतीजे क्या रहे? अध्ययन में उन्होंने पाया कि अंतरिक्ष यात्रा के दौरान शरीर की कुछ जैविक प्रक्रियाएं जैसे प्रतिरक्षा प्रणाली (टी-कोशिकाएं), शरीर का द्रव्यमान, आंत में मौजूद सूक्ष्मजीव वगैरह कम प्रभावित हुए थे। कुछ अन्य प्रक्रियाएं जैसे रक्त प्रवाह मध्यम स्तर तक प्रभावित हुए थे। लेकिन अंतरिक्ष यात्रा के दौरान टेलोमेयर गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे; स्कॉट के टेलोमेयर छोटे हो गए थे। इससे लगता है कि आयनीकारक किरणों ने स्कॉट को प्रभावित किया था। शून्य गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के कारण रक्त और ऊतकों का तरल ऊपरी हिस्सों में पहुंच गया था, कैरोटिड (गर्दन में मौजूद धमनी) की दीवार मोटी हो गई थी जिसके परिणाम-स्वरूप ह्मदय और मस्तिष्क की रक्त वाहिनियों में बदलाव हुए थे। साथ ही स्कॉट में रेटिना के इर्द-गिर्द रक्त प्रवाह और कोरोइड का मोटा होना देखा गया था, जिसके कारण नज़र हल्की धुंधली पड़ गई थी।

वापसी पर सामान्य स्थिति

वैज्ञानिक अंतरिक्ष यात्रा से वापसी के बाद भी स्कॉट की जांच करते रहे थे। उन्होंने पाया कि स्कॉट में जो बदलाव अंतरिक्ष यात्रा के दौरान आए थे, पृथ्वी पर लौटने के बाद वे सामान्य स्थिति में लौट आए थे। हमें इस तरह के और भी अध्ययनों की ज़रूरत है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि लंबी अंतरिक्ष यात्रा जैविक और शारीरिक रूप से किस तरह प्रभावित करती है क्योंकि जितनी लंबी अंतरिक्ष यात्रा होगी प्रभाव भी उतना अधिक होगा। इसके अलावा अंतरिक्ष यात्रा से वापसी के बाद सामान्य अवस्था में लौटने में भी अधिक वक्त लगेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आवाज़ सुनकर चेहरे की डिजिटल तस्वीर

मात्र आवाज़ सुनकर (जैसे फोन पर) किसी व्यक्ति की शक्ल सूरत की छवि बनाने की कोशिश हम सभी करते हैं, और अक्सर वह छवि वास्तविकता से मेल नहीं खाती। अब यही काम कंप्यूटर यानी कृत्रिम बुद्धि (एआई) से करवाने की कोशिश की गई है।

स्पीच-2-फेस, एक ऐसा कंप्यूटर है जो मानव मस्तिष्क के समान सोचता है। वैज्ञानिकों ने इस कंप्यूटर को इंटरनेट पर उपलब्ध लाखों वीडियो क्लिप्स दिखाकर प्रशिक्षित किया है।

इस डैटा की मदद से स्पीच-2-फेस ने ध्वनि संकेतों (यानी बोली गई बातों से मिल रहे संकेतों) और चेहरे के कुछ गुणधर्मों के बीच सम्बंध बनाना सीखा। इसके बाद कंप्यूटर ने ऑडियो क्लिप को सुनकर यह अनुमान लगाने की कोशिश की कि उस आवाज़ के पीछे शक्ल कैसी होगी और एक चेहरे का मॉडल तैयार किया।

शुक्र है कि अभी तक कृत्रिम बुद्धि यह तो पता नहीं लगा पाई है कि किसी व्यक्ति की आवाज़ के हिसाब से वो ठीक-ठीक कैसा दिखता होगा। आर्काइव्स नामक शोध पत्रिका में बताया गया है कि उक्त कंप्यूटर ने कुछ लक्षणों को चिंहित किया है जो व्यक्ति के लिंग, उम्र और धर्म व भाषा सम्बंधी सुराग देते हैं। अध्ययन के अनुसार स्पीच-2-फेस द्वारा निर्मित चेहरे तटस्थ भाव वाले थे और सम्बंधित व्यक्ति के चेहरे से मेल नहीं खाते थे। अलबत्ता, इन चित्रों से किसी व्यक्ति की लगभग आयु, जातीयता और लिंग की पहचान की जा सकती है।

वैसे, स्पीच-2-फेस बोलने वाले की भाषा को उसका चित्रण करने का प्रमुख आधार बनाता है। उदाहरण के लिए जब कंप्यूटर ने चीनी भाषा बोलते एशियाई व्यक्ति का ऑडियो सुना तो उसने एक एशियाई दिखने वाले आदमी का चित्र बनाया। लेकिन जब उसी आदमी ने एक अलग ऑडियो क्लिप में अंग्रेज़ी भाषा का उपयोग किया तो कंप्यूटर ने एक गोरे आदमी का चित्र पेश कर दिया।

इस मॉडल में लिंग पूर्वाग्रह भी देखने को मिला। कंप्यूटर ने मोटी आवाज़ों (कम तारत्व) को पुरुष चेहरे के साथ जोड़ा और पतली आवाज़ों (उच्च तारत्व) को महिला के चेहरे के साथ। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह कृत्रिम बुद्धि प्रोग्राम आवाज़ों और उनसे सम्बद्ध चेहरों का एक औसत चित्रण ही कर पाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बेसल समझौते में प्लास्टिक को शामिल किया गया – नवनीत कुमार गुप्ता

प्लास्टिक आज पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा संकट है। प्लास्टिक प्राकृतिक रूप से सड़ता नहीं है। इस कारण यह तेज़ी से पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है। इंसान प्लास्टिक कचरे का समुचित निपटारा नहीं कर पा रहा है। ज़्यादातर प्लास्टिक कचरा समुद्रों में फेंक दिया जाता है जहां यह समुद्री जीवों के लिए भी संकट बनता जा रहा है। आज समुद्रों में 10 करोड़ टन प्लास्टिक मौजूद है।

अब प्लास्टिक कचरा उन्मूलन की दिशा में भारत, न्यूज़ीलैंड, ब्रााज़ील और कज़ाकिस्तान समेत दुनिया के 187 देशों की सरकारें बेसल समझौते में संशोधन करने पर सहमत हो गई हैं।

बेसल समझौता विषैले पदार्थों और कचरे को दूसरे देशों में भेजने से जुड़ा अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसका उद्देश्य विभिन्न देशों के बीच विषैले पदार्थों का आवागमन कम करना है। समझौते में विशेषकर विकसित देशों से विषैले पदार्थों को विकासशील देशों में भेजने पर रोक लगाई गई है। ताज़ा संशोधन के बाद विषैले पदार्थों की सूची में प्लास्टिक को भी शामिल किया गया है। इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्लास्टिक कचरे का व्यापार ज़्यादा पारदर्शी होगा और इंसानों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को साफ रखने की दृष्टि से इसका बेहतर प्रबंधन होगा।

अमेरिका प्लास्टिक का सबसे ज़्यादा उत्पादन करने वाले देशों में एक है, लेकिन दुर्भाग्यवश वह इस संधि में शामिल नहीं है। प्लास्टिक कचरे की रोकथाम लागू करने में मदद के लिए व्यापार, सरकारों, अकादमिक जगत और नागरिक समुदाय के संसाधनों से जुड़ा एक नया सहयोग शुरू किया गया है।

इसके अलावा, विषैले पदार्थों की सूची में दो नए रसायन समूह जोड़े गए हैं: डिकोफॉल और परफ्लोरोऑक्टेनोइक एसिड। इन दो समूहों के लगभग 4000 रसायन संधि में शामिल किए गए हैं। इनमें कुछ रसायन फिलहाल औद्योगिक और घरेलू उत्पादों में भारी मात्रा में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। जैसे नॉन-स्टिक बर्तन और खाद्य प्रसंस्करण उपकरण। टेक्सटाइल, कालीन, कागज़, पेंट और अग्निशामक फोम तैयार करने में भी इन रसायनों का खूब इस्तेमाल होता है।

सालों से लाखों टन प्लास्टिक कचरा विकासशील देशों में जमा कर दिया गया है। अब तक जिन देशों में बाहर से प्लास्टिक आता था, अब वे इसके आयात पर रोक लगा सकते हैं। इससे मजबूर होकर निर्यात करने वाले देश साफ और रिसायकल करने लायक प्लास्टिक का इस्तेमाल करेंगे। कचरे का वातावरण के अनुकूल प्रबंधन करना दीर्घकालीन विकास के लिए ज़रूरी है। दूसरी ओर, आर्थिक विकास के साथ-साथ कचरे का उत्पादन भी बढ़ रहा है। उचित प्रबंधन के अभाव में इसका असर इंसानों की सेहत और पर्यावरण पर पड़ रहा है। अब 187 देशों की सहमति से तैयार कानून पर्यावरण के संरक्षण में मदद करेगा। ये संधि प्लास्टिक कचरे पर रोक लगाने और उसके असंतुलित वितरण पर नियंत्रण रखने में मददगार साबित होगी और प्लास्टिक कचरे का उचित प्रबंधन सुनिश्चित करेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आयुष अनुसंधान पर मंत्रालय का अवैज्ञानिक दृष्टिकोण – लखोटिया, पटवर्धन, रस्तोगी

आयुष मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी एक परामर्श पत्र की पड़ताल जिसमें आयुर्वेद पर किसी भी अध्ययन में आयुष विशेषज्ञों को शामिल करने का निर्देश दिया गया है।

 

आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी (आयुष) मंत्रालय द्वारा दिनांक 2 अप्रैल 2019 को जारी एक परामर्श पत्र (एडवायज़री) में “गैर-आयुष वैज्ञानिकों/शोधकर्ताओं द्वारा आयुष औषधियों और उपचारों को लेकर बेबुनियाद वक्तव्यों तथा निष्कर्षों वाले शोध पत्रों के प्रकाशन तथा वैज्ञानिक अध्ययनों, जो पूरी प्रणाली की वि·ासनीयता और शुचिता को नुकसान पहुंचाते हैं,” पर चिंता व्यक्त की गई है क्योंकि “इन शोध पत्रों व अध्ययनों में योग्यता प्राप्त आयुष विशेषज्ञों को शामिल नहीं किया गया या उनसे परामर्श नहीं किया गया।”

परामर्श पत्र में आगे कहा गया है कि “सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में आयुष की संभावना और विस्तार को खतरे में नहीं डाला जा सकता है। साथ ही आयुष से सम्बंधित वैज्ञानिक अध्ययन और अनुसंधान में मनमाने बयानों तथा बेबुनियाद निष्कर्षों से जनता को आयुष का उपयोग करने से विमुख नहीं किया जा सकता है।” इसलिए परामर्श पत्र में कहा गया है कि “सभी गैर-आयुष शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों, संस्थानों और चिकित्सा/वैज्ञानिक पत्रिकाओं के संपादकों को सलाह दी जाती है कि वे किसी भी आयुष औषधि या उपचार का आकलन करने हेतु किए गए वैज्ञानिक अध्ययन/नैदानिक परीक्षण/अनुसंधान हस्तक्षेप के संचालन के लिए या ऐसे परीक्षणों के परिणामों के पुनरीक्षण हेतु उपयुक्त आयुष विशेषज्ञ/संस्थान/अनुसंधान परिषद को शामिल करें ताकि आयुष के बारे में गलत, मनमाने और अस्पष्ट बयानों एवं निष्कर्षों से बचा जा सके।” 

हालांकि हम आयुष मंत्रालय की इस चिंता से पूरी तरह सहमत हैं कि कुछ शोध प्रकाशनों में प्रस्तुत निराधार, एकतरफा और दोटूक निष्कर्षों के कारण पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों की छवि को क्षति पहुंचना संभव है, लेकिन हमारा मानना है कि इन्हें रोकने के लिए इस परामर्श पत्र में अनुशंसित व्यवस्था उपयुक्त नहीं है।

परामर्श पत्र में आग्रह किया गया है कि इसकी अनुशंसाओं पर “सम्बंधित शोधकर्ता/वैज्ञानिक/जांचकर्ता” ध्यान दें और इनका पालन करें, लेकिन देखा जाए, तो इनका अनुपालन और क्रियांवयन लगभग असंभव है। अलबत्ता, इस परामर्श अधिक गंभीर और चिंताजनक अर्थ यह है कि इस तरह के कदमों से न केवल इन पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में आवश्यक निष्पक्ष शोध पर अंकुश लगेगा, बल्कि सोचने की स्वतंत्रता पर भी काफी असर पड़ेगा। निष्पक्ष शोध और सोचने की स्वतंत्रता, ये दोनों ही किसी भी क्षेत्र में हमारी समझ में सुधार के लिए बुनियादी ज़रूरतें हैं। 

हमारा मानना है कि आयुर्वेद सहित विभिन्न पारंपरिक भारतीय स्वास्थ्य प्रणालियों की प्रतिष्ठा में कमी का वास्तविक कारण निम्न-गुणवत्ता वाली शोध पत्रिकाओं का तेज़ी से उभरना है। ये पत्रिकाएं खुद आयुष ‘विशेषज्ञों’ द्वारा किए गए घटिया गुणवत्ता के शोध को प्रकाशित करती रहती हैं। यह निम्न गुणवत्ता का शोध कुकुरमुत्तों की तरह तेज़ी से पनपते कॉलेजों और वि·ाविद्यालयों में किए जा रहे स्नातकोत्तर/पीएचडी शोध ग्रंथों में अप्रामाणिक डेटा को शामिल करने का परिणाम है। यह बात भी किसी छुपी नहीं है कि इनमें से कई आयुष कॉलेज ‘छद्म’ रोगियों, शिक्षकों और यहां तक कि फजऱ्ी छात्रों के माध्यम से अपनी मान्यता बनाए रखे हैं। ज़ाहिर  है, ऐसे संस्थानों में किया गया छद्म शोध न केवल आयुष को बदनाम करता है, बल्कि एक ऐसा कार्य-बल तैयार करता है जो इन प्रणालियों को नुकसान पहुंचा सकता है।

अप्रामाणिक व संदिग्ध फार्मेसियों द्वारा खराब गुणवत्ता वाली औषधियों का विपणन भी आयुष को बदनाम कर रहा है। पारंपरिक विचारों से पूरी तरह सहमत न होने वाले अध्ययनों पर प्रतिबंध और ऐसे शोध और आवाज़ों को दबाने की बजाय मंत्रालय की वास्तविक चिंता इन मुद्दों पर होनी चाहिए।

यह भी संभव है कि ऐसे गैर-आयुष शोधकर्ता मौजूद हैं जो घटिया अनुसंधान करके प्रकाशित करते हैं। हालांकि, जैसे अच्छे और गुणवत्ता के प्रति सजग आयुष शोधकर्ता होते हैं, वैसे ही गैर-आयुष शोधकर्ता भी हैं जिन्होंने इन उपचारों की क्रियाविधियों और सिद्धांतों को समझने में सकारात्मक और महत्वपूर्ण योगदान दिया है और दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, कार्बनिक रसायन विज्ञानी आसीमा चटर्जी, टी. टी. गोविंदाचारी और अन्य द्वारा आयुर्वेद में प्रयुक्त हर्बल उत्पादों के रसायन शास्त्र के क्षेत्र में अग्रणी और व्यापक योगदान जाना-माना है। इसी तरह, कई प्रकार के हर्बल और आयुर्वेदिक औषधि मिश्रणों की क्रियाविधियों पर किए गए बुनियादी वैज्ञानिक अध्ययनों ने उनकी जैविक क्रियाविधियों को उजागर करके नए एवं प्रभावी चिकित्सीय अनुप्रयोग के रास्ते खोले हैं। ऐसे कई अध्ययनों ने हर्बल और आधुनिक दवाइयों के बीच सकारात्मक और नकारात्मक अंतर्क्रियाओं को समझने में मदद दी है। कुछ जीनोमिक और आणविक जीव विज्ञानियों ने आयुर्वेद की त्रिदोष/प्रकृति जैसी अवधारणाओं को वर्तमान जीव विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ये गैर-आयुष शोधकर्ताओं के योगदान के कुछ चंद उदाहरण भर हैं, जो वास्तव में आयुष को समृद्ध बना रहे हैं।

यह कहना ठीक नहीं होगा कि समकालीन संदर्भों में बगैर प्रमाणित किए, प्राचीन ज्ञान और तौर-तरीकों को सिर्फ इसलिए बगैर सोचे-समझे स्वीकार कर लिया जाए कि वे पारंपरिक हैं। आयुष प्रथाओं और नुस्खों को प्रमाणों की बुनियाद मिलना आवश्यक है। शोध चाहे आयुष शोधकर्ताओं द्वारा किया जाए या गैर-आयुष शोधकर्ताओं द्वारा, यदि वह परंपरागत रूप से मान्य वि·ाासों पर सवाल उठाता है और ऐसे व्यवस्थित प्रमाण उपलब्ध कराता है जो उनकी तार्किकता को चुनौती दें, तो इसे प्राचीन ज्ञान का ‘अपमान’ न समझकर गंभीरता से लेना चाहिए। बुद्धि और सामाजिक व्यवस्था केवल उस ज्ञान और समझ के साथ आगे बढ़ती है जो हमारे पूर्वजों के ज्ञान और समझ से भी आगे ले जाए।

यदि इस परामर्श पत्र को गंभीरता से लिया गया, तो यह केवल एक ही विचार को पनपने देगा और उन सभी लोगों को अपने विचार रखने से रोकेगा जो इससे असहमत हैं। एक अच्छा विज्ञान बाहरी सत्यापन के लिए सदैव खुला रहना चाहिए। वास्तव में, सारे दरवाज़े बंद करने की व्यवस्था, जिसमें सिर्फ सहमत लोग हों, अपनाने की बजाय, निष्पक्ष बहु-विषयी अनुसंधान को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। बंद दरवाज़ा व्यवस्था आयुष के लिए खतरनाक साबित होगी। कल्पना कीजिए, अगर जीव विज्ञान के शोधकर्ताओं ने बीसवीं सदी में श्रोडिंजर, डेलब्राुक, पौलिंग, क्रिक, रोसलिंड फ्रेंंकलिन, बेन्ज़र जैसे गैर-जीव वैज्ञानिकों को जीव विज्ञान में कार्य न करने देने का फैसला किया होता, तो आज जीव विज्ञान या आधुनिक विज्ञान कहां होता?

आयुष को अन्य शोधकर्ताओं से केवल समर्थक साक्ष्य की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। यदि हम अलग-अलग राय रखते हैं, तो बहस को आगे बढ़ाने और तर्क-वितर्क के लिए अकादमिक मंच और पत्रिकाएं मौजूद हैं। यह समझना चाहिए कि आयुष और गैर-आयुष शोधकर्ताओं के जो शोध-परिणाम आयुर्वेद और अन्य पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों को समर्पित अच्छी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं, वे अच्छी सहकर्मी-समीक्षा प्रणाली से गुज़रे होंगे और इस प्रकार वे वास्तव में पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणाली के विकास में योगदान दे रहे हैं। संपादकों से यह कहना कि शोध पत्र में एक लेखक के रूप में आयुष विशेषज्ञ को अनिवार्य रूप से शामिल करें, न केवल शोधकर्ताओं की स्वायत्तता के खिलाफ है, बल्कि ऐसे  ‘विज्ञान प्रकाशन’ की प्रतिष्ठा के लिए काफी अपमानजनक भी है जहां प्रकाशन से पूर्व लेखक की औपचारिक शैक्षणिक योग्यता की बजाय सिर्फ यह देखा जाता है कि शोध पत्र में व्यक्त विज्ञान अच्छी गुणवत्ता का है या नहीं। उक्त परामर्श पत्र संभावित रूप से आयुष और गैर-आयुष विशेषज्ञों के बीच गलतफहमी पैदा कर सकता है। क्लीनिकल ट्रायल सम्बंधी अनुसंधान में आयुष विशेषज्ञों को शामिल करना वांछनीय होगा, लेकिन प्रयोगशाला में और/या जंतु अध्ययनों में आयुष प्रभाविता की जांच करने वाले सभी अध्ययनों में यह अनिवार्य नहीं किया जा सकता। जैसे भी हो, आयुष विशेषज्ञ मॉनिटर या वॉचडॉग नहीं बल्कि सहयोगी होंगे। 

आयुष मंत्रालय और आयुर्वेद चिकित्सकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि एक दशक से थोड़ा अधिक समय पहले शुरू किए गए ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान’ मिशन के अंतर्गत विभिन्न शोधकर्ताओं ने आयुर्वेद में उल्लेखनीय योगदान दिया है। आयुर्वेदिक जीव विज्ञान के उत्प्रेरक, मूलत: एक ह्मदय शल्य चिकित्सक और नवाचारकर्ता एम.एस. वालियाथन की टिप्पणी है, “इस समय कोई ऐसा सामान्य धरातल नहीं है जहां भौतिक विज्ञानी, रसायनज्ञ, प्रतिरक्षा विज्ञानी और आणविक जीव विज्ञानी आयुर्वेदिक चिकित्सकों के साथ बातचीत कर सकें। भारत में आयुर्वेद केवल चिकित्सा विज्ञान की ही नहीं, सारे जीव विज्ञानों की जननी है। इसके बावजूद, विज्ञान आयुर्वेद से पूरी तरह अलग हो चुका है।” ज़ाहिर है, पारंपरिक और आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों का एकीकरण हासिल करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के शोधकर्ताओं की स्वतंत्र और निष्पक्ष भागीदारी तथा सचमुच के अंतर-विषयी अध्ययनों की आवश्यकता है। ऐसा एकीकरण ही मानव समाज को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर सकेगा।

हमारा मानना है कि आयुष मंत्रालय के लिए सही दृष्टिकोण यह होगा कि वह पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणालियों के क्षेत्र में खराब गुणवत्ता वाली शोध पत्रिकाओं पर रोक लगाए बनिस्बत इसके कि विभिन्न विषयों के उन शोधकर्ताओं पर रोक लगाए जो वास्तव में आयुर्वेदिक सिद्धांतों और कामकाज का सत्यापन आधुनिक वैज्ञानिक गहनता के तहत कर सकते हैं जो आय़ुर्वेद के लिए ज़रूरी है। आयुष की प्रामाणिकता को बढ़ावा देने के लिए, एक ऐसी प्रणाली विकसित करनी होगी जो मज़बूत वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित हो। आयुष मंत्रालय विभिन्न आयुष महाविद्यालयों और उनके शैक्षणिक कार्यक्रमों में शिक्षण और अनुसंधान के उच्च मानक स्थापित करके इसको बढ़ावा दे सकता है। आगे की सोच और आगे बढ़ना आयुष के लिए लाभदायक होगा। (स्रोत फीचर्स)

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स्मार्टफोन के उपयोग से खोपड़ी में परिवर्तन

हमारी खोपड़ी में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है और कई चिकित्सकों का मत है कि यह परिवर्तन कई घंटों तक गर्दन झुकाकर स्मार्टफोन के उपयोग की वजह से हो रहा है। वैसे तो कुछ लोगों में गर्दन के ऊपर खोपड़ी के निचले हिस्से की हड्डी थोड़ी उभरी होती है। इसे बाहरी पश्चकपाल गूमड़ कहते हैं। मगर हाल के कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि सामान्य से ज़्यादा लोगों में, विशेष रूप से युवाओं में, यह गूमड़ कुछ ज़्यादा ही उभरने लगा है।

20 वर्षों से चिकित्सक रहे यूनिवर्सिटी ऑफ दी सनशाइन कोस्ट, ऑस्ट्रेलिया के स्वास्थ्य वैज्ञानिक डेविड शाहर के अनुसार उनको पिछले एक दशक में इस तरह के बदलाव देखने को मिले हैं। इसके कारण की स्पष्ट पहचान तो नहीं हो सकी है, लेकिन इस बात की संभावना है कि स्मार्ट उपकरणों को देखने के लिए असहज कोणों पर गर्दन को झुकाने से इस खोपड़ी के पिछले भाग की हड्डी बढ़ रही है। लंबे समय तक सर को झुकाकर रखने से गर्दन पर भारी तनाव पड़ता है। इसको कई बार ‘पढ़ाकू गर्दन’ (टेक्स्ट नेक) के नाम से भी जाना जाता है।

शाहर के  अनुसार पढ़ाकू गर्दन की वजह से गर्दन और खोपड़ी से जुड़ी मांसपेशियों पर दबाव बढ़ता है जिसके  जवाब में खोपड़ी के पिछले भाग (पश्चकपाल) की हड्डी बढ़ने लगती है। यह हड्डी सिर के वज़न को एक बड़े क्षेत्र में वितरित कर देती है।

वर्ष 2016 में शाहर और उनके सहयोगियों ने इस गूमड़ का अध्ययन करने के  लिए 18 से 30 वर्ष की आयु के 218 युवा रोगियों के रेडियोग्राफ देखे। एक सामान्य नियमित उभार 5 मि.मी. माना गया और 10 मि.मी. से बड़े उभार को बढ़ा हुआ माना गया।

कुल मिलाकर समूह के 41 प्रतिशत लोगों में उभार बढ़ा हुआ निकला और 10 प्रतिशत में उभार 20 मि.मी. से बड़ा पाया गया। सामान्य तौर पर, महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में यह उभार अधिक देखा गया। सबसे बड़ा उभार एक पुरुष में 35.7 मि.मी. का था।

18 से 86 वर्ष के 1200 लोगों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि यह समस्या कम उम्र के लोगों में अधिक दिखती है। जहां पूरे समूह के 33 प्रतिशत लोगों में बढ़ा हुआ उभार देखा गया, वहीं 18-30 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में यह स्थिति 40 प्रतिशत से अधिक में पाई गई। यह परिणाम चिंताजनक है क्योंकि आम तौर पर इस तरह की विकृतियां उम्र के साथ बढ़ती हैं मगर हो रहा है उसका एकदम उल्टा।

शाहर का मानना है कि इस हड्डी की यह हालत बनी रहेगी हालांकि यह स्वास्थ्य की समस्या शायद न बने। बहरहाल, यदि आपको इसके कारण असुविधा हो रही है तो अपने उठने-बैठने के ढंग में परिवर्तन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

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शुक्र का एक दिन – एस. अनंतनारायणन

शुक्र ग्रह (जिसे कई बार शुक्र तारा भी कह देते हैं) अपनी धुरी पर बहुत धीमे-धीमे घूमता है। पृथ्वी जितने समय में अपनी धुरी पर 243 बार घूम जाती है, उतने समय में शुक्र मात्र एक चक्कर पूरा कर पाता है। यानी पृथ्वी के 243 दिन शुक्र के एक दिन के बराबर होते हैं। धुरी पर चक्कर लगाने को घूर्णन कहते हैं। पता यह चला है कि हाल के अवलोकनों में घूर्णन के इस समय में वृद्धि हुई है। पृथ्वी के बारे में प्रमाण हैं कि उसकी घूर्णन गति बदलती तो है मगर सहस्राब्दियों में बदलती है। लेकिन शुक्र का दिन पिछले मात्र 16 सालों में 6.5 मिनट लंबा हो गया है।

लॉस एंजेल्स स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के थॉमस नवारो, जेराल्ड श्यूबर्ट और सेबेस्शियन लेबोनिस तथा पेरिस के सोर्बोन ने नेचर जियोसाइन्स पत्रिका में शुक्र ग्रह के वातावरण की अपनी अनुकृति का विवरण प्रस्तुत किया है। इससे पता चल सकता है कि शुक्र के घने वायुमंडल में गड़बड़ी उसके घूर्णन को प्रभावित करेगी। इस अनुकृति में एक सौर दिवस की लंबाई में 2 मिनट तक की घट-बढ़ की गुंजाइश है। जो अनुकृति बनाई गई है वह एक असाधारण संरचना के प्रस्तुतीकरण के लिए है। यह एक ग्रह के आकार की रचना है जो एक वायुमंडलीय तरंग भी हो सकती है। यह शुक्र के ऊपरी वायुमंडल में देखी गई है। शोध पत्र के मुताबिक यह तरंग पिछले चालीस वर्षों में शुक्र के दिन की लंबाई में देखे गए उतार-चढ़ाव की व्याख्या कर सकती है।

लट्टू के समान घूमती वस्तुएं अपनी आंतरिक रचना में बदलाव के ज़रिए अपनी घूर्णन गति को बदल सकती हैं। इसके लिए किसी बाहरी वस्तु से संपर्क की ज़रूरत नहीं होती। दूसरी ओर, सीधी रेखा में गतिमान कोई वस्तु चलती ही रहेगी, जब तक कि उसे रोका या धीमा न किया जाए। किंतु एक बार वह धीमी हो जाए, तो तब तक वापिस गति नहीं पकड़ेगी जब तक कि उसे ठेला न जाए। घूर्णन करती वस्तु के साथ ऐसा नहीं है। यदि चक्कर मारता कोई स्केटर या कलाबाज़ अपनी भुजाएं फैला दे, तो उसकी घूर्णन गति धीमी पड़ जाएगी। और यदि वह अपनी भुजाओं को वापिस समेट ले, तो गति बढ़ जाएगी। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि घूर्णन करती वस्तु के उन हिस्सों में घूर्णन ऊर्जा ज़्यादा संग्रहित होती है जो अक्ष से ज़्यादा दूरी पर हैं। सीधी रेखा में चल रही वस्तु के साथ ऐसा नहीं होता। ऐसे मामलों में वस्तु के सारे हिस्से अपने-अपने द्रव्यमान के अनुसार ऊर्जा का संग्रह करते हैं।

तारों और ग्रहों जैसे पिंडों की शुरुआत गैस और धूल के विशाल बादलों के रूप में हुई थी। फिर ये गुरुत्वाकर्षण के कारण धीरे-धीरे संघनित हुए। जो शुरुआती हल्का-सा घूर्णन चल रहा था वह तब कई गुना बढ़ गया जब पिंड के दूरस्थ हिस्से अक्ष के समीप आते गए। जब किसी तारे या ग्रह का अंतिम आकार व बनावट स्थापित हो जाते हैं तब एक अंतिम घूर्णन गति होती है। आम तौर पर यह स्थिर बनी रहती है।

पृथ्वी के मामले में वैसे तो आकार और डील-डौल कमोबेश स्थिर रहे हैं किंतु लाखों सालों में थोड़े-बहुत परिवर्तन भी हुए हैं। घूर्णन की वजह से ही पिंड पर कुछ बल लगते हैं जो उसकी आकृति को बदलते हैं। चूंकि भूमध्य वाला हिस्सा ध्रुवों की अपेक्षा अधिक तेज़ी से घूमता है, इसलिए भूमध्य का पदार्थ थोड़ा बाहर की ओर फेंका जाता है बनिस्बत ध्रुवों के और इस वजह से मध्य में पृथ्वी थोड़ी फूल गई है और ध्रुवों पर चपटी हो गई है। इसकी वजह से घूर्णन की गति धीमी हो जाती है, जब तक कि मध्य भाग का विस्तार स्थिर नहीं हो जाता। हिम युग के दौरान समुद्रों का पानी ध्रुवों के आसपास बर्फ के रूप में संग्रहित हो जाता है। बर्फ का वज़न दबाव डालता है जिसकी वजह से भूमध्य क्षेत्र और फूल जाता है और घूर्णन धीमा पड़ जाता है। फिर जब धरती गर्म होती है और बर्फ पिघलता है, तो दबाव शिथिल पड़ जाता है, तोंद घट जाती है और घूर्णन गति बढ़ जाती है।

समुद्री धाराएं और हवाएं भी किसी ठोस पिंड के घूर्णन को प्रभावित कर सकती हैं। जब धाराएं और हवाएं ठोस पिंड की गति के विपरीत दिशा में आती हैं तो ठोस पिंड के घूर्णन की रफ्तार बदलना ही होती है ताकि घूर्णन की कुल ऊर्जा अपरिवर्तित रहे। वैसे पृथ्वी के संदर्भ में समुद्रों और वायुमंडल का वज़न शेष धरती के मुकाबले बहुत कम हैं, जिसके चलते यह असर नज़र नहीं आता। चांद और पृथ्वी के बीच लगने वाला ज्वारीय असर भी घूर्णन गति में बहुत कम परिवर्तन कर पाता है। आंकड़ों में कहें तो यह असर प्रति शताब्दी में एक दिन में 2.3 मिलीसेकंड के बराबर होता है।

शुक्र का कोई चांद तो है नहीं, इसलिए ज्वारीय असर की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन वहां वायुमंडल का असर उल्लेखनीय हो जाता है। शुक्र का वायुमंडल कार्बन डाईऑक्साइड से भरा है। थोड़ी ऊंचाई पर गंधकाम्ल है। शुक्र के वायुमंडल का दबाव पृथ्वी के वायुमंडल की अपेक्षा 92 गुना अधिक है और वज़न 93 गुना अधिक है। इसमें हम 20 प्रतिशत और जोड़ सकते हैं क्योंकि शुक्र का वज़न पृथ्वी के वज़न का 80 प्रतिशत है। इसके अलावा, शुक्र का वायुमंडल अत्यंत ऊर्जावान है। यह वायुमंडल 4 पृथ्वी दिवसों में पूरे ग्रह का चक्कर काट लेता है जबकि शुक्र को एक अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा करने में 243 पृथ्वी-दिवस लगते हैं। लिहाज़ा, शुक्र पर चक्कर काटते वायुमंडल का असर पृथ्वी की तरह नगण्य नहीं है।

शुक्र के घूर्णन का निश्चित माप वह माना गया जो नासा के मेजीलान मिशन द्वारा किया गया था। यह था प्रति घूर्णन 242.0185ल्0.0001 पृथ्वी दिवस। युरोपीय अंतरिक्ष संस्था के मिशन वीनस एक्सप्रेस ने 2006 में पाया कि शुक्र पर कुछ भौगोलिक संरचनाओं की स्थिति की गणना और वास्तविक स्थिति में 19.9 किलोमीटर की त्रुटि है। इसका मतलब है कि 16 साल पहले किए गए आखरी मापन के बाद शुक्र का घूर्णन 6.5 मिनट धीमा हुआ है।

2015 से शुरू करके जापान के वीनस ऑर्बाइटर आकात्सुकी शुक्र के वायुमंडल की विस्तृत तस्वीरें भेजता रहा है। यह देखा गया था कि उच्च गति की हवाएं छोटे आकार की रचनाओं को धीमा करती हैं, वहीं ग्रह के पैमाने की रचनाएं मुख्य हवाओं की अपेक्षा धीमी या तेज़ चलती हैं। यह सोचा गया था कि यह वायुमंडल में विशाल तरंगों की द्योतक हैं। आकात्सुकी ने दर्शाया था कि शुक्र के ऊपरी वायुमंडल में एक धनुषाकार रचना है जो उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव के बीच 10,000 कि.मी. में फैली है। कई दिनों के अवलोकन के दौरान इस रचना की स्थिति स्थिर रही जबकि ग्रह की सतह अपनी गति से घूमती रही। वर्तमान शोध पत्र में कहा गया है कि शुक्र के चार दिवसों तक ग्रह के सूर्य की ओर वाले हिस्से पर दोपहर के समय वायुमंडल में बड़े आकार की एक रचना बनी रही थी।

थॉमस नवारो और साथियों ने शुक्र पर संभावित विभिन्न परिस्थितियों की कंप्यूटर अनुकृति तैयार की। ये परिस्थितियां ज्ञात मापदंडों और वर्तमान रचना के साथ मेल खाती थीं। अनुकृति विश्लेषण के आधार पर उन्हें लगता है कि जो कुछ देखा गया है वह शुक्र की सतह की संरचना से मेल खाता है जो वायुमंडलीय तरंगों को जन्म देती है। यहां वायुमंडल का वज़न किसी भी अंसतुलन को बहाल करने की कोशिश करता है। इन तरंगों को ‘गुरुत्व तरंगें’ कहते हैं और ये पृथ्वी के वायुमंडल में भी पैदा होती हैं। ये तरंगें तब पैदा होती है जब वायुमंडल की निचली परतों (जो ऊंचाई के साथ ठंडी होती जाती हैं) से ऊपरी परतों को ऊर्जा का स्थानांतरण होता है। इनके बीच एक मध्यवर्ती परत होती है।

उच्च गति से घूमते वायुमंडल और धीमी गति से घूमते ठोस पिंड के बीच अंतरक्रिया का परिणाम यह होता है कि घूर्णन गति प्रभावित होती है। लिहाज़ा, ग्रह की घूर्णन गति में किसी बैले नर्तकी या कलाबाज़ की तरह उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। देखा जाए तो 243 दिनों में 6.5 मिनट की कमी कोई बड़ी बात नहीं है, मगर बड़ी बात यह है कि यह कमी मात्र 16 सालों की छोटी-सी अवधि में हुई है। यह भी संभव है कि इन्हीं वजहों से शुक्र की घूर्णन गति सौर मंडल के शेष ग्रहों की अपेक्षा सबसे धीमी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हीरों का निर्माण महासागरों में हुआ था

क्सर कहा जाता है कि हीरे सदा के लिए होते हैं, और हों भी क्यों नहीं। ये अरबों वर्ष पुरानी परिवर्तित चट्टानें हैं जो पृथ्वी के अंदरूनी हिस्से में सदियों तक दबाव और झुलसाने वाले तापमान के संपर्क में रहने के बाद तैयार हुई हैं।

एक चमकदार हीरा बनने में काफी समय लगता है। वैज्ञानिकों के पास आज भी इनके बनने का कोई पक्का जवाब नहीं है। एक प्रचलित सिद्धांत के अनुसार हीरे तब बनते हैं जब समुद्र के पेंदे की प्लेट महाद्वीपीय प्लेटों के नीचे दब जाती हैं। इस प्रक्रिया के दौरान, समुद्री प्लेट और समुद्र के तल के सभी खनिज पृथ्वी के मेंटल में सैकड़ों कि.मी. गहराई में दब जाते हैं। यहां वे धीरे-धीरे उच्च तापमान और दबाव के कारण क्रिस्टलीकृत होते हैं। यह दबाव पृथ्वी की सतह की तुलना में दस हज़ार गुना अधिक होता है। अंतत: ये क्रिस्टल ज्वालामुखीय मैग्मा के साथ मिलकर ग्रह की सतह पर हीरे के रूप में बाहर आते हैं।

समुद्र के खनिजों में पाया जाने वाला नीला रत्न इस सिद्धांत का समर्थन करता है। ये हीरे सबसे दुर्लभ और सबसे महंगे हैं, इसलिए उनका अध्ययन करना मुश्किल हो जाता है। हाल ही में साइंस एडवांसेस जर्नल में प्रकाशित एक शोध में हीरे की समुद्री उत्पत्ति के लिए नए सबूत मिले हैं। अध्ययन के लिए, शोधकर्ताओं ने फाइब्रस हीरे नामक साधारण रत्नों के अंदर नमक के अवशेष का अध्ययन किया।

अधिकांश हीरों के विपरीत फाइब्रस हीरे नमक, पोटेशियम और अन्य पदार्थों के थोड़े से अवशेष के साथ बनते हैं। आभूषणों के हिसाब से तो ये कम मूल्यवान हैं, लेकिन वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से काफी कीमती हैं। इस अध्ययन के प्रमुख मैक्वेरी विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के प्रोफेसर माइकल फॉरस्टर के अनुसार एक सिद्धांत कहता है कि हीरे के अंदर नमक समुद्री पानी के कारण आता है लेकिन अभी तक इस सिद्धांत का परीक्षण नहीं किया जा सका था।  

वास्तविक हीरे की प्राचीन उत्पत्ति का पता लगाने के लिए फॉरस्टर और उनके सहयोगियों ने इसे अपनी प्रयोगशाला में बनाने का प्रयास किया। टीम ने समुद्री तलछट के नमूनों को पेरिडोटाइट नामक एक खनिज के साथ एक पात्र में रखा। पेरिडोटाइट एक आग्नेय चट्टान है जो व्यापक रूप उस गहराई पर मौजूद है जहां हीरे बनने का अनुमान है। इसके बाद उन्होंने मिश्रण को पृथ्वी के मेंटल के अनुमानित तापमान और दबाव पर रखा।

देखा गया कि जब मिश्रण को 4-6 गिगापास्कल (समुद्र सतह के वायुमंडलीय दबाव की तुलना में  40,000 से 60,000 गुना अधिक) दबाव और 800 से 1,100 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर रखा गया, तब जो हीरे बने उनमें नमक के लगभग वैसे ही क्रिस्टल मिले जैसे कुदरती फायब्रास हीरों में होते हैं।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि हीरे बनने के लिए थोड़ा नमकीन तरल पदार्थ आसपास होना चाहिए, और अब इस परीक्षण से इस बात की पुष्टि भी हो गई है। फॉरस्टर और टीम द्वारा इस परीक्षण में उन खनिजों का भी निर्माण हुआ जो किम्बरलाइट का निर्माण करते हैं। यह वही किम्बरलाइट है जिसके साथ हीरे ज्वालामुखी मैग्मा के साथ बाहर आते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक पौधे और एक पक्षी की अजीब दास्तान – डॉ. किशोर पंवार

जैव विविधता पर तरह तरह के खतरों और मानवीय हस्तक्षेप के कारण प्रजातियों के ह्यास के बीच हाल में संरक्षणवादियों के लिए दो अच्छी खबरें आई है। गुड़हल की जाति के एक विलुप्त माने जा रहे पौधे को पुन: खोज लिया गया है और रेल समूह के एक पक्षी में विकास की एक दुर्लभ घटना देखी गई है।

एक समाचार यह है कि हिबिस्काडेल्फस वूडी नाम का एक पौधा शायद विलुप्त नहीं हुआ है। वनस्पतिविदों ने हवाई द्वीप पर पाए जाने वाले इस दुर्लभ फूलधारी पौधे को एक बार पुन: खोज लिया है और ऐसा संभव हुआ है एक ड्रोन की सहायता से। गौरतलब है कि ड्रोन बहुत छोटे विमान होते हैं जिन्हें सुदूर संचालन से चलाया जाता है। इनका उपयोग जासूसी कार्य के अलावा प्रकृति के अध्ययन में किया जाता है।

हिबिस्काडेल्फस वूडी हवाई द्वीप के पहाड़ों की खड़ी चट्टानों के मुहाने पर उगता है। यहां उगने के कई फायदे हैं। एक तो भूखी भेड़ें ऐसी चट्टानों पर चढ़कर इसे नहीं खा सकती, और न ही वे लोग यहां पहुंच पाते हैं जो कीमती पौधों को पैरों तले रौंद डालते हैं। हिबिस्काडेल्फस वूडी हमारे जाने पहचाने गुड़हल यानी जासौन की जाति का है। इस पौधे को अंतिम बार 2009 में देखा गया था। अप्रैल 2019 में ड्रोन की मदद से की गई नई खोज का मतलब है कि मात्र एक दशक की अवधि में यह विलुप्त प्रजातियों की सूची से बाहर आ चुका है। हिबिस्काडेल्फस वूडी को ग्रीन हाउस में उगाने के प्रयास बार-बार हुए परंतु सफलता नहीं मिली। कलम लगाना, टिप कटिंग करना और पर-परागण द्वारा भी इसे उगाना संभव नहीं हो पाया था।

सैकड़ों हजारों साल के विकास ने इस पौधे में कुछ विलक्षण गुण उत्पन्न किए हैं। जैसे इसका फूल नलिकाकार है जो उम्र बढ़ने के साथ पीले से गहरा लाल हो जाता है। इसके फूल की रचना वहीं के एक स्थानीय परागणकर्ता हनीक्रीपर नामक पक्षी की चोंच से एकदम मेल खाती है।

इसे पुन: खोजे जाने पर वनस्पति शास्त्री केन वुड का कहना है कि प्रजातियों का विलुप्तिकरण कभी भी एक सटीक विज्ञान नहीं रहा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप उन्हें कहां और कैसे खोज रहे हैं। केन वुड ने अपना सारा समय नेशनल ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन में विलुप्तप्राय वनस्पतियों की खोज में बिताया है। वे अक्सर हवाई द्वीपों की कवाई पहाडि़यों की दरारों पर हेलीकॉप्टर से बाहर लटकते हुए ऐसी प्रजातियों को बचाने में लगे रहते हैं जिनके मुश्किल से 5-10 प्रतिनिधि ही बचे हैं। इनमें से कुछ स्थान ऐसे हैं जहां पर वे और उनके साथी स्टीलमैन रस्सियों और हेलीकॉप्टर की सहायता से भी नहीं पहुंच पाए थे। 2016 में ड्रोन विशेषज्ञ बेन नायबर्ग ने नेशनल ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन के साथ कवाई द्वीप की दुर्गम घाटियों में ऐसे स्थानों पर ड्रोन की सहायता से ऐसी दुर्गम घाटियों पर खोजबीन में मदद की। 2019 की फरवरी में एक धूप भरे दिन ड्रोन कैमरे से उन्होंने एक पौधे के झुंड को खोजा जो केलालू घाटी की खड़ी चट्टानों की दरारों से 700 फीट नीचे था। इससे और नीचे पहुंचने के लिए 800 फीट के नीचे उन्होंने वहां अपना ड्रोन उड़ाया और एक पौधे के समूह को अपने मॉनिटर पर देखा। उन्होंने पाया कि हिबिस्काडेल्फस वूडी वहां जीता-जागता खड़ा है।

यह पहला मौका था जब किसी प्रजाति को खोजने के लिए ड्रोन का उपयोग किया गया। इनका मानना है कि इन जगहों पर कुछ और नई प्रजातियां या ऐसी प्रजातियां भी मिल सकती हैं जिन्हें विलुप्त मान लिया गया है।                  

दूसरी अच्छी खबर एक पक्षी के बारे में है जो करीब 1 लाख छत्तीस हज़ार साल पहले विलुप्त हो गया था पर फिर नए अवतार में प्रकट हुआ है। इसका नाम है व्हाइट थ्रोटेड रेल। यह मुर्गी के आकार का पक्षी है। यह जैव विकास की एक विलक्षण और दुर्लभ घटना है। ज़ुऑलॉजिकल जर्नल ऑफ लिनियन सोसायटी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार किस्सा यह है कि व्हाइट थ्रोटेड रेल मेडागास्कर का मूल निवासी है। मगर ये प्रवास करके अलग-अलग दीपों में समुदाय बनाकर रहते थे और संख्या बढ़ने पर ये आसपास के द्वीपों पर माइग्रेट हो जाते थे। इनमें से कई उत्तर और दक्षिण के दीपों पर चले गए जो समुद्र का तल बढ़ने से पानी में डूब कर समाप्त हो गए। जो कुछ अफ्रीका में गए थे वहां उन्हें शिकारियों ने खा लिया। वे पक्षी जो पूर्व की ओर गए वे मारीशस, रीयूनियन द्वीप और अलडबरा द्वीप पर पहुंचे। अलडबरा एक छल्ले के आकार का कोरल द्वीप है जो आज से लगभग 4 लाख वर्ष पूर्व बना था। यहां भोजन प्रचुरता से उपलब्ध था और मारीशस के द्वीपों की तरह यहां पर भी कोई शिकारी नहीं था। अत: ये रेल इस प्रकार विकसित हुए कि अपनी उड़ने की क्षमता खो बैठे।

फिर करीब 1 लाख छत्तीस हज़ार वर्ष पूर्व एक बड़ी बाढ़ के दौरान अलडबरा द्वीप समुद्र में डूब गया था। परिणामस्वरूप यहां की सारी वनस्पतियां तथा कई जंतु मारे गए। इनमें उड़ान-विहीन रेल भी शामिल थे। शोधकर्ताओं ने 1 लाख साल पुराने जीवाश्मों का अध्ययन किया है। यह वह समय था जब हिम युग के कारण समुद्र के तल में गिरावट आई थी। जीवाश्म से पता चला कि यह द्वीप पुन: न उड़ पाने वाले रेल पक्षी समुदाय से बस गया था। द्वीप के डूबने के पूर्व और द्वीप के वापिस उभरने के बाद के रेल पक्षियों के जीवाश्म की हड्डियों की तुलना से पता चलता है कि ये दोनों पक्षी मैडागास्कर से उड़कर यहां पहुंचे थे और दोनों बार इन्होंने उड़ने की क्षमता गंवाई।

इसका अर्थ यह है कि मेडागास्कर की एक ही प्रजाति ने न उड़ने वाली रेल की दो उप-प्रजातियों को अलडबरा में कुछ हजार वर्षों के अंतराल पर जन्म दिया। प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के जूलियन ह्रूम कहते हैं कि ये विशिष्ट जीवाश्म इस बात के अकाट-प्रमाण हैं कि इन द्वीपों पर रेल के दोनों समुदाय मेडागास्कर से ही आए थे, और यहीं आकर अलग-अलग समय पर दो न उड़ने वाले रेल बन गए। यह दोनों घटनाएं दर्शाती है कि जैव विकास के दौरान एक ही गुण का बार-बार प्रकट होना कोई अनहोनी नहीं है। जैव विकास की भाषा में इसे इटरेटिव विकास कहते हैं। इटरेटिव विकास उसे कहते हैं जब वही या मिलती जुलती रचनाएं एक साझा पूर्वज से अलग-अलग समय पर विकसित हों। इसका अर्थ यह है कि एक ही पूर्वज से शुरू करके एक-से जीव वास्तव में दो बार अलग-अलग समय अथवा स्थान पर इस धरती पर विकसित हुए हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि चंद हज़ार सालों के अंतराल पर एक ही पूर्वज प्रजाति से दो उप-प्रजातियां निकली हैं और वे सचमुच अलग-अलग उप प्रजातियां हैं। यह किसी उप प्रजाति का पुनर्जन्म नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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जीनोम का धंधा: डायरेक्ट टू कंज़्यूमर (डीटीसी) – शशांक एस. तिवारी

नेचर  पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया लेख में उन तरीकों पर प्रकाश डाला गया है जिनसे विभिन्न भारतीय बायोटेक कंपनियां सरकार और मुक्त-प्रवाह उद्यम पूंजी (वेंचर केपिटल) की मदद से नवाचार का कारोबार कर रही हैं। इस लेख की शुरुआत एक युवा भारतीय उद्यमी द्वारा दो बायोटेक स्टार्टअप कंपनियों की स्थापना के वर्णन से होती है। इसमें से उसकी एक कंपनी डायरेक्ट-टू-कंज्यूमर (डीटीसी) आनुवंशिक परीक्षण कंपनी, पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इस लेख का उद्देश्य भारत में डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों से जुड़े उभरते नैतिक, सामाजिक और नियामक मुद्दों का विश्लेषण करना है।

डीटीसी जेनेटिक टेस्ट का उद्भव

आनुवंशिक परीक्षण के व्यवसाय का श्रेय मानव जीनोम प्रोजेक्ट को दिया जाता है। मानव जीनोम प्रोजेक्ट की शुरुआत आधिकारिक तौर पर 1990 में हुई थी जिसका उद्देश्य मानव जीनोम के पूरे डीएनए अनुक्रम का मानचित्र तैयार करना था। 2003 तक पूरे मानव जीनोम का अनुक्रमण कर लिया गया था। और इसके साथ ही डीटीसी जेनेटिक्स के व्यापार का रास्ता खुल गया। जब मानव जीनोम परियोजना शुरू की गई थी, तब यह वादा किया गया था कि जीनोम अनुक्रम के ज्ञान से बीमारी और मानव जीव विज्ञान को समझने में मदद मिलेगी।

इस ज्ञान का फायदा उठाने के लिए, वर्ष 2007 में तीन कंपनियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका में अपनी उपभोक्ता आनुवंशिक सेवाएं शुरू कीं। ये तीन कंपनियां थीं 23एंडमी (23andMe), डीकोडमी (deCODEMe) और नेवीजेनिक्स (Navigenics)। बाद के वर्षों में, कई अन्य कंपनियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में जीनोमिक्स सेवाएं प्रदान करना शुरू कर दिया।

पिछले कुछ वर्षों में भारत में कई सारी डीटीसी आनुवंशिक परीक्षण कंपनियां उभरी हैं। कुछ उल्लेखनीय नाम हैं: मैपमायजीनोम (Mapmygenome), दी जीनबॉक्स (The GeneBox), डीएनए लैब्स इंडिया (DNA Labs India), इंडियन बायोसाइंसेस (Indian Biosciences), पॉजि़टिव बायोसाइंसेस (Positive Biosciences), एक्सकोड (Xcode) और इज़ीडीएनए (EasyDNA)। ये कंपनियां जनता को विभिन्न जीनोमिक्स सेवाएं प्रदान करती हैं। इनमें व्यक्तिगत जीनोमिक्स (व्यक्ति पर दवा प्रतिक्रिया का प्रोफाइल, पोषण सम्बंधी आवश्यकताएं, किसी रोग का अंदेशा), नैदानिक (गर्भधारण से पूर्व स्क्रीनिंग), न्यूट्रिजीनोमिक्स (डीएनए आधारित आहार योजना), फिटनेस, खेलकूद, पितृत्व, वंश और फार्माकोजेनेटिक्स (दवाओं की प्रतिक्रिया में मरीज की आनुवंशिकी की भूमिका) जैसे परीक्षण शामिल हैं। आम लोग जेनेटिक टेस्ट किट ऑनलाइन कंपनियों की वेबसाइट्स या अमेज़न जैसी ई-कॉमर्स कंपनियों के माध्यम से खरीद सकते हैं। टेस्ट के प्रकार के आधार पर एक टेस्ट की लागत 3,000 से लेकर 1,20,000 रुपए तक है।

डीएनए का नमूना (लार या गाल का फाहा) जमा करने के बाद कुछ ही दिनों में उपभोक्ता को परिणाम प्राप्त हो जाते हैं। पश्चिम देशों की तरह, भारत में भी डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों के प्रसार ने कई वैज्ञानिक, नैतिक, सामाजिक और नियामक मुद्दों को जन्म दिया है। जैसे निदान की वैधता और उपयोगिता, आनुवंशिक नियतिवाद और जीनोमिक्स डैटा का संभावित दुरुपयोग। इसके अलावा, कई कंपनियों की विपणन रणनीति ने भारत में वैज्ञानिक कामकाज की प्रकृति के बारे में कई सवाल उठाए हैं।

विपणन रणनीति की नैतिकता

जहां चिकित्सा आचार संहिता तथा विज्ञापन कानून का क्रियांवयन व अनुपालन कमज़ोर तरीके से किया जाता है, वहां डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों के लिए किसी दिशानिर्देश या नियम-कायदों के अभाव में, कंपनियां अपने परीक्षण के लाभों के बारे में अतिरंजित दावे करने के लिए स्वतंत्र हैं। वे आम लोगों की सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं का फायदा उठाने के लिए अपने उत्पादों को गलत तरीके से प्रस्तुत कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, एक कंपनी ने व्यवसाय रणनीति के रूप में, जीनोमिक्स को ज्योतिष के साथ जोड़ दिया है ताकि अपने परीक्षणों को खरीदने के लिए उपभोक्ताओं को लुभा सके। इस उद्देश्य को मन में रखकर कंपनी ने अपने एक उत्पाद का नाम जीनोमपत्री रखा है, जो जन्मपत्री से मेल खाता है। कंपनी की सीईओ ने यूट्यूब पर एक प्रचार संदेश में ज्योतिष के महत्व पर प्रकाश डालते हुए ऑनलाइन आनुवंशिक परीक्षणों के लाभ पर ज़ोर दिया है। उन्होंने कहा है कि जिस तरह जन्मपत्री लोगों को जन्म के समय राशि, ग्रहदशा और गोत्र आदि समझने में मदद करती है, उसी तरह आनुवंशिक परीक्षण, जेनेटिक बनावट और जेनेटिक लक्षणों को समझने में मदद करेंगे, जिसमें यह भी पता चलेगा कि कोई उत्परिवर्तन तो उपस्थित नहीं है। इसके अलावा, उन्होंने विस्तार से बताया कि व्यक्ति जेनेटिक संरचना की जानकारी होने पर जीवनशैली में बदलाव के ज़रिए सकारात्मक (आनुवंशिक) लक्षणों को समृद्ध कर सकता है। उनके अनुसार, रोकथाम के ये उपाय ज्योतिष के समान ही हैं जिसमें लोग खुद को ग्रहों के बुरे प्रभाव से बचाने के लिए पूजा, यज्ञ आदि करते हैं।

उपरोक्त प्रचार संदेश को उपमा कहकर उचित ठहराया जा सकता है। जटिल वैज्ञानिक अवधारणा को आसान शब्दों में संप्रेषित करने के लिए उपमाओं का उपयोग करना एक आम बात है। हालांकि, जीनोमिक्स के संदर्भ में ज्योतिष की इस विशेष उपमा का भारत में विज्ञान के कामकाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि कमोबेश समूचा भारतीय वैज्ञानिक समुदाय ज्योतिष को एक छदम विज्ञान मानता है, और ज्योतिष को वैज्ञानिक मंच पर लाने के किसी भी प्रयास का कड़ा विरोध किया जाता रहा है। यह उपमा वैज्ञानिक स्वभाव की अवधारणा के विपरीत है।

इसके अतिरिक्त, कंपनियों की वेबसाइट्स पर प्रख्यात हस्तियों के प्रशंसा पत्रों का प्रकाशन चिकित्सा नैतिकता से सम्बंधित मुद्दों को भी जन्म देता है। कभी-कभी, इनमें प्रमुख राजनेताओं, उद्योगपतियों और देश की अन्य जानी-मानी हस्तियों के बयान होते हैं। क्योंकि देश के अत्यधिक प्रतिष्ठित और शिक्षित माने जाने वाले लोग इन उत्पादों की सिफारिश करते हैं, इस तरह के प्रशंसा पत्र आम जनता को गुमराह करने की क्षमता रखते हैं। उपरोक्त महत्वपूर्ण मुद्दों के अलावा, आनुवंशिक परीक्षणों के साथ प्रमुख वैज्ञानिक चिंताएं भी हैं जो विशेष रूप से भारत में प्रासंगिक हैं।

विज्ञान सम्बंधी मुद्दे

डीटीसी आनुवांशिक परीक्षणों में से कुछ परीक्षण डीएनए-आधारित आहार योजना, फिटनेस, खेलकूद, पितृत्व और वंशावली जैसे विकल्प उपलब्ध कराते हैं जो गैर-नैदानिक हैं (यानी ये किसी रोग या तकलीफ का पता नहीं लगाते)। वैसे भी, तथ्य यह है कि ये व्यक्तिगत ऑनलाइन परीक्षण किसी बीमारी की उपस्थिति या अनुपस्थिति का सटीक निदान नहीं कर सकते; ये केवल उसकी संभाविता का अनुमान लगाते हैं। ये परीक्षण किसी डॉक्टर से चर्चा किए बिना सीधे आम जनता के लिए पेश किए जाते हैं, इसलिए इस बात की काफी संभावना है कि उपभोक्ता इन परिणामों की गलत व्याख्या कर बैठेंगे। भारत में योग्य आनुवंशिक परामर्शदाताओं और आनुवंशिकीविदों की संख्या नगण्य है जिसकी वजह से स्थिति और भी पेचीदा हो जाती है।

भारत के लोगों के बारे में प्रामाणिक आनुवंशिक डैटा का अभाव है। यह डीटीसी आनुवंशिक सेवाओं के साथ एक और स्पष्ट समस्या है। इस मुद्दे को मीडिया कवरेज भी मिला है। शायद यही कारण है कि कई भारतीय कंपनियां अपने परीक्षणों में तुलना हेतु कॉकेशियन आबादी से प्राप्त डेटा का उपयोग संदर्भ-डैटा के रूप में कर रही हैं।

समापन टिप्पणी

जीनोमिक्स में नवाचारों को नैतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और नियामक मुद्दों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। हालांकि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद पूरी तरह से इस स्थिति से अवगत है लेकिन दुर्भाग्य से, इस समय भारत में जीनोमिक चिकित्सा के लिए कोई दिशानिर्देश या नियम नहीं हैं। भारतीय बायोमेडिकल एजेंसियों, स्वास्थ्य पेशवरों और वैज्ञानिकों को उपभोक्ताओं को संभावित स्वास्थ्य जोखिमों और डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों से जुड़े आर्थिक शोषण से बचाने के लिए एक नियामक ढांचा तैयार करने के लिए आगे आना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लैक्टोस पचाने की क्षमता की शुरुआत कहां से हुई

ह एक पहेली रही है कि दूध में उपस्थित एक शर्करा लैक्टोस को पचाने की क्षमता सभी मनुष्यों में नहीं पाई जाती। जिन लोगों में यह क्षमता नहीं होती उन्हें दूध नहीं सुहाता। इसके अलावा, एक बात यह भी है कि आम तौर पर लैक्टोस को पचाने की क्षमता बचपन में पाई जाती है और बड़े होने के साथ समाप्त हो जाती है। तो सवाल यह है कि यह क्षमता मनुष्य में कब आई और कैसे फैली।

आज से लगभग 5500 साल पहले युरोप में मवेशियों, भेड़-बकरियों को पालने की शुरुआत हो रही थी, लगभग उसी समय पूर्वी अफ्रीका में भी पशुपालन का काम ज़ोर पकड़ रहा था।

पूर्व में हुए पुरातात्विक शोध के अनुसार पूर्वी अफ्रीका में प्रथम चरवाहे लगभग 5000 साल पूर्व आए थे। आनुवंशिक अध्ययन बताते हैं कि ये निकट-पूर्व और आजकल के सूडान के निवासियों के मिले-जुले वंशज थे। ये चरवाहे वहां के शिकारी-संग्रहकर्ता मानवों के साथ तो घुल-मिल गए; ठीक उसी तरह जैसे पशुपालन को एशिया से युरोप लाने वाले यामनाया चरवाहों ने वहां के स्थानीय किसानों और शिकारियों के साथ प्रजनन सम्बंध बनाए थे। अलबत्ता, लगभग 1000 साल बाद भी पूर्वी अफ्रीका के चरवाहे स्वयं को आनुवंशिक रूप से अलग रख सके यानी उनके साथ संतानोत्पत्ति के सम्बंध नहीं बनाए और वहां के अन्य स्थानीय लोगों से अलग ही रहे।

अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्राचीन समय के लगभग 41 उन लोगों के डीएनए का विश्लेषण किया जो वर्तमान के केन्या और तंज़ानिया के निवासी थे। उन्होंने पाया कि आजकल के चरवाहों के विपरीत इन लोगों में लैक्टोस को पचाने की क्षमता नहीं थी। सिर्फ एक व्यक्ति जो लगभग 2000 वर्ष पूर्व तंज़ानिया की गिसीमंगेडा गुफा में रहता था, में लैक्टोस को पचाने वाला जीन मिला है जो इस ओर इशारा करता है कि इस इलाके में लैक्टोस के पचाने का गुण किस समय विकसित होना शुरू हुआ था। इस व्यक्ति के पूर्वज चरवाहे और उसके साथी यदि दूध या दूध से बने उत्पादों का सेवन करते होंगे तो वे किण्वन के ज़रिए दही वगैरह बनाकर ही करते होंगे क्योंकि उसमें लैक्टोस लैक्टिक अम्ल में बदल जाता है। मंगोलियन चरवाहे लैक्टोस को पचाने के लिए सदियों से यही करते आए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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