बांध टूटे तो नदी ने अपना मलबा साफ किया

मेरिका में एलव्हा नदी पर बने बांधों को हटाए जाने के बाद जो मलबा मुक्त हुआ, उसे नदी ने अपने प्रवाह से साफ कर लिया।

एलव्हा नदी वाशिंगटन में बहती है। इस छोटी नदी पर बने दो बड़े बांध, 32 मीटर ऊंचा एलव्हा डैम और 64 मीटर ऊंचा ग्लाइंस कैन्यन डैम, नदी के प्राकृतिक प्रवाह को रोके हुए थे। नदी को फिर से बहने देने तथा मछलियों और अन्य जीवों के लाभ के लिए गैर-ज़रूरी बांधों को तोड़ने का निर्णय लिया गया। इन दोनो बांधो को तोड़ने की प्रक्रिया 2011 में शुरू हुई थी जो 2014 तक चली। यह दुनिया का सबसे बड़ा बांध तोड़ने का प्रोजेक्ट रहा।

कैलिफोर्निया के यूएस जियोलॉजिकल सर्वे की एमी ईस्ट और उनके साथियों ने इन बांधों को तोड़ने के पहले, तोड़ने के दौरान और उसके बाद नदी के प्रवाह और रास्तों पर लगातार नज़र रखी।

जब बांध तोड़े गए तो नदी में जमा लगभग 2 करोड़ टन मलबा बहने लगा। इस मलबे के बहने से नदी का आकार बदल गया, वह उथली हो गयी और उसके रास्ते में नए-नए रेतीले किनारे भी बन गए। मगर नदी में आए ऐसे बड़े बदलाव 5 महीने तक रहे। इस दौरान नदी ने अपने पेंदे में जमा अधिकतर मलबा नदी के आखिरी छोर, जुआन दे फुका जलडमरूमध्य तक पहुंचा दिया।

 शोधकर्ताओं का कहना है कि नदियों का बहाव इतना शक्तिशाली होता है कि वे बांध के तोड़े जाने पर बिना किसी भारी नुकसान के, जल्दी ही अपने नियमित ढर्रे पर लौट सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पराग कण: सूक्ष्म आकार, बड़ा महत्व – डॉ. दीपक कोहली

मारे पर्यावरण में वनस्पतियों का स्थान सर्वोपरि है। ये सूर्य के प्रकाश में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन बनाते हैं तथा हमारे सामाजिक परिवेश में मुख्य घटक हैं। फूल पौधों के अभिन्न अंग हैं। यदि फूल नहीं होंगे, तो पौधों में लैंगिक प्रजनन नहीं हो सकेगा और केवल कायिक प्रवर्धन पर आधारित होने पर मनुष्य का भोजन केवल कन्द-मूलों तक ही सीमित रह जाएगा। पुष्प में पुमंग तथा जायांग लैंगिक प्रजनन के मूल आधार हैं। पुमंग में दो भाग होते हैं – पुतन्तु तथा परागकोश। परागकोश पुतन्तु के अग्रभाग प्रकोष्ठों से मिलकर बनता है। प्रत्येक प्रकोष्ठ में असंख्य पराग कण भरे होते हैं।

पराग कण पौधों की सूक्ष्म जनन इकाइयां हैं, जो अपने व अपनी ही प्रजाति के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंच कर निषेचन का कार्य सम्पन्न करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप फलों का निर्माण होता है और इनके बीजों द्वारा नवीन संततियों का जन्म होता है।

परिपक्व पराग कण एक, दो, चार या अनेक समूहों में मिलते हैं, इनका आकार प्रकार तथा ध्रुवीयता सुनिश्चित होती है। पराग कणों का आकार अत्यन्त सूक्ष्म (10 माइक्रॉन से लेकर 250 माइक्रॉन तक) होता है। पराग कणों के चारों ओर सुरक्षा के लिए दो परतें होती हैं – पहली बाह्र परत या एक्सॉन, जो स्पोरोपोलेनिन नामक एक रसायन से बनी होती है। इस पर्त में तेज़ाब, क्षार, ताप, दाब आदि सहने की क्षमता होती है एवं यह कोशिका की रक्षा करती है।

पराग कण जल, थल, वायु आदि सभी स्थानों पर पाए जाते हैं। इनका इतिहास पुरातनकालीन चट्टानों में करीब 30 करोड़ वर्ष से लेकर आज तक के पर्यावरण में मिलता है। पराग कणों के अध्ययन को परागाणु विज्ञान कहते हैं। परागाणु विज्ञान को दो भागों में बांटा जा सकता है – प्राथमिक परागाणु विज्ञान तथा व्यावहारिक परागाणु विज्ञान। प्राथमिक परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों तथा बीजाणुओं की संरचना, उनके रासायनिक तथा भौतिक विश्लेषण और कोशिका विज्ञान, आकार वर्गिकी आदि का अध्ययन किया जाता है। व्यावहारिक परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों के व्यावहारिक उपयोग एवं महत्व का अध्ययन किया जाता है। व्यावहारिक परागाणु विज्ञान का आगे वर्गीकरण भी किया जा सकता है – भूगर्भ परागाणु विज्ञान, वायु परागाणु विज्ञान, शहद परागाणु विज्ञान, औषधि परागाणु विज्ञान, मल-अवशेष परागाणु विज्ञान तथा अपराध परागाणु विज्ञान।                              

मिट्टी तथा चट्टानों के बनने की प्रक्रिया के समय पाई जाने वाली वनस्पतियां दबकर जीवाश्म के रूप में परिरक्षित होती हैं एवं इन चट्टानों की लक्षणात्मक इकाइयां बनकर चट्टानों की आयु बताने में समर्थ होती हैं। कोयले की खानों तथा तैलीय चट्टानों में दबे पराग कण एवं बीजाणुओं के अध्ययन से उनकी आयु के साथ-साथ उनके पार्श्व एवं क्षैतिज विस्तार की भी जानकारी प्राप्त होती है। ऐसा अनुमान है कि जलीय स्थानों में तेल की उत्पत्ति कार्बनिक पदार्थों के विघटन के फलस्वरूप होती है। तदुपरान्त इसका जमाव जगह-जगह पर चट्टानों में होता है, खनिज तेल की खोज तथा कोयला भण्डारों की जानकारी प्राप्त करने में इन सूक्ष्म इकाइयों का विशेष योगदान है। ऐसे जीवाश्मीय पराग कणों के अध्ययन को भूगर्भ परागाणु विज्ञान कहते हैं।

वनस्पतियों के अवशेष चट्टानों में दबे हुए मिलते हैं जिनसे पुराकालीन जलवायु, वनस्पतियों तथा उनके आसपास की जलवायु तथा भौतिक दशाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी प्रकार झील तथा दलदली स्थानों के विभिन्न गहराइयों से लिए गए मृदा के नमूनों से लुप्त होती वनस्पतियों, सिमटते तथा फैलते समुद्र के इतिहास का पता आसानी से लगाया जा सकता है। इस प्रकार, भूगर्भ परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत जीवाश्मित पराग कण व बीजाणु व इनके समतुल्य जनन इकाइयों के द्वारा प्राचीनकाल के पाई वाली पुरावनस्पतियों तथा पुरावातावरण की जानकारी प्राप्त होती है।

वायु परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत वायु में पाए जाने वाले पराग कणों तथा इनके समतुल्य जनन इकाइयों का अध्ययन किया जाता है। वायु में पेड़-पौधों के असंख्य पराग कण सदैव विद्यमान रहते हैं। कुछ पौधों के पराग कण संवेदनशील व्यक्तियों में सांस के रोग उत्पन्न करते हैं। इनमें दमा, मौसमी ज़ुकाम, एलर्जी, त्वचा रोग आदि प्रमुख हैं।

पराग कण जब सर्वप्रथम नाक के द्रव के सम्पर्क में आते हैं, तो पहले-पहले कोई लक्षण प्रकट नहीं होते, परन्तु जब नाक का द्रव संवेदित हो जाता है तो शरीर में विजातीय तत्व के विरुद्ध प्रतिरक्षा तत्व (इम्यूनोग्लोब्यूलिन) पैदा हो जाते हैं। जब वही विजातीय तत्व (एलर्जेन) नासिका द्रव पर पुन: हमला करता है तो पहले से उपस्थित अवरोधक तत्व उस विजातीय तत्व को नष्ट कर देता है जिससे नासिका की कोशिकाओं का नाश होता है और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हिस्टामिन नामक रसायन एलर्जी के लक्षणों का कारण बनता है। इसके मुख्य लक्षण हैं – तालू व गले में खराश, नाक का बन्द हो जाना, तेज़ जुकाम के साथ छींकें आना, आंखों में जलन, सांस फूलना, सिरदर्द आदि। मुख्यत: वायु द्वारा विसरित परागकण ही इन बीमारियों को जन्म देते हैं। वायु परागाणु विज्ञान केवल एलर्जी की नहीं बल्कि मनुष्य, जानवरों तथा पेड़-पौधों के विकास से जुड़े अन्य कई विषयों की भी विस्तृत जानकारी देता है। जैसे, वायु प्रदूषण, कृषि विज्ञान, वानिकी, जैव विनाश, जैव गतिविधि, मौसम विज्ञान आदि।

शहद परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत शहद के नमूनों में पराग कणों का अध्ययन किया जाता है। शहद के गुणों तथा प्रभाव से सभी परिचित हैं। शहद की चिकित्सकीय उपयोगिता मुख्यत: पराग कणों के कारण ही होती है। मानव को आदिकाल से ही इसकी उपयोगिता का ज्ञान है। शहद और पराग कणों का पारस्परिक सम्बंध अटूट है। शहद की शुद्धता तथा गुणवत्ता उसमें निहित पराग कणों के द्वारा परखी जाती है। शहद एक ही प्रकार के फूलों के पराग कणों या अनेक प्रकार के फूलों के पराग कणों का मिश्रण है। शहद का वैज्ञानिक विश्लेषण करने से ऋतु-सम्बंधी जानकारी भी प्राप्त होती है। मधुमक्खियां मकरन्द व पराग कणों को फूलों से एकत्र करती हैं। बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ में हुए एक शोध के अनुसार, शहद के एक नमूने में 45 किस्म के परागकण विद्यमान थे।

औषधि परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों से विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण सम्बंधी अध्ययन किए जाते हैं। आदिकाल से मनुष्य तथा जानवरों के लिए पराग कणों की महत्ता जैव उद्दीपक के रूप में रही है। स्वीडन की सिरनेले कम्पनी सन 1952 से पराग कणों का सत बना रही है जिससे पोलेन-टूथपेस्ट, पोलेन फेस क्रीम, पोलेन एनिमल फीड तथा पोलेन टेबलेट्स आदि का उत्पादन होता है। इस कम्पनी को 14 करोड़ टेबलेट्स बनाने के लिए करीब 20 टन पराग कण आसपास के क्षेत्र से एकत्र करने पड़ते हैं। कहते हैं सर्निटिन  एक्सट्रेक्ट दीर्घ आयु तथा स्वस्थ जीवन प्रदान करने वाले सभी तत्वों से भरपूर होता है। यह विभिन्न प्रकार के पौधों के पराग कणों से तैयार किया जाता है।

ओर्टिस पोलेनफ्लावर नामक दवा मधुमक्खियों की सहायता से एकत्रित पराग कणों से बनाई जाती है, जिसमें स्वस्थ शरीर बनाए रखने के लिए शक्तिवर्धक तत्व मौजूद होते हैं। पोलेन-बी के नाम से प्रसिद्ध औषधियां धावकों तथा अन्य खिलाड़ियों द्वारा शक्तिवर्धक की तरह प्रयोग की जाती है।

प्रोस्टेट ग्रन्थि बढ़ने पर जिस दवा का प्रयोग किया जाता है, उसमें तीन-चार प्रकार के पराग कणों का सत होता है, जिसमें विटामिन-बी तथा स्टीरॉयड की प्रचुर मात्रा होती है। साइकस सर्सिनेलिस पौधे के पराग कणों को नींद की दवा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। टाइफा लैक्समानी पौधे के पराग कणों को रक्तचाप नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

मल-अवशेष परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत मनुष्यों तथा जानवरों के मल-अवशेषों में संरक्षित पराग कणों का अध्ययन किया जाता है। पाषाण युग में कंदराओं और गुफाओं में रहने वाले शिकारी, खानाबदोश पूर्वजों तथा उनके काफिलों के पालतू जानवरों के खानपान, जलवायु तथा वनस्पतियों का लेखा-जोखा पराग कणों के माध्यम से पता किया जा सकता है। मल-अवशेषों में संरक्षित पराग कणों के परीक्षण से भोज्य वनस्पतियों की किस्मों, ऋतुओं, जलवायु आदि का अनुमान लगाया जा सकता है। भेड़-बकरियों, चमगादड़ों तथा मनुष्यों के मल-अवशेषों का अध्ययन ही अभी तक प्रमुख रूप से किया गया है।

डॉ. ब्रयन्ट ने टेक्सास के सेमिनोल कैन्यन में रहने वाले 9000 वर्ष पूर्व के मानव के भोजन में प्रयोग किए गए पौधों का उल्लेख अपने एक शोध पत्र में किया है। मल-अवशेषों के पराग कण के अध्ययन से उस समय के पर्यावरण का भी अन्दाज़ा लगाया गया है।

डॉ. लीशय गोरहन ने गुफाओं में रहने वाले निएन्डरथल मानव के कंकाल के नीचे से मिली मिट्टी तथ अन्य अवशेषों के आधार पर 50,000 वर्ष तक पुरानी वनस्पतियों के इतिहास को उजागर किया। उन्होंने यहां तक प्रमाणित किया कि शव को एफेड्रा नामक वृक्ष की शाखाओं पर मई-जून के महीने में दफनाया गया था। इस प्रकार आदि-मानव के इतिहास को जानने में यह परागाणु विज्ञान अत्यन्त कारगर सिद्ध हुआ है।

अपराध परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत अपराधों की जांच-पड़ताल में पराग कणों के उपयोग का अध्ययन किया जाता है। वर्ष 1969 में प्रसिद्ध परागाणु विज्ञानी एर्टमैन ने स्वीडन तथा ऑस्ट्रिया में हुए दो अपराधों का पता पराग कणों के माध्यम से लगाकर दुनिया को अचंभित कर दिया था। उन्होंने वारदातों की गुत्थियां सुलझाने के लिए प्रमाण के तौर पर कपड़ों तथा जूतों की धूल से प्राप्त पराग कणों का विश्लेषण किया और तत्पश्चात अपराधियों को ढूंढ निकालने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। इसके अलावा बन्दूक पर चिपके पराग कणों की सहायता से वे एक मामले मे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हत्या संदिग्ध बन्दूक से नहीं बल्कि किसी अन्य बन्दूक का प्रयोग किया गया था। इस प्रकार आपराधिक मामलों की खोजबीन में परागाणु विज्ञान उपयोगी है।

भोजन के रूप में भी पराग कणों की उपयोगिता सिद्ध हुई है। पराग कणों को संतुलित भोजन की श्रेणी में रखा गया है। पराग कणों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों ने इसके चमत्कारी गुणों को पहचान कर हेल्थ फूड नाम दिया है। इनमें जीवन प्रणाली को सुचारु रूप से चलाने वाले सभी पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जैसे प्रोटीन, विभिन्न विटामिन तथा खनिज तत्व।

टाइफा पौधे की करीब 9 प्रजातियों के पराग कणों का भोज्य पदार्थ के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इनके पराग कणों को आटे के साथ मिलाकर केक व अन्य बेकरी पदार्थ बनाने में प्रयुक्त किया जाता है। सूप को गाढ़ा करने में तथा गरम दूध के साथ इनका सेवन किया जाता है। मक्का के पराग कणों का आकार बड़ा होता है और वे खाने की सूची में विशिष्ट स्थान रखते हैं। कई देशों में पराग कणों का प्रयोग नवजात शिशु के प्रथम आहार के तौर पर भी किया जाता है। अनेकानेक गुणों के साथ पराग कणों का एक अवगुण भी है, जो एलर्जी के रूप में नज़र आता है।

पराग कणों के गुणों-अवगुणों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि पराग कणों के गुणों का पलड़ा बहुत भारी है। पराग कण पेड़-पौधों के लिए जितने जरूरी हैं उतने ही मानव के लिए भी आवश्यक हैं। यदि समग्र रूप में पराग कणों के महत्व का मूल्यांकन किया जाए, तो ये निसन्देह मानव जीवन के लिए अपरिहार्य हैं तथा इनके अभाव में मानव के अस्तित्व की कल्पना भी कर पाना असम्भव है। (स्रोत फीचर्स)

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सूरज को धरती पर उतारने की तैयारी – प्रदीप

मानव विकास के लिए अधिकाधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। बिजली पर हमारी बढ़ती निर्भरता के कारण भविष्य में ऊर्जा की खपत और भी बढ़ेगी। मगर इतनी ऊर्जा आएगी कहां से। यह तो हम सब जानते हैं कि धरती पर कोयले और पेट्रोलियम के भंडार सीमित हैं। ये भंडार ज़्यादा दिनों तक हमारी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकते। और इनसे प्रदूषण भी होता है। आप कह सकते हैं कि अब तो नाभिकीय रिएक्टरों का इस्तेमाल बिजली पैदा करने में किया जाने लगा है तो कोयले और पेट्रोलियम के खत्म होने की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। मगर ऐसा नहीं है, जिस युरेनियम या थोरियम से नाभिकीय रिएक्टर में परमाणु क्रिया सम्पन्न होती है, उनके भंडार भी भविष्य में हमारी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए बेहद कम हैं। और नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन में रेडियोधर्मी, रेडियोएक्टिव उत्पाद भी उत्पन्न होते हैं जो पर्यावरण और मनुष्य के लिए घातक है। 

वैज्ञानिक लंबे समय से एक ऐसे र्इंधन की खोज में हैं, जो पर्यावरण और मानव शरीर को नुकसान पहुंचाए बगैर हमारी ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति करने में सक्षम हो। वैज्ञानिकों की यह तलाश नाभिकीय संलयन (न्यूक्लियर फ्यूज़न) पर समाप्त होती दिखाई दे रही है। नाभिकीय संलयन प्रक्रिया ही सूर्य तथा अन्य तारों की ऊर्जा का स्रोत है। जब दो हल्के परमाणु नाभिक जुड़कर एक भारी तत्व के नाभिक का निर्माण करते हैं तो इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते हैं। यदि हम हाइड्रोजन के चार नाभिकों को जोड़ें तो हीलियम के एक नाभिक का निर्माण होता है। हाइड्रोजन के चार नाभिकों की अपेक्षा हीलियम के एक नाभिक का द्रव्यमान कुछ कम होता है। इस प्रक्रिया में द्रव्यमान में हुई कमी ही ऊर्जा के रूप में निकलती है।

हाइड्रोजन के संलयन द्वारा इतनी विशाल ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है, यह बात सबसे पहले वर्ष 1938 में जर्मन वैज्ञानिक हैन्स बैथे के अनुसंधान कार्यों से पता चली। इसी नाभिकीय संलयन के सिद्धान्त पर हाइड्रोजन बम का निर्माण किया गया, जिसमें बैथे की महत्वपूर्ण भूमिका थी। वैज्ञानिक कई वर्षों से सूर्य में होने वाली संलयन अभिक्रिया को पृथ्वी पर कराने के लिए प्रयासरत हैं, जिससे बिजली पैदा की जा सके। अगर इसमें सफलता मिल जाती है तो यह सूरज को धरती पर उतारने जैसा ही होगा।

हालांकि लक्ष्य अभी दूर है, मगर चीनी वैज्ञानिकों की इस दिशा में हालिया बड़ी सफलता ने उम्मीदें जगा दी हैं। चीन के हेफई इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िकल साइंसेज़ के मुताबिक चीन अपने नाभिकीय विकास कार्यक्रम के तहत पृथ्वी पर नाभिकीय संलयन प्रक्रिया द्वारा सूर्य जैसा एक ऊर्जा स्रोत बनाने का प्रयास कर रहा है। चाइना डेली में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक वैज्ञानिकों ने चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ प्लाज़्मा फिज़िक्स के न्यूक्लियर फ्यूज़न रिएक्टर में सूरज की सतह के तापमान से 6 गुना ज़्यादा तापमान (तकरीबन 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस) उत्पन्न कर लिया है। इस तापमान को तकरीबन 10 सेकंड तक स्थिर रखा गया। नाभिकीय संलयन क्रिया को सम्पन्न कराने के लिए इतना उच्च ताप और दाब ज़रूरी है। अभी तक इतना अधिक तापमान पृथ्वी पर प्राप्त नहीं किया जा सका था।

चीन निर्मित इस फ्यूज़न रिएक्टर का व्यास 8 मीटर, लंबाई 11 मीटर और वज़न 400 टन है। इस रिएक्टर को दी एक्सपेरिमेंटल एडवांस्ड सुपरकंडक्टिंग टोकामैक नाम दिया गया है। चीन के अनहुई प्रांत में स्थापित रिएक्टर ईस्ट में प्लाज़्मा को टायर जैसे एक गोलाकार पात्र में गर्म किया जाता है। दरअसल प्लाज़्मा द्रव्य की चौथी अवस्था है। प्लाज़्मा बहुत गर्म भी हो सकता है और बहुत ठंडा भी। ईस्ट की दीवारों को प्लाज़्मा के उच्च ताप से बचाने के लिए चुंबकीय क्षेत्र का इस्तेमाल किया गया है जिससे प्लाज़्मा पात्र की दीवारों को बिना स्पर्श किए चक्कर काटता रहता है। ड्यूटेरियम और ट्रिटियम से बने हीलियम कण प्लाज़्मा के चुंबकीय क्षेत्र में कुछ देर तक कैद रहते हैं। बाद में इन्हें डाइवर्टर पम्प से बाहर कर दिया जाता है। चुंबकीय क्षेत्र से न्यूट्रॉन कण निरंतर दूर होते जाते हैं क्योंकि वे आवेश रहित होते हैं। भविष्य में इन्हें एक ऊर्जा संयंत्र में पकड़कर ऊर्जा बनाना संभव होगा।

नाभिकीय विखंडन पर आधारित वर्तमान रिएक्टरों की आलोचना का सबसे बड़ा कारण है इनसे ऊर्जा के साथ रेडियोएक्टिव अपशिष्ट पदार्थों का भी उत्पन्न होना। नाभिकीय विखंडन के सिद्धान्त के आधार पर ही परमाणु बम बना। विखंडन रिएक्टर मनुष्य तथा पर्यावरण के लिए बहुत घातक होते हैं। इनसे डीएनए में उत्परिवर्तन तक हो सकते हैं। इससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी आनुवंशिक दोषयुक्त संतानें पैदा हो सकती हैं। वहीं संलयन रिएक्टर से उत्पन्न होने वाले रेडियोएक्टिव कचरे बहुत कम होते हैं तथा इनसे पर्यावरण को कोई भी नुकसान नहीं होता।

तारों पर होने वाली नाभिकीय संलयन प्रक्रिया को सर्वप्रथम मार्क ओलिफेंट ने 1932 में पृथ्वी पर दोहराने में सफलता प्राप्त की थी। अभी तक वैज्ञानिकों को इस प्रक्रिया को पृथ्वी पर नियंत्रित रूप से सम्पन्न कराने में कामयाबी नहीं मिली थी। मगर चीनी वैज्ञानिकों ने रिएक्टर ईस्ट में कृत्रिम संलयन करवाने लिए हाइड्रोजन के दो भारी समस्थानिकों ड्यूटेरियम और ट्रिटियम को र्इंधन के रूप में प्रयोग किया है। धरती के समुद्रों में ड्यूटेरियम काफी मात्रा में मौजूद है। जबकि ट्रिटियम को लीथियम से प्राप्त किया जा सकता है जो धरती पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। इसलिए नाभिकीय संलयन के लिए र्इंधन की कभी कमी नहीं होगी। ड्यूटेरियम में एक न्यूट्रॉन होता है और ट्रिटियम में दो। अगर इन दोनों में टकराव हो तो उससे हीलियम का एक नाभिक बनता है। इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है। भविष्य में इसी ऊर्जा का इस्तेमाल टर्बाइन को चलाने में किया जाएगा। अनुमान है कि इसमें अभी 10-15 वर्षों का समय लगेगा। निश्चित रूप से चीन का नाभिकीय संलयन कार्यक्रम ऊर्जा संकट को दूर करने में और वैश्विक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा। (स्रोत फीचर्स)

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जैव विविधता का तेजी से होता ह्यास – नवनीत कुमार गुप्ता

र्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने अपनी एक रिपोर्ट में जैव विधिधता में हो रही कमी को रेखांकित किया है। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड प्रकृति के संरक्षण के मामले में दुनिया का विशालतम तथा स्वतंत्र संगठन है, जिसका उद्देश्य पृथ्वी के प्राकृतिक पर्यावरण को नष्ट होने से बचाना तथा एक ऐसे भविष्य का निर्माण करना है, जिसमें इंसानों तथा प्रकृति के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ता बना रहे।

यह संगठन हर दो वर्ष में लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट प्रकाशित करता है। इस वर्ष के प्रकाशन में कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। डब्लू.डब्लू.एफ. के शोधकर्ताओं ने जैव विविधता की वर्तमान स्थिति का आकलन करने के लिए ज़ुऑलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन के लिविंग प्लैनेट इंडेक्स का अध्ययन किया। लिविंग प्लैनेट इंडेक्स दुनिया भर में रीढ़धारी प्रजातियों की संख्या के आधार पर वैश्विक जैव विविधता की स्थिति का आकलन करती है। नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक 1970 से 2014 के बीच विभिन्न रीढ़धारी प्रजातियों की आबादी में औसतन 60 प्रतिशत की कमी आई है। सर्वाधिक कमी उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों जैसे दक्षिणी तथा मध्य अमेरिका में आई है। यहां 1970 की तुलना में 89 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। मीठे पानी में पाए जाने वाले जीवों की संख्या में भी भारी कमी देखी गई है। इंडेक्स के मुताबिक 1970 की तुलना में इन जीवों में 83 प्रतिशत की कमी आई है।

ये वैश्विक आंकड़े उपयोगी हैं। लेकिन यह समझना आवश्यक है कि क्या विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में आई कमी का स्तर अलग-अलग है तथा क्या उन्हीं प्रजातियों पर अलग प्रकार से भी असर पड़ रहा है? इन जानकारियों के लिए लिविंग प्लैनेट इंडेक्स एक महत्त्वपूर्ण साधन है, जो जीवों की विभिन्न प्रजातियों पर खतरों के बारे में बता सकता है।

यह रिपोर्ट वैश्विक जैव विविधता के संरक्षण के लिए कुछ कदमों की भी सिफारिश करती है। पहला कदम विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विश्व स्तर पर जैव विविधता संरक्षण हेतु योजना विकसित करना तथा उसे विभिन्न देशों द्वारा लागू करना है। पहला लक्ष्य है वन क्षेत्र में विस्तार करना, जो कई जानवरों, कीड़ों तथा पक्षियों को आश्रय देते हैं। जैव विविधता के संरक्षण के लिए अगला लक्ष्य एक बार इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना तथा मीठे पानी में पाए जाने वाले जीवों की सुरक्षा के लिए प्लास्टिक को पानी में फेंकने पर रोक लगाना शामिल है।

पूरी धरती के मनुष्यों तथा जानवरों को संरक्षण देने वाली प्राकृतिक व्यवस्था में गिरावट रोकने के लिए दुनिया भर में वास्तविक परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। सबसे बड़ी चुनौती लगातार बढ़ती आबादी पर नियंत्रण पाने के तरीके तलाशना है। पृथ्वी को खूबसूरत बनाने तथा इसके रहवासियों को एक सकारात्मक भविष्य देने के लिए प्रकृति का ह्यास रोकना आवश्यक है, जिसके लिए हम सबको मिलकर कार्य करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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इंसान-मशीन के एकीकरण और अंतरिक्ष का साल – चक्रेश जैन

विज्ञान की प्रतिष्ठित और लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं पर नज़र डालने से पता चलता है कि वर्ष 2018 विज्ञान जगत में नई उपलब्धियों का साल रहा। ब्राहृांड के रहस्यों को बेहतर और वैज्ञानिक तरीके से समझने के प्रयास चलते रहे। अंतरिक्ष में जीवन की संभावनाओं का पता लगाने की कोशिशों का और अधिक विस्तार हुआ। इनमें चंद्रमा और मंगल ग्रह का ज़िक्र विशेष रूप से किया जा सकता है। जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी में नए प्रयोगों और सफलताओं के दावों से संकेत मिला कि वैज्ञानिक बिरादरी ईश्वर की भूमिका में हस्तक्षेप करने की दहलीज़ तक पहुंच चुकी है। वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की नई-नई प्रजातियों का पता चला। मनुष्य और मशीन के एकीकरण के विस्तार की झलक दिखाई दी। अब हम उस दौर तक पहुंच चुके हैं, जहां से हाइब्रिड युग आरंभ होता है। साइबोर्ग महिला और पुरुष दोनों का आगमन हो चुका है। साइबोर्ग का अर्थ है मशीन और मनुष्य का संकर।

विदा हो चुके वर्ष 2018 में विश्व भर में कृत्रिम मेधा यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का बोलबाला रहा। इसकी शुरुआत 1950 के दशक में हुई थी। इस बारे में सबसे पहले कंप्यूटर वैज्ञानिक जॉन मेकार्थी ने बताया था। वास्तव में कृत्रिम मेधा से मेधावी कंप्यूटर और कंप्यूटर नियंत्रित रोबोट बनाए जा रहे हैं। कृत्रिम मेधा ने एक लंबा सफर तय किया है। स्मार्ट फोन, मेधावी गैजेट्स, ड्रोन, रोबोट आदि इंटेलीजेंट मशीनों के कुछ उदाहरण हैं जो रोज़मर्रा के जीवन में पैठ बना चुके हैं। सच तो यह है कि आने वाले वर्षों में जीवन का हर क्षेत्र कृत्रिम मेधा की ताकत से बड़े पैमाने पर प्रभावित होने वाला है।

इसी वर्ष ब्रिटेन में संसदीय शिक्षा समिति की बैठक में पेपर रोबोट पेश किया गया, जिसने सांसदों के विभिन्न सवालों के उत्तर दिए। वर्ष 2018 में नेतानुमा धुआंधार भाषण देने वाले रोबोट के निर्माण के प्रयास जारी रहे।

गुज़रे साल जापान के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में एक स्पेस एलिवेटर भेजने का विलक्षण प्रयोग किया। यह दुनिया का प्रथम और बेहद शुरुआती प्रयोग है। इस तरह का विचार 1895 में रूस के वैज्ञानिक कांस्टान्टिन तासिलकोव्स्की के मन में पेरिस में ऑइफल टॉवर देखने के बाद आया था। लेकिन यह विचार साकार नहीं हो सका था। लगभग एक सदी बाद आर्थर सी. क्लार्क ने इस विचार को दोहराया था। अब स्पेस एलिवेटर विज्ञान गल्प या कोरी कल्पना नहीं रह गया है।

इस वर्ष अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की आंख कही जाने वाली केप्लर अंतरिक्ष दूरबीन रिटायर हो गई। इसने नौ वर्षों के दौरान 3600 से ज़्यादा एक्सोप्लेनेट्स यानी हमारे सौर मंडल से बाहर के ग्रहों की खोज की। इनमें से कुछ पर जीवन की संभावना व्यक्त की गई है।

12 अगस्त को नासा ने सूर्य और उसके वायुमंडल के रहस्यों पर से पर्दा हटाने के लिए डेल्टा-4 रॉकेट से पार्कर सोलर प्रोब भेजा। इस यान का नाम विख्यात भौतिकीविद् यूजीन पार्कर के नाम पर रखा गया है। यह मिशन सूर्य के वायुमंडल कहे जाने वाले आभामंडल यानी करोना का व्यापक अध्ययन करेगा। वास्तव में करोना प्लाज़्मा से बना होता है। करोना के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने भी 2019-2020 के दौरान सौर मिशन आदित्य-एल-1 लांच करने की योजना बनाई है। इसका उद्देश्य सूर्य के बारे में हमारी वैज्ञानिक समझ को बढ़ाना है।

विदा हो चुके साल में नासा की बड़ी सफलताओं में एक और अध्याय नवंबर में जुड़ गया, जब इनसाइट यान लगभग पचास करोड़ किलोमीटर की यात्रा पूरी कर मंगल ग्रह पर उतरा। इनसाइट से मिली जानकारी चंद्रमा और मंगल पर मानव भेजने के अभियानों में अहम भूमिका निभाएगी।

17 जुलाई को अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ ने बृहस्पति के दस नए उपग्रहों की खोज की घोषणा की। अब इन उपग्रहों की कुल संख्या 79 हो गई है। सौर मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के उपग्रहों की संख्या भी सबसे ज़्यादा है।

आठ दिसंबर को चीन ने अपने चंद्र मिशन कार्यक्रम के अंतर्गत चंद्रमा की अंधेरी सतह का अध्ययन करने के लिए चांग-ई-4 यान सफलतापूर्वक भेजा। इस मिशन का उद्देश्य चंद्रमा की उत्पत्ति के रहस्यों पर शोध करना है। जीव वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए आलू और रेशम के कीड़ों के अंडाणु भी भेजे गए हैं। इस वर्ष दिसंबर में नासा का अंतरतारकीय यान वोयेजर-2 सफलतापूर्वक सौर मंडल से बाहर निकल गया। वोयेजर-1 छह वर्ष पहले ऐसा कर चुका है। दरअसल, दोनों ही मानव रहित यान हैं, जिन्हें सौर मंडल और उसके बाहर के ग्रहों का पता लगाने के लिए भेजा गया है। वोयेजर-2 को 41 वर्ष पूर्व प्रक्षेपित किया गया था।

नवंबर के अंतिम सप्ताह में हांगकांग में जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी क्रिस्पर कास-9 पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में चीनी वैज्ञानिक ही जियानकुई ने क्रिस्पर तकनीक से तैयार किए गए मानव भ्रूणों से दो शिशुओं के पैदा होने की घोषणा की। जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी ने जीन्स में फेरबदल कर डिज़ाइनर शिशु पैदा करने का मार्ग प्रशस्त किया है। अधिकांश वैज्ञानिकों ने इस प्रयोग की आलोचना करते हुए इसे जैव नैतिकी का उल्लंघन बताया है। दुनिया के कुछ देशों में जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी पर प्रतिबंध है। इसी वर्ष चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ और अमेरिका के पडर्यू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने क्रिस्पर तकनीक से चावल की अधिक पैदावार वाली किस्म विकसित की।

विज्ञान शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जर्मनी के वैज्ञानिकों ने बैबून (बंदर की प्रजाति) के शरीर में सूअर का दिल सफलतापूर्वक लगा दिया है। बैबून छह महीने से अधिक समय तक जीवित रहा। प्रत्यारोपण के लिए सूअर के जीन में परिवर्तन किया गया था। अपनी तरह के इस पहले प्रयोग से भविष्य में मनुष्य को नया जीवन प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है।

खगोल विज्ञान के अध्येताओं ने विशेष प्रकार के कैमरे से एक मंदाकिनी 1052-डीएफ-2 की खोज की, जिसमें डार्क मैटर अर्थात अदृश्य द्रव्य नहीं है। वास्तव में डार्क मेटर एक रहस्यपूर्ण पदार्थ है, जिसका द्रव्यमान है, लेकिन वह दिखाई नहीं देता।

इसी साल भौतिकीविदों ने हिग्स बोसान की खोज के छह वर्षों बाद बताया कि इनका क्षय होता है। सर्न प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने 2012 में इन कणों के अस्तित्व का पता लगाया था।

अमेरिकी अध्ययनकर्ताओं की एक टीम को समुद्री घोंघे में याददाश्त स्थानांतरण में सफलता मिली। वैज्ञानिकों का कहना है कि आरएनए अणु के ज़रिए याददाश्त को एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरित किया गया था। बीते साल ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने मनुष्य की कोशिकाओं में एक नई आकृति के डीएनए अणु की खोज की, जिसे आई-मेटिफ नाम दिया है। वस्तुत: यह चार लड़ियों की गांठ जैसी संरचना है। आई-मेटिफ डीएनए अणु जीन्स के नियंत्रण में अहम भूमिका निभाता है।

विदा हो रहे वर्ष में ईरान ने इस्राइल पर बादलों को चुराने का आरोप लगाया। ईरान में हो रहे जलवायु परिवर्तन को देखते हुए इस्राइल संदेह के दायरे में आ गया। ईरान के अनुसंधानकर्ताओं ने एक विश्लेषण का हवाला देते हुए कहा कि इस्राइल की कोशिश है कि ईरान के आसमान में बादल तो छाएं, लेकिन बारिश न हो। ऐसा पहले हो चुका है। बीते वर्षों में मौसम विज्ञानी बादलों को कैद करने और कृत्रिम बादल बनाने के प्रयोग करते रहे हैं। एक बात और। मौसम को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की दिशा में कई देश लंबे समय से अनुसंधानों में लगे हुए हैं।

नवंबर के दूसरे पखवाड़े में फ्रांस के वरसेलीज़ में साठ देशों के वैज्ञानिकों ने किलोग्राम की परिभाषा बदलने का निर्णय किया। 129 वर्षों बाद किया गया यह परिवर्तन ऐतिहासिक कहा जा सकता है। भविष्य में मानक वज़न की बजाय विद्युत धारा से किलोग्राम नापा जाएगा। नए मापन से नैनो तकनीक और औषधियों के विकास में सटीकता और परिशुद्धता प्राप्त की जा सकेगी।

इस वर्ष परखनली शिशु तकनीक के चार दशक पूरे हुए। विश्व की पहली परखनली शिशु लुईस ब्राउन है। इन चार दशकों में लगभग साठ लाख परखनली शिशु पैदा हो चुके हैं।

वर्ष 2018 में विज्ञान कथाओं पर लिखी किताब फ्रैंकेस्टाइन: ऑर दी मॉडर्न प्रोमेथियस के प्रकाशन के दो सौ साल पूरे हुए। इस किताब का प्रकाशन पहली बार 1818 में हुआ था। इसे पहली विज्ञान कथा पुस्तक का सम्मान मिला है। इसी वर्ष इंडोनेशिया में एशियाई खेल हुए, जहां विज्ञान और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का जलवा दिखाई दिया। खिलाड़ियों ने विज्ञान की मदद से नए कीर्तिमान रचे।

वर्ष 2018 का भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार आर्थर एस्किन, गेरार्ड मोरो और डोना स्ट्रिकलैंड को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं को लेज़र रिसर्च में योगदान के लिए यह प्रतिष्ठित सम्मान मिला। रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान फ्रांसेस अर्नाल्ड, ग्रेगरी विंटर और जॉर्ज स्मिथ को संयुक्त रूप से दिया गया। तीनों अध्येताओं को परखनली में रसायनों के क्रमिक विकास में शोधकार्य के लिए पुरस्कृत किया गया। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के जेम्स पी. एलिसन और जापान के तासुकु होन्जो को प्रदान किया गया। दोनों अध्येताओं ने कैंसर के खिलाफ शरीर को सक्षम बनाने वाली चिकित्सा की खोज में विशेष योगदान किया है। इस साल का अर्थशास्त्र का नोबेल विलियम नॉर्डहॉस और पॉल रोमर को जलवायु परिवर्तन को आर्थिक विकास के साथ एकीकृत करने के लिए प्रदान किया गया। वर्ष 2018 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार रॉबर्ट पी. लैंगलैंड्स को प्रदान किया गया।

14 मार्च को महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग का निधन हो गया। वे नर्वस सिस्टम की एक दुर्लभ बीमारी से पीड़ित थे। उन्होंने ब्लैक होल्स और सापेक्षता जैसे अहम वैज्ञानिक मुद्दों पर अपनी सोच प्रस्तुत की। उनकी मौलिक सोच ने ब्राहृांड में नई संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया। स्टीफन हॉकिंग की पुस्तक ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम 1988 में प्रकाशित हुई थी। स्टीफन हॉकिंग ने पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन के मंडराते खतरों को देखते हुए अंतरिक्ष में जीवन की नई संभावनाओं को तलाशने की बात कही थी।

3 अक्टूबर को गॉड पार्टिकल के जनक लियो लेडरमैन का निधन हो गया। उन्हें 1988 में भौतिक शास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला था। लियो लेडरमेन फर्मी लैब के निदेशक पद पर भी आसीन रहे। 26 मई को चंद्रमा पर पहुंचने वाले चौथे अंतरिक्ष यात्री एलन बीन की 86 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। एलन बीन अंतरिक्ष यात्री होने के साथ चित्रकार भी थे। उन्होंने अपने अंतरिक्ष यात्रा के अनुभवों को चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया है। उनकी पुस्तक माई लाइफ एज़ एन एस्ट्रोनॉट उल्लेखनीय है।

गुज़रे साल भारतीय विज्ञान अनेक क्षेत्रों में आगे बढ़ता रहा। अंतरिक्ष में शानदार सफलताएं हासिल कीं। इसरो ने अगस्त में गगन मिशन के अंतर्गत 2022 में अंतरिक्ष में मनुष्य को भेजने की घोषणा की। इसकी तैयारी 2004 में शुरू की गई थी। जुलाई में क्रू एस्केप सिस्टम का सफल परीक्षण किया गया। इस परीक्षण से हम समानव अंतरिक्ष यात्रा की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गए। अमेरिका, रूस और चीन के बाद भारत अंतरिक्ष में मानव भेजने वाला चौथा देश होगा।

वर्ष की शुरुआत में इसरो ने पीएसएलवी सी-40 प्रक्षेपण यान से एक साथ 31 उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इनमें भारत का सौवां उपग्रह कार्टोसैट-2 एफ भी शामिल था।

गत वर्ष में इसरो की उपलब्धियों में एक-के-बाद-एक सफलता के अध्याय जुड़ते रहे। 16 सितंबर को पीएसएलवी सी-42 प्रक्षेपण यान के ज़रिए ब्रिटेन के दो उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा गया। भारत अभी तक 28 देशों के 237 उपग्रहों का प्रक्षेपण कर चुका है। 14 नवंबर को बाहुबली रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 डी-2 रॉकेट के ज़रिए संचार उपग्रह जीसैट-29 उपग्रह को अंतरिक्ष में विदाई दी गई। इसका निर्माण देश में ही किया गया है। यह अभी तक का सबसे भारी उपग्रह है। इस सफलता के साथ इसरो मानव अंतरिक्ष उड़ान के एक कदम और नज़दीक पहुंच गया। इस रॉकेट में स्वदेशी क्रॉयोजेनिक इंजन है।

इसी वर्ष इसरो ने 29 नवंबर को पीएसएलवी-सी-43 के माध्यम से आधुनिक भू-पर्यवेक्षण उपग्रह हाइसिस एवं तीस अन्य उपग्रहों को अंतरिक्ष में विदाई दी। हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजिंग उपग्रह का उद्देश्य पृथ्वी की सतह का अध्ययन करना है। साल के उत्तरार्ध में फ्रेंच गुआना से देश के सबसे भारी संचार उपग्रह जीसैट-11 का सफल प्रक्षेपण किया गया। इस उपग्रह से इंटरनेट की रफ्तार बढ़ाने में सहायता मिलेगी। इसरो अगले वर्ष 3 जनवरी को चंद्रयान-2 भेजेगा, जो चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचेगा।

इस वर्ष 27 अगस्त को पहली बार जैव-र्इंधन से विमान उड़ाकर भारत ने विमानन के क्षेत्र में नया इतिहास रचा। रतनजोत से बने इस र्इंधन का विकास सीएसआईआर के देहरादून स्थित भारतीय पेट्रोलियम संस्थान ने किया है। विमान ने 20 सवारियों के साथ देहरादून से दिल्ली के बीच 25 मिनट उड़ान भरी। विकासशील देशों में यह उपलब्धि हासिल करने वाला भारत पहला देश बन गया है।

इसी साल भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों के एक दल ने पहली बार में ही लगभग 600 प्रकाश वर्ष दूर सूर्य के समान तारे की परिक्रमा कर रहे एक बड़े बाह्र-ग्रह (एक्सोप्लेनेट) की खोज की। वास्तव में एक्सोप्लेनेट की खोज नई बात नहीं है। हाल के वर्षों में यह अनुसंधान का रोमांचक विषय रहा है। नासा का केप्लर उपग्रह पहले ही 3786 एक्सोप्लेनेट की खोज कर चुका है। इस खोज के साथ भारत उन देशों की पंक्ति में सम्मिलित हो गया है, जिन्होंने सौर मंडल से बाहर ग्रहों की खोज की है।

गुज़रे साल पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास में एक और नया युग मेघालयन जुड़ गया। इसका नाम भारत के पूर्वोत्तर राज्य मेघालय के नाम पर रखा गया है। मेघालयन युग 4200 वर्ष पूर्व शुरू हुआ था और अभी जारी है।

सीएसआईआर की राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी), नागपुर और केंद्रीय विद्युत रसायन अनुसंधान संस्थान, कराईकुड़ी प्रयोगशालाओं ने दीपावली पर आतिशबाज़ी से होने वाले प्रदूषण को घटाने के लिए ग्रीन पटाखे बनाने की तकनीक विकसित की। इनसे तीस प्रतिशत तक कम वायु प्रदूषण होता है।  

हमारे देश में कृत्रिम मेधा पर अनुसंधान शुरुआती दौर में है। इसके लिए सामाजिक ढांचा ज़रूरी है। हमारे जीवन पर इसका सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार का प्रभाव पड़ेगा। एक ओर गंभीर बीमारियों के इलाज और खेती-किसानी सम्बंधी कार्यों में सहायता मिलेगी, वहीं दूसरी ओर, बेरोज़गारी की चुनौतियों का मुकाबला भी करना पड़ेगा।

26 सितंबर को सीएसआईआर ने वर्ष 2018 के शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार के लिए 13 वैज्ञानिकों के नामों की घोषणा की। इनमें एकमात्र महिला वैज्ञानिक डॉ. अदिति सेन डे को भौतिक विज्ञान में पुरस्कृत किया गया है।

इस वर्ष 3 अक्टूबर को एक विशेष समारोह में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को संयुक्त रूप से संयुक्त राष्ट्र के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार चैम्पियंस ऑफ दी अर्थ से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार पॉलिसी लीडरशिप के अंतर्गत प्रति वर्ष दिया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह सम्मान पर्यावरण संरक्षण तथा जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों पर रोक लगाने के प्रयासों में सराहनीय नेतृत्व के लिए प्रदान किया गया।

केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने पहली बार विज्ञान के विभिन्न विषयों में पीएच.डी. और पोस्ट डॉक्टरल शोधकर्ताओं में लोकप्रिय विज्ञान लेखन के कौशल को बढ़ावा देने की एक परियोजना आगमेंटेड राइटिंग स्किल्स फॉर आर्टिक्युलेटिंग रिसर्च (संक्षेप में अवसर) शुरू की। इस राष्ट्रीय प्रतियोगिता का उद्देश्य अखबारों, पत्रिकाओं, ब्लॉग्स, सोशल मीडिया आदि माध्यमों से विज्ञान को लोकप्रिय बनाना और समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना है। प्रतियोगिता में चुने गए आलेखों को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर पुरस्कृत किया जाएगा।

अक्टूबर में लखनऊ में चौथा भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव आयोजित किया गया, जिसमें नवाचारों और अनुसंधान कार्यों पर विचारों का आदान-प्रदान हुआ। चार-दिवसीय महोत्सव के दौरान साइंस एक्सपो में अंतरिक्ष विज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित मॉडल ने दर्र्शकों को आकर्षित किया। विज्ञान महोत्सव में लगभग छह सौ विद्यार्थियों ने एक साथ केले का डीएनए अणु अलग करके एक नया इतिहास रचा। इसी प्रकार करीब साढ़े तीन हज़ार विद्यार्थियों ने प्राथमिक उपचार का डेमो देकर नया कीर्तिमान स्थापित किया। सम्मेलन में इंटरनेशनल साइंस लिटरेचर एंड फिल्म फेस्टिवल आयोजित किया गया, जिसमें विज्ञान फिल्मों और साइंस कार्टून शामिल किए गए।

गुज़रे साल संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने सिक्किम को जैविक राज्य के रूप में मान्यता देते हुए स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। वर्ष 2016 में सिक्किम को पूरी तरह जैविक राज्य घोषित किया गया था। विदा हो चुके वर्ष 2018 में प्लास्टिक के खिलाफ महाअभियान जारी रहा। संयुक्त राष्ट्र की बीट प्लास्टिक पोल्यूशन थीम पर देश के विश्वविद्यालयों में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया।

इसी वर्ष 14 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ अंतरिक्ष वैज्ञानिक शंकरलिंगम नम्बी को गोपनीय जानकारियां बेचने के आरोपों से मुक्त कर दिया। उन पर 1994 में इसरो की गोपनीय सूचनाएं पाकिस्तान को बेचने के आरोप लगाए गए थे।

इसी साल केरल के कोझिकोड ज़िले में निपाह वायरस का प्रकोप दिखाई दिया। 1998 में पहली बार इस वायरस के हमले का पता चला था। निपाह वायरस को फैलाने में चमगादड़ों की अहम भूमिका रही है। निपाह वायरस का नामकरण मलेशिया के सुनगई निपाह गांव के नाम पर किया गया है।

नवंबर में देश की पहली परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत राष्ट्र को समर्पित की गई।

गुज़रे साल देश में मेट्रिक प्रणाली लागू होने की हीरक जयंती मनाई गई। मेट्रिक प्रणाली एक अप्रैल 1957 से लागू की गई है। इसी वर्ष विख्यात वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस की 125 वीं जयंती मनाई गई। इस अवसर पर कोलकाता में आयोजित समारोह में मुख्य अतिथि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान प्रसार पर बल दिया। 29 जून को जाने-माने सांख्यिकीविद् प्रोफेसर महालनोबिस की 125 वीं जयंती मनाई गई।

इस वर्ष भारतीय गणित की विलक्षण प्रतिभा तथा शिक्षा शास्त्री पी. सी. वैद्य का जन्म शती वर्ष मनाया गया। 23 मार्च 1918 को जन्मे वैद्य ने सापेक्षता सिद्धांत के अनेक पक्षों पर अनुसंधान किया। उन्होंने गांधीवादी विचारों को अपनाते हुए पूरा जीवन गणित के अध्ययन और अनुसंधान को समर्पित कर दिया। वैद्य ने गुजरात गणित मंडल की स्थापना की। वे गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

18 जून को विख्यात वनस्पति विज्ञानी और विज्ञान संचारक एच. वाई. मोहनराम नहीं रहे। उनका नाम देश के प्रथम पंक्ति के वनस्पतिविदों में गिना जाता है। उन्होंने वनस्पति शास्त्र की अनेक विधाओं में विशेष योगदान किया। प्रोफेसर मोहनराम ने ऊतक संवर्धन तकनीक से बांस, केला आदि आर्थिक महत्व की वनस्पतियों को पैदा करने की दिशा में शोधकार्य किया और अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उन्होंने विद्यार्थियों और सामान्य जन के बीच विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में भी सक्रिय भूमिका निभाई।

प्रसिद्ध खगोल फोटोग्राफर और विज्ञान संचारक चंदर देवगन की 29 जुलाई को मृत्यु हो गई। उन्होंने अनेक ग्रहण अभियानों का कुशल नेतृत्व किया। वे सूर्य व चंद्र ग्रहण, बुध और शुक्र के पारगमन सहित कई दुर्लभ खगोलीय घटनाओं के साक्षी बने थे।

वर्ष 2018 में हमने पर्यावरणविद प्रोफेसर गुरुदास अग्रवाल को खो दिया। उन्होंने गंगा नदी प्रवाह को निरतंर बनाए रखने के लिए चार दशकों तक संघर्ष किया। पेशे से इंजीनियर प्रोफेसर अग्रवाल ने आईआईटी, कानपुर में अध्यापन किया। वे कई पर्यावरण आंदोलनों से जुड़े रहे। उन्हें गंगा नदी प्राधिकरण का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।

6 जुलाई को पर्यावरणविद, चित्रकार और लेखक अमृतलाल वेगड़ नहीं रहे। वे संवेदनशील चित्रकार थे। उन्होंने नर्मदा नदी पर तीन किताबें लिखीं – सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा और तीरे-तीरे नर्मदा। नर्मदा नदी से उनका जीवन पर्यंत विशेष लगाव रहा। उन्होंने नदियों को बचाने की चिंता की और अपनी अलग पहचान बनाई। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैफीन-रहित चाय का पौधा – डॉ. अरविंद गुप्ते

जकल चाय सही अर्थ में आम आदमी का पेय बन गया है। गरीब से गरीब व्यक्ति मेहमाननवाज़ी के लिए चाय ही पिलाता है। चाय का पौधा मूल रूप से चीन का निवासी है। एक दंतकथा के अनुसार 2732 ईसा पूर्व (आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व) चीन का बादशाह शेन नुंग शिकार के लिए जंगल गया था। वहां खाना बनाते समय एक जंगली झाड़ी की कुछ पत्तियां उबलते पानी में गिर गर्इं। बादशाह को उस पानी का स्वाद पसंद आया और इस प्रकार उस पौधे की पत्तियों से चाय बनाने की शुरुआत हुई। उस समय चाय का सेवन प्रमुख रूप से एक दवा के रूप में किया जाता था। किंतु पेय के रूप में चाय का उपयोग वहां लगभग 1500 से 2000 वर्ष पूर्व के बीच होने लगा। 16वीं शताब्दी में पुर्तगाल के पादरी और व्यापारी चाय को युरोप लाए। 17वीं शताब्दी में ब्रिाटेन में चाय पीने का फैशन चल पड़ा और अंग्रेज़ों ने भारत में चाय के बागान लगा कर इसका उत्पादन शुरू किया।

चाय पीने से ताज़गी क्यों आती है? इसका कारण यह है कि चाय में कैफीन होता है जो तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित कर देता है। कैफीन के अलावा चाय में थियोब्रोमीन और थियोफायलीन जैसे तंत्रिका उत्तेजक पदार्थ होते हैं जो कैफीन की तुलना में कम मात्रा में होते हैं। चाय और कॉफी के पौधों में कैफीन की उपस्थिति उन्हें कीटों से बचाती है क्योंकि यह एक कीटनाशक भी होता है। कैफीन के विषैले होने के कारण इसके अत्यधिक सेवन से मृत्यु तक हो सकती है।   

चाय या कॉफी पीने का एक नकारात्मक पहलू यह होता है कि तंत्रिका तंत्र के उत्तेजित हो जाने से नींद नहीं आती। जब नींद नहीं आती तब अकारण चिंता बढ़ती है। इसलिए कई लोग बिना कैफीन वाली कॉफी पीते हैं। कॉफी के समान चाय से भी कैफीन को हटाया जा सकता है किंतु इसके लिए चाय की पत्तियों को खौलते पानी में काफी देर तक रखना पड़ता है। इस प्रक्रिया से कैफीन के साथ चाय में मौजूद लाभदायक रसायन भी निकल जाते हैं। बिना कैफीन की कॉफी या चाय अगर तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित न करे तो ताज़गी महसूस नहीं होगी। फिर उन्हें पीने से क्या फायदा? इसके अलावा, कैफीन और अन्य रसायन हट जाने से इनका स्वाद भी बदल जाता है।

यदि चाय का ऐसा पौधा मिल जाए जिसमें कैफीन बिलकुल न हो या बहुत कम हो तो सोने में सुहागा वाली स्थिति बन जाएगी – चाय का स्वाद बना रहेगा और इससे होने वाले हानिकारक परिणामों से भी बचा जा सकेगा। 2011 में चीन के गुआंगडांग प्रांत में चाय का एक ऐसा पौधा मिला था जिसमें कैफीन नहीं था। इस पौधे की खोज के बाद चीनी वनस्पतिशास्त्रियों ने ऐसे ही अन्य चाय के पौधों की तलाश शुरू की। परिणामस्वरूप उन्हें दक्षिण चीन के फुजियान प्रांत में भी चाय का कैफीन-रहित पौधा मिला है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि कैफीन की अनुपस्थिति का कारण इन पौधों के कैफीन का निर्माण करने वाले जीन में परिवर्तन था। सन 2003 में कॉफी के भी दो ऐसे पौधे पाए गए थे जिनमें कैफीन प्राकृतिक रूप से अनुपस्थित था, किंतु इन्हें बड़े क्षेत्र में लगाना संभव नहीं हो पाया। संभव है कि बिना कैफीन वाले चाय के पौधों के साथ भी ऐसा ही हो। फिलहाल यह पहेली बनी हुई है कि यदि कैफीन कीटनाशक के रूप में पौधों की कीटों से रक्षा करता है तो इन पौधों ने ऐसे लाभदायक रसायन को क्यों त्याग दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या विश्व सतत विकास लक्ष्य प्राप्त कर सकेगा? – भारत डोगरा

न दिनों विश्व स्तर पर सतत विकास लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स या एस.डी.जी) विमर्श के केंद्र में हैं। विकास, पर्यावरण रक्षा व समाज कल्याण की विभिन्न प्राथमिकताओं के सम्बंध में व्यापक विमर्श के बाद समयबद्ध लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं कि विभिन्न देशों को निर्धारित समय पर यहां तक अवश्य पहुंचना चाहिए। सतत विकास लक्ष्यों की सार्थकता यह बताई गई है कि इनके निर्धारित होने से उचित प्राथमिकताओं को अपनाने में विश्व स्तर पर बहुत मदद मिलेगी।

ये लक्ष्य तो बहुत ज़रूरी हैं और यदि विश्व इन समयबद्ध लक्ष्यों को पूरा कर सके तो निश्चय ही यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। विकास के महत्वपूर्ण मानकों के आधार पर अभी तक की सबसे बड़ी उपलब्धियां प्राप्त होंगी। पर बड़ा सवाल यह है कि यह सतत विकास लक्ष्य वास्तव में कहां तक प्राप्त हो सकेंगे।

चिंता की एक बड़ी वजह यह है कि जिस दौर में विकास के सबसे बड़े लक्ष्य प्राप्त करने की बात कही जा रही है उसी दौर में अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक व विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि इस दौर में अति गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के कारण व अति विनाशक हथियारों के कारण धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं ही खतरे में पड़ सकती हैं। सवाल यह है कि ऐसे गंभीर संकट के दौर में विकास की सबसे बड़ी उपलब्धियां कैसे प्राप्त की जा सकती हैं।

जहां एक ओर इतनी गंभीर चुनौतियां हैं, उसी दौर में सतत विकास के निर्धारित लक्ष्य कैसे प्राप्त होंगे? यह प्रश्न इस कारण और पेचीदा हो जाता है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता को संकट में पड़ने से बचाने के प्रयास हाल के समय में सफलता से बहुत दूर रहे हैं और विश्व के सबसे शक्तिशाली देश इस संदर्भ में अपनी बड़ी ज़िम्मेदारियों से दूर हटते नज़र आए हैं।

अत: इस समय यह बहुत ज़रूरी है कि विध्वंसक हथियारों को न्यूनतम करने, युद्ध व गृह युद्ध की संभावना कम से कम करने तथा अमन-शांति के लिए विश्व में एक व्यापक व सशक्त जन-अभियान निरंतरता से चले। इसी तरह धरती की जीवनदायिनी क्षमता से जुड़े पर्यावरण के मुद्दों पर भी ऐसा ही अभियान चले। इन जन-अभियानों द्वारा इन समस्याओं की गंभीरता की जानकारी करोड़ों लोगों तक भलीभांति पहुंचाई जाए व इन समस्याओं के समाधान के अनुकूल जीवन-मूल्यों का प्रसार किया जाए। इस तरह अति महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक ज़बरदस्त जन-उभार आ सकता है व इस उभार के कारण सरकारें भी इन मुद्दों पर अधिक ध्यान देने के लिए बाध्य होंगी। इस तरह जो अनुकूल माहौल तैयार होगा, उससे सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की संभावना बहुत बढ़ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कितनी स्वच्छ थी मेरी दिवाली – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

गभग 80 साल पहले रिचर्ड लेवलीन ने एक किताब लिखी थी, हाऊ ग्रीन वॉस माय वैली (कितनी हरी-भरी थी मेरी घाटी)। इस उपन्यास में बताया गया था कि कैसे वेल्स देश के खदान क्षेत्र, लगातार और गहरे खनन के कारण धीरे-धीरे प्रदूषित इलाकों में तब्दील हो गए। हमारे यहां भी हाल ही में हुए घटनाक्रम रिचर्ड लेवलीन की इस किताब की याद दिलाते हैं – दिवाली के समय पटाखों का इस्तेमाल, उनके कारण उत्पन्न ध्वनि और पर्यावरण प्रदूषण (जो भारत के कई स्थानों की पहले से प्रदूषित हवा को और भी प्रदूषित कर रहे हैं) और पटाखों के इस्तेमाल पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश कि पटाखे, वह भी मात्र ग्रीन (पर्यावरण हितैषी) पटाखे, रात में सिर्फ दो घंटे ही चलाए जाएं (जिसका पालन नहीं हुआ)। 

ग्रीन पटाखे क्या हैं? ग्रीन पटाखों में पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले लीथियम, एंटीमनी, लेड, मर्करी जैसे तत्व नहीं होते। इसके अलावा इन पटाखों में परक्लोरेट, परआयोडेट और बेरियम जैसे अति-शक्तिशाली विस्फोटक भी नहीं होते। कोर्ट द्वारा पटाखों के इस्तेमाल से सम्बंधित ये दिशानिर्देश भारत के पेट्रोलियम एंड एक्सप्लोसिव सेफ्टी ऑर्गेनाइज़ेशन (PESO) के सुझाव के आधार पर दिए गए थे। लेकिन वर्तमान में ये ग्रीन पटाखे बाज़ार में उपलब्ध ही नहीं है। तमिलनाडु फायरवर्क्स एंड एमोर्सेस मेन्यूफैक्चरर एसोसिएशन (TANFAMA) की 850 पटाखा फैक्टरी में तकरीबन दस लाख लोग काम करते हैं। उनका सालाना टर्नओवर 5 हज़ार करोड़ का है। एसोसिएशन ने घोषणा की है कि वे परक्लोरेट व उपरोक्त हानिकारक धातुओं का पटाखे बनाने में इस्तेमाल नहीं करते हैं (जिनका उपयोग चीन की पटाखा फैक्टरियों में किया जाता है और उन्हें भारत में निर्यात किया जाता है)। एसोसिएशन का कहना है कि पटाखे बनाने में वे पोटेशियम नाइट्रेट, सल्फर, एल्यूमिनियम पावडर और बेरियम नाइट्रेट का उपयोग करते हैं। आतिशबाज़ी में लाल रंग के लिए स्ट्रॉन्शियम नाइट्रेट का उपयोग किया जाता है और फुलझड़ी की चिंगारियों के लिए एल्यूमिनियम का उपयोग किया जाता है और धमाकेदार आवाज़ के लिए एल्यूमिनियम के साथ सल्फर का उपयोग किया जाता है। हरे रंग के लिए बेरियम का उपयोग किया जाता है। पटाखों में लाल सीसा और बिस्मथ ऑक्साइड का भी उपयोग होता है। एसोसिएशन अपनी वेबसाइट पर दावा करता है कि उनके पटाखों का ध्वनि का स्तर 125 डेसीबल है जो युरोप के मानक ध्वनि स्तर (131 डेसीबल) से भी कम है।

परक्लोरेट और बेरियम

पटाखों में परक्लोरेट का उपयोग एक विस्फोटक की तरह किया जाता है किंतु वह बहुत ही असुरक्षित है। यह थॉयरॉइड ग्रंथि के कार्य को प्रभावित करता है (यह आयोडीन अवशोषण की प्रक्रिया में बाधा डालता है)। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एन्वायर्मेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में आशा श्रीनिवासन और टी. वीरराघवन के शोध पत्र के अनुसार परक्लोरेट कैंसरकारक भी हो सकता है। एन्वायर्मेंट मॉनीटरिंग में अक्टूबर 2012 में प्रकाशित आईसोब की टीम के एक पेपर के अनुसार दक्षिण भारत में पटाखों की फैक्टरी वाले इलाकों के भूजल और नल के पानी में परक्लोरेट सुरक्षित सीमा से अधिक पाया गया था। शुक्र है कि भारत की पटाखा फैक्टरियां अब परक्लोरेट का उपयोग नहीं करती हैं। लेकिन परक्लोरेट से निर्मित पटाखों के आयात पर भी रोक लगनी चाहिए।

भारत में, पटाखों के निर्माण में अभी भी बेरियम का उपयोग किया जाता है। बेरियम भी ग्रीन नहीं बल्कि ज़हरीला भी है। एक आबादी आधारित अध्ययन में पाया गया है कि सुरक्षित सीमा से अधिक बेरियम युक्त पेयजल वाले इलाकों में, 65 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्तियों में ह्मदय सम्बंधी रोगों से मृत्यु होने की आशंका काफी बढ़ जाती है। चूहों पर हुए एक अध्ययन में देखा गया है कि बेरियम का सेवन किडनी को प्रभावित करता है जिसके कारण तंत्रिका सम्बंधी समस्या हो सकती है। यह देखना बाकी है कि यह मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। बिस्मथ भी समस्यामूलक है। हालांकि लेड और एंटीमनी की तुलना में बिस्मथ कम विषैला है, लेकिन यह किडनी, लीवर और मूत्राशय को प्रभावित करता है। इसका विषाक्तता स्तर निर्धारित करना ज़रूरी है।

दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्य वायु प्रदूषण (हवा में निलंबित कण, वाहनों से निकलने वाले प्रदूषक, धुआं और स्मॉग) से जूझ रहे हैं। जिससे वहां के लोगों का रहना दूभर हो रहा है। देश के कई अन्य शहर भी अब दिल्ली की तरह प्रदूषित होते जा रहे हैं। त्यौहारों के अलावा शादी, सामाजिक उत्सवों में पटाखे चलाना प्रदूषण को और भी बढ़ा देता है। हम भारतीय शोर-शराबा करने और पर्यावरण को प्रदूषित करने के आदी हैं। रोक चाहे किसी भी स्तर (स्थानीय, सरकार या सुप्रीम कोर्ट के स्तर) पर लगे किंतु हम लोग उनका पालन नहीं करते। व्यक्तिगत रूप से, परिवार के स्तर पर, समाज के स्तर पर नियमों का पालन करने पर ही बदलाव आएगा। हम भारतीयों के लिए जश्न मनाने का मतलब बस शोर-शराबा करना ही हो गया है।

अन्य देश

मगर ऐसा क्यों है कि भारतीय लोग सिर्फ भारत में ऐसा करते हैं? विदेशों में रह रहे भारतीय वहां ऐसा क्यों नहीं करते? सप्तऋषि दत्ता ने पिछले साल swachhindia.ndtv.com में एक लेख लिखा था: पटाखों पर नियंत्रण और प्रतिबंध: भारत इन देशों से क्या सीख सकता है। ज़्यादातर युरोपीय देश, वियतनाम, सिंगापुर, यूके, आइसलैंड जैसे देश सिर्फ त्यौहारों के आसपास ही पटाखे खरीदने की इज़ाजत देते हैं। यूएसए के 50 से अधिक प्रांतों में कई प्रकार के पटाखों पर प्रतिबंध है। साथ ही वहां व्यक्तिगत स्तर पर पटाखे चलाने की जगह सामाजिक, शहर, राज्य स्तर पर चलाने की अनुमति है। ऑस्ट्रेलिया में भी ऊपर आकाश में जाकर फूटने वाले और तेज़ धमाकेदार आवाज़ करने वाले पटाखों पर प्रतिबंध लगा है। और न्यूज़ीलैंड में साल में सिर्फ चार बार ही पटाखे चलाने की अनुमति है।

यदि भारतीय लोग विदेशों में नियमों का पालन कर सकते हैं तो वे भारत में रहते हुए क्यों नहीं करते? चाहे कितने भी नियम बन जाएं, जब तक सोच नहीं बदलेगी, हम स्वच्छ भारत नहीं बना पाएंगे। इस तर्क में कोई दम नहीं है कि परंपराओं और आस्थाओं का संरक्षण ज़रूरी है। इस संदर्भ में विदेशी और भारतीय दोनों ही सरकारों ने पटाखों को चलाने के लिए कुछ छूट दी है। यदि पटाखे चलाना धार्मिक अनुष्ठान के लिए ज़रूरी है (है क्या?) तो क्यों ना निश्चित समय के लिए और सांकेतिक रूप से चलाए जाएं, जिससे पर्यावरण को भी नुकसान ना पहुंचे।

जैसे कि हम गणेश विसर्जन में मूर्तियों को झील, तालाब या नदियों में इस बात की परवाह किए बिना विसर्जित कर देते हैं कि क्या ऐसा करना पर्यावरण हितैषी हैं। पहले मूर्तियां मिट्टी की बनाई जाती थी, मगर आज बड़ी, पर्यावरण विरोधी, और भड़कीली मूर्तियां बनाई जाती हैं। दी हिंदू में कीर्तिक शशिधरन लिखते हैं, नदी ऐसी जगह बन गई है जहां धार्मिक और प्रदूषणकारी लोग एक साथ देखने को मिलते है। धर्म को लेकर जो हमारी मान्यताएं हैं वह हमारे स्वचछता के विचार से कहीं मेल नहीं खाती। कैसे कोई भक्त नदी को दूषित छोड़ सकता है। और क्या प्रदूषण नदी की पवित्रता कम नहीं करता। हम पटाखे चलाते हैं तो क्या हम प्रदूषण के बारे में सोचते हैं? क्या हवा पवित्र या धार्मिक नहीं है? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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4000 वर्ष पूर्व भी बोर्ड गेम खेला जाता था

हाल ही में पुरातत्ववोत्ताओं को अज़रबैजान स्थित एक शैलाश्रय (रॉक शेल्टर) के फर्श पर छोटे-छोटे छेदों के पैटर्न दिखाई दिए। अनुमान है कि यह प्राचीन बोर्ड खेलों में सबसे पुराना खेल था जिसे आज से लगभग 4 हज़ार साल पहले खानाबदोश चरवाहे खेला करते थे।

अमेरिकन म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के शोधकर्ता वाल्टर क्राइस्ट ने एक प्राचीन खेल 58 होल्स की तलाश में अज़रबैजान स्थित नेशनल पार्क की प्राचीन गुफाओं का दौरा किया। यह खेल हाउंड्स और जैकाल के नाम से भी जाना जाता है।

ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता हॉवर्ड कार्टर ने भी ईसा पूर्व 18वीं सदी के मिस्र के फरोआ अमेनेमहाट के मकबरे में जानवरों आकृति के टुकड़ों के साथ एक गेम सेट पाया। लाइव साइंस की रिपोर्ट के अनुसार अज़रबैजान के शैलाश्रय में पाए गए गोलाकार गड्ढों का विशिष्ट पैटर्न भी इसी खेल से मिलता जुलता है। हालांकि अज़रबैजान में मिले पैटर्न फरोआ के मकबरे से भी पुराने हैं।  

आसपास चट्टानों पर बने चित्रों को देखते हुए अनुमान है कि यह शैलाश्रय 4000 वर्ष पुराना है जब अज़रबैजान के इस इलाके में खानाबदोश चरवाहे रहा करते थे। इसी समय यह खेल मध्य पूर्व के इलाकों के साथ-साथ मिस्र और मेसोपोटेमिया में भी काफी प्रचलित था।        

पुरातत्ववेत्ता को इन गड्ढों के बारे में जानकारी तो थी लेकिन वे यह नहीं जानते थे कि इसे बोर्ड गेम के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। क्राइस्ट के अनुसार प्रत्येक गड्ढे को एक विशिष्ट पैटर्न में काटा गया था जो उसके उपयोग को दर्शाता है। उनका ऐसा भी मानना है कि यह खेल लगभग 1500 वर्षों तक ठीक उसी अंदाज़ में खेला जाता रहा जैसा शुरुआत में खेला जाता था।

हालांकि 58 होल्स के नियम के बारे में जानकारी तो नहीं है लेकिन आधुनिक समय के बैकगैमन की तरह खेला जाता होगा जिसमे कुछ बीज या पत्थरों का उपयोग किया जाता है जो एक निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बोर्ड के चारों ओर चक्कर लगाते हैं।

इस खेल में बीच में दो पंक्तियां होती हैं और चारों ओर आर्क के आकार में गड्ढे बने रहते हैं। इसमें 5वें, 10वें, 15वें और 20वें गड्ढे को किसी तरह से चिन्हित किया होता है। आखिर में शीर्ष पर बना गड्ढा दूसरे गड्ढों की तुलना में थोड़ा बड़ा होता है जिसको आम तौर पर खेल का लक्ष्य या अंत समझा जाता है।

संभावना है कि बोर्ड में गोटियों की चाल को नियंत्रित करने के लिए पांसों का उपयोग किया जाता होगा, लेकिन पूरे सेट में किसी तरह का कोई पांसा नहीं मिला है।

इस खेल को आधुनिक बैकगैमन के समान बताने के विचार को क्राइस्ट ने खारिज करते हुए कहा कि बैकगैमन बाद के रोमन गेम टैबुला से लिया गया है। 58 होल्स का खेल काफी पुराना है, लेकिन इसको सबसे पुराना खेल कहना सही नहीं है।

क्राइस्ट के अनुसार इतने व्यापक स्तर पर इस खेल का खेला जाना सांस्कृतिक बाधाओं को पार करने की क्षमता दर्शाता है। यह परस्पर संवाद में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता होगा। इस खेल ने एक भाषा का भी काम किया होगा जिसमें खेल के ज़रिए आपस में संवाद होता होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मलेरिया परजीवी को जल्दी पकड़ने की कोशिश

हाल ही में सैन डिएगो स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की शोधकर्ता एलिज़ाबेथ विनज़ेलर और उनकी टीम ने ऐसे रसायनों की पहचान कर ली है जो मलेरिया परजीवी का लीवर में ही सफाया कर देंगे।

होता यह है कि जब एक संक्रमित मच्छर मनुष्य को काटता है, तो मलेरिया के लिए ज़िम्मेदार प्लाज़्मोडियम परजीवी स्पोरोज़ाइट अवस्था में शरीर में प्रवेश करते हैं। लीवर में पहुंच कर ये अपनी प्रतियां बनाते और वृद्धि करते हैं। इसके बाद ये रक्तप्रवाह में प्रवेश करते हैं। मलेरिया के लक्षण तब ही दिखाई पड़ते हैं जब ये परजीवी रक्त प्रवाह में प्रवेश कर जाते है और संख्या में वृद्धि करने लगते हैं। आम तौर पर मलेरिया के लक्षणों से निपटने के लिए ही दवाएं दीं जाती हैं।

लेकिन शोधकर्ता चाहते थे कि मलेरिया के परजीवी को लीवर में ही खत्म कर दिया जाए। इसके लिए शोधकर्ताओं ने लगभग 5 लाख मच्छरों से स्पोरोज़ाइट अवस्था में प्लाज़्मोडियम परजीवी को अलग किया। हरेक परजीवी पर उन्होंने लुसीफरेज़ एंज़ाइम जोड़ा, जो जुगनू में चमक पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार होता है, ताकि परजीवी पर नज़र रखी जा सके। इसके बाद हरेक परजीवी पर एक प्रकार का रसायन डाला। और फिर उन्हें लीवर कोशिकाओं के साथ कल्चर किया। इस तरह उन्होंने लगभग 5 लाख रसायनों का अलग-अलग अध्ययन किया।

उन्होंने पाया कि लगभग 6,000 रसायनों ने परजीवियों की वृद्धि को कुशलतापूर्वक रोक कर दिया। जिसमें से ज़्यादातर रसायनों ने लीवर कोशिकाओं को कोई गंभीर क्षति नहीं पहुंचाई। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कितने रसायन दवा के रूप में काम आ सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन रसायनों का कोई पेटेंट नहीं लिया है ताकि अन्य लोग भी इन पर काम कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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