प्रयोगशाला में अनेक सिर वाला जीव बनाया गया

नेक सिरों वाला एक जीव प्रयोगशाला में बनाया गया है। इसे दशानन की तर्ज़ पर अनेकानन कह सकते हैं। दरअसल हायड्रा एक जलीय जीव है जिसमें पुनर्जनन का अनोखा गुण होता है। इसके शरीर का छोटा से टुकड़ा भी बच जाए तो यह पूरा शरीर बनाने की क्षमता रखता है। वैसे हायड्रा का शरीर काफी सरल होता है एक बेलनाकार धड़ और उस पर स्पर्शकों से घिरा सिर।

शोधकर्ता इसकी जेनेटिक संरचना में एक फेरबदल करके ऐसा हायड्रा बना सकते हैं जिसके पूरे शरीर पर सिर ही सिर होंगे। यूनानी दंतकथा में ऐसे अनेकानन हायड्रा का ज़िक्र भी आता है। मगर अब समझ में आया है कि प्राकृतिक रूप से ऐसा क्यों नहीं होता। क्या चीज़ है जो ऐसे अनेक सिर वाले हायड्रा को बनने से रोकती है। यह समझ कैंसर अनुसंधान में काफी उपयोगी साबित हो सकती है।

हायड्रा सरल जीव अवश्य है किंतु शरीर को फिर से विकसित कर लेना कोई हंसीखेल नहीं है। हर बार पुनर्जनन के दौरान हायड्रा को पूरी प्रक्रिया को नियंत्रित करना पड़ता है ताकि हर बार एक ही सिर बने। शोधकर्ता यह तो पहले से जानते थे कि एक जीन (Wnt3) होता है जो सिर के विकास का संदेश देता है। उन्हें यह भी पता था कि इस जीन के लिए कोई आणविक अंकुश भी होना चाहिए अन्यथा हायड्रा के पूरे शरीर पर सिर उगेंगे। शोधकर्ताओं को यह भी पता था कि बीटाकैटिनीन/टीसीएफ नामक एक ग्राही और जीन एक्टिवेटर होता है जो सिर के विकास की प्रक्रिया को शुरू करवाता है।

मगर उन्हें यह पता नहीं था कि इस प्रक्रिया को बंद करने वाला स्विच कौनसा है। जेनेवा विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स व जैव विकास की प्रोफेसर ब्रिगिटे गैलियॉट और उनके साथी इसी स्विच की खोज में थे। पहले उन्होंने हायड्रा के निकट सम्बंधी प्लेनेरियन्स (चपटा कृमि) पर ध्यान दिया। ये कृमि भी पुनर्जनन करते हैं। उन्होंने पाया कि 440 जीन्स ऐसे हैं जो बीटाकैटिनीन/टीसीएफ से संकेत मिलने पर अवरुद्ध हो जाते हैं। इसके आधार पर उन्होंने हायड्रा में छानबीन की। देखा गया कि इनमें से 124 जीन्स हायड्रा में भी पाए जाते हैं।

इन 124 में से भी उन्हें पांच जीन्स ऐसे मिले जो हायड्रा के बेलनाकार शरीर के ऊपरी हिस्से में सक्रिय होते हैं और निचले हिस्से में सबसे कम सक्रिय होते हैं। इसका मतलब है कि ये सिर के विकास से सम्बंधित हैं। अब गैलियॉट और उनके साथियों ने यह देखने की कोशिश की कि कौनसे जीन्स पुनर्जनन की प्रक्रिया के दौरान अधिक सक्रिय होते हैं। इस तरह से तीन जीन्स बचे: Wnt3, Wnt5और Sp5

इनमें से पहले दो जीन्स (Wnt3, Wnt5) के बारे में तो पता था कि ये सिर के विकास की प्रक्रिया को शुरू करवाते हैं। इसलिए उन्होंने तीसरे जीन (Sp5) पर ध्यान केंद्रित किया। रोचक बात यह पता चली कि बीटाकैटिनीन/टीसीएफ से प्राप्त संकेत से Sp5 की सक्रियता बढ़ती है किंतु वह Wnt3 की क्रिया को दबाकर बीटाकैटिनीन/टीसीएफ संकेत को बंद कर देता है। यानी यही (Sp5) वह अंकुश है जो सिर के विकास की प्रक्रिया को रोकता है। इसकी जांच के लिए उन्होंने ऐसे हायड्रा तैयार किए जिनमें Sp5 अभिव्यक्त नहीं होता। और इन हायड्रा ने पुनर्जनन में कई सिरों का विकास किया। कुल मिलाकर पूरी प्रक्रिया अभिव्यक्ति और उसके दमन के नाज़ुक संतुलन पर टिकी है। गौरतलब बात है कि Wnt3 मात्र हायड्रा या चपटे कृमियों तक सीमित नहीं है। यह इंसानों में भी पाया जाता है और यहां भी यह विकास में भूमिका निभाता है। इसके अलावा यही जीन कैंसर के विकास में भी भूमिका निभाता (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

भारतीय लोग रोज़ाना लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन खाते हैं। यह उन्हें अधिकांशत: फलियों, मछली और पोल्ट्री से मिलता है। कुछ लोग, खास तौर से विकसित देशों में, ज़रूरत से कहीं ज़्यादा प्रोटीन का सेवन करते हैं। वॉशिंगटन स्थित संस्था वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट ने हाल ही में सुझाया है कि लोगों को बीफ (गौमांस) खाना बंद नहीं तो कम अवश्य कर देना चाहिए। यह सुझाव हमारे देश के कई शाकाहारियों का दिल खुश कर देगा और गौरक्षकों की बांछें खिल जाएंगी। किंतु वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के इस सुझाव के पीछे कारण आस्थाआधारित न होकर कहीं अधिक गहरे हैं। आने वाले वर्षों में बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए एक टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करने के लिए अपनाए जाने वाले तौरतरीकों की चिंता इसके मूल में है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यू ने इस सम्बंध एक निहायत पठनीय व शोधपरक पुस्तक प्रकाशित की है: शिÏफ्टग डाएट्स फॉर ए सस्टेनेबल फ्यूचर (एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन, इसे नेट से मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है)।

संस्था ने इसमें तीन परस्पर सम्बंधित तर्क प्रस्तुत किए हैं। पहला तर्क है कि कुछ लोग अपनी दैनिक ज़रूरत से कहीं अधिक प्रोटीन का सेवन करते हैं। यह बात दुनिया के सारे इलाकों के लिए सही है, और विकसित देशों पर सबसे ज़्यादा लागू होती है। एक औसत अमरीकी, कनाडियन, युरोपियन या रूसी व्यक्ति रोज़ाना 75-90 ग्राम प्रोटीन खा जाता है इसमें से 30 ग्राम वनस्पतियों से और 50 ग्राम जंतुओं से प्राप्त होता है। 62 कि.ग्रा. वज़न वाले एक औसत वयस्क को 50 ग्राम प्रतिदिन से अधिक की ज़रूरत नहीं होती।

तुलना के लिए देखें, तो भारतीय व अन्य दक्षिण एशियाई लोग लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन का भक्षण करते हैं (जो अधिकांशत: फलियों, मछलियों और पोल्ट्री से प्राप्त होता है)। यही हाल उपसहारा अफ्रीका के निवासियों का है (हालांकि वे हमसे थोड़ा ज़्यादा मांस खाते हैं)। मगर समस्या यह है कि आजकल ब्राज़ील और चीन जैसी उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के ज़्यादा लोग पश्चिम की नकल कर रहे हैं और अपने भोजन में ज़्यादा गौमांस को शामिल करने लगे हैं। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक दुनिया में गौमांस की मांग 95 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। दूसरे शब्दों में यह मांग लगभग दुगनी हो जाएगी। यह इसके बावजूद है कि यूएस में लाल मांसखाने को लेकर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के चलते गौमांस भक्षण में गिरावट आई है।

चलतेचलते यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि जब बीफ की बात होती है तो उसमें गाय के अलावा सांड, भैंस, घोड़े, भेड़ें और बकरियां शामिल मानी जाती हैं। फिलहाल विश्व में 1.3 अरब कैटल हैं (इनमें से 30 करोड़ भारत में पाले जाते हैं)। उपरोक्त अनुमान का मतलब यह है कि आज से 30 साल बाद हमें 2.6 अरब कैटल की ज़रूरत होगी।

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का दूसरा तर्क है कि कैटल पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करते हैं। ये ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के औसत तापमान में वृद्धि में योगदान देते हैं। इसके अलावा, कैटल के लिए काफी सारे चारागाहों की ज़रूरत होती है (एक अनुमान के मुताबिक अंटार्कटिक को छोड़कर पृथ्वी के कुल भूभाग का 25 प्रतिशत चारागाह के लिए लगेगा)। यह भी अनुमान लगाया गया है कि वि·ा के पानी में से एकतिहाई पानी तो पालतू पशु उत्पादन में खर्च होता है। इस सबके अलावा, चिंता का एक मुद्दा यह भी है कि गाएं, भैंसें, भेड़बकरी व अन्य खुरवाले जानवर खूब डकारें लेते हैं। मात्र उनकी डकार के साथ जो ग्रीनहाउस गैसें निकलती है, वे ग्लोबल वार्मिंग में 60 प्रतिशत का योगदान देती हैं।

इसके विपरीत गेहूं, धान, मक्का, दालें, कंदमूल जैसी फसलों के लिए चारागाह की कोई ज़रूरत नहीं होती और इनकी पानी की मांग भी काफी कम होती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इनसे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं होता या बहुत कम होता है। हमने वचन दिया है कि अगले बीस वर्षों में धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि नहीं होने देंगे। किंतु कैटल की संख्या में उपरोक्त अनुमानित वृद्धि के चलते स्थिति और विकट हो जाएगी।

अतिभक्षण से बचें

इस नज़ारे के मद्देनज़र, वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का सुझाव है कि हम, यानी विकसित व तेज़ी से उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के सम्पन्न लोग, आने वाले वर्षों में अपने भोजन में कई तरह से परिवर्तन लाएं। पहला परिवर्तन होगा अतिभक्षण से बचें। दूसरे शब्दों में ज़रूरत से ज़्यादा कैलोरी का उपभोग न करें। हमें रोज़ाना 2500 कैलोरी की ज़रूरत नहीं है, 2000 पर्याप्त है। आज लगभग 20 प्रतिशत दुनिया ज़रूरत से ज़्यादा खाती है, जिसकी वजह से मोटापा बढ़ रहा है। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों से सब वाकिफ हैं। कैलोरी खपत को यथेष्ट स्तर तक कम करने से स्वास्थ्य सम्बंधी लाभ तो मिलेंगे ही, इससे ज़मीन व पानी की बचत भी होगी।

भोजन में दूसरा परिवर्तन यह सुझाया गया है कि प्रोटीन के उपभोग को न्यूनतम अनुशंसित स्तर पर लाया जाए। इसके लिए खास तौर से जंतुआधारित भोजन में कटौती करना होगा। जब प्रतिदिन 55 ग्राम से अधिक प्रोटीन की ज़रूरत नहीं है, तो 75-90 ग्राम क्यों खाएं? और इसकी पूर्ति भी जंतुआधारित प्रोटीन की जगह वनस्पति प्रोटीन से की जा सकती है। सुझाव है कि पारम्परिक भूमध्यसागरीय भोजन (कम मात्रा में मछली और पोल्ट्री मांस) तथा शाकाहारी भोजन (दालफली आधारित प्रोटीन) को तरजीह दी जाए।

और भोजन में तीसरा परिवर्तन ज़्यादा विशिष्ट है: खास तौर से बीफ का उपभोग कम करें।बीफ (सामान्य रूप से कैटल) में कटौती करने से भोजन सम्बंधी और पर्यावरणसम्बंधी, दोनों तरह के लाभ मिलेंगे। पर्यावरणीय लाभ तो स्पष्ट हैं: इससे कृषि के लिए भूमि मिलेगी और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। बीफ की बजाय हम पोर्क (सूअर का मांस), पोल्ट्री, मछली और दालों का उपभोग बढ़ा सकते हैं।

शाकाहारी बनें या वेगन?

हालांकि वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट विशिष्ट रूप से इसकी सलाह नहीं देता किंतु ऐसा करने से मदद मिल सकती है। ज़ाहिर है, यह बहुत बड़ी मांग है और इसके लिए सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की दरकार होगी। मनुष्य सहस्त्राब्दियों से मांस खाते आए हैं। लोगों को मांस भक्षण छोड़ने को राज़ी करना बहुत मुश्किल होगा। शायद बीफ को छोड़कर पोर्क, मछली, मुर्गे व अंडे की ओर जाना सांस्कृतिक रूप से ज़्यादा स्वीकार्य शुरुआत होगी। स्वास्थ्य के प्रति जागरूक और जलवायुस्नेही लोग लचीलाहारीहोने की दिशा में आगे बढ़े हैं। लचीलाहारीशब्द एक लेखक ने दी इकॉनॉमिस्ट के एक लेख में उपयोग किया था। हिंदी में इसे मौकाहारीभी कह सकते हैं। दरअसल भारतीय सेना में एक शब्द मौकाटेरियनका इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो वैसे तो शाकाहारी होते हैं किंतु मौका मिलने पर मांस पर हाथ साफ कर लेते हैं। इन पंक्तियों का लेखक भी मौकाटेरियन है।

शाकाहार की ओर परिवर्तन भारतीय और यूनानी लोगों ने करीब 1500-500 ईसा पूर्व के बीच शुरू किया था। इसका सम्बंध जीवजंतुओं के प्रति अहिंसा के विचार से था और इसे धर्म और दर्शन द्वारा बढ़ावा दिया गया था। तमिल अध्येताकवि तिरुवल्लुवर, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त व अशोक,और यूनानी संत पायथागोरस शाकाहारी थे

शाकाहार की ओर वर्तमान रुझान एक कदम आगे गया है। इसे वेगन आहार कहते हैं और इसमें दूध, चीज़, दही जैसे डेयरी उत्पादों के अलावा जंतुओं से प्राप्त होने वाले किसी भी पदार्थ की मुमानियत होती है। फिलहाल करीब 30 करोड़ भारतीय शाकाहारी हैं जिनमें से शायद मात्र 20 लाख लोग वेगन होंगे, हालांकि यह आंकड़ा पक्का नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निशस्त्रीकरण आंदोलन की बढ़ती ज़रूरत – भारत डोगरा

निशस्त्रीकरण को अमन-शांति के लिए ही नहीं अपितु समग्र रूप से बेहतर विश्व बनाने के लिए भी ज़रूरी समझा गया है। किंतु हथियार निरंतर अधिक विध्वंसक रूप ले रहे हैं। महाविनाशक हथियार इतनी संख्या में मौजूद हैं कि मनुष्यों सहित अधिकांश जीवों का जीवन समाप्त कर सकते हैं।

इन महाविनाशक हथियारों को नियंत्रित करना सबसे बड़ी प्राथमिकता है, पर साथ में यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि अपेक्षाकृत छोटे व हल्के हथियारों से भी कोई कम क्षति नहीं होती। राष्ट्र संघ के पूर्व महानिदेशक कोफी अन्नान ने लिखा है “छोटे हथियारों से होने वाली मौतें बाकी सब तरह के हथियारों से होने वाली मौतों से ज़्यादा हैं। किसी एक वर्ष में इन छोटे हथियारों से मरने वालों की संख्या हिरोशिमा व नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों से मरने वाले लोगों से भी अधिक है। जीवन-क्षति के आधार पर ये छोटे हथियार ही महाविनाशक हैं।”छोटे हथियारों के व्यापार को नियंत्रित करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समझौता हो चुका है। बारूदी सुरंगों व क्लस्टर बमों को प्रतिबंधित करने के प्रयास भी आगे बढ़े हैं। किंतु कई देशों के इन समझौतों से बाहर रहने या अन्य कारणों से इन प्रयासों को सीमित सफलता ही मिल सकी है।

दूसरी ओर परमाणु हथियारों को नियंत्रित करने के प्रयास पहले से और पीछे हट रहे हैं। अमेरिका और रूस के बीच पहले से मौजूद महत्वपूर्ण समझौतों का नवीनीकरण नहीं हो रहा है या उनके उल्लंघन की स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। अमेरिका ने एकतरफा निर्णय द्वारा छ: देशों के ईरान से हुए परमाणु हथियारों का प्रसार रोकने के समझौते को रद्द कर दिया है, जबकि इस समझौते के अन्तर्गत संतोषजनक प्रगति हो रही थी।

रोबोट या कृत्रिम बुद्धि आधारित हथियारों को विकसित करने पर रोक लगाने के लिए रोबोट विज्ञान व उद्योग के अनेक विशेषज्ञों ने एक अपील जारी है पर इसका अधिक असर नहीं हुआ है। ऐसे हथियार विकसित करने पर अमेरिका, रूस व चीन जैसी बड़ी ताकतों ने निवेश काफी बढ़ा दिया है।

रासायनिक व जैविक हथियारों पर प्रतिबंध तो बहुत पहले अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लग चुका है, पर फिर भी चोरी-छिपे ऐसे हथियार तैयार रखने या यहां तक कि उनका वास्तविक उपयोग होने के आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं।

अनेक देशों के बीच बढ़ते तनाव, आंतकवाद के प्रसार तथा विभिन्न स्तरों पर हिंसक प्रवृत्तियों के बढ़ने के कारण अधिक विनाशकारी हथियारों की अधिक व्यापक उपलब्धि ने विश्व में बहुत खतरनाक स्थितियां उत्पन्न कर दी हैं।

दूसरी ओर, हथियारों पर अधिक खर्च के कारण लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के संसाधन घट रहे हैं। उदाहरण के लिए, 1 टैंक की कीमत इतनी होती है कि उससे 40 लाख बच्चों के टीकाकरण का खर्च पूरा किया जा सकता है। मात्र 1 मिराज विमान की कीमत से 30 लाख बच्चों की एक वर्ष की प्राथमिक स्कूली शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है और एक आधुनिक पनडुब्बी व उससे जुड़े उपकरणों की कीमत से 6 करोड़ लोगों को एक वर्ष तक साफ पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है।

निशस्त्रीकरण के प्रयास सदा ही ज़रूरी रहे हैं पर आज इनकी ज़रूरत और भी बढ़ गई है। विभिन्न स्तरों पर निशस्त्रीकरण की मांग को पूरे विश्व में शक्तिशाली व व्यापक जन-अभियान का रूप देना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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चांद पर पौधे उगाए गए – डॉ. दीपक कोहली

चांद पर भेजे गए चीन के रोवर पर कपास के बीज के अंकुरित होने के बाद पहली बार हमारी दुनिया से बाहर चांद पर कोई पौधा पनपा है। वैज्ञानिकों ने मंगलवार को यह जानकारी दी। चोंगकिंग विश्वविद्यालय के एडवांस्ड टेक्नॉलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जारी तस्वीरों की शृंखला के मुताबिक चांग-4 के इस महीने चंद्रमा पर उतरने के बाद यह अंकुर एक कनस्तर के भीतर मौजूद जालीनुमा ढांचे से पनपा है। प्रयोग के डिज़ाइन की अगुवाई करने वाले शाइ गेंगशिन ने कहा, यह पहला मौका है जब मानव ने चंद्रमा की सतह पर जीव विज्ञान में पादप विकास के प्रयोग किए हैं। अंतरिक्ष में महाशक्ति बनने की चीन की महत्वाकांक्षा बढ़ाते हुए चांग-4 तीन जनवरी को चंद्रमा के हमसे दूसरी ओर वाले हिस्से पर उतरा और उसके कभी न देखे गए हिस्से तक पहुंचने वाला विश्व का पहला अंतरिक्ष यान बन गया। वैज्ञानिकों ने वायु, जल एवं मिट्टी युक्त 18 से.मी. का एक डिब्बा भेजा था। इसके भीतर कपास, आलू एवं सरसों प्रजाति के एक-एक बीज के साथ-साथ फ्रूट फ्लाई के अंडे एवं यीस्ट भेजे गए थे। विश्वविद्यालय ने बताया कि अंतरिक्ष यान से भेजी गई तस्वीरों में देखा गया कि कपास के अंकुर बढ़िया से विकसित हो रहे हैं लेकिन अन्य बीजों के अंकुरित होने का कोई समाचार नहीं है। और अंतिम समाचार मिलने तक कपास के अंकुर मृत हो चुके थे। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान के दर्शन और इतिहास के पुरोधा: देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय – डॉ. रामकृष्ण भट्टाचार्य

यह आलेख दी एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता और ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क द्वारा 19-20 नवंबर 2018 को आयोजित जन्म शताब्दी सेमिनार-सह-कार्यशाला के अवसर पर दिए गए मुख्य भाषण पर आधारित है।

ह मेरे लिए गौरव की बात है कि मुझे एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता के तत्वावधान में देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय (1918-1993) पर आयोजित संगोष्ठी में मुख्य भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया है। स्वयं देबीप्रसादजी युवावस्था से ही एशियाई अध्ययन के इस सबसे पुराने केंद्र से जुड़े और अपने जीवन के अंतिम दिन तक जुड़े रहे। वे हमेशा कृतज्ञतापूर्वक याद करते थे कि कैसे प्रोफेसर निहार रंजन राय (1903-1981) ने काम के दौरान सोसाइटी लाइब्रेरी में उनकी पढ़ाई में मदद की और इस काम की बदौलत अंग्रेज़ी में लोकायत (1959) के रूप में एक महान कृति हमारे सामने आई।

देबीप्रसादजी का सम्बंध उस पीढ़ी से था जिसे सही मायने में यंग बंगाल नामक समूह का उन्नीसवीं सदी में पुनर्जन्म कहा जा सकता है। उनकी जीवन शैली में उसी तरह की लापरवाही नज़र आती है; धर्म और पारंपरिक मूल्यों के प्रति वही अश्रद्धा, और खुली सोच और यथार्थ का वैसा ही गुणगान।

कलाकार, निबंधकार, चित्रकार, नाटककार, कवि और अन्य प्रतिभाएं लगभग 1940 के दशक में संस्कृति के सभी क्षेत्रों में दिखाई देने लगी थीं। जाने-माने विद्वान गोपाल हलधर ने इस घटना को माक्र्सवादी पुनर्जागरण का नाम दिया है।

देबीप्रसादजी इस दूसरे पुनर्जागरण के उत्पाद थे। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत आधुनिक घराने के एक कवि के रूप में की थी। वे स्वयं को समर सेन का चेला कहते थे। 1960 के दशक में समर सेन के साथ गंभीर राजनीतिक मतभेद होने के बाद भी आपसी सम्मान और सौहार्द पर आधारित उनके रिश्ते पर न तो कोई प्रभाव पड़ा और ना ही कोई बाधा आई।

जैसा कि उनके शानदार अकादमिक कैरियर से पता चलता है, देबीप्रसादजी जीवन भर दर्शनशास्त्र के छात्र रहे। हालांकि, उनकी शुरुआती युवावस्था में साहित्य और कला, विशेष रूप से कविता, ज़्यादा प्रमुख रहे। 1940 के दशक के अंत और 1950 के दशक के पूर्वार्ध में वे अधिकतर बांगला भाषा में कविता, पेंटिंग और यहां तक कि फिल्मों पर लेखन में व्यस्त रहे। कुछ समय के लिए उनकी रुचि सिगमंड फ्रायड और उनकी मनोविश्लेषण प्रणाली में भी रही। लेकिन मार्क्सवादी नामक पत्रिका के पन्नों पर भवानी शंकर सेनगुप्ता द्वारा उनकी पुस्तक यौन जिज्ञासा की तीखी समीक्षा ने उनको फ्रायड के विचारों से दूर कर दिया। मार्क्सवादी अनौपचारिक ढंग से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिका थी। इसके बाद 1951 में, प्राचीन काल में भारतीय दर्शन और भौतिकवाद के बारे में भवानी सेन के साथ विवाद सुलझने के बाद, स्वयं भवानी सेन ने उन्हें इस बात के लिए तैयार किया कि वे प्राचीन भारतीय सोच की सकारात्मक विरासत को सबके सामने लाएं ताकि भारतीयों के बीच व्याप्त रूढ़िवाद का मुकाबला किया जा सके। भवानी सेन के साथ इस विवाद की चर्चा देबीप्रसाद की अग्रंथिता वितर्क, अबाभास, 2012 में संकलित है। (देबीप्रसादजी ने ये बातें अपने आलेख ए क्रिएटिव मार्क्सट एज़ आई न्यू हिम में दर्ज की हैं। यह आलेख उन्होंने भवानी सेन के स्मरण में प्रकाशित पुस्तक ट्रिब्यूट: भवानी सेन (1972) में लिखा था।

लोकायती देबीप्रसाद

यह देबीप्रसादजी के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। वे 1940 के दशक के अंत से ही युवा पाठकों के लिए लोकप्रिय विज्ञान के लेखन कार्य में व्यस्त रहे। उन्होंने पाठकों के लिए एक-दो नहीं बल्कि कई शृंखलाओं का संपादन किया। वे पहले से ही साहित्यकार के रूप में इतने प्रसिद्ध थे कि लखनऊ में 1954 में आयोजित अखिल भारतीय बंगाली साहित्य सम्मेलन के 30वें सत्र में उन्हें किशोर साहित्य अनुभाग का अध्यक्ष मनोनीत किया गया था। उस समय उनकी आयु केवल 36 वर्ष थी। सम्मेलन में दिया गया उनका भाषण एक क्लासिक रहा है। सोमेश चट्टोपाध्याय और शांतनु चक्रवर्ती द्वारा संपादित लोकायत देबीप्रसाद (1994) में इसे शामिल किया गया।

बहरहाल, 1953-54 से उन्होंने खुद को प्राचीन भारतीय दर्शन में भौतिकवादी परंपरा के अध्ययन की ओर समर्पित कर दिया था। एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी होने के नाते उन्होंने सभी प्रमुख ग्रंथों का अध्ययन किया। इससे सीखी बातों को प्राचीन भारतीय विचारों पर लागू करना उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी। इंग्लैंड यात्रा और बर्मिंगहैम के प्रोफेसर जॉर्ज थॉमसन के साथ चर्चा उन्हें सही परिप्रेक्ष्य हासिल करने में मददगार हुई। इसका परिणाम उनकी बांगला पुस्तक लोकायत दर्शन (1956) और उसके बाद अंग्रेज़ी में आई लोकायत (1959) के रूप में देखने को मिला। इसकी देश-विदेश में खूब सराहना भी हुई और विरोध की कुछ आवाज़ें भी उठी। पूरी दुनिया में विद्वानों और सामान्य पाठकों से मिली प्रशंसा ने इन आवाज़ों को दबा दिया। लोकायत आज भी एक बेस्टसेलर है और भारत में भौतिकवादी परंपरा में रुचि रखने वाले विद्यार्थी आज भी इस किताब को पढ़ते हैं। 1959 के बाद से भले ही इस क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण अध्ययन सामने आए हैं, लेकिन इस काम का मूल्य कभी कम नहीं होगा।

दर्शन से विज्ञान के इतिहास की ओर

यह तो स्पष्ट नहीं है कि देबीप्रसाद जी ने अपने अनुसंधान का फोकस दर्शन शास्त्र से हटाकर विज्ञान के इतिहास की ओर क्यों मोड़ा। न तो उन्होंने इसके बारे में कुछ लिखा है और न ही उनके सहयोगियों को विज्ञान के इतिहास में उनकी दिलचस्पी के बारे में कुछ पता है। उनकी किताब व्हाट इज़ लिविंग एंड व्हाट इज़ डेड इन इंडियन फिलॉसफी (1976) और हिस्ट्री ऑफ़ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी इन एनशंट इंडिया (खंड 1, 1986) के बीच साइंस एंड सोसाइटी इन एनशंट इंडिया (1977) नाम से एक किताब प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक की प्रस्तावना में वे लिखते हैं, वर्तमान अध्ययन का उद्देश्य मेरी हाल ही में प्रकाशित व्हाट इज़ लिविंग एंड व्हाट इज़ डेड इन इंडियन फिलॉसफी को संपूर्णता प्रदान करना है। जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है वह पुस्तक विशेष रूप से दर्शन शास्त्र पर केंद्रित थी। यहां तक कि साइंस एंड सोसाइटी इन एनशंट इंडिया की योजना भी मूल रूप से तीन खंडों में बनाई गई थी, जिसमें तीसरा खंड प्राचीन भारतीय चिकित्सा के बुनियादी सिद्धांतों में न्याय-वैशेषिका दर्शन के स्रोतों पर चर्चा करना था। हालांकि, जैसा कि उन्होंने बाद में कहा, विचार करने पर उन्होंने तीसरे खंड को अलग-अलग दो पुस्तकों के रूप में लिखने का फैसला किया था – साइंस एंड काउंटर आइडियोलॉजी और दी सोर्स-बुक्स रीएक्ज़ामिन्ड। उनका ऐसा मानना था कि यह तकनीकी विवरणों से भरा है इसलिए सामान्य पाठकों के रुचि का नहीं होगा। अलबत्ता, वह तीसरी पुस्तक कभी नहीं लिखी गई।

इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि देबीप्रसाद जी ने सिर्फ विद्वानों के लिए ही नहीं लिखा; उनके ज़हन में हमेशा सामान्य पाठक थे। यह एक ऐसा गुण था जो अकादमिक लोगों के कामों में प्राय: देखने को नहीं मिलता है। यह शायद प्रोफेसर वाल्टर रूबेन का प्रभाव था।

जिस तरह से कुछ लोगों की भूख खाना खाने के साथ बढ़ती है, उसी तरह देबीप्रसाद जी द्वारा चरक संहिता और सुश्रुत संहिता का अध्ययन उन्हें न्याय-वैशेषिका दर्शन से विज्ञान की अन्य शाखाओं की ओर ले गया। जैसे खगोल विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, गणित आदि। चिकित्सा संहिताओं से जोड़कर न्याय-वैशेषिका की चर्चा का वादा पूरा नहीं किया गया। उन्होंने एक सर्वथा नए दृष्टिकोण से प्राचीन भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इतिहास लिखने की ज़रूरत महसूस की। उन्होंने महसूस किया कि इतिहास के मौजूदा लेखन अपर्याप्त हैं और उनमें पुरातात्विक जानकारी तथा अन्य सांसारिक मुद्दों को शामिल नहीं किया गया है, जैसे शहरों का विकास, लोहे का उपयोग वगैरह। इतिहास में इस नई रुचि के चलते उन्होंने 1982 में एक एंथॉलॉजी (ग्रंथ सूचियों) के दो खंड संपादित किए – स्टडीज़ इन दी हिस्ट्री ऑफ साइंस इन इंडिया। पहले खंड में उन्होंने एक लम्बा परिचय देते हुए कार्य योजना की रूपरेखा प्रस्तुत की। इसमें उन्होंने जोसेफ नीडहैम की पुस्तक दी ग्रैंड टाइट्रेशन से एक लम्बा उद्धरण दिया था (जो इस भव्य वक्तव्य के साथ समाप्त होता है आधुनिक सार्वभौमिक विज्ञान अवश्य, लेकिन पाश्चात्य विज्ञान कदापि नहीं!)। आगे उन्होंने अपने पाठकों से कहा था; यह पुस्तक भारतीय इतिहास में विज्ञान नामक प्रोजेक्ट का एक हिस्सा है, जिस पर हम काम करते रहे हैं। प्रोजेक्ट के दायरे की व्याख्या करने से पहले, प्रोजेक्ट की प्रासंगिकता पर कुछ कहना उपयोगी होगा। जैसा कि प्रोफेसर जोसेफ नीडहैम ने स्पष्ट किया है, इस तरह के किसी भी प्रोजेक्ट की मुख्य मान्यताएं इस प्रकार हैं: (1) सामाजिक विकास ने मानव के प्रकृति सम्बंधी ज्ञान और बाहरी दुनिया पर उसके नियंत्रण में क्रमिक वृद्धि की है, (2) यह विज्ञान एक अंतिम मूल्य है और इसके उपयोग से एक एकता बनती है जिसमें विभिन्न सभ्यताओं (जो एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं रही हैं) के बराबर योगदान शामिल हैं जो सभी नदियों की तरह समुद्र में मिलते रहे हैं और आज भी मिल रहे हैं। (3) इस प्रगतिशील प्रक्रिया के साथ यह मानव समाज लगातार बढ़ती एकता, जटिलता और संगठित स्वरूपों की ओर बढ़ रहा है।

देबीप्रसादजी के प्रोजेक्ट का साकार रूप 1986 में हिस्ट्री (हिस्ट्री ऑफ साइन्स इन एनशंट इंडिया) के पहले खंड के रूप में सामने आया। अर्थात दर्शन शास्त्र ही उन्हें विज्ञान के इतिहास की ओर ले गया था। अलबत्ता, यह नई रुचि सर्वग्राही साबित हुई और इसके परिणामस्वरूप अध्येताओं के एक ऐसे समूह का गठन हुआ जिन्होंने सही मायने में भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इतिहास को उजागर करने के लिए साझा प्रयास किए। इस पुस्तक में चरक संहिता और न्यायसूत्र के साथ-साथ वैशेषिका के ज्ञान शास्त्र का मुद्दा उन्होंने अपने करीबी सहयोगी मृणाल कांति गंगोपाध्याय के लिए छोड़ दिया था। मृणाल कांति का उल्लेख उन्होंने सदा मेरे युवा मित्र और शिक्षक के रूप में किया है। 

विज्ञान के दर्शन और इतिहास दोनों क्षेत्रों में देबीप्रसादजी के योगदान को संक्षेप में इस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है:

– चट्टोपाध्याय ने भारत में भौतिकवाद के अध्ययन को उस समय प्रचलित अतिशयोक्ति पूर्ण प्रस्तुतीकरण से बचाया। 1956 से लोकायत पर अपने काम (बंगला लोकायत) के माध्यम से, उन्होंने भारत में दर्शनों के मानचित्र पर चार्वाक/लोकायत प्रणाली को मज़बूती से स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

– उन्होंने ही इस बात पर ज़ोर दिया था चार्वाक दार्शनिक ज्ञान अर्जित करने की एक विधि के रूप में प्रमाणों के आधार पर निष्कर्ष के विरोध में नहीं थे। हालांकि सुरेंद्रनाथ दासगुप्ता, रिचर्ड गार्बे, मैसूर हिरियाना और सतकारी मुखर्जी ने पहले ही इस बात को पहचान लिया था, लेकिन इन सबने इसको ज़ोर देकर नहीं कहा था। देबीप्रसादजी ने इस सम्बंध में पुरंदर के कथन के आधार पर इसे दृढ़ता से प्रस्तुत किया था। पुरंदर का यह वक्तव्य शांतरक्षिता के तत्वसंग्रह पर कमलशिला की टीका में दर्ज हुआ था। मृणाल कांति गंगोपाध्याय ने भी भारतीय तर्कशास्त्र के अपने अध्ययन में इस तथ्य को दोहराया है।

– उन्होंने दर्शनशास्त्र और विज्ञान के बीच एक मज़बूत कड़ी स्थापित की।

– उन्होंने विज्ञान के इतिहास में प्रौद्योगिकी की भूमिका के महत्व को रेखांकित किया।

– उन्होंने प्राचीन भारत में भौतिकवाद, नास्तिकता, तर्कवाद जैसी धाराओं पर व्यवस्थित शोध की परंपरा शुरू की (जैसे उनकी पुस्तक इंडियन एथीज़्म: ए मार्क्सट एनालिसिस, 1969)। इससे इस प्रचलित धारणा को चुनौती मिली कि भारत मात्र अध्यात्म, आस्था और भक्ति की भूमि है। प्रोफेसर मृणाल कांति गंगोपाध्याय से लेकर ट्रिएस्ट (इटली) के डॉ. कृष्णा डेल टोसो तक कई विद्वान इस दूसरे भारत की अवधारणा पर काम करने में लगे हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अदृश्य पदार्थ का ताज़ा अध्ययन

णनाओं से पता चलता है कि हमारे ब्राहृांड का 85 प्रतिशत भाग ऐसे पदार्थ से बना है जो अदृश्य है। इसे डार्क मैटर कहते हैं क्योंकि यह प्रकाश के साथ कोई क्रिया नहीं करता। इसी वजह से इसके बारे में जानना एक मुश्किल चुनौती है। इसके बारे में वैज्ञानिक जो कुछ जानते हैं वह इसके गुरुत्वीय प्रभाव के आधार पर है – यानी डार्क मैटर का जो गुरुत्वीय असर दृश्य पदार्थ यानी बैर्योनिक मैटर पर होता है।

एक ताज़ा अध्ययन में विभिन्न निहारिकाओं में अदृश्य पदार्थ की मात्रा की गणना की कोशिश की गई। पूर्व में की गई गणनाओं के विपरीत ताज़ा अध्ययन का निष्कर्ष है कि ब्राहृांड की प्रारंभिक निहारिकाओं और अपेक्षाकृत हाल में बनी निहारिकाओं में डार्क मैटर का अनुपात लगभग बराबर ही है।

पूर्व में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर एक्स्ट्राटेरेस्ट्रियल फिज़िक्स के खगोल शास्त्री राइनहार्ड गेंज़ेल के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि प्रारंभिक निहारिकाओं में डार्क मैटर की मात्रा नवीन निहारिकाओं की अपेक्षा कम थी।

ताज़ा अध्ययन डरहैम विश्वविद्यालय के अल्फ्रेड टाइली और उनके सहयोगियों ने किया है। यह अध्ययन प्रीप्रिंट पत्रिका आर्काइव्स में प्रकाशित हो चुका है और इसे रॉयल एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी की पत्रिका मंथली नोटिसेस में प्रकाशन के लिए भेजा गया है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विभिन्न निहारिकाओं में तारों की घूर्णन गति का अध्ययन किया। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम के मुताबिक किसी भी निहारिका की परिधि का घूर्णन उसके मध्य भाग की अपेक्षा धीमा होना चाहिए। मगर 1960 के दशक में देखा गया था कि आकाशगंगा (वह निहारिका जिसमें हमारा सौर मंडल स्थित है) के किनारों पर स्थित तारों की गति काफी अधिक है। इसके आधार पर अनुमान लगाया गया था कि आकाशगंगा के आसपास डार्क मैटर का आवरण है जो इन तारों को तेज़ गति करवा रहा है।

टाइली व उनके साथियों ने आकाशगंगा से विभिन्न दूरियों पर स्थित निहारिकाओं के किनारों की घूर्णन गति के आंकड़ों को देखा तो पाया कि दूरस्थ निहारिकाओं और आकाशगंगा के पास की निहारिकाओं में तेज़ी से गति करते तारों के आधार पर तो लगता है कि नवीन निहारिकाओं और प्रारंभिक निहारिकाओं के आसपास डार्क मैटर लगभग एक-सी मात्रा में है। ऐसा माना जाता है कि दूरस्थ निहारिकाएं प्रारंभिक हैं जबकि हमारे आसपास की निहारिकाएं ज़्यादा हाल की हैं।

इन दो अध्ययनों के परिणामों में अंतर के कई कारण हैं और खगोल शास्त्री इन्हीं पर विचार कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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घाव के इलाज में तैनात इल्लियां

घाव में कीड़े पड़ना बहुत बुरी बात समझी जाती है। कई जगहों पर तो यदि किसी व्यक्ति के घाव में कीड़े पड़ जाएं तो उसका बहिष्कार किया जाता है और वापिस समाज में शामिल होने के लिए उसे सबको दावत देनी होती है। मगर अब चिकित्सा शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि ऐसी इल्लियों का उपयोग घायल लोगों के घावों के उपचार के लिए किया जाए।

यू.के. ने इल्ली-उपचार को वास्त्विक परिस्थिति में आंकने के लिए मैगट प्रोजेक्ट नामक एक परियोजना तैयार की है। इस प्रोजेक्ट के तहत यू.के. सरकार सीरिया, यमन और दक्षिणी सूडान जैसे इलाकों में इल्लियां भेजने जा रही है जहां उनका उपयोग घायलों के उपचार में किया जाएगा। ये इल्लियां ग्रीन बॉटल मक्खियों की हैं। यह देखा गया है कि जैसे ही ये घाव में पहुंचती हैं, वहां उपस्थित मृत कोशिकाओं को खाना शुरू कर देती हैं और अपनी बैक्टीरिया-रोधी लार फैला देती हैं जिससे घाव में बैक्टीरिया नहीं पनपने पाते।

वीभत्स लगने वाले इस उपचार का उपयोग काफी समय से होता आया है। जैसे ऑस्ट्रेलिया के देशज लोग इल्लियों का उपयोग घाव की सफाई हेतु करते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भी इनका उपयोग किया गया था।

प्रोजेक्ट के तहत स्थानीय अस्पताल स्वयं इल्लियां पालेंगे। इसके लिए मक्खियां पाली जाएंगी और उनके अंडों को बैक्टीरिया मुक्त करके एक-दो दिन तक रखा जाएगा। अंडों में से निकली इल्लियों को सीधे घाव में डाला जा सकता है या थैलियों में भरकर पट्टी की तरह घाव पर बांधा भी जा सकता है।

ऐसी बैक्टीरिया मुक्त इल्लियां उन स्थानों पर काफी कारगर हो सकती हैं जहां उपचार की सुविधाएं न हों। ये इल्लियां मृत ऊतकों का भक्षण करती हैं और घाव को साफ रखती हैं। दरअसल घाव में होने वाले द्वितीयक संक्रमण ही स्थिति को बिगाड़ते हैं और ये इल्लियां ऐसे संक्रमणों से बचाव करती हैं। इस सम्बंध में 2012 में इंडियन जर्नल ऑफ प्लास्टिक सर्जरी में सुरजीत भट्टाचार्य की एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई थी।

यदि यह योजना कारगर रहती है तो मैदानी अस्पतालों में इल्लियां पैदा की जाने लगेंगी जो प्रतिदिन 250 घावों के लिए पर्याप्त होंगी। इस प्रोजेक्ट के लिए ज़रूरी तकनीकी जानकारी ऑस्ट्रेलिया के ग्रिफिथ विश्वविद्यालय के फ्रेंक स्टेडलर के समूह द्वारा उपलब्ध कराई गई है। (स्रोत फीचर्स)

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एक महिला जो पुरुषों की आवाज़ नहीं सुन सकती

चीन में एक महिला एक अजीबो गरीब तकलीफ से पीड़ित है। उसे पुरुषों की आवाज़ सुनाई ही नहीं देती। चेन नामक यह महिला एक दिन सुबह उठी और पाया कि उसे अपने पुरुष साथी की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है। वह अस्पताल पहुंची जहां उसका उपचार एक महिला डॉक्टर द्वारा किया जा रहा है। डॉक्टर ने पाया कि यह महिला उनकी आवाज़ तो सुन पा रही थी किंतु पास में लेटे एक पुरुष मरीज़ की आवाज़ बिलकुल भी नहीं सुन पा रही थी।

चेन एक दुर्लभ श्रवण बाधा से ग्रस्त थी। इसे रिवर्स स्लोप हियरिंग लॉस कहा जाता है। आम तौर पर जब किसी व्यक्ति को सुनने में कठिनाई होती है तो वह उच्च आवृत्ति की आवाज़ों के मामले में होती है। आवृत्ति ध्वनि के विश्लेषण का एक तरीका है। ध्वनि वास्तव में हवा अथवा अन्य माध्यमों में होने वाली कंपनों के रूप में फैलती है और हमारे कानों तक पहुंचती है। प्रति सेकंड कंपनों की संख्या ही उसकी आवृत्ति कहलाती है। प्रति सेकंड जितने ज़्यादा कंपन होते हैं आवाज़ उतनी ही पतली होती है जबकि कम कंपन होने पर आवाज़ भारी या मोटी होती है।

जब कोई व्यक्ति सुनने में कठिनाई की शिकायत करता है तो उसके श्रवण का आवृत्ति के अनुसार ग्राफ बनाया जाता है। आम तौर पर देखा गया है कि उच्च आवृत्ति वाली ध्वनियां (यानी पतली आवाज़े) सुनने में दिक्कत होती है। मनुष्य के कान में अंदर की ओर सूक्ष्म रोम होते हैं। जब कोई ध्वनि कानों तक पहुंचती है तो इन रोमों में कंपन होते हैं जिसके संदेश मस्तिष्क तक पहुंचते हैं और वहां इन्हें ध्वनि के रूप में पहचाना जाता है। उम्र के साथ या चोट लगने पर या किसी दवा के असर से ये रोम भुरभुरे हो जाते हैं और टूट भी सकते हैं। इसी क्षति की वजह से सुनने में दिक्कत होती है।

उच्च आवृत्ति वाली ध्वनियों के प्रति संवेदनशील रोम ज़्यादा नाज़ुक होते हैं। इस वजह से ये रोम पहले क्षतिग्रस्त होते हैं और काम करना बंद करते हैं। इसीलिए उच्च आवृत्ति की ध्वनियां सुनने में दिक्कत आम बात है। मगर कभी-कभी कम आवृत्ति की ध्वनियों को पकड़ने में दिक्कत होती है जो उक्त महिला के साथ हुआ। शोधकर्ताओं का मानना है कि रिवर्स स्लोप हियरिंग लॉस रक्त वाहिनियों में किसी समस्या की वजह से हो सकता है या सदमे की वजह से भी हो सकता है। एक और कारण शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा स्वयं अपनी ही कोशिकाओं पर हमला करना भी हो सकता है। आत्म-प्रतिरक्षा के नाम से जानी जाने वाली यह समस्या आंतरिक कान को प्रभावित करती है और इससे संतुलन बनाने में दिक्कत तथा उल्टी जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। दरअसल चेन ने रिपोर्ट किया था कि उन्हें एक रात पहले चक्कर आए थे और उल्टियां भी हुई थीं। वैसे डॉक्टरों का कहना है कि यदि इस स्थिति का पता जल्दी चल जाए तो इलाज संभव है। चेन के मामले में लगता है कि देर तक काम करते रहने के तनाव के कारण यह स्थिति बनी है और संभवत: जल्दी ही वे ठीक भी हो जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

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क्या असमय मृत्यु की शिकार होगी आकाशगंगा?

हाल ही में रॉयल एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी के जर्नल मंथली नोटिसेस में प्रकाशित एक शोध पत्र में दावा किया गया है कि हमारी निहारिका उर्फ आकाशगंगा अपने एक पड़ोसी के साथ टकराव के रास्ते पर चल रही है। यह पड़ोसी तारों का एक समूह है जिसे लार्ज मेजेलिनिक क्लाउड (एल.एम.सी.) कहते हैं।

गौरतलब है कि खगोल शास्त्रियों को पहले से ही अंदेशा रहा है कि हमारी आकाशगंगा और निकटतम पड़ोसी एंड्रोमिडा निहारिका के बीच टक्कर होकर रहेगी। नए अध्ययन ने चेतावनी दी है कि इससे पहले एलएमसी से टक्कर हो सकती है। डरहैम विश्वविद्यालय के खगोल शास्त्रियों की एक टीम ने इस टक्कर की काफी विस्तृत और भयानक तस्वीर खींची है। मैरियस कौटन के नेतृत्व में काम कर रही टीम का अनुमान है कि यह घटना एंड्रोमिडा टक्कर से 2-3 अरब साल पहले हो सकती है।

एलएमसी का द्रव्यमान आकाशगंगा की तुलना में बीसवां भाग ही है और शोधकर्ताओं का मत है कि इस टक्कर में एलएमसी का तो अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा किंतु हमारी आकाशगंगा भी अछूती नहीं रहेगी। आकाशगंगा का भी बुरा हाल होगा।

निहारिकाओं की टक्करें अंतरिक्ष में कोई अनहोनी बात नहीं है और वैज्ञानिक इनके मॉडल तैयार करने में काफी निपुण हो चुके हैं। सुपरकंप्यूटर पर ऐसी टक्करों का विश्लेषण करके डरहैम की टीम ने आकाशगंगा-एलएमसी की टक्कर के विभिन्न मॉडल तैयार किए हैं। तो इस टक्कर के संभावित परिणाम क्या होंगे?

सबसे पहला तो यह होगा कि एलएमसी हमारी आकाशगंगा में ढेर सारी गैस और असंख्य तारे में प्रविष्ट करा देगी। और ये सब आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल में समा जाएंगे। कौटन के मुताबिक संभवत: इसकी वजह से यह ब्लैक होल वर्तमान से 8 गुना बड़ा हो जाएगा। यह भी संभव है कि वह क्वासर में तबदील हो जाए। एक परिणाम यह भी हो सकता है कि यह बड़ा ब्लैक होल अपने आसपास के और तारों को निगल जाए। कुछ अन्य तारे शायद निहारिका छोड़कर खुले अंतरिक्ष में निकल जाएं।

अच्छी बात यह है कि यह टक्कर आज से 2 अरब साल बाद होने की संभावना है। और उससे भी अच्छी बात है कि उस समय हमारे जो भी वंशज रहेंगे उनके लिए चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि हमारे सौर मंडल वाले इलाके में इसका कोई खास असर नहीं होगा। उन्हें तो बस एक दर्शनीय नज़ारे का आनंद मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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सामान्य तापमान पर अतिचालकता

तिचालकता एक ऐसा गुण है जिसे सामान्य परिस्थितियों यानी सामान्य तापमान और दबाव पर पाने की जद्दोजहद वर्षों से जारी है। कारण यह है कि अतिचालकता यानी सुपर कंडक्टिविटी की स्थिति में पदार्थ विद्युत के बहने में कोई रुकावट पैदा नहीं करता और विद्युत बगैर किसी नुकसान के बहती रह सकती है। इसका मतलब होगा कि बिजली के उपयोग की दक्षता में भारी वृद्धि होगी। मगर अब तक कतिपय पदार्थों में अतिचालकता अत्यंत कम तापमान (शून्य से 83 डिग्री कम तापमान) पर ही हासिल की जा सकी थी, जो व्यावहारिक दृष्टि से बहुत उपयोगी नहीं है।

अब वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के भू-भौतिक शास्त्री रसेल हेमले ने दावा किया है कि उन्होंने अपेक्षाकृत सामान्य तापमान पर अति-चालकता का अवलोकन किया है। इस सम्बंध में उनका शोध पत्र फिजि़कल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित होने जा रहा है। हेमले की टीम ने घोषणा की है कि उन्होंने लेंथेनम नामक धातु का एक सुपरहाइड्राइड तैयार किया था जिसका अणु सूत्र LaH10 है। जब वे अत्यंत उच्च दबाव (लगभग 20 लाख वायुमंडलीय दाब के बराबर) पर इस पदार्थ के साथ प्रयोग कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि 7 डिग्री सेल्सियस पर अचानक उसके विद्युत प्रतिरोध में कमी आई। इस तरह की अचानक गिरावट को पदार्थ में अतिचालकता उभरने के एक लक्षण के रूप में माना जाता है।

हालांकि लेंथेनम सुपरहाइड्राइड में अतिचालकता 7 डिग्री सेल्सियस पर हासिल हुई थी किंतु दबाव अकल्पनीय रूप से अधिक था। तो आज भी यह अतिचालकता व्यावहारिक रूप से कोई मायने नहीं रखती मगर शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्होंने तापमान सम्बंधी मनोवैज्ञानिक बाधा पार कर ली है, जो एक बड़ी उपलब्धि है। (स्रोत फीचर्स)

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