होम्योपैथी अध्ययन पर बवाल

हाल ही में एक अध्ययन में दावा किया गया है कि होम्योपैथी उपचार से चूहों को दर्द से राहत मिलती है। यह अध्ययन साइंटिफिक रिपोर्टस नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है जो एक ऐसी पत्रिका है जिसमें समकक्ष समीक्षा की प्रक्रिया की जाती है। होम्योपैथी के कई समर्थक समूह इस अध्ययन को लेकर काफी उत्साहित हैं किंतु कई अन्य समूहों ने इन नतीजों पर शंका प्रकट की है।

उपरोक्त शोध पत्र के प्रमुख लेखक धुले के औषधि विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान के चंद्रगौड़ा पाटिल हैं। उनका कहना है कि उनके अध्ययन के नतीजे अत्यंत प्रारंभिक हैं और अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इन्हें मनुष्यों पर लागू किया जा सकता है या नहीं।

चूहों पर किए गए इस अध्ययन में पाटिल व उनके साथियों ने बताया है कि टॉक्सिकोडेंड्रॉन प्यूबीसेंस (Toxicodendron pubescens) नामक एक पौधे का अत्यंत तनु काढ़ा 8 चूहों को पिलाया गया। यह देखा गया कि गर्म या ठंडे से संपर्क होने पर ये चूहे कितनी तेज़ी से अपना पंजा हटा लेते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह औषधि सूजन व दर्द को कम करने में एक दर्द निवारक दवा गैबापेंटिन के बराबर कारगर साबित हुई थी।

अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि 8 चूहों का नमूना बहुत छोटा है। इसके अलावा अध्ययन के दौरान शोधकर्ता जानते थे कि किस चूहे को औषधि दी गई है और किसे नहीं। अत: चूहों की प्रतिक्रिया को रिकॉर्ड करने में उनके पूर्वाग्रहों की भूमिका हो सकती है। वैसे, इस शोध पत्र के एक विश्लेषण में यह भी पता चला कि इसमें दो अलगअलग प्रयोगों के लिए जो चित्र दिए गए हैं, वह दरअसल एक ही चित्र है। इसके अलावा आंकड़ों में गफलत नज़र आई है। पाटिल का कहना है कि ये त्रुटियां भूलवश रह गई हैं और वे शोध पत्रिका से अनुरोध करेंगे कि इन्हें दुरुस्त करके शोध पत्र को अपडेट कर दे।

वैज्ञानिकों में असंतोष इस बात को लेकर है कि साइंटिफिक रिपोर्टस जैसी पत्रिका के प्रकाशनपूर्व समीक्षकों ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। पत्रिका के संपादकों का कहना है कि वे पूरे मामले की जांच करवा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्यों होती है गाय के दूध से एलर्जी – नरेंद्र देवांगन

क वर्ष के एक दुबले-पतले बच्चे को लेकर एक महिला डॉक्टर के पास पहुंची। बच्चे को पांच-छह महीने से कब्ज़ की शिकायत थी और यह बीमारी ठीक नहीं हो रही थी। पूछताछ के दौरान पता चला कि उस महिला को दूध नहीं आ रहा था इसलिए उसका बच्चा जन्म से ही गाय का दूध पी रहा था। पूछताछ के दौरान यह भी पता चला कि उस महिला की बड़ी बहन, उसकी मां तथा दादी को गाय के दूध से एलर्जी थी। अब डॉक्टर को उस बच्चे की कब्ज़ियत का कारण पता चल गया। उस बच्चे के इलाज के क्रम में दूध तथा दूध से बनी चीज़ें देने की मनाही कर दी गई और हरी सब्ज़ी, फल, साग आदि खिलाने की हिदायत के साथ-साथ मल को मुलायम करने तथा पेट साफ करने वाली मामूली-सी एक-दो दवाएं दी गर्इं। दो-तीन दिनों में ही अनुकूल प्रभाव देखने को मिला। कब्ज़ छूमंतर हो गई, मल नियमित रूप से होने लगा।

इसी तरह एक तीन महीने के बच्चे की मां को भी दूध नहीं आता था। उसकी भी शिकायत थी कि उसके बच्चे को गाय का दूध पचता ही नहीं। दूध पिलाने के बाद उल्टी हो जाती है। डायरिया की शिकायत तो करीब ढाई महीने से है ही। बच्चे का स्वास्थ्य एकदम गिर गया था। पूछताछ के क्रम में मात्र इतना पता चला कि उस बच्चे की मां को भी दूध पीना अच्छा नहीं लगता। इतना ही नहीं, जब वह दूध पी लेती है तो तुरंत उल्टी हो जाती है और सारा दूध बाहर निकल जाता है। बच्चे की जांच के दौरान पाया गया कि उसे एनीमिया था और शरीर में पानी कमी थी।

गाय, बकरी तथा मनष्य के दूध की तुलना (मात्रा प्रति 100 ग्राम में)
  गाय बकरी मनुष्य
वसा (ग्राम) 3.80 4.00 3.10
प्रोटीन (ग्राम) 3.50 3.50 1.25
लैक्टोस (ग्राम) 4.80 4.30 7.20
कैल्शियम (ग्राम) 120.0 170.0 28.20
लोहा (मि. ग्राम) 0.2 0.3
पानी (ग्राम) 87.25 87.50 88.20
ऊर्जा (कि.कैलोरी) 67.0 72.0 65.0

एक-दो प्रतिशत बच्चे गाय के दूध के प्रति अति संवेदनशील होते हैं। वे उसकी थोड़ी-सी भी मात्रा को पचा नहीं पाते। या तो उन्हें कब्ज़ रहने लगती है या फिर उल्टी और दस्त की शिकायत हो जाती है। पेट में दर्द की भी शिकायत कई वजह से होती है। श्वसन तंत्र की कुछ बीमारियां जैसे नाक बहना, खांसी, सर्दी आदि भी हो सकती है। कई मरीज़ों में त्वचा सम्बंधी विकार भी उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे एक्जि़मा, फोड़े-फुंसी आदि। पाचन शक्ति ठीक नहीं होने तथा संक्रमण की वजह से एनीमिया हो जाता है। इससे शारीरिक तथा मानसिक विकास या तो धीमा हो जाता है या रुक जाने के लक्षण दिखने लगते हैं। दूध से एलर्जी दो साल की अवस्था के बाद स्वत: समाप्त हो जाती है।

ऐसा क्यों होता है? इसके सटीक कारणों की जानकारी शिशु रोग विशेषज्ञों को भी नहीं है। फिर भी जितनी जानकारी है उसके आधार पर डॉक्टरों का मत है कि इसके लिए प्रतिरक्षा तंत्र ही मुख्य रूप से दोषी है। इतना ही नहीं गाय के दूध में कुछ ऐसे पदार्थ पाए जाते हैं जो कई बच्चों की पाचन शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

दूध में पाया जाने वाला प्रोटीन मुख्यत: कैसीन, लैक्टाल्ब्यूमिन तथा लैक्टोग्लोबुलिन के रूप में पाया जाता है। मनुष्य के दूध की अपेक्षा गाय तथा बकरी के दूध में प्रोटीन तीन गुना अधिक होता है। कैसीन नामक प्रोटीन दूध के कैल्सियम के साथ मिलकर कैल्सियम कैसिनेट के रूप में रहता है। कैसीन तथा एल्ब्यूमिन का अनुपात मनुष्य के दूध में 1:1 तथा जानवर के दूध में 7:1 का होता है। गाय के दूध में पाए जाने वाले प्रोटीन का अणु मनुष्य के दूध की अपेक्षा बड़ा होता है, जिसका सीधा प्रभाव पाचन तंत्र की दीवार पर पड़ता है। इस दौरान बाहरी दूध से अत्यधिक मात्रा में एंटीजन प्रवेश करता है।

 

नवजात शिशु में पाचन तंत्र पूरी तरह विकसित नहीं होता है। अत: कई तरह से उसकी दीवार को क्षति पहुंचती है। उसकी दीवार की भीतरी सतह नष्ट हो जाती है और पचे भोजन को अवशोषित करने वाली प्रणाली बुरी तरह प्रभावित होती है। इतना ही नहीं, कई तरह के जीवाणुओं का संक्रमण भी हो जाता है, क्योंकि प्रतिरोधी क्षमता भी पूरी तरह विकसित नहीं रहती। नतीजा यह होता है कि बच्चा दूध को पचा पाने में सक्षम नहीं होता और उल्टी, डायरिया, कब्ज़ आदि कई तरह के लक्षण नज़र आने लगते हैं। इस तरह के मरीज़ में मुख्यत: लैक्टोग्लोबुलिन से ही एलर्जी होती है। इसके अतिरिक्त कैसीन, लैक्टाल्ब्यूमिन, ग्लोबुलिन से भी एलर्जी हो सकती है।

अब यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि किसी महिला को कैसे पता चले कि उसके बच्चे को गाय के दूध से एलर्जी है। यहां यह भी कह देना ज़रूरी है कि इसकी कोई विशेष जांच नहीं होती। इसका पता मात्र दूध छोड़ने तथा कुछ अंतराल के बाद पुन: देने के बाद होने वाले लक्षणों से ही चल सकता है। एन. डब्लू. क्लाइन नामक चिकित्सक ने 206 बच्चों में दूध से होने वाली एलर्जी का गहन अध्ययन किया और वे इस नतीजे पर पहुंचे कि कब्ज़ के शिकार 6 प्रतिशत बच्चों को (जिन्हें जुलाब से भी कोई फायदा नहीं हुआ था) खाने में गाय का दूध तथा इससे बने खाद्य पदार्थ न देने पर कब्ज़ियत दूर हो गई।

सामान्य माताओं को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि गाय के दूध से एलर्जी हो सकती है। यदि नवजात शिशु या कम उम्र के बच्चे को कब्ज़ियत, पेट में दर्द, उल्टी या डायरिया की शिकायत हो तथा किसी कारणवश मां के दूध की जगह उसे गाय का दूध दिया जा रहा हो तो तुरंत गाय का दूध पिलाना बंद कर देना चाहिए। गाय के दूध की जगह पर कोई दूसरा दूध दिया जा सकता है। सोयाबीन का दूध अच्छा होता है। यह बाज़ार में सूखे पाउडर के रूप में मिलता है। यदि बकरी का दूध उपलब्ध हो तो वह देने में कोई हर्ज नहीं है।

जब बच्चे की उम्र 9 महीने की हो जाए तो गाय का दूध थोड़ी मात्रा में देना शुरू कर देना चाहिए। शुरू-शुरू में मात्र कुछ बूंदें देकर उसका प्रभाव देखना चाहिए। यदि कोई दिक्कत न हो तो धीरे-धीरे मात्रा बढ़ाई जानी चाहिए। इसके लिए डॉक्टर की देख-रेख ज़रूरी है। वैसे भी दो वर्ष की अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते छोटी आंत की दूध पचाने की शक्ति बढ़ जाती है और उससे एलर्जी स्वत: समाप्त हो जाती है। कई बार गाय के दूध में पानी तथा चीनी उचित मात्रा में नहीं मिलाने पर भी बच्चे को डायरिया या उल्टी होने लगती है। गाय का दूध 24 घंटे में 5-6 बार ही पिलाना चाहिए, न कि बार-बार। दूध की कितनी मात्रा दी जाए यह बच्चे के वज़न पर निर्भर करता है।

एक बात और, यदि अपना दूध देना एकदम मना न हो तो स्तनपान ही सर्वोत्तम है। यदि मां को कोई ऐसी बीमारी है जिसमें स्तनपान कराना वर्जित हो तब स्तनपान न कराया जाए। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवन की शुरुआत के और नज़दीक पहुंचे रसायनज्ञ

किसी समय पृथ्वी पर वे हालात बने होंगे जब ऐसे अणुओं का निर्माण हुआ होगा जिन्हें जीवन की ओर पहला कदम माना जा सके। वैज्ञानिकों के बीच लगभग आम सहमति है कि यह अणु राइबोन्यूक्लिक एसिड (यानी आर.एन.ए.) रहा होगा। आर.एन.ए. एक ऐसा अणु है जो सूचनाओं का संग्रह कर सकता है, और रासायनिक क्रियाओं को गति दे सकता है। यह अणु चार मूल अणुओं का पोलीमर है। तो सवाल है कि शुरुआत में ये चार मूल अणु या न्यूक्लिक एसिड कैसे बने थे।

आर.एन.ए. के निर्माण के ये चार अणु हैं सायटोसीन, यूरेसिल, एडीनीन और ग्वानीन। सायटोसीन और यूरेसिल को पिरिमिडीन कहते हैं और एडीनीन व ग्वानीन प्यूरिन हैं। वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश करते रहे हैं कि पृथ्वी पर सूदूर अतीत में मौजूद हालात में इन अणुओं का निर्माण सामान्य रासायनिक क्रियाओं से हो सकता है या नहीं।

वर्ष 2009 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के जॉन सदरलैंड के नेतृत्व में रसायनज्ञों के एक दल ने प्रयोगशाला में उन परिस्थितियों को निर्मित किया जो पृथ्वी के शुरुआती वातावरण में रही होंगी, ऐसा माना जाता है। इस प्रयोग में उन्होंने पांच ऐसे रसायन मिलाए थे जो उस समय पृथ्वी पर मौजूद रहे होंगे। प्रयोग में सायटोसीन और यूरेसिल (यानी पिरिमिडीन) बन गए।

फिर लगभग 2 वर्ष पूर्व जर्मनी के लुडविग मैक्सीमिलन विश्वविद्यालय के थॉमस कैरल और उनके सहयोगियों ने एक आसान से प्रयोग में प्यूरिन्स (एडीनीन और ग्वानीन) बनने की खबर दी।

इन प्रयोगों से स्पष्ट हो गया कि आर.एन.ए. की निर्माण इकाइयां सामान्य रासायनिक क्रियाओं के दौरान बन सकती हैं। मगर एक सवाल यह था कि यदि ये इकाइयां अलग-अलग जगहों पर बनीं तो फिर आर.एन.ए. का संश्लेषण कैसे हुआ होगा। अब कैरल की टीम ने इस सवाल का जवाब पा लिया है। ओरिजिन ऑफ लाइफ वर्कशॉप में उन्होंने अपने प्रयोगों का ब्यौरा दिया है।

कैरल की टीम ने 6 सरल पदार्थों के साथ काम किया – ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, मीथेन, अमोनिया, पानी और हाइड्रोजन सायनाइड। ये सभी शुरुआती धरती पर मौजूद रहे होंगे। इन पदार्थों की रासायनिक क्रियाओं की एक पूरी खाद्य शृंखला के बाद कैरल प्यूरिन्स और पिरिमिडीन्स दोनों समूह के यौगिक एक ही परखनली में बनाने में सफल रहे हैं। यानी यह समस्या तो सुलझ गई कि ये चारों इकाइयां एक स्थान पर कैसे बनी होंगी। लेकिन अभी भी एक बड़ी समस्या बाकी है – इन चारों इकाइयों को लंबी खाद्य शृंखलाओं में जोड़कर आर.एन.ए. कैसे बना होगा। अगला कदम वही समझने का होगा। (स्रोत फीचर्स)

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सीने में छुपा पक्षियों की मधुर आवाज़ का राज़

कई पक्षियों की मधुर आवाज़ उनके सीने में छुपे एक रहस्यमयी अंग से आती है जिसे सिरिंक्स कहते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि जैव विकास की प्रक्रिया में सिरिंक्स केवल एक बार विकसित हुआ है और यह विकास से सर्वथा नवीन रचना के निर्माण का दुर्लभ उदाहरण है क्योंकि अन्य किसी सम्बंधित जीव में ऐसी कोई रचना नहीं पाई जाती जिससे सिरिंक्स विकसित हो सके।

सरीसृप, उभयचर और स्तनधारी सभी में ध्वनि के लिए लैरिंक्स होता है जो सांस नली के ऊपरी हिस्से में होता है। इसके ऊतकों की तहों (वोकल कॉर्ड) में कम्पन्न से मनुष्यों की आवाज़, शेर की दहाड़ या सुअरों के किंकियाने की आवाज़ पैदा होती है। पक्षियों में भी लैरिंक्स होता है। लेकिन ध्वनि निकालने के लिए वे इस अंग का उपयोग नहीं करते। वे सिरिंक्स का उपयोग करते हैं। सिरिंक्स सांस नली में थोड़ा नीचे की ओर वहां स्थित होता है जहां सांस नली दो भागों में बंटकर अलगअलग फेफड़ों की ओर जाती है।

टेक्सास विश्वविद्यालय की जीवाश्म विज्ञानी जूलिया क्लार्क और उनका समूह जानना चाहता था कि पक्षियों में यह विचित्र अंग कैसे विकसित हुआ। उन्होंने आधुनिक सरीसृपों और पक्षियो में सिरिंक्स और लैरिंक्स के विकास की तुलना की। उन्होंने पाया कि ये दोनों अंग बहुत अलग हैं। वोकल कॉर्ड के काम करने के लिए लैरिंक्स उसकी उपास्थि से जुड़ी मांसपेशियों पर निर्भर होता है। लेकिन सिरिंक्स उन मांसपेशियों पर निर्भर करता है जो अन्य जानवरों में जीभ के पीछे से हाथों को जोड़ने वाली हड्डियों से जुड़ी रहती हैं। अब तक यह माना जाता था कि दोनों अंग की संरचना समान है। ये दोनों अंग अलगअलग तरह से विकसित हुए हैं। लैरिंक्स मेसोडर्म और न्यूरल क्रेस्ट कोशिकाओं से बनता है, जबकि सिरिंक्स सिर्फ मेसोडर्म कोशिकाओं से बनता है।

क्लार्क और उनके साथियों का अनुमान है कि आधुनिक पक्षियों के पूर्वजों में लैरिंक्स मौजूद था। पक्षियों के आधुनिक रूप में आने के समय फेफड़ों के ठीक ऊपर श्वासनली की उपास्थि ने फैलकर सिरिंक्स का रूप ले लिया। हो सकता है कि इस प्रसार ने श्वासनली को अतिरिक्त सहारा दिया होगा। अंतत: इसमें मांसपेशियों के छल्ले विकसित हुए जिससे ध्वनि पैदा होती है। धीरेधीरे ध्वनि उत्पादन का काम लैरिंक्स से हटकर सिरिंक्स के ज़िम्मे आ गया। सिरिंक्स विभिन्न तरह की ध्वनि निकालने के लिए अधिक उपयुक्त भी है। सिरिंक्स की एक खासियत यह है कि यह दो भागों से बना है और पक्षी एक साथ दो तरह की ध्वनियां निकाल सकते हैं।

क्लार्क और उनके सहयोगियों ने अपने निष्कर्ष गत दिनों प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित किए हैं। सिरिंक्स विकास में एकदम नई संरचना है जिसमें पहले से मौजूद विशेषताओं या संरचनाओं से जुड़ी कोई स्पष्ट कड़ी नहीं हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन अन्य जीवों, जैसे कछुओं और मगरमच्छों की ध्वनि संरचना समझने में मददगार साबित हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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पानी का प्रबंधन कर सकते हैं, पैदा नहीं कर सकते – संध्या रायचौधरी

साढ़े चार अरब साल पहले धरती पर पानी आया था। जब पृथ्वी का जन्म हुआ तब यह बहुत गर्म थी। कालांतर में यह ठंडी हुई और इस पर पानी ठहरा। वर्तमान में जल संकट बहुत गहरा है। आज पानी महत्वपूर्ण व मूल्यवान वस्तु बन चुका है। शुद्ध पानी जहां अमृत है, वहीं दूषित पानी विष और महामारी का आधार। जल संसाधन संरक्षण और संवर्धन आज की ज़रूरत है जिसमें जनता का सहयोग अपेक्षित है।

धरती के गर्भ से पानी की आखरी बूंद भी खींचने की कवायद की जा रही है। विख्यात समुद्र शास्त्री जैक्वस कांसट्यू ने कहा था कि हमें नहीं भूलना चाहिए कि जल और जीवन चक्र में कोई अंतर नहीं है और यह बात सोलह आने खरी है। लेकिन इस बात को नज़रअंदाज़ करके हम खुद ही बड़े संकट में घिरे हैं। बनारस की वरुणा नदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिसका पानी कब कीचड़ बन गया पता ही नहीं चला। यह हालत मात्र वरुणा की ही नहीं, देशदुनिया की सारी नदियों की हो गई है। दुनिया में पानी की किल्लत एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। भारत में पिछले वर्ष 33 करोड़ लोगों ने जल संकट का सामना किया था, लेकिन हमने कोई सबक नहीं लिया।

एक प्रतिशत पानी उपयोगी

पृथ्वी पर कुल उपलब्ध जल लगभग 1.36 अरब घन कि.मी. है, परंतु उसमें से 96.5 प्रतिशत जल समुद्री है जो खारा है। यह खारा जल समुद्री जीवों और वनस्पतियों को छोड़कर शेष जीवों के लिए अनुपयोगी है। शेष 3.5 प्रतिशत (लगभग 4.8 करोड़ घन कि.मी.) जल मीठा है, किंतु इसका 24 लाख घन कि.मी. हिस्सा 600 मीटर गहराई में भूमिगत जल के रूप में विद्यमान है तथा लगभग 5 लाख घन कि.मी. जल गंदा व प्रदूषित हो चुका है, इस प्रकार पृथ्वी पर उपस्थित कुल जल का मात्र एक प्रतिशत हिस्सा ही उपयोगी है। इस एक फीसदी जल पर दुनिया के छ: अरब मनुष्यों समेत सारे सजीव और वनस्पतियां निर्भर हैं।

जिस तरह दुनिया से पानी गायब होना शुरू हो रहा है ऐसे में आने वाले समय में पानी झगड़ों का सबसे बड़ा कारक बनेगा। पानी की किल्लत व लड़ाई सिर्फ गलीकूचों तक नहीं रहने वाली, राज्यों व देशों के बीच नदियों का झगड़ा इसका उदाहरण है। हरियाणा, पंजाब और दिल्ली का झगड़ा हो या फिर कावेरी नदी के लिए कर्नाटक और तमिलनाडु की लड़ाई हो, मुद्दा पानी ही है। दूसरी तरफ ब्रम्हपुत्र के लिए चीन, भारत व बांग्लादेश का टकराव इसका उदाहरण है। पिछले वर्ष महाराष्ट्र के कई ज़िलों में धारा 144 इसलिए लगा दी गई थी क्योंकि पानी को लेकर झगड़े शुरू हो गए थे।

पिछले तीन दशकों में कुछ ऐसा हुआ है जिससे कि पानी की विभिन्न उपयोगिताएं तो बढ़ी ही हैं पर साथ में जनसंख्या की बढ़ोतरी ने भी दूसरी बड़ी मार की है। पहले पानी पीने और सीमित सिंचाई में काम आता था पर अब इसके कई अन्य उपयोग शुरू हो गए हैं। उद्योगों पर होने वाली पानी की खपत एक बड़ा मुद्दा है। अब पानी स्वयं ही उद्योगी उत्पाद के रूप में सामने है। जो पानी पोखरों, तालाबों या फिर नदियों में होना चाहिए था वह अब बोतलों में कैद है। हज़ारों करोड़ों में पहुंच चुका यह व्यापार अभी और फलनेफूलने वाला है। इसके अलावा आज देश भर में कई ऐसे उद्योग खड़े हैं जिनकी पानी की खपत अत्यधिक है। उदाहरण के लिये टेनरी, चमड़ा उद्योग, दवाई कारखाने आदि।

बढ़ते उपयोगों के साथ पानी की गुणवत्ता में भी भारी कमी आई है। एक अध्ययन के अनुसार प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता घटी है। पहले ये 2000 लीटर थी और वर्तमान में घटकर 1100 लीटर के करीब रह गई है। वर्ल्ड ऐड की ताज़ा रपट के अनुसार चीन, पाकिस्तान व बांग्लादेश के साथसाथ दुनिया के 10 देशों में एक भारत भी है जहां स्थितियां इतनी बिगड़ चुकी हैं कि पीने को साफ पानी नहीं मिलता। 7.6 करोड़ भारतीय पीने के साफ पानी से वंचित हैं और यही कारण है कि यहां प्रति वर्ष लगभग 14 लाख बच्चे दूषित पानी के कारण मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अपने देश में पानी की कीमत अन्य देशों की तुलना में बहुत ज़्यादा है। इस रिपोर्ट के अनुसार विकसित देशों में पानी की कीमत लोगों की कमाई का मात्र एक प्रतिशत है जबकि भारत में यह 17 प्रतिशत तक है।

रिपोर्ट इशारा करती है कि पानी की घटती गुणवत्ता आने वाले समय में लाखों लोगों को लील लेगी या फिर मीठे जहर की तरह एक बड़ी आपदा जैसे हालात पैदा कर देगी। जीवन के इस मूल तत्व के प्रति अभी भी हम बहुत गंभीर नहीं दिखाई देते। जिन्हें नीतियां तैयार करनी हैं वे या तो बोतलों के पानी पर पलते हैं या फिर वॉटर प्यूरीफायरों ने उनकी जान बचा रखी है। सवाल उन करोड़ों लोगों का है जिनकी पहुंच उपरोक्त दोनों साधनों तक नहीं है।

पानी के संकट का बड़ा कारण इसका प्रबंधन का भी है। भूमिगत रुाोत लगभग 85 प्रतिशत पानी की आपूर्ति करते हैं जिनमें 56 प्रतिशत तक गिरावट आ चुकी है। देश का कोई भी ऐसा कोना नहीं बचा है जहां परंपरागत पानी के रुाोत सूखे न हों। पहाड़ों में वन विनाश या वर्षा की कमी के कारण जल धाराएं तेज़ी से गायब होती जा रही हैं। यही हालात देश के दूसरे जल रुाोतों के भी हैं। पोखर व तालाब तेज़ी से साथ छोड़ रहे हैं। ये या तो अन्य उपयोगों के लिए कब्ज़ा लिए गए हैं या फिर उचित रखरखाव के अभाव में नष्ट हो गए हैं।

विडंबना ही है कि देश के ग्रामीण क्षेत्र ही पानी के बड़े संकट में फंसे हैं। शहरों में जल वितरण व्यवस्था चरमराती है तो तत्काल प्रभावी कदम उठा लिए जाते हैं। पर गांवों की पानी की किल्लत हर वर्ष और मुश्किल होती जाती है। पहाड़ों में महिलाओं को पानी के लिए औसतन 2-3 कि.मी. और कभीकभी 3-4 कि.मी. चलना पड़ता है। मैदानी गांवों में भी एक के बाद एक सूखते कुएं व नीचे खिसकते भूजल ने कहर बरपाना शुरू कर दिया है। दिल्ली में यमुनागंगा के पानी से जब आपूर्ति नहीं हुई तो हिमाचल प्रदेश के रेणुका बांध का सहारा मिल गया। पर इन्हीं नदियों के जलागम क्षेत्रों में बसे गांवों में पानी के संकट का बड़ा शोर मचा है, लेकिन सुनवाई नहीं है। शहरों के पानी की व्यवस्था के कई विकल्प इसलिए खड़े हो जाते हैं क्योंकि वहां सरकार या नीतिकार बैठते हैं।

वास्तव में हम असली मुद्दों से कतरा रहे हैं। पहला है देश में सही जल प्रबंधन की कमी व दूसरी जल संरक्षण व संग्रहण की बड़ी योजनाओं का अभाव। पानी से जुड़ी एक बात और समझनी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन या धरती के बढ़ते तापमान का सीधा असर इसी पर है। जल ही सभी क्रियाओं का केंद्र है इसीलिए जलवायु परिवर्तन को जल केंद्रित दृष्टि से देखना आवश्यक होगा। अब जल को कई आयामों से जोड़कर देखने का समय आ चुका है।

पानी का सच

दुनिया में 70 प्रतिशत पानी खेती के उपयोग में लाया जाता है और मात्र 10 प्रतिशत घरेलू उपयोग में। ग्रामीण दुनिया के 8 प्रतिशत लोगों को साफ पानी की व्यवस्था नहीं है। दुनिया के आधे से ज़्यादा स्कूलों में पानी, शौचालय आदि की व्यवस्था नहीं है और हर वर्ष 4 करोड़ स्कूली बच्चे पानी की बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। दुनिया के 64 प्रतिशत घरों में महिलाएं ही पानी की ज़िम्मेदारी उठाती हैं। करीब 80 प्रतिशत बीमारियां पानी की देन हैं। उपसहारा क्षेत्र में लोगों के 40 अरब घंटे पानी जुटाने में लग जाते हैं।

भारत में सभी प्राकृतिक संसाधनों में कुल पानी 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) है और लगभग 370 बीसीएम सतही पानी उपयोग के लिए उपलब्ध हो पाता है। पहले प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष यह उपलब्धता 5000 क्यूबिक मीटर तक थी। वर्ष 2000 में यह मात्रा 2000 क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति रह गई। अगर ऐसे ही चलता रहा तो वर्ष 2050 तक हम 160 करोड़ होंगे और यह उपलब्धता 100 क्यूबिक मीटर रह जाएगी। इसका मतलब प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 3.2 क्यूबिक मीटर ही उपलब्ध होगा, इसका मतलब है कि इसी पानी में हर व्यक्ति के लिए खेती, नहाना, कपड़े धोना, पीना, खानापकाना जुड़ा होगा। मतलब साफ है: एक बड़े संकट की आहट। (स्रोत फीचर्स)

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सुप्त जीन को जगाकर कैंसर का इलाज – डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन

कोशिकाओं में स्वस्थ रहने, विकारों या गड़बड़ियों को दुरुस्त करने और निश्चित संख्या में विभाजित होने व अपनी प्रतियां बनाने के लिए क्रियाविधियां होती हैं। शरीर में ये सभी प्रक्रियाएं बहुत नियंत्रित तरीके से चलती रहती हैं। लेकिन बाहरी कारक जैसे धूम्रपान या विकिरण वगैरह इसमें बाधा डालें तब क्या होगा? तब एक संभावना होती है कैंसर की। कैंसर में, कोशिकाओं में मौजूद डीएनए क्षतिग्रस्त हो जाता है। जिससे शरीर में कोशिकाएं अनियंत्रित तरीके से विभाजित होने लगती हैं और शरीर में गठानें बनने लगती हैं। जिससे शरीर के अंग कमज़ोर हो जाते हैं। कोशिकाओं में ऐसे जीन्स और उनके द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन होते हैं जो इन गठानों की वृद्धि को रोकने का प्रयास करते हैं। ऐसा ही एक जीन है TP53। जब शरीर की यह नियंत्रण प्रणाली गड़बड़ा जाती है, तब परिणाम कैंसर के रूप में सामने आता है।

एक विरोधाभास

गौरतलब है कि कोशिका विभाजन की प्रक्रिया त्रुटियों से सुरक्षित नहीं है। शरीर में जितनी ज़्यादा कोशिकाएं होंगी, इस तरह की त्रुटियों की संभावना भी उतनी ही ज़्यादा होगी। तब काफी संभावना होगी कि वृद्धि के साथ होने वाली त्रुटियां सुरक्षा तंत्र को परास्त कर दें। यदि यह माना जाए कि प्रत्येक कोशिका के कैंसर में तब्दील होने की संभावना बराबर है तो हाथियों में कैंसर होने की संभावना मनुष्यों के मुकाबले कई गुना ज़्यादा होनी चाहिए क्योंकि मनुष्य की तुलना में हाथियों में कहीं ज़्यादा (कई अरब) कोशिकाएं हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। 4800 कि.ग्रा. के हाथी में कैंसर होने की संभावना 5-8 प्रतिशत ही होती है जबकि मनुष्यों में कैंसर होने की संभावना 11-25 प्रतिशत होती है। 40,000 कि.ग्रा. की भारीभरकम व्हेल और 600 कि.ग्रा. के मैनेटेस (समुद्री गाय) को शायद ही कभी कैंसर होता है। वहीं दूसरी ओर, चंद ग्राम भारी चूहों में मनुष्यों की तुलना में कैंसर होने की संभावना 3 गुना ज़्यादा है। इस प्रकार शरीर के वज़न (आकार) और कैंसर की संभावना के बीच विलोम सम्बंध दिखता है। 70 साल पहले ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के डॉ. रिचर्ड पेटो ने इस विलोम सम्बंध को देखा था, इसलिए इसे पेटो का विरोधाभास कहते हैं। तब से कई वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करते रहे हैं।

इसका एक संभावित स्पष्टीकरण जीनोम (पूरे शरीर में जीन का संग्रह) के अध्ययन से मिलता है। विकास के दौरान चूहों, मनुष्यों, मैनेटेस और मैमथ जैसे जानवरों में बड़ी संख्या में जीन इकठ्ठे होते गए हैं। इनमें से कई जीन सक्रिय हैं और शरीर के काम करने के लिए ज़रूरी पदार्थ (प्रोटीन) बनाते हैं। लेकिन जीनोम को ध्यान से देखें तो पाते हैं कि 2-20 प्रतिशत डीएनए का उपयोग शायद ही कभी होता हो। यह किसी भी आरएनए या प्रोटीन के लिए कोड नहीं करता। यह तो बस विकास या आनुवंशिक विरासत के कारण इकट्ठा होता गया है और मौजूद भर है। जीव विज्ञानी इसे जंक डीएनए (फालतू डीएनए) कहते हैं। (अनुमान है कि मानव जीनोम में लगभग 97 प्रतिशत आनुवंशिक अनुक्रम फालतू है)। इनमें से कई जीन्स में सक्रिय करने वाला प्रमोटर नदारद रहता है। अगर किसी तरीके से इन गैरकोड जीन्स को सक्रिय कर दिया जाए तो कोशिका कुछ अतिरिक्त कार्य कर सकती है।

जीन जागरण

ऐसा लगता है कि इन सुप्त जीन्स को सक्रिय कर लेने की क्षमता ही हाथियों में कम कैंसर होने का कारण है। इस बात को शिकागो विश्वविद्यालय के डॉ. विंसेट जे. लिंच और उनके समूह ने सेल रिपोट्र्स नामक पत्रिका में प्रकाशित किया है। (अधिक जानने के लिए इसे https://doi.org/10.1016/j.cellrep.2018.07.042पर पढ़ सकते हैं)। उन्होंने हाथी के जीनोम में एक सुप्त जीन LIF के लिए ज़ोंबी शब्द का उपयोग किया है। ज़ोंबी से क्या आशय है? हैती देश की लोककथा के अनुसार ज़ोंबी यानि काला जादू करके ज़िंदा की गई लाश, जिससे काम करवाया जा सके। (वैसे LIF जीन को कुम्भकर्ण जीन कहना ज़्यादा उचित होगा। कुम्भकर्ण ने वरदान मांगते समय गलती से इंद्रासन की जगह निद्रासन मांग लिया था। जिसके कारण वो महीनों सोता था और सिर्फ युद्ध करने के लिए जागता था। अलबत्ता, कुम्भकर्ण लाश नहीं था, वह तो बस सो रहा था!)

शोघकर्ताओं ने पाया कि हाथी के जीनोम में सुप्त LIF जीन कैंसररोधी प्रोटीन अणु P53 द्वारा सक्रिय हो जाता है। LIF (ल्यूकेमिया अवरोधक कारक) कोशिकाओं के डीएनए को क्षतिग्रस्त होने से रोकता है। यदि डीएनए क्षतिग्रस्त होता है या उसमें कोई विकार होता है तो कैंसर होने की संभावना रहती है। हाथी के जीनोम में LIF जीन की 10 प्रतियां होती हैं और मनुष्यों में एक प्रति होती है। यह जीन सक्रिय होकर LIF बनाता है जो शरीर में उन कोशिकाओं को तलाशता है जिनके डीएनए क्षतिग्रस्त हैं। यह कुछ अन्य प्रोटीन्स के साथ मिलकर उन क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को मार देता है। इस प्रक्रिया को प्रोटीन P53 द्वारा प्रेरित किया जाता है जिसका कोड TP53 जीन होता है। हाथी के पास TP53 की 20 प्रतियां होती हैं, मनुष्यों में इसकी तुलना में सिर्फ एक प्रति होती है। तो हाथियों ने ट्यूमर हटाने वाला जीन विकसित करके कैंसर के खतरे को कम कर दिया है।

यदि ज़ोंबी/कुम्भकर्ण LIF जीन को सक्रिय करके हाथी सरीखे जानवर कैंसर की संभावना को कम कर सकते हैं तो मनुष्यों को भी इस तरह की कोशिश करनी चाहिए। शिकागो टीम का पेपर सामने आने के बाद यह तो तय है कि कई समूह और शोधकर्ता इस दिशा में प्रयासरत होंगे। यह शोध कार्य लास्कर या नोबेल पुरस्कार का मुन्तज़िर है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रसायन में जैव विकास के सिद्धांत और नोबेल – डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष का रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को मिला है। इन्होंने अणुओं के संश्लेषण के लिए जैव विकास के सिद्धांतों का उपयोग किया है और आश्चर्यजनक परिणाम हासिल किए हैं। इस तरह से निर्मित अणुओं के कई व्यावहारिक उपयोग भी सामने आए हैं।

पुरस्कार की आधी राशि कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की फ्रांसेस अरनॉल्ड को दी जाएगी जबकि शेष आधी राशि मिसौरी विश्वविद्यालय के जॉर्ज स्मिथ और एम.आर.सी. लैबोरेटरी ऑफ मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के ग्रेगरी विंटर के बीच बंटेगी।

अरनॉल्ड एक प्रोटीन इंजीनियर हैं। प्रोटीन वे अणु हैं जो जीवन की हर क्रिया के लिए उत्तरदायी होते हैं। एंज़ाइम भी प्रोटीन ही होते हैं और शरीर की विभिन्न रासायनिक क्रियाओं में उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। अरनॉल्ड नएनए एंज़ाइम बनाना चाहती थीं जो नए किस्म की रासायनिक क्रियाओं को अंजाम दे सकें। इसके लिए पहले तो उन्होंने रासायनिक तर्क पर आधारित क्रमबद्ध तरीका अपनाया।

एंज़ाइम विशाल अणु होते हैं जो अमीनो अम्लों की शृंखला से बने होते हैं। तार्किक रूप से एंज़ाइम में एकएक अमीनो अम्ल को बदलकर देखा जा सकता है कि इसका एंज़ाइम की क्रिया पर क्या असर होता है। किंतु यह पता करना मुश्किल होता है कि किसी एक अमीनो अम्ल को बदलने से या पूरे अणु के तह होने के बिंदु को एक जगह हटाकर दूसरी जगह कर देने का उसके कार्य पर क्या असर होगा। गौरतलब है कि एंज़ाइम की क्रिया काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि उसका अणु सही जगहों पर मुड़कर तह बना ले। कुल मिलाकर एंज़ाइम बनाने की यह तार्किक प्रक्रिया काफी लंबी और श्रमसाध्य होगी।

तो अरनॉल्ड ने जीव विज्ञान का रुख किया। सजीवों में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं और नएनए अणु बनते रहते हैं। जैव विकास की प्रक्रिया में यह साधारण बात है। और अणु बनाने की प्रक्रिया डीएनए के निर्देशन में चलती है। यदि डीएनए के कोड में कोई परिवर्तन हो जाए तो वह परिवर्तन उससे बनाए जाने वाले अणु में नज़र आता है। तो अरनॉल्ड जिस एंज़ाइम का अध्ययन करना चाहती थीं उसके जीन को उन्होंने एक बैक्टीरिया में रोप दिया। यह तो सर्वविदित है कि बैक्टीरिया काफी तेज़ी से विभाजन करते हैं। जब बैक्टीरिया का विभाजन होता है तो डीएनए की प्रतिलिपि बनाई जाती है और दोनों नई कोशिकाओं को एकएक प्रतिलिपि मिल जाती है। प्रतिलिपि बनाने की इस प्रक्रिया में डीएनए में फेरबदल (उत्परिवर्तन) भी होते हैं। इस तरह से यदि आप किसी एंज़ाइम का जीन बैक्टीरिया के डीएनए में फिट कर दें तो वह उसकी प्रतिलिपि बनाएगा, और काफी संभावना है कि प्रतिलिपि बनाने की इस प्रक्रिया में जीन में परिवर्तन होंगे और फिर उसी के अनुरूप एंज़ाइम की रचना में भी परिवर्तन हो जाएंगे।

वास्तविक प्रयोग में अरनॉल्ड इस प्रक्रिया से बैक्टीरिया की तीसरी पीढ़ी में ऐसा एंज़ाइम प्राप्त कर पार्इं जो मूल एंज़ाइम से 200 गुना अधिक असरदार था। कई लोगों का ख्याल था कि यह विज्ञान नहीं बल्कि ताश के पत्ते फेंटने जैसी बाज़ीगरी है।

बहरहाल, इसी क्रम में अगला नवाचार विलियम स्टेमर की प्रयोगशाला में हुआ। स्टेमर ने डीएनए फेंटने नामक तकनीक का ही सहारा लिया। उन्होंने एक ही जीन के विभिन्न रूप लिए और उनके टुकड़ों को मिलाकर एक नया परिवर्तित रूप तैयार कर लिया। स्टेमर भी इस साल के नोबेल में शरीक होते किंतु यह पुरस्कार सिर्फ जीवित व्यक्तियों को दिया जाता है। स्टेमर का निधन 2013 में हो गया था।

अरनॉल्ड और स्टेमर की इन तकनीकों के इस्तेमाल से डिटरजेंट्स में दागधब्बे हटाने वाला एंज़ाइम जोड़ा गया है और जैवर्इंधन के उत्पादन में भी इनके उपयोग की उम्मीद है।

पुरस्कार का शेष आधा हिस्सा स्मिथ और विंटर को दिया गया है। उनका काम भी जैविक पदार्थों के संश्लेषण से जुड़ा है। 1980 के दशक में बैक्टीरियाभक्षी वायरसों के उपयोग से किसी जीन का क्लोनिंग करना संभव हो गया था। जीन क्लोनिंग का मतलब है कि आप कोई जीन किसी बैक्टीरियाभक्षी के जीनोम में जोड़ दें और फिर उस वायरस को किसी बैक्टीरिया को संक्रमित करने दें। वायरस उस बैक्टीरिय़ा की पूरी मशीनरी पर कब्ज़ा कर लेगा और अपनी प्रतिलिपियां बनाएगा और साथसाथ आपके द्वारा जोड़े गए जीन की भी प्रतिलिपियां बन जाएंगी। वायरस दरअसल एक डीएनए होता है जो एक प्रोटीन आवरण में लिपटा होता है।

स्मिथ का विचार था कि इस तरीके का उपयोग करते हुए हम किसी ज्ञात प्रोटीन के अज्ञात जीन का पता लगा सकते हैं। उस समय तक जीन्स के कई संग्रह उपलब्ध हो चुके थे जिनमें कई जीन्स के खंड रखे जाते थे। स्मिथ ने सोचा कि यदि आप इनमें से कुछ खंडों को जोड़कर एक जीन बना लें और फिर उसे वायरस के उस जीन के साथ जोड़ दें जो उसके आवरण का हिस्सा है तो उस अज्ञात जीन द्वारा बनाया जाने वाला प्रोटीन या प्रोटीनखंड (पेप्टाइड) उस वायरस की प्रतिलिपियों के बाह्र आवरण पर प्रकट हो जाएगा।

इस तरह से करने पर वायरस की जो अगली पीढ़ी बनेगी उनकी सतह पर तमाम प्रोटीन नज़र आएंगे। स्मिथ का विचार था कि इनमें से ज्ञात प्रोटीन या पेप्टाइड वाले वायरस को अलग करने में एंटीबॉडी की मदद ली जा सकेगी।

एंटीबॉडी प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन होते हैं जो किसी विशिष्ट अणु से जुड़ जाते हैं। स्मिथ को लगा कि यदि आवरण पर विभिन्न प्रोटीन का प्रदर्शन करने वाले वायरसों को ज्ञात एंटीबॉडी के संपर्क में लाया जाएगा तो उससे सम्बंधित अणु प्रदर्शित करने वाला वायरस उससे जुड़ जाएगा। इस तरह से हमें पता चल जाएगा कि जो जीनखंड जोड़ा गया था वह किस प्रोटीन का कोड था।

लेकिन स्मिथ सिर्फ विचार करके नहीं रुके। उन्होंने अपने विचार का प्रायोगिक प्रदर्शन भी करके दिखाया। उन्होंने एक बैक्टीरियाभक्षी में एक ज्ञात प्रोटीन का जीन जोड़कर उसे बैक्टीरिया को संक्रमित करने दिया। जब वायरस की नई पीढ़ी तैयार हुए तो एंटीबॉडी की मदद से वे मनचाहे वायरस को अलग करने में सफल रहे। चूंकि जोड़े गए जीन का प्रोटीन वायरस के आवरण पर प्रकट (डिस्प्ले) होता है, इसलिए इस तकनीक को फेजडिस्प्ले तकनीक कहा जाता है।

मगर स्मिथ के शोध को उसकी मंज़िल तक पहुंचाने का काम विंटर ने किया। स्मिथ के द्वारा विकसित तकनीक का उपयोग करने के तरीके विंटर ने विकसित किए। विंटर ने इस तकनीक का उपयोग करके ऐसी एंटीबॉडीज़ तैयार करने में सफलता प्राप्त की जिनका उपयोग मल्टीपल स्क्लेरोसिस तथा कैंसर जैसी बीमारियों में किया जा सकता है। पारंपरिक दवाइयां में तो कोशिकाओं के अंदर चल रही प्रक्रियाओं को बदलने के लिए छोटेछोटे अणुओं का उपयोग किया जाता है। औषधि के रूप में एंटीबॉडी का उपयोग अधिकांश दवा निर्माताओं के सोच में नहीं था।

विंटर ने किया यह कि किसी एंटीबॉडी को बनाने वाला जीन बैक्टीरियाभक्षी वायरस के जीनोम में जोड़ दिया। जैसा कि हम देख ही चुके हैं, एंटीबॉडी भी प्रोटीन या पेप्टाइड ही होती हैं। इसके बाद बैक्टीरिया को अपने हाल पर छोड़ दिया गया। बैक्टीरिया ने उसे संक्रमित करने वाले वायरस की प्रतिलिपियां बनार्इं जिनकी सतह पर एंटीबॉडी डिस्प्ले हुई। इनमें से मनचाही एंटीबॉडी को अलग करने के लिए अन्य अणुओं की मदद ली गई जो किसी एंटीबॉडी विशेष से जुड़ते हों।

एक बार यह विधि प्रायोगिक रूप से सफल हो गई तो विंटर ने इसमें जैव विकास का आयाम जोड़ दिया। उन्होंने कई सारे बैक्टीरियाभक्षी वायरस तैयार किए जिनकी सतह पर अलगअलग एंटीबॉडी उपस्थित थी। अब इनमें से उन वायरसों को अलग किया गया जो सही लक्ष्य से सबसे मज़बूती से जुड़ते थे। इसके बाद इन वायरसों को बैक्टीरिया को संक्रमित करके संख्यावृद्धि करने दिया गया और हर बार उनमें से सबसे सशक्त ढंग से लक्ष्य से जुड़ने वाले वायरसों को पृथक किया गया।

इस विधि से जो पहली एंटीबॉडी औषधि बनाई गई उसका नाम था एडेलिम्यूनैब। इसका उपयोग गठिया, सोरिएसिस और आंतों की शोथ के लिए किया जाता है। कुछ एंटीबॉडीज़ का इस्तेमाल कैंसर कोशिकाओं को मारने, ल्यूपस नामक आत्मप्रतिरक्षा रोग की प्रगति को थामने तथा एंथ्रेक्स में किया जा रहा है। कई अन्य एंडीबॉडीज़ परीक्षण के चरण में हैं।

एक मायने में इन तीनों शोधकर्ताओं ने जैविक संश्लेषण की विधि में वैकासिक आयाम जोड़कर एक नया धरातल तैयार किया है। और नोबेल पुरस्कार उनके कार्य में अवधारणात्मक नवीनता तथा सादगी के परिणामस्वरूप दिया गया है।(स्रोत फीचर्स)

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मीठा कागज पानी से बैक्टीरिया हटाएगा – डॉ. दीपक कोहली

कनाडा में भारतीय मूल के शोधकर्ताओं के एक दल ने चीनीयुक्त कागज की एक विशेष पट्टी विकसित की है, जिसके ज़रिए पानी से हानिकारक बैक्टीरिया दूर किए जा सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि इससे भारत समेत दुनिया भर में, खासकर ग्रामीण इलाकों में प्रदूषित पानी से ई.कोली नामक हानिकारक बैक्टीरिया को खत्म किया जा सकेगा। इस विशेष पट्टी को डिप ट्रीट नाम दिया गया है।

यॉर्क यूनिवर्सिटी की माइक्रो एंड नैनो स्केल ट्रांसपोर्ट लैब के शोधकर्ता सुशांत मित्रा ने कहा कि उनकी खोज डिप ट्रीट दुनिया भर में स्वास्थ्य लाभों के साथ किफायती और पोर्टेबल उपकरणों के विकास के लिए अहम होगी।

प्रदूषित पानी के नमूनों में डिप ट्रीट को डुबोकर लगभग 90 प्रतिशत बैक्टीरिया को प्रभावी तरीके से समाप्त करने में शोध टीम को सफलता मिल चुकी है। डिप ट्रीट की मदद से पानी में ई.कोली बैक्टीरिया का पता लगाने, उसे पकड़ने और खत्म करने में दो घंटे से भी कम समय लगेगा। इस विशेष कागज़ी पट्टी के इस्तेमाल से वैश्विक स्वास्थ्य के परिदृश्य को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। इससे कनाडा के सुदूर उत्तरी क्षेत्रों से लेकर भारत के पिछड़े ग्रामीण इलाकों तक, पानी को बैक्टीरिया प्रदूषण से मुक्त करना आसान हो सकेगा।

कई शोधकर्ता पानी से बैक्टीरिया को हटाने के लिए कागज की छिद्रयुक्त पट्टी का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन डिप ट्रीट में सहजन की फलियों के बीज में पाए जाने वाले बैक्टीरियारोधी तत्व का इस्तेमाल किया है, ताकि प्रदूषित पानी से बैक्टीरिया को न केवल छाना जा सके, बल्कि नष्ट भी किया जा सके।

मौजूदा जलशोधन प्रणालियों में चांदी के सूक्ष्म कणों और मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता है। इन चीज़ों के इस्तेमाल से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है। लेकिन डिप ट्रीट में कुदरती बैक्टीरियारोधी तत्व चीनी का इस्तेमाल किया गया है। इससे पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ने की संभावना नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या हमारे प्राइमेट रिश्तेदार भी वाचाल हैं? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

मनुष्य की तुलना में अधिकांश प्राइमेट्स तरहतरह की आवाज़ें नही निकाल सकते। प्राइमेट परिवार में एक ओर तो पेड़ों पर निवास करने वाले पश्चिमी अफ्रीका के वर्षा वनों में पाए जाने वाले कैलेबार आंगवानटिबो हैं जो केवल दो प्रकार की ही आवाज़ें निकलते हैं। दूसरे छोर पर मध्य अफ्रीका के कांगो बेसिन में पाए जाने वाले बौने चिम्पैंज़ी, बोनोबो हैं जो बेहद बातूनी हैं। ये कम से कम 38 प्रकार की आवाज़ें निकालने के लिए जाने जाते हैं।

फ्रंटियर इन न्यूरोसाइन्स में प्रकाशित एक नए अध्ययन में बताया गया है कि विभिन्न प्रकार की आवाज़ें निकालने के लिए केवल ध्वनि यंत्र (साउंड बाक्स) ही उत्तरदायी नहीं होता। पूर्व में वैज्ञानिक विभिन्न प्रकार की आवाज़ निकालने के लिए साउंड बाक्स को ही ज़िम्मेदार मानते थे और भाषा के विकास में इसे महत्वपूर्ण समझते थे। हाल ही में प्रकाशित शोध के अनुसार गैर मानव प्राइमेट में भी आवाज़ उत्पन्न करने वाली संरचना होमिनिड के सहोदरोंके समान ही है। एंजलिया रस्किन विश्वविद्यालय के प्राणि विद जैकब डुन के अनुसार यदि शरीर की आवाज़ निकालने वाली संरचना एक जैसी है तो मुख्य मुद्दा मस्तिष्क की क्षमता का हो जाता है।

प्राइमेट्स में ध्वनि उत्पन्न करने का ढांचा काफी विकसित है लेकिन अधिकांश प्रजातियों में जटिल ध्वनियां बनाने के लिए उत्तरदायी संरचनाएं तंत्रिका तंत्र के नियंत्रण में नहीं है। शोधकर्ता के एक और साथी, स्टोनीब्रुक विश्वविद्यालय के नोरोन स्माअर्स ने 34 प्राइमेट्स की बोलने की क्षमता के आधार पर एक सूची बनाई। फिर दोनों वैज्ञानिकों ने प्रत्येक प्राइमेट प्रजाति की बोलने की क्षमता तथा मस्तिष्क के विकास के सम्बंध की जांच की।

जो ऐप्स (वनमानुष) विभिन्न प्रकार की आवाज़ें निकाल सकते थे उनमें विकसित तथा बड़े कॉर्टिकल और ब्रोन स्टेम पाए गए। ये मस्तिष्क के वे भाग हैं जो वाणि संवेदनाओं की प्रतिक्रिया तथा जीभ की मांसपेशियों का समन्वय करते हैं। परिणाम मस्तिष्क के कॉर्टेक्स से जुड़े भाग के आकार और विभिन्न प्रकार की आवाज़ निकालने की क्षमता के बीच सहसम्बंंध दर्शाते हैं। अर्थात बोलने की क्षमता स्वर निकालने की शारीरिक संरचनाओं की बजाय तंत्रिका नेटवर्क के कारण आती है। जिन प्राइमेट्स में मस्तिष्क के ध्वनि नियंत्रण क्षेत्र बड़े हैं वे अन्य के मुकाबले विभिन्न प्रकार की आवाज़ें निकाल सकते हैं।

उपरोक्त अध्ययन से पता चलता है कि बोलने की क्षमता का विकास मस्तिष्क के विकास के साथसाथ ही हुआ है। मानव की विकास यात्रा में बोलचाल को ज़्यादा महत्व मिला और मस्तिष्क में उससे सम्बंधित भाग विकसित होते गए। दूसरी ओर एप्स में अन्य क्षमताएं विकसित हुर्इं और ध्वनि सम्बंधी संरचनाएं बनी तो रहीं किंतु बोलने के लिए आवश्यक तंत्रिका समन्वय नहीं हो पाया।

बोनोबो शोधकर्ताओं ने पाया है कि बोनोबो खाना खिलाने तथा यात्रा करने जैसी बिल्कुल भिन्नभिन्न घटनाओं के लिए एकसी आवाज़ निकालते हैं। यानी एकसी आवाज़ से अलगअलग संदेश देते हैं। यह समझ में नहीं आया है कि कैसे एकसी आवाज से अलगअलग संदेश दिए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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संपूर्ण व्यक्ति ही मौजूदा समस्याएं सुलझा सकता है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

साइन्स पत्रिका के 6 जुलाई 2018 के अंक में फिज़ियोलॉजिस्ट डॉ. रॉबर्ट रूटबर्नस्टाइन का आलेख कुछ इस तरह शुरू होता है यदि आपने कभी भी कोई चिकित्सीय सेवा ली है तो संभावना है कि आप कला से भी लाभांवित हुए हैं। स्टेथोस्कोप का आविष्कार फ्रांसीसी बांसुरी वादकचिकित्सक रेने लाइनेक ने किया था। उन्होंने ह्मदय की धड़कन को संगीत की संकेतलिपि में रिकॉर्ड किया था।

डॉ. रॉबर्ट रूटबर्नस्टाइन कहते हैं कि कैसे पाठ्यक्रम में मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन को शामिल करने से बेहतर वैज्ञानिक तैयार होते हैं। उन्होंने उच्च शिक्षा बोर्ड और यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़, इंजीनियरिंग एंड मेडिसिन के वर्कफोर्स द्वारा जारी की गई हालिया रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसमें सिफारिश की गई है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, गणित और चिकित्सा के साथ मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन का एकीकरण होना आवश्यक है।

वैकासिक जीव विज्ञानी कॉनराड वैडिंगटन के अनुसार दुनिया की गंभीर समस्याओं का हल सिर्फ एक संपूर्ण व्यक्ति द्वारा ही किया जा सकता है, न कि उन लोगों द्वारा जो सार्वजनिक रूप से खुद को महज़ एक तकनीकी विशेषज्ञ या वैज्ञानिक या कलाकार से अधिक कुछ और मानने से इंकार करते हैं।और यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग के अध्यक्ष प्रोफेसर चाल्र्स वेस्ट कहते हैं, “समाज, संस्कृति, राजनीति, अर्थशास्त्र और संचार यानी उदार कला और सामाजिक विज्ञान की बातों की समझ के बिना इंजीनियरिंग सिस्टम की बुद्धिमत्तापूर्ण कल्पना, डिज़ाइन या उसका असरदार इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

भारतीय स्नातक

भारत में, लगभग 3345 कॉलेजों और संस्थानों से हर साल 15 लाख से अधिक इंजीनियर निकलते हैं। अफसोस की बात है कि इनमें से अधिकांश को नौकरी नहीं मिलती। मारिया थार्मिस ने पिछले साल इकॉनॉमिक टाइम्स में लिखा था कि पिछले तीन दशकों में भारत के आईटी उद्योग में तेज़ी से हुए विकास और इस क्षेत्र में पैसे, रुतबे और विदेश जाने के अवसरों के चलते हज़ारों छात्र इंजीनियरिंग में प्रवेश ले रहे हैं। इन छात्रों में ज़्यादातर छात्र अपने मातापिता द्वारा प्रेरित किए जाते हैं। यही हाल मेडिकल कॉलेजों का है। मातापिता बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उन्हें इस क्षेत्र में भेजना चाहते हैं। भारत में हर साल करीब 1700 मेडिकल कॉलेजों से 52,000 डॉक्टर (एमबीबीएस) निकलते हैं। 6.3 लाख से अधिक छात्र प्रीमेडिकल प्रवेश परीक्षा देते हैं। इनमें से अच्छीखासी तादाद में छात्र डोनेशन के रूप में मोटी रकम भरकर निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पा लेते हैं। यहां भी पालकों का दबाव काफी हावी रहता है। ज़्यादातर डॉक्टरों, खासकर गांवों और छोटे कस्बों के डॉक्टरों की काबिलियत से हम सब वाकिफ हैं।

और जब बात मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन की आती है तो इनमें से ज़्यादातर लोग तो अज्ञानी ही होते हैं। ये वे लोग नहीं हैं जिन्हें डॉ. वैडिंगटन ने संपूर्ण व्यक्ति कहा है।

चूक कहां हुई?

कमी स्कूल स्तर पर है। पिछले सात दशकों से केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों ने स्कूलों के पाठ्यक्रम के साथ खिलवाड़ करके, उनके बजट में कमी करके, कोटा सिस्टम के तहत अयोग्य शिक्षकों की भर्ती करके (जो स्कूल आना तक ज़रूरी नहीं समझते), सिलेबस के साथ मनमानी करके और ऐसे अनगिनत हस्तक्षेप करके स्कूली तंत्र को काफी बर्बाद किया है। प्रथम संस्था जैसे शिक्षा विश्लेषणकर्ताओं का कहना है कि सरकारी स्कूलों की हालत इतनी खराब है कि आठवीं कक्षा का छात्र पांचवीं के सवाल हल नहीं कर पाता और पांचवीं का छात्र तीसरी कक्षा के सवालों के जवाब नहीं दे पाता। लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं जो वास्तव में नोट छापने की मशीनें हैं। इन स्कूलों की फीस व अन्य खर्चे उठाना निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के बूते के बाहर है।

इस तंत्र ने और इसके साथ ही स्नातक होने के बाद एक अच्छी नौकरी और नियमित आय की ज़रूरत ने मिलकर हमारी शिक्षा प्रणाली को बर्बाद कर दिया है। इसी के चलते कोचिंग सेंटर पैदा हुए जिन्हें राजनैतिक संपर्क वाले लोग चलाते हैं। ये माध्यमिक कक्षाओं से ही बच्चों को भर्ती कर लेते हैं और उन्हें अजीबोगरीब व पेचीदा पाठ्यक्रम का पाठ पढ़ाते हैं ताकि वे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा पास कर लें। न तो इन कोचिंग सेंटरों में और न ही इन स्कूलों में किसी भी स्तर पर मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन पढ़ाया जाता है। जो लोग इन मशीनी शिक्षण कारखानों से सफलतापूर्वक बाहर निकलते हैं वे एनआईटी, आईआईटी या मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पा लेते हैं, लेकिन सामाजिक कौशल के बगैर। अब वह समय आ गया है कि स्कूल प्रणाली को सुधारा जाए और मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन जैसे विषयों को शुरुआत से ही स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।

इस कमी को ध्यान में रखते हुए आईआईटी, बिट्स पिलानी, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन और कुछ अन्य संस्थाओं ने पहले कुछ सेमेस्टर में कोर पाठ्यक्रमशुरू करने की पहल की है। इस कोर्स में छात्रों को भाषा, साहित्य, मानविकी और सामाजिक विज्ञान, कला और शिल्प, और डिज़ाइन जैसे विषय पढ़ाए जाएंगे। खुशी की बात है कि कई आईआईटी में अब प्रोद्योगिकी और विज्ञान के अलावा मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन विषयों के भी विभाग हैं और ये विषय पढ़ाए जाते हैं और इन पर शोध किए जाते हैं। (इसका एक सुंदर उदाहरण है इस वर्ष आईआईटी हैदराबाद में दीक्षांत समारोह में पहनी जानी वाली पोशाक का डिज़ाइन इकात (बंधेज) शैली में किया गया था, जिसमें स्थानीय बुनकरों द्वारा तैयार किए गए गाउन का उपयोग किया गया था।) आईआईटी और बिट्स के ये कोर पाठ्यक्रम कुछ मददगार साबित हो सकते हैं। इसी प्रकार वेल्लोर में क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के स्नातक डॉक्टरों को ग्रामीण क्षेत्र में एक वर्ष अनिवार्य रूप से बिताना होता है। जिससे उनकी समुदाय और उसकी ज़रूरतों, उसकी क्षमताओं के बारे में समझ बनती है और समझदारी पैदा होती है। आईटी कंपनियां अपने प्रशिक्षुओं को जेनेरिक और स्ट्रीम लर्निंग के साथसाथ सामाजिक कौशल पर महीने भर का प्रशिक्षण देती हैं। पर अन्य तकनीकी और चिकित्सा संस्थानों का क्या हाल है?

उन्नति की राह

अफसोस की बात है कि केंद्रीय उच्च शिक्षा मंत्रालय उदार कला और मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन के महत्व को नहीं समझता। इसका एक चौंकाने वाला उदाहरण है कि चार तकनीकी संस्थानों और एक प्रस्तावित ग्रीन फील्ड संस्थान को उत्कृष्ट संस्थान के तौर पर चिंहित किया गया है। देखने वाली बात यह है कि एक भी मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन सम्बंधी विश्वविद्यालय या संस्थान उत्कृष्ट नहीं माना गया! सरकार किसे उत्कृष्ट मानती है और पेशेवर विद्वान किसे उत्कृष्ट मानते हैं, इसमें फर्क है। 

इस विसंगति को देखते हुए एक सुझाव है। क्यों न कुछ ग्रीन फील्ड संस्थान टेक्नॉलॉजीआधारित विषयों की बजाय मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन पर केंद्रित हों? और नए संस्थान खोलने की बजाय बेहतर होगा कि ट्रस्ट स्थापित करके मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन को उत्प्रेरित व प्रोत्साहित किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/1sgf16/article24666121.ece/alternates/FREE_660/12TH-SCIMEDCAMP