क्या डायनासौर जीभ लपलपा सकते थे? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पृथ्वी से डायनासौर का अस्तित्व 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व समाप्त हो गया था। किंतु जीव वैज्ञानिकों और जीवाश्म वैज्ञानिकों के प्रयासों से हम इनके बारे में बहुत कुछ जान पाए हैं। और ये डायनासौर अब भी हमारे बीच विज्ञान की रोचक कथाओं और एनीमेशन फिल्मों के रूप में जीवितहैं।

सभी डायनासौर प्रजातियों में सबसे बड़ा और मांसाहारी डायनासौर टायरेनोसौरस रेक्स (टी.रेक्स) रहा है। इसे आतंकी छिपकलियों का राजाभी कहा जाता है। इसमें बड़े आकार के सिर द्वारा, बेहद मज़बूत जांघों और ताकतवर पूंछ का संतुलन किया जाता था। 2011 में प्रकाशित एक शोध से यह ज्ञात हुआ है कि इनमें शरीर की बनावट और उसका संतुलन इतना गज़ब का था कि अपनी विशाल काया के बावजूद टी. रेक्स 20 से 40 किलो मीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकते थे। टी. रेक्स की अगली टांगों में दोदो उंगलियां भी थी। परंतु अगली टांगें कमज़ोर थी। टांगों की कमज़ोरी की भरपाई उन्होंने जबड़ों की बेहतर पकड़ से कर ली थी। इस तरह टी. रेक्स बेहद सफल शिकारी रहे होंगे।

पर कई पिक्चरों और मॉडल्स में उनकी लपलपाती जीभ दिखाई जाती है। तो क्या वे अपनी जीभ से बर्फ के गोलों और लालीपॉप्स को चूस या चाट सकते थे, जैसे हम करते हैं। क्या वे आइसक्रीम के कोन के किनारों से बहतीटपकती आइसक्रीम को चाटने का मज़ा ले सकते थे?

वैज्ञानिकों को लगता है कि टी. रेक्स ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि उनकी जीभ काफी हद तक निचले जबड़े से जुड़ी हुई थी। हाल ही में एक नए शोध ने डायनासौर के चित्रकार एवं मॉडल बनाने वाले विशेषज्ञों की कला में खामियों की विवेचना की। एनिमेटर्स प्राय: टी. रेक्स को आधुनिक छिपकलियों के समान जीभ लपलपाते दिखाते हैं। किंतु वैज्ञानिकों को लगता है कि यह चित्र गलत है।

सरिसृप परिवार में सांप एवं कई छिपकलियां जीभ बाहर निकालकर अनेक कार्यों को अंजाम देते हैं। सभी सांपों में तो जीभ काफी लंबी तथा सिरे से द्विशाखित होती है। शिकार की गंध के कण हवा से पकड़कर लपलपाती जीभ उन्हें ऊपरी जबड़ों के समीप स्थित गंध संवेदी अंग जेकबसंस आर्गन में ले जाती है। कुछ गंध संवेदी तंत्रिकाएं इस अंग से मस्तिष्क में संदेश पहुंचा कर शिकार की पहचान बताने में मदद करती है।

केमेलियॉन जैसे गिरगिट में तो जीभ बेहद लंबी, चूषक युक्त और चिपचिपी भी हो गई है। कुछ दूर बैठे शिकार पर अचानक हमला कर उसे पकड़ने का कार्य हाथपैर के बजाय बहुत लंबी जीभ से ही बहुत कुशलता से संपन्न होता है। जीभ की मांसपेशियां ही शिकार को खींचकर जबड़ों के हवाले कर देती हैं।

कुछ रेगिस्तानी छिपकलियों में तो जीभ मुंह से बाहर निकलकर आंखों की साफ सफाई और गर्मी में थूक को माइस्चेराइज़र्स की तरह लगाने में मददगार होती है।

लेकिन भले ही उपरोक्त सभी आधुनिक सरिसृप जीभ को हवा में लहराने और अनेक कार्य करने में माहिर हैं परंतु भीमकाय टी. रेक्स ऐसा नहीं कर सकते थे। जीभ और होंठ जैसे नरम अंग जीवाश्म नहीं बन पाते और जीवाश्मीकरण की प्रक्रिया में बेहद आसानी से नष्ट हो जाते हैं। इसलिए वैज्ञानिकों को जीवाश्मित जीभ तो नहीं मिली परंतु जीभ को आकार देने वाली निचले जबड़े की छोटी एवं मज़बूत हड्डियों के समूह हयॉड (Hyoid) का अध्ययन अवश्य किया गया है। वैज्ञानिकों ने डायनासौर्स की हयॉड के साथ ही पक्षियों और मगरमच्छ जैसे डायनासौर के निकटतम रिश्तेदारों में भी जीभ लपलपाने की प्रवृत्ति को देखा। डायनासौर्स एवं मगरमच्छों की हयॉड हड्डियों की समानता के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला की डायनासौर्स की जीभ मगरमच्छों के समान ही निचले जबड़े के तालू में दृढ़ता से जुड़ी हुई होगी और इसका बाहर निकलना संभव नहीं रहा होगा।

कशेरुकी जीवाश्म शास्त्र की विशेषज्ञ, जैक्सन स्कूल ऑफ जियोलॉजी एवं टेक्सास विश्वविद्यालय की प्रोफेसर जूलिया क्लार्क के अनुसार अधिकांश लोग डायनासौर्स की शरीर रचना और उनकी जीवन शैली को शायद नहीं समझ पाते और उन्हें लपलपाती जीभ वाला दिखा देते हैं। चित्रकारों के मन में यह गलत धारणा बनी हुई है कि डायनासौर्स वर्तमान छिपकलियों जैसे ही थे। वास्तव में पृथ्वी पर उनके अब तक के सबसे नज़दीकी रिश्तेदार पक्षी एवं मगरमच्छ परिवार के सदस्य हैं। खास करके आधुनिक पक्षियों में तो जीभ असाधारण रूप से विविधता से भरी एवं गतिशील है। जीभ को अनेक कार्य एवं दिशाओं में मोड़ने की खूबी का मुख्य कारण जटिल हयॉड हड्डी है जो जीभ के अगले सिरे तक आधार देने का कार्य करती है।

डायनासौर एवं मगरमच्छ परिवार के सदस्यों में हयॉड एक जोड़ीदार छोटी, सरल एवं छड़ के समान संरचनाएं भर हैं। उपरोक्त दोनों ही जीवों में हयॉड उनकी पेशियों तथा संयुक्त करने वाले ऊतकों से पूरी लंबाई में आधार से जुड़ी रहती है। उड़ने वाले टाइरोसौरस एवं आधुनिक पक्षियों में भी हयॉड हड्डी एक समान लगती है। परंतु वैज्ञानिकों को लगता है कि टाइरोसौरस तथा डायनासौर का उद्विकास बिल्कुल भिन्न हुआ है। हवा में उड़ने वाले टाइरोसौरस की लपलपाती जीभ भोजन के नए प्रकार के कारण रही होगी। वैसे भी आधुनिक मगरमच्छों की काटने तथा निगलने की प्रवृत्ति में लपलपाती जीभ का कोई खास कार्य नहीं रह जाता है। इसलिए डायनासौर एवं मगरमच्छ अपने नज़दीकी रिश्तेदारों और कज़िन्स के समान जीभ को लपलपाकर चाटने की प्रक्रिया को अंजाम नहीं दे सकते थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विश्व उबलने की राह पर

ज़रा कल्पना कीजिए, आपके शहर का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया है। फुटपाथ खाली पड़े हैं, पार्क शांत हैं और दूर-दूर तक कोई इंसान दिखाई नहीं दे रहा है। दिन की तुलना में लोग रात में घर से बाहर निकलना पसंद कर रहे हैं। खेल के मैदानों में एक अजीब-सी चुप्पी है। दिन के सबसे गर्म समय में बाहर काम करने पर अघोषित प्रतिबंध लग चुका है। केवल वही लोग दिख रहे हैं जो गरीब, बेघर, असंगठित मज़दूर हैं क्योंकि उनके पास एयर कंडीशनिंग की सुविधा नहीं है।

इन्ही एयर कंडीशनिंग उपकरणों से वातावरण और गर्म हो रहा है। बढ़ते तापमान के कारण व्यवहार में और खानपान में भी बदलाव आ रहा है। बढ़ते तापमान से हमारे अंदर अधिक गुस्से की प्रवृत्ति भी उत्पन्न हो सकती है। बाहर लंबा समय गुज़ारना हमारी जान के लिए घातक हो सकता है।

अस्पतालों में गर्मी के कारण पैदा होने वाले तनाव, श्वसन सम्बंधी समस्याओं और उच्च तापमान के कारण मरीज़ों की संख्या ज़्यादा नज़र आ रही है। इस तापमान पर मानव कोशिकाएं झुलसने लगती हैं, रक्त गाढ़ा हो जाता है, फेफड़ों के चारों ओर मांसपेशियों की जकड़न पैदा हो जाती है और मस्तिष्क में ऑक्सीजन की कमी होने लगती है।

50 डिग्री सेल्सियस अब कोई अपवाद नहीं है, यह काफी तेज़ी से कई इलाकों में फैलता जा रहा है। इस वर्ष, पाकिस्तान के नवाबशाह के 11 लाख निवासियों ने 50.2 डिग्री सेल्सियस तापमान झेला। भारत में दो वर्ष पूर्व, फलोदी शहर में 51 डिग्री तामपान दर्ज किया गया था। एक सेहतमंद इंसान के लिए कुछ घंटे उमस भरा 35 डिग्री से अधिक तापमान जानलेवा साबित हो सकता है। वैज्ञानिकों ने यह चेतावनी दी है कि वर्ष 2100 तक विश्व की आधी से ज़्यादा आबादी वर्ष के 20 दिन जानलेवा गर्मी की चपेट में रहेगी।

खाड़ी देश के कई शहर तो ऐसी गर्मी के आदी हो रहे हैं। बसरा (जनसंख्या 21 लाख) में दो वर्ष पूर्व 53.9 डिग्री तापमान दर्ज़ किया जा चुका है। कुवैत और दोहा शहर पिछले दशक में 50 डिग्री या उससे अधिक तापमान झेल चुके हैं। ओमान के तटीय इलाके कुरियत में, गर्मियों में रात का तापमान 42.6 डिग्री से ऊपर रहा, जो कि दुनिया में अब तक का सबसे ज़्यादा ‘न्यूनतम’ तापमान माना जाता है।

आने वाले वर्षों में मक्का शहर में होने वाली तीर्थ यात्रा भी भीषण गर्मियों के मौसम में होगी। इस तीर्थ यात्रा में लगभग 20 लाख यात्रियों का आना होता है। 50 डिग्री से अधिक तापमान के चलते यात्रियों के लिए ठंडा वातावरण तैयार करना एक बड़ी चुनौती होगी। इन परिस्थितियों को देखते हुए वर्ष 2022 में, कतर में होने वाले फुटबॉल विश्व कप के लिए फीफा ने फाइनल मैच गर्मियों की बजाय क्रिसमस से एक सप्ताह पहले स्थानांतरित कर दिया है। जापानी राजनेता अब 2020 टोक्यो ओलंपिक के लिए डे-लाइट सेविंग टाइम शुरू करने की चर्चा कर रहे हैं ताकि मैराथन और रेसवॉक सुबह 5 बजे शुरू करके दोपहर की गर्मी से बचा जा सके।

कई इलाके भीषण गर्मी से जूझ रहे हैं। अहमदाबाद में अस्पतालों ने विशेष वार्ड खोले हैं। ऑस्ट्रेलिया के शहरों ने बेघर लोगों के लिए मुफ्त स्विमिंग पूल उपलब्ध कराए हैं। तापमान 40 डिग्री से ऊपर होने पर स्कूलों को मैदानी खेल का समय रद्द करने के निर्देश दिए जाते हैं। कुवैत में दोपहर 12 बजे से 4 बजे के बीच बाहर काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।

वर्तमान में, 354 बड़े शहरों में 35 डिग्री से अधिक औसत ग्रीष्मकालीन तापमान देखा गया है और 2050 तक यह तादाद 970 तक पहुंच जाएगी। अनुमान लगाया गया है कि चरम गर्मी को झेलने वालों की संख्या आठ गुना बढ़कर 1.6 अरब हो जाएगी।

इस साल, लॉस एंजेल्स से 50 कि.मी. दूर चिनो में 48.9 डिग्री तापमान दर्ज़ किया गया। सिडनी में 47, मैड्रिड और लिस्बन में 45 डिग्री के आसपास तापमान रहा। नए अध्ययनों से पता चलता है कि शताब्दी के अंत तक फ्रांस का उच्चतम तापमान काफी आसानी से 50 डिग्री से अधिक हो सकता है, जबकि ऑस्ट्रेलियाई शहर तो उससे भी जल्दी इस बिंदु तक पहुंच जाएंगे। इस बीच कुवैत 60 डिग्री तक पहुंच चुका होगा।

एक तरफ मज़दूर, रिक्शा चलाने वाले और खोमचे-ठेले वाले खुद को सिर से लेकर पैर तक ढांके हुए हैं ताकि इस गर्मी से अपना बचाव कर सकें। दूसरी ओर, अमीरों के लिए बात केवल एक अनुकूल वातावरण से दूसरे अनुकूल वातावरण में जाने की है, जैसे घर, कार्यालय, कार, जिम या शॉपिंग मॉल। इत तरह से, बढ़ती गर्मी ने असमानता का एक नया मुद्दा खड़ा कर दिया है। गौर से देखिए, समाज ठंडे और गर्म दायरों में बंट चुका है।

घनी आबादी वाले क्षेत्रों को कैसे ठंडा रखा जाए, यह अर्बन क्लाइमेट संगोष्ठी का मुख्य एजेंडा है। जल संरक्षण, शेड और गर्मी को कम करने के अन्य उपायों के माध्यम से शहरों को गर्मी से बचाया जा सकता है। दुनिया के कई स्थानों में ऐसे प्रयास शुरू भी हो चुके हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मल भक्षण मोल चूहिया में मातृत्व जगाता है

एक नए अध्ययन से पता चला है कि रेगिस्तानी नग्न मोल चूहों के समाज में श्रमिक अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए अपनी रानी का मल खाते हैं।

रेगिस्तानी मोल चूहे (Heterocephalus glaber) पूर्वी अफ्रीका के रेगिस्तान में भूमिगत कॉलोनी में रहते हैं। कुछ प्रजनन करने वाले नर चूहों के अलावा, कॉलोनी के शेष सदस्य अपना सारा समय भोजन के लिए कंद की तलाश, शिकारियों से बचाव और रानी के बच्चों की देखभाल में व्यतीत करते हैं। रानी के बच्चों की देखभाल करने के इस व्यवहार ने जीव विज्ञानियों का ध्यान आकर्षित किया। आम तौर पर मादा स्तनधारियों में हार्मोन में होने वाले बदलाव मादा को अपने बच्चों की देखभाल करने को प्रवृत्त करते हैं। लेकिन इस रेगिस्तानी मोल में हार्मोन उत्पादन करने वाले सहायक प्रजनन अंग रानी के अलावा अन्य मादाओं में कभी विकसित नहीं होते। तो सवाल यह है कि फिर उनमें मातृत्व भावना कैसे पैदा होती है?

प्रोसीडिंग्स आफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, यह व्यवहार इन मोल चूहों के कुछ अजीब पहलुओं से सम्बंधित हो सकता है। जैसे मलभक्षण यानी कोप्रोफेजी। शोधकर्ताओं ने ये निष्कर्ष प्रयोगशाला में रेगिस्तानी मोल चूहों की कॉलोनी के अध्ययन के आधार पर निकाले हैं। इस शोध कार्य में प्रजननहीन मादाओं के एक समूह ने गर्भवती रानी के मल का भक्षण किया जबकि दूसरे समूह ने ऐसी रानी के मल को खाया जो गर्भवती नहीं थी। तीसरे समूह ने एक गैरगर्भवती रानी के मल का सेवन किया जिसमें एस्ट्रोजेन हार्मोन मिलाया गया था। यह हारमोन मातृत्व व्यवहार शुरू करने के लिए जाना जाता है। देखा गया कि जिन मोल चूहों को गर्भवती रानी या हारमोन युक्त मल का सेवन करवाया गया था उनके मलमूत्र में अन्य चूहों की तुलना में ज़्यादा एस्ट्रोजेन पाया गया। अर्थात मोल रानियां अन्य मादा मोल चूहों में मल के माध्यम से मातृत्व जगाती हैं। यह रणनीति जंतु जगत में अद्वितीय प्रतीत होती है। (स्रोत फीचर्स)

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आपकी चमड़ी बोलेगी और सुनेगी

पहनने योग्य टेक्नॉलॉजी में तेज़ी से तरक्की हो रही है। अब वैज्ञानिकों ने ऐसे उपकरण विकसित किए हैं जो आपकी त्वचा को स्पीकर या माइक्रोफोन में बदल देंगे। इन्हें कान में या गले पर लगाने पर सुनने और बोलने की दिक्कत से पीड़ित व्यक्ति को सुनने-बोलने में मदद मिलेगी।

दरअसल शोधकर्ता ऐसे स्पीकर और माइक्रोफोन बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो टेटू से भी पतले हों और आवाज़ को बढ़ा सकें। स्पीकर और माइक्रोफोन तो जानी-मानी टेक्नॉलॉजी है मगर उन्हें एकदम पतला बनाना एक तकनीकी चुनौती है। सबसे पहले तो आपके पास ऐसा इलेक्ट्रॉनिक सर्किट होना चाहिए जो अत्यंत पतला हो और इतना लचीला हो कि चमड़ी के साथ-साथ खिंच सके, मुड़ सके, सिकुड़ सके। विभिन्न पदार्थों को आज़माने के बाद शोधकर्ताओं ने इसके लिए चांदी के महीन तारों को चुना। इन तारों को पोलीमर की परतों से ढंका गया। इस तरह जो सर्किट बना वह लचीला था, पारदर्शी था तथा विद्युत संकेतों के प्रेषण में सक्षम था।

जब इस सर्किट को कोई ध्वनि (श्रव्य) संकेत मिलता है तो इसमें लगा नन्हा-सा लाउडस्पीकर पूरे सर्किट को गर्म कर देता है। अब यह सर्किट हवा में हो रहे दबाव के बदलावों को विद्युत संकेतों में बदल देता है जिन्हें कान ध्वनि के रूप में महसूस करता है। इसके विपरीत माइक्रोफोन ध्वनि संकेतों को विद्युत संकेतों में बदल देता है जिन्हें रिकॉर्ड किया जा सकता है या सुना जा सकता है।

साइंस एडवांसेस नाम शोध पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि यह उपकरण मुंह से निकलने वाली ध्वनियों को तो पहचान ही सकता है अपितु यह आपके गले में उपस्थित स्वर यंत्र (वोकल कॉर्ड) में हो रहे कंपनों को पढ़कर भी ध्वनि पैदा कर सकता है। अभी इस उपकरण का परीक्षण चल रहा है। कोशिश है कि ध्वनि की गुणवत्ता और वॉल्यूम में सुधार किया जाए ताकि यह सुनने-बोलने में दिक्कत महसूस करने वाले लोगों के लिए एक उपयोगी यंत्र बन जाए। तो जल्दी ही हम चमड़ी पर पहने जा सकने वाले स्पीकरों और माइक्रोफोन्स का उपयोग कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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एक अलग दुनिया का निर्माण किया न्यूटन ने – नरेंद्र देवांगन

जीवन में वैज्ञानिक व्यवहार अपनाने के लिए दो तत्व आवश्यक हैं विचार एवं तथ्य। विज्ञान की दृष्टि से तथ्य अपने आप में संपूर्ण नहीं होते और न ही मात्र विचार करना अपने आप में पूर्ण है। मानव सभ्यता के विकास के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अधिक से अधिक जुड़ाव आनुभविक तथ्यों और तार्किक विचारों के सुंदर समन्वय से ही संभव हो पाया है।

विज्ञान के इतिहास पर एक सरसरी निगाह डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपयुक्त प्रयोग एवं सिद्धांत, फिर उनके आधार पर प्रयोग और फिर दोबारा सिद्धांतों की विवेचना वैज्ञानिक पद्धति है। यह क्रम लगातार चलता रहता है

गैलीलियो पहले वैज्ञानिकविचारक थे, जिन्होंने अनुभव एवं तर्क के बीच समन्वय के महत्व को समझा। आनुभविक तथ्य एवं तार्किक विचारों का ऐतिहासिक संगम पीसा की तिरछी मीनार पर हुआ था, जब गैलीलियो ने मीनार के ऊपर से एक बड़े और एक बहुत छोटे पिंड को एक साथ गिराया था और वे दोनों एक साथ ज़मीन पर पहुंचे थे। तथ्य एवं विचारों के इस प्रभावशाली समन्वय ने उस समय तक प्रचलित अरस्तू की इस मान्यता को ध्वस्त कर दिया था कि भारी वस्तु ज़्यादा तेज़ गति से गिरती है। पर अधिकतर ऐतिहासिक मोड़ इतने सरल और निश्चित रूप से निर्धारित नहीं हो पाते।

यहां सत्रहवीं शताब्दी के दो महान विचारकों का उल्लेख प्रासंगिक होगा। पहले देकार्ते जिन्होंने तर्क और विवेक की राह अपनाई और दूसरे फ्रांसिस बेकन जिन्होंने प्रयोग या आविष्कार को अधिक महत्व दिया। दो महान वैज्ञानिकों का यह व्यक्ति वैशिष्ट¬ उस समय प्रचलित फ्रांसीसी और ब्रिटिश व्यवहारों या मान्यताओं का प्रतीक था। देकार्ते ने अपना अधिकतर वैज्ञानिक कार्य पलंग पर लेटेलेटे किया और बेकन के बारे में कहा जाता है कि 65 साल की उम्र में एक प्रयोग में मुर्गी के अंदर बर्फ भरते हुए उन्हें ठंड लग गई और इसके कुछ दिन बाद वे संसार से विदा हो गए।

न्यूटन के लिए देकार्ते और बेकन दोनों के ही उदाहरण आवश्यक एवं महत्वपूर्ण थे। न्यूटन को देकार्ते से प्रेरणा मिली कि प्रकृति सदा और हर जगह समान है और उसमें एकरूपता छिपी रहती है। सामान्य लोगों के लिए जीवन के तथ्य और सच्चाइयां विस्मयकारी होती हैं पर उनके पीछे छिपे सिद्धांतों की गूढ़ता के प्रति वे उदासीन रहते हैं। न्यूटन और सेब की कहानी तो सर्वविदित है। पर उनके द्वारा दिए गए गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के पीछे गहन तार्किक विचारशीलता एवं गैलीलियो द्वारा किए गए प्रयोगों को आत्मसात कर एक सार्वभौमिक सच्चाई को अति अनुशासित व विलक्षण रूप से प्रकाशित कर पाने की उनकी क्षमता बिरली है।

न्यूटन द्वारा प्रेरित वैचारिक क्रांति के आधार में थी उनकी यह मान्यता कि जो नियम सामान्य आकार की वस्तुओं पर लागू होते हैं, वे वस्तुत: सार्वभौमिक हैं और हर छोटेबड़े किसी भी आकार या शक्ल के पदार्थ या पिंडों पर लागू होते हैं। इस विचार को आत्मसात करने के साथ ही न्यूटन ने अपनी ही एक नई दुनिया का निर्माण शुरू किया।

न्यूटन की इस दुनिया की तुलना युक्लिड के ज्यामितीय संसार से की जा सकती है। युक्लिड ने बिंदु, रेखा एवं तल (प्लेन) को परिभाषित करने के बाद कुछ स्वयंसिद्ध सिद्धांत प्रतिपादित किए, जिनका पालन बिंदुओं, रेखाओं और तलों के आपसी सम्बंधों के लिए अनिवार्य है। और यदि युक्लिड आज भी अपनी ज्यामितीय देन की वजह से माने जाते हैं तो इसलिए नहीं कि उनके नियम वास्तविक दुनिया से ग्रहण किए गए थे, वरन इसलिए कि युक्लिडीय संसार के तार्किक परिणाम हमारी वास्तविक दुनिया के ताले में चाबी की तरह फिट होते हैं।

न्यूटन ने अपनी वैचारिक दुनिया के नियमों को भौतिक संसार पर लागू किया। उन्होंने पदार्थों के न्यूनतम अंशों को, बिना परिभाषित किए, भौतिक दुनिया का आधार बनाया। न्यूटन का लेखन निर्मल जल की तरह स्पष्ट था पर वे तर्क को इलास्टिक की तरह खींचने के पक्ष में नहीं थे। वे अपने विरोधियों की कठिनाई को समझ सकते थे। पर जो वैज्ञानिक अपनी समस्या का हल अपने आप नहीं निकाल सकते थे, उनकी मदद करने में वे स्वयं को असमर्थ पाते थे।

न्यूटन की अपनी दुनिया जो अपरिचित अल्पतम कणों से बनी थी और जिसके द्वारा सब कुछ निर्मित हो सकता था चाहे वह सेब हो या चंद्रमा, अन्य ग्रह या सूर्य। न्यूटन के अनुसार इन सभी संगठनों के गति व्यवहार की मर्यादा एक ही है। न्यूटन ने इस बात को और आगे बढ़ाया और उनके अनुसार इन सब संगठनों के अंतर में बसे प्रत्येक अल्पतम अंश भी उनके द्वारा प्रतिपादित समन्वित नियमों का पालन करते थे। न्यूटन के अनुसार अगर वे वेगहीन हैं तो वेगहीन ही बने रहेंगे और यदि वे गतिशील हैं तो उनकी गतिशीलता वैसी ही बनी रहेगी, जब तक कि उनके ऊपर बाहरी बलों का प्रभाव न पड़े और इन सब बाहरी बलों में न्यूटन के अनुसार प्रमुखतम है वह बल, जिसके द्वारा प्रत्येक अल्पतम कण हर अन्य कण को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस बल की शक्ति कणों के बीच की दूरी के वर्ग पर ही आधारित होती है और इस प्रकार नियमित होती है कि उनके बीच की दूरी दुगनी हो जाने पर उनके बीच का बल घटकर अपनी प्रारंभिक बल का चतुर्थांश रह जाएगा।

न्यूटन एक सशक्त गणितज्ञ थे और उनका एक मूलभूत निष्कर्ष था कि एक ठोस गोलक का व्यवहार अपने केंद्र पर अवस्थित एक वज़नी बिंदु की तरह होता है। न्यूटन ने इस बात को आगे बढ़ाते हुए यह दिखा दिया कि ग्रहों के मार्गों का निश्चित निर्धारण किया जा सकता है और साथ ही यह भी कि ग्रह अपने निश्चित मार्ग पर घूमते हुए एक ब्राहृांडीय घड़ी का काम करते हैं। उन्होंने गणितीय कुशाग्रता एवं परम धैर्य का परिचय देते हुए ज्वारभाटों की, धूमकेतुओं की कक्षाओं की एवं अन्य ब्राहृांडीय पिंडों के गतिचक्र की विषद गणना की।

इस प्रकार न्यूटन ने एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया जिसको एक नाविक से लेकर खगोल शास्त्री और समुद्र भ्रमण का शौकीन, सब पहचान सकते थे। और इस प्रकार न्यूटन की सैद्धांतिक दुनिया और वास्तविक दुनिया के बीच एक विलक्षण साम्य स्थापित होता चला गया। तीन शताब्दियों से अधिक समय के बाद भी ब्राहृांड की चमत्कारी दुनिया को सरलतम सिद्धांतों से बांध पाने की न्यूटन की बेजोड़ प्रतिभा आज भी वैज्ञानिक संसार के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

न्यूटन को विलक्षण अंतर्दृष्टि प्राप्त थी और वे विभिन्न तार्किक विकल्पों का दूध का दूध और पानी का पानीकी तरह उचित मूल्यांकन कर पाने में समर्थ थे। कुल मिलाकर संसार को न्यूटन की सबसे बड़ी देन प्रकृति के विस्मयकारी एवं चमत्कारी कार्यकलापों को कार्यकारणसम्बंधों में बांध पाना है। उनके सिद्धांतों की सार्वभौमिकता एवं सरलता उनकी सबसे बड़ी सफलता रही है। (स्रोत फीचर्स)

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थोड़ी-सी शराब भी हानिकारक है – भरत डोगरा

शराब बनाने वाली कंपनियों ने तरह-तरह के मिथक फैलाने के कुप्रयास किए, पर आखिर विशेषज्ञों के बहुचर्चित अध्ययन में यह तथ्य सामने आ गया कि शराब की थोड़ी-सी मात्रा भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

यह तो सब जानते हैं कि शराब स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है, पर शराब उद्योग यह मिथक फैलाने के लिए प्रयासरत रहा है कि थोड़ी-सी शराब पीने से नुकसान नहीं होता है। यह केवल एक मिथक ही है। सच्चाई हाल के अध्ययन में सामने आई है जो प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल दी लैंसेट में अगस्त 24 को प्रकाशित हुआ।

लगभग 500 विशेषज्ञों के समूह के मुख्य लेखक मैक्स ग्रिसवोल्ड ने इस अध्ययन के निष्कर्ष के बारे में बताया है, “अल्कोहल की कोई ऐसी सुरक्षित मात्रा नहीं है (न्यूनतम मात्रा से भी नुकसान होता है)। आगे जैसे-जैसे अल्कोहल का प्रतिदिन का उपयोग बढता जाता है, वैसे-वैसे स्वास्थ्य के खतरे भी बढ़ते जाते हैं।”

यदि शराब न पीने वालों की दुनिया से तुलना करें तो एक दिन में मात्र एक ड्रिंक (यानि 10 ग्राम अल्कोहल) लेने से एक वर्ष में विश्व में एक लाख मौतें अधिक होंगी।

इस अध्ययन में 24 स्वास्थ्य समस्याओं को ध्यान में रखते हुए बताया गया है कि एक दिन में यदि 5 ड्रिंक शराब ली जाए तो स्वास्थ्य समस्याएं 37 प्रतिशत बढ़ जाती हैं।

15 से 49 वर्ष आयु वर्ग के पुरुषों को देखें तो 12 प्रतिशत मौतें शराब के कारण होती हैं। इस आयु वर्ग में मौत प्राय: बहुत दुखद व परिवार के लिए बहुत संकट की स्थिति पैदा करती है। यह एक बडी चेतावनी है कि इस आयु में 12 प्रतिशत मौतें मात्र शराब के कारण होती हैं।

विश्व में लगभग 32.5 प्रतिशत लोग शराब का सेवन करते हैं। (39 प्रतिशत पुरुष, 25 प्रतिशत महिलाएं)।

विभिन्न अध्ययनों के अनुसार एक वर्ष में 28 लाख से 33 लाख मौतें शराब के कारण होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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चींटी को वशीभूत करने वाला परजीवी – कीर्ति विपुल शर्मा

कल्पना कीजिए एक छोटीसी चींटी के बहुत छोटेसे दिमाग को एक परजीवी कृमि ने पूरी तरह काबू में कर लिया है। अब चींटी एक चलतीफिरती लाश भर है। अपनी सुरक्षा के प्रति लापरवाह वह चरने वाले जंतु द्वारा खाए जाने के इंतज़ार में घास पर बैठी है। हाल ही में वैज्ञानिकों की टीम ने चींटी के दिमाग को परजीवी कृमि द्वारा नियंत्रित करने की आश्चर्यजनक घटना का खुलासा किया है।

उत्तल लेंस के समान दिखने वाला तथा 1 से.मी. से भी छोटा लेंसेट लीवरफ्लूक (Dicrocoelium dendriticum) भेड़ और अन्य मवेशियों में पाया जाने वाला एक परजीवी कृमि है। समशीतोष्ण भागों में पाया जाने वाला यह कृमि अपना जीवन चक्र तीन जीवों में पूरा करता है: कोई मवेशी, घोंघा और चींटी।

वयस्क लीवरफ्लूक मवेशियों की पित्त वाहिनी में रहकर अंडे देता है। ये अंडे पित्त के साथ छोटी आंत से होते हुए मवेशी के मल के साथ शरीर से बाहर निकल जाते हैं। अब कोई घोंघा उस मल को खा ले तो ये अंडे उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यहां अंडे फूटते हैं और लार्वा निकलते हैं जो उसके श्वसन अंगों में चिपचिपे पदार्थ से बनी स्लाइम बॉलके साथ शरीर से बाहर आ जाते हैं। चींटियां स्लाइम बॉल को अपना भोजन बना लेती हैं। चींटियों के शरीर में ये लार्वा रूपांतरित होकर उनके मस्तिष्क में पहुंच जाते हैं। यहां पहुंचकर वे चींटियों के स्वभाव में परिवर्तन कर देते हैं।

अब जैसा नाच यह परजीवी नचाता है वैसा नाच चींटी नाचती है। हालात इतने बुरे हो जाते हैं कि वशीकृत चींटी आत्मघाती हो जाती है। वह पौधों के ऊपरी भाग, जैसे घास या फूलों की पंखुड़ी के सिरे पर बैठ जाती है और अपने पैने जबड़ों से पौधे को कसकर पकड़ लेती है। पकड़ इतनी मज़बूत होती है कि तेज़ बारिश और हवा में भी चीटीं गिरती नहीं। पौधों के ऐसे हिस्से पर बैठने से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि घास के साथसाथ चरने वाला कोई पशु उसे भी खा लेगा। पशु की पाचन क्रिया से चींटी का शरीर पच जाता है और उसके अंदर के परजीवी (जो चींटी की आंत में बैठे हैं) पशु की आहारनाल से होते हुए अंतत: पित्त वाहिका में पहुंच जाते हैं। वहां विकसित हो कर वे वयस्क बन जाते हैं और प्रजनन करके अपना जीवन चक्र फिर से शुरू कर देते हैं। 

चींटी और परजीवी के इस आश्चर्यजनक रिश्ते को समझने की कोशिश में वैज्ञानिकों की एक टीम ने माइक्रोसीटी नामक तकनीक का उपयोग करके संक्रमित चींटियों के मस्तिष्क का त्रिआयामी चित्र प्राप्त किया। संरचनाओं को स्पष्ट देखने के लिए अंदरूनी भागों को रंजकों द्वारा रंगीन करके भी अवलोकन किए गए।

इस तरह प्राप्त कुछ चित्रों को देखने पर पता चला कि चींटी के मस्तिष्क पर नियंत्रण करने के लिए तीन लार्वा प्रयासरत थे। अंत में केवल एक लार्वा अपने चूषक की मदद से चींटी के मस्तिष्क पर चिपक पाया। चिपकने वाला स्थान भी वह था जो चींटी के चलनेफिरने एवं जबड़ों की गतिविधियों को नियंत्रित करता है। वैज्ञानिकों का मत है कि मस्तिष्क के सही केंद्र से चिपकने के बाद परजीवी चींटी को चरने वाले पशुओं द्वारा खा लिए जाने के लिए मजबूर कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सूंघने की क्षमता गंवाती मछलियां

पिछले वर्षों में किए गए अध्ययनों से इस बात के प्रमाण मिल रहे हैं कि समुद्र में घुलित कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ती मात्रा समुद्री जीवन को प्रतिकूल प्रभावित कर सकती है। मसलन, हाल ही में एक्सेटर विश्विद्यालय के शोधकर्ताओें द्वारा किए गए एक अध्ययन में पता चला है कि समुद्री पानी में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से मछलियों की सूंघने की क्षमता प्रभावित होती है।

एक्सेटर वि·ाविद्यालय के कोसिमा पोर्टियस के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने मछलियों को कार्बन डाईऑक्साइड के अलग-अलग स्तरों पर रखकर प्रयोग किए। एक पानी में गैस का स्तर वर्तमान स्तर के बराबर था जबकि एक पानी में स्तर को बढ़ाकर इस सदी के अंत में अपेक्षित स्तर पर कर दिया गया। गौरतलब है कि पानी में कार्बन डाईऑक्साइड घुलने पर पानी की अम्लीयता बढ़ती है। प्रयोग में देखा गया कि इस तरह अम्लीयता बढ़ने पर मछलियों की सूंघने की क्षमता कमज़ोर पड़ जाती है। वे कम तैरती हैं और आसपास कोई शिकारी आए, तो भांप नहीं पातीं।

नेचर क्लायमेट चेंज नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन पहले किए गए इसी तरह के अध्ययनों के परिणामों की पुष्टि करता है। पूर्व में किए गए एक अध्ययन में पता चला था कि कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ी हुई मात्रा मछलियों की नाक पर सीधे असर करने के अलावा उनके तंत्रिका तंत्र को भी प्रभावित करती है। एक अन्य अध्ययन का निष्कर्ष था कि समुद्री पानी की बढ़ती अम्लीयता मछलियों की सुनने की क्षमता को कमज़ोर करेगी।

इन अध्ययनों के मिले-जुले परिणाम दर्शाते हैं कि भविष्य में मछलियों को एक नहीं, कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। वे समस्याओं के इस अंबार से कैसे और कितनी हद तक निपट पाएंगी, कहना मुश्किल है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कंप्यूटर बताएगा रसायनों का विषैलापन

म रोज़ाना कई रसायनों का उपयोग करते हैं। ये रसायन औषधियों से लेकर सौंदर्य प्रसाधन सामग्री तक में इस्तेमाल किए जाते हैं। किंतु उन चीज़ों को बाज़ार में उतारने से पहले यह सुनिश्चित करना ज़रूरी होता है कि ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है, आखों में जलन पैदा नहीं करेंगे, चमड़ी पर फुंसियां पैदा नहीं करेंगे वगैरह। और इस जांच के लिए आम तौर पर जंतुओं पर प्रयोग किए जाते हैं। लेकिन अब कंप्यूटर विशेषज्ञों ने एक ऐसी विधि तैयार की है जिसमें जंतु प्रयोगों की ज़रूरत नहीं रहेगी या बहुत कम हो जाएगी।

रसायनों की विषाक्तता की जांच आम तौर पर चूहों, खरगोशों और गिनी पिग्स (एक प्रकार का चूहा) पर की जाती है। किंतु इन जांच के परिणाम बहुत वि·ासनीय नहीं होते और ये प्रयोग बहुत महंगे भी होते हैं। नैतिकता व जंतु अधिकारों के सवाल तो इन प्रयोगों के साथ जुड़े ही हैं।

कंप्यूटर आधारित विधि का प्रकाशन थॉमस ल्यूक्टफेल्ड और साथियों ने टॉक्सिकोलॉजिकल साइन्सेज़ नामक शोध पत्रिका में किया है। यह विधि एक विशाल डैटाबेस पर आधारित है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने पिछले वर्षों में किए गए लगभग 8 लाख जंतु प्रयोगों के आंकड़े शामिल किए हैं। ये प्रयोग 10,000 रसायनों के परीक्षण से सम्बंधित हैं।

एक कंप्यूटर प्रोग्राम में ये सारे आंकड़े डाल दिए गए हैं। अब यह प्रोग्राम इनका विश्लेषण करके इन रसायनों को संरचना के आधार पर विषाक्तता के विभिन्न समूहों में रखता है। आजकल इस तरीके का उपयोग खूब हो रहा है और इसे मशीन लर्निंग कहते हैं जिसमें कंप्यूटर प्रोग्राम विशाल आंकड़ों के आधार पर पैटर्न निर्मित करता है।

इस विधि का उपयोग करते हुए शोधकर्ताओं ने कई रसायनों के जोखिमों की सही-सही भविष्यवाणी करने में सफलता प्राप्त की है। यहां तक कि उन्होंने नए रसायनों की विषाक्तता की भी भविष्यवाणी की है। अब यह कंप्यूटर प्रोग्राम व्यापारिक रूप से उपलब्ध कराने की योजना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक उल्टी चलनी

म तौर पर चलनियां ऐसी होती हैं कि उनमें से छोटे कण तो निकल जाते हैं जबकि बड़े कण रुक जाते हैं। गेहूं, चावल की चलनी के अलावा चाय छननी भी तो यही करती है। मगर साइन्स एडवांसेज़ जर्नल में शोधकर्ताओं ने एक ऐसी चलनी का विचार पेश किया है जो इससे ठीक उल्टा काम करती है। वह बड़े-बड़े कणों को निकल जाने देती है और छोटे-छोटे कणों को रोक लेती है।

दरअसल, शोधकर्ताओं के द्वारा बनाई गई यह चलनी कणों की छंटाई उनकी साइज़ के आधार पर नहीं करती बल्कि उनमें उपस्थित गतिज ऊर्जा के आधार पर करती है। जिन कणों की गतिज ऊर्जा ज़्यादा होती है वे इस चलनी को पार कर जाते हैं।

यह चलनी एक ऐसी झिल्ली है जो तरल पदार्थ से बनी है और यह तरल पदार्थ पृष्ठ तनाव नामक बल से अपनी जगह टिका रहता है। जैसे साबुन के पानी की झिल्ली बनती है। शोधकर्ताओं ने इस झिल्ली का निर्माण सोडियम डोडेसिल सल्फेट को पानी में घोलकर किया है। जब कोई अधिक गतिज ऊर्जा वाला कण इस झिल्ली से टकराता है तो वह झिल्ली को चीरकर पार निकल जाता है। पृष्ठ तनाव की वजह से कण के निकल जाने के बाद झिल्ली वापिस जुड़कर साबुत हो जाती है।

शोधकर्ताओं ने ऐसी कई झिल्लियां बनार्इं जिनके पृष्ठ तनाव अलग-अलग थे। इसके बाद इस झिल्ली पर अलग-अलग ऊंचाइयों से कांच या प्लास्टिक के मोती टपकाए गए। यह देखा गया कि अधिक ऊंचाई से गिरने वाले मोती या अधिक वज़न वाले मोती झिल्ली के पार निकल जाते हैं जबकि कम ऊंचाई से गिरने वाले या कम वज़न वाले मोती ऊपर ही अटक जाते हैं।

गौरतलब है कि किसी भी वस्तु की गतिज ऊर्जा दो बातों पर निर्भर करती हैं। पहली है उसका द्रव्यमान और दूसरी है उसकी गति। इसलिए भारी कणों को ज़्यादा ऊंचाई से गिराया जाए तो उनमें गतिज ऊर्जा ज़्यादा होती है और वे झिल्ली पर इतना बल लगा पाती हैं कि उसे चीर दें।

शोधकर्ताओं ने तरह-तरह से प्रयोग करके ऐसी झिल्ली के लिए गणितीय समीकरण भी विकसित किए हैं। उनका कहना है कि इस झिल्ली का उपयोग मच्छरों, जीवाणुओं, धूल के कणों और यहां तक कि गंध के अणुओं को रोकने में किया जा सकेगा। ऐसी झिल्ली चिकित्सा की दृष्टि से काफी उपयोगी साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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