जीव विज्ञान का मॉडल जीव: हाइड्रा

डॉ. किशोर पंवार

मारे समाज में सेलिब्रिटी (celebrity) उस हस्ती या शख्स को कहा जाता है जो प्रतिष्ठित हो। जिसे अभिनय, राजनीति, फैशन, खेल या संगीत जैसे किसी क्षेत्र में विशेष रुतबा हासिल हो। इन ख्याति प्राप्त लोगों की एक ब्रांड वैल्यू (brand value) होती है। सेलिब्रिटी के द्वारा विज्ञापित उपभोक्ता सामग्री लोग खरीदते हैं। वे क्या करते हैं? क्या पहनते हैं? उनके घर में कौन सा पंखा या वॉटर प्यूरीफायर है? इन सबकी देखा-देखी लोग शॉपिंग करते हैं, इनकी कहा-कही में आकर युवा अपनी ज़ुबां केसरिया करते हैं।

लेकिन, यहां हम जिन सेलिब्रिटीज़ की बात करने जा रहे हैं वे इनसे बिलकुल अलग हैं। ये खुद अपना गुणगान नहीं करते, किंतु उन पर किए गए शोध कार्यों ने मानव स्वास्थ्य (human health), आनुवंशिक बीमारियों (genetic disorders) और वृद्धावस्था पर महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई है। हमारे शरीर में जीन्स कैसे काम करते हैं, उनके होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है? यह सब जानकारी हमें इन्हीं से पता चली है।

दरअसल, कुछ ऐसे प्रयोग भी होते हैं जो नैतिक रूप (ethical issues in research) से इंसानों पर नहीं किए जा सकते। और, हमारे शरीर की जटिलता, लंबा जीवनकाल, बहुत बड़ा जीनोम (human genome complexity) आदि के कारण ये प्रयोग मनुष्य पर करना संभव भी नहीं है। इसलिए ऐसे महत्वपूर्ण प्रयोग इन मॉडल जीवों पर किए जाते हैं।

तो, मॉडल जीव (model organisms) उन्हें कहते हैं जिनका उपयोग आनुवंशिकी, विकास और अन्य जैविक प्रक्रियाओं को समझने के लिए किया जाता है। किसी भी जीव को मॉडल के रूप में चुनते समय शोधकर्ता उनकी स्थिरता, छोटा जीवन चक्र और जीनोम (gene expression) में संसाधनों की उपलब्धि जैसी बातों पर विचार (life cycle research) करते हैं।

फलमक्खी (Drosophila melanogaster), गोलकृमि (Caenorhabditis elegans), घरेलू चूहा (Mus musculus), न्यूरोस्पोरा (Neurospora), एग्रोबैक्टीरियम ट्यूमिफेशियंस (Agrobacterium tumefaciens), एसिटेबुलरिया (Acetabularia), हाइड्रा (hydra), बेकर्स यीस्ट (Saccharomyces cerevisiae), माउस ईयर क्रेस (Arabidopsis thaliana) ऐसे ही कुछ मॉडल जीव हैं जिन पर पिछले कई वर्षों से अनुसंधान किया जा रहा है।

हाइड्रा के बारे में

जीव विज्ञान में हाइड्रा को अमर (immortal hydra) कहा गया है यानी जो कभी नहीं मरता। इसे हाइड्रा नाम प्रसिद्ध जीव विज्ञानी कार्ल लीनियस (carl linnaeus) ने दिया था। दरअसल यह नाम ग्रीक मायथॉलॉजी में वर्णित एक सर्प के रूप और गुणों पर आधार पर दिया था जिसके नौ सिर थे और एक सिर काटने (regeneration in hydra) पर उसके स्थान पर फिर दो सिर उग जाते थे। अर्थात उसमें पुनर्जनन की गज़ब की क्षमता थी। ऐसी ही क्षमता हाइड्रा में भी है, इसके भी दो टुकड़े कर दो तो दोनों टुकड़ों से नए हाइड्रा बन जाते हैं।

हाइड्रा मीठे पानी का एक अकशेरुकी (freshwater invertebrate) मांसाहारी जीव है। यह एक छोटे ताड़ के पेड़ की तरह दिखता है। पूरा शरीर बेलनाकार नलीलुमा होता है। इसमें एक आधार डिस्क (पैर) होती है, जिससे यह किसी आधार पर चिपका रहता है। डिस्क में ग्रंथि कोशिकाएं होती हैं जो चिपचिपा पदार्थ स्रावित करती हैं। नलीनुमा शरीर के स्वतंत्र सिरे पर एक छिद्र मुंह होता है जो मुंह और गुदा दोनों का काम करता है। यह 4 से लेकर 12 तक संवेदी टेंटेकल्स (hydra tentacles) से घिरा रहता है।

हाइड्रा एक डिप्लोब्लास्टिक जीव (diploblastic animals) है अर्थात इसका शरीर दो परतों से बना होता है। बाहरी परत को एपिडर्मिस (epidermis) कहते हैं, और अंदर की परत गैस्ट्रोडर्मिस (gastrodermis) कहलाती है, यह पेट की आंतरिक सतह होती है। हाइड्रा का पूरा शरीर 50,000 से लेकर 10 लाख कोशिकाओं (hydra cell count) का बना होता है।

हाइड्रा में प्रजनन मुख्य रूप से मुकुलन (budding in hydra)  द्वारा होता है। इस प्रक्रिया में हाइड्रा के शरीर पर एक कलिका बनती है और धीरे-धीरे यह कलिका बढ़ने के बाद अलग होकर एक नया हाइड्रा बनती है। इसे वर्धी प्रजनन (asexual reproduction) कहते हैं। अलबत्ता, कतिपय परिस्थितियों में हाइड्रा में लैंगिक प्रजनन (sexual reproduction) भी होता है।

हाइड्रा: एक मॉडल जीव

हाइड्रा के आणविक और कोशिकीय जीव विज्ञान पर कार्य करने वाली प्रोफेसर सेलिना जूलियानो का कहना है कि जहां तक हम जानते हैं यह जीव ना तो बूढ़ा होता है और ना ही मरता है। आप इसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दीजिए और उन टुकडों से पूरा नया जीव बन जाता है। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि यदि हाइड्रा को एक-एक कोशिका में (cellular regeneration) विभाजित कर दें, और उनको मिलाकर एक गेंद बना दें, तो फिर से एक नया हाइड्रा निकल आएगा। इसकी यही क्षमता उपचार और बुढ़ापे (aging research) के अध्ययन के लिए इसे एक आदर्श मॉडल जीव बनाती है।

पेड़-पौधों में तो ऐसा होता ही रहता है (plant regeneration)। गुलाब की कलम से एक नया गुलाब का पौधा तैयार हो जाता है। हालांकि पेड़-पौधों में पाया जाने वाला पुनर्जनन का यह गुण हम मनुष्यों में नहीं पाया जाता। पर अगर आ जाए तो कितना बढ़िया होगा; कटे हुए हाथ की जगह नया हाथ, और दुर्घटना में खोई हुई टांग की जगह नई टांग!

यह कोई खाम-ख्याली नहीं है। प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों ने लीवर के टुकड़े (liver regeneration) से पूरा लीवर फिर से बना लिया है, त्वचा को भी उगा (skin regeneration) लिया है। बस कुछ और काम बाकी हैं जो हाइड्रा पर अनुसंधान की मदद से और उसकी पुनर्जनन क्षमता (regenerative medicine research) की बेहतर समझ से जल्दी ही पूरे हो जाएंगे।

जूलियानो द्वारा हाइड्रा की प्रत्येक प्रकार की कोशिका में अभिव्यक्त जीन्स (gene expression) को सटीक रूप से पहचान लिया गया है, उनके कार्यों के बारे में जानकारी जुटा ली गई है। आजकल इस जीन अभिव्यक्ति को बेहतर ढंग से नियंत्रित करने के लिए औज़ार भी विकसित किए जा रहे हैं।

बुढ़ाने पर काम करने वाले डेनियल मार्टीनेज़ ने 1998 में एक्सपेरिमेंटल जेरेन्टोलॉजी नामक एक शोध पत्रिका में दावा किया था कि हाइड्रा जैविक रूप से अमर है। हाइड्रा की स्टेम कोशिकाओं (hydra stem cells) में अनिश्चितकाल तक स्व-नवीनीकरण की क्षमता होती है। और लगातार स्व-नवीनीकरण करने में प्रतिलेखन (transcription) कारक “फोर्कहेड बॉक्स-ओ” यानी फॉक्स-ओ की भूमिका होती है।।

द्विपक्षीय सममिति (bilateral symmetry) वाले जीवों, जैसे फल मक्खियों और कृमि मॉडलों, में यदि इस प्रतिलेखन कारक को हटा दिया जाए तो उनका जीवनकाल काफी कम हो जाता है। हाइड्रा वल्गैरिस (hydra vulgaris studies) एक चक्रीय सममिति वाला जीव है। प्रयोग द्वारा देखा गया है कि जब फॉक्स-ओ (FOXO in lifespan) के स्तर में कमी आती है तो हाइड्रा की कई प्रमुख विशेषताओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है लेकिन फिर भी उसकी मृत्यु नहीं होती।

हाइड्रा और जंतु जगत के हमारे अनेक नन्हे रिश्तेदार वैज्ञानिक अनुसंधान (future of regenerative biology) में बड़ा योगदान दे रहे हैं और जीवन के बारे में बड़े-बड़े सवालों के जवाब खोजने में हमारी मदद कर रहे हैं। इनकी बदौलत वह दिन दूर नहीं जब हम भी हाइड्रा की तरह हाथ पैर उगाने लगेंगे (biological innovation)। और हो सकता है कि हमें बुढ़ापा (anti-aging research) न सताए! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या डे-लाइट सेविंग टाइम ज़रूरी है?

र साल डे-लाइट सेविंग टाइम प्रथा के चलते मार्च में अमेरिका में घड़ियां एक घंटा आगे बढ़ाई जाती हैं (daylight saving time USA)। संयुक्त राज्य अमेरिका में डे-लाइट सेविंग टाइम सबसे पहले 1918 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अपनाया गया था। उद्देश्य था ऊर्जा की बचत (energy saving policy) और दिन की रोशनी का अधिकाधिक उपयोग करना। गर्मी और वसंत ऋतु में घड़ियां आगे बढ़ाकर लोग प्राकृतिक रोशनी का अधिक उपयोग कर सकते थे और बिजली की खपत कम की जा सकती थी।

लेकिन देखा गया है कि घड़ियां आगे बढ़ने पर लाखों लोग थकान और नींद की कमी से जूझते हैं (sleep disruption, DST)। नींद में एक घंटे की कमी कोई छोटी समस्या नहीं है – यह स्वास्थ्य पर गंभीर असर (health effects of DST) डाल सकती है। 54 प्रतिशत अमरीकियों का मत है कि डे-लाइट सेविंग टाइम (DST) को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए (End DST USA)।

इसके दो विकल्प हैं: DST को पूरे साल लागू रखा जाए। या स्थायी मानक समय – पूरे साल वही समय रखना जो प्राकृतिक दिन की रोशनी के अनुसार हो (permanent standard time)।

कई स्वास्थ्य विशेषज्ञ स्थायी DST का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि देर रात तक रोशनी और अंधेरी सुबह जैविक लय (circadian rhythm disruption) को प्रभावित कर सकती है। इसकी बजाय, आधे से अधिक अमरीकियों और कई वैज्ञानिक संगठनों का मानना है कि स्थायी मानक समय अधिक स्वस्थ विकल्प होगा (healthier time choice)। रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन DST समाप्त करने के विचार को चुनौती देता है।

सेविले विश्वविद्यालय की भौतिक विज्ञानी जोस मारिया मार्टिन-ओलाला का मानना है कि DST सिर्फ ऊर्जा की बचत से कहीं अधिक है (social impact of DST)। उनके अनुसार घड़ी में मौसमी बदलाव से आधुनिक समाजों को काम के निर्धारित समय और प्राकृतिक दिन के बदलाव के बीच सामंजस्य बैठाने में मदद मिलती है। लेकिन आजकल की भागमभाग वाली दिनचर्या मौसमी बदलावों की अनदेखी करती है। ऐसे में DST हमें सर्दियों में काम और स्कूल बहुत जल्दी शुरू करने और गर्मियों में बहुत देर से शुरू करने से रोकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जो भूमध्य रेखा से दूर हैं (day length variation), जहां दिन की अवधि में बड़े बदलाव होते हैं।

इन तर्कों के बावजूद, चिकित्सा विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि DST हमारी जैविक घड़ी को प्रभावित करता है। पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय की न्यूरोलॉजिस्ट जोआना फोंग-इसरियावोंगसे का कहना है कि सुबह की धूप (morning sunlight benefits) मेलाटोनिन स्तर को नियंत्रित करने और लोगों को सतर्क रखने के लिए महत्वपूर्ण है (melatonin regulation)। अध्ययनों में DST से जुड़े कुछ गंभीर स्वास्थ्य जोखिमों की पहचान की गई है; जैसे, दिल का दौरा और स्ट्रोक के मामलों में वृद्धि (heart attach risks); उनींदेपन के कारण कार दुर्घटनाओं में वृद्धि (car accidents due to DST), कार्यस्थल दुर्घटनाओं में वृद्धि; सालाना स्वास्थ्य सेवा खर्च में वृद्धि और उत्पादकता में क्षति।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ स्लीप मेडिसिन (American academy of sleep medicine) और अन्य चिकित्सा संगठनों ने स्थायी मानक समय का समर्थन किया है, जो मानव जैविकी के अनुसार बेहतर है।

सभी वैज्ञानिक इस पर सहमत नहीं हैं। कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि DST के नकारात्मक प्रभावों (DST criticism) को बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया है। नींद में विघ्न डालने के लिए अकेला DST ज़िम्मेदार नहीं है; आधुनिक इनडोर जीवनशैली (indoor lifestyle sleep impact), कृत्रिम रोशनी, और देर रात तक स्क्रीन का उपयोग नींद को कहीं अधिक प्रभावित करते हैं।

बहरहाल, अधिकांश स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि स्थायी मानक समय सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए सबसे अच्छा विकल्प (public health policy) है। 

बहरहाल, फैसला चाहे जो हो, यह बहस इस दृष्टि से वैश्विक महत्व की है कि हम समय का प्रबंधन कैसे करते हैं, यह हमारे दैनिक क्रियाकलापों के साथ-साथ हमारे स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है (global time management debate)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेरिकी वैज्ञानिकों का पलायन

न दिनों अमेरिका में वैज्ञानिक समुदाय गंभीर संकट का सामना कर रहा है। नेचर (nature journal) पत्रिका के एक हालिया सर्वे के मुताबिक 75 प्रतिशत वैज्ञानिक अमेरिका छोड़ने पर विचार कर रहे हैं। इस निर्णय का मुख्य कारण राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शासन द्वारा अनुसंधान फंडिंग (research funding crisis) और नीतियों (science policy USA) में बड़ा बदलाव बताया जा रहा है। युवा वैज्ञानिकों, खासकर पीएचडी छात्रों (PhD students in USA) और शोधकर्ताओं के लिए हालात और भी चिंताजनक है। इनमें से अधिकांश शोधकर्ता युरोप या कनाडा जाने (scientists migration Europe Canada) की योजना बना रहे हैं। 

इस संकट की जड़ फंडिंग में भारी कटौती और वैज्ञानिकों की बड़े पैमाने पर छंटनी है, जो अरबपति एलन मस्क की लागत-कटौती योजना (Elon Musk Budget Cuts) का हिस्सा है। इसके तहत संघीय वित्त पोषित कई शोध परियोजनाएं बंद कर दी गई हैं, हज़ारों वैज्ञानिक नौकरी गंवा चुके हैं या फंडिंग के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसके अलावा, आप्रवासन नीतियों में सख्ती (US immigration policy impact on science) और अकादमिक स्वतंत्रता पर लगे प्रतिबंधों ने स्थिति को और अस्थिर बना दिया है, जिससे कई वैज्ञानिक अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं।

एक शीर्ष विश्वविद्यालय में प्लांट जीनोमिक्स की छात्रा ने बताया कि यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID research grants) की फंडिंग कटने के बाद उनका शोध अनुदान बंद हो गया। उनके प्रोफेसर ने आपातकालीन फंडिंग की व्यवस्था तो की, लेकिन अब उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए शिक्षण-सहायक पदों (teaching assistant jobs USA) के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। वे युरोप, ऑस्ट्रेलिया और मेक्सिको में अवसरों की तलाश कर रही हैं।

यह संकट खासकर युवा वैज्ञानिकों के लिए कठिन है। वरिष्ठ शोधकर्ताओं के पास तो स्थिर फंडिंग होती है, लेकिन शुरुआती करियर में वैज्ञानिकों (early career scientists) को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

अब कई वैज्ञानिक ऐसे देशों की तलाश कर रहे हैं जहां शोध और विज्ञान को महत्व (countries supporting research) दिया जाता है। कुछ को उम्मीद है कि अगर अमेरिका में स्थिति सुधरती है, तो वे लौट सकते हैं, लेकिन कइयों के पास विदेश में बसने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है। निजी संगठनों से फंडिंग मिलना एक विकल्प हो सकता (private science funding) है, लेकिन सीमित संसाधनों के लिए बढ़ती प्रतिस्पर्धा इसे अनिश्चित बना रही है।  अमेरिका में विज्ञान और शोध की स्थिति में आया यह संकट दर्शाता है कि सरकार की नीतियां अनुसंधान के भविष्य को किस कदर प्रभावित (impact of politics on science) कर सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मनुष्यों की ऊर्जा ज़रूरत बनी समुद्री जीवों पर खतरा

पनी चाहतों के चलते हमारी ऊर्जा ज़रूरतें (energy demands) दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं। इनकी पूर्ति के लिए हम नए-नए ऊर्जा स्रोत (energy sources) खोजते रहते हैं, अपने देशों में न मिलें तो बाहर से मंगवाते हैं। लेकिन ज़रा नहीं सोचते कि इन बढ़ती ख्वाहिशों की पूर्ति के लिए चल रहे क्रियाकलापों (industrial activities) से जीव-जंतुओं, उनके प्राकृतवासों और पारिस्थितिकी (ecosystem balance) पर कैसे प्रतिकूल असर पड़ेंगे?

लेकिन जीव विज्ञानियों (biologists), पारिस्थितिकीविदों (ecologists) और पर्यावरण कार्यकर्ताओं (environmental activists) को यह चिंता लगातार सताती रहती है। उनकी ऐसी ही एक चिंता है मेक्सिको की एक सबसे बड़ी ऊर्जा परियोजना (Mexico energy projects) सगुआरो एनर्जिया परियोजना या टर्मिनल जीएनएल डी सोनोरा (TGNLS) परियोजना।

TGNLS टर्मिनल मेक्सिको के प्यूर्टो लिबटार्ड (Puerto Libertad) में स्थापित किया जा रहा है। इस टर्मिनल से टेक्सास (Texas) स्थित प्राकृतिक गैस (natural gas) के कुओं से तरल प्राकृतिक गैस (LNG – Liquified Natural Gas) विदेशी बाज़ारों, खासकर एशियाई देशों, को निर्यात की जाएगी। पर्यावरणविद बताते हैं कि इस परियोजना में LNG निर्यात के लिए बड़े-बड़े जहाज़ी टैंकरों (LNG Tankers) का जो मार्ग निर्धारित किया गया है उसके कारण पहले से ही जोखिमग्रस्त ब्लू व्हेल (endangered blue whales) समेत अन्य समुद्री जीवों (marine animals) के आवास (habitats), प्रजनन (breeding), भोजन (feeding grounds) और प्रवास (migration patterns) प्रभावित होंगे; उनका जीवन और भी जोखिमपूर्ण हो जाएगा।

दरअसल, प्यूर्टो लिबटार्ड कैलिफोर्निया खाड़ी (gulf of california) के शीर्ष के नज़दीक स्थित है। कैलिफोर्निया खाड़ी को नक्शे में देखेंगे तो पाएंगे कि यह संकरी और लंबी (1100 किलोमीटर लंबी) है। यह जगह कई समुद्री स्तनधारियो (व्हेल जैसे सीटेशियन)(marine mammals) का हॉट-स्पॉट (biodiversity hotspot) है। यह स्थल सीटेशियन्स की तकरीबन 36 प्रजातियों का घर है। यह कई प्रजातियां का भोजन और प्रजनन क्षेत्र है। गौरतलब है कि यहां रहने वाली व्हेल की कई प्रजातियां लुप्तप्राय (whale species endangered) की श्रेणी में हैं। अब यदि यह परियोजना बनेगी तो खतरे और बढ़ेंगे।

बीस साल पुरानी इस परियोजना का स्वरूप और उद्देश्य अपने प्रारंभ के समय से बहुत अलग हो गया है। इस टर्मिनल को मूल रूप से मेक्सिको में गैस आयात करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। लेकिन आयात टर्मिनल (import terminal) कभी बना ही नहीं। फिर 2018 में, मेक्सिको पैसिफिक नामक एक कंपनी ने इस परियोजना को अपने नियंत्रण ले लिया और इसकी डिजाइन को एक निर्यात टर्मिनल (export terminal) में बदल दिया। नई डिज़ाइन में यह टर्मिनल मूल डिज़ाइन से तीन गुना बड़ा है। इसके तहत 800 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछेगी, और पाइपलाइन एवं बड़े-बड़े जहाज़ी टैंकरों के ज़रिए टेक्सास के कुओं से प्रतिदिन 2.8 अरब क्यूबिक फीट प्राकृतिक गैस मुख्यत: एशिया को भेजी जाएगी। इतने सब तामझाम की लागत 15 अरब डॉलर है।

इन्हीं बदलावों के चलते कंपनी को परियोजना का पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment – EIA) नए सिरे से करना था। 2023 में, कंपनी ने मेक्सिको की नियामक एजेंसियों को इस परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन और उन प्रभावों को सीमित करने की योजनाओं की रिपोर्ट सौंपी थी। लेकिन इस रिपोर्ट का बारीकी से विश्लेषण करने वाले जीव विज्ञानियों और पर्यावरणविदों का कहना है कि इस ‘पर्यावरण प्रभाव आकलन’ रिपोर्ट में कई त्रुटियां (critical flaws) है, कई चीज़ें छूटी हैं, और कई आंकड़े सही पेश नहीं किए गए हैं। जैसे टैंकरों का एकदम ठीक-ठीक मार्ग (exact LNG tanker route) क्या होगा, व्हेल की कौन सी प्रजातियों की कितनी-कितनी संख्या कहां-कहां है, और टैंकरों के तय मार्ग में कितने जीव इस टकराव (collision risk) को झेलेंगे।

दरअसल कैलफोर्निया खाड़ी से गुज़रने वाला परियोजना का प्रस्तावित मार्ग व्हेल और अन्य कई समुद्री जीवों का प्रमुख आवास है, और कई प्रजातियां अपनी प्रवास यात्रा के लिए यही मार्ग अपनाती हैं। ज़ाहिर है समुद्री जीवों की इन जहाज़ों से टक्कर की संभावना (ship strike risk) है जो उनके लिए जानलेवा साबित हो सकती है। और व्हेल टक्कर से बच भी गईं तो जहाज़ों से होने वाला शोर (ship noise pollution) उनके संवाद को तहस-नहस कर देगा। रिपोर्ट में जहाज़ों द्वारा उत्पन्न ध्वनि प्रदूषण (underwater noise impact) पर भी कोई बात नहीं की गई है। जबकि पूर्व अध्ययनों मे देखा गया है कि जहाज़ का शोर व्हेल के व्यवहार (behavioral change due to noise) को बदल सकता है।

इन सब खामियों के चलते जीव विज्ञानियों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं (scientists and conservationists) ने इन मुद्दों को कानूनी रूप से उठाया है; इस परियोजना के विरोध में पांच मुकदमे (lawsuit against project) दायर किए गए हैं। फिलहाल इन प्रयासों से मेक्सिको की पर्यावरण अनुमति एजेंसी ने इस परियोजना पर वक्ती रोक (temporary suspension) लगा दी है। साथ ही पर्यावरण हितैषियों ने इस मुद्दे पर जागरुकता के लिए ‘व्हेल या गैस’ अभियान (whale vs gas campaign) शुरू किया है। बहरहाल, भले ही यह मुद्दा मेक्सिको (Mexico LNG Project) का है, लेकिन यह दुनिया भर के देशों की पर्यावरणीय चिंताओं (global environmental concerns) की ओर ध्यान आकर्षित करता है। और याद दिलाता है कि यह प्रकृति (planet earth) सिर्फ मनुष्यों की नहीं वरन सभी जीव-जंतुओं की है: हमारी ख्वाहिशों का खामियाजा अन्य जीव-जंतुओं को न भरना पड़े। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक्सपांशन माइक्रोस्कोपी: सूक्ष्म अवलोकन के लिए जुगाड़

डॉ. भास बापट

मारी दृष्टि कई मामलों में सीमित है। पहला, हम प्रकाश वर्णक्रम (light spectrum) के केवल एक छोटे हिस्से को ही देख पाते हैं। हमारी देखने की क्षमता 400 नैनोमीटर (nanometer) (लाल प्रकाश) से 700 नैनोमीटर (बैंगनी) तरंगदैर्घ्य के बीच होती है। इसे दृश्यमान सीमा (visible spectrum) कहा जाता है। हम इसके बीच आने वाली तरंगदैर्घ्य के प्रकाश को ही देख पाते हैं। इससे कम तरंगदैर्घ्य (अवरक्त infrared, IR) या अधिक तरंगदैर्घ्य (पराबैंगनी ultraviolet, UV) के प्रति हम असंवेदनशील होते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि इस सीमा से बाहर का प्रकाश हमें प्रभावित नहीं करता – कहने का मतलब यह है कि हम इन तरंगदैर्घ्यों की सीमा के बाहर के प्रकाश को देख नहीं पाते।

दूसरा, हम लगभग 30 माइक्रॉन (micron) तक की साइज़ की वस्तु ही देख सकते हैं, इससे छोटी नहीं। अंदाज़े के लिए देखें कि 1 मि.मी. 1000 माइक्रॉन के बराबर होता है। इससे सूक्ष्म चीज़ों को न देख पाने की सीमा हमारी आंख की संरचना – लेंस (lens) और रेटिना (retina) – के कारण होती है।

इससे सूक्ष्म चीज़ों को देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी (microscope) का उपयोग किया जा सकता है। प्रकाश सूक्ष्मदर्शी (light microscope) किसी नमूने को हमें लगभग 100 गुना बड़ा (आवर्धित magnified) करके दिखा सकता है; इसकी मदद से हम 0.3 माइक्रॉन (0.0003 मिलीमीटर) साइज़ तक की चीज़ें देख सकते हैं।

मान लीजिए, हमारे सूक्ष्मदर्शी के लेंस बढ़िया हों और रेटिना भी बेहतर हो तब भी एक सीमा (साइज़) तक की ही सूक्ष्म चीज़ों को हम देख सकते हैं। भौतिकी के नियमानुसार, किसी तरंगदैर्घ्य का प्रकाश अपनी तरंगदैर्घ्य के लगभग आधी साइज़ की वस्तु की छवि बना सकता है। यह सीमा विवर्तन (डिफ्रेक्शन – diffraction) के कारण होती है। विवर्तन यानी किसी वस्तु या अवरोध से टकराकर उसके आसपास प्रकाश तरंगों का मुड़कर आगे निकल जाना।

सरल रूप में विवर्तन को इस तरह समझ सकते हैं। यदि आप किसी तालाब में पत्थर फेंकते तो उसके चारों ओर लहरें बनती हैं, और आगे फैलती जाती हैं। पानी पर पत्तियों या छोटी डंडियों जैसे छोटे अवरोधक तैरते रहते हैं, लेकिन इनकी उपस्थिति के बावजूद दूर खड़ा दर्शक इन लहरों को समान रूप से आगे बढ़ते हुए देख पाता है, उसे लहरों में कोई उथल-पुथल नहीं दिखेगी। लेकिन, यदि पानी पर तैरने वाला अवरोधक लहर की साइज़ (wavelength) (यानी दो क्रमागत लहरों के बीच की दूरी) से बड़ा होता है तो लहरें विकृत हो (टूट) जाती हैं। संक्षेप में, लहर की साइज़ से छोटी वस्तुएं लहरों में परिवर्तन नहीं कर पातीं, जबकि उससे बड़ी वस्तुएं ऐसा कर पाती हैं।

ऐसा ही प्रकाश (light waves) के साथ भी होता है। प्रकाश केवल तभी प्रतिबिंब (image formation) बना सकता है जब वह बाधित किया जाता है। इसलिए बहुत छोटी वस्तुओं (तरंगदैर्घ्य से छोटी वस्तुओं) का प्रतिबिंब नहीं बन सकता। और यह सीमा है 300 नैनोमीटर, यानी तरंगदैर्घ्य के लगभग आधे के बराबर।

इस विभेदन सीमा (resolution limit) से पार पाने के लिए वैज्ञानिकों ने कई जुगाड़ किए हैं। इनमें से एक है अत्यंत लघु तरंगदैर्घ्य के प्रकाश (short wavelength light) और विशेष स्क्रीन का उपयोग करना। अलबत्ता, यह तरकीब हमें बहुत दूर तक नहीं ले जा सकती। बहुत सूक्ष्म चीज़ों को फिर भी नहीं देख पाते। इसके अलावा, अत्यंत लघु तरंगदैर्घ्य (जैसे एक्स-रे) हानिकारक हो सकती हैं और इसलिए केवल निर्जीव वस्तुओं के अवलोकन में उपयोगी होती हैं।

दूसरी तकनीक है इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी (electron microscope)। इसमें इलेक्ट्रॉन्स के तरंग गुणों का उपयोग करके छवि बनाई जाती है। (क्वांटम यांत्रिकी के मुताबिक इलेक्ट्रॉन से सम्बद्ध तरंग की तरंगदैर्घ्य लगभग 10-10 मीटर होती है।) लेकिन ये भी मृत कोशिकाओं (dead cells) या वायरस (virus imaging) जैसी निर्जीव वस्तुओं तक ही सीमित हैं।

फिर, पिछले करीब 10 सालों में लेज़र द्वारा उद्दीप्त उत्सर्जन (stimulated emission) और (जिसकी छवि बनानी है उस) वस्तु के अणुओं की कुछ क्वांटम यांत्रिक विशेषताओं का उपयोग करके सूक्ष्म चीज़ों की छवि बनाने का तरीका विकसित किया गया है। इस तकनीक को सुपररिज़ॉल्यूशन माइक्रोस्कोपी (super-resolution microscopy) कहा जाता है।

हाल ही में, इसी काम के लिए एक्सपांशन माइक्रोस्कोपी (expansion microscopy – विस्तार सूक्ष्मदर्शिकी) नामक एक और तकनीक विकसित की गई है। यह तकनीक एक सर्वथा अलग सिद्धांत पर आधारित है, जो काफी सरल है। मान लीजिए कि जिस सूक्ष्म वस्तु का अवलोकन करना है उसे किसी तरीके से, हर तरफ समान रूप से फैलाया जाए; जैसे हम किसी गुब्बारे में हवा भरकर उसे फुला कर फैलाते हैं। अब, जब यह गुब्बारा थोड़ा फूला हुआ हो तब हम इस पर तीन चिन्ह (बिंदु) अंकित करते हैं, और उन बिंदुओं के बीच की दूरी को माप लेते हैं। अब यदि गुब्बारे के आयतन को 125 गुना तक फैलाते हैं, और यदि गुब्बारा एक समान रूप से फैलता (फूलता) है तो प्रत्येक बिंदु के बीच की दूरी 5 गुना बढ़ जाएगी। इससे हम उन सूक्ष्म लक्षणों को देख पाएंगे जिन्हें पहले नहीं देख पाए थे।

सूक्ष्म वस्तुओं को देखने के लिए भी यही तरकीब अपनाई जा सकती है। ज़ाहिर है, गुब्बारे की तरह हम उन सूक्ष्म वस्तुओं में हवा भरकर फुला तो नहीं सकते। अलबत्ता हम कुछ ऐसे रसायन (chemical reagents) अवश्य खोज सकते हैं जो सूक्ष्म चीज़ों की संरचना को तोड़े बिना उनके अंदर प्रवेश कर जाएं और उनको फैला दें।

यदि वस्तु का फैलाव पर्याप्त हो जाता है तो वस्तु की बनावट की बारीकियों को साधारण प्रकाश और एक कॉन्फोकल माइक्रोस्कोप से देखा जा सकता है। हालांकि, यह सुनिश्चित होना चाहिए कि वस्तु में रसायन प्रवेश कराने पर वह सभी जगह से एक समान रूप से फैले। ऐसी स्थिति में ही इस तरह प्राप्त आवर्धित छवि विश्वसनीय होगी यानी सारे बिंदु मूल वस्तु के समान ही प्रदर्शित होंगे। यह सुनिश्चित करने के लिए हम इस संभावना का सहारा लेते हैं कि वस्तु में अणु किन्हीं बिंदुओं पर बाहरी रसायन से बंध जाएंगे। वस्तु और रसायन के बंधने के ये स्थान एंकर पॉइंट के रूप में काम करते हैं: कुछ-कुछ फुटबॉल के शीर्ष या जोड़ बिंदुओं की तरह (यानी वे बिंदु जहां फुटबॉल के काले और सफेद बहुभुज मिलते हैं), जो फुटबॉल में हवा भरने पर फुटबॉल की गोलाई (बनावट) को बनाए रखते हैं।

विस्तार माइक्रोस्कोपी एक बहु-चरणीय प्रक्रिया है। इसका मूल कार्य है – नमूने के अंदर एक बहुलक तंत्र का निर्माण करना और फिर इस बहुलक तंत्र को सममित ढंग से फुलाना।

विस्तार माइक्रोस्कोपी के क्रमवार चरण हैं – अभिरंजन (staining – स्टेन) करना, बंध बनाना (cross-linking), विगलित करना (digestion) और विस्तार करना (expansion)। स्टेन करने के चरण में फ्लोरोफोर (fluorophore molecules – दीप्ति बिखेरने वाले अणु) कोशिका में डाले जाते हैं। ये अगले चरण में बहुलक तंत्र से जुड़ जाते हैं। बंधन या लिंकिंग चरण में कोशिकाओं में बहुलक जेल डाला जाता है, जो पूरे नमूने में फैल जाता है। विगलन चरण में एक विलयन कोशिका में डाला जाता है जो कोशिका को पचा डालता और कोशिका से संरचना को हटाता है। यह चरण बहुत अहम चरण होता है, यदि यह चरण विफल हो जाता है तो नमूना ढह या टूट सकता है। अंत में, विस्तारण चरण में जेल सभी तरफ फैल जाता है। जेल से जुड़े फ्लोरोफोर अणु भी पूरे नमूने में फैल जाते हैं और फैले हुए नमूने में नया स्थान ग्रहण कर लेते हैं। चूंकि जेल चारों ओर एक समान रूप से फैलता है, फ्लोरोफोर के अणुओं के बीच एक आनुपातिक अंतराल बना रहता है।

उच्च विभेदन (high-resolution imaging) वाले प्रतिबिंब बनाने के अन्य तरीकों की तुलना में विस्तार माइक्रोस्कोपी का एक लाभ यह है कि इसके लिए जीवविज्ञान प्रयोगशालाओं (biology labs) में उपलब्ध सूक्ष्मदर्शी के अलावा अन्य किसी विशेष उपकरण की ज़रूरत नहीं होती है। इस तरीके की एक कमी यह हो सकती है कि नमूने को एक समान रूप से फैलाने वाले, नमूने को स्थिर रखने वाले, और चिन्हित करने वाले पॉलीमर या फ्लोरोफोर न मिलें। वर्तमान में एक्सपांशन माइक्रोस्कोपी से कॉन्फोकल माइक्रोस्कोप (confocal microscope) का उपयोग करके 70 नैनोमीटर तक की सूक्ष्म चीज़ें देखी जा सकती हैं, अन्य तरीकों से केवल 300 नैनोमीटर तक देख पाना संभव है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कटहल के स्वास्थ्य लाभ

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दि आम (Mango) को फलों का राजा कहा जाता है, तो कटहल (Jackfruit) को सभी फलों में डॉक्टर कहा जा सकता है। भारत और मध्य-पूर्व के लोग कटहल (Artocarpus heterophyllus) से बहुत पहले से परिचित हैं। कटहल का उपयोग आयुर्वेद (Ayurveda) और यूनानी चिकित्सा (Unani medicine) पद्धति में स्वास्थ्यवर्धक के रूप में किया जाता रहा है। तमिल में ‘पला’, बंगाली में ‘कंटहल’ और मलयालम में ‘चक्का’ कहलाने वाला कटहल (Jackfruit in India) भारत के दक्षिणी (Southern India) और पूर्वोत्तर राज्यों (Northeast India) में अधिकतर भोजन का हिस्सा है, जबकि अन्य क्षेत्रों में यह फल (fruit) की तरह अधिक खाया जाता है। मलेशिया (Malaysia) जैसे दक्षिण-पूर्वी एशियाई (Southeast Asian countries) देशों में यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, और यहां से इसे मध्य पूर्व (Middle East) क्षेत्रों में निर्यात किया जाता है।

कटहल का पेड़ (Jackfruit tree) विशाल (और घना) होता है। इसके फल पेड़ की पतली शाखाओं (tree branches) पर नहीं लगते बल्कि तने (trunk) और मोटी शाखाओं के जोड़ के आसपास लगते हैं। यहां लगने से इसे बहुत बड़े आकार में बढ़ने में मदद मिलती है; केरल (Kerala) में 42 किलोग्राम (42 kg jackfruit) का एक कटहल अब तक एक रिकॉर्ड है। कटहल का पका हुआ फल (Ripe Jackfruit) मीठा और स्वादिष्ट होता है। और कच्चे कटहल (Raw Jackfruit) से कई तरह के व्यंजन बनते हैं। इसे मांस के विकल्प (meat alternative) के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इसमें वसा (low fat) और कोलेस्ट्रॉल (low cholesterol) कम होता है और इसका स्वाद मांस जितना अच्छा (meaty texture) होता है! कटहल बिरयानी (Jackfruit Biryani) भी एक स्वादिष्ट शाकाहारी विकल्प (vegetarian alternative) है।

इस पेड़ के कई अन्य उपयोग भी हैं। दक्षिण-पूर्व एशियाई (Southeast Asian) भिक्षु कटहल की छाल (Jackfruit tree bark) से रंगे हुए वस्त्र पहनते हैं; यह वस्त्रों को धूपिया पीला रंग (saffron-colored dye) देते हैं – कुछ-कुछ शहद के रंग (honey-colored fabric) जैसा। कटहल का यह रंग इसकी लकड़ी (Jackfruit wood) से बने फर्नीचर (furniture) को भी एक अच्छी रंगत देता है। इसकी लकड़ी मज़बूत (strong wood) और दीमक प्रतिरोधी (termite-resistant) होती है।

सुपरफूड कटहल

इन सभी खूबियों के साथ-साथ, कटहल एक सुपरफूड (superfood) के रूप में विश्वभर में लोकप्रिय हो रहा है। क्लीवलैंड युनिवर्सिटी (Cleveland University) की एक व्यापक समीक्षा बताती है कि कटहल प्रोटीन (protein), विटामिन (vitamin), खनिज (minerals) और पादप रसायनों (phytonutrients), के अलावा पोटेशियम (potassium), मैग्नीशियम (magnesium) और फॉस्फोरस (phosphorus) जैसे तत्वों से भरपूर है। ड्यूक युनिवर्सिटी (Duke University) की वेबसाइट पर वैज्ञानिक ब्रायना इलियट (Brianna Elliott) ने कटहल के पोषण सम्बंधी लाभों पर प्रकाश डाला है। वे बताती हैं कि पोषण की दृष्टि से कटहल की फांकें सेब और आम (better in nutrition than apple and mango) की तुलना में बेहतर हैं। कई संदर्भों का हवाला देते हुए वे बताती हैं कि कटहल का फल रक्त शर्करा के स्तर (blood sugar level) को नियंत्रित करता है; यकृत (liver) से लेकर अन्य अंगों में जमा वसा को घटाता (fat reduction) है; और इसमें मौजूद कैरोटीनॉइड्स (carotenoids) टाइप-2 डायबिटीज़ (Type-2 Diabetes) और हृदय रोगों (heart diseases) के जोखिम को कम करते हैं। इसमें मौजूद विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ वायरल संक्रमण के जोखिम को कम करते हैं।

WebMed वेबसाइट भी इसके कई लाभ बताती है। इसके अनुसार, “कटहल ज़रूरी विटामिनों और खनिज से सराबोर है, विशेष रूप से यह विटामिन ‘बी’ (Vitamin B complex), पोटेशियम (potassium) और विटामिन ‘सी’ (Vitamin C) का एक अच्छा स्रोत है।” कटहल मधुमेह के रोगियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है। भारत में लगभग 21.5 करोड़ लोग मधुमेह (diabetes in india) से पीड़ित हैं। 2021 में, आंध्र प्रदेश (Andra Pradesh) के श्रीकाकुलम (Srikakulam) स्थित गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज के ए. गोपाल राव (A. Gopal Rao) और उनके साथियों ने न्यूट्रिशन एंड डायबिटीज़ जर्नल (Nutrition and diabetes journal) में एक रैंडम क्लीनिकल परीक्षण (random clinical trial) के नतीजे प्रकाशित किए हैं। इसमें बताया गया है कि कच्चे कटहल का आटा (Raw Jackfruit Flour) (जिसे कच्चे कटहल के गूदेदार हिस्से (raw jackfruit pulp) को सुखाकर, पीसकर बनाया जाता है) ग्लाइसेमिक नियंत्रण (glycemic control) में कुशल है और चावल (rice) या गेहूं (wheat) जैसे मुख्य आहार का विकल्प बन सकता है। कटहल का आटे के रूप में इस्तेमाल उत्तरी राज्यों में विशेष रूप से उपयोगी हो सकता है जहां कटहल की खेती नहीं होती। इस शोधपत्र के एक लेखक जेम्स जोसेफ एक कंपनी (jackfruit 365) चलाते हैं जो पूरे भारत में कटहल का आटा बेचती है।

कटहल (Jackfruit for health) मधुमेह रोगियों और स्वस्थ लोगों, दोनों के लिए दैनिक आहार का एक वांछनीय हिस्सा है। तो सब्ज़ी (jackfruit curry), अचार (jackfruit pickle), फल (jackfruit fruit) या आटे (jackfruit flour) किसी भी रूप में इसे इस्तेमाल करें और स्वस्थ रहें! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी की घूर्णन शक्ति से बिजली

क हालिया अध्ययन का दावा है कि पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s magnetic field) में घूर्णन से बिजली उत्पन्न (electricity generation) की जा सकती है। हालांकि अध्ययन में एक विशेष उपकरण से मात्र 17 माइक्रोवोल्ट (17 microvolts) की बेहद कम विद्युत धारा उत्पन्न की गई है, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि यह प्रभाव वास्तविक है और इसे बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकता है, तो यह बिना प्रदूषण के ऊर्जा उत्पादन (pollution-free energy generation) का नया तरीका हो सकता है। खास तौर पर दूरदराज़ के इलाकों (remote areas) और मेडिकल उपकरणों (medical devices) के लिए यह तकनीक बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। यह शोध प्रिंसटन यूनिवर्सिटी (Princeton University) के क्रिस्टोफर चायबा (Christopher Chyba) के नेतृत्व में किया गया और फिजिकल रिव्यू रिसर्च (Physical Review Research) में प्रकाशित हुआ है।

आम तौर पर चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) में एक सुचालक (conductor) को घुमा कर बिजली उत्पन्न की जाती है, जैसा कि पावर प्लांट्स (power plants) में होता है। पृथ्वी का भी एक चुंबकीय क्षेत्र (geomagnetic field) होता है, और जब पृथ्वी घूमती है (Earth’s rotation) तो इस चुंबकीय क्षेत्र का एक हिस्सा स्थिर बना रहता है। सैद्धांतिक रूप से (theoretically), यदि कोई चालक (conductor) पृथ्वी की सतह पर रखा जाए तो वह इस चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) से गुज़रकर विद्युत धारा (electric current) उत्पन्न कर सकता है। हालांकि, पृथ्वी के सामान्य चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s magnetism) में ऐसा नहीं होता, क्योंकि चालक के अंदर मौजूद आवेश (electrons inside the conductor) खुद को इस तरह व्यवस्थित कर लेते हैं कि बिजली पैदा (electricity production) ही नहीं हो पाती।

लेकिन क्रिस्टोफर चायबा (Christopher Chyba) और उनकी टीम का दावा है कि उन्होंने इस समस्या का हल खोज लिया है। खास आकार में बना एक खोखला बेलन (hollow cylindrical conductor) पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से बिजली उत्पन्न (electricity generation from Earth’s magnetic field) कर सकता है।

इस परिकल्पना को जांचने के लिए वैज्ञानिकों ने मैंगनीज़ (manganese), ज़िंक (zinc), और आयरन (iron) वाले चुंबकीय पदार्थ (magnetic material) से एक विशेष उपकरण बनाया। उन्होंने 17 माइक्रोवोल्ट (17 microvolts of electric current) की बहुत हल्की विद्युत धारा दर्ज की, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के सापेक्ष उपकरण की स्थिति बदलने पर भी बदल रही थी। लेकिन जब उन्होंने खोखले सिलेंडर (hollow cylinder) की जगह ठोस सिलेंडर (solid cylinder) का उपयोग किया तो बिजली पैदा (electricity production) नहीं हुई।

विस्कॉन्सिन-यूक्लेयर विश्वविद्यालय (University of Wisconsin-Eau Claire) के पॉल थॉमस (Paul Thomas) जैसे कुछ वैज्ञानिक इस प्रयोग को विश्वसनीय मानते हैं, लेकिन फ्री यूनिवर्सिटी ऑफ एम्स्टर्डम (Free University of Amsterdam) के रिंके विजनगार्डन (Rinke Wijngaarden) जैसे अन्य वैज्ञानिकों को संदेह है। विजनगार्डन ने 2018 में इसी तरह का प्रयोग करने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। उनका मानना है कि चायबा (Chyba) की परिकल्पना सही नहीं हो सकती। उनके मुताबिक चायबा (Chyba) के दल ने काफी सावधानी बरती है, लेकिन यह भी संभव है कि दर्ज किया गया वोल्टेज (voltage measurement) तापमान में बदलाव (temperature variation) जैसी अन्य वजहों से आया हो।

फिलहाल, यह अध्ययन वैज्ञानिक समुदाय (scientific community) में बहस का विषय बन गया है। अगर आगे के प्रयोग इन नतीजों की पुष्टि कर पाते हैं तो यह बिजली उत्पादन (electricity generation technology) के नए रास्ते खोल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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पालतू और जंगली परागणकर्ताओं के बीच प्रतिस्पर्धा

धुमक्खियां (honey bees) परागण (pollination) और शहद उत्पादन (honey production) में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए जानी जाती हैं। लेकिन इटली स्थित जानूट्री (Giannutri Island) नामक एक छोटे द्वीप में हुए हालिया अध्ययन से पता चला है कि मधुमक्खियों की मौजूदगी जंगली परागणकर्ताओं (wild pollinators) के लिए नुकसानदायक हो सकती है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि जब मधुमक्खियों को थोड़े समय के लिए उनके छत्तों (beehives) में ही रोक कर रखा गया तो जंगली परागणकर्ताओं की संख्या में तो वृद्धि हुई ही, साथ ही उन्होंने अधिक मकरंद (nectar) और पराग (pollen) भी एकत्र किया। करंट बायोलॉजी (Current Biology Journal) में प्रकाशित यह अध्ययन संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र (ecosystem) में कॉलोनी बनाने वाली मधुमक्खियों की जंगली परागणकर्ताओं के साथ बढ़ती प्रतिस्पर्धा (competition) को लेकर चिंता व्यक्त करता है।

इस प्रयोग को यूनिवर्सिटी ऑफ पीसा (University of Pisa) और यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरेंस (University of Florence) के वैज्ञानिकों ने अंजाम दिया। जानूट्री द्वीप टस्कन तट (Tuscan coast) के पास स्थित है और विरल आबादी वाला है। वर्ष 2018 में वैज्ञानिकों और पार्क अधिकारियों ने स्थानीय परागणकर्ताओं पर पालतू मधुमक्खियों (domesticated bees) के प्रभाव को समझने के लिए यहां मधुमक्खी के 18 कृत्रिम छत्ते लगाए थे।

2021 से 2024 के बीच फरवरी से अप्रैल तक, वैज्ञानिकों ने जंगली मधुमक्खियों की दो प्रजातियों – बफ टेल्ड बम्बलबी (Buff-tailed bumblebee, Bombus terrestris) और एक सॉलिटरी बी (Solitary bee, Anthophora dispar) पर नज़र रखी। उपलब्ध मकरंद एवं पराग की मात्रा के आधार पर उन्होंने यह पता लगाने का प्रयास किया कि कितनी जंगली और कितनी पालतू मधुमक्खियां फूलों पर जा रही हैं।

शोधकर्ताओं ने हर साल मधुमक्खी के 18 छत्तों को कुछ दिनों के लिए बंद किया। इससे उन्हें यह देखने का मौका मिला कि जब मधुमक्खियां अनुपस्थित थीं तब पर्यावरण में क्या बदलाव हुए। पाया गया कि मधुमक्खियों की अनुपस्थिति में जंगली परागणकर्ता काफी फले-फूले। मधुमक्खियों को छत्तों में रोकने पर कुछ महत्वपूर्ण बदलाव दिखे: फूलों में 60 प्रतिशत अधिक मकरंद (increased nectar availability) पाया गया; पराग की मात्रा में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई; जंगली परागणकर्ता अधिक संख्या में दिखाई दिए और उन्होंने फूलों पर अधिक समय बिताया; प्रतिस्पर्धा न होने के कारण जंगली परागणकर्ताओं को मकरंद और पराग आसानी से मिला।

दरअसल, मधुमक्खियां भोजन के स्रोतों का पता लगाकर कॉलोनी की अन्य मधुमक्खियों को उसकी जानकारी देती हैं, जिससे वे जल्दी पहुंचकर मकरंद और पराग खत्म कर देती हैं। दूसरी ओर, जंगली परागणकर्ता अकेले भोजन खोजते हैं, इसलिए वे संगठित मधुमक्खी की तेज़ प्रतिस्पर्धा के सामने कमज़ोर पड़ जाते हैं।

चार साल की इस अवधि में, पालतू मधुमक्खियों की उपस्थिति के कारण जंगली परागणकर्ताओं की संख्या में भारी गिरावट देखी गई। बम्बल बी (bumblebee) और सॉलिटरी बी (solitary bee) की आबादियों में 80 प्रतिशत तक की गिरावट देखी गई और पालतू मधुमक्खियां द्वीप के फूलों पर हावी रहीं। इसके अलावा वैज्ञानिकों ने सॉलिटरी बी की गुंजन की आवाज़ (buzzing sound) में भी हर साल पहले से कमी पाई। मधुमक्खियों के अलावा अन्य कारक, जैसे कीट आबादी में कुदरती घट-बढ़ और फूलों की उपलब्धता में बदलाव भी इसकी वजह हो सकते हैं। 

वैज्ञानिक चेताते हैं कि यह निष्कर्ष शायद अन्य स्थानों पर लागू न हो। जानूट्री छोटा द्वीप है, यहां युरोप के मुकाबले मधुमक्खियों के छत्तों का घनत्व औसत से दुगना है, तो हो सकता है प्रतिस्पर्धा यहां अधिक हो। संभव है कि अन्य पारिस्थितिक तंत्रों में जंगली और पालतू मधुमक्खियां एक-दूसरे को प्रभावित किए बिना सह-अस्तित्व (coexistence) में रह सकती हैं।

शोधकर्ताओं ने मधुमक्खियों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की वकालत नहीं की है, बल्कि हर तरह के परागणकर्ताओं के आपसी संतुलन को समझने के लिए और अधिक शोध (pollination research) की आवश्यकता को पर बल दिया है। (स्रोत फीचर्स)

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बुलढाणा में फैली गंजेपन की समस्या

अर्पिता व्यास

पिछले दिनों महाराष्ट्र के बुलढाणा (buldhana) ज़िले के गांवों में लोगों में बालों के झड़ने (hair loss) की एक विचित्र घटना सामने आई। बुलढाणा ज़िले के शेगांव तालुका (shegaon council) में अचानक लोगों के बाल झड़ने लगे। यह महिलाओं और पुरुषों दोनों में देखा गया। गांव के लोग अटकलें लगाने लगे कि यह किसी वायरस (virus infection) की वजह से हो रहा है। तत्काल हुई जांचों में पता चला कि बोंडगांव और खातखेड़ के पानी में नाइट्रेट (nitrate contamination) काफी ज़्यादा मात्रा में है और साथ ही उसमें कुल घुलित लवण यानी TDS (Total dissolved solids) भी अधिक था। यह पता लगा कि पानी पीने के लिए सही नहीं है। यह अनुमान लगाया गया कि शायद यही बाल झड़ने का कारण हो सकता है।

लोगों में बाल झड़ने की घटनाएं बढ़ती जा रही थीं। 3 दिन में लगभग 51 व्यक्ति गंजे (sudden baldness) हो चुके थे। चिकित्सा विभाग ने उस क्षेत्र का एक सर्वे किया। त्वचा रोग विशेषज्ञ (dermatologists) भी गांव पहुंच गए। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि बाल झड़ना एक कवक (फफूंद) के संक्रमण (fungal infection) के कारण हो रहा है जो संदूषित पानी (contaminated water) से फैल रहा है। प्रभावित लोगों ने बताया कि इसकी शुरुआत बालों की जड़ों में खुजली (itching in scalp) होने से होती है, उसके बाद बाल पतले (thinning hair) होने लगते हैं। फिर 3 दिनों में पूरे बाल झड़ जाते हैं और पूरी तरह गंजापन (complete baldness) आ जाता है। यहां तक कि दाढ़ी के बाल भी गिर जाते हैं।

हालांकि संदूषित पानी को ही कारण माना जा रहा था फिर भी जांच आगे जारी रखी गई। त्वचा और पानी के नमूने जांच के लिए भेजे गए। पानी के अत्यधिक संदूषित (highly contaminated water) होने के कारण उसका उपयोग प्रतिबंधित करके गांव वालों के लिए दूसरे स्रोतों से पानी उपलब्ध करवाया गया। अन्य स्रोत से पानी देने लगे तो लगा कि अब और मामले नहीं बढ़ेंगे लेकिन मामले तो बढ़ते ही जा रहे थे।

पूर्व में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR – Indian Council of Medical Research) से आई टीम ने जांच में पाया था कि प्रभावित लोगों में सेलेनियम (selenium poisoning) की मात्रा अधिक है जो शायद बालों के झड़ने का कारण है। सेलेनियम राशन की दुकान से वितरित गेहूं (contaminated wheat) में अधिक पाया गया था। अलबत्ता, टीम ने पक्का निष्कर्ष नहीं दिया था कि यही बाल झड़ने का कारण है। गेहूं के नमूने जांच के लिए वारणी एनालिटिक्स लैब, ठाणे पहुंचाए गए। वहां बिना धुले गेहूं में सेलेनियम 14.52 मि.ग्रा./कि.ग्रा पाया गया और धुले हुए गेहूं में 13.61 मि.ग्रा./कि.ग्रा जबकि गेहूं में सेलेनियम की सामान्य मात्रा 0.1 से 1.9 मि.ग्रा./कि.ग्रा होती है। यानी इस गेहूं में सेलेनियम की मात्रा सामान्य अधिकतम मात्रा से 8 गुना अधिक थी। राशन के गेहूं के पैकेट्स को चेक किया गया तो देखा कि ये पंजाब से आए थे। Text Box: बालों का झड़ना
बालों का असामान्य रूप से झड़ना एलोपेशिया कहलाता है। यह सिर या पूरे शरीर पर हो सकता है। यह अल्पकालिक या फिर हमेशा के लिए भी हो सकता है। एलोपेशिया का शिकार कोई भी हो सकता है, लेकिन यह पुरुषों में ज़्यादा आम है। 
एलोपेशिया के कारण 
हार्मोन में बदलाव -  कुपोषण (विटामिन और मिनरल की कमी), कोई एन्डोक्राइन रोग, बर्थ कंट्रोल दवाइयों का बंद या शुरू करना, गंभीर संक्रमण या किसी दवाई के साइड इफेक्ट से ऐसी स्थिति बन सकती है। 
मेडिकल अवस्था - व्यक्ति का प्रतिरक्षा तंत्र बालों की जड़ों पर हमला कर देता है और बाल झड़ने लगते है; रेडिएशन या कीमोथेरपी के कारण बाल झड़ते हैं लेकिन ट्रीटमेंट खत्म होने पर बाल वापस आ जाते हैं; शारीरिक या मानसिक आघात की वजह से बाल झड़ सकते हैं; फफूंद का संक्रमण हो सकता है।
आनुवंशिक - किसी आनुवंशिक कारण से महिला और पुरुषों दोनों के बाल झड़ सकते हैं। 
कसकर बांधना - बालों को अत्यधिक खींचकर बांधने से भी बाल झड़ते हैं।
उम्र बढ़ना - उम्र के साथ गंजेपन का मुख्य कारण आनुवंशिकी है। 
American Academy of Dermatology के अनुसार हमारे 50–100 बाल तो हर दिन झड़ते हैं, लेकिन सिर पर मौजूद 1,00,000 बालों में से इतने कम बाल झड़ जाने से फर्क पता नहीं चलता और नए बाल इनकी जगह ले लेते हैं। बालों का झड़ना साल दर साल बढ़ सकता है या फिर अचानक भी हो सकता है, यह बाल झड़ने के कारण पर निर्भर करता है। जब एलोपेशिआ होता है तो ये लक्षण दिखने लगते हैं: 
मांग चौड़ी होना – बालों के बीच काफी जगह बन जाती है यानी नए बाल उगकर पुराने बालों की जगह नहीं ले पाते। 
केश-रेखा पीछे सरकना – माथे पर जहां से आपके बाल शुरू होते है उस रेखा का पीछे चले जाना। 
सर पर छोटे-छोटे चांद दिखाई देना – ये चांद समय के साथ आकार में बढ़ रहे हों।
गुच्छों में बाल झड़ना – बाल धोने के बाद मोहरी आपके बालों से भर गई हो।

इसी तरह, 2000 के दशक के शुरू में पंजाब के दो ज़िलों होशियारपुर और नवांशहर में भी बालों के झड़ने (hair fall epidemic) की घटनाएं हुई थीं। ये दोनों ज़िले शिवालिक पर्वतों की तराई में स्थित हैं। तब यहां सेलेनियम नदियों की बाढ़ से आए पानी के साथ आया था।

एक अन्य रिपोर्ट में प्रभावित लोगों के खून में ज़िंक की कमी (zinc deficiency) भी पाई गई जो बालों की वृद्धि (hair growth) के लिए उत्तरदायी है। सेलेनियम की वृद्धि और ज़िंक की कमी, दोनों कारणों से बाल झड़ने की घटनाएं हुई। 15 गांव के लगभग 300 लोग प्रभावित हुए। अच्छी बात यह है कि कुछ वक्त में लोगों के बाल वापस आ गए क्योंकि बालों की जड़ें सलामत थीं। (स्रोत फीचर्स)

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महासागरों में अम्लीयता बढ़ने के जलवायु पर असर

हासागर (Oceans) वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड (Carbon Dioxide) को अवशोषित कर जलवायु परिवर्तन (Climate Change) की गति को धीमा करने में मदद करते हैं। कार्बन डाईऑक्साइड सोखने पर समुद्रों (Seas) का पानी अधिक अम्लीय (Ocean Acidification) हो जाता है। एक नए अध्ययन (New Research) में चेतावनी दी गई है कि अगले 50 वर्षों में बढ़ती अम्लीयता के कारण महासागरों की कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता कमज़ोर हो सकती है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) में वृद्धि होगी।

इस संदर्भ में वनस्पति-प्लवकों (Phytoplankton) की भूमिका महत्वपूर्ण है। वनस्पति-प्लवक सूक्ष्म एक-कोशिकीय जीव (Microorganisms) हैं, जो समुद्र की सतह के पास तैरते रहते हैं। वे सूर्य के प्रकाश का उपयोग करके कार्बन डाईऑक्साइड को जैविक पदार्थ में बदलते हैं। कार्बन डाईऑक्साइड जज़्ब करने की उनकी क्षमता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे लगभग उतनी ही कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं जितनी थलचर पेड़-पौधे (Terrestrial Plants) सोखते हैं।

और मरने के बाद वनस्पति-प्लवक समुद्र के पेंदे में बैठ जाते हैं, और इस तरह से कार्बन समुद्र की गहराई (Deep Ocean Carbon Storage) में हज़ारों वर्षों के लिए संग्रहित हो जाता है। यह प्राकृतिक प्रक्रिया पृथ्वी के जलवायु संतुलन (Climate Balance) को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

लेकिन, कार्बन डाईऑक्साइड के घुलने से समुद्री जल अधिक अम्लीय हो जाता है। पिछले 170 वर्षों में, मानवीय गतिविधियों (Human Activities) के कारण वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर 280 से बढ़कर 420ppm हो गया है, जिससे समुद्र की अम्लीयता लगभग 30 प्रतिशत बढ़ गई है। यह अम्लीयता विशेष रूप से बड़े वनस्पति-प्लवकों के विकास को बाधित कर सकती है, जिससे महासागरों की कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने की क्षमता घट सकती है।

वनस्पति-प्लवकों पर बढ़ती अम्लीयता के प्रभाव को लेकर हुए पूर्व अध्ययनों (Previous Studies) के नतीजों में भिन्नता रही है। कुछ शोधों (Scientific Research) में पाया गया कि पोषक तत्वों से भरपूर तटीय क्षेत्रों में कुछ वनस्पति-प्लवकों की संख्या बढ़ सकती है, लेकिन ये शोध छोटे क्षेत्रों तक सीमित थे।

इस समस्या को हल करने के लिए, प्रिंसटन विश्वविद्यालय (Princeton University) के फ्रांस्वा मोरेल और जियामेन विश्वविद्यालय (Xiamen University) के डालिन शी के नेतृत्व में वैज्ञानिकों (Scientists) ने एक बड़ा महासागर सर्वेक्षण (Ocean Survey) किया। उन्होंने छह वर्षों तक प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) और दक्षिणी चीन सागर (South China Sea) में 45 जगहों से पानी के नमूने इकट्ठा किए। प्रयोगों में उन्होंने अलग-अलग स्थानों से प्राप्त नमूनों में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर कृत्रिम रूप से बढ़ाया ताकि यह देखा जा सके कि यदि वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड 700 ppm तक पहुंचती है (जो 2075 से 2100 के बीच संभव है), तो वनस्पति-प्लवकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। वैज्ञानिकों ने दो प्रमुख प्रकार के वनस्पति-प्लवकों पर अध्ययन किया: छोटे बैक्टीरियल वनस्पति-प्लवक (Bacterial Phytoplankton), जो पोषक तत्वों की कमी में भी जीवित रहने में सक्षम होते हैं; और बड़े केंद्रकधारी वनस्पति-प्लवक, जिन्हें अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है और वे पर्यावरण में बदलाव के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।

अध्ययन के निष्कर्ष (Study Findings) चौंकाने वाले थे। छोटे बैक्टीरियल वनस्पति-प्लवकों पर अम्लीयता का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन बड़े वनस्पति-प्लवकों की वृद्धि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों (Tropical Regions) में गर्मियों के दौरान 30 प्रतिशत तक घट गई, जबकि इस समय उनकी वृद्धि अधिक होनी चाहिए थी। ठंडे, पोषक तत्वों से भरपूर क्षेत्रों में यह प्रभाव थोड़ा कम था, क्योंकि गहरे समुद्र से पोषक तत्व ऊपर आते रहते हैं।

वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि महासागर की अम्लीयता (Ocean Acidification Effects) का वनस्पति-प्लवकों पर प्रभाव नाइट्रोजन (Nitrogen Availability) की उपलब्धता से जुड़ा है। नाइट्रोजन वनस्पति-प्लवकों के विकास के लिए एक आवश्यक पोषक तत्व है। जिन क्षेत्रों में पहले से ही नाइट्रेट की मात्रा कम थी, वहां बढ़ती अम्लीयता ने समस्या को और बढ़ा दिया, जिससे बड़े वनस्पति-प्लवकों का विकास कठिन हो गया।

जब इन नमूनों में नाइट्रेट (nitrate) मिलाया गया, तो वनस्पति-प्लवकों की वृद्धि फिर से बढ़ गई। इसका मतलब है कि अम्लीयता (acidification) किसी न किसी तरह वनस्पति-प्लवकों के लिए नाइट्रोजन (nitrogen) को ग्रहण करना मुश्किल बना देती है।

यदि महासागर की अम्लीयता वनस्पति-प्लवकों को प्रभावित करती रही तो इसके गंभीर परिणाम (Severe Consequences) हो सकते हैं। अध्ययन के अनुसार, अगले 50 वर्षों में वनस्पति-प्लवकों की धीमी वृद्धि के कारण महासागर हर साल लगभग 5 ट्रिलियन किलोग्राम कम कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करेंगे। इससे वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बढ़ेगा और जलवायु परिवर्तन की गति तेज़ हो सकती है।

समस्या को और बढ़ाने वाला एक अन्य कारक बढ़ता समुद्री तापमान (Rising Ocean Temperature) है। गर्म सतही जल (Surface Water) ठंडे, पोषक तत्वों से भरपूर गहरे जल (Deep Ocean Water) के साथ मिश्रित नहीं हो पाता, जिससे सतह पर पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। उपग्रह डैटा (satellite data) से पता चला है कि उष्णकटिबंधीय महासागरों में कम पोषक तत्वों वाले क्षेत्र तेज़ी से फैल रहे हैं। 1998 से 2006 के बीच, कम क्लोरोफिल (chlorophyll वनस्पति-प्लवकों की मात्रा का एक प्रमुख संकेतक) वाले क्षेत्र 15 प्रतिशत बढ़ गए। यदि अम्लीयता पोषक तत्व की कमी को और बढ़ाती है तो महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र पर ‘दोहरा आघात’ होगा।

कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि वनस्पति-प्लवकों की घटती संख्या निश्चित रूप से महासागर की कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने की क्षमता (Carbon Sequestration) को कम करेगी। संभव है कि ठंडे क्षेत्रों, जहां पोषक तत्व अधिक उपलब्ध हैं, में वनस्पति-प्लवक तेज़ी से बढ़ें और उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के नुकसान की भरपाई कर दें। लेकिन, समुद्र वैज्ञानिक मैट चर्च कहते हैं कि समग्र रूप से पृथ्वी के कार्बन चक्र पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना बहुत कम है।

वैज्ञानिक और अधिक शोध (Further Research) की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहे हैं। बहरहाल, इतना स्पष्ट है कि हम जितनी अधिक कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण में छोड़ेंगे, महासागरों का संतुलन उतना ही डगमगाएगा। इसलिए कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन (CO₂ Emissions) को कम करना अब पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z30nzc9/full/_20250310_on_plankton-1741634337047.jpg