सामाजिक कार्यकर्ता शिवाजी दादा – भाग 2

निधि सोलंकी

दो लेखों की शृंखला के पहले लेख में आपने पढ़ा कि शिवाजी दादा ने अपना संपूर्ण जीवन सामाजिक भलाई के कामों में लगाया। शृंखला के दूसरे भाग में उनके व्यक्तित्व के कुछ और पहलू उजागर होंगे।

गांव के लोगों की समस्या ने दादा को इस कदर प्रभावित किया कि उन्होंने अपना सब कुछ सामाजिक काम में लगा दिया। ऐसे कामों में कई बार हमें बदलाव दिखते हैं, और कई बार इतने साफ दिखते हैं कि वह हमें प्रेरित कर जाते हैं, विश्वास जगाते हैं। कुछ ऐसा ही बदलाव देखने को मिला जब दादा ने वॉटरशेड (watershed management) के काम का ज़िम्मा उठाया।

बंबार्गे, कटनभवी, निंगेन्हट्टी और गोरामठी गांवों का समूह, जो बेलगाम तालुका के उत्तर में स्थित हैं, 1995 से पहले जल संकट (water scarcity) का सामना कर रहा था, क्योंकि इस क्षेत्र में कोई प्राकृतिक जल स्रोत (natural water source) नहीं था। गांववासियों का जीवनस्तर केवल सीमित वर्षा पर निर्भर था। वर्षा कम होने और पेड़ों की कमी के कारण यह क्षेत्र सूखा और बंजर दिखता था। बचे-खुचे पेड़ों को भी गांववाले अपने घरेलू उपयोगों, जैसे खाना पकाने और अन्य कार्यों के लिए काट देते थे, जिसके कारण वर्षा का पानी किसी काम का नहीं रह जाता था और भूमि में समाहित नहीं हो पाता था।

एक रात दादा ने देखा कि एक महिला रात को लैंप लेकर कुएं से पानी निकाल रही थी। इस गांव में पानी की कमी के कारण दिन में कुएं में पानी खत्म हो जाता था, और फिर किसी को अगर पानी चाहिए होता था तो रात को ही आकर लेना पड़ता था। इस दृश्य ने दादा को झंझोरा।

उन्होंने गांववालों को इकट्ठा किया और डीसी ऑफिस पहुंचे। कई बार चक्कर लगाने पर भी जब कुछ नहीं हुआ, तब उन्होंने फादर से बात की। फादर मान गए और दादा को एक प्रस्ताव तैयार करने को कहा। फादर कई विदेश यात्राओं (foreign fundraising trips) पर जाते थे। अपनी अगली यात्रा पर उन्होंने चर्च में लोगों के सामने यह प्रस्ताव साझा किया और फंड की ज़रूरत बताई। वहां मौजूद एक जर्मन व्यक्ति ने कहा कि वे मदद करना चाहेंगे। दादा को जब फादर ने यह बात बताई तो उन्हें पैसे लेने में हिचकिचाहट हुई; तब उस व्यक्ति ने टेलीग्राम भेजकर कहा कि यह पैसा तो आपके देश का ही है जो युरोपीय देशों ने आपके जैसे देशों को उपनिवेश (colonial exploitation)  बनाकर बटोरा है। दादा ने पैसे का काम येलियप्पा को सौंप दिया। इस पर भी कई लोगों ने आपत्ति जताई कि आपने यह ज़िम्मेदारी किसी बड़ी शख्सियत को न देकर एक मामूली व्यक्ति को क्यों सौंप दी।

फंडिंग से पहले भी एक ज़रूरी सवाल था कि किया क्या जाए? दादा ने विद्या ताई (अक्षरनंदन स्कूल पुणे की संस्थापक) को अपनी समस्या बताते हुए लिखा, तो विद्या ताई ने अन्ना हजारे के बारे में बताया कि कैसे उन्होंने वॉटरशेड के विचार को इस्तेमाल करके पानी की समस्या से निजात पायी। दादा तुरंत ही कुछ और लोगों के साथ रालेगण सिद्धी (अहमदनगर) पहुंच गए और वहां जाकर वॉटरशेड के बारे में देखा और सीखा। वॉटरशेड में वर्षा का पानी (rainwater harvesting) रोकना, उसे भूमि में समाहित होने देना (पर्कोलेट करना) (percolation techniques) और पेड़ लगाना शामिल है।

वॉटरशेड प्रबंधन (watershed development) के लिए ज़मीन की आवश्यकता थी, और लोगों को इस परियोजना के महत्व को समझाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। उन्हें यह समझाना सरल नहीं था कि यह काम केवल उनके लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी फायदेमंद होगा। शुरुआत में दादा के कार्यों को जानने वाले लोग ही राजी हुए, और उनके माध्यम से अन्य गांववाले भी इस परियोजना से जुड़ने के लिए प्रेरित हुए। अंततः अधिकांश लोग इस प्रयास का समर्थन करने के लिए तैयार हो गए। यह कार्य केवल ज़मीन देने तक सीमित नहीं था; इसमें समुदाय का सक्रिय सहयोग (community participation) भी आवश्यक था।

पहाड़ों पर ट्रेंच बना कर पेड़ लगाए। जब ट्रेंच के साथ पेड़ लगाए गए तो पानी को ज़मीन में समाहित करने की क्षमता बढ़ी। पेड़ की जड़ों ने मिट्टी को बहने से रोका और पानी को सोखने में मदद की, जिससे भूमिगत जलस्तर (groundwater recharge) में वृद्धि हुई।

बंबार्गे गांव में स्थानीय लोगों की भागीदारी से एक छोटा बांध (check dam) बनाया गया, जिससे निचले इलाकों में सिंचाई की सुविधा मिली और कुओं का जलस्तर बढ़ गया। कटनभवी क्षेत्र में भी तालाब और कुएं खुदवाए गए। यहां एक कुआं हमेशा आठ फीट पानी से भरा रहता है। इससे न केवल लोगों को फायदा हुआ बल्कि जानवरों और पक्षियों के लिए भी पानी की उपलब्धता सुनिश्चित हुई। निंगेन्हट्टी और गोरामठी गांवों में भी छोटे तालाब बनाए गए, साथ ही कुएं खोदे गए, जिससे गांव को पीने का पानी (drinking water supply) मिल पाया। इसके साथ-साथ, गांव के चारों ओर फलदार पेड़ लगाए गए, जिनसे आज गांववाले आय प्राप्त कर रहे हैं। इन सभी प्रयासों से जलस्तर बढ़ा, कुएं पानी से भर गए, और कृषि कार्य में वृद्धि हुई। लोग अब दुधारू जानवर पाल रहे हैं, जिससे क्षेत्र हरा-भरा हो गया है और पानी की समस्या हल हो गई है।

कुछ और बातें

शिवाजी दादा के साथ वक्त बिताने के इरादे से मैं बेलगावी में रुक गई। जिस मीटिंग के लिए मैं गई थी उसमें दादा भी शामिल थे। मीटिंग के अंतिम दिन दादा ने मुझे बताया कि वे अगले दिन डीएम ऑफिस जाने वाले हैं। उन्होंने अपने झोले से एक प्रचार पत्र निकाला और उसे मेरे साथ बैठी एक महिला को दे दिया जो मराठी पढ़ना-लिखना जानती थीं। उस प्रचार पत्र में लिखा था कि सरकारी अस्पताल (government hospital) की हालत खराब है, जो दवाइयां आ रही हैं वे किसी बड़ी फैक्ट्री से बनकर आ रही हैं और वे ठीक नहीं हैं। और इसके लिए वे एक शहर से दूसरे शहर तक समूह यात्रा (public awareness campaign) करने वाले हैं। चूंकि यात्रा का रास्ता बेलगावी से गुज़र कर नहीं जा रहा था उन्होंने डीएम ऑफिस के बाहर लोगों को इकट्ठा करके डीएम को यह बताने का फैसला किया कि डीएम ठीक दवाइयां उपलब्ध कराएं।

दादा ने मुझे कहा कि हम अगले दिन सुबह 10 बजे निकल जाएंगे। अगले दिन दादा अपने झोले के साथ घर आ गए। मैंने उन्हें ग्रीन टी ऑफर की तो उन्होंने हामी भर दी। चाय के वक्त हमारी बातचीत सर्वोदय आंदोलन (sarvodaya movement ), गांधी, नेहरू, टैगोर और पता नहीं कहां-कहां पहुंच गई। उसके बाद हम निकल गए। ऑटो में बैठ कर दादा से मैंने पूछ ही लिया कि वे मोबाइल क्यों नहीं रखते; उन्होंने कहा कि ज़रूरत नहीं पड़ती। रास्ते में मैंने दादा से एक और सवाल पूछ ही लिया कि वे अपना गुज़र-बसर कैसे करते हैं। दादा ने कहा कि उनका खर्चा सिर्फ यात्राओं और दवाई का है। खाना और रहना गांव में हो जाता है। और रहे चाय के शौकीन दादा तो उनके चाहने वाले उन्हें चाय का बड़ा गिलास पिलाते हैं। उन्होंने बताया कि उनके कुछ दोस्त हैं जो उन्हें पैसे भेजते हैं: “कई बार उन्हें मना करना पड़ता है कि अब मेरे पास पैसे हैं, और नहीं चाहिए।”

हम डीएम ऑफिस पहुंचे और दादा ने मेरे फोन से येलियप्पा को फोन लगाया तो पता चला कि वे 10 मिनट में आ रहे हैं। फिर उनका फोन आया कि आज प्रदर्शन नहीं हो रहा है। दादा के चेहरे पर इस बात से मायूसी आ गई। उन्होंने कुछ देर सोचने के बाद पूछा कि आप मेरे दोस्त के यहां चलोगे? मुझे तो उनकी हर बात पर जैसे हां ही कहना था। हम बस स्टॉप पहुंचे तो पता चला कि बस 2 घंटे बाद की है। हम कुछ देर बस स्टॉप पर ही बैठे रहे। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आप मेरे गांव जाना चाहेंगी। हम तुरंत ही एक बस पकड़कर उनके गांव के लिए रवाना हो गए। उनके गांव करोड़ी पहुंचते ही मैंने देखा कि वहां लोग उन्हें नमस्कार करते हुए जा रहे थे। कुछ रुककर बातचीत भी कर रहे थे। हम उनके भाई के घर कुछ देर रुके जहां उन्होंने चाय पी और मैंने छास। फिर उन्होंने एक और फोन लगाया और कुछ देर बाद उनके एक मित्र ने अपनी गाड़ी से हमें मंज़िल तक छोड़ दिया। और इस तरह हम गंगाराम जी के घर पहुंच गए। गंगाराम उनके विद्यार्थी रह चुके थे और उन्हें सर कहकर बुलाते थे। वे ऑर्गेनिक फॉर्मिंग दादा से सीख रहे थे और कर रहे थे। इस काम में उनका बेटा शेखर भी उनकी मदद कर रहा था।

शिवाजी दादा के लिए चिंता का विषय है मिट्टी। वे कहते हैं कि मिट्टी की उर्वरता जा रही है और मिट्टी खराब हो रही है और अगर मिट्टी खराब होगी तो फसल को प्रभावित करेगी। इसलिए उनका मानना था कि मिट्टी की उर्वरता को सुधारना चाहिए। और इसके लिए दादा के अनुसार जैविक खेती (organic farming, natural farming) ही एक मात्र तरीका है। गंगाराम ने अपने खेत में इस वक्त गन्ने लगाए हुए हैं। वे रासायनिक उर्वरकों (chemical fertilizers) की जगह खाद, गुड़, गोबर और कुछ चीज़ों के मिश्रण का इस्तेमाल करते हैं। दादा हर हफ्ते उनके खेत देखने आते हैं और उन्हें सुझाव देते हैं। जब हम गए तो उन्होंने शेखर को बताया कि उन्होंने गन्ने बहुत पास-पास लगा दिए हैं जिससे जब वो बड़े होंगे तो एक की छांव दूसरे पर आएगी और उससे सबको धूप नहीं मिलेगी। दादा के दोस्त जीवन भोंसले जैविक खाद (organic manure) खरीदते हैं या बनाते हैं और उन्होंने वेजिटेबल गार्डन (home vegetable garden) बनाने का भी प्लान किया है। साथ ही साथ खेत के कोनों पर पपीते के पेड़ लगे हैं। मुझे जाते वक्त उन्होंने गन्ने और पपीते दिए।

इसके अलावा गंगाराम ने मधुमक्खी पालन ([beekeeping], [honey production])  भी किया है। यह शहद उत्पादन के साथ परागण (pollination) में भी मदद करता है। दादा चाहते हैं कि बाज़ार पर निर्भरता बिलकुल खत्म हो जाए और ज़रूरत का सारा सामान खुद ही उगाया (self-sustainable farming) जाए। दादा का प्लान खेतों के आसपास और स्कूल बाउंड्री पर पेड़ लगाना है। उन्होंने अब तक 15,00,00,00 पेड़ लगाए हैं। उन्होंने गांव में Gliricidia के कई पेड़ लगाए हैं जिसमे गुलाबी रंग के बहुत खूबसूरत फूल आते हैं। इसके अलावा उनकी योजना है कि स्कूलों (fruit tree plantation in schools) में बच्चे मिलकर आम, काजू और आंवला के पेड़ लगाएं।

जब आप इस तरह का काम करते हैं जहां आप आम लोगों के हक के लिए लड़ते हैं, सवाल करते हैं तो आपको नापसंद करने वाले लोग भी होते हैं। एक बार दादा ने कुछ शिक्षकों के क्लास में समय पर ना आने पर डीएम से बात की। कुछ दिनों बाद दादा बस में गांव जा रहे थे और तब उस शिक्षक ने उन्हें बस से उतरने को कहा। उतरने पर वह कहने लगे कि शिकायत क्यों की और उन्हें खाई में धक्का दे दिया। इत्तेफाकन खेत में काम कर रहे लोग समय पर आ गए और उन्हें बचा लिया। दादा कहते हैं कि उन्हें प्यार करने वालों का आंकड़ा, नापसंद करने वालों के मुकाबले कहीं अधिक अधिक है।  इतना कि जब हम गांव देखने जाने के पहले बेलगावी बस अड्डे पर नाश्ता करने के लिए गए तो रेस्टोरेंट वाले ने बहुत इसरार करने पर भी हमसे पैसे नहीं लिए।

अपने जीवन में मैंने पहली बार किसी इंसान की ताकत को देखा, ऐसी ताकत जो दूसरों को दबाती नहीं, उठाती है (grassroots leadership); जिसमें ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं, सहयोग के साथ आगे बढ़ना होता है; जिसमें नफरत की जगह प्रेम और अन्याय की जगह न्याय की भावना ([social justice], [non-violent activism]) है। मेरे लिए तो दादा वह मशाल हैं जो न जाने कितनों के जीवन रोशन कर चुके हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मिलिए कुछ नई समुद्री प्रजातियों से

गाहे-बगाहे आने वाली सुर्खियों से हमें इतना तो पता है कि वैज्ञानिक अन्य ग्रहों पर लगातार नए तरह के जीवन की तलाश में लगे हुए हैं। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि अभी हमारी पृथ्वी पर ही मौजूद जीवन के कई रूप अनदेखे, अनखोजे हैं, खासकर समुद्री (या जलीय) जीवन (marine biodiversity) रूप। ऐसा अनुमान है कि हम अब तक जितने भी समुद्री जीवन के बारे में जानते हैं वह वास्तव में मौजूदा जैव-विविधता का मात्र 10 प्रतिशत (ocean species discovery) है।

वैज्ञानिक अनखोजे जीवों की खोज में भी हैं; कभी इरादतन खोजते हुए तो कभी इत्तेफाकन वैज्ञानिकों को नई-नई प्रजातियां (new marine species) मिलती हैं। दिलचस्प बात है कि गैर-मुनाफा संस्था ओशिएन सेंसस द्वारा चलाए जा रहे एक खोजी अभियान ने तकरीबन 850 नई समुद्री प्रजातियां खोजी (deep sea exploration) हैं। वाकई कितना कुछ खोजा जाना बाकी है। तो चलिए जानते हैं पिछले कुछ समय में विभिन्न समूहों द्वारा खोजी गई कुछ नई दिलचस्प समुद्री प्रजातियों के बारे में।

अकॉर्डियन कृमि – सबसे पहले इसे 2021 में देखा गया था। स्पेन की अराउसा नदी के मुहाने से लगभग एक किलोमीटर दूर और महज 32 मीटर गहराई पर एक गोताखोर ने इसे एक सीपी के नीचे देखा था। इसकी खास बात है कि यह अकॉर्डियन की तरह फैल-सिकुड़ (accordion worm discovery) सकता है। फैलने पर इसकी पूरी लंबाई 25 सेंटीमीटर होती है, और सिकुड़ने पर यह मात्र 5 सेंटीमीटर लंबा रह जाता है। सिकुड़ने पर इसके शरीर पर छल्ले दिखाई देते हैं, जिनकी संख्या करीब 60 है। इन्हीं छल्लों की वजह से इसे आम बोलचाल में अकॉर्डियन कृमि कहा गया है, वैसे औपचारिक द्विनाम पद्धति में इसे पैरारोसा विगारे (Pararosa vigarae) नाम दिया गया है। यह रिबन कृमि की एक नई प्रजाति है। हालांकि इसे रिबन कृमि की एक नई प्रजाति कहना इतना सीधा काम नहीं था। क्योंकि सभी रिबन कृमि देखने में एक जैसे दिखते हैं। उन्हें मात्र देखकर अलग-अलग प्रजाति नहीं कहा जा सकता। इसलिए डीएनए अनुक्रमण (DNA barcoding marine species) किया गया और हाल ही में वैज्ञानिकों ने इसे एक नई प्रजाति की मान्यता दी है।

पिगमी पाइपहॉर्स – दक्षिण अफ्रीका के नज़दीक हिंद महासागर में पिगमी पाइपहॉर्स (pygmy pipehorse Indian Ocean) की यह प्रजाति मिली है। महज़ 4 सेंटीमीटर लंबा यह जीव सीहॉर्स, सीड्रैगन और पाइपफिश का सम्बंधी है और सिंग्नेथिडे कुल का सदस्य है, जिसे साइलिक्स नोसी (Cylix nkosi) नाम दिया गया है। अपने सम्बंधियों की तरह यह भी छद्मावरणधारी है। यानी इसका हुलिया अपने परिवेश, अपने प्राकृतवास (कोरल रीफ) से इतना मेल खाता है कि इसे आसानी से नहीं ढूंढा जा सकता है; इसे देखने के लिए गोताखोर और इसके शिकारियों को पैनी निगाहें चाहिए (camouflage marine animal)। खास बात यह है कि इस वंश का यह पहला सदस्य है जो अफ्रीका के नज़दीकी समुद्र में मिला है, वर्ना अब तक इसके बाकी सदस्य न्यूज़ीलैंड के पास ठंडे क्षेत्रों में पाए गए हैं।

गिटार शार्क – मोज़ाम्बिक और तंज़ानिया के नज़दीकी समुद्र में करीब 200 मीटर की गहराई पर गिटार शार्क (guitarfish discovery Africa) की एक नई प्रजाति खोजी गई है। इस प्रजाति के मिलने के बाद गिटार शार्क प्रजातियों की कुल संख्या 38 हो गई है (Rhynobatos species list)। गिटार शार्क की खास बात उनका चपटा शरीर और चौड़ा सिर है, और इसी बनावट के कारण उन्हें गिटार शार्क कहा जाता है। इस प्रजाति को डेविड एबर्ट (David Ebert shark expert) ने खोजा है जिन्होंने अपना करियर अनभिज्ञ शार्क प्रजातियों को खोजने में लगाया हुआ है। इस गिटार शार्क को राइनोबाटोस कुल में रखा गया है। लेकिन दुखद बात यह है कि गिटार शार्क की दो-तिहाई प्रजातियां जोखिमग्रस्त (endangered shark species) की श्रेणी में हैं।

एक तरह का शंख टूरीड्रूपा मैग्नीफिका – प्रशांत महासागर में स्थित दो द्वीप न्यू कैलेडोनिआ और वनौतू के नज़दीक समुद्र में करीब 500 मीटर की गहराई पर यह प्रजाति (Turidrupa magnifica shell) मिली है। शिकारी प्रवृत्ति का यह गैस्ट्रोपॉड हालिया पहचानी गई 100 टूरीड गैस्ट्रोपॉड में से एक है। इस शंख की खासियत इसके विषैले और नुकीले दांत (venomous sea snail) हैं, जिन्हें यह अपने शिकारियों में चुभोकर उनका शिकार करता है।

स्क्वैट लोबस्टर – श्मिट ओशिएन इंस्टीट्यूट के खोजी अभियान में यह चिली के समुद्री तट के नज़दीक स्थित नाज़्का रिज (squat lobster Nazca Ridge) पर लगभग 400 मीटर की गहराई पर मिला है। वैज्ञानिकों ने इसे गैलेथिया वंश (Galathea genus crustacean) के सदस्य के रूप में पहचाना है। दिलचस्प बात यह है कि गैलेथिया वंश का यह पहला सदस्य है जो दक्षिण-पूर्वी प्रशांत महासागर में पाया गया है (new crustacean species discovery)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीके के बावजूद बढ़ता चिकनगुनिया का खतरा

चिकनगुनिया एक वायरस से फैलने वाली बीमारी है। यह एडीज़ मच्छर, खासकर एशियन टाइगर मच्छर (Aedes albopictus), के काटने से फैलती है जो गर्म और नम जगहों में आसानी से पनपता है। इसके लक्षणों में तेज़ बुखार, जोड़ों में सूजन, सिरदर्द और त्वचा पर चकत्ते आना शामिल हैं। ज़्यादातर लोग एक हफ्ते में ठीक हो जाते हैं, लेकिन कभी-कभी दर्द कई महीनों या सालों तक बना रह सकता है। कुछ दुर्लभ मामलों में यह बीमारी दिल या दिमाग में सूजन जैसे गंभीर हालात (chikungunya complications) पैदा कर सकती है।

चिंताजनक बात यह है कि यह बीमारी अब फिर से रीयूनियन नाम के एक द्वीप पर तेज़ी से फैल (chikungunya outbreak) रही है। लगभग 20 वर्ष पूर्व यहां चिकनगुनिया का बड़ा प्रकोप हुआ था, और अब फिर से 50,000 मामले और 12 मौतें हो चुकी हैं। यह बीमारी मॉरीशस जैसे आसपास के द्वीपों तक भी पहुंच गई है।

रीयूनियन द्वीप पर इसके दोबारा फैलने के पीछे वायरस में हुआ एक उत्परिवर्तन (virus mutation) बताया जा रहा है। यह उत्परिवर्तन 2005–06 की भीषण महामारी (2006 chikungunya epidemic) के दौरान देखा गया था, और इन बीस सालों में इस वायरस के विकसित होते जाने के बावजूद यह उत्परिवर्तन बरकरार है।

विशेषज्ञों का मानना है कि समय भी एक अहम कारण है। पिछले बड़े प्रकोप को फैले लगभग 20 साल हो गए हैं, यानी अब एक पूरी पीढ़ी है जिसने न तो वायरस का पहले सामना किया है और न ही उनके शरीर में कोई प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता (lack of immunity) बनी है। इसके अलावा, द्वीप पर बड़ी संख्या में बुज़ुर्ग लोग रहते हैं (जिनमें कई युरोप से रिटायर होकर आए हैं), उनमें भी इस वायरस से लड़ने की क्षमता नहीं है।

पिछले प्रकोप की तुलना में इस बार नई बात यह है कि इसके खिलाफ अब एक टीका Ixchiq (chikungunya vaccine) मौजूद है, जिससे वायरस को रोकने की उम्मीद थी। लेकिन हाल ही में 65 साल से अधिक उम्र के लोगों में इसके कुछ खतरनाक असर दिखने के चलते बुज़ुर्गों को यह टीका देने पर फिलहाल रोक लगाई गई है, जिससे बीमारी को काबू करना मुश्किल हो गया है।

चिकनगुनिया के लिए बना यह टीका दुर्बलीकृत वायरस (live attenuated vaccine) से बनाया गया है। इसे पिछले साल कई देशों में 18 साल और उससे अधिक उम्र के लोगों के लिए मंज़ूरी मिली थी, और हाल ही में इसे 12 से 17 साल के किशोरों के लिए भी स्वीकृति मिल गई थी। रीयूनियन द्वीप पर सबसे पहले बुज़ुर्गों, जो कि सबसे अधिक खतरे में होते हैं, को यह टीका दिया भी गया। लेकिन इसके गंभीर दुष्प्रभाव सामने आने लगे।

इन घटनाओं के बाद, युरोपियन मेडिसिन एजेंसी और फ्रांस की स्वास्थ्य एजेंसी ने 65 साल और उससे ऊपर के लोगों के लिए इस टीके के उपयोग पर रोक लगा दी है। जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक अमेरिकी एजेंसी सीडीसी (CDC guidelines) ने भी 60 से ज़्यादा उम्र वालों को टीका न देने की सलाह दी है।

इस बीच, चिकनगुनिया अब सिर्फ एक स्थानीय समस्या नहीं रह गई है। फ्रांस में हर हफ्ते करीब 100 मामले सामने आ रहे हैं, जिनमें ज़्यादातर वे लोग हैं जो रीयूनियन और मॉरिशस से छुट्टी मनाकर लौटे हैं। ऐसे ही अन्य देशों में फैलने का खतरा भी है। पहले भी ऐसा हो चुका है जब यह वायरस भारत तक फैल गया था और यहां 10 लाख से ज़्यादा लोग संक्रमित (chikungunya in India) हुए थे।

बहरहाल, कुछ संकेत मिल रहे हैं कि रीयूनियन में यह प्रकोप अब धीमा पड़ रहा है। जहां पहले प्रति सप्ताह लगभग 20,000 मामले सामने आते थे, वहीं मई की शुरुआत तक घटकर 14,000 हो गए हैं। जनवरी में महामारी घोषित किए जाने के बाद से अब तक लगभग 1,74,000 संदिग्ध मामले दर्ज किए जा चुके हैं।

यह प्रकोप हमें याद दिलाता है कि पुराने खतरे कभी भी दोबारा लौट सकते हैं, और शायद अधिक ताकतवर होकर। साथ ही, हर समाधान के साथ नई चुनौतियां भी आती हैं। आज दुनिया पहले से कहीं बेहतर तैयार है, लेकिन फिर भी किसी भी महामारी पर काबू पाने के लिए तीन चीज़ें ज़रूरी हैं: तेज़ और समय पर कार्रवाई, स्पष्ट और भरोसेमंद जानकारी और साथ ही ऐसे उपाय जो सभी, खासकर सबसे कमज़ोर लोगों की पहुंच में हों तथा सुरक्षित व असरदार हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु संकट के असली ज़िम्मेदार कौन ?

क हालिया अध्ययन से पता चला है कि 1990 के बाद से बढ़ी वैश्विक तपन (global warming) के दो-तिहाई हिस्से के लिए दुनिया के सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोग ज़िम्मेदार हैं, जिससे पता चलता है कि जलवायु संकट (climate crisis) के संदर्भ में कैसी असमानता है। हालांकि वैज्ञानिकों को यह तो पता था कि अमीर लोग अधिक कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) करते हैं, लेकिन इस अध्ययन ने आंकड़ों के ज़रिए बताया है कि कौन-कौन कितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं और जलवायु परिवर्तन (climate change) के लिए कितना ज़िम्मेदार हैं। ये नतीजे नेचर क्लाइमेट चेंज पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल (climate model) का उपयोग किया और यह पता लगाया कि अगर सबसे अमीर लोगों – शीर्ष 10 प्रतिशत, 1 प्रतिशत, और 0.1 प्रतिशत – द्वारा किया जाने वाला उत्सर्जन हटा दिया जाए तो वैश्विक तापमान में कितना बदलाव आएगा। निष्कर्ष चौंकाने वाले थे: 2020 में, वैश्विक तापमान 1990 के मुकाबले 0.61 डिग्री सेल्सियस अधिक था। इस वृद्धि का 65 प्रतिशत हिस्सा शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों (सालाना आय लगभग 41 लाख रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) द्वारा किए जाने वाले उत्सर्जन से जुड़ा था। शीर्ष 1 प्रतिशत लोग, (सालाना आय 1.4 करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) तापमान वृद्धि के 20 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार थे। और शीर्ष 0.1 प्रतिशत (लगभग 8,00,000 लोग, वार्षिक आय 5.13 करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) तापमान वृद्धि के 8 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार थे।

औसत की तुलना में शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों ने वैश्विक तपन में 6.5 गुना अधिक, शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों ने 20 गुना अधिक और शीर्ष 0.1 प्रतिशत लोगों ने 76 गुना अधिक योगदान दिया।

इस अध्ययन के सह-लेखक कार्ल-फ्रेडरिक श्लेसनर के अनुसार यदि सभी ने दुनिया की सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी की तरह उत्सर्जन किया होता तो 1990 के बाद हमें बहुत अधिक गर्मी नहीं महसूस होती। दूसरी ओर, अगर सभी लोगों ने शीर्ष 10 प्रतिशत की तरह उत्सर्जन किया होता तो दुनिया पहले ही 2.9 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो चुकी होती।

अध्ययन की मुख्य लेखक सारा शॉन्गार्ट का कहना है कि मामला सिर्फ आंकड़ों का नहीं है। अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जलवायु सम्बंधी चरम घटनाएं (climate disasters) केवल वैश्विक उत्सर्जन से नहीं बल्कि व्यक्तियों की विशिष्ट क्रियाओं और संपत्ति से भी होती हैं। यह शोध अमीरों पर जलवायु कर (carbon tax on rich) और विकासशील देशों के लिए अधिक जलवायु निधि (climate finance for developing countries) की आवश्यकता को मज़बूत करता है।

अध्ययन याद दिलाता है कि सबसे अधिक प्रभावित लोग अक्सर जलवायु आपदाओं का कारण नहीं होते। इसलिए कोई भी प्रभावी जलवायु नीति (climate policy) इस असंतुलन को ध्यान में रखते हुए न्यायपूर्ण होनी चाहिए। सबसे अमीर लोगों के कार्बन पदचिह्न (carbon footprint) को कम करना भावी नुकसान को कम करने का सबसे शक्तिशाली साधन होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सामाजिक कार्यकर्ता शिवाजी दादा – भाग 1

निधि सोलंकी

गांधीवादी विचारों वाले शिवाजी दादा ने अपना संपूर्ण जीवन सामाजिक भलाई के कामों में लगाया। उन्होंने लोगों की अनेक समस्याओं के समाधान दिए एवं उनके बेहतर भविष्य के लिए नींव रखी। अपने कार्यों के लिए पुरस्कारों से सम्मानित शिवाजी दादा से मेरी मुलाकात मेरी एक फील्ड यात्रा के दौरान हुई और मैं उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सकी। उनकी सादगी और कार्यों ने मुझे उनके बारे में लिखने के लिए प्रेरित किया। प्रस्तुत है यहां दो लेखों की शृंखला में उनके कार्यों और जीवन का परिचय।

म तौर पर हम सभी रोटी, कपड़ा, मकान, और जाने किस-किस चीज़ के पीछे पूरी ज़िंदगी भागते रहते हैं। लेकिन कुछ समय पहले एक शख्सियत से मेरा परिचय इन शब्दों में कराया गया था: “इनका कोई घर नहीं है और पूरा गांव ही इनका घर है।” और वह शख्सियत थे शिवाजी दादा।

शिवाजी दादा ने गांववासियों की अनगिनत समस्याओं के लिए न केवल संघर्ष किया, बल्कि उनके समाधान के लिए ठोस कदम भी उठाए। पानी की समस्या के लिए उन्होंने गांववासियों के साथ मिलकर वॉटरशेड (watershed development), कुएं और तालाब बनवाए और लगभग 1.50 लाख पेड़ लगवाए। बच्चों के लिए नाइट स्कूल (night schools in rural India) शुरू किए, बालवाड़ी शुरू की, इत्यादि। और अभी वे आर्गेनिक फॉर्मिंग (organic farming) के काम में ज़ोर-शोर से लगे हुए हैं।

शिवाजी दादा न केवल गांधी की बातों को मानते हैं, बल्कि उन्हें जीते भी हैं। व्यक्तित्व के सरल शिवाजी दादा का पहनावा भी उतना ही साधारण है। वैसे उनका पूरा नाम शिवाजी कागनीकर है, लेकिन प्रेम से सभी उन्हें ‘शिवाजी दादा’ कहकर बुलाते हैं। उनका जन्म बेलगांव शहर के पास करोड़ी नामक गांव में हुआ था। अपनी मातृभाषा मराठी के अलावा वे कन्नड़, हिंदी और अंग्रेज़ी भी जानते हैं। मुश्किल हालातों एवं गरीबी में बड़े हुए शिवाजी ने कॉलेज के दूसरे वर्ष में ही पढ़ाई छोड़ दी थी ताकि वे लोगों के लिए कुछ कर सकें। अपने जीवन में उन्होंने जातिगत भेदभाव (caste discrimination in India) झेला। इसके बाद भी जब दादा को अपना भविष्य बनाने का मौका मिला, ऐसा मौका जिससे उनके जीवन की सारी मुश्किलें दूर हो जाती, तो उन्होंने वह मौका हाथ से जाने दिया जिसके कारण लोग उन्हें पागल भी कहते थे। दादा पढ़ाई छोड़ने के ठीक बाद ही विनोबा भावे द्वारा शुरू किए सर्वोदय आंदोलन (Sarvodaya Movement) में शामिल हो गए थे।

इसके बाद उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता श्रीरंग कामत और बाद में उनके बेटे दिलीप कामत के साथ मिलकर कामगारों के हक के लिए कई प्रोटेस्ट किए। उसी दौरान उनकी मुलाकात वसंत पल्शीकर से हुई, जो उनके मार्गदर्शक बने। शिवाजी दादा मज़दूरों का समर्थन करते थे, लेकिन मालिकों से घृणा नहीं करते थे। वे कहते थे कि मज़दूरों के हक के लिए लड़ना ज़रूरी है, लेकिन मालिकों से नफरत का रास्ता अपनाना ठीक नहीं। और इस वजह से लोग उन्हें एंटी कम्युनिस्ट (anti-communist views) कहते थे। शिवाजी दादा ने उस काम को छोड़ देना ही ठीक समझा।

इसके बाद वे एक पादरी से मिले, जो चर्च में प्रार्थना करने की बजाय लोगों के लिए कुछ करने में यकीन करते थे। शिवाजी दादा ने उनके साथ मिलकर ‘जन जागरण’ नामक एक संस्था की शुरुआत की। इसके अंतर्गत उन्होंने स्व-सहायता समूह, वॉटरशेड, वृक्षारोपण जैसे काम किए। लेकिन बाद में उन्होंने देखा कि स्व-सहायता समूहों (self-help groups) में भी भ्रष्टाचार होने लगा है। उन्होंने ऐसे कई काम सालों तक करने के बाद छोड़ दिए क्योंकि वे ऐसी संस्थाओं का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे, जो लोगों के लिए शुरू की गई थीं लेकिन आगे चलकर लोगों के लिए नहीं रहीं। जन जागरण के लिए इतना काम करने के बाद भी उनका ज़िक्र वेबसाइट या संस्था के वेबपेज (NGO website recognition) पर नहीं है। पूछने पर उन्होंने कहा “मुझे फर्क नहीं पड़ता कि मेरा नाम हो या नहीं, मैं बस काम करते रहना चाहता हूं।”

60 वर्ष की उम्र तक वे साइकिल से ही गांव आया-जाया करते थे। लेकिन डायबिटीज़ (diabetes) और ब्लड प्रेशर (blood pressure) के बाद से उन्होंने साइकिल चलाना छोड़कर बस से ही आना-जाना शुरू किया। वे अपना एक छोटा सा झोला, जिसमें किताबें, कागज़ और उनकी दवाइयां होती हैं, उठाए इधर-उधर काम करने में लगे रहते हैं। वे जहां भी जाते हैं, लोगों को काम करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। उन्होंने मेरे सामने अपने एक पुराने स्टूडेंट को कॉल किया, जो अभी किसी इंटरनेशनल स्कूल (international school construction) की बिल्डिंग बनाने में काम कर रहा है, और कहा, “हमें जल्दी ही कलिका केंद्र फिर से शुरू करना है क्योंकि निधि ताई आई हैं, खास उनके लिए।” अब आप सोच रहे होंगे कि ये कलिका केंद्र क्या है?

दरअसल, बेलगाम और उसके आसपास के गांव में एक समस्या शिक्षा की थी। बहुत से गांवों में स्कूल नहीं थे। जहां स्कूल थे, वहां बच्चे स्कूल नहीं जा रहे थे। ऐसे में रात में स्कूल शुरू करने का विचार आया। इसे ही कलिका केंद्र कहा गया। कलिका केंद्र बच्चों के लिए शिक्षा पाने का एक अवसर तो था ही, महिलाओं के लिए अपनी समस्याएं साझा करने का माध्यम भी था।

कई दशकों तक काम करने के बाद, 2019 में कर्नाटक राज्य ने शिवाजी दादा को राज्य के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान, यानी राज्योत्सव पुरस्कार (Rajyotsava award Karnataka) से सम्मानित किया। उस वक्त एक संस्था द्वारा दिए गए फंड से गांवों में नाइट स्कूल चल रहे थे। फंड की कमी के कारण नाइट स्कूल के कार्यकर्ताओं को पर्याप्त पैसा नहीं मिल रहा था।

किसी ने इसी बात को मुद्दा बनाकर कहा कि शिवाजी दादा तो पुरस्कार बटोर रहे हैं, लेकिन तुम्हें इतना कम पैसा दिलवा रहे हैं। और इसी कारण लोगों ने काम बंद कर दिया। दादा के बहुत समझाने पर भी वे नहीं माने। इस बात से दादा को बहुत ठेस पहुंची क्योंकि वे नाइट स्कूल के महत्व को न केवल समझते थे, बल्कि इतने सालों में उन्होंने इसके प्रभाव को भी देखा था।

शिवाजी दादा के लिए यह चिंता का विषय था, और एक दिन उनकी मुलाकात उनके पुराने विद्यार्थी से हुई। बातचीत में उस विद्यार्थी ने दादा को बताया कि कैसे नाइट स्कूल ने उसकी मदद की और कहा: “आपने मुझे तो लिखना-पढ़ना सिखा दिया, लेकिन मेरे बच्चों का क्या होगा?” यह सुनते ही दादा ने पुनः स्कूल शुरू करने का निर्णय लिया।

उनकी इसी लगन के चलते कुछ लोग दादा को बेलगाम का अन्ना (Belgaum Anna) भी कहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

शिवाजी दादा के बारे में कुछ और बातें अगली कड़ी में

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सराहनीय व्यक्तित्व अन्ना मणि

संकलन: आभा सूर

न्ना मणि दक्षिण भारत की एक पूर्व रियासत, त्रावणकोर रियासत, के एक समृद्ध परिवार में पली-बढ़ीं। यह रियासत अब केरल का हिस्सा है। 1918 में जन्मी अन्ना मणि आठ भाई-बहनों में सातवीं थीं। उनके पिता एक सिविल इंजीनियर थे, और उनके इलायची के बड़े बागान थे। उनका परिवार प्राचीन सीरियाई ईसाई चर्च से सम्बंधित था; हालांकि उनके पिता ताउम्र अनिश्वरवादी रहे।

मणि का परिवार ठेठ उच्च-वर्गीय पेशेवर परिवार था, जहां बचपन से ही लड़कों की तर्बियत बेहतरीन करियर बनाने के हिसाब से की जाती थी, जबकि बेटियों को शादी के लिए तैयार किया जाता था। लेकिन अन्ना मणि ने इसकी कोई परवाह नहीं की। उनके जीवन के शुरुआती साल किताबों में डूबे हुए बीते। आठ साल की उम्र तक उन्होंने स्थानीय सार्वजनिक लाइब्रेरी में उपलब्ध लगभग सभी मलयालम किताबें पढ़ ली थीं और बारह साल की उम्र तक उन्होंने लगभग सभी अंग्रेज़ी किताबें पढ़ ली थीं। जब उनके आठवें जन्मदिन पर उनके परिवार ने उन्हें पारंपरिक उपहार स्वरूप हीरे की बालियां दीं तो उन्होंने यह उपहार लेने से इन्कार कर दिया और इसके बदले एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका (Encyclopaedia Britannica) को चुना। किताबों ने उन्हें नए विचारों से परिचित कराया और उनमें सामाजिक न्याय (social justice) की गहरी भावना भर दी, जिसने उनके जीवन को प्रभावित किया और आकार दिया।

1925 में, वाइकोम सत्याग्रह (Vaikom Satyagraha) अपने चरम पर था। दरअसल वाइकोम शहर के एक मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के बगल वाली सड़क से दलितों के आने-जाने पर रोक लगाई थी। पुजारियों के इस निर्णय के विरोध में त्रावणकोर के सभी जाति और धर्म के लोग इकट्ठा हुए थे। महात्मा गांधी लोगों के इस सविनय अवज्ञा आंदोलन (वाइकोम सत्याग्रह – civil disobedience movement) को अपना समर्थन देने के लिए वाइकोम आए थे। सत्याग्रह का आदर्श वाक्य, ‘एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर’ प्रगतिवादियों का नारा बन गया था। उनकी मांग थी कि सभी हिंदुओं को, चाहे वे किसी भी जाति के हों, राज्य के मंदिरों में प्रवेश दिया जाए। इस सत्याग्रह ने, और विशेष रूप से गांधीजी की शामिलियत ने, युवा और आदर्शवादी अन्ना को बहुत प्रभावित किया।

बाद के सालों में, जब राष्ट्रवादी आंदोलन ने गति पकड़ी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता (complete independence) को अपना लक्ष्य बनाया तो अन्ना मणि धीरे-धीरे राष्ट्रवादी राजनीति से आकर्षित हुईं। हालांकि वे किसी विशेष आंदोलन में शामिल नहीं हुईं, लेकिन उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी सहानुभूति के प्रतीक के रूप में खादी पहनना शुरू कर दिया। राष्ट्रवाद की सशक्त भावना ने उनमें अपनी स्वछंदता के लिए लड़ने की तीव्र इच्छा को भी मजबूत किया। जब उन्होंने अपनी बहनों के नक्श-ए-कदम, जिनकी शादी किशोरावस्था में ही हो गई थी, पर चलने के बजाय उच्च शिक्षा (higher education) हासिल करने की ठानी तो उनके परिवार ने न तो कोई कड़ा विरोध किया और न ही कोई हौसला दिया।

अन्ना मणि चिकित्सा की पढ़ाई करना चाहती थीं, लेकिन जब यह संभव नहीं हुआ तो उन्होंने भौतिकी (physics) पढ़ने का विकल्प चुना क्योंकि वे इस विषय में अच्छी थीं। अन्ना मणि ने मद्रास (अब चेन्नई) के प्रेसीडेंसी कॉलेज (Presidency College, Chennai) में भौतिकी ऑनर्स प्रोग्राम में दाखिला लिया। 1940 में, कॉलेज की पढ़ाई समाप्त करने के एक साल बाद अन्ना मणि को भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science, IISc) में भौतिकी में शोध करने के लिए छात्रवृत्ति मिली और उन्हें सी. वी. रमन की प्रयोगशाला में स्नातक छात्र के रूप में लिया गया। रमन की प्रयोगशाला में, अन्ना मणि ने हीरे और माणिक की स्पेक्ट्रोस्कोपी (spectroscopy of diamonds and rubies) पर काम किया। उस समय रमन की प्रयोगशाला हीरे के अध्ययन में लगी हुई थी क्योंकि उस समय रमन का विवाद चल रहा था – मैक्स बोर्न के साथ क्रिस्टल डायनेमिक्स (crystal dynamics) के सिद्धांत पर और कैथलीन लोन्सडेल के साथ हीरे की संरचना पर। रमन के पास भारत और अफ्रीका के तीन सौ हीरे थे और उनके सभी शोधार्थी हीरे के किसी न किसी पहलू पर काम कर रहे थे।

अन्ना मणि ने तीस से अधिक विविध हीरों के प्रतिदीप्ति (fluorescence) वर्णक्रम, अवशोषण वर्णक्रम और रमन वर्णक्रम रिकॉर्ड करके विश्लेषण किया। साथ ही उन्होंने हीरों के वर्णक्रम पर तापमान के प्रभाव और ध्रुवीकरण प्रभावों को भी देखा। प्रयोग लंबे और श्रमसाध्य थे: (हीरे) क्रिस्टल को तरल हवा के तापमान (-196 डिग्री सेल्सियस) पर रखा जाता था, और कुछ हीरों की दुर्बल चमक के वर्णक्रम को फोटोग्राफिक प्लेट पर रिकॉर्ड करने के लिए पंद्रह से बीस घंटे इस तापमान पर रखना पड़ता था। अन्ना मणि ने प्रयोगशाला में कई घंटों तक काम किया, कभी-कभी तो उन्होंने रात-रात भर काम किया।

1942 से 1945 के बीच उन्होंने हीरे और माणिक की कांति पर पांच शोधपत्र (research papers) प्रकाशित किए। इन शोधपत्रों का कोई सह-लेखक नहीं था, सभी अकेले उन्होंने लिखे थे। अगस्त 1945 में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय में अपना पीएचडी शोध प्रबंध प्रस्तुत किया, और उन्हें इंग्लैंड में इंटर्नशिप के लिए सरकारी छात्रवृत्ति दी गई। हालांकि, अन्ना मणि को कभी भी पीएचडी की उपाधि नहीं दी गई जिसकी वे हकदार थीं। मद्रास विश्वविद्यालय, जो उस समय औपचारिक रूप से भारतीय विज्ञान संस्थान में किए गए कार्य के लिए डिग्री प्रदान किया करता था, का कहना था कि अन्ना मणि के पास एमएससी की डिग्री नहीं है और इसलिए उन्हें पीएचडी उपाधि नहीं दी जा सकती। मद्रास विश्वविद्यालय ने इस बात को नज़रअंदाज किया कि अन्ना मणि ने भौतिकी ऑनर्स और रसायन विज्ञान ऑनर्स (chemistry honours) में ग्रेजुएट किया है, और अपनी अंडर-ग्रेजुएट की डिग्री के आधार पर भारतीय विज्ञान संस्थान में ग्रेजुएट अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति हासिल की है। उनका संपूर्ण पीएचडी शोध प्रबंध आज तक रमन शोध संस्थान (Raman Research Institute Museum) के संग्रहालय में अन्य जिल्दबंद शोध प्रबंधों के साथ रखा हुआ है, बिना इस भेद के कि अन्ना मणि को इस शोधकार्य के बावजूद पीएचडी डिग्री नहीं मिली। हालांकि, अन्ना मणि ने इस अन्याय के खिलाफ कोई गिला-शिकवा नहीं पाला, और ज़ोर देकर यही कहा कि पीएचडी डिग्री न होने से उनके काम/जीवन पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

रमन प्रयोगशाला में अपना शोध कार्य पूरा करने के तुरंत बाद वे इंग्लैंड चली गईं। हालांकि उनका मन भौतिकी में अनुसंधान कार्य करने का था, लेकिन उन्होंने मौसम सम्बंधी उपकरणों (meteorological instruments) में विशेषज्ञता हासिल की क्योंकि उस समय उनके लिए यही एकमात्र छात्रवृत्ति उपलब्ध थी।

अन्ना मणि 1948 में स्वतंत्र भारत लौट आईं और पुणे के भारतीय मौसम विभाग (India Meteorological Department, IMD) में शामिल हो गईं। विभाग में वे विकिरण उपकरणों के निर्माण की प्रभारी थीं। लगभग 30 साल के अपने करियर में उन्होंने वायुमंडलीय ओज़ोन (atmospheric ozone) से लेकर अंतर्राष्ट्रीय उपकरणों की तुलना की आवश्यकता, और मौसम सम्बंधी उपकरणों के राष्ट्रीय मानकीकरण जैसे विषयों पर कई शोधपत्र प्रकाशित किए। 1976 में वे भारतीय मौसम विभाग के उप महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुईं। इसके बाद वे रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट में तीन साल के लिए विज़िटिंग प्रोफेसर रहीं।

उन्होंने दो पुस्तकें भी लिखी हैं: दी हैंडबुक फॉर सोलर रेडिएशन डैटा फॉर इंडिया (1980) और सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया (1981)। उन्होंने भारत में पवन ऊर्जा (wind energy in India) के दोहन के लिए कई परियोजनाओं पर काम किया। बाद में, अन्ना मणि ने बैंगलोर के औद्योगिक उपनगर में एक छोटी-सी कंपनी शुरू की जो पवन गति और सौर ऊर्जा को मापने के उपकरण बनाती थी। अन्ना मणि का मानना था कि भारत में पवन और सौर ऊर्जा (solar energy) के विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में आपतित सौर ऊर्जा और पवन पैटर्न की विस्तृत जानकारी की ज़रूरत है। और उन्हें उम्मीद थी कि उनके कारखाने में बने उपकरण इस संदर्भ में काफी उपयोगी होंगे।

पर्यावरण के मुद्दों में रुचि और भागीदारी होने बावजूद अन्ना मणि ने खुद को कभी पर्यावरणवादी (environmentalist) के रूप में नहीं देखा। वे ऐसे लोगों को ‘कारपेट बैगर्स’ कहा करती थीं, जो हमेशा यहां से वहां और वहां से यहां डोलते रहते थे। वे एक स्थान पर टिके रहना पसंद करती थीं।

अपने जीवन और उपलब्धियों के बारे में अन्ना मणि का नज़रिया बहुत ही तटस्थ था। उन्होंने उस ज़माने में भौतिकी पढ़ने को कोई बड़ी बात नहीं माना, जिस ज़माने में भारत में गिनी-चुनी महिला भौतिकविद (women physicists) थीं। उन्होंने एक महिला वैज्ञानिक के रूप में अपने सामने आने वाली कठिनाइयों और भेदभाव को दिल पर नहीं लिया और ‘बेचारेपन’ की राजनीति से दूर ही रहीं, उससे घृणा ही की। लेकिन महिलाओं की क्षमता को सीमित करने वाली एवं महिला और पुरुषों की बौद्धिक क्षमताओं में अंतर बताने वाली, थोपी गई लैंगिक पहचान (gender bias) का उन्होंने लगातार सक्रियता से विरोध किया।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अन्ना मणि सफलता के ऐसे पड़ाव पर पहुंचीं जिसकी आकांक्षा चंद महिलाएं (या पुरुष) कर सकते हैं। वे उपलब्ध सीमित सांस्कृतिक दायरों से आगे गईं, और न केवल अपने लिए जगह बनाई और अपनी प्रयोगशाला बनाई, बल्कि अपनी एक वर्कशॉप, एक फैक्ट्री बनाई। (स्रोत फीचर्स)

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धान की फसल को बचाएगा एक खास जीन

चीन के वैज्ञानिकों ने हाल ही में धान से जुड़ी एक बड़ी खोज की है। उन्होंने धान में एक ऐसा प्राकृतिक जीन पाया है जो दिन-ब-दिन गर्मा रही जलवायु (climate change impact on rice) में भी फसल की गुणवत्ता और पैदावार को बढ़िया बनाए रख सकता है। इस जीन से गेहूं और मक्का जैसी अन्य फसलों (heat-tolerant crops) को भी फायदा हो सकता है।

गौरतलब है कि धान की फसल को गर्माहट तो चाहिए होती है लेकिन अगर रातें ज़्यादा गर्म हो जाएं, खासकर धान फूलने के समय(flowering stage in rice), तो फसल को नुकसान होता है। गर्म रातों के कारण धान के दाने ‘चॉक’ जैसे सफेद और भुरभुरे हो जाते हैं, कुटाई के वक्त ये दाने टूट जाते हैं, और पकने पर चिपचिपे स्वादहीन लगते हैं। यह समस्या अब ज़्यादा बढ़ रही है क्योंकि जलवायु परिवर्तन की वजह से रात का तापमान दिन की तुलना में दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है, खासकर एशिया और अफ्रीका के उन इलाकों में जहां धान उगाया जाता है (rice cultivation in Asia and Africa)।

2004 की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि रात का औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो धान की पैदावार 10 प्रतिशत तक घट सकती है (rice yield temperature effect)।

इसके समाधान के लिए 2012 में चीन की हुआझोंग एग्रीकल्चरल युनिवर्सिटी (Huazhong Agricultural University) के वनस्पति वैज्ञानिक यीबो ली और उनकी टीम ने धान की ऐसी किस्में खोजनी शुरू कीं जो अधिक गर्म रातें झेल सकें। उन्होंने चीन के चार गर्म इलाकों में धान 533 की किस्मों का परीक्षण किया। इनमें से दो किस्मों, Chenghui448 और OM1723, की गुणवत्ता और उपज गर्मी में भी अच्छी रही। फिर, इन दोनों किस्मों से संकर धान तैयार किया। इसके जीन विश्लेषण (gene analysis in rice) में क्रोमोसोम 12 पर उन्हें एक खास जीन मिला, जिसे QT12 नाम दिया गया है।

सामान्य स्थिति में तीन कारक QT12 जीन का नियमन करते हैं, और मिलकर इसे संतुलित रूप से काम करने देते हैं। लेकिन जब तापमान बढ़ता है तो इन तीनों में से एक नियामक अलग हो जाता है और QT12 ज़्यादा सक्रिय हो जाता है (heat-responsive genes in crops)। इससे धान की कोशिकाओं में एंडोप्लाज़्मिक रेटिकुलम प्रभावित होता है। यह कोशिका का वह हिस्सा है जो प्रोटीन को तह करने और उन्हें सही जगह पहुंचाने का काम करता है।

जब तापमान के कारण यह प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है तो दाने के भ्रूणपोष में प्रोटीन कम और स्टार्च ज़्यादा जमा होने लगता है। यही असंतुलन दानों को ‘भुरभुरा’ (grain chalkiness due to heat) बनाता है।

वैज्ञानिकों ने QT12 की भूमिका को साबित करने के लिए एक ताप-संवेदी धान की किस्म में इस जीन को शांत कर दिया। नतीजे चौंकाने वाले थे: संशोधित धान ने गर्मी में भी सामान्य मात्रा में पैदावार दी, जबकि असंशोधित धान ने 58 प्रतिशत कम पैदावार दी। इसका मतलब है कि QT12 केवल दानों की गुणवत्ता नहीं, बल्कि उपज को भी प्रभावित करता है।

एक दिलचस्प बात यह है कि जीन एडिटिंग की तकनीक के बिना, पारंपरिक ब्रीडिंग (traditional breeding techniques) से भी काम चल सकता है। वैज्ञानिकों ने धान की कुछ किस्मों में QT12 के ऐसे प्राकृतिक रूप पाए हैं जो गर्मी में सक्रिय नहीं होते। जब उन्होंने इन्हें चीन की लोकप्रिय हाइब्रिड किस्म हुआझेन में जोड़ा, तो नतीजे आशाजनक मिले। गर्मी-सह्य इस नई हुआझेन किस्म ने 31-78 प्रतिशत तक अधिक पैदावार दी। सफेद और भुरभुरे दाने भी कम थे।

QT12 के ऐसे रूप ज़्यादातर गर्म इलाकों में उगाई जाने वाली इंडिका किस्मों (indica rice variety)  में पाए जाते हैं, जबकि जेपोनिका किस्मों में ये जीन पूरी तरह अनुपस्थित हैं, जो ठंडे इलाकों (जैसे जापान, चीन के पहाड़ी क्षेत्र और अमेरिका) (temperate climate rice) में उगाई जाती हैं। QT12 जीन को जेपोनिका किस्मों में भी डाल कर इन क्षेत्रों की फसलों को भी गर्मी से बचाया जा सकेगा।

दिलचस्प बात यह है कि QT12 जीन सिर्फ धान में ही नहीं बल्कि गेहूं और मक्का जैसी दूसरी महत्वपूर्ण फसलों में भी ऐसे जीन मौजूद हैं(QT12 gene in wheat and maize)। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इस खोज की मदद से अब इन फसलों की भी गर्मी-सह्य किस्में तैयार की जा सकेंगी, जो खाद्य सुरक्षा को मज़बूती देगी(climate-resilient crops for food security)। हालांकि विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि अकेले QT12 बहुत ज़्यादा गर्मी से सभी धान की किस्मों को नहीं बचा सकता, खासकर जब रात का तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाए। इसलिए वैज्ञानिक अभी भी अन्य जीन और किस्मों पर शोध कर रहे हैं ताकि जलवायु संकट से लड़ने के और उपाय मिल सकें (genes for climate change adaptation in crops)। (स्रोत फीचर्स)

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मैग्नेटार: अंतरिक्ष में बेशकीमती धातुओं का कारखाना

क्या आप जानते हैं कि बेशकीमती सोना-चांदी (gold-silver origin in universe) संभवत: अरबों साल पहले एक ज़बर्दस्त ब्रह्मांडीय विस्फोट (cosmic explosion) में बने थे? दशकों तक वैज्ञानिकों का मानना था कि ऐसे भारी तत्व केवल तब बनते हैं जब दो मृत तारे (न्यूट्रॉन स्टार) (neutron star collision) आपस में टकराते हैं। लेकिन अब शोधकर्ताओं को ऐसी कीमती धातुएं बनने एक और तरीका पता चला है।

दी एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल लेटर्स में प्रकाशित नए अध्ययन (astrophysical journal research) में बताया गया है कि एक विशेष प्रकार के तारे, जिन्हें मैग्नेटार (magnetar flares) कहा जाता है, से निकली उग्र लपटों (flare) में भी सोना, चांदी और प्लेटिनम जैसे भारी तत्व बन सकते हैं।

गौरतलब है कि मैग्नेटार उन विशाल तारों के बचे हुए केंद्र होते हैं जो सुपरनोवा (supernova remnant) में फट चुके होते हैं। इनका चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी के मुकाबले खरबों गुना शक्तिशाली होता है। इस कारण ये तारे कभी-कभी बहुत तेज़ी से भभकते हैं।

2004 में एक मैग्नेटार ऐसी ही भयंकर उग्र लपटें निकली थीं, जिसने कुछ ही सेकंड में उतनी ऊर्जा फेंकी जितना हमारा सूरज लाखों सालों में छोड़ता है। दस मिनट बाद उसी जगह से कुछ और हल्की लपटें निकलीं, जिन्हें आफ्टरग्लो (afterglow radiation) कहा गया। तब वैज्ञानिक इस रहस्यमयी संकेत को समझ नहीं पाए थे लेकिन अब उन्हें इसका मतलब समझ आने लगा है।

इस खोज की अहमियत समझने के लिए पहले यह जान लेते हैं कि भारी तत्व कैसे बनते हैं। सोना, चांदी और प्लेटिनम जैसे भारी तत्व आम तारों के अंदर नहीं बनते। इन्हें बनने के लिए एक बेहद तेज़ और उग्र प्रक्रिया की ज़रूरत होती है, जिसे आर-प्रक्रिया (r-process nucleosynthesis) कहते हैं। इस प्रक्रिया में परमाणु नाभिक बहुत तेज़ी से न्यूट्रॉन्स सोखते हैं और भारी तत्वों में बदल जाते हैं।

अब तक वैज्ञानिकों को आर-प्रक्रिया का एक ही पुष्ट स्रोत पता था – दो न्यूट्रॉन तारों की टक्कर। लेकिन ऐसी टक्करें बहुत बिरली होती हैं और हमारी निहारिका के ‘जीवन’ के आखिरी समय में होती हैं। तो फिर शुरुआती समय में भारी तत्व कैसे बने (early universe element formation)?

कोलंबिया युनिवर्सिटी के खगोलशास्त्री अनिरुद्ध पटेल और उनकी टीम ने 2004 में मैग्नेटार से निकली लपटों के डैटा को फिर से देखा। उन्होंने कंप्यूटर सिमुलेशन (astrophysics simulation) के ज़रिए यह जांचा कि क्या इस तरह की भभक से आर-प्रक्रिया हो सकती है। उन्होंने पाया कि भभक के बाद दिखी आफ्टरग्लो में बिल्कुल वैसी ही गामा किरणें थीं जैसी आर-प्रक्रिया के दौरान निकलती हैं। ये गामा किरणें उस ऊर्जा का संकेत थीं जो भारी तत्व बनने के समय निकलती हैं।

20 साल से ऐसे ही पड़े डैटा ने अंतत: साबित कर दिया कि सोना और अन्य भारी तत्व केवल एक ही तरह की ब्रह्मांडीय घटना से नहीं बनते। बल्कि इन्हें बनाने वाली आर-प्रक्रिया के और भी स्रोत हो सकते हैं (alternative r-process sources), जो अभी तक अनदेखे हैं। ये नतीजे अधिक शोध के रास्ते खोलते हैं। 2017 में हुई न्यूट्रॉन तारों की टक्कर धरती से बहुत दूर थी, इसलिए वैज्ञानिक उस घटना को ठीक से नहीं देख सके। लेकिन भविष्य में अगर किसी नज़दीकी मैग्नेटार से लपटें उठती हैं तो शायद वैज्ञानिक सोना-चांदी बनने के चश्मदीद बन जाएं। (स्रोत फीचर्स)

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गर्भावस्था में पोषण, स्वास्थ्य व देखभाल – डॉ. पूनम विशाल ज्वैल और सुदर्शन सोलंकी

प्रजनन आयु (15-49 वर्ष) की महिलाओं में खराब पोषण (poor nutrition) के दीर्घकालिक परिणाम होते हैं। महिला के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर के अलावा, इससे कुपोषित बच्चे को जन्म देने का जोखिम भी बढ़ जाता है, जिससे कुपोषण का चक्र पीढ़ियों तक चलता रहता है।

गर्भावस्था और मातृत्व के दौरान अलग-अलग पोषण सम्बंधी ज़रूरतें होती (pregnancy nutrition requirements, prenatal care) हैं। गर्भावस्था से पहले, महिलाओं को स्वस्थ शरीर के लिए पौष्टिक और संतुलित आहार की ज़रूरत होती है। गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान, ऊर्जा और पोषक तत्वों की ज़रूरत बढ़ जाती है।

किंतु दुनिया के कई देशों में महिलाओं की पोषण(global malnutrition in women) सम्बंधी स्थिति खराब बनी हुई है। बहुत-सी महिलाएं – विशेषकर वे जो पोषण सम्बंधी जोखिम में हैं, उन्हें वे पोषण सेवाएं नहीं मिल रही हैं जो उन्हें स्वस्थ रहने और अपने बच्चों को जीवित रहने, बढ़ने और विकसित होने का सबसे अच्छा मौका देने के लिए आवश्यक हैं।

भारत में बच्चों के बीच खराब पोषण और स्वास्थ्य परिणामों का मुख्य कारण गर्भावस्था से पहले और उसके दौरान माताओं का खराब पोषण है (child malnutrition India, maternal health and child growth)। शोध से पता चलता है कि दो साल की उम्र तक विकास में लगभग 50 प्रतिशत विफलता गर्भधारण और प्रसव के बीच घटिया पोषण के कारण होती है। इसलिए बच्चों में कुपोषण से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए मातृ कुपोषण से निपटना महत्वपूर्ण है।

एक कुपोषित मां अनिवार्य रूप से एक कुपोषित बच्चे को जन्म देती है (malnourished mother and child)। भारत में कुपोषण की समस्या गंभीर है, और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, 2019-2021 के बीच 22.4 करोड़ से अधिक लोग कुपोषित थे (UN malnutrition report India); जिनमें से अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं। भारत में लगभग आधी महिलाओं, विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं में कुपोषण और एनीमिया का प्रकोप देश की खाद्य सुरक्षा पर गंभीर बोझ डालता है (anemia in pregnant women, nutrition and food security India)

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) भी दर्शाता है कि भारत में कुपोषण की समस्या लगातार बनी हुई है (NFHS-5 findings on nutrition)। पांच साल से कम उम्र का हर तीसरा बच्चा और देश की हर पांचवी महिला कुपोषित है, और अधिक वज़न वाली महिलाओं की संख्या बढ़कर एक चौथाई हो गई है। आधे से ज़्यादा बच्चे, किशोर और महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं (anemia in adolescents and women)

गर्भावस्था के दौरान पोषण का अत्यधिक महत्व होता है, क्योंकि यह न केवल मां के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि गर्भ में पल रहे शिशु के विकास और भविष्य के स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डालता है (importance of nutrition in pregnancy, baby development during pregnancy)। संतुलित और पोषक तत्वों से भरपूर आहार गर्भवती महिला और शिशु दोनों के लिए आवश्यक है (balanced diet in pregnancy, nutrients for pregnant women)। उचित आहार योजना और स्वस्थ जीवनशैली अपनाकर गर्भवती  महिलाएं स्वस्थ गर्भावस्था और स्वस्थ शिशु के जन्म की दिशा में कदम बढ़ा सकती हैं।

ऊर्जा (Energy)

गर्भावस्था के दौरान ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ जाती है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR Pregnancy guidelines) के अनुसार, गर्भ की दूसरी और तीसरी तिमाही में प्रतिदिन 350 किलो कैलोरी अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जिसकी पूर्ति प्रत्येक भोजन में थोड़ा-थोड़ा आहार बढ़ाकर की जाती है।

प्रोटीन (Protein)

प्रोटीन गर्भाशय, स्तनों और शिशु के शरीर के ऊतकों (protein for fetal growth) के विकास के लिए आवश्यक है। आईसीएमआर के अनुसार, महिला के प्रति किलो वज़न पर पहली तिमाही में 1 ग्राम प्रतिदिन, दूसरी तिमाही में 8 ग्राम और तीसरी तिमाही में 18 से 20 ग्राम अतिरिक्त प्रोटीन की आवश्यकता होती है। दूध और पनीर, दही जैसे दुग्ध उत्पाद, अंडे, मांस, चिकन, सैल्मन मछली, दालें, नट्स वगैरह प्रोटीन के अच्छे स्रोत (sources of protein) हैं।

कैल्शियम (Calcium)

कैल्शियम शिशु की हड्डियों (baby bone health) और दांतों के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 1 ग्राम अतिरिक्त  कैल्शियम की आवश्यकता होती है। दूध, दही, पनीर जैसे डेयरी उत्पाद, हरी पत्तेदार सब्जियां, सूखे मेवे. तिल के बीज इसके बढ़िया स्रोत हैं।

फोलिक एसिड (Folic acid)

फोलिक एसिड न्यूरल ट्यूब सम्बंधी दोषों (neural tube defect prevention) की रोकथाम में मदद करता है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 600 माइक्रोग्राम फोलिक एसिड की आवश्यकता होती है। यह हरी पत्तेदार सब्ज़ियों, संतरा, केला, चना, राजमा, साबुत अनाज, दलिया वगैरह में पाया जाता है।

लौह (Iron)

गर्भावस्था के दौरान लौह की आवश्यकता बढ़ जाती है ताकि शिशु और मां दोनों के लिए हीमोग्लोबिन का उत्पादन सुनिश्चित हो सके। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 36 मिलीग्राम अतिरिक्त लौह की आवश्यकता (iron requirement during pregnancy) होती है। हरी पत्तेदार सब्ज़ियां, काले किशमिश, खुबानी, लाल मांस, चिकन, खड़े मसूर, चना, राजमा वगैरह लौह के अच्छे स्रोत (soruces of iron) हैं।

आयोडीन (Iodene)

आयोडीन शिशु के मस्तिष्क के विकास (brain development fetus) के लिए आवश्यक है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 200-220 माइक्रोग्राम अतिरिक्त आयोडीन की आवश्यकता होती है। आयोडीन युक्त नमक, समुद्री खाद्य पदार्थ, मछली, झींगा, दुग्ध उत्पाद इसके अच्छे स्रोत (Iodene sources) हैं।

विटामिन डी (Vitamin D)

विटामिन डी कैल्शियम के अवशोषण में मदद करता है और हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। सूर्य का प्रकाश (Sunlight for vitamin D) (प्रतिदिन सुबह या शाम की धूप में 15-20 मिनट बिताना), मछली,  सैल्मन, मैकेरल, अंडे का पीला भाग इसके बढ़िया स्रोत (sources of vitamin D) हैं।

पानी

गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त मात्रा में पानी पीना आवश्यक (hydration during pregnancy) है। प्रतिदिन कम से कम 3 लीटर (10-12 गिलास) पानी का सेवन करें। गर्मी के मौसम में 2 गिलास अतिरिक्त पानी पीना चाहिए। थोड़े-थोड़े अंतराल पर पानी, जूस या वेजिटेबल सूप पीते रहें।

कुछ सावधानियां

– कैफीन का सेवन सीमित करें प्रतिदिन 200 मिलीग्राम से अधिक कैफीन लेने से गर्भपात और शिशु के कम वजन वाला रह जाने का खतरा बढ़ सकता है (caffeine limit in pregnancy)

– मदिरा और धूम्रपान (alcohol and smoking risks pregnancy) शिशु के विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

– कच्चे या अधपके खाद्य पदार्थों (raw food in pregnancy) से बचें।

– अत्यधिक मसालेदार, तले हुए खाद्य पदार्थों और पैक्ड प्रोसेस्ड भोजन से परहेज करें (avoid processed food in pregnancy), ये अपच और एसिडिटी का कारण बन सकते हैं।

गर्भावस्था के दौरान मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना उतना ही ज़रूरी है जितना शारीरिक स्वास्थ्य का (mental and emotional health during pregnancy)। यह न केवल मां के लिए, बल्कि शिशु के विकास और भावनात्मक सेहत के लिए भी महत्वपूर्ण है। इस दौरान तनाव, चिंता और मूड स्विंग्स होना आम बात है। इन्हें सही तरीके से मैनेज करना ज़रूरी है।

भारत को सतत विकास लक्ष्य-2 (‘भूख से मुक्ति’) को प्राप्त करने और 2030 तक सभी प्रकार की भूख और कुपोषण को समाप्त करने के लिए संतुलित आहार, उचित पोषण को हर महिला व शिशु तक पहुंचाकर कुपोषण व एनीमिया की व्यापकता को समाप्त करना होगा (SDG 2 Zero Hunger, nutrition targets India 2030)। इसके लिए समुदाय में जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://jammiscans.com/wp-content/uploads/2023/04/Nutrients-needed-for-pregnancy.jpg

निकोबार द्वीप समूह की कीमत पर विकास

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

वृक्ष हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं, इस बात पर दृढ़ विश्वास रखने वाले प्रसिद्ध वृक्ष प्रेमी और वृक्ष योद्धा श्री ‘वनजीवी’ रमैया (vanjeevi ramaiah) का पिछले महीने निधन हो गया। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित इस शख्सियत ने तेलंगाना में एक करोड़ से अधिक पौध-रोप लगायीं (tree plantation in Telangana), ताकि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य में रह सकें। लेकिन कांचा गच्चीबावली क्षेत्र को लेकर तेलंगाना राज्य सरकार और हैदराबाद विश्वविद्यालय के बीच मौजूदा विवाद ने रमैया को निराश ही किया होगा। विश्वविद्यालय चाहता है कि यह क्षेत्र एक हरे-भरे वन क्षेत्र (urban green space) के रूप में बना रहे, जिसमें निसर्ग की उपहार रूपी 700 किस्म की वनस्पतियां, 200 तरह के पक्षी और 10-20 स्तनधारी प्रजातियां संरक्षित रहें। लेकिन राज्य सरकार चाहती है कि इसमें क्षेत्र प्रौद्योगिकी पार्क (technology park development)  और ऐसे ही अन्य निर्माण किए जाएं। ज़मीन की यह ‘लड़ाई’ सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court case) तक पहुंच गई है, और हम न्यायलय के फैसले के मुंतज़िर हैं।

दुर्भाग्य से, भारत के कई अन्य राज्यों में भी यही हालात हैं। राज्य ऐसी वन भूमि पर हाई-टेक शहर (hi-tech city projects), फार्माश्युटिकल क्षेत्र, राजमार्ग, तेज़ रफ्तार ट्रेन ट्रैक और हवाई अड्डे निर्माण किए जा रहे हैं। हालांकि ये सभी निर्माण सार्वजनिक ज़रूरत के लिए ज़रूरी हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या इन ज़रूरतों की पूर्ति हरियाली, फूलदार पौधों (biodiversity loss) और इन पर निर्भर रहने वाले आदिवासी लोगों के विनाश की कीमत पर होना चाहिए? ऐसा करना क्या वनजीवी रमैया के कामों और विचारों के साथ विश्वासघात नहीं माना जाएगा?

हमने यहां ‘विश्वासघात’ शब्द प्रोफेसर पंकज सेकसरिया के नज़रिए से उपयोग किया है। पंकज सेकसरिया समाज, पर्यावरण (environmental justice), विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बीच के जटिल सम्बंधों के साथ-साथ पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण को जानने-समझने का काम करते हैं, इस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने निकोबार द्वीप समूह पर तीन दशकों से अधिक समय तक काम किया है। उन्होंने दी ग्रेट निकोबार बिट्रेयल नामक एक पुस्तक संकलित की है। इस पुस्तक में बताया गया है कि केंद्र सरकार ने प्रस्ताव दिया है कि वह किस तरह निकोबार द्वीप समूह का उपयोग कई उद्देश्यों के लिए करेगी: मालवाहक जहाज़ के लिए गैलाथिया खाड़ी में एक ट्रांस-शिपमेंट सुविधा (transshipment port project) बनेगी, एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा (international airport construction) बनेगा और बिजली के लिए एक बिजली संयंत्र लगेगा। इसके अलावा, छुट्टियां बिताने और उपरोक्त परियोजनाओं के संचालन के लिए मुख्य भारत भूमि से लोगों को यहां बुलाया और बसाया जाएगा, जिससे यहां की आबादी 8000 (मूल निवासियों) से बढ़कर लगभग 3.5 लाख तक हो जाएगी। इस आबादी को बसाने के लिए एक ग्रीनफील्ड टाउनशिप (greenfield township) बनाने की योजना भी है।

पुस्तक में पारिस्थितिक भव्यता से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं, जो निकोबार द्वीप समूह की 2000 से अधिक जंतु प्रजातियों और 811 वनस्पति प्रजातियों के भविष्य और यहां के मूल निवासियों के भविष्य की चिंता से सम्बंधित हैं। ये सभी केंद्र सरकार द्वारा नियोजित ‘विकास’ से प्रभावित होंगे। इसके अलावा, मूल निकोबारी जनजातियों की आजीविका जंगलों पर निर्भर है, जंगल उनके लिए अनिवार्य हैं। लेकिन ‘विकास’ के चलते जैसे-जैसे वनों की कटाई के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा, मूल निकोबारी जनजातियां – खासकर असुरक्षित आदिवासी समुदाय शोम्पेन (Shompen tribe displacement) – इससे प्रभावित होंगी। फिर, विकास के लिए समुद्र तट भी हथियाया जाएगा, इसके चलते समुद्र तट पर हर मौसम में पाए जाने वाले विशालकाय लेदरबैक कछुओं (leatherback turtles endangered) पर भी खतरा मंडराने लगेगा। आदिवासी कल्याण मंत्रालय ने इन चिंताओं पर अब तक कोई जवाब नहीं दिया है।

लेकिन, जनवरी 2023 में पूर्व लोक सेवकों के एक समूह ने भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर बताया था कि कैसे भारत सरकार विभिन्न दुर्लभ और देशज प्रजातियों के प्राचीन प्राकृतिक आवास को नष्ट करने पर उतारू है। आगे वे कहते हैं कि कैसे सरकार निकोबार से 2600 किलोमीटर दूर हरियाणा में जंगल लगाकर इस नुकसान की ‘क्षतिपूर्ति’ (forest offset policy) करेगी!

भारत विश्व के उन 200 देशों में से एक है जिन्होंने जैव विविधता समझौते (biodiversity agreement) पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके तहत भारत अधिक पारिस्थितिक समग्रता वाले पारिस्थितिकी तंत्रों सहित उच्च जैव विविधता महत्व वाले क्षेत्रों के ह्रास (विनाश) को लगभग शून्य करने के लिए प्रतिबद्ध है। पूर्व लोक सेवकों का राष्ट्रपति और भारत सरकार से अनुरोध है कि वे ग्रेट निकोबार में शुरू की जा रही विनाशकारी परियोजनाओं को तुरंत रोक दें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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