धरती के बदलते हालात का एक नया और चौंकाने वाला संकेत सामने आया है — दुनिया भर के जंगल अब धीरे-धीरे पहाड़ों पर ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे हैं। वैज्ञानिकों ने पहले ही अनुमान लगाया था कि जैसे-जैसे वैश्विक तापमान (global warming) बढ़ेगा, पेड़ ठंडे इलाकों की ओर खिसकेंगे। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि यह परिवर्तन सिर्फ ध्रुवों की दिशा में नहीं, बल्कि पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों की ओर (tree-line shift) भी हो रहा है।
बायोजियोसाइंसेज़ पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में 1984 से 2017 तक के पश्चिमी कनाडा से लेकर पनामा तक 115 पर्वत-शिखरों के उपग्रह डैटा (satellite data) का विश्लेषण किया गया है। वैज्ञानिकों को आश्चर्य हुआ कि जंगलों का सबसे तेज़ ऊर्ध्वगामी (ऊपर की ओर) विस्तार ठंडे उत्तरी क्षेत्रों में नहीं, बल्कि मेक्सिको और मध्य अमेरिका के उष्णकटिबंधीय पहाड़ों में दिखा। यहां पेड़ों की ऊपरी सीमा, जिसे ट्री-लाइन कहा जाता है, हर साल कई मीटर ऊपर जा रही है।
यह खोज इस आम धारणा को चुनौती देती है कि वैश्विक ऊष्मीकरण (climate change impact) का असर सबसे ज़्यादा ध्रुवीय इलाकों में होता है। जबकि जैव विविधता और नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों से भरपूर उष्णकटिबंधीय क्षेत्र अब इस परिवर्तन की सबसे तेज़ गति दिखा रहे हैं। हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि हर बदलाव को सीधे जलवायु परिवर्तन से जोड़ना उचित नहीं है। अध्ययन में उन पहाड़ों को शामिल नहीं किया गया था जहां मानव गतिविधियां जैसे खेती, चराई या वृक्ष कटाई का असर था।
एक समस्या ट्री-लाइन की परिभाषा को लेकर है। कुछ वैज्ञानिक इसे तापमान आधारित सीमा (temperature threshold) मानते हैं यानी जहां तापमान 6 डिग्री सेल्सियस से नीचे जाने पर पेड़ नहीं उग पाते। वहीं, कुछ इसे भौतिक सीमा के रूप में देखते हैं यानी वह ऊंचाई जहां पेड़ों की वृद्धि रुक जाती है।
अब तक ज़्यादातर ऐसे अध्ययन उत्तरी अमेरिका और युरोप तक सीमित थे। उदाहरण के लिए, आल्प्स पर्वत में शोध से पता चला था कि औद्योगिक युग से अब तक तापमान में लगभग 3 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के कारण ट्री-लाइन ऊपर खिसकी है। लेकिन दुनिया के अन्य हिस्सों में यह रुझान स्पष्ट नहीं था। इसी कारण मैक्सिको के वैज्ञानिक डैनियल जिमेनेज़-गार्सिया और टाउनसेंड पीटरसन ने 15 ज्वालामुखी पर्वतों पर पुन: अध्ययन किया और पाया कि वहां सिर्फ तीन दशकों में ट्री-लाइन लगभग 500 मीटर ऊपर चली गई है। यही खोज आगे चलकर पूरे अमेरिका महाद्वीप में व्यापक अध्ययन का आधार बनी।
इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने लैंडसैट उपग्रहों (Landsat images) से प्राप्त 40 वर्षों की तस्वीरों का विश्लेषण किया। और तो और पीटरसन ने खुद घूम-घूमकर ट्री-लाइन की सीमाएं चिन्हित कीं। इस लंबी मेहनत से अब तक का सबसे व्यापक वैश्विक डैटा रिकॉर्ड तैयार हुआ।
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह तरीका पूर्णत: त्रुटिहीन तो नहीं है, परंतु बड़े पैमाने के रुझान समझने में बेहद कारगर है। कुछ मामलों में तो पेड़ पुराने चारागाहों या छोड़े गए इलाकों पर फिर से लौट रहे हैं, पर कुल मिलाकर जंगलों के ऊपर बढ़ने का रुझान स्पष्ट और व्यापक (forest expansion) है।
एक सवाल है कि उष्णकटिबंधीय जंगल इतनी तेज़ी से ऊपर क्यों बढ़ रहे हैं? वैज्ञानिकों के अनुसार, इसका एक कारण पानी की उपलब्धता है। ध्रुवों के ऊंचे इलाके अपेक्षाकृत सूखे रहते हैं जबकि भूमध्य रेखा के आसपास ऊंचे पहाड़ी इलाके आम तौर पर अधिक वर्षा और नमी वाले होते हैं। इसलिए तापमान में थोड़ी-सी भी वृद्धि हो तो यहां पेड़ अधिक ऊंचाई तक जीवित रह पाते हैं।
अब शोधकर्ता 1870 के दशक की पुरानी तस्वीरों की तुलना आधुनिक उपग्रह चित्रों (historical vs modern images) से कर रहे हैं, ताकि पता चल सके कि यह बदलाव कितनी तेज़ी और कितनी दूर-दूर तक हुआ है। शुरुआती नतीजे दिखाते हैं कि पुराने और नए डैटा में समानता है यानी जंगलों का ऊपर की ओर बढ़ना लगातार तेज़ हो रहा है।
भविष्य में टीम की कोशिश है कि कृत्रिम बुद्धि की मदद से दुनिया भर में इन परिवर्तनों को स्वचालित रूप से पहचाना जा सके (AI monitoring)। यह बदलाव समझना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि जैसे-जैसे जंगल ऊपर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे पहाड़ों की ऊंचाइयों पर रहने वाले नाज़ुक और ठंड पसंद पौधों व अन्य जीवों के लिए जगह कम होती जा रही है, इकोसिस्टम बदल (ecosystem change) रही है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/content/article/forests-are-migrating-mountain-peaks
कीचड़ में सूक्ष्मजीवों का एक अद्भुत संसार छिपा होता है जिन्हें ‘कैबल बैक्टीरिया’ (cable bacteria) कहते हैं। ये बैक्टीरिया मिट्टी के भीतर ऐसे कैबल बनाते हैं जो विद्युत (electricity) संचारित कर सकते हैं। हाल ही में यह पता चला है कि ये बैक्टीरिया ये कैबल बनाते कैसे हैं।
गौरतलब है कि कैबल बैक्टीरिया झीलों, नदियों और समुद्रों के तलछट (sediment) में पाए जाते हैं। वे हाइड्रोजन सल्फाइड (hydrogen sulfide) गैस से इलेक्ट्रॉन लेते हैं। यह गैस मिट्टी की गहराई में होती है। फिर वे इन इलेक्ट्रॉन्स को ऑक्सीजन को हस्तांतरित कर देते हैं जो केवल सतह पर मिलती है। हाइड्रोजन सल्फाइड में इलेक्ट्रॉन उच्च ऊर्जा स्तर पर होते हैं जबकि ऑक्सीजन में उनका ऊर्जा स्तर कम होता है। अत: इस हस्तातंतरण में ऊर्जा मुक्त होती है जिसमें से कुछ का उपयोग बैक्टीरिया अपने कामकाज के लिए कर लेते हैं।
इलेक्ट्रॉन को यह दूरी पार करवाने के लिए ये बैक्टीरिया लंबी, धागे जैसी संरचनाएं (filament structures) बनाते हैं, जो नीचे की सल्फाइड गैस से इलेक्ट्रॉन लेकर ऊपर ऑक्सीजन तक पहुंचाती हैं। इस तरह मिट्टी के भीतर विद्युत धारा (electric current) बनती है।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सिर्फ एक वर्ग मीटर कीचड़ में इन जैविक कैबल्स की कुल लंबाई 20,000 किलोमीटर तक हो सकती है। प्रत्येक तंतु लगभग 5 सेंटीमीटर लंबा होता है और उसमें लगभग 25,000 कोशिकाएं होती हैं। ये सब मिलकर एक सुपर-जीव (super-organism) के रूप में काम करती हैं, और इन सारे बैक्टीरिया की कोशिका झिल्ली एक ही होती है।
युनिवर्सिटी ऑफ एंटवर्प के फिलिप माइस्मन की टीम ने इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप (electron microscope) और एक्स-रे इमेजिंग तकनीकों की मदद से देखा कि ये तार बेहद पतले रेशों (मोटाई मात्र 50 नैनोमीटर) (nanofibers) से बने होते हैं। प्रत्येक रेशा ‘चोटी’ के रूप में गूंथा होता है और वह भी बारीक नैनोरिबन के गुच्छों से बना होता है।
अध्ययन से पता चला कि ये बैक्टीरिया मिट्टी से निकल तत्व इकट्ठा करके उसे सल्फर-युक्त यौगिकों के साथ मिलाते हैं, जिससे पतली प्लेट जैसी संरचनाएं बनती हैं। ये प्लेटें जुड़कर रिबन बनाती हैं और फिर गुंथकर मज़बूत, लचीली विद्युत प्रवाहित करने वाली जैविक कैबल (bio-cable) तैयार करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे इंसान तांबे के तार गूंथकर कैबल बनाते हैं। आश्चर्य की बात है कि कोई सूक्ष्मजीव इतनी जटिल संरचना बना सकता है।
ये कैबल मेटल ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क (MOF) के समान कार्बन डाईऑक्साइड जैसी गैसों को कैद कर सकते हैं, ऊर्जा संचित कर सकते हैं। MOF सम्बंधी शोध के लिए इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize) मिल चुका है। यह भी देखा गया कि इन तारों की विद्युत चालकता प्रयोगशाला में बने जैविक तारों से 100 गुना अधिक है।
ये न सिर्फ प्रभावी हैं बल्कि पर्यावरण के अनुकूल भी हैं, क्योंकि इन्हें बहुत कम धातु और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। उम्मीद है कि इस खोज से ऐसे जैव-अनुकूल और लचीले इलेक्ट्रॉनिक उपकरण (flexible electronics) विकसित किए जा सकेंगे, जो जीवित ऊतकों के साथ सुरक्षित रूप से काम कर सकें।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.aed8005/full/_20251107_on_cable_bacteria-1762794885023.jpg
पेट में गुड़गुड़ाहट जैसी आवाज़ का एहसास भूख लगने का सीधा संकेत है। शरीर को भूख (hunger) तब लगती है जब शरीर में पोषक तत्वों की, विशेषत: रक्त शर्करा (blood sugar) की, कमी होती है। जैसे ही भोजन का समय होता है मस्तिष्क भूख का संदेश देता है जिसके फलस्वरूप आमाशय द्वारा उत्पन्न हार्मोन ग्रेलीन हमारे पेट और आंतों की मांसपेशियों में संकुचन पैदा करने लगता है और हमें भूख लगने लगती है। ग्रेलीन को भूख हॉर्मोन (हंगर हॉर्मोन – hunger hormone) भी कहते हैं। दूसरी ओर, पेट भरने पर लेप्टिन और कोलेसिस्टोकाइनिन (CCK) जैसे हॉर्मोन भूख को कम करने का काम करते हैं। लेप्टिन हमारे शरीर के वसा ऊतकों में बनता है और बताता है कि शरीर को पर्याप्त ऊर्जा वाला भोजन मिल गया है, जबकि कोलेसिस्टोकाइनिन छोटी आंत से निकलता है और पेट भर जाने का संकेत देता है, जिससे हमें तृप्ति का एहसास होता है।
हाल ही में वैज्ञानिकों की एक टीम ने भूख मिटाने के लिए मस्तिष्क में छिपे हुए एक ‘स्विच’ का पता लगाया है। इसका नाम है मेलानोकॉर्टिन-4 रिसेप्टर (जीन MC4R)। शोधकर्ताओं ने यह भी पता लगाया है कि MRAP2 नामक एक प्रोटीन (protein) भूख को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह प्रोटीन भूख रिसेप्टर MC4R को कोशिका की सतह पर पहुंचाने में मदद करता है। वहां यह ‘खाना बंद करो’ के मज़बूत संकेत देता है। वैज्ञानिकों को लगता है कि MRAP2 प्रोटीन द्वारा नियंत्रित यह स्विच – MC4R – मोटापे (obesity) से लड़ने, उसे कम करने और वज़न नियंत्रण में सुधार के लिए नए मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
मेलानोकॉर्टिन-4 रिसेप्टर
मेलानोकोर्टिन-4 (MC4R) रिसेप्टर एक महत्वपूर्ण रिसेप्टर है। यह पेप्टाइड-स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन (peptide hormone) द्वारा सक्रिय होता है। MC4R रिसेप्टर मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस (hypothalamus) में पाया जाता है और भूख, तृप्ति, तथा ऊर्जा चयापचय क्रिया को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह भूख को कम करता है जिससे मोटापा घटता है। यह ऊर्जा संतुलन (energy balance) भी बनाए रखता है।
MC4R के जीन में यदि उत्परिवर्तन (gene mutation) हो जाए तो भूख अधिक लगती है जिससे भोजन सेवन को नियंत्रित करने और वज़न कम करने में कठिनाई होती है। परिणामत: मोटापा बढ़ जाता है। मोटापे के इस कारण के लिए वर्तमान में कोई विशिष्ट उपचार नहीं है, हालांकि भविष्य में इस रिसेप्टर को लक्षित करने वाली नई औषधियां (medicines) विकसित की जा सकती हैं।
सेटमेलानोटाइड
वैज्ञानिक शोध से ज्ञात हुआ है कि सेटमेलानोटाइड (setmelanotide) नामक दवा लेप्टिन-मेलानोकॉर्टिन मार्ग (leptin-melanocortin pathway) में कुछ विशिष्ट आनुवंशिक विकारों या उत्परिवर्तनों के कारण होने वाले गंभीर आनुवंशिक मोटापे (genetic obesity) का उपचार करती है। यह मेलानोकॉर्टिन-4 रिसेप्टर को उत्तेजित करने का काम करती है, जो मस्तिष्क में भूख नियंत्रण से सम्बंधित होता है। यह दवा भूख को कम करती है, पेट भरा हुआ महसूस कराती है और शरीर द्वारा कैलोरी जलाने की दर भी बढ़ा सकती है, जिससे वज़न घटाने में मदद मिलती है।
MRAP2 एक जीन है जो MC4R रिसेप्टर के सहायक प्रोटीन को एनकोड करता है, जो MC4R रिसेप्टर सिग्नलिंग को नियंत्रित करता है।
वैज्ञानिकों की टीम ने आधुनिक फ्लोरेसेंट माइक्रोस्कोपी (fluorescent microscopy) और सिंगल सेल इमेजिंग तकनीक का उपयोग करते हुए पाया है कि प्रोटीन MRAP2 कोशिकाओं के भीतर मस्तिष्क-रिसेप्टर MC4R के मौलिक स्थान और व्यवहार को बदल देता है। फ्लोरेसेंट माइक्रोस्कोपी और कॉन्फोकल इमेजिंग (confocal imaging) ने दर्शाया है कि MRAP2, MC4R को कोशिका की सतह तक पहुंचाने के लिए आवश्यक है, जहां यह भूख को दबाने या कम करने वाले संकेतों को अधिक प्रभावी ढंग से प्रसारित कर सकता है। उपरोक्त शोध के निष्कर्ष हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications) नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।
रिसेप्टर के कार्य करने के तरीके की समझ उन चिकित्सकीय रणनीतियों (therapeutic strategies) की ओर इंगित करती है जो MRAP2 की नकल या उसका नियमन करती हैं और मोटापे तथा सम्बंधित चयापचय विकारों (metabolic disorders) से निपटने की क्षमता रखती हैं। उपरोक्त शोध के निष्कर्ष भविष्य में विभिन्न दृष्टिकोणों और विविध प्रयोगात्मक विधियों द्वारा, चिकित्सकीय प्रासंगिकता वाले भूख नियमन के महत्वपूर्ण नए शारीरिक और पैथोफिज़ियोलॉजिकल (pathophysiological) पहलुओं की बेहतर समझ विकसित करने में मददगार होंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.researchgate.net/profile/Giles-Yeo/publication/8644502/figure/fig2/AS:282060989190159@1444259988550/MC4R-integrates-energy-related-signalsSeparate-populations-of-neurons-whose-cell-bodies.png
यह लेख मूलत: रेवेलेटर एन्वायरमेंटल न्यूज़ एंड कमेंटरी में प्रकाशित हुआ था। मूल अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए लिंक: https://therevelator.org/himalayas-climate-change/
हिमालय पर्वत (Himalayan Mountains) शृंखला दुनिया की सबसे नवीन और नाज़ुक पर्वत शृंखलाओं में से एक है लेकिन हम उसके साथ ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे कि उसमें असीम लचीलापन और सहिष्णुता है। विकास (development projects) के नाम पर धमाके कर-करके पहाड़ों को चोटी-दर-चोटी उड़ाया जा रहा है, सुरंगें खोद-खोदकर सड़कें बनाई जा रही हैं, एक के बाद एक पनबिजली परियोजनाओं और पर्यटन स्थलों (hydropower and tourism) का निर्माण हो रहा है।
लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि हिमालय केवल हमारी महत्वाकांक्षाओं के लिए धरातल नहीं बल्कि एक जीवित तंत्र (living ecosystem) है। किसी भी प्रकार का विस्फोट, ढलान को समतल करने का हर प्रयास, हर कटा हुआ पेड़ इन पहाड़ों को कमज़ोर कर रहा है और धीरे-धीरे उन्हें बिखरने की कगार पर ला रहा है।
जो लोग इन पहाड़ों में पले-बढ़े हैं, उनके लिए ये केवल पत्थरों के ढेर नहीं, बल्कि घर और इतिहास है। यही पर्वत अनगिनत पक्षियों, जीवों और नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों (Himalayan biodiversity) का आश्रय है। जब हम जंगल काटते हैं या नदियों को बांधते हैं, तो हम केवल संसाधनों को नहीं खोते, बल्कि अपने घर, अपनी सुरक्षा और अपनी भावनाओं का एक हिस्सा भी खो देते हैं।
अव्यवस्था और विनाश
जब जंगल साफ किए जाते हैं, झीलें या दलदली ज़मीन सुखा दी जाती हैं, और पहाड़ी ढलानों को अस्त-व्यस्त कर दिया जाता है, तो समूचे पारिस्थितिक तंत्र अपना संतुलन (ecosystem destruction) खो देते हैं। इसके बाद आने वाली बाढ़, भूस्खलन (landslides) और भू-क्षरण इंसानों और जानवरों दोनों को प्रभावित करते हैं।
अगस्त 2025 में उत्तरकाशी के धराली गांव का एक बड़ा हिस्सा मिट्टी और मलबे के सैलाब (flash flood) में दब गया। इसी साल हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में भी कई ऐसे हादसे हुए जिन्होंने, कुछ समय के लिए ही सही, पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। आज, महीनों बाद भी वहां के लोग अपने घर और ज़िंदगी दोबारा बसाने के लिए जूझ रहे हैं।
ये आपदाएं हमें तीन परस्पर सम्बंधित बातों का संकेत देती हैं: पहाड़ बहुत नाज़ुक हैं, मौसम का मिज़ाज अब पहले से ज़्यादा उग्र व इन्तहाई हो गया है, और इंसान हालात को बदतर कर रहे हैं।
अचानक आने वाली विशाल बाढ़ें (cloudburst disaster) अक्सर बादल फटने (बारिश बम) (cloudburst) के कारण होती हैं – जब ऊंचे पहाड़ मानसूनी बादलों को सारा पानी एकसाथ बरसाने पर मजबूर कर देते हैं। चूंकि अब हवा पहले से ज़्यादा गर्म है, इसलिए उसमें नमी धारण करने की क्षमता ज़्यादा है (जो जलवायु विज्ञान का एक अहम सिद्धांत है), जिससे ऐसी बादल फटने की घटनाएं ज़्यादा मर्तबा होती हैं और पहले से अधिक उग्र हो गई हैं।
इसी के साथ बढ़ती गर्मी हिमनदों को तेज़ी से पिघला (glacier melting) रही है, जिससे ग्लेशियर-जनित झीलें अस्थिर होकर फूट जाती हैं और पानी, बर्फ और चट्टानें नीचे की ओर बह निकलते हैं।
इंसानी दखल से यह प्राकृतिक खतरा और भी बढ़ जाता है। जंगलों की कटाई (deforestation), बिना सोचे-समझे सड़कों और बांधों का निर्माण पहाड़ों की ढलान को कमज़ोर कर देता है, जिससे भारी बारिश एक निश्चित आपदा में बदल जाती है।
जलवायु जोखिम का केंद्र
जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (IPCC report) की छठी रिपोर्ट उस बात की पुष्टि करती है जिसकी आशंका पहाड़ी समुदायों को पहले से थी। मानव-जनित जलवायु परिवर्तन (human-induced climate change) के कारण भारी बारिश और बाढ़ की घटनाएं अब पहले से कहीं अधिक हो रही हैं।
1980 के दशक से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बाढ़ (flood risk) की घटनाएं चार गुना और उत्तरी मध्य अक्षांश इलाकों में ढाई गुना बढ़ी हैं। अगर तापमान 3–4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, तो नदियों की बाढ़ों से प्रभावित लोगों की संख्या दुगनी हो सकती है, और कुल नुकसान (1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि की तुलना में) चार से पांच गुना तक बढ़ सकता है। यानी डिग्री का एक-एक अंश भी बहुत मायने रखता है।
हिमालय के लिए इसका क्या अर्थ है? एयर कंडीशनर, गाड़ियों और जीवाश्म ईंधनों (fossil fuels) के इस्तेमाल के नतीजे में बढ़ता तापमान हिमनदों को तेज़ी से पिघला रहा है, अस्थिर झीलें बन रही हैं, और बादल फटने व अचानक होने वाली तेज़ बरसातों (extreme rainfall) को बढ़ावा मिल रहा है। विश्व मौसमविज्ञान संगठन (WMO) के अनुसार वाहनों से निकलने वाला धुआं और शहरों की गर्मी हिमालयी कस्बों में स्थानीय तापमान को बढ़ाते हैं, जिससे हिमनदों (ग्लोशियर) के पिघलने की रफ्तार और तेज़ होती है।
इसके साथ ही, विकास के नाम पर लगातार पेड़ों की कटाई ने उन प्राकृतिक सोख्ताओं (‘स्पंज’) को नष्ट कर दिया है जो कभी बारिश का पानी सोखकर मिट्टी को थामे रखते थे। अब जब जंगल, आर्द्रभूमि और उपजाऊ मिट्टी (soil erosion) नष्ट हो रही हैं, तो हर मानसूनी लहर पहाड़ों से तेज़ी से नीचे उतरती है और तबाही मचा देती है।
जलवायु परिवर्तन का तनाव बढ़ने के साथ हिमालय का पारिस्थितिक तंत्र अपना प्राकृतिक सुरक्षा कवच खो रहा है। आज बादल फटने की कोई भी घटना तुरंत विनाशकारी बाढ़ में बदल सकती है; तेज़ बारिश भूस्खलन को जन्म दे सकती है; यहां तक कि मामूली तूफान भी अब भारी तबाही ला सकते हैं।
मानव-जनित तबाही इन समस्याओं को और बढ़ा रही है। नाज़ुक ढलानों पर विस्फोट करके सड़कों का निर्माण, बिना जलवायु जोखिम आकलन के पनबिजली परियोजनाओं और अनियंत्रित पर्यटन ने पहाड़ों को बेहद असुरक्षित बना दिया है। हर निर्माण कार्य हिमालय की उस स्वाभाविक मज़बूती को कम करता है जिस पर वह हज़ारों सालों से टिका रहा है।
हिमाचल प्रदेश का बेकर गांव ऐसे ही एक तूफान में सिर्फ बह नहीं गया था बल्कि एक चेतावनी बन गया: अगर हम खोखले पहाड़ों को और खोखला करते रहेंगे, तो वे हमें बचा नहीं पाएंगे। हमारे पास दो ही विकल्प हैं: या तो हम इन पहाड़ों को विकास के बोझ से ढहा दें, या समझदारी से उनका सम्मान करते हुए पुनर्निर्माण करें।
तीन आवश्यक कदम
हिमालयी इलाकों और वहां के लोगों को बचाने के लिए तीन फौरी कदम उठाने की ज़रूरत है। ये केवल सैद्धांतिक नीतिगत सुझाव नहीं हैं। ये वास्तविक अनुभवों पर आधारित अनिवार्यताएं हैं जो हमने सालों तक इस भूमि पर रहकर और इसके तेज़ी से बिगड़ते हालात को देखकर समझी हैं।
1.ऊंचाई वाले इलाकों में विस्फोट और निर्माण पर सीमा लगाएं: नाज़ुक पर्वतीय क्षेत्रों में विकास कार्य जलवायु जोखिम और पारिस्थितिक मूल्यांकन (ecological assessment) की कसौटी पर खरे उतरने पर ही हाथ में लिए जाएं। अगर सड़कें, बांध या इमारतें पहाड़ों की स्थिरता को नुकसान पहुंचा रहे हैं, तो उन्हें दोबारा डिज़ाइन किया जाए या किसी सुरक्षित जगह पर स्थानांतरित किया जाए।
इसके लिए भारत सरकार और राज्य सरकारों को बिना किसी अपवाद के पर्यावरणीय कानूनों का सख्ती से पालन करना होगा। किसी भी ढलान को समतल करने या उसमें सुरंग बनाने का निर्णय लेते समय इंसानी और पर्यावरणीय सुरक्षा दोनों का ध्यान रखना अनिवार्य होना चाहिए।
2. प्राकृतिक अवरोधों की बहाली: हमें अपने प्राकृतिक सुरक्षा कवच को फिर से मज़बूत करना होगा। इसका मतलब है नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में फिर से जंगल लगाना (reforestation), आर्द्रभूमियों और ऊंचाई वाले घास के मैदानों (alpine meadows) की रक्षा करना, और मिट्टी को स्वस्थ बनाए रखना। ये प्राकृतिक तंत्र बारिश का पानी सोखते हैं, बाढ़ का प्रभाव कम करते हैं और पहाड़ों की ढलानों को थामते हैं; यह सुरक्षा व्यवस्था किसी भी कॉन्क्रीट की दीवार से ज़्यादा प्रभावी होती है।
हर पेड़ लगाना, हर घास के मैदान को बचाना, हमारे भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में एक कदम है। इसके लिए स्थानीय समुदायों और सरकार, दोनों को मिलकर काम करना होगा। स्थानीय लोग अपनी भूमि को सबसे अच्छी तरह जानते हैं, और सरकार को इन महत्वपूर्ण प्रयासों को आर्थिक और नीतिगत समर्थन देना चाहिए।
3. पनबिजली और ऊर्जा योजनाएं जलवायु के अनुरूप बनें: पनबिजली परियोजनाओं का आकलन केवल लाभ के आधार पर नहीं, बल्कि जलवायु सुरक्षा (climate resilience) के दृष्टिकोण से होना चाहिए — जैसे वे हिमनद झील फटने या बादल को कैसे प्रभावित करती हैं।
साथ ही, वाहन प्रदूषण को कम करना, अत्यधिक ऊर्जा खर्च करने वाली ठंडक प्रणालियों (energy efficiency) को नियंत्रित करना, और टिकाऊ ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना ज़रूरी है। इससे ग्लेशियरों का पिघलना धीमा होगा और अचानक भारी वर्षा की घटनाएं कम होंगी।
वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी वैसे तो पूरे विश्व समुदाय की है, लेकिन भारत को इसमें अग्रणी भूमिका निभानी होगी; खासकर हिमालय जैसे सबसे ऊंचे और नाज़ुक क्षेत्र में हरित ऊर्जा और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देकर।
अगर इन कदमों को न अपनाया गया, तो हिमालयी पर्वत जवानी (Himalayas conservation) में ही मर जाएंगे। लेकिन अगर हम आज से ही टिकाऊ बदलाव (sustainable change) को अपनाएं, तो ये पर्वत, यहां का वन्य जीवन और यहां के लोग आने वाली कई सदियों तक सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। आइए, हम सब मिलकर ऐसा हरित भविष्य बनाएं, जहां हर छोटा कदम और हर महत्वाकांक्षा प्रकृति के प्रति सम्मान पर आधारित हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://therevelator.org/wp-content/uploads/2025/11/james-chou-60tWv_X-avM-unsplash.jpg
डायनासौर के जितने जीवाश्म (dinosaur fossils) मिलें, कम हैं। जितनी अधिक संख्या में ये मिलेंगे, जैव वैकास (evolution research) के कुछ अनसुलझे रहस्य उतनी आसानी से सुलझेंगे। लेकिन दिक्कत यह है कि हर किसी को इनकी पहचान नहीं होती, इनकी पहचान के लिए नज़रों को पैना और पारखी होना पड़ता है। यदि नज़रें तेज़ हों तो भी पत्थरों और झाड़-झंखाड़ वाले विशाल भूभाग में बिखरे इन जीवाश्मों को खोजना मुश्किल होता है।
लेकिन करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हालिया अध्ययन से ऐसा लगता है कि अब यह मुश्किल दूर होने वाली है। जीवाश्मों को खोज निकालने में वैज्ञानिकों का साथ देने वाले हैं चटख रंग के लाइकेन (lichen detection technology) (फफूंद और शैवाल के संगम से बने जीव)।
हाल ही में, कनाडा के डायनासौर प्रोविन्शियल पार्क (Dinosaur Provincial Park) में शोधकर्ताओं ने चटख नारंगी रंग की ऐसी लाइकेन की पहचान की है जो डायनासौर की हड्डियों पर फलती-फूलती हैं, जबकि उसके आसपास के पत्थरों और चट्टानों को अपेक्षाकृत अछूता छोड़ देती हैं। इससे जीवाश्म को पहचानना आसान हो सकता है।
ऐसा शायद इसलिए होता है क्योंकि खासकर क्रेटेशियस काल (Cretaceous period fossils) की अश्मीभूत हड्डियों की क्षारीय, कैल्शियम युक्त और छिद्रमय संरचना कनाडाई बैडलैंड्स जैसे अर्ध-शुष्क वातावरण में लाइकेन को पनपने के लिए माकूल परिस्थिति देती है।
वैसे तो लाइकेन कई तरह के जीवाश्मों पर फल-फूल कर उन्हें चटख रंगों से रंग सकती है, लेकिन यह शाकाहारी ऑर्निथिशियन डायनासौर (ornithischian dinosaurs) की बड़ी हड्डियों को सबसे अधिक उजागर करती हैं। और इन डायनासौर के जीवाश्म इस पार्क में बहुतायत में पाए जाते हैं। उम्मीद है, अब लाइकेन से ढंके जीवाश्मों को विशेष सेंसर से लैस ड्रोन (drone fossil mapping) की मदद से पहचाना जा सकेगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/content/article/organism-turns-dino-bones-orange-making-them-easier-spot
हर साल ज़हरीले सांपों (snake bite deaths) के काटने से एक लाख से अधिक लोगों की मौत हो जाती है, और कई लाख लोग अपंग हो जाते हैं। WHO ने इसे एक ‘उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी’ (neglected tropical disease) कहा है। इससे सबसे अधिक प्रभावित गरीब और ग्रामीण इलाकों के लोग होते हैं, जहां सही इलाज की सुविधा नहीं होती। और मौजूदा एंटीवेनम (antivenom treatment) की प्रभाविता की सीमा आ चुकी है।
गौरतलब है कि पारंपरिक एंटीवेनम दवाएं घोड़ों या भेड़ों जैसे जीवों को थोड़ी मात्रा में सांप का ज़हर देकर तैयार की जाती हैं। इन जीवों के शरीर में ज़हर के खिलाफ बनी एंटीबॉडी (antibody therapy) का उपयोग इंसानों के इलाज में किया जाता है। लेकिन यह प्रक्रिया महंगी है और हर बार एक जैसी गुणवत्ता भी नहीं मिलती। हर बैच में कुछ एंटीबॉडी असरदार होती हैं, कुछ नहीं। इसलिए एक ही मरीज़ को ठीक करने के लिए कई खुराकें देनी पड़ती हैं। इसके अलावा, घोड़े से बनी एंटीबॉडी कई बार गंभीर एलर्जिक रिएक्शन (allergic reaction risk) पैदा कर देती हैं, जो कभी-कभी जानलेवा भी हो सकती है। इस डर से कई डॉक्टर दवा देने में झिझकते हैं।
बेहतर इलाज (effective snakebite cure) की तलाश में, डेनमार्क की टेक्निकल युनिवर्सिटी (Technical University of Denmark) के एंड्रियास लाउस्टसेन-कील और उनकी टीम ने लामा व अलपाका जीवों की ओर रुख किया। ये जीव बहुत छोटी और सरल एंटीबॉडी बनाते हैं, जिन्हें नैनोबॉडीज़ (nanobodies research) कहा जाता है। ये नैनोबॉडीज़ ज़हरीले तत्वों को बहुत सटीकता से पकड़ लेती हैं।
टीम ने अफ्रीका की 18 अलग-अलग सांप प्रजातियों (snake venom species) (जैसे कोबरा, माम्बा और रिंकहॉल) के ज़हर को लामा और अलपाका में इंजेक्ट किया ताकि वे नैनोबॉडीज़ बना सकें। इसके बाद, उन्होंने इन नैनोबॉडीज़ के डीएनए को ई.कोली बैक्टीरिया (E. coli bacteria) के जीनोम में जोड़ा, जिससे ये सूक्ष्मजीव प्रयोगशाला में नैनोबॉडीज़ बनाने की ‘फैक्टरी’ बन गए।
हज़ारों नमूनों की जांच के बाद, वैज्ञानिकों ने आठ ऐसी नैनोबॉडीज़ चुनीं जो ज़हर को निष्क्रिय करने में सबसे प्रभावी थीं। जब चूहों को जानलेवा मात्रा में सांप का ज़हर देने के बाद ये नैनोबॉडीज़ दी गईं, तो वे लगभग सभी सांपों (सिवाय ईस्टर्न ग्रीन माम्बा) के ज़हर से बच गए।
मौजूदा प्रमुख एंटीवेनम Inoserp PAN-AFRICA की तुलना में, इस नए मिश्रण (new antivenom formula) ने ज़्यादा चूहों की जान बचाई और ऊतकों को कम नुकसान पहुंचाया। वैज्ञानिकों का मानना है कि बहुत छोटी होने के कारण ये नैनोबॉडीज़ शरीर के अंदर गहराई तक पहुंचकर ज़हर के फैलाव को अधिक प्रभावी ढंग से रोक सकती हैं।
इस तकनीक (biotech innovation) से लागत भी काफी कम हो सकती है। घोड़ों या भेड़ों की अपेक्षा बैक्टीरिया की मदद से नैनोबॉडीज़ तैयार करना सस्ता (low-cost biotech production) है। और यदि यह कम मात्रा में ज़्यादा कारगर हो, तो यह किफायती और ज़्यादा लोगों तक पहुंचने योग्य बन सकता है। एक और बड़ी बात यह है कि इसमें एलर्जी या सेप्टिक शॉक का खतरा बहुत कम है।
वैज्ञानिक अब कुछ और सांपों के ज़हर शामिल करके फार्मूले को और बेहतर बनाने में लगे हैं। अगर यह प्रयास सफल रहा, तो यह खोज अफ्रीका, एशिया और अन्य देशों में सांप के काटने के इलाज (global snakebite treatment) को पूरी तरह बदल सकती है।(स्रोत फीचर्स)
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मशहूर वैज्ञानिक जेम्स वॉटसन (James D. Watson)का निधन 6 नवंबर के दिन 97 साल की उम्र में हो गया। उन्होंने 1953 में फ्रांसिस क्रिक के साथ मिलकर डीऑक्सी रायबोन्यूक्लिक एसिड (डीएनए – DNA) की दोहरी कुंडली संरचना (double helix structure) का खुलासा किया था। इस कार्य के लिए उन्हें 1962 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यह खोज जीव विज्ञान (molecular biology discovery) के क्षेत्र में निहायत महत्वपूर्ण साबित हुई थी और इसने कई अनुसंधान क्षेत्रों के बढ़ावा दिया था।
डीएनए की संरचना (DNA structure) के खुलासे के बाद वैज्ञानिकों के लिए यह समझने का रास्ता खुल गया कि आनुवंशिकता का आणविक आधार क्या है और कोशिकाओं में प्रोटीन का संश्लेषण (protein synthesis) कैसे होता है। इसी समझ के दम पर मानव जीनोम की पूरी क्षार शृंखला का अनुक्रमण (Human Genome Project) करने का मानव जीनोम प्रोजेक्ट शुरू हुआ था। डीएनए संरचना की इस समझ के बगैर शायद कई सारे अनुप्रयोग (genetic research applications) संभव न हो पाते। दिलचस्प बात है कि जब डीएनए संरचना सम्बंधी वॉटसन और क्रिक का शोध पत्र नेचर (Nature journal) में प्रकाशित हुआ था, उस समय वॉटसन मात्र 25 वर्ष के थे।
वैसे वॉटसन और क्रिक द्वारा की गई खोज एक अन्य वैज्ञानिक रोज़लिंड फ्रैंकलिन (Rosalind Franklin) और मॉरिस विल्किंस (Maurice Wilkins) के महत्वपूर्ण योगदान को पूरी तरह नकारने के कारण थोड़ा विवादों से भी घिर गई थी। वैसे भी कहते हैं कि वॉटसन बहुत बड़बोले थे और महिलाओं की क्षमताओं (women in science) के लेकर काफी नकारात्मक विचार रखते थे।
बहरहाल, अपने इस बुनियादी योगदान के बाद वॉटसन ने कई नस्लभेदवादी वक्तव्य (racist remarks controversy) दिए जिनके चलते जीव वैज्ञानिकों के बीच वे काफी बदनाम भी हुए। जैसे, 2001 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) (University of California Berkeley) में एक व्याख्यान में उन्होंने त्वचा के रंग और यौनेच्छा का सम्बंध जोड़ा था और कहा था कि दुबले लोग ज़्यादा महत्वाकांक्षी होते हैं। इसी तरह 2007 में उन्होंने दावा किया था कि अश्वेत लोग श्वेत लोगों की तुलना में कम बुद्धिमान (intelligence and race debate) होते हैं। उन्होंने यहूदी विरोध (एंटी-सेमिटिज़्म – anti-Semitism) को भी जायज़ ठहराया था। इन विचारों के चलते उन्हें कोल्ड स्प्रिंग हार्बर लेबोरेटरी (Cold Spring Harbor Laboratory) के नेतृत्व की भूमिका से हटा दिया गया था। अंतत: 2020 में संस्था ने उनसे पूरी तरह नाता तोड़ लिया था।
विज्ञान जगत (scientific community) इस निहायत निपुण वैज्ञानिक और उसकी विवादास्पद सामाजिक विरासत (controversial legacy) को समझने की कोशिश करता रहेगा।(स्रोत फीचर्स)
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पुरुषों के लिए लंबी आयु (life expectancy in men) की सारी कामनाओं, प्रार्थनाओं के बावजूद मैं अपने परिजनों में पाता हूं कि पुरुष पहले स्वर्ग सिधारते हैं और अक्सर महिलाएं लंबी आयु प्राप्त करती हैं। तो क्या पुरुष जन्म से ही पहले मरने के लिए नियत है? सभी परिस्थितियां समान मिलें तो भी मेरे साथ पैदा हुई महिला की तुलना में मैं तीन वर्ष पूर्व मरने के लिए अभिशप्त हूं।
महिला-पुरुष के जीवनकाल (male vs female lifespan) में अंतर बहुत पहले से ज्ञात है। यह केवल भारत में ही नहीं पूरे विश्व में पत्थर की लकीर-सा नियम है। तो पुरुषों में ऐसा क्या है कि वे महिलाओं की तुलना में अल्प आयु में मर जाते हैं। हाल ही के शोध कार्यों से हम इस तथ्य का कारण समझने के समीप पहुंचे हैं।
कुछ लोग पुरुषों के छोटे जीवनकाल का कारण व्यवहार में अंतर (lifestyle differences) को मानते हैं। व्यवहार, जैसे पुरुष युद्ध लड़ते हैं, खदानों में कार्य करते हैं, श्रमयुक्त मज़दूरी करते हैं और इस प्रकार अपने शरीर पर अतिरिक्त दबाव डालकर भी मैदान में डटे रहते हैं। सामाजिक विज्ञान के कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि पुरुष आदतन झक्की होते हैं। वे अत्यधिक धूम्रपान (smoking habits) करते हैं, अनियंत्रित पीते हैं और पेटू होते हैं इसलिए उनका वज़न ज़्यादा होता है। बीमार होने पर चिकित्सीय सहायता लेने में भी आना-कानी करते हैं और बीमारी का पता चल जाए तो भी अधिक संभावना इस बात की रहती हैं कि वे पूरा उपचार ना लें। साथ ही, वे गुस्सैल होते हैं और आपसी लड़ाई, दुर्घटना और अत्यधिक जोखिम भरे कार्य पसंद करते हैं। इस दौरान चोट अथवा बीमारी से उनका शरीर कमज़ोर हो जाता है। किंतु यदि ऐसा ही था तो पुरुषों को आरामदायक कार्य मिलने पर तो दोनों का जीवनकाल एक जैसा होना था।
तो क्या हमारे करीबी रिश्तेदार वानरों में भी ऐसा ही है? मानव को छोड़कर बाकी सभी प्रायमेट्स (primates study) पर भी वैज्ञानिकों ने शोध किया। वे देखना चाहते थे कि क्या हमारे नज़दीकी रिश्तेदार वानरों में भी मादा की आयु नर से ज़्यादा होती है? वैज्ञानिकों ने 6 जंगली प्रायमेट्स (सिफाकास, मुरिक्विस, गोरिल्ला, चिम्पैंजी और बबून) के ऐसे समूह से उम्र सम्बंधी आंकड़े बटोरे जिनकी संख्या समूह में 400 से 1500 तक थी। फिर शोधकर्ताओं ने आधुनिक एवं ऐतिहासिक दोनों समय के छह मानव समूह की आबादी के आंकड़े भी देखे। वैज्ञानिकों ने पाया कि पिछली शताब्दी की तुलना में मानव आयु में बहुत वृद्धि होने के बावजूद पुरुष-महिला के जीवनकाल में अंतर कम नहीं हुआ। शोध से यह भी बात सामने आई कि मानव आबादी में यद्यपि महिलाएं ज़्यादा समय तक जीवित रहती हैं परंतु भौगोलिक वितरण के अनुसार यह अंतर अलग-अलग रहा था। उदाहरण के लिए आधुनिक रूस में पुरुष-महिला के जीवनकाल में अंतर लगभग 10 वर्ष का है जो सबसे अधिक है।
अधिक उम्र का जैविक कारण (biological reasons for longevity)
जीव विज्ञानी अल्पायु के लिए पुरुषों के गुणसूत्रों (chromosomes in men) को दोषी ठहराते हैं। महिलाओं को निश्चित रूप से जैविक लाभ जन्म के साथ ही प्राप्त होने लगता है। बाहरी प्रभावों के अभाव में भी लड़कों की मृत्यु दर लड़कियों से 25-30 प्रतिशत अधिक देखी गई है। आंकड़े भी महिलाओं के जन्मजात आनुवंशिक (genetic advantage in women) लाभ दर्शाते हैं।
मनुष्यों तथा कई अन्य जंतुओं में लिंग का निर्धारण गुणसूत्रों द्वारा होता है। मनुष्यों की कोशिकाओं में कुल 23 जोड़ी गुणसूत्र पाए जाते हैं। इनमें 22 जोड़ियों में तो गुणसूत्र परस्पर पूरक होते हैं। लेकिन 23वीं जोड़ी में दो गुणसूत्र अलग-अलग किस्म के होते हैं। शुक्राणु दो प्रकार के होते हैं (X तथा Y), जबकि सारे अंडाणु एक ही प्रकार के होते हैं (X)। यदि व्यक्ति में दोनों गुणसूत्र X हों तो मादा यानी लड़की बनती है और जब एक गुणसूत्र X तथा Y दूसरा हो तो नर यानी लड़का।
जब इन X गुणसूत्रों के जीन्स में से एक जीन उत्परिवर्तित होता है तो महिलाओं में पाया जाने वाला दूसरा X गुणसूत्र उसके कार्य को संभाल लेता है या उसके दुष्प्रभाव को दबा देता है। जबकि पुरुषों में केवल एक X गुणसूत्र होने के कारण उसमें उत्परिवर्तन हो जाए तो गंभीर परिस्थिति उत्पन्न कर सकता है।
इस प्रकार दोनों लिंगों के बीच जेनेटिक अंतर (genetic difference) एक लिंग में उम्र बढ़ाता है तो दूसरे में कम कर देता है। इसके अलावा महिलाओं के हार्मोन (female hormones) और प्रजनन में महिलाओं की अगली पीढ़ी में निवेश की महत्वपूर्ण भूमिका को भी दीर्घायु से जोड़ा गया है। उदाहरण के लिए महिलाओं में बनने वाला हार्मोन एस्ट्रोजन (estrogen hormone) खराब कोलेस्ट्रॉल को खत्म करने में कारगर है जिससे महिलाओं का शरीर हृदय सम्बंधी बीमारियों (heart disease risk) से प्राय: सुरक्षित बना रहता है। दूसरी ओर केवल पुरुषों में बनने वाला टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन उनमें हिंसा और जोखिम लेने की उत्कंठा उत्पन्न करता है। आखिर में महिलाओं का शरीर गर्भावस्था (pregnancy health) और स्तनपान की ज़रूरतों के अनुसार भोजन का भंडारण करने के लिए बना होता है। वे भोजन की ज़्यादा मात्रा को भी उचित तरीके से संग्रहित या शरीर के बाहर निकालने के अनुरूप ढली हुई हैं। इसके अलावा भी अनेक आनुवंशिक एवं जैविक कारण ज्ञात हैं जिनका स्त्री और पुरुष दोनों के शरीर पर समग्र प्रभाव को मापना असंभव है। पिछले कुछ दशकों में असाधारण आर्थिक और सामाजिक प्रगति से मातृत्व बोझ में नाटकीय कमी भी देखी गई है। इस प्रकार सभी परिस्थितियां महिलाओं को अनुकूल बनाती हैं।
एक परिकल्पना ‘जॉगिंग हार्ट’ (jogging heart hypothesis) के अनुसार माहवारी चक्र के उत्तरार्ध में, यानी अंडोत्सर्ग के बाद, हृदय की गति बढ़ जाती है। हृदय गति बढ़ने से वैसी ही लाभकारी परिस्थिति उत्पन्न होती है जैसी हल्का व्यायाम (light exercise benefits) करने पर या जॉगिंग करने पर होती है। बाद के जीवन में इसके लाभकारी असर देखे जा सकते हैं। इसलिए हृदय रोग का जोखिम भी महिलाओं को बेहद कम होता है।
अधिक कद भी एक महत्वपूर्ण कारक (height and aging factor) है। लंबे लोगों में अधिक कोशिकाएं होती हैं। इसलिए उन्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अधिक कोशिकाओं में उत्परिवर्तन की संभावनाएं भी अधिक हो जाती है तथा ज़्यादा ऊर्जा खर्च करने से कोशिकाएं जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं। अत: पुरुषों की अधिक ऊंचाई उन्हें अधिक दीर्घकालीन क्षति की ओर धकेलती है।
वे कारण जो महिलाओं को लंबी उम्र (women longevity reasons) देते हैं कई बार अटपटे, अनिश्चित और रहस्यमयी लगते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि सारी प्रार्थनाएं और व्रत-उपवास इस खाई को पाट नहीं सके हैं। (स्रोत फीचर्स)
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साइंटिफिक रिपोर्ट्स जर्नल (Scientific Reports Journal) के जुलाई 2024 के अंक में वी. वियालॉन और साथियों द्वारा एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी। इस रिपोर्ट में विशिष्ट रोगों के होने के जोखिम की जांच के लिए एक स्वस्थ जीवनशैली सूचकांक (Healthy Lifestyle Index -HLI) के उपयोग पर चर्चा की गई थी। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने देखा था कि हर जीवनशैली का रोगों का शिकार होने से क्या सम्बंध है। इसके लिए उन्होंने युरोपियन पर्सपेक्टिव इनवेस्टीगेशन इनटू कैंसर एंड न्यूट्रीशियन (EPIC) के डैटा और टाइप-2 डायबिटीज़, कैंसर और हृदय सम्बंधी विकारों से होने वाली अकाल मृत्यु के जोखिम का डैटा उपयोग किया था। इनमें से कुछ तरह की जीवनशैली में धूम्रपान करना, अत्यधिक मद्यपान करना, खान-पान की आदतें, मोटापा (शरीर में अतिरिक्त वसा) (obesity) और अत्यधिक नींद जैसी अस्वास्थ्यकर चीज़ें भी शामिल थीं।
इसी सिलसिले में, स्पेन के रेनाल्डो कॉर्डोवा और डेनमार्क, दक्षिण कोरिया, और उत्तरी आयरलैंड-यूके के सह-लेखकों का एक शोधपत्र दी लैंसेट – हेल्दी लॉन्गेविटी (The Lancet Healthy Longevity) के अगस्त 2025 के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था ‘वनस्पति-आधारित आहार पैटर्न एवं कैंसर तथा कॉर्डियोमेटाबोलिक रोगों की बहु-रुग्णता का आयु-विशिष्ट जोखिम: एक दूरदर्शी विश्लेषण (Plant-based dietary patterns and age-specific risk of multimorbidity of cancer and cardiometabolic diseases: a prospective analysis)। ‘मल्टीमॉर्बिडिटी’ का मतलब है एक ही व्यक्ति में दो या दो से अधिक जीर्ण (क्रॉनिक) रोग होना।
शोधकर्ताओं ने ऐसे मल्टीमॉर्बिड कैंसर (cancer research) से पीड़ित लगभग 2.3 लाख लोगों का डैटा EPIC डैटा बैंक से लिया और 1.81 लाख लोगों का डैटा यूके बायोबैंक (UK Biobank) से लिया और उसका विश्लेषण किया। उन्होंने चयापचय रोगों में इंसुलिन प्रतिरोध तंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका पाई। 35-70 वर्ष की आयु वाले विशिष्ट समूहों के लोगों की खान-पान की आदतों जैसी विशेषताओं तुलना करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि वनस्पति-आधारित स्वाथ्यकर आहार (plant-based diet) कैंसर और कॉर्डियोमेटाबोलिक रोगों की बहु-रुग्णता का बोझ कम कर सकता है।
अध्ययन में इस बात के प्रमाण भी मिले हैं कि कैसे पशु उत्पाद (मांस, मछली, अंडे सहित) (animal products) की अधिकता वाले आहार की तुलना में पादप-आधारित आहार (vegan diet) पर्यावरण की दृष्टि से अधिक निर्वहनीय होता हैं। शोधकर्ताओं ने स्वास्थ्यकर वनस्पति-आधारित आहार के सेवन का कैंसर और (उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा और टाइप-2 डायबिटीज़ सहित) हृदय रोगों (heart diseases) के कम जोखिम से मज़बूत सम्बंध पाया।
तंबाकू उत्पादों (tobacco consumption) के सेवन से भी कैंसर होता है। बहुप्रशंसित भूमध्यसागरीय आहार (Mediterranean diet) को बहुत अच्छा बताया गया है, हालांकि भूमध्यसागरीय आहार में मछली, चिकन और रेड वाइन भी शामिल होती है। गौरतलब है कि शाकाहारी या वीगन आहार (जिसमें पशु-आधारित कोई भी वस्तु शामिल नहीं होती है) से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (greenhouse gas emission) भी कम होता है। शाकाहारी आहार में दूध और कभी-कभी अंडे का सेवन शामिल होता है। लेकिन वीगन आहार में दूध, जोकि एक पशु उत्पाद है, से भी सख्त परहेज़ किया जाता है।
भारत की स्थिति
भारत की बात करें तो लगभग 35 प्रतिशत लोग शाकाहारी (vegetarian population) हैं; वे अपने दैनिक भोजन में अनाज और सब्ज़ियों के साथ दूध भी लेते हैं; इनमें से कुछ लोग अंडे भी खाते हैं। लगभग 10 प्रतिशत लोग वीगन हैं, जो दूध या कोई भी दुग्ध उत्पाद नहीं खाते।
किसी व्यक्ति में दो या उससे अधिक जीर्ण स्वास्थ्य स्थितियों (multiple chronic conditions) की उपस्थिति चिंताजनक है। अनुमान है कि 16.4 प्रतिशत शहरी आबादी डायबिटीज़ (diabetes) से पीड़ित है जबकि 8 प्रतिशत ग्रामीण आबादी डायबिटीज़-पूर्व स्थिति में है। लगभग 26 प्रतिशत शहरी भारतीय पुरुष और महिलाएं चयापचय विकारों के साथ इंसुलिन प्रतिरोधी भी हैं। दुर्भाग्य से, उनमें से लगभग 29 प्रतिशत लोग बीड़ी, सिगरेट और हुक्का पीते हैं, और इनमें मौजूद तंबाकू कैंसर का कारण बनता है। ग्रामीण आबादी न केवल धूम्रपान करती है बल्कि कई लोग सुपारी भी खाते हैं, जिसकी अधिकता से मुंह का कैंसर (oral cancer) हो सकता है। 60 वर्ष से अधिक आयु के 16 प्रतिशत लोग मधुमेह से पीड़ित हैं और इसके अलावा वे उम्र से सम्बंधित मनोभ्रंश और अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s disease) जैसे रोगों से भी पीड़ित हैं।
वक्त रहते चिकित्सा समुदाय(healthcare community), राजनेता, केंद्र व राज्य सरकारों को ध्यान देकर कोई रास्ता निकालना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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समुद्र (ocean) तरह-तरह की आवाज़ों से गुंजायमान (sound waves) है – मनुष्य के जहाज़ों की धीमी गड़गड़ाहट से लेकर उसके नैसर्गिक रहवासियों जैसे व्हेल(whales), डॉल्फिन और झींगों की धीमी-तेज़ आवाज़ों तक से। और अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि समुद्र की ये नैसर्गिक आवाज़ें यह बताने में मदद कर सकती हैं कि पानी कितना अम्लीय है: ये आवाज़ें समुद्री अम्लीयकरण (ocean acidification) जैसे गंभीर पर्यावरणीय खतरे को समझने का नया तरीका बन सकती हैं।
जर्नल ऑफ जियोफिज़िकल रिसर्च: ओशियन (Journal of Geophysical Research: Oceans) में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार लहरों, हवा और बारिश की आवाज़ें पानी की अम्लीयता को दूर तक और गहराई तक मापने में मददगार हो सकती हैं।
गौरतलब है कि समुद्र हर वर्ष मानव गतिविधियों (carbon emissions) से उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड का लगभग एक-तिहाई भाग सोख लेता है। इससे ग्लोबल वार्मिंग (global warming) में कुछ हद तक कमी तो होती है, लेकिन परिणामस्वरूप समुद्र के पानी की pH घटती है और वह अधिक अम्लीय हो जाता है। 1985 से अब तक समुद्र की सतह का pH 8.11 से घटकर 8.04 हो गई है। यह मामूली फर्क भी कोरल रीफ(coral reefs), समुद्री जीवों की खोल और पूरे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा है।
इसी समस्या को समझने के लिए कनाडा के वैज्ञानिक डेविड बार्कले और उनकी टीम ने एक नया तरीका खोजा। उन्होंने हाइड्रोफोन (hydrophone technology) से लैस ‘डीप साउंड’ नामक उपकरण को 5000 मीटर गहराई तक भेजा और पाया कि इतनी गहराई में भी सतह की लहरों की आवाज़ें सुनी जा सकती है। शोध में पता चला कि समुद्र में मौजूद बोरिक एसिड और मैग्नीशियम सल्फेट जैसे रसायन अलग-अलग आवृत्तियों की ध्वनि (sound frequency) सोखते हैं। और अम्लीयता बढ़ने पर दोनों पर अलग-अलग असर होते हैं – जहां बोरिक एसिड घटता जाता है (और उसके द्वारा सोखी गई ध्वनि भी), वहीं मैग्नीशियम सल्फेट अप्रभावित रहता है। जैसे-जैसे समुद्र अम्लीय होता है, यह संतुलन बदलता है और ध्वनि की आवृत्ति की मदद से वैज्ञानिक समुद्र की pH माप सकते हैं। इस खोज (scientific discovery) को मुकम्मल करने में टीम को लगभग 15 साल लगे। लेकिन अब उनका नया उपकरण 10,000 मीटर की गहराई (मैरियाना ट्रेंच के चैलेंजर डीप) (Mariana Trench) तक काम कर सकता है। यह तकनीक बड़े पैमाने पर pH मॉनीटरिंग (pH monitoring) को संभव बनाती है।
हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह तरीका अभी पारंपरिक रासायनिक मापों जितना सटीक नहीं है। अलबत्ता, मौजूदा रोबोटिक सेंसर आधारित BGC-Argo तकनीकें फंडिंग और सप्लाई की दिक्कतों से जूझ रही हैं, ऐसे में यह ध्वनि-आधारित तकनीक एक महत्वपूर्ण विकल्प (alternative technology) बन सकती है।
बहरहाल, योजना इन उपकरणों को महीनों तक समुद्र तल पर छोड़कर दीर्घकालिक डैटा (long-term data) जुटाने की है।(स्रोत फीचर्स)
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