डर से लड़कर आगे बढ़ना – मैंने भौतिकी को क्यों चुना?

सुमति राव

मैं स्कूल और कॉलेज में बहुत अच्छी छात्रा थी और हमेशा पहेलियों (puzzles)  में रुचि रखती थी, चाहे वे शाब्दिक हों या आंकिक। बचपन में मुझे जासूसी कहानियां बहुत पसंद थीं। मुझे गणित (mathematics)  और विज्ञान दोनों अच्छे लगते थे, क्योंकि ये दोनों ही निगमन तर्क (deductive logic) पर आधारित थे। जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई (वडोदरा में), मैंने लोकप्रिय विज्ञान और वैज्ञानिकों पर किताबें पढ़नी शुरू कीं और वैज्ञानिक (scientist) बनना चाहती थी।

पिता ने हमें हमेशा ऊंचे लक्ष्य निर्धारित करने को प्रेरित किया। जब मैंने वैज्ञानिक बनने का फैसला किया, तो उन्होंने सोचा कि मैं मैरी क्यूरी (Marie Curie) बनूंगी। मेरी मां की सोच अधिक व्यावहारिक और सरल थी। उन्हें भी पढ़ाई का शौक था, इसलिए उन्हें मेरा वैज्ञानिक बनने का ख्याल बहुत अच्छा लगा, और उन्होंने इसे करियर से अधिक एक जुनून के रूप में देखा जिसे पारिवारिक जीवन के साथ निभाया जा सकता है।

मुझे सिर्फ विज्ञान से प्रेम नहीं था, बल्कि मेरी एक मज़बूत नारीवादी (feminist)  सोच थी और करियर की महत्वाकांक्षाएं थी। स्कूल छोड़ते समय मैंने सोचा कि क्या विज्ञान सही करियर विकल्प है या इंजीनियरिंग (engineering) करना बेहतर होगा (चिकित्सा से तो मुझे नफरत थी)। मुझे यह भी चिंता थी कि विज्ञान को एक ऐसे व्यक्ति के लिए कम प्रतिष्ठित माना जाएगा जो ‘टॉपर’ है और जिसे चिकित्सा और इंजीनियरिंग (आई.आई.टी. सहित) जैसे पेशेवर क्षेत्रों में दाखिला मिल रहा था। लेकिन, नेशनल साइंस टैलेंट स्कॉलरशिप (NSTS scholarship) मिली और मुझे अपने दिल की सुनने की प्रेरणा मिली, क्योंकि इससे मुझे उन छात्रों से अलग पहचान मिली जो भौतिकी केवल इसलिए पढ़ रहे थे क्योंकि वे पेशेवर क्षेत्रों में नहीं जा पाए थे।

NSTS ग्रीष्मकालीन शाला ने मुझे अन्य हमउम्र छात्रों से मिलने का मौका दिया, जो विज्ञान (science)  में रुचि रखते थे। यह मेरे स्कूल के समूह में संभव नहीं था (जो एक लड़कियों का स्कूल था)। यह मेरे लिए आंखें खोल देने वाला अनुभव था और मुझे उन छात्रों से मिलकर अच्छा लगा, जो भौतिकी (physics) के सवालों पर चर्चा करना चाहते थे। यह सुखद अनुभव बाद में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई (IIT Bombay) में भी जारी रहा, जहां परीक्षा और टेस्ट के दबाव के बावजूद मुझे भौतिकी पढ़ना बहुत मज़ेदार लगता रहा।

स्टोनीब्रुक (Stony Brook University), जहां मैंने अपनी पीएचडी (PhD) की, वहां भी यही अनुभव रहा। हमें एक अद्भुत सहकर्मी समूह मिला, जहां हमने एक-दूसरे से भौतिकी सीखी, और जीवन के बारे में भी सीखा। मैंने अपनी पीएचडी उच्च ऊर्जा भौतिकी (high energy physics) में की थी, खासकर ग्रैंड यूनिफाइड थ्योरी (grand unified theory) के उपक्षेत्र में, जो उन दिनों बहुत रोमांचक लग रहा था। मेरा अपने पीएचडी मार्गदर्शक के साथ अच्छा सम्बंध था; वे युवा थे और महिला छात्रों के प्रति कोई भेदभाव नहीं करते थे। अलबत्ता, वे उस समय काफी चिंतित हो गए थे जब मैं पहले साल में ही एक लंबा ब्रेक लेकर भारत लौटी थी। उन्हें लगा कि मैं शादी कर लूंगी और पढ़ाई छोड़ दूंगी। लेकिन मेरे असली गुरु तो मेरे सहपाठी थे, हमने एक-दूसरे को प्रेरित किया, परखा और सिखाया।

ज़िंदगी में असली चुनौती तब आई जब उम्र बढ़ी और हमें नौकरी की तलाश (job search) में जुटना पड़ा। मैंने स्टोनीब्रुक के एक साथी छात्र से शादी की और हम दोनों ने पोस्ट-डॉक्टरल फैलोशिप ले ली। मेरी पहली पोस्ट-डॉक्टरल फैलोशिप (postdoctoral fellowship) मेरे पति के साथ थी, लेकिन उसके बाद साथ में नौकरी पाना मुश्किल हो गया। शादी के शुरुआती सालों में हम भौतिकी पर चर्चा करते थे, क्योंकि यह हमारी साझा रुचि थी और यही हमें एक साथ लाने का कारण भी था। लेकिन मुझे इस बात का ध्यान रखना पड़ा कि मैं स्वतंत्र रूप से काम करूं, ताकि मुझे स्वतंत्र रूप से आंका जाए।

हम दोनों भारत लौटना चाहते थे और विदेश में नौकरी की तलाश नहीं की। लेकिन उन दिनों (1980 के दशक के उत्तरार्ध) भारत में बहुत कम संस्थान थे और नौकरी के अवसर भी कम थे। उस समय कुछ पुराने और अलिखित, ‘चाचा-भतीजावाद विरोधी’ नियम थे, जो पति-पत्नी को एक ही जगह नौकरी करने से रोकते थे। मुझे भुवनेश्वर के इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िक्स (Institute of Physics) में नौकरी मिली और मेरे पति को मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट में नौकरी मिली, यानी भारत के दो अलग-अलग हिस्सों में। हम दोनों करियर के प्रति समर्पित थे, इसलिए एक जगह साथ रहने और दो अलग-अलग स्थानों पर नौकरी करने के बीच चयन करना कठिन नहीं था। मैं यह भी कहूंगी कि मुझे अपने परिवार से भरपूर समर्थन मिला। मेरे ससुराल वालों ने इस फैसले के लिए मुझे कभी दोषी महसूस नहीं कराया।

हालांकि निर्णय तो लिया मगर जीवन आसान नहीं था। उस समय संचार बहुत कठिन था। हमारे पास फोन नहीं थे और सूचना प्रौद्योगिकी (information technology) का दौर, जैसे ईमेल और इंटरनेट, अभी दूर था। सस्ती हवाई यात्रा भी उपलब्ध नहीं थी। दोनों शहरों के बीच ट्रेन यात्रा में लगभग 40 घंटे लगते थे। पति से दूर रहने के अलावा, भुवनेश्वर जैसे छोटे शहर में अकेले रहना भी आसान नहीं था। अंतत: मुझे कैंपस के एक गेस्टहाउस में रहना पड़ा और पीएचडी के दस साल बाद भी एक पीएचडी छात्र की तरह जीवन गुज़ारना पड़ा।

यहां मुझे यह एहसास हुआ कि एक युवा महिला शिक्षक को छात्रों और लगभग उसी की उम्र के पोस्ट-डॉक्टरल फैलो द्वारा गंभीरता से लिया जाना कठिन होता है। ‘एकल महिला’ (अलग रह रही युवा विवाहित महिलाएं भी इस श्रेणी में आती हैं) (single woman) पर ध्यान आकर्षित होने के अलावा युवा महिला भौतिकविदों को लगातार परीक्षाओं से गुज़रना होता है। बहुत तेज़ आवाज़ न होना और आक्रामक व्यक्तित्व न होने को आत्मविश्वास की कमी समझा जाता है।

जब मुझे यह एहसास हुआ कि मेरी उपलब्धियों को कम करके आंका जा रहा है और मेरे काम और शोध पत्रों का श्रेय मेरे पति को दिया जा रहा है, तो मैंने अपना शोध क्षेत्र (research field) बदलने का एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया ताकि मेरे पति और मैं एक ही क्षेत्र में न रहें। इससे मेरी ज़िंदगी थोड़ी और कठिन हो गई, क्योंकि उच्च-ऊर्जा भौतिकी में ट्रेनिंग और विदेशों में संपर्क अब मेरे लिए उपयोगी नहीं रह गए थे और मुझे फिर से शुरुआत करनी पड़ी।

हालांकि, मुझे लगता है कि लंबे समय में यह निर्णय सही था। संघनित पदार्थ भौतिकी (कंडेंस्ट मैटर फिज़िक्स) (condensed matter physics) एक विस्तृत क्षेत्र है जिसमें बहुत सारे रोचक सवाल थे, और इससे मेरी पहले की ट्रेनिंग बेकार नहीं गई। इसके अलावा, इस विषय ने मुझे अच्छे पीएचडी छात्र (PhD students) दिए। उन्होंने निश्चित रूप से भौतिकी में मेरी रुचि बनाए रखने में काफी मदद की। आखिरकार, भारत लौटने के आठ साल बाद, और शादी के बारह साल बाद, 1995 में मेरे पति और मैंने इलाहाबाद के हरिशचंद्र अनुसंधान संस्थान (Harish-Chandra Research Institute) में नौकरी पाई। अब हम दोनों अच्छे से स्थापित हैं और सीनियर फैकल्टी हैं। वर्षों से, शोध और शिक्षा (जिसे मैं पसंद करती हूं) (education) के अलावा, मैंने भौतिकी में महिलाओं और दबे-छिपे पक्षपातों (gender bias) पर काम करना शुरू किया है, जो कई प्रतिभाशाली महिलाओं को नौकरी के अवसर से बाहर कर देते हैं।

यदि मैं आज अपने करियर की शुरुआत फिर से करूं, तो क्या मैं फिर से भौतिकी (physics career) चुनूंगी? यकीनन, हां। मुझे अब भी लगता है कि यह एक बहुत ही तार्किक विषय है और यह हमें हर चीज़ के बारे में सोचने की क्षमता सिखाता है। और अगर मैं सब कुछ फिर से शुरू करती, तो मैं क्या अलग करती? मैं अब खुद को उन तानों के प्रति कम संवेदनशील पाती, जो मुझे एक युवा महिला के रूप में दुख पहुंचाते थे। अब मैं न सिर्फ अपने पसंद के काम करने से, गलतियां करने से कम डरती बल्कि सामान्य तौर पर भी कम डरती! लेकिन शायद यह केवल एक वरिष्ठ महिला ही कह सकती है। इसके अलावा, मुझे लगता है कि मैं भारत में एक भौतिकीविद (physicist in India) के रूप में जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हूं और इसे किसी अन्य पेशे से नहीं बदलूंगी! ऐसा कौन सा पेशा है जो हमें इतनी स्वतंत्रता देता है? ऐसा कौन-सा करियर है जहां हम अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का हिस्सा महसूस करते हैं? ऐसा कौन सा करियर है जहां हम सेमिनार और सम्मेलनों के लिए कई देशों का दौरा कर सकते हैं और उन देशों के भौतिकविदों से परिचित हो सकते हैं? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हकलाने के जीन की तलाश

म तौर पर हकलाने (Stuttering) को एक व्यवहारगत दिक्कत (Behavioral Problem) माना जाता है और डांट-फटकारकर उसे दुरुस्त करने के प्रयास किए जाते हैं या उस व्यक्ति को शांत रहकर अपनी वाणि पर नियंत्रण करने की सलाह दी जाती है। हकलाने की समस्या दुनिया भर में लगभग 1 प्रतिशत लोगों को परेशान करती है। ये 7 करोड़ लोग विभिन्न भाषाएं बोलते हैं और विभिन्न पूर्वज समुदायों के वंशज हैं। यह समस्या आम तौर पर शुरुआती बचपन में शुरू होती है और अधिकांश लोग जल्दी ही इससे उबर जाते हैं लेकिन कुछ लोग बड़प्पन में प्रभावित रहते हैं।

दशकों के अनुसंधान से पता चला है कि हकलाना एक अनैच्छिक दिक्कत है और यह विरासत (Genetic Disorder) में भी मिल सकती है। इसके कारणों पर से कुछ धुंध छंटी है। इसमें एक कंपनी 23andMe के पास उपलब्ध सूचना से मदद मिली है। यह कंपनी डीएनए (DNA Testing) सम्बंधी निजी मदद करती है। लगभग 11 लाख लोगों के डीएनए के 57 खंडों को पहचाना गया है जिनके बारे में अंदाज़ था कि उनका सम्बंध हकलाने से है।

नेचर जेनेटिक्स (Nature Genetics) में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि इसमें जो जीन्स शामिल हैं उनका सम्बंध दिमाग (Brain Function) के कामकाज और लय-ताल के एहसास से है। अध्ययन से यह भी लगता है कि शायद हकलाने का सम्बंध ऑटिज़्म (Autism) और अवसाद जैसे स्थितियों से भी है। माना जा रहा है कि इस खोज से हमें हकलाने के जैविक कारकों और उसके उपचार (Treatment) के लिए दिशा मिलेगी।

2000 के दशक की शुरुआत में शोधकर्ताओं के पास न तो इतना बड़ा जेनेटिक डैटाबेस (Genetic Database) था और न ही उसके विश्लेषण के लिए सशक्त कंप्यूटर थे कि वे आम आबादी में हकलाने का सम्बंध जीन्स से खोज सकें। लिहाज़ा वे पाकिस्तान और अफ्रीका के एकरूप समुदायों में जेनेटिक पैटर्न पर ध्यान देते थे। उन्होंने कुछ संभावित डीएनए खंड और कुछ उत्परिवर्तन खोजे भी थे। लेकिन उन छोटे-छोटे अध्ययनों को सामान्य आबादी पर लागू करना संभव नहीं था।

ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 23andMe की मदद ली। उन्होंने दो समूहों के लोगों के जेनेटिक पैटर्न (Genetic Pattern) की तुलना की – 99,076 ऐसे लोग जिन्होंने कहा था कि वे हकलाते हैं और 9,81,944 ऐसे लोग थे जिन्होंने ‘ना’ कहा। इस तुलना के परिणामस्वरूप 57 ऐसे जेनेटिक खंड निकले जो थोड़ी हद तक हकलाने की संभावना बढ़ा सकते हैं। यानी हकलाना एक जटिल, बहुजीन आधारित समस्या है, अनिद्रा (Insomnia) और टाइप-2 मधुमेह के समान।

इस अध्ययन में कुछ जीन्स ऐसे भी पहचाने गए हैं जो शायद यह समझने में मदद करें कि हकलाने की समस्या की उत्पत्ति कहां से होती है। ऐसा सबसे सशक्त संकेत VRK2 जीन (VRK2 Gene) में मिला। इस जीन का सम्बंध शुरुआती तंत्रिका विकास से देखा गया है और इसके परिवर्तित रूप शिज़ोफ्रेनिया (Schizophrenia), मिर्गी, और मल्टीपल स्क्लेरोसिस से जुड़े पाए गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका सम्बंध संगीत की ताल के साथ ताली देने में दिक्कत से देखा गया है।

यह शोध का विषय रहा है कि ताल (Rhythm) के साथ कदमताल न कर पाने का सम्बंध हकलाने से हो सकता है और यह अध्ययन इसे बल देता है।

अध्ययन में चिंहित 20 जीन्स एक और सुराग देते हैं। इनका सम्बंध पहले भी ऑटिज़्म, एकाग्रता के अभाव व अति-सक्रियता (ADHD) वगैरह से देखा गया है। यानी संभव है कि इन सबमें एक से विकास पथ शामिल हैं।

अध्ययन से एक बात तो साफ है। हकलाना कोई व्यवहारगत या भावनात्मक समस्या (Emotional Disorder) नहीं है और इसकी बुनियाद में तंत्रिका का कामकाज है। वैसे इस अध्ययन की कई सीमाएं हैं। इसमें पुरुषों की भागीदारी ज़्यादा थी और एशियाई तथा अफ्रीकी लोगों का प्रतिनिधित्व भी कम था। शोधकर्ताओं का कहना है कि वे फिलहाल कोई ‘ऑन-ऑफ’ स्विच नहीं दे सकते। बहरहाल, यह अध्ययन हकलाने के साथ जुड़े सामाजिक पूर्वाग्रहों (Social Stigma) और धारणाओं को दूर करने में ज़रूर मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या आंतों में छिपा है अवसाद का राज़?

वसाद (Depression) आज दुनिया की सबसे आम मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) समस्याओं में से एक है, जो व्यक्ति के सोचने, महसूस करने और जीने के तरीके को प्रभावित करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 28 करोड़ लोग यानी करीब 5 प्रतिशत वयस्क अवसाद से पीड़ित हैं।

गौरतलब है कि लंबे समय से अवसाद और चिंता (Anxiety) को दिमाग की रासायनिक प्रक्रिया, जीन या जीवन की परिस्थितियों से जोड़ा जाता रहा है। लेकिन अब शोध से यह पता चला है कि हमारी आंतों में मौजूद सूक्ष्मजीव संसार – यानी बैक्टीरिया (Bacteria), फफूंद और अन्य सूक्ष्मजीवों का विशाल संसार – हमारे मूड को नियंत्रित करने में बड़ी भूमिका निभाता है।

शुरुआत में वैज्ञानिकों ने बस एक सह-सम्बंध देखा था: जिन लोगों को अवसाद या चिंता थी, उनके आंतों में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव स्वस्थ लोगों से अलग थे। फिर 2016 के दो अलग-अलग अध्ययनों में जब अवसाद से पीड़ित मनुष्यों की विष्ठा (Fecal Transplant) चूहों की आंत में डाली गई, तो चूहों में भी अवसाद जैसे लक्षण दिखने लगे। वे आनंद या खुशी का अनुभव करने में रुचि खो बैठे, उनमें चिंता जैसी हरकतें दिखीं और उनके मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रियाएं भी बदल गई।

इस खोज से यह स्पष्ट हुआ कि मानसिक बीमारियां (Mental Illness) सिर्फ जीन या किसी सदमे से नहीं होतीं, बल्कि सूक्ष्मजीवों के ज़रिए भी ‘स्थानांतरित’ हो सकती हैं। इससे एक नया सवाल उठा: अगर अस्वास्थ्यकर सूक्ष्मजीव बीमारी फैला सकते हैं, तो क्या स्वस्थ सूक्ष्मजीव हमें फिर से स्वस्थ बना सकते हैं?

जवाबों की ओर पहला कदम

इससे प्रेरित होकर, युनिवर्सिटी ऑफ कैलगरी की मनोचिकित्सक वैलेरी टेलर ने मनुष्यों पर परीक्षण शुरू किए। उन्होंने बाइपोलर डिसऑर्डर (Bipolar Disorder) जैसी बीमारियों से शुरुआत की जिन्हें ठीक करना सबसे मुश्किल माना जाता है। उनका सोचना था कि अगर उस मामले में विष्ठा सूक्ष्मजीव प्रत्यारोपण (फीकल माइक्रोबायोटा ट्रांसप्लांट, FMT) कारगर साबित होता है, तो यह अन्य बीमारियों में भी मदद कर सकता है।

शुरुआती अध्ययनों में दिखा कि आंतों के सूक्ष्मजीव संसार में बदलाव से मूड बेहतर हो सकता है। हालांकि FMT हर व्यक्ति पर एक जैसा असर नहीं करता, लेकिन कुछ मरीज़ों के लिए यह ज़िंदगी बदल देने वाला साबित हुआ। लेकिन एक समस्या है: FMT से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि कौन-से विशेष सूक्ष्मजीव इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। यह किसी खास बैक्टीरिया को नहीं बल्कि पूरे सूक्ष्मजीव संसार का पुनर्गठन करता है। शुरुआत के लिए तो ठीक है, लेकिन बहुत सटीक नहीं।

इसी कमी को दूर करने के लिए वैज्ञानिक अब साइकोबायोटिक्स (Psychobiotics) पर काम कर रहे हैं – यानी ऐसे फायदेमंद बैक्टीरिया (Probiotics – प्रोबायोटिक्स के रूप में) जो मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं। कुछ छोटे मानव परीक्षण बताते हैं कि इलाज के लिए अपने आप में इनकी क्षमता सीमित है, लेकिन साइकोबायोटिक्स अवसादरोधी दवाइयों का असर बढ़ा सकते हैं।

इस सम्बंध में वैज्ञानिकों का ध्यान आहार (Diet) पर भी रहा है। हमारा आहार हमारी आंत के सूक्ष्मजीव संसार को गहराई से प्रभावित करता है। 2017 में ऑस्ट्रेलिया में हुए एक मशहूर अध्ययन में पाया गया था कि मेडिटेरेनियन डाइट (जिसमें फल, सब्ज़ियां, दालें, मछली और साबुत अनाज अधिक हों) (Mediterranean Diet) अपनाने से प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण काफी कम हुए। भोजन से शरीर को प्रोबायोटिक्स मिलते हैं। ये ऐसे तत्व हैं जिन पर अच्छे बैक्टीरिया पनपते हैं और इस तरह एक स्वस्थ सूक्ष्मजीव समुदाय विकसित होता है।

शुरुआती नतीजे उत्साहजनक हैं, लेकिन यह क्षेत्र अभी नया है और इसमें कई सवाल बाकी हैं। जैसे, मानसिक स्वास्थ्य के लिए कौन-से खास सूक्ष्मजीव सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं? फायदा सूक्ष्मजीवों की विविधता से होता है या कुछ खास सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति या अनुपस्थिति से? कितने समय तक सूक्ष्मजीव संसार में बदलाव बने रहने चाहिए ताकि लक्षणों में सुधार दिखे? प्रोबायोटिक्स का असर इसलिए है कि वे अवसादरोधियों (Antidepressants) की क्षमता बढ़ाते हैं या वे एक बिल्कुल अलग प्रक्रिया से काम करते हैं?

वैज्ञानिक भविष्य में मानसिक स्वास्थ्य की ऐसी चिकित्सा (Treatment) की कल्पना कर रहे हैं, जिसमें इलाज का तौर-तरीका मरीज़ की आंतों के सूक्ष्मजीवों के अनुसार तय किया जाएगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर नैदानिक परीक्षण; जीन, प्रोटीन, मेटाबोलाइट्स वगैरह का अध्ययन (‘मल्टीओमिक्स’); और मस्तिष्क इमेजिंग (Brain Imaging) को सूक्ष्मजीव संसार के आंकड़ों के साथ जोड़कर देखने की ज़रूरत होगी। ये प्रयोग महंगे हैं, लेकिन अब लागत धीरे-धीरे कम हो रही है।

सबसे बड़ी रुकावट तो यह है कि कंपनियां इसमें भारी निवेश नहीं करना चाहतीं क्योंकि दवा कंपनियां दवाइयों पर तो पेटेंट ले सकती हैं, उन्हें आसानी से बेच सकती हैं और मुनाफा कमा सकती हैं। लेकिन प्रोबायोटिक्स या डाइट प्लान को इस तरह बेचना मुश्किल है।

अवसाद या मानसिक समस्याओं से पीड़ित लोगों के सूक्ष्मजीव संसार पर आधारित इलाज (Gut Microbiome Therapy) एक नया नज़रिया है। यह मानसिक बीमारियों को देखने की धारणाओं को भी बदल सकता है। अब मानसिक रोगों को सिर्फ दिमाग की गड़बड़ी नहीं, बल्कि शरीर, सूक्ष्मजीवों और मन के बीच जटिल संवाद का नतीजा माना जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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जिराफ की एक नहीं, चार प्रजातियां हैं

अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN, conservation) ने हाल ही में इस बात की पुष्टि की है कि जिराफ (giraffe)  की एक नहीं चार प्रजातियां हैं। यह रिपोर्ट जिराफ के संरक्षण (wildlife protection)  के लिहाज़ से महत्वपूर्ण मानी जा रही है।

दरअसल कुछ साल पहले तक समस्त जिराफ को बस एक ही प्रजाति, जिराफा कैमिलोपार्डेलिस (Giraffa camelopardalis), और उनकी नौ उप-प्रजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया था। लेकिन 2016 में, नामीबिया स्थित जिराफ संरक्षण फाउंडेशन (Giraffe Conservation Foundation) के शोधकर्ताओं ने संपूर्ण अफ्रीका (Africa) के जिराफों का जेनेटिक अनुक्रमण (genetics) किया था। इसमें उन्हें विभिन्न जिराफ आबादियों के बीच बहुत अंतर मिला था।

विश्लेषण में उन्हें चार अलग-अलग प्रजातियां समझ आई थीं जिन्हें उन्होंने मसाई (Giraffa tippelskirchi), उत्तरी (Giraffa camelopardalis), जालीदार (Giraffa reticulata) और दक्षिणी जिराफ (Giraffa giraffa) के रूप में वर्गीकृत किया था।

IUCN की हालिया रिपोर्ट (IUCN Red List) ने इसी अध्ययन को आगे बढ़ाया है। हालिया अध्ययन में विशेषज्ञों ने जिराफ का जेनेटिक डैटा (DNA) तो देखा ही, साथ ही उन्होंने विभिन्न जिराफ आबादियों की अस्थि संरचना भी देखी और उनके भौगोलिक वितरण पर हुए अध्ययनों की समीक्षा भी की। उनके निष्कर्ष भी जिराफ की चार प्रजातियां होने की ओर इशारा करते हैं।

ये निष्कर्ष जिराफ संरक्षण (endangered species) के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं। दरअसल जिराफ की हर प्रजाति के सामने अलग-अलग खतरे होंगे। यदि हमें उनकी विशिष्ट आवश्यकताएं पता होंगी तो उसी के अनुरूप हम संरक्षण रणनीतियां (conservation strategy) बना सकते हैं।

मसलन, मध्य अफ्रीकी गणराज्य और दक्षिण सूडान (South Sudan, Central African Republic) के बीच चल रहे सशस्त्र संघर्ष के चलते उत्तरी जिराफों की संख्या में 1995 के बाद से 70 प्रतिशत की कमी आई है और आज महज 7037 रह गई है। वहीं, उम्दा संरक्षण कार्यक्रमों (conservation programs) की बदौलत दक्षिणी जिराफ की आबादी इसी अवधि में दुगनी होकर 68,837 पर पहुंच गई है।

यदि समस्त जिराफ को एक ही प्रजाति (species) के रूप में देखा जाए तो किसी एक स्थान के जिराफ की तादाद में कमी इतनी चिंताजनक नहीं लगेगी क्योंकि अन्य स्थान पर तो वे फलते-फूलते दिखेंगे। लेकिन अब जब हमें पता है कि उत्तरी और दक्षिणी जिराफ दो अलग-अलग प्रजातियां हैं तो उत्तरी जिराफ की संख्या में कमी चिंता (population decline) जगाती है, उनके संरक्षण के प्रयासों (protection efforts) को तेज़ करने की ज़रूरत को रेखांकित करती है। (स्रोत फीचर्स)

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असली यानी जैविक पिता का सवाल

डॉ. सुशील जोशी

पको कैसा लगेगा यदि अचानक आपको पता चले कि आप जिस व्यक्ति को अपना पिता मानते आए हैं, वह जैविक रूप से आपका पिता (biological father) नहीं है। छोटे समय की बात छोड़िए, लेकिन यदि आपको अपनी कई पीढ़ियों की वंशावली में यह देखने को मिले कि उसमें किसी पीढ़ी में किसी संतान का पिता वह नहीं था, जिसे सामाजिक या कानूनी रूप (family history, genetic ancestry) से पिता माना गया था। इसी के साथ यह बात भी जुड़ जाती है कि कोई भाई-भाई, बहन-बहन या भाई-बहन (siblings DNA test) वास्तव में सहोदर हैं या नहीं।

पितृत्व (जैविक तथा सामाजिक) का यह सवाल कई संस्कृतियों-समाजों में बहुत अहमियत रखता है। तो बेल्जियम स्थित केयू ल्यूवेन विश्वविद्यालय के जेनेटिक विज्ञानी मार्टेन लारमूसौ (Maarten Larmuseau) ने इस विषय की जांच-पड़ताल करने का विचार किया। सवाल था: कितने मामलों में महिला उन पुरुषों के साथ बच्चे पैदा करती हैं, जिनकी वे संगिनी (infidelity, paternity) नहीं हैं?

अधिकांश समाजों में सहोदर सम्बंध काफी हद तक सामाजिक रूप (kinship, social) से निर्मित होते हैं। इनमें दत्तक संतान या सौतेले परिवार भी शामिल होते हैं। लेकिन जैविक पिता के सवाल सहस्राब्दियों से परिवारों को तहस-नहस करते रहे हैं और सांस्कृतिक चिंताओं का कारण बनते रहे हैं। पारिवारिक-सामाजिक मुद्दों के अलावा बच्चे के जैविक पिता के बारे में जानना कभी-कभी अपराध विज्ञान (forensic science) या चिकित्सा (medical science) दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

यह संभव है कि किसी बच्चे के पिता को लेकर संशय महिला द्वारा इरादतन किसी अन्य पुरुष से सम्बंध का परिणाम हो, लेकिन इस संदर्भ में यौन हिंसा अथवा दबाव के तहत यौन सम्बंधों को भी नकारा नहीं जा सकता। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि कानूनी पिता को मालूम होता है कि वह जैविक पिता नहीं है। ऐसे सारे प्रकरणों के लिए लारमूसौ जिस शब्द का इस्तेमाल करते हैं, वह है दम्पती-इतर पितृत्व (extra-pair paternity)। इसमें वे दत्तक अथवा विवाहेतर जन्मों को शामिल नहीं करते हैं, जहां पिता की जैविक पहचान ज्ञात होती है। उन्होंने यह जानने के लिए एक तकनीक विकसित की है कि दम्पती-इतर पितृत्व कितना सामान्य है।

सामाजिक रूप से संवेदनशील होने के कारण आम तौर पर जीव वैज्ञानिक मनुष्यों के संदर्भ में इस विषय को टाल देते हैं, हालांकि पशु-पक्षियों में यह अनुसंधान का एक प्रमुख विषय रहा है।

तो लारमूसौ ने क्या विधि अपनाई थी दम्पती-इतर पितृत्व के आकलन के लिए? इस खोजबीन का एक मज़ेदार अध्याय मशहूर पाश्चात्य संगीतकार बीथोवन से जुड़ गया था।

दरअसल, पीएचडी छात्र के रूप में लारमूसौ ने बाल्टिक और भूमध्यसागर में पाई जाने वाली एक मछली प्रजाति पर शोध किया था – सैण्ड गोबी (Pomatoschistus minutus)। गोबी के नर संतानोत्पत्ति में काफी योगदान देते हैं – वे घोंसला बनाते हैं और निषेचित अंडों की देखभाल करते हैं। दूसरी ओर, मादा तो अंडे देकर निकल जाती है। हां, यह ज़रूर है कि नर गोबी कभी-कभार अन्य नरों द्वारा बनाए गए घोसलों में घुसकर अंडों को निषेचित करके नौ-दो-ग्यारह हो जाता है। नतीजतन उस घोंसले का निर्माता नर किसी अन्य की संतानों की परवरिश करता है। इसके चलते सैण्ड गोबी दम्पती-इतर पितृत्व के अध्ययन के लिए उम्दा जंतु माना जाता है।

एक अपराध विज्ञान प्रयोगशाला में काम करते हुए लारमूसौ के मन में विचार आया कि मनुष्यों में इसी तरह का व्यवहार हो तो उसके चलते डीएनए विश्लेषण की मदद से लाशों की पहचान तथा अपराधों के अन्वेषण में मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। लेकिन उस विषय में बात करना बहुत कठिन था। पशु-पक्षियों के बारे में तो दम्पती-इतर पितृत्व को लेकर काफी साहित्य उपलब्ध है, लेकिन इन्सानों के बारे में हम ज़्यादा नहीं जानते।

प्रामाणिक आंकड़ों के अभाव में वैज्ञानिक अटकलों का सहारा लेते थे। जैसे जीव वैज्ञानिक जेरेड डायमंड ने अपनी पुस्तक दी थर्ड चिम्पैंज़ी: दी इवॉल्यूशन एंड फ्यूचर ऑफ ह्युमैन एनिमल में दावा किया था कि इन्सानों में सामाजिक रूप से मान्य सम्बंधों के बाहर यौन सम्बंध लगभग 5 से 30 प्रतिशत होते हैं। इसी प्रकार से, रीडिंग विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक मार्क पेजल ने कहा था कि जन्म के समय मानव शिशुओं के बीच भेद करने में मुश्किल जैव विकास के दौरान विकसित हुई है ताकि उनकी वास्तविक वल्दियत उजागर न हो।  

अंतत: एक आम सहमति उभरी जो मूलत: जेनेटिक पितृत्व निर्धारण के शुरुआती प्रयासों पर आधारित थी। दी लैंसेट में प्रकाशित एक लेख में सैली मैकिन्टायर और एनी सूमैन ने बताया था कि लगभग 10 प्रतिशत बच्चे विवाहेतर सम्बंधों के परिणाम होते हैं। हालांकि इस आंकड़े के सत्यापन अथवा खंडन के लिए ठोस आंकड़े नहीं थे लेकिन पत्रकार और शोधकर्ता इसे बार-बार दोहराते रहे और यह स्थापित ‘तथ्य’ बन गया।

लेकिन यदि 10 प्रतिशत विवाहेतर संतानों का आंकड़ा सही है, तो कई वंशावलियां बेकार हो जाएंगी। रोचक बात यह रही कि स्वयं लारमूसौ के पर-काका अपने परिवार का इतिहास जानने को उत्सुक थे लेकिन 10 प्रतिशत की बात सुनकर उनका उत्साह जाता रहा था। अलबत्ता, लारमूसौ लगे रहे। पहले उन्होंने अपने ही परिवार का इतिहास खंगाला। अंतत: उन्होंने अपनी सोलह से अधिक पीढ़ियों के हज़ारों पूर्वजों का एक चार्ट बना लिया। वे सोचने लगे कि कहीं जेरेड डायमंड और अन्य शोधकर्ता सही तो नहीं हैं? और इनमें से कितने सामाजिक व कानूनी पूर्वज उनके जैविक पूर्वज भी हैं।

इस संदर्भ में मौजूदा प्रमाण विवादास्पद हैं। पितृत्व जांच पर आधारित अनुमान पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं, क्योंकि जो लोग पैसा खर्च करके ऐसे परीक्षण करवाते हैं, उनके मन में पहले से ही दम्पती-इतर संतान होने की शंका रहती है। अस्थि मज्जा दानदाताओं के सैम्पल्स तथा अन्य स्रोतों से पता चलता था कि आधुनिक आबादियों में दम्पती-इतर संतानोत्पत्ति की दर कम है, लेकिन वह शायद यौन-सम्बंधों को लेकर व्यवहार में परिवर्तन की वजह से नहीं बल्कि आधुनिक गर्भनिरोधकों की उपलब्धता के कारण भी हो सकता है। और सड़क चलते लोगों से उनके यौन व्यवहार के बारे में पूछना ‘आ बैल सींग मार’ जैसी स्थिति पैदा कर सकता है। यानी वर्तमान का अध्ययन करना कठिन है और लारमुसौ ने अतीत का रुख किया।

उन्होंने 2009 में स्थानीय स्तर पर 1400 के दशक से शुरू करके वंशावलियां एकत्रित कीं। इसमें उन्हें बेल्जियन व डच वंशावली तथा विरासत को लेकर उत्साहित लोगों की मदद मिली। फिर उन्होंने स्वतंत्र रूप से इन वंशावलियों का सत्यापन किया। जब शौकिया लोगों के पास जानकारी नहीं थी, तो उन्होंने जनगणना के आर्काइव्स को खंगाला और फ्लेमिश व डच गिरजाघरों में विवाह तथा बप्तिज़्मा के रिकॉर्डों को खंगाला।

पुराने दस्तावेज़ों से शुरू करके लारमूसौ ने आज जीवित ऐसे हज़ारों पुरुषों को ढूंढ निकाला जो वंशावली रिकॉर्ड के मुताबिक अपने पिता की ओर से दूर के रिश्तेदार होना चाहिए। अगला कदम यह था कि उनके डीएनए प्राप्त करके इस अधिकारिक विरासत की जांच की जाए।

इसके लिए ज़रूरी था कि उन व्यक्तियों से संपर्क हो पाए। इस काम में स्थानीय इतिहास समितियों ने उनकी मदद की। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि लारमूसौ ने उन व्यक्तियों को फोन कर दिया या सीधे उनके घर का दरवाज़ा खटखटाया। साथ में वे डीएनए सैम्पल लेने के लिए ज़रूरी सामान और सम्मति पत्र भी लेकर पहुंचे। कभी-कभी तो गांव में एक ही सरनेम वाले व्यक्तियों से कहा कि वे अपने डीएनए परीक्षण करवा लें। एक ही सरनेम से वे मानकर चले थे कि वे सारे व्यक्ति पिता की ओर से पारिवारिक सम्बंधी होंगे। एक साल में उन्होंने 300 परिवारों से संपर्क किया और पुरुषों को बता दिया कि वे उनके पूर्वजों में दम्पती-इतर सम्बंधों की तलाश कर रहे हैं। यदि थोड़ी भी हिचक दिखी तो उस परिवार को अध्ययन में शामिल नहीं किया।

मुंह से लिए गए स्वाब में वाय गुणसूत्र मिला। गौरतलब है कि वाय गुणसूत्र पिता से पुत्र को मिलता है। और यह प्रक्रिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। एक पीढ़ी से अगली को हस्तांतरित होते समय इस वाय गुणसूत्र में कोई परिवर्तन नहीं आता। नतीजतन, यदि दो व्यक्ति ऐसे मिलते हैं, जिनके वाय गुणसूत्र मेल खाते हैं तो उनका कोई दादा, पर-दादा, पर-पर-दादा एक ही होगा, भले ही उन दोनों व्यक्तियों को इसकी भनक तक न लगी हो।

लेकिन इसका उलट भी होता था। किन्हीं दो व्यक्तियों की वंशावली तो बताती थी कि उनमें वाय गुणसूत्र का मिलान होना चाहिए लेकिन होता नहीं था। यदि वाय गुणसूत्र मेल नहीं खाते थे, तो इसका मतलब है कि बीच में कभी तो कोई ‘अन्य’ पुरुष शामिल था। लारमूसौ के लिए यह इस बात का प्रमाण होता था कि उस वंशवृक्ष में कम से कम एक मामला दम्पती-इतर पितृत्व का रहा होगा। फिर उन्होंने सांख्यिकीय मॉडल की मदद से यह निर्धारण करने का प्रयास किया कि यह घटना कितनी पीढ़ियों पूर्व हुई होगी। 2013 में एक प्रारंभिक अनुमान प्रकाशित करने के बाद भी वे आंकड़े एकत्रित करते रहे। 2019 में उन्होंने करंट बायोलॉजी (current biology) में एक शोध पत्र प्रकाशित किया। यह शोधपत्र दूर के रिश्तेदार 513 पुरुष जोड़ियों के वाय गुणसूत्र (chromosome, DNA) की जांच पर आधारित था। इसमें लारमूसौ ने अनुमान व्यक्त किया था कि बेल्जियम और नेदरलैंड में पिछले 500 वर्षों में दम्पती-इतर पितृत्व की दर लगभग 1.5 प्रतिशत रही।

युरोप में अन्यत्र किए गए अध्ययनों के आधार पर लारमूसौ और अन्य शोधकर्ताओं ने लगभग ऐसे ही नतीजे प्राप्त किए हैं: मध्य युगीन युरोप में किसी बच्चे के रिकॉर्डेड पिता जेनेटिक पिता न हों, इसकी संभावना 1 प्रतिशत या उससे भी कम (medieval records) है।

अब बात लौटती है मशहूर संगीतज्ञ लुडविग बीथोवन (1770-1827) (Beethoven) पर। एक सेलेब्रिटी होने के नाते यह प्रकरण काफी सनसनीखेज था। अलबत्ता, लारमूसौ और उनके शौकिया वंशावलीविद साथी वाल्टर स्लूइट्स का मकसद थोड़ा अलग था (celebrity, heritage)। जो बीथोवन जीवित थे, उनके वाय गुणसूत्र का मिलान मशहूर संगीतकार लुडविग बीथोवन के संरक्षित रखे बालों से मिले डीएनए से करके देखना। बालों का यह गुच्छा लुडविग बीथोवन के मित्रों ने स्मृति के रूप में सहेजकर रखा था।

2019 में शोधकर्ताओं ने वर्नर बीथोवन और उनके कुछ दूर के रिश्तेदारों से संपर्क करके पूछा कि क्या वे अपना डीएनए देंगे। इसके चार साल बाद लारमूसौ ने वर्नर तथा चार अन्य जीवित बीथोवन्स को नतीजे सुनाए: मशहूर संगीतकार (लुडविग बीथोवन) का वाय गुणसूत्र चार जीवित बीथोवन के किसी साझा पूर्वज से नहीं आया था, बल्कि किसी अज्ञात पुरुष से आया था। हो सकता है कि यह विषमता लुडविग के जन्म से पहले किसी पीढ़ी में विवाहेतर सम्बंध का परिणाम थी। वर्नर बीथोवन का तो दिल ही टूट गया – सबसे मशहूर बीथोवन तो बीथोवन ही नहीं था!

इसी खोजबीन से एक और मज़ेदार व आश्चर्यजनक बात पता चली थी – जब मातृवंश का विश्लेषण माइटोकॉण्ड्रिया के आधार पर किया गया तो लुडविग बीथोवन का जेनेटिक सम्बंध जेम्स वॉटसन के साथ दिखा; वही जेम्स वॉटसन जिन्हें डीएनए की संरचना का खुलासा करने के लिए संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार मिला था। गौरतलब है कि सारी संतानों को माइटोकॉण्ड्रिया मां से मिलता है, और इसमें पिता का कोई योगदान नहीं होता।

लेकिन ज़रूरी नहीं है कि लुडविग के पितृत्व में यह पेंच इरादतन बेवफाई या दगाबाज़ी का नतीजा हो। मसलन, साहित्य में इस बात का ज़िक्र कई मर्तबा आता है कि वंध्या पुरुष संतान प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ सम्बंध बनाने को प्रोत्साहित करते हैं। कुछ मामले यौन हिंसा अथवा दबाव के कारण भी हो सकते हैं।

इसके रूबरू गैर-युरोपीय समाजों के आंकड़ों में जैविक पितृत्व और सांस्कृतिक मर्यादाओं के प्रति ज़्यादा जुनून नज़र आता है। जैसे 2012 में मिशिगन विश्वविद्यालय के वैकासिक मानव वैज्ञानिक बेवरली स्ट्रासमैन ने माली के डोगन समाज में दम्पती-इतर पितृत्व का विश्लेषण किया था। पारंपरिक डोगन धर्म के अनुयायियों में गर्भनिरोध अपनाना बहुत कम होता है और परिणामस्वरूप महिलाएं अधिकांश समय या तो गर्भवती होती हैं या स्तनपान कराती होती हैं। बीच-बीच में जो छोटा-सा अंतराल होता है, जब महिलाएं माहवारी से होती हैं, उस दौरान वे घर के बाहर एक झोंप़ड़ी में रहती हैं। माहवारी झोंपड़ी (menstrual hut) में जाने का मतलब होता है कि वह जल्दी ही गर्भवती हो सकेगी। इस प्रथा के चलते पिता की पहचान छिपाना मुश्किल होता है और दम्पती-इतर पितृत्व की दर कम हो जाती है।

स्ट्रासमैन के मुताबिक इस तरह से स्त्री की यौनिकता की निगरानी और उस पर नियंत्रण कई समाजों (gender norms) में देखा जाता है। यह इस सोच का परिणाम है कि पुरुष पालनहार है (male parenting) और वह क्यों किसी अन्य के बच्चों की परवरिश करे। वाय गुणसूत्र डैटा के आधार पर स्ट्रासमैन का अनुमान है कि डोगन समुदाय (African statistics) में दम्पती-इतर पितृत्व की दर करीब 2 प्रतिशत है। वैसे डोगन-ईसाई माहवारी झोंपड़ी प्रथा का पालन नहीं करते उनमें यह दर पारंपरिक धर्मावलंबियों से लगभग दुगनी है।

ऐसा भी नहीं है कि जैविक पितृत्व का जुनून पूरे विश्व में एक समान हो। दक्षिण अमरीकी कबीलों (जैसे यानोमामी) में धारणा है कि एक ही महिला के साथ यौन सम्बंध बनाकर कई पुरुष बच्चों के पितृत्व में योगदान दे सकते हैं। नेपाल के न्यिम्बा समुदाय में एक महिला के एकाधिक पति हो सकते हैं। ये सभी उस महिला के बच्चों के पिता की भूमिका निभाते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां पत्नी की बेवफाई की धारणा को मान्यता नहीं दी जाती है।

इसका सबसे अच्छा दस्तावेज़ीकरण नामीबिया के हिम्बा समुदाय का हुआ है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजेल्स की ब्रुक स्केल्ज़ा यह देखकर चकित रह गई थीं कि हिम्बा गांवों में महिलाएं विवाहेतर साथियों द्वारा पैदा बच्चों के बारे में कितना खुलकर बात करती हैं। चकित होकर स्केल्ज़ा ने हिम्बा समुदाय में पितृत्व जांच का फैसला किया; पता चला कि इस समुदाय में दम्पती-इतर पितृत्व की दर 48 प्रतिशत है। और तो और, पिताओं को प्राय: पता होता था कि वे उनमें से किन बच्चों के जैविक पिता है लेकिन वे स्वयं को अपनी पत्नी के सारे बच्चों का कानूनी व सामाजिक पिता ही मानते थे। बेवफाई या धोखाधड़ी जैसी कोई बात नहीं है।

दम्पती-इतर पितृत्व की दर पर सामाजिक हालात का असर पड़ता है। इतिहासकारों के साथ काम करके, लारमूसौ ने बेल्जियम और नेदरलैंड्स में इन दरों का सम्बंध आमदनी, धर्म, सामाजिक वर्ग जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों के अलावा पिछले 500 वर्षों में हुए शहरीकरण से भी करके देखा। पाया गया कि दम्पती-इतर पितृत्व की दर में सबसे ज़्यादा वृद्धि उन्नीसवीं सदी में हुई थी, जब पूरे युरोप में शहर विकसित हो रहे थे और लोग कारखानों में नौकरी के लिए गांव छोड़-छोड़कर शहरों में बस रहे थे। लारमूसौ का अनुमान है कि बेल्जियम व नेदरलैंड्स के शहरों में दम्पती-इतर पितृत्व की दर 6 गुना बढ़कर 6 प्रतिशत हो गई थी। गांवों में तो हर स्त्री-पुरुष संपर्क पर निगाह होती है, जिसके चलते पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के पिता होने की संभावना बहुत कम होती है। 

लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि दम्पती-इतर पितृत्व दर में वृद्धि का कारण यह था कि शहरों में महिलाओं को विवाहेतर साथी ढूंढने की ज़्यादा छूट मिल गई थी। लारमूसौ का मत है कि इसे ज़ोर-ज़बर्दस्ती और हिंसा के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, जो सामाजिक उथल-पुथल के दौरान बढ़ रहे थे।

युरोप में भी सौतेले बच्चों, दत्तक संतानों की देखभाल करना वगैरह फैसले सोच-समझकर लिए जाते हैं और वे ऐसे बच्चों पर संसाधन निवेश करने को तैयार होते हैं, जो जैविक रूप से उनसे सम्बंधित नहीं हैं। तो कई वैज्ञानिकों का मत है कि गोबी मछली तथा अन्य जंतुओं की तरह मनुष्यों पर वही सिद्धांत लागू करना उचित नहीं होगा।

एक तथ्य यह है कि दुनिया भर में लोग अपनी वंशावली की छानबीन करने और दस्तावेज़ीकरण पर सालाना 5 अरब डॉलर खर्च करते हैं। लारमूसौ के मुताबिक बेल्जियम में 10 में से 7 लोगों की रुचि अपने पारिवारिक इतिहास में है। और तो और, वहां की सरकार भी ऐसे कामों के लिए फंड देती है।

किस्से में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब लारमूसौ ने वाय गुणसूत्र को छोड़कर माइटोकॉण्ड्रिया पर ध्यान केंद्रित किया। माइटोकॉण्ड्रिया के मिलान से मातृ-पूर्वज का वंशवृक्ष बनाया जा सकता है। दरअसल, माइटोकॉण्ड्रिया विश्लेषण की मदद से यह पता लगाने की कोशिश थी कि अज्ञात पिता होने की वजह यह तो नहीं कि दो मांओं के बीच बच्चों की अदला-बदली हो गई है। यानी यदि मातृ-वंश में कोई गड़बड़ी नज़र आती है, तो यह पता चल जाएगा पितृ-वंश में दिख रही गड़बड़ी दम्पती-इतर पितृत्व का मामला नहीं है।

लेकिन मातृवंश का निर्धारण आसान काम नहीं है – शादी के बाद प्राय: महिलाओं के सरनेम बदल जाते हैं और महिलाएं मायका छोड़कर ससुराल चली जाती हैं। इस पृष्ठभूमि में लारमूसौ ने वर्ष 2020 में वालंटियर्स को आव्हान किया और हज़ारों लोग आगे आए। महामारी के दौरान कई लोगों ने डिजिटल पैरिश जन्म व विवाह पंजीयन, नोटरी दस्तावेज़ों और संपत्ति के कागज़ातों के आधार पर अपनी मातृ-वंशावलियों का निर्माण किया। वाय गुणसूत्र के काम की तर्ज़ पर लारमूसौ और साथियों ने दूर-दूर की रिश्तेदार महिलाओं, जिनके साझा मातृ-पूर्वज होने चाहिए थे, के डीएनए सैम्पल लिए और देखा कि क्या उनकी कानूनी वंशावली जैविक वंशावली से मेल खाती है।

सैकड़ों लोगों की वंशावलियों की तुलना जब उनके माइटोकॉण्ड्रिया डीएनए से की गई तो कोई आश्चर्यजनक बात सामने नहीं आई। इससे लारमूसौ को यकीन हो गया कि पिता-आधारित वंशावलियों में जो दिक्कतें थी वे दम्पती-इतर पितृत्व की वजह से ही थीं, शिशुओं की अदला-बदली या गुपचुप दत्तक लेने के कारण नहीं।

इन अध्ययनों से जो निष्कर्ष मिले हैं, उनका ऐतिहासिक महत्व (history research) तो है ही, लेकिन अन्य कई प्रकरणों में भी ये उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। जैसे किसी दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा के मृतकों की पहचान के लिए डीएनए विश्लेषण का सहारा (disaster analysis) लिया जाता है। इसी प्रकार से दुर्लभ बीमारियों, जेनेटिक परामर्श और खानदानी रोगों के संदर्भ में भी सटीक वंशावली काम आती हैं (disease counseling)। लेकिन यदि दम्पती-इतर पितृत्व की दर 30 प्रतिशत या 10 प्रतिशत भी हो तो ये सारी कवायदें फिज़ूल साबित होंगी। यह सुखद समाचार है कि अधिकांश समाजों में यह दर 1 प्रतिशत से कम है। लेकिन संख्या के रूप में देखें तो यह काफी बड़ी संख्या है – दुनिया की आबादी 8 अरब मानें तो दम्पती-इतर संतानों की संख्या 8 करोड़ होगी। बताते हैं कि हर वर्ष करीब 3 करोड़ लोग घर बैठे डीएनए परीक्षण करवाते हैं। लारमूसौ कहेंगे कि इनमें से करीब 3 लाख लोग परिणाम देखकर भौंचक्के रह गए होंगे। हालांकि हो सकता है कि जो  गड़बड़ी नज़र आ रही है वह सैकड़ों साल पहले हुई हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पुनर्जनन के दौरान अंग की मूल आकृति का निर्माण

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चाहे सुंदर दिखने के लिए या सफाई और सहूलियत के लिए हम कभी-कभी नाखून काटते हैं (nail growth), लेकिन थोड़े दिनों बाद ही वे वापस बढ़ जाते हैं। किरेटिन नामक प्रोटीन (keratin protein) से बने नाखून हमें क्षति से सुरक्षित रखते हैं। यदि किसी नवजात शिशु की उंगली के ऊपरी पोर वाला हिस्सा (जोड़ के पहले तक की किसी जगह से) (finger regeneration) कट या टूट जाता है तो उंगली अपनी मूल आकृति में पुन: बन जाती है।

वर्ष 2013 में नेचर पत्रिका में मकोतो टेकिओ और उनके साथियों ने बताया था कि नाखूनों की तली में स्टेम कोशिकाएं (stem cells) होती हैं, जो न सिर्फ निरंतर सख्त और किरेटिनयुक्त नाखून बनाने वाली कोशिकाओं में बदलती रहती हैं, बल्कि वे ऐसे संकेत भी भेजती हैं जो उंगली के पुनर्जनन (finger healing) को गति देते हैं। गौरतलब है कि स्टेम कोशिकाएं कई प्रकार की कोशिकाओं में तब्दील और विकसित (cell regeneration) हो सकती हैं। ये कोशिकाएं Wnt संकेत मार्ग को सक्रिय करती हैं; यह प्रक्रिया पुनर्जनन के लिए आवश्यक तंत्रिकाओं को आकर्षित करती है।

छिपकली हमारे घरों में एक अनचाहा मेहमान है। हम अक्सर इसे मारने की कोशिश करते हैं, लेकिन अक्सर हाथ केवल इसकी पूंछ ही आती है। भगोड़ी छिपकली (lizard tail regeneration) अपनी पूंछ छोड़कर भाग निकलती है और उसे फिर से बना लेती है, ठीक नवजात शिशु की घायल उंगली की तरह।

इस प्रक्रिया की आणविक जैविकी का सार एलिज़ाबेथ हचिन्स और उनके साथियों ने 2014 में प्लॉसवन पत्रिका में प्रस्तुत किया था। इस प्रक्रिया को अंजाम देने में 300 से अधिक जीन शामिल होते हैं। और इस दौरान घाव को भरने और पूंछ वापस उगाने के लिए कई विकासात्मक और घाव-प्रतिक्रिया पथ सक्रिय होते हैं।

हालांकि जंतुओं और वनस्पतियों दोनों में घाव की मरम्मत सम्बंधी शोध पारंपरिक रूप से जीन-नियंत्रित क्रियापथों पर केंद्रित रहा है। लेकिन हालिया शोध विकासात्मक पादप विज्ञान (plant regeneration) में भौतिक संकेतों की महत्वपूर्ण भूमिका (mechanical signals in biology) पर प्रकाश डालता हैं। भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं शोध संस्थान (IISER, पुणे) की मेबेल मारिया मैथ्यू और कालिका प्रसाद ने हाल ही में करंट बायोलॉजी में प्रकाशित अपने एक अध्ययन में विकास और पुनर्जनन पर एक कम अध्ययन किए गए लेकिन महत्वपूर्ण कारक पर प्रकाश डाला है: कोशिकीय ज्यामिति(cell geometry)।

शोधकर्ताओं ने अध्ययन में देखा की कि कैसे शंक्वाकार आकृति का मूलाग्र कट जाने के बाद पुन: अपने आकार में पनप जाता है। उन्होंने पाया कि मौजूदा कोशिकाओं ने अपनी ज्यामिति को बदलकर नई बनी कोशिकाओं की कतार को एक तिरछे, झुके पथ पर संरेखित किया। अंतत: कोशिकाओं की इन तिरछी पंक्तियों ने जड़ की शंक्वाकार आकृति का पुनर्निर्माण किया। तकनीकी शब्दों में, इस प्रक्रिया को आकृति-जनन (morphogenesis process) कहा जाता है। आकृति-जनन वह जैविक प्रक्रिया (biological development) है जो किसी जीव को उसका आकार और संरचना विकसित करने में मदद करती है। इसमें कोशिकाओं की समन्वित वृद्धि, विभाजन, विभेदन और व्यवस्थापन शामिल होता है जिससे ऊतक, अंग और यहां तक कि एक संपूर्ण जीव का निर्माण होता है।

मूलाग्र पुनर्जनन की प्रणाली का अध्ययन सरसों परिवार के एरेबिडोप्सिस थैलिआना (Arabidopsis thaliana) पौधे पर किया गया था। इसमें यह समझा गया था कि कोशिका ज्यामिति में परिवर्तन आकृति-जनन में कैसे योगदान देते हैं और उसे सुगम बनाते हैं।

उन्नत सूक्ष्मदर्शी और उपकरणों (advanced microscopy) की मदद से टीम ने देखा कि जड़ों की सामान्य घनाकार कोशिकाओं की आकृति बदलकर समचतुर्भुज (rhomboid) हो गई। फिर ये परिवर्तित कोशिकाएं विकर्ण रेखा पर विभाजित हुईं जिससे त्रिकोणीय प्रिज़्म आकृति की कोशिकाएं बनीं। विकर्ण रेखा से विभाजन ने आस-पड़ोस की कोशिकाओं की वृद्धि (cell division) को एक तिरछे पथ पर मोड़ा, जिन्होंने मिलकर कटा हुआ पतला सिरा फिर से बनाया।

गणितीय और भौतिक विश्लेषण करने पर पता चला कि इन बदलावों के पीछे जो वास्तविक बल काम करता है वह है आंतरिक यांत्रिक तनाव (mechanical stress)। यह एक प्रकार का तनाव है जो कोशिकाओं को आकार बदलने और निर्धारित रूप से विभाजित होने (cell growth patterns) के लिए उकसाता है।

आकृति-जनन को समझने में जहां लंबे समय से स्टेम कोशिकाएं (stem cell research) और जेनेटिक क्रियापथ (genetic studies)  अध्ययन का केंद्र रहे हैं, वहां यह अध्ययन एक अनदेखे महत्वपूर्ण पहलू पर प्रकाश डालता है: कोशिकाएं तनाव में अपनी आकृति को कैसे ढालती हैं। यह दर्शाता है कि कोशिका की आकृति और ज्यामिति ऊतक पुनर्जनन (tissue regeneration) के दौरान आकृति-जनन में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।

ये निष्कर्ष अन्य जैविक प्रणालियों पर भी लागू हो सकते हैं। ये जीवन को आकार देने में  भौतिक संकेतों, विशेष रूप से कोशिकीय ज्यामिति की भूमिका दर्शाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धरती पर जीवन का पहला कदम

गभग 40 करोड़ साल पूर्व सबसे पहले कशेरुकी (vertebrates) जीव समुद्र (ancient ocean) में रहते थे। उस समय मछलियां ही समुद्र की सबसे बड़ी जीव थीं, लेकिन उनमें ज़मीन पर चलने के लिए मज़बूत टांगें (strong limbs) विकसित नहीं हुई थीं। वैज्ञानिकों का मानना था कि विकास की प्रक्रिया में काफी समय लगा जिसके बाद मछलियां ज़मीन पर आईं। लेकिन पोलैंड में हुई एक खोज से पता चला है कि कुछ मछलियों ने हमारी सोच से कहीं पहले ही ज़मीन पर जीने की कोशिश की थी।

2021 में वैज्ञानिकों को पोलैंड स्थित होली क्रॉस पर्वतों में अजीब से जीवाश्म (fossil evidence) निशान मिले। ये पत्थर कभी समुद्र तट (ancient seashore) का हिस्सा थे। इनमें 240 से ज़्यादा गड्ढे और खरोंचें मिलीं। जांच से पता चला कि ये निशान शायद मछलियों के ज़मीन या बहुत उथले पानी (shallow water habitat)  पर रेंगते हुए बने थे। ये जीवाश्म 41 से 39.3 करोड़ साल पुराने हैं — यानी पहले मिले सबूतों से करीब 1 करोड़ साल पहले।

ये निशान आज की लंगफिश (lungfish evolution) से बहुत मिलते-जुलते हैं। लंगफिश ऐसी मछली है जो हवा में सांस ले सकती है और अपने मीनपक्षों (पंखों) का इस्तेमाल करके ज़मीन पर रेंग सकती है। माना जाता है कि लंगफिश थलचर चौपाया जीवों (early tetrapods) के शुरुआती पूर्वजों की करीबी रिश्तेदार है। चलने के लिए यह मछली अपना मुंह ज़मीन पर टिकाकर लीवर की तरह दबाती है और फिर मीनपक्ष और पूंछ की मदद से शरीर को आगे खींचती है। यही अजीब तरीका पोलैंड में मिले जीवाश्मों के निशानों से मेल खाता है।

अध्ययन के मुख्य लेखक और पोलिश जियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक पिओत्र श्रेक बताते हैं कि ऐसा तभी संभव था जब वे पूरी तरह पानी के उछाल (buoyancy) पर निर्भर नहीं रह गई हों।

वैज्ञानिकों की टीम ने इन जीवाश्मों के निशानों को बारीकी से समझने के लिए 3-डी स्कैनिंग (3D fossil scanning) की। फिर उन्होंने इनकी तुलना आज की पश्चिम अफ्रीकी लंगफिश (Protopterus annectens) द्वारा बनाए गए निशानों (trace fossils) से की। नतीजा यह रहा कि नाक, पंख, पूंछ और शरीर के हिस्सों से बने दबाव के निशान लगभग वैसे ही मिले। इससे साफ हुआ कि प्राचीन समय की कुछ मछलियां लंगफिश जैसी ही रही होंगी।

एक और दिलचस्प बात यह सामने आई: वैज्ञानिकों को ‘हैंडेडनेस’ यानी शरीर के एक ओर की वरीयता (lateral preference) के सबूत भी मिले। 240 निशानों में से 36 में सिर झुकाने के संकेत थे, जिनमें से 35 बाईं ओर झुके थे। इसका मतलब यह हो सकता है कि वे मछलियां ज़्यादातर बाईं ओर झुककर चलती थीं (movement patterns), ठीक वैसे ही जैसे इंसानों में कोई दाएं या बाएं हाथ का ज़्यादा इस्तेमाल करता है। यह जानवरों में ‘हैंडेडनेस’ का अब तक का सबसे पुराना (ancient behavior) प्रमाण हो सकता है।

अलबत्ता, एक तर्क यह है कि आज की लंगफिश 40 करोड़ साल पुरानी मछलियों से बहुत अलग हैं, इसलिए सीधे-सीधे तुलना मुश्किल है। चीन और ऑस्ट्रेलिया (fossil discoveries) में मिले ऐसे ही जीवाश्मों पर अधिक शोध इन निष्कर्षों की पुष्टि करने में सहायक हो सकते हैं। बहरहाल, यह खोज हमें याद दिलाती है कि विकास (evolution process) कभी सीधी रेखा में नहीं होता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भरपेट संतुलित भोजन कई बीमारियों के लिए टीके से कम नहीं

डॉ. अनुराग भार्गव

हाल ही में डॉ. अनुराग भार्गव ने PLOS Global Public Health के एक आलेख में पर्याप्त संतुलित पोषण और संक्रामक गैरसंक्रामक रोगों से बचाव के इतिहास पर विचार करते हुए बताया है कि भरपेट संतुलित आहार को टीके की संज्ञा देना उचित ही है। प्रस्तुत है उनके उपरोक्त आलेख का रूपांतरित सार।

यह तो जानी-मानी बात है कि जीवित रहने, स्वास्थ्य और बीमारियों के बचाव के लिए पोषण अनिवार्य है। 1970 के दशक में यह तक कहा गया था कि निमोनिया जैसे सांस सम्बंधी रोगों, दस्त (डायरिया) व अन्य आम संक्रमणों (infections) के विरुद्ध पर्याप्त भोजन ही सबसे कारगर टीका है। यह देखा जा चुका था कि कुपोषण की हालत में पूरक पोषण से संक्रमणों के प्रकोप में कमी आती है। हाल ही में झारखंड में एक परीक्षण किया गया था – रैशन्स (RATIONS) यानी रिड्यूसिंग एक्टिवेशन ऑफ ट्यूबरकुलोसिस थ्रू इम्प्रूवमेंट ऑफ न्यूट्रिशनल स्टेटस (अर्थात पोषण की स्थिति में सुधार के ज़रिए सक्रिय टीबी में कमी)। इस परीक्षण ने स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि पूरक पोषण परिवारों में टीबी (TB) प्रकोप को 50 प्रतिशत तक कम करता और कुपोषित मरीज़ों में मृत्यु दर को भी 35-50 प्रतिशत तक कम कर सकता है।

टीका भी तो यही करता है कि व्यक्ति को किसी संक्रमण से लड़ने या बीमारी से बचने में मदद करता है और इस लिहाज़ से पोषण की भूमिका टीके की अवधारणा का विस्तार ही है।

1970 के दशक में पोषण विशेषज्ञ और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) में पोषण निदेशक रहे डॉ. मॉइज़ेस बेहर ने अपने एक लेख में कहा था, एक ओर तो “टीकाकरण या पर्यावरण में सुधार जैसे विशिष्ट उपायों द्वारा संक्रामक रोगों (infectious diseases)  पर नियंत्रण से समुदाय की पोषण की स्थिति बेहतर होती है। दूसरी ओर, पर्याप्त भोजन संक्रामक रोगों के ज़्यादा गंभीर प्रभावों से सुरक्षा देता है; उन रोगों के संदर्भ में भी जिनके लिए हमारे पास सटीक या आसान उपाय उपलब्ध नहीं हैं। फिलहाल तो समुचित भोजन ही दस्त, श्वसन तथा अन्य आम संक्रमणों के विरुद्ध सबसे कारगर ‘टीका’ (vaccine) है।”

यह बात रैशन्स परीक्षण में प्रत्यक्ष रूप में सामने आई ही है, लेकिन इसके कई ऐतिहासिक प्रमाण भी उपलब्ध हैं। ये प्रमाण हमें बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हुए कुछ ‘कुदरती प्रयोगों’ से मिले हैं।

कुछ अनायास प्रयोग

यू.के. में 1918 में टीबी मरीज़ों की देखभाल और पुनर्वास (rehabilitation) के लिए पैपवर्थ विलेज सेटलमेंट स्थापित किया गया था। इसके पीछे सोच यह थी कि मात्र सेनेटोरियम उपचार पर्याप्त नहीं है, बल्कि टीबी (tuberculosis) के मरीज़ों के लिए रोज़गार व सामुदायिक जीवन जैसे सहारे की भी ज़रूरत होती है। यहां रह रहे सक्रिय टीबी ग्रस्त मरीज़ों के संपर्क में आए परिवारों में टीबी के प्रकोप में जो 84 प्रतिशत की कमी आई थी, उसके लिए समुचित पोषण को मुख्य कारण माना गया था। आश्चर्य की बात यह थी कि उस दौरान टीबी संक्रमण के कुल प्रसार में कोई कमी नहीं आई थी मगर पोषण ने संक्रमण (infection) को बीमारी में परिवर्तित होने से बचा लिया था।

जर्मनी के युद्धबंदी शिविरों (prison camps) में ब्रिटेन तथा रूस के युद्धबंदी सैनिक (POW – पीओडब्ल्यू) एक जैसे हालात में रह रहे थे। देखा गया कि ऐसे एक शिविर में मात्र 1.2 प्रतिशत ब्रिटिश सैनिकों में ही टीबी विकसित हुई थी जबकि 15 प्रतिशत रूसी सैनिक टीबी से ग्रस्त हुए। यानी रूसी सैनिकों के मुकाबले ब्रिटिश सैनिकों में टीबी का प्रकोप 92 प्रतिशत कम रहा। इसका कारण इस तथ्य से जोड़कर देखा गया था कि रेड क्रॉस (red cross) द्वारा दिया जाने वाला अतिरिक्त पोषण पार्सल (1000 किलोकैलोरी तथा 30 ग्राम प्रोटीन) मात्र ब्रिटिश सैनिकों को मिलता था।

ऐसे ही एक अन्य युद्धबंदी शिविर में एक ब्रिटिश डॉक्टर आर्किबाल्ड कोक्रेन ने पाया था कि टीबी का प्रकोप रूसियों में 6 प्रतिशत, फ्रांसिसियों में 0.5 प्रतिशत और ब्रिटिश सैनिकों में शून्य प्रतिशत था। गौरतलब है कि फ्रांसिसियों को भी 1944 के बाद अतिरिक्त फूड पैकेट मिलना बंद हो गया था।

युद्धबंदी शिविरों में किए गए इन अवलोकनों के अलावा आम आबादी के आंकड़े भी यही कहानी कहते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2015-2023 के दरम्यान दुनिया भर में टीबी (global TB cases) के प्रकोप में 8.3 प्रतिशत तथा टीबी मृत्यु दर में 23 प्रतिशत की कमी आई है। सवाल यह उठता है कि रासायनिक उपचार और (टीबी के लिए) बीसीजी टीका (BCG vaccine) आने से पहले के दौर में टीबी के प्रकोप और टीबी से होने वाली मौतों की क्या स्थिति थी।

पहली बात तो यह है कि यू.के. जैसे जिन देशों में आज टीबी का बोझ कम है, वहां भी अतीत में टीबी का प्रकोप और टीबी से होने वाली मौतों का आंकड़ा काफी अधिक था। एक अनुमान के मुताबिक 1851 में यू.के. में श्वसन सम्बंधी टीबी (respiratory TB) से प्रति लाख आबादी में 268 मौतें होती थी। और तो और, वहां हर चार में से 1 मौत टीबी के कारण होती थी। गौर करने वाली बात यह है कि यू.के. में टीबी प्रकोप और मृत्यु में गिरावट रासायनिक उपचार (drug treatement of TB) और टीकाकरण जैसे उपाय लागू होने से पहले हो गई थी। 1891 में टीबी से होने वाली मौतों में 50 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी थी और यह मात्र 139 प्रति लाख रह गई थी।

यू.के. में 1913 में टीबी का प्रकोप प्रति एक लाख आबादी में 300 था और मृत्यु दर प्रति लाख आबादी में 100 थी और 1940 में यह इसकी 50 प्रतिशत रह गई थी। गौरतलब है कि टीबी के लिए रासायनिक उपचार 1947 में उपलब्ध हुआ था। रासायनिक उपचार शुरू होने से पहले यू.के. में टीबी प्रकोप 3 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से कम हो रहा था और उपचार उपलब्ध होने के बाद गिरावट की दर 10 प्रतिशत वार्षिक हो गई थी।

1962 में थॉमस मैककिओन का महत्वपूर्ण पर्चा प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने 1850 से 1950 की अवधि में यू.के. में टीबी सम्बंधी मौतों में गिरावट के विभिन्न कारकों का विश्लेषण किया था। उनका निष्कर्ष था कि टीबी प्रकोप में गिरावट का प्रमुख कारक जीवन स्तर (living standards) में सुधार, खासकर पोषण में सुधार रहा था। 1850 के दशक के बाद यू.के. में कामगारों की आमदनी में सुधार हुआ था। यह देखा गया था कि आमदनी में सुधार और श्वसन सम्बंधी टीबी से मृत्यु दर में गिरावट लगभग एक ही दर पर हुए थे। मैककिओन का सुझाव था कि बेहतर पोषण (improved nutrition) से व्यक्तियों में रोग के विरुद्ध प्रतिरोध पैदा होता है और यह मृत्यु दर में गिरावट का कारण बनता है। इसके पक्ष में उन्होंने कुछ परोक्ष प्रमाण भी प्रस्तुत किए थे।

वैसे नोबेल विजेता रॉबर्ट फोगेल ने 1850 से 1950 के बीच यू.के. में कैलोरी के उपभोग में वृद्धि (increase in calorie intake) के प्रत्यक्ष प्रमाण भी प्रस्तुत किए थे। इसी सम्बंध में एक और प्रमाण यह था कि 1870 से 1970 के बीच ब्रिटेन समेत युरोपीय लोगों के कद में औसतन 11 से.मी. (यानी प्रति दशक 1 से.मी.) की वृद्धि हुई थी। कद को किसी भी आबादी के पोषण व जीवन स्तर का एक सूचकांक माना जाता है।

इस बात के और भी प्रमाण प्रस्तुत हुए हैं कि यू.के. में टीबी के प्रकोप व मृत्यु दर में कमी का सम्बंध पोषण में सुधार से रहा है।

पोषण, संक्रमण और प्रतिरक्षा

1968 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित एक मोनोग्राफ (monograph) में पोषण व संक्रमण के बीच दो-तरफा सम्बंध की समीक्षा की गई थी। मोनोग्राफ में स्पष्ट किया गया था कि पोषण की स्थिति टीबी समेत कई संक्रमणों (infections) की आवृत्ति, गंभीरता और मृत्यु दर पर असर डालती है और संक्रमण अपने तईं पोषण की स्थिति को बदतर करते हैं। इस परस्पर क्रिया के अनुकूली प्रतिरक्षा सम्बंधी क्रियामार्गों का खुलासा 1960 व 1970 के दशकों में हुआ। इसके बाद यह भी दर्शाया गया था कि कुपोषण (malnutrition) का प्रतिकूल असर शारीरिक अवरोधों, जन्मजात प्रतिरक्षा तथा अनुकूली प्रतिरक्षा के कई पहलुओं पर होता है। यह भी पता चला था कि टी-कोशिकाओं और मैक्रोफेज (macrophage) द्वारा प्रदत्त सुरक्षा टीबी से बचाव में महत्वपूर्ण होती है और कुपोषण टी-कोशिकाओं (T-cells) के कामकाज को कमज़ोर करता है।

टीबी की बीमारी होने के लिए संक्रमण ज़रूरी होता है लेकिन मात्र संक्रमण हो जाए तो टीबी नहीं होती – संक्रमण के बाद मात्र 10 प्रतिशत लोग ही सक्रिय टीबी की हालत में पहुंचते हैं। इसका मतलब है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र 90 प्रतिशत संक्रमणों को बीमारी तक पहुंचने से रोक लेता है। अर्थात सक्रिय टीबी के विकास का कुछ न कुछ सम्बंध तो प्रतिरक्षा तंत्र के कामकाज में गड़बड़ी से है।

यूएस सर्जन जनरल का मत है कि प्रतिरक्षा तंत्र की अर्जित कमज़ोरी (जिसे ठीक किया जा सकता है) का प्रमुख कारण कुपोषण है। जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय (John Hopkins University) के डॉ. विलियम बाइसेल ने इसे न्यूट्रिशनली एक्वायर्ड इम्यूनोडेफिशिएंसी (N-AIDS) यानी ‘कुपोषण की वजह से अर्जित प्रतिरक्षा अभाव’ की संज्ञा दी है। यह N-AIDS दुनिया भर में टीबी के बोझ का प्रमुख कारण है।

2022 में दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के 49 लाख बच्चों की मौत हुई थी (यानी रोज़ाना 13,000 से अधिक) और इनमें से आधी मौतें कुपोषण और संक्रमण के जानलेवा गठबंधन का परिणाम थीं।

1959 से 1964 के बीच ग्वाटेमाला (guatemala) में एक प्रयोग हुआ था। यहां एक गांव में चिकित्सा सुविधा या स्वच्छता व्यवस्था में कोई सुधार न करते हुए मात्र पूरक पोषण (supplementary nutrition) दिया गया था। इस गांव में संक्रमणों का प्रकोप काफी कम हुआ, बनिस्बत उस गांव के जहां उत्कृष्ट चिकित्सा सुविधाएं और साफ-सफाई व्यवस्था उपलब्ध कराई गई थी। गांवों के बीच अंतर उल्लेखनीय था – चार वर्षों की अवधि में पूरक पोषण प्राप्त करने वाले गांव में प्रति बच्चा 6.6 अस्वस्थताएं हुईं जबकि दूसरे गांव में 18.7 अस्वस्थता प्रति बच्चा।

भ्रूणावस्था का कुपोषण

शुरुआती जीवन में कुपोषण के सेहत पर असर नवजात शिशु (newborn) में, शैशवावस्था में, स्कूल-पूर्व उम्र में और जीवन भर देखे जाते हैं। मां का कुपोषण भ्रूण के कुपोषण में दिखता है जो जन्म के समय कम वज़न के रूप में सामने आता है। भ्रूणावस्था में कुपोषण का सम्बंध आगे चलकर गैर-संक्रामक रोगों (जैसे मोटापे(obesity), मधुमेह(diabetes), उच्च रक्तचाप(hypertension), हृदय रोगों (heart diseases) तथा गुर्दों के जीर्ण रोगों) (NCDs) से देखा गया है।

निम्न-मध्यम आमदनी वाले देशों (low-income countries) में गैर-संक्रामक रोगों का प्रकोप तेज़ी से बढ़ रहा है। इन देशों में जन्म के समय कम वज़न आम बात है। पिछले 30 वर्षों में अनुसंधान से प्रमाणित हुआ है कि उच्च रक्तचाप, डायबिटीज़, गुर्दा रोग जैसी बीमारियों की उत्पत्ति का सम्बंध विकसित होते भ्रूण को मिलने वाले पोषण में कमी से हो सकता है। यह इस बात की व्याख्या कर देता है कि क्यों भारत के निम्न आय वर्ग में भी ये रोग काफी व्याप्त हैं। वैसे इसका सम्बंध अस्वस्थ भोजन तथा सुस्त जीवनशैली से भी हो सकता है। अस्वस्थ भोजन का सम्बंध प्राय: खाद्यान्न असुरक्षा (food security) से देखा जाता है। पर्याप्त संतुलित भोजन के अभाव में प्रोसेस्ड भोजन (processed food) का उपभोग बढ़ता है जिसमें अत्यधिक शर्करा, संतृप्त वसाएं, सोडियम होते हैं लेकिन पोषक तत्वों का अभाव होता है। भारत में इसका असर डायबिटीज़ (जल्दी शुरू होने वाले) के बढ़ते प्रकोप में दिख रहा है। भ्रूणावस्था में कुपोषण के बाद यदि बढ़ती उम्र में अधिक ऊर्जा का सेवन किया जाए या प्रोटीन व कैलोरी का अभाव रहे तो डायबिटीज़ का जोखिम बढ़ सकता है।

जन्म के समय कम वज़न (low birth weight) का परिणाम शरीर की वृद्धि कम होने और संज्ञान के विलंबित विकास के रूप में सामने आ सकता है। लिहाज़ा, बच्चों को सबसे पहला टीका तो गर्भावस्था के दौरान महिला को पर्याप्त संतुलित आहार (balanced diet) के रूप में होगा।

जन स्वास्थ्य पर पोषण के असर का प्रथम प्रमाण तो ग्रेट ब्रिटेन द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपनाई गई युद्धकालीन खाद्य नीति थी। इस नीति ने सारे नागरिकों के लिए, उनकी आमदनी की परवाह न करते हुए, ज़रूरी खुराक सुनिश्चित की थी। लोगों की खुराक में दूध और सब्ज़ियों के सेवन में क्रमश: 28 प्रतिशत और 34 प्रतिशत वृद्धि देखी गई जबकि मांस की खपत में 21 प्रतिशत की कमी आई। परिणाम यह रहा कि “शिशुओं, नवजात बच्चों और माताओं की मृत्यु दर न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई और एनीमिया का प्रकोप कम हुआ, स्कूली बच्चों की विकास दर तथा दांतों की सेहत बेहतर हुई, और आम आबादी का पोषण स्तर युद्ध-पूर्व की स्थिति से बेहतर हो गया।”

पर्याप्त संतुलित भोजन: एक कारगर टीका

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि पर्याप्त संतुलित भोजन बीमारियों की रोकथाम (disease prevention) में अहम भूमिका निभाता है। एक मायने में यह टीके (vaccine alternative) का काम करता है। पर्याप्त संतुलित भोजन उसे कह सकते हैं जो व्यक्ति की उम्र, वज़न, काम के अनुसार पर्याप्त ऊर्जा व प्रोटीन प्रदान करे और विविध अनाजों, दालों, फलों, सब्ज़ियों, स्वस्थ वसाओं, मेवों, जंतु स्रोतों से प्राप्त भोजन (दूध, पोल्ट्री, मछली) की दृष्टि से संतुलित हो (balanced diet)। यह टीबी पैदा करने वाले एसिड-फास्ट बैसिली के विरुद्ध एक टीके की क्षमता रखता है। इसकी कई खूबियां इसे एक अनोखा टीका बनाती हैं।

पर्याप्त संतुलित भोजन रोग की रोकथाम का उपाय भी है और रोग हो जाने पर मुत्यु से बचाव का तरीका भी है। यह टीबी उपचार के दौरान कुपोषण सम्बंधी जोखिमों से बचाव कर सकता है। ये जोखिम काफी होते हैं। जैसे, रैशन्स परीक्षण में देखा गया था कि शुरुआत में लगभग आधे टीबी मरीज़ काफी कम वज़न वाले थे और अगले दो महीनों में उनका वज़न औसतन 5 प्रतिशत बढ़ा और मृत्यु का खतरा 60 प्रतिशत कम हुआ। इसके विपरीत जिन टीबी मरीज़ों को पोषण का सहारा नहीं दिया गया था, उनका वज़न पहले दो महीनों में या तो स्थिर रहा या कम होता गया। और मृत्यु का जोखिम पांच गुना अधिक रहा।

एक व्यवस्थित समीक्षा में यह भी देखा गया कि कम वज़न (underweight) का सम्बंध उपचार-उपरांत मृत्यु से भी है। कम वज़न वाले मरीज़ों में यह 14.8 प्रतिशत रही जबकि अन्य मरीज़ों में मात्र 5.6 प्रतिशत। जिन मरीज़ों का वज़न शुरुआत में कम था और परीक्षण के दौरान उनका वज़न पर्याप्त नहीं बढ़ा, उनमें टीबी (TB relapse) के फिर से सिर उठाने का ज़ोखिम लगभग दुगना रहा।

पर्याप्त संतुलित आहार टीके की खूबियां

  1. पर्याप्त संतुलित आहार (suffecient balanced diet) टीबी मरीज़ों के लिए रोकथाम और इलाज दोनों भूमिकाएं निभा सकता है – तत्काल व दीर्घावधि दोनों तरह के प्रतिकूल परिणामों के लिहाज़ से। यह बीमारी के रोकथाम (disease prevention) में तो कारगर है ही, साथ ही यह मृत्यु की रोकथाम तथा बीमारी के वापिस सिर उठाने से रोकथाम में भी कारगर है।
  2. पर्याप्त संतुलित आहार एक ऐसा टीका है जिसे मुंह से लिया जा सकता है और कोल्ड चेन (cold chain) वगैरह की कोई ज़रूरत नहीं होती। वैसे तो मां का दूध पहला संतुलित आहार टीका है जिसके लाभदायक असर जाने-माने हैं।
  3. पर्याप्त संतुलित आहार एक बहुआयामी (पोलीवैलेंट – polyvalent) टीका है यानी यह व्यक्ति के प्रतिरक्षा तंत्र को कई संक्रामक रोगों के खिलाफ मज़बूती देता है। और यह मज़बूती आने वाली पीढ़ियों को भी मिल जाती है। और यह कई गैर-संक्रामक रोगों की भी रोकथाम का काम करता है। कुपोषण की स्थिति में कई संक्रमण बार-बार होते हैं और गंभीर हो जाते हैं। संतुलित आहार इसे कम करता है।
  4. यह बच्चों, बुज़ुर्गों, गर्भवती तथा दूध पिलाती माताओं सबके लिए समान रूप से उपयोगी है। और यह सामान्य स्वास्थ्य को भी बेहतर करता है।
  5. पर्याप्त संतुलित आहार टीका खेतों में उगाकर आसानी से वितरित किया जा सकता है। इसके उत्पादन के लिए किसी उच्च टेक्नॉलॉजी की ज़रूरत नहीं होती और न किसी डॉक्टर की ज़रूरत होती है जो इसे लिखे।
  6. सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसमें पेटेंट(patent), बौद्धिक संपदा अधिकार (intellectual property rights – IPR) वगैरह जैसे झंझट भी नहीं होते। वैसे भी भोजन के अधिकार को मानव अधिकार के सार्वभौमिक घोषणा पत्र तथा आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय संधि में मान्य किया गया है।
  7. पर्याप्त संतुलित आहार टीके में अनुपालन की गारंटी होती है क्योंकि यह प्राप्तकर्ता को प्रसन्नता का एहसास देता है।
  8. पर्याप्त संतुलित आहार टीके के असर आने वाली पीढ़ियों (future generation) पर भी होते हैं। किसी व्यक्ति को मिलने वाला भोजन कई पीढ़ियों को प्रभावित करता है। कम वज़न वाली स्त्री के बच्चे भी कम वज़नी होने का खतरा होता है और उनके बच्चे भी कम वज़न के होने की संभावना ज़्यादा होती है।
  9. पर्याप्त संतुलित आहार स्वास्थ्य में सुधार लाने के अलावा संज्ञान क्षमता व उत्पादकता को भी बढ़ाता है। ग्वाटेमाला (guatemala) में किए गए अध्ययन से पता चला है कि शुरुआती बचपन में दिए गए पूरक पोषण से बच्चों के शैक्षिक परिणामों (educational outcomes) में सुधार आया और आगे चलकर उनकी आर्थिक उत्पादकता भी बेहतर रही।
  10. पर्याप्त संतुलित आहार टीबी (TB) एवं अन्य रोगों के खिलाफ उपलब्ध टीकों के असर को बढ़ा सकता है। एक समुचित प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया काफी हद तक ज़रूरी पोषक पदार्थों की उपस्थिति पर निर्भर करती है। लिहाज़ा, व्यक्ति में पोषण की स्थिति टीकों के प्रति व्यक्ति की प्रतिक्रिया को प्रभावित करती है।

कुल मिलाकर, पर्याप्त संतुलित आहार को एक ऐसा टीका कहना अनुचित न होगा जो कारगर है, उपाचारात्मक है, रोकथाम करता है, मुंह से दिया जा सकता है, सुरक्षित है, वृद्धि को बढ़ावा देता है, और प्रसन्नता देता है, जिसका उपयोग अन्य टीकों के साथ सहकारी के रूप में किया जा सकता है, जिसे पेटेंट वगैरह झंझट के बिना खेतों में उगाया जा सकता और सीधे उपभोक्ता को दिया जा सकता है। कुछ लोगों को शायद यह बात अतिरंजित लगे लेकिन निम्न-मध्यम आमदनी वाले देशों (low-medium income countries) में आबादी में व्याप्त कुपोषण – जो टीबी प्रकोप का एक प्रमुख चालक है – को नज़रअंदाज़ करना हमें कभी टीबी मुक्त दुनिया की ओर नहीं ले जा सकता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्लोबल वार्मिंग पर विवादित रिपोर्ट से मचा हंगामा

हाल ही में अमेरिका के ऊर्जा विभाग (Department of Energy, USA) द्वारा जारी एक रिपोर्ट से बड़ी बहस छिड़ गई है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग से होने वाला आर्थिक नुकसान पूर्व मान्यता की अपेक्षा कम होगा। लेकिन कई वैज्ञानिकों का कहना है कि यह रिपोर्ट जलवायु विज्ञान (climate science) को गलत तरीके से पेश कर रही है और इसका मकसद अमेरिकी सरकार को 2009 के उस अहम फैसले को रद्द करने में मदद करना है, जिसमें ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) को जन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माना गया था।

गौरतलब है कि बराक ओबामा (Barack Obama) के कार्यकाल में पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (Environmental Protection Agency – EPA) ने ठोस सबूतों के आधार पर निष्कर्ष दिया था कि कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) जैसी ग्रीनहाउस गैसें इंसानों और पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं, और इसी के आधार पर वाहनों, बिजली संयंत्रों और अन्य स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन पर नियंत्रण के नियम बने थे। लेकिन अब सरकार इस फैसले को पलटने की कोशिश कर रही है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति ट्रंप (Donald Trump)  जलवायु परिवर्तन को शिगूफा (climate change hoax) करार दे चुके हैं।

यह रिपोर्ट ऊर्जा सचिव क्रिस राइट (Chris Wright) ने पांच व्यक्तियों से तैयार करवाई है। इनमें वायुमंडलीय वैज्ञानिक जॉन क्रिस्टी, जलवायु वैज्ञानिक जूडिथ करी, भौतिक विज्ञानी स्टीवन कूनिन, अर्थशास्त्री रॉस मैक्किट्रिक व मौसम वैज्ञानिक रॉय स्पेंसर शामिल हैं।

रिपोर्ट के लेखकों ने कहा है कि वे तथ्यों पर आधारित खुली और पारदर्शी चर्चा (scientific debate) के लिए तैयार है, और अगर गंभीर वैज्ञानिक सुझाव मिलते हैं तो रिपोर्ट में बदलाव किया जाएगा। एजेंसी ने इस दस्तावेज़ को जनता और विशेषज्ञों द्वारा समीक्षा (public review) के लिए 2 सितंबर तक खुला रखा है।

लेकिन कई वैज्ञानिक नाराज़ हैं। एरिज़ोना विश्वविद्यालय (University of Arizona)  की महासागर विज्ञानी जोएलेन रसेल का मानना है कि यह रिपोर्ट विज्ञान को आगे बढ़ाने की बजाय दबा रही है। फिलहाल कई शोधकर्ता रिपोर्ट के हर दावे का एक तथ्यात्मक जवाब (scientific rebuttal) तैयार कर रहे हैं। इस मामले में टेक्सास स्थित ए एंड एम युनिवर्सिटी के एंड्रयू डेस्लर सुप्रीम कोर्ट तक जाने को तैयार हैं। कुछ वैज्ञानिक बताते हैं कि वर्तमान जलवायु खतरे (climate risks) के सबूत पहले से कहीं अधिक मज़बूत हैं। ऐसे में इस तरह की रिपोर्ट दुर्भाग्यपूर्ण है।

यदि ट्रंप प्रशासन जोखिम सम्बंधी निष्कर्ष को रद्द करने में सफल हो जाता है, तो पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रित करने का अधिकार समाप्त हो सकता है। इससे जलवायु प्रदूषण व परिवर्तन (climate pollution & change) पर कानूनी कार्रवाई मुश्किल हो जाएगी, और वैश्विक तापमान वृद्धि (global temperature rise) का प्रभाव और अधिक बदतर हो जाएगा। जलवायु वैज्ञानिकों (climate scientists) के लिए यह लड़ाई सिर्फ एक रिपोर्ट की नहीं है बल्कि दशकों के शोध परिणामों की रक्षा, विज्ञान पर भरोसा बनाए रखने और यह सुनिश्चित करने की है कि सार्वजनिक नीतियां ठोस सबूतों पर आधारित हों, न कि संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ पर। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या लीथियम याददाश्त बचाने में मददगार है?

लीथियम धातु (Lithium metal) का उपयोग फोन और लैपटॉप की बैटरियों में किया जाता है। लेकिन चिकित्सा, खासकर मानसिक स्वास्थ्य (mental health) सम्बंधी चिकित्सा, में भी लीथियम का उपयोग होता है। इसका उपयोग मूडवर्धक के तौर पर सॉफ्ट ड्रिंक तथा बाइपोलर डिसऑर्डर (bipolar disorder) में मूड स्विंग नियंत्रित करने के लिए किया जाता रहा है। और अब नेचर पत्रिका (Nature journal) में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार लीथियम याददाश्त और दिमाग की सेहत के लिए भी अहम हो सकता है।

इस अध्ययन में हारवर्ड (Harvard University) के न्यूरोसाइंटिस्ट ब्रूस यैंकनर और उनकी टीम ने मृत्यु के पश्चात सैकड़ों बुज़ुर्गों के मस्तिष्क का अध्ययन किया। इनमें से कुछ को अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s disease) था, कुछ में हल्की स्मृतिभ्रंश (mild dementia) की समस्या थी, और बाकी पूरी तरह स्वस्थ थे। उन्होंने पाया कि अल्ज़ाइमर और मामूली संज्ञानात्मक समस्या (cognitive impairment) वाले लोगों के मस्तिष्क में लीथियम का स्तर स्वस्थ लोगों की तुलना में कम था। और तो और, ऐसे लोगों में जो लीथियम था वह भी ज़्यादातर अल्ज़ाइमर से जुड़े एमिलॉइड प्लाक (amyloid plaques) के बीच फंसा था जिससे दिमाग के सामान्य कार्य के लिए और भी कम लीथियम बचा था।

मस्तिष्क में लीथियम का कम स्तर मिलना सिर्फ पहला कदम था। इसके बाद टीम ने जांचा कि क्या लीथियम का स्तर बढ़ाने से मदद मिल सकती है। उन्होंने लीथियम ओरोटेट (Lithium orotate) नामक यौगिक को उन चूहों पर आज़माया जिन्हें आनुवंशिक रूप से अल्ज़ाइमर जैसे लक्षण विकसित करने के लिए तैयार किया गया था। गौरतलब है कि बाइपोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा (bipolar disorder treatment) में लीथियम के एक अन्य लवण लीथियम कार्बोनेट (Lithium carbonate) का इस्तेमाल किया जाता है।

उन्होंने पाया कि जिन चूहों को पीने के पानी में थोड़ी मात्रा में लीथियम ओरोटेट दिया गया, उनमें एमिलॉइड प्लाक्स (amyloid plaques) या टाउ (tau protein) नहीं बना। यहां तक कि जिन वृद्ध चूहों की याददाश्त कमज़ोर हो चुकी थी, वे फिर से चीज़ों को पहचानने और भूल-भुलैया में रास्ता ढूंढने लगे। इसमें सबसे अहम बात यह रही कि इतनी कम मात्रा में लीथियम देने से किडनी (kidney health) या थायरॉयड (thyroid) को वह नुकसान नहीं हुआ जो कभी-कभी लीथियम कार्बोनेट से हो जाता है। दूसरी ओर, जिन चूहों को लीथियम की कमी वाला आहार दिया गया, उनकी याददाश्त कमज़ोर हो गई और उनके मस्तिष्क में और अधिक प्लाक्स बनने लगे।

गौरतलब है कि लीथियम प्राकृतिक रूप से चट्टानों, समुद्री पानी, कुछ सब्ज़ियों (जैसे पत्ता गोभी और टमाटर) और कुछ क्षेत्रों के पीने के पानी में पाया जाता है। फिर भी विशेषज्ञ इस खोज (scientific discovery) को काफी महत्वपूर्ण मानते हैं और एंटी-एमिलॉइड दवाओं (anti-amyloid drugs) में हालिया प्रगति के बावजूद, इसे एक प्रभावी उपचार (effective treatment) के रूप में देखते हैं।

हालांकि ये नतीजे उम्मीद जगाने वाले हैं, लेकिन महज़ इन नतीजों के आधार पर लीथियम सप्लीमेंट (lithium supplements) न लेने लगें। एक तो अभी यह अध्ययन बस चूहों पर हुआ है, दूसरा डॉक्टर की सलाह के बिना इसे न लें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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