2023 की रोमांचक वैज्ञानिक खोजें – ज़ुबैर सिद्दिकी

पिछला वर्ष विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण उपलब्धियों वाला रहा। विज्ञान सम्बंधी कई आश्चर्यजनक सफलताएं हासिल हुईं। पेश है पिछले वर्ष हुई कुछ अहम वैज्ञानिक खोजों की झलक।

गुरुत्व तरंगें

पिछले वर्ष वैज्ञानिकों ने पहली बार आकाशगंगा में निम्न आवृत्ति वाली गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता लगाया। ऐसा माना जाता है कि ये ब्रह्मांडीय हलचल अरबों प्रकाश-वर्ष दूर अतिविशाल ब्लैक होल की अंतर्क्रिया और विलय से उत्पन्न हुई हैं, जिन्हें पल्सर पिंडों से निकलने वाले रेडियो संकेतों के सटीक माप के माध्यम से पहचाना गया था। इस खोज से प्रारंभिक ब्रह्मांड में अनुमान से अधिक ब्लैक होल की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। गुरुत्वाकर्षण तरंगों का अध्ययन ब्रह्मांड की उत्पत्ति से सम्बंधित अधिक जानकारी देने के अलावा ब्रहमांड को शक्ति देने वाले अदृश्य पदार्थ और घटनाओं को समझने में मदद कर सकता है।

विचारों को पढ़ना

टेक्सास विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी एआई-आधारित प्रणाली प्रस्तुत की है जो मस्तिष्क की गतिविधियों को इबारत में बदल सकती है और इसके लिए दिमाग में कोई यंत्र वगैरह भी नहीं घुसेड़ना पड़ते। एमआरआई स्कैन का उपयोग करते हुए यह नवाचार पॉडकास्ट या छवियों के प्रति मस्तिष्क की प्रतिक्रियाओं को पकड़ता है। शब्द-दर-शब्द प्रतिलेखन की बजाय, यह मस्तिष्क गतिविधि का पैटर्न बनाता है और विचारों को उन गतिविधियों के साथ जोड़ने के लिए एक शब्दकोश तैयार करता है। वैसे इस अध्ययन ने मानसिक गोपनीयता के लिहाज़ से नैतिक चर्चा को बढ़ावा दिया है लेकिन इन चिंताओं के बावजूद, यह आशाजनक संभावनाएं प्रदान करता है, विशेष रूप से संचार विकारों से जूझ रहे परिवारों को आशा की नई किरण देता है।

प्राचीन व्हेल: विशालतम जंतु

प्राचीन व्हेल जीवाश्मों के एक ताज़ा विश्लेषण से पता चला है कि 3.7 करोड़ वर्ष पहले पेरू के तट पर विचरने वाला जंतु पेरुसेटस कोलोसस पृथ्वी के इतिहास का सबसे बड़ा जीव रहा होगा। अनुमान है कि इसका वज़न 300 टन से अधिक और लंबाई लगभग 60 फीट रही होगी। यह वर्तमान ब्लू व्हेल से भी विशाल है क्योंकि वर्तमान ब्लू व्हेल की लंबाई तो लगभग 100 फीट है लेकिन वज़न मात्र 200 टन है।

टी-रेक्स की दिलचस्प विशेषता

पिछले वर्ष जीवाश्म विज्ञानियों ने टायरेनोसौरस रेक्स और इसी तरह के मांसाहारी डायनासौरों की एक दिलचस्प विशेषता को उजागर किया है। उनका दावा है कि टी-रेक्स के होंठ होते थे जो उनके पैने दांतों को ढंके रहते थे। यह निष्कर्ष डायनासौर की शारीरिक रचना के साथ-साथ पक्षियों और सरीसृपों जैसे आधुनिक प्राणियों के तुलनात्मक अध्ययन से निकला है। इन डायनासौरों के दांतों को ढंकने वाले नरम ऊतक उनके मुंह की सुरक्षा करते थे तथा शिकार और हमला करने के लिए दांतों की सही स्थिति सुनिश्चित करते थे।

लाखों वर्ष पुराने पाषाण औज़ार

दक्षिण-पश्चिमी केन्या में पुरातत्वविदों ने प्राचीन होमिनिन पैरेन्थ्रोपस के जीवाश्मों के साथ पत्थर के औज़ार भी खोजे हैं जो संभवत: 30 लाख वर्ष पुराने हैं। इस खोज से लगता है कि गैर-मानव होमिनिन ने भी पाषाण प्रौद्योगिकियों का विकास किया था। पूर्व में माना जाता था कि पैरेन्थ्रोपस के मज़बूत जबड़ों के कारण ऐसे औज़ार उनके आहार के लिए अनावश्यक रहे होंगे। इस नई खोज से मनुष्यों के प्राचीन रिश्तेदारों के बीच औज़ार अनुमान से भी पहले उभरने के संकेत मिलते हैं।

जटिल जीवन की उत्पत्ति

पिछले वर्ष ऑस्ट्रेलिया में प्राप्त प्राचीन चट्टानों के रासायनिक साक्ष्य 1.6 अरब से 80 करोड़ वर्ष पूर्व जटिल कोशिकाओं की उपस्थिति दर्शाते हैं। यह खोज जटिल जीवन रूपों के जल्दी उद्भव की धारणा से मेल खाती है। इस खोज के लिए शोधकर्ताओं ने यूकेरियोटिक (केंद्रक युक्त) कोशिका में झिल्ली बनाने के लिए ज़रूरी अणुओं का सहारा लिया और 1.6 अरब वर्ष पुराने रासायनिक चिंहों का पता लगाया, जो संभावित रूप से उस समय यूकेरियोट्स के अस्तित्व का संकेत देते हैं। यह खोज रासायनिक साक्ष्यों का तालमेल आनुवंशिक और सूक्ष्म जीवाश्म साक्ष्यों के साथ बनाती है।

बाह्य-ग्रहों की संख्या

पिछले वर्ष अगस्त में वैज्ञानिकों ने छह नए बाह्य-ग्रहों की खोज की है। अब हमारे सौर मंडल के बाहर ज्ञात ग्रहों की संख्या 5500 से अधिक हो गई। यह ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लेनेट सर्वे सैटेलाइड (TESS) और जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से संभव हो पाया है जो आकाशगंगा में विविध की खोज करती रहती हैं। इसमें एक मुख्य खोज के2-18बी नामक बाह्य-उपग्रह की है जो संभवत: घने वायुमंडल के नीचे एक विशाल महासागर को छिपाए है और आकार में पृथ्वी और नेपच्यून के बीच है।

चिम्पैंज़ी में रजोनिवृत्ति

काफी समय से जीवविज्ञानी यह समझने का प्रयास करते आए हैं कि क्यों कुछ जंतु मादाएं प्रजनन काल समाप्त होने (रजोनिवृत्ति) के बाद भी जीवित रहती हैं। यह स्थिति मनुष्यों, व्हेल और ओर्का जैसी मुट्ठी भर प्रजातियों में देखी गई है। युगांडा के किबले नेशनल पार्क में चिम्पैंज़ी के मूत्र में हार्मोन का विश्लेषण करने से पता चला है कि चिम्पैंज़ी भी रजोनिवृत्ति से गुज़रते हैं और 50 वर्ष की आयु के आसपास की मादाओं में प्रजनन रुक जाता है लेकिन वे जीवित रहती हैं। हालांकि, कुछ व्हेल प्रजातियों की बड़ी मादाएं संतान की देखभाल में सहायता करती हैं लेकिन ऐसा व्यवहार चिम्पैंज़ी में नहीं देखा जाता है। एक अनुमान है कि रजोनिवृत्ति प्राइमेट्स के बीच जंतुओं में प्रजनन प्रतिस्पर्धा को कम कर सकती है। वैज्ञानिकों का लक्ष्य आगे इस पर और अधिक अध्ययन करना है।

मगरमच्छों में वर्जिन जन्म

पिछले वर्ष कोस्टा रिका के क्वीन्स नेशनल मरीन पार्क में एक मादा मगरमच्छ (Crocodylus acutus) में पार्थेनोजेनेसिस (अलैंगिक प्रजनन का एक रूप जिसमें नर के बिना संतान पैदा होती है) देखा गया है। मगरमच्छों में यह दुर्लभ है लेकिन जनसंख्या तनाव के तहत अन्य प्रजातियों में देखा गया है। आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला कि भ्रूण सचमुच मां का आंशिक क्लोन था। बंदी अवस्था में ही सही, लेकिन यह खोज जंगली अमेरिकी मगरमच्छों के संरक्षण की दृष्टि से महत्व रखती है। गौरतलब है कि जंगली अमेरिकी मगरमच्छों को विलुप्तप्राय जानवरों की श्रेणी में रखा गया है।

सटीक चिकित्सा के लिए जीनोम

अमेरिकी राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान ने पुराने मानव जीनोम की सीमाओं को संबोधित करते हुए एक नया पैन-जीनोम प्रस्तुत किया है। यह नया मॉडल जीनोम विविध जातीय और नस्लीय पृष्ठभूमियों को शामिल करता है और माना जा रहा है कि इससे व्यक्तिगत चिकित्सा को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। वर्तमान में 47 व्यक्तियों के जीनोम अनुक्रम शामिल किए गए हैं, लेकिन लक्ष्य अंतत: 700 लोगों को शामिल करना है, जो पहले मुख्य रूप से युरोप-केंद्रित था। जीनोम समानताओं के बावजूद, व्यक्तिगत भिन्नताओं का विश्लेषण रोग के प्रति संवेदनशीलता को समझने में महत्वपूर्ण है, जो उचित चिकित्सा हस्तक्षेपों के लिए महत्वपूर्ण होगा।

शनि के चंद्रमा पर जीवन

शनि ग्रह का छठा सबसे बड़ा चंद्रमा एन्सेलाडस जीवन की संभावना के साक्ष्य दर्शाता है। हालिया विश्लेषण से जीवन के लिए आवश्यक कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन व सल्फर के साथ एक अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व फॉस्फोरस की उपस्थिति का पता चला है। कैसिनी अंतरिक्ष यान के कॉस्मिक डस्ट एनालाइज़र द्वारा बर्फीले कणों में पाए गए। ये तत्व एन्सेलाडस को पृथ्वी से परे जीवन के लिए एक आशाजनक स्थल के रूप में बताते हैं। ऐसा अनुमान है कि उपग्रह की बर्फीली परत के नीचे स्थित महासागर जीवन-निर्वाह की स्थिति पैदा कर सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आभासी विद्युत संयंत्र

पिछले कुछ वर्षों में इलेक्ट्रिक वाहनों और उपकरणों के बढ़ते उपयोग से बिजली की मांग तेज़ी से बढ़ी है। इस मांग को पूरा करने के लिए तत्काल नए ऊर्जा संयंत्रों की आवश्यकता है लेकिन नए निर्माण की तुलना में पुराने बिजली संयंत्र अधिक तेज़ी से बंद हो रहे हैं। इस असंतुलन से निपटने के लिए बिजली कंपनियां पवन और सौर ऊर्जा जैसे नवीकरणीय स्रोतों की मदद से आभासी बिजली संयंत्र की अवधारणा पर काम कर रही हैं।

वास्तव में आभासी बिजली संयंत्र पारंपरिक बिजली संयंत्र जैसे नहीं हैं बल्कि ये बिजली उत्पादकों, उपभोक्ताओं और ऊर्जा भंडारणकर्ताओं द्वारा बिजली का संग्रह हैं जिन्हें वितरित ऊर्जा स्रोत (डीईआर) कहते हैं। आवश्यकता होने पर ग्रिड प्रबंधक डीईआर से ऊर्जा मांग को पूरा कर सकते हैं। इस तरह से एक शक्तिशाली और चुस्त ऊर्जा प्रणाली को तेज़ी से तैनात किया जा सकता है जो नए पारंपरिक बिजली संयंत्रों के निर्माण की तुलना में अधिक लागत प्रभावी है।

यूएस ऊर्जा विभाग का अनुमान है कि स्मार्ट थर्मोस्टेट, वॉटर हीटर, सौर पैनल और बैटरी जैसी प्रौद्योगिकियों को व्यापक रूप से अपनाने से 2030 तक आभासी बिजली संयंत्रों की क्षमता तीन गुना तक बढ़ सकती है। यदि ऐसा होता है तो आभासी बिजली संयंत्र नई मांग के लगभग आधे हिस्से की पूर्ति कर पाएंगे। इससे नए नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों और पारंपरिक बिजली संयंत्रों के निर्माण से जुड़ी लागत को सीमित करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, ऊर्जा खपत वाले क्षेत्रों में आभासी बिजली संयंत्र की उपस्थिति से पुरानी पारेषण प्रणालियों पर दबाव कम होगा।

इस तकनीक से पारंपरिक उत्पादक-उपभोक्ता मॉडल में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा। पूर्व में बड़े पैमाने पर बिजली संयंत्र बिजली पैदा करते थे और इसे निष्क्रिय उपभोक्ताओं तक भेजते थे। लेकिन अब उपभोक्ता सक्रिय रूप से ऊर्जा मांग का प्रबंधन स्वयं कर सकते हैं। बाज़ार में उपस्थित स्मार्ट उपकरण बिजली आपूर्ति और कीमत में उतार-चढ़ाव के आधार पर बिजली के उपयोग को समायोजित कर सकते हैं जिससे ग्रिड स्थिरता बनाए रखने में मदद मिलती है। अमेरिकी उपभोक्ता अपने घरों को आभासी बिजली स्रोतों में बदलने के लिए तेज़ी से सौर पैनल अपना रहे हैं जबकि दक्षिण ऑस्ट्रेलिया 50,000 घरों को सौर एवं बैटरी से जोड़कर देश का सबसे बड़ा आभासी बिजली संयंत्र बना रहा है।

अलबत्ता, आभासी बिजली संयंत्र स्थापित करना कई चुनौतियों से भरा है। कई ग्राहकों को अपने निजी उपकरणों का नियंत्रण देने में झिझक हो सकती है जबकि अन्य को स्मार्ट मीटर की सुरक्षा और गोपनीयता को लेकर चिंता होगी। ग्राहकों को पर्याप्त प्रलोभन और भरोसा देकर इन सभी चिंताओं का समाधान किया जा सकता है।

बिजली की बढ़ती मांग और नवीकरणीय संसाधनों से उत्पादित बिजली के अधिक केंद्रीकृत होने से ग्रिड प्रबंधकों को पवन व सौर ऊर्जा के परिवर्तनीय उत्पादन को संतुलित करने के लिए अधिक लचीली प्रणाली विकसित करना होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पक्षियों की विलुप्ति का चौंकाने वाला आंकड़ा

हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन ने पिछले 1,26,000 वर्षों में मानव गतिविधियों के कारण पक्षियों की विलुप्ति के चौंकाने वाले आंकड़े उजागर किए हैं। पूर्व में किए गए अनुमानों से आगे जाकर इस शोध ने लगभग 1500 पक्षी प्रजातियों के विलुप्त होने के पीछे मनुष्यों को दोषी पाया है। यह आंकड़ा पूर्व अनुमानित संख्या से दुगना है जो पक्षियों की जैव विविधता पर मानव गतिविधियों के गहरे प्रभाव का संकेत देता है।

सदियों से ज़मीनें साफ करके, शिकार और बाहरी प्रजातियों को नए इलाकों में पहुंचाने जैसे मानवीय कारकों की वजह से पक्षियों की विलुप्ति होती रही है। यह प्रभाव विशेष रूप से द्वीपों जैसे अलग-थलग पारिस्थितिक तंत्रों में विनाशकारी रहा है और पक्षियों की 90 प्रतिशत ज्ञात विलुप्तियां ऐसे ही स्थानों पर होने की संभावना है। स्थिति को समझने में सबसे बड़ी चुनौती पक्षियों का हल्का वज़न और खोखली हड्डियां हैं जिनके कारण उनके अवशेषों का जीवाश्म के रूप में भलीभांति संरक्षण नहीं होता है। इसलिए पक्षी विलुप्ति के अधिकांश विश्लेषण लिखित रिकॉर्ड के आधार पर किए गए हैं जो पिछले 500 वर्षों से ही उपलब्ध हैं।

इस दिक्कत से निपटने के लिए, यूके सेंटर फॉर इकॉलॉजी एंड हाइड्रोलॉजी के रॉब कुक और उनकी टीम ने 1488 द्वीपों में दस्तावेज़ीकृत विलुप्तियों, जीवाश्म रिकॉर्ड और अनुमानित अनदेखी विलुप्तियों के अनुमानों को जोड़कर कुल विलुप्तियों का एक व्यापक मॉडल तैयार किया। अनदेखी विलुप्तियों का अनुमान लगाने के लिए उन्होंने द्वीप के आकार, जलवायु और अलग-थलग होने की स्थिति जैसे कारकों के आधार पर प्रजातियों की समृद्धता का आकलन किया। उनका निष्कर्ष है कि मानवीय गतिविधियों के कारण प्लायस्टोसीन युग के अंतिम दौर के बाद से वैश्विक स्तर पर लगभग 12 प्रतिशत पक्षी प्रजातियां विलुप्त हुई हैं। अध्ययनकर्ताओं का मत है कि इनमें से आधे से अधिक पक्षियों को तो इंसानों ने देखा भी नहीं होगा और न ही उनके जीवाश्म बच पाए होंगे।

इस विलुप्ति में विशेष रूप से प्रशांत क्षेत्र के हवाई द्वीप, मार्केसस द्वीप और न्यूज़ीलैंड को सबसे अधिक खामियाज़ा भुगतना पड़ा जहां विलुप्त पक्षियों का लगभग दो-तिहाई हिस्सा केंद्रित था। अध्ययन से पता चलता है कि महाविलुप्ति की शुरुआत लगभग 700 वर्ष पूर्व हुई जब इन द्वीपों पर मनुष्यों का आगमन हुआ। इसके नतीजे में विलुप्त होने की दर में 80 गुना वृद्धि हुई।

शोध के ये परिणाम नीति निर्माताओं और संरक्षणवादियों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। कार्लस्टेड विश्वविद्यालय के फोल्मर बोकमा के अनुसार इन नुकसानों को समझकर अधिक प्रभावी जैव विविधता लक्ष्य निर्धारित किए जा सकते हैं। एडिलेड विश्वविद्यालय के जेमी वुड का कहना है कि इस अध्ययन ने दर्शाया है कि पक्षियों की विलुप्ति के अनुमान कम लगाए गए थे और वास्तविक स्थिति शायद इस अध्ययन के आकलन से भी ज़्यादा भयावह है। (स्रोत फीचर्स)

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कार्बन डाईऑक्साइड का पावडर बनाएं

लवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों की एक टीम ने कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) को एक सौम्य, पावडरी पदार्थ में परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त की है। माना जा रहा है कि इस नई खोज से पृथ्वी को कार्बन डाईऑक्साइड के प्रभावों से बचाने और जलवायु परिवर्तन के प्रबंधन में क्रांतिकारी बदलाव लाया जा सकता है।

इस प्रक्रिया में सबसे पहले कार्बन डाईऑक्साइड को एक उत्प्रेरक के संपर्क में लाया जाता है और फिर विद्युतअपघटन के माध्यम से इस गैस को सोडियम फॉर्मेट में परिवर्तित किया जाता है। यह एक सुरक्षित, पावडरनुमा ईंधन है जिसका कई दशकों तक भंडारण किया जा सकता है और इसे स्वच्छ बिजली में परिवर्तित करना भी संभव लगता है।

यह पावडरी उत्पाद सोडियम फॉर्मेट नामक एक लवण जैसा ही है जिसका उपयोग सड़कों और हवाई अड्डों पर बर्फ पिघलाने के लिए होता रहा है। इस पावडर ने असाधारण स्थिरता का प्रदर्शन किया और क्षरण हुए बिना इसे 2000 घंटे तक भंडारित किया जा सका। इसके अलावा, एमआईटी टीम ने इसका उपयोग करके रेफ्रिजरेटर बराबर एक ईंधन सेल का निर्माण किया, जिसने बिना किसी उत्सर्जन के घरेलू स्तर पर बिजली उत्पन्न करने की क्षमता का प्रदर्शन किया।

इस नवाचार की प्रमुख विशेषता अन्य वैकल्पिक ईंधनों की सीमाओं से परे है। विषाक्त मेथनॉल या रिसाव की समस्या से ग्रस्त हाइड्रोजन के विपरीत कार्बन डाईऑक्साइड से उत्पन्न ईंधन दीर्घकालिक ऊर्जा भंडारण का एक सुरक्षित और अधिक कुशल समाधान है।

सेल रिपोर्ट्स फिज़िकल साइंसेज़ में प्रकाशित यह नवाचार काफी आशाजनक प्रतीत होता है लेकिन इसका व्यावसायीकरण चुनौतियों से भरा है। वैज्ञानिकों को इस अभूतपूर्व समाधान को आगे बढ़ाने के लिए विश्वविद्यालय की सीमा से परे संसाधनों और बाहरी समर्थन की आवश्यकता है।

उम्मीद है कि जैसे-जैसे व्यावसायिक संस्थाओं के साथ बातचीत गति पकड़ेगी, वैसे-वैसे यह खोज हमारे ऊर्जा परिदृश्य को भी व्यापक रूप से बदल देगी। यह वैश्विक ऊर्जा मांगों को पूरा करते हुए जलवायु परिवर्तन को थामने का एक शक्तिशाली समाधान साबित हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्लोबल वार्मिंग नापने की एक नई तकनीक – आमोद कारखानीस

विश्व की अंडर-सी केबल्स

जकल ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के गर्माने की बहुत बातें हो रहीं है। औद्योगीकरण के चलते हवा में कार्बन डाईऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा बढ़ी है, जिससे विश्व का औसत तापमान बढ़ता जा रहा है। यह एक बहुत ही धीमी रफ्तार से होने वाली प्रक्रिया है तथा तापमान में बदलाव भी बहुत थोड़ा-थोड़ा करके, एकाध डिग्री सेल्सियस से भी कम, होता है। हालांकि, इतने छोटे बदलाव से भी कई जगह अलग-अलग असर देखने को मिलते हैं। ये असर क्या हैं, उनके कारण पर्यावरण को क्या नुकसान हो रहे हैं या आगे क्या हो सकते हैं, यह जानने के लिए दुनिया में कई सारे वैज्ञानिक काम कर रहे हैं।

इसी प्रयास में वैज्ञानिकों ने यह देखा है कि तापमान वृद्धि का बड़ा असर उत्तरी ध्रुव के बर्फीले प्रदेशों पर हो रहा है। बड़े-बड़े हिमखण्ड पिघल रहे हैं। ये परिणाम तो प्रत्यक्ष नज़र आते हैं जिन्हें देखना काफी आसान और संभव है। किंतु समुद्र के पानी में जो बदलाव हो रहा है वह जानना काफी मुश्किल है। वैज्ञानिक उन प्रभावों को ढूंढने और मापने के नए-नए तरीके खोजते रहते हैं।

अन्य जगहों के मुकाबले आर्कटिक वृत्त के पास के समंदरों के बारे में इस तरह की जानकारी पाना तो और भी मुश्किल है। यहां के समंदर का पानी साल भर काफी ठंडा रहता है। और तो और, जाड़े के मौसम में कई जगह बर्फ जम जाती है। यह हुई ऊपरी हिस्से की बात। जैसे-जैसे हम समंदर की गहराई में जाते हैं, पानी का तापमान और कम होता जाता है। ज़्यादा गहराई में जाने पर कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जहां पानी साल भर पूरी तरह बर्फ के रूप में जमा होता है और कभी पिघलता नहीं है। इसे समंदर के अंदर का स्थायी तुषार (पर्माफ्रॉस्ट) कहते है।

वैज्ञानिकों को आशंका थी कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस पर्माफ्रॉस्ट पर असर हुआ है और उस के कुछ हिस्से पिघलने लगे हैं। परंतु जहां पहुंचना भी मुश्किल है, वहां इतनी गहराई में उतरकर कुछ नाप-जोख कर पाना लगभग असंभव है।

हाल ही में साइंटिफिक अमेरिकन में छपी एक रिपोर्ट में एक नई तकनीक का ज़िक्र है जिसकी बदौलत अब हमें पर्माफ्रॉस्ट की हालत के बारे में जानकारी मिलना संभव हो गया गया है। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने का अध्ययन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि यदि यह बर्फ पिघली तो इसमें कैद कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन वगैरह वातावरण में पहुंचकर ग्लोबल वार्मिंग को और बढ़ा देंगी।

तो क्या है यह तकनीक? हम लोग केबल टीवी से तो काफी परिचित है। अपने घर के टीवी तक लगाए गए केबल के ज़रिए हम बहुत सारे टीवी चैनल देख पाते हैं। सिर्फ टीवी ही नहीं बल्कि हर प्रकार के संचार संकेतों के प्रेषण के लिए केबल डाली जाती है, जैसे टेलीफोन, टेलीग्राफ, इंटरनेट के लिए। जिस तरह हमारे शहरों में सड़कों के किनारे ज़मीन में केबल डाली जाती है, उसी तरह दो शहरों के बीच या दो देशों के बीच भी केबल रहती है। अलबत्ता यह केबल थोड़ी अलग किस्म की होती है। उनमें तार की जगह प्रकाशीय रेशों (ऑप्टिकल फाइबर) के बहुत से तंतु होते हैं। दो देश ज़मीन से जुड़े हों तो उनके बीच इस तरह की केबल डाली जा सकती है। परंतु यदि हमें इंग्लैंड और अमरीका के बीच केबल डालनी है तो? उनके बीच तो अटलांटिक महासागर है। ये केबल अब समंदर के पानी के अंदर (अंडर-सी) बिछानी पड़ेगी।

इस तरह की अंडर-सी केबल पहली बार 1858 में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच इंग्लिश चैनल के आर-पार डाली गई थी। उस समय यह केबल टेलीग्राफ के लिए इस्तेमाल की जाती थी और वह काफी प्राथमिक स्तर की थी। अब इनमें काफी सुधार हुए हैं। दुनिया के सभी महासागरों में इस तरह की केबल डाली जा चुकी हैं। आजकल दुनिया का अधिकतर दूरसंचार इसी तरह के केबल द्वारा होता है।

अब स्कूल में पढ़े कुछ विज्ञान को याद करते हैं। हम जानते हैं कि प्रकाश किरण एक सीधी रेखा में चलती है, पर माध्यम बदलने पर यह अपनी दिशा बदल लेती है। इसे हम अपवर्तन कहते हैं। माध्यम का घनत्व बदलने से भी प्रकाश किरणें दिशा बदलती हैं। इसका सामान्य उदाहरण मरीचिका है – यह प्रभाव इस कारण होता है कि गर्मी के दिनों में ज़मीन के पास की हवा अधिक गरम होने की वजह से विरल (कम घनत्व वाली) होती है।

सैंडिया नेशनल लेबोरेटरी के वैज्ञानिकों ने ध्यान दिया कि आर्कटिक वृत्त के समुद्र के तले में कई केबल डली हुई हैं। उसमें से कुछ अलास्का के ब्यूफोर्ट सागर के तले पर मौजूद पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र से गुज़र रही है। उन्होंने अंदाज़ लगाया कि पर्माफ्रॉस्ट के कारण केबल पर जो दबाव पड़ा होगा उससे अंदर के तंतुओं पर कुछ असर हुआ होगा। अत: उस जगह हमें प्रकाश किरण का अपवर्तन और विक्षेपण (यानी बिखराव) दिखाई देगा। उन्होंने केबल के असंख्य तंतुओं में से एक ऐसा तंतु चुना जिसका उपयोग नहीं हो रहा था। उसमें एक लेज़र बीम छोड़ा और यह नापने की कोशिश की कि बीम का कहां-कहां और कैसे अपवर्तन तथा विक्षेपण होता है। चूंकि पर्माफ्रॉस्ट के कारण केबल पर जो असर हुआ वह बहुत सूक्ष्म था; लेज़र बीम में होने वाला बदलाव भी न के बराबर रहा। परंतु चार साल के अथक प्रयासों के बाद वैज्ञानिक अपने मकसद में कामयाब रहे। अब अलास्का के समुद्र के अंडर-सी पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने के बारे में हमें कई सारी महत्वपूर्ण जानकारी मिली है। अब यह तरीका अन्य जगह भी लागू किया जा सकता है।

केबल पर पड़ने वाला दबाव, केबल का तापमान आदि कारणों से प्रकाश के संचार पर असर होता है। अत: इस अनुसंधान से विकसित की गई तकनीक की बदौलत जहां-जहां भी अंडर-सी केबल हैं वहां के समुद्र तल के बारे में नई जानकारी पाना संभव हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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चारधाम हाईवे और हिमालय का पर्यावरण – भारत डोगरा

हिमालय के बारे में एक बड़ी वैज्ञानिक सच्चाई यह है कि ये पर्वत बाहरी तौर पर कितने ही भव्य व विशाल हों, पर भू-विज्ञान के स्तर पर इनकी आयु अपेक्षाकृत कम है, इनकी प्राकृतिक निर्माण प्रक्रियाएं अभी चल रही हैं व इस कारण इनमें अस्थिरता व हलचल है। इस वजह से इनसे अधिक छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए, और जहां ऐसा करना निहायत ज़रूरी है वहां बहुत सावधानी के साथ करना चाहिए।

अत: यहां के विभिन्न निर्माणों के सम्बंध में भू-वैज्ञानिक प्राय: हमें याद दिलाते रहते हैं कि विभिन्न ज़रूरी सावधानियों को अपनाओ – आगे बढ़ने से पहले भूमि की ठीक से जांच करो, उतना ही निर्माण करो जितना ज़रूरी है, उसे अनावश्यक रूप से बड़ा न करो व अनावश्यक विस्तार से बचो। विशेष तौर पर भू-वैज्ञानिक व पर्यावरणविद कहते रहे हैं कि निर्माण में विस्फोटकों के उपयोग से बचें या इसे न्यूनतम रखें, वृक्ष-कटाई को न्यूनतम रखा जाए, प्राकृतिक वनों की भरपूर रक्षा की जाए। प्राकृतिक वनों की भरपाई नए वृक्षारोपण से नहीं हो सकती है। किसी बड़े निर्माण से पहले मलबे की सही व्यवस्था का नियोजन पहले करना होगा, उचित निपटान करना होगा। सबसे महत्वपूर्ण सावधानी यह रखनी होगी कि मलबा नदियों में न फेंके व हर तरह से सुनिश्चित करें कि नदियां सुरक्षित बनी रहें।

दुर्भाग्यवश हिमालय में निर्माण कार्यों सम्बंधी इन सावधानियों को वैज्ञानिक पत्रों में चाहे जितना महत्व मिला हो, लेकिन ज़मीनी स्तर पर हाल में इनकी बड़े स्तर पर और बार-बार अवहेलना हुई है। इस स्थिति में अनेक वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों ने यह मांग की है कि विभिन्न निर्माण परियोजनाओं के पर्यावरणीय आकलन को मज़बूत किया जाए ताकि सावधानियों व चेतावनियों का पालन हो सके।

उत्तराखंड हिमालय में करोड़ों लोगों की श्रद्धा का केन्द्र बनेे अनेक तीर्थ स्थान हैं, जिनमें चार तीर्थस्थान या चार धाम (गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ) विशेषकर विख्यात हैं। इन चार धामों तक पहुंचने वाले, इन्हें जोड़ने वाले हाईवे को चौड़ा करने और हर मौसम में इनकी यात्रा सुनिश्चित करवाने वाली परियोजना बनाई गई। इसमें हाईवे को अत्यधिक चौड़ा करने व इसमें अनेक सुरंगें बनाने का प्रावधान था। इससे बहुत वृक्षों को काटना होता व हिमालय में अत्यधिक छेड़छाड़ होने पर पर्यावरण रक्षा के आधार पर विरोध हो सकता था। अत: इन निर्माणों को तेज़ी से आगे बढ़ाने वालों ने प्राय: यह प्रयास किया कि इस चारधाम हाईवे विस्तार को कई छोटे-छोटे भागों में बांटकर इसे पर्यावरणीय आकलन के दायरे से काफी हद तक बाहर कर लिया। ऊंचे हिमालय पहाड़ों में जो क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से बहुत संवेदनशील हैं, अब उनकी रक्षा के लिए चल रहे प्रयास, वहां के वृक्षों की रक्षा के प्रयास भी अधिक कठिन हो गए। तिस पर अदालती स्तर पर हरी झंडी मिलने के बाद चारधाम हाईवे व सुरंगों के निर्माण कार्य और भी तेज़ी से आगे बढ़ने लगे।

यदि भू-वैज्ञानिकों की बात मानी जाती तो हाईवे को उतना ही चौड़ा किया जाता जितना कि बहुत ज़रूरी था, और इस तरह बहुत से पेड़ों को कटने से बचा लिया जाता और बहुत सी आजीविकाओं व खेतों की भी रक्षा हो जाती। यदि भू-वैज्ञानिकों की बात मानी जाती तो विस्फोटकों का उपयोग न्यूनतम होता, मलबे की मात्रा को न्यूनतम किया जाता व उसको सुरक्षित तौर पर ठिकाने लगाने की पूरी तैयारी की जाती। तब मलबा डालने से या अन्य कारणों से नदियों की कोई क्षति न होती, सुरंगों का निर्माण वहीं होता जहां बहुत ज़रूरी था तथा वह भी सारी सावधानियों के साथ। पर इन सब सावधानियों का उल्लंघन होता रहा व परिणाम यह हुआ कि यहां बड़ी संख्या में वृक्ष कटने लगे व भू-स्खलन व बाढ का खतरा बढ़ने लगा, नदियां अधिक संकटग्रस्त होने लगीं व अनेक प्राकृतिक जल-स्रोत नष्ट होने लगे व हाईवे के आसपास के गांवों में बहुत सी ऐसी क्षति होने लगी जिनसे बचा जा सकता था। सड़क पर होने वाले भूस्खलन तो बाहरी लोगों को नज़र भी आते थे, पर गांवों में होने वाली क्षति तो प्राय: सामने भी नहीं आ पाई।

इसी सिलसिले में सिल्कयारा की दुर्घटना हुई व एक बड़े व सराहनीय बचाव प्रयास के बाद ही इस सुरंग में फंसे 41 मज़दूरों को बचाया जा सका। इस बचाव प्रयास में तथाकथित ‘रैट माईनर्स’ यानी बहुत निर्धनता की स्थिति में रहने वाले खनिकों का विशेष योगदान रहा। इस हादसे के दौरान ही यह तथ्य सामने आया कि इस सुरंग निर्माण के दौर में पहले भी अनेक दुर्घटनाएं हो चुकी हैं लेकिन इसके बावजूद समुचित सावधानियां नहीं अपनाई गई थीं। दुर्घटना के बाद अन्य सुरंग-निर्माणों में सुरक्षा आकलन के निर्देश भी जारी किए गए। उम्मीद है कि इसका असर पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में भी होगा जहां हाल ही में उच्च स्तर पर अधिक सुरंग निर्माण पर जोर दिया गया था।

हिमालय क्षेत्र में अधिक तीर्थ यात्रियों व पर्यटकों का स्वागत करना अच्छा लगता है, पर इसके लिए ऐसे तौर-तरीके नहीं अपनाने चाहिए जिनसे तीर्थ स्थान व उनके प्रवेश मार्ग ही संकटग्रस्त हो जाएं तथा पर्यावरण की बहुत क्षति हो जाए।

पर्यटक हिमालय के किसी सुंदर स्थान पर जाना चाहते हैं पर यदि विकास के नाम पर अत्यधिक निर्माण से उस स्थान का प्राकृतिक सौन्दर्य ही नष्ट कर दिया जाए तो फिर यह विकास है या विनाश?

तीर्थ यात्रा तो वैसे भी आध्यात्मिकता से जुड़ी है, तो फिर तीर्थ स्थानों पर वाहनों का प्रदूषण, हेलीकॉप्टरों का शोर व वृक्षों का विनाश कैसे उचित ठहराया जा सकता है?

तीर्थ स्थानों व पर्यटन के संतुलित विकास से, विनाशमुक्त विकास से, स्थानीय लोगों की टिकाऊ आजीविकाएं जुड़ सकती हैं; वे पर्यटकों व तीर्थ यात्रियों के लिए हिमालय के तरह-तरह के स्वास्थ्य लाभ देने वाले खाद्य व औषधियां जुटा सकते हैं।

सामरिक दृष्टि से भी हिमालय क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है और सड़कें व मार्ग सुरक्षित रहें, भूस्खलन व बाढ़ का खतरा न्यूनतम रहे यह सैनिकों के सुरक्षित आवागमन के लिए भी आवश्यक है।

और मुद्दा केवल चारधाम हाईवे का नहीं है बल्कि हिमालय का अधिक व्यापक मुद्दा है। यहां एक ओर सैकड़ों गांव ऐसे हैं जहां सड़क या मार्ग के अभाव में गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति या प्रसव-पीड़ा से गुज़र रही महिला को चारपाई पर या पीठ पर लाद कर मीलों चलना पड़ता है, जबकि अनावश्यक तौर पर चौड़ी सड़कों, अनगिनत सुरंगों के निर्माण व वृक्षों की कटाई से पर्यावरण की अत्यधिक क्षति होती है व जनजीवन संकटग्रस्त होता है, आपदाएं बढ़ती हैं।

अत: ज़रूरी है कि सड़क व हाईवे निर्माण में विशेषकर संतुलित, सुलझी हुई नीति अपनाई जाए जिससे लोगों की सुरक्षा बढ़े व पर्यावरण की रक्षा हो।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एआई को अपनी आवाज़ चुराने से रोकें

पिछले कुछ समय में जनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (GenAI) में काफी विस्तार हुआ है। GenAI प्रशिक्षण के तौर पर दिए गए डैटा से पैटर्न, बनावट, विशेषताएं और बारीकियां सीखकर एकदम नया वांछित डैटा (संदेश, छवियां, वीडियो, ऑडियो, 3डी मॉडल वगैरह) गढ़ सकता है। GenAI के इस कौशल से कई आसानियां हुईं हैं; जैसे इसने मूवी डबिंग बेहतर की है, जीन अनुक्रमण को आसान बनाया है। लेकिन इसने उतनी ही समस्याएं भी पैदा की हैं।

GenAI की मदद से (किसी भी व्यक्ति या जंतु की) कृत्रिम आवाज़ बनाने की गुणवत्ता इतनी बेहतर हो गई है कि अब यह अंतर कर पाना मुश्किल है कि वे किसी वास्तविक व्यक्ति या जानवर की आवाज़ है या डीपफेक से सृजित नकली आवाज़। ऐसे में किसी व्यक्ति की मर्ज़ी और जानकारी के बिना उसकी आवाज़ को किसी जालसाज़ी के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे किसी अभिनेता की आवाज़ में कोई अमुक प्रतियोगिता जीतने का झांसा देने में, पैसे ऐंठने, धमकाने वगैरह में। और धोखाधड़ी या आवाज़ से छेड़खानी के लिए आपके किसी लंबे-चौड़े ऑडियो की ज़रूरत नहीं होती, बस चंद सेकंड लंबी रिकॉर्डिंग या वॉइस नोट ही आपकी आवाज़ में संदेश गढ़ने के लिए काफी है। तस्वीरों और वीडियो के मामले में तो इस तरह से नकली तस्वीर और वीडियो गढ़ने और धमकाने व वायरल करने के कितने सारे मामले सामने आ चुके हैं।

ये तकनीकें उपयोगी हों लेकिन साथ ही सुरक्षित भी रहें, इसी उद्देश्य से वाशिंगटन विश्वविद्यालय के कंप्यूटर वैज्ञानिक निंग झांग ने एक एंटीफेक नामक टूल बनाया है। एंटीफेक सायबर अपराधियों या अनाधिकृत लोगों को अपेक्षित ऑडियो सृजित करने ही नहीं देता और अपराध होने के पहले ही रोक लेता है।

आवाज़ों की चोरी रोकने और जालसाजी से बचाने के लिए एंटीफेक ध्वनि डैटा और रिकॉर्डिंग से उन विशेषताओं को हासिल करना मुश्किल बना देता है जो कृत्रिम ध्वनि बनाने के लिए ज़रूरी हैं। ऐसा करने के लिए यह रिकॉर्डेड ऑडियो या डैटा को बस इतना विकृत कर देता है या उसमें खलल डाल देता है कि हमें सुनने में तो वह आवाज़ ठीक-ठाक ही लगती है, लेकिन नकली आवाज़ गढ़ने वाले मॉडल को इसके ज़रिए सीखना-समझना असंभव हो जाता है।

छवियों के मामले में इसी तकनीक पर आधारित ग्लेज़ जैसे सुरक्षा टूल पहले ही मौजूद हैं। लेकिन ध्वनि सुरक्षा के मामले में एंटीफेक पहला प्रयास है। एंटीफेक अभी आवाज़ों की छोटी रिकॉर्डिंग की मदद से बनाई जाने वाली आवाज़ या ध्वनि क्लोनिंग से सुरक्षा दे सकता है, यह छोटी रिकॉर्डिंग ही सायबर आपराधियों द्वारा जालसाज़ी का सबसे आम ज़रिया है।

एंटीफेक द्वारा ऑडियो सुरक्षा का दावा किए जाने का आधार वह परीक्षण है जो शोधकर्ताओं ने पांच आधुनिक ध्वनि सिंथेसाइज़र के विरुद्ध किया है। एंटीफेक ने ऑडियो रिकॉर्डिंग को 95 प्रतिशत सुरक्षा दी है, यहां तक उन अज्ञात ध्वनि सिंथेसाइज़र के खिलाफ भी जिनके लिए इसे विशेष रूप से डिज़ाइन नहीं किया गया था। इसके अलावा, 24 प्रतिभागियों के साथ भी इस एंटीफेक की जांच की गई है। अधिक व्यापक अध्ययन इस एंटीफेक की कुशलता को और अधिक स्पष्ट करेंगे।

वैसे एक बात यह भी है कि इस डिजिटल युग में डैटा की पूर्ण सुरक्षा हासिल करना नामुमकिन है। क्योंकि जैसे-जैसे सुरक्षा तकनीकें परिष्कृत होती जाएंगी, सायबर अपराधी भी और अधिक शातिर होते जाएंगे। और दोनों में ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ की स्थिति बनी रहेगी। लेकिन फिर भी सुरक्षा दीवार को भेदना मुश्किल से मुश्किलतर करके अपराधिक मामलों की संख्या को शून्य न सही लेकिन शून्य के करीब लाया जा सकता है।

फिलहाल, इस तकनीक के सामने कुछ चुनौतियां भी हैं। एक बड़ी चुनौती तो यह है कि फिलहाल उपयोगकर्ताओं को स्वयं इसका उपयोग करना होगा, जिसे चलाने के लिए थोड़े-बहुत प्रोग्रामिंग कौशल की आवश्यकता होगी। दूसरी चुनौती यह है कि सुरक्षा के लिए जो तरीके और उपकरण निरंतर विकसित किए जा रहे हैं लोगों को उन्हें अनिवार्य तौर पर अपनाना और लगातार अपग्रेड करते जाना होगा। वरना लगातार अधिक शातिर और अपग्रेड होते जा रहे सायबर अपराधियों से डैटा असुरक्षित ही रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सर्दियों में गर्म रखती नाक की हड्डियां

र्दियों का मौसम चल रहा है। ठंड से राहत के लिए हम तरह-तरह की व्यवस्थाएं करते हैं, जैसे चाय-कॉफी, गर्म कपड़े, अलाव वगैरह। लेकिन ठंडे क्षेत्रों में रहने वाले जीवों के लिए तो इस तरह के उपाय अपनाना संभव नहीं है। लेकिन बायोफिज़िकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन आर्कटिक में रहने वाली सील की ठंड से राहत पाने की एक नायाब व्यवस्था का उल्लेख करता है – सील की नाक की अनोखी हड्डियां तुलनात्मक रूप से उनके शरीर में अधिक गर्मी संरक्षित रखती हैं।

जब आर्कटिक की सील तेज़-तेज़ सांस खींचती-छोड़ती हैं तो फेफड़ों में पहुंचने के पहले बर्फीली नम हवा नासिका से घुसकर उनकी नाक की हड्डियों (मैक्सिलोटर्बिनेट्स) से गुज़रती है। इन सर्पिलाकार छिद्रमय हड्डियों पर श्लेष्मा ऊतकों का अस्तर होता है, जो सील के सांस लेने पर गर्मी को कैद कर लेता है और हवा से नमी सोख लेता है।

सील की नाक की इस क्षमता को परखने के लिए शोधकर्ताओं ने आर्कटिक क्षेत्र की रहवासी दाढ़ीधारी सील (Erignathus barbatus) और उपोष्णकटिबंधीय भूमध्यसागरीय क्षेत्रों की रहवासी बैरागी सील (Monachus monachus) की नाकों का सीटी स्कैन किया और उनके मैक्सिलोटर्बिनेट का त्रिआयामी मॉडल बनाया। फिर इसे उन्होंने भीषण ठंड (शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे) और हल्की ठंड (10 डिग्री सेल्सियस) की स्थितियों में परखा। पता चला कि आर्कटिक सील की नाक दोनों परिस्थितियों में अधिक गर्मी और नमी को संरक्षित रखती है।

दाढ़ीवाली सील की नाक का सीटी स्कैन

उपोष्णकटिबंधीय सील की तुलना में आर्कटिक सील हर सांस पर 23 प्रतिशत कम ऊर्जा खर्चती है, जिससे वे शरीर में अधिक गर्मी बरकरार रख पाती हैं। और वे सांस के साथ खींची गई नमी का 94 प्रतिशत हिस्सा भी शरीर में रोक लेती हैं। कई अन्य समुद्री स्तनधारियों की तरह सील भी अधिकांश पानी भोजन से हासिल करती हैं। शरीर की नमी का संरक्षण करके वे बेहतर हाइड्रेटेड रहती हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार आर्कटिक सील में यह नैसर्गिक नमीकरण व्यवस्था नाक की हड्डियों की दांतेदार बनावट के चलते बढ़ी हुई सतह के कारण है। जब भी सील सांस छोड़ती हैं तो उनकी वक्राकार हड्डियां अपनी ऊबड़-खाबड़ संरचना में अधिकाधिक नमी कैद कर लेती हैं और उसे सोख लेती हैं। नतीजतन सील ठंड में चैन से सांस ले पाती है। (स्रोत फीचर्स)

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छोटी नदियों को बचाने के सार्थक प्रयास – भारत डोगरा

विभिन्न कारणों से कई छोटी नदियों में पानी बहुत कम हो गया है और यदि उनकी स्थिति ऐसे ही बिगड़ती रही तो वे लुप्त हो जाएंगी। अत: समय रहते उन्हें नया जीवन देने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा ही एक प्रयास हाल ही में झांसी जिले में कनेरा नदी के मामले में किया गया। यह प्रशासन, पंचायतों व सामाजिक कार्यकर्ताओं का परस्पर सहयोगी प्रयास था जिसमें परमार्थ संस्था ने उल्लेखनीय योगदान दिया। यह संस्था बबीना ब्लाक के सरवा, भारदा, खरदा बुज़ुर्ग, पथरवाड़ा, दरपालपुर आदि गांवों में जल संरक्षण के लिए जागरूकता बढ़ाती रही है और विशेषकर महिलाओं ने ‘जल-सखी’ के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

यहां कनेरा नदी लगभग 19 कि.मी. तक बहती है जो आगे चलकर घुरारी नदी में मिलती है, और घुरारी आगे बेतवा में मिलती है। लगभग 20 वर्ष पहले कनेरा नदी में भरपूर पानी था, लेकिन धीरे-धीरे यह कम होता गया। हाल ही में इतना कम हो गया कि गांवों के भूजल-स्तर, सिंचाई, फसलों के उत्पादन आदि पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा।

इस स्थिति में पिस्ता देवी, पुष्पा देवी आदि जल-सखियों ने व परमार्थ संस्था के कार्यकर्ताओं ने लोगों को नदी को नया जीवन के प्रयासों के लिए जागृत किया। साथ ही में प्रशासन से व विशेषकर ज़िलाधिकारी से उत्साहवर्धक प्रोत्साहन भी प्राप्त हुआ। परिणामस्वरूप, नदी के बड़े क्षेत्र में गाद-मिट्टी हटाने का कार्य किया गया जिससे नदी की जल ग्रहण क्षमता बढ़ी। इस पर दो चेक डैम बनाए गए व आसपास बड़े स्तर पर वृक्षारोपण हुआ है। सरवा गांव के प्रधान ने बताया कि यदि पिचिंग का कार्य तथा एक और चेक डैम का कार्य हो जाए तो नदी की स्थिति बेहतर हो सकती है। वैसे अभी तक किए गए कार्य की बदौलत पहले की अपेक्षा कहीं अधिक किसान नदी से सिंचाई प्राप्त कर रहे हैं; नदियों में मछलियों के पनपने की स्थिति पहले से कहीं बेहतर हो गई है; नदी में पानी अधिक होने से लगभग पांच गांवों के जल-स्तर में सुधार हुआ है; कुंओं में भी अब अधिक जल उपलब्ध है और पशुओं को अब वर्ष भर नदी के पानी से अपनी प्यास बुझाने का अवसर मिलता है। इसके अतिरिक्त आगे बहने वाली घुरारी नदी से अतिरिक्त मिट्टी-गाद हटा कर सफाई की गई है।

बरूआ नदी तालबेहट प्रखंड (ललितपुर जिला, उत्तर प्रदेश) में 16 कि.मी. तक बहती है और आगे जामनी नदी में मिलती है। इस पर पहले बना चेक डैम टूट-फूट गया था व खनन माफिया ने अधिक बालू निकालकर भी इस नदी की बहुत क्षति की थी। इस स्थिति में इसकी रक्षा हेतु समिति का गठन हुआ। नया चेक डैम बनाने के पर्याप्त संसाधन न होने के कारण यहां रेत भरी बोरियों का चेक डैम बनाने का निर्णय लिया गया।

लगभग 5000 बोरियां परमार्थ ने उपलब्ध करवाई। इन्हें गांववासियों, विशेषकर विजयपुरा की महिलाओं, ने रेत से भरा व नदी तक ले गए और वहां विशेष तरह से जमाया। इस तरह बिना किसी मज़दूरी या बड़े बजट के अपनी मेहनत के बल पर बोरियों का चेकडैम बनाया गया। इससे सैकड़ों किसानों को बेहतर सिंचाई प्राप्त हुई। जल-स्तर भी बढ़ा। गांववासियों व विशेषकर महिलाओं ने खनन माफिया के विरुद्ध कार्यवाही के लिए प्रशासन से संपर्क किया व प्रशासन ने इस बारे में कार्यवाही भी की। आपसी सहयोग से नदी के आसपास हज़ारों पेड़ लगाए गए। नदी में गंदगी या कूड़ा डालने के विरुद्ध अभियान चलाया गया। नदी पर एक घाट भी बनाया गया।

हाल के जल-संरक्षण कार्यों से टीकमगढ़ ज़िले (मध्य प्रदेश) के मोहनगढ़ ब्लॉक की बरगी नदी को नया जीवन मिला है। इन्हें आगे ले जाने में परमार्थ संस्था व उससे जुड़ी जल-सहेलियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ऐसे कुछ जल-संरक्षण कार्य नाबार्ड की एक वाटरशेड परियोजना के अंतर्गत किए गए जिससे यहां नदी-नालों के बेहतर बहाव में भी सहायता मिली। इसके लिए नए निर्माण कार्य भी हुए व पुराने क्षतिग्रस्त कार्यों (जैसे चैक डैम आदि) की मरम्मत भी की गई।

इसी प्रकार से छतरपुर ज़िले (मध्य प्रदेश) में बछेड़ी नदी के पुनर्जीवन के भी कुछ उल्लेखनीय प्रयास हाल के समय में हुए हैं जिनमें स्थानीय प्रशासन, परमार्थ संस्था और पंचायत का सहयोग देखा गया। चेक डैमों की मरम्मत हुई, नए चेक डैम बनाए गए व वृक्षारोपण भी किया गया।(स्रोत फीचर्स)

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आंखों का संक्रमण: दृष्टि की सुरक्षा कैसे करें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दुनिया भर के लगभग साढ़े तेरह करोड़ लोगों की नज़र कमज़ोर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का कहना है कि इसमें से 80 प्रतिशत मामलों को या तो थामा जा सकता है या ठीक किया जा सकता है। इसलिए WHO ने इंटरनेशनल एजेंसी फॉर प्रिवेंशन ऑफ ब्लाइंडनेस (IAPB) के साथ ‘विज़न 2020: दृष्टि का अधिकार’ नामक कार्यक्रम चलाया है।

भारत में 13 लाख लोग जन्मांध हैं और 76 लाख लोग ऐसे दृष्टि दोषों से पीड़ित हैं जिनका आसानी से इलाज किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में दृष्टि केंद्र स्थापित कर, सक्षम नेत्र रोग विशेषज्ञों और साधन-सुविधाओं से लैस नेत्र चिकित्सालय खोलकर इन पीड़ितों को दृष्टि का अधिकार मिल सकता है। और वास्तव में, पूरे देश में दृष्टि केंद्र और नेत्र चिकित्सालय खोले भी जा रहे हैं। इसके अलावा, कुछ विश्व स्तरीय अत्याधुनिक नेत्र संस्थान सक्रिय रूप से विज़न 2020 पर काम कर रहे हैं, और ऐसा लगता है कि यह हासिल हो सकता है – पश्यंतु सर्वेजना: यानी सभी देख सकें।

हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट (LVPEI), जहां मैं काम करता हूं, प्रतिदिन औसतन लगभग 1200 रोगियों को देखता है। इनमें से लगभग 100 रोगियों की आंखें बैक्टीरिया, फफूंद या वायरस से संक्रमित होती हैं। मेरी सहकर्मी डॉ. सावित्री शर्मा ने पूर्व में भारत में इस तरह के संक्रमणों की समीक्षा की थी। डॉ. शर्मा विश्व स्तर पर ऑक्यूलर माइक्रोबायोम (नेत्र सूक्ष्मजीव संसार) की विशेषज्ञ के तौर पर मशहूर हैं।

माइक्रोबायोम क्या है?

जीनोम से आशय होता है किसी कोशिका में उपस्थित डीएनए सूचनाओं का समूचा समुच्चय। मनुष्य की कोशिकाओं में यह 23 जोड़ी गुणसूत्रों के रूप में होता है। बायोम (जैव संसार) किसी स्थान पर मौजूद प्रजातियों का जगत होता है। ऑक्यूलर माइक्रोबायोम (या नेत्र सूक्ष्मजीव संसार) से तात्पर्य आंख में रहने या बसने वाले सूक्ष्मजीवों (बैक्टीरिया, फफूंद और वायरस) से है। एक स्वस्थ नेत्र के सूक्ष्मजीव संसार में सूक्ष्मजीव एक सुरक्षा दीवार की तरह काम करते हैं जो हानिकारक रोगजनकों के हमले से आंखों को महफूज़ रखते हैं।

स्वस्थ नेत्रों से तुलना करें तो फंगल केराटाइटिस जैसे संक्रामक रोगों से संक्रमित नेत्रों के कंजंक्टाइवा और कॉर्निया में नेत्र सूक्ष्मजीव संसार काफी अलग होता है। कंजंक्टाइवा आंख की सुरक्षा करने वाली पतली, पारदर्शी झिल्ली को कहते हैं, और कॉर्निया आंख की सबसे बाहरी पारदर्शी परत होती है जो प्रकाश को फोकस करने और अपवर्तन में मदद करती है।

भारत में स्थिति

वर्ष 2005 में भारत की जनसंख्या 115 करोड़ थी और वर्तमान में यह 140 करोड़ है। जनसंख्या में इतनी वृद्धि के बावजूद, भारत के ग्रामीण इलाकों में स्थापित नेत्र देखभाल केंद्रों, कस्बों और शहरों में अधिक नेत्र रोग विशेषज्ञों और शहरों में नेत्र अनुसंधान संस्थानों ने भारत को विज़न 2020: दृष्टि का अधिकार का समर्थक बनाने में मदद की है। लेकिन, देश भर में अत्यधिक धूलयुक्त वायु प्रदूषण के मौजूदा स्तर ने कई लोगों को ‘आंख आना’ (कंजंक्टिवाइटिस), आंख में खुजली और सूजन, और लेंस प्रभावित होने पर नज़र के धुंधलेपन से पीड़ित कर दिया है, और कई लोग तेज़ रोशनी के प्रति संवेदनशील हो गए हैं।

इससे कैसे निपटा जाए? अमेरिका में क्लीवलैंड क्लीनिक ने इससे निपटने के कई तरीके सुझाए हैं – आंखों को राहत देने के लिए उन पर भीगा, गर्म या ठंडा रुमाल रखें; सुरक्षात्मक चश्मा पहनें; यदि आप कॉन्टैक्ट लेंस लगाते हैं, तो उन्हें साफ रखें; अपने नेत्र चिकित्सक से संपर्क करें और उनसे उचित मलहम या दवा की सलाह लें। (स्रोत फीचर्स)

इस लेख पर सलाह और सहयोग के लिए मैं डॉ. शिवाजी को धन्यवाद देता हूं।

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