हाल ही में ब्रेकथ्रू प्राइज़ फाउंडेशन ने 2023 के ब्रेकथ्रू पुरस्कारों की घोषणा की है। यह पुरस्कार हर वर्ष मूलभूत भौतिकी, गणित और जीव विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया जाता है। प्रत्येक क्षेत्र के विजेताओं को 30 लाख डॉलर की पुरस्कार राशि प्रदान की जाती है।
इस वर्ष जीव विज्ञान में तीन ब्रेकथ्रू पुरस्कार दिए गए हैं। एक पुरस्कार अल्फाफोल्ड-2 के लिए डेमिस हैसाबिस और जॉन जम्पर को दिया गया है। अल्फाफोल्ड-2 एक कृत्रिम बुद्धि (एआई) आधारित सिस्टम है जिसने लंबे समय से चल रही प्रोटीन संरचना की समस्या को हल किया है। प्रोटीन्स सूक्ष्म मशीनें हैं जो कोशिकाओं को उचित ढंग से चलाने का काम करते हैं। प्रोटीन अमीनो अम्लों की शृंखला होते हैं लेकिन उनके कामकाज के लिए उनका सही ढंग से तह होकर एक त्रि-आयामी रचना अख्तियार करना ज़रूरी होता है। प्रोटीन की इस त्रि-आयामी रचना को समझना उनके कामकाज को समझने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। और यह काफी मुश्किल काम रहा है।
डीपमाइंड नामक कंपनी में अपनी टीम के साथ काम करते हुए हैसाबिस और जम्पर ने एक डीप-लर्निंग सिस्टम तैयार किया जो बड़ी ही सटीकता और तेज़ी से मात्र अमीनो अम्लों के क्रम के आधार पर प्रोटीन के त्रि-आयामी मॉडल का निर्माण करने में सक्षम है। इस वर्ष डीपमाइंड द्वारा अब तक 20 करोड़ प्रोटीन संरचनाओं को डैटाबेस में जोड़ा जा चुका है। इसकी मदद से प्रोटीन संरचना का निर्धारण करने में लगने वाला समय – कुछ घंटों से लेकर महीनों और वर्षों तक का – बच सकेगा। भविष्य में दवाइयां तैयार करने से लेकर सिंथेटिक बायोलॉजी, नैनोमटेरियल्स और कोशिकीय प्रक्रियाओं की बुनयादी समझ विकसित करने में इस डैटाबेस से काफी मदद मिलेगी।
जीव विज्ञान में एक पुरस्कार एक नई कोशिकीय प्रक्रिया की खोज को मिला है। कोशिकीय प्रक्रिया के बारे में अभी तक हमारी समझ यह थी कि कोशिका का अधिकांश कार्य झिल्ली से घिरे उपांगों यानी ऑर्गेनेल में सम्पन्न होता है। एंथनी हायमन और क्लिफोर्ड ब्रैंगवाइन ने इस संदर्भ में एक सिद्धांत प्रस्तुत किया है। यह सिद्धांत झिल्ली की अनुपस्थिति में प्रोटीन और अन्य जैव-अणुओं के बीच कोशिकीय अंतर्क्रियाओं के संकेंद्रण पर टिका है। शोधकर्ताओं ने ऐसी तरल बूंदों के निर्माण की बात की है जो प्रावस्थाओं के पृथक्करण से बनती हैं। यह एक तरह से पानी में बनने वाली तेल की बूंदों के समान है। ये बूंदें अस्थायी संरचनाओं के समान होती हैं जो अपने अंदर के पदार्थ को कोशिका के जलीय वातावरण की आणविक उथल-पुथल से अलग-थलग रखती हैं। इस खोज के बाद इन दोनों वैज्ञानिकों व अन्य शोधकर्ताओं ने यह दर्शाया है कि ये झिल्ली रहित तरल संघनित क्षेत्र कई कोशिकीय प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जैसे, संकेतों का आदान-प्रदान, कोशिका विभाजन, कोशिका के नाभिक में केंद्रिका की स्थिर संरचना और डीएनए का नियमन। इस खोज से भविष्य में एएलएस जैसे कई तंत्रिका-विघटन रोगों की चिकित्सा में काफी मदद मिलने की संभावना है।
जीव विज्ञान में तीसरा ब्रेकथ्रू पुरस्कार नारकोलेप्सी नामक तंत्रिका-विघटन रोग पर नए विचार प्रस्तुत करने के लिए इमैनुएल मिग्नॉट और मसाशी यानागिसावा को दिया गया है। नार्कोलेप्सी एक तंत्रिका-विघटन से जुड़ा निद्रा रोग है जिसमें पूरे दिन व्यक्ति उनींदा-सा रहता है और बीच-बीच में अचानक नींद के झोंके आते हैं।
दोनों वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से काम करते हुए बताया है कि नार्कोलेप्सी रोग का मुख्य कारण ऑरेक्सिन (या हाइपोक्रेटिन) नामक प्रोटीन है। यह प्रोटीन आम तौर पर जागृत अवस्था का नियमन करता है। जहां कुछ जीवों में नार्कोलेप्सी उत्परिवर्तन के कारण होता है जो उन तंत्रिका ग्राहियों को प्रभावित करता है जो ऑरेक्सिन से जुड़ते हैं वहीं मनुष्यों में यह स्वयं की प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा ऑरेक्सिन बनाने वाली कोशिकाओं पर हमला करने की वजह से होता है।
इस खोज ने नार्कोलेप्सी के लक्षणों को दूर करने के साथ-साथ नींद की दवाइयों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
गणित का ब्रेकथ्रू पुरस्कार डेनियल ए. स्पीलमन को मिला है जिन्होंने न केवल गणित बल्कि कंप्यूटिंग, सिग्नल प्रोसेसिंग, इंजीनियरिंग और यहां तक कि क्लीनिकल परीक्षणों के डिज़ाइन जैसी अत्यधिक व्यवहारिक समस्याओं पर एल्गोरिदम और समझ विकसित करने में बहुमूल्य योगदान दिया है। स्पीलमन और उनके साथियों ने कैडीसन-सिंगर समस्या का समाधान प्रस्तुत किया। यह समस्या क्वांटम मेकेनिक्स में उत्पन्न हुई थी लेकिन आगे चलकर कई गणितीय क्षेत्रों, जैसे रैखीय बीजगणित, उच्चतर-आयाम ज्यामिति, यथेष्ट मार्ग का निर्धारण और सिग्नल प्रोसेसिंग जैसी प्रमुख अनसुलझी समस्याओं जैसी साबित हुई।
मूलभूत भौतिकी का ब्रेकथ्रू पुरस्कार क्वांटम सूचना के क्षेत्र में काम कर रहे चार अग्रिम-अन्वेषकों को मिला है।
अपने बीबी84 प्रोटोकॉल के आधार पर चार्ल्स एच. बेनेट और गाइल्स ब्रासार्ड ने क्वांटम क्रिप्टोग्राफी की नींव रखी। इसके लिए उन्होंने उन उपयोगकर्ताओं के बीच गुप्त संदेश भेजने का एक व्यावहारिक तरीका तैयार किया जो शुरू में कोई गुप्त जानकारी साझा नहीं करते थे। ई-कॉमर्स में आम तौर पर उपयोग की जाने वाली विधियों के विपरीत इस जानकारी को असीमित कंप्यूटिंग शक्ति वाले भेदिए भी प्राप्त नहीं कर सकते। पूर्व में उन्होंने क्वांटम टेलीपोर्टेशन की खोज के साथ क्वांटम इन्फॉर्मेशन प्रोसेसिंग के नए विज्ञान को भी जन्म दिया।
डेविड डॉच ने क्वांटम कम्प्यूटेशन की नींव रखी। उन्होंने ट्यूरिंग मशीन के क्वांटम संस्करण को परिभाषित किया। यह एक असीम क्वांटम कंप्यूटर है जो क्वांटम मेकेनिक्स के सिद्धांतों का उपयोग करते हुए किसी भी भौतिक प्रणाली की सटीक अनुकृति तैयार कर सकता है। डॉच के अनुसार इस प्रकार का कंप्यूटर कुछ क्वांटम गेट्स के नेटवर्क के समान है। यह एक तरह के लॉजिक गेट्स हैं जो कई क्वांटम स्थितियों को एक साथ समायोजित करने में सक्षम हैं। उन्होंने ऐसा पहला क्वांटम एल्गोरिदम तैयार किया जिसने सभी समकक्ष पारंपरिक एल्गोरिदम्स को पीछे छोड़ दिया।
पीटर शोर ने सबसे पहला उपयोगी कंप्यूटर एल्गोरिदम तैयार किया। उनका एल्गोरिदम किसी भी पारंपरिक एल्गोरिदम से कहीं अधिक तेज़ी से बड़ी संख्याओं के गुणनखंड पता लगाने में सक्षम था। उन्होंने क्वांटम कंप्यूटरों में त्रुटि-सुधार की तकनीकें डिज़ाइन कीं जो पारंपरिक कंप्यूटरों की अपेक्षा बहुत मुश्किल काम है। इन विचारों ने न केवल वर्तमान में तेज़ी से विकसित हो रहे क्वांटम कंप्यूटरों के लिए रास्ता खोला बल्कि उन्होंने मूलभूत भौतिकी के क्षेत्र में भी अग्रणि भूमिका निभाई। (स्रोत फीचर्स)
पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल में मौजूद ओज़ोन गैस सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है। ओज़ोन की इस परत के संरक्षण हेतु सशक्त कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन पृथ्वी की सतह पर विषैली ओज़ोन के बढ़ते स्तर को रोकने को लेकर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है। गौरतलब है कि जहां ऊपरी वायुमंडल में ओज़ोन पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है, वहीं धरती की सतह पर मौजूद ओज़ोन इंसान और पर्यावरण की सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचाती है।
औद्योगिक गतिविधियों की वजह से वायुमंडल की निचली सतह पर ओज़ोन के बढ़ते स्तर के चलते मनुष्य, जीव-जंतु और पेड़-पौधे बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। एक हालिया अध्ययन में चीन और स्पेन के शोधकर्ताओं ने कहा है कि पिछले 20-22 वर्षों से ओज़ोन के संपर्क में आने से पेड़-पौधों में परागण क्रिया बाधित हो रही है। ट्रेंड्स इन इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र में उन्होंने बताया है कि कैसे पृथ्वी की सतह पर ओज़ोन का बढ़ता स्तर पत्तियों को नुकसान पहुंचा सकता है, पुष्पन पैटर्न को बदल सकता है और परागणकर्ताओं के लिए फूल खोजने में बाधा बन सकता है।
वायुमंडल की निचली सतह पर मौजूद ओज़ोन इंसानी गतिविधियों (उद्योगों, विद्युत और रासायनिक संयंत्रों, रिफाइनरियों, वाहनों वगैरह) से उत्पन्न प्रदूषकों पर सूर्य के प्रकाश के असर से निर्मित होती है। जब किसी पौधे की पत्तियों में ओज़ोन प्रवेश करती है, तो वह प्रकाश संश्लेषण को कम करके पौधे के विकास को धीमा कर देती है।
उपरोक्त शोधपत्र के प्रधान लेखक एवगेनियोस अगाथोक्लियस के मुताबिक, ‘परागणकर्ताओं पर कृषि रसायनों के प्रत्यक्ष प्रभावों के बारे में बहुत चर्चा होती है, लेकिन अब यह सामने आया है कि ओज़ोन परागण और परागणकर्ताओं के लिए एक मूक खतरा है।’
निचले वायुमंडल में ओज़ोन का स्तर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। इसकी वजह से पुष्पन का पैटर्न और समय बदल रहा है, जिससे पौधों और परागणकर्ताओं की गतिविधियों के बीच सामंजस्य नहीं बन पा रहा है।
ओज़ोन प्रदूषण की वजह से पौधों की पत्तियां रोगग्रस्त हो जाती हैं, कीटों से होने वाला नुकसान बढ़ जाता है और खराब मौसम से निपटने की उनकी क्षमता घट जाती है। और तो और, ओज़ोन प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को प्रभावित करके पौधे के विकास को धीमा कर देती है। पौधे वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन करते हैं जो परागणकर्ताओं को आकर्षित करते हैं, लेकिन ओज़ोन इन कार्बनिक यौगिकों से क्रिया करने लगती है। जहां इंसानी गतिविधियों की वजह से धरती की सतह पर ओज़ोन का स्तर दिन-ब-दिन बढ़ रहा है, वहीं ऊपरी वायुमंडल में इसकी मात्रा घटती जा रही है जहां इसकी वास्तव में ज़रूरत है। धरती के नज़दीक बढ़ती ओज़ोन समस्या से निपटने के लिए आज सशक्त और प्रभावी कदम उठाए जाने की तत्काल ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nps.gov/subjects/air/images/effects_ecological_ozonedamage_poplar.jpg?maxwidth=650&autorotate=false
आजकल हर कहीं ‘एआई’ का बोलबाला है। आखिर यह एआई क्या बला है? चेक नाटककार कारेल चापेक ने 1920 में एक नाटक लिखा था – आरयूआर, (रोसुमोवी युनिवर्सालनी रोबोती – Rossumovi Univerzální Roboti)। इसका अर्थ है रोसुमोव के सार्वभौमिक रोबोट। नाटक में रोसुमोव एक वैज्ञानिक हैं जिनकी कंपनी इंसान जैसी दिखने वाली रोबोट मशीनें बनाती है। (रोबोट एक चेक शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है बंधुआ मज़दूर और अंग्रेज़ी व अन्य भाषाओं में यह शब्द चापेक के उक्त नाटक से प्रचलित हुआ था।) तब से मशीनों में इंसान जैसी काबिलियत की चर्चाएं गाहे-बगाहे होती रही हैं। पिछली सदी के छठे दशक में ये चर्चाएं कल्पनालोक से निकल कर विज्ञान के दायरे में संजीदा सवाल बन कर सामने आईं, जब पहले आधुनिक कंप्यूटर बनने लगे थे। इनमें अर्द्ध-चालक सिलिकॉन टेक्नॉलॉजी से बने ट्रांज़िस्टरों की मदद से तेज़ी से गणनाएं मुमकिन होने लगी थीं। जैसे-जैसे कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी गणनाओं से इतर तमाम दूसरे क्षेत्रों में प्रभाव डालने लगी और सूचना यानी इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी का कारवां बढ़ता चला, एआई पर शोध भी तेज़ी से बढ़ता रहा। नई-नई मशीनें बनीं, खास तौर पर फिल्मों में इन्हें बढ़ा-चढ़ा कर दिखलाया गया। ‘रोबोट’ लफ्ज़ घरेलू बातचीत का हिस्सा बन गया। हाल में कोरोना लॉक-डाउन के दौरान हमारे मुल्क में भी कुछ खास किस्म की मशीनें, जिन्हें रोबोट सफाई मशीनें कहा जाता है, बड़ी तादाद में बिकीं। कई घरों में ऐसी मशीनें आ गईं, जो देखने में छोटे स्पीकर जैसी हैं, और गीत-संगीत जैसे तरह-तरह के हुक्म बजाती हैं।
दुनिया के स्तर पर बड़ी कामयाबियों में शतरंज खेलने वाली मशीनें शामिल हैं, जिन्होंने शतरंज के उस्ताद खिलाड़ियों (जैसे कास्परोव) को मात दे दी। आगे चलकर अल्फागो नामक कंप्यूटर ने चीनी खेल गो में उस्ताद खिलाड़ी ली सेडोल को परास्त किया। मेडिकल रिसर्च में रोबोट का इस्तेमाल आम हो गया है, और हर दिन किसी नई खोज का पता चलता है। इंसानी काबिलियत से कहीं आगे बढ़कर आंकड़ों से मानीखेज़ जानकारी ढूंढ निकालने का काम कंप्यूटर कई दशकों से कर ही रहे हैं, जिससे नई दवाइयां बनाने में बड़ी तरक्की हुई है। भली बातों के साथ तबाही के हथियारों में भी एआई का इस्तेमाल हो रहा है और नए किस्म के कंप्यूटर से चलने वाले ड्रोन या लेज़र-गन या मिसाइल आदि अब आम असलाह में शामिल हो गए हैं, जिनके ज़रिए कोई मुल्क धरती पर कहीं भी कहर बरपा सकता है और जान-माल को नुकसान पहुंचा सकता है।
जाहिर है, एआई का ताना-बाना पूरी तरह कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी से जुड़ा है। कंप्यूटर तो आजकल हर कहीं है; मसलन मोबाइल फोन से लेकर माली लेन-देन आदि हर सेक्टर तक यह पहुंच चुका है। लिहाज़ा एआई भी हर कहीं है। इस वजह से एआई के बुनियादी सवाल महज़ टेक्नॉलॉजी तक रुके नहीं हैं। एआई का सबसे बुनियादी सवाल दरअसल मशीन को इंसानी बुद्धि कैसे मिले यह नहीं है, बल्कि यह है कि इंसान या दूसरे जानवरों को कैसे एक मशीन की तरह समझा जा सके। साथ ही उन हालात की खोज करना भी एक बड़ा सवाल है, जिसमें न सिर्फ ज़िंदा, बल्कि कभी-कभी बेजान लगती चीज़ें भी कुछ ऐसा कमाल कर जाती हैं, जिससे कुछ ज़िंदा होने का गुमान होता है। ऐसी चीज़ों को एजेंट (यानी अभिकर्ता) कहा जाता है। एजेंट किसे कहें, वे क्या कर सकते हैं, ये सवाल विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के तो हैं ही, साथ ही गहन दार्शनिक सवाल भी हैं। लंबे अरसे तक इंसान की बुद्धि या इंटेलिजेंस और साथ ही चेतना या कॉन्शसनेस के सवाल मूलत: दार्शनिक सवाल रहे हैं। पिछले तीस-चालीस सालों में दिमाग और चेतना पर वैज्ञानिक समझ बढ़ने के साथ अब इन सवालों में विज्ञान का हस्तक्षेप अहम हो गया है।
‘एजेंट’ शब्द से कल्पना में कोई इंसान सा आता है, जैसे सेल्स-एजेंट। पर एआई में एजेंट का मतलब ऐसा कुछ भी हो सकता है, जिससे कोई कार्रवाई शुरू हो जाए। मसलन वह रोबोट जैसी मशीन हो सकती है जो भौतिक स्तर पर अपने इर्द-गिर्द हरकत करती हो, या वह महज़ एक कंप्यूटर-प्रोग्राम हो सकता है, जो कीबोर्ड पर बटन दबाकर लिखा गया हो या जिसे किसी और कंप्यूटर-प्रोग्राम के ज़रिए लिखा गया हो और जिसे सक्रिय कर कोई कार्रवाई शुरू हो सकती है। यानी एजेंट असली या आभासी दोनों हो सकते हैं। जाहिर है कि क्या असल है और क्या आभासी यह तय करना हमेशा आसान नहीं होता है। एक रोबोट भी तो आखिर किसी प्रोग्राम द्वारा ही चल रहा होता है, तो उसकी हरकत को आभासी भी कहा जा सकता है। यहीं पर चेतना के विज्ञान के साथ एआई की टक्कर होती है। दर्शन का एक चिरंतन सवाल है कि हम जो कुछ करते हैं, क्या वह अपनी मर्ज़ी से करते हैं या कोई और हमसे करवाता है। हम जानते हैं कि सही-गलत हर तरह के खयाल हमारे मन में आते हैं, पर क्या करना है और क्या नहीं, यह फैसला हमारे हाथ में होता है। एक रोबोट ऐसा फैसला नहीं कर सकता है। हालांकि ऐसे दावे किए गए हैं कि हाल के रोबोट में इस तरह के फैसले लेने की काबिलियत मुमकिन हो पाई है, पर ऐसे दावे अभी तक गलत ही साबित होते रहे हैं।
इंसानों में भी एजेंटों जैसी फितरत पाई जाती है। लेकिन इसका एक पहलू और भी है। जैसे एक चींटी को अपने आप में समझना मुश्किल होता है, मज़दूर चींटियों और रानी समेत पूरे चींटी समाज को देखने पर ही पता चलता है कि कतार में जा रही चींटियां आखिर क्या कर रही हैं। इसी तरह अकेले में एक इंसान को जानकर हम सामाजिक, जातिगत या राष्ट्रवादी गतिविधियों को नहीं समझ सकते हैं। समूह में एजेंट क्यों खास तरह की हरकतें करते हैं, इनको समझना भी एआई में चल रहे शोध का विषय है।
आम तौर पर लोग एआई का मतलब महज तरह-तरह की रोबोट मशीनों को समझते हैं, जिनका अलग-अलग सेक्टर्स में इस्तेमाल हो रहा है। वैज्ञानिक इसे कमज़ोर या वीक (weak) एआई कहते हैं। कमज़ोर कहने का मतलब है कि इसमें जिन सवालों पर काम होता है, वे महज़ टेक्नॉलॉजी की तरक्की और बेहतरी के सवाल हैं। इसके बरक्स मज़बूत या स्ट्रॉंन्ग (strong) एआई चेतना के विज्ञान से जुड़ता है। यहां इंसान को मशीन की तरह सामने रखते हुए मशीन में इंसानी अकल और समझ कैसे लाई जाए, इस पर काम होता है। अकल और समझ के साथ चेतना, नैतिकता और तमाम जज़्बात भी जुड़ते हैं। जाहिर है, ये बड़े मुश्किल सवाल हैं; इसीलिए इसे मज़बूत एआई कहा जाता है।
ऐसा नहीं है कि कमज़ोर एआई में इंसानी बुद्धि पर काम नहीं होता है, पर वहां बुद्धि और समझ के किसी एक पक्ष को सैद्धांतिक रूप से समझ कर कंप्यूटर प्रोग्राम के द्वारा उसे मशीन में डालने की कोशिश होती है। जैसे बगैर ड्राइवर के चलने वाली गाड़ियों में तरह-तरह के सेंसर लगे होते हैं, जो सड़क पर आ रहे अवरोधों को कंप्यूटर में दर्ज करते हैं, ताकि उनसे बचाव या उन्हें दरकिनार करने के तरीके अपनाए जा सकें। लाल या हरी बत्ती को दर्ज कर सही वक्त पर रुकना या आगे चलना मुमकिन हो सके। बैटरी खत्म हो रही हो तो अपने आप वापस चार्जर तक जाना भी ऐसी मशीनें कर लेती हैं। पर ये इंसानी बुद्धि के एक ही पक्ष यानी आवागमन और उसमें भी महज़ तकनीकी पक्ष पर काम करती मशीनें हैं। एक इंसान गाड़ी चलाते हुए कई विकल्पों पर सोचता रहता है, बीच रास्ते में कहीं जाने या न जाने का फैसला बदल सकता है, देर तक रुकने या चलते रहने का फैसला ले सकता है, और यह सब कुछ पहले से तय नहीं होता है। कोई गाड़ी इंसानी दिमाग की इन जटिलताओं को कैसे पकड़े और कैसे हर पल अमल करे, ये मज़बूत एआई के सवाल हैं।
यह ज़रूरी नहीं है कि एआई के तहत बनाई गई मशीनें हमेशा इंसानी दिमाग और समझ पर ही आधारित हों। आखिर एक कंप्यूटर जिस विशाल मात्रा में आंकड़े समेट सकता है और जितनी तेज़ी से गणनाएं कर सकता है, वह इंसान की काबिलियत से कहीं ज़्यादा है। ऐसा मुमकिन है कि हमारे दिमाग अपने आकार और अंदरूनी खाके की वजह से एक दायरे में बंधे हैं और एआई कभी ऐसी मशीनें बना दे जो समझ में इंसानों से कहीं आगे की हों।
कमज़ोर एआई में इंसान और दीगर जानवरों में मौजूद समझ की बुनियाद और दायरों की खोज की जाती है। इसी का नतीजा वे तमाम मशीनें हैं, जिनमें से कुछ का ज़िक्र ऊपर किया गया है और जिनके ज़रिए हमारी ज़िंदगी भौतिक रूप से बेहतर हुई है।
इसके साथ ही इंसान के दिमाग को मशीनों के साथ जोड़कर सुपर-इंटेलिजेंट इंसान की कल्पना पर भी काम हो रहा है। दिमाग की प्रक्रियाएं तंत्रिका आवेगों या इंपल्स के ज़रिए होती हैं जो कंप्यूटर में इस्तेमाल होने वाले चिप की तुलना में बहुत ही धीमी गति से चलते हैं। पिछले कुछ दशकों से शरीर में इलेक्ट्रॉनिक चिप इम्प्लांट कर कुछ खास तरह की काबिलियत बढ़ाने पर काम हुआ है। आम तौर पर ऐसे इम्प्लांट पहचान लिए गए हैं, पर ऐसे भी इम्प्लांट हुए हैं, जिनसे हमारी दिमागी काबिलियत बढ़ती है; जैसे हाथ या उंगलियां हिलाकर पैसों का लेन-देन करना आदि (जैसे हम गूगल-पे या क्रेडिट कार्ड से करते हैं)।
मशीनों की कामयाबी से दिमाग के काम करने के तरीकों पर भी समझ बढ़ती है। इससे बुद्धि के दीगर विषयों, जैसे फलसफा, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान और मनोविज्ञान या तंत्रिका विज्ञान में भी तरक्की होती है। ये सारे विषय और एआई अक्सर परस्पर गड्डमड्ड होते हैं। खास कर मनोविज्ञान और चेतना के विज्ञान का एआई से गहरा रिश्ता है। साथ ही सामाजिक और सियासी दायरों में भी एआई की घुसपैठ से बड़े बदलाव हो रहे हैं और तरह-तरह के तनाव बढ़ रहे हैं। माल उत्पादन के क्षेत्र में एआई यानी रोबोट मशीनों के इस्तेमाल से अधेड़ कामगारों की नौकरी से छंटनी बढ़ी है और इसका सीधा असर सियासत पर पड़ा है। मसलन बताते हैं कि 2016 में अमेरिका में ट्रंप के प्रेसिडेंट चुने जाने के पीछे भी एआई की वजह से लोगों में बढ़ती असुरक्षा की भावना कुछ हद तक ज़िम्मेदार थी। दूसरी ओर सर्विस सेक्टर (जैसे ऑन-लाइन खरीद-फरोख्त आदि) की बढ़ोतरी में एआई की अहम भूमिका है। अगले लेखों में हम एआई से जुड़े विज्ञान और दर्शन के दीगर मसलों पर चर्चा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://shooliniuniversity.com/blog/wp-content/uploads/2021/08/artificial-intelligence-shoolini-university-best-himachal-pradesh-university.jpg
हम जिस भूगर्भीय युग में जी रहे हैं, उसे एंथ्रोपोसीन कहा जाता है। यह नाम मनुष्य और उनकी गतिविधियों द्वारा डाले गए वैश्विक प्रभाव के कारण दिया गया है। एंथ्रोपोसीन युग में एक उल्लेखनीय बदलाव यह हुआ है कि अन्य प्रजातियों के विलुप्त होने की दर में तेज़ी से वृद्धि हुई है।
अलबत्ता, जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता के प्रति शंकालु लोग कहते रहे हैं कि शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित विलुप्ति की दर में काफी विसंगतियां हैं। ऑनलाइन पत्रिका येल एनवायरनमेंट 360 कहती है कि प्रतिदिन 24 से 150 प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। संख्या 24 हो या 150, आंकड़ा चिंताजनक है। वास्तव में पिछले 400 वर्षों में जानवरों की लगभग 1000 प्रजातियों की विलुप्ति दर्ज की गई है।
पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीवों और पौधों की पूरी सूची हमारे पास नहीं है। हमें अब भी नई प्रजातियां मिल रही हैं और दर्ज हो रही हैं। दी हिंदू के 3 मार्च, 2021 के अंक में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पश्चिमी घाट में मेंढकों की पांच नई प्रजातियां मिलने की खबर थी।
भारत में, कुछ समूहों (भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलुरु, दिल्ली विश्वविद्यालय, केरल वन अनुसंधान संस्थान आदि) ने नई प्रजातियों की खोज में शानदार योगदान दिया है।
नई प्रजातियों की तलाश
नई प्रजातियां खोजना बहुत मेहनत का काम हो सकता है। जैव विविधता हॉटस्पॉट वाले क्षेत्रों में कई नई प्रजातियां मिली हैं, जो सांपों और मच्छरों के लिए अतिउत्तम जगह हैं लेकिन मनुष्यों के लिए बहुत अनुकूल नहीं हैं।
साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय प्राणि विज्ञान सर्वेक्षण (ZSI), कोलकाता के वैज्ञानिकों ने अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के नारकोंडम द्वीप से एक तरह की छंछूदर की एक नई प्रजाति खोजी है। इसे क्रोसिड्युरा नारकोंडेमिका नाम दिया गया है। यह छछूंदर इसके अलावा कहीं और नहीं पाई जाती। नारकोंडम एक छोटा सा द्वीप है और इस पर एक सुप्त ज्वालामुखी है। लगभग पूरे द्वीप पर घना जंगल फैला है।
शेक्सपीयर की एक रचना में छछूंदर ने अयोग्य और बदमिज़ाज जीव का दर्जा हासिल किया था। लेकिन यह जानवर एकांतप्रिय है। ये आकार में छोटे होते हैं; हाल ही में खोजी गई छछूंदर लगभग 10 से.मी. लंबी है और इसका दिल एक मिनट में 1000 बार धड़क सकता है।
ऐसी खोजें किस तरह उपयोगी हो सकती हैं? कुछ छछूंदर प्रजातियां ज़हरीली होती हैं, स्तनधारियों में यह गुण होना बहुत ही असामान्य बात है। कुछ अध्ययन बताते हैं कि इस विष में मौजूद रसायन स्वास्थ्य पेशेवरों की रुचि का विषय हो सकते हैं।
जीवों के तेज़ी से हो रहे विलुप्तिकरण ने यथासंभव अधिकाधिक प्रजातियों के जीनोम का अनुक्रमण करने को गति दी की है। उम्मीद है कि वैज्ञानिक प्रगति की बदौलत ‘जुरासिक पार्क’ जैसा नज़ारा हम देख सकेंगे, जिसमें कम से कम कुछ विलुप्त जीवों को वापस जीवन दिया जा सकेगा। अधिक पेशेवर स्तर पर, जीनोम की तुलना करना मनुष्य के स्वास्थ्य को बेहतर करने के सुराग दे सकता है। पूरी तरह से अनुक्रमित जीनोम की नियमित अपडेटेड विकिपीडिया सूची में 100 पक्षी और 150 स्तनधारी हैं। और भी कई होने चाहिए।
इसलिए, यह जानना सुखद है कि भारतीय प्राणि विज्ञान सर्वेक्षण की प्रयोगशालाओं ने निकोबार द्वीप समूह के एक और दुर्लभ और स्थानिक स्तनधारी जीव – निकोबर वृक्ष छछूंदर – का माइटोकॉन्ड्रियल जीनोम अनुक्रमण हाल ही में साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया है। वृक्ष छछूंदर वास्तव में छछूंदर नहीं हैं; ये काफी हद तक गिलहरी जैसी है। इन्हें एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा और हेपेटाइटिस संक्रमण के अध्ययन के लिए अच्छा मॉडल माना जाता है। उम्मीद करते हैं कि भारतीय प्राणि विज्ञान सर्वेक्षण जल्द ही निकोबार वृक्ष छछूंदर का पूरा जीनोम अनुक्रमित कर लेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/news/national/4m9f2q/article66014644.ece/alternates/FREE_1200/Greater%20White-toothed%20shrew.JPG https://en.wikipedia.org/wiki/Nicobar_treeshrew#/media/File:Nicobar_Treeshrew_(Tupaia_nicobarica_nicobarica).jpg
कुछ सालों पहले तक युरोप के सबसे बड़े लैगून मार मेनोर का पानी साफ हुआ करता था जिसमें सीपियां (फैन मसल्स) अच्छी तरह पनपते थे। लैगून समुद्र से सटी खारे पानी की झील होती है। लेकिन 2016 में, खेतों से बहकर आए उर्वरकों के चलते लैगून को शैवाल ने ढंक लिया। नतीजतन, लैगून की ऑक्सीजन कम हो गई और समुद्री घोड़ों, केकड़ों और अन्य समुद्री जीवों के साथ-साथ 98 प्रतिशत फैन मसल नामक सीपियां खत्म हो गए।
पिछले साल लैगून की दयनीय स्थिति से परेशान होकर स्थानीय निवासियों और कार्यकर्ताओं ने मिलकर एक याचिका दायर की: 135 वर्ग किलोमीटर के लैगून को एक व्यक्ति के अधिकार मिलें। अंतत: स्पेन की संसद ने मार मेनोर लैगून को एक व्यक्ति के अधिकार दे दिए।
यह कानून लैगून और उसके जलग्रहण क्षेत्र को पूरी तरह से मानव का दर्जा तो नहीं देता है लेकिन इसके पारिस्थितिकी तंत्र को अस्तित्व में बने रहने, नैसर्गिक रूप से विकसित होने और अपने रख-रखाव के कानूनी अधिकार देता है। एक व्यक्ति की तरह इसकी देख-रेख के लिए भी इसके कानूनी अभिभावक होंगे।
वैसे, यह लैगून व्यक्ति के अधिकार पाने वाला युरोप का पहला पारिस्थितिकी तंत्र है लेकिन संरक्षण देने का यह तरीका पिछले एक दशक में काफी लोकप्रिय हुआ है। जैसे, भारत में गंगा और बांग्लादेश की हर नदी को एक व्यक्ति का दर्जा मिला हुआ है।
इस तरह के संरक्षण की सबसे सफल मिसाल न्यूज़ीलैंड की वांगानुई नदी है, जिसे 2017 में कानूनी अधिकार दिए गए थे। एक व्यक्ति की तरह नदी और उसका जलग्रहण क्षेत्र मुकदमा दायर कर सकता है या उस पर मुकदमा किया जा सकता है, उसके साथ कोई अनुबंध किया जा सकता है, और वह संपत्ति का मालिक हो सकता है। हालांकि इस नदी को व्यक्ति का दर्जा देने के पीछे उद्देश्य प्रदूषण रोकना नहीं था बल्कि लोगों को माओरी संस्कृति से जोड़ना और पश्चिमी कानून में प्रकृति को शामिल करना था, लेकिन इस कदम से पर्यावरण को फायदा हुआ: जल प्रबंधन के तरीके मनुष्यों की ज़रूरत की बजाय नदियों की सेहत पर केंद्रित होने लगे।
वैसे मार मेनोर की स्वच्छता के लिए पहले से कानून मौजूद हैं जो इसके पानी की गुणवत्ता, इसमें पल रहे जीवन और प्राकृतवासों को संरक्षण देते हैं। इसके तहत, संस्थान या मनुष्य फैन मसल्स को नुकसान नहीं पहुंचा सकते, या लैगून में मिलने वाली नदियों और झीलों को प्रदूषित नहीं कर सकते हैं।
इसके अलावा, स्पेन के पर्यावरण मंत्रालय ने अगले 5 वर्षों में इसे प्रदूषण मुक्त करने के लिए 50 करोड़ युरो आवंटित किए हैं। और, इस गर्मी में लैगून से बड़ी मात्रा में शैवाल हटाए गए हैं। कुछ हद तक उर्वरक लैगून तक पहुंचने से रोकने के लिए सरकारी एजेंसियां गैरकानूनी सिंचाई नहरें नष्ट कर रही हैं। लेकिन फिर भी लैगून की स्थिति में पर्याप्त सुधार नहीं दिखा है। संरक्षण कार्यकर्ताओं को लगता है कि नए कानूनी ढांचे से इन प्रयासों को गति मिलेगी।
इस कानून के तहत कोई भी नागरिक मार मेनोर की रक्षा के लिए मुकदमा कर सकता है। कानूनी अभिभावक, जिसमें सरकार के प्रतिनिधि और नागरिक शामिल हैं, लैगून की ओर से कानूनी और अन्य कार्रवाइयां कर सकते हैं। वैज्ञानिक समिति इसके पारिस्थितिक स्वास्थ्य का आकलन करेगी – जैसे इसकी लवणीयता, ऑक्सीजन वगैरह के स्तर पर निगरानी रखेगी। इसके अलावा उसका काम मार मेनोर के लिए पैदा हो रहे नए जोखिमों की पहचान करना व इसकी बहाली के उपाय सुझाना भी होगा। इसके निगरानी आयोग में पर्यावरण संगठन, मछली पालन और कृषि उद्योग व अन्य हितधारकों के प्रतिनिधि शामिल होंगे।
लेकिन मार मेनोर की सुरक्षा के लिए लाया गया यह कानून विरोध का सबब भी बन सकता है। जैसे हो सकता है किसान उर्वरकों के उपयोग में कटौती करने को राज़ी न हों। दक्षिणपंथी फोक्स पार्टी तो इस पहल को कानूनी बकवास मानती है।
इसके अलावा, नए अधिकारों का तालमेल मौजूदा कानूनी ढांचे से बनाना भी ज़रूरी होगा, जो किसानों के संपत्ति अधिकारों को पहचाने। क्योंकि अगर इसमें अस्पष्टता होगी तो अंतहीन मुकदमेबाज़ी चलती रहेगी। बहरहाल यदि ये प्रयास सफल होते हैं तो बाकी देश इनसे सीख सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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वर्षों से इस बात के प्रमाण मिलते रहे हैं कि बैक्टीरिया का सम्बंध कैंसर से है, और कभी-कभी बैक्टीरिया कैंसर की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। अब, शोधकर्ताओं को कैंसर में एक अन्य प्रकार के सूक्ष्मजीव – फफूंद – की भूमिका दिखी है।
सेल पत्रिका में प्रकाशित दो अध्ययनों के मुताबिक अलग-अलग तरह की कैंसर गठानों में अलग-अलग प्रजाति की एक-कोशिकीय फफूंद पाई जाती हैं, और इन प्रजातियों का अध्ययन कैंसर के निदान या इसके विकास का अनुमान लगाने में मददगार हो सकता है।
बैक्टीरिया की तरह सूक्ष्मजीवी फफूंद भी मनुष्य के शरीर में मौजूद सूक्ष्मजीव संसार का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। कैंसर पीड़ित लोगों में इनकी उपस्थिति कैसे भिन्न होती है इसे समझने के लिए इस्राइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की कैंसर जीवविज्ञानी लियान नारुंस्की हज़िज़ा और उनके साथियों ने 35 तरह के कैंसर के 17,000 से अधिक ऊतक और रक्त के नमूनों में फफूंद आबादी पर गौर किया।
जैसा कि अपेक्षित था, यीस्ट (खमीर) समेत कई प्रकार की फफूंद सभी तरह के कैंसर में मौजूद मिली, लेकिन कुछ प्रजातियों का सम्बंध कैंसर के कुछ अलग परिणामों से देखा गया। जैसे, मेलेसेज़िया ग्लोबोसा फफूंद, जो पूर्व में अग्न्याशय के कैंसर से सम्बद्ध पाई गई थी, स्तन कैंसर में व्यक्ति के जीवित रहने की दर को काफी कम कर देती है। यह भी देखा गया कि अधिकांश प्रकार की फफूंद कतिपय बैक्टीरिया के साथ-साथ पाई जाती हैं; अर्थात ट्यूमर फफूंद और बैक्टीरिया दोनों के विकास को बढ़ावा दे सकते हैं – जबकि सामान्य परिस्थितियों में फफूंद और बैक्टीरिया एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी होते हैं।
दूसरे अध्ययन में, वैल कॉर्नेल मेडिसिन के प्रतिरक्षा विज्ञानी इलियन इलीव और उनके साथियों ने आंत, फेफड़े और स्तन कैंसर के ट्यूमर पर अध्ययन किया और पाया कि उनमें क्रमशः कैंडिडा, ब्लास्टोमाइसेस और मेलेसेज़िया फफूंद उपस्थित थीं। आंत की ट्यूमर कोशिकाओं में कैंडिडा का उच्च स्तर शोथ बढ़ाने वाले जीन की अधिक सक्रियता, कैंसर के अन्य स्थानों पर फैलने (मेटास्टेसिस) की उच्च दर और जीवित रहने की निम्न दर से जुड़ा था।
देखा जाए तो ट्यूमर में फफूंद कोशिकाओं को पहचानना घास के ढेर में सुई खोजने जैसा है। आम तौर पर प्रत्येक 10,000 ट्यूमर कोशिकाओं पर केवल एक फफूंद कोशिका होती है। इसके अलावा, ये फफूंद काफी व्यापक रूप से पाई जाती हैं और इसलिए नमूनों में संदूषण की संभावना रहती है।
इसके अलावा, उक्त अध्ययन केवल यह बताते हैं कि फफूंद की कुछ प्रजातियों और कैंसर के कतिपय प्रकारों बीच कोई सम्बंध है – इससे कार्य-कारण सम्बंध का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। यह समझने के लिए और अध्ययन की ज़रूरत है कि क्या फफूंद शोथ पैदा करके कैंसर की प्रगति में योगदान देती है, या ट्यूमर फफूंद को अनुकूल वातावरण देते हैं और फफूंद हावी हो जाती हैं।
इसके लिए अलग-अलग कैंसर कोशिका कल्चर पर प्रयोग ज़रूरी होंगे। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-022-03074-z/d41586-022-03074-z_23552146.jpg?as=webp
चंद्रमा की सतह छोटे-बड़े हज़ारों गड्ढों (क्रेटर) से अटी पड़ी है, जो क्षुदग्रहों की टक्कर के कारण बने हैं। पृथ्वी पर हुई उल्कापिंड की ज़ोरदार टक्कर तो विख्यात है, जिसके कारण किसी समय पृथ्वी पर राज करने वाले डायनासौर पृथ्वी से खत्म हो गए थे। अब, साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है कि लाखों साल पहले चंद्रमा और पृथ्वी पर उल्कापिंडों की बौछार लगभग एक समय पर हुई थी। यह शोध खगोलविदों को आंतरिक सौर मंडल को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकता है और यह अनुमान लगाने में मदद कर सकता है कि भविष्य में विनाशकारी टक्कर लगभग कब होगी?
ऑस्ट्रेलिया की कर्टिन युनिवर्सिटी के स्पेस साइंस एंड टेक्नॉलॉजी सेंटर के शोधकर्ता चीन के चांग’ई-5 चंद्र मिशन द्वारा पृथ्वी पर लाई गई चंद्रमा की मिट्टी में मिले सूक्ष्म कांच के मनकों का अध्ययन करके इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।
उन्होंने विभिन्न तकनीकों और सांख्यिकीय मॉडलिंग और भूगर्भीय सर्वेक्षणों के आधार पर यह भी अनुमान लगाया कि चंद्रमा पर कांच के ये सूक्ष्म मनके कैसे बने और कब। उन्होंने पाया कि ये मनके उल्का पिंडों की टक्कर के कारण उत्पन्न हुई तीव्र गर्मी और दबाव के कारण बने थे। तो यदि शोधकर्ता यह पता कर लेते हैं कि इन मनकों की उम्र क्या है तो इससे चंद्रमा पर हुई उल्का पिंडों की बौछार का समय भी निर्धारित किया जा सकता है।
जब ऐसा किया गया तो पता चला कि चंद्रमा और पृथ्वी पर क्षुद्रग्रहों के टकराने का समय और आवृत्ति लगभग एक समान है। चंद्रमा पर पाए गए कुछ मनके लगभग 6.6 करोड़ साल पहले बने थे, यानी चंद्रमा की सतह पर टक्कर 6.6 करोड़ वर्ष पहले हुई थी। और लगभग इसी समय डायनासौर को खत्म कर देने वाला उल्कापिंड, चिक्सुलब इंपेक्टर, मेक्सिको के युकाटन प्रायद्वीप के पास पृथ्वी से टकराया था। यह टक्कर इतनी भीषण थी कि इसके कारण पृथ्वी का लगभग तीन-चौथाई जीवन खत्म हो गया था।
करीब 70,000 कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से टकराए 10 कि.मी. चौड़े इस उल्कापिंड ने पृथ्वी में 150 कि.मी. चौड़ा और 19 कि.मी. गहरा गड्ढा बना दिया था। टक्कर से उपजी भूकंपनीयता के अलावा पृथ्वी पर धूल का गुबार छा गया था जिसने सूर्य का प्रकाश रोक दिया था। फलस्वरूप जीवन के विकास ने नया मोड़ लिया था।
टीम अब चांग’ई-5 द्वारा लाई गई मिट्टी के नमूनों की तुलना चंद्रमा से लाई गई मिट्टी के अन्य नमूनों और चंद्रमा की सतह पर बने गड्ढों की उम्र के साथ करना चाहती है ताकि चंद्रमा पर हुई अन्य टक्करों के बारे में समझ सकें, और इसकी मदद से पृथ्वी पर होने वाली क्षुद्रग्रह टक्कर से जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझ सकें। (स्रोत फीचर्स)
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कोविड-19 महामारी के कारण भारत और विश्व भर की अर्थव्यवस्थाओं को काफी मुश्किल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। अब दो वर्ष बीत जाने के बाद परिस्थितियों में काफी सुधार आ चुका है। अर्थव्यवस्थाएं एक बार फिर सामान्य होती नज़र रही हैं।
अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण हेतु एक ऐसी दुनिया के निर्माण के संकल्प लिए गए जो कार्बन-उत्सर्जन को लेकर जागरूक होगी। कई देशों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने और हरित ऊर्जा का उपयोग करने के भी संकल्प लिए। ऐसे में यह देखना लाज़मी है कि इस आर्थिक मंदी के बाद जलवायु परिवर्तन के सम्बंध में किए गए वादों को पूरा करने में सरकारों का प्रदर्शन कैसा रहा है।
आर्थिक प्रोत्साहन का विश्लेषण
आर्थिक प्रोत्साहन का एक सरल उदाहरण बैंकों के संदर्भ में लिया जा सकता है जिसमें बैंकों की चल निधि को बहाल करने के लिए सरकार बेलआउट पैकेज की घोषणा करती है ताकि उन्हें वापस सामान्य स्थिति में लाया जा सके। इस योजना के तहत अर्थव्यवस्था में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न नीतियों के माध्यम से धन का आवंटन किया जाता है। कोविड-19 महामारी के बाद विश्व भर की सरकारों ने आर्थिक प्रोत्साहन के माध्यम से अपनी कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए। इन प्रयासों को समझने के लिए एक लेख काफी महत्वपूर्ण है – ‘जी-20 देशों द्वारा 14 खरब डॉलर का प्रोत्साहन उत्सर्जन सम्बंधी वायदों के खिलाफ है’ (‘G-20’s US $14 trillion economic stimulus – reneges on emissions pledges’)। विश्व की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं (जी-20) ने आर्थिक प्रोत्साहन के लिए 14 खरब डॉलर का आवंटन किया। यह काफी दिलचस्प है कि इस राशि का केवल 6% (लगभग 860 अरब अमेरिकी डॉलर) ऐसे क्षेत्रों के लिए है जो उत्सर्जन में कटौती करने में मददगार हो सकते हैं। जैसे इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री को प्रोत्साहन, ऊर्जा कुशल इमारतों का निर्माण और नवीकरणीय ऊर्जा की स्थापना।
इसके विपरीत, आर्थिक प्रोत्साहन का 3 प्रतिशत कोयला जैसे उद्योगों को सब्सिडी देने के लिए आवंटित किया गया है जो उत्सर्जन में वृद्धि करते हैं। वैसे, ऐसा करना नीति निर्माताओं के दृष्टिकोण से उचित हो सकता है क्योंकि आर्थिक मंदी के बावजूद ऊर्जा की मांग को पूरा करना ज़रूरी है जिसे कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन जैसे स्थापित ऊर्जा उद्योगों से ही पूरा किया जा सकता है। यह कदम पर्यावरण की दृष्टि से विवादास्पद दिखेगा लेकिन नीति निर्माता के दृष्टिकोण से नवीकरणीय उद्योग जैसे नए क्षेत्रों में निवेश करने की बजाय जांचे-परखे उद्योगों में निवेश करना बेहतर है।
देखा जाए तो वर्तमान महामारी के दौरान जो निवेश हरित ऊर्जा के क्षेत्र में हुआ है वह पिछली महामारी की तुलना में आनुपातिक रूप से काफी कम है। उदाहरण के लिए वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान वैश्विक आर्थिक प्रोत्साहन का 16% उत्सर्जन में कटौती के लिए आवंटित किया गया था। यदि कोविड-19 आर्थिक मंदी के मद्देनज़र उत्सर्जन के लिए कटौती हेतु उसी अनुपात में धन आवंटित किया जाता तो यह आंकड़ा 2.2 खरब डॉलर होता। यह वर्तमान में उत्सर्जन को कम करने के लिए आवंटित राशि से दुगनी से भी अधिक है। यह स्थिति तब है जब हालिया ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में विश्व भर के नेताओं ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बड़े-बड़े वादे किए थे।
हाल ही में आयोजित ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में वर्ष 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का संकल्प लिया गया था। इसके लिए 2020-24 के बीच 7 खरब अमेरिकी डॉलर के निवेश की आवश्यकता होगी। लेकिन इस वर्ष की शुरुआत तक विश्व की सभी सरकारों द्वारा इस राशि का केवल नौवां भाग ही खर्च किया गया है।
जिस तरह से वर्तमान आर्थिक प्रोत्साहन पैकेजों का निर्धारण किया गया है उससे सरकारें अर्थव्यवस्था को कुशलतापूर्वक पुनर्जीवित करने में तो विफल रही ही हैं, साथ ही वे अर्थव्यवस्थाओं को कम-कार्बन उत्सर्जन की ओर ले जाने में भी असफल रही हैं। पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में बुनियादी ढांचे, परिवहन और कुशल एवं स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के क्षेत्र में दीर्घकालिक निवेश ज़रूरी है। लेकिन इन क्षेत्रों में निवेश करना शायद नीति निर्माताओं की प्राथमिकता में नहीं है।
पिछले कुछ समय में अक्षय ऊर्जा उद्योग काफी आकर्षक बना है, ऐसे में आर्थिक प्रोत्साहन का उद्देश्य इस क्षेत्र को सब्सिडी और अन्य प्रकार के प्रोत्साहन के माध्यम से आगे बढ़ाने का होना चाहिए। यह रोज़गार के लिहाज़ से भी काफी अच्छा विचार है। लेकिन इसके बावजूद अक्षय ऊर्जा उद्योगों को बहुत कम प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
प्रोत्साहन योजनाओं का अध्ययन
उपरोक्त अध्ययन में मुख्य रूप से जी-20 देशों को शामिल किया गया है। गौरतलब है कि ये अर्थव्यवस्थाएं 80 प्रतिशत वैश्विक उत्सर्जन और लगभग 85 प्रतिशत वैश्विक आर्थिक गतिविधियों के लिए ज़िम्मेदार हैं। इस अध्ययन में विशेष रूप से यह देखने का प्रयास किया गया है कि सरकारों द्वारा निर्धारित की गई नीतियों से उत्सर्जन में वृद्धि हुई है या कमी हुई है या फिर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। इसके अलावा नीतियों को अल्पकालिक या दीर्घकालिक आधार पर भी परखा गया है।
पवन चक्कियों के निर्माण और इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग को उत्सर्जन कम करने वाली नीतियों के रूप में देखा जा सकता है। दूसरी ओर, पेट्रोल पर टैक्स कम करने जैसी नीतियों को उत्सर्जन में वृद्धि के उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। फ्रंटलाइन श्रमिकों के वेतन में वृद्धि, जानवरों के लिए मुफ्त चिकित्सा सुविधा और सेवानिवृत्त सैनिकों को मुफ्त मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने जैसी नीतियां उत्सर्जन पर कोई प्रभाव नहीं डालेंगी।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष
आर्थिक प्रोत्साहन के लिए निर्धारित 14 खरब डॉलर में से 1 खरब डॉलर से भी कम राशि रिकवरी कार्यक्रमों के लिए आवंटित की गई है। इसमें से भी केवल 27 प्रतिशत राशि का आवंटन ऐसे क्षेत्रों के लिए किया गया है जो प्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जन में कमी ला सकते हैं।
आवंटित राशि का 72 प्रतिशत हिस्सा उत्सर्जन पर अप्रत्यक्ष प्रभाव डालता है क्योंकि उत्सर्जन को कम करने में उनकी प्रभाविता काफी हद तक उपभोक्ता की मांग और उनके व्यवहार जैसे अस्थिर और परिवर्तनशील कारकों पर निर्भर करती है।
एक प्रतिशत से थोड़ी अधिक राशि (10.6 अरब डॉलर) अनुसंधान एवं विकास लिए आवंटित की गई है जिससे उत्सर्जन पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं।
रिकवरी फंडिंग का एक बड़ा हिस्सा (91% तक) ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए उपयोग नहीं किया जा रहा है। जैसा कि महामारी के दौरान अपेक्षित था, रिकवरी फंडिंग का अधिकांश हिस्सा कमज़ोर स्वास्थ्य प्रणाली को वित्तपोषित करने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए आवंटित किया गया है।
कुल मिलाकर महामारी के बाद जिस तरह से विकास और पुनर्निर्माण कार्य हुआ है उसमें शायद ही कोई बदलाव आया है। यह तो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है महामारी के बाद सिर्फ पुनर्निर्माण और रिकवरी कार्य को प्राथमिकता दी गई है जबकि यह देखा जाना चाहिए था कि ये कार्य पर्यावरण के लिए हानिकारक न हों और लंबे समय तक टिकाऊ रहें।
टिकाऊ पुनर्निर्माण प्रयासों में कुछ देशों ने अन्य की तुलना में काफी बेहतर प्रयास किए हैं। उदाहरण के तौर पर उत्सर्जन नियंत्रण के मामले में युरोपीय संघ और दक्षिण कोरिया ने अन्य देशों की तुलना में काफी बेहतर प्रदर्शन किया है। जहां सभी जी-20 देशों द्वारा उत्सर्जन कम करने पर आवंटित राशि केवल 6 प्रतिशत है वहीं इन देशों ने अपने कोविड-19 वित्तीय प्रोत्साहन की 30 प्रतिशत से अधिक राशि उत्सर्जन को कम करने के उपायों के लिए आवंटित की है। इसी तरह ब्राज़ील, जर्मनी और इटली ने आर्थिक प्रोत्साहन की 20-20 प्रतिशत तथा मेक्सिको और फ्रांस ने 10-10 प्रतिशत राशि का आवंटन उत्सर्जन को कम करने के लिए किया है। फ्रांस ने साइकिल पार्किंग और मरम्मत पर सब्सिडी के तौर पर 6.6 करोड़ डॉलर का खर्च किया है। इसी तरह जर्मनी ने पवन और सौर-ऊर्जा परियोजनाओं, ऊर्जा-कुशल भवनों, बिजली एवं हाइड्रोजन चालित वाहनों और अधिक कुशल बसों एवं हवाई जहाज़ों के निर्माण को बढ़ावा दिया है।
कई देश काफी पिछड़े हुए भी हैं। दूर जाने की ज़रूरत नहीं, अपने आसपास के देशों को देख सकते हैं। भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका द्वारा किए गए नीतिगत परिवर्तनों से उत्सर्जन में वृद्धि होने की संभावना है। उदाहरण के लिए, इन देशों ने जनता पर आर्थिक बोझ कम करने के लिए बिजली की कीमतों में 5 प्रतिशत तक की कटौती की है। चीन ने कीमतों को स्थिर रखने के लिए कोयला खनिकों से उत्पादन में वृद्धि करने की मांग की है। भारत ने कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों में वायु प्रदूषण उपायों को लागू करने की निर्धारित समय सीमा को और आगे बढ़ा दिया है। दक्षिण अफ्रीका ने बिजली संयंत्रों से 11.4 अरब डॉलर की बिजली खरीद की है जिसके उत्पादन के लिए कोयले का उपयोग किया गया है जबकि पवन ऊर्जा से उत्पादित बिजली खरीद को कम किया है। भारत ने तो निजी निवेश को आकर्षित करने और कोयले की कीमतों को कम करने के लिए कोयला खनन के बुनियादी ढांचे का आधुनिकीकरण करने का निर्णय लिया है। इसके लिए कोयला उद्योग को बढ़ावा देने के लिए 14 अरब डॉलर खर्च किए गए हैं।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि यू.एस., जापान, कनाडा और यूके ने उत्सर्जन को कम करने के लिए रिकवरी फंड का 10% से भी कम इस्तेमाल करने की प्रतिबद्धता जताई है। यह कंजूसी ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में इन देशों द्वारा किए गए वादों के सर्वथा विपरीत है।
वैसे, इस बीच कुछ अच्छे निर्णय भी लिए गए हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन के पहले नेट-ज़ीरो लक्ष्य की घोषणा की है और 2016 के बाद से पूरे विश्व के बाकी हिस्सों की तुलना में अधिक समुद्री पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने हालिया इन्फ्रास्ट्रक्चर बिल में 2021 के पेरिस समझौते का अनुपालन करते हुए सार्वजनिक परिवहन, वाहनों के विद्युतीकरण और ग्रिड के आधुनिकीकरण में निवेश को शामिल किया है। अलबत्ता, इन घोषणाओं से इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि अमेरिका और चीन ने अपने रिकवरी पैकेजों में जीवाश्म-ईंधन आधारित उद्योगों में एक बड़ी रकम निवेश करने की प्रतिबद्धता जताई है।
अध्ययन की सीमाएं
इस अध्ययन में नीति निर्माताओं द्वारा लिए गए उन निर्णयों पर प्रकाश डाला गया जो उत्सर्जन को कम करने के लिए उपयोगी या हानिकारक हैं। अलबत्ता, हर विश्लेषणात्मक रिपोर्ट की तरह इस रिपोर्ट की भी कुछ सीमाएं हैं:
इस अध्ययन में केवल कोविड-19 महामारी के संदर्भ में लिए गए निर्णयों को शामिल किया गया है। अर्थात कोविड-19 राहत प्रोत्साहन के दायरे के बाहर की नीतियों को इस अध्ययन में शामिल नहीं किया गया है। ऐसे में दोषपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त होने की पूरी संभावना है।
इस रिपोर्ट में महामारी के दौरान जलवायु सम्बंधी सभी खर्चों को शामिल नहीं किया गया है और केवल राजकोशीय खर्च पर ध्यान दिया गया है।
मौद्रिक नीति में परिवर्तन तथा ऋण के माध्यम से मांग और आपूर्ति को नियंत्रित किया जा सकता है। रिपोर्ट में अध्ययन की अवधि के दौरान इन परिवर्तनों और इसके कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा गया है। वस्तुओं और सेवाओं की मांग एवं आपूर्ति का उत्सर्जन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है और इस नाते मौद्रिक नीति उत्सर्जन नियंत्रण का काम कर सकती है।
यह अध्ययन मुख्य रूप से घोषणाओं पर केंद्रित है। यह जानी-मानी बात है कि सरकारी घोषणाओं और वास्तविक निवेश में बहुत अंतर होता है।
कम कार्बन ऊर्जा में निवेश
हाल ही में शोध फर्म ‘ब्लूमबर्ग एनईएफ’ द्वारा प्रकाशित एक नई रिपोर्ट, ‘एनर्जी ट्रांज़ीशन इन्वेस्टमेंट ट्रेंड्स 2022’ के अनुसार निम्न कार्बन आधारित ऊर्जा की ओर परिवर्तन में वैश्विक निवेश 755 अरब अमेरिकी डॉलर की नई रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के क्षेत्र को छोड़कर लगभग सभी क्षेत्रों में निवेश बढ़ा है। रिपोर्ट के अनुसार पवन, सौर तथा अन्य नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में 366 अरब डॉलर का सबसे बड़ा निवेश हुआ है जो पिछले वर्ष की तुलना में पूरा 6 प्रतिशत अधिक है।
273 अरब डॉलर के साथ दूसरे स्थान पर सबसे अधिक निवेश विद्युतीकृत परिवहन क्षेत्र में हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में विद्युत वाहनों की बिक्री हुई है। इस रिपोर्ट में यह ध्यान देने योग्य है कि अक्षय ऊर्जा सबसे बड़ा उद्योग क्षेत्र है लेकिन इलेक्ट्रिक वाहन सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला उद्योग है। इतने वाहनों की बिक्री से इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग में 77 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि अक्षय ऊर्जा उद्योग में 6 प्रतिशत। यदि वर्तमान रुझान जारी रहता है तो 2022 तक विद्युत वाहन उद्योग अक्षय ऊर्जा उद्योग से भी आगे निकल जाएगा। यह काफी दिलचस्प है कि 755 अरब डॉलर में से 731 अरब डॉलर केवल इन दो क्षेत्रों से आता है जो स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में असमानता को दर्शाता है।
ब्लूमबर्ग एनईएफ के प्रमुख विश्लेषक अल्बर्ट चेंग का विचार है कि “वस्तुओं की विश्व व्यापी कमी ने स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र के लिए नई चुनौतियों को जन्म दिया है। इसके नतीजे में सौर मॉड्यूल, पवन टर्बाइन और बैटरी पैक जैसी प्रमुख तकनीकों की इनपुट लागत में काफी वृद्धि हुई है। इसके मद्देनज़र, 2021 में ऊर्जा संक्रमण के क्षेत्र में निवेश में 27 प्रतिशत की वृद्धि एक अच्छा संकेत है जो निवेशकों, सरकारों और व्यवसायों की कम-कार्बन उत्सर्जन की ओर प्रतिबद्धता को दर्शाता है।”
एक बार फिर ऊर्जा संक्रमण निवेश में चीन अकेला सबसे बड़ा देश है। इसके लिए चीन ने 2021 में 266 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता दिखाई है। चीन से काफी पीछे दूसरे नंबर पर अमेरिका ने 114 अरब डॉलर और युरोपीय संघ ने 154 अरब डॉलर का संकल्प लिया है।
नेट-ज़ीरो उत्सर्जन
ब्लूमबर्ग एनईएफ की 2021 की रिपोर्ट ‘न्यू एनर्जी आउटलुक’ ने 2050 तक वैश्विक नेट-ज़ीरो तक पहुंचने के लिए ‘ग्रीन’, ‘रेड’ और ‘ग्रे’ लेबल के आधार पर तीन वैकल्पिक परिदृश्य सामने रखे हैं। ये तीनों परिदृश्य औसत वैश्विक तापमान में 1.75 डिग्री वृद्धि के हिसाब से हैं। न्यू एनर्जी आउटलुक का उद्देश्य वर्तमान आंकड़ों का अध्ययन करना और 2050 तक नेट-ज़ीरो लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी धन का अनुमान लगाना है।
ब्लूमबर्ग एनईएफ की रिपोर्ट के अनुसार उपरोक्त तीन स्तरों में से किसी एक के भी करीब पहुंचने के लिए वैश्विक निवेश को तीन गुना करने की आवश्यकता है ताकि 2022 और 2025 के बीच उनका औसत 2.1 खरब डॉलर प्रति वर्ष और फिर 2026 से 2030 के बीच दुगना होकर 4.2 खरब डॉलर प्रति वर्ष हो जाए। वर्तमान विकास दर के लिहाज़ से इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग एकमात्र ऐसा उद्योग है जिसके इस स्तर तक पहुंचने की उम्मीद है।
इस मामले में ब्लूमबर्ग एनईएफ में अर्थशास्त्र के प्रमुख मैथियास किमेल कहते हैं: “पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पूरे विश्व का कार्बन बजट तेज़ी से चुक रहा है। ऊर्जा संक्रमण का कार्य काफी अच्छी तरह से चल रहा है और पहले की तुलना में यह काफी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। लेकिन यदि हमें 2050 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना है तो सरकारों को अगले कुछ वर्षों में अधिक वित्त जुटाने की आवश्यकता होगी।”
ब्लूमबर्ग रिपोर्ट के अनुसार 2021 में कुल कॉर्पोरेट वित्त 165 अरब डॉलर था जिसे ‘एनर्जी ट्रांज़ीशन इन्वेस्टमेंट ट्रेंड्स 2022’ रिपोर्ट में 755 अरब डॉलर के शुरुआती आंकड़े में शामिल नहीं किया गया था। माना जा रहा है कि आने वाले वर्षों में इस पूंजी का उपयोग कंपनी के कामकाज को बढ़ाने और तकनीकों के विकास हेतु किया जाएगा।
गौरतलब है कि आज कंपनियों के पास इतनी पूंजी है जितनी मानव इतिहास में पहली कभी भी नहीं थी। यह सही है कि वे आज समस्याओं के समाधानों में ज़्यादा योगदान नहीं दे रही हैं लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि वे नवाचारों के विस्तार में निरंतर योगदान दे रही हैं जो भविष्य की समस्याओं से निपटने के लिए अनिवार्य साबित होंगे।
निष्कर्ष
अब तक की चर्चा पढ़ने के बाद हमारे मन में एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जब सरकारों को आर्थिक मंदी के परिणामस्वरूप निर्वहनीय तरीके से पुनर्निर्माण के अवसर मिल रहे हैं तो वे टिकाऊ विकास की ओर क्यों नहीं बढ़ रही हैं।
इसके दो बड़े कारण हो सकते हैं – सरकारें पर्यावरणीय विकास और जलवायु नीति की बजाय आर्थिक विकास को प्राथमिकता दे रही हैं। यह एक आम गलतफहमी है कि आर्थिक विकास और पर्यावरणीय विकास एक दूसरे के विरोधी हैं। जबकि सच तो यह है आर्थिक विकास और उत्सर्जन में कमी एक दूसरे के इतने भी विरोधी नहीं हैं जितना पहली नज़र में प्रतीत होते हैं।
इसका दूसरा कारण सरकारों के कार्यकाल से सम्बंधित है। आम तौर पर सरकारें यह सुनिश्चित करना चाहती हैं कि जो काम वे कर रही हैं उसका परिणाम उनके अपने कार्यकाल के भीतर ही मिल जाए ताकि जनता उन्हें फिर से चुन सके। यह अल्पकालिक सोच पैदा करता है। अब तक खर्च करने के जो भी निर्णय लिए गए हैं वे अल्पकालिक स्वास्थ्य संकट को दूर करने और आर्थिक संकट से बाहर निकलने के लिए हैं। जबकि इस समय यह आवश्यक था कि स्वास्थ्य सेवा में ऐसा निवेश हो जिसके परिणाम आने वाले दशकों में देखने को मिलें। शायद इसी कारण हमने सतत विकास के क्षेत्र में बहुत कम काम किया है क्योंकि टिकाऊपन के आधार पर पुनर्निर्माण के परिणाम पांच वर्षों में तो नहीं मिलेंगे।
तो क्या कुछ नहीं किया जा सकता? देखा जाए तो ऐसे कई उपाय हैं जिनको अपनाकर सरकारें जलवायु को बिना नुकसान पहुंचाए विकास कार्य कर सकती हैं। सरकारें चाहें तो पर्यावरण संरक्षण से सम्बंधित शर्तों के आधार पर प्रोत्साहन कानून बना सकती हैं। फ्रांस इस तरह के सशर्त प्रोत्साहन का एक अच्छा उदाहरण है जिसने अपने विमानन उद्योग को वापस पटरी पर लाने के लिए सशर्त आर्थिक प्रोत्साहन दिया। इस प्रोत्साहन के तहत उड़ानों को उन मार्गों पर सेवाएं न देने की शर्त रखी गई जहां रेल मार्ग से प्रतिस्पर्धा की संभावना है। इसके अलावा सरकारें ऐसे नीतिगत उपायों पर संसाधनों का आवंटन भी कर सकती है जो प्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। इसका एक तरीका अक्षय ऊर्जा पर खर्च करना हो सकता है। सभी सरकारों को अपनी रणनीति इस प्रकार तैयार करनी चाहिए कि कम-कार्बन उत्सर्जन करने वाले निवेश को संभव बनाया जा सके और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम किया जा सके।
देखा जाए तो यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि आर्थिक विकास और टिकाऊ विकास साथ-साथ चल सकते हैं। हालांकि, हम जिन रिपोर्टों का उल्लेख कर रहे हैं वे स्पष्ट रूप से यह बताती हैं कि सरकारें टिकाऊ विकास पर पर्याप्त खर्च नहीं कर रही हैं और कई मामलों में वे इसके विपरीत काम कर रही हैं। कुछ देश अन्य की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। वास्तव में जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है जो न केवल उत्सर्जन में वृद्धि करने वाले देशों को प्रभावित करती है बल्कि उन देशों को भी प्रभावित करती है जो उत्सर्जन को कम करने के निरंतर प्रयास कर रहे हैं। पेरिस समझौता और जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों में वित्तपोषण सही दिशा में कदम है, लेकिन यह देखना बाकी है कि 2050 नेट-ज़ीरो का लक्ष्य प्राप्त करने में सरकारें कहीं कंजूसी तो नहीं कर रही हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.piie.com/microsites/rebuilding-global-economy
1970 के दशक के अंत में पुरातत्वविदों ने उत्तरी इस्राइल में 12000 वर्ष पुराना एक प्राचीन गांव खोज निकाला था। इस गांव के लोग अपने प्रियजनों को घर के नीचे दफनाया करते थे। इस खोजबीन में उन्होंने एक कब्र का खुलासा किया था जिसमें दफन की गई महिला का हाथ एक कुत्ते के सीने पर रखा हुआ था। यह खोज मनुष्यों और कुत्तों के बीच एक शक्तिशाली भावनात्मक सम्बंध का संकेत देती है।
अलबत्ता, शोधकर्ताओं के बीच इस सम्बंध की शुरुआत को लेकर काफी मतभेद है। एक बड़ा सवाल है कि क्या यह सम्बंध कई हज़ारों वर्षों के दौरान उत्पन्न हुआ जिसमें कुत्ते दब्बू और मानव व्यवहार के प्रति अधिक संवेदनशील होते गए या इस जुड़ाव की शुरुआत कुत्तों के पूर्वजों यानी मटमैले भेड़ियों के साथ ही हो चुकी थी?
एक हालिया अध्ययन से लगता है कि वयस्क भेड़िए भी कुत्तों के समान मनुष्यों से जुड़ाव बनाने में सक्षम हैं। और तो और, कुछ परिस्थितियों में तो वे मनुष्यों को सुकून और सुरक्षा के स्रोत के रूप में भी देखते हैं।
इस नए अध्ययन में स्ट्रेंज सिचुएशन टेस्ट (अनजान परिस्थिति परीक्षण) नामक प्रयोग का इस्तेमाल किया गया है। मूलत: इसे मानव शिशुओं और उनकी माताओं के बीच लगाव का अध्ययन करने के लिए तैयार किया गया था। इसमें इस बात का मापन किया जाता है कि किसी अजनबी व्यक्ति या माहौल से सामना होने पर जो तनाव पैदा होता है, वह देखभाल करने वाले से पुन: मुलाकात होने पर किस तरह बदलता है। ऐसी स्थिति में अधिक अंतर्क्रिया मज़बूत बंधन को दर्शाती है।
भेड़ियों पर ऐसा प्रयोग करना एक मुश्किल कार्य था, इसलिए शोधकताओं ने शुरुआत शिशु भेड़ियों से की। स्टॉकहोम युनिवर्सिटी की पारिस्थितिकीविद क्रिस्टीना हैनसन व्हीट और उनके सहयोगियों ने 10 दिन पहले पैदा हुए 10 मटमैले भेड़ियों पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने कई दिनों तक बारी-बारी से 24 घंटे इन शावकों के साथ बिताए और समय-समय पर उनको बोतल से दूध भी पिलाया।
जब ये भेड़िए 23 सप्ताह के हुए तब देखभालकर्ता एक-एक करके उन्हें एक खाली कमरे में ले गया। इसके बाद वह कई बार इस कमरे के भीतर आना-जाना करता रहा। इस प्रक्रिया के दौरान भेड़िए को कभी-कभी तो कमरे में बिलकुल अकेला छोड़ दिया जाता और कभी एक नितांत अजनबी के साथ छोड़ दिया जाता। शोधकर्ताओं ने यही प्रयोग 23 सप्ताह उम्र के 12 अलास्कन हस्की नस्ल के कुत्तों के साथ भी किया, जिन्हें उसी तरह पाला गया था।
इस अध्ययन में वैज्ञानिकों को भेड़ियों और कुत्तों में बहुत ही कम अंतर दिखा। जब देखभालकर्ता ने कमरे में प्रवेश किया तो दोनों ने ‘अभिवादन व्यवहार’ के पांच-बिंदु पैमाने पर 4.6 स्कोर किया जो किसी मनुष्य के पास रहने की इच्छा को ज़ाहिर करता है। हालांकि, किसी अजनबी के प्रवेश करने पर कुत्तों में यह व्यवहार गिरकर 4.2 हो गया और भेड़ियों में 3.5 पर आ गया। इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकशित रिपोर्ट के अनुसार इससे पता चलता है कि भेड़िए और कुत्ते दोनों अनजान व्यक्ति और परिचित व्यक्ति के बीच अंतर करते हैं। अंतर करने की इस क्षमता को टीम लगाव का संकेत मानती है। प्रयोग के दौरान कुत्ते और भेड़िए, दोनों ही अजनबी की तुलना में देखभालकर्ता से शारीरिक संपर्क करने में भी एक जैसे ही दिखे।
इसके अलावा, परीक्षण के दौरान कुत्तों ने ज़्यादा चहलकदमी नहीं की। जबकि भेड़ियों में थोड़े समय चहलकदमी देखी गई। चहलकदमी करना तनाव का द्योतक होता है। विशेषज्ञों के अनुसार मनुष्यों द्वारा पाले गए भेड़ियों में भी मनुष्य की उपस्थिति में बचैनी सामान्य है। यह भी देखा गया कि कमरे से अजनबी व्यक्ति के बाहर निकलने और देखभालकर्ता के अंदर आने पर भेड़ियों की चहलकदमी थम गई। ऐसा व्यवहार भेड़ियों में पहले कभी नहीं देखा गया था। व्हीट के अनुसार यह व्यवहार इस बात का संकेत है कि भेड़िए देखभालकर्ता मनुष्यों को सुकून और सुरक्षा के स्रोत के रूप में देखते हैं। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यदि इस व्यवहार को सच मानें तो इस तरह का लगाव कुत्तों और भेड़ियों में एक समान ही है। अर्थात यह व्यवहार उनमें मनुष्यों द्वारा पैदा नहीं किया गया है बल्कि यह मानव चयन का एक उदाहरण है।
विशेषज्ञों का मत है कि चहलकदमी में परिवर्तन के प्रयोग को अन्य जंगली जीवों पर भी आज़माया जा सकता है जिससे यह साबित हो सके कि कोई जीव अपनी देखभाल करने वाले को मात्र भोजन प्रदान करने वाले के रूप में देखता है या फिर उसे एक सुकून और सुरक्षा के स्रोत के रूप में देखता है।
वैसे इस अध्ययन को लेकर शोधकर्ताओं में काफी मतभेद है। वर्ष 2005 में स्ट्रेंज सिचुएशन टेस्ट को कुत्तों और भेड़ियों के लिए विकसित करने वाली एट्वोस लोरांड युनिवर्सिटी की मार्था गैकसी इस अध्ययन से संतुष्ट नहीं हैं। उन्होंने इसी तरह के एक अध्ययन में कुत्तों और भेड़ियों के बीच काफी अंतर पाया था – भेड़िए अजनबी और देखभालकर्ता के बीच अंतर नहीं कर पाए थे। निष्कर्ष था कि भेड़ियों में विशिष्ट मनुष्यों से लगाव बनाने की क्षमता नहीं होती।
गैकसी इस नए अध्ययन में कई पद्धतिगत समस्याओं की ओर भी इशारा करती हैं। जैसे, कमरा जानवरों के लिए जाना-पहचाना था, कुत्तों की एक ही नस्ल ली गई थी और भेड़ियों ने इतनी चहलकदमी भी नहीं की थी कि उनके व्यवहार का निर्णय किया जा सके, वगैरह।
व्हीट का कहना है कि वे भी कुत्तों और भेड़ियों को एक समान नहीं मानती हैं लेकिन भेड़ियों में लगाव सम्बंधी व्यवहार के कुछ संकेतों के आधार कहा जा सकता है कि उनमें मनुष्यों से जुड़ाव बनाने का लक्षण पहले से मौजूद था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Alaskan_Husky.jpg https://en.wikipedia.org/wiki/Eurasian_wolf#/media/File:Eurasian_wolf_2.jpg
अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (ईपीए) के मुताबिक सन 1800 के आसपास शुरू हुई औद्योगिक क्रांति के बाद से मानव गतिविधियों ने अत्यधिक मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों (जैसे मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड) और सल्फर, फॉस्फोरस के यौगिकों व ओज़ोन का उत्सर्जन किया है। इसके कारण पृथ्वी की जलवायु बदल रही है।
खतरनाक वृद्धि
औद्योगिक क्रांति के बाद से वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में 40 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है – 18वीं शताब्दी में 280 पीपीएम से बढ़कर 2020 में 414 पीपीएम। और इन 200 वर्षों में अन्य ग्रीनहाउस गैसों का स्तर भी बढ़ा है।
1800 में भारत की आबादी 17 करोड़ थी, जो आज बढ़कर 140 करोड़ हो गई है। भारत में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत आज़ादी के बाद ही यानी 75 साल पहले हुई थी। जहां इसने गरीबी कम करने में मदद की, वहीं वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि भी की है।
खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की वेबसाइट बताती है कि भारत की ग्रामीण आबादी कुल आबादी का 70 प्रतिशत है, और उनका मुख्य काम कृषि है। इनसे हमें कुल 27.5 करोड़ टन खाद्यान्न मिलता है। भारत चावल, गेहूं, गन्ना, कपास और मूंगफली का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। इस लिहाज़ से यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत यथासंभव अपने कृषि क्षेत्र के कार्बन पदचिन्ह को कम करने की कोशिश करे।
कृषि विशेषज्ञों की मदद से किसान खेती में कुछ सराहनीय उपाय लाए हैं। जैसे उन्होंने खेतों में सौर पैनल लगाए हैं ताकि भूजल पंपों में डीज़ल का उपयोग कम से कम हो।
बेंगलुरु के एक स्वतंत्र पत्रकार सिबी अरासु कार्बन मैनेजमेंट पत्रिका में लिखते हैं, “जलवायु-अनुकूल कृषि आय के नए स्रोत प्रदान करती है और अधिक टिकाऊ है।” इससे भारत का सालाना कार्बन उत्सर्जन 4.5-6.2 करोड़ टन तक कम हो सकता है। सरकार और पेशेवर समूहों ने ग्रामीण किसानों की सौर पैनल लगाने में मदद की है ताकि पैसों की बचत हो और अधिक आमदनी मिल सके।
भारत के किसान न केवल चावल और गेहूं उगाते हैं बल्कि अन्य खाद्यान्न भी उगाते हैं। वर्ष 2020-21 के दौरान उन्होंने लगभग 12.15 करोड़ टन चावल और 10.90 करोड़ टन गेहूं उगाया था। वे अन्य खाद्यान्न जैसे मोटा अनाज, कसावा, और भी बहुत कुछ उगाते हैं। वे सालाना लगभग 1.2 करोड़ टन मोटा अनाज पैदा करते हैं। इसी तरह, प्रति वर्ष लगभग 2.86 करोड़ टन मक्का का उत्पादन होता है। प्रसंगवश यह भी देखा जा सकता है कि चावल की तुलना में बाजरा में अधिक प्रोटीन, वसा और फाइबर होता है। बाजरा में प्रोटीन 7.3 ग्राम प्रति 100 ग्राम, वसा 1.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम और फाइबर 4.22 ग्राम प्रति 100 ग्राम होता है, जबकि चावल में प्रोटीन 2.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम, वसा 0.3 ग्राम प्रति 100 ग्राम और फाइबर 0.4 ग्राम प्रति 100 ग्राम होता है।
इस लिहाज़ से, हमारे आहार में चावल और गेहूं के इतर अधिक बाजरा शामिल करना हमारे लिए स्वास्थ्यकर होगा। और, चावल खाने से बेहतर है गेहूं खाना, क्योंकि गेहूं में अधिक प्रोटीन (13.2 ग्राम प्रति 100 ग्राम), वसा (2.5 ग्राम प्रति 100 ग्राम), और फाइबर (10.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम) होता है।
एक साझा लक्ष्य
भारत में लगभग 20-39 प्रतिशत आबादी शाकाहारी है और लगभग 70 प्रतिशत आबादी मांस खाती है – मुख्यत: चिकन, मटन और मछली। भारत में कई नदियों और विशाल तट रेखा के चलते प्रचुर मछली संसाधन हैं। जूड कोलमैन द्वारा नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मछलियों में पोषक तत्व अधिक होते हैं और ये कार्बन पदचिन्ह को कम करने में मदद करते हैं। इस तरह से, किसान, मांस विक्रेता और मछुआरे सभी मिलकर हमारे कार्बन पदचिन्ह को कम करने में योगदान देंगे। हो सकता है हम दुनिया के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण बन जाएं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.dhyeyaias.com/sites/default/files/How%20Can%20India%20Reduce%20Its%20Impact%20On%20Global%20Warming.jpg