कौन कर रहा है अमेज़न को तबाह?

कुमार सिद्धार्थ

दुनिया के सबसे विशाल वर्षावन अमेज़न (Amazon rainforest)  पर खतरा अब कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि एक आसन्न सच्चाई है। वनों की अंधाधुंध कटाई (deforestation), तेल और गैस के खनन तथा जलवायु परिवर्तन ने इसे उस बिंदु तक पहुंचा रहे हैं, जहां से लौटना शायद संभव नहीं रहेगा। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि अमेज़न अब ‘कार्बन सोखने वाले’ वन से ‘कार्बन छोड़ने वाले’ क्षेत्र (carbon emitter) में बदलने की कगार पर है।

ऐसे समय में एक नई रिपोर्ट ने अमेज़न के विनाश के लिए ज़िम्मेदार वित्तीय ढांचे (financial systems) को बेनकाब किया है। पर्यावरण संगठन ‘स्टैंड.अर्थ’ की रिपोर्ट ‘बैंक्स वर्सेस दी अमेज़न स्कोरकार्ड’ बताती है कि 2016 में पेरिस समझौते के बाद से अमेज़न क्षेत्र में तेल और गैस परियोजनाओं को मिलने वाले वित्त का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा सिर्फ दस बैंकों से आता रहा है। इनमें जेपी मॉर्गन चेज़, सिटी बैंक ऑफ अमेरिका, इताउ युनिबैंको (ब्राज़ील) और एचएसबीसी जैसे बड़े नाम शामिल हैं। इन बैंकों ने अमेज़न के भीतर जीवाश्म ईंधन से जुड़ी परियोजनाओं में 15 अरब डॉलर से अधिक झोंक दिए हैं (fossil fuel financing)।

युरोप पीछे हटा, अमेरिका आगे बढ़ा

पिछले कुछ वर्षों में युरोप के कई बैंकों ने अपने कदम पीछे खींचे हैं। फ्रांस का बीएनपी परिबा और ब्रिटेन का एचएसबीसी अब अमेज़न से जुड़ी कंपनियों को ऋण देना बंद कर चुके हैं (banking policy change)। उन्होंने ऐसी नीतियां अपनाई हैं जो अमेज़न में तेल और गैस खनन कंपनियों को वित्त नहीं देतीं।

लेकिन जहां युरोपीय बैंक पीछे हटे, वहीं अमेरिका और लैटिन अमेरिका के बैंक उस खाली जगह को भरने में लगे हैं। ब्राज़ील का इताउ युनिबैंको अब शीर्ष पर पहुंच गया है – पिछले 18 महीनों में उसने 37.8 करोड़ डॉलर की नई फंडिंग दी है। जेपी मॉर्गन चेज़ और बैंक ऑफ अमेरिका उससे थोड़ा पीछे हैं। इसी अवधि में पेरू के क्रेडिकॉर्प और कनाडा के स्कोटियाबैंक ने भी अपने निवेश को लगभग तीन गुना बढ़ा दिया है (Amazon oil projects)।

रिपोर्ट की प्रमुख शोधकर्ता डॉ. देवयानी सिंह का कहना है, “युरोपीय बैंकों ने अपेक्षाकृत सख्त नीतियां लागू की हैं, लेकिन कोई भी बैंक अब तक अपने वित्तपोषण को शून्य नहीं कर पाया है। हर बैंक को लूपहोल बंद करने होंगे और बिना देरी अमेज़न से बाहर निकलना होगा।”

तेल के धब्बे और बीमारियां

दी इकॉलॉजिस्ट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, अमेज़न में तेल और गैस की खुदाई (oil drilling impact) सिर्फ पर्यावरण को ही नहीं, बल्कि स्थानीय जीवन को भी गहराई से प्रभावित कर रही है। ब्राज़ील, इक्वाडोर, पेरू और कोलंबिया में 6000 से अधिक तेल-संदूषित स्थल दर्ज किए गए हैं। खनन क्षेत्रों के आसपास रहने वाले समुदायों में कैंसर, गर्भपात व श्वसन रोगों के मामले लगातार बढ़ रहे हैं (health impact)।

इसके बावजूद, सरकारें पीछे हटने को तैयार नहीं। ब्राज़ील ने इस साल की शुरुआत में 68 नए तेल ब्लॉक की नीलामी की। इक्वाडोर में 2023 में यासुनी नेशनल पार्क में ड्रिलिंग रोकने के पक्ष में हुए जनमत-संग्रह के बाद भी काम जारी है। पेरू में 31 नए तेल ब्लॉक आवंटित किए गए हैं, जिनमें से कई 400 से अधिक देशज समुदायों की भूमि से ओवरलैप करते हैं।

अमेज़न की ओलीविया बिसा कहती हैं, “जब जंगल खुद संकट में है, तब बैंक ऑफ अमेरिका, स्कोटियाबैंक और इताउ जैसे बैंक इन परियोजनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। दशकों से हमारे देशज समुदाय इस विनाश का सबसे बड़ा भार उठा रहे हैं। अब समय आ गया है कि बैंक अमेज़न को तेल की लत से मुक्त करें।”

भ्रष्टाचार और चुप्पी

रिपोर्ट में बताया गया है कि 2024 से अब तक अमेज़न क्षेत्र में 2 अरब डॉलर से अधिक की नई फंडिंग केवल छह कंपनियों को मिली है – पेट्रोब्रास, एनेवा, गनवोर, ग्रैन टिएरा, प्लसपेट्रोल कैमिसेआ एवं हंट ऑयल पेरू। इन सभी पर भ्रष्टाचार (corruption cases), पर्यावरणीय क्षति और देशज अधिकारों के उल्लंघन के आरोप हैं।

ब्राज़ील की कंपनी एनेवा को हाल ही में संघीय अदालत ने अपनी गतिविधियां रोकने का आदेश दिया था क्योंकि उसने देशज समुदायों के अधिकारों और पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन किया था। फिर भी, उसे इताउ यूनिबैंको, बैंको डो ब्रासिल, सैंटेंडर और अन्य बैंकों से वित्त पोषण मिलता रहा।

इसी तरह, स्विस कंपनी गनवोर को 2013 से 2020 के बीच इक्वाडोर में अधिकारियों को रिश्वत देकर तेल अनुबंध हासिल करने का दोषी पाया गया था, लेकिन इसके बावजूद उसे आईएनजी बैंक से वित्तीय सहायता मिलती रही (oil corruption scandal)। इससे यह साफ होता है कि आंशिक प्रतिबंध और ‘परियोजना-स्तर’ की नीतियां अक्सर औपचारिकता से ज़्यादा कुछ नहीं होतीं।

वित्तीय नीतियों की ज़िम्मेदारी

रिपोर्ट में सभी बैंकों से अपील की गई है कि वे 2030 तक अमेज़न में तेल और गैस परियोजनाओं के वित्तपोषण को पूरी तरह समाप्त करें (fossil finance exit) – चाहे वह ऋण के रूप में हो, बॉन्ड में निवेश के रूप में हो या परामर्श सेवाओं के रूप में। साथ ही, संयुक्त राष्ट्र की देशज लोगों के अधिकारों पर घोषणा (UNDRIP rights) के अनुरूप नीतियां अपनाने की सिफारिश की गई है।

अमेज़न वह सांस है जिससे पृथ्वी जीवित है। पर यदि यह सांस रुक गई, तो इसका असर पूरे ग्रह पर पड़ेगा। आने वाला दशक तय करेगा कि यह महान वन जीवित रहेगा या इतिहास बन जाएगा? यह सवाल सिर्फ सरकारों या पर्यावरणविदों के लिए नहीं, बल्कि उन बैंकों के लिए भी है जिनके धन से यह विनाश चल रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://gumlet.assettype.com/down-to-earth%2Fimport%2Flibrary%2Flarge%2F2022-11-17%2F0.19095600_1668668600_amazon.jpg?w=768&auto=format%2Ccompress&fit=max

सामूहिक हास-परिहास का जैविक जादू

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

जर्मन बाल रोग विशेषज्ञ विनफ्रेड बार्थलेन द्वारा किए गए एक अध्ययन में, मसखरों (hospital clowns) से अस्पताल में भर्ती ऐसे बच्चों के साथ मेलजोल करने को कहा गया जिनकी सर्जरी होने वाली थी (pre-surgery anxiety)। आश्चर्य की बात नहीं थी कि मसखरे के साथ एक खुशनुमा सत्र के बाद इन बच्चों में सर्जरी को लेकर चिंता कम देखी गई। फ्रंटियर्स इन पीडियाट्रिक्स में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि उनके लार के नमूनों में ऑक्सीटोसिन का स्तर बढ़ा हुआ था।

ऑक्सीटोसिन को बॉन्डिंग ह़ॉर्मोन (bonding hormone oxytocin) भी कहा जाता है क्योंकि सामाजिक मेलजोल और शारीरिक स्पर्श से इसका स्तर बढ़ जाता है। इसकी उपस्थिति विश्वास की भावना को बढ़ाती है और यह संकेत देती है कि व्यक्ति सुरक्षित वातावरण में है। ऐसे तंत्रिका-रासायनिक परिवर्तन भावनात्मक रूप से स्वस्थ होने के पलों में होते हैं। सर्जरी को लेकर चिंतित बच्चों के लिए, मसखरे की करामातें न सिर्फ ध्यान भटकाने का ज़रिया थीं, बल्कि साझा हंसी का स्रोत भी थीं; दरअसल, मसखरे की उपस्थिति ने एक प्रामाणिक सामाजिक मेल-जोल को सुगम बनाया।

अन्य अध्ययनों से पता चला है कि जिन लोगों को हंसने के लिए उकसाया जाता है, खासकर जब वे उन लोगों के साथ होते हैं जिनके साथ उनके सामाजिक सम्बंध होते हैं, तो उनमें एड्रीनेलीन और कॉर्टिसोल का स्तर कम (stress hormones reduction) हो जाता है। इन हॉर्मोन का स्तर तब भी कम होता है जब प्रतिभागियों को अजनबियों के साथ हंसने के लिए प्रेरित किया जाता है।

एड्रीनेलीन और कॉर्टिसोल दोनों ही तनाव हार्मोन (stress hormones) हैं, लेकिन दोनों की क्रियाविधि अलग-अलग है। एड्रीनेलीन एक त्वरित प्रतिक्रिया वाला हार्मोन है: इसकी उपस्थिति रक्तचाप, हृदय गति और रक्त शर्करा के स्तर को बढ़ाती है। अपरिचित चेहरों से मुलाकात से उत्पन्न होने वाला हल्का सामाजिक तनाव एड्रीनेलीन के कम होने पर तुरंत निष्क्रिय हो जाता है, आप सहज हो जाते हैं। कॉर्टिसोल धीरे-धीरे काम करता है और इससे उत्पन्न तनाव लंबे समय तक रहता है। जब कॉर्टिसोल का स्तर कम होता है, तो चिंता की भावनाएं भी कम हो जाती हैं।

2017 में फिनलैंड के शोधकर्ताओं ने एक साथ कॉमेडी क्लिप देख रहे दोस्तों के समूहों का पॉज़िट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी (PET) की मदद से स्कैन किया था (brain activity study)। उन्होंने पाया कि थैलेमस और मस्तिष्क के अन्य भागों में एंडोजीनस ओपिऑइड (शरीर के अंदर बनने वाले अफीमनुमा रसायन) स्रावित होते हैं। एंडोजीनस ओपिऑइड दर्द निवारक के रूप में कार्य करते हैं और दर्द की अनुभूति को रोकते हैं, जिससे आप शांत रहते हैं। सामाजिक जुड़ाव के संदर्भ में, साथ में मौज-मस्ती करने से तनाव और दर्द कम होता है। यह एक पारितोषिक तंत्र के रूप में भी कार्य करता है, उत्साह की भावना आपको आनंददायक संगत में अधिक समय बिताने के लिए प्रोत्साहित करती है।

चिम्पैंज़ी और अन्य पूंछविहीन वानर भी हंसी को एक सामाजिक स्नेहक के रूप में उपयोग करते हैं (chimpanzee behavior)। गहरी सांस लेने जैसी ध्वनि चिम्पैंज़ियों में हंसी-विनोद के खेल के दौरान पैदा होती है; जैसे पीछा करते समय या धींगामुश्ती करते समय, या जब उन्हें गुदगुदी की जाती है। उनके सामाजिक नेटवर्क आपसी देखभाल/साफ-सफाई (ग्रूमिंग) और खेल द्वारा पोषित होते हैं। चिम्पैंज़ी सामाजिक ग्रूमिंग में काफी समय व्यतीत करते हैं: जागने के 12 घंटों में से लगभग दो घंटे। किसी चिम्पैंज़ी की ‘संपर्क सूची’ में लगभग 80-100 परिचित होते हैं, जिनमें से 20 से कम मुख्य/अजीज़ साथी होते हैं।

लोगों की मोबाइल फोन संपर्क सूची में आम तौर पर 300 से 600 कॉन्टेक्ट होते हैं (social network size)। समय के साथ बनते जाने वाले संपर्कों में मनुष्य लगभग 1500 व्यक्तियों के नाम याद रख सकते हैं और उनके चेहरे पहचान सकते हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि मनुष्य का सामाजिक नेटवर्क प्रत्यक्ष टिकाऊ सामाजिक नातों के लिए उपलब्ध समय से कहीं अधिक विस्तृत हो गया है। ऑक्सफोर्ड के मानवविज्ञानी रॉबिन डनबर ने एक सिद्धांत प्रस्तावित किया है, जो कहता है कि मनुष्यों में सामाजिक हंसी संपर्क में आने वाले सभी सदस्यों के बीच साझा भावनात्मक अनुभव का साझा एहसास प्रदान करने के लिए विकसित हुई है।

जैसे-जैसे हमारा सोशल मीडिया उपयोग बढ़ता है, हमारा अकेले समय बिताना तेज़ी से बढ़ता है (social media loneliness)। यह सही है कि सोशल मीडिया पर फॉरवर्ड किए गए बिल्ली के बच्चे के वीडियो (या अन्य मनोरंजक पोस्ट) देखकर आप हंसते हैं और अच्छा महसूस करते हैं। लेकिन यहां आप अकेले हंसते हैं। जब सामाजिक माहौल में सबके साथ हंसते हैं, तो हंसी अधिक ज़ोरदार और अधिक बार होती है। कारण यह है कि पूरे समूह की मस्तिष्क गतिविधि सिंक्रोनाइज़ हो जाती है यानी ताल से ताल मिलाकर होने लगती है। यह तालमेल हमारे सामाजिक रिश्तों का मूल है। हमें अपने प्रियजनों के साथ ज़्यादा समय बिताना चाहिए! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/sci-tech/science/p55n99/article70278597.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/pexels-sabbir-bhuiyan-1747552532-32221016.jpg

दुनिया की सबसे महंगी बिल्ली-विष्ठा कॉफी का राज़

कोपी लुवाक (Kopi Luwak) नामक कॉफी (specialty coffee) का एक कप भी किसी आलीशान डिनर जितना महंगा हो सकता है। यह कॉफी अपने कड़क और अनोखे स्वाद के लिए जानी जाती है, जिसमें गिरियों, मिट्टी, चॉकलेट और कभी-कभी मछली की हल्की महक आती है (coffee flavor profile)।

इस कॉफी को स्वाद तब मिलता है जब एक एशियाई बिल्ली – पाम सिवेट (Paradoxurus hermaphroditus) – पकी हुई कॉफी बेरी (लाल गूदेदार फल) खाती है। सिवेट के पेट के एंज़ाइम इन बेरी (coffee cherry) की बाहरी परत को थोड़ा पचा देते हैं, लेकिन अंदर के बीज (बीन्स) साबुत ही रहते हैं। इन्हें सिवेट की विष्ठा से निकाल लिया जाता है, फिर उन्हें साफ करके भूना जाता है और इसी से बनती है कॉफी ‘कोपी लुवाक’।

इतनी लंबी श्रमसाध्य प्रक्रिया और इसकी कम उपलब्धता के कारण इसका एक प्याला जेब से 75 डॉलर (लगभग 6600 रुपए) खर्च करवाता (expensive coffee) है। लेकिन ऐसा स्वाद आता कैसे है?

यह पता लगाया है भारतीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने। केरल स्थित सेंट्रल युनिवर्सिटी के प्राणी विज्ञानी पालट्टी अलेश सीनू और उनकी टीम ने कर्नाटक के कोडगु जिले में पाए जाने वाले जंगली सिवेट के मल से कॉफी बीन्स इकट्ठे किए और उनकी तुलना सीधे पौधों से तोड़े गए कॉफी बीन्स से की (wild civet coffee)।

गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री तकनीक (GC–MS analysis) का इस्तेमाल करके वैज्ञानिकों ने सिवेट के पाचन तंत्र से गुज़रे बीन्स में कैप्रिलिक एसिड और कैप्रिक एसिड की मात्रा सामान्य बीन्स की तुलना में कहीं अधिक पाई। ये वही फैटी एसिड हैं जो डेयरी उत्पादों को स्वादिष्ट बनाने के काम आते हैं। सिवेट के पेट में मौजूद ग्लूकोनोबैक्टर नामक बैक्टीरिया और एंज़ाइम इन यौगिकों को बनाते या बढ़ाते हैं, जिससे कॉफी के स्वाद और खुशबू में परिवर्तन आता है।

पूर्व में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सिवेट के पाचन तंत्र से गुज़रे कॉफी बीन्स सामान्य बीन्स की तुलना में ज़्यादा भुरभुरे होते हैं, उनमें प्रोटीन की मात्रा कम लेकिन वसा की मात्रा अधिक होती है (coffee bean chemistry)। इसके अलावा, यह भी देखा गया कि जंगली सिवेट हमेशा पकी और बड़ी कॉफी बेरी ही चुनते हैं।

फिलहाल यह अध्ययन भारत में मौजूद रोबस्टा कॉफी पर किया गया था लेकिन वाणिज्यिक तौर पर कोपी लुवाक अधिकतर अरेबिका (Arabica coffee) से बनती है। इसलिए वैज्ञानिक इसे अरेबिका बीन्स पर दोहराने का सुझाव देते हैं। इसके साथ ही, वे यह भी समझना चाहते हैं कि भूनने की प्रक्रिया के दौरान ये फैटी एसिड कैसे बदलते हैं और अंतिम स्वाद को कैसे प्रभावित करते हैं।

बेशक यह कॉफी स्वादिष्ट है जिसके मंहगे दाम चुकाकर हम इसे पी सकते हैं, लेकिन इस स्वाद का खामियाजा सिवेट को चुकाना (animal cruelty) पड़ता है। बीन्स के लिए सिवेट को छोटे पिंजरों में बंद कर जबरन कॉफी बेरी खिलाई जाती हैं। उम्मीद है सिवेट के पेट में होने वाली पाचन और किण्वन प्रक्रिया को समझकर सिवेट को इस अत्याचार से बचाया जा सकेगा और हमें स्वाद भी मिलेगा (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/43d6729d2e075d6/original/GettyImages-2208450062_resized.jpeg?m=1761598008.346

बदलता मौसम और ऊंचाइयों की ओर बढ़ते जंगल

रती के बदलते हालात का एक नया और चौंकाने वाला संकेत सामने आया है — दुनिया भर के जंगल अब धीरे-धीरे पहाड़ों पर ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे हैं। वैज्ञानिकों ने पहले ही अनुमान लगाया था कि जैसे-जैसे वैश्विक तापमान (global warming) बढ़ेगा, पेड़ ठंडे इलाकों की ओर खिसकेंगे। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि यह परिवर्तन सिर्फ ध्रुवों की दिशा में नहीं, बल्कि पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों की ओर (tree-line shift) भी हो रहा है।

बायोजियोसाइंसेज़ पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में 1984 से 2017 तक के पश्चिमी कनाडा से लेकर पनामा तक 115 पर्वत-शिखरों के उपग्रह डैटा (satellite data) का विश्लेषण किया गया है। वैज्ञानिकों को आश्चर्य हुआ कि जंगलों का सबसे तेज़ ऊर्ध्वगामी (ऊपर की ओर) विस्तार ठंडे उत्तरी क्षेत्रों में नहीं, बल्कि मेक्सिको और मध्य अमेरिका के उष्णकटिबंधीय पहाड़ों में दिखा। यहां पेड़ों की ऊपरी सीमा, जिसे ट्री-लाइन कहा जाता है, हर साल कई मीटर ऊपर जा रही है।

यह खोज इस आम धारणा को चुनौती देती है कि वैश्विक ऊष्मीकरण (climate change impact) का असर सबसे ज़्यादा ध्रुवीय इलाकों में होता है। जबकि जैव विविधता और नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों से भरपूर उष्णकटिबंधीय क्षेत्र अब इस परिवर्तन की सबसे तेज़ गति दिखा रहे हैं। हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि हर बदलाव को सीधे जलवायु परिवर्तन से जोड़ना उचित नहीं है। अध्ययन में उन पहाड़ों को शामिल नहीं किया गया था जहां मानव गतिविधियां जैसे खेती, चराई या वृक्ष कटाई का असर था।

एक समस्या ट्री-लाइन की परिभाषा को लेकर है। कुछ वैज्ञानिक इसे तापमान आधारित सीमा (temperature threshold) मानते हैं यानी जहां तापमान 6 डिग्री सेल्सियस से नीचे जाने पर पेड़ नहीं उग पाते। वहीं, कुछ इसे भौतिक सीमा के रूप में देखते हैं यानी वह ऊंचाई जहां पेड़ों की वृद्धि रुक जाती है।

अब तक ज़्यादातर ऐसे अध्ययन उत्तरी अमेरिका और युरोप तक सीमित थे। उदाहरण के लिए, आल्प्स पर्वत में शोध से पता चला था कि औद्योगिक युग से अब तक तापमान में लगभग 3 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के कारण ट्री-लाइन ऊपर खिसकी है। लेकिन दुनिया के अन्य हिस्सों में यह रुझान स्पष्ट नहीं था। इसी कारण मैक्सिको के वैज्ञानिक डैनियल जिमेनेज़-गार्सिया और टाउनसेंड पीटरसन ने 15 ज्वालामुखी पर्वतों पर पुन: अध्ययन किया और पाया कि वहां सिर्फ तीन दशकों में ट्री-लाइन लगभग 500 मीटर ऊपर चली गई है। यही खोज आगे चलकर पूरे अमेरिका महाद्वीप में व्यापक अध्ययन का आधार बनी।

इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने लैंडसैट उपग्रहों (Landsat images) से प्राप्त 40 वर्षों की तस्वीरों का विश्लेषण किया। और तो और पीटरसन ने खुद घूम-घूमकर ट्री-लाइन की सीमाएं चिन्हित कीं। इस लंबी मेहनत से अब तक का सबसे व्यापक वैश्विक डैटा रिकॉर्ड तैयार हुआ।

विशेषज्ञ मानते हैं कि यह तरीका पूर्णत: त्रुटिहीन तो नहीं है, परंतु बड़े पैमाने के रुझान समझने में बेहद कारगर है। कुछ मामलों में तो पेड़ पुराने चारागाहों या छोड़े गए इलाकों पर फिर से लौट रहे हैं, पर कुल मिलाकर जंगलों के ऊपर बढ़ने का रुझान स्पष्ट और व्यापक (forest expansion) है।

एक सवाल है कि उष्णकटिबंधीय जंगल इतनी तेज़ी से ऊपर क्यों बढ़ रहे हैं? वैज्ञानिकों के अनुसार, इसका एक कारण पानी की उपलब्धता है। ध्रुवों के ऊंचे इलाके अपेक्षाकृत सूखे रहते हैं जबकि भूमध्य रेखा के आसपास ऊंचे पहाड़ी इलाके आम तौर पर अधिक वर्षा और नमी वाले होते हैं। इसलिए तापमान में थोड़ी-सी भी वृद्धि हो तो यहां पेड़ अधिक ऊंचाई तक जीवित रह पाते हैं।

अब शोधकर्ता 1870 के दशक की पुरानी तस्वीरों की तुलना आधुनिक उपग्रह चित्रों (historical vs modern images) से कर रहे हैं, ताकि पता चल सके कि यह बदलाव कितनी तेज़ी और कितनी दूर-दूर तक हुआ है। शुरुआती नतीजे दिखाते हैं कि पुराने और नए डैटा में समानता है यानी जंगलों का ऊपर की ओर बढ़ना लगातार तेज़ हो रहा है।

भविष्य में टीम की कोशिश है कि कृत्रिम बुद्धि की मदद से दुनिया भर में इन परिवर्तनों को स्वचालित रूप से पहचाना जा सके (AI monitoring)। यह बदलाव समझना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि जैसे-जैसे जंगल ऊपर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे पहाड़ों की ऊंचाइयों पर रहने वाले नाज़ुक और ठंड पसंद पौधों व अन्य जीवों के लिए जगह कम होती जा रही है, इकोसिस्टम बदल (ecosystem change) रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/content/article/forests-are-migrating-mountain-peaks

बैक्टीरिया बनाते हैं बिजली के कैबल 

कीचड़ में सूक्ष्मजीवों का एक अद्भुत संसार छिपा होता है जिन्हें ‘कैबल बैक्टीरिया’ (cable bacteria) कहते हैं। ये बैक्टीरिया मिट्टी के भीतर ऐसे कैबल बनाते हैं जो विद्युत (electricity) संचारित कर सकते हैं। हाल ही में यह पता चला है कि ये बैक्टीरिया ये कैबल बनाते कैसे हैं।

गौरतलब है कि कैबल बैक्टीरिया झीलों, नदियों और समुद्रों के तलछट (sediment) में पाए जाते हैं। वे हाइड्रोजन सल्फाइड (hydrogen sulfide) गैस से इलेक्ट्रॉन लेते हैं। यह गैस मिट्टी की गहराई में होती है। फिर वे इन इलेक्ट्रॉन्स को ऑक्सीजन को हस्तांतरित कर देते हैं जो केवल सतह पर मिलती है। हाइड्रोजन सल्फाइड में इलेक्ट्रॉन उच्च ऊर्जा स्तर पर होते हैं जबकि ऑक्सीजन में उनका ऊर्जा स्तर कम होता है। अत: इस हस्तातंतरण में ऊर्जा मुक्त होती है जिसमें से कुछ का उपयोग बैक्टीरिया अपने कामकाज के लिए कर लेते हैं।

इलेक्ट्रॉन को यह दूरी पार करवाने के लिए ये बैक्टीरिया लंबी, धागे जैसी संरचनाएं (filament structures) बनाते हैं, जो नीचे की सल्फाइड गैस से इलेक्ट्रॉन लेकर ऊपर ऑक्सीजन तक पहुंचाती हैं। इस तरह मिट्टी के भीतर विद्युत धारा (electric current) बनती है।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सिर्फ एक वर्ग मीटर कीचड़ में इन जैविक कैबल्स की कुल लंबाई 20,000 किलोमीटर तक हो सकती है। प्रत्येक तंतु लगभग 5 सेंटीमीटर लंबा होता है और उसमें लगभग 25,000 कोशिकाएं होती हैं। ये सब मिलकर एक सुपर-जीव (super-organism) के रूप में काम करती हैं, और इन सारे बैक्टीरिया की कोशिका झिल्ली एक ही होती है।

युनिवर्सिटी ऑफ एंटवर्प के फिलिप माइस्मन की टीम ने इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप (electron microscope) और एक्स-रे इमेजिंग तकनीकों की मदद से देखा कि ये तार बेहद पतले रेशों (मोटाई मात्र 50 नैनोमीटर) (nanofibers) से बने होते हैं। प्रत्येक रेशा ‘चोटी’ के रूप में गूंथा होता है और वह भी बारीक नैनोरिबन के गुच्छों से बना होता है।

अध्ययन से पता चला कि ये बैक्टीरिया मिट्टी से निकल तत्व इकट्ठा करके उसे सल्फर-युक्त यौगिकों के साथ मिलाते हैं, जिससे पतली प्लेट जैसी संरचनाएं बनती हैं। ये प्लेटें जुड़कर रिबन बनाती हैं और फिर गुंथकर मज़बूत, लचीली विद्युत प्रवाहित करने वाली जैविक कैबल (bio-cable) तैयार करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे इंसान तांबे के तार गूंथकर कैबल बनाते हैं। आश्चर्य की बात है कि कोई सूक्ष्मजीव इतनी जटिल संरचना बना सकता है।

ये कैबल मेटल ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क (MOF) के समान कार्बन डाईऑक्साइड जैसी गैसों को कैद कर सकते हैं, ऊर्जा संचित कर सकते हैं। MOF सम्बंधी शोध के लिए इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize) मिल चुका है। यह भी देखा गया कि इन तारों की विद्युत चालकता प्रयोगशाला में बने जैविक तारों से 100 गुना अधिक है।

ये न सिर्फ प्रभावी हैं बल्कि पर्यावरण के अनुकूल भी हैं, क्योंकि इन्हें बहुत कम धातु और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। उम्मीद है कि इस खोज से ऐसे जैव-अनुकूल और लचीले इलेक्ट्रॉनिक उपकरण (flexible electronics) विकसित किए जा सकेंगे, जो जीवित ऊतकों के साथ सुरक्षित रूप से काम कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.aed8005/full/_20251107_on_cable_bacteria-1762794885023.jpg

भूख मिटाकर मोटापा भगाने वाला प्रोटीन

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पेट में गुड़गुड़ाहट जैसी आवाज़ का एहसास भूख लगने का सीधा संकेत है। शरीर को भूख (hunger) तब लगती है जब शरीर में पोषक तत्वों की, विशेषत: रक्त शर्करा (blood sugar) की, कमी होती है। जैसे ही भोजन का समय होता है मस्तिष्क भूख का संदेश देता है जिसके फलस्वरूप आमाशय द्वारा उत्पन्न हार्मोन ग्रेलीन हमारे पेट और आंतों की मांसपेशियों में संकुचन पैदा करने लगता है और हमें भूख लगने लगती है। ग्रेलीन को भूख हॉर्मोन (हंगर हॉर्मोन – hunger hormone) भी कहते हैं। दूसरी ओर, पेट भरने पर लेप्टिन और कोलेसिस्टोकाइनिन (CCK) जैसे हॉर्मोन भूख को कम करने का काम करते हैं। लेप्टिन हमारे शरीर के वसा ऊतकों में बनता है और बताता है कि शरीर को पर्याप्त ऊर्जा वाला भोजन मिल गया है, जबकि कोलेसिस्टोकाइनिन छोटी आंत से निकलता है और पेट भर जाने का संकेत देता है, जिससे हमें तृप्ति का एहसास होता है। 

हाल ही में वैज्ञानिकों की एक टीम ने भूख मिटाने के लिए मस्तिष्क में छिपे हुए एक ‘स्विच’ का पता लगाया है। इसका नाम है मेलानोकॉर्टिन-4 रिसेप्टर (जीन MC4R)। शोधकर्ताओं ने यह भी पता लगाया है कि MRAP2 नामक एक प्रोटीन (protein) भूख को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह प्रोटीन भूख रिसेप्टर MC4R को कोशिका की सतह पर पहुंचाने में मदद करता है। वहां यह ‘खाना बंद करो’ के मज़बूत संकेत देता है। वैज्ञानिकों को लगता है कि MRAP2 प्रोटीन द्वारा नियंत्रित यह स्विच – MC4R – मोटापे (obesity) से लड़ने, उसे कम करने और वज़न नियंत्रण में सुधार के लिए नए मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

मेलानोकॉर्टिन-4 रिसेप्टर

मेलानोकोर्टिन-4 (MC4R) रिसेप्टर एक महत्वपूर्ण रिसेप्टर है। यह पेप्टाइड-स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन (peptide hormone) द्वारा सक्रिय होता है। MC4R रिसेप्टर मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस (hypothalamus) में पाया जाता है और भूख, तृप्ति, तथा ऊर्जा चयापचय क्रिया को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह भूख को कम करता है जिससे मोटापा घटता है। यह ऊर्जा संतुलन (energy balance) भी बनाए रखता है।

MC4R के जीन में यदि उत्परिवर्तन (gene mutation) हो जाए तो भूख अधिक लगती है जिससे भोजन सेवन को नियंत्रित करने और वज़न कम करने में कठिनाई होती है। परिणामत: मोटापा बढ़ जाता है। मोटापे के इस कारण के लिए वर्तमान में कोई विशिष्ट उपचार नहीं है, हालांकि भविष्य में इस रिसेप्टर को लक्षित करने वाली नई औषधियां (medicines) विकसित की जा सकती हैं।

सेटमेलानोटाइड

वैज्ञानिक शोध से ज्ञात हुआ है कि सेटमेलानोटाइड (setmelanotide) नामक दवा लेप्टिन-मेलानोकॉर्टिन मार्ग (leptin-melanocortin pathway) में कुछ विशिष्ट आनुवंशिक विकारों या उत्परिवर्तनों के कारण होने वाले गंभीर आनुवंशिक मोटापे (genetic obesity) का उपचार करती है। यह मेलानोकॉर्टिन-4 रिसेप्टर को उत्तेजित करने का काम करती है, जो मस्तिष्क में भूख नियंत्रण से सम्बंधित होता है। यह दवा भूख को कम करती है, पेट भरा हुआ महसूस कराती है और शरीर द्वारा कैलोरी जलाने की दर भी बढ़ा सकती है, जिससे वज़न घटाने में मदद मिलती है। 

MRAP2 एक जीन है जो MC4R रिसेप्टर के सहायक प्रोटीन को एनकोड करता है, जो MC4R रिसेप्टर सिग्नलिंग को नियंत्रित करता है।

वैज्ञानिकों की टीम ने आधुनिक फ्लोरेसेंट माइक्रोस्कोपी (fluorescent microscopy) और सिंगल सेल इमेजिंग तकनीक का उपयोग करते हुए पाया है कि प्रोटीन MRAP2 कोशिकाओं के भीतर मस्तिष्क-रिसेप्टर MC4R के मौलिक स्थान और व्यवहार को बदल देता है। फ्लोरेसेंट माइक्रोस्कोपी और कॉन्फोकल इमेजिंग (confocal imaging) ने दर्शाया है कि MRAP2, MC4R को कोशिका की सतह तक पहुंचाने के लिए आवश्यक है, जहां यह भूख को दबाने या कम करने वाले संकेतों को अधिक प्रभावी ढंग से प्रसारित कर सकता है। उपरोक्त शोध के निष्कर्ष हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications) नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

रिसेप्टर के कार्य करने के तरीके की समझ उन चिकित्सकीय रणनीतियों (therapeutic strategies) की ओर इंगित करती है जो MRAP2 की नकल या उसका नियमन करती हैं और मोटापे तथा सम्बंधित चयापचय विकारों (metabolic disorders) से निपटने की क्षमता रखती हैं। उपरोक्त शोध के निष्कर्ष भविष्य में विभिन्न दृष्टिकोणों और विविध प्रयोगात्मक विधियों द्वारा, चिकित्सकीय प्रासंगिकता वाले भूख नियमन के महत्वपूर्ण नए शारीरिक और पैथोफिज़ियोलॉजिकल (pathophysiological) पहलुओं की बेहतर समझ विकसित करने में मददगार होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.researchgate.net/profile/Giles-Yeo/publication/8644502/figure/fig2/AS:282060989190159@1444259988550/MC4R-integrates-energy-related-signalsSeparate-populations-of-neurons-whose-cell-bodies.png

क्या हम समय रहते हिमालय को बचा पाएंगे?

कविता भारद्वाज

यह लेख मूलत: रेवेलेटर एन्वायरमेंटल न्यूज़ एंड कमेंटरी में प्रकाशित हुआ था। मूल अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए लिंक: https://therevelator.org/himalayas-climate-change/

हिमालय पर्वत (Himalayan Mountains) शृंखला दुनिया की सबसे नवीन और नाज़ुक पर्वत शृंखलाओं में से एक है लेकिन हम उसके साथ ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे कि उसमें असीम लचीलापन और सहिष्णुता है। विकास (development projects) के नाम पर धमाके कर-करके पहाड़ों को चोटी-दर-चोटी उड़ाया जा रहा है, सुरंगें खोद-खोदकर सड़कें बनाई जा रही हैं, एक के बाद एक पनबिजली परियोजनाओं और पर्यटन स्थलों (hydropower and tourism) का निर्माण हो रहा है।

लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि हिमालय केवल हमारी महत्वाकांक्षाओं के लिए धरातल नहीं बल्कि एक जीवित तंत्र (living ecosystem) है। किसी भी प्रकार का विस्फोट, ढलान को समतल करने का हर प्रयास, हर कटा हुआ पेड़ इन पहाड़ों को कमज़ोर कर रहा है और धीरे-धीरे उन्हें बिखरने की कगार पर ला रहा है।

जो लोग इन पहाड़ों में पले-बढ़े हैं, उनके लिए ये केवल पत्थरों के ढेर नहीं, बल्कि घर और इतिहास है। यही पर्वत अनगिनत पक्षियों, जीवों और नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों (Himalayan biodiversity) का आश्रय है। जब हम जंगल काटते हैं या नदियों को बांधते हैं, तो हम केवल संसाधनों को नहीं खोते, बल्कि अपने घर, अपनी सुरक्षा और अपनी भावनाओं का एक हिस्सा भी खो देते हैं।

अव्यवस्था और विनाश

जब जंगल साफ किए जाते हैं, झीलें या दलदली ज़मीन सुखा दी जाती हैं, और पहाड़ी ढलानों को अस्त-व्यस्त कर दिया जाता है, तो समूचे पारिस्थितिक तंत्र अपना संतुलन (ecosystem destruction) खो देते हैं। इसके बाद आने वाली बाढ़, भूस्खलन (landslides) और भू-क्षरण इंसानों और जानवरों दोनों को प्रभावित करते हैं।

अगस्त 2025 में उत्तरकाशी के धराली गांव का एक बड़ा हिस्सा मिट्टी और मलबे के सैलाब (flash flood) में दब गया। इसी साल हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में भी कई ऐसे हादसे हुए जिन्होंने, कुछ समय के लिए ही सही, पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। आज, महीनों बाद भी वहां के लोग अपने घर और ज़िंदगी दोबारा बसाने के लिए जूझ रहे हैं।

ये आपदाएं हमें तीन परस्पर सम्बंधित बातों का संकेत देती हैं: पहाड़ बहुत नाज़ुक हैं, मौसम का मिज़ाज अब पहले से ज़्यादा उग्र व इन्तहाई हो गया है, और इंसान हालात को बदतर कर रहे हैं।

अचानक आने वाली विशाल बाढ़ें (cloudburst disaster) अक्सर बादल फटने (बारिश बम) (cloudburst) के कारण होती हैं  – जब ऊंचे पहाड़ मानसूनी बादलों को सारा पानी एकसाथ बरसाने पर मजबूर कर देते हैं। चूंकि अब हवा पहले से ज़्यादा गर्म है, इसलिए उसमें नमी धारण करने की क्षमता ज़्यादा है (जो जलवायु विज्ञान का एक अहम सिद्धांत है), जिससे ऐसी बादल फटने की घटनाएं ज़्यादा मर्तबा होती हैं और पहले से अधिक उग्र हो गई हैं।

इसी के साथ बढ़ती गर्मी हिमनदों को तेज़ी से पिघला (glacier melting) रही है, जिससे ग्लेशियर-जनित झीलें अस्थिर होकर फूट जाती हैं और पानी, बर्फ और चट्टानें नीचे की ओर बह निकलते हैं।

इंसानी दखल से यह प्राकृतिक खतरा और भी बढ़ जाता है। जंगलों की कटाई (deforestation), बिना सोचे-समझे सड़कों और बांधों का निर्माण पहाड़ों की ढलान को कमज़ोर कर देता है, जिससे भारी बारिश एक निश्चित आपदा में बदल जाती है।

जलवायु जोखिम का केंद्र

जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (IPCC report) की छठी रिपोर्ट उस बात की पुष्टि करती है जिसकी आशंका पहाड़ी समुदायों को पहले से थी। मानव-जनित जलवायु परिवर्तन (human-induced climate change) के कारण भारी बारिश और बाढ़ की घटनाएं अब पहले से कहीं अधिक हो रही हैं।

1980 के दशक से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बाढ़ (flood risk) की घटनाएं चार गुना और उत्तरी मध्य अक्षांश इलाकों में ढाई गुना बढ़ी हैं। अगर तापमान 3–4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, तो नदियों की बाढ़ों से प्रभावित लोगों की संख्या दुगनी हो सकती है, और कुल नुकसान (1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि की तुलना में) चार से पांच गुना तक बढ़ सकता है। यानी डिग्री का एक-एक अंश भी बहुत मायने रखता है।

हिमालय के लिए इसका क्या अर्थ है? एयर कंडीशनर, गाड़ियों और जीवाश्म ईंधनों (fossil fuels) के इस्तेमाल के नतीजे में बढ़ता तापमान हिमनदों को तेज़ी से पिघला रहा है, अस्थिर झीलें बन रही हैं, और बादल फटने व अचानक होने वाली तेज़ बरसातों (extreme rainfall) को बढ़ावा मिल रहा है। विश्व मौसमविज्ञान संगठन (WMO) के अनुसार वाहनों से निकलने वाला धुआं और शहरों की गर्मी हिमालयी कस्बों में स्थानीय तापमान को बढ़ाते हैं, जिससे हिमनदों (ग्लोशियर) के पिघलने की रफ्तार और तेज़ होती है।

इसके साथ ही, विकास के नाम पर लगातार पेड़ों की कटाई ने उन प्राकृतिक सोख्ताओं (‘स्पंज’) को नष्ट कर दिया है जो कभी बारिश का पानी सोखकर मिट्टी को थामे रखते थे। अब जब जंगल, आर्द्रभूमि और उपजाऊ मिट्टी (soil erosion) नष्ट हो रही हैं, तो हर मानसूनी लहर पहाड़ों से तेज़ी से नीचे उतरती है और तबाही मचा देती है।

जलवायु परिवर्तन का तनाव बढ़ने के साथ हिमालय का पारिस्थितिक तंत्र अपना प्राकृतिक सुरक्षा कवच खो रहा है। आज बादल फटने की कोई भी घटना तुरंत विनाशकारी बाढ़ में बदल सकती है; तेज़ बारिश भूस्खलन को जन्म दे सकती है; यहां तक कि मामूली तूफान भी अब भारी तबाही ला सकते हैं।

मानव-जनित तबाही इन समस्याओं को और बढ़ा रही है। नाज़ुक ढलानों पर विस्फोट करके सड़कों का निर्माण, बिना जलवायु जोखिम आकलन के पनबिजली परियोजनाओं और अनियंत्रित पर्यटन ने पहाड़ों को बेहद असुरक्षित बना दिया है। हर निर्माण कार्य हिमालय की उस स्वाभाविक मज़बूती को कम करता है जिस पर वह हज़ारों सालों से टिका रहा है।

हिमाचल प्रदेश का बेकर गांव ऐसे ही एक तूफान में सिर्फ बह नहीं गया था बल्कि एक चेतावनी बन गया: अगर हम खोखले पहाड़ों को और खोखला करते रहेंगे, तो वे हमें बचा नहीं पाएंगे। हमारे पास दो ही विकल्प हैं: या तो हम इन पहाड़ों को विकास के बोझ से ढहा दें, या समझदारी से उनका सम्मान करते हुए पुनर्निर्माण करें।

तीन आवश्यक कदम

हिमालयी इलाकों और वहां के लोगों को बचाने के लिए तीन फौरी कदम उठाने की ज़रूरत है। ये केवल सैद्धांतिक नीतिगत सुझाव नहीं हैं। ये वास्तविक अनुभवों पर आधारित अनिवार्यताएं हैं जो हमने सालों तक इस भूमि पर रहकर और इसके तेज़ी से बिगड़ते हालात को देखकर समझी हैं।

1. ऊंचाई वाले इलाकों में विस्फोट और निर्माण पर सीमा लगाएं: नाज़ुक पर्वतीय क्षेत्रों में विकास कार्य जलवायु जोखिम और पारिस्थितिक मूल्यांकन (ecological assessment) की कसौटी पर खरे उतरने पर ही हाथ में लिए जाएं। अगर सड़कें, बांध या इमारतें पहाड़ों की स्थिरता को नुकसान पहुंचा रहे हैं, तो उन्हें दोबारा डिज़ाइन किया जाए या किसी सुरक्षित जगह पर स्थानांतरित किया जाए।

इसके लिए भारत सरकार और राज्य सरकारों को बिना किसी अपवाद के पर्यावरणीय कानूनों का सख्ती से पालन करना होगा। किसी भी ढलान को समतल करने या उसमें सुरंग बनाने का निर्णय लेते समय इंसानी और पर्यावरणीय सुरक्षा दोनों का ध्यान रखना अनिवार्य होना चाहिए।

2. प्राकृतिक अवरोधों की बहाली: हमें अपने प्राकृतिक सुरक्षा कवच को फिर से मज़बूत करना होगा। इसका मतलब है नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में फिर से जंगल लगाना (reforestation), आर्द्रभूमियों और ऊंचाई वाले घास के मैदानों (alpine meadows) की रक्षा करना, और मिट्टी को स्वस्थ बनाए रखना। ये प्राकृतिक तंत्र बारिश का पानी सोखते हैं, बाढ़ का प्रभाव कम करते हैं और पहाड़ों की ढलानों को थामते हैं; यह सुरक्षा व्यवस्था किसी भी कॉन्क्रीट की दीवार से ज़्यादा प्रभावी होती है।

हर पेड़ लगाना, हर घास के मैदान को बचाना, हमारे भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में एक कदम है। इसके लिए स्थानीय समुदायों और सरकार, दोनों को मिलकर काम करना होगा। स्थानीय लोग अपनी भूमि को सबसे अच्छी तरह जानते हैं, और सरकार को इन महत्वपूर्ण प्रयासों को आर्थिक और नीतिगत समर्थन देना चाहिए।

3. पनबिजली और ऊर्जा योजनाएं जलवायु के अनुरूप बनें: पनबिजली परियोजनाओं का आकलन केवल लाभ के आधार पर नहीं, बल्कि जलवायु सुरक्षा (climate resilience) के दृष्टिकोण से होना चाहिए — जैसे वे हिमनद झील फटने या बादल को कैसे प्रभावित करती हैं।

साथ ही, वाहन प्रदूषण को कम करना, अत्यधिक ऊर्जा खर्च करने वाली ठंडक प्रणालियों (energy efficiency) को नियंत्रित करना, और टिकाऊ ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना ज़रूरी है। इससे ग्लेशियरों का पिघलना धीमा होगा और अचानक भारी वर्षा की घटनाएं कम होंगी।

वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी वैसे तो पूरे विश्व समुदाय की है, लेकिन भारत को इसमें अग्रणी भूमिका निभानी होगी; खासकर हिमालय जैसे सबसे ऊंचे और नाज़ुक क्षेत्र में हरित ऊर्जा और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देकर।

अगर इन कदमों को न अपनाया गया, तो हिमालयी पर्वत जवानी (Himalayas conservation) में ही मर जाएंगे। लेकिन अगर हम आज से ही टिकाऊ बदलाव (sustainable change) को अपनाएं, तो ये पर्वत, यहां का वन्य जीवन और यहां के लोग आने वाली कई सदियों तक सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। आइए, हम सब मिलकर ऐसा हरित भविष्य बनाएं, जहां हर छोटा कदम और हर महत्वाकांक्षा प्रकृति के प्रति सम्मान पर आधारित हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://therevelator.org/wp-content/uploads/2025/11/james-chou-60tWv_X-avM-unsplash.jpg

रंग बदलते जीवाश्मों को खोजना आसान

डायनासौर के जितने जीवाश्म (dinosaur fossils) मिलें, कम हैं। जितनी अधिक संख्या में ये मिलेंगे, जैव वैकास (evolution research) के कुछ अनसुलझे रहस्य उतनी आसानी से सुलझेंगे। लेकिन दिक्कत यह है कि हर किसी को इनकी पहचान नहीं होती, इनकी पहचान के लिए नज़रों को पैना और पारखी होना पड़ता है। यदि नज़रें तेज़ हों तो भी पत्थरों और झाड़-झंखाड़ वाले विशाल भूभाग में बिखरे इन जीवाश्मों को खोजना मुश्किल होता है।

लेकिन करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हालिया अध्ययन से ऐसा लगता है कि अब यह मुश्किल दूर होने वाली है। जीवाश्मों को खोज निकालने में वैज्ञानिकों का साथ देने वाले हैं चटख रंग के लाइकेन (lichen detection technology) (फफूंद और शैवाल के संगम से बने जीव)।

हाल ही में, कनाडा के डायनासौर प्रोविन्शियल पार्क (Dinosaur Provincial Park) में शोधकर्ताओं ने चटख नारंगी रंग की ऐसी लाइकेन की पहचान की है जो डायनासौर की हड्डियों पर फलती-फूलती हैं, जबकि उसके आसपास के पत्थरों और चट्टानों को अपेक्षाकृत अछूता छोड़ देती हैं। इससे जीवाश्म को पहचानना आसान हो सकता है।

ऐसा शायद इसलिए होता है क्योंकि खासकर क्रेटेशियस काल (Cretaceous period fossils) की अश्मीभूत हड्डियों की क्षारीय, कैल्शियम युक्त और छिद्रमय संरचना कनाडाई बैडलैंड्स जैसे अर्ध-शुष्क वातावरण में लाइकेन को पनपने के लिए माकूल परिस्थिति देती है।

वैसे तो लाइकेन कई तरह के जीवाश्मों पर फल-फूल कर उन्हें चटख रंगों से रंग सकती है, लेकिन यह शाकाहारी ऑर्निथिशियन डायनासौर (ornithischian dinosaurs) की बड़ी हड्डियों को सबसे अधिक उजागर करती हैं। और इन डायनासौर के जीवाश्म इस पार्क में बहुतायत में पाए जाते हैं। उम्मीद है, अब लाइकेन से ढंके जीवाश्मों को विशेष सेंसर से लैस ड्रोन (drone fossil mapping) की मदद से पहचाना जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/content/article/organism-turns-dino-bones-orange-making-them-easier-spot

सांप के ज़हर से बचाएगा ऊंट-परिवार का एंटीवेनम

र साल ज़हरीले सांपों (snake bite deaths) के काटने से एक लाख से अधिक लोगों की मौत हो जाती है, और कई लाख लोग अपंग हो जाते हैं। WHO ने इसे एक ‘उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी’ (neglected tropical disease) कहा है। इससे सबसे अधिक प्रभावित गरीब और ग्रामीण इलाकों के लोग होते हैं, जहां सही इलाज की सुविधा नहीं होती। और मौजूदा एंटीवेनम (antivenom treatment) की प्रभाविता की सीमा आ चुकी है।

गौरतलब है कि पारंपरिक एंटीवेनम दवाएं घोड़ों या भेड़ों जैसे जीवों को थोड़ी मात्रा में सांप का ज़हर देकर तैयार की जाती हैं। इन जीवों के शरीर में ज़हर के खिलाफ बनी एंटीबॉडी (antibody therapy) का उपयोग इंसानों के इलाज में किया जाता है। लेकिन यह प्रक्रिया महंगी है और हर बार एक जैसी गुणवत्ता भी नहीं मिलती। हर बैच में कुछ एंटीबॉडी असरदार होती हैं, कुछ नहीं। इसलिए एक ही मरीज़ को ठीक करने के लिए कई खुराकें देनी पड़ती हैं। इसके अलावा, घोड़े से बनी एंटीबॉडी कई बार गंभीर एलर्जिक रिएक्शन (allergic reaction risk) पैदा कर देती हैं, जो कभी-कभी जानलेवा भी हो सकती है। इस डर से कई डॉक्टर दवा देने में झिझकते हैं।

बेहतर इलाज (effective snakebite cure) की तलाश में, डेनमार्क की टेक्निकल युनिवर्सिटी (Technical University of Denmark) के एंड्रियास लाउस्टसेन-कील और उनकी टीम ने लामा व अलपाका जीवों की ओर रुख किया। ये जीव बहुत छोटी और सरल एंटीबॉडी बनाते हैं, जिन्हें नैनोबॉडीज़ (nanobodies research) कहा जाता है। ये नैनोबॉडीज़ ज़हरीले तत्वों को बहुत सटीकता से पकड़ लेती हैं।

टीम ने अफ्रीका की 18 अलग-अलग सांप प्रजातियों (snake venom species)  (जैसे कोबरा, माम्बा और रिंकहॉल) के ज़हर को लामा और अलपाका में इंजेक्ट किया ताकि वे नैनोबॉडीज़ बना सकें। इसके बाद, उन्होंने इन नैनोबॉडीज़ के डीएनए को ई.कोली बैक्टीरिया (E. coli bacteria) के जीनोम में जोड़ा, जिससे ये सूक्ष्मजीव प्रयोगशाला में नैनोबॉडीज़ बनाने की ‘फैक्टरी’ बन गए।

हज़ारों नमूनों की जांच के बाद, वैज्ञानिकों ने आठ ऐसी नैनोबॉडीज़ चुनीं जो ज़हर को निष्क्रिय करने में सबसे प्रभावी थीं। जब चूहों को जानलेवा मात्रा में सांप का ज़हर देने के बाद ये नैनोबॉडीज़ दी गईं, तो वे लगभग सभी सांपों (सिवाय ईस्टर्न ग्रीन माम्बा) के ज़हर से बच गए।

मौजूदा प्रमुख एंटीवेनम Inoserp PAN-AFRICA की तुलना में, इस नए मिश्रण (new antivenom formula) ने ज़्यादा चूहों की जान बचाई और ऊतकों को कम नुकसान पहुंचाया। वैज्ञानिकों का मानना है कि बहुत छोटी होने के कारण ये नैनोबॉडीज़ शरीर के अंदर गहराई तक पहुंचकर ज़हर के फैलाव को अधिक प्रभावी ढंग से रोक सकती हैं।

इस तकनीक (biotech innovation) से लागत भी काफी कम हो सकती है। घोड़ों या भेड़ों की अपेक्षा बैक्टीरिया की मदद से नैनोबॉडीज़ तैयार करना सस्ता (low-cost biotech production) है। और यदि यह कम मात्रा में ज़्यादा कारगर हो, तो यह किफायती और ज़्यादा लोगों तक पहुंचने योग्य बन सकता है। एक और बड़ी बात यह है कि इसमें एलर्जी या सेप्टिक शॉक का खतरा बहुत कम है।

वैज्ञानिक अब कुछ और सांपों के ज़हर शामिल करके फार्मूले को और बेहतर बनाने में लगे हैं। अगर यह प्रयास सफल रहा, तो यह खोज अफ्रीका, एशिया और अन्य देशों में सांप के काटने के इलाज (global snakebite treatment)  को पूरी तरह बदल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zw5mng9/abs/_20251030_nid_snake_antivenom.jpg

डीएनए संरचना के सूत्रधार वॉटसन नहीं रहे 

जेम्स वॉटसन
(1928-2025)

शहूर वैज्ञानिक जेम्स वॉटसन (James D. Watson)का निधन 6 नवंबर के दिन 97 साल की उम्र में हो गया। उन्होंने 1953 में फ्रांसिस क्रिक के साथ मिलकर डीऑक्सी रायबोन्यूक्लिक एसिड (डीएनए – DNA) की दोहरी कुंडली संरचना (double helix structure) का खुलासा किया था। इस कार्य के लिए उन्हें 1962 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यह खोज जीव विज्ञान (molecular biology discovery) के क्षेत्र में निहायत महत्वपूर्ण साबित हुई थी और इसने कई अनुसंधान क्षेत्रों के बढ़ावा दिया था।

डीएनए की संरचना (DNA structure) के खुलासे के बाद वैज्ञानिकों के लिए यह समझने का रास्ता खुल गया कि आनुवंशिकता का आणविक आधार क्या है और कोशिकाओं में प्रोटीन का संश्लेषण (protein synthesis) कैसे होता है। इसी समझ के दम पर मानव जीनोम की पूरी क्षार शृंखला का अनुक्रमण (Human Genome Project) करने का मानव जीनोम प्रोजेक्ट शुरू हुआ था। डीएनए संरचना की इस समझ के बगैर शायद कई सारे अनुप्रयोग (genetic research applications) संभव न हो पाते। दिलचस्प बात है कि जब डीएनए संरचना सम्बंधी वॉटसन और क्रिक का शोध पत्र नेचर (Nature journal) में प्रकाशित हुआ था, उस समय वॉटसन मात्र 25 वर्ष के थे।

वैसे वॉटसन और क्रिक द्वारा की गई खोज एक अन्य वैज्ञानिक रोज़लिंड फ्रैंकलिन (Rosalind Franklin) और मॉरिस विल्किंस (Maurice Wilkins) के महत्वपूर्ण योगदान को पूरी तरह नकारने के कारण थोड़ा विवादों से भी घिर गई थी। वैसे भी कहते हैं कि वॉटसन बहुत बड़बोले थे और महिलाओं की क्षमताओं (women in science) के लेकर काफी नकारात्मक विचार रखते थे। 

बहरहाल, अपने इस बुनियादी योगदान के बाद वॉटसन ने कई नस्लभेदवादी वक्तव्य (racist remarks controversy) दिए जिनके चलते जीव वैज्ञानिकों के बीच वे काफी बदनाम भी हुए। जैसे, 2001 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) (University of California Berkeley) में एक व्याख्यान में उन्होंने त्वचा के रंग और यौनेच्छा का सम्बंध जोड़ा था और कहा था कि दुबले लोग ज़्यादा महत्वाकांक्षी होते हैं। इसी तरह 2007 में उन्होंने दावा किया था कि अश्वेत लोग श्वेत लोगों की तुलना में कम बुद्धिमान (intelligence and race debate) होते हैं। उन्होंने यहूदी विरोध (एंटी-सेमिटिज़्म – anti-Semitism) को भी जायज़ ठहराया था। इन विचारों के चलते उन्हें कोल्ड स्प्रिंग हार्बर लेबोरेटरी (Cold Spring Harbor Laboratory) के नेतृत्व की भूमिका से हटा दिया गया था। अंतत: 2020 में संस्था ने उनसे पूरी तरह नाता तोड़ लिया था।

विज्ञान जगत (scientific community) इस निहायत निपुण वैज्ञानिक और उसकी विवादास्पद सामाजिक विरासत (controversial legacy) को समझने की कोशिश करता रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/8/8b/James_D_Watson.jpg