अनावश्यक गर्भाशय निकालने के विरुद्ध अभियान ज़रूरी

भारत डोगरा

दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) ने अपने एक निर्णय में निर्देश दिए थे कि बिना चिकित्सीय आवश्यकता के गर्भाशय हटा देने का ऑपरेशन (हिस्टरेक्टोमी – hysterectomy surgery) करने की हानिकारक प्रवृत्ति को रोकना चाहिए एवं इसकी रोकथाम के लिए केंद्र, राज्य, ज़िला एवं क्षेत्रीय स्तर पर व्यवस्था स्थापित की जानी चाहिए।

चिकित्सा विज्ञान (medical science) में यह मान्य है कि कुछ गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के चलते गर्भाशय को ऑपरेशन कर हटाया जा सकता है। परंतु यदि ये स्वास्थ्य समस्याएं दवाइयों या अन्य इलाज से ठीक हो जाएं तो बेहतर है, क्योंकि गर्भाशय हटा देने से कई अन्य स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं। अत: गर्भाशय हटाने का ऑपरेशन अंतिम विकल्प (last resort) होना चाहिए।

दूसरी ओर, हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि चिकित्सीय आवश्यकता न होने पर भी गर्भाशय हटाने के ऑपरेशन (uterus removal surgery) किए जा रहे हैं। कई बार ऐसे ऑपरेशन अतिरिक्त धन अर्जन या मुनाफे के लिए किए जाते हैं। यह भी देखा गया कि कुछ बीमा योजनाओं (health insurance schemes) के अंतर्गत ऐसे बहुत से ऑपरेशन कर दिए गए जिनकी चिकित्सीय आवश्यकता नहीं थी।

वर्ष 2010 के आसपास ऐसी प्रवृत्तियां अनेक स्थानों पर दिखाई दीं। इसमें दौसा (राजस्थान) में बड़े स्तर पर होने वाले ऐसे ऑपरेशनों पर गहरी चिंता व्यक्त की गई थी। ऐसी शिकायतों की जांच की गई व इसके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श (national discussion) भी हुआ। इसी दौरान डॉ. नरेन्द्र गुप्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में अनावश्यक गर्भाशय हटाने के ऑपरेशनों की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाने की अपील (public interest litigation) की।

इस अपील का दायरा वैसे तो राष्ट्रीय स्तर का था, किंतु इसमें राजस्थान, बिहार व छत्तीसगढ़ राज्यों का उल्लेख विशेष तौर पर था। अत: सुप्रीम कोर्ट ने इन राज्यों को नोटिस (legal notice) जारी किए तथा वहां के अधिकारियों ने जांच आरंभ की। इस जांच के आधार पर बिहार की सरकार ने पाया कि इस तरह की हानिकारक प्रवृत्ति अनेक स्थानों पर मौजूद है। वर्ष 2022 में स्वास्थ्य मंत्रालय (Ministry of Health) ने इस सम्बंध में दिशानिर्देश जारी किए ताकि इस चिंताजनक प्रवृत्ति पर रोक लग सके।

वर्ष 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने इन दिशानिर्देशों को और स्पष्ट रूप से अपने आदेश (court order) में जारी किया। दुर्भाग्यवश, इसके बाद भी इन दिशानिर्देशों को सही भावना में कार्यान्वित नहीं किया जा सका है। उचित क्रियान्वयन के अभाव में आज भी अनावश्यक रूप से गर्भाशय हटाने के गंभीर समाचार मिल रहे हैं।

इस सिलसिले में महाराष्ट्र से गन्ने की कटाई में लगी महिला मज़दूरों (female laborers) के गर्भाशय हटाने का ऑपरेशन किए जाने के जो समाचार मिले हैं, वे विशेष तौर पर चिंताजनक हैं।

अब समय आ गया है कि इस गंभीर विषय (serious issue) पर अधिक सक्रियता दिखाई जाए व इस समस्या को कम करने के जो दिशानिर्देश पहले ही जारी हो चुके हैं, उन्हें कारगर ढंग से लागू किया जाए।

इस समस्या का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि अनुचित ढंग के गर्भाशय निकालने के ऑपरेशन (unnecessary hysterectomy) अधिकतम निर्धन व कम शिक्षित महिलाओं (poor and uneducated women) के हो रहे हैं। उनकी कम जानकारी (lack of awareness) का लाभ उठाकर या उन्हें गलत जानकारी देते हुए यह ऑपरेशन कर दिया जाता है। फिर वर्षों तक महिलाएं इससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं (health complications) को झेलती रहती हैं। मेहनतकश महिलाओं (working women) को दैनिक जीवन में वैसे भी स्वास्थ्य समस्याएं अधिक होती हैं, गर्भाशय हटाए जाने से ये और बढ़ जाती हैं।

अनावश्यक गर्भाशय हटाने के ऑपरेशन को रोकना महिला स्वास्थ्य (women’s health) के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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होर्मुज़ जलडमरूमध्य का महत्त्व

डॉ. इरफ़ान ह्यूमन

होर्मुज़ जलडमरूमध्य (जलसंधि) (Strait of Hormuz) हाल के दिनों में चर्चा में है क्योंकि यह वैश्विक तेल व्यापार (global oil trade) का एक महत्वपूर्ण मार्ग है, जिससे दुनिया का लगभग 20-25 प्रतिशत तेल और एक तिहाई एलएनजी (Liquified Natural Gas) आपूर्ति होकर गुज़रती है। यह फारस की खाड़ी और ओमान की खाड़ी को जोड़ता है।

हाल के भू-राजनीतिक तनावों (geopolitical tensions), खासकर ईरान और इस्राइल-अमेरिका (Iran-Israel–US) के बीच बढ़ते संघर्ष के कारण, इस जलडमरूमध्य की रणनीतिक स्थिति ने इसे सुर्खियों में ला दिया है। बीते दिनों अमेरिका और इस्राइल द्वारा ईरान के परमाणु ठिकानों (nuclear sites) पर हवाई हमले किए गए, जिसके जवाब में ईरान ने होर्मुज़ जलडमरूमध्य को बंद करने की धमकी दी है, जिससे वैश्विक तेल आपूर्ति(global oil supply) पर संकट मंडरा सकता है। इस बीच होर्मुज़ जलडमरूमध्य में एक बड़ा तेल टैंकर (oil tanker) जलने की घटना सामने आई है, जिसने अफरा-तफरी मचा दी है। अमेरिका और इस्राइल के बीच हुए युद्धविराम के बावजूद, इस क्षेत्र में तनाव बना हुआ है जिससे जलडमरूमध्य और पर्यावरण सुरक्षा को लेकर अनिश्चितता बढ़ी है।

भौगोलिक स्थिति और संरचना

होर्मुज़ जलडमरूमध्य ईरान के दक्षिणी तट और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) व ओमान के उत्तरी तटों के बीच स्थित है। इसकी चौड़ाई सबसे संकीर्ण स्थान पर लगभग 33 किलोमीटर है, और गहराई 30 से 90 मीटर तक है। यह गहराई बड़े तेल टैंकरों (super tankers) के लिए पर्याप्त है, जिससे यह व्यापारिक मार्ग (shipping route) के रूप में महत्वपूर्ण है। हालांकि यह जलडमरूमध्य ऊबड़-खाबड़ है। इसमें कई स्थानों पर चट्टानें और उथले क्षेत्र हैं, जो नौवहन (marine navigation) को दुष्कर बनाते हैं।

यह क्षेत्र पेट्रोलियम (petroleum reserves) और प्राकृतिक गैस (natural gas reserves) के भंडारों से भरपूर है। समुद्र तल की भूगर्भीय परतों में हाइड्रोकार्बन (hydrocarbons) भंडार मौजूद हैं।

होर्मुज़ का जलविज्ञान

होर्मुज़ जलडमरूमध्य की उच्च लवणीयता (high salinity) इसके जल प्रवाह (water circulation) और घनत्व को प्रभावित करती है, जो समुद्री धाराओं और नौवहन के लिए महत्वपूर्ण हैं।

यहां ज्वार-भाटा का असर कम रहता है, लेकिन तेज़ धाराएं नौवहन को प्रभावित कर सकती हैं। यहां का ज्वार प्रतिदिन दो बार चढ़ता है, जिससे जहाज़ों की आवाजाही और समुद्री जीवन प्रभावित होता है। ज्वार की ऊंचाई आम तौर पर 1-2 मीटर होती है।

फारस की खाड़ी से ओमान की खाड़ी की ओर एक सतही धारा बहती है, जो खाड़ी के गर्म और खारे पानी को बाहर ले जाती है। इसके विपरीत, गहराई पर ठंडा और कम खारा पानी ओमान की खाड़ी से फारस की खाड़ी की ओर बहता है।

इसकी लवणीयता की बात करें तो होर्मुज़ जलडमरूमध्य में सतही पानी की लवणीयता सामान्यत: 40-42 पीपीटी के बीच रहती है, जो समुद्री जीवन को चुनौतीपूर्ण बना देता है। पीपीटी लवणीयता नापने की एक इकाई है जो लगभग ग्राम प्रति लीटर के बराबर होती है। यह क्षेत्र ‘अतिलवणीय’ क्षेत्र कहलाता है। यह समुद्र की औसत लवणीयता (लगभग 35 पीपीटी) से काफी अधिक है। इसका कारण फारस की खाड़ी में उच्च वाष्पीकरण दर और (नदियों आदि से) कम मीठे पानी की आपूर्ति है। वहीं, गहरे पानी में लवणीयता थोड़ी कम हो सकती है (लगभग 38-39 पीपीटी), क्योंकि यहां ठंडा और कम खारा पानी ओमान की खाड़ी से प्रवेश करता है। साथ ही, जलडमरूमध्य के बाहर, ओमान की खाड़ी और अरब सागर की ओर जाने पर लवणीयता कम होकर लगभग 36 पीपीटी तक पहुंच जाती है, क्योंकि यह क्षेत्र खुले समुद्र से जुड़ा है और यहां वाष्पीकरण का प्रभाव कम होता है।

लवणीयता को प्रभावित करने वाले कारकों की बात करें तो इसमें पहला है उच्च वाष्पीकरण। होर्मुज़ जलडमरूमध्य और फारस की खाड़ी में गर्म और शुष्क जलवायु के कारण वाष्पीकरण की दर बहुत अधिक है। इस क्षेत्र में वर्षा नगण्य होती है, जिससे पानी में लवण की सांद्रता बढ़ती है। इसका दूसरा कारक है कम मीठा पानी। फारस की खाड़ी में दजला और फरात के संगम से बनी शट्ट-अल-अरब जैसी कुछ नदियां ही मीठा पानी लाती हैं, लेकिन यह लवणीयता को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

पर्यावरण और पारिस्थितिकी

उच्च लवणीयता वाले होर्मुज़ जलडमरूमध्य में मूंगा चट्टानें (coral reefs), मछलियां (marine fish) और अन्य समुद्री जीव (डॉल्फिन, समुद्री कछुए) और प्लवक पाए जाते हैं। उच्च लवणीयता और गर्म पानी के लिए अनुकूलित प्रजातियां ही यहां जीवित रह पाती हैं। लेकिन प्रदूषण और भारी नौवहन से इन जीवों पर असर पड़ रहा है।

होर्मुज़ जलडमरूमध्य में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण तेल रिसाव है। होर्मुज़ जलडमरूमध्य दुनिया के सबसे व्यस्त तेल शिपिंग मार्गों में से एक है, जहां से प्रतिदिन लाखों बैरल तेल गुज़रता है। टैंकरों में आग या तेल रिसाव जैसी घटनाएं समुद्री पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं। तेल प्रदूषण मूंगा चट्टानों, मछलियों और अन्य समुद्री जीवों के लिए घातक है।

यहां की मौसमी हवाएं भी नौवहन को प्रभावित करती हैं, जिससे तेल रिसाव का जोखिम बढ़ जाता है, दूसरी चुनौती है औद्योगिक अपशिष्ट। फारस की खाड़ी के आसपास के देशों से औद्योगिक (industrial waste) और नगरीय अपशिष्ट जलडमरूमध्य में आते हैं, जिससे पानी की गुणवत्ता बिगड़ती है। साथ ही प्लास्टिक (plastic pollution) और माइक्रोप्लास्टिक (micro plastic) भी एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या है। समुद्री कचरे, विशेष रूप से प्लास्टिक, का बढ़ता स्तर जलडमरूमध्य के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रहा है।

जलवायु और मौसम का प्रभाव

होर्मुज़ जलडमरूमध्य का पर्यावरण जलवायु और मौसमी कारकों से भी प्रभावित होता है। जलवायु परिवर्तन (climate change)  के कारण जलडमरूमध्य के सतही पानी का तापमान (sea surface temperature) बढ़ रहा है, जो समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है। चूंकि मूंगे उच्च तापमान सहन नहीं कर पाते इसलिए गर्म पानी मूंगा चट्टानों को नुकसान पहुंचा रहा है। गर्मी के प्रति संवेदनशील मछलियां और अन्य जीव या तो मर रहे हैं या क्षेत्र छोड़ रहे हैं, जिससे मछली पालन प्रभावित हो रहा है।

उच्च वाष्पीकरण के अलावा यहां की शमाल (उत्तर-पश्चिमी) हवाएं और धूल भरी आंधियां पानी की सतह पर धूल की परत जमा देती हैं, जो सूर्य प्रकाश को अवरुद्ध कर प्लवक की वृद्धि को प्रभावित करती हैं।

मानवीय गतिविधियों का प्रभाव भी यहां के पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है। भारी तेल टैंकर और जहाज़ों की आवाजाही से समुद्री ध्वनि प्रदूषण (underwater noise pollution) बढ़ रहा है, जो डॉल्फिन (dolphins) और व्हेल (whales) जैसी प्रजातियों के लिए हानिकारक है। भू-राजनीतिक तनावों के कारण सैन्य अभ्यास और जहाज़ों की मौजूदगी भी पर्यावरण पर दबाव डालती है। फारस की खाड़ी के देशों में डीसेलिनेशन संयंत्रों से निकलने वाला अति-खारा पानी जलडमरूमध्य में छोड़ा जाता है, जो लवणीयता को और बढ़ाता है और पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित करता है।

जलवायु परिवर्तन से दीर्घकालिक जोखिम के चलते समुद्र जलस्तर बढ़ रहा है, जो जलडमरूमध्य के तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों, जैसे मैंग्रोव और दलदली क्षेत्रों, को खतरे में डाल सकता है।

वैसे यहां पर्यावरण संरक्षण के प्रयास भी चल रहे हैं। कुछ तटीय क्षेत्रों में समुद्री संरक्षण क्षेत्र स्थापित किए गए हैं, लेकिन जलडमरूमध्य का अधिकांश हिस्सा इन क्षेत्रों से बाहर है। तेल रिसाव और प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए क्षेत्रीय संगठन काम कर रहे हैं लेकिन इनका प्रभाव सीमित है। वहीं भू-राजनीतिक तनाव और आर्थिक हित पर्यावरण संरक्षण को मुश्किल बनाते हैं।

उपग्रह विज्ञान और निगरानी

इस क्षेत्र में समुद्री गतिविधियों की निगरानी (maritime monitoring) जीआईएस (GIS – Geographic Information System) और रिमोट सेंसिंग तकनीकों के माध्यम से की जाती है। रिमोट सेंसिंग (remote sensing) डैटा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को ट्रैक करने में मदद करता है। समुद्री रास्तों की सुरक्षा और जलवायु अध्ययन के लिए भी उपग्रह डैटा उपयोगी होता है। ये कृत्रिम उपग्रह मल्टी-स्पेक्ट्रल सेंसर का उपयोग करके पानी की गर्मी और लवणीयता में बदलाव का विश्लेषण करते हैं। वहीं, सेंटिनल-1 (Sentinel-1) और सेंटिनल-2 (Sentinel-2) जैसे उपग्रह तेल रिसाव पर नज़र रखते हैं और रिसाव के दायरे और प्रभाव का आकलन करते हैं।

उपग्रह डैटा (satellite data)  से प्लवक घनत्व (plankton density) और पानी में क्लोरोफिल स्तर (chlorophyll level) की निगरानी भी होती है, जो प्रदूषण और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत का संकेतक है। इसके अलावा, धूल भरी आंधियों, नौवहन जोखिम, अवैध गतिविधियों, भू-राजनीतिक और सुरक्षा निगरानी के लिए उपग्रह डैटा का उपयोग करके पर्यावरण का अध्ययन किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मछुआरा बिल्ली की खोज में

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारत में जगंली (wild) बिल्ली परिवार (wild cat family) की 15 प्रजातियां पाई जाती हैं। लेकिन ज़्यादा ध्यान अमूमन बड़ी बिल्ली प्रजातियों जैसे शेर, बाघ पर दिया जाता है। लोगों को छोटी जंगली बिल्लियों, जैसे स्याहगोश (कैरकाल, caracal), रोहित-द्वीपी बिल्ली (rusty spotted cat), मछुआरा बिल्ली (fishing cat) आदि के बारे में ज़्यादा मालूमात नहीं है। ये छोटी और गुमनाम बिल्लियां भी उचित पहचान की हकदार हैं, क्योंकि ये अपने से कहीं ज़्यादा बड़े और बढ़ते खतरों से भरी दुनिया में विचरण कर रही हैं।

भारत की आर्द्रभूमियां (wetlands) मछुआरा बिल्लियों (Prionailurus viverrinus) के घर हैं। देश में इनके कई नाम हैं: बनबिरल, खुप्या बाघ, माचा बाघा वगैरह। यह पश्चिम बंगाल की राज्य पशु है और इसे बघरोल या मेचो बिराल कहा जाता है।

ये बिल्लियां आकार में घरेलू बिल्ली (domestic cat) से दुगनी होती हैं, वज़न 7 से 12 किलोग्राम होता है, और इनके भूरे-भूरे रंग के बालों पर काले चित्ते (black spots) होते हैं। अपने अधिकार-क्षेत्र (इलाके) में यह बिल्ली अक्सर शीर्ष शिकारी (apex predator) होती है, यानी कोई अन्य प्राणी इनका शिकार नहीं करता। आर्द्रभूमियां जीवंत पारिस्थितिक तंत्र होती हैं, नदी के बाढ़ क्षेत्र या मैंग्रोव (mangroves) और दलदल (swamps) जहां ये पाई जाती है।

मछुआरा बिल्ली में हुए कुछ असामान्य अनुकूलन (adaptations) उन्हें नम परिवेश में जीवित रहने में सक्षम बनाते हैं। आंशिक रूप से जालीदार पंजे (webbed paws), घना जलरोधी आवरण (फर – waterproof fur) और पानी में पूरी तरह डूबे होने पर भी तैरने की क्षमता इसकी जलीय प्रवृत्ति बताती है। उभरे हुए पंजे, जिन्हें पूरी तरह से अंदर नहीं खींचा जा सकता, बिल्ली को फिसलन भरी मिट्टी (slippery mud) में पकड़ बनाने और मछलियों को पकड़ने में मदद करते हैं। बिल्लियों का आहार मुख्य रूप से मछली है, हालांकि कृंतक (rodents), मुर्गियां (chickens) और अन्य छोटे जानवर खाने से भी ये परहेज़ नहीं करती हैं।

शिकार (hunting) की फिराक में मछुआरा बिल्ली का आधा समय जलस्रोत (water source) के किनारे खड़े, बैठे या दुबके हुए बीतता है। इसके शिकार करने का बमुश्किल 5 प्रतिशत समय ही पानी के अंदर बीतता है। उथले पानी में बिल्ली धीरे-धीरे चलती रहती है, अपने पंजों से मछली को उचकाती है और फिर उसे मुंह से पकड़ लेती है।

मछुआरा बिल्लियों को फैलाव (distribution) काफी बिखरा हुआ है: हिमालय का तराई क्षेत्र (Terai region), पश्चिमी भारत के कुछ दलदली क्षेत्र (marshes), सुंदरवन (Sundarbans), पूर्वी तट (east coast) और श्रीलंका (Sri Lanka)।

इन निशाचर (nocturnal), छुपी रुस्तम (elusive) बिल्ली की बिखरी हुई आबादी पर नज़र रखने के लिए वन्यजीव सर्वेक्षणकर्ता जलस्रोतों के नज़दीक कैमरा ट्रैप लगाते हैं। फिशिंग कैट प्रोजेक्ट (Fishing Cat Project) की तियासा आद्या और उनके सहयोगियों के एक नेटवर्क (fishingcat.org) द्वारा चिल्का झील (Chilika Lake) में विस्तृत गिनती की गई है, जहां मछलियां बहुतायत में हैं और मनुष्यों के साथ उनका टकराव सीमित है। उनके परिणामों का विस्तार करने पर ऐसा अनुमान है कि मछुआरा बिल्लियों की संख्या झील के 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में करीबन 750 है।

यह आशाजनक संख्या सुंदरबन में बिल्लियों की तेज़ी से घटती संख्या के विपरीत है। इस साल की शुरुआत में केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (भरतपुर) (Keoladeo National Park, Bharatpur) में मछुआरा बिल्ली देखी गई है, इसके दिखने के पहले तक ऐसा माना जाता था कि मछुआरा बिल्लियां राजस्थान (Rajasthan) में विलुप्त हो चुकी हैं।

यह गिरावट मुख्यत: उनके प्राकृतवास (habitat) में कमी के कारण है। ऐसा अनुमान है कि पिछले चार दशकों में भारत की 30-40 प्रतिशत आर्द्रभूमियां खत्म हो गई हैं या बहुत अधिक सिमट गई हैं। इसलिए, आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना मछुआरा बिल्लियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। मनुष्यों के अतिक्रमण (human encroachment) ने भी मछुआरा बिल्लियों और उनके प्राकृतवास को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। कई लोग उन्हें मछलियों और मुर्गियों के शिकारी के रूप में देखते हैं, नतीजतन मनुष्य अपने पालतुओं के शिकार का बदला इन्हें मारकर लेते हैं। मनुष्यों द्वारा बदले की भावना से की गई हत्याओं (retaliatory killings) की एक बड़ी संख्या दर्ज है। समुदाय-आधारित संरक्षण (community-based conservation) कार्यक्रम इस शत्रुभाव को कम करने में मुख्य भूमिका निभा सकते हैं।

इस वर्ष, देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India) ने आंध्र प्रदेश में कोरिंगा वन्यजीव अभयारण्य (Coringa Wildlife Sanctuary) में गोदावरी नदी के मुहाने (Godavari river delta) पर मछुआरा बिल्लियों की निगरानी के लिए एक परियोजना शुरू की है। बिल्लियों में जीआईएस तकनीक (GIS technology) से लैस जीपीएस कॉलर (GPS collar) लगाकर उनका स्थान सम्बंधी सटीक डैटा एकत्र किया जाएगा। कॉलर से प्राप्त सतत डैटा उनके पसंदीदा आवासों, उनकी गतिविधियों और मानव बस्तियों के संपर्क में आने के स्थानों के बारे में जानकारी देगा। ये सभी जानकारियां मछुआरा बिल्लियों की के संरक्षण व आबादी बढ़ाने की रणनीतियां बनाने में उपयोगी होंगी। (स्रोत फीचर्स)

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निसार सैटेलाइट से धरती की हर हलचल पर नज़र

हाल ही में भारत स्थित श्रीहरिकोटा से निसार (NISAR – NASA–ISRO Synthetic Aperture Radar) उपग्रह का प्रक्षेपण (satellite launch) हुआ है। यह उपग्रह वैज्ञानिकों को पृथ्वी की बदलती सतह की बेहद सटीक (1 सेंटीमीटर की सूक्ष्मता तक) तस्वीर दे सकता है। 1.2 अरब डॉलर की लागत वाला यह नासा (NASA) और इसरो (ISRO) का अब तक का सबसे बड़ा संयुक्त मिशन (joint mission) है, जिसका उद्देश्य ग्रह की निगरानी (planet monitoring) के तरीकों में क्रांतिकारी बदलाव लाना है।

सफलतापूर्क स्थापित हो जाने के बाद, अगले 90 दिनों में, निसार अपनी 12 मीटर चौड़ी रडार एंटेना (radar antenna) फैलाकर पृथ्वी पर सिग्नल (signal transmission) भेजना शुरू कर देगा। यह हर 12 दिन में लगभग पूरी पृथ्वी को दो बार स्कैन (earth scan) करेगा। और चाहे बादल हों या अंधेरा, किसी भी परिस्थिति में यह ज़मीन व बर्फ में होने वाले सभी बदलावों को दर्ज करेगा।

निसार में दो रडार सिस्टम (radar systems) हैं — एक नासा का और एक इसरो का — जो अलग-अलग तरंगदैर्घ्य पर काम करते हैं। ये दुनिया भर में मिट्टी की नमी, जंगलों में पेड़ों की संख्या (forest mapping), ग्लेशियरों की गति (glacier movement) और अन्य पर्यावरणीय बदलावों (environmental changes) पर नज़र रखेंगे।

इसके अलावा, निसार तेज़ निगरानी आपदा प्रबंधन में भी बड़ा बदलाव ला सकता है। यह भूकंप के बाद (earthquake monitoring) ज़मीन में आए बदलाव, भूस्खलन की आशंका वाले ढलानों (landslide detection) और बाढ़ग्रस्त (flood-affected areas) इलाकों का लगभग वास्तविक समय (real-time monitoring) में पता लगा सकता है। ऐसे समय पर मिले ये आंकड़े राहत दलों (rescue teams) को प्राथमिकता तय करने और तेज़ी से कार्रवाई करने में मदद करेंगे, जिससे जानें बचाई जा सकती है।

हालांकि वर्ष 2026 से अमेरिकी सरकार नासा के पृथ्वी विज्ञान बजट (Earth science budget) में 50 फीसदी से अधिक कटौती कर सकती है। इससे कई बड़े मिशन (space missions) रद्द हो सकते हैं और वर्तमान परियोजनाएं बंद हो सकती हैं। फिलहाल निसार को फंडिंग मिली हुई है। लेकिन भविष्य में फंडिग की अनिश्चितता का साया तो डोल ही रहा है। इतनी बड़ी कटौतियां पृथ्वी में हो रहे बदलावों (climate and earth changes) को समझने की क्षमता को कमज़ोर कर सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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अमेज़ॉन के जंगलों में बढ़ता पारा प्रदूषण

सुदर्शन सोलंकी

मेज़ॉन के जंगल (Amazon rainforest) 1.7 अरब एकड़ में फैले सर्वाधिक जैव विविधता (biodiversity) वाले उष्णकटिबंधीय वर्षावन (tropical rainforest) हैं। अमेज़ॉन क्षेत्र में नौ देशों के क्षेत्र शामिल हैं, ब्राज़ील (60 प्रतिशत), पेरू (13 प्रतिशत), कोलंबिया (10 प्रतिशत) और वेनेज़ुएला, इक्वाडोर, बोलीविया (6 प्रतिशत), गुयाना, सूरीनाम और फ्रेंच गुयाना के हिस्से हैं।

पेरू के अमेज़ॉन में नदी में खुदाई करके सोने का खनन (gold mining) होता है। खनिक सोनायुक्त तलछट में पारा (mercury) मिलाते हैं, जो सोने के साथ अमलगम (amalgam) बना लेता है। अमलगम को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है; पारा वाष्पित हो जाता है और सोना शेष बच जाता है। इस तरह वाष्पीकृत पारा अमेज़ॉन में पारा प्रदूषण (mercury pollution) का मुख्य कारण है।

2011 में, मात्र सोने के खनन के लिए लगभग 1400 टन पारे का उपयोग किया गया था, जो पारे की वैश्विक खपत का 24 प्रतिशत है। अधिकांश पारे का पुनर्चक्रण नहीं किया जाता है, जिससे सोना खनन पर्यावरण (environment) के लिए पारा प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत बन जाता है।

पारा एक शक्तिशाली तंत्रिका-विष (neurotoxin) है जो लोगों और वन्यजीवों दोनों में तंत्रिका सम्बंधी क्षति का कारण बन सकता है।

वन्यजीवों में मिथाइल मर्करी (methylmercury) की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। 12 पक्षी प्रजातियों में कई गुना अधिक पारा पाया गया है। और तो और, 10 में से 7 ब्लैक-स्पॉटेड बेयर आई पक्षियों (black-spotted bare-eye birds) में पारे की मात्रा उनकी प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने के स्तर पर पाई गई।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने पारे को सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता (public health concern) के शीर्ष दस रसायनों में से एक माना है। पारा प्रदूषण वन्यजीवों को खतरे में डाल रहा है, जिससे जगुआर (jaguar) और नदी डॉल्फिन (river dolphin) समेत कई मछलियां खतरे में हैं।

एक नए अध्ययन के अनुसार, वायुमंडल में प्रतिवर्ष मानव निर्मित पारे के उत्सर्जन का लगभग 10 प्रतिशत वैश्विक वनों की कटाई का परिणाम है। वन हवा से विषैले प्रदूषकों को हटाकर सिंक के रूप में कार्य करते हैं। यदि इसी तरह कटाई होती रही तो पारा उत्सर्जन बढ़ेगा।

पारा प्रदूषण एक बड़ी समस्या है क्योंकि यह वाष्पीकृत हो जाता है और हवा के माध्यम से अपने उत्सर्जन स्रोत से बहुत दूर तक जा सकता है, जिससे हवा, पानी और मिट्टी प्रदूषित (air, water, soil pollution) होते हैं। मिट्टी पारे का प्राथमिक भंडार (primary mercury reservoir) है, जिसमें महासागरों में पाए जाने वाले पारे की मात्रा से तीन गुना और वायुमंडल से 150 गुना अधिक पारा संग्रहित होता है। हाल के वर्षों में कोयला दहन (coal combustion) को पीछे छोड़कर सोना खनन दुनिया के सबसे बड़े वायुजनित पारा प्रदूषण स्रोत के रूप में उभरा है। इससे प्रति वर्ष 1000 टन पारा वातावरण में उत्सर्जित होता है।

पारा पक्षियों समेत सभी प्राणियों के लिए एक गंभीर खतरा (environmental threat) है। प्रदूषण को कम करने के लिए कदम उठाना ज़रूरी है। इसके लिए अमेज़ॉन का संरक्षण (Amazon conservation) अत्यंत आवश्यक है क्योंकि अमेज़ॉन वर्षावन पारा सिंक के रूप में विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। ये वैश्विक भूमि सिंक में लगभग 30 प्रतिशत योगदान देते हैं। अमेज़ॉन वनों की कटाई को रोकने से पारा प्रदूषण काफी कम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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खगोल भौतिकी में चहलकदमी

प्रज्ज्वल शास्त्री

मेरा जन्म स्पुतनिक उपग्रह प्रक्षेपण (Sputnik satellite launch) के एक साल बाद हुआ था। बचपन मैंगलोर के पास के एक  छोटे कस्बे में बीता। बचपन की सबसे मीठी यादों में से एक है – बगीचे में चटाई पर लेटकर रात के आसमान (night sky) को निहारना। उन दिनों आकाशगंगा (मिल्की-वे – Milky Way galaxy) साफ दिखाई देती थी, उल्कापात (‘टूटते तारे’), और तारों के बीच कृत्रिम उपग्रह धीरे-धीरे आगे बढ़ते नज़र आते थे। एक बार मैंने एक धूमकेतु (comet) भी देखा था, जिसे मैंने घंटों तक निहारा और आम के पेड़ के साथ उसकी तस्वीर भी बनाई। ब्रह्मांड की ये झलकियां मुझे रोमांचित करती थीं। सात साल की उम्र में इस बात का दुख हुआ कि इंसान अब तक चंद्रमा पर नहीं पहुंचा था। बहरहाल, यूरी गागरिन (Yuri Gagarin) मेरे बचपन के हीरो बन गए, और वेलेंटीना तेरेश्कोवा का नाम तो हर किसी की ज़ुबान पर था। मैं अक्सर कल्पना करती कि एक दिन मैं भी अंतरिक्ष यान में काम करने वाली वैज्ञानिक बनूंगी।

मेरे तर्कवादी अभिभावकों ने मुझे विज्ञान की कई रोचक किताबें लाकर दीं। उनमें से एक किताब थी एटम्स, जिसमें रदरफोर्ड के मशहूर प्रयोग (Rutherford experiment) का सुंदर चित्रण था। इसमें सोने के पतले पतरे पर अल्फा-कणों की बौछार की गई थी, और उनमें से कुछ ही कण टकराकर वापस लौटे थे। इसका मतलब था कि वास्तविक परमाणु बहुत छोटा होता है और परमाणु का अधिकांश भाग खाली होता है। इस प्रयोग की खूबसूरती ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला।

जब मैं ग्यारह साल की थी, तब मेरे पिता ने मुझे इवान येफ्रेमोव लिखित एक विज्ञान-कथा उपन्यास एंड्रोमेडा (Andromeda) पढ़ने के लिए दिया। यह अंतरिक्ष अन्वेषण (space exploration), ग्रहों के बीच संपर्क और विभिन्न जीवन रूपों की एक रोमांचक कहानी है, जिसमें एक नई ‘सामाजिकता’ का भी चित्रण किया गया है: जेंडर से परे लोगों के बीच घनिष्ठ और स्वच्छंद रिश्ते, निश्छल विज्ञान और प्रौद्योगिकी (science and technology) की शक्ति पर विश्वास, साथ ही सभी लोगों के लिए समानता। एंड्रोमेडा ने मेरे लिए एक आदर्श संसार का निर्माण किया था।

किशोरावस्था में प्रवेश करने पर मेरी मां ने मुझे ईव क्यूरी द्वारा लिखित मारिया स्क्लोदोव्स्का क्यूरी (मैरी क्यूरी – Marie Curie) की जीवनी पढ़ने को दी, जिसमें पियरे क्यूरी के साथ उनकी बौद्धिक और भावनात्मक साझेदारी का वर्णन था। मुझे नहीं मालूम कि इस किताब ने मेरे करियर के चुनाव पर कोई प्रभाव डाला या नहीं, लेकिन मैरी क्यूरी का अपनी विज्ञान कक्षा में एक महिला (woman scientist) के रूप में अलग दिखना मेरे लिए चौंकाने वाला था। शायद यह मेरे लिए वैज्ञानिक दुनिया में लिंग भेदभाव (gender bias in science) का पहला एहसास था।

मेरे स्कूल में कई शिक्षक थे जिन्होंने अपनी सूझबूझ और निष्ठा के साथ मुझे शिक्षा का आनंद दिया, चाहे वह इतिहास की कहानी हो, कन्नड़ व्याकरण की जटिल पहेलियां हो, या फिर गणितीय तर्क (mathematical reasoning)। कॉलेज ने मुझे चुनने की ज़रूरत का एहसास कराया : विज्ञान और गणित बनाम इतिहास और राजनीति विज्ञान। मैं दोनों संकाय पढ़ना चाहती थी। अंतत: मैंने विज्ञान और गणित (science and mathematics) को चुना, क्योंकि इसमें मुझे बाद में विषय बदलने का मौका था, जबकि दूसरा विकल्प चुनने पर मैं ऐसा नहीं कर पाती!

मेरे कॉलेज के हर शिक्षक अपने विषय के प्रति जोश से भरे हुए थे, जिन्होंने हमेशा परिणाम की बजाय प्रक्रिया को अधिक महत्व दिया, चाहे वह गणित की कोई समस्या को हल करना हो, पौधों का वर्गीकरण करना हो, सोडियम की दोहरी वर्णक्रम रेखाओं (सोडियम डबलेट) की माप लेना हो या तिलचट्टे का विच्छेदन करना हो। मैंने अपने छोटे शहर के कॉलेज में जिस तरह से सैद्धांतिक कार्य के बराबर महत्व अनुभवजन्य/प्रायोगिक काम को देना सीखा, वैसा माहौल बाद में मुझे बड़े संस्थानों में नहीं मिला।

तब तक मुझे यह स्पष्ट हो गया था कि मुझे भौतिकी (physics) में आगे बढ़ना है। गणित की भाषा में व्यक्त होता बुनियादी विज्ञान, भौतिकी, मेरा पसंदीदा था, और जिसे प्रयोगशाला (laboratory) नामक ‘बहुत मज़ेदार जगह’ में परखा भी जा सकता था। बचपन का अंतरिक्ष यान पर सवार वैज्ञानिक बनने का जो मासूम सपना था, वह अब धुंधला हो गया था। क्योंकि अव्वल तो, हम (भारत) बमुश्किल ही अंतरिक्ष में कोई अंतरिक्ष यान भेज रहे थे! और दूसरा, अंतरिक्ष यात्री बनने के लिए वायुसेना की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता, जो मुझे थोड़ा कठिन लगता था।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई (IIT Bombay) में मास्टर डिग्री के लिए भौतिकी कार्यक्रम में प्रवेश करना काफी रोमांचक था। एकमात्र महिला हॉस्टल में रहते हुए मुझे बहुत सी ऐसी महिलाएं मिलीं, जो भौतिकी या विज्ञान के प्रति मेरी तरह का उत्साह रखती थीं। आईआईटी के भौतिकी समूह में शामिल होकर, पी.एचडी. (PhD in Physics) करना एक स्वाभाविक अगला कदम था।

मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में प्रवेश करके परमाणु भौतिकी (nuclear physics) में प्रयोग करना चाहती थी। इसकी प्रेरणा मुझे आईआईटी के पसंदीदा शिक्षक पी. पी. काने से मिली। उन्होंने मुझे शोध की दुनिया से परिचित कराया, और उनका यह विचार मुझे बहुत आकर्षक लगा कि प्रयोगशाला में समीकरणों को लागू करना न केवल मज़ेदार है, बल्कि इससे कुछ ऐसा भी खोजा जा सकता था जो अब तक अज्ञात है। हालांकि, टीआईएफआर के अनुभव ने मुझे यह महसूस कराया कि खगोल भौतिकी (astrophysics) ही मेरे लिए सबसे उपयुक्त विकल्प है। मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि एक शौक कभी एक पेशा बन जाएगा! एक ओर, इसमें अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग करके ब्रह्मांड की खोजबीन की जाती है – जो उस आसमान की छवि में कई आयाम जोड़ती है, जिसे मैं बगीचे में चटाई पर लेटकर देखा करती थी। दूसरी ओर, आकाश देखने में तो बहुत जटिल लगता था, फिर भी उसे भौतिकी के नियमों के अनुसार समझा जा सकता था। मैं पूरी तरह से इन सब से हैरान थी।

विजय कपाही को मेंटर (mentor) के रूप में पाना सबसे बेहतरीन अनुभवों में से एक था। उन्होंने सक्रिय निहारकाओं (active galaxies) की कार्यप्रणाली में मेरी रुचि जगाई। ये ब्रह्मांड की सबसे शक्तिशाली शय होती हैं, और अत्यंत विशाल ब्लैक होल्स (supermassive black holes) की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से संचालित होती हैं। विजय ने निहारिकाओं के रहस्यों को जज़्बे और मस्ती के साथ हल किया, जो एक प्रेरणादायक नज़रिया था। वे शोधार्थियों और सहकर्मियों के साथ पूरी तरह से लिंग-निरपेक्ष थे, ऐसा नज़रिया तब भी बिरला था और आज भी दुर्लभ है।

इंजीनियर से पर्यावरण वैज्ञानिक बने मेरे जीवनसाथी ने हमें एक साथ बढ़ने और नए दृष्टिकोणों की खोज करने का मौका दिया। इस अनुभव से मुझे विज्ञान को लेकर बचपन की समझ से आगे बढ़कर कहीं अधिक समालोचनात्मक समझ मिली। हाल ही में एक पुराने कॉलेज मित्र ने मुझे 1974 में भारत के पहले परमाणु ‘अंत:स्फोट’ को लेकर मेरा उत्साह याद दिलाया – और यह एहसास दिलाया कि तब मैंने ‘परमाणु के शांतिपूर्ण उपयोग’ पर कितनी मासूमियत से विश्वास कर लिया था। मैं यह मानती थी कि विज्ञान और वैज्ञानिक मानवता को समृद्धि और समानता की ओर ले जाएंगे। लेकिन अंतत: विज्ञान एक मानवीय उद्यम है, जो सामाजिक प्रक्रियाओं से आकार लेता है, और इसके कामकाज में सभी मानवीय दोष शामिल होते हैं। ‘वस्तुनिष्ठता’ पर गर्व करने वाले इस उद्यम में महिला वैज्ञानिकों की अत्यधिक कम संख्या, इस तथ्य का एक क्लासिक उदाहरण है। मेरे लिए, यह मानना कितना स्वाभाविक और सामान्य है कि अन्य महिलाएं भौतिकी के प्रति उत्साही हैं! लेकिन कैसे मेरे सहकर्मियों के लिए भी यह मानना उतना ही स्वाभाविक होता है कि भौतिकी करने वाली महिला जीवनसाथी मिलने तक यह सब ‘टाइमपास’ के लिए करती हैं!! मैं उस दिन के इंतज़ार में हूं जब मेरा (या किसी का भी) जेंडर केवल उतना ही महत्वपूर्ण रहेगा जितना कि उसकी पसंदीदा किताबें। कोई आश्चर्य नहीं कि मैं एंड्रोमेडा पुस्तक के आदर्शलोक के बारे में सोचती हूं, जहां लोगों के बीच लिंग की परवाह किए बिना स्वस्थ और उन्मुक्त रिश्ते हों।

फिर भी, आकाशगंगाओं (galaxies) के केंद्रों में विशाल ब्लैक होल (black hole) के चारों ओर पदार्थों का नृत्य, निहित चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) और आग की लपटें, जो लगभग प्रकाश की गति (speed of light) से निकलती हैं, मुझे मुग्ध करते रहते हैं। ये प्रक्रियाएं वर्णक्रम की हर तरंगदैर्घ्य में प्रकट होती हैं। इसका मतलब है कि इसमें कई उपविषयों के भौतिक सिद्धांत काम में आते हैं। अर्थात जैसा कि टेर हार ने कहा है, खगोलभौतिकी “सामान्यतावादी का आखिरी ठिकाना” है। इसका मतलब यह भी है कि आपको पृथ्वी और अंतरिक्ष दोनों पर दूरबीन के साथ काम करना पड़ता है, जिससे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग होता है और आप एक वैश्विक और सम्बद्ध समुदाय का हिस्सा बन जाते हैं। परिकल्पनाओं का परीक्षण करने के लिए नियंत्रित प्रयोगों की कमी भी रोमांच को बढ़ाती है। असली मज़ा उन आधुनिक उपकरणों और जटिल गणितीय तकनीकों का उपयोग करने में है, जो ब्रह्मांड के रहस्यों को उजागर करने में मदद करते हैं। सुंदर छवियां जनमानस की कल्पना को आकर्षित करती हैं, जिससे खगोलभौतिकी वैज्ञानिक मानसिकता को बढ़ावा देने का एक शानदार उपकरण बन जाता है। खगोलभौतिकी जीवन को समझने का भी एक प्यारा तरीका है – यह हमें लगातार याद दिलाता है कि हम वैज्ञानिक और प्रकृति प्रेमी हैं जो उसकी सुंदरता को समझने की कोशिश करते हैं। अंतत:, बगीचे में चटाई पर रात का आकाश (night sky observation) देखने का आकर्षण उस समय और बढ़ जाता है जब हम उसकी कार्यप्रणाली को समझ पाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारतीय उपमहाद्वीप की आबादी

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

म, भारत के लोग (Indian population), कहां से और कैसे आए? इस सम्बंध में 2009 में हारवर्ड और एमआईटी युनिवर्सिटी (Harvard University, MIT) के डेविड रीच और सीसीएमबी (हैदराबाद – CCMB Hyderabad) के के. थंगराज और लालजी सिंह ने संयुक्त रूप से एक शोध पत्र लिखा था, जिसका शीर्षक था ‘रिकंस्ट्रक्टिंग इंडियन पॉप्युलेशन हिस्ट्री (भारतीय आबादी के इतिहास का पुनर्निर्माण – Reconstructing Indian Population History)’। इसमें भारत में 25 विविध समूहों का आनुवंशिक विश्लेषण (genetic analysis) किया गया था। इसमें पता चला था कि अधिकांश भारतीयों के पूर्वज जेनेटिक रूप से पृथक दो प्राचीन आबादियों के हैं।  

मेरी सलाह है कि आप यह शोधपत्र डाउनलोड करें और पढ़ें। (लिंक यह रही – https://pmc.ncbi.nlm.nih.gov/articles/PMC2842210/.) खासकर इसमें प्रस्तुत चित्र 1 देखें और तालिका 1 पढ़ें।

हम कितने जुदा हैं? उन्होंने हमारे पूर्वजों के मुख्य रूप से दो अलग समूह पाए हैं। ‘उत्तर भारतीय पूर्वज’ (ANI- Ancestral North Indians) समूह, इस समूह के लोग जेनेटिक रूप से पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और युरोप के लोगों के नज़दीकी है। अधिकांश ANI वंशज मुख्य रूप से भारत के उत्तरी राज्यों के रहवासी हैं। दूसरा है ‘दक्षिण भारतीय पूर्वज (ASI- Ancestral South Indians)’ समूह, जो स्पष्ट रूप से ANI से अलग है और इनके पूर्वज पूर्वी युरेशियन मूल के हैं।

एक अधिक विस्तृत विश्लेषण में उन्होंने मध्य एशिया और उत्तरी दक्षिण एशिया के 500 से अधिक लोगों के प्राचीन जीनोम-व्यापी डैटा (ancient DNA data) का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि ASI प्रत्यक्ष वंशज हैं जो दक्षिण भारत में जनजातीय समूहों में रहते हैं। और ऐसा लगता है कि ANI और ASI समूह के लोगों का प्रवास (migration) लगभग 3-4 हज़ार साल पहले हुआ था। इस प्रकार देश भर में उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय (जिन्हें द्रविड़ – Dravidian भी कहा जाता है) लोगों का मिश्रण रहता है।

39-71 प्रतिशत तक ANI वंशज समूह देश भर में पारंपरिक (तथाकथित) उच्च जाति (upper caste population) के लोगों में देखे जाते हैं। लेकिन कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों में विशिष्ट ASI वंश वाले लोग दिखते हैं। हालांकि, वास्तविक ASI, जिन्हें AASI भी कहा है, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह (Andaman and Nicobar tribes) के आदिवासी हैं जो लगभग 60,000 साल पहले पूर्वी एशियाई-प्रशांत क्षेत्रों से आकर यहां बसे थे, और सामाजिक या जेनेटिक रूप से भारतीय मुख्यभूमि के निवासियों के साथ घुले-मिले नहीं हैं।

सेल (Cell journal) में प्रकाशित एक हालिया शोधपत्र में बताया गया है कि भारतीय मूल के सभी लोगों की जड़ें एक ही बड़े प्रवास से जुड़ी हैं, जिसमें लगभग 50,000 साल पहले अफ्रीका से मनुष्य बाहर निकले (Out of Africa migration) और फैले थे।

ध्यान दें कि हारवर्ड-सीसीएमबी के शोधपत्र में ‘उच्च जाति’ शब्द का उल्लेख है। तो, ‘जाति व्यवस्था’ (caste system in India) कब आई? यह भेदभावपूर्ण व्यवस्था हिंदुओं में 2000 से अधिक वर्षों से है। इस चार-स्तरीय व्यवस्था में, आदिवासी सबसे निचले पायदान पर हैं। अंतर्जातीय विवाह (inter-caste marriage) बहुत कम होते हैं, और यदि होते भी हैं तो वे हिंसा का कारण बन सकते हैं।

जातीयता और हैप्लोटाइप (ethnicity and haplotype)

प्रो. पी. पी. मजूमदार के दल ने ‘हैप्लोग्रुप’ (haplogroup) नामक पद्धति का उपयोग करके जातीयता का अध्ययन किया था। हैप्लोग्रुप किसी सामाजिक समूह में साझा पितृवंश या मातृवंश के जेनेटिक संकेतक होते हैं। इस शोधपत्र में बताया गया है कि भारत भर की विभिन्न आबादियों के हैप्लोग्रुप विवरण भारत की जाति व्यवस्था की जानकारी देते हैं, जिसमें कुछ पूर्वज घटक जनजातियों में सबसे अधिक, निम्न जातियों में थोड़े कम और उच्च जातियों में सबसे कम पाए जाते हैं।

यह जाति व्यवस्था समय के साथ, विशेष रूप से शिक्षित वर्गों में, लोकतंत्र और देश के आधुनिकीकरण (modernization of India) के साथ धीरे-धीरे बदल रही है। जैसे-जैसे लोग स्कूल-कॉलेज जाने लगे, अधिक भाषाएं सीखने लगे और नौकरियों व अन्य अवसरों के लिए अपने मूल स्थानों से बाहर जाने लगे, अंतर्जातीय और अंतर्क्षेत्रीय विवाह बढ़े। 2011 की जनगणना के अनुसार, अंतर्जातीय विवाह लगभग 6 प्रतिशत और अंतर्धार्मिक विवाह (inter-religious marriage) लगभग एक प्रतिशत हुए थे। यह संभावना है कि आगामी 2027 की जनगणना तक ये संख्याएं, विशेष रूप से शहरी समूहों में, उल्लेखनीय रूप से बढ़ चुकी होंगी। (स्रोत फीचर्स)

लेखक इस लेख पर डॉ. थंगराज की सलाह और टिप्पणियों के लिए आभारी हैं।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मलेरिया रोकथाम के दो नए प्रयास

लेरिया रोकथाम (malaria prevention) के दो नए उपाय सामने आए हैं। एक उपाय में इंसानी खून को मच्छरों के लिए ज़हरीला बनाने का प्रयास किया गया है ताकि काटते ही मच्छर मर जाएं। दूसरे उपाय में कोशिश यह है कि मच्छरों को मलेरिया परजीवी (malaria parasite) के लिए अनुपयुक्त बना दिया जाए।

पहले उपाय में आइवरमेक्टिन (ivermectin drug) नामक एक दवा का उपयोग शामिल है। यह दवा न केवल कृमियों को मारती है बल्कि जूं (lice) जैसे कीटों का भी खात्मा करती है। इसके अलावा जब कोई व्यक्ति इसे गोली के रूप में लेता है, तो उसका खून पीने वाले कीट भी मर जाते हैं।

विचार यह आया कि यदि मच्छर ऐसे व्यक्ति को काटें जिसने हाल ही में आइवरमेक्टिन ली हो, तो क्या वे भी मर जाएंगे? और अगर एक साथ पूरा समुदाय यह दवा ले ले, तो क्या मच्छरों की संख्या घट सकती है?

प्रयोगशाला परीक्षण (laboratory trials) के नतीजे काफी उत्साहजनक रहे। एक दिन पहले आइवरमेक्टिन लेने वाले लोगों के खून पर पले 73 प्रतिशत मच्छर दो दिन में मर गए, जबकि नियंत्रण समूह में केवल 31 प्रतिशत। लेकिन असली चुनौती वास्तविक दुनिया में इसके असर को साबित करना था।

अक्टूबर 2023 में दक्षिण केन्या के क्वाले काउंटी में एक बड़ा परीक्षण बरसात के मौसम की शुरुआत में हुआ, जब मच्छरों की संख्या तेज़ी से बढ़ती है। अध्ययन में 84 बस्तियों को शामिल किया गया था। आधी बस्तियों के लोगों को तीन महीने तक, हर महीने आइवरमेक्टिन दी गई। और बाकी आधों को परजीवी नाशी दवा अल्बेंडेज़ोल (albendazole) दी गई, जो मच्छरों पर कोई असर नहीं करती। अगले छह महीनों में आइवरमेक्टिनसमूह में बच्चों में मलेरिया के नए मामलों में 26 प्रतिशत की कमी आई।

हालांकि कई वैज्ञानिक इस नतीजे से सहमत नहीं है। एक तो, 26 प्रतिशत की कमी व्यापक इस्तेमाल के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरा, यह दवा गर्भवती महिलाओं (pregnant women) और शिशुओं को नहीं दी जा सकती। इसके अलावा बुर्किना फासो के दो परीक्षणों और गिनी-बिसाऊ (Guinea-Bissau trial 2024) के एक परीक्षण में कोई खास फायदा नहीं दिखा था।

हालांकि, केन्या परीक्षण थोड़ा अलग था – दवा बरसात की शुरुआत में ही दे दी गई थी, जब मच्छर तेज़ी से बढ़ते हैं, और कई बार दी गई। एक अतिरिक्त फायदा यह हुआ कि खुजली और जुओं का भी सफाया हो गया।

फिर भी इसकी कई चुनौतियां हैं। गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों के लिए यह दवा सुरक्षित नहीं है। हर खुराक के बाद दवा खून में कुछ ही दिनों तक प्रभावी रहती है। लंबे समय तक असर करने वाले संस्करणों पर फिलहाल शोध चल रहा है। मलेरिया के मामलों में महज़ 26 प्रतिशत कमी लागत और मेहनत के हिसाब से पर्याप्त नहीं है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का नियम है कि जब तक कम से कम दो बड़े और उच्च-गुणवत्ता वाले परीक्षणों में मज़बूत सुरक्षा न दिखे, किसी तरीके को बड़े पैमाने पर अपनाने की सिफारिश नहीं की जा सकती। शोधकर्ता भी उपरोक्त शंकाओं को दूर करने की दिशा में और शोध कार्य करने की योजना बना रहे हैं।

दूसरा तरीका मच्छरों को ही मलेरिया के खिलाफ हथियार बनाने का है। नेचर पत्रिका (Nature journal) में प्रकाशित एक नए अध्ययन में मच्छरों के जीन में बदलाव (mosquito gene editing) करके उन्हें मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम – Plasmodium parasite) का वाहक बनने से रोकने का प्रयास किया गया है। आगे, जीन ड्राइव नामक तकनीक (gene drive technology) से इस गुण को तेज़ी से मच्छरों की आबादी में फैलाया जा सकता है।

आम तौर पर मच्छर अपने जीन का आधा हिस्सा ही अगली पीढ़ी को देते हैं। लेकिन जीन ड्राइव एक खास आनुवंशिक तकनीक है, जो इस नियम को बदल देती है। यह चुने हुए जीन को लगभग सभी संतानों में पहुंचाती है, जिससे वह तेज़ी से पूरी आबादी में फैल जाता है।

यह तरीका कारगर तो है, लेकिन विवादास्पद (controversial genetic modification) भी है, क्योंकि इससे किसी प्रजाति में स्थायी और बड़े पैमाने पर बदलाव हो सकते हैं, जिनके पर्यावरण पर अनजाने असर पड़ सकते हैं।

इसलिए नए शोध में वैज्ञानिकों ने कृत्रिम जीन बनाने की बजाय, मच्छरों में पहले से प्राकृतिक रूप से मौजूद एक उत्परिवर्तन (mutation) का सहारा लिया। इस उत्परिवर्तन के चलते कुछ एनॉफिलीज़ गैंबिया (Anopheles gambiae) मच्छरों में एक प्रोटीन का थोड़ा बदला हुआ रूप पाया जाता है। यह बदला हुआ प्रोटीन मलेरिया परजीवी को मच्छर के शरीर में अपना जीवन-चक्र पूरा करने में मुश्किल पैदा करता है।

पहले, FREP1 नामक परजीवी-रोधी जीन को एनॉफिलीज़ स्टीफेन्सी मच्छरों में डाला गया।

परिवर्तित मच्छरों ने सामान्य मच्छरों के साथ भोजन और संभोग-साथी पाने के लिए बराबरी से प्रतिस्पर्धा की। यानी यह बदलाव मच्छरों को कमज़ोर तो नहीं बनाता।

जब इन मच्छरों ने सबसे घातक मलेरिया परजीवी प्लाज़्मोडियम फाल्सीपेरम युक्त वाला मानव रक्त पीया, तो उनके शरीर और लार ग्रंथियों में सामान्य मच्छरों की तुलना में बहुत कम परजीवी पाए गए।

दूसरे चरण में, परिवर्तित जीन तेज़ी से फैलाने के लिए वैज्ञानिकों ने मच्छरों में सामान्य जीन को काटकर उसकी जगह प्रतिरोधी संस्करण (resistant gene variant) डाल दिया। नियंत्रित माहौल (controlled environment) में, केवल 10 पीढ़ियों में यह जीन 94 प्रतिशत से अधिक मच्छरों में फैल गया।

वैज्ञानिक उक्त तकनीकों को लेकर उत्साहित हैं, लेकिन सतर्क भी हैं। ये सफल रहे तो भी इनका उपयोग मच्छरदानी (mosquito nets), दवाइयों और कीटनाशकों (insecticides) जैसी अन्य रोकथाम विधियों के साथ मिलाकर ही करना होगा।

और, कुछ सवाल अभी अनुत्तरित हैं। जैसे, क्या मच्छर या मलेरिया परजीवी इस तरह की सुरक्षा के प्रतिरोधी हो जाएंगे? ऐसे मच्छर प्रकृति में छोड़े गए, तो पर्यावरण व पारिस्थितिकी पर दीर्घकालिक (environmental impact) असर क्या होंगे? अनचाहे परिणामों से बचाव कैसे किया जाएगा? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घड़ियाल संरक्षण के पचास साल: क्या हम सफल हुए?

कुमार सिद्धार्थ

18 जून को विश्व मगरमच्छ दिवस (World Crocodile Day) पर मगरमच्छ संरक्षण परियोजना (crocodile conservation project) की शुरुआत की स्वर्ण जयंती मनाई गई। भारत सरकार ने 1975 में जब घड़ियालों के संरक्षण (Gharial conservation) के लिए व्यापक राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की थी, तब यह उम्मीद थी कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सरकारी संसाधनों के साथ यह मछलीभक्षी मगरमच्छ — जिसे वैज्ञानिक भाषा में गैवियालिस गैंजेटिकस कहा जाता है — फिर से भारतीय नदियों में आबाद हो सकेगा। लेकिन आज, इस प्रयास के 50 साल बाद, हमें खुद से यह कठिन सवाल पूछना होगा: क्या हम वाकई घड़ियाल को बचा पाए हैं?

जब घड़ियाल की बात होती है, तो अक्सर उसे एक विलुप्तप्राय जलचर (endangered species) के रूप में देखते हैं – एक ऐसा जीव, जो अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है। लेकिन घड़ियाल सिर्फ एक प्रजाति का नाम नहीं है। उसकी उपस्थिति खुद में एक संकेत है, नदी की सेहत(river health), पारिस्थितिकी संतुलन(ecological balance) और जैव विविधता (biodiversity) के प्रति हमारी संवेदनशीलता का।

घड़ियाल, अपनी पतली लंबी थूथन और मछलियों पर निर्भरता के कारण नदी पारिस्थितिकी river ecosystem) का एक अनूठा जीव है। 20वीं सदी के आरंभ तक यह प्रजाति सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी और इरावदी जैसे विशाल नदी तंत्रों में व्यापक रूप से पाई जाती थी। लेकिन 1940 के दशक में इसकी संख्या मात्र 5-10 हज़ार के बीच रह गई और 1970 के दशक तक यह 98 फीसदी से अधिक क्षेत्र से गायब हो चुकी थी।

इसी संकट को देखते हुए, 1975 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO – Food and Agriculture Organization) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP – United Nations Development Programme) के सहयोग से क्रोकोडाइल कंज़र्वेशन प्रोजेक्ट (Crocodile Conservation Project) की शुरुआत की थी। इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य देश की तीन दुर्लभ घड़ियाल (मगरमच्छ) (Gharial) प्रजातियों, मगर (Mugger crocodile) और खारे पानी के मगरमच्छ (Saltwater crocodile) को संरक्षित करना था। यह परियोजना ‘पालन और पुनःप्रक्षेपण’ विधि का उपयोग करके, बंदी अवस्था में मगरमच्छों को पालने और फिर उन्हें प्राकृतिक आवासों में छोड़ने पर केंद्रित थी। इसके अंतर्गत देश भर में 16 मगरमच्‍छ पुनर्वास केंद्र (crocodile rehabilitation centres) और 11 मगरमच्छ अभयारण्यों की स्थापना की गई। इनमें नेशनल चंबल सैंक्चुरी, कटर्नियाघाट, सतकोसिया, सोन घड़ियाल अभयारण्य और केन घड़ियाल अभयारण्य मुख्‍य है।

हाल की वार्षिक गणनाओं के अनुसार, आज भारत में वयस्क घड़ियालों की संख्या मात्र 650 के आसपास है, जिनमें से 550 नेशनल चंबल सैंक्चुरी में ही सीमित हैं। सवाल उठता है कि आधी सदी चले इस विशाल संरक्षण कार्यक्रम का परिणाम इतना सीमित क्यों है?

इसका जवाब संरक्षण की मूल रणनीति में निहित है — हमने बार-बार बंदी प्रजनन (captive breeding) और पुनःप्रक्षेपण पर बल दिया, लेकिन उनकी प्राकृतिक निवास (natural habitat) — नदियां — निरंतर संकट में रहीं।

घड़ियाल की मौजूदगी यह भी दर्शाती है कि वह नदी अब भी जीवित है, उसमें प्रदूषण नहीं फैला है, उसमें प्रवाह बचा है, और उसमें जीवन पल रहा है। इसलिए वैज्ञानिक घड़ियाल को एक ‘जैव संकेतक’ मानते हैं – एक ऐसा जीव जो हमें बिना कुछ कहे यह बता देता है कि नदी कितनी स्वस्थ है।

घड़ियालों के जीवित रहने का पूरा दारोमदार नदियों पर है। वे खुले, बहावयुक्त नदी प्रवाह(free-flowing rivers), रेत के टीलों (sandbanks) और मछलियों की पर्याप्त उपलब्धता वाले वातावरण में ही पनप सकते हैं। लेकिन इन पांच दशकों में भारतीय नदियां बेतहाशा रेत खनन(illegal sand mining), बांधों(dams), बैराजों(barrages), प्रदूषण और अवैध मछली पकड़ने (illegal fishing) के कारण क्षतिग्रस्त हुई हैं।

विशेषज्ञों के अनुसार, चंबल जैसे क्षेत्रों में अत्यधिक और अवैध रेत खनन ने घड़ियालों के घोंसले (nesting sites) बनने वाली रेत पट्टियों को नष्ट कर दिया है। कई क्षेत्रों में तो घोंसले लगभग समाप्त हो चुके हैं। घड़ियालों की 90 फीसदी से अधिक मौतें मॉनसून के बाद पहले तीन महीनों में होती हैं — यह दिखाता है कि केवल अंडे देना और बच्चे निकलना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका जीवित रहना ही असली चुनौती है। घड़ियाल का संरक्षण अपने आप में रेत खनन पर नियंत्रण की मांग को जन्म देता है, जो बाढ़ नियंत्रण से लेकर जलप्रवाह की गुणवत्ता तक, कई प्राकृतिक संतुलनों को बनाए रखने में सहायक होता है।

मद्रास क्रोकोडाइल बैंक ट्रस्ट (Madras Crocodile Bank Trust) द्वारा 2008 में शुरू किए गए घड़ियाल इकॉलॉजी प्रोजेक्ट (Gharial Ecology Project) के प्रमुख अन्वेषक प्रो. जेफरी लैंग के अनुसार “अब ज़रूरत है कि हम नदी पारिस्थितिकी की संपूर्णता पर ध्यान दें। घड़ियाल संरक्षण के प्रयास तब तक सार्थक नहीं होंगे जब तक कि नदियां अपने प्राकृतिक रूप में मुक्त बहने वाली न हों, उनमें बांध/बैराज न्यूनतम हों और रेत खनन नियंत्रित हो।”

इसी तरह, नेचर कंज़र्वेशन सोसाइटी के सचिव राजीव चौहान कहते हैं, “बंदी प्रजनन और पुनर्वास केवल एक ‘बैंड-ऐड’ उपाय है। जब तक हम प्रवाह, मत्स्य पालन और रेत खनन पर सख्त नियंत्रण नहीं रखते, तब तक मगरमच्छों के पुनर्वास के प्रयास व्यर्थ है।”

ओडिशा ही एकमात्र राज्य है, जहां तीनों मगरमच्छ प्रजातियां – खारे पानी के मगर (भितरकनिका – Saltwater crocodile – Bhitarkanika), घड़ियाल (सतकोसिया – Gharial – Satkosia) और मगरी (सिमलीपाल – Mugger – Simlipal) – पाई जाती हैं। पश्चिम बंगाल में सुंदरबन के बाद भितरकनिका भारत का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन (mangrove forest) है। दोनों क्षेत्र भारत में खारे पानी के मगरमच्छों के तीन गढ़ों में से हैं; तीसरा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह है। वर्ष 2025 की जनगणना में 1826 खारे पानी के मगर, 16 घड़ियाल और लगभग 300 मगरी गिने गए। हालांकि यह संरक्षण की सफलता (wildlife conservation success) दर्शाता है, लेकिन हाल ही में भितरकनिका और उसके आसपास के इलाकों में इंसानों और मगरमच्छों के बीच संघर्ष (human-crocodile conflict) बहुत बढ़ गया है। पिछले साल जून और अगस्त के बीच पार्क और उसके आसपास मगरमच्छों के हमलों में एक 10 वर्षीय लड़के सहित छह लोगों की मौत हो गई थी। वहां अब इन इलाकों में बाड़बंदी और चेतावनी प्रणाली जैसे उपाय लागू किए जा रहे हैं।

एक ताज़ा अध्ययन (climate change impact on gharial habitat) में पाया गया है कि आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन से घड़ियालों के लिए उपयुक्त क्षेत्र 36 फीसदी से 145 फीसदी तक बढ़ सकता है – विशेषत: उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, असम, उत्तराखंड जैसे राज्यों में। वहीं ओडिशा और राजस्थान जैसे राज्य शायद अपनी उपयुक्तता खो बैठेंगे।

अध्ययनकर्ताओं ने सिफारिश की है कि ब्रह्मपुत्र और महानदी घाटियों में संभावित क्षेत्रों का मैदानी सर्वेक्षण किया जाए, उन्हें संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाए, और स्थानीय समुदायों को संरक्षण प्रक्रिया में सहभागी बनाया जाए।

घड़ियाल संरक्षण के 50 वर्षों का अनुभव हमें यही सिखाता है कि सिर्फ प्रजाति पर केंद्रित नीतियां नाकाफी है। जब तक हम नदियों को, उनके प्रवाह को, उनकी जैव विविधता को, उनके किनारे के समुदायों को संरक्षण नीति का हिस्सा नहीं बनाएंगे, तब तक घड़ियाल जैसे जीव केवल सरकारी आंकड़ों में ही जीवित रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टमाटर – एक सेहतमंद सब्ज़ी

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दुनिया भर के दैनिक आहार में टमाटर (tomato) का एक ज़रूरी घटक बन जाना एक दिलचस्प कहानी है। योलांडा इवांस ने नेशनल जियोग्राफिक (National Geographic) पत्रिका के 5 जून, 2025 के अंक में मिथकों (tomato myths) और लोककथाओं के माध्यम से टमाटर के बढ़ते चलन के बारे में लिखा है, और बताया है कि कैसे टमाटर हमेशा से एक लोकप्रिय सब्ज़ी नहीं था।

एक समय था जब इन्हें दुष्ट, बदबूदार और ‘ज़हरीले सेब’ (poisonous apples) माना जाता था। इन्हें अंधविश्वास और बीमारी से जोड़कर देखने का प्रमुख कारण यह था कि तांबे के बर्तनों में रखने पर इनकी अभिक्रिया लेड से होती थी। न्यू जर्सी के सलेम के किसानों द्वारा टमाटर पकाने के लिए एक अधिक उपयुक्त बर्तन के इस्तेमाल ने अमेरिका (tomato history in America) में लोगों की राय बदल दी।

टमाटर भारत (tomato in India) की देशज वनस्पति नहीं थी, बल्कि ये 15वीं शताब्दी में पुर्तगाली व्यापारियों के साथ यहां आए थे। फिर 16वीं शताब्दी में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने इन्हें अपनाया, और पूरे देश में इनकी खेती शुरू की और इन्हें अपने भोजन में शामिल किया। लेकिन लोग तब भी टमाटर को लेकर एहतियात बरतते थे। जैसा कि स्वतंत्र पत्रकार सुश्री सोहेल सरकार ने लिखा है, 1938 में चिकित्सक डॉ. तारा चितले और उनके सहयोगियों ने लोगों को सर्दी-ज़ुकाम, स्कर्वी और आयरन की कमी के इलाज में टमाटर (tomato for vitamin C & iron) के फायदों के बारे में समझाने की कोशिश की थी, लेकिन लोगों की प्रतिक्रिया ठंडी ही रही।

बदलाव आखिरकार तब आया जब ज़्यादा से ज़्यादा यात्रियों ने हमारे आहार में टमाटर शामिल करने की सिफारिश की, और भारत में राष्ट्रीय पोषण संस्थान (National Institute of Nutrition) के विशेषज्ञों ने हमारे दैनिक आहार में विटामिन और खनिजों के महत्व और टमाटर में इनकी प्रचुरता के बारे में बताया।

स्वास्थ्य लाभ

वनस्पति विज्ञान में टमाटर को एक फल (tomato as fruit) माना जाता है। कैलिफोर्निया की आहार और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ (diet & public health expert) सुश्री सिंथिया सास ने भी सेहत के लिए टमाटर के फायदे बताए हैं। इनमें से कुछ फायदे हैं – टमाटर एंटीऑक्सीडेंट (antioxidants in tomato) से समृद्ध फल है, एंटीऑक्सीडेंट हृदय और मस्तिष्क को स्वस्थ रखते हैं। टमाटर में ऐसे पोषक तत्व होते हैं जो हृदय रोग के जोखिम को काफी कम कर देते हैं। टमाटर का अधिक सेवन उच्च रक्तचाप (tomato for blood pressure) को कम करता है (वरिष्ठ नागरिक ध्यान दें)। टमाटर में मौजूद सेल्यूलोज़ रेशेदार पदार्थ कब्ज़ की दिकक्त को दूर रखते हैं। टमाटर में लाइकोपीन (lycopene benefits) नामक लाल कैरोटीनॉयड वर्णक 70 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को अल्ज़ाइमर की समस्या से बचने में मदद कर सकता है। सुश्री सास की सलाह है कि टमाटर पकाने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वे अच्छी तरह से धुले हुए हों और धूल-जनित कीटाणुओं से मुक्त हों।

टमाटर की खेती (tomato cultivation) पूरे भारत में की जाती है, और प्रति एकड़ 5,000 से 10,000 पौधे लगाए जाते हैं। तेलंगाना कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जयशंकर का अनुमान है कि भारत में वर्ष 2022-2023 में 210 लाख टन टमाटर का उत्पादन हुआ था, जो चीन (680 लाख टन) (China tomato production) के बाद दूसरे नंबर पर था। टमाटर की खेती करने वाले शीर्ष सात राज्य हैं: मध्य प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु। बैंगलुरु स्थित भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान (Indian Institute of Horticultural Research) टमाटर की विभिन्न किस्मों पर शोध कर रहा है। इनमें से एक है ‘अर्क रक्षक’ (Ark Rakshak tomato variety) नामक किस्म, जो कि एक रोग-प्रतिरोधी संकर किस्म है। दूसरी है ‘अर्क श्रेष्ठ’ (Ark Shreshta tomato variety) किस्म जो लंबे समय तक खराब न होने वाले टमाटर की पैदावार के लिए तैयार की जा रही है, ताकि इनका परिवहन (निर्यात – tomato export) आसान हो सके।

आज, देश का लगभग हर घर अपने भोजन में टमाटर का उपयोग करता है। वर्तमान भारतीय व्यंजनों (Indian cuisine with tomato) में टमाटर किसी न किसी रूप में शामिल है – चाहे टमाटर का सूप हो, चटनी हो, सालन हो या रसम, सैंडविच, बर्गर, पिज़्ज़ा हो या फिर सॉस (tomato sauce) के रूप में।

टमाटर का स्वाद चखने के बाद और यह जानने के बाद कि यह दुष्ट नहीं है, बल्कि इसके कई स्वास्थ्य लाभ हैं, चलिए टमाटर डालकर कुछ पकाएं और मज़े से खाएं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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