प्रकृति के रहस्यों की खोज

सत्यवती एम. सिरसाट

सत्यवती एम. सिरसाट
(अक्टूबर 1925 – जुलाई 2010)

पने बारे में लिखने बैठें, तो बचपन से जुड़े अनुभव और यादें उभर ही आती हैं। मेरा जन्म कराची में हुआ था, और मेरे पिता के शिपिंग व्यवसाय के कारण हम कई देशों में भटक ते रहे। मेरे माता-पिता कट्टर थियोसॉफिस्ट (theosophist) थे इसलिए उन्होंने मुझे बेसेंट मेमोरियल स्कूल में भेजा, जिसे डॉ. जॉर्ज और रुक्मणी अरुंडेल चलाते थे। रुक्मणी ने कलाक्षेत्र में रहते हुए प्राचीन भारतीय कला (ancient indian art) और संगीत का पुनर्जागरण किया था। किशोरावस्था में मैंने पॉल डी क्रुइफ की किताब दी माइक्रोब हंटर्स पढ़ी, जिसने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। औपचारिक शिक्षा के साथ मुझे सांस्कृतिक धरोहर का भी लाभ मिला। मैंने मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से माइक्रोबायोलॉजी (Microbiology Degree) में डिग्री प्राप्त की। पहली बार जब मैंने प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी (Light Microscope) से ग्राम पॉज़िटिव व ग्राम नेगेटिव जीवाणुओं (Gram Positive and Gram Negative Bacteria) की मिली-जुली स्लाइड देखी तो मुझे ऐसा जज़बाती रोमांच हुआ जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती।

डिग्री प्राप्त करने के अगले ही दिन मैं बिना सोचे-समझे प्रयोगशाला के अध्यक्ष और टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल (Tata Memorial Hospital) के प्रमुख पैथोलॉजिस्ट (कैंसर और सम्बंधित रोग) (Pathologist for Cancer)  डॉ. वी. आर. खानोलकर के कार्यालय के बाहर खड़ी थी। न कोई फोन कॉल, न कोई अपॉइंटमेंट – मैं तो बस उनसे मुलाकात के इंतज़ार में खड़ी रही। करीब दो घंटे बाद उन्होंने मुझे अंदर बुलाया और लंबी बातचीत की। मुझे नहीं पता था कि यह उनका युवाओं का साक्षात्कार लेने का तरीका था। अंत में उन्होंने मुझसे पूछा कि अभी जिस बारे में बातचीत हुई है, क्या मैं वह सब संभाल पाऊंगी। मैंने युवा अक्खड़पन के साथ कहा, “बिलकुल!” और इस तरह मेरे विज्ञान के जीवन की शुरुआत हुई!

डॉ. खानोलकर बहुआयामी व्यक्तित्व थे। वे एक चिकित्सक थे जिनमें वैज्ञानिक सोच (Scientific Temperament)  तो स्वाभाविक रूप से थी। साथ ही वे कला प्रेमी, भाषाविद और कई भाषाओं के साहित्य के विद्वान भी थे। मैंने उनसे व्यापक वैज्ञानिक और कलात्मक दृष्टिकोण सीखा।

1948 में, भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने टाटा मेमोरियल के पैथोलॉजी विभाग को एक पूर्ण कैंसर अनुसंधान संस्थान (Cancer Research Institute)  बनाने का निर्णय लिया। एक वरिष्ठ शोध छात्र से ऊपर उठकर मैं इस नए शोध केंद्र की संस्थापक सदस्य बनी। हम तीन लोगों को विदेश भेजा गया ताकि हम जैव-चिकित्सा अनुसंधान (Biomedical Research) में उपयोगी नई तकनीकों जैसे जेनेटिक्स (Genetics), टिशू कल्चर (Tissue Culture) और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (Electron Microscopy) सीखकर लौटें। विज्ञान के दिग्गजों – हैंसस सेलिये, अल्बर्ट ज़ेंट-गेओरगी, लायनस पॉलिंग, एलेक्स हैडो, चार्ल्स ओबरलिंग और विलियम ऐस्टबरी – की प्रयोगशालाओं में काम करके विज्ञान की विधियों के साथ-साथ, मैंने वह वैज्ञानिक तहजीब भी सीखी जो आधुनिक जैव-चिकित्सा अनुसंधान के लिए आवश्यक है।

लौटकर मैंने अल्ट्रास्ट्रक्चरल सायटोलॉजी और डायग्नोस्टिक मॉलिक्यूलर पैथोलॉजी (Molecular Pathology) में भारत की पहली बायोमेडिकल प्रयोगशाला स्थापित की। इस केंद्र में विद्यार्थियों की भीड़ जुटने लगी, और यह अपने काम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया। इस प्रयोगशाला में हमने कोशिका झिल्ली के सामान्य से असामान्य में परिवर्तित होने, कैंसर, जंक्शनल कॉम्प्लेक्स और कैंसर के फैलाव, वायरस, रक्त, स्तन और नाक के कैंसर पर अध्ययन किए। हमारा मुख्य ध्यान मुंह के कैंसर (Oral Cancer from Tobacco) की कैंसर-पूर्व स्थितियों (Oral Pre-Cancer), जैसे ल्यूकोप्लाकिया (Leukoplakia) और ओरल सबम्यूकस फाइब्रोसिस (Oral Submucous Fibrosis) तथा, सच कहूं तो, भारत में पान और तंबाकू के सेवन से फैलने वाले मुंह के कैंसर पर था। प्रयोगशाला में प्रशिक्षित शोधार्थियों को औपचारिक वैज्ञानिक प्रशिक्षण के साथ-साथ और भी बहुत कुछ सीखने को मिला। जब बॉम्बे युनिवर्सिटी ने लाइफ साइंसेज़ में स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रम शुरू किए तो यह एक वरदान था।

मैं हमेशा अस्पताल के गलियारों में पीड़ित मानवता के प्रति जागरूक रही। हम अपने काम के वैज्ञानिक पहलुओं (जैसे इलेक्ट्रॉन हिस्टोकेमिस्ट्री, इम्यून इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी, इलेक्ट्रॉन ऑटोरेडियोग्राफी, क्रायोइलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी) के साथ-साथ मानवीय पक्ष को लेकर भी सचेत थे। कैंसर रोगियों के जीवन और उनकी मृत्यु की निकटता ने मुझे शांति अवेदना आश्रम – भारत का पहला हॉस्पाइस (India’s First Hospice) (मरणासन्न रोगियों का आश्रय) – शुरू करने के लिए प्रेरित किया। मैं इस संस्थान की संस्थापक ट्रस्टी और काउंसलर रही।

मैं यह बता चुकी हूं कि कैसे युवावस्था में रोमांस और यथार्थ ने मेरे मन पर गहरा प्रभाव डाला और मुझे इस रास्ते पर धकेल दिया। जहां तक मार्गदर्शकों की बात है, मेरे पहले गुरु मेरे पिता थे। वे स्वभाव से एक अध्येता थे जिन्होंने शुरुआत सेंट ज़ेवियर कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर के रूप में की थी, लेकिन बाद में शिपिंग के क्षेत्र में चले गए। वे खूब पढ़ते थे और संस्कृत के विद्वान थे। ये गुण उन्होंने अपने बच्चों को भी दिए। वे लेखक भी थे।

वैज्ञानिक जीवन में मेरे पहले मार्गदर्शक डॉ. खानोलकर थे, और दूसरे मेरे पति, डॉ. एम. वी. सिरसाट, जिन्होंने मेरे जीवन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हमारे बीच उम्र का काफी अंतर था, लेकिन वे मेरे दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे। वे एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने-माने ऑन्को-पैथोलॉजिस्ट (कैंसर-निदान विशेषज्ञ) (Onco-Pathologist)  थे, जो सामान्य से रोगग्रस्त अवस्था की ओर संक्रमण, विशेषकर नियोप्लेसिया और दुर्दम्यता (मैलिगनेंसी) के संदर्भ में गहन जानकारी रखते थे। वे नौजवान पैथोलॉजिस्ट्स के बीच बेहद लोकप्रिय शिक्षक थे। जब भी मुझे इस भयावह बीमारी (Cancer Diagnosis) की जटिलताओं से जूझना पड़ता, वे इसे धैर्य और स्नेह से हल कर देते। हमारा यह साथ काफी अद्भुत था। उन्होंने मेरे शोध को हर संभव समर्थन दिया और मेरी पेशेवर उपलब्धियों पर गर्व महसूस किया।

क्या मैंने कभी अपना करियर बदलने पर विचार किया? नहीं, कभी नहीं! मैं कभी भी अपने पेशे को बदलने के बारे में सोच नहीं सकी। यह सिर्फ एक नौकरी नहीं थी, यह टाटा मेमोरियल सेंटर और पूरी दुनिया की प्रयोगशालाओं में मेरी साधना और तपस्या थी। यह मेरे काम के साथ एक “प्रेम कहानी” (Passion for Science Career) थी, जिसमें मैंने जो ज्ञान अर्जित किया, उसे भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सैकड़ों विद्यार्थियों तक पहुंचाया।

सेवानिवृत्त के बाद भी मैं टाटा मेमोरियल सेंटर की मेडिकल एथिक्स कमेटी (Medical Ethics Committee)  के अध्यक्ष के रूप में काम करती रही। मैंने 17 साल तक भारतीय विद्या भवन आयुर्वेदिक केंद्र में ‘प्राचीन ज्ञान और आधुनिक खोज’ पर काम किया। इस कार्य में संस्कृत के ज्ञान ने मेरी काफी मदद की। मैंने वृद्धात्रयी – चरक, सुश्रुत और वाग्भट में कैंसर वर्गीकरण (Cancer Classification in Ayurveda)  के एक प्रोजेक्ट पर काम किया। यह देखकर हैरानी होती है कि इन प्राचीन विद्वानों के विवरण आधुनिक विज्ञान से कितनी अच्छी तरह मेल खाते हैं। उन्हें विभिन्न ऊतकों (टिश्यू) के ट्यूमर और उनके जैविक व्यवहार, सौम्य और घातक (Benign and Malignant Tumors) (बेनाइन और मैलिग्नेंट) कैंसर तथा हड्डी और रक्त कैंसर (Bone and Blood Cancer) के बारे में गहरी जानकारी थी। उनके पास तो केवल मानव शरीर, मृत व्यक्ति का बारीकी से निरीक्षण तथा उनका अंतर्ज्ञान ही एकमात्र साधन था।

आखिर में युवा वैज्ञानिकों के लिए कुछ बातें: क्या आप एक सम्मानित वैज्ञानिक कहलाना चाहते हैं? जीवन के सिद्धांत सख्त होते हैं! अपने काम के प्रति ईमानदार रहें और खुद से सच्चे रहें। अनुशासन बनाए रखें। अपने साथी वैज्ञानिकों के काम का कभी अपमान न करें। सतर्क रहें – अपनी लॉगबुक या रिकॉर्ड में किसी पहले से तय सिद्धांत के अनुसार कभी हेरा-फेरी न करें। सबसे ज़रूरी, जीवन सीखने के लिए है – तो सीखते रहिए, सीखते रहिए और सीखते रहिए! आप बहुत रोमांचक यात्रा पर हैं – वह यात्रा है प्रकृति के रहस्यों की खोजबीन की यात्रा! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी संधि के लिए एकजुटता, अमेरिका बाहर

तीन साल की बातचीत के बाद, दुनिया के देशों ने आखिरकार एक ऐतिहासिक संधि पर सहमति जताई है, जिसका उद्देश्य भविष्य की महामारियों (pandemic treaty) के लिए बेहतर तैयारी करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा समर्थित नई वैश्विक संधि, कोविड-19 (covid-19) महामारी के दौरान हुई गलतियों से सीखकर, खासकर टीकों (vaccines), दवाओं (drugs) और सूचनाओं के आदान-प्रदान को बेहतर बनाने की कोशिश है।

संधि का मुख्य उद्देश्य महामारी से निपटने के तरीकों को त्वरित और निष्पक्ष बनाना है एवं देशों को एकजुट करना है। गौरतलब है कि इस समझौते से एक महत्वपूर्ण पक्ष, यानी अमेरिका, गायब है। शुरुआती बातचीत में अहम भूमिका निभाने के बावजूद, अमेरिका ने इन वार्ताओं से दूरी बना ली है। फिर भी, अधिकांश देशों ने लोगों की भलाई के लिए समझौता वार्ता को जारी रखा। संधि की कुछ मुख्य बातें यहां दी प्रस्तुत हैं।

स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की सुरक्षा

संधि की पहली सहमति स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को बेहतर सुरक्षा देने से सम्बंधित है। कोविड-19 संकट के दौरान, अग्रिम पंक्ति (healthcare frontline workers) के कई कार्यकर्ताओं (डॉक्टर, नर्स, लैब तकनीशियन वगैरह) को व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (PPE) की गंभीर कमी का सामना करना पड़ा था। संधि में इन अग्रिम पंक्ति कार्यकर्ताओं के लिए बेहतर नीतियां बनाने की बात की गई है ताकि उन्हें सही उपकरण, प्रशिक्षण और समर्थन मिल सके। उनकी सुरक्षा महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर स्वास्थ्य कार्यकर्ता बीमार पड़ते हैं तो पूरी स्वास्थ्य प्रणाली ठप हो जाती है।

नए टीकों दवाओं को मंज़ूरी

संधि देशों से आव्हान करती है कि नए टीकों और दवाओं के परीक्षण और मंज़ूरी प्रक्रिया को, सुरक्षा से समझौता किए बगैर, गति दें। इसका उद्देश्य वैश्विक प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाना है ताकि जीवन रक्षक उपचार (emergency vaccine approval) लोगों तक जल्दी पहुंच सकें। इसके लिए संधि में देशों को अपनी दवा नियामक प्रणालियां मज़बूत करने का सुझाव दिया गया है।

छलकने को थामना

कई महामारियां, जैसे कोविड-19, तब शुरू हुईं जब वायरस जीवों से मनुष्यों में पहुंचे। इसे (छलकना) ‘स्पिलओवर’ कहा जाता है। संधि में ऐसे स्पिलओवर का खतरे कम करने के लिए अधिक निवेश का सुझाव है। इसमें जंतुओं में रोगों की निगरानी, वन्यजीव व्यापार पर सख्त नियंत्रण और जीवित जंतुओं के बाज़ारों में स्वच्छता और निगरानी में सुधार शामिल है।

त्वरित डैटा साझेदारी

कोविड-19 के दौरान, वायरस के नमूनों और जेनेटिक जानकारी साझा करने में देरी से टीकों और परीक्षणों के विकास में बाधा आई। संधि में देशों से नए वायरसों और बैक्टीरिया के बारे में जानकारी तुरंत और सार्वजनिक करने (real-time data sharing) की अपील की गई है, ताकि दुनिया भर के वैज्ञानिक मिलकर उपचार विकसित कर सकें।

पहुंच में समता

पिछली महामारी में, समृद्ध देशों ने ज़रूरत से ज़्यादा टीके जमा कर लिए थे, जबकि गरीब देशों को बहुत लंबा इंतज़ार करना पड़ा था। अमीर हो या गरीब, संधि सभी देशों को टीका, उपचार और निदान (vaccine quity) का उचित हिस्सा, उचित समय पर देने की बात करती है। संधि में उत्पादकों को टीकों वगैरह का एक हिस्सा आपातकालीन स्थितियों में आपूर्ति हेतु दान करने या सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

इस संधि की मुख्य बात यह है कि यह कोविड-19 महामारी के अनुभव से जन्मी है। जिन देशों के पास टीका कारखाने थे, उनके पास टीकों की भरपूर खुराकें थीं, जबकि गरीब देशों को टीके मुश्किल से मिल रहे थे। यदि टीकों का समान वितरण होता तो लाखों संक्रमण और जानें बचाई जा सकती थीं। इसी समस्या के मद्देनज़र, WHO के 194 सदस्य देशों ने दिसंबर 2021 में एक वैश्विक संधि का मसौदा (draft pandemic accord) तैयार करना शुरू किया, ताकि भविष्य में ऐसी दिक्कतों से बचा जा सके।

संधि पर सहमति तक पहुंचना आसान नहीं था। वार्ता में सबसे मुश्किल मुद्दा समानता का था: यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि जो गरीब देश खतरनाक वायरस की जानकारी साझा करें, उन्हें उस जानकारी के आधार पर विकसित टीकों और उपचारों तक भी समान पहुंच मिले। इससे एक नया सिस्टम बना – रोगजनकों तक पहुंच व लाभों की साझेदारी (Pathogen Access and Benefit Sharing  – PABS)। इसे इस तरह समझें: अगर कोई देश नया वायरस खोजता है और उसे पूरी दुनिया वैज्ञानिकों के साथ साझा करता है तो उसे इसके खिलाफ विकसित टीकों व दवाइयों का एक उचित हिस्सा मिलना चाहिए। न सिर्फ टीके मिलना चाहिए बल्कि टीका तैयार करने की विधि भी मिलना चाहिए ताकि ऐसे देश खुद अपना टीका बना सकें।

एक और प्रमुख बहस प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के बारे में थी। इसका उद्देश्य विकासशील देशों को अपनी खुद की दवाइयां और टीके बनाने के लिए सहायता प्रदान करना है। कई निम्न-आय वाले देशों का मानना था कि उन्हें भविष्य में महामारी के दौरान समृद्ध देशों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, और उन्हें खुद को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए।

लेकिन यह कैसे हो? प्रारंभिक मसौदों में कहा गया था कि प्रौद्योगिकी “आपसी सहमति से तय शर्तों” पर साझा की जाएगी। हालांकि, कुछ समृद्ध देशों ने इसमें “स्वैच्छिक” शब्द जोड़ने की इच्छा जताई, जिसका मतलब था कि किसी भी देश को प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। गरीब देशों के लिए यह अस्वीकार्य था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे संधि कमज़ोर हो जाएगी और भविष्य के लिए गलत मिसाल बनेगी। लंबी चर्चाओं के बाद, दोनों पक्षों ने “आपसी सहमति से तय शर्तों” शब्द को बरकरार रखा और एक फुटनोट जोड़ा, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि इसका मतलब “इच्छा से लिया गया” है।

संधि के अंतिम संस्करण में निर्माताओं (दवा और टीका निर्माताओं) (vaccine manufacturers commitment) ने यह संकल्प लिया है: अपने महामारी उत्पादों (टीकों, दवाइयों, नैदानिक परीक्षणों) का 10 प्रतिशत हिस्सा WHO को वैश्विक वितरण के लिए दान करेंगे; इसके अलावा, 10 प्रतिशत सस्ती कीमतों पर ज़रूरतमंद देशों को उपलब्ध कराएंगे। अगले वर्ष इन प्रतिशतों पर अंतिम सहमति बनने के बाद ही सारे देश संधि पर हस्ताक्षर करेंगे।

इस संधि में कुछ कमियां भी लगती हैं; जैसे इसमें देशों के लिए नियम नहीं हैं, यह महज़ दिशानिर्देश देती है। फिर भी, केवल तीन वर्षों में एक नया अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international health agreement) बनाना बड़ी बात है। सामान्यत: ऐसे समझौते बनाने में ज़्यादा समय लगता है। बहरहाल, संधि के अंतिम रूप में पहुंचने और मंज़ूरी का बेसब्री से इंतज़ार है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुनिया भर की मिट्टी में विषैली धातुएं

ज़ारों सालों से इंसान ज़मीन ने धातुएं निकालकर तरह-तरह के औज़ार और उपकरण बनाते आए हैं – पुराने तांबे-कांसे-लोहे के औज़ारों से लेकर वर्तमान जटिल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों तक (heavy metals in soil)। लेकिन इस तरक्की की एक भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है: मृदा में ज़हरीली धातुओं का संदूषण(soil contamination)। हाल ही में वैज्ञानिकों बताया है कि पृथ्वी की ऊपरी मृदा (टॉप-सॉइल) का एक बड़ा हिस्सा ज़हरीली धातुओं से संदूषित है। यह संदूषण लगभग एक से डेढ़ अरब लोगों के लिए खतरा बन सकता है (toxic metals health risk)।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन वैश्विक स्तर पर मृदा में मौजूद ज़हरीली धातुओं का पहला व्यापक विश्लेषण (global soil pollution study) है। इसमें दुनिया भर से जुटाए गए लगभग 8 लाख मृदा नमूनों का डैटा इस्तेमाल किया गया है। अध्ययन के अनुसार दक्षिणी युरोप से चीन तक फैले एक बड़े इलाके और अफ्रीका तथा अमेरिका के कई हिस्सों में मृदा खतरनाक स्तर तक संदूषित है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दुनिया की 14-17 प्रतिशत कृष्य भूमि इससे प्रभावित है, जिससे लोगों की सेहत और खाद्य सुरक्षा दोनों पर असर पड़ेगा (agricultural land contamination)।

गौरतलब है कि आर्सेनिक, कैडमियम, सीसा जैसी ज़हरीली धातुएं इंसानी सेहत के लिए अत्यंत नुकसानदायक होती हैं (arsenic cadmium lead effects)। ये कैंसर, दिल और फेफड़ों की बीमारियों के साथ-साथ बच्चों के मानसिक विकास में रुकावट पैदा कर सकती हैं। थोड़ी मात्रा में तो ये धातुएं मृदा में प्राकृतिक रूप से होती हैं, लेकिन खनन, धातु संगलन जैसी गतिविधियों से इनकी मात्रा बहुत बढ़ जाती है (metal mining pollution)।

वैश्विक स्तर पर इनका प्रसार जानने के लिए ज़िंगहुआ विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डेयी हॉउ के दल ने मृदा में ज़हरीली धातुओं पर हुए 1493 अध्ययनों से डैटा जुटाया। फिर मशीन लर्निंग तकनीक की मदद से उन्होंने उन इलाकों में भी धातुओं की मौजूदगी का अनुमान लगाया, जहां इस तरह के अध्ययन नहीं हुए थे (AI in environmental research)। इस तरह से तैयार विस्तृत वैश्विक नक्शा दर्शाता है कि विश्व के किन-किन हिस्सों में मृदा में खतरनाक मात्रा में ज़हरीली धातुएं हो सकती हैं।

इस अध्ययन में पाया गया कि कैडमियम सबसे व्यापक रूप से फैली संदूषक (cadmium soil levels) है – लगभग 9 प्रतिशत ऊपरी मृदा में इसका स्तर उच्च पाया गया। कैडमियम प्राकृतिक रूप से चट्टानों के अपरदन और इंसानी गतिविधियों, जैसे ज़िंक खनन और बैटरी उत्पादन से आती है। इसका मिट्टी में मिलना खास तौर पर चिंताजनक है क्योंकि यह आसानी से फैलती है और खाद्य शृंखला (food chain contamination) में प्रवेश कर सकती है।

हालांकि मृदा में धातु संदूषण से खतरा इस बात पर निर्भर करता है कि पौधे इन धातुओं को कितनी आसानी से अवशोषित करते हैं। उदाहरण के लिए, क्षारीय या चूनेदार मृदा में, कैडमियम जैसी धातुएं फसलों द्वारा कम अवशोषित होती हैं। फिर भी, वैज्ञानिक अधिक शोध पर ज़ोर देते हैं। वे विशेष रूप से यह समझना चाहते हैं कि ये धातुएं विभिन्न प्रकार की मृदाओं में कैसे व्यवहार (metal uptake in plants) करती हैं।

इस अध्ययन की एक सीमा भी है: इसमें धातुओं के अलग-अलग यौगिकों का विश्लेषण नहीं किया गया जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि वे कितनी विषैली हैं। केवल जैविक रूप से उपलब्ध धातुएं, जिन्हें पौधे और जीव अवशोषित कर सकते हैं, ही गंभीर खतरा होती हैं। फिर भी, इन निष्कर्षों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।

इस अध्ययन में पहचाने गए सबसे अधिक जोखिम वाले क्षेत्र (high risk zones soil pollution) हैं दक्षिणी चीन, उत्तरी भारत, और मध्य पूर्व। सबसे हैरत की बात धातु संदूषण के प्रसार का एक गलियारा है जो दक्षिण युरोप से लेकर पूर्वी एशिया तक फैला है। यह गलियारा विश्व की कुछ सबसे प्राचीन सभ्यताओं से होकर गुज़रता है जहां खनन, उद्योग और बदलते मौसमों का लंबा इतिहास रहा है। यहां की कुछ मृदाएं क्षारीय हैं और विषाक्तता को कम कर सकती हैं। समग्र चित्र दर्शाता है कि यह मानव द्वारा पृथ्वी की सतह पर गहरा प्रभाव डालने का परिणाम है। बहरहाल, दुनिया को बैटरी और सौर पैनलों जैसी हरित प्रौद्योगिकियों (green technology metals demand) के लिए अधिक धातुओं की आवश्यकता है; इससे मृदा संदूषण का जोखिम बढ़ सकता है। अध्ययन के लेखकों ने सरकारों से अनुरोध किया है कि वे मृदा की जांच बढ़ाएं, विशेष रूप से अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्रों जैसी जगहों में जहां अध्ययन कम हुए हैं। कुल मिलाकर यह अध्ययन दर्शाता है कि हमारे पैरों तले की ज़मीन उतनी सुरक्षित नहीं है जितना हम सोचते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कोलोसल स्क्विड को जीवित देखा गया

रीब एक सदी से वैज्ञानिकों को एक जीव की तलाश थी – यह जीव था एक प्रकार का स्क्विड (Mesonychoteuthis hamiltoni) (colossal squid)। हाल ही में शोधकर्ता इस आधा टन वज़नी स्क्विड को उसके अपने प्राकृतवास में जीवित देख पाए हैं। और तो और, उन्होंने इसे इसकी शैशवावस्था (baby colossal squid) में देखा है।

दरअसल, करीब सौ साल पहले वैज्ञानिकों ने स्पर्म व्हेल के पेट में पहली बार इस स्क्विड (कोलोसल स्क्विड) के अवशेषों को देखा था (deep sea creatures)। तब से उन्हें इसकी तलाश थी। हालांकि मछुआरों द्वारा मछली पकड़ने के लिए फेंके गए जाल में कभी-कभी ये स्क्विड भी फंस जाते हैं, लेकिन मृत अवस्था में। मृत कोलोसल स्क्विड के अवलोकन के आधार पर वैज्ञानिक इसके बारे में कुछ बुनियादी बातें बता पाए थे। जैसे वह कैसा दिखता है, उसका भोजन क्या होगा वगैरह। उनका यह भी अनुमान था कि यह समुद्री जीवन का संभवत: सबसे वज़नी अकेशरुकी जीव होगा(largest invertebrate in ocean)।

लेकिन जीवित मिल जाए तो इसके बारे में बहुत कुछ बताया जा सकता है। इसलिए लगातार इसकी तलाश जारी थी। इस तलाश को विराम मिला विगत 9 मार्च को, जब श्मिट ओशियन इंस्टीट्यूट (Schmidt Ocean Institute) का शोधपोत दक्षिण अटलांटिक महासागर में सर्वेक्षण अभियान पर था। जब शोधपोत दक्षिणी सेंडविच द्वीप के पास था, तब रिमोट नियंत्रित किए जा सकने वाले वीडियो कैमरे से लैस एक गाड़ी समुद्र में 600 मीटर की गहराई पर भेजी गई (underwater ROV), जिसके ज़रिए जीवविज्ञानी समुद्र की इस गहराई पर मौजूद जीवन का जायज़ा ले रहे थे। इसी दौरान उन्होंने 30 सेंटीमीटर लंबे शिशु स्क्विड को देखा। स्क्विड के विशिष्ट टेंटेकल्स और पिच्छों की आकृति से जीव वैज्ञानिकों ने इसके कोलोसल स्क्विड होने की पुष्टि की है। शिशु अवस्था में इसका शरीर पारदर्शी होता है। वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि उम्र बढ़ने के साथ इसका पारदर्शी शरीर अपारदर्शी और लाल रंग का हो जाएगा।

इसके थोड़े ही पहले, जनवरी माह में एक अन्य अभियान में अंटार्कटिका के नज़दीक बेलिंग्सहॉसन सागर में इस स्क्विड के एक सम्बंधी, ग्लेशियल ग्लास स्क्विड (Galiteuthis glacialis) (glacial glass squid) को भी पहली बार देखा गया था। दो अभियानों में दो अलग-अलग स्क्विड को पहली बार देखा जाना दर्शाता है कि हम महासागरीय जीवन से कितना अनभिज्ञ (mysteries of deep sea) हैं। बहरहाल, इन खोजों से उम्मीद है कि वैज्ञानिक इन जीवों के बारे में अधिक जान पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)  

कोलोसल स्क्विड का वीडियो यहां देखें।

https://www.science.org/content/article/colossal-squid-filmed-its-natural-habitat-first-time?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_content=alert&utm_campaign=WeeklyLatestNews&et_rid=17088531&et_cid=5592648

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भोजन में को-एंज़ाइम की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

एंज़ाइम (enzyme) ऐसे प्रोटीन होते हैं जो कोशिका में अभिक्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं, इससे चयापचय कुशलता से होता है। कुशल कामकाज के लिए कई एंज़ाइमों को सहकारक के रूप में कुछ अणु चाहिए होते हैं। इन सहायक अणुओं को को-एंज़ाइम (co-enzyme) कहा जाता है।

को-एंज़ाइम नैसर्गिक रूप से पाए जाने वाले कार्बनिक अणु होते हैं जो एंज़ाइम के साथ जुड़कर उनके कार्य में मदद करते हैं। को-एंज़ाइम क्यू (Coenzyme Q), जिसे यूबिक्विनोन के रूप में भी जाना जाता है, एक अणु है जिसमें कई आइसोप्रीन इकाइयां होती हैं। गौरतलब है कि आइसोप्रीन एंटीऑक्सिडेंट (antioxidants) होते हैं और तनाव की स्थिति से उबरने में मदद करते हैं।

यूबिक्विनोन हर कोशिका झिल्ली में मौजूद होता है और ऊर्जा उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण होता है। यूबिक्विनोन 10 प्रकार (CoQ1…CoQ10) के होते हैं। प्रत्येक यूबिक्विनोन श्वसन शृंखला का एक अणु होता है (cellular respiration)। ये पानी में अघुलनशील है लेकिन वसीय माध्यम में घुलनशील एंटीऑक्सीडेंट (fat soluble antioxidants) होते हैं। ये सभी को-एंज़ाइम कोशिका के प्रमुख ऊर्जा उत्पादक उपांग, माइटोकॉन्ड्रिया, के कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस लेख में, हम मुख्य रूप से दो को-एंज़ाइम – CoQ9 और CoQ10 – पर बात करेंगे।

CoQ9 में नौ आइसोप्रीन इकाइयां होती हैं। गेहूं, चावल, जई, जौं, मक्का और बाजरा जैसे अधिकांश अनाजों में CoQ9 प्रचुर मात्रा में पाया जाता (sources of coenzymes) है। इसके अलावा यह बांस और दालचीनी, एवोकाडो और काली मिर्च जैसे फूल वाले पौधों में भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।

CoQ10 का महत्व

मनुष्यों में, CoQ10 माइटोकॉन्ड्रिया (mitochondria) में इलेक्ट्रॉन परिवहन शृंखला का एक घटक है –  यही वह प्रक्रिया है जिससे शरीर की अधिकांश कोशिकीय ऊर्जा (cellular energy) का उत्पादन होता है। हृदय जैसे अंगों को बहुत ज़्यादा ऊर्जा चाहिए होती है और उनमें CoQ10 अधिक मात्रा में पाया जाता है। CoQ9 तो हमें अपने दैनिक भोजन के साथ खूब मिल जाता है। लेकिन कभी-कभी हमें अच्छे स्वास्थ्य के लिए अतिरिक्त CoQ10 की आवश्यकता होती है, क्योंकि कतिपय जेनेटिक कारकों, उम्र बढ़ने और तंत्रिका सम्बंधी समस्याओं के लिए इस यूबिक्विनोन की अधिक ज़रूरत होती है।

2008 में, इटली के मोंटिनी और उनके साथियों ने न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन  (new England journal of medicine) में बताया था कि CoQ10 की खुराक देने से उन रोगियों को मदद मिली जिन्हें तंत्रिका सम्बंधी समस्याएं (neurological disorders) थीं। इसी तरह, 2012 में, लंदन के न्यूरोलॉजी एंड नेशनल हॉस्पिटल की शमीमा अहमद और उनके साथियों ने बताया था कि CoQ10 की कमी वाले शिशुओं को यूबिक्विनोन एनालॉग (CoQ10 जैसा पदार्थ) देकर मदद की जा सकती है। और कई आहार विशेषज्ञ ऐसी दवाएं लिखते हैं और कंपनियां बेचती हैं जो CoQ10 के समान होती हैं।

CoQ10 का उत्पादन

जापान के इबाराकी स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रोबायोलॉजिकल साइंसेज़ के कोइचि कोदोवाकी और उनके दल ने 2006 में फेडरेशन ऑफ युरोपियन बायोसाइन्स सोसायटीज़ (FEBS) लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया था कि धान के पौधों को जेनेटिक रूप से परिवर्तित करके उनमें CoQ10 बनाया जा सकता है। शोधकर्ता धान के पौधों में ‘DdsA’ नामक जीन को प्रविष्ट करवाकर CoQ10 का उत्पादन भी कर पाए थे। उनमें CoQ10 का निर्माण 1.3 से 1.6 गुना अधिक हुआ और शर्करा भी उसी अनुपात में अधिक बनी। फिर, 2021 में नेचर सेल बायोलॉजी में मुनीकी नाकामुरा और उनके साथियों ने नोबेल फेम की मशहूर तकनीक, CRISPR-Cas9 की मदद से इसी उद्देश्य से सफलतापूर्वक जीन संपादन किया था।

खेत से कारखाने तक

‘जीन-संपादित पौधे खेत से कारखाने तक’, यह शीर्षक है नेचर जर्नल के 20 फरवरी, 2025 के अंक में प्रकाशित शोधपत्र का। इस शोधपत्र की लेखक चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इन मॉलीक्यूलर प्लांट साइंसेज़ की जिंग-जिंग शू और उनके साथी हैं। इसमें शोधकर्ताओं ने CoQ1 पर ध्यान केंद्रित करते हुए पौधों की सैकड़ों प्रजातियों का अध्ययन किया। यह एक ऐसा एंज़ाइम है जो CoQ की आइसोप्रिनॉइड शृंखला को संश्लेषित करता है। एंज़ाइम के जीन को उन्होंने जेनेटिक रूप से परिवर्तित किया, ताकि धान की ऐसी किस्म तैयार हो जो 75 प्रतिशत तक CoQ10 से युक्त हो। शू के इस श्रमसाध्य काम से यह पता चलता है कि एंटीऑक्सीडेंट अनुपूरक का कारखाना उत्पादन करने के लिए विभिन्न प्रकार की खाद्य फसलों को कैसे तैयार किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक पादप मॉडल का अनदेखा पहलू

रसों परिवार (ब्रेसिकेसी) का एक छोटा सा पौधा है थेल क्रेस (Arabidopsis thaliana)। 20-25 से.मी. लंबे इस पौधे में अधिकतर पत्तियां ज़मीन से सटकर, फूलनुमा आकृति बनाते हुए लगती हैं और बहुत थोड़ी पत्तियां ऊपर तने पर भी लगती हैं। इसके फूल सफेद रंग के होते हैं। यह पौधा मूलत: युरेशिया और अफ्रीका (Eurasia native weed plant) में पाया जाता है। भारत में यह हिमालयी क्षेत्र में पाया जाता है। यह खाली पड़े मैदान, सड़क किनारे, रेललाइन किनारे, खेतों में, कहीं भी उगता देखा जा सकता है, इसलिए इसे खरपतवार की तरह देखा जाता है, हालांकि कुछ जगहों पर इसे खाया भी जाता है।

थेल क्रेस पौधे की कुछ खास बातें हैं। एक तो इसका जीवन चक्र छोटा होता है, अंकुरण से लेकर वापस बीज बनने तक का इसका चक्र 6 हफ्तों में पूरा हो सकता है; यह खरपतवार की तरह आसानी से फल-फूल जाता है; इसका पौधा साइज़ में छोटा तो होता ही है, साथ ही इसका जीनोम भी सरल होता है (simple genome model plant)। अपनी इन सभी खूबियों के कारण 1900 के दशक से ही पादप विज्ञान में थेल क्रेस पर अध्ययन किए जाने लगे थे(model organism in plant biology)। फूलदार पौधों की जेनेटिक, आणविक कार्यप्रणाली को समझने में थेल क्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सबसे पहला संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण भी इसी पौधे का किया गया था(first plant genome sequencing)। और तो और, पादप विज्ञान का यह मॉडल पौधा 2019 में चांग ई-4 लैंडर के साथ चांद की भी सैर कर चुका है(Arabidopsis on Moon)।

और अब, इस पौधे के एक अनछुए पहलू का अध्ययन कर पादप विज्ञानी रियुशिरो कासाहारा और उनके दल ने इसकी एक ओर खासियत उजागर की है जो खेती के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है(crop yield improvement)। पता चला है कि (कम से कम) यह पौधा बड़ी चतुराई से अपने सिर्फ उन्हीं बीजांडों तक पोषण पहुंचने देता है जो निषेचित हो चुके होते हैं। और, अपने गैर-निषेचित बीजांड तक पोषण पहुंचने से रोकता है, जिससे पोषण का सदुपयोग होता है और बीज बड़ा बनता है(seed size enhancement)। और, बड़ा बीज यानी पैदावार में वृद्धि।

लेकिन अन्य फसलों में बीज कैसे बड़ा किया जाए? इस पर बात करने के पहले थोड़ा इस पर बात कर लेते हैं कि शोधकर्ताओं को यह बात पता कैसे चली। दरअसल, कासाहारा यह समझना चाह रहे थे कि पौधे बीज कैसे बनाते हैं(seed development in plants)? इसके लिए कासाहारा ने थेल क्रेस को अध्ययन के लिए चुना और अपना सारा ध्यान इसके फूल के उस स्थान पर केंद्रित किया जहां कई सारी नलिकाओं (फ्लोएम) के माध्यम से पोषक तत्व पहुंचकर विकासशील भ्रूण को पोषण देते हैं(phloem transport in plants)।

नीले रंजक का इस्तेमाल कर उन्होंने इस हिस्से में कैलोस का असर देखा। गौरतलब है कि कैलोस पौधों में अस्थायी कोशिका भित्ति बनाकर पौधों के लिए कई काम करता है और पौधों को सुरक्षा प्रदान करता है; जैसे यह पौधों के घावों को भरने में मदद करता है। पता चला कि फ्लोएम के अंतिम छोर पर बीजांड के पास की कोशिकाओं में कैलोस बन रहा था (callose formation in plants)। कैलोस ने फ्लोएम के सिरे के चारों ओर एक तश्तरी जैसा अवरोध (भित्ति) बना दिया था। फिर, अधिकांश निषेचित बीजांडों से वह अवरोध गायब हो गया था, और वहां मात्र एक छल्ला रह गया था – जल्द ही वह छल्ला भी लुप्त हो गया था। लेकिन जो बीजांड निषेचित नहीं हुए थे उनमें अवरोध जस-का-तस बना रहा। इससे समझ आया कि कैलोसयुक्त कोशिकाएं एक दीवार का काम करती हैं, जो फ्लोएम के पोषक तत्वों को गैर-निषेचित बीजांडों में जाने से रोकती हैं(nutrient regulation in fertilized ovules)। इस तरह पौधा गैर-निषेचित बीजांड में अतिरिक्त पोषण ज़ाया करने से बच जाता है।

अब सवाल था कि वह क्या शय है जो निषेचित बीजांड से कैलोस-अवरोध हटा देती है। शोधकर्ताओं की यह तलाश एक ऐसे एंज़ाइम, AtBG_ppap, पर जाकर खत्म हुई जो कैलोस को विघटित करने (या हटाने) की क्षमता रखता है(AtBG_ppap enzyme function)। और इसी एंज़ाइम को बनाने वाले जीन को अधिक सक्रिय कर कुछ फसलों की पैदावार बढ़ाई जा सकती है(gene expression for higher yield)।

इस बात का खुलासा भी थेल क्रेस पर किए गए अध्ययन से हुआ। शोधकर्ताओं ने जब इस पौधे में AtBG_ppap एंज़ाइम को बनाने वाले जीन को शांत किया तो पाया कि पौधे में सभी बीजांड (निषेचित और गैर-निषेचित) पर कैलोस भित्ति काफी हद तक वैसी की वैसी बनी रही थी। इसके कारण इस जीन के प्रभाव से मुक्त पौधों के बीज सामान्य पौधों के बीज के साइज़ की तुलना में 8 प्रतिशत छोटे बने थे। लेकिन जब टीम ने इन पौधों में AtBG_ppap एंज़ाइम के जीन को अति सक्रिय किया तो पाया कि ऐसा करने पर बीज सामान्य पौधों के बीजों की तुलना में 17 प्रतिशत बड़े विकसित हुए(enhanced seed size via gene editing)। संभवत: इसलिए कि निषेचित बीजांड की कैलोस-भित्ति आसानी से टूट गई होगी और अधिक पोषक तत्व निषेचित बीजांड तक पहुंचे होंगे।

ऐसा ही उन्होंने धान के पौधों पर भी करके देखा तो उन्हें ऐसे ही नतीजे मिले – AtBG_ppap एंज़ाइम के जीन को अधिक व्यक्त करवाने पर चावल के दाने की साइज़ 9 प्रतिशत बढ़ गई थी(larger rice grain size)। लेकिन चावल के बड़े दाने होने से शायद इसके स्वाद पर फर्क पड़े, हालांकि स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ने जैसी बात तो अध्ययन में सामने नहीं आई है। लेकिन बड़े बीज वाली फसलें सोयाबीन, मक्का और गेहूं जैसी फसलों के लिए फायदेमंद हो सकती हैं (yield optimization in soybean and maize)। (स्रोत फीचर्स)

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मानव कचरा कीट के रक्षा कवच में शामिल हुआ

माइक्रोप्लास्टिक (microplastics pollution) हर जगह पहुंच गया है – गहरे समुद्र से लेकर मानव मस्तिष्क (microplastics in human brain) तक। प्लास्टिक के 5 मिलीमीटर से छोटे-छोटे टुकड़ों के लिए माइक्रोप्लास्टिक शब्द वैज्ञानिकों ने 2000 के दशक में गढ़ा था, लेकिन इस समस्या ने अपने पांव पसारना उसके बहुत पहले ही शुरू कर दिया था। साइंस ऑफ दी टोटल एनवायरनमेंट जर्नल (Science of the Total Environment journal) में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि कुछ कीटों की इल्लियां शिकारियों से बचाने वाले अपने खोल में 1970 के दशक से ही प्लास्टिक शामिल करने लगी थीं।

दरअसल वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि जीव-जंतुओं के दैनिक जीवन में मानव अपशिष्ट (human waste impact on wildlife) कैसे शामिल हो रहे हैं। कई अध्ययनों की अपनी इस शृंखला में वे पहले कई खुलासे कर चुके हैं। और अपने इस हालिया अध्ययन में उन्होंने ने कैडिसफ्लाय (ट्राइकोप्टेरा) (Trichoptera insects) की इल्ली के बारे में बताया है।

दरअसल, कैडिसफ्लाय पंखदार कीटों का एक समूह है, जिसकी इल्लियां तो पानी में पलती हैं लेकिन वयस्क कीट भूमि (aquatic to terrestrial insect life cycle) (थल) पर रहते हैं। जब ये इल्लियां पानी में रहती हैं तो वे कंकड़-पत्थर या पत्तियों जैसी सामग्री से अपना सुरक्षा कवच बनाती हैं। वयस्क होने पर यह कवच पानी में ही छोड़कर वयस्क कीट भूमि पर आ जाते हैं।

शोधकर्ताओं ने नेदरलैंड के एक प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय (Netherlands natural history museum) में दशकों की अवधि में सहेजे गए 549 खोलों के संग्रह का विश्लेषण किया। 1986 के कुछ कवचों में उपस्थित चमकीले नीले कणों ने शोधकर्ताओं का ध्यान खींचा। फिर, 1971 के एक कवच में उन्हें पीले रंग के कण मिले। आगे अध्ययन में उन्हें कवच में टाइटेनियम, जस्ता और सीसा जैसे सामान्य प्लास्टिक योजक (plastic additives in insects) होने के प्रमाण मिले। कवचों में प्लास्टिक की इस उपस्थिति पर वैज्ञानिकों का कहना है कि रंगीन माइक्रोप्लास्टिक इल्ली को शिकारियों की नज़रों में अधिक दिखने योग्य बना देगा, जिससे वे मछलियों, पक्षियों और अपने अन्य शिकारियों के कारण खतरे में पड़ सकती हैं(predation risk due to microplastics)। साथ ही यदि कैडिसफ्लाय पिछले 50 वर्षों से माइक्रोप्लास्टिक से प्रभावित है तो निश्चित रूप से मीठे पानी का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र (freshwater ecosystem pollution) प्रभावित होगा। (स्रोत फीचर्स)

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भारत में जलवायु परिवर्तन की गति धीमी है?

हाल ही में भारत के पर्यावरण मंत्रालय और हारवर्ड युनिवर्सिटी द्वारा आयोजित जलवायु सम्मेलन (climate summit india) में एक नक्शा दिखाया गया जिसमें पूरी दुनिया लाल रंग में तापमान वृद्धि दिखा रही थी, लेकिन भारत तुलनात्मक रूप से हल्के रंग में था। यानी नक्शा दिखा रहा था कि दुनिया के ज़्यादातर हिस्सों में तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है, लेकिन भारत अपेक्षा से धीरे-धीरे गर्म हो रहा है (global warming map, temperature anomaly India)।

किंतु, हाल के वर्षों के अपने अनुभवों और आंकड़ों को देखें तो भारत में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी (record heatwave India) और लू दर्ज की गई है। फिर भी चार्ट बताता है कि 1901 से अब तक भारत का सालाना औसत तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जो कि वैश्विक औसत से लगभग आधा है।

सवाल है कि ऐसा कैसे कि एक तरफ देश में भीषण गर्मी पड़ रही है और दूसरी तरफ दीर्घकालिक तापमान वृद्धि धीमी दिख रही है?

इस विरोधाभास की एक बड़ी वजह वायु प्रदूषण (air pollution India) माना जा रहा है। खासकर उत्तर भारत में गंगा का मैदानी इलाका दुनिया के सबसे प्रदूषित क्षेत्रों (most polluted region) में से एक है। यहां उद्योगों, गाड़ियों, खाना पकाने, पराली जलाने और धूल के कारण हवा में सूक्ष्म कणों से भरपूर एरोसोल छा जाते हैं। ये सूरज की रोशनी को वापस अंतरिक्ष में परावर्तित कर देते हैं (aerosol effect on climate) और हवा को ठंडा कर देते हैं। यह प्रदूषण कभी-कभी ग्रीनहाउस गैसों के असर को दबा देता है।

लेकिन यह तर्क पूरी तरह मज़बूत नहीं है। सभी एरोसोल ठंडक नहीं पहुंचाते – जैसे काला धुआं (कालिख) (black carbon pollution) गर्मी को सोखता है और वातावरण को गर्म करता है। मुंबई के वैज्ञानिक रघु मूर्तुगुड़े कहते हैं कि भारत में सबसे ज़्यादा प्रदूषण सर्दियों में होता है, और सबसे तेज़ तापमान वृद्धि भी उन्हीं महीनों में देखी गई है। इसका मतलब है कि सिर्फ एरोसोल इस पैटर्न की व्याख्या नहीं कर सकता।

एक और कारण बदलता पवन चक्र (changing wind patterns) हो सकता है। रघु मूर्तुगुड़े और उनके साथियों ने पाया है कि मध्य एशिया में तेज़ गर्मी के कारण मानसूनी हवाओं की दिशा बदल रही है। अब ये हवाएं थोड़ा उत्तर की ओर खिसक रही हैं, जिससे पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत के सूखे इलाकों में ज़्यादा बारिश हो रही है। अब वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या बाकी मौसमों में भी पवन चक्र में ऐसे ही बदलाव भारत में तापमान को अपेक्षाकृत ठंडा बनाए हुए हैं।

एक तीसरी वजह भारत में बड़े पैमाने पर सिंचाई (large-scale irrigation India) हो सकती है, खासकर उत्तर भारत में। जब खेतों और पौधों से पानी भाप बनकर उड़ता है, तो वह हवा से गर्मी खींचता है, जिससे ठंडक महसूस होती है (evapotranspiration cooling effect)। ऐसा असर अमेरिका के मिडवेस्ट इलाके में भी अत्यधिक खेती की वजह से देखा गया है।

कुछ शोध बताते हैं कि 20वीं सदी में पूरे दक्षिण एशिया में बड़े स्तर पर हुई सिंचाई ने तापमान वृद्धि की रफ्तार (agriculture and climate interaction) को धीमा कर दिया। लेकिन इस पर भी सवाल उठाए गए हैं। कुछ भारतीय वैज्ञानिकों का मानना है कि उपग्रहों से मिले आंकड़े गर्मियों में सिंचाई की मात्रा को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं। गर्मियों में ही सिंचाई सबसे कम होती है, और उसी समय तापमान वृद्धि में कमी सबसे ज़्यादा दिखाई देती है।

वहीं, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के गोविंदसामी बाला का मानना है कि भारत नम-उष्णकटिबंधीय क्षेत्र (humid tropical climate) में स्थित है और यहां का प्राकृतिक मौसम चक्र खुद ही इस धीमी तापमान वृद्धि का कारण हो सकता है। उनके अनुसार, प्रदूषण और सिंचाई का असर स्थानीय स्तर पर हो सकता है, लेकिन पूरे देश के तापमान पर इसका खास असर नहीं पड़ता।

बहरहाल, उपरोक्त संभावित कारकों के अलावा एक और बात ध्यान में रखने की है। इस सम्मेलन का आयोजक स्वयं जलवायु मंत्रालय था, जो जलवायु परिवर्तन (climate change India) और बढ़ते तापमान को थामने के लिए ज़िम्मेदार है। फिर, भारत में आंकड़ों की हालत बहुत अच्छी नहीं है। उपरोक्त सारे आंकड़े उपग्रहों से प्राप्त हुए हैं और इनकी पुष्टि मैदानी आंकड़ों से करना ज़रूरी है। और, आंकड़े वही बयान करते हैं जो उनसे बयान करवाया जाता है।

कारण चाहे जो भी हो एक बात साफ है कि इस पर गहराई से अध्ययन (climate data analysis) और जांच-पड़ताल की ज़रूरत है। अधिक काम ही स्थिति को स्पष्ट कर पाएगा। और एक बात, भारत में औसत तापमान धीरे-धीरे बढ़े या तेज़ी से, लेकिन ग्रीष्म लहरें तो बढ़ रही हैं (heatwaves India 2023)। 2023 भारत के इतिहास का सबसे गर्म साल रहा, जिसमें भीषण ग्रीष्म लहरों ने 700 से ज़्यादा लोगों की जान ली। विशेषज्ञों का मत है कि आगामी सालों में गर्मियां और भी घातक हो सकती हैं। इसलिए बढ़ते तापमान को थामने और बदलती जलवायु को रोकने के प्रयास करने में ही भलाई है(climate action India)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक ग्रह को तारे में समाते देखा गया

हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक दुर्लभ और रोमांचक खगोलीय घटना (rare astronomical event) देखी है। उन्होंने पहली बार एक विशाल ग्रह (giant exoplanet) को खुद अपने तारे में समाते देखा है। आम तौर पर माना जाता है कि जब कोई तारा बूढ़ा होता है, तब वह फैलकर एक लाल दानव (red giant) में बदल जाता है और अपने पास के ग्रहों को निगल लेता है। लेकिन यहां ग्रह को खुद-ब-खुद तारे में छलांग लगाते देखा गया है। यह ग्रहों के खत्म होने का एक बिलकुल नया तरीका है।

दरअसल 2023 में वैज्ञानिकों ने हमसे 12,000 प्रकाश वर्ष दूर स्थित एक तारे (distant star system) में अचानक तेज़ चमक देखी थी। उनका अनुमान था कि तारा अपने जीवन के आखिरी दौर में पहुंच गया है, लाल दानव बन रहा है और इस प्रक्रिया में उसने पास के किसी ग्रह को निगल लिया है।

लेकिन वर्तमान घटना में नासा के JWST से मिली नई जानकारी ने यह साफ किया है कि वह तारा बहुत छोटा और युवा है, इसलिए वह लाल दानव तो नहीं बना होगा। तो फिर यह तेज़ चमक कैसी?

वैज्ञानिकों का दावा है कि बृहस्पति जितना बड़ा ग्रह पहले से ही अपने तारे के बेहद पास चक्कर लगा रहा था – उतना ही करीब जितना बुध सूर्य के करीब है। लाखों वर्षों तक तारे का गुरुत्वाकर्षण (stellar gravity pull) ग्रह को धीरे-धीरे खींचता रहा, जैसे चंद्रमा पृथ्वी पर ज्वार लाता है। इस लगातार खिंचाव से ग्रह के अंदर घर्षण हुआ, उसकी ऊर्जा खत्म होने लगी और उसका रास्ता तारे की ओर मुड़ता चला गया।

अंतत:, वह ग्रह तारे के बहुत नज़दीक पहुंच गया। उसने तारे के बाहरी वायुमंडल को छू लिया, जहां उसे भारी खिंचाव का सामना करना पड़ा और उसकी रही-सही ऊर्जा भी खत्म हो गई। फिर हुई उसकी नाटकीय मौत – वह तारे से टकरा गया और उस टक्कर से अंतरिक्ष में बहुत ज़्यादा ऊर्जा, गैस और धूल (cosmic dust and gas explosion) फैल गई। यही था वो चमकदार धमाका जिसे खगोलविदों ने देखा था।

वैज्ञानिक इस घटना को “ग्रह की खुदकुशी” (planetary suicide) कह रहे हैं – क्योंकि यहां ग्रह धीरे-धीरे खुद ही तारे में समाता चला गया। इस तरह किसी ग्रह के अंत होने की प्रक्रिया (planetary destruction process) को पहली बार इतने साफ रूप में देखा गया है।

हालांकि JWST द्वारा प्राप्त यह जानकारी अभी शुरुआती है और इसके हर पहलू की पुष्टि के लिए और अध्ययन करने की ज़रूरत है। साथ ही, यह भी संभव है कि तारे की जो चमक हमें दिख रही है, उसका कारण यह भी हो सकता है पहले अंतरतारकीय धूल (interstellar dust interference) की वजह से वह धुंधला नज़र आ रहा हो। भविष्य में JWST की पूरी इन्फ्रारेड तरंगदैर्घ्य में किए जाने वाले अवलोकनों से तारे के आसपास धूल के गुबार की स्थिति के बारे में और जानकारी मिल सकती है।

यह खोज कुछ बड़े सवाल उठाती है: क्या ग्रह अक्सर इस तरह खत्म होते हैं? क्या हम पहले ऐसी घटनाएं देखने से चूके हैं? नई शक्तिशाली दूरबीनों (next generation telescopes) से इनके जवाब मिलने की उम्मीद है। (स्रोत फीचर्स)

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कुदरत को संवारती तितलियां

डॉ. पीयूष गोयल

तितलियां उड़ते हुए फूल हैं, और फूल बंधी हुई तितलियां हैं” – पोंस डेनिस एकौचर्ड लेब्रुन

प्रकृति के रहस्यों में फूल और तितलियों का सामंजस्य किसी से नहीं छिपा है। लेकिन मनुष्य सहित उनके अनेक प्राकृतिक दुश्मन हैं; जैसे कीट, पक्षी, छिपकलियां आदि। 2006 में ब्रिटिश काउंसिल द्वारा निर्मित, सोन्या वी. कपूर द्वारा निर्देशित प्रसिद्ध डाक्यूमेंटरी फिल्म ‘वन्स देयर वाज़ ए पर्पल बटरफ्लाई’ में इनके अवैध व्यापार (illegal butterfly trade) को दर्शाया गया है। तितलियों की कई प्रजातियों को भारत से चीन, ताइवान और कई अन्य देशों में तस्करी (butterfly smuggling), अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों (international wildlife market) में सजावट और अन्य सजावटी मूल्य के लिए जीवित या मृत ले जाया जाता है।

तितलियां फूलों से भले ही रसपान करती हैं, पर उनकी मौजूदगी कभी भी फूलों की सुंदरता को नष्ट नहीं करतीं। यह मनुष्य के लिए एक बड़ा सबक होना चाहिए।

Text Box: बायोसाइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि मोनार्क तितलियां कृषि उत्पादन के लिए बहुत आवश्यक हैं। गर्मी में प्रजनन के दौरान मैदान में मादा मोनार्क अत्यधिक सक्रिय देखी गई हैं। जब उनकी इल्ली (कैटरपिलर) मिल्कवीड की पत्तियों का दूधिया रस पी लेती हैं तो ये कैटरपिलर ही नहीं, उनसे निकलने वाली वयस्क तितलियां भी पक्षियों और अन्य शिकारियों के लिए अप्रिय भोजन बन जाती हैं। कृषि परिदृश्य में उपचारित खेतों के पास मिल्कवीड के पौधे कहीं भी लगाए जा सकते हैं।तितलियां जब एक फूल से दूसरे फूल पर विचरण करती हैं, तो वे अपने नन्ही-नन्ही टांगों तथा अपनी छोटी-सी सूंड पर फूलों के कुछ परागकण समेटकर दूसरे फूल पर ले जाती हैं। इससे पेड़-पौधों में प्रजनन शुरू होता है। परागकणों को एक से दूसरे फूल तक पहुंचाकर तितलियां कई वनस्पतियों, खास कर गाजर, सूरजमुखी, फलियों और पुदीना आदि के पौधों में फूलों से फल बनने की प्रक्रिया (pollination process) में सहायता करती हैं; अर्थात हमारी भोजन की थाली में बहुत सारी हरी-भरी सब्ज़ियों (vegetable pollination) को पहुंचाने में मदद करती हैं, जिन्हें हम अनदेखा करते हैं। अर्थशास्त्रियों ने इन सभी परागणकर्ताओं की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं (ecosystem services by pollinators) का मूल्यांकन लगभग 235-577 अरब अमेरिकी डॉलर आंका है। धीरे-धीरे अब इन पौधों और परागण करने वाले जीवों का आपसी सम्बंध टूटने से जैव-विविधता (biodiversity loss) और खेती पर बुरा असर पड़ने लगा है। समय आ गया है कि तितलियों की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए उनकी सराहना और समर्थन किया जाए।

तितलियों की समृद्ध पारिस्थितिकी के लिए पर्यावरणीय कारकों, जैसे नमी, तापमान और उनकी इल्लियों के लिए पोषक पौधों की उपलब्धता ज़रूरी है। चूंकि तितलियां विशिष्ट पौधों पर ही अंडे देती हैं, इनके लिए घरों की छतों पर या बागवानी वाली जगह (butterfly gardening) पर सुगंधित, मीठे, रंग-बिरंगे फूलों वाले पौधे लगाए जा सकते हैं। एक टिकाऊ तितली उद्यान (butterfly habitat garden) बनाने के लिए दो प्रकार के पौधे लगाए जा सकते हैं: (1) पोषक पौधे – पीले सूरजमुखी, ब्लैक-आइड सुसान, गोल्डनरॉड्स, गुलाबी जो-पाई वीड, फायरवीड, रेड बी बाम/बर्गमोट, मेक्सिकन सूरजमुखी, बैंगनी कोनफ्लॉवर, वर्बेना, जंगली एस्टर्स, आयरनवीड, लंबा बुडालिया जैसे पौधे तितलियों को पसंद आने वाले रंगों से भरपूर पौधे होते हैं, जिन पर तितलियां अंडे देती हैं, तथा वे उनकी इल्लियों (कैटरपिलर) के लिए भोजन का काम करते हैं, तथा (2) मकरंद पौधे – ये वयस्क तितलियों के लिए भोजन का काम करते हैं। तितलियां खुली धूप वाली जगह पसंद करती हैं, हवादार जगह पर उन्हें हवा से बचाने के लिए जितना सम्भव हो सके प्रयास करना चाहिए। हालांकि तितलियों को पानी पीने के लिए कीचड़-भरी जगह पसंद होती है, लेकिन एक उथला कटोरा और उसके चारों तरफ पानी में भीगा स्पंज रखने से उनके नाज़ुक शरीर के उतरने में मदद होती है। झुंड को बुलाने के लिए बगीचे में गीली रेत का कटोरा रखा या मिट्टी का पोखर (mud puddling zone for butterflies) भी बनाया जा सकता है।

इनकी आबादी और विविधता को संरक्षित (butterfly conservation) करने के लिए भारत के कई राज्यों में तितली पार्कों (butterfly parks in India) की स्थापना की गई है। पर कुछ ही स्थानों पर इनका संरक्षण करना जैव विविधता को बढ़ावा नहीं देगा, इसके लिए सभी के प्रयास की ज़रूरत होगी।

कई लोग तितलियों को सजावट और सजावटी सामानों के रूप में बड़े पैमाने पर दीवारों पर, कागज़ों पर सजाते हैं, और इनका अन्य तरह से इस्तेमाल भी किया जाता है। कई देशों में रात में शादी समारोह (wedding butterfly release) में बड़ी संख्या में तितलियां छोड़ी जाती हैं। शोरगुल वाले माहौल में वे उड़ नहीं पाती हैं, और मर जाती हैं। हमें अपना व्यवहार बदलने की ज़़रूरत है।

यहां यह बता देना लाज़मी है कि परागण की विशेषज्ञ होने के साथ-साथ तितलियां जैव-संकेतक (bioindicators of ecosystem health) हैं, और पारिस्थितिकी तंत्र में होने वाले मामूली और छोटे-छोटे बदलावों को भांपकर संकेत दे सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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