स्वस्थ भविष्य के लिए मोटा अनाज-डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

साइंस न्यूज़ में एक प्रशिक्षु एना गिब्स ने 9 मई 2022 के अंक में लिखा था, “आप जलवायु परिवर्तन को मानें या न मानें, लेकिन यह भविष्य में हमारे खान-पान को बदल देगा।” मनुष्य जितनी कैलोरी का उपभोग करते हैं, उसमें से आधा हिस्सा मक्का, चावल और गेहूं से आता है। हम अपनी 80 फीसदी पोषण सम्बंधी ज़रूरतों के लिए 13 फसलों पर निर्भर हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली अनियमित वर्षा और चरम मौसम की वजह से इनका उत्पादन घटेगा। हमारी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सख्तजान प्रजातियों को विकसित करने की ज़रूरत है, और यही वजह है कि मोटे अनाज (मिलेट्स) महत्व प्राप्त कर रहे हैं।

मोटे अनाज गर्म क्षेत्रों में अनुपजाऊ मिट्टी में उगाए जाते हैं और छोटे दानों वाली भरपूर उपज देते हैं, जिनका उपयोग आटा बनाने में किया जाता है। मोटे अनाज के कुछ उदाहरण हैं बाजरा, ज्वार, रागी। कम उगाए जाने वाले कुछ मोटे अनाज हैं तिनई (कंगनी), समा या समई और सांवा, जिनका उपयोग ब्रेड, रस्क (टोस्ट) और बिस्किट बनाने में किया जाता है।

अग्रणी उत्पादक

मोटे अनाज 10,000 से अधिक वर्षों से एशिया और अफ्रीका के लोगों के मुख्य आहार रहे हैं। ये जलवायु को लेकर लचीले हैं; बहुत कम पानी और गर्म, शुष्क परिस्थिति में अच्छी तरह से पनपते हैं। कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार भारत सालाना लगभग 1.2 करोड़ मीट्रिक टन मोटे अनाजों का उत्पादन करता है। HelgiLibrary  के अनुसार, इनके उत्पादन में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है, इसके बाद चीन और नाइजर का स्थान है।

खाद्य और कृषि संगठन ने वर्ष 2023 को मोटे अनाज का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है। इसे ध्यान में रखते हुए, भारत के कृषि मंत्रालय ने मोटे अनाज के उपयोग पर केंद्रित योजनाओं और गतिविधियों की एक शृंखला तैयार की है, विशेषकर आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में। मंत्रालय पंजाब, केरल और तमिलनाडु में ‘सही खाओ मेलों’ के आयोजन की भी योजना बना रहा है। चेन्नई स्थित एम.एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन मोटे अनाज के उत्पादन और खपत को बढ़ावा देने के लिए बहुत सक्रिय रहा है।

यह सही है कि हममें से अधिकांश लोग गेहूं और चावल को मुख्य भोजन के रूप में खाते हैं, लेकिन ये मोटे अनाज के बराबर पौष्टिक नहीं होते हैं। इसलिए उन्हें ‘पोषक-अनाज’ नहीं कहा जाता है। मोटे अनाज में उल्लेखनीय मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन बी, और कई धात्विक आयन होते हैं जो चावल जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थों में नहीं होते हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि इन लाभों को प्राप्त करने के लिए मोटे अनाज हमारे दैनिक भोजन में शामिल किए जाएं।

मोटे अनाज का अर्थशास्त्र

बैंगलुरु स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान की प्रोफेसर और एम.एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन की प्रमुख मधुरा स्वामिनाथन ने 31 जनवरी, 2023 को दी हिंदू में प्रकाशित अपने लेख में इस विषय के अर्थशास्त्र की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की है। वे बताती हैं कि अगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में वितरित किए जाने वाले चावल और गेहूं के लगभग 20 प्रतिशत हिस्से की जगह मोटा अनाज दिया जाए, तो इससे मध्याह्न भोजन से स्कूली बच्चों के स्वास्थ्य को बहुत लाभ होगा। मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ाना और कृषि भूमि में गिरावट को पलटना संभव तो है लेकिन आसान नहीं होगा और इसके लिए बहुस्तरीय हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी। भारत सरकार, और कर्नाटक और ओडिशा राज्यों ने मोटा अनाज मिशन शुरू किया है, जो स्वागत योग्य कदम है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://pristineorganics.com/wp-content/uploads/2019/06/03-1-1-1.jpg

मनुष्यों का बड़ा दिमाग फालतू डीएनए का नतीजा है

ह तो बरसों से पता रहा है कि प्रोटीन बनाने वाले नए-नए जीन्स मौजूदा जीन्स में दोहराव या परिवर्तन की वजह से बन सकते हैं। लेकिन कुछ प्रोटीन-निर्माता जीन्स डीएनए के ऐसे खंडों से भी बन सकते हैं जो पहले लक्ष्यहीन आरएनए बनाया करते थे। गौरतलब है कि जब डीएनए के किसी हिस्से से सम्बंधित प्रोटीन बनवाना होता है तो उसकी एक प्रतिलिपि आरएनए के रूप में बनती है जो केंद्रक से बाहर जाकर प्रोटीन निर्माण करवाती है।

जब कोई डीएनए ऐसा आरएनए बनाए जिसका उपयोग प्रोटीन निर्माण में न हो सके तो वह फालतू ही हुआ ना? लेकिन इस तरीके से नए जीन्स बन जाएं, यह समझ से परे था।

अब एक नए अध्ययन से पता चला है कि यह करिश्मा कैसे होता है कि डीएनए की फालतू शृंखला से बनने वाले आरएनए में ऐसी निपुणता पैदा हो जाती है कि वह केंद्रक से बाहर निकल जाता है। आरएनए का केंद्रक से बाहर निकलना उसके द्वारा प्रोटीन संश्लेषण की दिशा में पहला कदम होता है। इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने ऐसे 74 मानव प्रोटीन-निर्माता जीन्स उजागर किए हैं जो मनुष्य के चिम्पैंज़ी से अलग होने के बाद अस्तित्व में आए हैं। इनमें से कुछ जीन्स ने हमें ज़्यादा बड़े और जटिल मस्तिष्क प्रदान किए हैं। नेचर इकॉलॉजी एंड इवोल्यूशन पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि जब ये जीन्स चूहों वगैरह जैसे कृन्तक जीवों में जोड़े गए तो उनके मस्तिष्क अपेक्षाकृत बड़े और मानव-सदृश हो गए।

देखा जाए तो जीन्स द्वारा बनाए गए आरएनए में से कुछ तो स्वयं कुछ नियामक भूमिका निभाते हैं। ये केंद्रक से बाहर नहीं जाते। दूसरी और प्रोटीन का संश्लेषण करवाने वाले आरएनए (संदेशवाहक आरएनए) केंद्रक से निकलकर कोशिका द्रव्य में पहुंचते हैं और राइबोसोम की मदद से प्रोटीन का निर्माण करवाते हैं।

मामले की शुरुआत पेकिंग विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक चुआन-युन ली की इस खोज के साथ हुई थी कि मनुष्यों में कुछ प्रोटीन-निर्माता जीन्स रीसस बंदरों में पाए जाने वाले गैर-प्रोटीन निर्माता डीएनए खंडों से बहुत मिलते-जुलते होते हैं। तो सवाल उठा कि रीसस बंदरों के ये लगभग लक्ष्यविहीन डीएनए खंड मनुष्यों में प्रोटीन-निर्माता जीन्स कैसे बन गए?

फिर उन्हीं के छात्र ने ऐसे कुछ गैर-प्रोटीन निर्माता आरएनए को केंद्रक से बाहर निकलते देखा। इस खोज के बाद इन शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर की मदद से यह पता लगाया कि ऐसे गैर-प्रोटीन निर्माता आरएनए जो केंद्रक से बाहर नहीं निकलते और जो केंद्रक से बाहर निकल पाते हैं, उनके बीच क्या अंतर हैं।

पूरी कवायद से पता चला कि अंतर डीएनए के उन खंडों में हैं जिन्हें U1 तत्व कहते हैं। जब ये U1 तत्व आरएनए में जुड़ जाते हैं तो वह आरएनए केंद्रक से बाहर निकलने सक्षम नहीं रह जाता। दूसरी ओर, प्रोटीन-निर्माता जीन्स के U1 तत्वों में ऐसे उत्परिवर्तन पाए जाते हैं कि वे आरएनए की केंद्रक से बाहर निकलने की क्षमता को प्रभावित नहीं करते। ये आरएनए बाहर कोशिका द्रव्य में पहुंचकर राइबोसोम की मदद से प्रोटीन बना देते हैं।

आगे खोजबीन के लिए ली के दल ने मनुष्य व चिम्पैंज़ी के ऐसे नवीन प्रोटीन-निर्माता जीन्स की तलाश की जो रीसस बंदरों में गैर-प्रोटीन निर्माता आरएनए के रूप में मौजूद थे। इसके अलावा उन्होंने U1 तत्व में वह उत्परिवर्तन भी खोज निकाला जो केंद्रक से बाहर निकलने के लिए ज़रूरी है। अंतत: उन्हें 45 मानव जीन्स और 29 मानव तथा चिम्पैंज़ी के साझा जीन्स मिले जो इस शर्त को पूरा करते हैं।

इतना होने के बाद उन्होंने इनमें से उन नौ जीन्स पर ध्यान केंद्रित किया जो मानव मस्तिष्क में सक्रिय होते हैं। वे देखना चाहते थे कि ये जीन्स क्या भूमिका निभाते हैं। उन्होंने इन जीन्स सहित और इनसे रहित कृत्रिम मस्तिष्क ऊतक (ऑर्गेनॉइड) विकसित किए। इसके आधार पर उन्होंने दो जीन्स पहचाने हैं जो मस्तिष्क को सामान्य से थोड़ा बड़ा बनाने में मदद करते हैं।

उन्होंने इनमें से एक जीन को चूहों में भी डालकर देखा और पाया कि उन चूहों का दिमाग सामान्य चूहों की अपेक्षा बड़ा हो गया। और तो और, उनमें कॉर्टेक्स भी बड़ा बना जो तर्क व भाषा के लिए ज़िम्मेदार होता है। एक अन्य जीन का भी ऐसा ही असर रहा और इस जीन से लैस चूहों का याददाश्त के परीक्षण में प्रदर्शन बेहतर रहा।

शोधकर्ताओं का कहना है कि मानव मस्तिष्क के विकास में कुछ सर्वथा नए जीन्स की भूमिका रही है जो प्रोटीन-निर्माता जीन्स में उत्परिवर्तनों से नहीं बल्कि गैर-प्रोटीन जीन्स के कारण बने हैं। इस ताज़ा खोज से नए जीन्स बनने की क्रियाविधि समझने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/fqr4f7ibhZtVfMK9SQkpyh-1200-80.jp

आपका सूक्ष्मजीव संसार और आसपास के लोग

क ही घर में रहने वाले लोग सिर्फ एक छत साझा नहीं करते। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि आप अपने परिवार या साथ रहने वालों के साथ सूक्ष्मजीव भी साझा करते हैं। जितना लंबा समय आप उनके साथ रहते हैं सूक्ष्मजीव उतने ही अधिक समान होते जाते हैं।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित विश्व भर के हज़ारों लोगों के आंत और मुंह में उपस्थित सूक्ष्मजीव संसार को लेकर इस अध्ययन से इस संभावना का संकेत मिलता है कि सूक्ष्मजीव संसार की गड़बड़ियों से सम्बंधित बीमारियां (जैसे कैंसर, मधुमेह और मोटापा) कुछ हद तक संक्रामक हो सकती हैं। व्यक्ति को उसका सूक्ष्मजीव संसार कैसे प्राप्त होता है, इसे लेकर अधिकांश अध्ययनों में व्यक्ति के सूक्ष्मजीवों से प्रथम संपर्क (जो मां के ज़रिए होता है) पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। लेकिन इस सूक्ष्मजीव संसार का संघटन आजीवन बदलता रहता है। इस परिवर्तन को समझने के लिए मौजूदा अध्ययन में इटली के ट्रेंटो विश्वविद्यालय के शोधकर्ता मिरिया वैलेस कोलोमर और निकोला सेगाटा ने यह जानने का प्रयास किया कि एक व्यक्ति के जीवन में इस सूक्ष्मजीव संसार में कब और कैसे परिवर्तन आता है। उन्होंने दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों से एकत्रित विष्ठा और लार के लगभग 10,000 नमूनों से प्राप्त डीएनए का विश्लेषण किया। इसके बाद शोधकर्ताओं ने परिवार के सदस्यों, जीवनसाथियों, साथ रहने वालों और अन्य सामाजिक संपर्क में आए लोगों की आंत और मुंह के नमूनों मे सूक्ष्मजीव संघटन का मिलान करके देखा।

अध्ययन में मां और बच्चों के सूक्ष्मजीव संसार में एक मज़बूत सम्बंध दिखा जो बच्चे के शुरुआती जीवन में सबसे अधिक था। शिशु के जीवन के पहले वर्ष के दौरान उसकी आंतों के आधे सूक्ष्मजीव मां के समान थे। उम्र बढ़ने के साथ सूक्ष्मजीवों में समानता कम होती गई लेकिन कभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई। 50-85 वर्ष आयु तक भी व्यक्ति और मां की आंतों में समान सूक्ष्मजीव पाए गए।   

इसके अलावा परिवार के अन्य सदस्यों की आंत के सूक्ष्मजीव भी एक महत्वपूर्ण स्रोत थे। 4 वर्ष की आयु से बड़े बच्चों के सूक्ष्मजीव अपने पिता के साथ उतने ही समान थे जितने मां के साथ। दूर-दूर रहने वाले जुड़वां जितना समय दूर रहे उतने ही कम सूक्ष्मजीव साझा किए। ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग परिवारों के बीच भी सूक्ष्मजीवों की साझेदारी देखी गई।

यह भी देखा गया कि मां से प्राप्त सूक्ष्मजीव संसार का प्रभाव आंत के सूक्ष्मजीवों की अपेक्षा मुंह के सूक्ष्मजीवों में कम था। एक साथ रहने वाले गैर-रिश्तेदारों के मुंह में भी एक ही प्रकार के सूक्ष्मजीव पाए गए और जितने लंबे समय तक वे साथ रहे उतनी ही अधिक समानता देखी गई। पति-पत्नी अपने बच्चों और माता-पिता की तुलना में अधिक सूक्ष्मजीव साझा करते हैं।

विशेषज्ञ इस अध्ययन को काफी महत्वपूर्ण मानते हैं जिसकी मदद से यह देखा जा सकेगा कि गैर-रोगजनक माने जाने वाले सूक्ष्मजीव कैसे फैलते हैं और रोग उत्पन्न करने में क्या भूमिका निभाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://experiencelife.lifetime.life/wp-content/uploads/2021/02/Building-Your-Microbiome.jpg

चाइनीज़ मांझा

न दिनों आसमान में परिंदों के अलावा पंतगें भी उड़ती नज़र आती हैं। कुछ जगहों पर तो मकर संक्रांति पर खास पतंगबाज़ी होती है। लेकिन पंतगबाज़ी के इस मौसम के साथ नायलोन मांझे से होने वाली दुर्घटनाओं की खबरें भी आ रही हैं। इसे बोलचाल में चायना मांझा भी कहते हैं, हालांकि इसका चीन से कोई सम्बंध नहीं है। इससे होने वाली दुर्घटनाओं के मद्देनज़र वर्ष 2017 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इसके नियमानुसार “नायलोन, प्लास्टिक या किसी भी अन्य सिंथेटिक सामग्री से बने पतंग के मांझे, जिसमें चाइनीज़ या चीनी मांझा के नाम से मिलने वाला मांझा भी शामिल है, तथा कांच, धातु या किसी अन्य धारदार सामग्री का लेप करके तेज़ किए गए पतंग उड़ाने की डोर की बिक्री, उत्पादन, भंडारण, आपूर्ति, आयात और उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध होगा।” पतंगबाज़ी की अनुमति केवल सूती धागे से होगी, जो धागे को तेज़ करने वाली किसी भी धारदार, धातु की या कांच की सामग्री या चिपकने वाली सामाग्री से मुक्त हो।

लेकिन फिर भी लोगों के बीच चाइनीज़ मांझा लोकप्रिय है। इसकी लोकप्रियता का मुख्य कारण इसकी कम कीमत है। यह कपास के मांझे से एक तिहाई सस्ता और कई गुना अधिक मज़बूत होता है (जो पंतग कटने से बचा देता है)।

चाइनीज़ मांझा पॉलीमर को पिघलाकर एकल-तंतु तार के रूप में बनाया जाता है। एकल-तंतु तार घातक होते हैं और इन्हें तोड़ना काफी मुश्किल होता है। धागे में पैनापन लाने के लिए इस पर कांच का लेप चढ़ाया जाता है। यदि तनी हुई स्थिति में हो तो इस तरह तैयार धारदार मांझा मनुष्यों और जानवरों को घायल कर सकता है और किया भी है।

वैसे, चाइनीज़ मांझा नाम सुनकर लगता है कि यह चीन से मंगाया जाता होगा। लेकिन वास्तव में चाइनीज़ मांझा स्वदेशी उत्पाद है। चाइनीज़ मांझा उत्तरप्रदेश के बरेली और उसके आसपास के गांवों और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बनाया जाता है, जहां से इसे अधिकतर ऑनलाइन बेचा जाता है।

लेकिन इसके उपयोग से कई हादसों की खबरें आई हैं। इसलिए, कानून हो या न हो, सुरक्षित सूती मांझे का उपयोग करें, खुद सुरक्षित रहें, दूसरों को सुरक्षित रखें। इस मामले में कानून से ज़्यादा जागरूकता ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.tnn.in/photo/msid-93342526/93342526.jpg

जीएम फसल व खाद्य हानिकारक क्यों हैं? – भारत डोगरा

न दिनों सरसों की जीएम फसल पर निर्णय को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा विवाद छिड़ा हुआ है। इससे पहले भी कभी बैंगन, कभी सरसों तो कभी कपास की जीएम फसलों पर तीखे विवाद होते रहे हैं। विशेषकर जीएम खाद्य फसलों का विरोध विश्व में बड़े स्तर पर हुआ है। विश्व स्तर पर देखें तो जीएम फसल व खाद्य काफी विवादों में घिरे रहे हैं और बहुत से देशों ने इन्हें प्रतिबंधित भी किया हुआ है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त फसलों को संक्षेप में जीएम (जेनेटिकली मॉडीफाइड) फसल कहते हैं। सामान्यत: एक ही प्रजाति की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती रही हैं। जैसे गेंहू की दो किस्मों से एक नई किस्म तैयार कर ली जाए। इन्हें संकर किस्में कहते हैं।

परंतु जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी पौधे या जंतु के जीन या आनुवंशिक गुण का प्रवेश किसी असम्बंधित पौधे या जीव में करवाया जाता है। जैसे आलू के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या सूअर के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या मछली के जीन का प्रवेश सोयाबीन में करवाना या मनुष्य के जीन का प्रवेश सूअर में करवाना आदि।

जीएम फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं। इसके अलावा, यह असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को इंडिपेंडेंट साइन्स पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है।

इस पैनल में शामिल विश्व के कई देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ तैयार किया है जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है, “जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं तथा ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अत: जीएम फसलों व गैर जीएम फसलों का सह अस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत, ऐसे पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सेफ्टी या सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी (खतरों की) उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की अपूरणीय क्षति होगी, जिसे ठीक नहीं किया जा सकता है। जीएम फसलों को अब दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर देना चाहिए।”

इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा और घातक दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी मरम्मत नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर उनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण जो पर्यावरण में चला गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है।

विवाद का एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह बन रहा है कि वैज्ञानिकों के जो विचार सही बहस के लिए सामने आने चाहिए थे उन्हें दबाया गया है। प्राय: जीएम फसलों के समर्थकों द्वारा यह कहा गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जो अनेक जीएम फसलों को स्वीकृति मिली, वह काफी सोच-समझकर ही दी गई होगी। लेकिन हाल में ऐसे प्रमाण सामने आए हैं कि यह स्वीकृति बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में दी गई थी तथा इनके लिए सरकारी तंत्र द्वारा अपने वैज्ञानिकों की जीएम फसलों सम्बंधी चेतावनियों को दबाया गया था।

इस विषय पर एक बहुत चर्चित पुस्तक है जैफ्री एम. स्मिथ की जेनेटिक रुले। कई प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने इस पुस्तक को अति मूल्यवान बताया है। इस पुस्तक में स्मिथ ने बताया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के खाद्य व औषधि प्रशासन के लिए जो तकनीकी विशेषज्ञ व वैज्ञानिक कार्य करते रहे हैं, वे वर्षों से जीएम उत्पादों से सम्बंधित विभिन्न गंभीर संभावित खतरों के बारे में चेतावनी देते रहे थे और इसके लिए ज़रूरी अनुसंधान करवाने की ज़रूरत बताते रहे थे। यह काफी देर बाद पता चला कि जीएम उत्पादों पर इस तरह की जो प्रतिकूल राय होती थी, उसे यह सरकारी एजेंसी प्राय: दबा देती थी।

जब वर्ष 1992 में खाद्य व औषधि प्रशासन ने जीएम उत्पादों के पक्ष में नीति बनाई तो इस प्रतिकूल वैज्ञानिक राय को गोपनीय रखा गया। पर सात वर्ष बाद जब इस सरकारी एजेंसी के गोपनीय रिकार्ड को एक अदालती मुकदमे के कारण खुला करना पड़ा व 44,000 पृष्ठों में फैली नई जानकारी सामने आई तो पता चला कि वैज्ञानिकों की जो राय जीएम फसलों व उत्पादों के विरुद्ध होती थी, उसे वैज्ञानिकों के विरोध के बावजूद नीतिगत दस्तावेज़ों से हटा दिया जाता था। इन दस्तावेज़ों से यह भी पता चला कि खाद्य व औषधि प्रशासन को राष्ट्रपति के कार्यालय से आदेश थे कि जीएम फसलों को आगे बढ़ाया जाए।

इसी पुस्तक में जैफ्री स्मिथ ने ब्रिटेन का भी एक उदाहरण दिया है जहां वैज्ञानिकों के अनुसंधान से पता चला था कि विकसित किए जा रहे एक जीएम आलू की किस्म के प्रयोगों के दौरान चूहों के स्वास्थ्य को व्यापक क्षति देखी गई थी। जब यह परिणाम बताया जाने लगा तो सरकार ने यह प्रोजेक्ट ही बंद कर दिया, उसके प्रमुख वैज्ञानिक की छुट्टी कर दी व उसकी अनुसंधान टीम छिन्न-भिन्न कर दी गई।

ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस कारण परेशान किया गया या उनका अनुसंधान बाधित किया गया क्योंकि उनके अनुसंधान से जीएम फसलों के खतरे पता चलने लगे थे। इन कुप्रयासों के बावजूद निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने का उल्लेख है तथा जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

जीएम फसलों के अनेक खतरों के बढ़ते उदाहरणों को देखते हुए इन फसलों के समर्थक बस एक बात पर अड़ जाते हैं कि इनसे उत्पादकता बढ़ेगी। जीएम फसलों का सबसे अधिक प्रसार संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ है और यहां फ्रेंड्स ऑफ अर्थ के एक विस्तृत अध्ययन ने बता दिया है कि जीएम फसलों को उत्पादकता बढ़ाने में कोई सफलता नहीं मिली है। इसी तरह भारत में बीटी कॉटन फसलों के कुछ अध्ययनों से भी यही बात सामने आई है। बीटी कॉटन का कीटनाशक उपयोग कम करने का दावा ज़मीनी अनुभव से मेल नहीं खाता है।

कैंटरबरी विश्वविद्यालय (न्यूज़ीलैंड) के इस विषय के विशेषज्ञ डॉ. जैक हनीमैन ने लिखा है कि कुछ बड़ी कंपनियों ने ऊंची उत्पादकता वाले बीजों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है व इन बीजों को जीएम रूप में ही उपलब्ध करवाती हैं। ऊंची उत्पादकता मिलती है तो यह इन बीजों के अपने गुणों के कारण मिलती है, इन पर हुई जेनेटिक इंजीनियरिंग के कारण नहीं। भारत में जीएम फसलों के विस्तृत अध्ययनों से जुड़े रहे पी. वी. सतीश ने हाल ही में लिखा कि आंध्र प्रदेश में उनके अध्ययनों से बीटी कॉटन की विभिन्न स्तरों पर विफलता की जानकारी मिली। सैकड़ों भेड़ें बीटी कॉटन खेतों में चरने के बाद मर गईं। लेकिन बीज का केंद्रीकरण करके ऐसी स्थिति बना दी गई है जिसमें ऐसा संकरित बीज बाज़ार में मिलना कठिन हो गया है जो जेनेटिक इंजीनियरिंग से न बना हो।

जेनेटिक फसलों के प्रसार से खरपतवार तेज़ी से फैल सकते हैं और सामान्य फसलों में जेनेटिक प्रदूषण का बहुत प्रतिकूल असर हो सकता है। दुनिया के कई देश ऐसे खाद्य चाहते हैं जो जेनेटिक इंजीनियरिंग के असर से मुक्त हों। यदि हमारे यहां जीएम फसलों का प्रसार होगा तो इन देशों के बाज़ार हमसे छिन जाएंगे।

कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टेक्नॉलॉजी मात्र लगभग छ-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथों में केंद्रित है। इन कंपनियों का मूल आधार पश्चिमी देशों व विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका में है। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है।

इस षड्यंत्र के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में भी लंबी लड़ाई लड़ी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने जैव प्रौद्योगिकी के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक प्रो. पुष्प भार्गव (अब नहीं रहे) को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था। पुष्प भार्गव सेन्टर फार सेल्यूलर एंड मालीक्यूलर बॉयोलॉजी, हैदराबाद के पूर्व निदेशक व नेशनल नॉलेज कमीशन के उपाध्यक्ष रहे थे।

ट्रिब्यून में प्रकाशित अपने बयान में विश्व ख्याति प्राप्त इस वैज्ञानिक ने देश को चेतावनी दी थी कि चंद शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा अपने व बहुराष्ट्रीय कंपनियों (विशेषकर अमेरिकी) के हितों को जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के माध्यम से आगे बढ़ाने के प्रयासों से सावधान रहें। उन्होंने इस चेतावनी में आगे कहा था कि इस प्रयास का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि व खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त करना है।

हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख में प्रो. भार्गव ने लिखा था कि लगभग 500 शोध पत्रों ने मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व पौधों के स्वास्थ्य पर जीएम फसलों के हानिकारक असर को स्थापित किया है और ये सभी शोध पत्र ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठा है। उन्होंने आगे लिखा था कि दूसरी ओर जीएम फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर या प्रकाशन उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने हितों का टकराव स्वीकार किया है या जिनकी विश्वसनीयता व ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं।

प्राय: जीएम फसलों के समर्थक कहते हैं कि वैज्ञानिकों का अधिक समर्थन जीएम फसलों को मिला है पर प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधान का आकलन कर यह स्पष्ट बता दिया कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया कि जिन वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी न किसी स्तर पर जीएम बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से जुड़े रहे हैं या प्रभावित रहे हैं।

जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रचार कई बार इस तरह किया जाता है कि किसी विशिष्ट गुण वाले जीन का ठीक-ठीक पता लगा लिया गया है व इसे दूसरे जीव में पंहुचा कर उसमें वही गुण लाया जा सकता है। किंतु हकीकत इससे अलग व कहीं अधिक पेचीदा है।

कोई भी जीन केवल अपने स्तर पर या अलग से कार्य नहीं करता है अपितु बहुत से जीनों के एक जटिल समूह के एक हिस्से के रूप में कार्य करता है। इन असंख्य अन्य जीन्स से मिलकर व उनकी परस्पर निर्भरता में ही जीन के कार्य को देखना-समझना चाहिए, अलग-थलग नहीं। एक ही जीन का अलग-अलग जीवों में काफी भिन्न असर होगा, क्योंकि उनमें जो अन्य जीन हैं वे भिन्न हैं। विशेषकर जब एक जीव के जीन को काफी अलग तरह के जीव में पंहुचाया जाएगा, जैसे मनुष्य के जीन को सूअर में, तो इसके काफी नए व अप्रत्याशित परिणाम होने की संभावना है।

इतना ही नहीं, जीन समूह का किसी जीव की अन्य शारीरिक रचना व बाहरी पर्यावरण से भी सम्बंध होता है। जिन जीवों में वैज्ञानिक विशेष जीन पहुंचाना चाह रहे हैं, उनसे अन्य जीवों में भी इन जीन्स के पंहुचने की संभावना रहती है जिसके अनेक अप्रत्याशित परिणाम व खतरे हो सकते हैं। बाहरी पर्यावरण जीन के असर को बदल सकता है व जीन बाहरी पर्यावरण को इस तरह प्रभावित कर सकता है जिसकी संभावना जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग करने वालों को नहीं थी। एक जीव के जीन दूसरे जीव में पंहुचाने के लिए वैज्ञानिक जिन तरीकों का उपयोग करते हैं उनसे ऐसे खतरों की आशंका और बढ़ जाती है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश महत्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं तथा वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं।

अत: जीएम फसलों, विशेषकर खाद्य फसलों व उनसे प्राप्त खाद्यों, का प्रवेश उचित नहीं है; इन पर प्रतिबंध लगना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://thelogicalindian.com/h-upload/2020/01/27/165039-gm-seeds.jpg

क्या आप दीर्घ कोविड से पीड़ित हैं?

कोविड-19 से उबरने के बाद भी कई लोगों को हफ्तों या महीनों तक थकान और सिरदर्द जैसी शिकायतें हो रही हैं। ऐसी स्थिति में कई लोग असमंजस में हैं कि वे पूरी तरह ठीक हो पाएंगे या नहीं। इस स्थिति को दीर्घ-कोविड का नाम दिया गया है।

एक हालिया अध्ययन में स्कॉटलैंड के शोधकर्ताओं ने 31,000 से अधिक लक्षण-सहित संक्रमित लोगों का सर्वेक्षण किया। 42 प्रतिशत लोग संक्रमण के 6 से 18 महीने के बाद भी पूरी तरह से ठीक नहीं हुए थे। सवाल यह है कि ऐसा कब तक चलेगा या क्या कभी वे ठीक नहीं होंगे।

दरअसल, इसका अभी कोई ठोस उत्तर हमारे पास नहीं है लेकिन यह शोध का एक महत्वपूर्ण विषय है। हारवर्ड मेडिकल स्कूल के न्यूरोसाइंटिस्ट माइकल वैनएल्ज़कर के अनुसार दीर्घ कोविड की पुष्टि करने के लिए अभी तक न तो कोई नैदानिक परीक्षण है और न ही यह पता है कि यह कौन-से लक्षण पैदा करता है।

एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कोविड से कुछ लोग तो पूरी तरह ठीक हो गए हैं जबकि कुछ लोगों में दीर्घ कोविड की समस्या बनी हुई है। 

क्या है दीर्घ कोविड?

वास्तव में अभी तक इसके लक्षण, इसके निदान से पहले बीमार रहने की मियाद और इस समस्या का सामना कर रहे लोगों की संख्या का पता लगाने के लिए कोई चिकित्सीय सहमति नहीं बन पाई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कोविड-उपरांत स्थिति तब कही जाएगी जब कोविड संक्रमण के बाद कम-से-कम तीन महीने तक लक्षण बने रहें। दूसरी ओर, यू. एस. सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने इस अवधि को चार सप्ताह रखा है। इसे पोस्ट-एक्यूट सीक्वल ऑफ सार्स-कोव-2 (पीएएससी), स्थायी कोविड, दीर्घकालिक कोविड जैसे कई अन्य नाम भी दिए गए हैं।     

कई बड़े-बड़े अध्ययनों के बाद भी स्पष्ट नहीं है कि कितने लोग दीर्घकालिक लक्षणों से पीड़ित हैं। जर्मनी में किए गए एक अध्ययन में 96 संभावित लक्षणों की पहचान की गई थी और ये लक्षण उन लोगों में पाए गए थे जिनको पूर्व में संक्रमण हुआ है। युवा लोगों में आम तौर पर थकान, खांसी, गले और सीने में दर्द, सिरदर्द, बुखार, पेटदर्द, चिंता और अवसाद जैसे लक्षण देखने को मिले हैं जबकि वयस्कों में गंध और स्वाद में बदलाव, बुखार, सांस लेने में परेशानी, खांसी, गले और सीने में दर्द, बालों का झड़ना, थकान और सिरदर्द जैसे लक्षण मिले हैं।

स्कॉटलैंड में किए गए एक अध्ययन में सिरदर्द, स्वाद और गंध की कमी, थकान, दिल की अनियमित धड़कन, कब्ज, सांस फूलना, जोड़ों में दर्द, चक्कर आना और अवसाद जैसे 26 लक्षणों पर विचार किया गया था। लेकिन पेचीदगी यह रही कि कोविड परीक्षण में पॉज़िटिव न आने वाले लोगों में भी ऐसे कई लक्षण देखे गए।

स्कॉटलैंड अध्ययन में 42 प्रतिशत लोगों में हल्के-फुल्के लक्षण देखने को मिले जबकि 6 प्रतिशत लोगों ने बताया कि वे अभी तक पूरी तरह ठीक नहीं हुए हैं। जर्मन शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में यह दावा किया कि कोविड परीक्षण में पॉज़िटिव न आने वाले लोगों की तुलना में कोविड संक्रमित वयस्कों, बच्चों और किशोरों में 30 प्रतिशत अधिक लोगों में तीन महीनों तक कोविड लक्षण होने की संभावना है। सीडीसी द्वारा किए गए सर्वेक्षण में 41,000 में से 14 प्रतिशत लोगों ने कोविड संक्रमण के तीन महीने बाद भी कोविड के लक्षण होने की बात बताई है। इन सभी अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि हर पांच में से एक से लेकर हर 20 में से एक व्यक्ति में दीर्घ कोविड के लक्षण देखने को मिल रहे हैं।  

सुधार की संभावना

अभी तक हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि दीर्घ-कोविड कितने दिन चलेगा। माउंट सिनाई सेंटर फॉर पोस्ट-कोविड केयर में आने वाले अधिकांश रोगियों में तो काफी सुधार देखने को मिला लेकिन 10 प्रतिशत लोगों में कोई सुधार नहीं दिखा। 

इनमें से कुछ लोग मायएलजिक एंसेफेलोमाइलाइटिस (एमई/सीएफएस) या स्थायी थकान सिंड्रोम से ग्रसित हो सकते हैं। यह स्थिति विभिन्न वायरल संक्रमणों के बाद उभरती है। वैनएल्ज़कर के अनुसार एपस्टाइन-बार नामक वायरस से ग्रसित 10 प्रतिशत लोग एमई/सीएसएफ से ग्रसित हुए थे। उन्हें कोविड रोगियों में भी इसी तरह की समस्या का संदेह है। अलबत्ता, ऐसे भी लोग हैं जिनकी कोविड सम्बंधी समस्याएं पूरी तरह खत्म हो गई हैं।

कारण

विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान लक्षण वाले लोगों में इसके कई संभावित कारण हो सकते हैं और उपचार करने के लिए कारणों को समझना ज़रूरी है। एक शोध के अनुसार सार्स-कोव-2 वायरस कई लोगों के शरीर में बस जाता है और कोविड से उबरने के बाद भी लंबे समय तक शरीर में उपस्थित रहता है। 2020 और 2021 में कोविड से मृत 44 लोगों पर किए गए अध्ययन में मस्तिष्क, हृदय और आंतों सहित कई अंगों में सात महीनों से अधिक समय तक सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन के साक्ष्य मिले थे। ये साक्ष्य अलक्षणी लोगों में भी पाए गए। यह भी देखा गया कि कुछ लोगों में वायरस तीन महीनों तक अपनी प्रतिलिपि बनाता रहा।

वायरस की उपस्थिति रक्त परीक्षणों में नहीं मिलती। इसके लिए दीर्घ-कोविड रोगियों की आंतों और फेफड़ों से नमूने एकत्रित कर वायरस के ठिकानों का पता लगाना होगा।          

शरीर में वायरस के ठिकानों और तकलीफों के संभावित कारणों का पता चलने पर उपचार में मदद मिलेगी। उदारहण के लिए, गंभीर निमोनिया जैसे लक्षणों वाले रोगियों को सांस सम्बंधी पुनर्वास से लाभ हो सकता है जबकि इस तरह का उपचार एमई/सीएफएस वाले रोगियों के लिए घातक हो सकता है। लगातार कोविड के लक्षण वाले रोगियों को एंटीवायरल उपचार से काफी मदद मिल सकती है लेकिन दीर्घ कोविड वाले रोगियों को इस तरह का उपचार देना उचित नहीं है।      

क्या करें

विशेषज्ञों की राय है कि यदि लक्षण चार सप्ताह से अधिक समय तक बने रहते हैं तो डॉक्टर से सलाह लेना बेहतर है। शुरुआत में कुछ बुनियादी जांचों के साथ हृदय और फेफड़ों की जांच ज़रूरी है। यदि ये लक्षण 12 हफ्तों से अधिक समय तक बने रहते हैं तब विशेषज्ञ उच्च स्तरीय जांच के साथ अधिक आक्रामक इलाज की सलाह देते हैं। चूंकि इस महामारी के दौरान सभी ने एक मुश्किल दौर झेला है इसलिए मानसिक स्वास्थ्य की जांच कराना भी ज़रूरी है। एमई/सीएफएस की जानकारी सहायक हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.brainandlife.org/siteassets/current-issue/2022/22-decjan/long-covid-main.jpg

आंतों के सूक्ष्मजीव व्यायाम के लिए उकसाते हैं!

ववर्ष के मौके पर कई लोग अपना यह (नाकाम) प्रण दोहराएंगे कि वे सुबह उठ कर व्यायाम करना शुरू कर देंगे। लेकिन सुबह जल्दी बिस्तर न छोड़ पाने के चलते उनका प्रण धरा का धरा रह जाएगा। लेकिन अब लग रहा है कि आंतों के पलने वाले बैक्टीरिया यह प्रण पूरा करने में उनकी मदद कर सकते हैं।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित चूहों पर हुआ अध्ययन बताता है कि व्यायाम करने की इच्छा-अनिच्छा में फर्क के पीछे आंत के सूक्ष्मजीव ज़िम्मेदार हो सकते हैं। शोधकर्ताओं ने अपना अध्ययन कुछ विशेष सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पादित अणुओं पर केंद्रित किया जो चूहों जैसे कृंतक जीवों में दौड़ने की इच्छा जगाते हैं और उन्हें दौड़ाते रहते हैं। शोधकर्ताओं ने यह पता लगाया है कि ये अणु मस्तिष्क से ठीक किस तरह संवाद करते हैं। उम्मीद की जा रही है कि ये नतीजे मनुष्यों पर भी लागू होंगे।

प्रोबायोटिक बनाने वाली कंपनी FitBiomics के सह-संस्थापक और सूक्ष्मजीव विज्ञानी एलेक्ज़ेंडर कोस्टिक के अनुसार यह अध्ययन बताता है कि व्यायाम के लिए सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) कितना महत्वपूर्ण है और आंत और मस्तिष्क के बीच घनिष्ठ सम्बंध भी उजागर करता है। शायद किसी दिन व्यायाम के लिए उकसाने वाले सूक्ष्मजीव (या सम्बंधित अणु) दवा के रूप में इस्तेमाल किए जा सकेंगे।

यह जानने के लिए कि क्यों कुछ लोग व्यायाम करना पसंद करते हैं और कुछ नहीं, पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव विज्ञानी क्रिस्टोफ थैइस ने फुर्तीले चूहों से लेकर आलसी चूहों तक का अध्ययन किया। आनुवंशिक और व्यवहारगत भिन्नता वाले चूहे विशेष रूप से तैयार किए गए थे। इन चूहों की पिंजरों में लगे पहियों पर चलने की इच्छा में पांच गुना से अधिक अंतर था – कुछ चूहे 48 घंटों में 30 किलोमीटर से अधिक दौड़ लेते थे, जबकि बाकी चूहे बमुश्किल कदम उठाते थे।

अध्ययन में फुर्तीले और आलसी चूहों की आनुवंशिक बनावट या जैव-रासायनिक संरचना में कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं दिखाई दिया। लेकिन शोधकर्ताओं को एक सुराग मिला: सामान्य रूप से फुर्तीले चूहों को एंटीबायोटिक दवाएं देने पर वे कम व्यायाम करने लगे थे। आगे के अध्ययनों से पता चला कि एंटीबायोटिक उपचार ने इन फुर्तीले चूहों के मस्तिष्क को प्रभावित किया था। उनके डोपामाइन स्तर में कमी आई थी और मस्तिष्क के कुछ जीन्स की गतिविधि कम हो गई थी। डोपामाइन एक तंत्रिका-संप्रेषक है जो ‘धावकों के नशे’ यानी लगातार व्यायाम करने से मिलने वाले आनंद के लिए जाना जाता है।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि जिन चूहों में आंत के कतिपय बैक्टीरिया की कमी थी उन्हें फुर्तीले चूहों की आंत के सूक्ष्मजीव दिए गए तो वे भी अधिक सक्रिय हो गए। ऐसा लगता है कि ये बैक्टीरिया एक संकेत भेजते हैं जो मस्तिष्क में डोपामाइन को तोड़ने के लिए ज़िम्मेदार एंजाइम की क्रिया में बाधा डालता है। परिणाम यह होता है कि मस्तिष्क के रिवार्ड सेंटर (आनंद महसूस करवाने वाले भाग) में डोपामाइन जमा होने लगता है।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों में आंत से मस्तिष्क तक संदेश पहुंचाने वाली तंत्रिकाओं को अवरुद्ध करके देखा कि डोपामाइन बढ़ाने वाले संकेत मेरूदंड की तंत्रिकाओं के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुंचते हैं। इन तंत्रिकाओं को उकसा कर शोधकर्ता आंत में बैक्टीरिया की कमी वाले चूहों में भी व्यायाम की इच्छा जगाने वाले संकेत भेजने में सफल रहे।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में इन तंत्रिकाओं का विच्छेदन करके उन्हें आंत के बैक्टीरिया और उन बैक्टीरिया द्वारा बनाए जाने वाले अणुओं के संपर्क में रखा। सूक्ष्मजीव-रहित चूहों को जब फैटी एसिड एमाइड्स दिए गए तो चूहों के मस्तिष्क में डोपामाइन का स्तर बढ़ गया और वे व्यायाम करने लगे। फैटी एसिड एमाइड्स बनाने वाले जीन से लैस बैक्टीरिया देने पर इन चूहों में डोपामाइन का स्तर बढ़ा मिला।

अब सवाल है कि क्या ये नतीजे मनुष्यों पर भी लागू होंगे? शोधकर्ताओं के अनुसार इस मामले में सावधानी रखनी चाहिए क्योंकि कृंतक जीवों और मनुष्यों में कई अंतर होते हैं।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया है कि मैराथन धावकों की आंत में एक विशेष सूक्ष्मजीव का उच्च स्तर होता है, जिससे लगता है कि इसका व्यायाम से कोई सम्बंध है। यह भी देखा गया है कि व्यवहार को प्रेरित करने में डोपामाइन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तो उम्मीद है कि किसी दिन एक गोली ही हमसे व्यायाम करवा लेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg3011/abs/_20221214_on_mouse_exercise.jpg

चीन में कोविड नीतियों में ढील

हाल ही में चीनी सरकार ने कोविड-19 नीतियों में ढील देने के दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशानिर्देशों के तहत जांच की आवश्यकता और यात्रा सम्बंधी प्रतिबंधों में ढील दी गई है तथा सार्स-कोव-2 से संक्रमित हल्के या अलक्षणी रोगियों को पहले की तरह सरकारी सुविधाओं की बजाय घर पर ही आइसोलेट होने की अनुमति दी गई है।

इन रियायतों से संक्रमण में वृद्धि का अंदेशा जताया गया है। विशेषज्ञों के अनुसार यह निर्णय स्पष्ट रूप से इस बात का संकेत है कि चीन अब ज़ीरो कोविड के लक्ष्य से दूर जा रहा है। सख्त तालाबंदी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के चलते कई शहरों में कोविड जांच और आवाजाही पर लगाए गए प्रतिबंधों में कुछ ढील दी गई थी। नए दिशानिर्देश इससे भी अधिक ढील प्रदान करते हैं।

एथेंस के जॉर्जिया विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य शोधकर्ता एडम चेन सरकार के इन निर्णयों को उचित मानते हैं। उनके अनुसार यह कमज़ोर स्वास्थ्य वाले लोगों को संक्रमण से बचाते हुए लॉकडाउन के आर्थिक और सामाजिक नुकसान को कम करने के लिए सबसे उचित है। दूसरी ओर, कुछ विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान निर्णय जल्दबाज़ी में लिए गए हैं जिसमें विचार-विमर्श करने का पर्याप्त समय भी नहीं मिला है।

नए दिशानिर्देशों के तहत समूचे शहरों में जांच की आवश्यकता नहीं रहेगी। लॉकडाउन को लेकर भी एक नपा-तुला दृष्टिकोण अपनाया गया है। पूरे शहरों को बंद करने के बजाय उच्च जोखिम वाली बस्तियों, इमारतों और परिवारों पर प्रतिबंध होंगे। नर्सिंग होम जैसे उच्च जोखिम वाले स्थानों को छोड़कर अब लोगों को आने-जाने के लिए नेगेटिव परीक्षण का प्रमाण दिखाने की आवश्यकता नहीं है। उन क्षेत्रों में टीकाकरण को बढ़ावा देने का निर्देश दिया गया है जहां वृद्धजनों में टीकाकरण की दर कम है।

कई शोधकर्ताओं का मानना है कि नए नियमों के कुछ पहलू अस्पष्ट हैं और स्थानीय सरकारें इनकी व्याख्या अपने अनुसार करेंगी। जैसे आउटब्रेक के दौरान परीक्षण कहां व कब कराए जाएं, उच्च जोखिम वाले क्षेत्र किन्हें कहा जाए और उनका प्रबंधन कैसे किया जाए वगैरह। अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों की जांच और क्वारेन्टाइन में कोई रियायत नहीं दी गई है।

चीन में काफी लोग मल्टी में रहते हैं जहां घनी आबादी के चलते संक्रमण को रोकना मुश्किल होगा। घर पर ही क्वारेन्टाइन करने से संक्रमण फैलेगा। शोधकर्ता लॉकडाउन खोलने के समय को भी सही समय नहीं मानते। सर्दी के मौसम में इन्फ्लुएंज़ा का प्रकोप सबसे अधिक होता है यानी अस्पतालों में रोगियों की संख्या अधिक होगी। इसी समय त्योहारों के लिए लोग यात्राएं करेंगे जिससे वायरस के प्रसार की संभावना अधिक होगी।

चीन के पास मज़बूत प्राथमिक चिकित्सा सेवा प्रणाली नहीं है। ऐसे में हल्के-फुल्के लक्षण वाले लोग भी अस्पताल पहुंचते हैं।

और तो और, विशेषज्ञों को लगता है कि अचानक प्रतिबंधों को हटा देने से काम-धंधे ठीक तरह से पटरी पर नहीं आ पाएंगे। 

शोधकर्ताओं को चिंता है कि जल्दबाज़ी में किए गए इन बदलावों से वृद्ध लोगों के बीच टीकाकरण को बढ़ाने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाएगा। फिलहाल 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के लगभग 70 प्रतिशत और 80 वर्ष या उससे अधिक आयु के 40 प्रतिशत लोगों को ही टीके की तीसरी खुराक मिली है।

इन दिशानिर्देशों में टीकाकरण को बढ़ावा देने और लोगों की सुरक्षा चिंताओं को दूर करने के लिए मोबाइल क्लीनिक स्थापित करने और चिकित्सा कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने का भी प्रावधान है। लेकिन इन दिशानिर्देशों में स्थानीय सरकारों को टीकाकरण को बढ़ाने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं है। सवाल यही है कि क्या आने वाले समय में संक्रमण में वृद्धि से मौतों में वृद्धि होगी या सरकार इसे नियंत्रित कर पाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-022-04382-0/d41586-022-04382-0_23797956.jpg?as=webp

प्राचीन मनुष्यों से मिला प्रतिरक्षा का उपहार

.

ब आधुनिक मनुष्य पहली बार अफ्रीका से निकलकर दक्षिण-पश्चिमी प्रशांत के उष्णकटिबंधीय द्वीपों में गए तो उनका सामना नए लोगों और नए रोगजनकों से हुआ। लेकिन जब उन्होंने स्थानीय लोगों, डेनिसोवन्स, के साथ संतानोत्पत्ति की तो उनकी संतानों में कुछ प्रतिरक्षा जीन स्थानांतरित हुए जिन्होंने उन्हें स्थानीय बीमारियों से बचने में मदद की। अब एक नया अध्ययन बताता है कि इनमें से कुछ जीन्स आज भी पपुआ न्यू गिनी के निवासियों के जीनोम में मौजूद हैं।

वैज्ञानिक यह तो भली-भांति जानते थे कि पपुआ न्यू गिनी और मेलानेशिया में रहने वाले लोगों को 5 प्रतिशत तक डीएनए डेनिसोवन लोगों से विरासत में मिले हैं। डेनीसोवन लोग लगभग दो लाख साल पहले एशिया में आए थे और ये निएंडरथल मनुष्य के सम्बंधी थे। वैज्ञानिकों को लगता है कि इन जीन्स ने अतीत में आधुनिक मनुष्यों को स्थानीय बीमारियों से लड़ने में मदद करके फायदा पहुंचाया होगा। लेकिन सवाल था कि ये डीएनए अब भी कैसे मनुष्यों के डील-डौल, कार्यिकी वगैरह में बदलाव लाते हैं। और चूंकि पपुआ न्यू गिनी और मेलानेशिया के वर्तमान लोगों के डीएनए का विश्लेषण बहुत कम हुआ है इसलिए इस सवाल का जवाब मुश्किल था।

इस अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न की आइरीन गेलेगो रोमेरो और उनके साथियों ने एक अन्य अध्ययन का डैटा उपयोग करके इस मुश्किल को दूर किया है। उस अध्ययन में पपुआ न्यू गिनी के 56 लोगों के आनुवंशिक डैटा का विश्लेषण किया गया था। इन लोगों के जीनोम की तुलना डेनिसोवन और निएंडरथल डीएनए के साथ करने पर देखा गया कि डेनिसोवन लोगों से पपुआ लोगों को 82,000 ऐसे जीन संस्करण मिले थे जो जेनेटिक कोड में सिर्फ एक क्षार में बदलाव से पैदा होते हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने आगे का अध्ययन प्रतिरक्षा से सम्बंधित जीन संस्करणों पर केंद्रित किया जो अपने निकट उपस्थित जीन के प्रोटीन का उत्पादन बढ़ा सकते थे, या इसका कार्य ठप या धीमा कर सकते थे। यह नियंत्रण विशिष्ट रोगजनकों के प्रति प्रतिरक्षा प्रणाली को अनुकूलित होने या ढलने में मदद कर सकता है।

शोधकर्ताओं को पपुआ न्यू गिनी के लोगों में कई ऐसे डेनिसोवन जीन संस्करण मिले जो उन जीन्स के पास स्थित थे जो फ्लू और चिकनगुनिया जैसे रोगजनकों के प्रति मानव प्रतिरक्षा को प्रभावित करते हैं। इसके बाद उन्होंने विशेष रूप से दो जीन्स, OAS2 और OAS3, द्वारा उत्पादित प्रोटीन की अभिव्यक्ति से जुड़े आठ डेनिसोवन जीन संस्करण के कार्य का परीक्षण किया।

देखा गया कि इनमें से दो डेनिसोवन जीन संस्करण ने प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा साइटोकाइन्स का उत्पादन कम कर दिया था जिससे शोथ (सूजन) कम हो गई थी। इस तरह शोथ प्रतिक्रिया को शांत करने से पपुआ लोगों को इस क्षेत्र के नए संक्रमणों से निपटने में मदद मिली होगी।

प्लॉस जेनेटिक्स पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि इन प्रयोगों से पता चलता है कि डेनिसोवन जीन संस्करण प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया में छोटे-मोटे बदलाव कर इसे पर्यावरण के प्रति अनुकूलित बना सकते हैं। शोधकर्ता बताते हैं कि उष्णकटिबंधीय इलाकों में, जहां संक्रमण का अधिक खतरा होता है, वहां प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को पूरी तरह हटाना तो उचित नहीं होगा लेकिन उसकी उग्रता को कम करना कारगर हो सकता है।

ये नतीजे वर्तमान युरोपीय लोगों में निएंडरथल जीन संस्करण की भूमिका पर हुए एक अन्य अध्ययन के नतीजों से मेल खाते हैं। दोनों ही अध्ययन दर्शाते हैं कि कैसे किसी क्षेत्र में नए आने वाले मनुष्यों का प्राचीन मनुष्यों के साथ मेल-मिलाप उनमें लाभकारी जीन प्राप्त होने का एक त्वरित तरीका प्रदान करता है। अध्ययन बताता है कि इस तरह जीन का लेन-देन मनुष्यों को प्रतिरक्षा चुनौतियों के प्रति अनुकूलित होने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया था।

उम्मीद है कि आगे के अध्ययनों में यह पता चल सकेगा कि क्या डेनिसोवन जीन संस्करण पपुआ लोगों को किसी विशिष्ट रोग से बचने या उबरने में बेहतर मदद करते हैं?

सार रूप में, हज़ारों सालों पहले दो अलग तरह के मनुष्यों का मेल-मिलाप अब भी वर्तमान मनुष्यों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg2133/abs/_20221208_on_papuans.jpg

रजोनिवृत्ति यानी मेनोपॉज़ पर बात करना ज़रूरी है – सीमा

मेरी दोस्‍त पिछले कुछ दिनों से थोड़ा अजीब-सा व्‍यवहार कर रही थी। छोटी-छोटी बातों पर चिड़-चिड़ करने लगती थी। और फिर अपनी बेमतलब चिड़चिड़ाहट पर खुद ही परेशान हो जाती थी।

मेनोपॉज या रजोनिवृति महिलाओं के प्रजनन चक्र से जुड़ा मामला है। आम तौर पर किसी लड़की को 12-15 की आयु में मासिक स्राव शुरू होता है और यह अमूमन 45-50 की उम्र तक चलता है। मेनोपॉज़ का मतलब होता है मासिक स्राव का बंद हो जाना। यह कोई बीमारी नहीं है बल्कि जीवन के एक नए चरण की शुरुआत है। वास्तव में जन्म के समय ही किसी लड़की के अंडाशय में लाखों अंडाणु होते हैं। लगभग 12-13 वर्ष की उम्र में ये अंडाणु परिपक्व होना शुरू करते हैं। प्रति माह एक अंडाणु (कभी-कभी दो) परिपक्व होकर अंडाशय से निकलता है। इसका नियंत्रण एस्ट्रोजेन नामक हार्मोन करता है। एक अन्य हार्मोन प्रोजेस्टेरोन महिला के शरीर को गर्भावस्था के लिए तैयार करता है। प्रोजेस्टरोन के प्रभाव से गर्भाशय की दीवार पर रक्त वाहिनियों का एक अस्तर बनता है। यदि अंडे का निषेचन होकर गर्भ नहीं ठहरता तो यह अस्तर झड़ जाता है। यही खून मासिक स्राव के रूप में बहता है। और इसे मासिक धर्म कहते हैं। समय के साथ धीरे-धीरे महिलाओं के अंडाशय एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन का उत्पादन कम करने लगते हैं – इसे पेरिमेनोपॉज़ अवस्था कहते हैं। और जब इन हार्मोन्स का उत्पादन पूरी तरह समाप्त हो जाता है तब मासिक स्राव पूरी तरह बंद हो जाते हैं।  यही मेनोपॉज़ है।

काफी पूछने पर उसने बताया कि पिछले कुछेक महीनों से उसके पीरियड नियमित नहीं आ रहे हैं। 2-3 महीने में एक बार आते हैं और फिर जब आते हैं तो 15-15 दिनों तक रहते हैं। खून भी काफी जाता है। “बहुत जल्‍दी थक जाती हूं और बिना किसी बात के चिढ़ने लगती हूं। मेरे साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। मेरे पीरियड तो बहुत आराम से हो जाते थे। किंतु अब…”

मैंने उसे बीच में ही रोककर पूछा, “तुमने किसी डॉक्‍टर से बात की?”

“नहीं, उसकी क्‍या ज़रूरत है, कुछ हुआ थोड़ी ना है।”

“तो और क्‍या होने का इंतज़ार कर रही हो… हम आज शाम ही डॉक्‍टर से मिलने चलेंगे।”

डॉक्‍टर साहिबा ने तो सवालों की झड़ी ही लगा दी – ऐसा कब से हो रहा है, और क्‍या-क्‍या परेशानियां होती है, डायबिटीज़ तो नहीं है, बीपी तो नहीं है, शादी हुई, बच्‍चे हैं क्‍या, तुम्‍हारी क्‍या उम्र होगी, जो तुम्हारे साथ आई हैं वे आपकी कौन हैं, वगैरह-वगैरह।

सब कुछ जान लेने के बाद उन्‍होंने मेरी दोस्‍त को सोनोग्राफी कराकर आने को कह दिया। सोनोग्राफी में निकलकर आया कि अंडाशय नीचे आ गए हैं यानी मेनोपॉज़ (रजोनिवृत्ति) की शुरुआत हो गई है। 

सोनोग्राफी की रिपोर्ट देखकर डॉक्‍टर साहिबा थोड़ी परेशान हो गईं, “अभी तो आप 40 की ही हुई हो, आपको बच्‍चे भी तो चाहिए होंगे। मैं ऐसा करती हूं आपको हार्मोनल गोलियां लिख देती हूं। नॉर्मल पीरि‍यड आने लगेंगे, चिंता की कोई बात नहीं है।”

हार्मोनल गोलियां खाने की बात सुनकर मेरी दोस्‍त थोड़ा घबरा गई। दवाई से तो वह हमेशा बचने की कोशिश करती थी।

उसने डॉक्‍टर से कहा, “अरे, नहीं, नहीं, मुझे बच्‍चे नहीं चाहिए। मेरे पीरियड जल्‍दी शुरू हुए थे इसलिए मेनोपॉज़ भी जल्‍दी शुरू हो गया होगा। हार्मोनल गोलियां मत लिखिए।”

“पीरियड जल्‍दी शुरू हो गए थे, उससे क्‍या होता है? पीरियड जल्‍दी शुरू हुए थे इसलिए मेनोपॉज़ भी जल्‍दी होगा ऐसा कोई नियम नहीं है। क्‍या तुम्‍हारी मां या बहन को भी इसी उम्र में मेनोपॉज़ शुरू हो गया था?”

डॉक्‍टर साहिबा के इस सवाल का मेरी दोस्‍त के पास कोई जवाब नहीं था। उसने कहा कि इस विषय पर उसकी अपनी मां या बहन से कभी कोई बातचीत ही नहीं हुई। पीरियड शुरू होने पर मां ने यह ज़रूर बताया था कि क्‍या करना चाहिए और क्‍या नहीं किंतु खुद अपने पीरियड के सम्बंध में उन्‍हें कभी किसी से बात करते नहीं सुना।

“ठीक है तो अब पूछ लेना।”

चूंकि सोनोग्राफी में कुछ गड़बड़ नहीं निकली थी इसलिए मेरी दोस्‍त तो डॉक्‍टर साहिबा के साथ हुई बातचीत को भूल ही गई, मैं भी भूल गई। फिर कुछ महीनों बाद मुझे मेनोपॉज़ के बारे में एक लेख पढ़ने को मिला – Why Menopause Matters in the Academic Workplace (मेनोपॉज़ अकादमिक कार्यस्थल पर क्या महत्व रखता है)। इस लेख में बताया गया था कि मेनोपॉज़ के दौरान औरतें किन-किन परेशानियों से गुज़रती हैं, मेनोपॉज़ से गुज़र रही औरतों के लिए काम की जगह को कैसे फ्रेंडली बनाया जा सकता है, वगैरह-वगैरह। इस लेख को पढ़ते हुए मुझे मेरी दोस्‍त व डॉक्‍टर साहिबा की बातचीत याद आ गई – उन्‍होंने मेरी दोस्‍त से कितने तो सवालात किए पर मेनोपॉज़ में किस-किस तरह की परेशानियां आ सकती हैं, उसका एक मर्तबा भी ज़िक्र नहीं किया।

इस लेख को पढ़ने से पहले मुझे भी एहसास नहीं था कि मेनोपॉज़-पूर्व (पेरि-मेनोपॉज़) से गुज़र रही महिलाओं को इतनी तकलीफें होती हैं। कभी मां, बहन या किसी दोस्‍त ने अपने अनुभव साझा ही नहीं किए और न ही इस बारे में कहीं कुछ पढ़ने को मिला। वर्कशॉप में या दोस्‍तों से बातचीत के दौरान माहवारी के अनुभवों पर तो काफी बातें हुईं लेकिन माहवारी समाप्त होने (मेनोपॉज़) पर चर्चा करने का कभी कोई मौका नहीं मिला। और वहीं से यह लेख लिखने का ख्याल पनपा ताकि लोग इस प्रक्रिया को समझ सकें और संवेदनशील हो सकें व खुद के साथ-साथ दूसरों को भी जागरूक कर सकें।

मेनोपॉज़ को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं; जैसे, मेनोपॉज़ शुरू होने के बाद महिलाओं को सेक्‍स करने की इच्‍छा नहीं होती, वो एक तरह से बुढ़ा जाती हैं, चीज़ें भूलने लगती हैं, आदि-आदि।

अमूमन मेनोपॉज़ 45 से 55 की उम्र के बीच शुरू होता है। इस प्रक्रिया के दौरान अंडाशयों से निकलने वाले सेक्‍स हॉर्मोन्स में कमी आने लगती है और इस वजह से पीरियड अनियमित हो जाते हैं। आपको कई तरह के शारीरिक, मानसिक व भावनात्‍मक बदलाव महसूस होते हैं।

इस उम्र में अधिकतर महिलाएं अपने करियर के ऊंचे पड़ाव या नेतृत्व की भूमिका में होती हैं। काम की अधिकतर जगहों पर मेनोपॉज़ – और उस वक्‍त होने वाले शारीरिक, मानसिक व भावनात्‍मक बदलाव – को इस तरह से नहीं देखा जाता कि उसके लिए कोई सपोर्ट सिस्‍टम निर्मित किया जाए। और महिलाएं भी इस डर से कुछ नहीं बोलतीं कि उन पर आलसी होने, बहानेबाज़ी या अकेले काम न कर पाने, समस्‍या खड़ी कर देने वाली का ठप्‍पा लगा दिया जाएगा। कुछ बोलने की बजाय वे छुट्टियां लेकर घर में वक्‍त बिताना पसंद करती हैं। कभी-कभी नौकरी छोड़ देती हैं या फिर प्रमोशन नहीं लेतीं।

मज़दूर तबके की औरतों या घरेलू कामगार महिलाओं के पास तो ये सुविधाएं भी नहीं होतीं। अगर छुट्टी ली तो उन्‍हें तो काम से ही हाथ धोना पड़ जाएगा। और इस वजह से सिर्फ महिलाएं ही मुश्किलें नहीं झेल रही होतीं बल्कि संस्थान भी एक सीनियर महिला के अनुभवों से महरूम रह जाते हैं।

मेनोपॉज़ शुरू होने पर या सही शब्‍दों में कहें तो पेरि-मेनोपॉज़ के दौरान जब आप डॉक्‍टर से सलाह लेने पहुंचती हैं तो वे भी सिर्फ कैल्शियम की गोलियां और खान-खुराक की ही बात करते हैं, या ज्‍़यादा हुआ तो परिवार की हिस्‍ट्री जानकर सोनोग्राफी कराने की सलाह देते हैं। लेकिन इस बारे में कोई बात नहीं करते कि उस दौरान सेक्‍स हार्मोन में कमी आने से किस तरह की शारीरिक या मानसिक दिक्‍कतें हो सकती हैं, जैसे – मूड में उतार-चढ़ाव, एकदम से गर्मी लगने लगना या पसीना आना वगैरह।

दफ्तर में साथ काम करने वाले लोगों या घर के लोगों को कोई अंदाज़ा ही नहीं होता कि औरतें किस परिस्थिति से गुज़र रही हैं, और ऐसे में हम उनकी तकलीफों को और बढ़ा देते हैं। हम यह तो कहते हैं कि आजकल मैडम बहुत चिड़चिड़ी हो गई हैं और छोटी-छोटी बात पर भड़क जाती हैं लेकिन ऐसा क्‍यों हो रहा है कभी जानने-समझने की कोशिश नहीं करते।

मेनोपॉज़ उन व्‍यक्तियों के लिए ज़िंदगी की एक प्राकृतिक अवस्‍था है जिनको अंडाशय व गर्भाशय होते हैं और जिनको माहवारी होती है। जैसे कि औरतें, कुछ ट्रांसजेंडर आदमी, नॉन-बाइनरी लोग।

अगर किसी व्‍यक्ति को लगातार एक साल तक पीरियड नहीं आएं तो कहा जा सकता है कि मेनोपॉज़ हो गया है। लेकिन मेनोपॉज़ तक पहुंचने के दौरान जो शारीरिक, मानसिक व भावनात्‍मक बदलाव होते हैं उनको पेरि-मेनोपॉज़ अवस्‍था कहा जाता है। इसमें अंडाशय से निकलने वाले एस्‍ट्रोजन व प्रोजेस्टेरोन हार्मोन की मात्रा कम होने लगती है। पेरि-मेनोपॉज़ अवस्‍था कई सालों तक रह सकती है। इसमें अनियमित या अत्यधिक रक्तस्राव, मूड में उतार-चढ़ाव होना, नींद आने में दिक्कत, अचानक गर्मी लगना या पसीना आना (hot flushes), भूलने लगना, योनि में सूखापन, वज़न बढ़ना, डिप्रेशन, सेक्‍स करने की इच्‍छा न होना आदि लक्षण होते हैं। इसके अलावा, कुछ स्‍वास्‍थ्‍य सम्बंधी दिक्‍कतें जैसे – अस्थिछिद्रता, हृदय रोग भी हो सकते हैं।

दुनिया भर में कार्यस्‍थलों पर मेनोपॉज़ के अनुभवों को लेकर जानकारी बहुत कम ही है। 2015 में Menopause में प्रकाशित हुई यूएस की एक स्‍टडी में बताया गया था कि हॉट फ्लशेज़ (शरीर के ऊपरी हिस्से में अचानक गर्मी महसूस होना) और रात में पसीना आना (नाइट स्वेट्स) की वजह से ऐसी औरतों ने अन्य औरतों की तुलना में 60 फीसदी ज्‍़यादा काम के दिन गंवाए हैं। लंदन में जेंडर-बराबरी पर काम करने वाले संगठन फॉसिट सोसाइटी की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि मेनोपॉज़ से गुज़र रहीं आधी से ज्‍़यादा औरतों और ट्रांसजेंडर आदमियों ने इस दौरान होने वाली परेशानियों की वजह से प्रमोशन के लिए एप्‍लाई नहीं किया।

ऑस्‍ट्रेलिया में, स्‍वास्‍थ्‍य व उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही मेनोपॉज़ से गुज़र रही औरतों के एक सर्वे में पता चला था कि कई औरतें ठीक से काम न कर पाने के लिए खुद को दोषी मानती हैं। कइयों ने यह भी कहा कि वे अपने स्‍वास्‍थ्‍य व काम के संतुलन को बेहतर करने के लिए अपने काम के घंटे कम करना चाहती हैं।

जापान ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन ने पिछले साल मेनोपॉज़ से गुज़र रही महिलाओं का एक सर्वे किया था। इस सर्वे में लगभग 20 फीसदी महिलाओं ने नौकरी छोड़ने, प्रमोशन न लेने, काम के घंटे कम करने या पदावनति करने की बात कही।

साइंस, टेक्‍नॉलॉजी, इंजीनियरिंग व मेथ (STEM) के क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं को लगता है कि अगर वे अपने बॉस या साथी स्‍टाफ के साथ मेनोपॉज़ की दिक्‍कतों के बारे में बात करेंगी तो वे महिलाओं के खिलाफ और भी पूर्वाग्रहों से भर जाएंगे। परिणाम यह होता है कि वे रिसर्च की बजाय प्रशासनिक काम ज़्यादा पसन्‍द करती हैं।

कार्यस्‍थलों के लिए मेनोपॉज़ नीति बनाने की सख्‍त ज़रूरत है। और ऐसी नीति बनाते वक्‍त महिलाओं को भागीदार बनाना तथा उनसे सुझाव लेना ज़रूरी होगा। काम करने की व्‍यवस्‍था को लचीला बनाया जाए। जैसे, वे महिलाएं कुछ घंटों की छुट्टी लेकर डॉक्‍टर से मिल सकें, घर से काम कर सकें, ऑफिस में एक ऐसी जगह हो जहां हालत बिगड़ने पर कुछ देर आराम कर सकें, ऐसा माहौल हो कि वे अपनी परेशानियों के बारे में किसी व्‍यक्ति या फोरम में खुलकर बात कर सकें।

यूके और यूएस जैसे देशों में तो इस दिशा में प्रयास शुरू भी हो गए हैं। मेनोपॉज़ गाइडेंस, मेनोपॉज़ नेटवर्क, मेनोपॉज़ काफे वगैरह बनाने की पहल हुई हैं। सेलेब्रेटी भी इस पर खुलकर बातें कर रहे हैं।

तो आइए, हम जहां भी काम करते हैं वहां प्री-मेनोपॉज़ पर संवाद शुरू करें। काम की जगहों को प्री-मेनोपॉज़ से गुज़र रही महिलाओं के अनुकूल बनाने की कोशिश करें। मेनोपॉज़ को एक बीमारी या विकार की तरह न देखकर ज़िंदगी के एक दौर की तरह देखें।

कार्यस्‍थलों पर औरतों की संख्‍या जितनी बढ़ेगी, मेनोपॉज़, गर्भावस्था, स्तनपान जैसी चीज़ों पर लोगों के पूर्वाग्रह उतने ही कम होंगे और लोग संवेदनशील भी बनेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.vecteezy.com/system/resources/previews/011/430/701/non_2x/female-personal-health-concern-worry-woman-getting-checked-by-doctors-menopause-women-climacteric-hormone-replacement-therapy-concept-flat-modern-illustration-vector.jpg