जब जीवन के चंद दिन बचें हो…

दि आपको पता चले कि आपकी ज़िंदगी के बस तीन हफ्ते बचे हैं तो आप अपने आखिरी समय में क्या करना चाहेंगे? ऑस्ट्रेलियाई मार्सुपियल जंतु एंटेकिनस के नर का अपने आखिरी समय में उद्देश्य स्पष्ट होता है – अधिक से अधिक संभोग। हालिया अध्ययन में पता चला है कि इस समय में वे अधिक से अधिक प्रणय करने के लिए अपनी नींद तक दांव पर लगा देते हैं।

यह तो हम जानते हैं कि नींद लगभग हर जंतु के लिए ज़रूरी है। मनुष्यों में नींद की कमी से स्मृति ह्रास, पकड़ पर नियंत्रण में कमी जैसी समस्याएं हो सकती है। लेकिन ऐसा देखा गया है कुछ परिस्थितियों में उत्तरजीविता के लिए कुछ प्रजातियां अपनी नींद से समझौता कर सकती हैं। 2012 में ला ट्रोब युनिवर्सिटी के निद्रा विशेषज्ञ जॉन लेस्कु ने देखा था कि पेक्टोरल सैंडपाइपर नामक पक्षी के नर अपने तीन हफ्ते के प्रजनन काल में अधिकतर समय (95 प्रतिशत) जागते रहते हैं। नींद से समझौते का उन्हें फल भी मिलता है: जो पक्षी कम सोते हैं उनकी अधिक संतानें होती हैं।

इन नतीजों ने लेस्कू को एंटेकिनस के बारे में यह जानने के लिए प्रेरित किया कि क्या वे भी प्रजनन सफलता को अधिकतम करने के लिए नींद से समझौता करते हैं?

गौरतलब है कि चूहे जैसे दिखने वाले छोटे, झबरीले नर एंटेकिनस (Antechinus swainsonii) का जीवनकाल मात्र एक साल का होता है। जिसमें उनके जीवन के आखिरी तीन हफ्ते उनका प्रजनन काल होता है, इसके बाद नर एंटेकिनस मर जाते हैं। मादा एंटेकिनस का जीवन नर से थोड़ा लंबा होता है वे अपने शिशुओं की देखभाल के लिए करीब 2 महीने और जीवित रहती हैं, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में कुछ मादाएं दो प्रजनन काल यानी दो साल तक जीवित रह सकती हैं।

शोधकर्ताओं ने 15 एंटेकिनस का प्रजनन काल से पहले और प्रजनन काल के दौरान प्रयोगशाला में अध्ययन किया।  उनकी गतिविधि समझने के लिए उन पर कॉलर आईडी लगाए, मस्तिष्क गतिविधियों (खासकर नींद) पर नज़र रखने के लिए उनमें सेंसर प्रत्यारोपित किए और टेस्टोस्टेरॉन में परिवर्तन को देखने के लिए उनके रक्त के नमूने लिए। नरों को अलग-अलग रखा गया था, इसलिए उनमें वास्तविक संभोग नहीं हुआ।

टीम ने पाया कि नर एंटेकिनस ने प्रजनन काल में अपनी नींद में प्रति दिन औसतन 3 घंटे की कटौती की थी, यहां तक कि एक नर ने अपनी दैनिक नींद आधी कर दी थी। यह भी पाया गया कि नींद की कमी से उनका टेस्टोस्टेरॉन का स्तर बढ़ गया था, जिससे लगता है कि उनके अधिकाधिक प्रजनन की प्रवृत्ति में यह हारमोन मदद करता है।

इसके अलवा, शोधकर्ताओं ने एंटेकिनस एजिलिस नामक एक अन्य प्रजाति के प्राकृतवास में रह रहे 38 नर और मादा के प्रजनन काल के दौरान रक्त के नमूने लिए। करंट बायोलॉजी में उन्होंने बताया है कि इन जीवों में ऑक्सेलिक अम्ल का स्तर कम पाया गया, जो नींद की कमी का द्योतक है। और तो और, प्रेम-आतुर नर मादाओं को भी सोने नहीं दे रहे होंगे।

हालांकि टीम ने यह नहीं देखा है कि क्या वास्तव में नींद गंवाकर अधिकाधिक संभोग करने से नर की अधिक संतान पैदा हुई या नहीं, लेकिन उनका ऐसा अनुमान है कि इस व्यवहार का संभवत: यही कारण होगा।

फिर भी, नींद में कटौती करने के बावजूद एंटेकिनस दिन का लगभग आधा समय सोते हुए बिता रहे थे जो इस बात का प्रमाण है कि नींद कितनी महत्वपूर्ण है।

बहरहाल, कुछ अनसुलझे सवालों के जवाब पाने के लिए अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। जैसे क्या प्रकृति में रह रहे एंटेकिनस को भी उतनी ही नींद की ज़रूरत होती है जितनी प्रयोगशाला में पल रहे एंटेकिनस को, प्रजनन काल के दौरान, नींद की कमी से नर और मादा के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ते हैं, और वे इससे निपटने के लिए क्या करते हैं?

इस संदर्भ में यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि नींद लेने का हमारा तरीका ही एकमात्र तरीका नहीं है। विभिन्न तरह के जंतुओं ने नींद लेने के अपने तरीके विकसित किए हैं। और हमें इस बारे में बहुत कुछ सीखने-समझने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चींटियों ने शेरों की नाक में किया दम

क्सर यह सुनने में आता है कि चींटी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो वह हाथी को पस्त कर सकती है। यह बात तो ठीक है लेकिन हालिया अध्ययन में यह बात सामने आई है कि चींटियों ने परोक्ष रूप से शेरों की नाक में दम कर दिया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में यह बात सामने आई है कि अफ्रीकी सवाना जंगलों में मनुष्यों द्वारा पहुंचाई गई बड़ी सिर वाली चींटियों ने वहां की स्थानीय चींटियों का सफाया कर दिया है; ये स्थानीय चींटियां वहां मौजूद बबूल के पेड़ों को हाथियों द्वारा भक्षण से बचाती थीं। इन रक्षक चींटियों के वहां से हटने से हाथियों को बबूल के पेड़ खाने को मिल गए। फिर पेड़ खत्म होने के कारण शेरों को घात लगाकर ज़ेब्रा का शिकार करने की ओट खत्म होती गई। नतीजतन शेरों के लिए ज़ेब्रा का शिकार करना मुश्किल हो गया, और उन्हें ज़ेब्रा की जगह भैंसों को अपना शिकार बनाना पड़ा।

पूर्वी अफ्रीका के हज़ारों वर्ग किलोमीटर में फैले जंगलों में मुख्यत: एक तरह के बबूल (Vachellia drepanolobium) के पेड़ उगते हैं। इस इलाके का अधिकतर जैव पदार्थ (70-99 प्रतिशत) यही पेड़ होता है। और इनकी शाखाओं पर नुकीले कांटे होते हैं। साथ ही साथ इनकी शाखाओं पर खोखली गोल संरचनाएं बनती हैं, जिनमें स्थानीय बबूल चींटियां (Crematogaster spp.) रहती हैं और बबूल का मकरंद पीती हैं। बदले में ये चींटियां शाकाहारी जानवरों, खासकर हाथियों, से पेड़ों को बचाती हैं – कंटीले पेड़ों को खाने आए अफ्रीकी जंगली हाथियों की सूंड में चीटियां घुस जाती हैं, जिसके चलते वे इन्हें खाने का इरादा छोड़ देते हैं।

लेकिन 2000 के दशक की शुरुआत में, हिंद महासागर के एक द्वीप की मूल निवासी बड़े सिर वाली चींटियां (Pheidole megacephala) केन्या में पहुंच गईं – संभवत: मनुष्यों ने ही उन्हें वहां पहुंचाया था। केन्या पहुंचकर इन चींटियों ने बबूल पर बसने वाली चीटिंयों पर हमला करना शुरू किया और उनके शिशुओं को खाने लगीं। जब पेड़ों के रक्षक ही सलामत नहीं बचे, तो फिर पेड़ कैसे सलामत बचते। नतीजतन हाथी अब मज़े से कंटीले पेड़ खाने लगे और सवाना जंगलों में इन पेड़ों की संख्या गिरने लगी।

पेड़ों के इस विनाश को देखते हुए व्योमिंग विश्वविद्यालय के वन्यजीव पारिस्थितिकीविज्ञानी जैकब गोहेन जानना चाहते थे कि इस विनाश ने अन्य प्राणियों को कैसे प्रभावित किया होगा, खासकर शेर को। क्योंकि शेर पेड़ों की ओट में घात लगाकर अपना शिकार बड़ी कुशलता से कर लेते हैं। तो क्या इस कमी ने शेरों के लिए ज़ेब्रा का शिकार करना मुश्किल बनाया होगा?

इसके लिए उन्होंने 360 वर्ग किलोमीटर से अधिक के क्षेत्र में फैले सवाना जंगलों में, ढाई-ढाई हज़ार वर्ग मीटर के एक दर्ज़न अध्ययन भूखंड चिन्हित किए। हर अध्ययन भूखंड पर शोधकर्ताओं की एक टीम ने वहां के परिदृश्य में दृश्यता, मैदानी ज़ेब्रा का आबादी घनत्व, बड़े सिर वाली चींटियों का आगमन और शेरों द्वारा ज़ेब्रा के शिकार पर नज़र रखी। साथ ही छह शेरनियों पर जीपीएस कॉलर भी लगाए ताकि यह देखा जा सके कि इन भूखंडों में उनकी हरकतें कैसी रहती हैं।

तीन साल की निगरानी के बाद शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन पेड़ों से वहां की स्थानीय बबूल चींटियां नदारद थीं, हाथियों ने उन पेड़ों का सात गुना अधिक तेज़ी से विनाश किया बनिस्बत उन पेड़ों के जिनमें स्थानीय संरक्षक चींटियां मौजूद थीं। जहां पेड़ और झाड़ियों का घनापन नाटकीय रूप से छंट गया है, वहां शेरों के लिए ज़ेब्रा पर हमला करना मुश्किल हो गया है। इसके विपरीत, बड़े सिर वाली चींटियों से मुक्त क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में कंटीले पेड़ और उनकी झुरमुट थी, जहां शेर छिप सकते थे। नतीजतन इन जगहों पर शेर ज़ेब्रा के शिकार में तीन गुना अधिक सक्षम थे।

इन निष्कर्ष से यह बात और स्पष्ट होती है कि कोई भी पारिस्थितिकी तंत्र आपस में कितना गुत्थम-गुत्था और जटिल होता है – यदि आप इसकी एक चीज़ को भी थोड़ा यहां-वहां करते हैं तो पूरा तंत्र डगमगा जाता है।

लेकिन इन नतीजों से यह सवाल उभरा कि जब कम घने क्षेत्र में शेर अपने शिकार (ज़ेब्रा) से चूक रहे हैं तब भी उनकी आबादी स्थिर कैसे है? इसी बात को खंगालने वाले अन्य अध्ययनों ने पाया है कि 2003 में 67 प्रतिशत ज़ेब्रा शेरों के शिकार के कारण मरे थे, जबकि 2020 में केवल 42 प्रतिशत ज़ेब्रा शिकार के कारण मरे। इसी दौरान, शेरों द्वारा अफ्रीकी भैंसे का शिकार शून्य प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया। यानी शेरों ने अपना शिकार बदल लिया है।

फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि यह परिवर्तन टिकाऊ है या नहीं। क्योंकि शेरों के लिए भैंसों को मारना बहुत मुश्किल है। ज़ेब्रा की तुलना में भैसों में बहुत अधिक ताकत होती है, और भिड़ंत में कभी-कभी भैंस शेरों को मार भी डालती है।

यह भी समझने वाली बात है कि यदि भैसों का शिकार जारी रहा तो क्या उनकी संख्या घटने लगेगी, और यदि हां तो तब शेरों का क्या होगा? और ज़ेब्रा की संख्या बढ़ने से जंगल की वनस्पति किस तरह प्रभावित होगी? साथ ही यह भी देखने की ज़रूरत है कि बड़े सिर वाली चींटियां कैसे फैलती हैं ताकि उनके प्रसार को रोकने के प्रयास किए जा सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टार्डिग्रेड के ‘अमृत तत्व’ का पता चला

न्हें टार्डिग्रेड्स की खासियत है कि वे अति दुर्गम परिस्थितियों – निर्वात से लेकर परम शून्य के तापमान – में जीवित रह सकते हैं। अब वैज्ञानिकों ने टार्डिग्रेड्स में इस खासियत के कारण की पहचान कर ली है – यह एक प्रकार का आणविक स्विच है जो दुर्गम परिस्थितियों में सुप्तावस्था को शुरू करता है।

दरअसल जब मार्शल युनिवर्सिटी के रसायनज्ञ डेरिक कोलिंग ने एक ऐसी मशीन, जो ‘मुक्त मूलकों’ या अयुग्मित इलेक्ट्रॉन से लैस परमाणुओं का पता लगाती है, में टार्डिग्रेड को डाला तो उन्होंने टार्डिग्रेड में मुक्त मूलक उत्पन्न होते देखे। हालांकि टार्डिग्रेड में मुक्त मूलक दिखना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि जीवों की सामान्य चयापचय प्रक्रिया और धुआं व अन्य प्रदूषक जैसे पर्यावरणीय तनाव के कारण कोशिकाओं में मुक्त मूलक बनते ही हैं।

जब बहुत सारे मुक्त मूलक जमा हो जाते हैं तो स्थिरता प्राप्त करने के लिए वे अपने आसपास से इलेक्ट्रॉनों को हड़प लेते हैं। इस प्रक्रिया में, ये मुक्त मूलक कोशिकाओं और डीएनए एवं प्रोटीन जैसे यौगिकों को नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन यदि यही मुक्त मूलक कम मात्रा में मौजूद हो तो ये संकेतक की तरह काम कर सकते हैं।

दूसरी ओर, रसायनशास्त्री लेसली हिक्स अपने अध्ययन में देख रही थीं कि जब इन मूलकों को विभिन्न प्रकार के प्रोटीन के साथ जोड़ा और हटाया जाता है तो ये कोशिका के व्यवहार को किस तरह प्रभावित करते हैं।

टार्डिग्रेड में मुक्त मूलक के कोलिंग के अवलोकन ने हिक्स को यह जानने की दिशा में मोड़ा कि क्या दुर्गम परिस्थितियों में ऐसे ही मुक्त मूलक टार्डिग्रेड को जीवित रहने में मदद करते हैं? इसके लिए शोधकर्ताओं ने टार्डिग्रेड के लिए एक अस्थायी दुर्गम, तनावपूर्ण और मुक्त मूलक बनाने वाला वातावरण बनाया। और टार्डिग्रेड पर नज़र रखी कि क्या इन परिस्थितियों में टार्डिग्रेड्स ने सुरक्षात्मक स्थिति में प्रवेश किया, और यदि किया तो क्या जीवन परिस्थितियां बहाल होने पर वे वापस सामान्य स्थिति में लौट सके और अपनी सामान्य गतिविधि शुरू कर सके?

साथ ही देखा कि क्या मुक्त मूलकों और सिस्टीन (प्रोटीन का एक अमीनो अम्ल) के बीच संकेतन तंत्र निष्क्रियता में भूमिका निभाता है? यह देखने के लिए शोधकर्ताओं ने टार्डिग्रेड का ऐसे विभिन्न प्रकार के अणुओं से संपर्क कराया जो सिस्टीन ऑक्सीकरण को अवरुद्ध करते हैं। उन्होंने पाया कि तनावपूर्ण परिस्थितियों में जब मुक्त कणों के लिए सिस्टीन मौजूद नहीं था तब टार्डिग्रेड निष्क्रिय नहीं हो सके।

ये नतीजे पूर्व अध्ययन के नतीजों को समर्थन देते हैं जो बताते हैं कि निर्जलीकरण सहनशील कीट मिज में सिस्टीन ऑक्सीकरण की भूमिका है। इससे लगता है कि दूभर स्थितियों में निष्क्रिय होने या ऐसे ही अन्य अवस्थाओं में जाने के लिए जीवों में एक साझा ट्रिगर हो सकता है।

बहरहाल, टार्डिग्रेड्स में मुक्त मूलकों के कार्य को समझने के लिए अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। वहीं दूभर स्थिति से निपटने में निष्क्रिय हो जाने के अलावा अन्य रणनीतियों पर भी गहन अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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ग्रामीण महिला पशु चिकित्सक – भारत डोगरा

टीकमगढ़ ज़िले (मध्य प्रदेश) के नदिया गांव में रहने वाली भारती अहरवार को जब पता चला कि एक संस्था, सृजन, क्षेत्र की कुछ महिलाओं को बकरियों को रोग-मुक्त रखने व उनके इलाज के लिए प्रशिक्षण दे रही है तो उसने ‘सृजन’ और ‘दी गोट ट्रस्ट’ नामक संस्था द्वारा सह-आयोजित प्रशिक्षण पहले क्षेत्रीय स्तर पर व फिर लखनऊ स्तर पर लिया।

इस प्रशिक्षण से भारती को एक नया आत्म-विश्वास मिला। अब उसे ‘पशु-सखी’ या बकरियों की पैरा डाक्टर के रूप में नई पहचान मिली, मान्यता मिली, दवा व वैक्सीन मिले। लेकिन जब वह अपनी पशु-सखी की युनिफार्म में इलाज के लिए निकलती तो कुछ लोग मज़ाक उड़ाते, फब्तियां कसते। पर इसकी परवाह न करते हुए भारती ने अपना कार्य पूरी निष्ठा से जारी रखा व अधिक दक्षता प्राप्त करती रही। उसने बकरी स्वास्थ्य के लिए विशेष शिविरों का आयोजन भी किया।

धीरे-धीरे गांव के लोग उसके कार्य का महत्व समझने लगे। बकरी में बीमारी होने पर संक्रमण तेज़ी से फैलता है। पी.पी.आर. और एफ.एम.डी. बीमारियों से बचाव व डीवर्मिंग ज़रूरी है। यदि इस सबके लिए गांव में ही ‘पशु-सखी’ की सेवाएं मिल जाएं तो इधर-उधर भटकना नहीं पडे़गा। गांववासियों की नज़रों में स्वीकृति व सम्मान बढ़ने के साथ भारती का कार्य भी बढ़ा व आय भी।

टीकमगढ़ ज़िले की माया घोष एक वरिष्ठ पशु-सखी हैं जिनकी गिनती इस कार्यक्षेत्र में सबसे पहले आने वाली महिलाओं में होती है। माया घोष ने अपने स्थानीय व लखनऊ के प्रशिक्षण के बाद अपने गांव बिजरावन में बकरी पालन का सर्वेक्षण किया। इससे स्पष्ट हुआ कि थोड़े से प्रवासी मज़दूरों जैसे अपवाद को छोड़ दिया जाए तो अन्यथा लगभग सभी घरों में औसतन 5 से 10 बकरियां हैं। कांटी गांव की ‘पशु-सखी’ हीरा देवी ने बताया कि प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद जब उन्होंने कार्य आरंभ किया तो आसपास के कुछ लोगों ने उनकी योग्यता पर संदेह प्रकट किया। इस स्थिति में उन्होंने एक बीमार बकरी को खरीद लिया और उसे अपने इलाज से पूरी तरह ठीक कर दिया। इसके बाद लोग उनके पास बकरियों के इलाज के लिए पहुंचने लगे और यह सिलसिला अभी तक चल रहा है।

सृजन के सहयोग से किसानों का एक उत्पादक संगठन बना है जिसके द्वारा बकरियों के लिए स्वस्थ आहार बनाया जाता है जिसमें अनेक पौष्टिक तत्त्व मिले होते हैं। वैसे बकरी खुले में चर कर अपना पेट भरती है, पर कुछ अतिरिक्त पौष्टिक आहार मिलने से उनका स्वास्थ्य और सुधर जाता है। इस पौष्टिक आहार की बिक्री भी पशु-सखी द्वारा की जाती है। दवाएं उपलब्ध करवाने में भी किसान उत्पादक संगठन की सहायता मिलती है।

लगभग 10 पशु सखियों के प्रशिक्षण से शुरू हुए इस प्रयास से आज इस जिले में 76 प्रशिक्षित पशु-सखियां हैं जो अपना जीविकोपार्जन बढ़ाने का कार्य बहुत आत्मविश्वास से कर रही हैं और गांव-समुदाय के लिए बहुत सहायक भी सिद्ध हो रही हैं। यहां के अधिकांश गांवों में लगभग तीन-चौथाई परिवारों के पास बकरियां हैं, पर अचानक फैली बीमारियों में अनेक बकरियों के समय-समय पर मर जाने से लोग परेशान थे। अब पशु-सखियों के कारण यह समस्या कम हुई है व स्वस्थ बकरी विकास की संभावना बढ़ी है।

इसी तरह का कार्य कुछ अन्य क्षेत्रों में भी हो रहा है। एक उत्साहवर्धक स्थिति यह बनी है कि कुछ सरकारी अधिकारियों ने इस सफलता को नज़दीकी स्तर पर देखने के बाद इसे अपने-अपने स्तर पर भी आगे बढ़ाने के लिए कहा है। उन्होंने माना है कि यह एक उल्लेखनीय सफलता है जिसे आगे बढ़ना चाहिए।

इसके अलावा, व्यापारियों द्वारा बकरी पालकों को पहले कम कीमत देकर ठगा जाता था पर अब इस मामले में भी सुधार हो रहा है ताकि बकरी पालक को उचित मूल्य मिले। सरकार की, विशेषकर दलितों व आदिवासियों के लिए, बकरियों को बहुत कम कीमत पर उपलब्ध वाली योजनाएं हैं व उनसे भी समुचित सहायता प्राप्त की जा सकती है।

जहां बकरियों को मुख्य रूप से बिक्री के लिए पाला जाता है, वहां इनसे, अपेक्षाकृत कम मात्रा में ही सही, विशिष्ट पौष्टिक गुणों वाला दूध भी प्राप्त हो जाता है तथा बकरियों से खाद भी उच्च गुणवत्ता की प्राप्त होती है। अपेक्षाकृत निर्धन परिवारों के लिए पशु पालन की सबसे सहज आजीविका बकरी पालन के रूप में ही है व पशु-सखियों ने स्वस्थ बकरीपालन विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह एक अनुकरणीय मॉडल है जो अन्य स्थानों पर भी बकरी पालन को बेहतर बना सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कीटों से प्रेरित आधुनिक जलीय रोबोटिक्स




व्हर्लिगिग बीटल

प्रकृति से प्रेरणा लेते हुए वैज्ञानिकों द्वारा पानी पर तैरने वाले कीटों की अद्भुत क्षमताओं का उपयोग अब उन्नत जलीय रोबोट विकसित करने में किया जा रहा है। रिपल बग और व्हर्लिगिग बीटल नामक दो प्रजातियों की पानी पर अनोखी चपलता और गति ने एक जलीय रोबोट की एक नई तकनीक की प्रेरणा दी है।

इस खोज के लिए युनिवर्सिटी ऑफ मैन के जीवविज्ञानी विक्टर ओर्टेगा जिमेनेज़ ने रैगोवेलिया वॉटर स्ट्राइडर्स, जिसे रिपल बग भी कहा जाता है, की चाल-ढाल को समझने का प्रयास किया। जब ये छोटे कीट पानी की सतह पर तेज़ी से गुज़रते हैं तो पक्षियों जैसे प्रतीत होते हैं और इतनी तेज़ रफ्तार से मुड़ते हैं मानो हवा में उड़ रहे हों। जांच से पता चला कि कीट की बीच वाली टांगों के सिरों पर पंखे होते हैं। मुड़ते समय ये कीट अपने शरीर के एक तरफ के पंखे फैलाते हैं, जिससे शरीर के एक ओर रुकावट पैदा होती है जबकि दूसरी ओर की टांगें सामान्य ढंग से फिसलती रहती हैं। इस स्थिति में ये 50 मिलीसेकंड से भी कम समय में तेज़ी से 180° मुड़ जाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान वे न्यूनतम ऊर्जा खर्च करते हुए लंबे समय तक ज़िगज़ैग मार्ग अपनाकर आगे बढ़ते हैं।

यह काफी आश्चर्य की बात है कि जब शोधकर्ताओं ने मृत स्ट्राइडर्स को पानी में डाला, तब भी उनके पंखे खुले क्योंकि उनके पैर सतह से नीचे डूबे थे। इससे यह पता चलता है कि पंखे खोलने के लिए मांसपेशियों की आवश्यकता नहीं होती है। इस तरह मुड़ने के लिए रिपल बग को केवल अपने शरीर को थोड़ा एक ओर झुकाने की ज़रूरत होती है, जिससे पंखे डूबकर खुल जाते हैं और एक तरफ रुकावट बढ़ जाती है।

रिपल बग

एजू विश्वविद्यालय के मेकेनिकल इंजीनियर किम डोंगजिन ने जिमेनेज़ के साथ मिलकर एक रैगो-बॉट का निर्माण किया जो रिपल बग की नकल करता है। हालांकि, इस रोबोट ने शांत पानी में काफी अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन व्यापक रोबोटिक अनुप्रयोगों के लिए जटिल पंखे तैयार करना चुनौतीपूर्ण है।

इसी प्रकार के एक अन्य अध्ययन में, कॉर्नेल युनिवर्सिटी के इंजीनियर क्रिस रोह ने एक छोटे कीट व्हर्लिगिग बीटल की जलीय कलाबाज़ियों का पता लगाया। इन प्राणियों ने प्रति सेकंड अपने शरीर से 100 गुना दूरी तेज़ गति से तय की। पूर्व धारणाओं के विपरीत, शोधदल ने पाया कि कीट ने यह गति पानी के माध्यम से अपने पैरों को पतवार की तरह सीधे पीछे धकेलकर नहीं बल्कि अपने पैरों को नीचे की ओर तथा शरीर के आर-पार ले जाकर हासिल की है। इस अनूठी गति ने हेलीकॉप्टर ब्लेड के समान एक लिफ्ट बल उत्पन्न किया, जिसने बीटल की गति में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

पानी में भंवर बनाने में व्हर्लिगिग बीटल और रिपल बग के बीच समानताओं को देखते हुए जिमेनेज़ ने बीटल की गति में लिफ्ट की भूमिका को निर्धारित करने के लिए द्रव गतिकी में अधिक गहन जांच की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है।

ये अध्ययन जलीय रोबोटिक्स के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हैं। और जीव विज्ञानियों, भौतिकविदों और इंजीनियरों के बीच सहयोग बायोमिमिक्री को सशक्त करेगा, जिसमें प्रकृति के जटिल तंत्र नवीन टेक्नॉलॉजीगत समाधानों की प्रेरणा बनते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन जीवों की त्वचा के रंग की पहचान

ह तो हम जानते हैं कि हर जीव की त्वचा का खास रंग होता है जो उसे कई तरह से मदद करता है। जैसे छिपने, शरीर का तापमान नियंत्रित रखने वगैरह में। वर्तमान जीवों की तरह प्राचीन काल के जीव-जंतु भी तरह-तरह के रंगों के हुआ करते थे – इंद्रधनुषी पंखों वाले डायनासौर से लेकर भक्क काले रंग के स्किवड तक। लेकिन प्रचीन समय के जीवों की त्वचा का रंग भांपना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि जीवों की त्वचा, फर और पंखों को रंगने वाले रंजक वगैरह अश्मीभूत होने के दौरान अक्सर नष्ट हो जाते हैं। विशेषज्ञों ने काले और भूरे जैसे गहरे रंगों की बनावट और रंजकों का पता लगाने के तरीके तो ढूंढ लिए हैं लेकिन पीले, लाल, नारंगी जैसे हल्के रंगों को पहचान पाना अब भी एक चुनौती है। ये रंग फिओमेलेनिन के कारण दिखते हैं, जो कि आसानी से पकड़ न आने वाला रंजक है।

हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने एक ऐसे तरीके का वर्णन किया है जो जीवाश्मों की त्वचा में फिओमेलेनिन से बनने वाले अदरक के रंग सरीखे इन रंगों को पहचानने में मदद कर सकता है।

देखा जाए तो इन रंगों को पहचानने का यह पहला प्रयास नहीं है। पूर्व में हुए अध्ययनों ने भी जीवाश्मों में फिओमेलेनिन से बनने वाले रंग पहचानने की कोशिश की थी लेकिन उनके परिणाम काफी हद तक अनिर्णायक ही रहे थे। उदाहरण के लिए, वैज्ञानिकों ने बोरीलोपेल्टा डायनासौर के जीवाश्म में लाल रंग की पहचान की थी। लेकिन वे यह भेद नहीं कर पाए थे कि यह जो फिओमेलेनिन उन्हें मिला है वह त्वचा के मूल रंजक का है या डायनासौर की मृत्यु के बाद हुए संदूषण का है।

इस फर्क को पहचानने के लिए युनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क की जीवाश्म विज्ञानी टिफैनी स्लेटर और साथियों ने एक परीक्षण तैयार किया, जो त्वचा, पंखों वगैरह के अदरक सदृश रंगों के मूल रंजक से छूटी छाप और संदूषण के कारण मिले रंजक से छूटी छाप में फर्क कर पाया। उन्होंने जीवों के अश्मीभूत होने के दौरान जैविक यौगिकों के टूटने की प्रक्रिया की नकल करने के लिए विभिन्न आधुनिक पक्षियों के पंखों को ओवन में तपाया। फिर तपाए हुए पंखों का सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन किया और विभिन्न प्रकार के मेलेनिन की पहचान के लिए रासायनिक परीक्षण किए। उन्होंने पाया कि जैविक रंजक जीवाश्मों में एक विशिष्ट एवं पहचानने योग्य छाप छोड़ते हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने विभिन्न जीवाश्मों पर रंजकों की रासायनिक छाप पहचानने का प्रयास किया, और उन्हें करीब 1 करोड़ वर्ष पुराने एक मेंढक, कन्फ्यूशियसॉर्निस नामक पक्षी और सायनोर्निथोसॉरस डायनासौर में ये रंजक मिले।

उम्मीद है कि अब जीवाश्म की त्वचा के रंगों का अधिक सटीक निर्धारण किया जा सकेगा। मसलन, देखा जा सकेगा कि उड़ने वाले टेरोसौर में कौन से चटख रंग होते थे। आगे के अध्ययन शायद यह भी बता सकेंगे कि फिओमेलेनिन सबसे पहले कैसे और क्यों विकसित हुआ? क्योंकि फिओमेलेनिन के कारण कैंसर होने की संभावना हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन से कुछ जीव निशाचर बन रहे हैं

लवायु परिवर्तन के कारण कुछ जीवों के व्यवहार में परिवर्तन हो रहा है। निरंतर बढ़ते तापमान की स्थिति में जीवित रहने के लिए वे निशाचर बन रहे हैं। हाल ही में ब्राज़ील के पेंटानल वेटलैंड्स में पाए जाने वाले सफेद होंठ वाले पेकेरी (Tayassu pecari) पर अध्ययन ने यह चौंकाने वाला खुलासा किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार आम तौर पर दिन के समय सक्रिय रहने वाला यह जीव अत्यधिक गर्मी के दौरान रात के समय अधिक गतिविधि करता पाया गया है।

बायोट्रॉपिका में प्रकाशित अध्ययन की सहलेखक मिशेला पीटरसन ने जलवायु परिवर्तन से जूझ रही प्रजातियों के लिए अनुकूलन विधि के रूप में इस प्रकार के व्यवहारिक लचीलेपन पर प्रकाश डाला है। अध्ययन से पता चलता है कि लगभग 27 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान में पेकेरी दोपहर के समय सबसे अधिक सक्रिय थे। लेकिन जैसे-जैसे तापमान बढ़ा, उनकी गतिविधि सुबह के समय होने लगी, और दिन का तापमान 34 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर, उनकी चरम सक्रियता सूर्यास्त के बाद देखी गई।

शोधकर्ताओं ने विशाल एंट-ईटर और चीतों जैसी अन्य प्रजातियों के व्यवहार में भी इसी तरह के बदलाव देखे हैं, जो जीवों के व्यवहार में व्यापक परिवर्तन का संकेत देते हैं। दूसरी ओर, लीडेन विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकी विज्ञानी माइकल वेल्डुई के अनुसार इन परिवर्तनों के दीर्घकालिक प्रभाव पर अभी भी अनिश्चितता है तथा और अधिक शोध की आवश्यकता बनी हुई है।

गौरतलब है कि जीवों का निशाचर व्यवहार दिन की गर्मी से राहत देता है लेकिन यह प्यूमा जैसे निशाचर शिकारियों का शिकार बनने का जोखिम भी पैदा करता है। इसके अतिरिक्त, रात की गतिविधि में परिवर्तन इन जीवों को भोजन स्रोतों का पता लगाने में भी मुश्किल पैदा कर सकता है। हालांकि, शोधकर्ता अभी भी इस व्यवहारिक समायोजन को एक स्थायी बदलाव के रूप में नहीं देख रहे हैं। उनका मानना है कि संभवत: ये जीव अभी भी दिन की गतिविधि को प्राथमिकता दे रहे हों और केवल अत्यधिक गर्मी के दौरान रात में भोजन की तलाश का विकल्प अपना रहे हों।

कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि दिन के उजाले के आदी जीव संभव होने पर रात की गतिविधि से परहेज़ कर सकते हैं। पेकेरी की सुबह की गतिविधि में प्रारंभिक बदलाव इस ओर संकेत देता है कि वे रात की स्थितियों की तुलना में अधिक उपलब्ध रोशनी के साथ ठंडे तापमान को प्राथमिकता देते हैं।

इस दिशा में चल रहे अध्ययन जलवायु परिवर्तन की स्थिति में जीवों के अनुकूलन की जटिलता पर ज़ोर देते हैं। यह वन्यजीवों के बदलते आवासों में बढ़ते तापमान से निपटने के लिए लचीलापन और संभावित चुनौतियों का भी संकेत देते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सबसे प्राचीन त्वचा

ह तो हम जानते हैं कि त्वचा से शरीर को तमाम फायदे होते हैं और सुरक्षा मिलती है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि मृत्यु के बाद त्वचा लंबे समय तक टिकी नहीं रह पाती है और सड़-गल कर नष्ट हो जाती है। इसलिए यह पता कर पाना बड़ा कठिन है कि प्राचीन प्राणियों में त्वचा कैसे विकसित होती गई। खासकर यह सवाल अनसुलझा ही रहा है कि पेलियोज़ोइक एरा में यानी जब जीवों ने पानी से निकलकर भूमि पर रहना शुरू किया तो इस परिवर्तन के लिए उनकी त्वचा में किस तरह के बदलाव आए?

अब, ओक्लाहोमा स्थित रिचर्ड स्पर की चूना पत्थर की गुफाओं में शोधकर्ताओं को एक सरीसृप की त्वचा का एक बारीक टुकड़ा अश्मीभूत अवस्था में मिला है, जो पेलियोज़ोइक युग के अंत के समय का है। इसके विश्लेषण से लगता है कि सरीसृपों की शल्कदार जटिल संरचना वाली त्वचा एक बार विकसित होने के बाद से लगभग वैसी ही है।

यह जीवाश्म इगुआना जितने बड़े और छिपकली सरीखे सरीसृप जीव कैप्टोराइनस एगुटी का है, जो करीब 30 करोड़ वर्ष पुराना है। वैसे तो इन गुफाओं से सी. एगुटी के कई जीवाश्म मिले हैं, किंतु इनमें से अधिकतर जीवाश्म कंकाल रूप में ही हैं। लेकिन एक जीवाश्म में सी. एगुटी की थोड़ी सी बाह्यत्वचा (एपिडर्मिस) भी सलामत रह गई थी। त्वचा के सलामत बचने का कारण महीन अवसादी चट्टान और वहां का कम ऑक्सीजन वाला वातावरण था। यही कारण है कि रिचर्ड्स स्पर की इन गुफाओं में पैलियोज़ोइक युग के तरह-तरह के और अच्छी तरह से संरक्षित जीवाश्म मिलते हैं।

जब युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के एथान मूनी इन जीवाश्मों का अध्ययन कर रहे थे तो उन्हें एक जीवाश्म पर नाखून से भी छोटी और बाल से भी पतली, नाज़ुक सी बहुत सारी कण जैसी संरचनाएं दिखीं। पहले तो लगा कि ये हड्डी के ही हिस्से हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन करने पर पता चला कि वास्तव में यह जीवाश्म तो किसी जीव की त्वचा का है, जिसमें बाह्यत्वचा और उसके नीचे वाली परत सुरक्षित है। त्वचा की बनावट कुछ-कुछ बबल वाली पॉलीथीन की तरह थी – त्वचा दूर-दूर स्थित मुड़े हुए शल्कों जैसी संरचना से बनी थी जिनके बीच में लचीले कब्जे थे, जो वृद्धि और हिलना-डुलना-मुड़ना संभव बनाते हैं।

शोध पत्रिका करंट बायोलॉजी में प्रकाशित त्वचा की संरचना वगैरह के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह त्वचा सी. एगुटी सरीसृप की है। हालांकि अभी वे इस बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं क्योंकि यह त्वचा कंकाल से चिपकी नहीं थी। लेकिन इसकी झुर्रीदार, बबल-पॉलीथीननुमा संरचना को देखकर इतना तो तय है कि यह त्वचा किसी सरीसृप की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सर्दियों में गर्म रखती नाक की हड्डियां

र्दियों का मौसम चल रहा है। ठंड से राहत के लिए हम तरह-तरह की व्यवस्थाएं करते हैं, जैसे चाय-कॉफी, गर्म कपड़े, अलाव वगैरह। लेकिन ठंडे क्षेत्रों में रहने वाले जीवों के लिए तो इस तरह के उपाय अपनाना संभव नहीं है। लेकिन बायोफिज़िकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन आर्कटिक में रहने वाली सील की ठंड से राहत पाने की एक नायाब व्यवस्था का उल्लेख करता है – सील की नाक की अनोखी हड्डियां तुलनात्मक रूप से उनके शरीर में अधिक गर्मी संरक्षित रखती हैं।

जब आर्कटिक की सील तेज़-तेज़ सांस खींचती-छोड़ती हैं तो फेफड़ों में पहुंचने के पहले बर्फीली नम हवा नासिका से घुसकर उनकी नाक की हड्डियों (मैक्सिलोटर्बिनेट्स) से गुज़रती है। इन सर्पिलाकार छिद्रमय हड्डियों पर श्लेष्मा ऊतकों का अस्तर होता है, जो सील के सांस लेने पर गर्मी को कैद कर लेता है और हवा से नमी सोख लेता है।

सील की नाक की इस क्षमता को परखने के लिए शोधकर्ताओं ने आर्कटिक क्षेत्र की रहवासी दाढ़ीधारी सील (Erignathus barbatus) और उपोष्णकटिबंधीय भूमध्यसागरीय क्षेत्रों की रहवासी बैरागी सील (Monachus monachus) की नाकों का सीटी स्कैन किया और उनके मैक्सिलोटर्बिनेट का त्रिआयामी मॉडल बनाया। फिर इसे उन्होंने भीषण ठंड (शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे) और हल्की ठंड (10 डिग्री सेल्सियस) की स्थितियों में परखा। पता चला कि आर्कटिक सील की नाक दोनों परिस्थितियों में अधिक गर्मी और नमी को संरक्षित रखती है।

दाढ़ीवाली सील की नाक का सीटी स्कैन

उपोष्णकटिबंधीय सील की तुलना में आर्कटिक सील हर सांस पर 23 प्रतिशत कम ऊर्जा खर्चती है, जिससे वे शरीर में अधिक गर्मी बरकरार रख पाती हैं। और वे सांस के साथ खींची गई नमी का 94 प्रतिशत हिस्सा भी शरीर में रोक लेती हैं। कई अन्य समुद्री स्तनधारियों की तरह सील भी अधिकांश पानी भोजन से हासिल करती हैं। शरीर की नमी का संरक्षण करके वे बेहतर हाइड्रेटेड रहती हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार आर्कटिक सील में यह नैसर्गिक नमीकरण व्यवस्था नाक की हड्डियों की दांतेदार बनावट के चलते बढ़ी हुई सतह के कारण है। जब भी सील सांस छोड़ती हैं तो उनकी वक्राकार हड्डियां अपनी ऊबड़-खाबड़ संरचना में अधिकाधिक नमी कैद कर लेती हैं और उसे सोख लेती हैं। नतीजतन सील ठंड में चैन से सांस ले पाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बिल्लियों के चेहरे पर लगभग 300 भाव होते हैं

सा माना जाता है कि बिल्लियां सामाजिक जंतु नहीं हैं। लेकिन हाल ही में हुए अध्ययन में बिल्लियों में दोस्ती से लेकर गुस्से तक के 276 चेहरे के भाव देखे गए हैं। बिहेवियरल प्रोसेसेस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बिल्लियों में इन भावों के विकसित होने में 10,000 सालों से मनुष्य की संगत का हाथ है।

हो सकता है कि बिल्लियां एकान्तप्रिय और एकाकी प्राणि हों, लेकिन वे अक्सर घरों में या सड़क पर अन्य बिल्लियों के साथ खेलते भी देखी जाती हैं। कुछ जंगली बिल्लियां तो बड़ी-बड़ी कॉलोनियों में रहती हैं जिनकी आबादी हज़ारों में होती है।

बिल्लियों पर हुए अधिकतर अध्ययन उनके बीच के झगड़ों पर केंद्रित रहे हैं, लेकिन बिल्ली प्रेमी लॉरेन स्कॉट का ऐसा विचार था कि बिल्लियों में आक्रामकता के अलावा प्रेम और कूटनीति जैसे और भी भाव होंगे। वे जानना चाहती थीं कि बिल्लियां आपस में संवाद कैसे करती हैं।

तो, स्कॉट ने एक कैटकैफे का रुख किया। उन्होंने कैफे बंद होने के बाद बिल्लियों के चेहरे के भावों को वीडियो रिकॉर्ड किया; खास कर जब बिल्लियां अन्य बिल्लियों से किसी रूप में जुड़ रही होती थीं। फिर उन्होंने वैकासिक मनोवैज्ञानिक ब्रिटनी फ्लोर्कीविक्ज़ के साथ मिलकर बिल्लियों के चेहरे की मांसपेशियों की सभी हरकतों को कोड किया। कोडिंग में उन्होंने सांस लेने, चबाने, जम्हाई और ऐसी ही अन्य हरकतों को छोड़ दिया।

इस तरह उन्होंने बिल्लियों द्वारा प्रस्तुत चेहरे के कुल 276 अलग-अलग भावों को पहचाना। अब तक चेहरे के सर्वाधिक भाव (357) चिम्पैंज़ी में देखे गए हैं। देखा गया कि बिल्लियों का प्रत्येक भाव उनके चेहरे पर देखी गई 26 अद्वितीय हरकतों में से चार हरकतों का संयोजन था, ये हरकतें हैं – खुले होंठ, चौड़े या फैले जबड़े, फैली या संकुचित पुतलियां, पूरी या आधी झुकी पलकें, होंठों के कोने चढ़े (मंद मुस्कान जैसे), नाक चाटना, तनी हुईं या पीछे की ओर मुड़ी हुई मूंछें, और/या कानों की विभिन्न स्थितियां। तुलना के लिए देखें तो मनुष्यों के चेहरे की ऐसी 44 अद्वितीय हरकतें होती हैं, और कुत्तों के चेहरे की 27। वैसे ये अध्ययन जारी हैं कि हम भाव प्रदर्शन में कितनी अलग-अलग हरकतों का एक साथ इस्तेमाल करते हैं।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि बिल्लियों की अधिकांश अभिव्यक्तियां स्पष्टत: या तो मैत्रीपूर्ण (45 प्रतिशत) थीं या आक्रामक (37 प्रतिशत)। शेष 18 प्रतिशत इतनी अस्पष्ट थीं कि वे दोनों श्रेणियों में आ सकती थीं।

यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि इन भंगिमाओं के ज़रिए बिल्लियां वास्तव में एक-दूसरे से क्या ‘कह’ रही थीं। इतना ज़रूर समझ आया कि दोस्ताना संवाद के दौरान बिल्लियां अपने कान और मूंछें दूसरी बिल्ली की ओर ले जाती हैं, और अमैत्रीपूर्ण संवाद के दौरान उन्हें उनसे दूर ले जाती हैं। सिकुड़ी हुई पुतलियां और होठों को चाटना भी मुकाबले  का संकेत है।

दिलचस्प बात यह है कि बिल्लियों की कुछ मित्रतापूर्ण भंगिमाएं मनुष्यों, कुत्तों, बंदरों और अन्य जानवरों की तरह होती हैं। यह इस बात का संकेत है कि शायद ये प्रजातियां ‘एक उभयनिष्ठ भावयुक्त चेहरा’ साझा कर रही हों।

बहरहाल शोधकर्ता जंगली बिल्ली कुल के अन्य सदस्यों के साथ अपने परिणामों की तुलना नहीं कर पाए हैं लेकिन वे जानते हैं कि घरेलू बिल्ली के सभी करीबी रिश्तेदार आक्रामक एकाकी जानवर हैं। इसलिए अनुमान तो यही है कि घरेलू बिल्लियों ने इस आक्रामक व्यवहार में से कुछ तो बरकरार रखा है, लेकिन मनुष्यों के बचे-खुचे खाने के इंतज़ार में मित्रवत अभिव्यक्ति शुरू की है। (स्रोत फीचर्स)

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