पारदर्शी मछली की इंद्रधनुषी छटा

घोस्ट कैटफिश या ग्लास कैटफिश (Kryptopterus vitreolus) मूलत: थाइलैंड की नदियों में पाई जाती है। लेकिन ये पिद्दी-सी घोस्ट कैटफिश एक्वैरियम में रखने के लिए लोकप्रिय हैं। कारण है कि इनका शरीर लगभग पारदर्शी होता है। लेकिन जब इनके ऊपर रोशनी पड़ती है तो ये इंद्रधनुषी रंग बिखेरती हैं। अब, शोधकर्ताओं ने इस रंग-बिरंगी चमक के कारण का पता लगा लिया है। उनमें यह चमक उनकी भीतरी संरचना के कारण आती है।

वैसे तो कई जीव ऐसे होते हैं जो हिलने-डुलने या चलने पर अलग रंगों में दिखने लगते हैं। लेकिन आम तौर पर उनमें ये रंग उनकी बाहरी चमकीली त्वचा के कारण दिखाई देते हैं। जैसे हमिंगबर्ड या तितली के पंखों के रंग। लेकिन कैटफिश में शल्क नहीं होते हैं। बल्कि इनकी मांसपेशियों में सघन संरचनाएं होती हैं, जिनसे टकराकर प्रकाश बदलते रंगों में बिखर जाता है।

शंघाई जिआओ टोंग युनिवर्सिटी के भौतिक विज्ञानी किबिन झाओ ने जब प्रयोगशाला में इनके शरीर पर विभिन्न तरह का प्रकाश डाला तो पाया कि तैरते समय घोस्ट कैटफिश की मांसपेशियां क्रमिक रूप से सिकुड़ती और फैलती हैं, जिसकी वजह से चमकीले रंग निकलते हैं। ये नतीजे प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित हुए हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इंद्रधनुषी छटा दिखने के लिए उनकी त्वचा पारदर्शी होना आवश्यक है; यह लगभग 90 प्रतिशत प्रकाश को आर-पार गुज़रने देती है। यदि मछली की त्वचा इतनी पारदर्शी नहीं होगी तो रंग नहीं दिखेंगे।

वैसे तो कई जीव अपने टिमटिमाते रंगो का उपयोग अपने साथियों को रिझाने के लिए या शिकारियों को चेतावनी का संकेत देने के लिए करते हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि घोस्ट कैटफिश किस उद्देश्य से चमक बिखेरती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भौंरे भी नवाचारी होते हैं

भौंरों के मस्तिष्क भले ही छोटे होते हैं लेकिन आविष्कार करने के मामले में वे किसी से कम नहीं। हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि ये नन्हें कीट जटिल समस्याओं को हल करने के नए-नए तरीके निकाल सकते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि यह क्षमता भौंरों को मानव जनित पर्यावरण परिवर्तनों से निपटने में उपयोगी साबित हो सकती है।

पूर्व अध्ययनों से भौंरों में जटिल दिशाज्ञान कौशल, अल्पविकसित संस्कृति और भावनाओं के संकेत मिल चुके हैं। वे तरह-तरह के औज़ारों का उपयोग करते हैं और दूसरे भौंरों को कोई कार्य करते देखकर सीख जाते हैं। कुछ कार्य ऐसे भी हैं जो वे अमूमन नहीं करते लेकिन इनाम के लालच में सीख लेते हैं।

हाल में क्वींस मैरी युनिवर्सिटी की व्यवहार पारिस्थिकीविद ओली लाउकोला और उनके सहयोगियों ने भौंरों के साथ एक रोचक अध्ययन किया। इसमें वैज्ञानिकों ने सबसे पहले भौंरों को प्रशिक्षित किया जिसमें उन्हें एक गेंद को एक लक्षित स्थान तक पहुंचाना था। जिसके इनामस्वरूप उन्हें मीठा शरबत दिया जाता था। यह काम वे प्राकृतिक परिस्थितियों में नहीं करते हैं। इसके बाद प्रत्येक भौंरे को लक्ष्य से अलग-अलग दूरी पर रखी तीन पीली गेंदें दिखाई गईं। कुछ भौरों ने पहले से प्रशिक्षित भौरों को लक्ष्य से सबसे दूर रखी गेंद को लक्ष्य तक ले जाते देखा जिसके इनाम स्वरूप उन्हें मीठा शरबत मिला। कुछ भौरों को मेज़ के नीचे एक चुंबक की मदद से सबसे दूर रखी गेंद को लक्ष्य तक पहुंचते दिखाया गया। भौंरों के तीसरे समूह को किसी प्रकार का कोई प्रदर्शन नहीं दिखाया गया। उन्होंने तो गेंद को इनाम के साथ लक्ष्य पर देखा।

इसके बाद प्रत्येक भौंरे को पांच मिनट के भीतर गेंद को लक्ष्य तक पहुंचाने का कार्य दिया गया। वे भौंरे सबसे सफल रहे जिन्होंने प्रशिक्षित भौरों को लक्ष्य तक गेंद ले जाते हुए देखा था। इन भौरों के काम करने की गति अन्य दो समूहों से तेज़ थी। जबकि कुछ भौंरे तो कार्य को पूरी तरह अपने दम पर करने में सक्षम पाए गए। इसके अलावा कुछ ही समय में भौंरों ने गेंद को घसीटने का एक बेहतर तरीका खोज निकाला था। जिन भौंरों ने प्रशिक्षित भौंरों को लक्ष्य तक गेंद धकेलते देखा था, वे बाद में गेंद को पीछे की ओर धकेलते हुए ले जा रहे थे। वैज्ञानिकों ने इसे एक अप्रत्याशित और अभिनव परिवर्तन के रूप में देखा और पाया कि वे अपने कार्यों को पूरा करने के लिए नई-नई तकनीक अपनाने में भी माहिर हैं।

अध्ययन में भौंरों ने लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए अलग-अलग गेंदों का चुनाव भी किया। हालांकि प्रशिक्षित भौरों ने सबसे दूर रखी गेंद को लक्ष्य तक पहुंचाया था लेकिन प्रेक्षक भौंरों ने लक्ष्य के निकट रखी गेंदों को भी चुना। गेंदों का रंग बदलने पर भी भौंरों ने इनाम के लालच में काली गेंदों को भी लक्ष्य तक पहुंचाया। इससे यह स्पष्ट होता है कि वे कार्य के सामान्य सिद्धांत को समझने की भी क्षमता रखते हैं और किसी भी समस्या को प्रभावी ढंग से हल करने में माहिर हैं।

भौंरों का यह लचीलापन इनकी आबादी में हो रही कमी की समस्या से निपटने में सहायक हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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किलर व्हेल पुत्रों की खातिर संतान पैदा करना टालती हैं

किलर व्हेल के पुत्र मां के लाड़ले होते हैं। ये पुत्र काफी बड़े होने के बाद भी मां के पिछलग्गू बने रहते हैं जबकि पुत्रियां बड़ी होकर खुद संतानें पैदा करने लगती हैं। ऐसा क्यों है और किलर व्हेल मांएं इसकी क्या कीमत चुकाती हैं?

यह अवलोकन पहली बार किया गया है। यह तो पता रहा है कि किलर व्हेल मांएं अपने पुत्रों की बढ़िया देखभाल करती हैं लेकिन हाल के अध्ययन में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि मां इसकी क्या कीमत चुकाती हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर और सेंटर फॉर व्हेल रिसर्च के पारिस्थितिकीविद माइकल वाइस ने किलर व्हेल में मां-बेटे के सम्बंध के प्रत्यक्ष अवलोकन के आधार पर बताया है कि ये प्राणि दशकों तक जीते हैं लेकिन पूर्ण विकसित नर भी ऐसे व्यवहार करते हैं मानो वे छोटे बच्चे हों।

वाइस जानना चाहते थे कि गहन देखभाल में पल रहे इन बेटों की मां क्या कीमत चुकाती हैं – क्या ये उनकी और संतान पैदा करने की क्षमता को प्रभावित करते हैं? इसके लिए वाइस के दल ने प्रशांत महासागर के तीन व्हेल समूहों के पिछले 40 वर्षों के आंकड़े खंगाले। इन समूहों को पॉड कहते हैं और इनमें प्राय: दो दर्जन तक सदस्य होते हैं। ये सभी मातृवंशीय होते हैं, साथ-साथ घूमते और शिकार करते हैं।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित शोध के मुताबिक इसका गहरा असर होता है। किसी भी वर्ष में बेटों की मांओं द्वारा एक और संतान पैदा करने की संभावना निसंतान मांओं और सिर्फ बेटियों की मांओं की तुलना में आधी होती है। आश्चर्यजनक बात यह रही कि संभावना में यह गिरावट पुत्रों की उम्र से स्वतंत्र थी। कहने का आशय यह है कि तीन साल का बेटा और 18 साल का बेटा मां की आगे संतानोत्पत्ति की संभावना में बराबर कमी लाता है।

शोधकर्ताओं का मत है कि मां द्वारा बेटों को तरजीह दिया जाना इनकी पॉड संरचना से सम्बंधित है। जब कोई मादा किलर व्हेल बच्चे जनती है और अपनी मां के समूह में बनी रहती है, तो वह और उसके बच्चे भोजन और ध्यान के लिए शेष बच्चों से होड़ करते हैं। दूसरी ओर, बेटे उस पॉड में और खाने वाले नहीं लाते। बेटे तो पास से गुज़रते समूहों की मादाओं के साथ समागम करते हैं जिसके फलस्वरूप बच्चे उन समूहों में पैदा होते हैं। यानी बेटों के बच्चे किसी और की ज़िम्मेदारी होते हैं। शोधकर्ताओं का मत है कि यदि मां चाहती है कि उसके अधिक से अधिक पोते-पोतियां हों तो उसके लिए बेटे में निवेश करना ज़्यादा फायदे का सौदा है।

यह अभी एक परिकल्पना है क्योंकि वाइस की टीम ने अभी यह स्पष्ट नहीं किया है कि बेटे मां के प्रजनन में व्यवधान कैसे कैसे डालते हैं। लेकिन उन्हें यदि अपने बच्चों की भोजन की ज़रूरतें पूरी करना पड़े तो उनकी प्रजनन क्षमता कमज़ोर पड़ ही जाएगी। वैसे अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि शायद यह मात्र उन पॉड्स की समस्या हो जिनका अवलोकन वाइस ने किया है। एक मत यह भी है कि व्हेल उन चंद प्रजातियों में से है जिनमें रजोनिवृत्ति (मेनोपॉज़) होती है। यह भी संभव है कि ये बेटे बड़ा शिकार पकड़ने में मदद करते हों। इस संदर्भ में किलर व्हेल की अन्य प्रजातियों का अध्ययन मददगार होगा। (स्रोत फीचर्स)

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पक्षी भी योजना बनाते हैं

इंडोनेशिया में पाया जाने वाला एक तोता है तनिम्बार कोरेला जिसे गोफिन्स कॉकेटू भी कहते हैं (जीव वैज्ञानिक नाम है Cacatua goffiniana)। एकदम सफेद रंग का यह तोता सचमुच एक कारीगर है। यह अपने पसंदीदा फलों को फोड़कर खाने के लिए तमाम किस्म के औज़ार भी बनाता है। और अब पता चला है कि यह अपने काम की योजना भी बनाता है और उस हिसाब से औज़ार साथ लेकर चलता है। इससे पहले मनुष्य के अलावा मात्र एक और जंतु में ऐसा व्यवहार देखा गया है – कॉन्गो घाटी में चिम्पैंज़ियों की एक आबादी में।

सफेद तोते में यह खोज विएना के पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने की है। उन्होंने इस सफेद तोते को उसके प्रिय भोजन काजू का ललचावा दिया। उन्होंने एक पारदर्शी डिब्बे में एक काजू (साबुत, छिलके सहित) एक प्लेटफॉर्म पर रख दिए। फिर एक पर्दा लगाकर उसे ओझल कर दिया। 10 तोतों को वह डिब्बा दिखाया गया और उन्हें दो में से एक औज़ार चुनने का विकल्प दिया गया – एक छोटी नुकीली छड़ और एक अपेक्षाकृत लंबी लचीली स्ट्रॉ।

15 बार किए गए परीक्षणों में अधिकांश पक्षियों ने दोनों औज़ारों का इस्तेमाल किया। उन्होंने नुकीली छड़ को अपनी चोंच में पकड़ा ओर डिब्बे में उपस्थित एक सुराख में से उसे अंदर डालकर पर्दे में छेद किया। लेकिन वह छड़ छोटी थी और काजू तक नहीं पहुंच सकती थी। तो पक्षियों ने उसे छोड़कर लंबी वाली स्ट्रॉ उठा ली जिसकी मदद से उन्होंने काजू को प्लेटफॉर्म से गिराकर उस ट्रे में लुढ़का दिया जहां से वे उसे पा सकते थे।

अब शोधकर्ता यह देखना चाहते थे कि क्या ये पक्षी समझते हैं कि उन्हें इस काम को अंजाम देने के लिए दोनों औज़ारों की ज़रूरत पड़ेगी। इसके लिए शोधकर्ताओं ने डिब्बे को एक सीढ़ी के ऊपर या एक उठे हुए प्लेटफॉर्म पर रख दिया। अब इस तक पहुंचने के लिए तोतों को वे औज़ार साथ लेकर जाना पड़ता – चाहे तो उड़कर या चाहे तो सीढ़ियां चढ़कर।

तोतों को अपना काम पूरा करने के लिए दो बार सीढ़ी चढ़ना नहीं रास आया। हालांकि कुछ ने ऐसा ही किया लेकिन कई पक्षियों ने अन्य युक्तियां खोज निकालीं। जैसे एक तोते ने जल्दी ही ताड़ लिया कि वह नुकीली छड़ को स्ट्रॉ के अंदर पिरोकर दोनों को एक साथ लेकर जा सकता है और डिब्बे पर पहुंचकर उन्हें वापिस अलग-अलग करके इस्तेमाल कर सकता है। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि अंतत: चार पक्षियों ने यह तरीका खोज निकाला। विभिन्न कारणों से अन्य पक्षी कामयाब नहीं रहे।

कुल मिलाकर इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि ये पक्षी भावी कार्य की एक मानसिक छवि बना लेते हैं जिसके बारे में माना जाता था कि ऐसा करना उनके लिए असंभव है। (स्रोत फीचर्स)

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कृषि/पशुपालन में एंटीबायोटिक्स का उपयोग

क अनुमान के मुताबिक 2020 से 2030 के बीच कृषि में एंटीबायोटिक औषधियों का उपयोग 8 प्रतिशत बढ़ जाएगा जबकि इसे कम करने के उपाय जारी हैं। कृषि में एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल मनुष्यों को संक्रमित करने वाले बैक्टीरिया में प्रतिरोध पैदा होने का एक प्रमुख कारण माना जाता है।

यह सही है कि पशुओं में संक्रमण के उपचार के लिए एंटीबायोटिक आवश्यक हैं लेकिन देखा जा रहा है कि इनका उपयोग पशुओं की वृद्धि को तेज़ करने तथा भीड़-भाड़ वाले और अस्वच्छ दड़बों में उन्हें संक्रामक रोगों से बचाने के लिए भी किया जाता है।

इस संदर्भ में कई देशों में सरकारों ने एंटीबायोटिक उपयोग को कम करने के लिए नियम भी बनाए हैं। जैसे यूएस व युरोप में वृद्धि को गति देने के लिए एंटीबायोटिक का उपयोग वर्जित है लेकिन दिक्कत यह है कि कंपनियां इन्हें बीमारियों की रोकथाम के लिए बेचती रह सकती हैं।

शोधकर्ताओं के लिए अलग-अलग देशों में कृषि सम्बंधी एंटीबायोटिक उपयोग का अनुमान लगाना मुश्किल रहा है क्योंकि अधिकांश देश ऐसे आंकड़े सार्वजनिक नहीं करते हैं। कई देश अपने आंकड़े विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (WOAH) को देते हैं। यह संगठन इन आंकड़ों को महाद्वीप के स्तर तक जोड़ देता है। इसके अलावा, 40 प्रतिशत देश तो इस संगठन को भी आंकड़े नहीं देते।

लिहाज़ा 229 देशों के राष्ट्र-स्तरीय अनुमान लगाने के लिए स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के थॉमस फान बेकेल, रान्या मूलचंदानी व अन्य ने अलग-अलग सरकारों, खेत सर्वेक्षणों और वैज्ञानिक प्रकाशनों से आंकड़े जुटाए। इन आंकड़ों के साथ उन्होंने दुनिया भर के खेतिहर पशुओं की संख्या को रखा और 42 देशों के एंटीबोयोटिक बिक्री के आंकड़ों को रखा। इसके आधार पर उन्होंने शेष 187 देशों के आंकड़ों की गणना की।

टीम की गणना बताती है कि अफ्रीका में एंटीबायोटिक का उपयोग WOAH द्वारा दी गई रिपोर्ट से दुगना है और एशिया में 50 प्रतिशत अधिक है। कुल मिलाकर अध्ययन दल का अनुमान है कि वर्ष 2030 तक दुनिया भर में प्रति वर्ष पशुओं के लिए 1 लाख 7 हज़ार 5 सौ टन एंटीबायोटिक्स का उपयोग होगा जबकि 2020 में यह आंकड़ा 1 लाख टन से कम था।

वैसे शोधकर्ताओं ने चेताया है कि जो 42 देश अपने आंकड़े साझा करते हैं, उनमें से अधिकांश उच्च आमदनी वाले देश हैं। लिहाज़ा उनके द्वारा एंटीबायोटिक का उपयोग तथा उपयोग का मकसद दुनिया के सारे देशों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।

पिछले नवंबर में सूक्ष्मजीवी प्रतिरोध को लेकर 39 देशों का एक सम्मेलन ओमान (मस्कट) में आयोजित किया गया था। इसमें रूस और भारत जैसे प्रमुख कृषि उत्पादक शामिल थे। मंत्री स्तर के इस सम्मेलन में उपस्थित देशों ने संकल्प लिया कि वर्ष 2030 तक वे सूक्ष्मजीव-रोधी दवाइयों का खेतिहर उपयोग 30-50 प्रतिशत तक कम करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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बंदरों के आयात पर रोक

मेरिका स्थित बंदरों की आयातक और बंदर अनुसंधान आपूर्तिकर्ता संस्था चार्ल्स रिवर लेबोरेटरीज़ ने हाल ही में कंबोडिया से बंदरों के आयात पर रोक लगा दी है। यह निर्णय यूएस डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस द्वारा जारी किए गए समन के बाद लिया गया है जिसमें कंबोडिया के एक तस्कर गिरोह को दोषी ठहराया गया है। एजेंसी का दावा है कि कंबोडिया के जंगलों से बड़ी संख्या में साइनोमोगलस मैकाक (प्रयोग में प्रयुक्त जंतु) को अवैध रूप से पकड़कर निर्यात किया जा रहा था जबकि कहा जा रहा था कि ये बंदी अवस्था में प्रजनन से पैदा हुए हैं। चार्ल्स रिवर संस्था के अनुसार यह समन कंबोडियाई आपूर्तिकर्ता से प्राप्त कई शिपमेंट से सम्बंधित है। गौरतलब है कि संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया भर में जानवरों का सबसे बड़ा आयातक है; ज़्यादातर औषधि और जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों द्वारा अनुसंधान के लिए इनको अमेरिका लाया जाता है। अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के अनुसार, साइनोमोगलस मैकाक, जो एक लुप्तप्राय जीव है, वर्ष 2022 में देश में आयात किए गए लगभग 33,000 प्रायमेट्स का 96 प्रतिशत है। तथ्य यह है कि अमेरिका में लगभग दो-तिहाई साइनोमोगलस जंतु कंबोडिया से ही आयात किए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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व्हेल की त्वचा में उनकी यात्राओं का रिकॉर्ड

क हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण बैलीन व्हेल के प्रवास को समझने का प्रयास किया है। इसके लिए उन्होंने व्हेल की त्वचा के छोटे टुकड़ों का इस्तेमाल किया है। यह तकनीक व्हेल के संरक्षण में मददगार साबित हो सकती है जो अभी शिकार से तो सुरक्षित हैं लेकिन संकटग्रस्त हैं। वास्तव में व्हेल की इस प्रजाति (Eubalaena australis) को ट्रैक करना मुश्किल है लेकिन शोधकर्ताओं ने व्हेल की त्वचा के कुछ नमूने तटीय प्रजनन क्षेत्रों से उनकी त्वचा के सूक्ष्म हिस्से को भेदकर प्राप्त किए।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने इस नमूने में कार्बन और नाइट्रोजन समस्थानिकों का विश्लेषण किया और इसका मिलान पिछले 30 वर्षों में दक्षिणी महासागर में मैप किए गए समस्थानिक अनुपात से किया। व्हेल जो क्रिल और कोपेपोड खाती हैं उनमें यही समस्थानिक होते हैं। ये लगभग 6 महीने बाद व्हेल की नवीन त्वचा में पहुंच जाते हैं। त्वचा में समस्थनिकों के अनुपात में व्हेल की पिछली यात्राएं रिकॉर्ड हो जाती हैं। टीम ने पाया कि समुद्र का मध्य अक्षांश व्हेल के लिए भोजन का एक महत्वपूर्ण इलाका रहा है। ऐसा लगता है कि दक्षिणी महासागर के कुछ हिस्सों में, व्हेल भोजन के लिए दक्षिण की ओर प्रवास कम कर रही हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन ने अंटार्कटिका के आसपास के इलाकों में क्रिल की आबादी कम कर दी है जिसके चलते उस ओर व्हेल का प्रवास भी कम हो गया है। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन से आर्कटिक कलहंसों को मिला नया प्रजनन स्थल

निरंतर हो रहे जलवायु परिवर्तन से गुलाबी पैरों वाले कुछ गीस (कलहंसों) ने उत्तरी रूस में एक ठिकाना बना लिया है। यह स्थान उनके पारंपरिक ग्रीष्मकालीन प्रजनन क्षेत्र से लगभग 1000 किलोमीटर उत्तर पूर्व में है। विशेषज्ञों के अनुसार यह घटना इस तथ्य की ओर संकेत देती हैं कि कुछ प्रजातियां, थोड़े समय के लिए ही सही, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के साथ अनुकूलन कर सकती हैं। गौरतलब है कि प्रत्येक वसंत ऋतु में लगभग 80,000 कलहंस (एन्सेर ब्रैचिरिन्चस) नॉर्वे के स्वालबार्ड द्वीपसमूह में प्रजनन के लिए डेनमार्क, नेदरलैंड और बेल्जियम से उत्तर की ओर प्रवास करते हैं। स्वीडन और फिनलैंड में कुछ हज़ार पक्षियों के देखे जाने के बाद वैज्ञानिकों ने 21 पक्षियों को जीपीएस ट्रैकर लगाए। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ट्रैकर लगे आधे पक्षी उत्तरी रूस के एक द्वीपसमूह नोवाया ज़ेमल्या के उत्तर-पूर्व की ओर उड़ गए। इस क्षेत्र में शोधकर्ताओं ने नई प्रजनन आबादी पाई जिसमें लगभग 3-4 हज़ार पक्षी शामिल हो सकते हैं। नोवाया ज़ेमल्या का वर्तमान वसंत तापमान अब स्वालबार्ड के दशकों पहले रहे तापमान के समान है। ऐसी संभावना है कि पक्षियों ने अपने नए प्रजनन क्षेत्र चुन लिए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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रिवाज़ों को तोड़ते बैक्टीरिया

माना जाता है कि बैक्टीरिया में गुणसूत्रों को पैकेज नहीं किया जाता और वे कोशिका द्रव्य में खुले पड़े रहते हैं। लेकिन बायोआर्काइव्स में प्रकाशित एक अध्ययन में 2 बैक्टीरिया प्रजातियों में गुणसूत्रों के कुछ हिस्सों के आसपास हिस्टोन नामक प्रोटीन लिपटे होने की रिपोर्ट दी गई है। अन्य जीवों में भी हिस्टोन गुणसूत्रों के पैकेजिंग में मदद करते हैं लेकिन व्यवस्था बिलकुल अलग होती है। जैसे केंद्रकीय (यूकेरियोटिक) जीवों में हिस्टोन डीएनए के आसपास नहीं लिपटा होता बल्कि डीएनए हिस्टोन के आसपास लिपटा होता है।

दरअसल, हिस्टोन गुणसूत्रों को सहारा देता है और उन पर उपस्थित जीन्स की अभिव्यक्ति को नियंत्रित करता है। मान्यता थी कि बैक्टीरिया में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती। लेकिन बैक्टीरिया जीनोम के अधिकाधिक खुलासे के साथ हिस्टोन से सम्बंधित जीन्स मिलने लगे थे और लगने लगा था कि बैक्टीरिया में हिस्टोन जैसा कुछ होता होगा।

मज़ेदार बात यह है कि विविध केंद्रकीय कोशिकाओं में हिस्टोन की संरचना और कार्य में काफी एकरूपता होती है, गोया हिस्टोन पर जैव विकास का कोई असर ही नहीं हुआ है। इस एकरूपता को देखते हुए यह विचार स्वाभाविक है कि शायद इसका कोई विकल्प ही नहीं है।

इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के टोबियास वारनेके और एंतोन थोचर ने दो बैक्टीरिया प्रजातियों का अध्ययन करने की ठानी। ये दो प्रजातियां थी – एक रोगजनक लेप्टोसोरिया इंटरोगैन्स और दूसरी डेलोविब्रियो बैक्टीरियोवोरसडेलोविब्रियो बैक्टीरियोवोरस एक ऐसा बैक्टीरिया है जो दूसरे बैक्टीरिया में घुसकर उसे अंदर ही अंदर पचा डालता है।

शोधकर्ताओं ने बैक्टीरियोवोरस से हिस्टोन प्रोटीन को पृथक करके उसकी संरचना का विश्लेषण किया – स्वतंत्र स्थिति में भी और डीएनए के साथ अंतर्क्रिया करते हुए भी। देखा गया कि बैक्टीरिया का हिस्टोन न तो आर्किया के समान व्यवहार करता है और न ही केंद्रकयुक्त कोशिकाओं के समान। बैक्टीरिया का हिस्टोन दो-दो की जोड़ी में डीएनए के आसपास लिपटा होता है जबकि केंद्रक युक्त कोशिकाओं में हिस्टोन साथ आकर एक स्तंभ सा बनाते हैं और डीएनए इसके इर्द-गिर्द लिपटा होता है।

वैसे तो अभी इस अवलोकन को वास्तविक कोशिका में देखा जाना बाकी है लेकिन शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस तरह आसपास लिपटा हुआ हिस्टोन बैक्टीरिया द्वारा यहां-वहां बिखरे डीएनए के खंडों को अर्जित करने से बचाव करता होगा।

बेल्जियम स्थित कैथोलिक विश्वविद्यालय के जेराल्डीन लैलू ने देखा है कि जब यह बैक्टीरिया कोशिका के अंदर न होकर स्वतंत्र विचरण कर रहा होता है तब इसका डीएनए काफी सघनता से पैक किया हुआ होता है। उक्त अवलोकन शायद इस घनेपन की व्याख्या कर सकता है।  

उपरोक्त अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने हज़ारों बैक्टीरिया के जीनोम्स के सर्वेक्षण में पाया कि आम मान्यता के विपरीत लगभग 2 प्रतिशत बैक्टीरिया-जीनोम्स में हिस्टोन-नुमा प्रोटीन के जीन्स होते हैं यानी काफी सारे बैक्टीरिया में हिस्टोन की उपस्थिति संभव है। (स्रोत फीचर्स)

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भोजन और हमजोली के बीच चुनाव

हावत है कि भूखे पेट भजन न होए गोपाला! लेकिन हालिया अध्ययन में देखा गया है कि चूहों को ‘उल्लू’ बनाया जा सकता है कि वे हल्की-फुल्की भूख होने पर भी भोजन की बजाय विपरीत लिंग के साथ मेलजोल को प्राथमिकता देने लगें।

यह तो मालूम था कि लेप्टिन नामक हार्मोन मस्तिष्क में तंत्रिकाओं के एक समूह को सक्रिय कर भूख के एहसास को दबाता है। कोलोन विश्वविद्यालय की न्यूरोसाइंटिस्ट ऐनी पेटज़ोल्ड और उनके साथी यह देखना चाह रहे थे कि भोजन या साथी के बीच चुनाव करने में लेप्टिन की क्या भूमिका है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने कुछ नर चूहों को लेप्टिन दिया और उनका अवलोकन किया। अध्ययन के दौरान, पूरे दिन के भूखे चूहे भी खाने से भरे कटोरे की ओर नहीं गए (जैसी कि अपेक्षा थी) लेकिन साथ ही वे चुहियाओं के साथ मेलजोल बढ़ाते भी दिखे।

सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित ये नतीजे सामाजिक व्यवहार में लेप्टिन की एक नई व आश्चर्यजनक भूमिका दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों को तंत्रिका विज्ञान के एक अहम सवाल के जवाब की ओर एक कदम आगे बढ़ाते हैं – कि कैसे जीव अपनी मौजूदा ज़रूरतों के सामने विभिन्न व्यवहारों को प्राथमिकता देते हैं।

शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क के तथाकथित भूख केंद्र (पार्श्व हाइपोथैलेमस) की तंत्रिकाओं की जांच की। टीम ने देखा कि लेप्टिन के प्रति संवेदी तंत्रिकाएं तब सक्रिय हुईं जब चूहे विपरीत लिंग के चूहों से मिले। ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक की मदद से इन तंत्रिकाओं को सक्रिय करने से भी इस बात की संभावना बढ़ गई कि चूहे विपरीत लिंग के चूहों के पास जाएंगे। ये दोनों परिणाम बताते हैं कि लेप्टिन नामक हार्मोन सामाजिक व्यवहार को बढ़ावा देने में भी भूमिका निभाता है।

लेकिन जब चूहों को पांच दिन तक सीमित भोजन दिया गया तब उन्होंने साथी की बजाय भोजन को प्राथमिकता दी। अर्थात लंबी भूख ने अन्य प्रणालियों को सक्रिय कर दिया और भोजन को वरीयता मिलने लगी। लेप्टिन आम तौर पर तब पैदा होता है जब जंतु की ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति हो गई हो। तब वह अपनी अन्य ज़रूरतों पर ध्यान दे सकता है, अपने व्यवहार की प्राथमिकताएं बदल सकता है।

शोधकर्ताओं ने उन तंत्रिकाओं का भी अध्ययन किया जो न्यूरोटेंसिन नामक हार्मोन बनाती हैं – यह हार्मोन प्यास से सम्बंधित है। देखा गया कि इन तंत्रिकाओं की सक्रियता ने भोजन या सामाजिक व्यवहार की बजाय प्यास बुझाने को तवज्जो दी।

चूहों में लेप्टिन और सामाजिक व्यवहारों के बीच सम्बंध समझकर इस बारे में समझा जा सकता है कि क्यों ऑटिज़्म से ग्रस्त कुछ लोग खाने की विचित्र प्रकृति दर्शाते हैं, या बुलीमिया से ग्रस्त कुछ लोगों में सामाजिक भय (सोशल फोबिया) दिखता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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