शीतनिद्रा में गिलहरियां कैसे कमज़ोर नहीं होतीं?

म सभी को आराम की ज़रूरत होती है, लेकिन बहुत अधिक आराम से हमारा शरीर सख्त हो सकता है, अकड़ सकता है। लगातार 10 दिनों तक बिस्तर पर पड़े रहें तो हमारी 14 प्रतिशत तक मांसपेशीय क्षति हो सकती है। लेकिन शीतनिद्रा में जाने वाले प्राणियों की बात ही कुछ और है। शीतनिद्रा के दौरान ग्राउंड गिलहरियां कमज़ोर नहीं पड़तीं – वे अपनी शीतनिद्रा में भोजन के बिना भी मांसपेशियों का निर्माण कर लेती हैं।

एक नए अध्ययन से पता चला है कि मांसपेशियों के निर्माण में उनकी आंतों में पलने वाले बैक्टीरिया मदद करते हैं। ये बैक्टीरिया उनके शरीर के अपशिष्ट का पुनर्चक्रण करते हैं और मांसपेशी निर्माण का कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं। शीतनिद्रा में आंतों के सूक्ष्मजीवों की भूमिका पहली बार दर्शाई गई है।

शीतनिद्रा में ग्राउंड गिलहरी अपनी मांसपेशियों को कैसे बनाए रखती हैं, यह पता लगाने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के शोधकर्ताओं ने यूरिया नामक अपशिष्ट रसायन की भूमिका की पड़ताल की। नई मांसपेशियां बनाने के लिए शरीर को नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, जो आम तौर पर भोजन से मिलती है। पूर्व के अध्ययनों ने बताया है कि शीतनिद्रा में ग्राउंड गिलहरियां यूरिया को रीसायकल करके नाइट्रोजन प्राप्त करती है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि वे ऐसा कैसे करती हैं।

यह समझने के लिए शोधकर्ताओं ने ग्राउंड गिलहरियों में ऐसा यूरिया प्रविष्ट कराया जिसमें नाइट्रोजन का एक समस्थानिक था जिसकी मदद से यह देखा जा सकता था कि वह यूरिया शरीर में कहां-कहां पहुंचा। यह चिंहित नाइट्रोजन गिलहरी के लीवर, आंत और मांसपेशियों में दिखी।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने गिलहरियों की आंत के सूक्ष्मजीव संसार को कमज़ोर करने के लिए एंटीबायोटिक दवाएं दी। ऐसा करने पर गिलहरियां पहले जितनी मात्रा में यूरिया को प्रोटीन बनाने में उपयोगी नाइट्रोजन में परिवर्तित नहीं कर पाईं। स्वस्थ सूक्ष्मजीव संसार वाली गिलहरियों की तुलना में असंतुलित सूक्ष्मजीव संसार वाली गिलहरियों की आंत, यकृत और मांसपेशियों में कम नाइट्रोजन दिखी। इससे पता चलता है कि शीतनिद्रा के दौरान ग्राउंड गिलहरियां मांसपेशी निर्माण के लिए ज़रूरी नाइट्रोजन पाने के लिए यूरिया पुनर्चक्रित करने वाले आंत के सूक्ष्मजीवों पर निर्भर करती हैं। ये नतीजे साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

जब गिलहरी शीतनिद्रा में जाती है, तो उसकी आंत के सूक्ष्मजीवों को भी नियमित भोजन नहीं मिलता। भोजन का यह अभाव सूक्ष्मजीवों को यूरिया को पुनर्चक्रित करने के लिए उकसाता है। और जैसे-जैसे शीतनिद्रा काल बीतने लगता है सूक्ष्मजीव पुनर्चक्रण में और अधिक कुशल होते जाते हैं। गिलहरी अधिक यूरिया आंत में पहुंचाकर सूक्ष्मजीवों की मदद करती हैं। आंत के सूक्ष्मजीव पुनर्चक्रण के फलस्वरूप बनी नाइट्रोजन की अच्छी-खासी मात्रा तो अपने लिए रख लेते हैं, लेकिन कुछ नाइट्रोजन वे गिलहरी के लिए भी मुक्त करते हैं।

अध्ययन की सह-लेखक फरीबा असादी-पोर्टर बताती हैं कि मनुष्यों की आंत के सूक्ष्मजीव भी यूरिया को रीसायकल कर सकते हैं। हालांकि हम शीतनिद्रा में नहीं जाते हैं लेकिन फिर भी कई लोगों की मांसपेशियां उम्र बढ़ने, किसी बीमारी या कुपोषण के कारण क्षीण होने लगती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि गिलहरियां सूक्ष्मजीव अपशिष्ट रसायनों का पुन: उपयोग कैसे करती हैं, इसकी बेहतर समझ मांसपेशियों की क्षति रोकने में मददगार हो सकती है। बहरहाल इस पर और अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हरी रोशनी की मदद से जंतु-संरक्षण

त्स्याखेट के दौरान जाल में अनचाहे जीवों का फंस जाना एक बड़ी समस्या है। इनमें कछुए, स्टिंग रे, स्क्विड और यहां तक कि शार्क जैसे जीव फंसकर बेमौत मारे जाते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए हाल ही में किया गया शोध काफी आशाजनक प्रतीत होता है। इस नई तकनीक में मछली पकड़ने के जाल में हरी एलईडी लगाने से शार्क और स्क्विड जैसे गैर-लक्षित जीवों के जाल में फंसने की संभावना कम हो जाती है और इससे ग्रूपर और हैलिबट जैसी वांछित मछलियों की गुणवत्ता और मात्रा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

आम तौर पर मछुआरों द्वारा गिलनेट का उपयोग किया जाता है जो पानी में एक कनात के रूप में लटकी रहती है। इसमें कई अनचाही प्रजातियां भी फंस जाती हैं जिन्हें ‘बायकैच’ कहा जाता है। यह बायकैच डॉल्फिन और समुद्री कछुओं सहित कई प्रजातियों के विनाश में योगदान देने के अलावा मछुआरों का काम बढ़ा देता है क्योंकि जाल की सफाई मुश्किल हो जाती है।

पूर्व में एक टीम द्वारा किए गए एक प्रयोग में जाल में हरे प्रकाश का उपयोग करने से कछुए के बायकैच में 64 प्रतिशत की कमी आई थी। इसके बाद इसे अन्य जीवों पर भी आज़माने का प्रयास किया गया। उसी टीम ने मेक्सिको स्थित बाजा कैलिफोर्निया के तट पर ग्रूपर और हैलिबट मछली पकड़ने वालों के साथ मिलकर काम किया। इस क्षेत्र को चुना गया क्योंकि मछलियों के साथ यहां बड़ी मात्रा में कछुए और अन्य बड़े समुद्री जीव पाए जाते हैं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 28 जोड़ी जाल डाले। प्रत्येक जोड़ी में एक-एक जाल पर 10-10 मीटर की दूरी पर एलईडी लाइट लगाई गई थी। अगले दिन सुबह जालों में फंसे जीवों को तौला गया और पहचान की गई।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रकाशित जालों में 63 प्रतिशत कम बायकैच पाया गया (51 प्रतिशत कम कछुए और 81 प्रतिशत कम स्क्विड)। शार्क और स्टिंग रे समूह के साथ किए गए एक अन्य अध्ययन में अधिक बेहतर परिणाम देखने को मिले। इस तकनीक का उपयोग करने से शार्क बायकैच में 95 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कैसे कुछ जीव खुद को हरे प्रकाश से बचा पाते हैं। इस सम्बंध में कई परिकल्पनाएं हैं।

बहरहाल, कारण जो भी हो लेकिन अब मछुआरों को जाल ढोने और सुलझाने में कम समय लगता है। हालांकि इन जालों की ऊंची लागत एक बड़ी बाधा है। एक जाल को रोशनी से लैस करने के लिए लगभग 140 डॉलर (लगभग 10000 रुपए) तक लागत आती है। कुछ मछुआरों के लिए यह बहुत महंगा है। फिलहाल शोधकर्ता सौर उर्जा से चलने वाली एलईडी का परीक्षण कर रहे हैं जो बैटरी चालित एलईडी की तुलना में अधिक समय तक चलती है। इसके साथ ही प्रति जाल कम संख्या में एलईडी के साथ भी प्रयोग किए जा रहे हैं ताकि लागत को कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर

पृथ्वी पर जीवन के इतिहास के बारे में हमारी समझ विकसित करने में जीवाश्मों की एक बड़ी भूमिका रही है। जीवाश्मों से हमें जैव-विकास और पौधों एवं जीव-जंतुओं में अनुकूलन के महत्वपूर्ण साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इन साक्ष्यों की मदद से विभिन्न प्रजातियों के आपसी सम्बंध के बारे में भी जानकारी मिलती है। लेकिन एक हालिया अध्ययन बताता है कि जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर है। इस विश्लेषण के अनुसार 97 प्रतिशत जीवाश्म सम्बंधी डैटा अमेरिका, जर्मनी और चीन जैसे उच्च और उच्च-मध्यम आय वाले देशों के वैज्ञानिकों से प्राप्त हुआ है।

इस अध्ययन में शामिल फ्राइडरिच एलेक्जे़ंडर युनिवर्सिटी की जीवाश्म वैज्ञानिक नुसाइबा रजा के अनुसार जीवाश्म रिकॉर्ड के उच्च आय वाले देशों के वैज्ञानिकों के पास संकेंद्रित होने की संभावना तो थी लेकिन इतने अधिक प्रतिशत की उम्मीद नहीं थी। रजा और उनकी टीम का मानना है कि जीवाश्म रिकॉर्ड का अमीर देशों की ओर झुकाव जीवन के इतिहास के बारे में शोधकर्ताओं की समझ को प्रभावित कर सकता है। यह अध्ययन नेचर इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुआ है।        

रजा और उनके सहयोगियों ने इस अध्ययन के लिए पैलियोबायोलॉजी डैटाबेस (पीबीडीबी) का उपयोग किया। पीबीडीबी में 80,000 शोध पत्रों से 15 लाख से अधिक जीवाश्म रिकॉर्ड शामिल हैं। टीम ने अपने अध्ययन में 1990 से 2020 के बीच पीबीडीबी में शामिल किए गए 29,039 शोध पत्रों का विश्लेषण किया है। इनमें से एक तिहाई से अधिक रिकॉर्ड अमेरिकी वैज्ञानिकों के पाए गए जबकि शीर्ष पांच में जर्मनी, यूके, फ्रांस और कनाडा के वैज्ञानिक शामिल थे। इस विश्लेषण में शोधकर्ताओं के अपने देश में पाए गए जीवाश्मों के साथ-साथ विदेशों में पाए गए जीवाश्म भी शामिल हैं।

आंकड़ों के मुताबिक अमेरिकी शोधकर्ताओं ने घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय जीवाश्म दोनों पर लगभग समान रूप से काम किया जबकि युरोपीय देशों के वैज्ञानिकों ने अधिकांश जीवश्मीय अध्ययन विदेशों में किए हैं। जैसे, स्विट्ज़रलैंड के वैज्ञानिकों की 86 प्रतिशत जीवश्मीय खोजें विदेशों में की गई हैं।

विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि कई देशों में दशकों पहले खत्म हुए औपनिवेशिक सम्बंध आज भी जीवाश्म विज्ञान को प्रभावित कर रहे हैं। मोरक्को, ट्यूनीशिया और अल्जीरिया में एक चौथाई से अधिक जीवाश्मीय अध्ययन फ्रांसीसी वैज्ञानिकों द्वारा किए गए हैं। ये तीनों देश पूर्व फ्रांसीसी कॉलोनी रहे हैं। इसके अलावा, दक्षिण अफ्रीका और मिस्र में जीवाश्म का अध्ययन करने वाले 10 प्रतिशत शोध पत्रों में यूके के शोधकर्ता शामिल हैं जबकि तंज़ानिया के जीवाश्मों पर प्रकाशित 17 प्रतिशत शोध पत्र जर्मन वैज्ञानिकों के हैं।

कई मामलों में इन शोध कार्यों में स्थानीय लोगों को शामिल नहीं किया गया है। इस तरीके को आम तौर पर ‘पैराशूट विज्ञान’ कहा जाता है। रजा और उनकी टीम ने एक पैराशूट सूचकांक तैयार किया है जो यह दर्शाता है कि किसी देश का कितना जीवाश्मीय डैटा स्थानीय वैज्ञानिकों को शामिल किए बिना तैयार किया गया है। यह अनुपात म्यांमार और डोमिनिक गणराज्य में सर्वाधिक रहा। इन दोनों देशों में काफी मात्रा में एम्बर में संरक्षित जीवाश्म पाए जाते हैं।

शोधकर्ताओं का मानना है कि जीवाश्म विज्ञान पर अमीर देशों का अत्यधिक प्रभाव जीवन के इतिहास के बारे में एक विकृत दृष्टिकोण पैदा कर सकता है। पीबीडीबी जैसे संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवाश्म विज्ञान का अध्ययन करने वाले शोधकर्ता इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ है कि जीवाश्म रिकॉर्ड अनगिनत पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होता है। इनमें चट्टान की उम्र और उसका प्रकार शामिल है जिसमें जीवाश्म संरक्षित रह सकते हैं। लेकिन आम तौर पर जीवाश्म को एकत्रित करने वाले व्यक्ति के पूर्वाग्रहों पर कम ध्यान दिया जाता है। रजा के अनुसार जीवाश्म रिकॉर्ड को प्रभावित करने वाले भौतिक कारकों पर तो बात होती है लेकिन मानवीय कारकों के बारे में नहीं।

कुछ अन्य जीवाश्म विशेषज्ञ इस अध्ययन को महत्वपूर्ण मानते हैं जो पैराशूट विज्ञान जैसी प्रवृत्तियों को उजागर कर सकते हैं। विशेषज्ञों का मत है कि वैज्ञानिक ज्ञान को कुछ क्षेत्रों तक सीमित नहीं रखना चाहिए और न ही इसे मुट्ठी भर देशों के शोधकर्ताओं द्वारा निर्मित किया जाना चाहिए। पैराशूट विज्ञान से न सिर्फ जीवाश्म विज्ञान प्रभावित होता है बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी नुकसान होता है। जीवाश्म खोजें पर्यटकों को संग्रहालयों की ओर आकर्षित करके स्थानीय अर्थव्यवस्था को सहायता प्रदान करती हैं। यदि विदेशी वैज्ञानिक इन जीवाश्मों को अपने देश ले जाते हैं तो स्थानीय लोग इनका लाभ नहीं प्राप्त कर पाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

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बर्फ में दबा विशाल मछली प्रजनन क्षेत्र

रवरी 2021 में, एक बड़ा जर्मन शोध जहाज़ आरवी पोलरस्टर्न समुद्री जीवन का अध्ययन करने के लिए वेडेल सागर की ओर रवाना हुआ था। अध्ययन में वैज्ञानिकों को वेडेल सागर के नीचे मछलियों की सबसे बड़ी और घनी आबादी वाली प्रजनन कॉलोनी मिली है। अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्व में स्थित आइसफिश की यह कॉलोनी लगभग 240 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली है जिसमें इनके अनगिनत घोंसले नियमित अंतराल पर बने हैं।

अल्फ्रेड वेगनर इंस्टीट्यूट के ऑटन पर्सर और उनके दल ने जब समुद्र सतह से आधा किलोमीटर नीचे, समुद्र के पेंदे के नज़दीक, वीडियो कैमरा और अन्य उपकरण डाले तो उन्हें वहां लगभग 75-75 सेंटीमीटर चौड़े हज़ारों आइसफिश के घोंसले दिखे। इन गोलाकार घोंसलों को वयस्क आइसफिश अपने पेल्विक फिन से बजरी और रेत को हटाकर बनाती हैं। हर घोंसले में एक वयस्क आइसफिश थी और प्रत्येक में 2100 तक अंडे थे।

सोनार तकनीक की मदद से पता लगा कि मछलियों के ये घोंसले सैकड़ों मीटर तक फैले हैं। उच्च विभेदन वाले वीडियो और कैमरों ने 12,000 से अधिक वयस्क आइसफिश (नियोपैगेटोप्सिस आयोना) को कैद किया।

लगभग 60 सेंटीमीटर लंबी यह आइसफिश अत्यधिक ठंडे वातावरण में रहने के लिए अनुकूलित है। ये एंटीफ्रीज़ किस्म के रसायनों (जो बर्फ बनने से रोकते हैं) का उत्पादन करती हैं। और इस इलाके में पानी में भरपूर ऑक्सीजन पाई जाती है जिसके चलते ये एकमात्र कशेरुकी जीव हैं जिनका रक्त हीमोग्लोबिन रहित रंगहीन होता है।

अपनी तीन यात्राओं के दौरान शोधकर्ताओं को आइसफिश के पास-पास स्थित 16,160 घोंसले दिखे। इनमें से 76 प्रतिशत घोंसलों की रक्षा एक-एक इकलौता नर कर रहा था। करंट बायोलॉजी जर्नल में शोधकर्ताओं ने अनुमान व्यक्त किया है कि यदि पूरे क्षेत्र में घोंसले इतनी ही सघनता से फैले होंगे तो लगभग 240 वर्ग किलोमीटर के दायरे में 6 करोड़ घोंसले होंगे। इनकी इतनी अधिक संख्या देखते हुए लगता है कि आइसफिश और उनके अंडे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र में प्रमुख भूमिका निभाते होंगे।

शोधकर्ताओं का कहना है कि वयस्क आइसफिश पानी की धाराओं की मदद से अंडे देने के लिए उचित जगह तलाशती होंगी, जहां का पानी जंतु-प्लवकों से समृद्ध होगा और जहां उनकी संतानों के लिए पर्याप्त भोजन मिलेगा। इसके अलावा, घोंसलों की सघनता शिकारियों से बचने में मदद करती होगी।

मछलियों की नई विशाल कॉलोनी मिलना वेडेल सागर को संरक्षित क्षेत्र बनाने का एक नया कारण है। हालांकि वेडेल सागर अब तक मछलियों के शिकार जैसी गतिविधि से सुरक्षित है, लेकिन इस सुरक्षित और पारिस्थितिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र को सुरक्षित बनाए रखने के लिए और प्रयास करने होंगे।

बहरहाल शोधकर्ता आइसफिश के प्रजनन और घोंसले बनाने सम्बंधी व्यवहार के बारे में अधिक जानने को उत्सुक व तैयार हैं।(स्रोत फीचर्स)

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मनुष्य निर्मित पहला संकर पशु कुंगा

सीरिया के उम्म-अल-मारा खुदाई स्थल पर पुरातत्वविदों को 2006 में लगभग 3000 ईसा पूर्व के शाही कब्रगाहों के साथ गधे जैसे एक जानवर के अवशेष भी मिले थे। दफन की शैली को देखकर पुरातत्वविदों का अनुमान था कि यह जानवर दुर्लभ ‘कुंगा’ होगा, जो कांस्य युगीन मेसोपोटामिया के अभिजात्य वर्ग के लिए अत्यधिक महत्व रखता था। लेकिन अब तक इस चौपाए की वास्तविक जैविक पहचान स्पष्ट नहीं हो सकी थी। अब, प्राप्त हड्डियों के जेनेटिक विश्लेषण से पता चला है कि यह चौपाया दो प्रजातियों – एक नर जंगली गधे और पालतू मादा गधी – की संकर संतान थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में यह पहला मानव निर्मित संकर प्राणि है।

उस समय की कीलाक्षरी लिपि तख्तियों पर एक शक्तिशाली और नाटे कद के कुंगा का वर्णन यहां के अमीर और शक्तिशाली लोगों के पसंदीदा जानवर के तौर पर मिला है। यह ज्ञात प्रजातियों से अलग तरह का गधा था। इन तख्तियों पर पशुपालन के जटिल तरीकों के बारे में भी वर्णन मिलता है; इनमें अश्वों की दो अलग-अलग प्रजातियों का प्रजनन कराकर संकर जानवर तैयार करने का ज़िक्र है। ये तख्तियां बहुत विस्तार से जानकारी नहीं देती कि ये प्रजातियां कौन-सी थीं, और संकर संतान प्रजनन योग्य थी या नहीं। लेकिन इन पर अंकित संदेश से इतना पता चलता है कि संकर प्रजाति औसत गधों की तुलना में फुर्तीली थी।

पुरातत्वविदों को जब ये हड्डियां मिली तो वे किसी ज्ञात प्रजाति की नहीं लगीं। वैसे भी सिर्फ अवशेष देखकर यह पहचानना मुश्किल होता कि वे किस अश्व वंश की हैं, घोड़े की हैं या गधे की।

इन हड्डियों के दफन होने के स्थान और स्थिति के आधार पर पुरातत्वविदों का अनुमान था कि यह चौपाया यहां के लोगों के लिए पौराणिक महत्व रखता होगा और अवश्य ही कुंगा होगा। लेकिन वास्तव में यह कौन-सा जानवर है इसकी पुष्टि के लिए पुरातत्वविदों ने आनुवंशिकीविद ईवा-मारिया गीगल की सहायता ली। हड्डियां बहुत भुरभुरी स्थिति में थी। इसलिए गीगल और उनके दल ने इनके नाभिकीय डीएनए के विश्लेषण के लिए अत्यधिक संवेदनशील अनुक्रमण विधियों का उपयोग किया, और साथ ही उनके मातृ और पितृ वंश को भी देखा। कुंगा के डीएनए की तुलना आधुनिक घोड़ों, पालतू गधों और विलुप्त सीरियाई जंगली गधे सहित अन्य अश्व वंश के जानवरों के जीनोम से भी की गई।

साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने बताया है कि हड्डियां किसी एक अश्व प्रजाति की नहीं थी, बल्कि ये दो भिन्न प्रजातियों के संकरण की पहली पीढ़ी की संतान थी; जिसमें मादा पालतू गधा प्रजाति की और नर सीरियाई जंगली गधा प्रजाति का था।

मानव निर्मित संकर प्राणि का यह पहला दर्ज उदाहरण है। खच्चर (घोड़े और गधे का संकर) संभवतः अगला सबसे पुराना उदाहरण है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन कांस्य युगीन मेसोपोटामिया समाज की तकनीकी क्षमताओं को दर्शाता है और इन जानवरों को जीवित रखने के लिए आवश्यक संगठन और प्रबंधन तकनीकों के स्तर को भी दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया संक्रमित कीट सर्दियों में ज़्यादा सक्रिय रहते हैं

यूएस के जंगलों में किलनियों (टिक) के माध्यम से लाइम रोग फैलने का खतरा होता है। इस रोग के डर से कई लोग यह सोचकर सर्दियों तक अपनी जंगल यात्राएं टाल देते हैं कि सर्दियों में किलनियां गायब हो जाएंगी। अब तक लोगों को यही लगता था, लेकिन हाल ही में सोसाइटी ऑफ इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की बैठक में शोधकर्ताओं ने बताया है कि लाइम रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों से संक्रमित किलनियां जाड़ों में भी सक्रिय रहती हैं और रोग फैला सकती हैं। ऐसा लगता है कि इनकी सक्रियता में वृद्धि जलवायु परिवर्तन के चलते जाड़ों के घटते-बढ़ते तापमान के कारण आई है।

यूएस में, हर साल लगभग पौने पांच लाख लोग इस रोग की चपेट में आते हैं और पिछले 20 वर्षों में मामले तीन गुना बढ़े हैं। वैसे तो बोरेलिया बर्गडॉर्फेरी बैक्टीरिया जनित यह रोग फ्लू की तरह होता है, जिसमें त्वचा पर आंखनुमा (बुल-आई) लाल चकत्ते पड़ जाते हैं। लेकिन कुछ मामलों में यह मस्तिष्क, तंत्रिकाओं, हृदय और जोड़ों को भी प्रभावित करता है, जिससे गठिया या तंत्रिका क्षति जैसी समस्याएं होती है।

किलनियों और किलनी वाहित रोगों से निपटने के तमाम प्रयासों के बावजूद इसमें कमी नहीं आई है। डलहौज़ी विश्वविद्यालय की इको-इम्यूनोलॉजिस्ट लौरा फर्ग्यूसन ने इस पर ध्यान दिया।

तीन सर्दियों तक, फर्ग्यूसन और उनके साथियों ने जंगल से 600 काली टांगों वाली किलनियां (Ixodes scapularis) और उसकी सम्बंधी पश्चिमी काली टांगों वाली किलनियां (I. pacificus) पकड़ीं। हरेक किलनी को एक-एक शीशी में रखा। शीशियों पर ढक्कन लगे थे और पेंदे में पत्तियां बिछी थीं। इन शीशियों को सर्दियों में बाहर छोड़ दिया, जहां पर तापमान -18 डिग्री सेल्सियस से 20 डिग्री सेल्सियस तक रहा। चार महीनों बाद उन्होंने देखा कि इनमें से कौन-सी किलनियां जीवित बचीं और इनमें से कौन-सी किलनियां बी. बर्गडोर्फेरी से संक्रमित हैं। उन्होंने पाया कि लगभग 79 प्रतिशत संक्रमित किलनियां ठंड में जीवित बच गईं थीं, जबकि केवल 50 प्रतिशत असंक्रमित किलनियां जीवित बची थीं। चूंकि सर्दियों में संक्रमित किलनियों के बचने की दर काफी अधिक रही, इसलिए आने वाले वसंत के मौसम में लाइम रोग अधिक फैलने की संभावना लगती है।

इसके बाद शोधकर्ता देखना चाहती थीं कि सर्दियों के दौरान तापमान में घट-बढ़, जैसे बे-मौसम का गर्म दिन और अचानक आई शीत लहर, किलनियों को किस तरह प्रभावित करती है। यह देखने के लिए उन्होंने अपने अध्ययन में संक्रमित और असंक्रमित किलनियों को तीन अलग-अलग परिस्थितियों में रखा: एकदम ठंडे तापमान (जमाव बिंदु) पर, 3 डिग्री सेल्सियस तापमान पर और घटते-बढ़ते तापमान पर (जैसा कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने की संभावना जताई गई है)। किलनियों की गतिविधि की निगरानी के लिए एक इंफ्रारेड प्रकाश पुंज की व्यवस्था थी; यदि किलनियां जागेंगी और शीशी से बाहर निकलने की कोशिश करेंगी तो वे इस इंफ्रारेड पुंज को पार करेंगी और पता चल जाएगा।

अध्ययन में पाया गया कि घटते-बढ़ते तापमान में संक्रमित किलनियां सबसे अधिक सक्रिय थीं। वे सप्ताह में लगभग 4 दिन जागीं बनिस्बत असंक्रमित या स्थिर तापमान पर रखी गईं किलनियों के जो सप्ताह में 1 या 2 दिन ही जागीं। इसके अलावा, संक्रमित किलनियां शीत लहर के प्रकोप के बाद असंक्रमित किलनियों की तुलना में अधिक सक्रिय देखी गईं। इससे लगता है कि बी. बोरेलिया बैक्टीरिया किलनियों को अधिक सक्रिय और काटने के लिए आतुर करता है। सर्दियों का मौसम संक्रमित किलनियों को संक्रमण को फैलाने में मदद करता है।

आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि जब अधिक ठंड पड़ती है तो कुछ नहीं होता, सब निष्क्रिय से रहते हैं। लेकिन इस अध्ययन से ठंड में भी रोग संचरण की संभावना लगती है। बहरहाल इस तरह के और अध्ययन करने की ज़रूरत है ताकि यह पता लगाया जा सके कि ऐसे मौसम रोग संचरण पर क्या असर डालते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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स्पिटलबग कीट का थूकनुमा घोंसला – हरेंद्र श्रीवास्तव

र्ष यदि आप ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं तो अक्सर खेतों-मेड़ों और सड़कों के किनारे उगी घास-फूस पर एक थूक अथवा झाग जैसी संरचना देखी होगी। ये झागनुमा रचना पौधों की पत्तियों, टहनियों और तनों पर मौजूद होती हैं। आखिर ये हैं क्या?

कई लोग अनुमान लगाते हैं कि ये किसी मनुष्य अथवा प्राणी की थूक है जिसके चलते इसका नाम कोयल थूक और सांप थूक भी पड़ गया। दरअसल यह झागनुमा संरचना एक कीट (स्पिटलबग कीट) द्वारा बनाया गया घोंसला है। हेमिप्टेरा वर्ग के इस कीट के अन्य नाम फ्रागहॉपर, स्पिट इन्सेक्ट और फिलिनस कीट वगैरह भी हैं।

मैंने अवलोकन के दौरान इस कीट के झागदार घोंसलों को गेंदे, तुलसी, गाजर घास और गुलाब आदि पौधों पर पाया है। यह कीट लगभग एक मीटर ऊंचे पौधों के तनों पर अपना आशियाना बनाता है। घोंसले बनाने की कला बेहद विशिष्ट है। ये स्पिटलबग कीट पहले पौधों के ज़ायलम जैसे ऊतकों में मौजूद कार्बोहाइड्रेट आदि पादप-रसों को चूसता है और फिर उसे अपने उदर में पाई जाने वाली ग्रन्थियों के रसों में मिश्रित कर शरीर के पश्च भाग से पौधे पर छोड़ता जाता है और इस तरह तैयार हो जाता है उसका एक शानदार कुदरती घर जिसमें वो प्रजनन करता है और अपने जीवन-चक्र की अवस्थाओं को पूरा करता है। इस कीट द्वारा बनाए गए घर को स्पिटलबग फोम कहा जाता है। यह कीट हरे, भूरे, नारंगी आदि कई रंगों में मिलता है जिसकी एशिया, अफ्रीका से लेकर अमेरिकी महाद्वीप तक विभिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं।

इस कीट द्वारा निर्मित घोंसले में ताप और शीत सहन करने की विशेष क्षमता होती है। आप देखेंगे कि ये झागनुमा संरचना दोपहर की तेज़ धूप में भी नष्ट नहीं होती। मैंने सुबह से लेकर शाम तक स्पिटलबग के घोंसले का अवलोकन किया और पाया कि धूप इन्हें सुखा नहीं पाई। यह प्राकृतिक आशियाना इस जीव को शिकारी कीटभक्षी प्राणियों से भी सुरक्षा प्रदान करता है क्योंकि इस झागनुमा संरचना का स्वाद कीटभक्षियों को पसंद नहीं आता और इसमें छिपे रहने के कारण शिकारी इसे देख भी नहीं पाते।

वैसे तो स्पिटलबग जैसा नन्हा सा कीट पौधों को कोई विशेष नुकसान नहीं पहुंचाता लेकिन जब इनकी आबादी बढ़ जाती है तो इन्हें नाशी-कीट कहा जाता है। नियंत्रण हेतु पौधों पर पानी का तीव्र फुहारा फेंका जाता है जिससे स्पिटलबग फोम नष्ट हो जाते हैं। मादा कीट भोजन एवं सुरक्षा की दृष्टि से अनुकूल पौधों पर सैकड़ों अण्डे देती है और इन अण्डों से निम्फ निकलते हैं जो उन पौधों पर खूबसूरत घोंसले बनाते हैं।

स्पिटलबग को मैंने खेतों-मेड़ों पर घास-फूस व खरपतवारों पर अनेकों बार देखा है। आप भी अपने आसपास की वनस्पतियों, तितली, पक्षी, सरीसृपों आदि की गतिविधियों का अवलोकन करें क्योंकि पर्यावरण में घट रही प्राकृतिक घटनाओं और पौधों तथा जीव-जंतुओं की कुदरती गतिविधियों को जितना ज़्यादा देखेंगे-समझेंगे, उतना आनंद प्राप्त होगा और ज्ञान भी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रजनन करते रोबोट!

कुछ वर्ष पहले युनिवर्सिटी ऑफ वर्मान्ट, टफ्ट्स युनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर बायोलॉजिकली इंस्पायर्ड इंजीनियरिंग और हारवर्ड युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अफ्रीकी नाखूनी मेंढक (ज़ेनोपस लाविस) की स्टेम कोशिकाओं से एक मिलीमीटर का रोबोट तैयार किया था। इसे ज़ेनोबॉट नाम दिया गया। प्रयोगों से पता चला कि ये छोटे-छोटे पिंड चल-फिर सकते हैं, समूहों में काम कर सकते हैं और अपने घाव स्वयं ठीक भी कर सकते हैं।

अब वैज्ञानिकों ने इन ज़ेनोबॉट में प्रजनन का एक नया रूप खोजा है जो जंतुओं या पौधों के प्रजनन से बिल्कुल अलग है। वैज्ञानिक बताते हैं कि मेंढकों में प्रजनन करने का एक तरीका होता है जिसका वे सामान्य रूप से उपयोग करते हैं। लेकिन जब भ्रूण से कोशिकाओं को अलग कर दिया जाता है तब वे कोशिकाएं नए वातावरण में जीना सीख जाती हैं और प्रजनन का नया तरीका खोज लेती हैं। मूल ज़ेनोबोट मुक्त स्टेम कोशिकाओं के ढेर बना लेते हैं जो पूरा मेंढक बना सकते हैं।

दरअसल, स्टेम कोशिकाएं ऐसी अविभेदित कोशिकाएं होती हैं जिनमें विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में विकसित होने की क्षमता होती है। ज़ेनोबॉट्स बनाने के लिए शोधकर्ताओं ने मेंढक के भ्रूण से जीवित स्टेम कोशिकाओं को अलग करके इनक्यूबेट किया। आम तौर पर माना जाता है कि रोबोट धातु या सिरेमिक से बने होते हैं। लेकिन वास्तव में रोबोट का मतलब यह नहीं होता कि वह किस चीज़ से बना है बल्कि रोबोट वह है जो मनुष्यों की ओर से स्वयं काम कर दे।

अध्ययन में शामिल शोधकर्ता जोश बोंगार्ड के अनुसार यह एक तरह से तो रोबोट है लेकिन यह एक जीव भी है जो मेंढक की कोशिकाओं से बना है। बोंगार्ड बताते हैं कि ज़ेनोबॉट्स शुरुआत में गोलाकार थे और लगभग 3000 कोशिकाओं से बने थे और खुद की प्रतियां बनाने में सक्षम थे। लेकिन यह प्रक्रिया कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही हुई। ज़ेनोबॉट्स वास्तव में ‘काइनेटिक रेप्लिकेशन’ का उपयोग करते हैं जो आणविक स्तर देखा गया है लेकिन पूरी कोशिका या जीव के स्तर पर पहले नहीं देखा गया।             

इसके बाद शोधकर्ताओं ने कृत्रिम बुद्धि (एआई) की मदद से विविध आकारों का अध्ययन किया ताकि ऐसे ज़ेनोबॉट्स बनाए जा सकें जो अपनी प्रतिलिपि बनाने में अधिक प्रभावी हों। सुपरकंप्यूटर ने C-आकार का सुझाव दिया। शोधकर्ताओं ने पाया कि यह C-आकार पेट्री डिश में छोटी-छोटी स्टेम कोशिकाओं को खोजकर उन्हें अपने मुंह के अंदर एकत्रित कर लेता था। कुछ ही दिनों में कोशिकाओं का ढेर नए ज़ेनोबॉट्स में परिवर्तित हो गया।

शोधकर्ताओं के अनुसार (PNAS जर्नल) आणविक जीवविज्ञान और कृत्रिम बुद्धि के इस संयोजन का उपयोग कई कार्यों में किया जा सकता है। इसमें महासागरों से सूक्ष्म-प्लास्टिक को एकत्रित करना, जड़ तंत्रों का निरीक्षण और पुनर्जनन चिकित्सा जैसे कार्य शामिल हैं।

इस तरह स्वयं की प्रतिलिपि निर्माण का शोध चिंता का विषय हो सकता है लेकिन शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि ये जीवित मशीनें प्रयोगशाला तक सीमित हैं और इन्हें आसानी से नष्ट किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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इस सहस्रपाद की वाकई हज़ार टांगें होती हैं

हस्रपाद (मिलीपीड) नाम के बावजूद सभी मिलीपीड के पैरों की संख्या हज़ार नहीं होती है। आम बोलचाल में इन्हें गिंजाई या कनखजूरा कहते हैं। अधिकांश प्रजातियों में पैरों की संख्या सौ से भी कम होती है। लेकिन अब, शोधकर्ताओं ने सहस्रपाद की एक ऐसी प्रजाति की खोजी है जिसके पैरों की संख्या उसके नाम से भी अधिक हो सकती है।

शोधकर्ताओं को सहस्रपाद की यह प्रजाति पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के एक रेगिस्तान में 60 मीटर गहराई में मिली है। शोधकर्ता खनन कंपनियों द्वारा अन्वेषण के लिए खोदे गए सुराखों में खास डिज़ाइन किए गए जाल (सड़ी-गली पत्तियों से भरे प्लास्टिक पाइप) डालकर गहराई में रहने वाले अकशेरुकी जीवों की खोज कर रहे थे।

इसे यूमिलीपीस पर्सेफोन नाम दिया है। यूमिलीपीस का मतलब है वास्तव में हज़ार पैरों वाली और पर्सेफोन नाम ग्रीक पौराणिक कथाओं की पाताल लोक की देवी से मिला है, जो कुछ समय के लिए ज़मीन के ऊपर आती है और वसंत का आगाज़ करती है।

क्रीमी रंग का यह सहस्रपाद एक मिलीमीटर से भी कम चौड़ा और लगभग 10 सेंटीमीटर लंबा है। अपने डील-डौल में यह ज़मीन के ऊपर रहने वाले सहस्रपादों की तुलना में बहुत छरहरा है। इसके कई सारे छोटे-छोटे पैर इसे चट्टान की छोटी-छोटी दरारों से गुज़रने की शक्ति देते हैं। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में शोधकर्ता बताते हैं कि ई. पर्सेफोन की आंखें नहीं हैं, ये अपने बड़े एंटीना की मदद से दुनिया को भांपते हैं। और संभवत: कवक इनका भोजन होता है।

शोधकर्ताओं को इस स्थल से आठ ई. पर्सेफोन मिले हैं। यदि इनके पैर गिनें तो इनमें से दो वयस्क मादाएं ही सच्ची सहस्रपाद हैं; दो वयस्क नरों के पैरों की अधिकतम संख्या 778 और 818 है। दरअसल, किसी भी सहस्रपाद के पैरों की संख्या बदलती रह सकती है क्योंकि आर्थ्रोपोड (संधिपाद जंतु) अपने पूरे जीवन में शरीर में अतिरिक्त खंड विकसित करते रहते हैं। ई. पर्सेफोन शरीर के खंड सिकोड़ और फैला सकता है। इससे संभवत: छोटी दरारों में फिट होने और कठिन रास्तों पर चलने में मदद मिलती है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि ई. पर्सेफोन सतह की जलवायु गर्म और शुष्क होने के काफी पहले भूमिगत हो गए थे। (स्रोत फीचर्स)

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मैडागास्कर में मिली मेंढक की नई प्रजाति

मैडागास्कर जैव विविधता और खासकर उभयचरों की विविधता से समृद्ध देश है। लेकिन हाल के वर्षों में जो नई उभयचर प्रजातियां खोजी गई हैं उन्हें अप्रकट प्रजाति की क्षेणी में रखा जाता है क्योंकि ये दिखने में तो पहले से ज्ञात प्रजातियों से बहुत मिलती-जुलती होती हैं और इन्हें अलग प्रजाति मात्र डीएनए की तुलना के आधार पर माना गया है।

लेकिन हाल ही में लुसिआना स्टेट युनिवर्सिटी के शोधकर्ता कार्ल हटर ने मैडागास्कर के एंडेसिबी-मैनटेडिया नेशनल पार्क में एक ऐसी मेंढक प्रजाति खोजी  है जो अन्य मेंढकों से एकदम अलग दिखती है। मेडागास्कर के वर्षा-वन के ऊंचे क्षेत्रों में पाया गया यह मेंढक आकार में बहुत छोटा है। इसकी त्वचा मस्सेदार और आंखें चटख लाल रंग की हैं।

देखा जाए तो इस नई मेंढक प्रजाति का मिलना काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस इलाके को पहले ही काफी खंगाला जा चुका है। हटर और उनके सहयोगियों का सामना इस प्रजाति से पहली बार वर्ष 2015 में हुआ था। शोधकर्ताओं ने इस खोज को ज़ुओसिस्टेमेटिक्स एंड इवॉल्यूशन नामक जर्नल में प्रकाशित किया है और इस नई प्रजाति की विशिष्ट त्वचा को देखते हुए इसे गेफायरोमेंटिस मारोकोरोको (मलागासी भाषा में ऊबड़-खाबड़) नाम दिया है। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि यह उभयचर एक अनूठी ध्वनि भी निकालता है। दो से चार पल्स के बाद एक लंबी ध्वनि इतनी मंद होती है कि कुछ मीटर दूर तक ही सुना जा सकता है। चूंकि इस निशाचर मेंढक की रहस्यमय प्रकृति भारी बारिश के बाद बाहर आने पर ही दिखती है, इसलिए इसके वर्गीकरण के लिए पर्याप्त नमूने और रिकॉर्डिंग एकत्रित करने में कई साल लगेंगे।

शोधकर्ताओं को लगता है कि यह प्रजाति विलुप्त होने के जोखिम में है क्योंकि इसे जंगल के सिर्फ चार टुकड़ों में पाया गया है, और जहां यह पाया गया है वहां झूम खेती (स्लेश एंड बर्न) का खतरा रहता है। (स्रोत फीचर्स)

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