एम्बर में सुरक्षित मिला डायनासौर का सिर

गभग दस करोड़ वर्ष पुराने एम्बर में अब तक पाए गए सबसे छोटे डायनासौर का सिर सुरक्षित मिला है। रेजि़न में फंसा यह सिर (चोंच सहित) लगभग 14 मिलीमीटर का है। इससे लगता है कि यह डायनासौर बी-हमिंगबर्ड जितना बड़ा रहा होगा। यह सिर जिस डायनासौर समूह का है, माना जाता है कि उससे आधुनिक पक्षियों का विकास हुआ है।

म्यांमार से प्राप्त इस जीवाश्म को ओकुलुडेंटेविस खौंगरेई यानी आई-टूथ बर्ड का नाम दिया गया है। आधुनिक छिपकली की तरह, इसके सिर के दोनों ओर बड़ी-बड़ी आंखें हैं। और इसकी आंखों का छिद्र छोटा है जो आंखों में प्रवेश करने वाली रोशनी को सीमित करता है। इससे लगता है कि यह जानवर दिन में सक्रिय रहता था।

आदिम पक्षियों की तरह ओकुलुडेंटेविस के ऊपरी और निचले जबड़े में नुकीले दांत थे, जिससे लगता है कि यह एक शिकारी जीव था जो कीटों और छोटे अकशेरुकी जीवों का शिकार करता था। नेचर पत्रिका में प्रकाशित शोध में शोधकर्ताओं को लगता है कि डायनासौर की यह प्रजाति द्वीपीय बौनेपन का एक उदाहरण है, जो टापुओं की उस अर्ध वलय पर रहते थे जहां वर्तमान म्यांमार स्थित है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि शरीर के बाकी हिस्सों के बिना पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि ओकुलुडेंटेविस अन्य डायनासौर से कितना करीबी था, या वह उड़ सकता था या नहीं। लेकिन उन्हें लगता है कि यह शायद आर्कियोप्टेरिक्स और जेहोलॉर्निस प्रजाति के पक्षियों के समान है जो लगभग 15 से 12 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में थे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन एम्बर: सुरक्षित मिला तिलचट्टा

म्बर (जीवाश्मित रेजि़न) में तिलचट्टों का मल सुरक्षित मिलना तो काफी आम है। लेकिन उत्तरी म्यांमार की हुकॉन्ग घाटी से बरामद किए गए करीब 1 करोड़ वर्ष पुराने एम्बर नमूनों में तिलचट्टा (कॉकरोच) और उसका मल दोनों साथ मिले हैं। एम्बर में किसी जीव का मल और सम्बंधित जीव दोनों का साथ मिलना काफी दुर्लभ है।

नेचरविसेनशाफ्टेन (प्रकृति विज्ञान) में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मल का बहुत बारीकी से अवलोकन किया है। उन्हें कॉकरोच की विष्ठा में संरक्षित परागकण दिखे, जिससे पता चलता है कि साइकस वृक्षों के परागण में तिलचट्टों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। (साइकस वृक्षों से ऐसा रस निकलता है जिसमें यह बदकिस्मत कॉचरोच फंस गया।) विष्ठा में शोधकर्ताओं को प्रोटोज़ोआ और बैक्टीरिया भी मिले हैं जो आजकल की दीमक और कॉकरोच की आंतों में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों से मिलते-जुलते हैं, जिससे लगता है कि कीट और उनकी आंत के सूक्ष्मजीवों का साथ लगभग एक करोड़ वर्ष पहले से है।

वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि यह अध्ययन अन्य वैज्ञानिकों को रेजि़न में फंसे जीवों की ही नहीं बल्कि उनकी विष्ठा का भी बारीकी से पड़ताल करने को प्रोत्साहित करेगा।(स्रोत फीचर्स)

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हवा में से बिजली पैदा करते बैक्टीरिया

क ताज़ा अध्ययन में पता चला है कि कुछ बैक्टीरिया ऐसे नैनो (अति-सूक्ष्म) तार बनाते हैं जिनमें से होकर बिजली बहती है, हालांकि अभी शोधकर्ता यह नहीं जानते कि इस बिजली का स्रोत क्या है। वैसे एक बात पक्की है कि ये बैक्टीरिया और उनके द्वारा बनाए गए नैनो तार बिजली का उत्पादन तब तक ही करते हैं, जब तक कि हवा में नमी हो। दरअसल ये नैनो तार और कुछ नहीं, प्रोटीन के तंतु हैं जो इलेक्ट्रॉन्स को बैक्टीरिया से दूर ले जाते हैं। इलेक्ट्रॉन का प्रवाह ही तो बिजली है।

यह देखा गया है कि जब पानी की सूक्ष्म बूंदें ग्रेफीन या कुछ अन्य पदार्थों के साथ अंतर्क्रिया करती हैं तो विद्युत आवेश पैदा होता है और इन पदार्थों में से इलेक्ट्रॉन का प्रवाह होने लगता है। लगभग 15 वर्ष पूर्व मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक डेरेक लवली ने खोज की थी कि जियोबैक्टर नामक बैक्टीरिया इलेक्ट्रॉन्स को कार्बनिक पदार्थों से धात्विक यौगिकों (जैसे लौह ऑक्साइड) की ओर ले जाता है। उसके बाद यह पता चला कि कई अन्य बैक्टीरिया हैं जो ऐसे प्रोटीन नैनो तार बनाते हैं जिनके ज़रिए वे इलेक्ट्रॉन्स को अन्य बैक्टीरिया या अपने परिवेश में उपस्थित तलछट तक पहुंचाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान बिजली पैदा होती है।

फिर लगभग 2 वर्ष पहले एक शोधकर्ता ने पाया कि इन नैनो तारों को बैक्टीरिया से अलग कर दिया जाए, तो भी इनमें विद्युत धारा पैदा होती रहती है। देखा गया कि जब नैनो तारों से बनी एक झिल्ली को सोने की दो चकतियों के बीच सैंडविच कर दिया जाता है, तो इस व्यवस्था में से 20 घंटे तक बिजली मिलती रहती है। इस व्यवस्था में जुगाड़ यह करना पड़ता है कि ऊपर वाली तश्तरी थोड़ी छोटी हो ताकि नैनो तार की झिल्ली नम हवा के संपर्क में रहे।

शोधकर्ताओं को इतना तो समझ में आ गया कि इलेक्ट्रॉन का स्रोत सोने की चकती नहीं है क्योंकि कार्बन चकतियों ने भी यही असर पैदा किया, जबकि कार्बन आसानी इलेक्ट्रॉन से नहीं छोड़ता। दूसरी संभावना यह हो सकती थी कि नैनो तार विघटित हो रहे हैं लेकिन पता चला कि वह भी नहीं हो रहा है। तीसरा विचार था कि हो न हो, यह प्रकाश विद्युत प्रभाव के कारण काम कर रहा है लेकिन यह विचार भी निरस्त करना पड़ा क्योंकि बिजली तो अंधेरे में भी बहती रही। अंतत: लगता है कि शायद नमी ही बिजली का स्रोत है। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने कयास लगाया है कि संभवत: पानी के विघटन के कारण बिजली बन रही है।

अब शोधकर्ताओं ने जियोबैक्टर के स्थान पर आसानी से मिलने व वृद्धि करने वाले बैक्टीरिया ई. कोली की मदद से यह जुगाड़ जमाने में सफलता प्राप्त कर ली है। यह इतनी बिजली देता है कि मोबाइल फोन जैसे उपकरणों का काम चल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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सत्रहवीं शताब्दी की पहेली भंवरे की मदद से सुलझी

साल 1688 में एक आयरिश दार्शनिक विलियम मोलेनो ने अपने सहयोगी जॉन लॉके से एक सवाल पूछा था: कोई जन्मजात दृष्टिहीन व्यक्ति जिसने मात्र स्पर्श से चीज़ों को पहचानना सीखा है, यदि आगे चलकर उसमें देखने की क्षमता आ जाए, तो क्या वह सिर्फ देखकर चीज़ों को पहचान पाएगा? उनका यह सवाल मोलेनो समस्या के नाम से जाना जाता है। सवाल मूलत: यह है कि क्या मनुष्य में आकृतियां पहचानने की क्षमता जन्मजात होती है या क्या वे देखकर, स्पर्श से और अन्य इंद्रियों के माध्यम से इसे सीखते या अर्जित करते हैं? यदि दूसरा विकल्प सही है, तो इसमें बहुत समय लगना चाहिए।

कुछ वर्ष पूर्व इस गुत्थी को सुलझाने के एक प्रयास में कुछ ऐसे बच्चे शामिल किए गए थे जो जन्म से अंधे थे लेकिन बाद में उनकी दृष्टि बहाल हो गई थी। ये बच्चे तत्काल तो देखकर आकृतियां नहीं पहचान पाए थे लेकिन बहुत समय भी नहीं लगा था। लेकिन कुछ तो सीखना पड़ा था। यानी परिणाम अस्पष्ट थे। हाल ही में लंदन स्थित क्वीन मैरी युनिवर्सिटी के लार्स चिटका और उनके साथियों ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश एक बार फिर से की है।

प्रयोग भंवरों पर किया गया। अपने अध्ययन में उन्होंने पहले भंवरों को उजाले में गोले और घन में अंतर सीखने का प्रशिक्षण दिया – उजाले में, दो बंद पेट्री डिश में गोले और घन आकृतियां रखी गर्इं और उनमें से किसी एक को चुनने पर शकर का इनाम दिया गया। गोले और घन बंद पेट्री डिश में रखे थे इसलिए भंवरे उन्हें देख तो सकते थे लेकिन छू नहीं सकते थे। देखा गया कि भंवरे उस आकृति के साथ ज़्यादा समय बिताते हैं, जिसका सम्बंध शकर रूपी इनाम से है; यानी वे उस आकृति को पहचानते हैं।

इसके बाद उन्होंने यही जांच अंधेरे में की। यानी भंवरे वस्तुओं को छू तो सकते थे लेकिन देख नहीं सकते थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर का पुरस्कार मिला था, उस आकृति के साथ भंवरों ने अधिक समय बिताया।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने यही अध्ययन उल्टी तरह से किया – पहले उन्हें अंधेरे में प्रशिक्षित किया और उजाले में जांच की। इसमें भी, दोनों ही स्थितियों में जहां उन्हें वस्तु छूकर पहचानना था या देखकर, जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर दी गई थी उस आकृति के पास अधिक वक्त बिताया।

कीटों में दृश्य पैटर्न को पहचानने की क्षमता का काफी अध्ययन हुआ है। शोधकर्ताओं को यह तो पहले से पता था कि कीट फूलों और मनुष्य के चेहरों के पेचीदा रंग-विन्यास को पहचान सकते हैं। लेकिन विन्यास पहचान के लिए ज़रूरी नहीं है कि मस्तिष्क में उस विन्यास का कोई चित्र बने। तो सवाल यह था कि क्या हमारे मस्तिष्क के समान कीटों के मस्तिष्क में भी वस्तु का कोई चित्रण बनता है।

लेकिन शोधकर्ताओं का मत है कि उनके अध्ययन में ये कीट एक किस्म की संवेदना से प्राप्त सूचना को किसी अन्य किस्म की संवेदना में तबदील करके वस्तु का चित्रण कर पाए। इसके आधार पर उनका कहना है कि इन भंवरों ने मोलेनो के सवाल का जवाब दे दिया है। अर्थात एक किस्म की संवेदना से निर्मित चित्र दूसरे किस्म की संवेदना द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है।

अलबत्ता, अन्य वैज्ञानिक इस प्रयोग की वास्तविक दुनिया में वैधता के बारे में शंकित हैं। जैसे भंवरे फूलों को पहचानने के लिए दृष्टि और गंध दोनों संकेतों पर निर्भर होते हैं। इसलिए ऐसे अध्ययन करना होंगे जो भंवरों की प्राकृतिक स्थिति से मेल खाएं। (स्रोत फीचर्स)

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तोतों में मनुष्यों के समान अंदाज़ लगाने की क्षमता

नुष्यों में अनुभवों, जानकारियों और आंकड़ों के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता होती है। हाल के एक अध्ययन में सामने आया है कि न्यूज़ीलैंड में पाए जाने वाले किआ तोते भी ऐसा कर सकते हैं। वानरों के अलावा किसी अन्य प्रजाति में पहली बार इस तरह का संज्ञान देखा गया है।

जैतूनी भूरे रंग के ये तोते अपनी हरकतों के लिए बदनाम हैं। अतीत में ये चोंच का छुरी की तरह उपयोग कर भेड़ों की चमड़ी को भेदते हुए उनकी रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द जमा वसा तक पहुंच जाते थे। आजकल ये खाने के सामान के लिए लोगों के पिट्ठू बैग को चीर देते हैं, और कार के वाइपर निकाल देते हैं।

यह देखने के लिए कि क्या किआ तोतों की शैतानी के साथ बुद्धिमत्ता जुड़ी है, युनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड की मनोविज्ञानी एमालिया बास्टोस और उनके साथियों ने न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च के पास स्थित अभयारण्य के छह किआ तोतों का अध्ययन किया। पहले तो शोधकर्ताओं ने तोतों को यह सिखाया कि काले रंग का टोकन चुनने पर हमेशा स्वादिष्ट भोजन मिलता है जबकि नारंगी टोकन से कभी भोजन नहीं मिलता। फिर उनके सामने पारदर्शी मर्तबानों में काले और नारंगी रंग के टोकन रखे गए। जब शोधकर्ताओं ने बंद मुट्ठी में मर्तबान से टोकन निकाले तब किआ तोते ने अधिकतर उन हाथों को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले थे जिनमें नारंगी टोकन की तुलना में काले टोकन अधिक थे। ऐसा उन्होंने तब भी किया जब मर्तबानों में काले और नारंगी टोकन के बीच अंतर बहुत कम था (63 काले और 57 नारंगी)।

अगले परीक्षण में शोधकर्ताओं ने किआ तोतों के सामने दो पारदर्शी मर्तबान में दोनों रंगों के टोकन बराबर संख्या में रखे। लेकिन मर्तबानों को एक शीट की मदद से ऊपरी व निचले दो हिस्सों में बांटा गया था। हालांकि दोनों मर्तबानों में काले व नारंगी टोकन बराबर संख्या में थे लेकिन एक में ऊपर वाले खंड में ज़्यादा काले टोकन थे। शोधकर्ता मात्र ऊपर वाले खंड में हाथ डाल सकता था। इस स्थिति में किआ ने उन हाथों को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले जिसके ऊपरी हिस्से में काले टोकन अधिक थे। इसके बाद किए गए अंतिम परीक्षण में भी किआ तोते ने उस शोधकर्ता के हाथ से टोकन लेना ज़्यादा पसंद किया जिसने काले टोकन अधिक बार निकाले थे।

इन परीक्षणों के आधार पर नेचर कम्युनिकेशन पत्रिका में शोधकर्ताओं का कहना है कि किआ तोतों में आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाने की क्षमता होती है। इससे लगता है कि मनुष्यों की तरह किआ में भी कई किस्म की सूचनाओं को एकीकृत करने की बौद्धिक क्षमता होती है। गौरतलब है कि पक्षियों और मनुष्यों के साझे पूर्वज लगभग 31 करोड़ वर्ष पूर्व थे, और दोनों की मस्तिष्क की संरचना भी काफी अलग है। एक मत यह रहा है कि इस तरह की बुद्धि के लिए भाषा की ज़रूरत होती है।

अलबत्ता, हार्वड युनिवर्सिटी की तोता संज्ञान विशेषज्ञ आइरीन पेपरबर्ग को लगता है कि किआ ने सहज ज्ञान का प्रदर्शन किया है ना कि सांख्यिकीय समझ का। लेकिन उन्हें यह भी लगता है यदि किआ में सांख्यिकीय अनुमान लगाने की क्षमता होती है तो इस तरह की क्षमता से लैस जानवर भोजन की मात्रा की उपलब्धता और प्रजनन-साथियों की संख्या का अंदाज़ा लगा पाएंगे जो फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)

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भेड़ियों की नई प्रजाति विकसित हुई

पृथ्वी के सबसे ऊंचे पहाड़ों के घास के मैदानों में विशेष प्रकार के भेड़िए पाए जाते हैं। उत्तरी भारत, नेपाल, और चीन में पाए जाने वाले ये भेड़िए अपनी लंबी थूथन, हल्के रंग की ऊनी खाल और मोटी आवाज़ के लिए जाने जाते हैं। लेकिन हालिया अध्ययन से पता चला है कि ये रंग-रूप में ही नहीं बल्कि आसपास के इलाकों में पाए जाने वाले अन्य मटमैले भेड़ियों से जेनेटिक रूप से भी अलग हैं। ये जेनेटिक परिवर्तन उनको 4000 मीटर ऊंचाई की विरल हवा में जीने में मदद करते हैं।

इस अध्ययन के प्रमुख और कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के कैनाइन विकास विशेषज्ञ बेन सैक्स के अनुसार यह इन हिमालयी भेड़ियों को विशिष्ट बताने वाले प्रथम प्रमाण हैं। यह खोज  इस बात का समर्थन करती है कि इन्हें एक अलग प्रजाति के रूप में पहचाना जाना चाहिए। नए अध्ययन से यह भी पता चला है कि इस भेड़िए का इलाका पहले के अनुमान से दुगना है।  

हिमालयी भेड़िए अन्य मटमैले भेड़ियों की तुलना में अधिक ऊंचाई पर रहते हैं और इनकी आदतें भी अलग हैं। ये पूर्वी चीन, मंगोलिया और किर्गिज़स्तान के इलाकों में पाए जाते हैं। मटमैले भेड़िए जहां चूहे, गिलहरी आदि जीवों का शिकार करते हैं वहीं हिमालयी भेड़िए इनके साथ कभी-कभी तिब्बती चिकारों का भी शिकार करते हैं। इनकी गुर्राहट मटमैले भेड़ियों की तुलना में छोटी अवधि की और भारी आवाज़ वाली होती है।  

अब किर्गिज़स्तान, चीन के तिब्बतीय पठार और ताजीकस्तान के भेड़ियों के मल से प्राप्त नमूनों के विश्लेषण से इनके एक अलग नस्ल होने का जेनेटिक प्रमाण मिला है। शोधकर्ताओं ने 86 हिमालयी भेड़ियों के मल में डीएनए का अध्ययन किया। विश्लेषण से पता चला कि मटमैले भेड़ियों की तुलना में हिमालयी भेड़ियों में कुछ विशेष जीन होते हैं जो उन्हें ऑक्सीजन की कमी से निपटने में मदद करते हैं। ये जीन उनके ह्मदय को भी मज़बूत करते हैं और रक्त के ज़रिए ऑक्सीजन के प्रवाह को बढ़ाते हैं। जर्नल ऑफ बायोजियोग्राफी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार इसी प्रकार के अनुकूलन तिब्बती लोगों और उनके पालतू कुत्तों और याक में भी पाए जाते हैं।  

शोधकर्ताओं के अनुसार ऊंचे इलाकों में रहने वाले इस जीव को एक अलग प्रजाति के रूप में देखा जाना चाहिए। कम से कम, इसे जैव विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण इकाई तो माना ही जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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क्यों करती है व्हेल हज़ारों किलोमीटर का प्रवास

वैज्ञानिकों को समझ नहीं आता था कि तमाम किस्म की व्हेल – हम्पबैक, ब्लू व्हेल, स्पर्म व्हेल और किलर व्हेल – हर साल हज़ारों किलोमीटर की प्रवास यात्राएं क्यों करती हैं। ये व्हेल आर्कटिक और अंटार्कटिक के अपने सामान्य भोजन स्थल से कई हज़ार कि.मी. दूर गर्म समुद्रों में प्रवास करती हैं। आने-जाने में यह यात्रा करीब 18,000 कि.मी. की होती है।

पहले कुछ वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि शायद ये व्हेल प्रजनन हेतु प्रवास करती हैं। उनका कहना था कि आर्कटिक और अंटार्कटिक में कई शिकारी पाए जाते हैं, जिसकी वजह से यहां बच्चे पैदा करना खतरे से खाली नहीं है। लेकिन इनके प्रवास के सही कारण का पता करने हेतु हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चला है कि ये व्हेल प्रजनन हेतु नहीं बल्कि अपनी त्वचा को स्वस्थ रखने हेतु प्रवास करती हैं।

ओरेगन विश्वविद्यालय के मरीन मैमल्स इंस्टिट्यूट के रॉबर्ट पिटमैन और उनके साथियों ने चार किस्म की किलर व्हेल पर 62 उपग्रह बिल्ले चस्पा कर दिए जिनकी मदद से वे इनकी गतिविधियों पर नज़र रख सकते थे। दक्षिणी गोलार्ध की 8 गर्मियों तक नज़र रखने के बाद शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि ये व्हेल पश्चिमी दक्षिण अटलांटिक महासागर तक 9400 कि.मी. की यात्रा करती हैं। लेकिन वे यह यात्रा प्रजनन के लिए नहीं करतीं क्योंकि तस्वीरों में साफ दिख रहा था कि उनके नवजात शिशु तो अंटार्कटिक महासागर में अठखेलियां कर रहे थे। यानी प्रजनन हेतु प्रवास की परिकल्पना सही नहीं है।

शोधकर्ता जानते थे कि मनुष्यों के समान व्हेल की त्वचा की कोशिकाएं भी लगातार झड़ती रहती हैं। यह झड़ना इतना अधिक होता है कि आप सिर्फ झड़ी हुई कोशिकाओं की लकीर देखकर पता कर सकते हैं कि व्हेल किस ओर गई है। लेकिन व्हेल के सामान्य निवास अंटार्कटिक का पानी बहुत ठंडा होता है जिसकी वजह से शायद व्हेल की त्वचा की कोशिकाएं झड़ नहीं पाती हैं। इन कोशिकाओं पर डायटम नामक सूक्ष्मजीवों की मोटी परत बन जाती है जहां बैक्टीरिया वगैरह घर बना लेते हैं। यह व्हेल के लिए हानिकारक होता है। पिटमैन का कहना है कि व्हेल इतनी लंबी यात्रा गर्म समुद्रों में कोशिकाओं की इस परत और बैक्टीरिया से छुटकारा पाने के लिए करती हैं। वैसे कुछ शोधकर्ताओं ने 2012 में सुझाया था कि अंटार्कटिक के ठंडे पानी में शरीर की गर्मी को बचाने के लिए किलर व्हेल खून का प्रवाह चमड़ी से थोड़ा दूर अंदर की ओर कर देती हैं। इसकी वजह से त्वचा की कोशिकाओं का पुनर्निर्माण रुक-सा जाता है। इसी वजह से अंतत: व्हेल गर्म पानी की ओर चल पड़ती हैं जहां उनकी शरीर क्रियाएं और त्वचा का झड़ना और पुनर्निर्माण तेज़ हो जाता है। मरीन मैमल साइन्स में प्रकाशित नए अध्ययन के आधार पर सुझाया गया है कि सिर्फ किलर व्हेल ही नहीं बल्कि तमाम किस्म की व्हेल त्वचा-मोचन के लिए यात्रा करती हैं। वैसे देखा जाए तो यह भी अभी एक परिकल्पना ही है। (स्रोत फीचर्स)

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नींद को समझने में छिपकली की मदद

नींद की उत्पत्ति को समझते हुए वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलिया की एक छिपकली में कुछ महत्वपूर्ण सुराग हासिल किए हैं। ऑस्ट्रेलियन दढ़ियल ड्रेगन (Pogona vitticeps) में नींद से जुड़े तंत्रिका संकेतों को देखकर शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि जटिल नींद का विकास शायद पक्षियों और स्तनधारियों से बहुत पहले हो चुका था। और उनका मानना है कि यह अनुसंधान मनुष्यों को चैन की नींद सुलाने में मददगार साबित होगा।

गौरतलब है कि पक्षियों और स्तनधारियों में नींद दो प्रकार की होती है। एक है रैपिड आई मूवमेंट (REM) नींद जिसके दौरान आंखें फड़फड़ाती हैं, विद्युत गतिविधि मस्तिष्क में गति करती है और मनुष्यों में सपने आते हैं। ङकग् नींद के बीच-बीच में ‘धीमी तरंग’ नींद होती है। इस दौरान मस्तिष्क की क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं और विद्युत सक्रियता एक लय में चलती हैं। कुछ अध्ययनों से पता चला है कि इस हल्की-फुल्की नींद के दौरान स्मृतियों का निर्माण होता है और उन्हें सहेजा जाता है।

2016 में मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर ब्रेन रिसर्च के गिल्स लॉरेन्ट ने खोज की थी कि सरिसृपों में भी दो तरह की नींद पाई जाती है। हर 40 सेकंड में दढ़ियल ड्रेगन इन दो नींद के बीच डोलता है। लेकिन यह पता नहीं लग पाया था कि मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा इन दो तरह की नींदों का संचालन करता है। लॉरेन्ट की टीम ने दढ़ियल ड्रेगन के मस्तिष्क की पतली कटानों में इलेक्ट्रोड्स की मदद से देखने की कोशिश की कि कौन-सी विद्युतीय गतिविधि धीमी तरंग नींद से सम्बंधित है। गौरतलब है कि ऐसी विद्युतीय सक्रियता मृत्यु के बाद भी जारी रह सकती है।

पता चला कि ड्रेगन के मस्तिष्क के अगले भाग में विद्युत क्रिया होती है। यह एक हिस्सा है जिसका कार्य अज्ञात था। और इसके बाद एक अनपेक्षित मददगार बात सामने आई।

लॉरेन्ट के कुछ शोध छात्र छिपकली के मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों में जीन्स की सक्रियता की तुलना चूहों के मस्तिष्क में जीन अभिव्यक्ति से करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पाया कि छिपकली के मस्तिष्क का जो हिस्सा धीमी तरंग नींद पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार है उसमें जीन्स की सक्रियता चूहों के दिमाग के उस हिस्से से मेल खाती है जिसे क्लॉस्ट्रम कहते हैं। जीन अभिव्यक्ति में इस समानता से संकेत मिला कि संभवत: सरिसृपों में भी क्लॉस्ट्रम पाया जाता है। लॉरेन्ट का कहना है कि क्लॉस्ट्रम नींद को शुरू या खत्म नहीं करता बल्कि मस्तिष्क में नींद के केंद्र से संकेत ग्रहण करता है और फिर पूरे दिमाग में धीमी तरंगें प्रसारित करता है।

चूंकि सरिसृपों में भी क्लॉस्ट्रम पाया गया है, इसलिए ये जंतु नींद के अध्ययन के लिए अच्छे मॉडल का काम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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आसान नहीं है चीतों का पुनर्वास – प्रमोद भार्गव

भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में औद्योगिक विकास और बढ़ते शहरीकरण के चलते वन्य जीवों के सामने चुनौतीपूर्ण हालात उत्पन्न हो गए हैं। उनके संरक्षण एवं पुनर्वास की अनेक कोशिशों के बावजूद न तो संरक्षण की स्थिति संतोषजनक हुई है और न ही गिरवन के सिंह जैसे दुर्लभ प्राणियों का पुनर्वास कूनो-पालपुर अभयारण्य में संभव हो पाया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने 74 साल पहले भारत में पूरी तरह लुप्त हो चुके चीते के पुनर्वास की अनुमति मध्यप्रदेश सरकार के वन विभाग को दी थी। टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त मध्यप्रदेश में इन चीतों को दक्षिण अफ्रीका के नमीबिया से लाकर सागर जिले के नौरादेही अभयारण्य में नया ठिकाना बनाया जाएगा। यहां पिछले एक दशक से चीतों को बसाने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाई जा रही हैं। दरअसल, चीते को घास के मैदान वाले जंगल पसंद हैं और नौरादेही इसी के लिए जाना जाता है। हालांकि इन्हें बसाने के विकल्प के रूप में श्योपुर ज़िले का कूनो-पालपुर अभयारण्य और राजस्थान के शाहगढ़ व जैसलमेर के थार क्षेत्र भी तलाशे गए थे, लेकिन इन वनखंडों में चीतों के अनुकूल प्राकृतिक आहार, प्रजनन व आवास की सुविधा न होने के कारण नौरादेही को ज़्यादा श्रेष्ठ माना गया। यह अनुमति राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की याचिका पर दी गई है।

एक समय था जब चीते की रफ्तार भारतीय वनों की शान हुआ करती थी। लेकिन 1947 आते-आते चीतों की आबादी पूरी तरह लुप्त हो गई। 1948 में अंतिम चीता छत्तीसगढ़ के सरगुजा में देखा गया था जिसे मार गिराया गया था। चीता तेज़ रफ्तार का आश्चर्यजनक चमत्कार माना जाता है। अपनी विशिष्ट लोचपूर्ण देहयष्टि के लिए भी इस हिंसक वन्य जीव की अलग पहचान थी। शरीर में इसी चपलता के कारण यह सबसे तेज़ धावक था। इसलिए इसे जंगल की बिजली भी कहा गया।

मध्यप्रदेश में चीतों की बसाहट की जाती है तो नौरादेही के 53 आदिवासी बहुल ग्रामों को विस्थापित करना होगा। इस अभयारण्य के विस्तार के लिए 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र प्रस्तावित है। यह इलाका सागर, नरसिंहपुर एवं छतरपुर ज़िलों में फैला हुआ है। सबसे ज़्यादा विस्थापित किए जाने वाले 20 गांव सागर ज़िले में हैं। इनमें से 10 गांवों का विस्थापन पहले ही किया जा चुका है। शेष छतरपुर व नरसिंहपुर ज़िलों के राजस्व ग्राम हैं, जिनका विस्थापन होना है। अर्थात जितना कठिन चीतों का पुनर्वास है, उससे ज़्यादा कठिन व खर्चीला काम गांवों का विस्थापन है। देश में चीतों एवं सिंहों के पुनर्वास के प्रयत्न अब तक असफल ही रहे हैं। 

दरअसल, 1993 में चार चीते दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से दिल्ली के चिड़ियाघर में लाए गए थे। वैसे चीतों द्वारा चिड़ियाघरों में प्रजनन अपवाद घटना होती है लेकिन चिड़ियाघर में इनके आवास, परवरिश व प्रजनन के पर्याप्त उपाय किए गए थे। लिहाज़ा उम्मीद थी कि ये वंशवृद्धि करेंगे और इनकी संतानों को देश के अन्य चिड़ियाघरों व अभयारण्यों में स्थानांतरित किया जाएगा। बदकिस्मती से, प्रजनन से पहले ही चीते मर गए।

बीती सदी में चीतों की संख्या एक लाख तक थी, लेकिन अफ्रीका के खुले घास वाले जंगलों से लेकर भारत सहित लगभग सभी एशियाई देशों में पाए जाने वाला चीते अब पूरे एशियाई जंगलों में गिनती के रह गए हैं। राजा चीता (एसिनोनिक्स रेक्स) जिम्बाब्वे में मिलता है। अफ्रीका के जंगलों में भी गिने-चुने चीते रह गए हैं। तंजानिया के सेरेंगटी राष्ट्रीय उद्यान और नमीबिया के जंगलों में भी गिनती के चीते ही हैं।

प्रजनन के तमाम आधुनिक व वैज्ञानिक उपायों के बावजूद जंगल की इस फुर्तीली नस्ल की संख्या बढ़ाई नहीं जा पा रही है। ज़ुऑलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया में 91 प्रतिशत चीते 1991 में ही समाप्त हो चुके थे। अब पूरी दुनिया में केवल 7100 चीते बचे हैं। एशिया के ईरान में केवल 50 चीते शेष हैं। अफ्रीकी देश केन्या के मासाईमारा क्षेत्र को चीतों का गढ़ माना जाता था, लेकिन अब वहां इनकी संख्या गिनती की रह गई है।  

इस सदी के पांचवे दशक तक चीते अमेरिका के चिड़ियाघरों में भी थे। प्राणि विशेषज्ञों की अनेक कोशिशों के बाद इन चीतों ने 1956 में शिशुओं को जन्म भी दिया था। पर किसी भी शिशु को बचाया नहीं जा सका। चीते द्वारा किसी चिड़ियाघर में जोड़ा बनाने की यह पहली घटना थी, जो नाकाम रही। जंगल के हिंसक जीवों का प्रजनन चिड़ियाघरों में आश्चर्यजनक ढंग से प्रभावित होता है, इसलिए शेर, बाघ, तेंदुए व चीते चिड़ियाघरों में जोड़ा बनाने की इच्छा नहीं रखते हैं।

भारत में चीतों की अंतिम पीढ़ी के कुछ सदस्य 1947 में बस्तर-सरगुजा के घने जंगलों में देखे गए थे। प्रदेश अथवा भारत सरकार इनके संरक्षण के ज़रूरी उपाय करने हेतु हरकत में आती, इससे पहले ही चीतों के इन अंतिम वंशजों को भी शिकार के शौकीन राजा-महाराजाओं ने मार गिराया। इस तरह भारतीय चीतों की नस्ल पर पूर्ण विराम लग गया।

हमारे देश के राजा-महाराजाओं को घोड़ों और कुत्तों की तरह चीते पालने का भी शौक था। चीता-शावकों को पालकर इनसे जंगल में शिकार कराया जाता था। राजा लोग जब जंगल में आखेट के लिए जाते थे, तो प्रशिक्षित चीते को बैलगाड़ी में बिठाकर साथ ले जाते थे। उसकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती थी, ताकि वह किसी मामूली वन्य जीव पर न झपटे। जब शिकार राजाओं की दृष्टि के दायरे में आ जाता, तो चीते की आंखों की पट्टी खोलकर शिकार की दिशा में हाथ से इशारा कर दिया जाता था। पलक झपकते ही शिकार चीते के कब्जे में होता। शिकार का यह अद्भुत करिश्मा देखना भी रोमांच की बात रही होगी।

भारत के कई राजमहलों में पालतू चीतों से शिकार करवाने के अनेक चित्र अंकित हैं। मुगल काल में अकबर ने सैकड़ों चीतों को बंधक बनाकर पाला। मध्यप्रदेश में मांडू विजय से लौटने के बाद अकबर ने चंदेरी और नरवर (शिवपुरी) के जंगलों में चीतों से वन्य प्राणियों का शिकार कराया। नरवर के जंगलों में अकबर ने जंगली हाथियों का भी खूब शिकार किया। ग्वालियर रियासत में सिंधिया राजा ने भी चीते पाले हुए थे, लेकिन चीतों को पाले जाने का शगल ग्वालियर रियासत में उन्नीसवीं सदी के अंत तक ही संभव रहा।

मार्को पोलो ने तेरहवीं शताब्दी के एक दस्तावेज़ के हवाले से बताया है कि कुबलई खान ने अपने कारोबारी पड़ाव पर एक हज़ार से भी अधिक चीते पाल रखे थे। इन चीतों के लिए अलग-अलग अस्तबल थे। चीते इस पड़ाव की चौकीदारी भी करते थे। बड़ी संख्या में चीतों को पालतू बनाने से इनके प्रकृतिजन्य स्वभाव और प्रजनन क्रिया पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ा। गुलामी की ज़िंदगी व सईस के हंटर की फटकार की दहशत ने इन्हें मानसिक रूप से दुर्बल बना दिया। जब चाहे तब भेड़-बकरियों की तरह हांक लगा देने से भी इनकी सहजता प्रभावित हुई। चीतों की ताकत में कमी न आए इसके लिए इन्हें मादाओं से अलग रखा जाता था। बैलों की तरह नर चीतों को बधिया करने की क्रूरताएं भी राजा-महाराजाओं ने खूब अपनार्इं।

चीते की लंबाई साढ़े चार से पांच फीट होती है। बिल्ली प्रजाति के प्राणियों में चीते की पूंछ सबसे ज़्यादा लंबी होती है। पूंछ की लंबाई तीन से साढ़े तीन फीट होती है। इसकी टांगें लंबी और कमर पतली होती है। पूरे तन पर छोटे-बड़े काले गोल-गोल धब्बे होते हैं। इसकी आंखों की कोरों से काली धारियां निकलकर इसके मुख तक आती हैं। ये धारियां बिल्ली प्रजाति के अन्य प्राणियों में नहीं होतीं। इसके गालों का हिस्सा उभरा हुआ होता है तथा सिर शरीर के अनुपात में थोड़ा छोटे होने के साथ धनुषाकार होता है, जिससे दौड़ते वक्त फेफड़ों से छोड़ी गई हवा के आवागमन कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।

चीते की तेज़ गति में सबसे ज़्यादा सहायक है इसकी छल्लों युक्त रीढ़ की हड्डी। इन्हीं छल्लों के कारण रीढ़ की हड्डी में ज़बरदस्त लोच होता है। गति पकड़ने के लिए अगले व पिछले पैर फेंकते वक्त यह आश्चर्यजनक ढंग से झुक जाती है व स्प्रिंग की तरह फैल जाती है। इसी विशिष्टता के कारण चीता जब दौड़ने की शुरुआत करता है, तो दो सेकंड के भीतर 72 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पकड़ लेता है। बाद में इसकी यह रफ्तार 115 से 120 किलोमीटर प्रति घंटा तक पहुंच जाती है। यह क्षमता जंगल के किसी अन्य प्राणी में नहीं पाई जाती। लेकिन चीते की यह रफ्तार कुछ गज़ की दूरी तक ही स्थिर रह पाती है। अपनी इसी रफ्तार के कारण चीता काला हिरण को दबोचने वाला एकमात्र हिंसक प्राणी था। काला हिरण शाकाहारी प्राणियों में सबसे तेज़ दौड़ने वाले प्राणी है। अब खुले जंगल में काले हिरण को पकड़ने का बीड़ा बिल्ली प्रजाति का कोई भी प्राणि नहीं उठाता।

चीता बिल्ली प्रजाति के अन्य प्राणियों की तरह अपना शिकार रात में न करके दिन में करता है। इसके ज़्यादातर शिकार छोटे प्राणी होते हैं। शिकार दृष्टिगत होते ही चीता शिकार की तरफ दबे पैरों से आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता है और जैसे ही शिकार इसकी तूफानी गति के दायरे में आ जाता है, यह तत्परता से गति में आकर शिकार को दबोच लेता है। यह कार्रवाई इतनी आनन-फानन में होती है कि शिकार संभल भी नहीं पाता। चीता अपनी कोशिश में यदा-कदा ही नाकाम होता है। इसके प्रिय शिकार काला हिरण और चिंकारा हैं। शिकार से उदरपूर्ति करने के बाद चीता चट्टानों की गहरी गुफाओं अथवा घने जंगलों में आराम फरमाता है।

चीते दो-तीन के झुंडो में भी रह लेते हैं, और अकेले भी, लेकिन ज़्यादातर अकेले रहना पसंद करते हैं। इनके जोड़ा बनाने का समय तय नहीं होता। ये पूरे साल जोड़ा बनाने में सक्षम होते हैं।

शिशुओं की उम्र तीन माह की हो जाने के बाद ही इनके बदन पर काले धब्बे उभरना शुरू होते हैं। चिड़ियाघरों में चीतों की आयु 15-16 वर्ष तक देखी गई है। इनकी औसत आयु 20 साल तक होती है।

दरअसल, एक ओर तो हम विलुप्त होते प्राणियों के संरक्षण में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ आधुनिक विकास इनके प्राकृतिक आवास उजाड़ रहा है। पर्यटन से हम आमदनी की बात चाहे जितनी करें, लेकिन पर्यटकों को बाघ, तेंदुआ व अन्य दुर्लभ प्राणियों को निकट से दिखाने की सुविधाएं, इनके स्वाभाविक जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती है। यहां चीते जैसे प्राणियों के आचार-व्यवहार के साथ संकट यह भी है कि ये नई जलवायु में आसानी से ढल नहीं पाते हैं। अत: यह आशंका बरकरार है कि कहीं कूनो-पालपुर की तरह करोड़ों रुपए खर्च करने और 22 ग्रामों को विस्थापित करने के बाद भी नौरादेही में चीते की चाल स्वप्न बनकर ही न रह जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बिल्ली को मिली कृत्रिम पैरों की सौगात

हाल ही में रूस के नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय के पशु चिकित्सकों ने अपने चारों पैर गंवा चुकी एक बिल्ली में 3-डी प्रिंटिंग की मदद से बनाए गए कृत्रिम पैर सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिए हैं। इनकी मदद से वह चल-फिर सकती है, दौड़ सकती है और यहां तक कि सीढ़ियां भी चढ़ सकती है।

भूरे बालों वाली डाइमका नामक यह बिल्ली दिसंबर 2018 में साइबेरिया के नोवाकुज़नेत्स्क नाम की जगह पर एक मुसाफिर को बर्फ में दबी हुई मिली थी। उसने उसे वहां से निकालकर नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय पहुंचा दिया था। डाइमका तुषाराघात की शिकार हुई थी और अपने चारों पैर, कान और पूंछ गंवा चुकी थी।

तुषाराघात यानी फ्रॉस्ट बाइट तब होता है जब अत्यंत कम तापमान त्वचा व अंदर के ऊतकों को जमा देता है। खासकर नाक, उंगलियां और पंजे ज़्यादा प्रभावित होते हैं। पैरों की हालात देखकर पशु चिकित्सक सर्जेई गोर्शकोव ने उसे कृत्रिम पैर लगाना तय किया। उन्होंने टोम्स पॉलिटेक्निक युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर डाइमका के लिए कृत्रिम पैर तैयार किए।

इसके लिए उन्होंने कंप्यूटेड टोमोग्राफी (सीटी) एक्स-रे स्कैन की मदद से डाइमका के पैरों की माप लेकर टाइटेनियम रॉड की त्रि-आयामी प्रिंटिंग करके कृत्रिम पैर बनाए। प्रत्यारोपण के बाद डाइमका में संक्रमण और रिजेक्शन की संभावना कम करने के लिए टाइटेनियम से बने पैरों पर कैल्शियम फॉस्फेट की परत चढ़ाई गई। जुलाई 2019 में डाइमका को सामने के दो और उसके बाद पीछे के दो कृत्रिम पैर प्रत्यारोपित किए गए। प्रत्यारोपण के सात महीने बाद जारी किए गए वीडियो में डाइमका अंगड़ाई लेती, चलती और कंबल के कोने से खेलती दिखाई दी।

गोर्शकोव ने दी मास्को टाइम्स को बताया कि साइबेरिया के हाड़-मांस गला देने वाले ठंड के मौसम के दौरान उनके चिकित्सालय में हर साल ऐसी पांच से सात बिल्लियों का उपचार किया जाता है जो तुषाराघात के कारण अपने पैर, नाक, कान और पूंछ गंवा देती हैं।  

डाइमका अब दुनिया की दूसरी बिल्ली है जिसे धातु से बने चारों पैर सफलतापूर्वक लगाए जा चुके हैं। इसके पहले साल 2016 में भी इसी प्रक्रिया से एक नर बिल्ली को चारों पैर लगाए गए थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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