पश्चिमी घाट में मेंढक की नई प्रजाति मिली

हाल ही में केरल के वायनाड़ ज़िले के पश्चिमी घाट इलाके में वैज्ञानिकों को मेंढक की नई प्रजाति मिली है। इन मेंढकों के पेट नारंगी रंग के हैं। और शरीर के दोनों तरफ हल्के नीले सितारों जैसे धब्बे हैं और उंगलियां तिकोनी हैं। शोघकर्ताओं ने नेचर इंडिया पत्रिका में बताया है कि इन मेंढकों को छुपने में महारत हासिल है। ज़रा-सा भी खटका या सरसराहट होने पर ये उछल कर  पत्ते या घास के बीच छुप जाते हैं।

चूंकि इनके शरीर पर सितारानुमा धब्बे हैं और ये कुरुचियाना जनजाति बहुल वायनाड़ ज़िले में मिले हैं, इसलिए शोधकर्ताओं ने इन मेंढकों को एस्ट्रोबेट्रेकस कुरुचियाना नाम दिया है।

मेंढक की यह प्रजाति सबसे पहले 2010 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के एस.पी. विजयकुमार ने पहचानी थी। बारीकी से अध्ययन करने पर पता चला कि ये पश्चिमी घाट के अन्य मेंढकों की तरह नहीं है। इसके बाद उन्होंने युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा के डेविड ब्लैकबर्न और जॉर्ज वाशिंगटन युनिवर्सिटी के एलेक्स पायरॉन की मदद से मेंढक की हड्डियों और जीन का विश्लेषण किया। हड्डियों की जांच में उन्होंने पाया कि यह मेंढ़क निक्टिबेट्रेकिडी कुल का है। इस कुल के मेंढकों की लगभग 30 प्रजातियां भारत और श्रीलंका में पाई जाती हैं। और जेनेटिक विश्लेषण से लगता है कि ये मेंढक 6-7 करोड़ वर्ष पूर्व अपनी करीबी प्रजातियों से अलग विकसित होने शुरू हुए थे।

यह वह समय था जब भारत अफ्रीका और मैडागास्कर से अलग होकर उत्तर की ओर सरकते हुए एशिया से टकराया था और हिमालय बना था। भारत के लंबे समय तक किसी अन्य स्थान से जुड़ाव न होने के कारण यहां नई प्रजातियों का विकास हुआ, और उन प्रजातियों को भी संरक्षण मिला जो अन्य जगह किन्हीं कारणों से लुप्त हो गर्इं।

इस नई प्रजाति के सामने आने से एक बार फिर पश्चिमी घाट जैव विविधता के हॉटस्पॉट के रूप में सामने आया है, खास तौर से उभयचर जीवों के मामले में। इस व अन्य प्रजातियों की खोज से पश्चिमी घाट के मेंढकों की विविधता के पैटर्न को समझने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर की एक नई नन्ही प्रजाति

वैज्ञानिकों हाल ही में मिले डायनासौर के जीवाश्म इस बात की ओर इशारा करते हैं कि कंगारू के आकार के फुर्तीले डायनासौर ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका के बीच की प्राचीन भ्रंश घाटी में रहते थे।

ऑस्ट्रेलिया में साढ़े बारह करोड़ वर्ष पुरानी चट्टानों की खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को कंगारू जितने बड़े डायनासौर के जीवाश्म मिले हैं। ये जीवाश्म डायनासौर के जबड़ों के हैं। इन जबड़ों की बनावट उल्टे गैलियन जहाज़ों के ढांचे जैसी है। जबड़ों की गैलियन नुमा बनावट और जीवाश्म विज्ञानी डोरिस सीगेट्स-डीविलियर्स के नाम पर इस डायनासौर को गैलिनोसौरस डोरिसी नाम दिया है।

गैलिनोसौरस डोरिसी की हड्डियों का विश्लेषण करने पर पता चला कि ये डायनासौर ऑर्निथोपॉड थे यानि इनके पैर पक्षियों के पैरों की तरह थे। ये अपने पिछले मज़बूत पैरों के सहारे चलते और दौड़ते थे और शाकाहारी थे। 

न्यू इंगलैंड युनिवर्सिटी के मैथ्यू हर्न और उनकी टीम ऑस्ट्रेलिया के गोंडवाना महाद्वीप के सरकने के दौरान ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका और अंटार्कटिका के बीच डायनासौर के स्थानांतरण का मानचित्रण कर रहे हैं। पिछले साल भी हर्न की टीम ने इसी जगह एक ऑर्नीथोपॉड डायनासौर की पहचान की थी। इसे डिलुविकरसौर पिकरिंगी नाम दिया गया था जो गैलिनोसौरस डायनासौर का करीबी रिश्तेदार है। लेकिन गैलिनोसौरस डायनासौर डिलुविकरसौर से लगभग सवा करोड़ साल पहले के थे। टीम का मत है कि गैलिनोसौरस उत्तरी अमेरिका और चीन की बजाय पैटागोनिया में रहने वाली डायनासौर प्रजातियों से ज़्यादा मिलते-जुलते हैं।

गैलिनोसौरस के जीवाश्म जिन चट्टानों में मिले हैं वे ज्वालामुखी से निकली चट्टानें हैं। क्रिटेशियस युग के दौरान, जब ये डायनासौर रहा करते थे, तब पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में सक्रिय ज्वालामुखी का लावा नदियों के साथ बहकर इस घाटी में आया होगा। नदियों द्वारा बहाकर लाई गई गाद घाटी में जमा होने से मैदान बने। इन मैदानों में डायनासौर और अन्य जानवर रहने लगे।

इस अध्ययन से लगता है कि क्रिटेशियस युग के दौरान अंटार्कटिका से होकर ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बीच सेतु मौजूद रहा होगा जिसके कारण इन महाद्वीपों के डायनासौर के बीच करीबी आनुवंशिक सम्बंध दिखते हैं।

गैलिनोसौरस इस क्षेत्र में पांचवा ऑर्निथोपॉड प्रजाति का डायनासौर मिला है जिससे यह पता चलता है कि छोटे कद-काठी वाले डायनासौर काफी विविध स्थानों पर फैले हुए थे जो ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका के बीच की घाटी में पनपे थे जहां से ये महाद्वीप अलग-अलग हुए थे। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्री जीवों के लिए जानलेवा हैं गुब्बारे

गभग 1,700 से अधिक मृत समुद्री पक्षियों के हालिया सर्वेक्षण में मालूम चला है कि एक चौथाई से अधिक मौतें प्लास्टिक खाने से हुई हैं। इसमें देखा जाए तो 10 में से चार मौतें गुब्बारे जैसा नरम कचरा खाने से हुई हैं जो अक्सर प्लास्टिक से बने होते हैं। भले ही पक्षियों के पेट में केवल 5 प्रतिशत अखाद्य कचरा मिला हो लेकिन यह जानलेवा साबित हुआ है।

समुद्री पक्षी अक्सर भोजन की तरह दिखने वाले तैरते हुए कूड़े को खा जाते हैं। एक बार निगलने के बाद यह पक्षियों की आंत में अटक जाता है और मौत का कारण बनता है। शोधकर्ताओं के अनुसार अगर कोई समुद्री पक्षी गुब्बारा निगलता है, तो उसके मरने की संभावना 32 गुना अधिक होती है।

इस अध्ययन के प्रमुख यूनिवर्सिटी ऑफ तस्मानिया, ऑस्ट्रेलिया के डॉक्टरेट छात्र लॉरेन रोमन के अनुसार अध्ययन किए गए पक्षियों की मृत्यु का प्रमुख कारण आहार नाल का ब्लॉकेज था, जिसके बाद संक्रमण या आहार नाल में अवरोध के कारण अन्य जटिलताएं उत्पन्न हुई थीं।

ऐसा माना जाता है कि दुनिया भर में लगभग 2,80,000 टन तैरता समुद्री कचरा लगभग आधी समुद्री प्रजातियों द्वारा निगला जाता है। जिसमें पक्षियों द्वारा गुब्बारे निगलने की संभावना सबसे अधिक होती है क्योंकि वे उनके भोजन स्क्विड जैसे दिखते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या कोई जीव नींद के बिना जीवित रह सकता है?

म अगर एक रात भी ठीक से नींद न ले सकें तो अगले दिन काम करने में काफी संघर्ष करना पड़ता है। लंबे समय तक ठीक से नींद न आए तो ह्मदय रोग और स्ट्रोक से लेकर वज़न बढ़ने और मधुमेह जैसे नकारात्मक प्रभाव दिखने लगते हैं। जानवर भी ऊंघते हैं। इससे तो लगता है कि सभी जानवरों के लिए नींद का कुछ महत्व है।

सवाल यह है कि नींद की भूमिका क्या है? क्या नींद मस्तिष्क को क्षति की मरम्मत और सूचना को सहेजने का अवसर देती है? क्या यह शरीर में ऊर्जा विनियमन के लिए आवश्यक है? वैज्ञानिकों ने नींद की कई व्याख्याएं की हैं लेकिन एक सटीक उत्तर का इंतज़ार आज भी है।

1890 के दशक में रूस की एक चिकित्सक मैरी डी मेनासीना नींद की एक गुत्थी से परेशान थीं। उनका ख्याल था कि जब हम जीवन को भरपूर जीना चाहते हैं तो क्यों अपने जीवन का एक-तिहाई भाग सोकर गुज़ार देते हैं। इस रहस्य को जानने के लिए उन्होंने जानवरों में पहला निद्रा-वंचना प्रयोग किया। मेनासीना ने पिल्लों को लगातार जगाए रखा और यह पाया कि नींद की कमी के कारण कुछ दिनों में उन पिल्लों की मृत्यु हो गई। बाद के दशकों में, अन्य जीवों जैसे कृंतकों और तिलचट्टों पर यह प्रयोग किया गया और परिणाम ऐसे ही रहे। लेकिन इन प्रयोगों में मौत का कारण और नींद से इसका सम्बंध अभी भी अज्ञात है।

नींद का अभाव जानलेवा होता है लेकिन कुछ प्राणी बहुत कम नींद लेकर भी जीवित रह सकते हैं। साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में फल मक्खियों के सोने-जागने पर नज़र रखी गई थी। इम्पीरियल कॉलेज लंदन में सिस्टम्स जीव विज्ञानी जियोर्जियो गिलेस्ट्रो के अनुसार उनके इस प्रयोग में कुछ मक्खियां शायद ही कभी सोई होंगी।

गिलेस्ट्रो और उनके सहयोगियों ने पाया कि 6 प्रतिशत मादा मक्खियां दिन में 72 मिनट से कम समय तक सोती थीं, जबकि अन्य मादाओं की औसत नींद 300 मिनट थी। एक मादा तो एक दिन में औसतन मात्र 4 मिनट सोती थी। आगे शोधकर्ताओं ने मक्खियों के सोने का समय 96 प्रतिशत कम कर दिया। लेकिन ये मक्खियां, पिल्लों की तरह असमय मृत्यु का शिकार नहीं हुर्इं। वे अन्य मक्खियों के बराबर जीवित रहीं। गिलेस्ट्रो व कई अन्य वैज्ञानिक सोचने लगे हैं कि शायद नींद उतनी ज़रूरी नहीं है, जितना पहले सोचा जाता था।

2016 के एक अध्ययन में, रैटनबोर्ग और उनके सहयोगियों ने गैलापागोस द्वीप समूह में फ्रिगेट बर्ड्स (फ्रेगेटा माइनर) के मस्तिष्क में विद्युत गतिविधि के मापन के आधार पर दिखाया था कि समुद्र पर उड़ान भरते समय पक्षियों के मस्तिष्क का एक गोलार्ध सो जाता है। और कभी-कभी एक साथ दोनों गोलार्ध भी सो जाते हैं। अध्ययन में पाया गया कि उड़ान भरने के दौरान फ्रिगेट बर्ड्स औसतन प्रति दिन केवल 42 मिनट सोए, जबकि आम तौर पर ज़मीन पर वे 12 घंटे से अधिक सोते हैं। उड़ते समय नींद अन्य पक्षी प्रजातियों के बीच भी आम बात हो सकती है। हालांकि वैज्ञानिकों के पास इसके लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है लेकिन सामान्य स्विफ्ट (एपस एपस) बिना रुके 10 महीने तक उड़ सकती है।

कुल मिलाकर अभी तक तो यही लगता है कि बिलकुल भी न सोने वाला कोई जीव नहीं है। चाहे थोड़ी-सी ही सही, मगर जैव विकास के इतिहास में नींद का बने रहने दर्शाता है कि इसकी कुछ अहम भूमिका है और न्यूनतम नींद अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

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नैनोपार्टिकल से चूहे रात में देखने लगे

वैज्ञानिकों ने माउस (एक किस्म का चूहा) की आंखों में कुछ परिवर्तन करके उन्हें रात में देखने की क्षमता प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है। किया यह गया है कि इन चूहों की आंख में कुछ अतिसूक्ष्म कण (नैनोकण) जोड़े गए हैं जो अवरक्त प्रकाश को दृश्य प्रकाश में बदल देते हैं।

आंखों में प्रकाश को ग्रहण करके उसे विद्युतीय संकेतों में बदलने का काम रेटिना में उपस्थित प्रकाश ग्राही कोशिकाओं द्वारा किया जाता है। जब ये संकेत मस्तिष्क में पहुंचते हैं तो वहां इन्हें दृश्य के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। रेटिना पर विभिन्न किस्म के प्रकाश ग्राही होते हैं जो अलग-अलग रंग के प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं। मनुष्यों में तीन प्रकार के प्रकाश संवेदी रंजक पाए जाते हैं जो हमें रंगीन दृष्टि प्रदान करते हैं और एक रंजक होता है जो काले और सफेद के बीच भेद करने में मदद करता है। यह वाला रंजक खास तौर से कम प्रकाश में सक्रिय होता है। इसके विपरीत चूहों में तथा कुछ वानरों में मात्र दो रंगीन रंजक होते हैं और एक रंजक मद्धिम प्रकाश के लिए होता है।

पहले वैज्ञानिकों ने चूहों में तीसरे रंजक का जीन जोड़कर उन्हें मनुष्यों के समान दृष्टि प्रदान की थी। मगर यह पहली बार है कि किसी जंतु को अवरक्त यानी इंफ्रारेड प्रकाश को देखने में सक्षम बनाया गया है। आम तौर पर प्रकाश का अवरक्त हिस्सा गर्मी पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार होता है।

हेफाई स्थित चीनी विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विश्वविद्यालय के ज़्यू तिएन ने मैसाचुसेट्स मेडिकल स्कूल के गांग हान के साथ मिलकर उपरोक्त अनुसंधान किया है। हान ने कुछ समय पहले ऐसे नैनोकण विकसित किए थे जो अवरक्त प्रकाश को नीले प्रकाश में तबदील कर सकते हैं। इस सफलता से प्रेरित होकर हान और ज़्यू ने सोचा कि यदि ऐसे नैनोकण चूहों के प्रकाश ग्राहियों में जोड़ दिए जाएं तो वे रात में भी देख सकेंगे।

अगला कदम यह था कि नैनोकणों में इस तरह के परिवर्तन किए गए कि वे अवरक्त प्रकाश को नीले की बजाय हरे प्रकाश में तबदील करें। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि जंतुओं के हरे प्रकाश ग्राही नीले की अपेक्षा ज़्यादा संवेदनशील होते हैं। इसके बाद इन नैनोकणों पर एक ऐसे प्रोटीन का आवरण चढ़ाया गया जो प्रकाश ग्राही कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित एक शर्करा अणु से जुड़ जाता है। जब ये नैनोकण चूहों के रेटिना के पिछले भाग में इंजेक्ट किए गए तो ये प्रकाश ग्राही कोशिकाओं से जुड़ गए और 10 हफ्तों तक जुड़े रहे। और परिणाम आशा के अनुरूप रहे। चूहों की आंखें अवरक्त प्रकाश के प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया देने लगी जैसी वह दृश्य प्रकाश के प्रति देती है। इसके अलावा रेटिना और मस्तिष्क के दृष्टि सम्बंधी हिस्से में विद्युतीय सक्रियता देखी गई। इसके बाद इन चूहों को सामान्य दृष्टि सम्बंधी परीक्षणों से गुज़ारा गया और यह स्पष्ट हो गया कि वे अंधेरे में देख पा रहे थे।

सेल में प्रकाशित इस पर्चे के निष्कर्षों की चर्चा करते हुए ज़्यू ने कहा है कि उन्हें यकीन है कि यह मनुष्यों में कारगर होगा और यदि होता है तो सैनिकों को रात में बेहतर देखने की क्षमता प्रदान की जा सकेगी। इसके अलावा यह आंखों की कुछ खास दिक्कतों के संदर्भ में उपयोगी साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

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पेंग्विन के अंडों की कुल्फी क्यों नहीं बन जाती

एंपरर पेंग्विन एक मशहूर पक्षी है जो अंटार्कटिक के निहायत ठंडे परिवेश में पाया जाता है। और जैसे ठंडे वातावरण में रहने की सज़ा काफी न थी, एंपरर पेंग्विन को अपने अंडे जाड़े के मौसम में देने पड़ते हैं। ठंड इतनी कि अंडों की कुल्फी जम जाए। मगर जमती नहीं, और अब वैज्ञानिकों ने बताया है कि ये पक्षी अपने अंडों को कड़ाके की ठंड से कैसे बचा पाते हैं।

पहले तो यह देख लें कि इतनी कड़ाके की ठंड में अंडे देने की क्या मजबूरी है जबकि अन्य पेंग्विन्स ऐसे मौसम में अंडे नहीं देते हैं। होता यह है कि जब ढेर सारे चूज़े अंडे फोड़कर निकलते हैं तो उन्हें ढेर सारे भोजन की भी ज़रूरत होती है। इतना भोजन तो वसंत में ही उपलब्ध होता है जब समुद्र पर जमा बर्फ तटों के आसपास पिघलने लगता है। यदि चूज़े वसंत में निकलना है तो अंडे जाड़ों में ही देने होंगे।

पेंग्विन हज़ारों की बस्ती में अंडे देते हैं। हरेक मादा एक अंडा देती है और फिर वह कई महीनों तक भोजन की तलाश में समुद्र की ओर निकल जाती हैं। अंडों की देखभाल का काम नर पेंग्विन्स करते हैं। ऋणात्मक तापमान में अंडों को संभालने के लिए नर पेंग्विन वास्तव में गर्मी के रुाोत में तबदील हो गए हैं। अन्य पक्षियों के समान पेंग्विन का शरीर भी पिच्छों से ढंका होता है। ये पिच्छ ऊष्मा के कुचालक होते हैं और उनके शरीर को वातावरण की ठंड/गर्मी से अलग रखते हैं। एंपरर पेंग्विन के पेट का एक हिस्सा होता है जो पिच्छों से ढंका नहीं होता। इसे शिशु थैली कहते हैं। पेंग्विन अंडे को अपने दोनों पंजों पर टिका कर इसी थैली से सटाकर रखते हैं और पेट के पिच्छों से उसे ढंक लेते हैं। इस प्रकार से अंडा वातावरण की अतियों से महफूज़ रहता है। और पिता के शरीर की गर्मी उसे मिलती रहती है।

पिता पेंग्विन एक काम और करते हैं। वे अपने शरीर की गर्मी को बचाने के लिए बर्फ से अपना संपर्क कम से कम कर देते हैं। इसके लिए वे अपने पंजों को ऊपर उठा लेते हैं और ऐड़ी के बल ज़मीन (यानी बर्फ) पर बैठते हैं तथा संतुलन बनाने के लिए अपनी पूंछ के सिरे की मदद लेते हैं। और इस पोज़ीशन में वे महीनों तक बैठे रहते हैं। इसके अलावा, ये नर पेंग्विन एक काम और करते हैं। वे बड़े-बड़े झुंड में सटकर बैठते हैं ताकि ऊष्मा की हानि कम से कम हो। जहां पेंग्विन के ऐसे जत्थे बैठते हैं वहां का तापमान आसपास के मुकाबले कई डिग्री अधिक होता है।

इन सब तरीकों के मिले-जुले इस्तेमाल की बदौलत ही पेंग्विन अपने अंडों को सुरक्षित रखते हुए सेते हैं और अगली पीढ़ी को दुनिया में आने का मौका देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बिल्ली की सफाई का रहस्य – अरविंद गुप्ते

बिल्ली परिवार में घरेलू बिल्ली से ले कर बाघ, तेंदुए और सिंह जैसे जंतु शामिल हैं। ये सभी जंतु अपने शरीर को लगातार चाट कर साफ रखते हैं। इस प्रक्रिया के सबसे विस्तृत अध्ययन घरेलू बिल्ली पर किए गए हैं। बिल्ली एक दिन में औसतन 10 घंटे तक जागी रहती है और इस समय का लगभग एक-चौथाई भाग वह अपने शरीर को चाटने में गुज़ार देती है। चाटने की इस प्रक्रिया से उसके शरीर से पिस्सू जैसे परजीवी, धूल के कण, रक्त के थक्के आदि हट जाते हैं। इसके अलावा, लार में कुछ एंटीबायोटिक गुण होते हैं जिनके कारण घाव जल्दी भर जाते हैं।

यह जानकारी तो थी कि बिल्ली की जीभ पर नुकीले उभार होते हैं जिनकी नोकें पीछे की ओर मुड़ी होती हैं। किंतु ये उभार किस प्रकार काम करते हैं इसकी ठीक-ठीक जानकारी नहीं थी। अमेरिका के एटलांटा स्थित जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में कार्यरत दो इंजीनियर्स डेविड हू और एलेक्सिस नोएल ने बिल्ली परिवार की छह प्रजातियों की जीभों का अध्ययन करके यह पता लगाने का प्रयास किया कि चाटने की प्रक्रिया में क्या होता है। उन्होंने मृत जंतुओं की जीभें प्राप्त कीं और उनका सीटी स्कैन से अध्ययन किया। घरेलू बिल्ली द्वारा खुद को चाटे जाने की प्रक्रिया का अध्ययन उन्होंने उच्च गति के कैमरों की सहायता से किया। उन्होंने पाया कि इन सभी जंतुओं की जीभ पर उपस्थित उभार ठोस नहीं होते (जैसा माना जाता था), किंतु उनमें एक खांच होती है जिसके कारण उभार का आकार चम्मच के समान हो जाता है। किंतु यह चम्मच इस बात में अनोखा है कि वह केशिका क्रिया से मुंह में उपस्थित लार को अपने अंदर खींच लेती है और इस प्रकार सफाई के लिए अधिक लार प्राप्त हो जाती है जो बिल्ली के बालों के नरम स्तर तक पहुंच जाती है। बिल्ली की त्वचा पर दो प्रकार के बाल होते हैं – त्वचा के ठीक ऊपर नरम बालों का एक स्तर होता है और इसके बाहर कड़े बालों का स्तर। चम्मच के समान आकार का एक और फायदा यह होता है कि बाहर आते समय उसमें गंदगी आसानी से भर जाती है और उसे बाहर निकालना आसान होता है। इस प्रकार, जीभ के उभार लार को बालों के अंदर तक पहुंचाने और गंदगी को बाहर निकालने का दोहरा काम सफलतापूर्वक करते हैं।

त्वचा के ऊपर लार के पहुंचने का एक और फायदा यह होता है कि लार के भाप बन कर उड़ जाने से बिल्ली की त्वचा का तापमान काफी कम हो जाता है और उसे गर्मी से राहत मिलती है। हू और नोएल का अनुमान है कि बिल्ली की त्वचा और बालों के बाहरी आवरण के बीच 17 डिग्री सेल्सियस तक का अंतर हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कीटों की घटती आबादी और प्रकृति पर संकट

हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक कीटों की जनसंख्या में तेज़ी से गिरावट आ रही है और यह गिरावट किसी भी इकोसिस्टम के लिए खतरे की चेतावनी है। सिडनी विश्वविद्यालय के फ्रांसिस्को सांचेज़-बायो और बेजिंग स्थित चायना एकडमी ऑफ एग्रिकल्चरल साइन्सेज़ के क्रिस वायचुइस द्वारा बॉयोलॉजिकल कंज़र्वेशन पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक 40 प्रतिशत से ज़्यादा कीटों की संख्या घट रही है और एक-तिहाई कीट तो विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुके हैं। कीट का कुल द्रव्यमान सालाना 2.5 प्रतिशत की दर से कम हो रहा है, जिसका मतलब है कि एक सदी में ये गायब हो जाएंगे।

रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया है कि धरती छठे व्यापक विलुप्तिकरण की दहलीज़ पर खड़ी है। कीट पारिस्थितिक तंत्रों के सुचारु कामकाज के लिए अनिवार्य हैं। वे पक्षियों, सरिसृपों तथा उभयचर जीवों का भोजन हैं। इस भोजन के अभाव में ये प्राणि जीवित नहीं रह पाएंगे। कीट वनस्पतियों के लिए परागण की महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। इसके अलावा वे पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण भी करते हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि कीटों की आबादी में गिरावट का सबसे बड़ा कारण सघन खेती है। इसमें खेतों के आसपास से सारे पेड़-पौधे साफ कर दिए जाते हैं और फिर नंगे खेतों पर उर्वरकों और कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल किया जाता है। आबादी में गिरावट का दूसरा प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है। कई कीट तेज़ी से बदलती जलवायु के साथ अनुकूलित नहीं हो पा रहे हैं।

सांचेज़-बायो का कहना है कि पिछले 25-30 वर्षों में कीटों के कुल द्रव्यमान में से 80 प्रतिशत गायब हो चुका है।

इस रिपोर्ट को तैयार करने में कीटों में गिरावट के 73 अलग-अलग अध्ययनों का विश्लेषण किया गया। तितलियां और पतंगे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। जैसे, 2000 से 2009 के बीच इंगलैंड में तितली की एक प्रजाति की संख्या में 58 प्रतिशत की कमी आई है। इसी प्रकार से मधुमक्खियों की संख्या में ज़बरदस्त कमी देखी गई है। ओक्लाहामा (यूएस) में 1949 में बंबलबी की जितनी प्रजातियां थीं, उनमें से 2013 में मात्र आधी बची थीं। 1947 में यूएस में मधुमक्खियों के 60 लाख छत्ते थे और उनमें से 35 लाख खत्म हो चुके हैं।

वैसे रिपोर्ट को तैयार करने में जिन अध्ययनों का विश्लेषण किया गया वे ज़्यादातर पश्चिमी युरोप और यूएस से सम्बंधित हैं और कुछ अध्ययन ऑस्ट्रेलिया से चीन तथा ब्रााज़ील से दक्षिण अफ्रीका के बीच के भी हैं। मगर शोधकर्ताओं का मत है कि अन्यत्र भी स्थिति बेहतर नहीं होगी। (स्रोत फीचर्स)

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पंख के जीवाश्म से डायनासौर की उड़ान पता चला

वैज्ञानिक काफी लंबे समय से यह तो जानते हैं कि कई शुरुआती डायनासौर, जो आज के पक्षियों के पूर्वज हैं, पंखों से ढंके हुए थे। पंखों का यह आवरण गर्मी प्रदान करने के अलावा प्रजनन साथियों को आकर्षित करने में भी उपयोगी था। लेकिन अभी तक यह नहीं पता था कि कब और कैसे इन पंखों का इस्तेमाल उड़ने के लिए किया जाने लगा।

अब पंख वाले डायनासौर के पंख के जीवाश्म के आणविक विश्लेषण से पता चला है कि पंख में प्रयुक्त प्रमुख प्रोटीन किस तरह समय के साथ हल्के और अधिक लचीले हुए जिसके चलते डायनासौर उड़ने में सक्षम हुए और अंतत: पक्षियों में विकसित हुए।

ज़मीन पर चलने वाले सभी रीढ़धारी जीवों में किरेटिन नाम का एक प्रोटीन होता है जो नाखूनों से लेकर चोंच, पंख, शल्क वगैरह बनाता है। मनुष्यों और अन्य स्तनधारियों में, अल्फा किरेटिन 10 नैनोमीटर चौड़ा तंतु बनाता है जिससे बाल, त्वचा और नाखून बनते हैं। मगरमच्छों, कछुओं, छिपकलियों और पक्षियों में बीटा किरेटिन और भी पतला व अधिक कठोर तंतु बनाता है जिससे पंजे, चोंच और पंख बनते हैं।

वैज्ञानिकों ने पिछले एक दशक में दर्जनों जीवित पक्षियों, मगरमच्छों, कछुओं और अन्य रेंगने वाले जीवों के जीनोम की मदद से समय के साथ उनके  बीटा किरेटिन में बदलाव के आधार पर एक वंशवृक्ष तैयार किया है। उनके अनुसार आधुनिक पक्षियों ने अधिकांश अल्फा किरेटिन तो गंवा दिया, लेकिन उनके पंखों में बीटा किरेटिन अधिक लचीला हो गया। इनमें ग्लाइसिन और टायरोसिन अमीनो एसिड्स की एक लड़ी का अभाव होता है जो पंजे और चोंच को कठोर बनाती है। इससे पता चला कि उड़ान के लिए ये दोनों परिवर्तन आवश्यक हैं।

इन दोनों परिवर्तनों को एक साथ देखने के लिए शोधकर्ताओं ने चीन और मंगोलिया के असाधारण जीवाश्मों में अल्फा और बीटा किरेटिन का विश्लेषण किया। पुराजीव वैज्ञानिक पान यानहोंग और मैरी श्वाइट्ज़र ने 16 से 7.5 करोड़ वर्ष पूर्व की पांच प्रजातियों किरेटिन का विश्लेषण किया।

उन्होंने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में बताया है कि 16 करोड़ साल पहले के एक कौए के आकार के एनचीओर्निस डायनासौर के पंखों में कुछ मात्रा में आधुनिक पक्षियों के समान अभावग्रस्त बीटा किरेटिन पाया गया। लेकिन सबसे प्राचीन ज्ञात पक्षी आर्कियोप्टेरिक्स से 10 करोड़ वर्ष पूर्व के डायनासौर में अधिक अल्फा किरेटिन पाया गया, जो आज के पक्षियों के पंखों में कमोबेश अनुपस्थित है।

इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एनचीओर्निस के पंख उड़ान भरने के लिए सक्षम तो नहीं थे लेकिन उड़ान की ओर विकास में एक मध्यवर्ती चरण को दर्शाते हैं।

इसी प्रकार 13 करोड़ वर्ष पुराने एक छोटे उड़ानहीन डायनासौर शुवुइया से प्राप्त पंखों से पता चलता है कि आधुनिक पक्षियों की तरह, इसमें अल्फा किरेटिन की कमी तो थी लेकिन एनचीओर्निस के विपरीत, इसके पंख अधिक कठोर बीटा किरेटिन से बने थे।

आधुनिक आनुवंशिक सबूतों के आधार पर यह कह पाना संभव है कि विकास के दौरान, कुछ डायनासौर के जीनोम में अल्फा किरेटिन जीन की कई प्रतिलिपियां बन गई। फिर इन ढेर सारी प्रतियों में काट-छांट के चलते ये बीटा किरेटिन के ग्लायसीन व टायरोसीन रहित लचीले किरेटिन का निर्माण करने लगे। इस दोहरे परिवर्तन ने डायनासौर को उड़ने में सक्षम बनाया और इसी के फलस्वरूप पक्षी विकसित हुए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मधुमक्खियां जोड़-घटा भी सकती हैं

वैज्ञानिक यह तो पता कर चुके हैं कि मधुमक्खियां 4 तक गिन सकती हैं और शून्य को समझती हैं। लेकिन हाल ही में साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि मधुमक्खियां जोड़ना-घटाना भी कर सकती हैं। अंतर इतना है कि इसके लिए वे धन-ऋण के चिंहों की जगह अलग-अलग रंगों का उपयोग करती हैं।

जीव-जगत में गिनना या अलग-अलग मात्राओं की पहचान करना कोई अनसुनी बात नहीं है। ये क्षमता मेंढकों, मकड़ियों और यहां तक कि मछलियों में भी देखने को मिलती है। लेकिन प्रतीकों की मदद से समीकरण को हल कर पाने की क्षमता दुर्लभ है। अब तक ये क्षमता सिर्फ चिम्पैंज़ी और अफ्रिकन भूरे तोते में देखी गई है।

शोधकर्ता जानना चाहते थे कि मधुमक्खियों (Apis mellifera) का छोटा-सा दिमाग गिनने के अलावा और क्या-क्या कर सकता है। शोघकर्ताओं ने पहले तो मधुमक्खियों को नीले और पीले रंग का सम्बंध जोड़ने और घटाने की क्रिया से बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। उन्होंने 14 मधुमक्खियों को Y-आकृति की भूलभुलैया में प्रवेश यानी Y-आकृति की निचली भुजा (जहां से दो में से एक रास्ते का चुनाव करना होता था) में रखा और वहां उन्हें नीले और पीले रंग की वस्तुएं दिखाई गर्इं। जब उन्हें नीले रंग की कुछ वस्तुएं दिखाई जातीं और मधुमक्खियां उस ओर जातीं जहां दिखाई गई वस्तु से एक अधिक वस्तु है तो उन्हें इनाम मिलता था। Y-आकार की दूसरी भुजा के अंत में एक कम वस्तु होती थी। पीले रंग की वस्तुएं दिखाने पर यदि मक्खियां एक कम वस्तु वाली भुजा की तरफ जातीं तो उन्हें इनाम मिलता था।

इसके बाद उन्हें जांचा गया। मधुमक्खियों ने 63-72 प्रतिशत मामलों में सही जवाब दिए। पीला रंग दिखाने पर उन्होंने एक वस्तु ‘घटाई’ या नीला रंग दिखाने पर एक वस्तु ‘जोड़ी’ तब माना गया कि उन्होंने सही जवाब दिया है। यह प्रयोग मात्र 14 मधुमक्खियों पर किया गया है किंतु शोधकर्ताओं का मत है कि मनुष्य की तुलना में बीस हज़ार गुना छोटे दिमाग के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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