आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धि – 2 – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

पिछले लेख में हमने रोबोट और कंप्यूटर का ज़िक्र किया था। सत्तर साल पहले अपने शुरुआती दौर में रोबोट-विज्ञान या रोबोटिक्स कंप्यूटरों पर निर्भर नहीं होता था, क्योंकि तब आज जैसे तेज़ रफ्तार से चलने और बड़ी तादाद में आंकड़े संजोने वाले कंप्यूटर होते नहीं थे। जैसे एक क्रेन बिजली से काम करती है, ऐसे ही रोबोट मशीनें बनाई जाती थीं, जो सामान उठाने, उतारने या खतरनाक जगहों में (जैसे बारूदी सुरंगों से निपटना या रेडियो-सक्रिय सामग्री को समेटना) इंसान की मदद के काम आएं। यानी तब रोबोट महज़ मशीनें थीं जो इंसान जैसी दिखती थीं।

कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी में दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से तरक्की हुई। 1965 में इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर और कारोबारी गॉर्डन मूर ने कहा था कि हर साल माइक्रोचिप में ट्रांज़िस्टर की तादाद दुगनी हो जाएगी और फिर 1975 में उन्होंने अनुमान लगाया था कि ऐसा हर दो साल में होगा। आंकड़े या सूचना संजोने और तेज़ रफ्तार से सवाल हल करने या सूचना की प्रोसेसिंग दोनों में इसी रफ्तार से बढ़त हुई है। नतीजतन हर विधा की तरह रोबोटिक्स में भी कंप्यूटरों का इस्तेमाल बढ़ गया।

अस्सी के दशक में अमोनिया और मीथेन जैसे छोटे अणुओं से अमीनो अम्ल जैसे बड़े अणुओं के बनने से लेकर आखिरकार जीवन के मुमकिन हो पाने की समझ आधी सदी पहले से बनी थी। उसी आधार पर मानव-निर्मित जीवन या आर्टीफिशियल लाइफ पर बहुत काम हुआ। कंप्यूटर पर खेलने वाले प्रोग्राम लिखे गए – जैसे एक खेल का नाम ‘गेम ऑफ लाइफ’ था, जिसमें टुकड़े आपस में टकराकर छोटे-बड़े होते थे और आखिर में बड़े आकार के बन जाते थे। बाद में यह भी एआई का हिस्सा बन गया।

मनोविज्ञान और एआई, इन दोनों विषयों के बुनियादी सवाल एक जैसे हैं। आज मनोविज्ञान की एक शाखा (जिसे अब अपने-आप में अलग विषय जाना जाता है) संज्ञान का विज्ञान या कॉग्निटिव साइंस को एआई की शाखा माना जाता है। इसमें यह समझने की कोशिश होती है कि हम किसी चीज़ को समझते कैसे हैं यानी जो भी जैव-रासायनिक प्रक्रियाएं हमारे जिस्म में होती हैं, वे संज्ञान तक कैसे बढ़ जाती हैं। क्या दिमाग भी एक कंप्यूटर है? ऐसे खयालों ने एआई वैज्ञानिकों में यह मुगालता पैदा कर दिया कि बड़ी जल्दी ही समूचा मनोविज्ञान कंप्यूटर प्रोग्रामों की तरह बूझ लिया जाएगा। ज़ाहिर है, ये सवाल दार्शनिक हैं और सदियों से दुनिया भर में चिंतकों ने इन पर माथा खपाया है।

दर्शन शास्त्र में हमेशा से ही यह बहस रही है कि जिस्म और मन का क्या रिश्ता है। क्या मन और जिस्म अलग-अलग हैं या जिस्म से अलग मन का कोई वजूद नहीं है? सत्रहवीं सदी में युरोप में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत में रेने देकार्ते ने कहा था कि जिस्म और मानस अलग चीज़ें हैं। आज ऐसा नहीं माना जाता, हालांकि इस पर कोई आखिरी समझ अभी भी नहीं बन पाई है।

कई एआई वैज्ञानिक मानते हैं कि दिमाग और मन का रिश्ता कंप्यूटर और प्रोग्राम की तरह है। यानी कंप्यूटर लोहे-लंगड़ से बनी मशीन है, पर प्रोग्राम के बिना वह कुछ भी नहीं है; इसी तरह जिस्म में दिमाग जैव-रासायनिक घटकों से बना हार्डवेयर है, पर कुछ ऐसा है जो मन या सॉफ्टवेयर है, जो उसका वजूद मानीखेज़ बनाता है। जैसे प्रोग्राम महज लिखा जाता है, उसके भौतिक वजूद पर बात बेमानी है, इसी तरह मन के बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है।

आखिर असली और गढ़ी गई (गैरकुदरती) बुद्धि या समझ किस मायने में भिन्न हैं? हर जानवर एक हद तक सोचता-समझता है और जीवन के धागे बुनता है, पर क्या यही बुद्धि है? इस सवाल का कोई साफ जवाब नहीं है। एआई में बुद्धि को जीवन में कुछ भी कर पाने के लिए कंप्यूटर की तरह गणनाओं या सूचनाओं का लेन-देन माना जाता है। इसमें दीगर जानवरों की तुलना में इंसान ज़्यादा काबिल हैं। मसलन भाषा जैसी काबिलियत दूसरे जानवरों में कम विकसित है। एआई के शुरुआती दौर में सैद्धांतिक पक्ष को साइबरनेटिक्स कहा जाता था, जिसमें यह माना गया कि इंसान, दीगर जानवर, और मशीनें, इन सब को चलाने वाले कायदे एक जैसे हैं, हालांकि वे अलग-अलग चीज़ों से बने ढांचे हैं। इसी आधार पर ऐसे रोबोट बनाए गए जो कुछ हद तक अपने आप काम करते थे; जैसे पहियों पर चलने वाले रोशनी के पास या दूर जाने वाले कछुए जैसे रोबोट, जो बैटरी का चार्ज खत्म होने पर खुद से रीचार्ज के लिए बिजली के सॉकेट तक आ जाते हैं। रोचक बात यह है कि ऐसे रोबोट के बारे में पहले से अनुमान लगाना मुश्किल है कि वे कब कहां जाएंगे या कब रीचार्ज करेंगे यानी ऐसी जटिल बातें वो अपने आप तय कर रहे हैं। पर यह काबिलियत वह बुद्धि नहीं है, जिसे इंटेलिजेंस कहते हैं। बुद्धि में भाषा-ज्ञान, याददाश्त, सीखने की काबिलियत, तर्कशीलता आदि बातें शामिल हैं। रोबोट तो परिवेश में मौजूद चीज़ों के मुताबिक अपना व्यवहार बदलते हैं, जबकि बुद्धि में कुछ तो अंदरूनी है।

भाषाविज्ञानी नोम चोम्स्की का मानना है कि भाषा सीखने की जन्मजात काबिलियत के बरक्स परिवेश में मौजूद चीज़ों या तजुर्बों का असर भाषा-ज्ञान पर कम होता है। एआई का बहुत सारा शोध इस सोच पर हो रहा है कि ऐसी काबिलियत जिस्म की अंदरूनी प्रक्रियाओं से ही बनती है, जबकि रोबोटिक्स में परिवेश के साथ जद्दोजहद एक लगातार चल रहा संघर्ष है।

ये एआई की दो अलग-अलग धाराएं हैं। एक संज्ञान का विज्ञान और दूसरी रोबोट मशीनें। पहली धारा में कंप्यूटेशन यानी अमूर्त गणनाओं को ही संज्ञान का आधार माना गया है। इसमें कंप्यूटेशन के दार्शनिक आधार को समझना लाज़मी है, जो एक विकसित, पर साथ ही अनसुलझा मुद्दा है। वॉरेन मैकलो और वाल्टर पिट्स नामक दो वैज्ञानिकों ने यह दिखलाया था कि दिमाग में काम कर रहे न्यूरॉन का खाका सैद्धांतिक रूप से कंप्यूटर के अंदरूनी खाके की तरह है। न्यूरॉन कंप्यूटर में गणनाओं के लिए बने लॉजिक गेट की तरह काम करते हैं और इनका एक जैसा इस्तेमाल हो सकता है। दिमाग समेत ऐसी किसी भी मशीन को एक बुनियादी कंप्यूटर की तरह समझा जा सकता है।

मशहूर गणितज्ञ और दार्शनिक ऐलन ट्यूरिंग के नाम पर इस बुनियादी कंप्यूटर को ट्यूरिंग मशीन कहा जाता है, जो किसी भी तरह के (युनिवर्सल) कंप्यूटेशन का मॉडल पेश करती है। ज़ाहिर है, सिद्धांत में एक जैसी होने के बावजूद हर मशीन के काम करने का तरीका अलग होता है। यानी कंप्यूटर प्रोग्राम कीबोर्ड से लिखे जाते हैं और बिजली के सर्किटों से चलते हैं, पर दिमाग न्यूरॉन सिग्नलों (जैव-रासायनिक) से चलता है। अगर दोनों एक ही जैसे काम (फंक्शन) कर रहे हैं तो व्यावहारिक तौर पर दोनों को एक ही माना जा सकता है। मन और जिस्म में फर्क करने वाले इस खयाल को फंक्शनलिज़्म (functionalism) कहा जाता है। इसके मुताबिक संज्ञान किसी एक मशीन या दिमाग के दायरे में बंधा नहीं है, बल्कि महज़ एक ढांचे की (दिमाग या कंप्यूटर का हार्डवेयर)  मदद से यह सक्रिय हो रहा है। यानी कुछ संकेतों (लॉजिक गेट) की मदद से हम सही समझ पाते हैं और जीवन की गाड़ी चल पड़ती है। जहां तक खयाली दुनिया में गोते लगाने की बात है, इसके लिए ट्यूरिंग ने एक टेस्ट सोचा। अगर किसी मशीन से इंसान को यह भ्रम हो कि वो वाकई में मशीन नहीं, बल्कि कोई इंसान है, तो वो मशीन ट्यूरिंग टेस्ट पास कर जाएगी। 1990 में इस आधार पर एक पुरस्कार की घोषणा हुई कि कोई भी ट्यूरिंग टेस्ट पास करने वाली पहली मशीन बना ले तो उसे एक लाख डॉलर दिए जाएंगे। अभी तक यह पुरस्कार किसी को नहीं मिला है। एक समस्या यह है कि यह टेस्ट पूरी तरह इंसान और मशीन के बीच बातचीत पर निर्भर है यानी यह महज भाषा के पक्ष पर आधारित है। अगर कोई मशीन भाषा की तमाम जटिलताओं में माहिर हो जाए तो हो सकता है कि वह ट्यूरिंग टेस्ट पास कर जाए, पर क्या हम उसे इंटेलिजेंट कह सकते हैं?

एआई में जटिलता या कॉम्प्लेक्सिटी (complexity) थिअरी नामक विज्ञान की धारा का भी इस्तेमाल हुआ है, जिसमें किसी चीज़ में विकसित हुए जटिल खाके के मुताबिक उसकी फितरत में बदलाव आता है। मसलन एक छोटी चिंगारी आसपास की जलने वाली चीज़ों में आग लगा सकती है, पर एक निश्चित आकार के बाद ही वह दावानल बन भड़क सकती है। इसी तरह जब बच्चे रेत का ढेर बनाते हैं, तो देर तक वह पिरामिड-सा बढ़ता है, पर एक हद के बाद वह भरभराकर गिर पड़ता है। इसे एमर्जेंट यानी योगेतर गुण कहा जाता है – ऐसा गुण जो किसी चीज़ के अलग-अलग टुकड़ों में नहीं होता मगर पूरी चीज़ में उभरकर दिखता है। कुदरत में कई टुकड़ों के अपने-आप एक खाके में जुड़कर कुछ अनोखा होने की कई मिसालें हैं, जिसे सेल्फ-ऑर्गनाइज़ेशन (खुद को संगठित करना) कहा जाता है। पिछले कई दशकों में इस सेक्टर में, खास तौर पर जैविक मिसालों पर, बहुत शोध हुआ है। किसी चीज़ में अचानक उभरी फितरत को उसके टुकड़ों की प्रकृति को जानकर नहीं समझा जा सकता है। एआई में एक सोच यह है कि इंटेलिजेंस एक एमर्जेंट बात है। जीन्स को जानकर हम यह तो जान लेते हैं कि हम जो हैं, वह कैसे मुमकिन हुआ, पर संज्ञान को हम इस तरह नहीं जान सकते। सर्वांगीण समझ कुछ और है, जो एमर्जेंट गुण है। ज़ाहिर है, बगैर मशीन के तो समझ विकसित होना नामुमकिन है, पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि मशीन बनने भर से समझ बन जाएगी। इसके लिए कोई सही प्रोग्राम लिखे जाने की ज़रूरत होगी। तो क्या हम फिर मन और जिस्म को अलग-अलग मान रहे हैं? दिमागी पहेलियां क्या महज प्रोग्राम का खेल हैं? इन विवादों पर हम अगले लेखों में चर्चा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धि – 1 – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

जकल हर कहीं ‘एआई’ का बोलबाला है। आखिर यह एआई क्या बला है? चेक नाटककार कारेल चापेक ने 1920 में एक नाटक लिखा था – आरयूआर, (रोसुमोवी युनिवर्सालनी रोबोती – Rossumovi Univerzální Roboti)। इसका अर्थ है रोसुमोव के सार्वभौमिक रोबोट। नाटक में रोसुमोव एक वैज्ञानिक हैं जिनकी कंपनी इंसान जैसी दिखने वाली रोबोट मशीनें बनाती है। (रोबोट एक चेक शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है बंधुआ मज़दूर और अंग्रेज़ी व अन्य भाषाओं में यह शब्द चापेक के उक्त नाटक से प्रचलित हुआ था।) तब से मशीनों में इंसान जैसी काबिलियत की चर्चाएं गाहे-बगाहे होती रही हैं। पिछली सदी के छठे दशक में ये चर्चाएं कल्पनालोक से निकल कर विज्ञान के दायरे में संजीदा सवाल बन कर सामने आईं, जब पहले आधुनिक कंप्यूटर बनने लगे थे। इनमें अर्द्ध-चालक सिलिकॉन टेक्नॉलॉजी से बने ट्रांज़िस्टरों की मदद से तेज़ी से गणनाएं मुमकिन होने लगी थीं। जैसे-जैसे कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी गणनाओं से इतर तमाम दूसरे क्षेत्रों में प्रभाव डालने लगी और सूचना यानी इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी का कारवां बढ़ता चला, एआई पर शोध भी तेज़ी से बढ़ता रहा। नई-नई मशीनें बनीं, खास तौर पर फिल्मों में इन्हें बढ़ा-चढ़ा कर दिखलाया गया। ‘रोबोट’ लफ्ज़ घरेलू बातचीत का हिस्सा बन गया। हाल में कोरोना लॉक-डाउन के दौरान हमारे मुल्क में भी कुछ खास किस्म की मशीनें, जिन्हें रोबोट सफाई मशीनें कहा जाता है, बड़ी तादाद में बिकीं। कई घरों में ऐसी मशीनें आ गईं, जो देखने में छोटे स्पीकर जैसी हैं, और गीत-संगीत जैसे तरह-तरह के हुक्म बजाती हैं।

दुनिया के स्तर पर बड़ी कामयाबियों में शतरंज खेलने वाली मशीनें शामिल हैं, जिन्होंने शतरंज के उस्ताद खिलाड़ियों (जैसे कास्परोव) को मात दे दी। आगे चलकर अल्फागो नामक कंप्यूटर ने चीनी खेल गो में उस्ताद खिलाड़ी ली सेडोल को परास्त किया। मेडिकल रिसर्च में रोबोट का इस्तेमाल आम हो गया है, और हर दिन किसी नई खोज का पता चलता है। इंसानी काबिलियत से कहीं आगे बढ़कर आंकड़ों से मानीखेज़ जानकारी ढूंढ निकालने का काम कंप्यूटर कई दशकों से कर ही रहे हैं, जिससे नई दवाइयां बनाने में बड़ी तरक्की हुई है। भली बातों के साथ तबाही के हथियारों में भी एआई का इस्तेमाल हो रहा है और नए किस्म के कंप्यूटर से चलने वाले ड्रोन या लेज़र-गन या मिसाइल आदि अब आम असलाह में शामिल हो गए हैं, जिनके ज़रिए कोई मुल्क धरती पर कहीं भी कहर बरपा सकता है और जान-माल को नुकसान पहुंचा सकता है।

जाहिर है, एआई का ताना-बाना पूरी तरह कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी से जुड़ा है। कंप्यूटर तो आजकल हर कहीं है; मसलन मोबाइल फोन से लेकर माली लेन-देन आदि हर सेक्टर तक यह पहुंच चुका है। लिहाज़ा एआई भी हर कहीं है। इस वजह से एआई के बुनियादी सवाल महज़ टेक्नॉलॉजी तक रुके नहीं हैं। एआई का सबसे बुनियादी सवाल दरअसल मशीन को इंसानी बुद्धि कैसे मिले यह नहीं है, बल्कि यह है कि इंसान या दूसरे जानवरों को कैसे एक मशीन की तरह समझा जा सके। साथ ही उन हालात की खोज करना भी एक बड़ा सवाल है, जिसमें न सिर्फ ज़िंदा, बल्कि कभी-कभी बेजान लगती चीज़ें भी कुछ ऐसा कमाल कर जाती हैं, जिससे कुछ ज़िंदा होने का गुमान होता है। ऐसी चीज़ों को एजेंट (यानी अभिकर्ता) कहा जाता है। एजेंट किसे कहें, वे क्या कर सकते हैं, ये सवाल विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के तो हैं ही, साथ ही गहन दार्शनिक सवाल भी हैं। लंबे अरसे तक इंसान की बुद्धि या इंटेलिजेंस और साथ ही चेतना या कॉन्शसनेस के सवाल मूलत: दार्शनिक सवाल रहे हैं। पिछले तीस-चालीस सालों में दिमाग और चेतना पर वैज्ञानिक समझ बढ़ने के साथ अब इन सवालों में विज्ञान का हस्तक्षेप अहम हो गया है।

‘एजेंट’ शब्द से कल्पना में कोई इंसान सा आता है, जैसे सेल्स-एजेंट। पर एआई में एजेंट का मतलब ऐसा कुछ भी हो सकता है, जिससे कोई कार्रवाई शुरू हो जाए। मसलन वह रोबोट जैसी मशीन हो सकती है जो भौतिक स्तर पर अपने इर्द-गिर्द हरकत करती हो, या वह महज़ एक कंप्यूटर-प्रोग्राम हो सकता है, जो कीबोर्ड पर बटन दबाकर लिखा गया हो या जिसे किसी और कंप्यूटर-प्रोग्राम के ज़रिए लिखा गया हो और जिसे सक्रिय कर कोई कार्रवाई शुरू हो सकती है। यानी एजेंट असली या आभासी दोनों हो सकते हैं। जाहिर है कि क्या असल है और क्या आभासी यह तय करना हमेशा आसान नहीं होता है। एक रोबोट भी तो आखिर किसी प्रोग्राम द्वारा ही चल रहा होता है, तो उसकी हरकत को आभासी भी कहा जा सकता है। यहीं पर चेतना के विज्ञान के साथ एआई की टक्कर होती है। दर्शन का एक चिरंतन सवाल है कि हम जो कुछ करते हैं, क्या वह अपनी मर्ज़ी से करते हैं या कोई और हमसे करवाता है। हम जानते हैं कि सही-गलत हर तरह के खयाल हमारे मन में आते हैं, पर क्या करना है और क्या नहीं, यह फैसला हमारे हाथ में होता है। एक रोबोट ऐसा फैसला नहीं कर सकता है। हालांकि ऐसे दावे किए गए हैं कि हाल के रोबोट में इस तरह के फैसले लेने की काबिलियत मुमकिन हो पाई है, पर ऐसे दावे अभी तक गलत ही साबित होते रहे हैं।

इंसानों में भी एजेंटों जैसी फितरत पाई जाती है। लेकिन इसका एक पहलू और भी है। जैसे एक चींटी को अपने आप में समझना मुश्किल होता है, मज़दूर चींटियों और रानी समेत पूरे चींटी समाज को देखने पर ही पता चलता है कि कतार में जा रही चींटियां आखिर क्या कर रही हैं। इसी तरह अकेले में एक इंसान को जानकर हम सामाजिक, जातिगत या राष्ट्रवादी गतिविधियों को नहीं समझ सकते हैं। समूह में एजेंट क्यों खास तरह की हरकतें करते हैं, इनको समझना भी एआई में चल रहे शोध का विषय है।

आम तौर पर लोग एआई का मतलब महज तरह-तरह की रोबोट मशीनों को समझते हैं, जिनका अलग-अलग सेक्टर्स में इस्तेमाल हो रहा है। वैज्ञानिक इसे कमज़ोर या वीक (weak) एआई कहते हैं। कमज़ोर कहने का मतलब है कि इसमें जिन सवालों पर काम होता है, वे महज़ टेक्नॉलॉजी की तरक्की और बेहतरी के सवाल हैं। इसके बरक्स मज़बूत या स्ट्रॉंन्ग (strong) एआई चेतना के विज्ञान से जुड़ता है। यहां इंसान को मशीन की तरह सामने रखते हुए मशीन में इंसानी अकल और समझ कैसे लाई जाए, इस पर काम होता है। अकल और समझ के साथ चेतना, नैतिकता और तमाम जज़्बात भी जुड़ते हैं। जाहिर है, ये बड़े मुश्किल सवाल हैं; इसीलिए इसे मज़बूत एआई कहा जाता है।

ऐसा नहीं है कि कमज़ोर एआई में इंसानी बुद्धि पर काम नहीं होता है, पर वहां बुद्धि और समझ के किसी एक पक्ष को सैद्धांतिक रूप से समझ कर कंप्यूटर प्रोग्राम के द्वारा उसे मशीन में डालने की कोशिश होती है। जैसे बगैर ड्राइवर के चलने वाली गाड़ियों में तरह-तरह के सेंसर लगे होते हैं, जो सड़क पर आ रहे अवरोधों को कंप्यूटर में दर्ज करते हैं, ताकि उनसे बचाव या उन्हें दरकिनार करने के तरीके अपनाए जा सकें। लाल या हरी बत्ती को दर्ज कर सही वक्त पर रुकना या आगे चलना मुमकिन हो सके। बैटरी खत्म हो रही हो तो अपने आप वापस चार्जर तक जाना भी ऐसी मशीनें कर लेती हैं। पर ये इंसानी बुद्धि के एक ही पक्ष यानी आवागमन और उसमें भी महज़ तकनीकी पक्ष पर काम करती मशीनें हैं। एक इंसान गाड़ी चलाते हुए कई विकल्पों पर सोचता रहता है, बीच रास्ते में कहीं जाने या न जाने का फैसला बदल सकता है, देर तक रुकने या चलते रहने का फैसला ले सकता है, और यह सब कुछ पहले से तय नहीं होता है। कोई गाड़ी इंसानी दिमाग की इन जटिलताओं को कैसे पकड़े और कैसे हर पल अमल करे, ये मज़बूत एआई के सवाल हैं।

यह ज़रूरी नहीं है कि एआई के तहत बनाई गई मशीनें हमेशा इंसानी दिमाग और समझ पर ही आधारित हों। आखिर एक कंप्यूटर जिस विशाल मात्रा में आंकड़े समेट सकता है और जितनी तेज़ी से गणनाएं कर सकता है, वह इंसान की काबिलियत से कहीं ज़्यादा है। ऐसा मुमकिन है कि हमारे दिमाग अपने आकार और अंदरूनी खाके की वजह से एक दायरे में बंधे हैं और एआई कभी ऐसी मशीनें बना दे जो समझ में इंसानों से कहीं आगे की हों।

कमज़ोर एआई में इंसान और दीगर जानवरों में मौजूद समझ की बुनियाद और दायरों की खोज की जाती है। इसी का नतीजा वे तमाम मशीनें हैं, जिनमें से कुछ का ज़िक्र ऊपर किया गया है और जिनके ज़रिए हमारी ज़िंदगी भौतिक रूप से बेहतर हुई है।

इसके साथ ही इंसान के दिमाग को मशीनों के साथ जोड़कर सुपर-इंटेलिजेंट इंसान की कल्पना पर भी काम हो रहा है। दिमाग की प्रक्रियाएं तंत्रिका आवेगों या इंपल्स के ज़रिए होती हैं जो कंप्यूटर में इस्तेमाल होने वाले चिप की तुलना में बहुत ही धीमी गति से चलते हैं। पिछले कुछ दशकों से शरीर में इलेक्ट्रॉनिक चिप इम्प्लांट कर कुछ खास तरह की काबिलियत बढ़ाने पर काम हुआ है। आम तौर पर ऐसे इम्प्लांट पहचान लिए गए हैं, पर ऐसे भी इम्प्लांट हुए हैं, जिनसे हमारी दिमागी काबिलियत बढ़ती है; जैसे हाथ या उंगलियां हिलाकर पैसों का लेन-देन करना आदि (जैसे हम गूगल-पे या क्रेडिट कार्ड से करते हैं)। 

मशीनों की कामयाबी से दिमाग के काम करने के तरीकों पर भी समझ बढ़ती है। इससे बुद्धि के दीगर विषयों, जैसे फलसफा, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान और मनोविज्ञान या तंत्रिका विज्ञान में भी तरक्की होती है। ये सारे विषय और एआई अक्सर परस्पर गड्डमड्ड होते हैं। खास कर मनोविज्ञान और चेतना के विज्ञान का एआई से गहरा रिश्ता है। साथ ही सामाजिक और सियासी दायरों में भी एआई की घुसपैठ से बड़े बदलाव हो रहे हैं और तरह-तरह के तनाव बढ़ रहे हैं। माल उत्पादन के क्षेत्र में एआई यानी रोबोट मशीनों के इस्तेमाल से अधेड़ कामगारों की नौकरी से छंटनी बढ़ी है और इसका सीधा असर सियासत पर पड़ा है। मसलन बताते हैं कि 2016 में अमेरिका में ट्रंप के प्रेसिडेंट चुने जाने के पीछे भी एआई की वजह से लोगों में बढ़ती असुरक्षा की भावना कुछ हद तक ज़िम्मेदार थी। दूसरी ओर सर्विस सेक्टर (जैसे ऑन-लाइन खरीद-फरोख्त आदि) की बढ़ोतरी में एआई की अहम भूमिका है। अगले लेखों में हम एआई से जुड़े विज्ञान और दर्शन के दीगर मसलों पर चर्चा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बेवकूफाना सवाल पूछे तो जल्दी सीखता है एआई

दि कोई मगरमच्छ की तस्वीर दिखाकर आपसे पूछे कि क्या यह एक पक्षी है, तो हो सकता है आप उसके इस नादान सवाल पर मुस्करा दें। और फिर, शायद जानवर को पहचानने में मदद भी कर दें। अब, एक हालिया अध्ययन कहता है कि इस तरह के वास्तविक दुनिया के (और कभी-कभी नादान) सवाल-जवाब कृत्रिम बुद्धि यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के सीखने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। इस तरीके से एआई द्वारा नई तस्वीरों को समझने में सुधार दिखा। इससे ऐसे प्रोग्राम डिज़ाइन करने में तेज़ी आ सकती है जो रोग निदान से लेकर रोबोट या अन्य उपकरणों को निर्देश देने तक के कार्य स्वयं करते हैं।

कई आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस तंत्र पाशविक बल पद्धति से सीखते हैं: जैसे वे फर्नीचर की हज़ारों तस्वीरों में पैटर्न ढूंढते हैं और सीखते हैं कि कुर्सी कैसी दिखती है। लेकिन विशाल डैटा सेट के बावजूद भी जानकारी में कमी छूट ही जाती है। मसलन, हो सकता है कि तस्वीरों में दिख रही वस्तु पर कुर्सी लिखा हो लेकिन अन्य सम्बंधित जानकारी न हो। जैसे वह किस चीज़ से बनी है, या क्या आप उस पर बैठ सकते हैं।

आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस तंत्र की समझ को विस्तार देने के लिए शोधकर्ता अब एक ऐसा तरीका विकसित करने की कोशिश में हैं जो उसकी जानकारी में कमी पता कर सके, और यह समझ सके कि अजनबियों से इस जानकारी को भरने के लिए कैसे कहा जाए।

इसके लिए स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के रंजय कृष्णा (अब, युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन में) और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में मशीन-लर्निंग प्रणाली को अपने ज्ञान में कमी खोजकर ऐसे सवाल पूछने के लिए प्रशिक्षित किया जिसका लोग धैर्यपूर्वक जवाब दे सकें। (जैसे, सिंक का आकार क्या है? जवाब: वर्गाकार)

शोधकर्ताओं ने समझने योग्य सवाल करने के लिए अपने एआई सिस्टम को पुरस्कृत भी किया: लोगों के जवाब के आधार पर सिस्टम को प्रतिक्रिया मिली कि वह अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली को समायोजित करे ताकि भविष्य में इसी तरह का व्यवहार कर सके। धीरे-धीरे, एआई ने भाषा और सामाजिक मानदंड सीखे और वाजिब व जवाब देने योग्य सवाल करने की क्षमता तराशी।

शोधकर्ता बताते हैं कि नए AI में कई घटक हैं जो मिल-जुलकर काम करते हैं। एक घटक इंस्टाग्राम पर डाली गई कोई एक तस्वीर – सूर्यास्त की तस्वीर – चुनता है, और दूसरा घटक सवाल करता है कि क्या यह तस्वीर रात में ली गई है? अन्य घटक लोगों के जवाबों से जानकारी निकालते हैं और उनसे तस्वीर के बारे में सीखते हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि पूरे 8 महीनों में इंस्टाग्राम पर 2 लाख से अधिक सवाल पूछने के बाद एआई के जवाब देने की सटीकता में 118 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अप्रशिक्षित एआई द्वारा सवाल करने से सटीकता में केवल 72 प्रतिशत सुधार दिखा। उम्मीद है कि ऐसे सिस्टम एआई का सामान्य ज्ञान बढ़ाने मदद करेंगे और इंटरैक्टिव रोबोट्स और चैटबॉट को बेहतर करने में मदद करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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3000 साल पुरानी पतलून इंजीनियरिंग का चमत्कार है

हाल ही में एक विशेषज्ञ बुनकर की मदद से पुरातत्वविदों ने दुनिया की सबसे पुरानी (लगभग तीन हज़ार साल पुरानी) पतलून की डिज़ाइन के रहस्यों को उजागर किया है। प्राचीन बुनकरों ने कई तकनीकों की मदद से घोड़े पर बैठकर लड़ने के लिए इस पतलून को तैयार किया था – पतलून इस तरह डिज़ाइन की गई थी कि यह कुछ जगहों पर लचीली थी और कुछ जगहों पर चुस्त/मज़बूत।

यह ऊनी पतलून पश्चिमी चीन में 1000 और 1200 ईसा पूर्व के बीच दफनाए गए एक व्यक्ति (जिसे अब टर्फन मैन कहते हैं) की थी, जो उसे दफनाते वक्त पहनाई गई थी। उसने ऊन की बुनी हुई पतलून के साथ पोंचों पहना था जिसे कमर के चारों ओर बेल्ट से बांध रखा था, टखने तक ऊंचे जूते पहने थे, और उसने सीपियों और कांसे की चकतियों से सजा एक ऊनी शिरस्त्राण पहना था।

पतलून का मूल डिज़ाइन आजकल के पतलून जैसा ही था। कब्र में व्यक्ति के साथ प्राप्त अन्य वस्तुओं से लगता है कि वह घुड़सवार योद्धा था।

दरअसल घुड़सवारों के लिए इस तरह की पतलून की ज़रूरत थी जो इतनी लचीली हो कि घोड़े पर बैठने के लिए पैर घुमाते वक्त कपड़ा न तो फटे और न ही तंग हो। साथ ही घुटनों पर अतिरिक्त मज़बूती की आवश्यकता थी। यह कुछ हद तक पदार्थ-विज्ञान की समस्या थी कि कपड़ा कहां लोचदार चाहिए और कहां मज़बूत और ऐसा कपड़ा कैसे बनाया जाए जो दोनों आवश्यकताओं को पूरा करे?

लगभग 3000 साल पहले चीन के बुनकरों ने सोचा कि पूरे कपड़े को एक ही तरह के ऊन/धागे से बुनते हुए विभिन्न बुनाई तकनीकों का उपयोग करना चाहिए।

जर्मन आर्कियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट की पुरातत्वविद मेयके वैगनर और उनके साथियों ने इस प्राचीन ऊनी पतलून का बारीकी से अध्ययन किया। बुनाई तकनीकों को बेहतर ढंग से समझने के लिए एक आधुनिक बुनकर से प्राचीन पतलून की प्रतिकृति बनवाई गई।

उन्होंने पाया कि अधिकांश पतलून को ट्विल तकनीक से बुना गया था जो आजकल की जींस में देखा जा सकता है। इस तरीके से बुनने में कपड़े में उभरी हुई धारियां तिरछे में समानांतर चलती है, और कपड़ा अधिक गसा और खिंचने वाला बनता है। खिंचाव से कपड़ा फटने की गुंज़ाइश को और कम करने के लिए पतलून के कमर वाले हिस्से को बीच में थोड़ा चौड़ा बनाया गया था।

लेकिन सिर्फ लचीलापन ही नहीं चाहिए था। घुटनों वाले हिस्से में मज़बूती देने के लिए एक अलग बुनाई पद्धति (टेपेस्ट्री) का उपयोग किया गया था। इस तकनीक से कपड़ा कम लचीला लेकिन मोटा और मज़बूत बनता है। कमरबंद के लिए तीसरे तरह की बुनाई तकनीक उपयोग की गई थी ताकि घुड़सवारी के दौरान कोई वार्डरोब समस्या पैदा न हो।

और सबसे बड़ी बात तो यह है पतलून के ये सभी हिस्से एक साथ ही बुने गए थे, कपड़े में इनके बीच सिलाई या जोड़ का कोई निशान नहीं मिला।

टर्फन पतलून बेहद कामकाजी होने के साथ सुंदर भी बनाई गई थी। जांघ वाले हिस्से की बुनाई में बुनकरों ने सफेद रंग पर भूरे रंग की धारियां बनाने के लिए अलग-अलग रंगों के धागों का बारी-बारी उपयोग किया था। टखनों और पिण्डलियों वाले हिस्सों को ज़िगज़ैग धारियों से सजाया था। इस देखकर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि टर्फनमैन संस्कृति का मेसोपोटामिया के लोगों के साथ कुछ वास्ता रहा होगा।

पतलून के अन्य पहलू आधुनिक कज़ाकस्तान से लेकर पूर्वी एशिया तक के लोगों से संपर्क के संकेत देते हैं। घुटनों पर टेढ़े में बनीं इंटरलॉकिंग टी-आकृतियों का पैटर्न चीन में 3300 साल पुराने एक स्थल से मिले कांसे के पात्रों पर बनी डिज़ाइन और पश्चिमी साइबेरिया में 3800 से 3000 साल पुराने स्थल से मिले मिट्टी के बर्तनों पर बनी डिज़ाइन से मेल खाते हैं। पतलून और ये पात्र लगभग एक ही समय के हैं लेकिन ये एक जगह पर नहीं बल्कि एक-दूसरे से लगभग 3,000 किलोमीटर की दूरी पर स्थित थे।

पतलून के घुटनों को मज़बूती देने वाली टेपेस्ट्री बुनाई सबसे पहले दक्षिण-पश्चिमी एशिया में विकसित की गई थी। ट्विल तकनीक संभवतः उत्तर-पश्चिमी एशिया में विकसित हुई थी।

दूसरे शब्दों में, पतलून का आविष्कार में हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित संस्कृतियों की विभिन्न बुनाई तकनीकों का मेल है। भौगोलिक परिस्थितियों और खानाबदोशी के कारण यांगहाई, जहां टर्फनमैन को दफनाया गया था, के बुनकरों को इतनी दूर स्थित संस्कृतियों से संपर्क का अवसर मिला होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गोदने की सुई से प्रेरित टीकाकरण

रीर पर टैटू बनवाने का चलन काफी पुराना है। प्रागैतिहासिक काल में शरीर पर विभिन्न आकृतियां गुदवाना एक आम बात थी। शुरुआत में गोदना यानी टैटू बनाने के लिए धातु के औज़ारों और वनस्पति रंजकों का उपयोग किया जाता था जो काफी कष्टदायी होता था। आधुनिक तकनीक से गोदना बनाना भी आसान हो गया और गुदवाने वाले को उतना कष्ट भी नहीं होता।     

टैटू बनाने में एक कुशल कलाकार टैटू की सुई को त्वचा में प्रति सेकंड 200 बार चुभोता है। लेकिन रोचक बात यह है कि इस तकनीक में इंजेक्शन के समान स्याही को दबाव डालकर मांस में नहीं भेजा जाता बल्कि जब सुई बाहर निकाली जाती है तब वहां बने खाली स्थान में स्याही खींची जाती है। टेक्सास टेक युनिवर्सिटी के रसायन इंजीनियर इडेरा लावल की रुचि इस तकनीक को टीकाकरण में आज़माने में है।

आम तौर पर टीकाकरण के लिए उपयोग की जाने वाली खोखली सुई ऊपर से पिस्टन को दबाकर डाले गए दबाव पर निर्भर करती है। इसमें सुई मांसपेशियों तक पहुंचती है और फिर सिरिंज के पिस्टन पर दबाव बनाया जाता है जिससे तरल दवा शरीर में प्रवेश कर जाती है।

लावल का ख्याल है कि यह तकनीक हर प्रकार के टीके के लिए उपयुक्त नहीं है। जैसे, आजकल विकसित हो रहे डीएनए आधारित टीके आम तौर पर काफी गाढ़े होते हैं जिनको इंजेक्शन की सुई से दे पाना संभव नहीं होता। यह काम टैटू तकनीक से किया जा सकता है क्योंकि टैटू की सुई का विज्ञान काफी अलग है।

टैटू की स्याही-लेपित सुई त्वचा में प्रवेश करने पर वहां 2 मिलीमीटर गहरा छेद बना देती है। जब सुई त्वचा से बाहर निकलती है, तब इस छोटे छेद में निर्मित निर्वात स्याही को अंदर खींच लेता है। लावल ने इसे एक मांस-नुमा जेल में प्रयोग करके भी दर्शाया है।

कई अन्य विशेषज्ञ लावल के इस प्रयोग को काफी प्रभावी मानते हैं। डैटा पर गौर करें तो आधी स्याही 50 में से 10 टोंचनों से ही पहुंच गई थी। इष्टतम संख्या पर अध्ययन जारी है। (स्रोत फीचर्स)

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रेडियोधर्मी कचरे का एक लाख वर्ष तक भंडारण!

कोयला संयंत्रों की तुलना में परमाणु उर्जा को स्वच्छ उर्जा माना जाता है। परमाणु उर्जा संयंत्रों की दक्षता भी अधिक होती है – समान मात्रा में कोयले की तुलना में 20,000 गुना अधिक उर्जा प्राप्त होती है। लेकिन इन संयंत्रों से निकलने वाला रेडियोधर्मी कचरा एक बड़ी समस्या है। यह कचरा सैकड़ों हज़ारों वर्षों तक सक्रिय रहता है और पर्यावरण व स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता रहता है। वर्तमान में, परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले अधिकांश रेडियोधर्मी कचरे को बिजली संयंत्रों में ही संग्रहित किया जाता है लेकिन स्थान की कमी के कारण इस कचरे को स्थानांतरित करना आवश्यक हो जाता है।     

इस कचरे को धरती में दफनाने में भी कई समस्याएं हैं। यह धीरे-धीरे मिट्टी को संदूषित कर पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता रहता है। ऐसे में तेज़ी से विकसित हो रहे परमाणु उर्जा संयंत्रों से भविष्य में रेडियोधर्मी अपशिष्ट का निष्पादन एक बड़ी समस्या बन सकता है। वर्तमान में नेवादा स्थित प्रसिद्ध युक्का माउंटेन पर परमाणु कचरे के स्थायी भंडारण से फ्रांस, स्वीडन और अमेरिका जैसे देशों को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। हाल में फिनलैंड एक दीर्घकालिक परमाणु अपशिष्ट भंडार के लिए अनुमोदन प्राप्त करने में सफल रहा है जिसे आने वाले कुछ वर्षों में शुरू करने की तैयारी है।

इस भंडारण सुविधा को फिनिश भाषा में ऑनकालो नाम दिया गया है जिसका मतलब गहरा गड्ढा है। यूराजोकी शहर के बाहरी क्षेत्र में पृथ्वी की सतह से लगभग आधा किलोमीटर नीचे युरेनियम ईंधन अपशिष्ट का भंडारण किया जाएगा। उम्मीद की जा रही है कि तांबे के पुख्ता कवच, जल-अवशोषक बेंटोनाइट मिट्टी और जलरोधी क्रिस्टलीय चट्टानों की मोटी-मोटी परतें हानिकारक रेडियोधर्मी तत्वों को इस स्थल से बाहर रिसने और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाने से रोक लेंगी। लेकिन यहां की अछिद्रित चट्टानों में भी दरारें तो होती ही हैं। अत: इस परियोजना पर काम करने वाली कंपनी पोसिवा को इन दरारों का मानचित्रण करके उनसे बचने के काफी प्रयास करना पड़े हैं।

यह परियोजना फिनलैंड के परमाणु उर्जा क्षेत्र के जोखिम को कम करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इस वर्ष पांचवें परमाणु उर्जा संयंत्र के शुरू होने के बाद परमाणु ऊर्जा देश की ऊर्जा की 40 प्रतिशत मांग को पूरा करेगी। यदि यह परियोजना सफल होती है तो ऑनकालो के विशाल तांबा कवच रेडियोधर्मी युरेनियम को तब तक सुरक्षित और सुखाकर रखेंगे जब तक कि यह पर्याप्त सुरक्षित स्तर तक विघटित नहीं हो जाता यानी लगभग एक लाख वर्षों तक। (स्रोत फीचर्स) 

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समुद्री ध्वनियों की लाइब्रेरी की तैयारी

मुद्रों में अठखेलियां करने वालों ने हम्पबैक व्हेल का दर्दभरा गीत सुना है, किलर व्हेल के समूह का कोलाहल सुना है। लेकिन कांटेदार किना समुद्री साही जैसे शांत जीवों की ध्वनि अनसुनी रह जाती है; यह एक खोखले गोले के पानी में गिरने जैसी आवाज़ करता है। अब, कुछ वैज्ञानिक शांत समुद्री जीवों की ध्वनियां लोगों के ध्यान में लाना चाहते हैं। इसलिए इस महीने फ्रंटियर्स इन इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में नौ देशों के 17 शोधकर्ताओं ने समुद्री जीवों द्वारा उत्पन्न ध्वनियों को सूचीबद्ध करने, उनका अध्ययन करने और मानचित्रण के लिए एक वैश्विक लाइब्रेरी का प्रस्ताव रखा है। इस लाइब्रेरी को ग्लब्स (GLUBS) नाम दिया है, जिसमें ध्वनि विशेषज्ञों और नागरिक-वैज्ञानिकों से समुद्र के नीचे की ध्वनियां एकत्र की जाएंगी ताकि शोधकर्ताओं को यह ट्रैक करने में मदद मिले कि समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं।

इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन साइंस के समुद्री जीव विज्ञानी माइल्स पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि इस तरह की लाइब्रेरी का सुझाव नया नहीं हैं। समुद्री जीवों की कुछ लाइब्रेरी पहले से मौजूद हैं। लेकिन वे किसी क्षेत्र या कुछ चुनिंदा जंतुओं पर केंद्रित हैं। नया विचार समुद्र के भीतर के ध्वनि के स्रोतों को समझने और उनके दस्तावेज़ीकरण में मदद करेगा।

उन्होंने आगे बताया कि लाइब्रेरी में ज्ञात ध्वनियां और उनके स्रोत होंगे। इसके साथ-साथ इसमें अज्ञात ध्वनियां भी होंगी जिन्हें पहचानने की आवश्यकता होगी। इसमें शोधकर्ता अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई किसी एक जंतु की ध्वनि या किसी एक स्थान पर होने वाली सभी आवाज़ों की सम्मिलित रिकॉर्डिंग अपलोड कर सकते हैं। ध्वनि रिकॉर्डिंग के आधार पर विभिन्न प्रजातियों के वितरण पर नज़र रखने वाले नक्शे होंगे। और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रशिक्षण के लिए एक डैटाबेस होगा।

लाइब्रेरी में ध्वनियों को सहेजने का उद्देश्य आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को प्रशिक्षित करने का भी है ताकि वे अज्ञात ध्वनियों के (अज्ञात) स्रोतों को पता लगाने और पहचानने में सक्षम हो। आदर्श रूप से हम यह बताने में सक्षम होंगे कि हमने जो ध्वनि रिकॉर्ड की है वह किस प्राणि की है। लेकिन ऐसा करने के लिए प्रत्येक ध्वनि के हज़ारों नमूनों की आवश्यकता होगी।

इस प्रयास में लोगों को जोड़ने के लिए एक ऐसा नागरिक-विज्ञान ऐप बना सकते हैं जिसके ज़रिए वे अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई ध्वनियों को अपलोड कर सकें और पहचान सकें। उम्मीद है कि एक दिन एक विशाल डैटाबेस तैयार हो पाएगा जिसको कोई ध्वनि सुनाते ही वह सम्बंधित प्रजाति और उसके व्यवहार को पहचान सकेगा।

समुद्री जीवन की ध्वनियां रिकॉर्ड करने के लिए बैटरी वाले हाइड्रोफोन का उपयोग किया जाता है। खास तौर से गहराई में दबाव से निपटना काफी मुश्किल हो जाता है। हाइड्रोफोन को या तो लगातार रिकॉर्डिंग के लिए या हर 15 मिनट में 5 मिनट की रिकॉर्डिंग करने के लिए प्रोग्राम किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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सेंटीपीड से प्रेरित रोबोट्स

सेंटीपीड एक रेंगने वाला जीव है। कुछ मिलीमीटर से लेकर 30 सेंटीमीटर लंबे और अनेक टांगों वाले ये जीव विभिन्न परिवेशों में पाए जाते हैं। यह अकशेरुकी जीव रेत, मिट्टी, चट्टानों और यहां तक कि पानी पर भी दौड़ सकता है। जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के जीव विज्ञानी डेनियल गोल्डमैन और उनके सहयोगी सेंटीपीड की इस विशेषता का अध्ययन कर रहे थे। हाल ही में टीम ने सोसाइटी ऑफ इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की बैठक के दौरान बताया कि उन्होंने एक ऐसा सेंटीपीड रोबोट तैयार किया है जो खेतों से खरपतवार निकालने में काफी उपयोगी साबित होगा।

दरअसल, सेंटीपीड का लचीलापन ही उसे विभिन्न प्रकार के व्यवहार प्रदर्शित करने में सक्षम बनाता है। वैसे नाम के अनुरूप सेंटीपीड के 100 पैर तो नहीं होते लेकिन हर खंड में एक जोड़ी टांगें होती हैं। यह संरचना उन्हें तेज़ रफ्तार और दक्षता से तरह-तरह से चलने-फिरने की गुंजाइश देती है हालांकि सेंटीपीड की चाल को समझना लगभग असंभव रहा है।

गोल्डमैन के एक छात्र इलेक्ट्रिकल इंजीनियर और रोबोटिक्स वैज्ञानिक यासेमिन ओज़कान-आयडिन ने जब यह पता किया कि कई खंड और टांगें होने का क्या महत्व है तो अध्ययन का तरीका सूझा। इसके लिए ओज़कान-आयडिन ने चार पैर वाले दो-तीन रोबोट्स को एक साथ जोड़ दिया। साइंस रोबोटिक्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह संयुक्त मशीन चौड़ी दरारों और बड़ी-बड़ी बाधाओं को पार करने के सक्षम थी। इसके अलावा युनिवर्सिटी की एक अन्य छात्र एवा एरिकसन ने अन्य जीवों की तुलना में सेंटीपीड की चाल को और गहराई से समझने का प्रयास किया। गौरतलब है कि घोड़े और मनुष्य अपनी रफ्तार बढ़ाने के लिए अपने पैरों अलग-अलग ढंग से चलाते हैं। वीडियो ट्रैकिंग प्रोग्राम का उपयोग करते हुए एरिकसन ने बताया कि सेंटीपीड अपनी चाल में परिवर्तन उबड़-खाबड मार्ग की चुनौतियों के अनुसार करता है।

आम तौर पर सेंटीपीड के पैर एक तरंग के रूप में चलते हैं। लेकिन कई बार इस तरंग की दिशा में परिवर्तन आता है। समतल सतहों पर इस लहर की शुरुआत पिछले पैर से होते हुए सिर की ओर जाती है लेकिन कठिन रास्तों पर इस लहर की दिशा बदल जाती है और कदम जमाने के लिए सबसे पहले आगे का पैर हरकत में आता है। और तो और, प्रत्येक पैर ठीक उसी स्थान पर पड़ता है जहां पिछला कदम पड़ा था।

सेंटीपीड खुद को बचाने के लिए पानी पर तैरने में भी काफी सक्षम होते हैं। तैरने के लिए भी वे अपनी चाल में परिवर्तन करते हैं। लिथोबियस फॉरफिकैटस प्रजाति का सेंटीपीड अपने पैरों को पटकता है और फिर अपने शरीर को एक ओर से दूसरी ओर लहराते हुए आगे बढ़ता है। यहां दो तरंगें पैदा होती हैं – एक पैरों की गति की तथा दूसरी शरीर के लहराने की। इन दो तरंगों के बीच समन्वय को समझने के लिए एक अन्य छात्र ने गणितीय मॉडल का उपयोग किया। इस मॉडल में पैरों और शरीर की तरंगों के विभिन्न संयोजन तैयार किए गए। पता चला कि दो तरंगों के एक साथ चलने की बजाय इनके बीच थोड़ा अंतराल होने पर रोबोट अधिक तेज़ी से आगे बढ़ता है। इसी तरह से कुछ संयोजनों से रोबोट को पीछे जाने में भी मदद मिलती है। गोल्डमैन और टीम ने इसको आगे बढ़ाते हुए बताया कि यदि रोबोट के पैरों में जोड़ हों और शरीर के खंडों में लोच हो तो रोबोट ज़्यादा बेहतर काम कर सकता है। गोल्डमैन द्वारा तैयार किए गए वर्तमान रोबोट काफी लचीले हैं और वे किसी भी स्थान के कोने-कोने तक पहुंच सकते हैं। आगे वे इन्हें प्रशिक्षित करना चाहते हैं ताकि वे खरपतवार को पहचान सकें और निंदाई का काम कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान अनुसंधान: 2021 में हुई कुछ महत्वपूर्ण खोजें – मनीष श्रीवास्तव

र साल विज्ञान की दुनिया में नई—नई खोजें मानव सभ्यता को उत्कृष्ट बनाती हैं। साल 2021 भी इससे कुछ अलग नहीं रहा है। यहां 2021 में हुई कुछ ऐसे ही वैज्ञानिक खोजों की झलकियां प्रस्तुत की जा रही हैं, जो स्वास्थ्य, अंतरिक्ष, खगोलविज्ञान जैसे विषयों से जुड़ी हुई हैं।

अंतरिक्ष में नई दूरबीन

हाल ही में नासा से जुड़े वैज्ञानिकों ने कनाडा तथा युरोपीय संघ की मदद से एक अत्यंत शक्तिशाली अंतरिक्ष दूरबीन लॉन्च की है। नाम है जेम्स वेब। उम्मीद जताई जा रही है अपने 5-10 साल के जीवन में यह ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्य उजागर करने में मददगार होगी ।

पृथ्वी से 15 लाख किलोमीटर दूर स्थापित जेम्स वेब दूरबीन कई मामलों में खास है। यह अंतरिक्ष से आने वाली इंफ्रारेड तरंगों को पकड़ेगी, जिन्हें अन्य दूरबीनें नहीं पकड़ पाती थीं जिसके चलते अंतरिक्ष में छिपे पिंडों को भी देखा जा सकेगा।

इसके अलावा यह गैस के बादलों के पार भी देख सकती है।

नए आई ड्रॉप से दूर होगी चश्मे की समस्या

हाल ही में अमेरिका में ऐसे आई ड्राप – ‘वुइटी’ – पर शोध किया गया है जो ऐसे लोगों के लिए बेहद मददगार होने वाला है, जिन्हें आंखों से धुंधला दिखाई देता है। उपयोग करने पर यह कुछ समय के लिए आंखों में धुंधलेपन की समस्या को दूर कर देती है। इसे यूएस के खाद्य व औषधि प्रसासन (एफडीए) की स्वीकृति भी प्राप्त हो चुकी है। इसके निर्माताओं का दावा है कि इसका असर 6—10 घंटों तक रहता है। इसके एक महीने के डोज़ का खर्च करीब 6 हज़ार रुपए होगा।

प्रयोगशाला में बनाया स्क्वेलीन

युनेस्को के अनुसार सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों, दवाइयों और कोविड वैक्सीन बनाने में इस्तेमाल होने वाले स्क्वेलीन के लिए हर साल 12—13 लाख शार्क के लीवर से 100—150 मिलीलीटर स्क्वेलिन प्राप्त किया जाता है। आईआईटी जोधपुर के वैज्ञानिक प्रो. राकेश शर्मा ने जंगली वनस्पतियों और राज्स्थानी मिट्टी की प्रोसेसिंग से स्क्वेलिन तैयार करने में सफलता पाई है। इस रिसर्च को हाल ही में पेटेंट भी मिल गया है। अब इसके उत्पादन की तैयारी चल रही है।

स्क्वेलीन का इस्तेमाल टीकों में सहायक के रूप में भी होता है। शार्क से मिलने वाले स्क्वेलीन की कीमत 10 लाख रुपए किलो है, जबकि प्रयोगशाला में तैयार स्क्वेलीन की लागत बहुत कम है। प्रयोगशाला में तैयार करने के लिए इसमें धतूरा, आक, रतनज्योत और खेजड़ी के बीजों का इस्तेमाल किया गया है। इन्हें राजस्थानी मिट्टी के साथ प्रोसेस कर स्क्वेलीन बनाने का काम किया जा रहा है।

तंत्रिका रोगों का नया इलाज

हाल ही में किए गए एक अध्ययन में यह संकेत मिले हैं कि एक एथलीट के शरीर का प्रोटीन दूसरे शख्स के तंत्रिका रोगों के इलाज में कारगर साबित हो सकता है। शोधकर्ताओं द्वारा एक्सरसाइज़ व्हील पर कई मील दौड़ लगाने वाले चूहों का खून निष्क्रिय चूहा में डालने पर काफी हैरतअंगेज़ नतीज़े सामने आए। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि कसरती चूहे का खून इंजेक्ट किए जाने के बाद निष्क्रिय चूहे में अल्ज़ाइमर और अन्य तंत्रिका बीमारियों के कारण होने वाली मस्तिष्क की सूजन कम हो गई। मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल एंड हावर्ड मेडिकल स्कूल के न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर रुडोल्फ तान का कहना है कि कसरत के दौरान बनने वाले प्रोटीन से मस्तिष्क की सेहत में सुधार से जुड़े शोध हो रहे हैं। वे खुद वर्ष 2018 में इस विषय पर एक शोध कर चुके हैं, जिसमें देखा गया था कि अल्ज़ाइमर वाले चूहों के मस्तिष्क की सेहत में कसरत से सुधार हुआ है।

बिना तारे वाले ग्रह

ब्रह्मांड में अभी तक जितने भी ग्रह खोजे जा सके हैं, उन्हें उनके अपने सूर्य की चमक में होने वाली कमी के आधार पर खोजा जा सका है। ऐसे में बिना तारों वाले ग्रहों की खोज करना तो असंभव सा ही प्रतीत होता था, लेकिन वैज्ञानिकों ने हाल ही में 100 से भी ज़्यादा ऐसे ग्रहों की खोज की है जिनका अपना कोई सूर्य या तारा नहीं है। पहली बार एक साथ इतनी बड़ी संख्या में ऐसे ग्रहों की खोज हुई है।

खगोलविदों का कहना है कि इन ग्रहों का निर्माण ग्रहों के तंत्र में हुआ होगा और बाद में ये स्वतंत्र विचरण करने लगे होंगे। इन पिंडों की पड़ताल के लिए शोधकर्ताओं ने युवा ‘अपर स्कॉर्पियस’ तारामंडल का अध्ययन किया। यह हमारे सूर्य के सबसे पास तारों का निर्माण करने वाला क्षेत्र है।

खगोलविदों का कहना है कि ब्रह्मांड में मुक्त ग्रहों की खोज आगे के अध्ययनों में बेहद उपयोगी होगी। अब जेम्स वेब स्पेस दूरबीन जैसे उन्नत उपकरण इनके बारे में विस्तृत खोजबीन कर सकते हैं।  

चुंबक खत्म करेगा विद्युत संकट

एक निहायत शक्तिशाली चुंबक बनाया गया है, इतना शक्तिशाली कि पूरे विमान को अपनी तरफ खींच सकता है। इसे फ्रांस के इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर (ITER) में असेंबल करके रखा गया है। यह 18 मीटर ऊंचा और 4.3 मीटर चौड़ा है। ITER के वैज्ञानिक नाभिकीय संलयन के ज़रिए ऊर्जा उत्पादन की तलाश कर रहे हैं। इसी संदर्भ में इस विशाल चुंबक का निर्माण किया गया है ताकि परमाणु रिएक्टर में विखंडित होने वाले नाभिकों का संलयन इसकी मदद से करवाया जाए और इससे असीमित ऊर्जा प्राप्त की जाए। अगर वैज्ञानिक कामयाब रहे तो विद्युत संकट का एक समाधान उभर आएगा।

एड्स उपचार में प्रगति

एक नए अध्ययन में भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), बेंगलुरु के शोधकर्ताओं ने एचआईवी संक्रमित प्रतिरक्षा कोशिकाओं में वायरस की वृद्धि दर कम करने एवं उसे रोकने में हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S) गैस की भूमिका का पता लगाया है। उनका कहना है कि यह खोज एचआईवी के विरुद्ध अधिक व्यापक एंटीरेट्रोवायरल उपचार विकसित करने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। देखा जाए, तो वर्तमान एंटीरेट्रोवायरल उपचार एड्स का इलाज नहीं है। यह केवल वायरस को दबाकर रखता है, जिसके चलते बीमारी सुप्त रहती है। आईआईएससी में एसोसिएट प्रोफेसर अमित सिंह के अनुसार, “इससे एचआईवी संक्रमित लाखों लोगों के जीवन में सुधार हो सकता है।”

यह थी गत वर्ष हुईं महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजें। इनके अलावा भी कई सारी अन्य उपयोगी खोजें हुई हैं। उम्मीद है 2022 विज्ञान के लिए बेहतर साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

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अफवाह फैलाने में व्यक्तित्व की भूमिका

ज के दौर के सोशल मीडिया ने एक ओर जहां लोगों को जोड़ने का काम किया है, वहीं दूसरी ओर इसके माध्यम से भ्रामक खबरों को साझा करने के चलते ध्रुवीकरण, हिंसक उग्रवाद और नस्लवाद में भी काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जो भ्रामक खबरों को साझा करते हैं? एक विश्लेषण के अनुसार रूढ़िवादी लोग काफी हद तक भ्रामक सूचनाओं के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार हैं।

इन भ्रामक सूचनाओं के संकट का समाधान खोजने के लिए एक ऐसे स्पष्ट आकलन की आवश्यकता है जिससे यह पता लगाया जा सके कि झूठ और षडयंत्र के सिद्धांतों को कौन फैला रहा है। इस विषय में ड्यूक युनिवर्सिटी के मैनेजमेंट एंड आर्गेनाइज़ेशन के शोध छात्र अशर लॉसन और इसी युनिवर्सिटी में फुकुआ स्कूल ऑफ बिज़नेस के असिस्टेंट प्रोफेसर हेमंत कक्कड़ ने लोगों के व्यक्तित्व को मुख्य निर्धारक के रूप में जांचने का काम किया।

व्यक्तित्व लक्षणों की पहचान और मापन के लिए उन्होंने प्रचलित फाइव-फैक्टर थ्योरी का इस्तेमाल किया जिसे बिग फाइव भी कहा जाता है। यह थ्योरी व्यक्तित्वों को 5 श्रेणियों में बांटती है: अनुभव के प्रति खुलापन, कर्तव्यनिष्ठा, बहिर्मुखता, सहमत होने की तैयारी और उन्माद। इस ढांचे के अंतर्गत कर्तव्यनिष्ठा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया जिससे लोगों की सलीकापसंदगी, उत्तेजित होने पर आत्म-नियंत्रण, रूढ़िवादिता और विश्वसनीयता में अंतरों का पता चलता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान था कि कम-कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी  लोग (एलसीसी) अन्य रूढ़िवादियों या कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना में अधिक भ्रामक समाचार साझा करते हैं। उन्होंने व्यक्तित्व, राजनीति और भ्रामक समाचारों को साझा करने के बीच सम्बंधों का पता लगाने के लिए 8 अध्ययन किए जिनमें 4642 प्रतिभागी शामिल थे।

सबसे पहले शोधकर्ताओं ने विभिन्न आकलनों के माध्यम से लोगों की राजनीतिक विचारधारा और कर्तव्यनिष्ठा को मापा जिसमें प्रतिभागियों से उनके मूल्यों और व्यवहारों के बारे में पूछा गया था। इसके बाद प्रतिभागियों को कोविड से सम्बंधित कुछ सत्य और भ्रामक समाचारों की शृंखला दिखाई गई और इन समाचारों की सटीकता के बारे में सवाल किए गए। यह भी पूछा गया कि वे इन समाचारों को साझा करेंगे या नहीं। उन्होंने पाया कि उदारवादी और रूढ़िवादी, दोनों ही प्रकार के लोग कभी-कभी भ्रामक समाचार को सही मान लेते हैं। शायद उन्होंने इन समाचारों को सटीक इसलिए माना क्योंकि ये उनके विश्वासों से मेल खाते थे।

यह भी देखा गया कि विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं से जुड़े लोगों ने भ्रामक समाचार साझा करने की बात कही लेकिन अन्य सभी प्रतिभागियों की तुलना में एलसीसी के बीच यह व्यवहार काफी अधिक देखा गया। हालांकि, उच्च स्तर के कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों और रूढ़िवादियों के बीच कोई अंतर देखने को नहीं मिला जबकि कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों ने उच्च-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना भ्रामक समाचार ज़्यादा साझा नहीं किए।

दूसरे अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने इन परिणामों को स्पष्ट राजनीतिक रुझान वाले भ्रामक समाचारों के साथ दोहराया और पिछले अध्ययन से भी अधिक प्रभाव देखा। इस बार भी विभिन्न स्तर की कर्तव्यनिष्ठा वाले उदारवादी और उच्च कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी व्यापक स्तर पर भ्रामक जानकारी फैलाने में शामिल नहीं थे। भ्रामक समाचार फैलाने वालों में कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी (एलसीसी) आगे रहे।

सवाल यह था कि एलसीसी में भ्रामक समाचार को साझा करने की प्रवृत्ति क्यों होती है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक ऐसा प्रयोग किया जिसमें प्रतिभागियों की राजनीतिक विचारधारा और व्यक्तित्व के बारे में जानकारी के अलावा उनमें अराजकता की चाहत, सामाजिक और आर्थिक रूप से रूढ़िवादी मुद्दों के समर्थन, मुख्यधारा मीडिया पर भरोसे और सोशल मीडिया पर बिताए गए समय का आकलन किया गया। शोधकर्ताओं के अनुसार एलसीसी ने अराजकता की ज़रूरत ज़ाहिर की, और साथ ही वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक संस्थाओं को बाधित करने और नष्ट करने की इच्छा भी व्यक्त की। इनसे भ्रामक जानकारियों को फैलाने की उनकी प्रवृत्ति की व्याख्या हो जाती है। यह किसी अन्य विचारों और समूहों की तुलना में स्वयं को श्रेष्ठ मानने की इच्छा को भी दर्शाता है जो कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादियों में अधिक देखने को मिलती है।         

दुर्भाग्य से, शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि समाचारों पर सटीकता का लेबल लगाने से भी भ्रामक जानकारी की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग अंजाम दिया जिसमें सोशल मीडिया पर साझा किए गए सही समाचार के लिए ‘पुष्ट’ और भ्रामक समाचार के लिए ‘विवादित’ टैग का उपयोग किया गया। उन्होंने पाया कि उदारवादियों और रूढ़िवादियों ने ‘पुष्ट’ टैग वाले समाचार को अधिक साझा किया। हालांकि, एलसीसी ने अभी भी जानकारी को गलत या भ्रामक जानते हुए भी साझा करना जारी रखा।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया जिसमें प्रतिभागियों को स्पष्ट रूप से बताया गया कि जिस जानकारी को वे साझा करना चाहते हैं वह गलत है। इसके बाद उनको अपने निर्णय को बदलने का मौका भी दिया गया। इसके बाद भी एलसीसी द्वारा भ्रामक समाचार साझा करने की दर काफी उच्च रही और वे समाचार के गलत होने की चेतावनियों को भी अनदेखा करते रहे।

यह परिणाम काफी चिंताजनक है जिसमें एलसीसी भ्रामक समाचारों के प्रसार के प्राथमिक चालक नज़र आते हैं। इसके लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को चेतावनी का लेबल लगाने के बजाय कोई और समाधान खोजना होगा। एक अन्य विकल्प के रूप में सोशल मीडिया कंपनियों को ऐसे समाचारों को अपने प्लेटफॉर्म्स से हटाने के प्रयास करने चाहिए जो किसी व्यक्ति समुदाय को चोट पहुंचाने की क्षमता रखते हैं। कुल मिलाकर मुद्दा सिर्फ इतना है कि जब तक सोशल मीडिया कंपनियां कोई ठोस तरीका खोज नहीं निकालती हैं तब तक यह समस्या बनी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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