कितनी स्वच्छ थी मेरी दिवाली – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

गभग 80 साल पहले रिचर्ड लेवलीन ने एक किताब लिखी थी, हाऊ ग्रीन वॉस माय वैली (कितनी हरी-भरी थी मेरी घाटी)। इस उपन्यास में बताया गया था कि कैसे वेल्स देश के खदान क्षेत्र, लगातार और गहरे खनन के कारण धीरे-धीरे प्रदूषित इलाकों में तब्दील हो गए। हमारे यहां भी हाल ही में हुए घटनाक्रम रिचर्ड लेवलीन की इस किताब की याद दिलाते हैं – दिवाली के समय पटाखों का इस्तेमाल, उनके कारण उत्पन्न ध्वनि और पर्यावरण प्रदूषण (जो भारत के कई स्थानों की पहले से प्रदूषित हवा को और भी प्रदूषित कर रहे हैं) और पटाखों के इस्तेमाल पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश कि पटाखे, वह भी मात्र ग्रीन (पर्यावरण हितैषी) पटाखे, रात में सिर्फ दो घंटे ही चलाए जाएं (जिसका पालन नहीं हुआ)। 

ग्रीन पटाखे क्या हैं? ग्रीन पटाखों में पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले लीथियम, एंटीमनी, लेड, मर्करी जैसे तत्व नहीं होते। इसके अलावा इन पटाखों में परक्लोरेट, परआयोडेट और बेरियम जैसे अति-शक्तिशाली विस्फोटक भी नहीं होते। कोर्ट द्वारा पटाखों के इस्तेमाल से सम्बंधित ये दिशानिर्देश भारत के पेट्रोलियम एंड एक्सप्लोसिव सेफ्टी ऑर्गेनाइज़ेशन (PESO) के सुझाव के आधार पर दिए गए थे। लेकिन वर्तमान में ये ग्रीन पटाखे बाज़ार में उपलब्ध ही नहीं है। तमिलनाडु फायरवर्क्स एंड एमोर्सेस मेन्यूफैक्चरर एसोसिएशन (TANFAMA) की 850 पटाखा फैक्टरी में तकरीबन दस लाख लोग काम करते हैं। उनका सालाना टर्नओवर 5 हज़ार करोड़ का है। एसोसिएशन ने घोषणा की है कि वे परक्लोरेट व उपरोक्त हानिकारक धातुओं का पटाखे बनाने में इस्तेमाल नहीं करते हैं (जिनका उपयोग चीन की पटाखा फैक्टरियों में किया जाता है और उन्हें भारत में निर्यात किया जाता है)। एसोसिएशन का कहना है कि पटाखे बनाने में वे पोटेशियम नाइट्रेट, सल्फर, एल्यूमिनियम पावडर और बेरियम नाइट्रेट का उपयोग करते हैं। आतिशबाज़ी में लाल रंग के लिए स्ट्रॉन्शियम नाइट्रेट का उपयोग किया जाता है और फुलझड़ी की चिंगारियों के लिए एल्यूमिनियम का उपयोग किया जाता है और धमाकेदार आवाज़ के लिए एल्यूमिनियम के साथ सल्फर का उपयोग किया जाता है। हरे रंग के लिए बेरियम का उपयोग किया जाता है। पटाखों में लाल सीसा और बिस्मथ ऑक्साइड का भी उपयोग होता है। एसोसिएशन अपनी वेबसाइट पर दावा करता है कि उनके पटाखों का ध्वनि का स्तर 125 डेसीबल है जो युरोप के मानक ध्वनि स्तर (131 डेसीबल) से भी कम है।

परक्लोरेट और बेरियम

पटाखों में परक्लोरेट का उपयोग एक विस्फोटक की तरह किया जाता है किंतु वह बहुत ही असुरक्षित है। यह थॉयरॉइड ग्रंथि के कार्य को प्रभावित करता है (यह आयोडीन अवशोषण की प्रक्रिया में बाधा डालता है)। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एन्वायर्मेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में आशा श्रीनिवासन और टी. वीरराघवन के शोध पत्र के अनुसार परक्लोरेट कैंसरकारक भी हो सकता है। एन्वायर्मेंट मॉनीटरिंग में अक्टूबर 2012 में प्रकाशित आईसोब की टीम के एक पेपर के अनुसार दक्षिण भारत में पटाखों की फैक्टरी वाले इलाकों के भूजल और नल के पानी में परक्लोरेट सुरक्षित सीमा से अधिक पाया गया था। शुक्र है कि भारत की पटाखा फैक्टरियां अब परक्लोरेट का उपयोग नहीं करती हैं। लेकिन परक्लोरेट से निर्मित पटाखों के आयात पर भी रोक लगनी चाहिए।

भारत में, पटाखों के निर्माण में अभी भी बेरियम का उपयोग किया जाता है। बेरियम भी ग्रीन नहीं बल्कि ज़हरीला भी है। एक आबादी आधारित अध्ययन में पाया गया है कि सुरक्षित सीमा से अधिक बेरियम युक्त पेयजल वाले इलाकों में, 65 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्तियों में ह्मदय सम्बंधी रोगों से मृत्यु होने की आशंका काफी बढ़ जाती है। चूहों पर हुए एक अध्ययन में देखा गया है कि बेरियम का सेवन किडनी को प्रभावित करता है जिसके कारण तंत्रिका सम्बंधी समस्या हो सकती है। यह देखना बाकी है कि यह मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। बिस्मथ भी समस्यामूलक है। हालांकि लेड और एंटीमनी की तुलना में बिस्मथ कम विषैला है, लेकिन यह किडनी, लीवर और मूत्राशय को प्रभावित करता है। इसका विषाक्तता स्तर निर्धारित करना ज़रूरी है।

दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्य वायु प्रदूषण (हवा में निलंबित कण, वाहनों से निकलने वाले प्रदूषक, धुआं और स्मॉग) से जूझ रहे हैं। जिससे वहां के लोगों का रहना दूभर हो रहा है। देश के कई अन्य शहर भी अब दिल्ली की तरह प्रदूषित होते जा रहे हैं। त्यौहारों के अलावा शादी, सामाजिक उत्सवों में पटाखे चलाना प्रदूषण को और भी बढ़ा देता है। हम भारतीय शोर-शराबा करने और पर्यावरण को प्रदूषित करने के आदी हैं। रोक चाहे किसी भी स्तर (स्थानीय, सरकार या सुप्रीम कोर्ट के स्तर) पर लगे किंतु हम लोग उनका पालन नहीं करते। व्यक्तिगत रूप से, परिवार के स्तर पर, समाज के स्तर पर नियमों का पालन करने पर ही बदलाव आएगा। हम भारतीयों के लिए जश्न मनाने का मतलब बस शोर-शराबा करना ही हो गया है।

अन्य देश

मगर ऐसा क्यों है कि भारतीय लोग सिर्फ भारत में ऐसा करते हैं? विदेशों में रह रहे भारतीय वहां ऐसा क्यों नहीं करते? सप्तऋषि दत्ता ने पिछले साल swachhindia.ndtv.com में एक लेख लिखा था: पटाखों पर नियंत्रण और प्रतिबंध: भारत इन देशों से क्या सीख सकता है। ज़्यादातर युरोपीय देश, वियतनाम, सिंगापुर, यूके, आइसलैंड जैसे देश सिर्फ त्यौहारों के आसपास ही पटाखे खरीदने की इज़ाजत देते हैं। यूएसए के 50 से अधिक प्रांतों में कई प्रकार के पटाखों पर प्रतिबंध है। साथ ही वहां व्यक्तिगत स्तर पर पटाखे चलाने की जगह सामाजिक, शहर, राज्य स्तर पर चलाने की अनुमति है। ऑस्ट्रेलिया में भी ऊपर आकाश में जाकर फूटने वाले और तेज़ धमाकेदार आवाज़ करने वाले पटाखों पर प्रतिबंध लगा है। और न्यूज़ीलैंड में साल में सिर्फ चार बार ही पटाखे चलाने की अनुमति है।

यदि भारतीय लोग विदेशों में नियमों का पालन कर सकते हैं तो वे भारत में रहते हुए क्यों नहीं करते? चाहे कितने भी नियम बन जाएं, जब तक सोच नहीं बदलेगी, हम स्वच्छ भारत नहीं बना पाएंगे। इस तर्क में कोई दम नहीं है कि परंपराओं और आस्थाओं का संरक्षण ज़रूरी है। इस संदर्भ में विदेशी और भारतीय दोनों ही सरकारों ने पटाखों को चलाने के लिए कुछ छूट दी है। यदि पटाखे चलाना धार्मिक अनुष्ठान के लिए ज़रूरी है (है क्या?) तो क्यों ना निश्चित समय के लिए और सांकेतिक रूप से चलाए जाएं, जिससे पर्यावरण को भी नुकसान ना पहुंचे।

जैसे कि हम गणेश विसर्जन में मूर्तियों को झील, तालाब या नदियों में इस बात की परवाह किए बिना विसर्जित कर देते हैं कि क्या ऐसा करना पर्यावरण हितैषी हैं। पहले मूर्तियां मिट्टी की बनाई जाती थी, मगर आज बड़ी, पर्यावरण विरोधी, और भड़कीली मूर्तियां बनाई जाती हैं। दी हिंदू में कीर्तिक शशिधरन लिखते हैं, नदी ऐसी जगह बन गई है जहां धार्मिक और प्रदूषणकारी लोग एक साथ देखने को मिलते है। धर्म को लेकर जो हमारी मान्यताएं हैं वह हमारे स्वचछता के विचार से कहीं मेल नहीं खाती। कैसे कोई भक्त नदी को दूषित छोड़ सकता है। और क्या प्रदूषण नदी की पवित्रता कम नहीं करता। हम पटाखे चलाते हैं तो क्या हम प्रदूषण के बारे में सोचते हैं? क्या हवा पवित्र या धार्मिक नहीं है? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अरावली पहाड़ियां बची रहीं, तो पर्यावरण भी बचा रहेगा – जाहिद खान

शीर्ष अदालत ने हाल ही में दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण से उत्पन्न स्थिति से सम्बंधित एक मामले की सुनवाई करते हुए, जिस तरह से राजस्थान सरकार को 48 घंटे के अंदर राज्य के 115.34 हैक्टर क्षेत्र में गैरकानूनी खनन बंद करने का सख्त आदेश दिया है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। अदालत के इस आदेश से न सिर्फ राजस्थान के पर्यावरण की रक्षा होगी, बल्कि दिल्ली के पर्यावरण में भी सुधार आएगा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर कम होगा। लोगों को प्रदूषण और उससे होने वाले नुकसान से निजात मिलेगी।

जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ का इस बारे में कहना था कि यद्यपि राजस्थान को अरावली में खनन गतिविधियों से करीब पांच हज़ार करोड़ रुपए की रॉयल्टी मिलती है, लेकिन वह दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों की ज़िंदगी ख़तरे में नहीं डाल सकती। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर बढ़ने की एक बड़ी वजह अरावली पहाड़ियों का गायब होना भी हो सकता है। अदालत ने यह आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की उस रिपोर्ट के आधार पर दिया है, जिसमें कहा गया है कि पिछले 50 सालों में अरावली पर्वत शृंखला की 128 पहाड़ियों में से 31 पहाड़ियां गायब हो गई हैं।

केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति के वकील ने सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध किया था कि अरावली क्षेत्र में गैरकानूनी खनन गतिविधियां रोकने के लिए कठोर से कठोर कदम उठाने चाहिए, क्योंकि राज्य सरकार इन गतिविधियों के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। सुनवाई के दौरान जब अदालत ने राजस्थान सरकार से इस बारे में पूछा कि अरावली क्षेत्र में अवैध खनन रोकने के लिए उसने क्या कदम उठाए हैं, तो सरकार की दलील थी कि उनके यहां के सभी विभाग गैरकानूनी खनन रोकने के लिए अपनाअपना कामकर रहे हैं। सरकार ने इस सम्बंध में कारण बताओ नोटिस जारी करने के अलावा कई प्राथमिकी भी दर्ज की हैं। लेकिन अदालत सरकार की इन दलीलों से संतुष्ट नहीं हुई। पीठ ने नाराज होते हुए कहा कि वह राज्य सरकार की स्टेटस रिपोर्ट से बिल्कुल भी इत्तेफाक नहीं रखती, क्योंकि अधिकांश ब्यौरे में सारा दोष भारतीय वन सर्वेक्षण यानी एफएसआई पर मढ़ दिया गया है। सरकार अरावली पहाड़ियों को गैरकानूनी खनन से बचाने में पूरी तरह से नाकाम रही है। उसने इस मामले को बेहद हल्के में लिया है। जिसके चलते समस्या बढ़ती जा रही है। अदालत ने इसके साथ ही राजस्थान के मुख्य सचिव को अपने आदेशों की पूर्ति के संदर्भ में एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया। बहरहाल अब इस मामले में अगली सुनवाई 29 अक्टूबर को होगी।

राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली में फैली अरावली पर्वत शृंखला सैकड़ों सालों से गंगा के मैदान के ऊपरी हिस्से की आबोहवा तय करती आई है, जिसमें वर्षा, तापमान, भूजल रिचार्ज से लेकर भूसंरक्षण तक शामिल है। ये पहाड़ियां दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश को धूल, आंधी, तूफान और बाढ़ से बचाती रही हैं। लेकिन हाल का एक अध्ययन बतलाता है कि अरावली में जारी खनन से थार रेगिस्तान की रेत दिल्ली की ओर लगातार खिसकती जा रही है। राजस्थान से लेकर हरियाणा तक एक विशाल इलाके में अवैध खनन से ज़मीन की उर्वरता खत्म हो रही है। इससे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सूखा और राजस्थान के रेतीले इलाके में बाढ़ के हालात बनने लगे हैं। प्रदूषण से मानसून का पैटर्न बदला है। मानसून के इस असंतुलन से इन इलाकों के रहवासियों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2002 में इस क्षेत्र के पर्यावरण को बचाने के लिए खनन पर पाबंदी लगा दी थी। बावजूद इसके खनन नहीं रुका है। सरकार की आंखों के सामने गैरकानूनी तरीके से खनन होता रहता है और वह तमाशा देखती रहती है। राजस्थान सरकार ने खुद अदालत में यह बात मानी है कि उसकी लाख कोशिशों के बाद भी राज्य में अवैध खनन जारी है।आज हालत यह है कि राज्य के 15 ज़िलों में सबसे ज़्यादा अवैध खनन हो रहा है। अवैध खनन की वजह इस इलाके में कॉपर, लेड, ज़िंक, सिल्वर, आयरन, ग्रेनाइट, लाइम स्टोन, मार्बल, चुनाई पत्थर जैसे खनिज पाए जाना है। प्रदेश के कुल खनिजों में से 90 फीसदी खनिज अरावली पर्वत शृंखला और उसके आसपास हैं। नियमों के मुताबिक अरावली पर्वत शृंखला की एक कि.मी. परिधि में खनन नहीं हो सकता, लेकिन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने नियमों में संशोधन कर राजस्थान के कई ऐसे भूभाग शामिल कर लिए हैं, जो इनके नज़दीक है।

तमाम अदालती आदेशों के बाद भी अवैध खनन के खिलाफ न तो राजस्थान सरकार और प्रशासन ने कोई प्रभावी कार्रवाई की है और न ही केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय इस पर लगाम लगा पाया है। सरकार की लापरवाही और उदासीनता का ही नतीजा है कि खनन माफिया बेखौफ होकर अरावली की पहाड़ियों को खोखला कर रहा है। लेखा परीक्षक और नियंत्रक की एक रिपोर्ट कहती है कि राजस्थान के अंदर अरावली पर्वत शृंखला क्षेत्र में नियमों को ताक में रखकर खनन के खूब पट्टे जारी किए गए, उनका नवीनीकरण किया गया या उन्हें आगे बढ़ाया गया। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने भी इसके लिए अपनी मंज़ूरियां दीं। नतीजा यह है कि अरावली पर्वत शृंखला की पहाड़ियां एक के बाद एक गायब होती जा रही हैं। कुछ लोगों के स्वार्थ के चलते लाखों लोगों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। यदि सरकार अब भी इसे बचाने के लिए नहीं जागी, तो इस क्षेत्र का पूरा पर्यावरण खतरे में पड़ जाएगा। अरावली पर्वत शृंखला बची रहेगी, तो इस क्षेत्र का पर्यावरण भी बचा रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहे राष्ट्र

यूएन एनवायरनमेंट प्रोग्राम द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ग्रुप ऑफ 20 के देशों ने पेरिस समझौते में निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए हैं। रिपोर्ट में पाया गया है कि तीन साल की स्थिरता के बाद  वैश्विक कार्बन उत्सर्जन निरंतर बढ़ रहा है। इस वृद्धि के कारण जलवायु परिवर्तन के खतरनाक स्तर को रोकने के लिए निर्धारित लक्ष्य और वास्तविक स्थिति के बीच उत्सर्जन अंतरपैदा हुआ है।  यह 2030 में अनुमानित उत्सर्जन स्तर और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री से 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के अंतर को दर्शाता है।

वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए समय ज़्यादा नहीं बचा है। अगर उत्सर्जन अंतर 2030 तक खत्म नहीं होता है, तो वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ जाएगा।

वर्तमान हालत को देखते हुए रिपोर्ट ने ग्रुप ऑफ 20 देशों से आग्रह किया है कि 2 डिग्री की दहलीज़ तक सीमित रखने के लिए पेरिस समझौते के लक्ष्यों के अनुसार उत्सर्जन तीन गुना कम करना होगा। और यदि यह लक्ष्य 1.5 डिग्री निर्धारित किया जाए तो उत्सर्जन पांच गुना कम करना होगा।

वर्ष 2017 में उत्सर्जन का रिकॉर्ड स्तर 53.5 अरब टन दर्ज किया गया। इसको कम करने के लिए शहर, राज्य, निजी क्षेत्र और अन्य गैरसंघीय संस्थाएं जलवायु परिवर्तन पर मज़बूत कदम उठाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 2030 तक वैश्विक तापमान के अंतर को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को 19 अरब टन तक कम करने की आवश्यकता है।

वैसे तो सभी देशों को इस क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता है लेकिन इसमें भी विश्व के 4 सबसे बड़े उत्सर्जक चीन, अमरीका, युरोपीय संघ और भारत को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन चार देशों ने पिछले दशक में विश्व भर में होने वाले ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 56 प्रतिशत का योगदान दिया है। 

चीन अभी भी 27 प्रतिशत के साथ अकेला सबसे बड़ा योगदानकर्ता है। दूसरी तरफ, संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोपीय संघ वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के पांचवें भाग से अधिक के लिए ज़िम्मेदार हैं। रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि अगर हम अभी भी तेज़ी से कार्य करते हैं तो क्या पेरिस समझौते के 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करना पाना संभव है।

यूएस संसद से सम्बंद्ध हाउस एनर्जी एंड कॉमर्स कमेटी के शीर्ष डेमोक्रेट फ्रैंक पेलोन के अनुसार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का प्रशासन जलवायु परिवर्तन से निपटने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए अमेरिकी प्रयासों को कमज़ोर कर रहा है। पेलोन का स्पष्ट मत है कि अगर हम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रण में नहीं लाते हैं, तो आने वाले समय में और भी घातक जलवायु परिवर्तन तथा वैश्विक तपन जैसे परिणामों के लिए तैयार रहें। (स्रोत फीचर्स)

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दक्षिण अफ्रीका में घुसपैठी प्रजातियों का आतंक

क्षिण अफ्रीका के राष्ट्रीय जैव विविधता संस्थान द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक घुसपैठी जैव प्रजातियों की वजह से देश की अर्थ व्यवस्था पर 45 करोड़ डॉलर का वार्षिक बोझ पड़ रहा है और ये जैव विविधता के ह्यास का एक बड़ा कारण बन गई हैं। इन घुसपैठी प्रजातियों में वनस्पतियों के अलावा कीट और मछलियां भी शामिल हैं। यह अपने किस्म की पहली रिपोर्ट है।

दरअसल, 2014 में दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने यह अनिवार्य कर दिया था कि हर तीन साल में घुसपैठी प्रजातियों की समीक्षा की जाएगी। गौरतलब है कि घुसपैठी प्रजातियां ऐसी प्रजातियों को कहते हैं जिन्हें अपने कुदरती आवास के बाहर किसी इकोसिस्टम में प्रविष्ट कराया जाता है या जो स्वयं ही दूरदूर तक फैलकर अन्य इकोसिस्टम्स में घुसने लगती हैं। यह रिपोर्ट उपरोक्त नियम के तहत ही तैयार की गई है और इसके लिए देश भर की प्रयोगशालाओं तथा विभिन्न केंद्रों पर संग्रहित जानकारी का सहारा लिया गया है। रिपोर्ट में घुसपैठी प्रजातियों के प्रभाव,उनसे निपटने के उपायों तथा उनके प्रवेश के रास्तों की भी समीक्षा की गई है।

2015 में 14 राष्ट्रीय संगठनों के 37 शोधकर्ताओं ने राष्ट्रीय जैव विविधता संस्थान तथा स्टेलेनबॉश विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एक्सलेंस फॉर इन्वेज़न बायोलॉजी के नेतृत्व में इस रिपोर्ट को तैयार किया है।

रिपोर्ट में बताया गया है कि दक्षिण अफ्रीका में प्रति वर्ष 7 नई प्रजातियां प्रविष्ट होती हैं। आज तक कुल 775 घुसपैठी प्रजातियों की पहचान की गई है। इनमें से अधिकांश तो पेड़पौधे हैं। रिपोर्ट के लेखकों का अनुमान है कि इनमें से 107 प्रजातियां देश की जैव विविधता और मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के तौर पर, प्रोसोपिस ग्लेंडुलोस (हनी मेस्क्वाइट) है जिसे पूरे अफ्रीका में पशुओं के चारे के रूप में लाया गया था। आज यह चारागाहों को तबाह कर रही है और स्थानीय वनस्पति को बढ़ने से रोकती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक यह मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों के फैलने में मददगार है।

इसी तरह से एक कीट सायरेक्स नॉक्टिलो वानिकी को प्रभावित करता है तो एक चींटी लाइनेपिथिमा ह्रूमाइल स्थानीय वनस्पतियों के बीजों के बिखराव को तहसनहस करती है जबकि जलकुंभी ने देश के बांधों और नहरों को पाट दिया है। रिपोर्ट का यह भी कहना है कि कई घुसपैठी प्रजातियां बहुत पानी का उपभोग करती हैं।

इस रिपोर्ट को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घुसपैठी प्रजातियों के बारे में एक समग्र रिपोर्ट बताया गया है जबकि रिपोर्ट के लेखकों का कहना है कि जानकारी के अभाव के चलते यह रिपोर्ट उतनी विश्वसनीय नहीं बन पाई है। लेकिन इस प्रयास की काफी सराहना की जा रही है। (स्रोत फीचर्स)

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विशेष पुताई करके घरों को ठंडा रखें

तेज़ धूप वाले देशों में घरों को सफेद रंग से पोता जाता है ताकि धूप टकराकर लौट जाए। इसी रणनीति को आगे बढ़ाते हुए एक नई शीतलन सामग्री तैयार की जा रही है। इसे किसी भी सतह पर पोता जा सकता है और तापमान लगभग 6 डिग्री सेल्सियस तक कम किया जा सकता है।

वास्तव में धूप में अवरक्त (आईआर) और पराबैंगनी (यूवी) किरणें गर्मी का मुख्य कारण होती हैं। सफेद रंग 80 प्रतिशत दृश्य प्रकाश को परावर्तित करता है लेकिन आईआर और यूवी को नहीं। इस नई सामग्री में अधिकांश आईआर और यूवी को परावर्तित करने की क्षमता है। इसमें उपस्थित बहुलक और अन्य पदार्थों की रासायनिक संरचना के कारण अतिरिक्त गर्मी ऐसी तरंग लंबाइयों पर विकिरित होती है जिन्हें वायुमंडल नहीं रोकता और हवा गर्म नहीं होती।

पहले भी इस क्षेत्र में काफी काम किए जा चुके हैं। सिलिकॉन डाईऑक्साइड और हाफनियम डाईऑक्साइड की परावर्तक सतह तैयार करके तापमान में 5 डिग्री सेल्सियस की कमी प्राप्त की गई। इसी प्रकार से, एयर कंडीशनिंग में पानी को ठंडा करने के लिए एक बहुलक और चांदी की मिलीजुली फिल्म के उपयोग से एयर कंडीशनिंग लागत में 21 प्रतिशत बचत की गई। कांच के महीन मोती जड़ी एक प्लास्टिक फिल्म सतह को 10 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा करने में सक्षम थी। ऑस्ट्रेलिया में, एक ऐसा पॉलिमर तैयार किया गया जो छत को 3-6 डिग्री सेल्सियस ठंडा रख सकता था।

कोलंबिया विश्वविद्यालय में भौतिकविद युआन यांग और नैनफांग यू के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने प्लास्टिक में वायु रिक्तिकाएं जोड़कर अत्यधिक परावर्तक सामग्री बनाने पर प्रयोग किया। एक बहुलक पर काम करते हुए उन्होंने पाया कि कुछ स्थितियों में, यह सामग्री सूखने के बाद सफेद हो जाती है। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पाया कि सूखी फिल्म में एक दूसरे से जुड़ी वायु रिक्तिकाएं बन गई हैं जो अधिक प्रकाश को परावर्तित कर सकती हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने अन्य बहुलक की मदद से इसको बेहतर बनाने की कोशिश की। आखिरकार, उन्होंने पीवीडीएफएचएफपी नामक एक बहुलक एसीटोन में घोल के रूप में तैयार किया। जब सतह पर पोता गया तो एसीटोन वाष्पित हो गया और बहुलक में पानी की बूंदों का एक जाल बन गया। अंत में, पानी भी वाष्पित हो गया जिससे वायुछिद्रों से भरी एक फिल्म तैयार हो गई। यह 99.6 प्रतिशत प्रकाश को परावर्तित कर सकती है।

साइंस में ऑनलाइन प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दोपहर के समय में इस फिल्म से पुती सतह 6 डिग्री सेल्सियस तक ठंडी बनी रही। यह नई सामग्री कुछ मौसमों में ठंडा करने की लागत को 15 प्रतिशत तक कम कर सकती है। लेकिन यह पेंट आजकल उपयोग होने वाले एक्रिलिक पेंट की तुलना में पांच गुना अधिक महंगा है। तो सवाल यह है कि क्या यह व्यावसायिक तौर पर उपयोगी होगा या अभी पारंपरिक तरीके ही काम आएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन को समझने में मददगार खेलकूद

पिछले कुछ दशकों में हुए जलवायु परिवर्तन और पेड़पौधों पर इसके असर को समझने के लिए एक सर्वथा नया रुाोत सामने आया है खुले में होने वाले खेलकूद के वीडियो।

पारिस्थितिकी विज्ञानी और सायकल रेस प्रेमी पीटर डी फ्रेने टूर्स ऑफ फ्लैंडर्स नामक सायकल रेस के 1980 के दशक के वीडियो देख रहे थे। अचानक रेस ट्रैक के पीछे के नज़ारों ने उनका ध्यान खींचा। उन्होंने देखा कि रेस ट्रैक के पीछे के पेड़ों पर पत्तियां नहीं हैं। जबकि वर्तमान रेसों में ट्रैक के पीछे के पेड़ों पर पत्तियां दिखती थीं। रेस के इन वीडियो का उन्होंने जलवायु परिवर्तन और पेड़पौधों पर होने वाले प्रभाव के बीच सम्बंध को समझने के लिए इस्तेमाल किया।

अब तक इस तरह के अध्ययनों में परंपरागत हर्बेरियम (वनस्पति संग्रह) का उपयोग किया जाता था। लेकिन हर्बेरियम डैटा के साथ मुश्किलें हैं। उत्तरी अमेरिका और युरोप को छोड़कर बाकी जगहों पर हर्बेरियम नमूने बहुत कम हैं। एक विकल्प के तौर पर वैज्ञानिकों ने पर्यावरण के सचित्र विवरण वाले लेखों और किताबों का उपयोग शुरू किया। स्मार्ट फोन की सहज उपलब्धता से लोगों द्वारा यादगार दिनों और स्थलों की खींची गई तस्वीरों को भी अध्ययन के डैटा की तरह उपयोग करने पर विचार किया। किंतु यह डैटा काफी बिखरा हुआ है और इसे इकट्ठा करना मुश्किल है।

टूर्स ऑफ फ्लैंडर्स बेल्जियम की लोकप्रिय सायकल रेस है। 260 कि.मी. लंबी इस रेस की खास बात यह है कि यह हर साल अप्रैल में ही आयोजित होती है। यानी अध्ययन के लिए हर वर्ष का एक ही समय का डैटा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही उन्हीं पेड़पौधों का अलगअलग कोण से अवलोकन जा सकता है।

शोधकर्ताओं ने फ्लेमिश रेडियो एंड टेलीविज़न ब्राॉडकास्टिंग आर्गेनाइज़ेशन के अभिलेखागार से रेस के 200 घंटे के वीडियो लिए। इन वीडियो से उन 46 पेड़ों और झाड़ियों को चिंहित किया जिनका अलगअलग कोण से अवलोकन संभव था। इस तरह 525 चित्र  निकाले। इन चित्रों के विश्लेषण में उन्होंने पाया कि 1980 के दशक में अप्रैल माह के शुरुआत में किसी भी पेड़ या झाड़ी पर फूल नहीं आए थे। और लगभग 26 प्रतिशत पेड़पौधों पर ही पत्तियां थीं। लेकिन साल 2006 के बाद के उन्हीं पेड़ों में से 46 प्रतिशत पर पत्तियां आ चुकी थीं और 67 प्रतिशत पर फूल आ गए थे। शोधकर्ताओं ने जब वहां के स्थानीय जलवायु परिवर्तन के डैटा को देखा तो पाया कि 1980 से अब तक औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है।

गेंट विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञानी लोविस का कहना है कि इस तरह के अध्ययन आम लोगो को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव समझाने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। बढ़ते हुए तापमान के आंकड़े बताने या ग्राफ पर दर्शाने से बात वैज्ञानिकों की समझ में तो आ जाती है मगर आम लोग, खासकर राजनेता, इसे इतनी गंभीरता से नहीं देखते। इन प्रभावों के फोटो और वीडियो इसमें मददगार हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आपदाओं की क्षति कम करने की नीतियां – भारत डोगरा

किसी भी आपदा के आने पर उसके नियंत्रण के उपाय उच्च प्राथमिकता के आधार पर किए जाते हैं। पर यदि नीतिगत स्तर पर कुछ सावधानियों व समाधानों पर निरंतरता से कार्य हो तो आपदाओं की संभावना भी कम होगी तथा किसी आपदा से होने वाली क्षति भी कम होगी।

जल संरक्षण व हरियाली बढ़ाने के छोटेछोटे लाखों कार्यों में सरकार को निवेश बड़ी मात्रा में बढ़ाना चाहिए। साथ ही यह कार्य जन भागीदारी से करने की व्यवस्था करनी चाहिए। जल संरक्षण के साथ नमी संरक्षण की सोच को महत्त्व मिलना चाहिए। हरियाली स्थानीय वनस्पतियों से बढ़नी चाहिए। वृक्षारोपण में जल व मिट्टी संरक्षण के साथ पौष्टिक खाद्य उपलब्धि को भी महत्व देना चाहिए। जिन गांवों में जल संरक्षण व हरियाली की उत्तम व्यवस्था है, वे विभिन्न आपदाओं के प्रकोप को झेलने में अन्य ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक सक्षम हैं। कुछ अलग तरह से यह प्राथमिकता शहरी व अर्धशहरी क्षेत्रों में भी अपनानी चाहिए।

विभिन्न संदर्भों में पर्यावरण रक्षा की नीतियों को मज़बूत करने से आपदाओं में होने वाली क्षति को कम करने में सहायता मिलेगी। चाहे खनन नीति हो या वन नीति या कृषि नीति, यदि इनमें पर्यावरण की रक्षा पर समुचित ध्यान दिया जाता है तो इससे आपदाओं की संभावना व क्षति को कम करने में भी मदद मिलेगी।

विभिन्न क्षेत्रों की संभावित आपदा की दृष्टि से मैपिंग करने, पहचान करने व आपदा का सामना करने की तैयारी पर पहले से समुचित ध्यान देना ज़रूरी है। जलवायु बदलाव के इस दौर में केवल सामान्य नहीं अपितु असामान्य स्थितियों की संभावना को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है। इसके लिए बजट बढ़ाने के साथसाथ अनुभवी स्थानीय लोगों के परामर्श को महत्व देना आवश्यक है। अधिक जोखिमग्रस्त स्थानों में रहने वाले लोगों से परामर्श के बाद नए स्थान पर पुनर्वास ज़रूरी समझा जाए तो उसकी व्यवस्था भी करनी चाहिए।

मौसम के पूर्वानुमान की बेहतर व्यवस्था, इसके समुचित प्रसार को सुनिश्चित करना भी आवश्यक है।

देश के ढांचागत या इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास में आपदा पक्ष को भी स्थान मिलना चाहिए। दूसरे शब्दों में, विभिन्न ढांचागत विकास की परियोजनाओं (सड़क, हाईवे, नहर, बांध, बिजलीघर आदि) के नियोजन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी होना चाहिए कि उनसे किसी आपदा की संभावना या उससे होने वाली क्षति न बढ़े। उदाहरण के लिए सड़कों में निकासी की उचित व्यवस्था न होने से बाढ़ व जलजमाव की समस्या बहुत बढ़ सकती है। विभिन्न ढांचागत परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर पेड़ काटने या डायनामाइट दागने से भूस्खलन की समस्या बहुत बढ़ सकती है। इस बारे में पहले से सावधानी बरती जाए तो अनेक महंगी गलतियों से बचा जा सकता है। इस तरह की सावधानियां विशेषकर उन क्षेत्रों में अपनाना ज़रूरी है जहां बहुत बड़े पैमाने पर ढांचागत विकास होने वाला है। यह स्थिति इस समय देश के अनेक क्षेत्रों की है, जो पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील माने गए हैं। जैसे हिमालय व पश्चिमी घाट क्षेत्र।

बांध प्रबंधन में सुधार की ज़रूरत काफी समय से महसूस की जा रही है। इस बारे में उच्च अधिकारियों व विशेषज्ञों ने वर्तमान समय में कहा है कि बांध प्रबंधन में बाढ़ से रक्षा को अधिक महत्व देना व इसके अनुकूल तैयारी करना महत्वपूर्ण है।

आपदाओं की स्थिति में कैसा व्यवहार करना चाहिए, कैसी तैयारी घरपरिवार व स्कूलकॉलेजों में पहले से रखनी चाहिए, इसके लिए समयसमय पर प्रशिक्षण दिए जाएं व इसकी ड्रिल की जाए तो यह कठिन वक्त में सहायक सिद्ध होंगे।

शौच व्यवस्था या स्वच्छता के क्षेत्र में प्रगति से भी आपदाओं के नियंत्रण में मदद मिलेगी। विशेषकर प्लास्टिक व पोलीथीन के कचरे पर नियंत्रण से बाढ़ व जल जमाव की समस्या को कम करने में सहायता मिलेगी। बाढ़ व जल जमाव से अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में यदि परिस्थितियों के अनुकूल स्वच्छ शौच व्यवस्था हो जाए तो इससे यहां के लोगों को राहत मिलेगी। दूसरी ओर जल्दबाज़ी में की गई व ज़रूरी सावधानियों की अवहेलना करने वाली व्यवस्थाएं यहां के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं। ऐसे क्षेत्रों में भूजल स्तर ऊपर होता है। अत: शौचालय बनाते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी होता है कि कहीं इनका डिज़ाइन ऐसा न हो कि उससे भूजल के प्रदूषित होने की संभावना हो।

यदि उचित नीतियां अपनाकर उनके क्रियांवयन में निरंतरता रखते हुए सावधानियों व समाधानों पर ध्यान दिया जाए तो आपदाओं की संभावना व उनसे होने वाली क्षति को काफी कम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आज विश्व पर्यटन दिवस(World Tourism Day ) है – ज़ुबैर सिद्दकी

विश्व पर्यटन दिवस समारोह संयुक्त राष्ट्र पर्यटन संगठन (यू.एन.डब्ल्यू.टी..) द्वारा 1980 में शुरु किया गया था और हर वर्ष 27 सितंबर को मनाया जाता है। 1970 में इसी दिन यू.एन.डब्ल्यू.टी.. के कानून प्रभाव में आए थे जिसे विश्व पर्यटन के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है। इसका लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथसाथ लोगों को विश्व पर्यटन के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक निहितार्थ के बारे में जागरुक करना है।

हर वर्ष इस दिवस के कार्यक्रम किसी विषय या थीम पर केंद्रित रहते हैं। 2013 में इसकी थीम थी पर्यटन और पानी: हमारे साझे भविष्य की रक्षा और 2014 में पर्यटन और सामुदायिक विकास2015 का विषय लाखों पर्यटक, लाखों अवसर था। 2016 का विषय सभी के लिए पर्यटन विश्वव्यापी पहुंच को बढ़ावा था।

इस वर्ष का विषय पर्यटन और सांस्कृतिक संरक्षण है। हर वर्ष यू.एन.डब्ल्यू.टी.. के महासचिव आम जनता के लिए एक संदेश प्रसारित करते हैं। विभिन्न पर्यटन संस्थान, संगठन, सरकारी एजेंसियां आदि इस दिन को मनाने में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इस दिन विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताएं जैसे पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये फोटो प्रतियोगिता, पर्यटन पुरस्कार प्रस्तुतियां, आम जनता के लिये छूट/विशेष प्रस्ताव आदि आयोजित किए जाते हैं।

पर्यटकों के लिए विभिन्न आकर्षक और नए स्थलों की वजह से पर्यटन दुनिया भर में लगातार बढ़ने वाला और विकासशील आर्थिक उद्यम बन गया है। कई विकासशील देशों के लिए यह आय का मुख्य स्रोत भी साबित होने लगा है।

हर वर्ष यह सितंबर माह के अंत में किसी देश की राजधानी में इसका समारोह आयोजित किया जाता है। चूंकि इस वर्ष कंबोडिया को सबसे बेहतरीन पर्यटक देश का खिताब मिला है इसलिए आधिकारिक समारोह कंबोडिया की राजधानी नॉम पेन्ह में आयोजित किया गया।

लेकिन पर्यटन के साथसाथ हमें एक और महत्वपूर्ण समस्या की ओर सोचना चाहिए। एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर पर्यटन उद्योग इतना तेज़ी से आगे बढ़ा है कि आज यह कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में लगभग 8 प्रतिशत के लिए जवाबदेह है। ग्रीनहाउस गैसें उन गैसों को कहते हैं जो वायुमंडल में उपस्थित हों तो धरती का तापमान बढ़ाने में मददगार होती हैं। इनमें कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन प्रमुख हैं।

ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय की अरुणिमा मलिक और उनके साथियों ने 160 देशों में पर्यटन की वजह से होने वाले सालाना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की गणना की है। उनका कहना है कि यह उद्योग हर साल जितनी अलगअलग ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है वे 4.5 गिगाटन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर हैं। पूर्व के अनुमान थे कि पर्यटन उद्योग का सालाना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 1-2 गिगाटन प्रति वर्ष होता है।

मलिक की टीम ने जो हिसाब लगाया है उसमें उन्होंने सीधेसीधे हवाई यात्राओं की वजह से होने वाले उत्सर्जन के अलावा अप्रत्यक्ष उत्सर्जन की भी गणना की है। अप्रत्यक्ष उत्सर्जन में पर्यटकों के लिए भोजन पकाने (सैलानी काफी डटकर खाते हैं), होटलों के रखरखाव, तथा सैलानियों द्वारा खरीदे जाने वाले तोहफों/यादगार चीज़ों (सुवेनिर) के निर्माण के दौरान होने वाले उत्सर्जन को शामिल किया गया है।

टीम का कहना है कि पर्यटन के कार्बन पदचिंह में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। कार्बन पदचिंह से मतलब है कि कोई गतिविधि कितनी कार्बन डाई ऑक्साइड वायुमंडल में छोड़ती है। जहां 2009 में पर्यटन का कार्बन पदचिंह 3.9 गिगाटन था वहीं 2013 में बढ़कर 4.4 गिगाटन हो गया। टीम का अनुमान है कि 2025 में यह आंकड़ा 6.5 गिगाटन हो जाएगा।

समृद्धि बढ़ने के साथ पर्यटन बढ़ता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यूएसए सबसे बड़ा पर्यटनकार्बन उत्सर्जक है न सिर्फ अमरीकी नागरिक बहुत सैरसपाटा करते हैं बल्कि कई सारे देशों के लोग यूएसए पहुंचते हैं। किंतु मलिक का कहना है कि कई अन्य देश तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। चीन, ब्राज़ील और भारत जैसे देशों के लोग आजकल दूरदूर तक पर्यटन यात्राएं करते हैं। राष्ट्र संघ के विश्व पर्यटन संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में चीनी लोगों ने पर्यटन पर 258 अरब डॉलर खर्च किए थे।

नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित रिपोर्ट में टीम की सबसे पहली सिफारिश है कि पर्यटन के लिए हवाई यात्राओं को न्यूनतम किया जाए। किंतु मलिक मानती हैं कि पर्यटकों में दूरदराज इलाकों में पहुंचने की इच्छा बढ़ती जा रही है और संभावना यही है कि मैन्यूफैक्चर, विनिर्माण और सेवा प्रदाय के मुकाबले पर्यटनसम्बंधी खर्च कार्बन उत्सर्जन का प्रमुख कारण होगा। (स्रोत फीचर्स)

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पेड़-पौधे भी संवाद करते हैं

यह तो हम सब जानते हैं कि पौधों में मस्तिष्क नहीं होता लेकिन उनके पास किसी प्रकार का तंत्रिका तंत्र ज़रूर होता है। हाल ही में जीव वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि जब पेड़ का एक पत्ता खाया जाता है, तो अन्य पत्तियों को चेतावनी मिलती है और यह चेतावनी लगभग जंतुओं जैसे संकेतों के रूप में होती है। इस जानकारी ने इस गुत्थी को सुलझाना शुरू किया है कि पौधे के विभिन्न हिस्से एकदूसरे के साथ कैसे संवाद करते हैं।

जंतुओं में तंत्रिका कोशिकाएं ग्लूटामेट नामक अमीनो अम्ल की सहायता से एकदूसरे से बात करती हैं। किसी उत्तेजित तंत्रिका कोशिका द्वारा मुक्त किए जाने के बाद ग्लूटामेट पास की कोशिकाओं में कैल्शियम आयनों की तरंग पैदा करता है। ये तरंगें अगली तंत्रिका कोशिका तक जाती हैं, जो लाइन में अगली कोशिका को संकेत देती हैं और इस प्रकार लंबी दूरी का संचार संभव हो पाता है।

वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि पौधे गुरुत्वाकर्षण के प्रति कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। इसी दौरान यह खोज सामने आई। उन्होंने एक आणविक सेंसर विकसित किया जो कैल्शियम में बढ़ोतरी का पता लगा सकता था। उन्होंने यह सेंसर एरेबिडॉप्सिस नामक पौधे में जोड़ दिया। सेंसर कैल्शियम के स्तर में वृद्धि होने पर चमकता है। फिर उन्होंने कैल्शियम गतिविधि का पता लगाने के लिए पौधे की एक पत्ती को तोड़ा।

साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिकों ने घाव वाले स्थान के करीब चमक को बढ़ते और फिर कम होते देखा। धीरेधीरे इसी तरह की चमक थोड़ी दूरी पर भी देखी गई और यह कैल्शियम की लहर अन्य पत्तियों तक भी पहुंच गई। आगे के अध्ययन से मालूम चला कि कैल्शियम तरंग की शुरुआत ग्लूटामेट के कारण हुई थी।

हालांकि, जीव विज्ञानियों को यह तो पहले से मालूम था कि पौधे के एक हिस्से में होने वाला परिवर्तन दूसरे हिस्सों द्वारा महसूस किया जाता है लेकिन इस प्रसारण की क्रियाविधि को वे नहीं जानते थे। अब जब उन्होंने कैल्शियम तरंग और ग्लूटामेट की भूमिका देख ली है, तो शोधकर्ता इसकी बेहतर निगरानी कर सकेंगे और शायद एक दिन पौधे के आंतरिक संचार में फेरबदल भी कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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औद्योगिक कृषि से वन विनाश

विश्व स्तर पर जंगली क्षेत्र में हो रही लगातार कमी का मुख्य कारण औद्योगिक कृषि को बताया जा रहा है। प्रति वर्ष 50 लाख हैक्टर क्षेत्र औद्योगिक कृषि के लिए परिवर्तित हो रहा है। बड़ीबड़ी कंपनियों द्वारा वनों की कटाई ना करने की प्रतिज्ञा के बावजूद, ताड़ एवं अन्य फसलें उगाई जा रही हैं जिसके चलते पिछले 15 वर्षों में जंगली क्षेत्र का सफाया होने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आई है।

इस विश्लेषण से यह तो साफ है कि केवल कॉर्पोरेट वचन से जंगलों को नहीं बचाया जा सकता है। 2013 में, मैरीलैंड विश्वविद्यालय, कॉलेज पार्क में रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ मैथ्यू हैन्सन और उनके समूह ने उपग्रह तस्वीरों से 2000 और 2012 के बीच वन परिवर्तन के मानचित्र प्रकाशित किए थे। लेकिन इन नक्शों से वनों की कटाई और स्थायी हानि की कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिल पाई थी।

एक नए प्रकार के विश्लेषण के लिए सस्टेनेबिलिटी कंसॉर्शियम के साथ काम कर रहे भूस्थानिक विश्लेषक फिलिप कर्टिस ने उपग्रह तस्वीरों की मदद से जंगलों को नुकसान पहुंचाने वाले पांच कारणों को पहचानने के लिए एक कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किया है। ये कारण हैं जंगलों की आग (दावानल), प्लांटेशन की कटाई, बड़े पैमाने पर खेती, छोटे पैमाने पर खेती और शहरीकरण। सॉफ्टवेयर को इनके बीच भेद करना सिखाने के लिए कर्टिस ने ज्ञात कारणों से जंगलों की कटाई वाली हज़ारों तस्वीरों का अध्ययन किया।

यह प्रोग्राम तस्वीर के गणितीय गुणों के आधार पर छोटेछोटे क्षेत्रों में अनियमित खेती और विशाल औद्योगिक कृषि के बीच भेद करता है। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2001 से लेकर 2015 के बीच कुल क्षति का लगभग 27 प्रतिशत बड़े पैमाने पर खेती और पशुपालन के कारण था। इस तरह की खेती में ताड़ की खेती शामिल है जिसका तेल अधिकतर जैव र्इंधन एवं भोजन, सौंदर्य प्रसाधन, और अन्य उत्पादों में एक प्रमुख घटक के तौर पर उपयोग किया जाता है। इन प्लांटेशन्स के लिए जंगली क्षेत्र हमेशा के लिए साफ हो गए जबकि छोटे पैमाने पर खेती के लिए साफ किए गए क्षेत्रों में जंगल वापस बहाल हो गए।

कमोडिटी संचालित खेती से वनों की कटाई 2001 से 2015 के बीच स्थिर रही। लेकिन हर क्षेत्र में भिन्न रुझान देखने को मिले। ब्राज़ील में 2004 से 2009 के बीच वनों की कटाई की दर आधी हो गई। मुख्य रूप से इसके कारण पर्यावरण कानूनों को लागू किया जाना और सोयाबीन के खरीदारों का दबाव रहे। लेकिन मलेशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में, वनों की कटाई के खिलाफ कानूनों की कमी या लागू करने में कोताही के कारण ताड़ बागानों के लिए अधिक से अधिक जंगल काटा जाता रहा। इसी कारण निर्वनीकरण ब्राज़ील में तो कम हुआ लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया में काफी बढ़ोतरी देखी गई।

कई कंपनियों ने हाल ही में वचन दिया है कि वे निर्वनीकरण के ज़रिए पैदा किया गया ताड़ का तेल व अन्य वस्तुएं नहीं खरीदेंगे। लेकिन अब तक ली गई 473 प्रतिज्ञाओं में से केवल 155 ने वास्तव में 2020 तक अपनी आपूर्ति के लिए वनों की शून्य कटाई के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। इसमें भी केवल 49 कंपनियों ने अच्छी प्रगति की सूचना दी है।

विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, मैडिसन की भूगोलविद लिसा रॉश के अनुसार कंपनियों के लिए शून्यकटाई वाले सप्लायर्स को ढूंढना भी एक चुनौती हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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