संस्थानों द्वारा शोध अधिकार अपने पास रखना ज़रूरी – एस. सी. लखोटिया

शोध परिणामों का समकक्ष-समीक्षित पत्रिकाओं में प्रकाशन अनिवार्य है। इनके व्यापक प्रसारण के लिए ये सभी शोधकर्ताओं और इच्छुक पाठकों को मुफ्त और सुलभता से उपलब्ध होने चाहिए। पिछले कुछ दशकों में शोध प्रकाशन तंत्र में काफी परिवर्तन आए हैं। व्यावसायिक प्रकाशकों ने व्यापक स्तर पर अकादमिक संस्थानों और विद्वत सभाओं से जर्नल प्रकाशन का काम अपने हाथों में ले लिया है। इसके साथ ही आज के डिजिटल युग ने ऑनलाइन प्रकाशन को भी बढ़ावा दिया है। इन दोनों परिवर्तनों से उम्मीद थी कि वैश्विक स्तर पर शोध परिणामों तक पहुंच आसान हो जाएगी।

इसके विपरीत तथ्य यह है कि व्यावसायिक प्रकाशकों ने अपने व्यापारिक हितों के लिए शोध प्रकाशनों को भुगतान के पर्दे के पीछे छिपा दिया है। अतः लेखकों/वित्तपोषकों या पाठकों को शोध-पत्र प्रोसेसिंग फीस या ओपन एक्सेस शुल्क के रूप में भारी रकम का भुगतान करना पड़ता है। हालांकि सभी पत्रिकाएं इस तरह का शुल्क नहीं लगाती हैं, अधिकांश ‘प्रतिष्ठित’ या ‘उच्च प्रभाव’ पत्रिकाएं शोध पत्रों के प्रकाशन या प्रकाशित सामग्री को पढ़ने के लिए शुल्क की मांग करती हैं। डिजिटल-पूर्व युग में प्रकाशित सामग्री या तो पुस्तकालय/व्यक्तिगत सदस्यता से या फिर संस्थानों के बीच पत्रिकाओं के आदान-प्रदान या लेखकों द्वारा बिना किसी शुल्क के साझा की जाती थीं। वर्तमान में अकादमिक संस्थानों के बीच शोध पत्रिकाओं का आदान-प्रदान लगभग खत्म हो गया है। यहां तक कि अधिकांश लेखक कॉपीराइट अनुबंध उल्लंघन की गलत समझ के कारण अपने प्रकाशित शोध पत्रों की सॉफ्ट कॉपी तक अपने साथियों के साथ साझा करने में संकोच करते हैं।

डिजिटल ऑनलाइन सामग्री के ओपन या ‘ग्रीन’ एक्सेस का मतलब ऐसे शोध पत्रों से है जो निशुल्क हों और लगभग सभी कॉपीराइट और लाइसेंसिंग प्रतिबंधों से मुक्त हों। कई चर्चाओं और घोषणाओं के बाद भी ओपन या ‘ग्रीन’ एक्सेस की उम्मीद कम ही नज़र आती है क्योंकि हाल के दशकों में शोध उत्पादों पर व्यावसायिक प्रकाशकों की गिरफ्त काफी मज़बूत हो गई है। अधिकांश मामलों में कॉपीराइट अनुबंध में शर्त होती है कि लेखक पूर्ण कॉपीराइट अधिकार प्रकाशक को सौंपें। एकतरफा रूप से तैयार किए गए कॉपीराइट समझौतों के परिणामस्वरूप शोध उत्पाद आंशिक या पूर्ण रूप से तब तक प्रकाशक के स्वामित्व में रहते हैं जब तक लेखकों/वित्तपोषकों द्वारा भारी प्रकाशन शुल्क का भुगतान नहीं किया जाता। ऐसे में लेखक प्रतिबंधित अवधि (6-24 माह या अधिक) के दौरान ओपन या ग्रीन एक्सेस के तहत व्यक्तिगत या संस्थागत वेबसाइट पर शोध पत्र के प्रकाशित संस्करण को पोस्ट नहीं कर सकते और न ही उन्हें इसे अपने काम के लिए फिर से उपयोग करने की स्वतंत्रता होती है। और तो और, प्रकाशक को भुगतान किए बिना उन्हें अपने ही लेख को अनुवाद करने की भी अनुमति नहीं होती। दूसरी ओर, व्यावसायिक प्रकाशक लेखकों या पाठकों पर ओपन एक्सेस शुल्क लगाकर, लेखकों की अनुमति के बिना अन्य प्रकाशकों को री-पैकेजिंग/सब-लायसेंस देकर खूब मुनाफा कमा सकते हैं।

ओपन साइंस पर अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान परिषद की रिपोर्ट में इस दुष्चक्र को सटीकता से प्रस्तुत किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार ‘कॉर्पोरेट प्रकाशक नियमित रूप से प्रकाशित करने की शर्त के रूप में उन्हें कॉपीराइट सौंपने की मांग करते हैं। ऐसा करते हुए, शोधकर्ता स्वयं अपनी इच्छा से और प्रकाशक द्वारा बिना किसी खर्चे के एक सार्वजनिक सामग्री का निजीकरण करने में सहायता करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में प्रकाशकों की पहली ज़िम्मेदारी उनके शेयरधारकों के प्रति होती है, न कि विज्ञान के प्रति। कॉर्पोरेट वैज्ञानिक प्रकाशन कंपनियों का यह मॉडल घोर असंतुलित है जिसमें वैज्ञानिक अपना काम उन्हें तोहफे में दे देते हैं और फिर इसी काम को बढ़ी हुई कीमतों पर वापस खरीदते हैं – चाहे व्यक्तिगत रूप से या विश्वविद्यालयों/सरकारी संस्थाओं द्वारा भुगतान के ज़रिए।

प्रकाशकों के हाथों में तुरुप का इक्का यह है कि उन्होंने उच्च प्रभाव वाली पत्रिकाओं के बाज़ार पर कब्ज़ा कर लिया है और फिर वे जो कुछ प्रकाशित करते हैं, उसके पाठकों की संख्या तथा उद्धरण (साइटेशन) को बढ़ावा देते हैं तथा प्रभाव गुणांक में वृद्धि करते रहते हैं। उधर विश्वविद्यालय प्रभाव गुणांक और उद्धरण संख्या का उपयोग अपनी अकादमिक उन्नति के मानदंड के रूप में करते हैं। इस तरह के परस्पर सुदृढीकरण की वजह से शोधकर्ताओं और उनके संस्थानों को लगता है कि किसी उतनी ही गुणवत्ता वाले जर्नल में कम भुगतान करके प्रकाशन करने की बजाय बेहतर होगा कि किसी विशेष पत्रिका में प्रकाशन के लिए ज़्यादा भुगतान किया जाए। यह स्थिति सीमित संसाधनों वाले शोधकर्ताओं के लिए घोर अन्याय है। यह इस सामान्य सोच के भी विपरीत है कि सार्वजनिक धन का उपयोग मुख्य रूप से अनुसंधान और उसके परिणामों के प्रसार में किया जाना चाहिए, न कि व्यावसायिकता को बढ़ावा देने के लिए।

क्रिएटिव कॉमन्स एट्रिब्यूशन लायसेंस (CC-BY) या इसी तरह के ओपन लायसेंस के लिए ज़रूरी है कि सभी बौद्धिक-संपदा अधिकार लेखकों के पास रहे और केवल गैर-एक्सक्लूसिव प्रकाशन अधिकार ही प्रकाशकों को हस्तांतरित किए जाएं। यदि वित्तपोषक ओपन एक्सेस का दाम न चुका पाएं, तो लेखकों द्वारा प्रकाशकों को लगभग सभी कॉपीराइट अधिकार प्रकाशक को सौंप दिया जाना अन्यायपूर्ण है। प्रकाशकों द्वारा भुगतान की दीवार खड़ी कर देने के कारण विश्व भर में प्रकाशित अधिकांश शोध पत्र शोधकर्ताओं और अन्य पाठकों की पहुंच से दूर हो जाते हैं। इस प्रणाली के कारण विकासशील देशों और कम संसाधन वाली संस्थाओं के शोधकर्ताओं को कई तरह से नुकसान होता है। चूंकि प्रकाशन/ओपन एक्सेस की यह कीमत आम तौर पर पत्रिका के ‘प्रभाव गुणांक’ (इम्पैक्ट फैक्टर, आईएफ) के समानुपाती होती है, कम संसाधनों वाले शोधकर्ता ऐसी पत्रिकाओं की तलाश करते हैं जो कम या फिर कोई शुल्क नहीं लेती हैं। ऐसी कम ‘प्रतिष्ठित’ पत्रिकाओं को समकक्ष शोधकर्ताओं द्वारा पूरी तरह अनदेखा किया जाता है, भले ही शोध कार्य उच्च स्तरीय हो। आईएफ के उपयोग के खिलाफ कई दलीलों और सैन फ्रांसिस्को घोषणा पत्र में इसकी निंदा के बावजूद, जर्नल के आईएफ को शोध मूल्यांकन मानदंड के रूप में उपयोग किया जाना जारी है। उच्च आईएफ पत्रिकाओं में प्रकाशन नहीं होने से लेखक और संस्थान की रैंकिंग कम होती है जिसका प्रभाव उनके भावी शोध संसाधनों पर भी पड़ता है।        

कॉपीराइट अधिकार को अपने पास रखने की संस्थागत अधिकार प्रतिधारण नीति अथवा राइट्स रिटेंशन पॉलिसी (आरआरपी) को अपनाने से किसी संस्थान के शोध परिणाम पढ़ने के इच्छुक पाठकों को अबाधित मुफ्त पहुंच मिलती है क्योंकि –

(1) इस नीति से स्वीकृत लेखकीय पांडुलिपि (एएएम– प्रकाशक द्वारा अतिरिक्त संपादकीय प्रक्रियाएं न की गई समकक्ष समीक्षित और स्वीकृत संस्करण) पर लेखक के पास अपने शोध पत्र को, बिना प्रकाशक की अनुमति की आवश्यकता के, पुनः उपयोग करने का अधिकार होता है।

(2) विश्वविद्यालय अपने सदस्यों के शोध पत्रों तक सभी को मुफ्त पहुंच प्रदान करता है। आरआरपी नीति के अंतर्गत सदस्यों के लिए अपने शोध पत्रों के एएएम संस्करणों की सॉफ्टकॉपी संस्था के सर्वर पर उपलब्ध कराना अनिवार्य है।

विश्व के कई शैक्षणिक संस्थानों ने आरआरपी को अपनाया है। इस नीति के तहत शोध पत्रों के सार्वजनिक रूप से सुलभ संस्थागत संग्रहण की आवश्यकता होती है जहां संस्थान के सदस्यों को अपने शोध पत्रों के एएएम संस्करणों को खुले लायसेंस के तहत जमा करना होता है। लेखक अपने संस्थान को लायसेंस प्रदान करता है कि वह लेख से सम्बंधित सभी अधिकारों का उपयोग कर सके और अन्य सह-लेखकों को भी ऐसा करने के लिए अधिकृत कर सके। इस प्रक्रिया में लेखकों को कॉपीराइट का अधिकार मिल जाता है जिससे उन्हें प्रकाशन के बाद अपने स्वयं के काम को फिर से उपयोग करने की स्वतंत्रता मिलती है। आरआरपी के तहत यह आवश्यक है कि पांडुलिपि की पहली प्रस्तुति के दौरान उसके साथ एक शपथ पत्र हो जिसमें लेखक द्वारा ओपन एक्सेस की घोषणा की गई हो। यह अग्रिम रूप से संपादक और प्रकाशक को मेज़बान संस्थान/वित्तपोषक के आरआरपी के अस्तित्व की सूचना देता है। बाहरी शर्तों की बजाय संस्थागत नीतियों की प्राथमिकता  होती है। इससे भविष्य में किसी भी कानूनी समस्या से सुरक्षा मिलती है।

संस्थागत आरआरपी नीति व्यावसायिक प्रकाशकों के उस अनुचित एकाधिकार को खत्म करती है जो उन्हें शोध उत्पाद के अधिकार छीनने की अनुमति देता है। अकादमिक संस्थानों द्वारा आरआरपी अपनाने से एक डर यह बताया जाता है कि इससे संस्थान के सदस्यों के शोध के उच्च प्रभाव गुणांक पत्रिकाओं में प्रकाशन पर असर पड़ता है। इस दावे का खंडन किया जा चुका है। आरआरपी के तहत कुछ विशेष मामलों में लेखक को ओपन एक्सेस से छूट का प्रावधान रखा जा सकता है लेकिन यह छूट रिपॉज़िटरी में जमा करने से नहीं होनी चाहिए। विश्व के कई विश्वविद्यालयों के अनुभव बताते हैं कि जिन संस्थानों ने संस्थागत आरआरपी नीति को अपनाया है, वहां ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी प्रकाशक ने आरआरपी के कारण स्वीकृत पांडुलिपि को प्रकाशित करने से मना किया हो।

भारत सरकार ‘वन नेशन, वन सब्सक्रिप्शन’ (ओएनओएस) नीति पर विचार कर रही है ताकि भारतीय पाठकों के लिए निर्धारित प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित लेखों की पहुंच ग्रीन ओपन एक्सेस के तहत सुनिश्चित की जा सके। अगर यह नीति सफल भी हो जाती है, तब भी भारत के बाहर रहने वाले पाठकों के लिए भारत में प्रकाशित शोध लेखों का ग्रीन ओपन एक्सेस नहीं मिल पाएगा और भारतीयों की भी उन पत्रिकाओं तक पहुंच नहीं हो पाएगी जो ओएनओएस के दायरे के बाहर हैं। लेकिन यदि देश के संस्थानों द्वारा आरआरपी को अपनाया जाता है तो पूरे विश्व में देश के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित शोध उत्पाद तक मुफ्त पहुंच संभव होगी। भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी विभागों की ‘ओपन साइंस पॉलिसी (2014)’ के तहत डीबीटी/डीएसटी द्वारा पूर्ण या आंशिक रूप से वित्तपोषित अनुसंधान परियोजनाओं से जारी होने वाली अंतिम स्वीकृत पांडुलिपियों को संस्थागत रिपॉज़िटरी या इंटरऑपरेबल इंस्टीट्यूशनल ओपन एक्सेस रिपॉजि़टरी या सेंट्रल हार्वेस्टर में जमा करना अनिवार्य है। इस नीति के सख्ती से क्रियान्वयन और देश के विभिन्न शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों द्वारा आरआरपी को अपनाने से अपेक्षित ओपन साइंस के द्वार खुल जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तीन दशकों बाद ‘विज्ञान प्रसार’ अवसान के पथ पर – चक्रेश जैन

पूरे देश में संचार के प्रमुख माध्यमों और विभिन्न विधाओं के ज़रिए आम आदमी तक विज्ञान की उपलब्धियों को पहुंचाने और वैज्ञानिक जागरूकता के उद्देश्य से भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा अक्टूबर 1989 में ‘विज्ञान प्रसार’ नामक एक स्वायत्त संस्था स्थापित की गई थी। इसकी स्थापना के 33 वर्षों बाद नीति आयोग ने इसे बंद करने की सिफारिश की है।

आज़ादी के 75 सालों बाद जब विज्ञान संचार की गतिविधियों के विस्तार और सशक्तीकरण का अवसर आया है, तब इस तरह के चौंकाने वाले प्रस्ताव ने विचार मंथन और नीति आयोग तक अपनी बात पहुंचाने के लिए प्रेरित किया है।

इस संस्था ने आम आदमी, संचार माध्यमों, वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं को जोड़ने में अद्वितीय भूमिका निभाई है। विज्ञान की लोकप्रिय किताबों से लेकर पत्रिकाओं, टेलीविज़न, रेडियो, विज्ञान क्लबों, फिल्मों, हैम रेडियो, एडुसेट उपग्रह तक के माध्यम से विज्ञान को आम लोगों तक पहुंचाया है। हाल के वर्षों को छोड़कर ‘विज्ञान प्रसार’ की शानदार उपलब्धियों और गतिविधियों से सराबोर अतीत की सम्यक समीक्षा और विश्लेषण करें तो कहा जा सकता है कि नीति आयोग का निर्णय अनावश्यक और पूर्वाग्रहों से प्रेरित है।

दरअसल, भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने 1982 में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद (एनसीएसटीसी) की स्थापना एक नोडल एजेंसी के रूप में की थी। एनसीएसटीसी की स्थापना के सात वर्षों बाद 1989 में ‘विज्ञान प्रसार’ का जन्म हुआ। डीएसटी ने विज्ञान प्रसार को स्वायत्त संस्था का दर्जा प्रदान करते हुए व्यापक स्तर पर विज्ञान को लोकप्रिय बनाने का कार्य सौंपा था।

एनसीएसटीसी ने अपनी स्थापना के साथ ही विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए कई नए कार्यक्रम शुरू किए। इनमें टीवी सीरियल ‘भारत की छाप’ और ‘क्यों और कैसे’ कार्यक्रम शामिल हैं। रेडियो के ज़रिए विज्ञान को श्रोताओं तक पहुंचाने के लिए ‘मानव का विकास’ नामक धारावाहिक बनाया गया था। यह विश्व का सबसे लंबा विज्ञान रेडियो धारावाहिक है।

एनसीएसटीसी ने ‘भारत जन विज्ञान जत्था’ का आयोजन किया। यह अपने ढंग का अनोखा आयोजन था, जिसमें ग्रामीण लोगों को विज्ञान और वैज्ञानिकों से सीधे संपर्क में आने का मौका मिला था। एनसीएसटीसी न्यूज़लेटर शीर्षक से मासिक प्रकाशन किया गया, जिसमें एनसीएसटीसी की गतिविधियां, भेंटवार्ताएं और पाठकों की प्रतिक्रियाएं होती थीं। किताबों में कहानी माप तौल की, गाएं गाना, खेलें खेल, हॉर्नबिल सीरीज़ आदि हैं।

आरंभ में एनसीएसटीसी और विज्ञान प्रसार ने कंधे से कंधा मिलाकर कुछ गतिविधियों को बढ़ावा दिया, जिनमें 1995 में ‘पूर्ण सूर्यग्रहण’ के अवसर पर जागरूकता कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम विज्ञान संचार के इतिहास में अहम और उल्लेखनीय था। इस कार्यक्रम में एनसीएसटीसी ने संकल्पना में और विज्ञान प्रसार ने विभिन्न भारतीय भाषाओं में सॉफ्टवेयर के विकास में योगदान किया था।

वास्तव में, एनसीएसटीसी ने अपनी स्थापना के शुरुआती दौर में जहां सरकारी ढांचे की सीमाओं के भीतर योगदान दिया, वहीं विज्ञान प्रसार ने स्वायत्त संस्थान की आज़ादी का लाभ उठाते हुए नवीन कार्यक्रम और परियोजनाएं शुरू कीं और पहली बार देश में आम लोगों के लिए विज्ञान संचार की ज़रूरत और महत्व को उजागर किया। विज्ञान प्रसार के विस्तार के बाद एनसीएसटीसी के कार्यों का दायरा देश भर की विज्ञान संस्थाओं की परियोजनाओं के वित्त पोषण, राष्ट्रीय बाल विज्ञान कांग्रेस के सालाना आयोजन और विज्ञान संचार के राष्ट्रीय पुरस्कार तक सिमट कर रह गया है।

विज्ञान प्रसार के विज्ञान संचार कार्यक्रमों को मोटे तौर पर दस भागों में विभाजित किया जा सकता है – प्रकाशन, टेलीविज़न, रेडियो, विपनेट क्लब, खगोल विज्ञान, लिंग समानता एवं प्रौद्योगिकी संचार, हैम रेडियो, गतिविधि किट, फिल्मों के द्वारा विज्ञान और एडुसैट नेटवर्क।

विज्ञान प्रसार द्वारा प्रकाशन कार्यक्रम के अंतर्गत अभी तक लगभग 400 किताबें प्रकाशित की गई हैं। ये पुस्तकें विभिन्न शृंखलाओं के अंतर्गत हिन्दी और अंग्रेज़ी के अलावा तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, मराठी, पंजाबी, बांग्ला आदि विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित की गई हैं।

ड्रीम 2047 विज्ञान प्रसार की लोकप्रिय मासिक विज्ञान पत्रिका है। इसका प्रकाशन अक्टूबर 1998 में आरंभ हुआ था। इस द्विभाषी पत्रिका का प्रकाशन अनवरत जारी है। विख्यात और वरिष्ठ पत्रकार एवं मुंबई से प्रकाशित फ्री प्रेस जर्नल में लंबे समय तक नियमित स्तम्भकार रहे पद्मभूषण एम. वी. कामथ ने ड्रीम 2047 के सौवें अंक में प्रकाशित आलेख में इस पत्रिका को अनूठी विज्ञान पत्रिका बताया है। ड्रीम 2047 पत्रिका का इलेक्ट्राॅनिक संस्करण विज्ञान प्रसार की वेबसाइट पर उपलब्ध है।

विज्ञान प्रसार विपनेट न्यूज़ प्रकाशित कर रहा है। इस मासिक पत्र में खगोल विज्ञान, जैव विविधता, प्रकृति, जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों से सम्बंधित आलेख होते हैं। यह पत्रिका विज्ञान क्लब के सदस्यों के बीच संवाद स्थापित करने में अहम भूमिका निभाती है।

विज्ञान प्रसार द्वारा भारतीय भाषाओं में विज्ञान संचार, लोकप्रियकरण एवं विस्तार (स्कोप) परियोजना आरंभ करने से देश में विज्ञान संचार को एक नई दिशा मिली है। इसके तहत विभिन्न भाषाओं में वैज्ञानिक जर्नल प्रकाशित हो रहे हैं। उर्दू में तजस्सुस शीर्षक से मासिक पत्र प्रकाशित हो रहा है। तजस्सुस का अर्थ है उत्सुकता। इसी प्रकार से बांग्ला में विज्ञान कथा का प्रकाशन जारी है। तमिल में अरिवियल पलागाई मासिक पत्रिका प्रकाशित हो रही है।

विज्ञान प्रसार ने भारत में टेलीविज़न को लोकप्रिय माध्यम के रूप में देखते हुए इसका उपयोग वैज्ञानिक जागरूकता और प्रसार के लिए करने का निर्णय लिया। इसरो की डेवलपमेंट एंड एजुकेशनल कम्युनिकेशन युनिट (डेकू) के साथ मिलकर विज्ञान सम्बंधी कार्यक्रम बनाए, जिनका विभिन्न भारतीय भाषाओं में दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल और क्षेत्रीय केंद्रों से प्रसारण किया गया। साइंस ऑन टेलीविज़न के माध्यम से टेलीविज़न पर विज्ञान कार्यक्रम लोकसभा और राज्यसभा टीवी, क्षेत्रीय दूरदर्शन केंद्रों और ज्ञान दर्शन के माध्यम से प्रसारित होते रहे हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर आधारित लगभग 2000 कार्यक्रमों को देश के लाखों दर्शकों ने पसंद किया। इस संस्था का इंटरनेट आधारित ओवर-दी-टॉप (ओटीटी) साइंस चैनल है। यह प्लेटफॉर्म 24X7 विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधारित ज्ञान के लिए समर्पित है।

विज्ञान प्रसार ने विभिन्न विषयों और मुद्दों पर मेगा विज्ञान रेडियो धारावाहिकों का निर्माण किया है। इनमें पृथ्वी ग्रह, खगोल विज्ञान, गणित, जैव विविधता, दैनिक जीवन में रसायन विज्ञान, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग आदि सम्मिलित हैं। 19 भाषाओं में निर्मित इन कार्यक्रमों को विभिन्न एफएम केंद्रों के साथ 117 मीडियम वेव केंद्रों से प्रसारित किया गया है।

रेडियो के ज़रिए जनजातियों और अन्य पिछड़े समुदायों में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए चल रहे कार्यक्रमों के अंतर्गत जनजातीय भाषाओं में भी कार्यक्रम तैयार किए गए हैं।

हैम रेडियो का लोकप्रियकरण विज्ञान प्रसार की प्रमुख गतिविधियों में शामिल है। हैम रेडियो संचार किसी भी आपात स्थिति के दौरान महत्वपूर्ण बैकअप के रूप में उपयोगी सिद्ध हो सकता है। विज्ञान प्रसार हैम रेडियो स्टेशनों की स्थापना, ऑपरेटरों के प्रशिक्षण और रचनात्मक गतिविधियों के लिए अवसर उपलब्ध कराने के साथ ही विश्व भर के शौकिया ऑपरेटरों के साथ संपर्क स्थापित करने के लिए मार्गदर्शन और तकनीकी मदद प्रदान करता है। विज्ञान प्रसार स्कूली विद्यार्थियों और प्रौद्योगिकी संस्थानों में हैम रेडियो को बढ़ावा दे रहा है।

विज्ञान प्रसार का एक प्रमुख कार्यक्रम ‘नेशनल साइंस फिल्म फेस्टीवल’ भी है। इस फिल्म फेस्टीवल का उद्देश्य सिनेमा के माध्यम से विज्ञान की पहुंच का विस्तार और विज्ञान फिल्म निर्माण को प्रोत्साहन देना रहा है। इसमें पूरे देश से विभिन्न श्रेणियों के अंतर्गत वैज्ञानिक मुद्दों और विषयों पर फिल्में आमंत्रित की जाती हैं। चयनित फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता है और पुरस्कार दिए जाते हैं।

विज्ञान प्रसार ने देश के दूरदराज़ इलाकों तक पहुंचने के लिए शैक्षणिक उपग्रह ‘एडुसैट’ का उपयोग करके इंटरएक्टिव टर्मिनलों का नेटवर्क बनाया है और देश के विभिन्न हिस्सों में 50 टर्मिनल स्थापित किए हैं। इस तकनीक का उपयोग विज्ञान प्रसार विभिन्न विज्ञान लोकप्रियकरण कार्यक्रमों के प्रसारण में कर रहा है।

विज्ञान प्रसार ने बीते वर्षों में देश भर में आम लोगों के बीच कई राष्ट्रीय जागरूकता अभियान चलाए हैं। इनमें पूर्ण सूर्य ग्रहण 1999, शुक्र पारगमन 2004, विज्ञान रेल: पहियों पर विज्ञान प्रदर्शनी 2003-04, पूर्ण सूर्यग्रहण 2009 आदि सम्मिलित हैं।

विज्ञान प्रसार द्वारा देश में विज्ञान क्लब कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए 1998 में विज्ञान क्लब के देशव्यापी नेटवर्क ‘विपनेट’ की स्थापना की गई। वर्तमान में विज्ञान प्रसार का लगभग 3000 विज्ञान क्लबों का नेटवर्क है, जिसके माध्यम से विभिन्न गतिविधियां की जाती रही हैं। वास्तव में विपनेट विज्ञान प्रसार के उद्देश्यों की प्राप्ति में अहम भूमिका निभाता है। विज्ञान क्लब रोचक और ज्ञानवर्धन गतिविधियों का मंच है, जिसमें मित्रों को भी शामिल किया जा सकता है।

विपनेट देश के हर कोने में अच्छी तरह से जाना जाता है। अपनी स्थापना के दो वर्षों बाद मध्यप्रदेश का रतलाम ज़िला देश का सबसे अधिक सदस्यता (107) वाला ज़िला और उत्तरप्रदेश सबसे अधिक 350 विज्ञान क्लबों वाला राज्य बन गया था।

विज्ञान प्रसार के नेतृत्व में स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर देश के 75 स्थानों पर विज्ञान महोत्सवों का आयोजन किया गया था। इसका मुख्य विषय ‘विज्ञान सर्वत्र पूज्यते’ था। विज्ञान उत्सव के माध्यम से स्थानीय लोगों को वैज्ञानिक विरासत और प्रगति से परिचित कराया गया था। इस दौरान विज्ञान पुस्तक मेला, विज्ञान कवि सम्मेलन, विज्ञान प्रदर्शनी आदि कार्यक्रम आयोजित किए गए थे।

साल 2020 में विज्ञान प्रसार ने कोरोना वायरस से फैली कोविड-19 महामारी के दौरान देश के वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं के कार्यों से सबको परिचित कराने के लिए अनूठी कोविड-19 परीक्षण प्रयोगशाला पर वृत्तचित्र का निर्माण किया।

विज्ञान प्रसार अनेक वर्षों से खगोल विज्ञान के लोकप्रियकरण में जुटा हुआ है और विद्यार्थियों, अध्यापकों और शौकिया खगोल वैज्ञानिकों के लिए दूरबीन निर्माण सम्बंधी कार्यशालाओं का आयोजन करता रहा है।

विज्ञान को आम लोगों तक ले जाने की मुहिम की एक प्रमुख कड़ी है – ‘इंडिया साइंस वायर प्रोजेक्ट’। विज्ञान प्रसार इस प्रोजेक्ट के माध्यम से देश के समाचार पत्रों और वेब पोर्टल्स को विज्ञान समाचार और फीचर नियमित रूप से उपलब्ध करा रहा है।

विज्ञान प्रसार ने देश के 17 स्थानों पर ‘गांधी एट 150 प्रोजेक्ट’ शीर्षक से डिजिटल प्रदर्शनी का आयोजन किया था।

इसने ‘शोध अभिव्यक्ति के लिए लेखन कौशल को प्रोत्साहन’ परियोजना शुरू की, जिसके तहत विज्ञान विषयों में पीएच.डी. और पोस्ट डॉक्टरेट करने वाले व्यक्तियों को फैलोशिप के दौरान अपनी रिसर्च से सम्बंधित मुद्दे पर लोकप्रिय विज्ञान लेखन के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस परियोजना का उद्देश्य भारतीय अनुसंधान कार्यों को जन साधारण के बीच रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत करना है।

विज्ञान प्रसार ने वर्ष 2018-19 में विद्यार्थी विज्ञान मंथन (वीवीएम) परीक्षा के आयोजन में योगदान किया। डिजिटल उपकरणों की सहायता से आयोजित इस परीक्षा में कक्षा 6-11 के विद्यार्थी भाग लेते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों को विज्ञान के क्षेत्र में भारत की वैज्ञानिक और तकनीकी विरासत से परिचित कराना है।

क्रियाकलाप और खिलौना विकास एक निरंतर चलने वाला कार्यक्रम है। विज्ञान प्रसार ने पिछले एक दशक में लगभग 10 विषयों में विषयगत किट विकसित किए हैं। इनमें जैव विविधता, खगोल विज्ञान, भूकंप, मौसम आदि सम्मिलित हैं।

बीते दशकों के दौरान विज्ञान प्रसार ने महत्वपूर्ण दिवसों के अवसर पर उत्सव समारोह आयोजित किए हैं। इनमें मेघनाद साहा की 125वीं जयंती समारोह, राष्ट्रीय गणित दिवस समारोह, रामानुजन यात्रा आदि शामिल हैं।

कुल मिलाकर नीति आयोग द्वारा विज्ञान प्रसार को बंद करने के निर्णय से भारत में विज्ञान संचार के मैदान में पूरे उत्साह, लगन और समर्पण भाव से जुटे विज्ञान संचारकों को गहरा आघात पहुंचा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सी. आर. राव को गणित का नोबेल पुरस्कार – मनीष श्रीवास्तव

भारतीय—अमेरिकी गणितज्ञ और सांख्यिकीविद सी. आर. राव (कल्यामपुडी राधाकृष्ण राव) को वर्ष 2023 के अंतर्राष्ट्रीय सांख्यिकी पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा की गई है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार भी कहा जाता है। पुरस्कार के लिए उनके नाम की घोषणा करते हुए इंटरनेशनल प्राइज़ इन स्टैटिस्टिक्स फाउंडेशन द्वारा कहा गया कि “वे गणित विज्ञान की दुनिया के लेजेंड है। उन्होंने लगभग 75 वर्ष पहले अपने काम के ज़रिए सांख्यिकी के क्षेत्र में क्रांति ला दी थी।” यह पुरस्कार हर दो साल में पांच प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से प्रदान किया जाता है।

आज उन्हीं राव को जुलाई माह में कनाडा के ओटावा शहर में आयोजित होने वाली विश्व सांख्यिकी कांग्रेस में पुरस्कार सहित 80 हज़ार अमेरिकी डॉलर की सम्मान राशि से सम्मानित किया जाएगा। आइए, सी. आर. राव से परिचय करें।

सी. आर. राव का जन्म कर्नाटक की हदगली नाम की जगह पर एक तेलुगु परिवार में 10 सितंबर 1920 को हुआ था। राव ने अपनी आरंभिक और उच्च शिक्षा आंध्रप्रदेश के गुदुर, नंदीगामा और विशाखापट्टनम में प्राप्त की। अध्ययन में गहरी रुचि रखने वाले राव ने गणित में एमएससी की और इसके बाद विशेष रूप से गणित की एक शाखा सांख्यिकी में एम.ए. किया। सांख्यिकी उनका प्रिय विषय रहा और इसी ने अंतत: उन्हें गणित का नोबेल सम्मान दिलाया।

भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी वे गंभीरता से अध्ययन करते रहे और इंग्लैण्ड जाकर कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के किंग्स कॉलेज से पीएच. डी. तथा बाद में कैम्ब्रिज से ही डीएससी की उपाधि प्राप्त की। इस तरह वे अपने ज्ञान के स्तर को उच्चतर आयाम तक लेकर गए और गणित विज्ञान के क्षेत्र में बेहद सम्मान पाया।

ज्ञानार्जन करते हुए राव ने समय—समय पर विविध संस्थानों में अपनी सेवाएं दीं। उन्होंने भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और फिर मानव विज्ञान संग्रहालय (कैम्ब्रिज) में सेवाएं दीं। इसके बाद अध्यापन करते हुए पिट्सबर्ग युनिवर्सिटी में प्रोफेसर और एबर्ली प्रोफेसर रहने के साथ ही अमेरिका के पेनसिल्वेनिया राज्य के एक एनालिसिस सेंटर के निदेशक पद पर रहकर कार्य किया। फिलहाल वे पेनसिल्वेनिया स्टेट युनिवर्सिटी में प्रोफेसर के पद पर सेवाएं दे रहे थे।

राव ने कम उम्र में ही अपने ज्ञान के उच्चतर स्तर से सभी को चकित कर दिया था। उन्होंने अध्ययन करते समय मात्र 25 वर्ष की आयु में ही महत्वपूर्ण शोध पत्र कलकत्ता मेथेमेटिकल सोसायटी के बुलेटिन में Information and accuracy attainable in the estimation of statistical parameters (सांख्यिकीय मापदंडों के अनुमान में पाने योग्य सूचना व सटीकता) प्रकाशित किया था। इस पेपर के महत्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसे स्टैटिस्टिक्स की महत्वपूर्ण पुस्तक ब्रेकथ्रूस इन स्टैटिस्टिक्स 1890—1990 में शामिल किया गया था। उनके इस शोध ने आधुनिक सांख्यिकी की स्थापना में विशेष योगदान दिया। उनकी महत्वपूर्ण खोजों ने न सिर्फ सांख्यिकी को प्रभावित किया बल्कि भू-गर्भविज्ञान, चिकित्सा, जैवमिति सहित उन सभी क्षेत्रों को लाभ पहुंचाया, जिनमें किसी न किसी तरह से सांख्यिकी का उपयोग होता है।

गणित का नोबेल सम्मान मिलने से पहले ही राव कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं। भारत सरकार द्वारा उन्हें 1968 में पद्म भूषण और 2001 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया जा चुका है। वे शांति स्वरूप भटनागर विज्ञान और प्रौद्योगिकी पुरस्कार (1963), नेशनल मेडल ऑफ साइंस सम्मान (2002) प्राप्त करने के साथ ही रॉयल सोसायटी के फेलो (1967) भी रह चुके हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया उन्हें 10 महान भारतीय वैज्ञानिकों में शुमार कर चुका है। आज उनकी उम्र 100 वर्ष से ज़्यादा है और आज भी वे सामाजिक जीवन में  सक्रिय हैं। अपनी ऊर्जा और विशिष्ट कार्यों के चलते वे वैश्विक प्रेरणास्रोत बन गए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पाठ्यक्रम से जैव विकास को हटाने के विरुद्ध अपील

पिछले दिनों केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा प्रस्तावित पाठ्यक्रम संशोधन को लेकर काफी बहस चली है। इन परिवर्तनों में यह भी शामिल है कि कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में से जैव विकास सम्बंधी अंश को विलोपित कर दिया जाएगा। इस निर्णय को लेकर देश भर के वैज्ञानिकों, विज्ञान शिक्षकों और विज्ञान से सरोकार रखने वाले नागरिकों ने एक अपील जारी की है। इस अपील पर अनिकेत सुले (मुंबई), राघवेंद्र गडग्कर (बैंगलुरु), एल.एस शशिधर (बैंगलुरु), टी.एन.सी. विद्या (बैंगलुरु), एनाक्षी भट्टाचार्य (चेन्नै), डॉ. इंदुमति (चेन्नै), अमिताभ पांडे (दिल्ली), राम रामस्वामि (दिल्ली), टी.वी. वेकटेश्वर (दिल्ली), अनिंदिता भद्रा (कोलकाता), सौमित्र बैनर्जी (कोलकाता), एस. कृष्णास्वामि (मदुरै), एन. जी. प्रसाद (मोहाली), और्नब घोष (पुणे), सत्यजित रथ (पुणे), श्रद्धा कुंभोजकर (पुणे), सुधा राजमणि (पुणे), वीनिता बाल (पुणे) सहित 1800 लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। प्रस्तुत है उस अपील का हिंदी रूपांतरण….

हमें ज्ञात हुआ है कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल (सीबीएससी) के उच्च व उच्चतर माध्यमिक कोर्स में व्यापक परिवर्तन का प्रस्ताव है। इन परिवर्तनों को पहले कोरोना महामारी के दौरान अस्थायी उपायों के रूप में लागू किया गया था और अब इन्हें तब भी जारी रखा जा रहा है जब स्कूल वापिस ऑफलाइन शैली में लौट रहे हैं। खास तौर से हम इस बात को लेकर चिंतित हैं कि कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में से जैव विकास का डार्विनियन सिद्धांत हटाया जा रहा है, जैसा कि एनसीईआरटी की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी से पता चलता है (देखें: https://ncert.nic.in/pdf/BookletClass10.pdf पृष्ठ 21)।

शिक्षा के वर्तमान ढांचे में बहुत थोड़े से विद्यार्थी ही कक्षा 11 या 12 में विज्ञान को अपने अध्ययन की शाखा के रूप में चुनते हैं और उनमें से भी बहुत कम जीव विज्ञान को चुनते हैं।

लिहाज़ा, कक्षा 10 तक के पाठ्यक्रम में प्रमुख अवधारणाओं को हटा देने का मतलब है कि विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या इस क्षेत्र के एक महत्वपूर्ण अंश से वंचित रह जाएगी। उद्वैकासिक जीव विज्ञान का ज्ञान व समझ न सिर्फ जीव विज्ञान के उप-क्षेत्रों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह अपने आसपास की दुनिया को समझने के लिए भी ज़रूरी है। विज्ञान के एक क्षेत्र के रूप में जैव विकास जैविकी का एक ऐसा क्षेत्र है, जिसका इस बात पर गहरा असर होता है कि हम समाजों और राष्ट्रों के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं से कैसे निपटने का निर्णय करते हैं। ये समस्याएं चिकित्सा, औषधियों की खोज, महामारी विज्ञान, पारिस्थितिकी और पर्यावरण, से लेकर मनोविज्ञान तक से सम्बंधित हैं। जैव विकास हमारी इस समझ को भी प्रभावित करता है कि हम मनुष्यों और जीवन के ताने-बाने के साथ उनके सम्बंधों को किस तरह देखते हैं।

हालांकि हममें से कई लोग यह बात स्पष्ट रूप से नहीं जानते लेकिन तथ्य यह है कि प्राकृतिक वरण के सिद्धांत हमें कई महत्वपूर्ण मुद्दों को समझने में मदद करते हैं, जैसे – कोई महामारी कैसे आगे बढ़ती है, या प्रजातियां क्यों विलुप्त हो जाती हैं।

जैव विकास की प्रक्रिया की समझ वैज्ञानिक मानसिकता और एक तर्कसंगत विश्वदृष्टि के निर्माण के लिए भी ज़रूरी है। जिस ढंग से श्रमसाध्य अवलोकनों और गहरी सूझ-बूझ ने डार्विन को प्राकृतिक वरण के सिद्धांत तक पहुंचने में मदद की थी, वह विद्यार्थियों को विज्ञान की प्रक्रिया और आलोचनात्मक सोच के महत्व के बारे में भी शिक्षित करता है। जो विद्यार्थी कक्षा 10 के बाद जीव विज्ञान नहीं पढ़ेंगे, उन्हें इस अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र से संपर्क से वंचित रखना शिक्षा की प्रक्रिया का मखौल होगा।

हम वैज्ञानिक, विज्ञान शिक्षक, विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में जुटे लोग और सरोकारी नागरिक स्कूली विज्ञान शिक्षा में ऐसे खतरनाक परिवर्तनों से असहमत हैं और मांग करते हैं कि जैव विकास के डार्विनियन सिद्धांत को माध्यमिक शिक्षा में बहाल किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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शिक्षण में चैटजीपीटी का उपयोग

पिछले वर्ष नवंबर के अंत में एआई आधारित एक ऐसा आविष्कार बाज़ार में आया जिसने शोध और शिक्षण समुदाय से जुड़े लोगों को चिंता में डाल दिया। ओपनएआई द्वारा जारी किया गया चैटजीपीटी एक प्रकार का विशाल भाषा मॉडल (एलएलएम) एल्गोरिदम है जिसे भाषा के विपुल डैटा से प्रशिक्षित किया गया है।

कई शिक्षकों व प्रोफेसरों का ऐसा मानना था कि छात्र अपने निबंध और शोध सार लेखन के लिए चैटजीपीटी का उपयोग करके चीटिंग कर सकते हैं। छात्रों का कार्य मौलिक हो और उसमें शैक्षणिक बेईमानी न हो, इस उद्देश्य से कुछ विश्वविद्यालयों ने तो चैटजीपीटी आधारित टेक्स्ट को साहित्यिक चोरी की श्रेणी में रखा जबकि कई अन्य ने इसके उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध ही लगा दिया। हालांकि युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग (यू.के.) जैसे कई विश्वविद्यालय ऐसे भी हैं जिन्होंने इस सम्बंध में कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी नहीं किए हैं।

इस युनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर हांग यैंग चैटजीपीटी को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने के पक्ष में नहीं हैं। यैंग के अनुसार इस तकनीक द्वारा लिखे गए काम का पता लगाना काफी मुश्किल है लेकिन छात्रों को अधुनातन टेक्नॉलॉजी से दूर रखना भी उचित नहीं है। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें ऐसी तकनीकों के साथ काम करना होगा। वे अभी इसका सही उपयोग करना नहीं सीखेंगे तो यकीनन पीछे रह जाएंगे। लिहाज़ा, इसे शिक्षण में एकीकृत करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है। एक उदाहरण… 

वायु प्रदूषण के शिक्षक के रूप में यैंग ने अपने छात्रों से कॉलेज परिसर में वायु-गुणवत्ता डैटा एकत्रित करने के लिए छोटे समूहों में काम करने कहा। डैटा विश्लेषण और व्यक्तिगत निबंध लिखने के लिए उन्हें सांख्यिकीय तरीकों का उपयोग करना था। इस काम में कई छात्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का आकलन करने के लिए उपयुक्त विधि खोजने में संघर्ष कर रहे थे। तब यैंग ने प्रोजेक्ट डिज़ाइन करने के लिए चैटजीपीटी का उपयोग करने का सुझाव दिया। इस मॉडल की मदद से उन्हें कार्बन डाईऑक्साइड निगरानी उपकरणों के लिए स्थान की पहचान करने से लेकर उपकरण स्थापित करने, डैटा एकत्र करने और उसका विश्लेषण करने तथा परिणामों को प्रस्तुत करने के बेहतरीन सुझाव मिले। 

इस प्रोजेक्ट में छात्र-वैज्ञानिकों ने विश्लेषण और निबंध लिखने का सारा काम किया लेकिन उन्होंने यह भी सीखा कि कैसे एलएलएम की मदद से वैज्ञानिक विचारों को तैयार किया जाता है और प्रयोगों की योजना बनाई जा सकती है। चैटजीपीटी की मदद से वे सांख्यिकीय परीक्षण करने तथा प्राकृतिक और मानव निर्मित परिसर में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तरों का विश्लेषण करने में काफी आगे जा पाए।                   

इस अभ्यास के बाद से यैंग ने मूल्यांकन के तरीकों में भी परिवर्तन किया ताकि छात्र शैक्षिक सामग्री को बेहतर ढंग से समझें और चोरी करने से बच सकें। निबंध लिखने की बजाय यैंग ने प्रोजेक्ट के निष्कर्षों को साझा करने के लिए छात्रों को 10 मिनट की मौखिक प्रस्तुति देने को कहा। इससे न केवल साहित्यिक चोरी की संभावना में कमी आई बल्कि मूल्यांकन प्रक्रिया अधिक संवादनुमा और आकर्षक हो गई।  

हालांकि, चैटजीपीटी के कई फायदों के साथ नकारात्मक पहलू भी हैं। उदाहरण के तौर पर यैंग ने ग्रीनहाउस गैसों के व्याख्यान के दौरान चैटजीपीटी से जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित किताबों और लेखकों की सूची मांगी। इसी सवाल में उन्होंने नस्ल और भाषा के पूर्वाग्रह को रोकने के लिए खोज में “जाति और भाषा का ख्याल किए बगैर” जैसे शब्दों को भी शामिल किया। लेकिन फिर भी चैटजीपीटी के जवाब में सभी किताबें अंग्रेज़ी में थीं और 10 में से 9 लेखक श्वेत और 10 में से 9 लेखक पुरुष थे।  

वास्तव में एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए पुरानी किताबों और वेबसाइटों की जानकारी का उपयोग करने से हाशिए वाले समुदायों के प्रति पक्षपाती दृष्टिकोण नज़र आता है, जबकि वर्चस्वपूर्ण वर्ग की उपस्थिति बढ़ जाती है। मेटा कंपनी के गैलेक्टिका नामक एलएलएम को इसीलिए हटाया गया है क्योंकि यह नस्लवादी सामग्री उत्पन्न कर रहा था। गौरतलब है कि एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए उपयोग किया जाने वाला अधिकांश डैटा अंग्रेज़ी में है, इसलिए वे उसी भाषा में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। एलएलएम का व्यापक उपयोग विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के अति-प्रतिनिधित्व को बढ़ा सकता है, और पहले से ही कम प्रतिनिधित्व वाले लोगों को और हाशिए पर धकेल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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सबसे नीरस संख्या

णितज्ञों को कई संख्याएं बहुत दिलचस्प लगती हैं जबकि कुछ संख्याएं नीरस लगती हैं। तो यह देखना दिलचस्प होगा कि गणितज्ञों को संख्याएं क्यों सरस और नीरस लगती हैं।

जैसे, पसंदीदा संख्या पूछे जाने पर गणित का कोई विद्यार्थी शायद पाई (π), या यूलर्स संख्या (e) या 2 का वर्गमूल कहे। लेकिन एक आम व्यक्ति के लिए कई अन्य संख्याएं दिलचस्प हो सकती हैं। जैसे सात समंदर, सातवां आसमान, सप्तर्षि में आया सात। तेरह को बदनसीब संख्या मानना उसे दिलचस्प बना देगा। चतुर्भुज में चार, या पंचामृत के चलते पांच को लोकप्रिय कहा जा सकता है।

इस संदर्भ में एक किस्सा मशहूर है। प्रसिद्ध गणितज्ञ गॉडफ्रे हैरॉल्ड हार्डी का ख्याल था कि 1729 एक नीरस संख्या है। वे इसी नंबर की टैक्सी में बैठकर अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे अपने गणितज्ञ साथी श्रीनिवास रामानुजन से मिलने पहंुचे और उन्हें बताया कि वे एक नीरस नंबर की टैक्सी में आए हैं। रामानुजन ने तत्काल इस बात खंडन करते हुए कहा था, “यह तो निहायत दिलचस्प संख्या है; यह वह सबसे छोटी संख्या है जिसे दो संख्याओं के घन के योग से दो तरह से व्यक्त किया जा सकता है (1729 = 123 + 13 = 103 + 93)।”

है ना मज़ेदार – 1729 जैसी संख्या भी दिलचस्प निकली। तो सवाल यह उठता है कि क्या कोई ऐसी संख्या है, जिसमें कोई दिलचस्प गुण न हो। लेकिन गणितज्ञों ने ऐसा तरीका खोज निकाला है जिसकी मदद से किसी भी संख्या के दिलचस्प गुणों का निर्धारण किया जा सकता है। और 2009 में किए गए अनुसंधान से पता चला कि प्राकृत संख्याओं (धनात्मक पूर्ण संख्याओं) को तो स्पष्ट समूहों में बांटा जा सकता है – रोमांचक और नीरस।

संख्या अनुक्रमों का एक विशाल विश्वकोश इन दो समूहों की तहकीकात को संभव बनाता है। गणितज्ञ नील स्लोअन के मन में ऐसे विश्वकोश का विचार 1963 में आया था। वे अपना शोध प्रबंध लिख रहे थे और उन्हें ट्री नेटवर्क नामक ग्राफ में विभिन्न मानों का कद नापना होता था। इस दौरान उनका सामना संख्याओं की एक शृंखला से हुआ – 0, 1, 8, 78, 944….। उस समय उन्हें पता नहीं था कि इस शृंखला की संख्याओं की गणना कैसे करें और वे तलाश रहे थे कि क्या उनके किसी साथी ने ऐसी शृंखला देखी है। लेकिन लॉगरिद्म या सूत्रों के समान संख्याओं की शृंखला की कोई रजिस्ट्री मौजूद नहीं थी। तो 10 वर्ष बाद स्लोअन ने पहला विश्वकोश प्रकाशित किया – ए हैण्डबुक ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस। इसमें लगभग 2400 शृंखलाएं थीं और गणित जगत में इसका भरपूर स्वागत किया गया।

आने वाले वर्षों में स्लोअन को कई शृंखलाएं प्रस्तुत की गईं और संख्या शृंखलाओं को लेकर कई शोध पत्र प्रकाशित हुए। इससे प्रेरित होकर स्लोअन ने अपने साथी साइमन प्लाउफ के साथ मिलकर 1995 में दी एनसायक्लोपीडिया ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस प्रकाशित किया। इसका विस्तार होता रहा और फिर इंटरनेट ने आंकड़ों की इस बाढ़ को संभालना संभव बना दिया।

1996 में ऑनलाइन एनसायक्लोपीडिया ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस सामने आया जिसमें शृंखलाओं की संख्या को लेकर कोई पाबंदी नहीं थी। मार्च 2023 तक इसमें 3 लाख 60 हज़ार प्रविष्टियां थीं। इसमें कोई व्यक्ति अपनी शृंखला प्रस्तुत कर सकता है; उसे सिर्फ यह समझाना होगा कि वह शृंखला कैसे उत्पन्न हुई और उसमें दिलचस्प बात क्या है। यदि इन मापदंडों पर खरी उतरी तो उसे प्रकाशित कर दिया जाता है।

इस एनसायक्लोपीडिया में कुछ तो स्वत:स्पष्ट प्रविष्टियां हैं – जैसे अभाज्य संख्याओं की शृंखला (2, 3, 5, 7, 11…) या फिबोनाची शृंखला (1, 1, 2, 3, 5, 8, 13….)। किंतु ऐसी शृंखलाएं भी हैं – टू-बाय-फोर स्टडेड लेगो ब्लॉक्स की एक निश्चित संख्या (n) की मदद से एक स्थिर मीनार बनाने के तरीकों की संख्या। या ‘लेज़ी कैटरर्स शृंखला’ (1, 2, 4, 7, 11, 16, 22, 29,…) या किसी केक को n बार काटकर अधिकतम कितने टुकड़े प्राप्त हो सकते हैं।

यह एनसायक्लोपीडिया दरअसल सारी शृंखलाओं का एक संग्रह बनाने का प्रयास है। लिहाज़ा, यह संख्याओं की लोकप्रियता को आंकने का एक साधन भी बन गया है। कोई संख्या इस संग्रह में जितनी अधिक मर्तबा सामने आती है, उतनी ही वह दिलचस्प है। कम से कम फिलिप गुग्लिएमेटी का यह विचार है। अपने ब्लॉग डॉ. गौलू पर उन्होंने लिखा था कि उनके एक गणित शिक्षक ने दावा किया था कि 1548 में कोई विशेष गुण नहीं हैं। लेकिन ऑनलाइन एनसायक्लोपीडिया में यह संख्या 326 बार प्रकट होती है। थॉमस हार्डी ने जिस संख्या 1729 को नीरस माना था वह इस एनसायक्लोपीडिया में 918 बार नज़र आती है।

तो गुग्लिएमेटी सचमुच नीरस संख्याओं की खोज में जुट गए। यानी ऐसी संख्याएं जो एनसायक्लोपीडिया में या तो कभी नहीं दिखतीं या बहुत कम बार दिखती हैं। संख्या 20,067 की यही स्थिति पता चली। इस वर्ष मार्च तक यह वह सबसे छोटी संख्या थी जो एक भी शृंखला का हिस्सा नहीं थी। इसका कारण शायद यह है कि इस एनसायक्लोपीडिया में किसी भी शृंखला के प्रथम 180 पदों को शामिल किया जाता है। अन्यथा हर संख्या धनात्मक पूर्ण संख्याओं की सूची में तो आ ही जाएगी। इस लिहाज़ से देखा जाए तो संख्या 20,067 काफी नीरस लगती है जबकि 20,068 की 6 प्रविष्टियां मिलती हैं। वैसे यह कोई स्थायी अवस्था नहीं है। यदि कोई नई शृंखला खोज ली जाए, तो 20,067 का रुतबा बदल भी सकता है। बहरहाल, एनसायक्लोपीडिया संख्या की रोचकता का कुछ अंदाज़ तो दे ही सकता है।

वैसे बात इतने पर ही नहीं रुकती और यह एनसायक्लोपीडिया संख्याओं के अन्य गुणों की खोजबीन का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। लेकिन शायद वह गहन गणित का मामला है। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान/प्रौद्योगिकी के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मान – मनीष श्रीवास्तव

क नोबेल पुरस्कार को छोड़ दें, तो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्राप्त होने वाले सम्मानों की चर्चा कम ही होती है। इस वजह से कई बार युवाओं की रुचि इस क्षेत्र में कम हो जाती है। आइए कुछ सम्मानों/पुरस्कारों पर नज़र डालते हैं।

राष्ट्रीय/राज्य स्तरीय सम्मान

मध्यप्रदेश सरकार विज्ञान और प्रौद्यागिकी में उत्कृष्ट काम के लिए राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय सम्मान प्रदान करती है। सन 1982 में स्थापित ये पुरस्कार राष्ट्रीय स्तर पर आधारभूत विज्ञान, तकनीकी विकास और इंजीनियरिंग हेतु जवाहर लाल नेहरू तथा राज्य स्तर पर अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी में योगदान के लिए डॉ. कैलाश नाथ काटजू तथा डॉ. लज्जा शंकर झा, समाज विज्ञान में योगदान हेतु डॉ. हरिसिंह गौर के नाम पर प्रदान किए जाते हैं।

राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद

भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय की विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार परिषद (एनसीएसटीसी) विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्यों हेतु हर साल राष्ट्रीय विज्ञान दिवस (28 फरवरी) के अवसर पर राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान करती है।

इन पुरस्कारों का उद्देश्य विज्ञान को लोकप्रिय बनाने, आमजन में वैज्ञानिक अभिरुचि जगाने तथा संचार क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने वाले लोगों और संस्थाओं को प्रोत्साहित करने तथा उनके द्वारा किए जा रहे कार्यों को वित्तीय रूप से सहयोग देना होता है। इसके अंतर्गत निम्न श्रेणियों में सम्मान दिया जाता है: 

1. प्रिंट मीडिया के माध्यम से विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार।

2. बच्चों के बीच विज्ञान और प्रौद्योगिकी को लोकप्रिय बनाना।

3. लोकप्रिय विज्ञान और प्रौद्योगिकी साहित्य का अनुवाद।

4. नवीन और पारंपरिक तरीकों से विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार।

5. इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार।

विज्ञान फिल्म महोत्सव पुरस्कार

विज्ञान और प्रौद्योगिकी को अब प्रिंट माध्यम के अलावा कई अन्य माध्यमों से प्रचारित किया जाता है। इसी श्रेणी में इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के अंतर्गत फिल्में आती हैं। आजकल डॉक्यूमेंट्री तथा लघु फिल्मों के माध्यम से बड़े पैमाने पर यह कार्य किया जा रहा है। भारत सरकार की संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ द्वारा प्रति वर्ष विज्ञान फिल्मों को लेकर एक राष्ट्रीय महोत्सव आयोजित किया जाता है और विविध श्रेणियों में पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। इसके अंतर्गत डॉक्यूमेंट्री, डॉक्यू-ड्रामा और साइंस फिक्शन फिल्मों की श्रेणियां होती हैं।

विज्ञान परिषद

देश में वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार हेतु 1913 में स्थापित सबसे पुरानी संस्था विज्ञान परिषद, प्रयाग 100 सालों से भी अधिक समय से विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने का काम कर रही है। संस्था द्वारा अपने कामों को आमजन तक पहुंचाने और विज्ञान जागरूकता लाने के लिए विज्ञान नामक मासिक पत्रिका का भी प्रकाशन किया जाता है। इसी क्रम में परिषद द्वारा कई पुरस्कारों की भी स्थापना की गई है। परिषद द्वारा हर साल विभिन्न श्रेणियों के अंतर्गत शताब्दी सम्मान, लेखन-संपादन सम्मान, विज्ञान वाचस्पति सम्मान, डॉ. गोरख प्रसाद विज्ञान लेखन पुरस्कार, व्हिटेकर विज्ञान लेखन पुरस्कार, डॉ. रत्नकुमारी स्मृति पदक, प्रवीण शर्मा स्मृति सूचना प्रौद्योगिकी पुरस्कार, विज्ञान रत्न लक्ष्मण प्रसाद आविष्कार लेखन पुरस्कार, तुरशन पाल पाठक स्मृति बाल विज्ञान लेखन पुरस्कार, देवेन्द्र पाल वार्ष्णेय कृषि विज्ञान लेखन पुरस्कार, मोहम्मद खलील बाल विज्ञान लेखन पुरस्कार आदि प्रदान किए जाते हैं।

भारतीय विज्ञान कांग्रेस

कलकत्ता स्थित भारतीय विज्ञान कांग्रेस संस्था द्वारा सन 1965 से ही श्रेष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों को सम्मानित किया जा रहा है। विविध प्रभागों के अंतर्गत ये पुरस्कार शतवार्षिक, स्मारक और व्याख्यान श्रेणी में दिए जाते हैं। विशेष रूप से युवा वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करने हेतु इसमें 32 साल तक के युवा वैज्ञानिकों को ही अवसर प्रदान किया जाता है।

शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में देश के सर्वोच्च सम्मानों में गिना जाने वाला पुरस्कार है शांति स्वरूप भटनागर सम्मान। विज्ञान के क्षेत्र में सर्वोच्च संस्था वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा उल्लेखनीय एवं असाधारण अनुसंधान के लिए विभिन्न विषयों में ये सम्मान प्रदान किए जाते हैं। पुरस्कार का उद्देश्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय एवं असाधारण भारतीय प्रतिभा को सम्मानित करना रहता है। सीएसआईआर के संस्थापक निदेशक सर शांति स्वरूप भटनागर की स्मृति में ये पुरस्कार सन 1958 से प्रदान किए जा रहे हैं।

घनश्याम दास बिड़ला वैज्ञानिक शोध पुरस्कार

गैर-सरकारी स्तर पर देश के सबसे बड़े फाउंडेशन में से एक के. के. बिड़ला फाउंडेशन द्वारा घनश्याम दास बिड़ला की स्मृति में वैज्ञानिक शोधों के लिए पुरस्कार दिया जाता है। इसकी स्थापना सन 1991 में की गई थी। भारत में ही उत्कृष्ट शोध करने वालों को ये पुरस्कार वार्षिक रूप से प्रदान किए जाते हैं।

कलिंग पुरस्कार

विज्ञान संचार के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिए जाने वाले पुरस्कारों में सर्वाधिक लोकप्रिय पुरस्कारों में से एक है कलिंग पुरस्कार। यह पुरस्कार उड़ीसा सरकार द्वारा युनेस्को को 1952 में उपलब्ध कराई गई एक बड़ी धनराशि से स्थापित कलिंग फाउण्डेशन ट्रस्ट द्वारा दिया जाता है। इसमें एक नया बिंदु जोड़ते हुए विजेता को अब रुचिराम साहनी पीठ भी प्रदान की जाने लगी है। हर दो वर्ष में यह पुरस्कार विश्व विज्ञान दिवस (10 नवंबर) के अवसर पर दिया जाता है।

ब्रेकथ्रू पुरस्कार

ब्रेकथ्रू सम्मान गूगल के सह संस्थापक सर्गेई ब्रिन, फेसबुक के सी.ई.ओ. मार्क जुकरबर्ग सहित कुछ अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा साझा रूप से प्रदान किया जाता है। गणित (4 वर्ष में एक बार), भौतिकी (प्रति वर्ष) और लाइफ साइंस (प्रति वर्ष) के क्षेत्र में दुनिया भर में श्रेष्ठ काम करने वाले वैज्ञानिकों को इस पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। इसे ‘विज्ञान का आॅस्कर’ नाम से भी जाना जाता है।

नोबेल पुरस्कार

विज्ञान में अप्रतिम योगदान के लिए दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कार को कौन नहीं जानता। सन 1901 से दिए जा रहे इन पुरस्कारों की स्थापना डायनामाइट के आविष्कारक अल्फ्रेड नोबेल द्वारा की गई थी। आज यह सम्मान उनकी स्मृति में निर्मित नोबेल फाउण्डेशन द्वारा दिए जाते हैं।

इन पुरस्कारों द्वारा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य करने वाले खोजियों, संचारकों और शोधार्थियों को सम्मानों के माध्यम से प्रोत्साहित किया जाता है। उम्मीद है इन सम्मानों के बारे में जानकर और अधिक युवा विज्ञान और प्रौद्योगिकी की ओर अग्रसर होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों की भूमिका – राघवेंद्र गडगकर

ज हम ज्ञान उत्पन्न करने में लगे वैज्ञानिकों और इस ज्ञान को लोगों तक पहुंचाकर संतुष्ट विज्ञान लेखकों के बीच बढ़ता विभाजन देख रहे हैं। हम इस विभाजन को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि आज का विज्ञान इतना जटिल हो गया है कि वैज्ञानिकों के पास इसे आम जनता तक पहुंचाने का न तो समय है और न ही इसके संप्रेषण का कौशल है तथा दूसरी ओर, विज्ञान लेखकों के पास ज्ञान उत्पत्ति के न तो कोई अवसर हैं और न ही आवश्यक कौशल। हालांकि, यह कुछ हद तक सही हो सकता है लेकिन मेरी चिंता यह है कि वैज्ञानिक अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए विज्ञान की कथित जटिलता का बहाना कर रहे हैं और इस विभाजन को बेवजह बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं।

आदर्श रूप में, वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों के बीच किसी प्रकार का विभाजन नहीं होना चाहिए। न तो वैज्ञानिकों को आम जनता के बीच विज्ञान के संप्रेषण को पूरी तरह से विज्ञान लेखकों के भरोसे छोड़ना चाहिए और न ही विज्ञान लेखक ज्ञान सृजन के कार्य को पूरी तरह से वैज्ञानिकों पर छोड़ सकते हैं। विज्ञान के संप्रेषण का आनंद ज्ञान निर्माण का एक महत्वपूर्ण प्रेरक बल होना चाहिए और ज्ञान के सृजन का आनंद विज्ञान लेखन का एक महत्वपूर्ण प्रेरक बल होना चाहिए। अपने कार्य का पूरा आनंद प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिकों को प्रभावी संप्रेषक बनना चाहिए। हम यह बदलाव कैसे ला सकते हैं?

सबसे पहले, वैज्ञानिकों में अच्छे लेखन की इच्छा होनी चाहिए। हमें लेखन शैली को प्रतिष्ठा का विषय बनाना चाहिए। आश्चर्य की बात है कि ऐसा आम तौर पर होता नहीं है।

सी.पी. स्नो की पुस्तक दी टू कल्चर्स की भूमिका में कैंब्रिज युनिवर्सिटी में इंटेलेक्चुअल हिस्ट्री एंड इंग्लिश लिटरेचर के प्रोफेसर स्टीफन कॉलिनी ने हमारी उलझन का बढ़िया वर्णन किया है:

“प्रायोगिक विज्ञान के कई रूपों में लेखन वास्तव में कोई रचनात्मक भूमिका नहीं निभाता है: यह अपने आप में खोज की प्रक्रिया नहीं होता, जैसा कि मानविकी में होता है, बल्कि किसी घटना के बाद की रिपोर्ट होता है जिसको लिख डालना कहते हैं। परिणामों की प्रस्तुति में सटीकता, स्पष्टता, किफायत तो यकीनन आवश्यक हैं लेकिन अपने निष्कर्षों को बोधगम्य तरीके से व्यवस्थित करने को कई शोध वैज्ञानिक एक बोझ मानते हैं…शैली के लालित्य को एक पेशेवर आदर्श के रूप में विकसित नहीं किया जाता, न महत्व दिया जाता है, हालांकि इक्का-दुक्का वैज्ञानिक इसे पसंद कर सकते हैं।”

मैं सहमत हूं। लेकिन हमें विज्ञान की दुनिया में ऐसे सुधार करना चाहिए ताकि कॉलिनी का विवरण सही न रहे।

कैसे? इस मामले में मेरे कुछ पसंदीदा विचार हैं। हमें सबसे पहले तो भरपूर और अंधाधुंध तरीके से पढ़ना चाहिए। जब तक हम अच्छे-बुरे-भौंडे हर प्रकार की रचनाएं नहीं पढ़ेंगे तब तक हम विवेकी पाठक और अच्छे लेखक नहीं बन सकते। हमें कथा-साहित्य भी काफी मात्रा में पढ़ना चाहिए। कथेतर साहित्य की तुलना में कथा-साहित्य बेहतर शैली प्रस्तुत करने के अलावा हमारी कल्पना करने की क्षमता को विकसित करने में मदद करता है। विज्ञान में कल्पना का बहुत महत्व है; खासकर परिकल्पनाएं प्रस्तावित करने में, ख्याली प्रयोगों में और अपने सिद्धांतों के निहितार्थों का अनुमान लगाने में। कल्पना तो कौशल का एक महत्वपूर्ण घटक भी है जो नए-नए पाठकों की मानसिक दुनिया में प्रवेश करने और जटिल वैज्ञानिक अवधारणाओं को समझने में उनकी मदद करने के लिए आवश्यक है।

अच्छा लेखन सीखने के लिए, हमें बेझिझक गाइडबुक्स का भरपूर उपयोग करना चाहिए। हालांकि, हमारा उद्देश्य सिर्फ उनमें दी गई सलाहों को पालन करना नहीं होना चाहिए। बल्कि हमें तो उन्हें पढ़कर, समझकर उनके उल्लंघन के प्रयोग करने चाहिए और नतीजे देखने चाहिए (ठीक वैसे ही जैसे हम विज्ञान में कोई कंट्रोलशुदा प्रयोग करते हैं)।

लेखन के लिए अनगिनत गाइडबुक्स उपलब्ध हैं, लेकिन यदि वास्तव में हमारा उद्देश्य उन्हें पढ़ना, समझना और उल्लंघन का प्रयास करना है तो फिर कोई भी गाइडबुक उपयुक्त रहेगी। वैसे, मेरा सुझाव है कि शुरुआत स्ट्रंक और वाइट द्वारा लिखित दी एलीमेंट्स ऑफ स्टाइल या फिर स्टीफन किंग द्वारा लिखित ऑन राइटिंग: ए मेमॉयर ऑफ दी क्राफ्ट से करनी चाहिए। दोनों ही ‘पढ़ने और उल्लंघन’ के लिहाज़ से बढ़िया हैं। लेकिन हमारे भीतर स्टीफन फ्राय का आत्मविश्वास भी ज़रूरी है जो कहते हैं कि उन्होंने किंग की सलाह का पालन करने का प्रयास किया लेकिन “यह बिलकुल भी ठीक नहीं है, एक लेखक (यानी मैं) है और यदि लोगों को लगता है कि उसने लेखन में अति कर दी है…. उसे अति आलंकारिक बनाया है, तो लगने दो, वे ऐसी किताब को पटक देंगे और किसी और की किताब को उठा लेंगे।

मेरी एक और ‘सलाह पुस्तक’ स्टीवन पिंकर की किताब दी सेंस ऑफ स्टाइल: दी थिंकिंग पर्सन्स गाइड टू राइटिंग इन 21st सेंचुरी है। एक मनोवैज्ञानिक, भाषाविद और शानदार लेखक होने के नाते, पिंकर ने न केवल लेखन पर सलाह दी है बल्कि उस सलाह के पीछे का तर्क भी प्रस्तुत किया है, जिससे सलाह की सकारण उपेक्षा का मार्ग भी खुला रहता है। वैज्ञानिकों को पिंकर के लेखन दर्शन को आत्मसात करना चाहिए: ‘शैली से जीवन में सुंदरता पनपती है…किसी साक्षर पाठक के लिए, एक खस्ता वाक्य, एक आकर्षक रूपक, एक मज़ाकिया भटकाव, मुहावरों का उपयोग अत्यधिक प्रसन्नता देता है।‘  

मुझे विशेष रूप से इतालवी हरफनमौला, उम्बर्टो इको द्वारा लिखित हाउ टू राइट ए थीसिस (1997/2012) काफी पसंद आई। इको विशेष रूप से उनके दार्शनिक उपन्यास दी नेम ऑफ दी रोज़ (1994) के लिए मशहूर हैं। पहली नज़र में देखें तो इको की सलाह विशेष रूप से इंडेक्स कार्ड, नोटपैड और इंटरलाइब्रेरी लोन के युग के मानविकी विज्ञान के छात्रों के लिए है। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि इंटरनेट, वेब ऑफ साइंस और गूगल स्कॉलर युग के प्राकृतिक वैज्ञानिकों को भी इसे पढ़ना चाहिए। ‘हाउ टू राइट ए थीसिस’ पर सलाह देने की आड़ में इको ने ‘शोध कैसे करें’ पर अधिक सलाह दी है।     

हालांकि, शैली और विषयवस्तु में से किसी एक को चुनना ज़रूरी नहीं है। रिचर्ड डॉकिंस ने इस बात को अपनी हालिया पुस्तक बुक्स डू फर्निश ए लाइफ में व्यक्त किया है। यह डॉकिंस की निहायत पठनीय पूर्व रचनाओं का संकलन है। आश्चर्यजनक रूप से इसमें बड़ी संख्या में अन्य लोगों की पुस्तकों के लिए लिखी गई भूमिकाएं, प्रस्तावनाएं, उपसंहार और समीक्षाएं शामिल हैं। यह विधा मुझे बहुत पसंद है क्योंकि यह उन सख्त नियमों से मुक्त है जो अक्सर अधिक तकनीकी वैज्ञानिक लेखन पर लागू होते हैं। आम तौर पर ये नियम लेख की गुणवत्ता को अनावश्यक रूप से कम करते हैं। इसलिए निबंध शैली के वैज्ञानिक लेखन को बेहतर बनाने का यह बढ़िया तरीका हो सकता है, लेकिन बहुत कम देखने को मिलता है।

दुर्भाग्य से, हम इस विधा की उपेक्षा इस गलत आधार पर करते हैं कि यह किसी नए ज्ञान की द्योतक नहीं है। कई चयन एवं मूल्यांकन समितियों में काम करते हुए मुझे इस बात ने काफी व्यथित किया है कि व्यक्ति का मूल्यांकन करते समय इस विधा के सभी प्रकाशनों को दरकिनार कर दिया जाता है। और तो और, इसके साथ ही हम छात्रों के असाइनमेंट में निबंध प्रारूप की जगह बहु-विकल्पी सवालों (MCQ) को तरजीह देने लगे हैं। इसके परिणामस्वरूप, आज के छात्र किसी विषय पर उपलब्ध सारी जानकारी इकट्ठा करके एक निबंध तैयार करने में बिलकुल भी आनंद नहीं लेते।

वैज्ञानिकों को लेखन के लिए अनुकरणीय उदाहरणों की ज़रूरत है। मेरी शिकायत रही है कि वैज्ञानिक खराब लिखते हैं या पर्याप्त नहीं लिखते, लेकिन सच्चाई यह है कि कई अनुकरणीय आदर्श मौजूद हैं। डॉकिंस की किताब दी ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ मॉडर्न साइंस राइटिंग (2008) ऐसे 394 उदाहरणों का एक प्रेरक संग्रह है जिसमें मार्टिन रीस, फ्रांसिस क्रिक, फ्रेड हॉयल, जेरेड डायमंड, रैशेल कार्लसन, एडवर्ड ओ. विल्सन, फ्रीमैन डायसन, जे.बी.एस. हाल्डेन, जैकब ब्रोनोस्की, ओलिवर सैक्स, लेविस वोलपर्ट, कार्ल सेगन, जॉन टायलर बोनर, सिडनी ब्रेनर, जॉन मेनार्ड स्मिथ, डी’आर्ची थॉमसन, निको टिनबरगन, आर्थर एडिंगटन, पीटर मेडावर जैसे शानदार वैज्ञानिकों के आलेख शामिल हैं।

मेरे एक आदर्श हैं ज़्यां हेनरी फैबर (1823-1915)। फैबर एक फ्रांसीसी कीटविज्ञानी, प्रकृतिविद और एक उत्कृष्ट लेखक थे। उन्हें एक बेलेट्रिस्ट (एक ऐसा व्यक्ति जो विशेष रूप से साहित्यिक और कलात्मक समालोचना पर निबंध लिखता है जिनको मुख्य रूप से उनके सौंदर्यबोध के लिए रचा और पढ़ा जाता है), ‘विज्ञान कवि’ और ‘कीट विज्ञान का होमर’ कहा जाता है। जब मैं फैबर की रचना दी बुक ऑफ इंसेक्ट्स को पढ़ता हूं, तब मेरे कानों में पिंकर के शब्द गूंजने लगते हैं कि ‘…एक खस्ता वाक्य, एक आकर्षक रूपक, एक मज़ाकिया भटकाव, मुहावरों का उपयोग अत्यधिक प्रसन्नता देता है‘ और लगता है कि मुझमें लिखने की चाह पैदा हो जाती है।

विज्ञान की संस्कृति को बदलने की ज़रूरत है ताकि यह संभव हो सके कि वैज्ञानिक न केवल उच्च गुणवत्ता के शोध में योगदान दें बल्कि साथ ही बेहतर संचार के लिए समय दे सकें और उससे आनंद भी प्राप्त कर सकें। व्यापक गैर-तकनीकी पाठकों के लिए लिखने का काम तकनीकी पेपर लिखने के कार्य से काफी पहले शुरू हो जाना चाहिए, तकनीकी पेपर लिखने के साथ-साथ निरंतर चलते रहना चाहिए और तकनीकी पेपर का लेखन कार्य पूरा होने के बाद भी लंबे समय तक जारी रहना चाहिए। हम पाएंगे कि प्राकृतिक विज्ञान में भी, ‘लेखन की प्रक्रिया के दौरान सबसे रचनात्मक सोच किया जा सकता है।’ मेरा तो निश्चित रूप से यही अनुभव रहा है।       

तो फिर पेशेवर विज्ञान लेखकों की क्या भूमिका होनी चाहिए? हमें यह भय नहीं पालना चाहिए कि यदि वैज्ञानिक अच्छा लिखेंगे और आम जनता के लिए लिखने लगेंगे तो वे पेशेवर विज्ञान लेखकों को खदेड़ देंगे। विज्ञान लेखकों की भूमिका तो अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन मेरी इच्छा उनको भी ज्ञान निर्माताओं के रूप में देखने की है। विज्ञान लेखकों का काम केवल रिपोर्टिंग करने से कहीं ज़्यादा होना चाहिए। उनका काम वैज्ञानिकों की अस्पष्ट भाषा को अंग्रेज़ी में या फिर किसी अन्य भाषा में अनुवाद करने से कहीं अधिक होना चाहिए।

यदि वैज्ञानिक जनता के बीच विज्ञान के संप्रेषण का काम अच्छे से करते हैं, तो विज्ञान लेखक अपने प्रयासों को नए ज्ञान के निर्माण पर केंद्रित कर सकते हैं। देखा जाए तो विज्ञान लेखक पार्श्विक तुलना करने, विज्ञान की प्रक्रिया को समझने तथा संभावित पूर्वाग्रहों और हितों के टकराव को समझने की बेहतर स्थिति में होते हैं जिनको वैज्ञानिक, अंदरूनी व्यक्ति होने के कारण, सही तरह से समझ नहीं सकते हैं। अत: अस्त-व्यस्त गद्य में सुधार करने की अपेक्षा करने की बजाय, हमें विज्ञान लेखकों को ज्ञान परिष्कारकों की भूमिका के तौर पर बढ़ावा देना चाहिए।

विज्ञान लेखकों को अपने लेखन में इतिहास, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र और विज्ञान की राजनीति को भी शामिल करना चाहिए। विज्ञान की संस्कृति में बदलाव लाना चाहिए ताकि विज्ञान लेखकों को प्रतिष्ठा मिल सके और उन्हें ज्ञान परिष्कारक के रूप में स्वीकार करके वैज्ञानिकों की श्रेणी में शुमार किया जाए। वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों, दोनों को प्रभावी ढंग से ज्ञान का प्रसार करना चाहिए। इस तरह के सांस्कृतिक परिवर्तन विज्ञान के कामकाज की प्रक्रिया को अधिक समावेशी और लोकतांत्रिक बनाएंगे और विज्ञान की सीमाओं का भी विस्तार करेंगे। इसी परिवर्तन का एक हिस्सा यह भी होगा कि विज्ञान को एक जटिल और महंगी गतिविधि के रूप में पैकेजिंग से मुक्त करना है जिसमें केवल उच्च प्रशिक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही प्रवेश कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

यह लेख मूलत: करंट साइंस (25 अगस्त 2021) में प्रकाशित हुआ था।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फर्ज़ी प्रकाशनों के विरुद्ध चीन की कार्यवाही

हाल ही में शोध अध्ययनों का वित्तपोषण करने वाले चीन के दो प्रमुख संस्थानों ने कदाचार की जांच करके कम से कम 23 ऐसे वैज्ञानिकों को दंडित किया है जो ‘शोधपत्र कारखानों’ का उपयोग कर रहे थे। ‘शोधपत्र कारखाने’ मतलब ऐसे व्यवसायी जो मनमाफिक नकली डैटा और फर्ज़ी पांडुलिपियां तैयार करते हैं। इन वैज्ञानिकों पर अस्थायी रूप से अनुदान आवेदन करने या अनुदान और पदोन्नति पर रोक लगाकर दंडित किया गया है। ये सभी निर्णय पिछले वर्ष सितंबर में जारी की गई नीति के तहत लिए गए हैं जिसका मुख्य उद्देश्य ‘शोधपत्र कारखानों’ और अन्य कदाचार से निपटना था।

वैसे कई शोधकर्ताओं को 2020 के पूर्व भी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा है, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है जब कदाचार नीतियों में स्वतंत्र व्यवसायों सम्बंधित उल्लंघनों को शामिल किया गया है जो शोधकर्ताओं को लेखन या डैटा बेचते हैं। कई शोधकर्ता इस पहल को एक बड़े कदम के रूप में देखते हैं लेकिन विश्व के कई अन्य भागों में अपनाए जाने वाले मानदंडों की तुलना में ये अभी भी पर्याप्त नहीं हैं। ब्रैडली युनिवर्सिटी के पुस्तकालय तथा सूचना वैज्ञानिक और चीन में शोध कदाचार के अध्ययनकर्ता ज़ियाओशियन चेन के अनुसार कई देशों में सरकारी अनुदान प्राप्त प्रकाशनों में फर्ज़ी डैटा प्रकाशित करने को अपराध माना जाता है।

शोधकर्ताओं के अनुसार वैज्ञानिकों पर कार्रवाई करते हुए एक बड़ी समस्या को अभी भी अनदेखा किया जा रहा है – ‘शोधपत्र कारखानों’ पर किसी प्रकार की कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। इस विषय में नेशनल कमीशन ऑफ दी पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (एनएचसी) और दी नेशनल नेचुरल साइंस फाउंडेशन ऑफ चाइना (एनएसएफसी) ने अब तक कम से कम 23 शोधकर्ताओं पर प्रतिबंध लगाया है जो वैज्ञानिक टेक्स्ट और डैटा प्रदान करने वाली सेवाओं का रुख करते हैं या फिर इस तरह के शोधपत्र खरीदते या बेचते हैं।

चीन के शोधकर्ता अधिक शोध पत्र प्रकाशित करने के चक्कर में ‘शोधपत्र कारखानों’ से शोधपत्र या डैटा खरीदते हैं क्योंकि पदोन्नति के लिए प्रकाशन एक अनिवार्यता है। गौरतलब है कि पिछले दिनों कई वैज्ञानिक पत्रिकाओं ने बड़ी संख्या में शोध पत्र अस्वीकृत किए हैं क्योंकि ऐसे आशंका थी कि वे ‘शोधपत्र कारखानों’ से निकले है।     

नेचर पत्रिका द्वारा जनवरी 2020 से इस वर्ष मार्च तक इस तरह के लगभग 370 शोध पत्र वापस ले लिए गए हैं। इन सभी के लेखक चीनी अस्पतालों से सम्बंधित हैं। वर्तमान में यह संख्या 665 हो चुकी है। गौरतलब है कि वैज्ञानिकों को पहले भी ‘शोधपत्र कारखानों’ का उपयोग करने के लिए फटकार लगाई जा चुकी है लेकिन 2017 में एक बड़े घोटाले के सामने आने के बाद से वैज्ञानिक समुदाय के बीच चिंता और अधिक बढ़ गई है। ट्यूमर बायोलॉजी नामक जर्नल ने 107 शोध पत्रों को इस कारण से वापस ले लिया था क्योंकि कई में फर्ज़ी समकक्ष समीक्षा रिपोर्ट का उपयोग किया था या ये ‘शोधपत्र कारखानों’ में तैयार हुए थे।    

इन सभी घटनाओं के नतीजे में चीन के विज्ञान और टेक्नॉलॉजी मंत्रालय द्वारा शोध कार्यों में होने वाले उल्लंघनों और कदाचार से निपटने के लिए 2018 में कुछ नीतिगत घोषणाएं की गई थीं। पिछले वर्ष जारी की गई न्यू रिसर्च मिसकंडक्ट पॉलिसी में पहली बार स्पष्ट रूप से ‘शोधपत्र कारखानों’ का उल्लेख किया गया। इस नीति के तहत नियमों के गंभीर उल्लंघनों को सार्वजनिक करने की बात कही गई।

शोध के लिए वित्तपोषण प्रदान करने वाले संस्थानों द्वारा हालिया कार्रवाइयों से पता चलता है कि इस नीति को लागू किया जा रहा है। मार्च और जुलाई में, एनएसएफसी ने 13 कदाचार जांचों का विवरण प्रकाशित किया जिनमें से 6 मामले ‘शोधपत्र कारखानों’ से जुड़े थे। एक मामले में तो एक शोधकर्ता ने अपनी थीसिस के लिए 3700 डॉलर (लगभग 2.75 लाख रुपए) का भुगतान किया था। कुछ अन्य मामले समकक्ष समीक्षा में धोखाधड़ी, साहित्यिक-चोरी और फर्ज़ी डैटा के पाए गए। जून और सितंबर के दौरान एनएचसी द्वारा ‘शोधपत्र कारखानों’ के उपयोग सहित कदाचार के लगभग 30 मामलों की सूचना दी गई है।    

‘शोधपत्र कारखानों’ का उपयोग करने वाले शोधकर्ताओं के लिए दंड के तौर पर फटकार से लेकर सात साल तक वित्तपोषण के लिए आवेदन देने और छह वर्षों तक पदोन्नति पर प्रतिबंध लगाया गया है। हिरोशिमा युनिवर्सिटी, जापान के चीनी शोधकर्ता फूटाओ हुआंग इन सज़ाओं को काफी कमज़ोर मानते हैं और खासकर अस्पतालों के संदर्भ में चीन की शैक्षणिक मूल्यांकन प्रणाली में बदलाव का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शोध डैटा में हेर-फेर

क एक डच सर्वेक्षण में लगभग आठ प्रतिशत वैज्ञानिकों ने यह बात मानी है कि वर्ष 2017 से 2020 के बीच उन्होंने कम से कम एक बार मिथ्या डैटा या मनगढ़ंत डैटा का उपयोग किया था। सर्वेक्षण में वैज्ञानिकों के नाम गोपनीय रखे गए थे। लगभग 10 प्रतिशत से अधिक चिकित्सा और जीव विज्ञान के शोधकर्ताओं ने भी डैटा में इस तरह के हेर-फेर की बात स्वीकार की है। मेटाआर्काइव (MetaArxiv) प्रीप्रिंट में प्रकाशित इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने अक्टूबर 2020 से दिसंबर 2020 के बीच नेदरलैंड के 22 विश्वविद्यालयों के लगभग 64,000 शोधकर्ताओं से संपर्क किया था, जिनमें से 6,813 ने उत्तर दिए थे।

वर्ष 2005 में यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ द्वारा इसी मुद्दे पर एक अध्ययन किया गया था जिसमें बहुत कम वैज्ञानिकों ने माना था कि उन्होंने मिथ्या डैटा का उपयोग किया है या डैटा गढ़ा है; अध्ययन में शामिल 3,000 वैज्ञानिकों में से 0.3 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने यह बात कबूली थी।

डच सर्वेक्षण की अध्ययनकर्ता गौरी गोपालकृष्णन का कहना है कि संभावना है कि पूर्व अध्ययन में डैटा में हेर-फेर की बात स्वीकार करने वाले शोधकर्ताओं का प्रतिशत कम आंका गया हो। क्योंकि पूर्व अध्ययनों में इस मुद्दे पर सवाल घुमा-फिरा कर पूछे गए थे जबकि डच अध्ययन में सवाल सीधे-सीधे किए थे। और इसी कारण से अन्य अध्ययनों के परिणामों से डच अध्ययन के परिणाम की तुलना करने में सावधानी रखनी होगी। वैसे, वर्ष 2001 में डच अध्ययन के तरीके से ही किए गए एक अन्य अध्ययन में लगभग 4.5 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने माना था कि कम से कम एक बार उन्होंने डैटा के साथ छेड़छाड़ की है।

डच सर्वेक्षण में 51 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने 11 ‘आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण’ (क्यूआरपी) में से कम से कम एक की बात भी स्वीकारी – जैसे शोध की अपर्याप्त योजना के साथ काम करना, या जानबूझकर पांडुलिपियों या अनुदान प्रस्तावों का निष्पक्ष आकलन न करना। आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण को डैटा में हेर-फेर, साहित्यिक चोरी वगैरह की तुलना में कम बुरा माना जाता है।

आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण कबूल करने वालों में पीएच.डी. छात्रों, पोस्टडॉक और जूनियर फैकल्टी के होने की संभावना ज़्यादा थी लेकिन डैटा में हेर-फेर और डैटा गढ़ने की बात स्वीकार करने का कोई उल्लेखनीय सम्बंध इस बात से नहीं दिखा कि शोधकर्ता अपने करियर के किस मुकाम पर थे। अलबत्ता, पूर्व अध्ययनों में पाया गया था कि जो शोधकर्ता अपने करियर के मध्य स्तर पर हैं उनकी तुलना में जूनियर शोधकर्ता ऐसे आचरणों में कम लिप्त होते हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि डैटा मिथ्याकरण के इन आंकड़ों पर सावधानी से विचार किया जाना चाहिए। लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस में शोध दुराचार, नैतिकता और पूर्वाग्रह का अध्ययन करने वाले डेनियल फेनेली ने 2009 में एक मेटा-विश्लेषण किया था जिसमें लगभग दो प्रतिशत शोधकर्ताओं ने मिथ्या डैटा, डैटा गढ़ने या उसमें हेर-फेर करने की बात स्वीकार की थी। इसके अलावा, डच अध्ययन में यह भी स्पष्ट नहीं है कि पिछले तीन वर्ष में ऐसा करने की बात कबूलने वाले शोधकर्ताओं ने वास्तव में ऐसा कितनी बार किया, उनके कितने शोधपत्रों में परिवर्तित डैटा था और क्या उन्होंने वह काम प्रकाशित किया था। अनुसंधान दुराचार होते रहते हैं, लेकिन ये हो रहे हैं इसका पता लगाना और इन्हें साबित करना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा अनुसंधान संस्थान भी इन मुद्दों पर पारदर्शिता नहीं दर्शाते।

गोपालकृष्णन और उनके साथियों ने इसी सर्वेक्षण के डैटा का उपयोग कर ज़िम्मेदार अनुसंधान आचरण की पड़ताल करता हुआ एक अन्य अध्ययन मेटाआर्काइव प्रीप्रिंट में प्रकाशित किया है। अध्ययन में पाया गया कि 99 प्रतिशत वैज्ञानिक आम तौर पर साहित्यिक चोरी से बचते हैं, 97 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने हितों के टकराव का खुलासा किया और 94 प्रतिशत वैज्ञानिक प्रकाशन से पहले पांडुलिपि में त्रुटियों की जांच करते हैं। लगभग 43 प्रतिशत शोधकर्ताओं ने ही कहा कि वे प्रयोग सम्बंधी प्रोटोकॉल पहले से पंजीकृत करते हैं, 47 प्रतिशत वैज्ञानिक ही मूल डैटा उपलब्ध कराते हैं, और 56 प्रतिशत वैज्ञानिक ही व्यापक शोध रिकॉर्ड रखते हैं। गोपालकृष्णन का कहना है कि डैटा में हेर-फेर जैसे अनुसंधान दुराचार पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है, लेकिन अनुसंधान में लापरवाही को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। हमें एक ऐसे माहौल की ज़रूरत है जहां गलतियों को अपराध न माना जाए, आचरण ज़िम्मेदारीपूर्ण हो, और धीमी गति से लेकिन अच्छी गुणवत्ता वाले शोध पर अधिक ध्यान दिया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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