गंधबिलाव का क्लोन अपनी प्रजाति को बचाएगा

म्मीद है कि इस वर्ष कोलोरेडो स्थित नेशनल ब्लैक-फुटेड फेरेट कंज़र्वेशन सेंटर द्वारा विकसित काले पैरों वाले गंधबिलाव का एकमात्र क्लोन प्रजनन करके अपनी प्रजाति को विलुप्त होने से बचा लेगा।

काले पैरों वाला गंधबिलाव (मुस्टेला निग्रिप्स) आधा मीटर लंबे और छरहरे शरीर वाला शिकारी जानवर है, जिसके शिकार प्रैरी (घास के मैदान) के कुत्ते हुआ करते थे। लेकिन 1970 के दशक तक पशुपालकों, किसानों और अन्य लोगों द्वारा प्रैरी कुत्तों की कॉलोनियों को बड़े पैमाने पर तहस-नहस करने के कारण गंधबिलाव की आबादी खतरे में पड़ गई। तब ज्ञात गंधबिलाव की अंतिम कॉलोनी के भी लुप्त हो जाने पर कुछ जीव विज्ञानियों ने मान लिया था कि यह प्रजाति विलुप्त हो गई है। लेकिन 1981 के अंत में तकरीबन 100 गंधबिलाव मिले। लेकिन कुछ ही वर्षों में वे भी संकट में पड़ गए और मात्र कुछ दर्जन गंधबिलाव ही बचे रह गए। फिर 1985 में, संरक्षित माहौल में प्रजनन कराने की पहल की गई। इसके लिए 18 गंधबिलावों को संरक्षित स्थलों पर रखा गया लेकिन प्रजनन के लिए केवल सात ही गंघबिलाव बच सके। इससे उनमें अंतःप्रजनन का खतरा पैदा गया।

कुछ समय पहले संरक्षण के लिहाज़ से ही गंधबिलाव का क्लोन तैयार किया गया था। 14 महीने का यह क्लोन गंधबिलाव एक मादा है जिसे एलिज़ाबेथ एन नाम दिया गया है। वैज्ञानिकों की योजना इस वसंत में एलिज़ाबेथ एन के प्रजनन की है।

हालांकि एलिज़ाबेथ एन भी शत-प्रतिशत काले पैरों वाली गंघबिलाव नहीं है। दरअसल जिस तरीके (कायिक कोशिका नाभिक स्थानांतरण) से एलिज़ाबेथ एन को विकसित किया गया है उसमें एक पालतू गंघबिलाव का उपयोग सरोगेट मां के रूप में किया गया था। इस प्रक्रिया में क्लोन संतानों में मां (पालतू गंघबिलाव) का माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए आ जाता है। पालतू गंधबिलाव से आए इस जीन को हटाने के लिए वैज्ञानिकों की योजना (यदि क्लोन से सफल प्रजनन हो सका तो) एलिज़ाबेथ एन की नर संतान और काले पैरों वाली मादा गंघबिलाव के प्रजनन की है।

बहरहाल, यदि एलिज़ाबेथ एन क्लोन का प्रजनन सफल रहता है तो यह अन्य जोखिमग्रस्त जानवरों के संरक्षण का मार्ग प्रशस्त कर देगा। लेकिन कई वैज्ञानिकों को लगता है कि यह प्रक्रिया बहुत मंहगी है, इसमें नैतिक समस्याएं हैं और इसका उपयोग सीमित है। इसके अलावा यह जानवरों के प्राकृतवासों के विनाश सम्बंधी मुद्दे से भी ध्यान हटा सकता है, जो वास्तव में जंतु विलुप्ति का एक प्रमुख कारण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मछलियां जोड़ना-घटाना सीख सकती हैं

म धारणा है कि मछलियां जोड़ना-घटाना कैसे करेंगी, क्योंकि उनके पास हमारी तरह जोड़ने-घटाने के साधन (यानी उंगलियां) नहीं हैं। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि वे कम से कम छोटी संख्याओं के साथ ऐसा कर सकती हैं।

मछलियों में जोड़ने-घटाने की क्षमता जांचने के लिए बॉन विश्वविद्यालय की प्राणी विज्ञानी वेरा श्यूसल और उनके साथियों ने हड्डियों वाली सिक्लिड्स (स्यूडोट्रॉफियस ज़ेब्रा) और उपास्थि वाली स्टिंग रे (पोटामोट्रीगॉन मोटरो) को चुना।

प्रशिक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने एक टैंक में प्रत्येक मछली को 5 तक वर्ग, वृत्त और त्रिभुज की छवियां दिखाईं जो सभी या तो नीले रंग की थीं या पीले रंग की। मछली को इन आकृतियों की संख्या और रंग याद करने के लिए 5 सेकंड का समय दिया गया। फिर टैंक का द्वार खोला गया, जिसमें मछलियों को दो दरवाज़ों में से एक दरवाज़े को चुनना था: एक दरवाज़ा वह था जिसमें पहले दिखाई गई आकृतियों से एक अधिक थी जबकि दूसरे दरवाज़े में एक आकृति कम थी।

नियम सरल थे: यदि पहले दिखाई गई आकृतियां नीले रंग की थीं, तो एक अतिरिक्त आकृति वाला दरवाज़ा चुनना था; और यदि आकृतियां पीले रंग की थीं, तो एक कम आकृति वाला दरवाज़ा चुनना था। सही दरवाज़ा चुनने पर मछलियों को इनाम स्वरूप भोजन मिलता था।

आठ सिक्लिड में से छह और आठ स्टिंग रे में से सिर्फ चार ने सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा किया। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में शोधकर्ताओं ने बताया है कि जितनी भी मछलियां परीक्षण के चरण से गुज़रीं उनके प्रदर्शन की व्याख्या मात्र संयोग कहकर नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए, परीक्षण में जब मछलियों को तीन नीली आकृतियां दिखाई गईं तो स्टिंग रे और सिक्लिड ने क्रमशः 96 प्रतिशत और 82 प्रतिशत सटीकता से चार आकृति वाला दरवाज़ा चुना। देखा गया कि दोनों प्रजातियों की मछलियों के लिए जोड़ की तुलना में घटाना थोड़ा अधिक कठिन था; बच्चों को भी जोड़ने की अपेक्षा घटाने में कठिनाई होती है।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि मछलियां सिर्फ पैटर्न याद नहीं रख रहीं हैं, शोधकर्ताओं ने अगले परीक्षणों में आकृतियों की संख्या और साइज़ बदल दिए। उदाहरण के लिए एक परीक्षण में, तीन नीली आकृतियां दिखाने पर मछलियों को चार या पांच आकृतियों वाले दरवाज़ों में से एक दरवाज़े को चुनना था – यानी उनके सामने ‘एक जोड़ने’ और ‘एक घटाने’ के विकल्प के अलावा ‘एक जोड़ने’ और ‘दो जोड़ने’ के विकल्प भी थे। देखा गया कि मछलियों ने सिर्फ यह नहीं किया बड़ी संख्या को चुन लें, बल्कि हर बार उन्होंने ‘एक जोड़ने’ वाले निर्देश का पालन किया – यानी मछलियां वांछित सम्बंध समझती हैं।

पहले देखा गया था कि मछलियां छोटी-बड़ी संख्या/मात्रा में अंतर कर पाती हैं। लेकिन यह अध्ययन उससे एक कदम आगे जाता है। सिक्लिड्स और उपास्थि वाली स्टिंग रे विकास में 40 करोड़ वर्ष पहले पृथक हो गई थीं। यानी यह क्षमता उससे पहले विकसित हुई होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विलुप्त प्रजातियों को पुनर्जीवन

जुरासिक पार्क फिल्म में दर्शाया गया था कि करोड़ों वर्ष पूर्व विलुप्त हो चुके डायनासौर के जीवाश्म से प्राप्त डीएनए की मदद से पूरे जीव को पुनर्जीवित कर लिया गया था। संभावना रोमांचक है किंतु सवाल है कि क्या ऐसा वाकई संभव है।

हाल के वर्षों में कई वैज्ञानिकों ने विलुप्त प्रजातियों को फिर से अस्तित्व में लाने (प्रति-विलुप्तिकरण) पर हाथ आज़माए हैं और लगता है कि ऐसा करना शायद संभव न हो। कम से कम आज तो यह संभव नहीं हुआ है। लेकिन वैज्ञानिक आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं।

उदाहरण के लिए, एक कंपनी कोलोसल लेबोरेटरीज़ एंड बायोसाइन्सेज़ का लक्ष्य है कि आजकल के हाथियों को मैमथ में तबदील कर दिया जाए या कम से कम मैमथनुमा प्राणि तो बना ही लिया जाए।

किसी विलुप्त प्रजाति को वापिस अस्तित्व में लाने के कदम क्या होंगे? सबसे पहले तो उस विलुप्त प्रजाति के जीवाश्म का जीनोम प्राप्त करके उसमें क्षारों के क्रम का अनुक्रमण करना होगा। फिर किसी मिलती-जुलती वर्तमान प्रजाति के डीएनए में इस तरह संसोधन करने होंगे कि वह विलुप्त प्रजाति के डीएनए से मेल खाने लगे। अगला कदम यह होगा संशोधित डीएनए से भ्रूण तैयार किए जाएं और उन्हें वर्तमान प्रजाति की किसी मादा के गर्भाशय में विकसित करके जंतु पैदा किए जाएं।

पहले कदम को देखें तो आज तक वैज्ञानिकों ने मात्र 20 विलुप्त प्रजातियों के जीनोम्स का अनुक्रमण किया है। इनमें एक भालू, एक कबूतर और कुछ किस्म के मैमथ तथा मोआ शामिल हैं। लेकिन अब तक किसी जीवित सम्बंधी में विलुप्त जीनोम का पुनर्निर्माण नहीं किया है।

हाल ही में कोपनहेगन विश्वविद्यालय के टॉम गिलबर्ट, शांताऊ विश्वविद्यालय के जियांग-किंग लिन और उनके साथियों ने मैमथ जैसे विशाल प्राणि का मोह छोड़कर एक छोटे प्राणि पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया – ऑस्ट्रेलिया से करीब 1200 कि.मी. दूर स्थित क्रिसमस द्वीप पर 1908 में विलुप्त हुआ एक चूहा रैटस मैकलीरी (Rattus macleari)। यह चूहा एक अन्य चूहे नॉर्वे चूहे (वर्तमान में जीवित) का निकट सम्बंधी है।

गिलबर्ट और लिन की टीम ने क्रिसमस द्वीप के चूहे के संरक्षित नमूनों की त्वचा में से जीनोम का यथासंभव अधिक से अधिक हिस्सा प्राप्त करके इसकी प्रतिलिपियां बनाईं। इसमें एक दिक्कत यह आती है कि प्राचीन डीएनए टुकड़ों में संरक्षित रहता है। इससे निपटने के लिए टीम ने नॉर्वे चूहे के जीनोम से तुलना के आधार पर विलुप्त चूहे का अधिक से अधिक जीनोम तैयार कर लिया। करंट बायोलॉजी में बताया गया है कि इन दो जीनोम की तुलना करने पर पता चला कि क्रिसमस द्वीप के विलुप्त चूहे के जीनोम का लगभग 5 प्रतिशत गुम है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि गुमशुदा हिस्से में चूहे के अनुमानित 34,000 में 2500 जीन शामिल हैं। जैसे, प्रतिरक्षा तंत्र और गंध संवेदना से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण जीन्स नदारद पाए गए।

कुल मिलाकर इस प्रयास ने प्रति-विलुप्तिकरण के काम की मुश्किलों को रेखांकित कर दिया। 5 प्रतिशत का फर्क बहुत कम लग सकता है लेकिन लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम की विक्टोरिया हेरिज का कहना है कि कई सारे गुमशुदा जीन्स वे होंगे जो किसी प्रजाति को अनूठा बनाते हैं। उदाहरण के लिए मनुष्यों और चिम्पैंज़ी या बोनोबो के बीच अंतर तो मात्र 1 प्रतिशत का है।

यह भी देखा गया है कि वर्तमान जीवित प्रजाति और विलुप्त प्रजाति के बीच जेनेटिक अंतर समय पर भी निर्भर करता है। अतीत में जितने पहले ये दो जीव विकास की अलग-अलग राह पर चल पड़े थे, उतना ही अधिक अंतर मिलने की उम्मीद की जा सकती है। मसलन, क्रिसमस चूहा और नॉर्वे चूहा एक-दूसरे से करीब 26 लाख साल पहले अलग-अलग हुए थे। और तो और, एशियाई हाथी और मैमथ को जुदा हुए तो पूरे 60 लाख साल बीत चुके हैं।

तो सवाल उठता है कि इन प्रयासों का तुक क्या है। क्रिसमस चूहा तो लौटेगा नहीं। गिलबर्ट अब मानने लगे हैं कि पैसेंजर कबूतर या मैमथ को पुनर्जीवित करना तो शायद असंभव ही हो लेकिन इसका मकसद ऐसी संकर प्रजाति का निर्माण करना हो सकता है जो पारिस्थितिक तंत्र में वही भूमिका निभा सके जो विलुप्त प्रजाति निभाती थी। इसी क्रम में मेलबोर्न विश्वविद्यालय के एंड्र्यू पास्क थायलेसीन नामक एक विलुप्त मार्सुपियल चूहे को इस तकनीक से बहाल करने का प्रयास कर रहे हैं।

इसके अलावा, जीनोम अनुक्रमण का काम निरंतर बेहतर होता जा रहा है। हो सकता है, कुछ वर्षों बाद हमें 100 प्रतिशत जीनोम मिल जाएं।

अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों का मत है विलुप्त प्रजातियों को पुनर्जीवित करने के प्रयासों के चलते काफी सारे संसाधन जीवित प्राणियों के संरक्षण से दूर जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक एक विलुप्त प्रजाति को पुनर्जीवित करने में जितना धन लगता है, उतने में 6 जीवित प्रजातियों को बचाया जा सकता है। इस गणित के बावजूद, यह जानने का रोमांच कम नहीं हो जाएगा कि विलुप्त पक्षी डोडो कैसा दिखता होगा, क्या करता होगा। (स्रोत फीचर्स)

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मक्खी से बड़ा बैक्टीरिया

हाल में मैन्ग्रोव वन से खोजा गया एक सूक्ष्मजीव जीव विज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्व का हो सकता है। यह एक बैक्टीरिया है जिसे कैरेबिया के मैन्ग्रोव से खोजा गया है और सूक्ष्मजीव की हमारी धारणा के विपरीत यह काफी बड़ा है – इसकी धागेनुमा एकल कोशिका 2 से.मी. तक लंबी हो सकती है। लिहाज़ा यह नंगी आंखों से देखा जा सकता है। तुलना के लिए बताया जा सकता है कि यह बैक्टीरिया फल मक्खी से बड़ा है।

विशेषताएं और भी हैं। जैसे इसका विशाल जीनोम कोशिका के अंदर खुला नहीं पड़ा होता। इसका जीनोम एक झिल्ली में कैद होता है, जबकि सामान्यत: बैक्टीरिया की जेनेटिक सामग्री झिल्ली में लिपटी नहीं होती। झिल्लियों की उपस्थिति तो ज़्यादा पेचीदा कोशिकाओं का गुण है। इसकी विशाल साइज़ और झिल्लीयुक्त जीनोम को देखते हुए जीव वैज्ञानिक काज़ुहिरो ताकेमोतो को लगता है कि यह संभवत: जटिल कोशिकाओं के उद्भव की दिशा में एक मील का पत्थर हो सकता है।

गौरतलब है कि जीव विज्ञान में सजीवों को दो समूहों में बांटा जाता है। एक समूह है केंद्रकविहीन कोशिका वाले जीवों का समूह प्रोकैरियोट्स। इसके अंतर्गत एक कोशिकीय बैक्टीरिया और आर्किया जीव आते हैं। दूसरे समूह को यूकैरियोट्स कहते हैं और इसमें खमीर से लेकर तमाम बहुकोशिकीय जीव रखे गए हैं। जहां प्रोकैरियोट्स में जेनेटिक सामग्री (डीएनए) मुक्त तैरती रहती है, वहीं यूकैरियोट्स में डीएनए केंद्रक में बंद रहता है। यूकैरियोट्स में सारे कार्य झिल्लियों में कैद कोशिका-उपांगों में सम्पन्न होते हैं और पदार्थों को एक उपांग से दूसरे में ले जाने की व्यवस्था होती है। प्रोकैरियोट्स में ऐसा कुछ नहीं होता।

लेकिन यह नया सूक्ष्मजीव इन सीमाओं को धुंधला कर रहा है। दरअसल, करीब 10 वर्ष पूर्व युनिवर्सिटी ऑफ फ्रेंच एंटिलेस के समुद्री जीव वैज्ञानिक ओलिवियर ग्रॉस ने मैन्ग्रोव की सड़ती गलती पत्तियों की सतह पर यह विचित्र जीव देखा था। लेकिन उन्हें यह पहचानने में 5 साल लग गए कि यह एक बैक्टीरिया है। और इसकी अद्भुत विशेषताओं को जानने में 5 साल और बीत गए।

यह तो देखा गया है कि कुछ सूक्ष्मजीव (जैसे शैवाल) लंबे बहुकोशिकीय तंतु बना लेते हैं लेकिन यह बैक्टीरिया तो मात्र एक कोशिका से बना है।

इसके बाद यह अचंभा सामने आया कि इस इकलौती कोशिका के अंदर झिल्ली से बनी दो थैलियां हैं – एक में कोशिका का डीएनए भरा है जबकि दूसरी बड़ी थैली पानी से भरी है। इसका मतलब है कि यह केंद्रक के निर्माण की प्रक्रिया में है। इस नए-नवेले बैक्टीरिया के लिए प्रस्तावित नाम है – थियोमार्गरिटा मैग्नीफिका (Thiomargarita magnifica)। आम तौर पर बैक्टीरिया के डीएनए में  40 लाख क्षार इकाइयां होती हैं और जीन्स करीब 11,000 होते हैं जबकि थियोमार्गरिटा मैग्नीफिका में 110 लाख क्षार और 3900 जीन्स हैं। बायोआर्काइव्स में इस खोज की जानकारी देते हुए शोधकर्ताओं ने तो यहां तक कहा है कि शायद प्रोकैरियोट्स और यूकैरियोट्स के बीच स्पष्ट विभाजन पर पुनर्विचार का वक्त आ गया है। (स्रोत फीचर्स) 

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ऑक्टोपस के पूर्वज की 10 भुजाएं थीं

गभग 33 करोड़ साल पहले स्क्विड जैसा प्राणि एक ऊष्णकटिबंधीय खाड़ी में मर गया था। यह स्थान आजकल के मोंटाना (पश्चिमी यूएस) में है। उसका नर्म शरीर चूना पत्थर में संरक्षित हो गया था। हाल ही में, अमेरिकन म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री और येल युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानियों ने इसके जीवाश्म अवशेषों का अध्ययन करके बताया है कि यह जीव ऑक्टोपस का एक पूर्वज था जिसकी 8 नहीं बल्कि 10 भुजाएं हुआ करती थीं। वैज्ञानिकों ने इस जीव का नाम सिलिप्सिमोपोडी बाइडेनी रखा है। सिलिप्सिमोपोडी का अर्थ है पकड़ने में सक्षम पैर। और बाइडेनी नाम अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के सम्मान में दिया गया है।

एस. बाइडेनी लगभग 12 सेंटीमीटर लंबा था। इसका शरीर टारपीडो के आकार का था, जिसके एक छोर पर एक जोड़ी फिन थे जो संभवतः तैरते समय संतुलन बनाने मदद करते होंगे। इसमें एक स्याही की थैली भी थी। अधिकतर सेफेलोपोड जंतुओं में यह थैली एक विशेष तरह का गहरा या चमकीला रंग छोड़ने के काम आती है और जंतु की रक्षा में मददगार होती है। इसके अलावा इसकी दस चूषक भुजाएं थीं। ये विवरण शोधकर्ताओं ने नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित किए हैं। एस. बाइडेनी की दो भुजाएं बाकी आठ भुजाओं से लंबी थीं, वैसे ही जैसे आधुनिक आठ भुजाओं वाले स्क्विड के दो स्पर्शक होते हैं। स्पर्शक किसी जीव के शरीर में जोड़ी में लगा हुआ लचीला और लंबा उपांग होता है जो चीज़ों को छूने, सूंघने, पकड़ने वगैरह के काम आता है। सेफेलोपॉड की पूरी भुजाओं में चूषक होते हैं जो उन्हें शिकार पकड़ने में मदद करते हैं, जबकि स्पर्शक में सिर्फ अंतिम सिरे पर चूषक होते हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि यह जीव सबसे प्रचीन ज्ञात वैम्पायरोपॉड है, जो आधुनिक ऑक्टोपस और वैम्पायर स्क्विड का पूर्वज है। एस. बाइडेनी का जीवाश्म उन आनुवंशिक अध्ययनों की पुष्टि करता है, जो यह बताते हैं कि लगभग इसी समय वैम्पायरोपॉड्स अपने स्क्विड पूर्वजों से अलग हो गए थे। इस जीव के पास 10 शक्तिशाली, कामकाजी भुजाएं थीं, जबकि इसके आधुनिक वंशजों में भुजाओं की एक जोड़ी का लोप हो गया है। वैम्पायर स्क्विड में तो दो अवशिष्ट स्पर्शक बचे हैं, लेकिन ऑक्टोपस में भुजाओं की यह जोड़ी पूरी तरह से मिट गई है। (स्रोत फीचर्स)

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विकास का खामियाजा भुगत रही हैं जैव प्रजातियां – प्रदीप

सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) द्वारा हाल ही में जारी स्टेट ऑफ इंडियाज़ एनवायरनमेंट 2022 रिपोर्ट के मुताबिक इंसानी करतूतों, मसलन जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, प्रदूषण और जंगलों की अंधाधुंध कटाई वगैरह का खामियाजा जैव प्रजातियां भुगत रही हैं। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के बुनियादी ताने-बाने में छेड़छाड़ के लिए 75 फीसदी तक इंसानी गतिविधियां ही ज़िम्मेदार हैं। वनों में रहने वाले स्तनधारियों के तेज़ी से विलुप्त होने के लिए 83 फीसदी तक इंसान दोषी हैं और महासागरों में हो रहे प्रतिकूल बदलावों के लिए भी 66 फीसदी तक इंसानी क्रियाकलाप ही ज़िम्मेदार हैं।

साल 2018 में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में दावा किया गया था कि पृथ्वी एक और वैश्विक जैविक विलोपन (मास बायोलॉजिकल एक्सटिंक्शन) घटना की गिरफ्त में है। वैश्विक जैविक विलोपन उस घटना को कहते हैं, जिसके दौरान धरती पर मौजूद 75 से 80 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो जाती हैं। पृथ्वी अब तक ऐसी पांच घटनाओं को झेल चुकी है। उक्त अध्ययन बताता है कि हम छठे वैश्विक विलोपन के दौर में प्रवेश कर रहे हैं। आशंका जताई गई है कि इसकी चपेट में इंसान भी आएंगे। इसी तरह की घटना आज से साढ़े 6 करोड़ साल पहले हुई थी, जब संभवत: एक उल्कापिंड के टकराने से धरती से डायनासौर समेत कई प्रजातियां विलुप्त हो गई थीं।

कई लोग ऐसा मानते हैं कि कुछ प्रजातियों के विलुप्त होने से मानव अस्तित्व पर कोई खतरा नहीं आएगा। यह दावा गलत है, क्योंकि हकीकत यह है कि पूरा पारिस्थितिकी तंत्र एक विशाल इमारत की तरह है। इमारत की एक ईंट के कमज़ोर होने या गिरने से पूरी इमारत के धराशायी होने का खतरा रहता है। छोटे-से-छोटे जीव की भी पारिस्थितिकी संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में लिप्त इंसान को यह नज़र ही नहीं आ रहा है कि वह अपने साथ-साथ लाखों अन्य जीवों का जीवन कितना दूभर बनाता जा रहा है। हमने अपनी सुख-सुविधाओं और तथाकथित विकास के नाम पर धरती पर मौजूद संसाधनों का प्रबंधन और दोहन इस तरह से किया है कि दूसरे जीवधारियों के जीवन के आधार ही समाप्त हो गए हैं।

महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘पृथ्वी में देने की इतनी क्षमता है कि वह सबकी ज़रूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन एक मनुष्य के लालच को भी नहीं पूरा कर सकती।’ ऐसा प्रतीत होता है कि मानव सभ्यता ने प्रकृति के खिलाफ एक अघोषित जंग का ऐलान कर रखा है और स्वयं को प्रकृति से अधिक शक्तिशाली साबित करने में जुटा हुआ है। यह जानते हुए भी कि प्रकृति के खिलाफ युद्ध में वह जीत कर भी अपना अस्तित्व कायम नहीं रख पाएगा। बहरहाल, जब तक समाज के सभी वर्गों तक यह संदेश नहीं जाता कि प्रकृति ने पृथ्वी पर इंसानों के साथ-साथ वनस्पति और जीव-जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया है, तब तक उनके संरक्षण को लोग अपना दायित्व नहीं मानेंगे। बहुत से पर्यावरणविद कोविड-19 महामारी को प्रकृति के साथ किए गए अन्याय का दुष्परिणाम मान रहे हैं। कोरोना एक उम्मीद लेकर आया कि शायद अब इंसान प्रकृति और इसके सभी हिस्सेदारों के प्रति संवेदनशील होगा, लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है। आज भी ज़्यादातर लोग अन्य जीवों को तवज्जो सिर्फ तभी देते हैं, जब वे उनके किसी स्वार्थ, सुख या मनोरंजन से सम्बंध रखते हों। (स्रोत फीचर्स)

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भारी-भरकम डायनासौर की चाल

सौरोपोड्स अब तक के ज्ञात सबसे बड़े डायनासौर में से हैं। ये आज से लगभग 20 करोड़ से 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर चहलकदमी करते थे। लेकिन सवाल यह था कि लगभग 70 टन वज़नी विशाल सौरोपोड्स की चाल कैसी रही होगी? क्या वे जिराफ की तरह चलते होंगे, अपने दोनों दाएं या दोनों बाएं पैर एक साथ उठाकर रखते हुए? या फिर हाथी की तरह चलते होंगे, पहले आगे वाला बस एक पैर उठाकर आगे रखा फिर उसके विपरीत पीछे वाला पैर?

लेकिन हालिया अध्ययन में पता चला है कि वे इनमें से किसी भी तरह से नहीं चलते थे बल्कि वे अपने आगे-पीछे के विपरीत पैरों को एक साथ उठाते हुए चलते थे, जिस तरह बीवर या हेजहॉग चलते हैं।

पूर्व अध्ययनों का निष्कर्ष था कि सौरोपोड्स जिराफ की चाल से चलते थे यानी दोनों दाएं या दोनों बाएं पैर एक साथ उठाकर चलते थे। लेकिन लिवरपूल जॉन मूर्स युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानी जेन्स लेलेंसैक को यह बात कुछ हजम नहीं हुई क्योंकि यदि इतना भारी-भरकम जीव अपना सारा वज़न एक तरफ डालते हुए चलेगा तो उसके गिरने की आशंका होगी जो जानलेवा होगा।

इसलिए लेलेंसैक और उनके साथियों ने सौरोपोड के अश्मीभूत पदचिंहों का अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने 1989 और 2018 में दक्षिण-पश्चिमी अर्कांसस में जिप्सम खदानों के पास मिले तीन पदमार्गों (पैरों के निशान से बने रास्ते) चुने, जिन पर से अकेला सौरोपोड गुज़रा था।

सबसे पहले उन्होंने प्रत्येक पदचिंह के बीच की दूरी को मापा और देखा कि ये निशान अगले पैर के हैं या पिछले के, दाएं पैर के हैं या बाएं पैर के। फिर शोधकर्ताओं ने गणना की कि पदमार्ग में पैरों की कौन-सी स्थितियां (लिंब फेज़) फिट होती हैं – यानी अगले और पिछले पैरों के ज़मीन पर पड़ने वाले समय के अंतराल नापे जो इस पदमार्ग में फिट बैठते हों। इस माप से प्रत्येक जानवर की चाल पता की जा सकती है: उदाहरण के लिए, 0 प्रतिशत लिंब फेज़ वाली चाल का अर्थ है कि वह जंतु एक ओर के आगे और पीछे के पैर एक साथ उठाता-रखता है।

सौरोपोड के धड़ की लंबाई या उसके कंधों से कूल्हों की बीच की दूरी को मापकर सौरोपोड के मॉडल शरीर पर लिंब फेज़ को दर्शाया जा सकता है। चलते समय किसी जानवर का धड़ बड़ा-छोटा तो नहीं होता।

शोधकर्ताओं ने गणना की कि सभी संभावित लिंब फेज़ में से कौन सा लिंब फेज़ धड़ की लंबाई से मेल खाता है। हरेक पदमार्ग के लिए उन्होंने पाया कि सौरोपोड पैरों की ‘विकर्ण जोड़ी’ पैटर्न में चलता था: हमेशा आगे का दायां और पीछे का बायां या आगे का बायां और पीछे दायां पैर ज़मीन पर रहता है और दूसरी जोड़ी के पैर एक साथ उठते हैं। शोधकर्ताओं ने ये निष्कर्ष करंट बायोलॉजी में प्रकाशित किए हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने वर्तमान जानवरों जैसे कुत्तों, घोड़ों, ऊंटों, हाथियों और यहां तक कि रैकून द्वारा छोड़े पदचिन्हों पर अपने तरीके को जांचा। उनके सारे अनुमान सही निकले।

लगता है, पदमार्गों की मदद से बाकी डायनासौर की चाल पर भी पुनर्विचार किया जा सकता है। इसके अलावा, सौरोपोड विविध तरह के थे उनके आकार भिन्न थे तो संभव है कि उनकी चाल भी अलग-अलग रही हो। शोधकर्ता इस बात सहमत हैं और अन्य सौरोपोड्स और डायनासौर की चाल का विश्लेषण करने की योजना बना रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्री ध्वनियों की लाइब्रेरी की तैयारी

मुद्रों में अठखेलियां करने वालों ने हम्पबैक व्हेल का दर्दभरा गीत सुना है, किलर व्हेल के समूह का कोलाहल सुना है। लेकिन कांटेदार किना समुद्री साही जैसे शांत जीवों की ध्वनि अनसुनी रह जाती है; यह एक खोखले गोले के पानी में गिरने जैसी आवाज़ करता है। अब, कुछ वैज्ञानिक शांत समुद्री जीवों की ध्वनियां लोगों के ध्यान में लाना चाहते हैं। इसलिए इस महीने फ्रंटियर्स इन इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में नौ देशों के 17 शोधकर्ताओं ने समुद्री जीवों द्वारा उत्पन्न ध्वनियों को सूचीबद्ध करने, उनका अध्ययन करने और मानचित्रण के लिए एक वैश्विक लाइब्रेरी का प्रस्ताव रखा है। इस लाइब्रेरी को ग्लब्स (GLUBS) नाम दिया है, जिसमें ध्वनि विशेषज्ञों और नागरिक-वैज्ञानिकों से समुद्र के नीचे की ध्वनियां एकत्र की जाएंगी ताकि शोधकर्ताओं को यह ट्रैक करने में मदद मिले कि समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं।

इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन साइंस के समुद्री जीव विज्ञानी माइल्स पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि इस तरह की लाइब्रेरी का सुझाव नया नहीं हैं। समुद्री जीवों की कुछ लाइब्रेरी पहले से मौजूद हैं। लेकिन वे किसी क्षेत्र या कुछ चुनिंदा जंतुओं पर केंद्रित हैं। नया विचार समुद्र के भीतर के ध्वनि के स्रोतों को समझने और उनके दस्तावेज़ीकरण में मदद करेगा।

उन्होंने आगे बताया कि लाइब्रेरी में ज्ञात ध्वनियां और उनके स्रोत होंगे। इसके साथ-साथ इसमें अज्ञात ध्वनियां भी होंगी जिन्हें पहचानने की आवश्यकता होगी। इसमें शोधकर्ता अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई किसी एक जंतु की ध्वनि या किसी एक स्थान पर होने वाली सभी आवाज़ों की सम्मिलित रिकॉर्डिंग अपलोड कर सकते हैं। ध्वनि रिकॉर्डिंग के आधार पर विभिन्न प्रजातियों के वितरण पर नज़र रखने वाले नक्शे होंगे। और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रशिक्षण के लिए एक डैटाबेस होगा।

लाइब्रेरी में ध्वनियों को सहेजने का उद्देश्य आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को प्रशिक्षित करने का भी है ताकि वे अज्ञात ध्वनियों के (अज्ञात) स्रोतों को पता लगाने और पहचानने में सक्षम हो। आदर्श रूप से हम यह बताने में सक्षम होंगे कि हमने जो ध्वनि रिकॉर्ड की है वह किस प्राणि की है। लेकिन ऐसा करने के लिए प्रत्येक ध्वनि के हज़ारों नमूनों की आवश्यकता होगी।

इस प्रयास में लोगों को जोड़ने के लिए एक ऐसा नागरिक-विज्ञान ऐप बना सकते हैं जिसके ज़रिए वे अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई ध्वनियों को अपलोड कर सकें और पहचान सकें। उम्मीद है कि एक दिन एक विशाल डैटाबेस तैयार हो पाएगा जिसको कोई ध्वनि सुनाते ही वह सम्बंधित प्रजाति और उसके व्यवहार को पहचान सकेगा।

समुद्री जीवन की ध्वनियां रिकॉर्ड करने के लिए बैटरी वाले हाइड्रोफोन का उपयोग किया जाता है। खास तौर से गहराई में दबाव से निपटना काफी मुश्किल हो जाता है। हाइड्रोफोन को या तो लगातार रिकॉर्डिंग के लिए या हर 15 मिनट में 5 मिनट की रिकॉर्डिंग करने के लिए प्रोग्राम किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.ngdc.noaa.gov/mgg/pad/image/Soundscape-sm.png


बाल्ड ईगल में सीसा विषाक्तता

हाल ही में किए गए एक अध्ययन में अमेरिका के लगभग आधे बाल्ड और गोल्डन ईगल पक्षियों में सीसा (लेड) विषाक्तता पाई गई है। गौरतलब है कि बाल्ड ईगल यूएसए का राष्ट्रीय पक्षी है। इस स्तर की विषाक्तता को देखते हुए इन प्रजातियों का पुनर्वास काफी मुश्किल प्रतीत होता है।

गौरतलब है कि 1960 के दशक में डीडीटी के इस्तेमाल के कारण बाल्ड ईगल (हैलीएटस ल्यूकोसेफेलस) लगभग विलुप्त हो गए थे। डीडीटी के प्रभाव से पक्षियों के अंडे के छिलके कमज़ोर होते थे और चूज़े अंडे से बाहर आने से पहले ही मर जाते थे। 1972 में डीडीटी पर प्रतिबंध लगने और 1973 के जोखिमग्रस्त प्रजाति अधिनियम ने बाल्ड ईगल को सुरक्षा प्रदान की। वर्तमान में जंगलों में 3 लाख से अधिक बाल्ड ईगल उपस्थित हैं।

यानी बाल्ड ईगल की आबादी तो ठीक-ठाक है लेकिन गोल्डन ईगल (एक्विला क्रायसाटोस) जैसे अन्य शिकारी पक्षियों की स्थिति काफी नाज़ुक है। डीडीटी की बजाय गोलाबारूद सहित अन्य सीसा संदूषक अभी भी काफी मात्रा में उपस्थित हैं। शिकार किए गए हिरण में उपस्थित कारतूस या किसी अन्य जीव के माध्यम से ग्रहण किया गया सीसा खून और लीवर में पहुंच जाता है। यदि लंबे समय तक भोजन में सीसा मिलता रहे तो यह हड्डियों में भी संग्रहित होने लगता है।

वन्यजीव पुनर्वास क्लीनिक लंबे समय से चील के पेट में कारतूस के टुकड़ों के मिलने की सूचना देते रहे हैं। चीलों में विषाक्तता के व्यापक स्तर पर फैलने के संकेत मिले हैं। इसलिए एक गैर-मुनाफा संगठन कंज़रवेशन साइंस ग्लोबल के जीव विज्ञानी विन्सेंट स्लेब और उनके सहयोगियों ने 8 वर्षों तक 1210 बाल्ड और गोल्डन ईगल के ऊतक एकत्रित किए।       

लगभग 64 प्रतिशत बाल्ड ईगल और 47 प्रतिशत गोल्डन ईगल में दीर्घकालिक सीसा विषाक्तता के साक्ष्य मिले। वैज्ञानिकों को 27 से 33 प्रतिशत बाल्ड ईगल और 7 से 35 प्रतिशत गोल्डन ईगल में सीसा के हालिया संपर्क के संकेत मिले हैं। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इसकी वजह से बाल्ड ईगल और गोल्डन ईगल की जनसंख्या वृद्धि में क्रमश: 3.8 प्रतिशत और 0.8 प्रतिशत की कमी आएगी। शोधकर्ताओं के अनुसार जनसंख्या वृद्धि में 3.8 प्रतिशत की गिरावट से बाल्ड ईगल की जनसंख्या पर कोई खास प्रभाव तो नहीं पड़ेगा क्योंकि कई स्थानीय आबादियों में प्रजनन न कर रहे व्यस्कों का एक समूह होता है जो फिर से प्रजनन शुरू कर सकता है। फिर भी स्थिति चिंताजनक है।

विशेषज्ञों के अनुसार सीसा विषाक्तता का प्रभाव मछलियों, स्तनधारियों और अन्य पक्षियों पर भी हुआ है। संरक्षणवादी सीसा आधारित कारतूस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। कैलिफोर्निया में तो 2019 में कैलिफोर्निया कोंडोर की रक्षा के लिए इस पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। शोधकर्ता शिकारियों को सीसा विषाक्तता के बारे में जागरूक करने और तांबे के कारतूस का इस्तेमाल करने का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर का अंत वसंत ऋतु में हुआ था

हाल ही में जीवाश्म मछली की हड्डियों पर बारीकी से किए गए अध्ययन से डायनासौर की विलुप्ति के मौसम का पता चला है। 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व की महा-विलुप्ति का मौसम बता पाना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

मेक्सिको के युकाटन प्रायद्वीप से टकराने वाले 10 किलोमीटर विशाल क्षुद्रग्रह ने पृथ्वी पर तहलका मचा दिया था। इस टक्कर के कारण वायुमंडल में भारी मात्रा में धूल और गैसें भर गई थीं जिसकी वजह से एक लंबा जाड़ा शुरू हो गया था। कुछ जीव तो इस घटना के पहले दिन ही खत्म हो गए जबकि जलवायु में इतने भीषण परिवर्तन से डायनासौर सहित पृथ्वी की 75 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो गईं।

क्षुद्रग्रह टकराने के स्थान से 3500 किलोमीटर दूर (वर्तमान में उत्तरी डैकोटा में) टैनिस नामक स्थल पर एक सुनामीनुमा लहर ने नदी के पानी को बाहर फेंक दिया था जिसके चलते रास्ते की सारी तलछट, पेड़ और मृत जीवों का ढेर जमा हो गया था। हाल ही में उपसला युनिवर्सिटी की जीवाश्म विज्ञानी मिलेनी ड्यूरिंग ने वहां मिली प्राचीन हड्डियों का विश्लेषण किया है। ड्यूरिंग उस टीम का हिस्सा नहीं थीं जिसने टैनिस स्थल की खोज की थी।

उस टीम द्वारा प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित शोधपत्र में जीवाश्मित मछलियों के गलफड़ों में फंसे कांच के छोटे कणों का वर्णन किया गया था। इस टकराव की तीव्रता इतनी अधिक थी कि इससे उत्पन्न मलबा वातावरण में काफी तेज़ी से फैला, क्रिस्टलीकृत हुआ और 15 से 20 मिनट बाद बरसने लगा। गलफड़ों में कांच के कणों की मौजूदगी से पता चलता है कि घटना के तुरंत बाद ही मछलियों की मृत्यु हो गई थी।

2017 में ड्यूरिंग ने उत्तरी डैकोटा के इस स्थल से मछलियों के छह जीवाश्म हासिल किए और शक्तिशाली एक्स-रे से इन की हड्डियों का अध्ययन किया। उन्होंने मछलियों के पंखों की अस्थि कोशिकाओं की परतों की छानबीन की जिनकी मोटाई मौसमों के अनुसार बदलती है। वसंत में ये परतें मोटी हो जाती हैं, गर्मियों में मज़बूती से बढ़ती हैं और ठंड में घटने लगती हैं।         

शोधकर्ताओं ने मछलियों की हड्डियों के कार्बन समस्थानिकों का भी मापन किया। गर्म महीनों में मछली जंतु-प्लवकों का सेवन करती थीं जो कार्बन-13 से भरपूर होते थे। पंख की हड्डियों की वसंत परतें इसी समस्थानिक से निर्मित हुई थीं। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मछली के विकास के पैटर्न और समस्थानिक डैटा इस बात का संकेत देते हैं कि ये छह मछलियां वसंत के मौसम में मारी गई थीं। अन्य मछली जीवाश्मों में पाई गई विकास परतों और कार्बन-ऑक्सीजन समस्थानिक के अनुपात से भी पता चलता है कि इन मछलियों की मृत्यु वसंत ऋतु के अंत या गर्मियों के मौसम में हुई थी।

क्षुद्रग्रह तो पृथ्वी से कभी-भी टकरा सकते हैं लेकिन उत्तरी गोलार्ध में वसंत के मौसम में इनका टकराना जीवों के लिए काफी हानिकारक रहा होगा। आम तौर पर इस मौसम जीव-जंतु अधिकांश समय खुले में और प्रजनन में बिताते हैं। यदि क्षुद्रग्रह ठंड के मौसम में गिरता तो शायद कहानी अलग होती। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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