नृत्य (Dance), संगीत (Music), पेंटिंग (Painting)या वीडियो गेम (Video Games) जैसे रचनात्मक शौक सिर्फ मज़े के लिए नहीं होते बल्कि ये मस्तिष्क की उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को भी धीमा कर सकते हैं। एक हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विभिन्न देशों के नर्तकों, संगीतकारों, कलाकारों और गेमर्स का विश्लेषण किया ताकि यह समझा जा सके कि क्या रचनात्मक गतिविधियां (Creative Activities) मस्तिष्क को जवां बनाए रखने में मददगार होती हैं।
नेचरकम्युनिकेशंस (Nature Communications Journal) में प्रकाशित इस अध्ययन में ‘ब्रेन क्लॉक’ (Brain Clock) तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। यह मॉडल किसी व्यक्ति की वास्तविक उम्र और उसके मस्तिष्क की दिखाई देने वाली उम्र की तुलना करता है। ब्रेन इमेजिंग (Brain Imaging) औरमशीन लर्निंग (Machine Learning) से यह मापा गया कि मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्से कितनी अच्छी तरह आपस में जुड़ते हैं। परिणाम दिखाते हैं कि रचनात्मक गतिविधियों में शामिल होने से मस्तिष्क के कनेक्शन मज़बूत होते हैं, खासकर उन हिस्सों में जो उम्र बढ़ने के साथ सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
इस अध्ययन के सह-लेखक और न्यूरोसाइंटिस्ट (Neuroscientist) अगस्टिन इबान्ज़ बताते हैं कि पहले के अध्ययनों से पता चला था कि रचनात्मक गतिविधियां मस्तिष्क और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं, लेकिन अब तक इसके जैविक कारण ठीक से समझे नहीं गए थे। यह अध्ययन दर्शाता है कि रचनात्मकता (Creativity Benefits) शारीरिक रूप से मस्तिष्क की उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा कर सकती है।
शोधकर्ताओं ने चार रचनात्मक क्षेत्रों में 232 प्रतिभागियों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि अधिक कुशल और अनुभवी लोगों के मस्तिष्क उनके कम अनुभवी साथियों की तुलना में जवां दिखाई देते हैं। सबसे मज़बूत असर पेशेवर टैंगो डांसरों (Tango Dancers Study) में देखा गया, जिनके मस्तिष्क औसतन सात साल युवा दिखे। टैंगो नृत्य में जटिल हाव-भाव, तालमेल, लय और योजना की आवश्यकता होती है, जो मस्तिष्क को स्वस्थ (Brain Health) बनाए रखने में विशेष रूप से प्रभावी है।
अध्ययन में यह भी पाया गया कि रचनात्मकता मस्तिष्क के फ्रंटोपैरीटल क्षेत्र (Frontoparietal Region) की सबसे ज़्यादा रक्षा करती है, जो कार्यशील स्मृति (Working Memory), निर्णय लेने और योजना बनाने के लिए महत्वपूर्ण है। अनुभवी प्रतिभागियों में इस क्षेत्र की कनेक्टिविटी बेहतर थी, खासकर उन हिस्सों में जो गति, तालमेल और लय को नियंत्रित करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि नए रचनात्मक कौशल को सीखना भी मस्तिष्क के बुढ़ाने की प्रक्रिया को धीमा (Brain Anti-Ageing) करता है, जिससे पता चलता है कि किसी भी उम्र में नया शौक शुरू करना फायदेमंद हो सकता है। कुल मिलाकर, अध्ययन दिखाता है कि रचनात्मकता सिर्फ मनोरंजन नहीं है बल्कि यह मस्तिष्क को जवां बनाए रखती है।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/13696e61c89678b5/original/sa0924Fo_SoH02.jpg?m=1722967576.402&w=1200
इस साल के नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prize 2025) की घोषणा कर दी गई है। विज्ञान के तीन क्षेत्रों – भौतिकी, रसायन और कार्यिकी अथवा चिकित्सा – में पुरस्कार उन खोजों के लिए दिए गए हैं जो वर्षों पहले की गई थीं लेकिन विज्ञान और समाज में उनके असर का खुलासा होते देर लगी। तो एक नज़र इस वर्ष के नोबेल सम्मान पर डालते हैं।
भौतिकी (Physics Nobel Prize)
भौतिकी में क्वांटम (Quantum Physics) शब्द अब जाना-पहचाना है। क्वांटम भौतिकी का प्रादुर्भाव 1900 में मैक्स प्लांक द्वारा ब्लैक बॉडी विकिरण की व्याख्या के साथ माना जा सकता है। आगे चलकर अल्बर्ट आइंस्टाइन, नील्स बोर, एर्विन श्रोडिंजर जैसे वैज्ञानिकों ने इसे आगे बढ़ाया। यह पदार्थ और ऊर्जा को एकदम बुनियादी स्तर पर समझने का प्रयास है। इसके कई विचित्र पहलुओं में से एक है क्वांटम टनलिंग (Quantum Tunneling)।
आम तौर पर जब हम किसी गेंद को दीवार पर मारते हैं तो वह सौ फीसदी बार टकराकर वापिस लौट आती है। लेकिन अत्यंत सूक्ष्म स्तर (जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे कण) पर पदार्थ का व्यवहार थोड़ा विचित्र हो जाता है। जब एक इकलौते कण को दीवार पर मारा जाए तो कभी-कभी वह टकराकर लौटने की बजाय दीवार के पार चला जाता है। इसे टनलिंग कहते हैं। ऐसा व्यवहार सूक्ष्म कणों के संदर्भ में ही देखा गया था। लेकिन इस वर्ष के नोबेल विजोताओं ने इसे स्थूल स्तर पर भी प्रदर्शित करके सबको चौंका दिया और क्वांटम कंप्यूटर (Quantum Computer Technology) जैसी टेक्नॉलॉजी का मार्ग खोल दिया है।
इस वर्ष का भौतिकी नोबेल संयुक्त रूप से कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के जॉन क्लार्क, येल विश्वविद्यालय के माइकेल डेवोरेट तथा कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सांटा बारबरा) के जॉन मार्टिनिस को दिया गया है। इन्होंने यह दर्शाया कि टनलिंग स्थूल स्तर पर भी संभव है। दरअसल उनके प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि कुछ मामलों में बुनियादी कणों का पुंज भी क्वांटम कण की तरह व्यवहार कर सकता है। उनके प्रयोग विद्युत परिपथ से सम्बंधित थे और वे दर्शा पाए कि विद्युत परिपथ क्वांटम परिपथ (Quantum Circuit Research) की तरह व्यवहार कर सकता है।
रसायन (Chemistry Nobel Prize)
वर्ष 2025 का रसायन नोबेल पुरस्कार क्योतो विश्वविद्यालय के सुसुमु कितागावा, मेलबर्न विश्वविद्यालय के रिचर्ड रॉबसन और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के ओमर एम. यागी को दिया गया है।
इन वैज्ञानिकों ने ऐसी आणविक संरचनाएं निर्मित की हैं जिनमें अंदर विशाल खाली स्थान होते हैं। इसके लिए उन्होंने धातु के आयन और कार्बनिक अणुओं के संयोजन से नवीन आणविक रचनाएं बनाने में सफलता प्राप्त की है। इन्हें मेटल ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क (एमओएफ)) (Metal Organic Framework – MOF) नाम दिया गया है। इनकी विशेषता यह है कि इनमें उपस्थित खाली स्थानों में कई अन्य पदार्थ समा सकते हैं। जैसे इनमें कार्बन डाईऑक्साइड (Carbon Dioxide Storage) भर सकती है, विभिन्न प्रदूषणकारी पदार्थ जमा हो सकते हैं, पर्यावरण में उपस्थित कणीय पदार्थ भरे रह सकते हैं। अर्थात एमओएफ जलवायु परिवर्तन(Climate Change Solutions), वातावरण के प्रदूषण वगैरह जैसी कई चुनौतियों से निपटने में मददगार साबित हो सकते हैं।
चिकित्साविज्ञान(Medicine Nobel Prize)
इस वर्ष का चिकित्सा नोबेल इंस्टीट्यूट फॉर सिस्टम्स बायोलॉजी (सिएटल) की मैरी ई. ब्रन्कॉव, सोनोमा बायोथेराप्युटिक्स के फ्रेड राम्सडेल और ओसाका विश्वविद्यालय के शिमोन साकागुची को संयुक्त रूप से दिया गया है।
इन्होंने मिलकर इस बात का खुलासा किया है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र (Immune System Research) अफरा-तफरी क्यों नहीं मचा देता। दरअसल हमारे प्रतिरक्षा तंत्र (इम्यूनिटी) के लिए लाज़मी है कि वह बाहर से आने वाली विभिन्न चुनौतियों (जैसे बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस वगैरह) से निपटने को तत्पर रहे। इस काम को अंजाम देने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र में विभिन्न किस्म की कोशिकाएं होती हैं – कुछ कोशिकाएं घुसपैठियों को पहचानने का काम करती हैं, कुछ उन्हें बांध कर अन्य मारक कोशिकाओं के समक्ष पेश करती हैं। बाहर से तो कुछ भी आ सकता है। इसलिए पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं पर ऐसे अणु होते हैं जो हर उस चीज़ को पहचान लेते हैं जो पराई है। यानी उनमें अपने-पराए का भेद करने की क्षमता होनी चाहिए।
इस साल के नोबेल विजेताओं का प्रमुख योगदान यह समझाने में रहा है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं का नियमन करके कैसे अनुशासित व्यवहार करता है। पहले माना जाता था कि पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं का प्रशिक्षण थायमस नामक ग्रंथि (Thymus Gland Function) में होता है। वहां समस्त पहचान कोशिकाओं को शरीर की कोशिकाओं से जोड़कर परखा जाता है। जो कोशिका अपने शरीर की कोशिका से जुड़ती है, उसे नष्ट कर दिया जाता है। इस प्रकार से प्रतिरक्षा तंत्र की वही कोशिकाएं बचती हैं जो अपने ही शरीर की कोशिकाओं को हमलावर के रूप में नहीं पहचातीं।
फिर ब्रन्कॉव, राम्सडेल और साकागुची ने चूहों पर प्रयोगों के दम पर प्रतिरक्षा तंत्र में एक नई किस्म की कोशिकाएं पहचानी जो अन्य कोशिकाओं के निरीक्षण व नियमन का काम करती हैं। इन्हें नियामक टी-कोशिकाएं कहते हैं। तब से नियामक टी-कोशिकाओं (Regulatory T Cells – Tregs) पर काफी अनुसंधान से कई रोगों के उपचार की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। इनमें खास तौर से तथाकथित आत्म-प्रतिरक्षा रोग (Autoimmune Diseases) और कैंसर शामिल हैं। आत्म प्रतिरक्षा रोगों में टाइप-ए डायबिटीज़, आर्थ्राइटिस, ल्यूपस वगैरह शामिल हैं। इन रोगों का कारण यह है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं अपनी कोशिकाओं और ऊतकों पर हमला कर देता है। नियामक टी-कोशिकाओं की खोज और आगे शोध ने ऐसे रोगों (Cancer Immunotherapy) के प्रबंधन के रास्ते प्रदान किए हैं।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.jagranjosh.com/images/2025/10/06/article/image/Nobel-Prize-2025-Winners-List-1759746866673.webp
सोचिए, कैसा हो कि आप गूगल (Google) से बिना कुछ बोले मौसम की जानकारी ले सकें या फिर कोई रिमाइंडर सेट कर सकें। हाल ही में AlterEgo नामक एक नए पहनने योग्य डिवाइस (wearable device) ने कुछ ऐसा ही दावा किया है। इसमें आप मन में ‘बोलते’ हैं और एआई (AI) उसे समझ लेता है।
AlterEgo के निर्माता और प्रमुख अर्नव कपूर ने बताया कि इसे कान (ear) पर आराम से लगाया जा सकता है। यह एलन मस्क के Neuralink के समान मस्तिष्कीय संकेतों को नहीं पकड़ता बल्कि चेहरे और गले की मांसपेशियों (facial muscles) में बोलते समय (या बिना आवाज़ निकाले होंठ हिलाने पर) बनने वाले छोटे-छोटे विद्युत संकेतों को पकड़ता है। एआई इन संकेतों को शब्दों में बदल देता है और जवाब बोन कंडक्शन हेडफोन (bone conduction headphones) के ज़रिए पहनने वाले को सुनाई देता है।
कपूर के अनुसार यह आपको टेलीपैथी (telepathy) की ताकत देता है, लेकिन सिर्फ उन्हीं विचारों के लिए जिन्हें आप साझा करना चाहते हैं।
इस उपकरण की विशेष बात यह है कि इसे लगाने के लिए किसी ऑपरेशन की ज़रूरत नहीं होती। यह बिल्कुल सुरक्षित है जो सिर्फ चेहरे और गले की नसों (nerves) से प्राप्त वाले संकेतों का इस्तेमाल करता है। इसी कारण इसे अपनाना बहुत आसान है।
यह सिस्टम 2018 में एमआईटी मीडिया लैब (MIT Media Lab) में एक भारी-भरकम प्रोटोटाइप (prototype) के रूप में शुरू हुआ था। क्योंकि उस समय एआई की स्पीच पहचान (speech recognition) तकनीक सीमित थी, इसलिए इसका इस्तेमाल सिर्फ साधारण कामों जैसे वेब सर्च करना या खाना ऑर्डर करने तक सीमित था। लेकिन अब एआई में हुई प्रगति से यह उपकरण एक आधुनिक और बाज़ार में उतरने लायक उत्पाद बन गया है।
सुविधा से परे, AlterEgo का असल फायदा स्वास्थ्य (healthcare) क्षेत्र में है। इसे ऐसे मरीज़ों पर आज़माया जा रहा है जिन्हें मोटर न्यूरॉन डिसीज़ (motor neuron disease) या मल्टीपल स्क्लेरोसिस जैसी बीमारियां हैं, जिनमें समय के साथ बोलना मुश्किल हो जाता है। ऐसे मरीज़ जो पूरी तरह से ‘लॉक-इन’ नहीं हैं लेकिन बोलने में संघर्ष करते हैं, उनके लिए यह उपकरण परिवार, डॉक्टर और देखभाल करने वाले के साथ संवाद का एक अहम साधन बन सकता है।
बहरहाल, विशेषज्ञ अभी सतर्क हैं। वॉशिंगटन युनिवर्सिटी (Washington University) के इंजीनियर हावर्ड चिज़ेक का मानना है कि यह तकनीक बहुत स्मार्ट (smart technology) है और प्राइवेसी के लिए अमेज़न एलेक्सा (Amazon Alexa) जैसे उपकरणों से भी सुरक्षित है जो हमेशा सुनते रहते हैं। लेकिन एक मुख्य सवाल आम लोगों तक इसकी पहुंच का है क्योंकि इसका इस्तेमाल काफी हद तक चेहरे की मांसपेशियों पर उपयोगकर्ता के नियंत्रण (user control) पर निर्भर करता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://iol-prod.appspot.com/image/8490944adaedd3bd06ef4a179f36ab35e7bdcfd2=w700
आम तौर पर किसी व्यक्ति को भविष्य में संभावित स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिमों (health risks) का अनुमान उसके स्वास्थ्य-सम्बंधी अतीत, वर्तमान जीवनशैली (lifestyle) वगैरह के आधार पर लगाया जाता है। अब वैज्ञानिकों ने Delphi-2M नाम का एक नया एआई टूल तैयार किया है जो इस काम को ज़्यादा विश्वसनीयता और सटीकता अंजाम दे सकता है। यह टूल कैंसर, त्वचा रोग और प्रतिरक्षा प्रणाली से जुड़ी गड़बड़ियों जैसी हज़ार से ज़्यादा बीमारियों का खतरा भांप सकता है।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित यह खोज स्वास्थ्य सेवाओं (healthcare system) में बड़ा परिवर्तन ला सकती है। अभी तक मौजूद एआई टूल्स (AI tools) केवल किसी एक बीमारी की संभावना बताते हैं, जैसे दिल की बीमारी या कैंसर। पूरी तस्वीर पाने के लिए डॉक्टरों को कई मॉडल इस्तेमाल करने पड़ते हैं। लेकिन Delphi-2M एक ही जगह पर सभी बीमारियों की पूरी जानकारी दे देता है।
यह टूल वैज्ञानिकों ने चैटजीपीटी (ChatGPT) जैसे चैटबॉट्स को चलाने वाले एक लार्ज लैंग्वेज मॉडल में परिवर्तन कर बनाया है। जहां लार्ज लैंग्वेज मॉडल वाक्य में अगले शब्द का अनुमान लगाता है, वहीं Delphi-2M इंसान के स्वास्थ्य पर आने वाला खतरों (disease prediction) का अनुमान लगाता है। इसमें उम्र, लिंग, बॉडी मॉस इंडेक्स, धूम्रपान व शराब की आदतें, मेडिकल इतिहास और जीवनशैली जैसी जानकारियां डाली जाती हैं।
इस टूल को यूके बायोबैंक (UK Biobank) के चार लाख लोगों के स्वास्थ्य डैटा से प्रशिक्षित किया गया है। इसके परीक्षण में पाया गया कि Delphi-2M के अनुमान एकल बीमारी वाले मौजूदा मॉडलों जितने ही सटीक हैं, बल्कि कई बार उनसे बेहतर भी निकले। यहां तक कि यह एक अन्य उन्नत एआई टूल से भी आगे निकल गया, जो खून में उपस्थित जैविक संकेतकों से बीमारियां पहचानता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि एक साथ कई बीमारियों का अनुमान लगाने की क्षमता इसे काफी अनोखा बनाती है। यदि यह ब्रिटेन के बाहर अलग-अलग आबादी (global population) में भी सफल होता है तो यह डॉक्टरों को ज़्यादा खतरे में रहने वाले मरीज़ों को पहले ही पहचानने में मदद करेगा। इससे समय पर बचाव, जीवनशैली में सुधार और व्यक्तिगत स्वास्थ्य योजनाएं (health plans) बनाना आसान हो जाएगा जो लाखों लोगों को गंभीर बीमारियों से बचा सकती हैं। लेकिन एक स्वाभाविक सा सवाल उठता है। भारत जैसे देश में, जहां बीमारी हो जाने के बाद भी इलाज (treatment access) नहीं मिलता, वहां 10 साल बाद की भविष्यवाणी व्यक्ति को चिंता के अलावा और क्या दे पाएगी?(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://prateekvishwakarma.tech/wp-content/uploads/2025/09/846.webp
जब हम खतरनाक जीवों की बात करते हैं तो आम तौर पर शेर, सांप या शार्क का नाम आता है। लेकिन असली खतरा तो एक छोटे-से मच्छर (mosquito) से है – एडीज़एजिप्टी (Aedes aegypti)। इसे येलो फीवर मच्छर (yellow fever mosquito) भी कहते हैं। यह बेहद छोटा कीट डेंगू, चिकनगुनिया, ज़ीका और पीत ज्वर जैसी 50 से अधिक बीमारियां फैला सकता है। आज भी लगभग चार अरब लोगों पर इन बीमारियों का खतरा मंडरा रहा है।
शुरुआत में यह मच्छर अफ्रीकी जंगलों में पाया जाता था। वहां यह प्राकृतिक जलस्रोतों (water sources) में प्रजनन और अलग-अलग जीवों पर रक्तभोज करता था। लेकिन जैसे ही यह अफ्रीका से बाहर फैला, इसकी आदतें बदल गईं। अब यह शहरों और गांवों में पुराने टायर, प्लास्टिक की बाल्टियों और घरों के पास जमा पानी में पनपने लगा और सबसे खतरनाक बदलाव यह हुआ कि इसने लगभग पूरी तरह इंसानों का खून पीना शुरू कर दिया। यही वजह है कि यह आज घातक बीमारियों का सबसे बड़ा वाहक (vector) बन गया है। वैज्ञानिक इस प्रजाति को दो किस्मों में बांटते हैं: Aedes aegypti formosus – अफ्रीकी जंगलों में पाया जाने वाला मच्छर, जो अलग-अलग जीवों का खून पीता है। Aedes aegypti aegypti – शहरों में पनपने वाला मच्छर, जो लगभग केवल इंसानों को काटता है। भले ही इन दोनों की आदतों और जीन्स में अंतर हैं, लेकिन ये आपस में प्रजनन कर सकते हैं।
गौरतलब है कि 5000 वर्ष पूर्व जब सहारा मरुस्थल फैलने लगा और पानी के प्राकृतिक स्रोत सूखने लगे तो इंसानों ने बर्तनों और कंटेनरों (containers) में पानी जमा करना शुरू किया। ऐसे में कुछ मच्छर इन कृत्रिम जलस्रोतों में पनपने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने इंसानों का खून पीना पसंद किया।
सदियों बाद, गुलामों को अफ्रीका से अमेरिका भेजे जाने वाले जहाज़ों (slave ships) पर चुपके से लदकर ये मच्छर अमेरिका पहुंच गए। यहीं से उनके वैश्विक फैलाव की शुरुआत हुई। लेकिन वैज्ञानिक लंबे समय तक यह नहीं समझ पाए कि ये मच्छर इंसानों के लिए पहले से अनुकूलित थे या फिर अमेरिका पहुंचने के बाद उनमें नए गुण विकसित हुए।
इस रहस्य को समझने के लिए 9 देशों के वैज्ञानिकों ने विश्व के 73 स्थानों से 1206 मच्छरों के जीनोम का अध्ययन (genome study) किया। साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन में एडीज़एजिप्टी मच्छर के फैलाव और उसमें आए परिवर्तनों पर चर्चा की गई है।
अध्ययन से प्राप्त नतीजे काफी चौंकाने वाले थे। अर्जेंटीना में मिले मच्छरों का जीनोम सेनेगल और अंगोला के मच्छरों के जीनोम से मेल खाता पाया गया। यानी, केवल अटलांटिक सफर ने ही उन्हें नहीं बदला, बल्कि अमेरिका की कठिन परिस्थितियों ने भी उनमें नए बदलाव (genetic changes) पैदा किए। अफ्रीका में उन्हें कई स्थानीय प्रजातियों से मुकाबला करना पड़ता था, लेकिन अमेरिका में उनके लिए जीवित रहने का एकमात्र तरीका इंसानों के पास रहना और उन्हीं पर निर्भर होना था। धीरे-धीरे ये मच्छर लगभग पूरी तरह इंसानों पर निर्भर हो गए।
मच्छरों का यह बदलाव सुनने में मामूली लग सकता है, लेकिन यह एक बड़ी क्रांति थी। सोचिए, एक कीट जो कभी जंगलों में रहता था, अब शहरों की भीड़-भाड़ में पुराने टायरों या प्लास्टिक की बाल्टियों (plastic containers) में पनप रहा है। कुछ छोटे जेनेटिक बदलावों (genetic evolution) ने इनके जीवन और व्यवहार को पूरी तरह बदल दिया है। इंसानों के साथ यह नज़दीकी, तेज़ी से बढ़ते शहरों (urbanization) और वैश्विक व्यापार (global trade) ने एडीज़एजिप्टी मच्छरों को फैलने का मौका दिया।
अध्ययन में एक और चिंताजनक तथ्य सामने आया: अमेरिका में कीटनाशकों (insecticides) के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता वाले मच्छर वैश्विक व्यापार के ज़रिए अब वापस अफ्रीका पहुंच गए हैं। और वहां डेंगू व अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ा रहे हैं।
देखा जाए तो एडीज़एजिप्टी की कहानी सिर्फ मच्छर (mosquito species) की कहानी नहीं है। इससे यह सपष्ट होता है कि पर्यावरण, इंसानी आदतों और वैश्विक आवाजाही (human mobility) में छोटे बदलाव कैसे प्रकृति को बदल सकते हैं।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zjlk2ba/full/_20250918_on_aedis_mosquito-1758228473107.jpg
भोजन का स्वाद (taste) इस बात को तय करने में अहम भूमिका निभाता है कि हम क्या खाएं और कितना खाएं। वैसे तो मीठे खाद्य पदार्थ (खासकर शकर) कैलोरी का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। अत्यधिक शकर (sugar) के सेवन के स्वास्थ्य सम्बंधी प्रतिकूल प्रभाव भी होते हैं। शर्कराएं समस्त कार्बोहाइड्रेट युक्त खाद्य पदार्थों में पाई जाती है – जैसे फल-सब्ज़ियां, अनाज, डेयरी उत्पाद वगैरह। इन सभी को प्राकृतिक शर्करा स्रोत कह सकते हैं और इनमें शकर के अलावा कई अन्य पोषक तत्व होते हैं। समस्या खाद्य पदार्थों में ऊपर से डाली गई शकर के सेवन से होती है।
अत्यधिक शकर के सेवन से हृदय रोग (heart disease) की संभावना बढ़ती है, शरीर इंसुलिन का प्रतिरोधी हो जाता है, जिसकी वज़ह से डायबिटीज़ (diabetes) का खतरा पैदा होता है, वज़न बढ़ता है और मोटापे की स्थिति बन जाती है जो स्वयं कई अन्य रोगों का कारण बनती है। लीवर में वसा का संग्रह होने लगता है जो फैटी लीवर रोग (fatty liver disease) को जन्म देता है। रक्तचाप भी बढ़ता है। और ये सारी स्थितियां परस्पर सम्बंधित हैं।
इस तरह के स्वास्थ्य जोखिमों (health risks) के चलते स्वास्थ्य विशेषज्ञ शकर का सेवन कम करने की सलाह देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की सिफारिश है कि रोज़ाना के कुल कैलोरी उपभोग में 10 प्रतिशत से अधिक फ्री शुगर न हो जबकि आदर्श स्थिति में तो इसे 5 प्रतिशत से कम रखना ठीक होगा। इसका मतलब है कि यदि एक वयस्क की दैनिक ऊर्जा खपत 2000 कैलोरी है तो उसे रोज़ाना 50 ग्राम से ज़्यादा शकर नहीं खानी चाहिए। अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन (American Heart Association) का मत है कि दैनिक कैलोरी खपत में 6 प्रतिशत से अधिक ऊपर से डाली गई शकर न हो।
भारत में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) के मुताबिक दैनिक भोजन में 25-30 ग्राम से अधिक शकर नहीं होनी चाहिए। इस अनुशंसित मात्रा में भोजन तथा पेय पदार्थों (beverages) में डाली गई शकर शामिल है।
भारत में शकर का सेवन पहले से ही बहुत अधिक रहा है और अब बढ़ता जा रहा है। 2014 में न्यूट्रिएंट्स नामक शोध पत्रिका (Nutrients journal) में प्रकाशित सीमा गुलाटी व अनूप मिश्रा के एक लेख में बताया गया है कि दरअसल, शकर का आविष्कार (invention of sugar) भारत में ही हुआ था। यहां हर अवसर पर मिठाई की उपस्थिति अनिवार्य सी ही है। मुंह मीठा कराना तो एक जानी-मानी रस्म है।
जहां स्वास्थ्य विशेषज्ञ (health experts) शकर के अत्यधिक सेवन को स्वास्थ्य के लिए एक जोखिम बताते हैं और इसे कम करने की सलाह देते हैं, वहीं इसके प्रति लगाव शकर के सेवन को थामने में एक बड़ी बाधा है।
ऐसा बताते हैं कि मीठे खाद्य पदार्थों (sweet food products) के प्रति आकर्षण स्तनधारियों में काफी पहले विकसित हो गया था। इस आकर्षण का मुख्य आधार यह है कि मीठा खाने के बाद व्यक्ति एक तृप्ति व आनंद का अनुभव करता है। इस तरह के आकर्षण के विकसित होने का कारण यह बताया जाता है कि मीठे पदार्थ अमूमन कैलोरी की उपलब्धता को दर्शाते हैं।
इस संवेदना और आकर्षण का नियमन दो तंत्रों द्वारा किया जाता है। एक का नाम है T1R आश्रित तंत्र और दूसरे को T1R से स्वतंत्र व्यवस्था कहते हैं। जहां T1R से स्वतंत्र मार्ग ग्लूकोज़ तथा अन्य मोनो-सेकेराइड के लिए विशिष्ट होता है वहीं T1R आश्रित मार्ग अधिकांश मीठे पदार्थों (sweet products) की उपस्थिति से सक्रिय हो जाता है। इस मार्ग के संचालक मुंह में उपस्थिति स्वाद कलिकाओं के अलावा आहारनाल के अस्तर में भी पाए जाते हैं। इन कलिकाओं से तंत्रिका संकेत मस्तिष्क तक पहुंचकर आनंद की अनुभूति पैदा करते हैं और खाने की इच्छा को भी नियंत्रित करते हैं। खास तौर से मीठे के प्रति आकर्षण और मस्तिष्क में पारितोषिक का एहसास इन्हीं तंत्रिका संकेतों का परिणाम होता है। इस तरह से मिठास भोजन के आकर्षण को बढ़ाती है और खाने की इच्छा को भी।
कई शोधकर्ताओं ने इन स्वाद-ग्राहियों को अपने अनुसंधान का लक्ष्य बनाया है ताकि मोटापे और खानपान से सम्बंधित समस्याओं से निपटने की नई रणनीति विकसित की जा सके।
यह देखा गया है कि भोजन के उपभोग की मात्रा से जुड़ा मोटापा (obesity) और खाने की लत, इन दोनों में ही शकर के प्रति पसंद में वृद्धि देखी जाती है। इसीलिए मीठे स्वाद के प्रति संवेदना में कमी और भोजन सम्बंधी व्यवहार के बीच सम्बंध को लेकर काफी शोध हो रहे हैं। अलबत्ता, इनसे प्राप्त नतीजों में काफी अंतर और मतभेद हैं।
उदाहरण के लिए, कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि मिठास की घटी हुई अनुभूति के चलते जल्दी पेट भरने का एहसास हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति कम खाएगा/खाएगी और वज़न में कमी आएगी।
इन अध्ययनों में मिठास की संवेदना को दबाने के लिए पेड़-पौधों के सत या उनसे प्राप्त रसायनों का उपयोग किया गया है। जैसे गुड़मार (Gymnema sylvestre) नामक पौधे का रस मीठे की संवेदना को दबा देता है। देखा गया है कि सामान्य संवेदना वाले लोगों की तुलना में गुड़मार (Gymnema sylvestre) के रस से दमित मीठा संवेदना वाले लोगों ने कुल कैलोरी (total calories) और मीठी कैलोरी का कम उपभोग किया। लेकिन कुछ अध्ययनों में परिणाम इसके विपरीत भी रहे। पता चला कि दमित मीठे स्वाद के बाद खुराक बढ़ गई और वज़न भी बढ़ा (weight gain)। शायद मीठे स्वाद से मिलने वाली तृप्ति न मिलने पर खाने की इच्छा और बढ़ गई हो। डायबिटीज़ व मोटापे से ग्रस्त व्यक्तियों पर हुए कुछ अध्ययनों में भी स्वाद परिवर्तन और वज़न में वृद्धि के ऐसे ही सम्बंध देखे गए हैं।
बात को और समझने के लिए रासायनिक संवेदना में गड़बड़ी सम्बंधी कुछ अध्ययन किए गए हैं। कुछ अध्ययनों में देखा गया कि जब मरीज़ शुरुआत में स्वाद-हीनता महसूस करते हैं तो वे आनंद और तृप्ति की वही अनुभूति हासिल करने के लिए नाना प्रकार के खाद्य पदार्थों का सेवन करने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि इस गड़बड़ी के शुरू होने के बाद कुछ समय तक उनका वज़न बढ़ता है। लेकिन एक बार समझ में आने पर वे उपभोग कम कर देते हैं और वज़न घटने लगता है। खास तौर से देखा गया कि स्वाद-हीनता यदि क्रमिक रूप से शुरू हो तो परिणाम वज़न में वृद्धि के रूप में सामने आता है जबकि एकाएक यही स्थिति प्रकट हो जाए, तो वज़न कम होना ज़्यादा लोगों में देखा जाता है।
ऐसा लगता है कि मीठे स्वाद के दमन का एक स्तर है। इस स्तर से अधिक दमन हो तो भोजन का उपभोग घटता है जबकि दमन इससे कम हो तो उपभोग बढ़ता है।
इस परिकल्पना की जांच कई अध्ययनों में की गई है। कुछ अध्ययनों में मीठे स्वाद की अनुभूति को अलग-अलग स्तर पर दबाया गया और भोजन सम्बंधी व्यवहार को देखा गया। मीठा-रोधी रसायनों का मीठे की अनुभूति पर असर तथा भोजन सम्बंधी व्यवहार को अलग-अलग जांचा गया।
ऐसे अध्ययनों की संख्या तो सैकड़ों में है। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक समीक्षा पर्चे में इनमें से 33 अध्ययनों का विश्लेषण प्रस्तुत हुआ है। इनमें सबसे ज़्यादा अध्ययनों (16) में गुड़मार के सत या उससे प्राप्त सक्रिय पदार्थों का उपयोग किया गया था। अन्य पादप रसायनों में बेर (Ziziphus jujuba), मुनक्का (Hovenia dulcis), स्टेफेनोटिसलुचुएंसिस, जिम्नेमाआल्टरनिफोलियम और स्टारेक्सजेपोनिका से मिले रसायनों का इस्तेमाल किया गया।
स्वाद की संवेदना (taste sensitivity) में आए अंतर को कैसे नापा जाए, यह खासा मुश्किल मसला है क्योंकि कोई मानक पैमाना तो है नहीं। उपरोक्त सारे अध्ययनों में विविध परीक्षणों का सहारा लिया गया था। सामान्यत: परिमाण का आधार स्वयं व्यक्ति द्वारा किया गया आकलन था। जैसे स्वाद की पहचान कर पाना, स्वाद पता चलने के लिए मीठे पदार्थ की न्यूनतम ज़रूरी मात्रा, या कई बार तो व्यक्ति द्वारा स्वाद की तीव्रता के आकलन को आधार बनाया गया। जांच के लिए कुछ अध्ययनों में स्वाद-दमन के बाद एक अकेले मीठे पदार्थ की जांच की गई जबकि कुछ अध्ययनों में मीठे मिश्रण (जैसे फलों के रस) पर असर देखा गया।
सभी मामलों में भोजन के उपरांत स्वाद-दमनकर्ता देने पर मीठे स्वाद का दमन देखा गया। गुड़मार के मामले में एक खास बात यह रिपोर्ट हुई है कि वह मीठे स्वाद को दबा देता है, जबकि खट्टे, नमकीन या कड़वे स्वाद का दमन नहीं करता। ज़िज़िफसजुजुबा और होवेनियाडल्सिस में भी यही देखा गया, हालांकि इनके मामले में कुछ मीठे पदार्थों की संवेदना पर कोई असर नहीं पड़ा।
लेकिन शोधकर्ताओं (researchers) के सामने एक सवाल तो यह था कि मीठे स्वाद के साथ जो आनंद की अनुभूति (pleasure) होती है, उस पर क्या असर होता है क्योंकि उसका सम्बंध भोजन के उपभोग की मात्रा से होता है।
तो, अध्ययनों से संकेत मिलता है कि गुड़मार व्यक्ति में मीठे उद्दीपन (sweet stimulus) के प्रति लगाव को कम करता है। एक प्लेसिबो (placebo) कंट्रोल्ड अध्ययन में देखा गया कि गुड़मार उपचार के बाद सहभागियों में पहला चॉकलेट खाने से मिलने वाली खुशी में 31 प्रतिशत की कमी आई। इसी प्रकार के परिणाम एक अन्य अध्ययन में भी मिले, जिसमें सहभागियों को जिम्नेमा युक्त गोली खाने को दी गई थी। इनमें दूसरा चॉकलेट खाते समय आनंद में कमी देखी गई।
ऐसे विभिन्न उपचारों का असर लगभग 15-30 सेकंड बाद दिखना शुरू होता है। और असर की अवधि काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि उपचार कितनी अवधि के लिए दिया गया। इस बात की भी जांच की गई कि स्वाद दमन से बहाली कितनी देर में हो जाती है यानी स्वाद उन व्यक्तियों के समान हो जाता है जिन्हें प्लेसिबो उपचार दिया गया था। एक तो यह पता चला है कि ज़िज़िफिन तथा होल्डुसिन के मुकाबले जिम्नेमिक एसिड का असर ज़्यादा देर तक बना रहता है। जिम्नेमिक एसिड उपचार के बाद स्वाद बहाली में 20 मिनट से लेकर घंटों तक लग जाते हैं। इसके विपरीत ज़िज़िफिन के मामले में 5-10 मिनट तथा होल्डुसिन के लिए बहाली अवधि 1-4 मिनट देखी गई है।
कुछ अध्ययनों में एक मज़ेदार बात देखी गई है। मिठास-दमन परीक्षण के बाद जब स्वाद बहाल हुआ तो मिठास की अनुभूति परीक्षण-पूर्व स्तर से भी ज़्यादा हो गई और आनंद की अनुभूति भी।
बहरहाल, ये सारे अध्ययन व्यक्तियों के अपने बयानों या मीठे की पसंद में परिवर्तन के उनके अपने अनुमानों पर आधारित थे। लेकिन कम से कम तीन अध्ययन ऐसे थे जिनमें मनुष्यों की स्वाद सम्बंधी प्रतिक्रियाओं का विद्युत-कार्यिकीय अध्ययन (electrophysiology) किया गया था। इनमें से दो में ऐसे मरीज़ों का अध्ययन किया गया जो कान की सर्जरी करवा रहे थे। इनमें स्वाद सम्बंधी गतिविधि के रिकॉर्ड कॉर्डा टिम्पेनी तंत्रिका के ज़रिए प्राप्त किए गए थे। कॉर्डा टिम्पेनी तंत्रिका चेहरे की तंत्रिका (कपाल तंत्रिका VII) की एक शाखा है। विशेष रूप से, यह जीभ के आगे के दो-तिहाई भाग से स्वाद की अनुभूति प्रदान करती है। तीसरे अध्ययन में स्वस्थ व्यक्तियों का अध्ययन एमआरआई तकनीक से किया गया था।
दोनों विद्युत-कार्यिकीय अध्ययनों में देखा गया कि गुड़मार सत जीभ पर लगाने के 1-2 मिनट के अंदर कॉर्डा टिम्पेनिक तंत्रिका की स्वीटनर्स के प्रति संवेदना पूरी तरह बाधित हो गई थी हालांकि अन्य स्वाद रसायनों के साथ ऐसा नहीं हुआ था। दूसरी ओर, एमआरआई अध्ययन में देखा गया कि जिम्नेमिक एसिड युक्त गोली चूसने के बाद न सिर्फ उच्च-शर्करा युक्त खाद्य पदार्थों ने मस्तिष्क में आनंद वाले क्षेत्र को मंद कर दिया बल्कि ऐसे खाद्य पदार्थों से अपेक्षित आनंद के एहसास को भी घटा दिया।
भोजनउपभोगपरअसर
खुराक, ज़्यादा खाने की इच्छा या भोजन के अधिक संभावित उपभोग का भी मापन किया गया था। आप देख ही सकते हैं कि ऐसी चीज़ों का मापन कठिन होगा। शोधकर्ताओं ने इसके लिए व्यक्ति के एहसासों या प्रतिक्रियाओं को एक पैमाने पर रखा। जैसे यह देखा गया कि उपचार के बाद कितने सहभागी पहली टॉफी खाने का निर्णय लेते हैं। कुछ शोध पत्रों में कुल भोजन की खपत या अनुमानित खपत के आंकड़े भी शामिल किए गए थे।
खाने की इच्छा को लेकर परिणामों में काफी विविधता रही। जैसे दो शोध पत्रों में बताया गया था कि सहभागियों में मीठे पदार्थ खाने की इच्छा में कमी आई थी, जबकि एक अन्य शोध पत्र में देखा गया कि मीठा खाने से मिलने वाले आनंद में गिरावट के बावजूद खाने की इच्छा में कोई कमी नहीं आई थी। एक अध्ययन में तो यह भी देखा गया कि मीठा-दमन के तुरंत बाद मीठा खाने की इच्छा में काफी वृद्धि हुई और तृप्ति में कमी देखी गई।
चार अध्ययनों में देखा गया कि जिन लोगों को गुड़मार स्वाद-मारक दिया गया था, उन्होंने सामान्य संवेदना वाले लोगों की तुलना में लघु-अवधि (यानी परीक्षण सत्र के दौरान) में कुल कम कैलोरी और कम मीठी कैलोरी खाई। खपत में 5 से 52 प्रतिशत तक की कमी दिखी। लेकिन इस मामले में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच काफी अंतर देखे गए थे। एक अध्ययन में तो बताया गया है कि अपेक्षा के विपरीत कई लोगों ने उपचार-उपरांत उच्च शर्करा वाले पदार्थ ज़्यादा खाए। इसकी व्याख्या के लिए कुछ अपुष्ट परिकल्पनाएं प्रस्तुत हुई है। एक का सम्बंध ‘जिज्ञासा’ (curiosity) से बताया गया है – चूंकि सहभागी शकर के स्वाद के दमन प्रभाव से अनभिज्ञ थे, इसलिए वे इसे कई बार महसूस करना चाहते थे। दूसरी परिकल्पना के अनुसार स्वाद-ग्राही पुन: सक्रिय स्थिति में लौट आता है और ज़्यादा आनंददायक एहसास प्रदान करने लगता है।
लेकिन ये सारे अध्ययन तो इसलिए शुरू किए गए थे कि मीठा स्वाद दबाकर उपभोग पर नियंत्रण किया जा सकेगा। लेकिन जिन 33 शोध पत्रों को समीक्षा में शामिल किया गया था, उनमें से मात्र तीन में इन दोनों बातों (मीठा-स्वाद-दमन और खानपान व्यवहार में परिवर्तन) के आंकड़े साथ-साथ प्रस्तुत किए गए हैं। एक अध्ययन में पाया गया कि सहभागियों में पहले परीक्षण में 20 पॉइंट के पैमाने पर मिठास का एहसास 6±1 कम हुआ। इसके अलावा जिस समूह ने जिम्नेमिक एसिड का सेवन किया था उन्होंने औसतन 501±237 कैलोरी का उपभोग किया जबकि प्लेसिबो समूह (जिन्हें चाय का कुल्ला करवाया गया था) के मामले में यह आंकड़ा औसतन 638±333 कैलोरी रहा। यानी लगभग 20 प्रतिशत की कमी आई।
एक अन्य अध्ययन में प्लेसिबो समूह के 74 प्रतिशत सहभागियों ने दूसरी टॉफी खाई जबकि जिम्नेमिक एसिड उपचारित लोगों में से मात्र 51 प्रतिशत ने ही दूसरी टॉफी खाई। यानी 23 प्रतिशत कम और इतनी ही गिरावट आनंद के एहसास में देखी गई।
विभिन्न प्रकाशित अध्ययनों के विश्लेषण से इतना तो पता चलता है कि 7 पौधों (Gymnema sylvestre, Hovenia dulcis, Ziziphus jujuba, Gymnema alternifolium, Stephanotis lutchuensis और Styrax japonica) तथा उनके कुछ अवयवों के असर से मीठे स्वाद की अनुभूति में परिवर्तन होता है। खास तौर पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिम्नेमासिलवेस्टर के सत ने मीठे की मनोशारीरिक व आनंद की अनुभूति को कम किया और तंत्रिका संवेदना तथा मीठे पदार्थों के सेवन को भी कम किया। यह भी दिखता है कि इस उपचार का असर अन्य स्वादों पर नहीं होता। लेकिन इन मीठा-रोधी रसायनों के प्रेरणात्मक कारकों (खाने की इच्छा समेत) पर असर का निश्चित प्रमाण नहीं मिला है।
वैसे, गौरतलब बात यह है कि कई अन्य कारक भी हैं जो मीठे स्वाद ग्राही के कामकाज को कम कर सकते हैं। इनमें जेनेटिक्स, पोषण (जैसे ज़िंक की कमी), जीव-वैज्ञानिक (जैसे उम्र), बाह्य कारक (जैसे धूम्रपान, शराब का सेवन) और कोविड-19 जैसी वायरल बीमारियां शामिल हैं। इन परिस्थितियों में प्राय: भोजन उपभोग कम हो जाता है और खानपान की आदतों में बदलाव भी होते हैं। लेकिन इन परिस्थितियों में यह पक्का नहीं है कि मीठे स्वाद के दमन की वजह से भोजन उपभोग पर असर होता है। उदाहरण के लिए T1R2-T1R3 स्वाद ग्राही संकुल के जीन में एक न्यूक्लियोटाइड के परिवर्तन से मीठे स्वाद पर ऐसा ही असर होता है। इसके द्वारा शकर के स्वाद और शकर के उपभोग पर असर होता है।
चिकित्सकीयउपयोग
इस समीक्षा पर्चे से एक बात तो स्पष्ट है – मोटापे या खानपान की गड़बड़ियों वाले व्यक्तियों के लिए मीठे स्वाद के दमन की तकनीक को लागू करने को लेकर कई अगर-मगर हैं।
पहला तो यह अस्पष्ट है कि क्या मीठे स्वाद को दमनकारी पदार्थों से दबाकर गैर-मीठे (हालांकि उच्च वसा वाले) भोजन का उपभोग बढ़ता है। खास तौर पर जब दोनों तरह के भोजन एक साथ परोसे जाएं।
दूसरा, यह तो देखा गया है कि मीठा-शामक पदार्थों का अन्य स्वादों (खट्टे, कड़वे और नमकीन) पर कोई असर नहीं होता लेकिन क्या इनका असर उमामी स्वाद (जैसे अजीनो मोटो यानी मोनो सोडियम ग्लूटामेट) पर भी नहीं होता क्योंकि वह भी मीठे ग्राही की उप-इकाई (T1R3) के ज़रिए ही पहचाना जाता है।
तीसरा, हो सकता है कि मीठा-शामक मीठा खाने की इच्छा और उत्साह को थाम सकता है लेकिन यह भी देखा गया है कि इसका एक पलटवार भी होता है जिसमें आनंददायक अनुभूति के तीव्र दमन की वजह से मीठा खाने की इच्छा और बलवती हो सकती है क्योंकि शायद व्यक्ति मीठे स्वाद की तलाश में हो और उसे वह स्वाद न मिल रहा हो।
चौथा, ऐसा लगता है कि जिन लोगों को खुद को मीठा खाने से रोकने में दिक्कत होती है, उनके मामले में शायद यह तरीका काम कर सकता है। लेकिन एक अध्ययन में पता चला कि मीठे के प्रति आसक्ति और व्यक्ति के वर्तमान वज़न के बीच कोई सम्बंध नहीं है।
कहना न होगा कि इन विभिन्न स्वाद-रोधियों के साइड प्रभावों का विस्तृत अध्ययन ज़रूरी है, क्योकि इनका सेवन लंबे समय तक होता है। जैसे, डायबिटीज़ के मरीज़ों के उपचार के लिए जिम्नेमासिल्वेस्टर के उपयोग का सम्बंध हेपेटाइटिस, लीवर क्षति से देखा गया है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.openaccessgovernment.org/wp-content/uploads/2023/05/iStock-1332728326-scaled.jpg
हम मन ही मन कई बातें सोचते हैं लेकिन वे किसी को सुनाई नहीं पड़ती। क्या हो यदि मन की इन बातों को बाहर सुना जा सके? और हाल ही में सेल पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में इसी करिश्मे का उल्लेख किया गया है। इसमें शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क (brain) में लगाए गए इम्प्लांट्स और डैटा विश्लेषण (data analysis) की मदद से चार लोगों की मन की बातों से सम्बंधित तंत्रिका संकेतों को अलग करने की जुगाड़ जमाई है। ये चारों व्यक्ति गति सम्बंधी दिक्कतों से पीड़ित थे जो उनकी बोलने की क्षमता को बाधित कर रही थी। शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क-कंप्यूटर इंटरफेस (brain computer interface) स्थापित किया जो उनके मन की बातों को वाणी दे सकता है। आप देख ही सकते हैं कि इसकी अपनी समस्याएं हैं – यह तकनीक किसी व्यक्ति के ऐसे विचारों को भी मुखर कर सकती है जो वह मन में ही रखना चाहे।
दरअसल शोध पत्र में इस बात को समझने की कोशिश हुई है कि आंतरिक वाणी (inner speech) कैसे निर्मित होती है। पिछले कुछ दशकों में इंजीनियर्स ऐसे लोगों के लिए कंप्यूटर सिस्टम्स बनाने में सफल हुए हैं जो लकवाग्रस्त (paralyzed) होने की वजह से बोल नहीं पाते। इन सिस्टम्स में यह क्षमता है कि वे मस्तिष्क में चल रही गतिविधियों से शब्द निर्मित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ महीने पहले कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक यंत्र प्रस्तुत किया था जो एमायोट्रॉफिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ALS disease) से पीड़ित एक व्यक्ति के दिमाग के मोटर कॉर्टेक्स में लगे इलेक्ट्रोड्स के संकेतों से शब्दों का सटीक व त्वरित पुनर्निर्माण कर सकता था।
इस मशीन को गति देने के लिए उस व्यक्ति को अपने मुंह से उन शब्दों को बोलने की भरसक कोशिश करनी होती थी – यानी उसे बोलने का प्रयास होता है। इस गतिविधि के संकेतों को यंत्र पकड़ सकता है। लेकिन सहभागियों का कहना था कि बोलने की कोशिश करना काफी थकाने वाला होता है।
हालांकि, अंदरुनी वाणी (internal speech) उत्पन्न करना कम थकाने वाले होता है लेकिन उसके संकेतों से शोधकर्ता बहुत थोड़े से शब्द पकड़ पाए थे। शोधकर्ताओं ने कोशिश जारी रखी। स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय (Stanford University) के एरिन कुंज़ ने सबसे पहले तो गति-बाधित लोगों के मस्तिष्क में लगे इलेक्ट्रोड्स का विश्लेषण किया। ये इलेक्ट्रोड मोटर कॉर्टेक्स के उस हिस्से में लगे थे जिसका सम्बंध बोलने के प्रयास से है। शोधकर्ताओं ने दो स्थितियों के रिकॉर्डिंग की तुलना की – एक तब जब सहभागी शब्दों को ज़ोर से बोलने का प्रयास कर रहे थे और दूसरी तब जब वे मन ही मन वे शब्द सोच रहे थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि इन दोनों स्थितियों (बोलने का प्रयास और मन में सोचना यानी अंदरुनी वाणी) में इसी क्षेत्र की तंत्रिकाएं सक्रिय हुईं।
अंदरुनी वार्तालाप (internal conversation) पर ध्यान केंद्रित करके कुंज़ व साथियों ने एक एल्गोरिद्म (algorithm) विकसित किया जो इन संकेतों को ध्वनि में बदल सकता था। अब बारी आई इस मॉडल को प्रशिक्षित करने की। टीम ने सहभागियों से कहा कि वे सवा लाख शब्दों की एक सूची के शब्दों को मन ही मन बोलें और उनकी तंत्रिका गतिविधि को रिकॉर्ड कर लिया। फिर सहभागियों से कहा गया कि वे उन शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कुछ पूरे-पूरे वाक्य बोलने की कल्पना करें।
परिणाम यह रहा कि उनका मॉडल अंदरुनी वार्तालाप को तत्काल वाक्यों में बदल सका। इसमें गलती होने की दर 26 से 54 प्रतिशत रही जो आज तक के प्रयासों में सबसे बेहतर है।
हालांकि गलती की दर काफी अधिक है, लेकिन यह अध्ययन मनोगत वार्तालाप (thought decoding) की अच्छी छानबीन है। वैसे इस तरह के अध्ययनों के साथ एक समस्या निजता (privacy issue) सम्बंधी भी है। कहीं ऐसा न हो कि वाणी-बाधित लोगों के सारे विचार खुलकर उजागर होने लगें। एक विचार तो यह है कि सारे मनोगत विचारों को नहीं बल्कि सिर्फ उन विचारों को एल्गोरिद्म तक पहुंचने दिया जाए, जिन्हें बोलने की कोशिश वह व्यक्ति कर रहा हो। दूसरा विचार है कि कोई ऐसा पासवर्ड (password) हो जो वह व्यक्ति सोचे तभी विचारों को ध्वनि में तबदील किया जाए। एक व्यक्ति के मामले में यह पासवर्ड वाली व्यवस्था 99 प्रतिशत बार कारगर रही।
मस्तिष्क-कंप्यूटर इंटरफेस (BCI technology) के विकास के साथ ऐसी व्यवस्थाएं निजता को सुरक्षित रखने के लिए अधिकाधिक ज़रूरी होती जा रही हैं। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.news18.com/ibnlive/uploads/2025/01/language-decode-2025-01-fee6690b0af4bec92faa684602ce9b69.png
आम तौर पर हकलाने (Stuttering) को एक व्यवहारगत दिक्कत (Behavioral Problem) माना जाता है और डांट-फटकारकर उसे दुरुस्त करने के प्रयास किए जाते हैं या उस व्यक्ति को शांत रहकर अपनी वाणि पर नियंत्रण करने की सलाह दी जाती है। हकलाने की समस्या दुनिया भर में लगभग 1 प्रतिशत लोगों को परेशान करती है। ये 7 करोड़ लोग विभिन्न भाषाएं बोलते हैं और विभिन्न पूर्वज समुदायों के वंशज हैं। यह समस्या आम तौर पर शुरुआती बचपन में शुरू होती है और अधिकांश लोग जल्दी ही इससे उबर जाते हैं लेकिन कुछ लोग बड़प्पन में प्रभावित रहते हैं।
दशकों के अनुसंधान से पता चला है कि हकलाना एक अनैच्छिक दिक्कत है और यह विरासत (Genetic Disorder) में भी मिल सकती है। इसके कारणों पर से कुछ धुंध छंटी है। इसमें एक कंपनी 23andMe के पास उपलब्ध सूचना से मदद मिली है। यह कंपनी डीएनए (DNA Testing) सम्बंधी निजी मदद करती है। लगभग 11 लाख लोगों के डीएनए के 57 खंडों को पहचाना गया है जिनके बारे में अंदाज़ था कि उनका सम्बंध हकलाने से है।
नेचर जेनेटिक्स (Nature Genetics) में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि इसमें जो जीन्स शामिल हैं उनका सम्बंध दिमाग (Brain Function) के कामकाज और लय-ताल के एहसास से है। अध्ययन से यह भी लगता है कि शायद हकलाने का सम्बंध ऑटिज़्म (Autism) और अवसाद जैसे स्थितियों से भी है। माना जा रहा है कि इस खोज से हमें हकलाने के जैविक कारकों और उसके उपचार (Treatment) के लिए दिशा मिलेगी।
2000 के दशक की शुरुआत में शोधकर्ताओं के पास न तो इतना बड़ा जेनेटिक डैटाबेस (Genetic Database) था और न ही उसके विश्लेषण के लिए सशक्त कंप्यूटर थे कि वे आम आबादी में हकलाने का सम्बंध जीन्स से खोज सकें। लिहाज़ा वे पाकिस्तान और अफ्रीका के एकरूप समुदायों में जेनेटिक पैटर्न पर ध्यान देते थे। उन्होंने कुछ संभावित डीएनए खंड और कुछ उत्परिवर्तन खोजे भी थे। लेकिन उन छोटे-छोटे अध्ययनों को सामान्य आबादी पर लागू करना संभव नहीं था।
ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 23andMe की मदद ली। उन्होंने दो समूहों के लोगों के जेनेटिक पैटर्न (Genetic Pattern) की तुलना की – 99,076 ऐसे लोग जिन्होंने कहा था कि वे हकलाते हैं और 9,81,944 ऐसे लोग थे जिन्होंने ‘ना’ कहा। इस तुलना के परिणामस्वरूप 57 ऐसे जेनेटिक खंड निकले जो थोड़ी हद तक हकलाने की संभावना बढ़ा सकते हैं। यानी हकलाना एक जटिल, बहुजीन आधारित समस्या है, अनिद्रा (Insomnia) और टाइप-2 मधुमेह के समान।
इस अध्ययन में कुछ जीन्स ऐसे भी पहचाने गए हैं जो शायद यह समझने में मदद करें कि हकलाने की समस्या की उत्पत्ति कहां से होती है। ऐसा सबसे सशक्त संकेत VRK2 जीन (VRK2 Gene) में मिला। इस जीन का सम्बंध शुरुआती तंत्रिका विकास से देखा गया है और इसके परिवर्तित रूप शिज़ोफ्रेनिया (Schizophrenia), मिर्गी, और मल्टीपल स्क्लेरोसिस से जुड़े पाए गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका सम्बंध संगीत की ताल के साथ ताली देने में दिक्कत से देखा गया है।
यह शोध का विषय रहा है कि ताल (Rhythm) के साथ कदमताल न कर पाने का सम्बंध हकलाने से हो सकता है और यह अध्ययन इसे बल देता है।
अध्ययन में चिंहित 20 जीन्स एक और सुराग देते हैं। इनका सम्बंध पहले भी ऑटिज़्म, एकाग्रता के अभाव व अति-सक्रियता (ADHD) वगैरह से देखा गया है। यानी संभव है कि इन सबमें एक से विकास पथ शामिल हैं।
अध्ययन से एक बात तो साफ है। हकलाना कोई व्यवहारगत या भावनात्मक समस्या (Emotional Disorder) नहीं है और इसकी बुनियाद में तंत्रिका का कामकाज है। वैसे इस अध्ययन की कई सीमाएं हैं। इसमें पुरुषों की भागीदारी ज़्यादा थी और एशियाई तथा अफ्रीकी लोगों का प्रतिनिधित्व भी कम था। शोधकर्ताओं का कहना है कि वे फिलहाल कोई ‘ऑन-ऑफ’ स्विच नहीं दे सकते। बहरहाल, यह अध्ययन हकलाने के साथ जुड़े सामाजिक पूर्वाग्रहों (Social Stigma) और धारणाओं को दूर करने में ज़रूर मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z78m5m5/full/_20250728_on_stuttering-1753902911443.jpg
अवसाद (Depression) आज दुनिया की सबसे आम मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) समस्याओं में से एक है, जो व्यक्ति के सोचने, महसूस करने और जीने के तरीके को प्रभावित करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 28 करोड़ लोग यानी करीब 5 प्रतिशत वयस्क अवसाद से पीड़ित हैं।
गौरतलब है कि लंबे समय से अवसाद और चिंता (Anxiety) को दिमाग की रासायनिक प्रक्रिया, जीन या जीवन की परिस्थितियों से जोड़ा जाता रहा है। लेकिन अब शोध से यह पता चला है कि हमारी आंतों में मौजूद सूक्ष्मजीव संसार – यानी बैक्टीरिया (Bacteria), फफूंद और अन्य सूक्ष्मजीवों का विशाल संसार – हमारे मूड को नियंत्रित करने में बड़ी भूमिका निभाता है।
शुरुआत में वैज्ञानिकों ने बस एक सह-सम्बंध देखा था: जिन लोगों को अवसाद या चिंता थी, उनके आंतों में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव स्वस्थ लोगों से अलग थे। फिर 2016 के दो अलग-अलग अध्ययनों में जब अवसाद से पीड़ित मनुष्यों की विष्ठा (Fecal Transplant) चूहों की आंत में डाली गई, तो चूहों में भी अवसाद जैसे लक्षण दिखने लगे। वे आनंद या खुशी का अनुभव करने में रुचि खो बैठे, उनमें चिंता जैसी हरकतें दिखीं और उनके मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रियाएं भी बदल गई।
इस खोज से यह स्पष्ट हुआ कि मानसिक बीमारियां (Mental Illness) सिर्फ जीन या किसी सदमे से नहीं होतीं, बल्कि सूक्ष्मजीवों के ज़रिए भी ‘स्थानांतरित’ हो सकती हैं। इससे एक नया सवाल उठा: अगर अस्वास्थ्यकर सूक्ष्मजीव बीमारी फैला सकते हैं, तो क्या स्वस्थ सूक्ष्मजीव हमें फिर से स्वस्थ बना सकते हैं?
जवाबों की ओर पहला कदम
इससे प्रेरित होकर, युनिवर्सिटी ऑफ कैलगरी की मनोचिकित्सक वैलेरी टेलर ने मनुष्यों पर परीक्षण शुरू किए। उन्होंने बाइपोलर डिसऑर्डर (Bipolar Disorder) जैसी बीमारियों से शुरुआत की जिन्हें ठीक करना सबसे मुश्किल माना जाता है। उनका सोचना था कि अगर उस मामले में विष्ठा सूक्ष्मजीव प्रत्यारोपण (फीकल माइक्रोबायोटा ट्रांसप्लांट, FMT) कारगर साबित होता है, तो यह अन्य बीमारियों में भी मदद कर सकता है।
शुरुआती अध्ययनों में दिखा कि आंतों के सूक्ष्मजीव संसार में बदलाव से मूड बेहतर हो सकता है। हालांकि FMT हर व्यक्ति पर एक जैसा असर नहीं करता, लेकिन कुछ मरीज़ों के लिए यह ज़िंदगी बदल देने वाला साबित हुआ। लेकिन एक समस्या है: FMT से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि कौन-से विशेष सूक्ष्मजीव इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। यह किसी खास बैक्टीरिया को नहीं बल्कि पूरे सूक्ष्मजीव संसार का पुनर्गठन करता है। शुरुआत के लिए तो ठीक है, लेकिन बहुत सटीक नहीं।
इसी कमी को दूर करने के लिए वैज्ञानिक अब साइकोबायोटिक्स (Psychobiotics) पर काम कर रहे हैं – यानी ऐसे फायदेमंद बैक्टीरिया (Probiotics – प्रोबायोटिक्स के रूप में) जो मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं। कुछ छोटे मानव परीक्षण बताते हैं कि इलाज के लिए अपने आप में इनकी क्षमता सीमित है, लेकिन साइकोबायोटिक्स अवसादरोधी दवाइयों का असर बढ़ा सकते हैं।
इस सम्बंध में वैज्ञानिकों का ध्यान आहार (Diet) पर भी रहा है। हमारा आहार हमारी आंत के सूक्ष्मजीव संसार को गहराई से प्रभावित करता है। 2017 में ऑस्ट्रेलिया में हुए एक मशहूर अध्ययन में पाया गया था कि मेडिटेरेनियन डाइट (जिसमें फल, सब्ज़ियां, दालें, मछली और साबुत अनाज अधिक हों) (Mediterranean Diet) अपनाने से प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण काफी कम हुए। भोजन से शरीर को प्रोबायोटिक्स मिलते हैं। ये ऐसे तत्व हैं जिन पर अच्छे बैक्टीरिया पनपते हैं और इस तरह एक स्वस्थ सूक्ष्मजीव समुदाय विकसित होता है।
शुरुआती नतीजे उत्साहजनक हैं, लेकिन यह क्षेत्र अभी नया है और इसमें कई सवाल बाकी हैं। जैसे, मानसिक स्वास्थ्य के लिए कौन-से खास सूक्ष्मजीव सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं? फायदा सूक्ष्मजीवों की विविधता से होता है या कुछ खास सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति या अनुपस्थिति से? कितने समय तक सूक्ष्मजीव संसार में बदलाव बने रहने चाहिए ताकि लक्षणों में सुधार दिखे? प्रोबायोटिक्स का असर इसलिए है कि वे अवसादरोधियों (Antidepressants) की क्षमता बढ़ाते हैं या वे एक बिल्कुल अलग प्रक्रिया से काम करते हैं?
वैज्ञानिक भविष्य में मानसिक स्वास्थ्य की ऐसी चिकित्सा (Treatment) की कल्पना कर रहे हैं, जिसमें इलाज का तौर-तरीका मरीज़ की आंतों के सूक्ष्मजीवों के अनुसार तय किया जाएगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर नैदानिक परीक्षण; जीन, प्रोटीन, मेटाबोलाइट्स वगैरह का अध्ययन (‘मल्टीओमिक्स’); और मस्तिष्क इमेजिंग (Brain Imaging) को सूक्ष्मजीव संसार के आंकड़ों के साथ जोड़कर देखने की ज़रूरत होगी। ये प्रयोग महंगे हैं, लेकिन अब लागत धीरे-धीरे कम हो रही है।
सबसे बड़ी रुकावट तो यह है कि कंपनियां इसमें भारी निवेश नहीं करना चाहतीं क्योंकि दवा कंपनियां दवाइयों पर तो पेटेंट ले सकती हैं, उन्हें आसानी से बेच सकती हैं और मुनाफा कमा सकती हैं। लेकिन प्रोबायोटिक्स या डाइट प्लान को इस तरह बेचना मुश्किल है।
अवसाद या मानसिक समस्याओं से पीड़ित लोगों के सूक्ष्मजीव संसार पर आधारित इलाज (Gut Microbiome Therapy) एक नया नज़रिया है। यह मानसिक बीमारियों को देखने की धारणाओं को भी बदल सकता है। अब मानसिक रोगों को सिर्फ दिमाग की गड़बड़ी नहीं, बल्कि शरीर, सूक्ष्मजीवों और मन के बीच जटिल संवाद का नतीजा माना जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-025-02633-4/d41586-025-02633-4_51319844.gif?as=webp
आपको कैसा लगेगा यदि अचानक आपको पता चले कि आप जिस व्यक्ति को अपना पिता मानते आए हैं, वह जैविक रूप से आपका पिता (biological father) नहीं है। छोटे समय की बात छोड़िए, लेकिन यदि आपको अपनी कई पीढ़ियों की वंशावली में यह देखने को मिले कि उसमें किसी पीढ़ी में किसी संतान का पिता वह नहीं था, जिसे सामाजिक या कानूनी रूप (family history, genetic ancestry) से पिता माना गया था। इसी के साथ यह बात भी जुड़ जाती है कि कोई भाई-भाई, बहन-बहन या भाई-बहन (siblings DNA test) वास्तव में सहोदर हैं या नहीं।
पितृत्व (जैविक तथा सामाजिक) का यह सवाल कई संस्कृतियों-समाजों में बहुत अहमियत रखता है। तो बेल्जियम स्थित केयू ल्यूवेन विश्वविद्यालय के जेनेटिक विज्ञानी मार्टेन लारमूसौ (Maarten Larmuseau) ने इस विषय की जांच-पड़ताल करने का विचार किया। सवाल था: कितने मामलों में महिला उन पुरुषों के साथ बच्चे पैदा करती हैं, जिनकी वे संगिनी (infidelity, paternity) नहीं हैं?
अधिकांश समाजों में सहोदर सम्बंध काफी हद तक सामाजिक रूप (kinship, social) से निर्मित होते हैं। इनमें दत्तक संतान या सौतेले परिवार भी शामिल होते हैं। लेकिन जैविक पिता के सवाल सहस्राब्दियों से परिवारों को तहस-नहस करते रहे हैं और सांस्कृतिक चिंताओं का कारण बनते रहे हैं। पारिवारिक-सामाजिक मुद्दों के अलावा बच्चे के जैविक पिता के बारे में जानना कभी-कभी अपराध विज्ञान (forensic science) या चिकित्सा (medical science) दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
यह संभव है कि किसी बच्चे के पिता को लेकर संशय महिला द्वारा इरादतन किसी अन्य पुरुष से सम्बंध का परिणाम हो, लेकिन इस संदर्भ में यौन हिंसा अथवा दबाव के तहत यौन सम्बंधों को भी नकारा नहीं जा सकता। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि कानूनी पिता को मालूम होता है कि वह जैविक पिता नहीं है। ऐसे सारे प्रकरणों के लिए लारमूसौ जिस शब्द का इस्तेमाल करते हैं, वह है दम्पती-इतर पितृत्व (extra-pair paternity)। इसमें वे दत्तक अथवा विवाहेतर जन्मों को शामिल नहीं करते हैं, जहां पिता की जैविक पहचान ज्ञात होती है। उन्होंने यह जानने के लिए एक तकनीक विकसित की है कि दम्पती-इतर पितृत्व कितना सामान्य है।
सामाजिक रूप से संवेदनशील होने के कारण आम तौर पर जीव वैज्ञानिक मनुष्यों के संदर्भ में इस विषय को टाल देते हैं, हालांकि पशु-पक्षियों में यह अनुसंधान का एक प्रमुख विषय रहा है।
तो लारमूसौ ने क्या विधि अपनाई थी दम्पती-इतर पितृत्व के आकलन के लिए? इस खोजबीन का एक मज़ेदार अध्याय मशहूर पाश्चात्य संगीतकार बीथोवन से जुड़ गया था।
दरअसल, पीएचडी छात्र के रूप में लारमूसौ ने बाल्टिक और भूमध्यसागर में पाई जाने वाली एक मछली प्रजाति पर शोध किया था – सैण्ड गोबी (Pomatoschistus minutus)। गोबी के नर संतानोत्पत्ति में काफी योगदान देते हैं – वे घोंसला बनाते हैं और निषेचित अंडों की देखभाल करते हैं। दूसरी ओर, मादा तो अंडे देकर निकल जाती है। हां, यह ज़रूर है कि नर गोबी कभी-कभार अन्य नरों द्वारा बनाए गए घोसलों में घुसकर अंडों को निषेचित करके नौ-दो-ग्यारह हो जाता है। नतीजतन उस घोंसले का निर्माता नर किसी अन्य की संतानों की परवरिश करता है। इसके चलते सैण्ड गोबी दम्पती-इतर पितृत्व के अध्ययन के लिए उम्दा जंतु माना जाता है।
एक अपराध विज्ञान प्रयोगशाला में काम करते हुए लारमूसौ के मन में विचार आया कि मनुष्यों में इसी तरह का व्यवहार हो तो उसके चलते डीएनए विश्लेषण की मदद से लाशों की पहचान तथा अपराधों के अन्वेषण में मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। लेकिन उस विषय में बात करना बहुत कठिन था। पशु-पक्षियों के बारे में तो दम्पती-इतर पितृत्व को लेकर काफी साहित्य उपलब्ध है, लेकिन इन्सानों के बारे में हम ज़्यादा नहीं जानते।
प्रामाणिक आंकड़ों के अभाव में वैज्ञानिक अटकलों का सहारा लेते थे। जैसे जीव वैज्ञानिक जेरेड डायमंड ने अपनी पुस्तक दी थर्ड चिम्पैंज़ी: दी इवॉल्यूशन एंड फ्यूचर ऑफ ह्युमैन एनिमल में दावा किया था कि इन्सानों में सामाजिक रूप से मान्य सम्बंधों के बाहर यौन सम्बंध लगभग 5 से 30 प्रतिशत होते हैं। इसी प्रकार से, रीडिंग विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक मार्क पेजल ने कहा था कि जन्म के समय मानव शिशुओं के बीच भेद करने में मुश्किल जैव विकास के दौरान विकसित हुई है ताकि उनकी वास्तविक वल्दियत उजागर न हो।
अंतत: एक आम सहमति उभरी जो मूलत: जेनेटिक पितृत्व निर्धारण के शुरुआती प्रयासों पर आधारित थी। दी लैंसेट में प्रकाशित एक लेख में सैली मैकिन्टायर और एनी सूमैन ने बताया था कि लगभग 10 प्रतिशत बच्चे विवाहेतर सम्बंधों के परिणाम होते हैं। हालांकि इस आंकड़े के सत्यापन अथवा खंडन के लिए ठोस आंकड़े नहीं थे लेकिन पत्रकार और शोधकर्ता इसे बार-बार दोहराते रहे और यह स्थापित ‘तथ्य’ बन गया।
लेकिन यदि 10 प्रतिशत विवाहेतर संतानों का आंकड़ा सही है, तो कई वंशावलियां बेकार हो जाएंगी। रोचक बात यह रही कि स्वयं लारमूसौ के पर-काका अपने परिवार का इतिहास जानने को उत्सुक थे लेकिन 10 प्रतिशत की बात सुनकर उनका उत्साह जाता रहा था। अलबत्ता, लारमूसौ लगे रहे। पहले उन्होंने अपने ही परिवार का इतिहास खंगाला। अंतत: उन्होंने अपनी सोलह से अधिक पीढ़ियों के हज़ारों पूर्वजों का एक चार्ट बना लिया। वे सोचने लगे कि कहीं जेरेड डायमंड और अन्य शोधकर्ता सही तो नहीं हैं? और इनमें से कितने सामाजिक व कानूनी पूर्वज उनके जैविक पूर्वज भी हैं।
इस संदर्भ में मौजूदा प्रमाण विवादास्पद हैं। पितृत्व जांच पर आधारित अनुमान पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं, क्योंकि जो लोग पैसा खर्च करके ऐसे परीक्षण करवाते हैं, उनके मन में पहले से ही दम्पती-इतर संतान होने की शंका रहती है। अस्थि मज्जा दानदाताओं के सैम्पल्स तथा अन्य स्रोतों से पता चलता था कि आधुनिक आबादियों में दम्पती-इतर संतानोत्पत्ति की दर कम है, लेकिन वह शायद यौन-सम्बंधों को लेकर व्यवहार में परिवर्तन की वजह से नहीं बल्कि आधुनिक गर्भनिरोधकों की उपलब्धता के कारण भी हो सकता है। और सड़क चलते लोगों से उनके यौन व्यवहार के बारे में पूछना ‘आ बैल सींग मार’ जैसी स्थिति पैदा कर सकता है। यानी वर्तमान का अध्ययन करना कठिन है और लारमुसौ ने अतीत का रुख किया।
उन्होंने 2009 में स्थानीय स्तर पर 1400 के दशक से शुरू करके वंशावलियां एकत्रित कीं। इसमें उन्हें बेल्जियन व डच वंशावली तथा विरासत को लेकर उत्साहित लोगों की मदद मिली। फिर उन्होंने स्वतंत्र रूप से इन वंशावलियों का सत्यापन किया। जब शौकिया लोगों के पास जानकारी नहीं थी, तो उन्होंने जनगणना के आर्काइव्स को खंगाला और फ्लेमिश व डच गिरजाघरों में विवाह तथा बप्तिज़्मा के रिकॉर्डों को खंगाला।
पुराने दस्तावेज़ों से शुरू करके लारमूसौ ने आज जीवित ऐसे हज़ारों पुरुषों को ढूंढ निकाला जो वंशावली रिकॉर्ड के मुताबिक अपने पिता की ओर से दूर के रिश्तेदार होना चाहिए। अगला कदम यह था कि उनके डीएनए प्राप्त करके इस अधिकारिक विरासत की जांच की जाए।
इसके लिए ज़रूरी था कि उन व्यक्तियों से संपर्क हो पाए। इस काम में स्थानीय इतिहास समितियों ने उनकी मदद की। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि लारमूसौ ने उन व्यक्तियों को फोन कर दिया या सीधे उनके घर का दरवाज़ा खटखटाया। साथ में वे डीएनए सैम्पल लेने के लिए ज़रूरी सामान और सम्मति पत्र भी लेकर पहुंचे। कभी-कभी तो गांव में एक ही सरनेम वाले व्यक्तियों से कहा कि वे अपने डीएनए परीक्षण करवा लें। एक ही सरनेम से वे मानकर चले थे कि वे सारे व्यक्ति पिता की ओर से पारिवारिक सम्बंधी होंगे। एक साल में उन्होंने 300 परिवारों से संपर्क किया और पुरुषों को बता दिया कि वे उनके पूर्वजों में दम्पती-इतर सम्बंधों की तलाश कर रहे हैं। यदि थोड़ी भी हिचक दिखी तो उस परिवार को अध्ययन में शामिल नहीं किया।
मुंह से लिए गए स्वाब में वाय गुणसूत्र मिला। गौरतलब है कि वाय गुणसूत्र पिता से पुत्र को मिलता है। और यह प्रक्रिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। एक पीढ़ी से अगली को हस्तांतरित होते समय इस वाय गुणसूत्र में कोई परिवर्तन नहीं आता। नतीजतन, यदि दो व्यक्ति ऐसे मिलते हैं, जिनके वाय गुणसूत्र मेल खाते हैं तो उनका कोई दादा, पर-दादा, पर-पर-दादा एक ही होगा, भले ही उन दोनों व्यक्तियों को इसकी भनक तक न लगी हो।
लेकिन इसका उलट भी होता था। किन्हीं दो व्यक्तियों की वंशावली तो बताती थी कि उनमें वाय गुणसूत्र का मिलान होना चाहिए लेकिन होता नहीं था। यदि वाय गुणसूत्र मेल नहीं खाते थे, तो इसका मतलब है कि बीच में कभी तो कोई ‘अन्य’ पुरुष शामिल था। लारमूसौ के लिए यह इस बात का प्रमाण होता था कि उस वंशवृक्ष में कम से कम एक मामला दम्पती-इतर पितृत्व का रहा होगा। फिर उन्होंने सांख्यिकीय मॉडल की मदद से यह निर्धारण करने का प्रयास किया कि यह घटना कितनी पीढ़ियों पूर्व हुई होगी। 2013 में एक प्रारंभिक अनुमान प्रकाशित करने के बाद भी वे आंकड़े एकत्रित करते रहे। 2019 में उन्होंने करंट बायोलॉजी (current biology) में एक शोध पत्र प्रकाशित किया। यह शोधपत्र दूर के रिश्तेदार 513 पुरुष जोड़ियों के वाय गुणसूत्र (chromosome, DNA) की जांच पर आधारित था। इसमें लारमूसौ ने अनुमान व्यक्त किया था कि बेल्जियम और नेदरलैंड में पिछले 500 वर्षों में दम्पती-इतर पितृत्व की दर लगभग 1.5 प्रतिशत रही।
युरोप में अन्यत्र किए गए अध्ययनों के आधार पर लारमूसौ और अन्य शोधकर्ताओं ने लगभग ऐसे ही नतीजे प्राप्त किए हैं: मध्य युगीन युरोप में किसी बच्चे के रिकॉर्डेड पिता जेनेटिक पिता न हों, इसकी संभावना 1 प्रतिशत या उससे भी कम (medieval records) है।
अब बात लौटती है मशहूर संगीतज्ञ लुडविग बीथोवन (1770-1827) (Beethoven) पर। एक सेलेब्रिटी होने के नाते यह प्रकरण काफी सनसनीखेज था। अलबत्ता, लारमूसौ और उनके शौकिया वंशावलीविद साथी वाल्टर स्लूइट्स का मकसद थोड़ा अलग था (celebrity, heritage)। जो बीथोवन जीवित थे, उनके वाय गुणसूत्र का मिलान मशहूर संगीतकार लुडविग बीथोवन के संरक्षित रखे बालों से मिले डीएनए से करके देखना। बालों का यह गुच्छा लुडविग बीथोवन के मित्रों ने स्मृति के रूप में सहेजकर रखा था।
2019 में शोधकर्ताओं ने वर्नर बीथोवन और उनके कुछ दूर के रिश्तेदारों से संपर्क करके पूछा कि क्या वे अपना डीएनए देंगे। इसके चार साल बाद लारमूसौ ने वर्नर तथा चार अन्य जीवित बीथोवन्स को नतीजे सुनाए: मशहूर संगीतकार (लुडविग बीथोवन) का वाय गुणसूत्र चार जीवित बीथोवन के किसी साझा पूर्वज से नहीं आया था, बल्कि किसी अज्ञात पुरुष से आया था। हो सकता है कि यह विषमता लुडविग के जन्म से पहले किसी पीढ़ी में विवाहेतर सम्बंध का परिणाम थी। वर्नर बीथोवन का तो दिल ही टूट गया – सबसे मशहूर बीथोवन तो बीथोवन ही नहीं था!
इसी खोजबीन से एक और मज़ेदार व आश्चर्यजनक बात पता चली थी – जब मातृवंश का विश्लेषण माइटोकॉण्ड्रिया के आधार पर किया गया तो लुडविग बीथोवन का जेनेटिक सम्बंध जेम्स वॉटसन के साथ दिखा; वही जेम्स वॉटसन जिन्हें डीएनए की संरचना का खुलासा करने के लिए संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार मिला था। गौरतलब है कि सारी संतानों को माइटोकॉण्ड्रिया मां से मिलता है, और इसमें पिता का कोई योगदान नहीं होता।
लेकिन ज़रूरी नहीं है कि लुडविग के पितृत्व में यह पेंच इरादतन बेवफाई या दगाबाज़ी का नतीजा हो। मसलन, साहित्य में इस बात का ज़िक्र कई मर्तबा आता है कि वंध्या पुरुष संतान प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ सम्बंध बनाने को प्रोत्साहित करते हैं। कुछ मामले यौन हिंसा अथवा दबाव के कारण भी हो सकते हैं।
इसके रूबरू गैर-युरोपीय समाजों के आंकड़ों में जैविक पितृत्व और सांस्कृतिक मर्यादाओं के प्रति ज़्यादा जुनून नज़र आता है। जैसे 2012 में मिशिगन विश्वविद्यालय के वैकासिक मानव वैज्ञानिक बेवरली स्ट्रासमैन ने माली के डोगन समाज में दम्पती-इतर पितृत्व का विश्लेषण किया था। पारंपरिक डोगन धर्म के अनुयायियों में गर्भनिरोध अपनाना बहुत कम होता है और परिणामस्वरूप महिलाएं अधिकांश समय या तो गर्भवती होती हैं या स्तनपान कराती होती हैं। बीच-बीच में जो छोटा-सा अंतराल होता है, जब महिलाएं माहवारी से होती हैं, उस दौरान वे घर के बाहर एक झोंप़ड़ी में रहती हैं। माहवारी झोंपड़ी (menstrual hut) में जाने का मतलब होता है कि वह जल्दी ही गर्भवती हो सकेगी। इस प्रथा के चलते पिता की पहचान छिपाना मुश्किल होता है और दम्पती-इतर पितृत्व की दर कम हो जाती है।
स्ट्रासमैन के मुताबिक इस तरह से स्त्री की यौनिकता की निगरानी और उस पर नियंत्रण कई समाजों (gender norms) में देखा जाता है। यह इस सोच का परिणाम है कि पुरुष पालनहार है (male parenting) और वह क्यों किसी अन्य के बच्चों की परवरिश करे। वाय गुणसूत्र डैटा के आधार पर स्ट्रासमैन का अनुमान है कि डोगन समुदाय (African statistics) में दम्पती-इतर पितृत्व की दर करीब 2 प्रतिशत है। वैसे डोगन-ईसाई माहवारी झोंपड़ी प्रथा का पालन नहीं करते उनमें यह दर पारंपरिक धर्मावलंबियों से लगभग दुगनी है।
ऐसा भी नहीं है कि जैविक पितृत्व का जुनून पूरे विश्व में एक समान हो। दक्षिण अमरीकी कबीलों (जैसे यानोमामी) में धारणा है कि एक ही महिला के साथ यौन सम्बंध बनाकर कई पुरुष बच्चों के पितृत्व में योगदान दे सकते हैं। नेपाल के न्यिम्बा समुदाय में एक महिला के एकाधिक पति हो सकते हैं। ये सभी उस महिला के बच्चों के पिता की भूमिका निभाते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां पत्नी की बेवफाई की धारणा को मान्यता नहीं दी जाती है।
इसका सबसे अच्छा दस्तावेज़ीकरण नामीबिया के हिम्बा समुदाय का हुआ है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजेल्स की ब्रुक स्केल्ज़ा यह देखकर चकित रह गई थीं कि हिम्बा गांवों में महिलाएं विवाहेतर साथियों द्वारा पैदा बच्चों के बारे में कितना खुलकर बात करती हैं। चकित होकर स्केल्ज़ा ने हिम्बा समुदाय में पितृत्व जांच का फैसला किया; पता चला कि इस समुदाय में दम्पती-इतर पितृत्व की दर 48 प्रतिशत है। और तो और, पिताओं को प्राय: पता होता था कि वे उनमें से किन बच्चों के जैविक पिता है लेकिन वे स्वयं को अपनी पत्नी के सारे बच्चों का कानूनी व सामाजिक पिता ही मानते थे। बेवफाई या धोखाधड़ी जैसी कोई बात नहीं है।
दम्पती-इतर पितृत्व की दर पर सामाजिक हालात का असर पड़ता है। इतिहासकारों के साथ काम करके, लारमूसौ ने बेल्जियम और नेदरलैंड्स में इन दरों का सम्बंध आमदनी, धर्म, सामाजिक वर्ग जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों के अलावा पिछले 500 वर्षों में हुए शहरीकरण से भी करके देखा। पाया गया कि दम्पती-इतर पितृत्व की दर में सबसे ज़्यादा वृद्धि उन्नीसवीं सदी में हुई थी, जब पूरे युरोप में शहर विकसित हो रहे थे और लोग कारखानों में नौकरी के लिए गांव छोड़-छोड़कर शहरों में बस रहे थे। लारमूसौ का अनुमान है कि बेल्जियम व नेदरलैंड्स के शहरों में दम्पती-इतर पितृत्व की दर 6 गुना बढ़कर 6 प्रतिशत हो गई थी। गांवों में तो हर स्त्री-पुरुष संपर्क पर निगाह होती है, जिसके चलते पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के पिता होने की संभावना बहुत कम होती है।
लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि दम्पती-इतर पितृत्व दर में वृद्धि का कारण यह था कि शहरों में महिलाओं को विवाहेतर साथी ढूंढने की ज़्यादा छूट मिल गई थी। लारमूसौ का मत है कि इसे ज़ोर-ज़बर्दस्ती और हिंसा के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, जो सामाजिक उथल-पुथल के दौरान बढ़ रहे थे।
युरोप में भी सौतेले बच्चों, दत्तक संतानों की देखभाल करना वगैरह फैसले सोच-समझकर लिए जाते हैं और वे ऐसे बच्चों पर संसाधन निवेश करने को तैयार होते हैं, जो जैविक रूप से उनसे सम्बंधित नहीं हैं। तो कई वैज्ञानिकों का मत है कि गोबी मछली तथा अन्य जंतुओं की तरह मनुष्यों पर वही सिद्धांत लागू करना उचित नहीं होगा।
एक तथ्य यह है कि दुनिया भर में लोग अपनी वंशावली की छानबीन करने और दस्तावेज़ीकरण पर सालाना 5 अरब डॉलर खर्च करते हैं। लारमूसौ के मुताबिक बेल्जियम में 10 में से 7 लोगों की रुचि अपने पारिवारिक इतिहास में है। और तो और, वहां की सरकार भी ऐसे कामों के लिए फंड देती है।
किस्से में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब लारमूसौ ने वाय गुणसूत्र को छोड़कर माइटोकॉण्ड्रिया पर ध्यान केंद्रित किया। माइटोकॉण्ड्रिया के मिलान से मातृ-पूर्वज का वंशवृक्ष बनाया जा सकता है। दरअसल, माइटोकॉण्ड्रिया विश्लेषण की मदद से यह पता लगाने की कोशिश थी कि अज्ञात पिता होने की वजह यह तो नहीं कि दो मांओं के बीच बच्चों की अदला-बदली हो गई है। यानी यदि मातृ-वंश में कोई गड़बड़ी नज़र आती है, तो यह पता चल जाएगा पितृ-वंश में दिख रही गड़बड़ी दम्पती-इतर पितृत्व का मामला नहीं है।
लेकिन मातृवंश का निर्धारण आसान काम नहीं है – शादी के बाद प्राय: महिलाओं के सरनेम बदल जाते हैं और महिलाएं मायका छोड़कर ससुराल चली जाती हैं। इस पृष्ठभूमि में लारमूसौ ने वर्ष 2020 में वालंटियर्स को आव्हान किया और हज़ारों लोग आगे आए। महामारी के दौरान कई लोगों ने डिजिटल पैरिश जन्म व विवाह पंजीयन, नोटरी दस्तावेज़ों और संपत्ति के कागज़ातों के आधार पर अपनी मातृ-वंशावलियों का निर्माण किया। वाय गुणसूत्र के काम की तर्ज़ पर लारमूसौ और साथियों ने दूर-दूर की रिश्तेदार महिलाओं, जिनके साझा मातृ-पूर्वज होने चाहिए थे, के डीएनए सैम्पल लिए और देखा कि क्या उनकी कानूनी वंशावली जैविक वंशावली से मेल खाती है।
सैकड़ों लोगों की वंशावलियों की तुलना जब उनके माइटोकॉण्ड्रिया डीएनए से की गई तो कोई आश्चर्यजनक बात सामने नहीं आई। इससे लारमूसौ को यकीन हो गया कि पिता-आधारित वंशावलियों में जो दिक्कतें थी वे दम्पती-इतर पितृत्व की वजह से ही थीं, शिशुओं की अदला-बदली या गुपचुप दत्तक लेने के कारण नहीं।
इन अध्ययनों से जो निष्कर्ष मिले हैं, उनका ऐतिहासिक महत्व (history research) तो है ही, लेकिन अन्य कई प्रकरणों में भी ये उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। जैसे किसी दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा के मृतकों की पहचान के लिए डीएनए विश्लेषण का सहारा (disaster analysis) लिया जाता है। इसी प्रकार से दुर्लभ बीमारियों, जेनेटिक परामर्श और खानदानी रोगों के संदर्भ में भी सटीक वंशावली काम आती हैं (disease counseling)। लेकिन यदि दम्पती-इतर पितृत्व की दर 30 प्रतिशत या 10 प्रतिशत भी हो तो ये सारी कवायदें फिज़ूल साबित होंगी। यह सुखद समाचार है कि अधिकांश समाजों में यह दर 1 प्रतिशत से कम है। लेकिन संख्या के रूप में देखें तो यह काफी बड़ी संख्या है – दुनिया की आबादी 8 अरब मानें तो दम्पती-इतर संतानों की संख्या 8 करोड़ होगी। बताते हैं कि हर वर्ष करीब 3 करोड़ लोग घर बैठे डीएनए परीक्षण करवाते हैं। लारमूसौ कहेंगे कि इनमें से करीब 3 लाख लोग परिणाम देखकर भौंचक्के रह गए होंगे। हालांकि हो सकता है कि जो गड़बड़ी नज़र आ रही है वह सैकड़ों साल पहले हुई हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.ytimg.com/vi/zLRjMcw_zcM/maxresdefault.jpg