मछुआरा बिल्ली की खोज में

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारत में जगंली (wild) बिल्ली परिवार (wild cat family) की 15 प्रजातियां पाई जाती हैं। लेकिन ज़्यादा ध्यान अमूमन बड़ी बिल्ली प्रजातियों जैसे शेर, बाघ पर दिया जाता है। लोगों को छोटी जंगली बिल्लियों, जैसे स्याहगोश (कैरकाल, caracal), रोहित-द्वीपी बिल्ली (rusty spotted cat), मछुआरा बिल्ली (fishing cat) आदि के बारे में ज़्यादा मालूमात नहीं है। ये छोटी और गुमनाम बिल्लियां भी उचित पहचान की हकदार हैं, क्योंकि ये अपने से कहीं ज़्यादा बड़े और बढ़ते खतरों से भरी दुनिया में विचरण कर रही हैं।

भारत की आर्द्रभूमियां (wetlands) मछुआरा बिल्लियों (Prionailurus viverrinus) के घर हैं। देश में इनके कई नाम हैं: बनबिरल, खुप्या बाघ, माचा बाघा वगैरह। यह पश्चिम बंगाल की राज्य पशु है और इसे बघरोल या मेचो बिराल कहा जाता है।

ये बिल्लियां आकार में घरेलू बिल्ली (domestic cat) से दुगनी होती हैं, वज़न 7 से 12 किलोग्राम होता है, और इनके भूरे-भूरे रंग के बालों पर काले चित्ते (black spots) होते हैं। अपने अधिकार-क्षेत्र (इलाके) में यह बिल्ली अक्सर शीर्ष शिकारी (apex predator) होती है, यानी कोई अन्य प्राणी इनका शिकार नहीं करता। आर्द्रभूमियां जीवंत पारिस्थितिक तंत्र होती हैं, नदी के बाढ़ क्षेत्र या मैंग्रोव (mangroves) और दलदल (swamps) जहां ये पाई जाती है।

मछुआरा बिल्ली में हुए कुछ असामान्य अनुकूलन (adaptations) उन्हें नम परिवेश में जीवित रहने में सक्षम बनाते हैं। आंशिक रूप से जालीदार पंजे (webbed paws), घना जलरोधी आवरण (फर – waterproof fur) और पानी में पूरी तरह डूबे होने पर भी तैरने की क्षमता इसकी जलीय प्रवृत्ति बताती है। उभरे हुए पंजे, जिन्हें पूरी तरह से अंदर नहीं खींचा जा सकता, बिल्ली को फिसलन भरी मिट्टी (slippery mud) में पकड़ बनाने और मछलियों को पकड़ने में मदद करते हैं। बिल्लियों का आहार मुख्य रूप से मछली है, हालांकि कृंतक (rodents), मुर्गियां (chickens) और अन्य छोटे जानवर खाने से भी ये परहेज़ नहीं करती हैं।

शिकार (hunting) की फिराक में मछुआरा बिल्ली का आधा समय जलस्रोत (water source) के किनारे खड़े, बैठे या दुबके हुए बीतता है। इसके शिकार करने का बमुश्किल 5 प्रतिशत समय ही पानी के अंदर बीतता है। उथले पानी में बिल्ली धीरे-धीरे चलती रहती है, अपने पंजों से मछली को उचकाती है और फिर उसे मुंह से पकड़ लेती है।

मछुआरा बिल्लियों को फैलाव (distribution) काफी बिखरा हुआ है: हिमालय का तराई क्षेत्र (Terai region), पश्चिमी भारत के कुछ दलदली क्षेत्र (marshes), सुंदरवन (Sundarbans), पूर्वी तट (east coast) और श्रीलंका (Sri Lanka)।

इन निशाचर (nocturnal), छुपी रुस्तम (elusive) बिल्ली की बिखरी हुई आबादी पर नज़र रखने के लिए वन्यजीव सर्वेक्षणकर्ता जलस्रोतों के नज़दीक कैमरा ट्रैप लगाते हैं। फिशिंग कैट प्रोजेक्ट (Fishing Cat Project) की तियासा आद्या और उनके सहयोगियों के एक नेटवर्क (fishingcat.org) द्वारा चिल्का झील (Chilika Lake) में विस्तृत गिनती की गई है, जहां मछलियां बहुतायत में हैं और मनुष्यों के साथ उनका टकराव सीमित है। उनके परिणामों का विस्तार करने पर ऐसा अनुमान है कि मछुआरा बिल्लियों की संख्या झील के 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में करीबन 750 है।

यह आशाजनक संख्या सुंदरबन में बिल्लियों की तेज़ी से घटती संख्या के विपरीत है। इस साल की शुरुआत में केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (भरतपुर) (Keoladeo National Park, Bharatpur) में मछुआरा बिल्ली देखी गई है, इसके दिखने के पहले तक ऐसा माना जाता था कि मछुआरा बिल्लियां राजस्थान (Rajasthan) में विलुप्त हो चुकी हैं।

यह गिरावट मुख्यत: उनके प्राकृतवास (habitat) में कमी के कारण है। ऐसा अनुमान है कि पिछले चार दशकों में भारत की 30-40 प्रतिशत आर्द्रभूमियां खत्म हो गई हैं या बहुत अधिक सिमट गई हैं। इसलिए, आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना मछुआरा बिल्लियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। मनुष्यों के अतिक्रमण (human encroachment) ने भी मछुआरा बिल्लियों और उनके प्राकृतवास को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। कई लोग उन्हें मछलियों और मुर्गियों के शिकारी के रूप में देखते हैं, नतीजतन मनुष्य अपने पालतुओं के शिकार का बदला इन्हें मारकर लेते हैं। मनुष्यों द्वारा बदले की भावना से की गई हत्याओं (retaliatory killings) की एक बड़ी संख्या दर्ज है। समुदाय-आधारित संरक्षण (community-based conservation) कार्यक्रम इस शत्रुभाव को कम करने में मुख्य भूमिका निभा सकते हैं।

इस वर्ष, देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India) ने आंध्र प्रदेश में कोरिंगा वन्यजीव अभयारण्य (Coringa Wildlife Sanctuary) में गोदावरी नदी के मुहाने (Godavari river delta) पर मछुआरा बिल्लियों की निगरानी के लिए एक परियोजना शुरू की है। बिल्लियों में जीआईएस तकनीक (GIS technology) से लैस जीपीएस कॉलर (GPS collar) लगाकर उनका स्थान सम्बंधी सटीक डैटा एकत्र किया जाएगा। कॉलर से प्राप्त सतत डैटा उनके पसंदीदा आवासों, उनकी गतिविधियों और मानव बस्तियों के संपर्क में आने के स्थानों के बारे में जानकारी देगा। ये सभी जानकारियां मछुआरा बिल्लियों की के संरक्षण व आबादी बढ़ाने की रणनीतियां बनाने में उपयोगी होंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://frankbaiamonte.smugmug.com/SDZoo-WAP/San-Diego-Zoo-10012011/i-74F7w8G/0/L/DSC7935-L.jpg

शार्क हमलों से एक द्वीप बना अनुसंधान केंद्र

भी सर्फिंग (surfing destination) और पर्यटन (island tourism) के लिए मशहूर हिंद महासागर का फ्रांसीसी रीयूनियन द्वीप (Reunion Island) आज एक अलग ही वजह से वैज्ञानिकों का ध्यान खींच रहा है – शार्क हमलों (shark attacks) का खतरा।

हमलों का सिलसिला फरवरी 2011 में शुरू हुआ था; अगले आठ सालों में इस द्वीप के आसपास शार्क ने 30 लोगों पर हमला किया, जिनमें से 11 की मौत हो गई। इन हमलों के चलते इस द्वीप को ‘शार्क द्वीप’ या ‘शार्क संकट’ (shark crisis) कहा जाने लगा।

हमलों के चलते समुद्र तट बंद कर दिए गए, सर्फिंग और तैराकी पर रोक लगा दी गई। पर्यटन बुरी तरह प्रभावित हुआ। लेकिन इसी संकट ने वैज्ञानिक शोध (shark research) का एक मौका भी दिया। फ्रांस सरकार ने शार्क के व्यवहार को समझने, तटों की सुरक्षा बढ़ाने और नई तकनीकें विकसित करने के लिए करोड़ों यूरो का निवेश किया। रीयूनियन द्वीप शार्क अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।

शार्क हमलों को समझना

शार्क की संख्या और उनकी गतिविधियों को लेकर ज़्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए इन हमलों का कोई कारण समझ नहीं आ रहा था। तब फ्रांस सरकार ने CHARC नामक एक रिसर्च प्रोग्राम (CHARC shark research program) शुरू किया। यह कार्यक्रम दो प्रमुख शार्क प्रजातियों – बुल शार्क (Carcharhinus leucas) एवं टाइगर शार्क (Galeocerdo cuvier) – पर केंद्रित था, जो ज़्यादातर हमलों के लिए ज़िम्मेदार मानी गई थीं। मकसद था इनके व्यवहार, प्राकृतवास और आवाजाही को समझना, ताकि भविष्य में ऐसे टकरावों को रोका जा सके।

CHARC प्रोजेक्ट से कई अहम जानकारियां मिलीं। वैज्ञानिकों ने पाया कि टाइगर शार्क एक तय मौसम में ही आती थीं और उन्हें गहरा पानी पसंद है। दूसरी ओर, बुल शार्क साल भर मौजूद रहती थीं और अक्सर तट के बेहद करीब तक आ जाती थीं।

हमलों का कारण

इन हमलों में बढ़ोतरी के पीछे कई कारण थे। सबसे बड़ा कारण इंसानों की बढ़ती गतिविधियां (human-shark interaction) थीं। 1980 से 2016 के बीच रीयूनियन द्वीप की आबादी 67 प्रतिशत बढ़ गई थी और साथ ही तैराकी और सर्फिंग भी, जिससे शार्क से सामना होने की संभावना भी बढ़ी।

इसके अलावा, ज़मीन के इस्तेमाल और नई निर्माण परियोजनाओं का भी प्रभाव पड़ा। 2000 के दशक में एक बड़ा सिंचाई प्रोजेक्ट (irrigation project) शुरू हुआ, जिससे द्वीप के पूर्वी हिस्से का पानी पश्चिमी हिस्से की ओर मोड़ा गया। इससे खेतों से निकला पानी समुद्र में बहने लगा और तटीय पानी की लवणीयता घट गई। बुल शार्क को कम लवण वाला पानी पसंद है। नतीजतन, वे पश्चिमी तटों पर ज़्यादा आने लगीं। यही तट सर्फरों के बीच भी सबसे लोकप्रिय थे।

शार्क हमलों में बढ़ोतरी के पीछे कुछ अन्य कारण भी हैं। जैसे, 2007 में समुद्री जीवन की रक्षा के लिए एक समुद्री संरक्षण क्षेत्र (marine protected area) बनाया गया था। इससे मछलियों की संख्या बढ़ी जो शार्क का भोजन हैं। साथ ही, 1990 के दशक के मध्य में मेडागास्कर द्वीप में विषैला संक्रमण फैलने से शार्क का मांस बेचना बंद कर दिया गया। इससे शार्क पकड़ने में कमी आई, और उनकी संख्या बढ़ने लगी।

यानी शार्क संकट पर्यावरणीय बदलाव, इंसानी गतिविधियों, और शार्क की स्थानीय स्थिति को ठीक से न समझने का मिला-जुला परिणाम था।

बचाव के नए प्रयास

जनता के बढ़ते दबाव को देखते हुए सरकार ने 2016 में शार्क सुरक्षा केंद्र (shark security center) की स्थापना की थी। इसका उद्देश्य एक ऐसा रास्ता निकालना था जिससे शार्क हमले कम हों, लेकिन समुद्री पर्यावरण भी सुरक्षित रहे।

इस दिशा में एक बड़ा कदम इलेक्ट्रिक डेटरेंट्स (electric shark deterrents) था। ये पहनने योग्य उपकरण होते हैं जो बिजली के हल्के झटके छोड़ते हैं जिससे शार्क दूर रहती है।

उपकरणों की जांच में नतीजे मिले-जुले रहे – एक उपकरण 43 प्रतिशत मामलों में कारगर रहा, बाकी उससे भी कम मामलों में। फिर आशंका इस बात की भी थी कि समय के साथ शार्क इन झटकों की आदी हो गईं तो? फिर भी इन निष्कर्षों के आधार पर नियम सख्त कर दिए गए हैं। अब रीयूनियन में कुछ क्षेत्रों में सर्फिंग करने वालों को इलेक्ट्रिक डेटरेंट पहनना अनिवार्य है।

इसके अलावा, ड्रोन (drone surveillance for sharks) का उपयोग भी शार्क की निगरानी के लिए किया गया, लेकिन यहां की गंदी और गहरे रंग की रेत के चलते ड्रोन से शार्क को पहचानना मुश्किल था। विकल्प के रूप में पानी के अंदर एआई तकनीक से लैस कैमरे (AI underwater cameras), गोताखोर और समुद्री जाल जैसी रक्षात्मक व्यवस्थाएं भी आज़माई गईं।

दुनिया भर में जो एक तकनीक सबसे खास रही, वह थी SMART ड्रमलाइन (Shark Management Alert in Real Time)। इसमें चारा लगे हुक होते हैं जो शार्क को पकड़ते हैं, लेकिन जैसे ही कोई जीव फंसता है, यह उपकरण सैटेलाइट से तुरंत अलर्ट भेज देता है। फिर अधिकारी तुरंत मौके पर पहुंचकर देखते हैं, यदि कोई अन्य जीव फंसा हो तो उसे छोड़ दिया जात है, और अगर शार्क खतरनाक हो तो स्थिति अनुसार उसे मार भी देते हैं।

शार्क सिक्यूरिटी सेंटर के निदेशक माइकल होरॉ मानते हैं कि सुरक्षा और समुद्री जीवन संरक्षण के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं है। अब रीयूनियन प्रशासन का रुख थोड़ा नरम हुआ है। अब वे छोटी टाइगर शार्क को छोड़ देते हैं, और उन्हें टैग कर ट्रैक करने की योजना बना रहे हैं।

बहरहाल, 2019 के हमले के बाद से अब तक रीयूनियन द्वीप पर कोई जानलेवा शार्क हमला नहीं हुआ है। द्वीप का समुद्री पर्यटन धीरे-धीरे बहाल हो रहा है। तैराकी पर लगे प्रतिबंधों में भी ढील दी गई है। और दुनिया भर से वैज्ञानिक रीयूनियन आ रहे हैं ताकि इस द्वीप से पूरी दुनिया के लिए कुछ सबक ले सकें।

एक सबक

समुद्र जीवविज्ञानी (marine biologist) अर्नो गॉथियर कहते हैं कि लोग शार्क को अक्सर दो नज़रियों देखते हैं – या तो बेचारी के रूप में, या फिर हमलावर (shark predator perception) के रूप में। लेकिन सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं है। वे समुद्र में स्वतंत्र रूप से विचरने वाले जीव हैं, शायद खतरनाक भी हो सकते हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे हर इंसान को मारने की फिराक में रहते हैं।

ज़रूरत तो इस बात की है कि हम न सिर्फ शार्क के व्यवहार को समझें बल्कि प्रकृति के कामकाज (marine ecosystem balance) में टांग अड़ाने के अपने व्यवहार पर भी थोड़ा नियंत्रण करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thesun.co.uk/wp-content/uploads/2021/05/KH-COMPOSITE-SHARK-REUNION-ISLAND-v2.jpg?w=620

घड़ियाल संरक्षण के पचास साल: क्या हम सफल हुए?

कुमार सिद्धार्थ

18 जून को विश्व मगरमच्छ दिवस (World Crocodile Day) पर मगरमच्छ संरक्षण परियोजना (crocodile conservation project) की शुरुआत की स्वर्ण जयंती मनाई गई। भारत सरकार ने 1975 में जब घड़ियालों के संरक्षण (Gharial conservation) के लिए व्यापक राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की थी, तब यह उम्मीद थी कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सरकारी संसाधनों के साथ यह मछलीभक्षी मगरमच्छ — जिसे वैज्ञानिक भाषा में गैवियालिस गैंजेटिकस कहा जाता है — फिर से भारतीय नदियों में आबाद हो सकेगा। लेकिन आज, इस प्रयास के 50 साल बाद, हमें खुद से यह कठिन सवाल पूछना होगा: क्या हम वाकई घड़ियाल को बचा पाए हैं?

जब घड़ियाल की बात होती है, तो अक्सर उसे एक विलुप्तप्राय जलचर (endangered species) के रूप में देखते हैं – एक ऐसा जीव, जो अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है। लेकिन घड़ियाल सिर्फ एक प्रजाति का नाम नहीं है। उसकी उपस्थिति खुद में एक संकेत है, नदी की सेहत(river health), पारिस्थितिकी संतुलन(ecological balance) और जैव विविधता (biodiversity) के प्रति हमारी संवेदनशीलता का।

घड़ियाल, अपनी पतली लंबी थूथन और मछलियों पर निर्भरता के कारण नदी पारिस्थितिकी river ecosystem) का एक अनूठा जीव है। 20वीं सदी के आरंभ तक यह प्रजाति सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी और इरावदी जैसे विशाल नदी तंत्रों में व्यापक रूप से पाई जाती थी। लेकिन 1940 के दशक में इसकी संख्या मात्र 5-10 हज़ार के बीच रह गई और 1970 के दशक तक यह 98 फीसदी से अधिक क्षेत्र से गायब हो चुकी थी।

इसी संकट को देखते हुए, 1975 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO – Food and Agriculture Organization) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP – United Nations Development Programme) के सहयोग से क्रोकोडाइल कंज़र्वेशन प्रोजेक्ट (Crocodile Conservation Project) की शुरुआत की थी। इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य देश की तीन दुर्लभ घड़ियाल (मगरमच्छ) (Gharial) प्रजातियों, मगर (Mugger crocodile) और खारे पानी के मगरमच्छ (Saltwater crocodile) को संरक्षित करना था। यह परियोजना ‘पालन और पुनःप्रक्षेपण’ विधि का उपयोग करके, बंदी अवस्था में मगरमच्छों को पालने और फिर उन्हें प्राकृतिक आवासों में छोड़ने पर केंद्रित थी। इसके अंतर्गत देश भर में 16 मगरमच्‍छ पुनर्वास केंद्र (crocodile rehabilitation centres) और 11 मगरमच्छ अभयारण्यों की स्थापना की गई। इनमें नेशनल चंबल सैंक्चुरी, कटर्नियाघाट, सतकोसिया, सोन घड़ियाल अभयारण्य और केन घड़ियाल अभयारण्य मुख्‍य है।

हाल की वार्षिक गणनाओं के अनुसार, आज भारत में वयस्क घड़ियालों की संख्या मात्र 650 के आसपास है, जिनमें से 550 नेशनल चंबल सैंक्चुरी में ही सीमित हैं। सवाल उठता है कि आधी सदी चले इस विशाल संरक्षण कार्यक्रम का परिणाम इतना सीमित क्यों है?

इसका जवाब संरक्षण की मूल रणनीति में निहित है — हमने बार-बार बंदी प्रजनन (captive breeding) और पुनःप्रक्षेपण पर बल दिया, लेकिन उनकी प्राकृतिक निवास (natural habitat) — नदियां — निरंतर संकट में रहीं।

घड़ियाल की मौजूदगी यह भी दर्शाती है कि वह नदी अब भी जीवित है, उसमें प्रदूषण नहीं फैला है, उसमें प्रवाह बचा है, और उसमें जीवन पल रहा है। इसलिए वैज्ञानिक घड़ियाल को एक ‘जैव संकेतक’ मानते हैं – एक ऐसा जीव जो हमें बिना कुछ कहे यह बता देता है कि नदी कितनी स्वस्थ है।

घड़ियालों के जीवित रहने का पूरा दारोमदार नदियों पर है। वे खुले, बहावयुक्त नदी प्रवाह(free-flowing rivers), रेत के टीलों (sandbanks) और मछलियों की पर्याप्त उपलब्धता वाले वातावरण में ही पनप सकते हैं। लेकिन इन पांच दशकों में भारतीय नदियां बेतहाशा रेत खनन(illegal sand mining), बांधों(dams), बैराजों(barrages), प्रदूषण और अवैध मछली पकड़ने (illegal fishing) के कारण क्षतिग्रस्त हुई हैं।

विशेषज्ञों के अनुसार, चंबल जैसे क्षेत्रों में अत्यधिक और अवैध रेत खनन ने घड़ियालों के घोंसले (nesting sites) बनने वाली रेत पट्टियों को नष्ट कर दिया है। कई क्षेत्रों में तो घोंसले लगभग समाप्त हो चुके हैं। घड़ियालों की 90 फीसदी से अधिक मौतें मॉनसून के बाद पहले तीन महीनों में होती हैं — यह दिखाता है कि केवल अंडे देना और बच्चे निकलना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका जीवित रहना ही असली चुनौती है। घड़ियाल का संरक्षण अपने आप में रेत खनन पर नियंत्रण की मांग को जन्म देता है, जो बाढ़ नियंत्रण से लेकर जलप्रवाह की गुणवत्ता तक, कई प्राकृतिक संतुलनों को बनाए रखने में सहायक होता है।

मद्रास क्रोकोडाइल बैंक ट्रस्ट (Madras Crocodile Bank Trust) द्वारा 2008 में शुरू किए गए घड़ियाल इकॉलॉजी प्रोजेक्ट (Gharial Ecology Project) के प्रमुख अन्वेषक प्रो. जेफरी लैंग के अनुसार “अब ज़रूरत है कि हम नदी पारिस्थितिकी की संपूर्णता पर ध्यान दें। घड़ियाल संरक्षण के प्रयास तब तक सार्थक नहीं होंगे जब तक कि नदियां अपने प्राकृतिक रूप में मुक्त बहने वाली न हों, उनमें बांध/बैराज न्यूनतम हों और रेत खनन नियंत्रित हो।”

इसी तरह, नेचर कंज़र्वेशन सोसाइटी के सचिव राजीव चौहान कहते हैं, “बंदी प्रजनन और पुनर्वास केवल एक ‘बैंड-ऐड’ उपाय है। जब तक हम प्रवाह, मत्स्य पालन और रेत खनन पर सख्त नियंत्रण नहीं रखते, तब तक मगरमच्छों के पुनर्वास के प्रयास व्यर्थ है।”

ओडिशा ही एकमात्र राज्य है, जहां तीनों मगरमच्छ प्रजातियां – खारे पानी के मगर (भितरकनिका – Saltwater crocodile – Bhitarkanika), घड़ियाल (सतकोसिया – Gharial – Satkosia) और मगरी (सिमलीपाल – Mugger – Simlipal) – पाई जाती हैं। पश्चिम बंगाल में सुंदरबन के बाद भितरकनिका भारत का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन (mangrove forest) है। दोनों क्षेत्र भारत में खारे पानी के मगरमच्छों के तीन गढ़ों में से हैं; तीसरा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह है। वर्ष 2025 की जनगणना में 1826 खारे पानी के मगर, 16 घड़ियाल और लगभग 300 मगरी गिने गए। हालांकि यह संरक्षण की सफलता (wildlife conservation success) दर्शाता है, लेकिन हाल ही में भितरकनिका और उसके आसपास के इलाकों में इंसानों और मगरमच्छों के बीच संघर्ष (human-crocodile conflict) बहुत बढ़ गया है। पिछले साल जून और अगस्त के बीच पार्क और उसके आसपास मगरमच्छों के हमलों में एक 10 वर्षीय लड़के सहित छह लोगों की मौत हो गई थी। वहां अब इन इलाकों में बाड़बंदी और चेतावनी प्रणाली जैसे उपाय लागू किए जा रहे हैं।

एक ताज़ा अध्ययन (climate change impact on gharial habitat) में पाया गया है कि आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन से घड़ियालों के लिए उपयुक्त क्षेत्र 36 फीसदी से 145 फीसदी तक बढ़ सकता है – विशेषत: उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, असम, उत्तराखंड जैसे राज्यों में। वहीं ओडिशा और राजस्थान जैसे राज्य शायद अपनी उपयुक्तता खो बैठेंगे।

अध्ययनकर्ताओं ने सिफारिश की है कि ब्रह्मपुत्र और महानदी घाटियों में संभावित क्षेत्रों का मैदानी सर्वेक्षण किया जाए, उन्हें संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाए, और स्थानीय समुदायों को संरक्षण प्रक्रिया में सहभागी बनाया जाए।

घड़ियाल संरक्षण के 50 वर्षों का अनुभव हमें यही सिखाता है कि सिर्फ प्रजाति पर केंद्रित नीतियां नाकाफी है। जब तक हम नदियों को, उनके प्रवाह को, उनकी जैव विविधता को, उनके किनारे के समुदायों को संरक्षण नीति का हिस्सा नहीं बनाएंगे, तब तक घड़ियाल जैसे जीव केवल सरकारी आंकड़ों में ही जीवित रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.tribuneindia.com/sortd-service/imaginary/v22-01/jpg/large/high?url=dGhldHJpYnVuZS1zb3J0ZC1wcm8tcHJvZC1zb3J0ZC9tZWRpYWMwYjVkYmYwLTRlODctMTFlZi05ZmFhLWFiNzg5M2FlZWVhYy5qcGc=

पहाड़ी जंतुओं में गंध की संवेदना कम

ऊंचे पहाड़ों पर विचरने वाले जंतुओं(high altitude animals), जैसे लामा, भेड़ों वगैरह में गंध को पकड़ने वाले ग्राही (olfactory receptors) काफी कम संख्या में पाए जाते हैं और मस्तिष्क का गंध से सम्बंधित क्षेत्र (ऑल्फेक्टरी लोब – olfactory lobe) भी छोटा होता है। यह खुलासा करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक शोध में हुआ है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस अनुकूलन से उन्हें ऊंचे पहाड़ों की ठंडी, सूखी हवा में रहने में मदद मिलती होगी।

कैन्सास विश्वविद्यालय (University of Kansas) की एली ग्राहम यह समझना चाह रही थीं कि जानवर ऊंचाइयों जैसे इंतहाई पर्यावरण के साथ तालमेल कैसे बनाते हैं। उन्होंने स्तनधारियों की जेनेटिक जानकारी जुटाई और अपने दल के साथ मिलकर देखा कि ऊंचे पहाड़ों पर रहने वाले तथा समुद्र सतह के नज़दीक रहने वाले जानवरों के बीच क्या अंतर हैं।

सबसे बड़ा अंतर था कि ऊंचाई पर रहने वाले जंतुओं में गंध संवेदना से जुड़े जीन्स (olfactory genes) की संख्या बहुत कम थी।

थोड़ा और गहराई में उतरे तो पता चला कि 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर रहने वाले जानवरों में गंध संवेदना से सम्बंधित जीन्स उन जानवरों से 23 प्रतिशत कम थे जो इससे कम ऊंचाई के निवासी थे।

फिर, उन्होंने पूर्व में संग्रहित उस जानकारी पर गौर किया जो कई स्तनधारी जीवों की खोपड़ियों की नपाई (cranial measurement study) से प्राप्त हुई थी। पता चला कि पर्वतीय जीवों का ऑल्फेक्टरी बल्ब (घ्राण बल्ब) (olfactory bulb size) निचले इलाकों के निवासी जीवों की तुलना में औसतन 18 प्रतिशत छोटा होता है। और तो और, किसी प्राणी का रहवास जितनी ऊंचाई पर होता है, उसमें उतने ही कम गंध संवेदना से जुड़े जीन्स और गंध ग्राही पाए जाते हैं।

तो क्या ऊंचाई के साथ गंध संवेदना का ह्रास एक अनुकूलन (adaptive trait loss) है? इसके कई कारण हो सकते हैं कि ऊंचाई के साथ जंतुओं को गंध संवेदना की ज़रूरत कम पड़े। एक तो यह हो सकता है कि ऊंचे स्थानों पर हवा अपेक्षाकृत अधिक ठंडी और कम नमीदार (cold and dry air conditions) होती है। ऐसी हवा में गंध पदार्थों के अणु कम होते हैं और गंध के अणु ज़्यादा दूर तक नहीं पहुंच पाते। इसी के साथ ऐसी हवा नाक बंद होने व श्वास मार्ग में सूजन का सबब भी हो सकती है।

अनुमान है कि इस कारण ऊंचे स्थानों पर रहने वाले जंतुओं को गंध की बारीक संवेदना की ज़रूरत ही नहीं होगी। तो ग्राहम का अनुमान है कि गंध संवेदी ग्राही की बजाय ऐसे जीव अपने संसाधन अन्य संवेदनाओं (जैसे स्वाद और दृष्टि – alternate senses like vision and taste) में निवेश करेंगे।

उन्होंने यह भी देखने का प्रयास किया कि क्या ये निष्कर्ष मनुष्यों पर भी सही बैठते हैं। इसके लिए उन्होंने मनुष्यों के दो समूहों के बीच जेनेटिक अंतरों पर गौर किया – एक, तिब्बती लोग जो 4500 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई के बाशिंदे हैं और दूसरा, कम ऊंचाइयों पर रहने वाले चीन के हान (Tibetan vs Han people genetic study) लोग। लेकिन इनके बीच कोई अंतर नहीं मिला।

यह आश्चर्यजनक था क्योंकि ड्रेसडेन विश्वविद्यालय के थॉमस हमेल ने एक प्रयोग (controlled environment experiment) में देखा था कि जब मनुष्यों को एक ऐसे कक्ष में बैठाया गया जिसका पर्यावरण ऊंचे स्थानों जैसा था तो उन्हें गंध ताड़ने में मुश्किल हुई बनिस्बत उनके जिन्हें कम ऊंचे पर्यावरण कक्ष में बैठाया था। इसकी व्याख्या नहीं हो पाई है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zk7gt3f/full/_20250624_on_highaltitudeanimals-1750875024970.jpg

क्लोरोप्लास्ट चुराते समुद्री घोंघे

सौर ऊर्जा (solar energy) से चलने वाले समुद्री घोंघों (sea slugs) की कोशिकाओं में विशेष भंडार गृह होते हैं, जहां वे शैवालों से चुराए गए क्लोरोप्लास्ट जमा करके रखते हैं। इन भंडार गृहों का रासायनिक परिवेश ऐसा होता है कि चोरी के इस माल (क्लोरोप्लास्ट) को जीवित व कामकाजी हालत में रखा जा सकता है ताकि सूर्य का प्रकाश मिलने पर यह पोषण का संश्लेषण कर सके। शोधकर्ताओं ने इस भंडार गृह को क्लोरोप्लास्ट रेफ्रिजरेटर (chloroplast refrigerator) की संज्ञा दी है। मज़ेदार बात यह है कि सामान्य स्थिति में यहां भंडारित क्लोरोप्लास्ट प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए स्लग को भोजन उपलब्ध कराता है, वहीं आपात स्थिति में स्लग इसे पचाकर भी आहार प्राप्त कर लेते हैं।

यह बात दशकों से पता रही है कि समुद्री घोंघों की कई प्रजातियां जिस शैवाल (algae) का भक्षण करती हैं, उनके क्लोरोप्लास्ट को जमा करके रख लेती हैं। इस चोरी को क्लेप्टोप्लास्टी (kleptoplasty) कहते हैं। लेकिन स्लग कोशिका के अंदर तो मात्र क्लोरोप्लास्ट जमा होता है, शैवाल की पूरी कोशिका नहीं। वैज्ञानिक यह नहीं जानते थे कि पूरी शैवाल कोशिका के सहारे के बगैर क्लोरोप्लास्ट जीवित व कामकाजी कैसे बना रहता है।

हारवर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) के निकोलस बेलोनो व साथियों द्वारा सेल (Cell journal) में प्रकाशित शोध पत्र में इसी सवाल पर विचार किया गया है। बेलोनो की टीम ने स्वयं घोंघे की कोशिकाओं द्वारा हाल ही में बनाए गए प्रोटीन्स की निशानदेही कर दी। पता चला कि अधिकांश प्रोटीन्स का निर्माण मूल शैवाल द्वारा नहीं बल्कि स्वयं घोंघे द्वारा किया गया था। मतलब हुआ कि घोंघे ने क्लोरोप्लास्ट को सहेजकर रखा था और वह प्रकाश संश्लेषण कर पा रहा था।

क्लोरोप्लास्ट को सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पता चला कि उसे घोंघे की आंत में एक खास प्रकोष्ठ में रखा गया था। प्रत्येक प्रकोष्ठ एक ऐसी झिल्ली से घिरा था जो ठीक वैसी पाई गई जैसी एक अन्य कोशिकांग फैगोसोम (phagosome) के आसपास पाई जाती है। फैगोसोम का काम यह होता है कि वह एक अन्य कोशिकांग लायसोसोम (lysosome) से जुड़ जाता है और अनावश्यक कोशिकांगों को पचाने का काम करता है। शोधकर्ताओं ने इस संरचना को क्लेप्टोसोम (kleptosome) नाम दिया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/2f739d1cde63ff18/original/sea-slug.jpg?m=1751039137.919&w=900

वायरस बनने की राह पर एक सूक्ष्मजीव

क दो-चाबुकी (डायनोफ्लेजिलेट) जीव है सिथारिस्टिस रेजियस (Citharistes regius)। डायनोफ्लेजिलेट एककोशिकीय जीव होते हैं जो प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) करके अपना भोजन खुद बना सकते हैं। ये दो चाबुकनुमा तंतुओं से लैस होते हैं जो उन्हें चलने-फिरने में मदद करते हैं।

रोचक बात यह है कि त्सुकुबा विश्वविद्यालय के ताकरुप नाकायामा और उनके साथियों ने इस एककोशिकीय जीव के अंदर एक विचित्र परजीवी (parasite discovery) खोजा है। इसे सुकुमार्चियम नाम दिया है और अभी यह सिर्फ अपने जीनोम (genome sequencing) के आधार पर पहचाना गया है।

तो, जीनोम के विश्लेषण से वैज्ञानिकों ने बताया है कि यह एक परजीवी है जो अपने एककोशिकीय मेज़बान (host cell) को कुछ नहीं देता। सुकुमार्चियम में कुल मिलाकर 189 प्रोटीन बनाने वाले 189 जीन्स हैं। ये सभी सिर्फ एक काम पर केंद्रित हैं – अपने जीनोम की प्रतिलिपि बनाना (genetic replication)। इस काम को अंजाम देने के लिए बाकी सारी सामग्री यह अपने मेज़बान से लूटता है। और विचित्रताएं अभी बाकी हैं…

जैसे, इस सूक्ष्मजीव की जेनेटिक शृंखला का कुछ हिस्सा ऐसा है जैसे यह एक आर्किया जीव (archaea) हो। आर्किया बैक्टीरिया की अपेक्षा हमारे जैसे जटिल जीवों (complex life forms) की तरह अधिक होते हैं। लेकिन सुकुमार्चियम की जीवन शैली वायरस के काफी मिलती-जुलती है और लगता है कि यह वायरस और एक-कोशिकीय जीवों के बीच की कड़ी (virus evolution link) है।

दरअसल, सुकुमार्चियम की खोज संयोग से ही हुई थी। शोधकर्ता सिथारिस्टिस रेजियस के अंदर उपस्थित समस्त डीएनए का अनुक्रमण (DNA sequencing) करने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि यह तो पता ही था कि इसके अंदर सायनोबैक्टीरिया (cyanobacteria) पलते हैं। जब विश्लेषण किया तो स्वयं सिथारिस्टिस रेजियस और अपेक्षित बैक्टीरिया परजीवी के अलावा उन्हें डीएनए का अजीब-सा वृत्त मिला। इसमें मात्र 2 लाख 38 हज़ार क्षार जोड़ियां थीं, जिसकी लंबाई . कोली बैक्टीरिया के डीएनए (E. coli DNA) की मात्र 5 प्रतिशत थी। पहले लगा कि शायद यह प्रयोग के दौरान मिलावट का परिणाम होगा लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी जब वह बना रहा तो उन्हें मानना पड़ा कि यह एक नया जीव (new organism) है जो सिथारिस्टिस रेजियस के अंदर रहता है।

सुकुमार्चियम के पास चयापचय (metabolism) के लिए कोई जीन नहीं है, यानी यह शायद अमीनो एसिड (amino acids), प्रोटीन या न्यूक्लियोटाइड जैसे कोई अनिवार्य अणु नहीं बना पाता है। दरअसल, किसी वायरस की तरह यह अपनी प्रतिलिपि बनाने के अलावा बाकी हर काम के लिए मेज़बान पर आश्रित (host-dependent parasite) है।

तो क्या यह जीव वायरस बनने की राह पर है (virus evolution theory)? वायरस की उत्पत्ति के बारे में दो धारणाएं प्रचलित हैं। पहली, ये बैक्टीरिया वगैरह जैसे संपूर्ण कोशिका थे और धीरे-धीरे इनमें से रचनाएं व उनके बनने के लिए ज़िम्मेदार जीन्स कम होते गए और अंतत: सिर्फ वह हिस्सा बचा जो स्वयं की प्रतिलिपि बनाने में कारगर है। दूसरी, ये जीवों के विकास की शुरुआती अवस्था (primitive life form) हैं और धीरे-धीरे विभिन्न घटक जुड़ते जाएंगे। सुकुमार्चियम इस मार्ग पर कहीं है मगर किस दिशा में जा रहा है, स्पष्ट नहीं है। जब तक स्वतंत्र जीव नहीं मिलता तब तक कुछ कह नहीं सकते। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z7ekqxv/full/_20250611_on_mostviruslikeorganism-1750188390777.jpg

शार्क की प्रतिरक्षा प्रणाली का चौंकाने वाला आयाम

शार्क पिछले 40 करोड़ सालों से अस्तित्व में हैं। वे कई बड़े-बड़े संकटों से बची रही हैं और खुद को कई तरह की सुरक्षा क्षमताओं से लैस किया है। अब एक हालिया शोध से खुलासा हुआ है कि उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) में पैंक्रियास (अग्न्याशय) (pancreas) की भी अहम भूमिका है।

गौरतलब है कि इंसानों में पैंक्रियास का काम पाचन में मदद करना और रक्त शर्करा (blood sugar) नियंत्रित करना होता है, लेकिन दी जर्नल ऑफ इम्युनोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि नर्स शार्क (Ginglymostoma cirratum) इस अंग का इस्तेमाल एंटीबॉडी (antibodies) बनाने और विशेष प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells) को प्रशिक्षित करने के लिए करती है। आम तौर पर यह काम मनुष्यों में तिल्ली और लसिका ग्रंथियों जैसे अंगों में किया जाता है।

मैरीलैंड युनिवर्सिटी के शोधकर्ता थॉमस हिल और हेलेन डूली को शार्क के पैंक्रियास में ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं मिली हैं जो आम तौर पर शरीर के मुख्य प्रतिरक्षा अंगों (primary immune organs) में पाई जाती हैं। शार्क के पैंक्रियास न सिर्फ बी-कोशिकाओं का निर्माण करते हैं बल्कि श्वेत रक्त कोशिकाओं (white blood cells) को सूक्ष्मजीवी हमलों (microbial attacks) से लड़ने के लिए तैयार भी करते हैं।

शार्क में पैंक्रियास की प्रतिरक्षा भूमिका को परखने के लिए वैज्ञानिकों ने एक शार्क के शरीर में बाहरी संक्रामक डाले, और दूसरी शार्क को कोविड-19 टीका (COVID-19 vaccine) लगाया। कुछ हफ्तों बाद, शार्क के पैंक्रियास में उपरोक्त रोगजनक-विशिष्ट एंटीबॉडी मिलीं, जिससे साबित हुआ कि यह अंग सिर्फ साथ नहीं देता, बल्कि सीधे लड़ाई में शामिल होता है।

यह खोज इसलिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि शार्क में इंसानों के समान लसिका ग्रंथियां (lymph nodes) नहीं होती हैं, जो हमारे प्रतिरक्षा तंत्र का ज़रूरी हिस्सा होती हैं। इसका मतलब है कि समय के साथ उद्विकास ने शरीर के दूसरे अंगों को नए कामों के लिए ढाल लिया है, खासकर उन जीवों में जिनकी शरीर संरचना मनुष्यों से अलग है।

यह अध्ययन एक बड़ा सवाल उठाता है – क्या हमारे शरीर के दूसरे अंगों और अन्य जीवों में भी ऐसे गुप्त प्रतिरक्षा तंत्र (hidden immune functions) हो सकते हैं? क्या यह संभव है कि मनुष्यों का पैंक्रियास भी प्राचीन काल से कुछ प्रतिरक्षा भूमिकाएं निभाता आया हो? यह समझ शायद यह भी बता सके कि यह अंग सूजन (inflammatory diseases) जैसी बीमारियों (जैसे पैंक्रियाटाइटिस) (pancreatitis) के प्रति इतना संवेदनशील क्यों होता है।

बहरहाल, इस पर अभी अधिक अध्ययन (research) की ज़रूरत है। यह देखना चाहिए कि क्या शार्क में पैंक्रियास हमेशा प्रतिरक्षा के लिए तैनात रहता है? क्योंकि मनुष्यों में कभी-कभी गैर-प्रतिरक्षी अंग (non-immune organs) में भी प्रतिरक्षा कोशिकाएं मिलती हैं, खासकर पैंक्रियास में। साथ ही हमें देखना चाहिए कि शरीर के कौन-कौन से हिस्से प्रतिरक्षा प्रक्रिया (immune response)  में योगदान करते हैं। शायद हम प्रतिरक्षा प्रणाली के कई हिस्सों को अब तक नज़रअंदाज़ करते रहे हैं क्योंकि हमें लगा था कि हम सब कुछ जान चुके हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z6ht3u4/full/_20250616_on_nursesharks-1750187630430.jpg

यह जीव यूवी प्रकाश से भी बच निकलता है

त्यंत ऊर्जावान पराबैंगनी प्रकाश (यूवी-सी) (UV-C radiaton) इतना घातक होता है कि लगभग सारी कोशिकाओं को मार डालता है। इसी वजह से इसका इस्तेमाल अस्पतालों में विसंक्रमण (hospital disinfection) के लिए किया जाता है। लेकिन हाल ही में एस्ट्रोबायोलॉजी (Astrobiology) में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार एक जीव इतना सख्तजान है कि वह यूवी-सी को भी झेल जाता है।

यूवी-सी से बच निकलने वाला यह जीव एक लाइकेन (lichen) है। लाइकेन दरअसल मिश्रित जीव होते हैं और एक फफूंद (fungus) तथा एक शैवाल (algae) से मिलकर बनते हैं। लगता है कि इस मिश्र-जीव ने यूवी-सी का तोड़ निकाल लिया है।

डेज़र्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (Desert Research Institute) के खगोलजीव वैज्ञानिक (astrobiologist) हेनरी सन ने फील्ड वर्क के दौरान देखा था कि मोजावे के गर्म रेगिस्तान (Mojave desert) में एक लगभग काला-सा लाइकेन फल-फूल रहा था। सन ने अनुमान लगाया कि शायद इसका काला रंग (dark pigmentation), जो हरे पर हावी हो गया था, ही इसके रेगिस्तान में ज़िंदा रहने का राज़ है। इस लाइकेन क्लेवेसिडियम लेसिन्यूलेटम (Clavascidium lacinulatum) के नमूने प्रयोगशाला में लाकर अपने एक छात्र तेजिंदर सिंह को उसके अध्ययन में लगा दिया।

तेजिंदर सिंह ने पहले तो लाइकेन को सुखा दिया। इसके बाद उन्होंने लाइकेन को एक यूवी लैम्प (UV lamp) के नीचे रखा और उस पर विकिरण की बौछार की। लाइकेन ठीक-ठाक ही रहा। तब सिंह ने उस पर अत्यंत शक्तिशाली यूवी-सी बरसाया (लगभग उतना जितना मंगल पर उम्मीद की जा सकती है) (extreme UV-C exposure)। ऐसा ही यूवी-सी परीक्षण पृथ्वी पर पाए जाने वाले सर्वाधिक विकिरण रोधी बैक्टीरिया (डाईइनोकॉकस रेडियोड्यूरेन्स, Deinococcus radiodurans) (radiation-resistant bacteria) पर किया तो वह एक मिनट के अंदर मर गया था। यह मानकर चला जा रहा था कि लाइकेन कुछ घंटे या अधिक से अधिक कुछ दिन जी पाएगा। लेकिन तीन महीने तक परीक्षण करने के बाद जब वह नमूना निकाला गया तो उसमें मौजूद आधी से ज़्यादा शैवाल कोशिकाओं (algal cells) में से अंकुर फूटे और 2 सप्ताह में वहां बढ़िया हरी-भरी बस्ती तैयार हो गई। यानी इतने अत्याचार के बाद भी शैवाल में प्रजनन क्षमता (reproductive viability) मौजूद थी।

दिलचस्प बात थी कि यह प्रयोग सिर्फ लाइकेन के साबुत नमूने (intact lichen samples) पर ही सफल रहा। यही प्रयोग जब फफूंद के बगैर शैवाल कोशिकाओं की एक मोटी परत पर किया गया तो वे चंद मिनटों में मर गई। अर्थात ऊपरी परत की कोशिकाएं अन्य कोशिकाओं को मात्र विकिरण से सुरक्षा (radiation shielding) नहीं दे रही थीं।

लाइकेन की इस जीजिविषा (survivability) का कारण जानने के लिए सन की टीम ने रसायनज्ञों की मदद से लाइकेन में यूवी-अवशोषक पदार्थों (UV-absorbing compounds) की पहचान की। ये रसायन लाइकेन को यूवी से सुरक्षा देते हैं। लेकिन एक सवाल बना रहा कि ये रसायन इस लाइकेन में बनना ही क्यों शुरू हुए। सवाल इसलिए था क्योंकि पृथ्वी की ओज़ोन परत (ozone layer) करीब 50 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई मानी जाती है। यानी लाइकेन्स के उद्भव (lichen evolution) से काफी पहले ओज़ोन परत अस्तित्व में आ चुकी थी और पृथ्वी पर यूवी का आपतन बहुत कम रह गया था। तो यूवी से सुरक्षा की यह व्यवस्था क्यों बनी होगी?

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि लाइकेन्स में यह व्यवस्था खुद को स्वयं पृथ्वी के वातावरण से सुरक्षित रखने के लिए बनी होगी क्योंकि एक समय पर वनस्पतियों के फैलाव की वजह से वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी थी। ऑक्सीजन सजीवों के लिए अनिवार्य तो है लेकिन यह ऐसे क्रियाशील अणु (reactive molecules) पैदा कर सकती है जो डीएनए को नुकसान (DNA damage) पहुंचाते हैं।

इसी प्रयोग में एक और रोचक बात पता चली। ये सुरक्षात्मक रसायन (protective chemicals) लाइकेन के अंदरुनी भाग में नहीं बल्कि उसकी ऊपरी सतह (outer surface) पर जमा हो जाते हैं, ठीक सनस्क्रीन (natural sunscreen) की तरह। कई शोधकर्ता लाइकेन की इस खूबी के उपयोग की बात कर रहे हैं। अलबत्ता, मनुष्य के लिए उपयोगी हो न हो, लाइकेन के लिए तो यह सुरक्षा व्यवस्था (UV defense) उपयोगी है ही। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://lichenportal.org/imglib/lichens/Sharnoff_FieldObs/Clavascidium-lacinulatu/Clavascidium-lacinulatum_5_Sharnoff_1005_15.jpg

नौ भुजा वाला ऑक्टोपस

वैज्ञानिकों को यह तो काफी पहले से पता था कि यदि ऑक्टोपस की एक भुजा घायल हो जाए तो उनका यह उपांग दो शाखाओं में विभाजित हो जाता है और एक नई भुजा विकसित होती है (octopus limb regeneration)। अलबत्ता यह पता नहीं था कि यह नौवीं भुजा कितनी कामकाजी होती है और ऑक्टोपस क्षतिग्रस्त भुजा के साथ काम चलाना कैसे सीखता (octopus behavior after injury) है।

अब वैज्ञानिकों ने पहली बार प्राकृवास (natural habitat) में ऑक्टोपस का अध्ययन कर न सिर्फ टूटी हुई भुजा को फिर से विकसित होते देखा है बल्कि उसमें संवेदनशीलता का विकास भी देखा (octopus sensory recovery) है।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने स्पैनिश द्वीप इबीसा (Ibiza) के तट पर एक युवा ऑक्टोपस (Octopus vulgaris) को देखा, जिस पर शिकारी ने हमला किया था और उसकी आठ में से पांच भुजाएं घायल (octopus injury in wild) हो गई थीं। हालांकि, अधिकांश भुजाएं तो ठीक हो गईं, लेकिन सामने की दाहिनी भुजा दो हिस्सों में बंट गई, जिससे उसके पास नौ भुजाएं (nine arms in octopus) हो गईं।

शुरुआत में, ऑक्टोपस ने दर्द की वजह से घायल भुजा का इस्तेमाल शिकार (hunting behavior) जैसे खतरनाक कामों में नहीं किया। उसकी बजाय पास की दूसरी भुजा ने काम संभाला, जिससे पता चलता है कि घायल भुजा की सुरक्षा के लिए वे अपना व्यवहार कैसे बदलते (adaptive behavior in octopus) हैं।

लेकिन समय के साथ एक विचित्र चीज़ देखी गई। इस टूटी भुजा की दोनों शाखाएं मज़बूत होने लगीं और जटिल, जोखिमपूर्ण काम करने लगीं, जैसे चीज़ों को छूना और शिकार पकड़ना (prey capture with regrown arm)। यह बदलाव ऑक्टोपस के लचीलेपन (behavioral flexibility) को बखूबी उजागर करता है; न सिर्फ शरीर बल्कि उसके व्यवहार के लचीलेपन को भी। ऑक्टोपस की भुजाएं कुछ हद तक मस्तिष्क से स्वतंत्र (octopus decentralized nervous system) काम करती है, यानी ये मस्तिष्क के दखल के बिना संवेदी प्रतिक्रिया देने में सक्षम होती हैं। एनिमल पत्रिका (animal journal) में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि यह व्यवहार उसकी नव-निर्मित नौवीं भुजा में भी नज़र आया जब वह स्वस्थ होकर नए-नए काम करने लगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/ApdEJogWFE9gTeogHodjri.jpg

पैंगोलिन पर प्रमुख खतरा

पैंगोलिन दुनिया के इकलौते स्तनधारी जीव हैं जिनके शरीर पर सुरक्षात्मक कवच (pangolin with scales) होता है। लेकिन दुर्भाग्य से इनकी आबादी बहुत तेज़ी से कम हो रही है। इसके लिए इनकी खाल की अवैध तस्करी (illegal pangolin trade) को दोष दिया जाता है, लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि नाइजीरिया के क्रॉस रिवर जंगलों में इनकी संख्या घटने की वजह कुछ और है – इनके मांस के लिए स्थानीय लोगों द्वारा शिकार (pangolin meat hunting)।

कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने 3 साल तक 33 गांवों में 800 से ज़्यादा शिकारियों और व्यापारियों से बातचीत में पाया कि हर साल करीब 21,000 पैंगोलिन मारे जाते हैं। हैरानी की बात यह है कि ज़्यादातर पैंगोलिन का शिकार इरादतन नहीं होता, बल्कि खेतों में काम करते समय ये अचानक मिल जाते हैं और मारे जाते हैं या जाल में फंस जाते हैं। चिंताजनक बात यह है कि अन्य शिकारी जीवों से बचाव की पैंगोलिन की रणनीति – सिकुड़कर गोल गेंदनुमा (pangolin defense mechanism) बन जाना – मनुष्यों के लिए इन्हें पकड़ना आसान बना देती है।

इस शोध से पता चला है कि पैंगोलिन के शिकार की सबसे बड़ी वजह है उसका मांस (pangolin meat consumption)। पकड़े गए करीब तीन-चौथाई पैंगोलिन शिकारी खुद खाते हैं और बाकी को स्थानीय बाज़ारों (local wildlife markets, bushmeat in Nigeria) में बेच देते हैं। इसके उलट, उनकी खाल या तो फेंक दी जाती है या बहुत कम कीमत पर बिकती है। इसकी तुलना में मांस से तीन-चार गुना अधिक कमाई होती है।

असल में, स्थानीय इलाकों में पैंगोलिन का मांस बीफ या चिकन से भी अधिक स्वादिष्ट (pangolin meat preference over beef) माना जाता है। कुछ पारंपरिक मान्यताएं तो इसे गर्भवती महिलाओं के लिए फायदेमंद भी मानती हैं, ताकि बच्चा स्वस्थ हो। ऐसी सांस्कृतिक मान्यताओं के चलते शिकार और इन जानवरों की धीमी प्रजनन दर (pangolin reproduction rate) मिलकर इनकी संख्या दोबारा बढ़ने नहीं देती। ऊपर से, तेज़ी से हो रही जंगलों की कटाई और खेती की वजह से पैंगोलिन का प्राकृतवास खत्म (pangolin habitat loss) होता जा रहा है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि इस संकट से निपटने के लिए सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय नियमों से काम नहीं चलेगा, स्थानीय स्तर (community-based conservation) पर भी ठोस कदम उठाने होंगे। इनमें शामिल हैं: गांवों में मज़बूत निगरानी दल, स्थानीय रूप से लागू वन्यजीव सुरक्षा कानून, और ऐसी योजनाएं जो लोगों की जंगली जानवरों के शिकार से हासिल मांस पर निर्भरता घटाएं (wildlife protection laws) ।

प्रोफेसर एंड्रयू बामफोर्ड के अनुसार जब तक लोगों के व्यवहार का कारण (understanding local hunting behavior) नहीं समझा जाता, तब तक कोई कारगर संरक्षण योजना नहीं बन सकती। साथ ही संरक्षण के प्रयासों में सहभागिता के लिए ज़रूरी है कि स्थानीय लोग पैंगोलिन के पारिस्थितिकी महत्व को समझें (ecological role of pangolins)।

अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता डॉ. चार्ल्स एमोगोर ‘पैंगोलिनो’ (Pangolino) नामक एक स्थानीय संगठन चलाते हैं जो ऐसी ही एक पहल कर रहा है। उनका कहना है कि यदि हमने पैंगोलिन को खो दिया तो हम जैव विकास की 8 करोड़ साल पुरानी धरोहर (evolutionary significance of pangolins, pangolin extinction threat) खो देंगे। ये एकमात्र शल्कधारी स्तनधारी हैं और इनके पूर्वज डायनासौर के समकालीन थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/d/d5/Pangolin_brought_to_the_Range_office%2C_KMTR_AJTJ_cropped.jpg/1200px-Pangolin_brought_to_the_Range_office%2C_KMTR_AJTJ_cropped.jpg