बाघ, तेंदुआ, कुत्ता, बिल्ली जैसे बड़े-बड़े जानवर अपना इलाका बांधते हैं (animal territorial behavior)। यानी वे कुछ संकेतों के ज़रिए अपना अधिकार क्षेत्र चिंहित करते हैं। इस इलाके के संसाधनों, खासकर मादाओं, पर उनका अधिकार होता है। और, इलाके में अतिक्रमण की कोशिश हो तो चेतावनियों से लेकर मुठभेड़ तक की स्थिति बन सकती है (animal conflict over territory)।
लेकिन क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि 2 मिलीमीटर छोटी वार्टी बर्च इल्ली (caterpillar territorial behavior) भी इलाका बांधती होगा। जी हां, इतनी छोटी-सी इल्ली 1 सेंटीमीटर लंबी जगह का इलाका बांधती है।
उत्तरी अमेरिका में दो-धारियों वाली एक पतंगा मादा (Falcaria bilineata) सनोबर की टहनियों और पत्तियों पर अपने अंडे देती है। जब अंडे फूटते हैं तो इनसे निकलने वाली इल्ली (वार्टी बर्च कैटरपिलर) तुरंत ही करीब की पत्तियों की नोंक पर चली जाती हैं। वैज्ञानिकों ने काफी समय से इल्लियों के इस व्यवहार के अलावा एक और व्यवहार पर गौर किया था – ये इल्लियां पत्तियों पर कम्पन (caterpillar vibration signals) करती हैं। इस व्यवहार को देखकर लगा कि संभवत: यह इलाका बांधने का संकेत है।
अनुमान की जांच करने के लिए कार्लटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने कुछ वार्टी बर्च इल्लियों को पकड़कर प्रयोगशाला में यह देखने के लिए जमाया कि यदि किसी पत्ती पर कोई वार्टी बर्च इल्ली पहले से है और उसी प्रजाति की दूसरी इल्ली आती है तो पहले से बैठी इल्ली क्या प्रतिक्रिया देती है? उन्होंने पाया कि जब कोई घुसपैठिया इल्ली आती है तो पहली इल्ली अधिक ज़ोर-ज़ोर से कम्पन करना शुरू कर देती है। वह अपने शरीर को पत्ती पर ठोंककर आवाज़ पैदा करती है और अपने शरीर को पत्ती पर रगड़ती (insect communication through vibration) है। यह ध्वनि इस बात का संकेत होती है कि यह इलाका आरक्षित है, कहीं और चले जाओ। यदि घुसपैठिया इल्ली फिर भी आगे बढ़ती है तो कम्पन पहले से भी 14 गुना तेज़ी से होने लगते हैं।
जर्नलऑफएक्सपेरीमेंटलबायोलॉजी(Journal of Experimental Biology) में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि इन कम्पनों से उन्हें अपना छोटा-सा इलाका बचाए रखने में मदद मिलती है; 71 प्रतिशत मामलों में इल्लियां इस तरह अपना इलाका महफूज़ रख पाईं लेकिन जिन मामलों में घुसपैठिया इल्ली हावी हुई तो देखा गया कि निवासी इल्ली रेशम के धागे के सहारे पत्ती से नीचे कूद गई।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इल्ली पत्ती के सिरे पर इसलिए जाती हैं क्योंकि पत्ती की नोंक लचीली होती है जिसके चलते कम्पन को बढ़ाने में मदद (leaf tip flexibility vibration) मिलती है, और जान पर आने के समय रेशमी धागे के सहारे कूदना भी आसान है ही। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zlqn93b/abs/_20250404_on_baby-caterpillar-sounds_v1.jpg
अमूमन प्रतिरक्षा कोशिकाएं शरीर को संक्रमण से बचाने का काम करती हैं, लेकिन रेग्युलेटरी टी कोशिकाओं (ट्रेग्स) का काम एक तरह से सामंजस्य की स्थिति बनाए रखना होता है — ये सूजन कम करती हैं, घाव भरने में मदद करती हैं (immune system regulation) और प्रतिरक्षा तंत्र को स्वयं अपने शरीर के विरुद्ध काम करने से रोकती (autoimmune response control) हैं। और अब, वैज्ञानिकों ने पाया है कि कुछ ट्रेग्स कोशिकाएं दर्द भी कम कर सकती (pain modulation by Tregs) हैं, हालांकि यह असर केवल मादा चूहों में देखा गया है।
साइंस(science) पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ता यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि ट्रेग्स दर्द को कैसे प्रभावित करती हैं। उन्होंने मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी को ढंकने वाली सुरक्षा झिल्लियों (मेनिन्जेस)( meninges Tregs study) में मौजूद ट्रेग्स पर ध्यान दिया, जहां ये कोशिकाएं सामान्य से कहीं ज़्यादा पाई जाती हैं।
परीक्षण के लिए उन्होंने ऐसे चूहे तैयार किए जिनमें इन खास ट्रेग्स को एक बैक्टीरिया विष के माध्यम से खत्म किया जा सकता था। जब मादा चूहों से ट्रेग्स हटाईं गईं, तो उनकी यांत्रिक दर्द (जैसे दबाने या छूने से होने वाला दर्द) (mechanical pain sensitivity) के प्रति संवेदनशीलता बढ़ गई। लेकिन नर चूहों में ऐसा कोई असर नहीं देखा गया। हालांकि ट्रेग्स ने गर्मी या ठंड से जुड़ी दर्द की संवेदनशीलता (thermal pain response) पर कोई असर नहीं डाला – न मादा में और न ही नर में।
दिलचस्प बात यह है कि जब वैज्ञानिकों ने IL-2 नामक एक प्रोटीन के ज़रिए ट्रेग्स कोशिकाओं की संख्या बढ़ाई तो चोटिल मादा चूहों में दर्द पर प्रतिक्रिया बेहतर हो गई – यानी दर्द कम महसूस हुआ (IL-2 Treg pain relief)। लेकिन जब मादा हार्मोन (जैसे एस्ट्रोजन) को बाधित कर दिया गया अथवा अंडाशय को हटा दिया गया तो IL-2 का असर नहीं हुआ। इससे साफ है कि ट्रेग्स कोशिकाएं दर्द से राहत देने का अपना काम मादा हार्मोन, खास तौर पर एस्ट्रोजन (estrogen and pain regulation), की मदद से करती हैं।
इतना ही नहीं, ट्रेग्स कोशिकाएं दर्द कम करने के लिए सिर्फ सूजन रोकने के ज़रिए काम नहीं करतीं बल्कि सीधे तंत्रिका कोशिकाओं पर असर डालती हैं (Tregs direct neuron effect)। ये एंकेफेलिन्स नामक प्राकृतिक दर्दनाशक अणु छोड़ती (natural painkillers enkephalins) हैं, जो तंत्रिका कोशिकाओं के दर्दरोधी ग्राहियों को सक्रिय करके दर्द की तीव्रता कम कर देते हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि महिलाओं और जेंडर पुष्टि देखभाल (जेंडर अफर्मिंग केयर) ले रहे लोगों के लिए दर्द की समस्या ज़्यादा होती है (pain management in gender-affirming care)। उनके संदर्भ में यह खोज महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। कई शोधकर्ता आत्म-प्रतिरक्षा रोगों के लिए ट्रेग कोशिकाओं की संख्या बढ़ाने पर कार्य कर रहे हैं। उसमें दर्द प्रबंधन के दृष्टिकोण को जोड़ना मददगार हो सकता है (Treg therapy for autoimmune diseases)।
अलबत्ता, इस राह में कई चुनौतियां हैं – मनुष्यों के मस्तिष्क और रीढ़ की झिल्ली तक ट्रेग्स को सही-सलामत पहुंचाना आसान नहीं होगा (Treg delivery challenges in humans)। लेकिन ऐसा लगता है कि आत्म-प्रतिरक्षा रोगों के इलाज में इस्तेमाल हो रहा प्रतिरक्षा-वृद्धि उपचार इस राह को आसान कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zwu1935/full/_20250403_on_pain_in_mice_lede-1743709754117.jpg
प्रकृति के रहस्यों में फूल और तितलियों का सामंजस्य किसी से नहीं छिपा है। लेकिन मनुष्य सहित उनके अनेक प्राकृतिक दुश्मन हैं; जैसे कीट, पक्षी, छिपकलियां आदि। 2006 में ब्रिटिश काउंसिल द्वारा निर्मित, सोन्या वी. कपूर द्वारा निर्देशित प्रसिद्ध डाक्यूमेंटरी फिल्म ‘वन्स देयर वाज़ ए पर्पल बटरफ्लाई’ में इनके अवैध व्यापार (illegal butterfly trade) को दर्शाया गया है। तितलियों की कई प्रजातियों को भारत से चीन, ताइवान और कई अन्य देशों में तस्करी (butterfly smuggling), अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों (international wildlife market) में सजावट और अन्य सजावटी मूल्य के लिए जीवित या मृत ले जाया जाता है।
तितलियां फूलों से भले ही रसपान करती हैं, पर उनकी मौजूदगी कभी भी फूलों की सुंदरता को नष्ट नहीं करतीं। यह मनुष्य के लिए एक बड़ा सबक होना चाहिए।
तितलियां जब एक फूल से दूसरे फूल पर विचरण करती हैं, तो वे अपने नन्ही-नन्ही टांगों तथा अपनी छोटी-सी सूंड पर फूलों के कुछ परागकण समेटकर दूसरे फूल पर ले जाती हैं। इससे पेड़-पौधों में प्रजनन शुरू होता है। परागकणों को एक से दूसरे फूल तक पहुंचाकर तितलियां कई वनस्पतियों, खास कर गाजर, सूरजमुखी, फलियों और पुदीना आदि के पौधों में फूलों से फल बनने की प्रक्रिया (pollination process) में सहायता करती हैं; अर्थात हमारी भोजन की थाली में बहुत सारी हरी-भरी सब्ज़ियों (vegetable pollination) को पहुंचाने में मदद करती हैं, जिन्हें हम अनदेखा करते हैं। अर्थशास्त्रियों ने इन सभी परागणकर्ताओं की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं (ecosystem services by pollinators) का मूल्यांकन लगभग 235-577 अरब अमेरिकी डॉलर आंका है। धीरे-धीरे अब इन पौधों और परागण करने वाले जीवों का आपसी सम्बंध टूटने से जैव-विविधता (biodiversity loss) और खेती पर बुरा असर पड़ने लगा है। समय आ गया है कि तितलियों की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए उनकी सराहना और समर्थन किया जाए।
तितलियों की समृद्ध पारिस्थितिकी के लिए पर्यावरणीय कारकों, जैसे नमी, तापमान और उनकी इल्लियों के लिए पोषक पौधों की उपलब्धता ज़रूरी है। चूंकि तितलियां विशिष्ट पौधों पर ही अंडे देती हैं, इनके लिए घरों की छतों पर या बागवानी वाली जगह (butterfly gardening) पर सुगंधित, मीठे, रंग-बिरंगे फूलों वाले पौधे लगाए जा सकते हैं। एक टिकाऊ तितली उद्यान (butterfly habitat garden) बनाने के लिए दो प्रकार के पौधे लगाए जा सकते हैं: (1) पोषक पौधे – पीले सूरजमुखी, ब्लैक-आइड सुसान, गोल्डनरॉड्स, गुलाबी जो-पाई वीड, फायरवीड, रेड बी बाम/बर्गमोट, मेक्सिकन सूरजमुखी, बैंगनी कोनफ्लॉवर, वर्बेना, जंगली एस्टर्स, आयरनवीड, लंबा बुडालिया जैसे पौधे तितलियों को पसंद आने वाले रंगों से भरपूर पौधे होते हैं, जिन पर तितलियां अंडे देती हैं, तथा वे उनकी इल्लियों (कैटरपिलर) के लिए भोजन का काम करते हैं, तथा (2) मकरंद पौधे – ये वयस्क तितलियों के लिए भोजन का काम करते हैं। तितलियां खुली धूप वाली जगह पसंद करती हैं, हवादार जगह पर उन्हें हवा से बचाने के लिए जितना सम्भव हो सके प्रयास करना चाहिए। हालांकि तितलियों को पानी पीने के लिए कीचड़-भरी जगह पसंद होती है, लेकिन एक उथला कटोरा और उसके चारों तरफ पानी में भीगा स्पंज रखने से उनके नाज़ुक शरीर के उतरने में मदद होती है। झुंड को बुलाने के लिए बगीचे में गीली रेत का कटोरा रखा या मिट्टी का पोखर (mud puddling zone for butterflies) भी बनाया जा सकता है।
इनकी आबादी और विविधता को संरक्षित (butterfly conservation) करने के लिए भारत के कई राज्यों में तितली पार्कों (butterfly parks in India) की स्थापना की गई है। पर कुछ ही स्थानों पर इनका संरक्षण करना जैव विविधता को बढ़ावा नहीं देगा, इसके लिए सभी के प्रयास की ज़रूरत होगी।
कई लोग तितलियों को सजावट और सजावटी सामानों के रूप में बड़े पैमाने पर दीवारों पर, कागज़ों पर सजाते हैं, और इनका अन्य तरह से इस्तेमाल भी किया जाता है। कई देशों में रात में शादी समारोह (wedding butterfly release) में बड़ी संख्या में तितलियां छोड़ी जाती हैं। शोरगुल वाले माहौल में वे उड़ नहीं पाती हैं, और मर जाती हैं। हमें अपना व्यवहार बदलने की ज़़रूरत है।
यहां यह बता देना लाज़मी है कि परागण की विशेषज्ञ होने के साथ-साथ तितलियां जैव-संकेतक (bioindicators of ecosystem health) हैं, और पारिस्थितिकी तंत्र में होने वाले मामूली और छोटे-छोटे बदलावों को भांपकर संकेत दे सकती हैं। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.fs.usda.gov/wildflowers/pollinators/animals/images/checkerspot_echinacea_lg.jpg
हमारे समाज में सेलिब्रिटी (celebrity) उस हस्ती या शख्स को कहा जाता है जो प्रतिष्ठित हो। जिसे अभिनय, राजनीति, फैशन, खेल या संगीत जैसे किसी क्षेत्र में विशेष रुतबा हासिल हो। इन ख्याति प्राप्त लोगों की एक ब्रांड वैल्यू (brand value) होती है। सेलिब्रिटी के द्वारा विज्ञापित उपभोक्ता सामग्री लोग खरीदते हैं। वे क्या करते हैं? क्या पहनते हैं? उनके घर में कौन सा पंखा या वॉटर प्यूरीफायर है? इन सबकी देखा-देखी लोग शॉपिंग करते हैं, इनकी कहा-कही में आकर युवा अपनी ज़ुबां केसरिया करते हैं।
लेकिन, यहां हम जिन सेलिब्रिटीज़ की बात करने जा रहे हैं वे इनसे बिलकुल अलग हैं। ये खुद अपना गुणगान नहीं करते, किंतु उन पर किए गए शोध कार्यों ने मानव स्वास्थ्य (human health), आनुवंशिक बीमारियों (genetic disorders) और वृद्धावस्था पर महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई है। हमारे शरीर में जीन्स कैसे काम करते हैं, उनके होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है? यह सब जानकारी हमें इन्हीं से पता चली है।
दरअसल, कुछ ऐसे प्रयोग भी होते हैं जो नैतिक रूप (ethical issues in research) से इंसानों पर नहीं किए जा सकते। और, हमारे शरीर की जटिलता, लंबा जीवनकाल, बहुत बड़ा जीनोम (human genome complexity) आदि के कारण ये प्रयोग मनुष्य पर करना संभव भी नहीं है। इसलिए ऐसे महत्वपूर्ण प्रयोग इन मॉडल जीवों पर किए जाते हैं।
तो, मॉडल जीव (model organisms) उन्हें कहते हैं जिनका उपयोग आनुवंशिकी, विकास और अन्य जैविक प्रक्रियाओं को समझने के लिए किया जाता है। किसी भी जीव को मॉडल के रूप में चुनते समय शोधकर्ता उनकी स्थिरता, छोटा जीवन चक्र और जीनोम (gene expression) में संसाधनों की उपलब्धि जैसी बातों पर विचार (life cycle research) करते हैं।
फलमक्खी (Drosophila melanogaster), गोलकृमि (Caenorhabditis elegans), घरेलू चूहा (Mus musculus), न्यूरोस्पोरा (Neurospora), एग्रोबैक्टीरियमट्यूमिफेशियंस (Agrobacterium tumefaciens), एसिटेबुलरिया (Acetabularia), हाइड्रा (hydra), बेकर्स यीस्ट (Saccharomyces cerevisiae), माउस ईयर क्रेस (Arabidopsis thaliana) ऐसे ही कुछ मॉडल जीव हैं जिन पर पिछले कई वर्षों से अनुसंधान किया जा रहा है।
हाइड्राकेबारेमें
जीव विज्ञान में हाइड्रा को अमर (immortal hydra) कहा गया है यानी जो कभी नहीं मरता। इसे हाइड्रा नाम प्रसिद्ध जीव विज्ञानी कार्ल लीनियस (carl linnaeus) ने दिया था। दरअसल यह नाम ग्रीक मायथॉलॉजी में वर्णित एक सर्प के रूप और गुणों पर आधार पर दिया था जिसके नौ सिर थे और एक सिर काटने (regeneration in hydra) पर उसके स्थान पर फिर दो सिर उग जाते थे। अर्थात उसमें पुनर्जनन की गज़ब की क्षमता थी। ऐसी ही क्षमता हाइड्रा में भी है, इसके भी दो टुकड़े कर दो तो दोनों टुकड़ों से नए हाइड्रा बन जाते हैं।
हाइड्रा मीठे पानी का एक अकशेरुकी (freshwater invertebrate) मांसाहारी जीव है। यह एक छोटे ताड़ के पेड़ की तरह दिखता है। पूरा शरीर बेलनाकार नलीलुमा होता है। इसमें एक आधार डिस्क (पैर) होती है, जिससे यह किसी आधार पर चिपका रहता है। डिस्क में ग्रंथि कोशिकाएं होती हैं जो चिपचिपा पदार्थ स्रावित करती हैं। नलीनुमा शरीर के स्वतंत्र सिरे पर एक छिद्र मुंह होता है जो मुंह और गुदा दोनों का काम करता है। यह 4 से लेकर 12 तक संवेदी टेंटेकल्स (hydra tentacles) से घिरा रहता है।
हाइड्रा एक डिप्लोब्लास्टिक जीव (diploblastic animals) है अर्थात इसका शरीर दो परतों से बना होता है। बाहरी परत को एपिडर्मिस (epidermis) कहते हैं, और अंदर की परत गैस्ट्रोडर्मिस (gastrodermis) कहलाती है, यह पेट की आंतरिक सतह होती है। हाइड्रा का पूरा शरीर 50,000 से लेकर 10 लाख कोशिकाओं (hydra cell count) का बना होता है।
हाइड्रा में प्रजनन मुख्य रूप से मुकुलन (budding in hydra) द्वारा होता है। इस प्रक्रिया में हाइड्रा के शरीर पर एक कलिका बनती है और धीरे-धीरे यह कलिका बढ़ने के बाद अलग होकर एक नया हाइड्रा बनती है। इसे वर्धी प्रजनन (asexual reproduction) कहते हैं। अलबत्ता, कतिपय परिस्थितियों में हाइड्रा में लैंगिक प्रजनन (sexual reproduction) भी होता है।
हाइड्रा: एकमॉडलजीव
हाइड्रा के आणविक और कोशिकीय जीव विज्ञान पर कार्य करने वाली प्रोफेसर सेलिना जूलियानो का कहना है कि जहां तक हम जानते हैं यह जीव ना तो बूढ़ा होता है और ना ही मरता है। आप इसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दीजिए और उन टुकडों से पूरा नया जीव बन जाता है। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि यदि हाइड्रा को एक-एक कोशिका में (cellular regeneration) विभाजित कर दें, और उनको मिलाकर एक गेंद बना दें, तो फिर से एक नया हाइड्रा निकल आएगा। इसकी यही क्षमता उपचार और बुढ़ापे (aging research) के अध्ययन के लिए इसे एक आदर्श मॉडल जीव बनाती है।
पेड़-पौधों में तो ऐसा होता ही रहता है (plant regeneration)। गुलाब की कलम से एक नया गुलाब का पौधा तैयार हो जाता है। हालांकि पेड़-पौधों में पाया जाने वाला पुनर्जनन का यह गुण हम मनुष्यों में नहीं पाया जाता। पर अगर आ जाए तो कितना बढ़िया होगा; कटे हुए हाथ की जगह नया हाथ, और दुर्घटना में खोई हुई टांग की जगह नई टांग!
यह कोई खाम-ख्याली नहीं है। प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों ने लीवर के टुकड़े (liver regeneration) से पूरा लीवर फिर से बना लिया है, त्वचा को भी उगा (skin regeneration) लिया है। बस कुछ और काम बाकी हैं जो हाइड्रा पर अनुसंधान की मदद से और उसकी पुनर्जनन क्षमता (regenerative medicine research) की बेहतर समझ से जल्दी ही पूरे हो जाएंगे।
जूलियानो द्वारा हाइड्रा की प्रत्येक प्रकार की कोशिका में अभिव्यक्त जीन्स (gene expression) को सटीक रूप से पहचान लिया गया है, उनके कार्यों के बारे में जानकारी जुटा ली गई है। आजकल इस जीन अभिव्यक्ति को बेहतर ढंग से नियंत्रित करने के लिए औज़ार भी विकसित किए जा रहे हैं।
बुढ़ाने पर काम करने वाले डेनियल मार्टीनेज़ ने 1998 में एक्सपेरिमेंटलजेरेन्टोलॉजी नामक एक शोध पत्रिका में दावा किया था कि हाइड्रा जैविक रूप से अमर है। हाइड्रा की स्टेम कोशिकाओं (hydra stem cells) में अनिश्चितकाल तक स्व-नवीनीकरण की क्षमता होती है। और लगातार स्व-नवीनीकरण करने में प्रतिलेखन (transcription) कारक “फोर्कहेड बॉक्स-ओ” यानी फॉक्स-ओ की भूमिका होती है।।
द्विपक्षीय सममिति (bilateral symmetry) वाले जीवों, जैसे फल मक्खियों और कृमि मॉडलों, में यदि इस प्रतिलेखन कारक को हटा दिया जाए तो उनका जीवनकाल काफी कम हो जाता है। हाइड्रा वल्गैरिस (hydra vulgaris studies) एक चक्रीय सममिति वाला जीव है। प्रयोग द्वारा देखा गया है कि जब फॉक्स-ओ (FOXO in lifespan) के स्तर में कमी आती है तो हाइड्रा की कई प्रमुख विशेषताओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है लेकिन फिर भी उसकी मृत्यु नहीं होती।
हाइड्रा और जंतु जगत के हमारे अनेक नन्हे रिश्तेदार वैज्ञानिक अनुसंधान (future of regenerative biology) में बड़ा योगदान दे रहे हैं और जीवन के बारे में बड़े-बड़े सवालों के जवाब खोजने में हमारी मदद कर रहे हैं। इनकी बदौलत वह दिन दूर नहीं जब हम भी हाइड्रा की तरह हाथ पैर उगाने लगेंगे (biological innovation)। और हो सकता है कि हमें बुढ़ापा (anti-aging research) न सताए! (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/2/25/Hydra-Foto.jpg https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/2/2f/Hydra_Budding.svg/800px-Hydra_Budding.svg.png
मधुमक्खियां (honey bees) परागण (pollination) और शहद उत्पादन (honey production) में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए जानी जाती हैं। लेकिन इटली स्थित जानूट्री (Giannutri Island) नामक एक छोटे द्वीप में हुए हालिया अध्ययन से पता चला है कि मधुमक्खियों की मौजूदगी जंगली परागणकर्ताओं (wild pollinators) के लिए नुकसानदायक हो सकती है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि जब मधुमक्खियों को थोड़े समय के लिए उनके छत्तों (beehives) में ही रोक कर रखा गया तो जंगली परागणकर्ताओं की संख्या में तो वृद्धि हुई ही, साथ ही उन्होंने अधिक मकरंद (nectar) और पराग (pollen) भी एकत्र किया। करंट बायोलॉजी (Current Biology Journal) में प्रकाशित यह अध्ययन संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र (ecosystem) में कॉलोनी बनाने वाली मधुमक्खियों की जंगली परागणकर्ताओं के साथ बढ़ती प्रतिस्पर्धा (competition) को लेकर चिंता व्यक्त करता है।
इस प्रयोग को यूनिवर्सिटी ऑफ पीसा (University of Pisa) और यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरेंस (University of Florence) के वैज्ञानिकों ने अंजाम दिया। जानूट्री द्वीप टस्कन तट (Tuscan coast) के पास स्थित है और विरल आबादी वाला है। वर्ष 2018 में वैज्ञानिकों और पार्क अधिकारियों ने स्थानीय परागणकर्ताओं पर पालतू मधुमक्खियों (domesticated bees) के प्रभाव को समझने के लिए यहां मधुमक्खी के 18 कृत्रिम छत्ते लगाए थे।
2021 से 2024 के बीच फरवरी से अप्रैल तक, वैज्ञानिकों ने जंगली मधुमक्खियों की दो प्रजातियों – बफ टेल्ड बम्बलबी (Buff-tailed bumblebee, Bombus terrestris) और एक सॉलिटरी बी (Solitary bee, Anthophora dispar) पर नज़र रखी। उपलब्ध मकरंद एवं पराग की मात्रा के आधार पर उन्होंने यह पता लगाने का प्रयास किया कि कितनी जंगली और कितनी पालतू मधुमक्खियां फूलों पर जा रही हैं।
शोधकर्ताओं ने हर साल मधुमक्खी के 18 छत्तों को कुछ दिनों के लिए बंद किया। इससे उन्हें यह देखने का मौका मिला कि जब मधुमक्खियां अनुपस्थित थीं तब पर्यावरण में क्या बदलाव हुए। पाया गया कि मधुमक्खियों की अनुपस्थिति में जंगली परागणकर्ता काफी फले-फूले। मधुमक्खियों को छत्तों में रोकने पर कुछ महत्वपूर्ण बदलाव दिखे: फूलों में 60 प्रतिशत अधिक मकरंद (increased nectar availability) पाया गया; पराग की मात्रा में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई; जंगली परागणकर्ता अधिक संख्या में दिखाई दिए और उन्होंने फूलों पर अधिक समय बिताया; प्रतिस्पर्धा न होने के कारण जंगली परागणकर्ताओं को मकरंद और पराग आसानी से मिला।
दरअसल, मधुमक्खियां भोजन के स्रोतों का पता लगाकर कॉलोनी की अन्य मधुमक्खियों को उसकी जानकारी देती हैं, जिससे वे जल्दी पहुंचकर मकरंद और पराग खत्म कर देती हैं। दूसरी ओर, जंगली परागणकर्ता अकेले भोजन खोजते हैं, इसलिए वे संगठित मधुमक्खी की तेज़ प्रतिस्पर्धा के सामने कमज़ोर पड़ जाते हैं।
चार साल की इस अवधि में, पालतू मधुमक्खियों की उपस्थिति के कारण जंगली परागणकर्ताओं की संख्या में भारी गिरावट देखी गई। बम्बल बी (bumblebee) और सॉलिटरी बी (solitary bee) की आबादियों में 80 प्रतिशत तक की गिरावट देखी गई और पालतू मधुमक्खियां द्वीप के फूलों पर हावी रहीं। इसके अलावा वैज्ञानिकों ने सॉलिटरी बी की गुंजन की आवाज़ (buzzing sound) में भी हर साल पहले से कमी पाई। मधुमक्खियों के अलावा अन्य कारक, जैसे कीट आबादी में कुदरती घट-बढ़ और फूलों की उपलब्धता में बदलाव भी इसकी वजह हो सकते हैं।
वैज्ञानिक चेताते हैं कि यह निष्कर्ष शायद अन्य स्थानों पर लागू न हो। जानूट्री छोटा द्वीप है, यहां युरोप के मुकाबले मधुमक्खियों के छत्तों का घनत्व औसत से दुगना है, तो हो सकता है प्रतिस्पर्धा यहां अधिक हो। संभव है कि अन्य पारिस्थितिक तंत्रों में जंगली और पालतू मधुमक्खियां एक-दूसरे को प्रभावित किए बिना सह-अस्तित्व (coexistence) में रह सकती हैं।
शोधकर्ताओं ने मधुमक्खियों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की वकालत नहीं की है, बल्कि हर तरह के परागणकर्ताओं के आपसी संतुलन को समझने के लिए और अधिक शोध (pollination research) की आवश्यकता को पर बल दिया है। (स्रोत फीचर्स)
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कई लोगों को मकड़ियों (spiders) से नफरत होती है और कई लोगों को उनसे डर भी लगता है – इसी भावना को व्यक्त करने के लिए बना है शब्द एरेक्नेफोबिया (arachnophobia)। लेकिन वैज्ञानिकों (scientists) को मकड़ियों की एक बात आकर्षित करती है – उनकी पतली कमर। कहते तो यहां तक हैं कि जिस रेत-घड़ीनुमा फिगर (hourglass figure) की कामना कई तारिकाएं (celebrities) करती हैं, वह मकड़ियों को तो सहज ही मिल गया है। और अब प्लॉस बायोलॉजी (PLOS Biology) में प्रकाशित एक शोध पत्र बताता है कि इसके लिए मकड़ियों को डाएटिंग (dieting) वगैरह नहीं करना पड़ता, बल्कि यह एक प्राचीन जीन (ancient gene) का कमाल है।
इस शोध पत्र के लेखकों – विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय (University of Wisconsin) की एमिली सेटन और उनके साथियों – ने दक्षिण-पूर्वी कोलोरैडो (Colorado) के घास के मैदानों में तफरीह करते हुए टेक्सास ब्राउन टेरेंटुला (Texas brown tarantula) (Aphonopelma hentzi) नामक मकड़ी के भ्रूण (embryos) इकट्ठे किए। इन भ्रूणों के जीनोम (genome sequencing) के अनुक्रमण से उन्हें 12 ऐसे जीन्स (genes) मिले जो कमर के दोनों ओर की कोशिकाओं में विकास के दौरान अभिव्यक्त होते हैं। आम घरेलू मकड़ी (common house spider) (Parasteatoda tepidariorum) के भ्रूणों में इन 12 जीन्स को एक-एक करके निष्क्रिय करने पर पता चला कि इनमें से एक (जिसे नाम दिया गया है waist-less) कमर के उस विशिष्ट पिचके हुए हिस्से के लिए ज़िम्मेदार होता है जो मकड़ी के शरीर (body structure) को दो भागों में बांटता है। जिन भ्रूणों में यह जीन नहीं होता वे एकदम गोल-मटोल आठ टांग वाली मकड़ी में विकसित हो जाते हैं।
शोधकर्ताओं (researchers) का मत है कि waist-less जीन लाखों साल पहले अस्तित्व में आया था और कई प्रजातियों के भ्रूणीय विकास (embryonic development) में अहम भूमिका निभाता है। लेकिन कीटों (insects) व केंकड़ानुमा जंतुओं (crustaceans) ने इसे गंवा दिया। मकड़ियों में यह बना रहा और उन्हें उनकी पतली कमर देता रहा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://scitechdaily.com/images/Spider-Embryo-Loss-Waist-Region.jpg https://cms.interestingengineering.com/wp-content/uploads/2024/08/antimony-38.png
प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) की अथाह गहराइयों में एक रहस्यमयी दुनिया छिपी हुई है। मैरियाना ट्रेंच (Mariana Trench) पृथ्वी के महासागरों की सबसे गहरी जगह है। यहां गहराई लगभग 11,000 मीटर तक है। इतनी गहराई पर दाब (pressure) बहुत अधिक, ठंड (temperature) अकल्पनीय और अंधकार (darkness) भी घटाटोप होता है। ये परिस्थितियां इस जगह को पृथ्वी की सबसे प्रतिकूल और दूभर परिस्थितियों में शुमार करती हैं। लेकिन हाल ही में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि इन परिस्थितियों में भी जीवन (deep-sea life) की हैरतअंगेज़ विविधता मौजूद है। यह विविधता गहरे समुद्र की पारिस्थितिकी (deep ocean ecosystem) के बारे में हमारी वर्तमान समझ को ललकारती है।
हाल ही में, चीन के वैज्ञानिकों ने फेंडोज़े पनडुब्बी (Fendouzhe Submarine) के ज़रिए मैरियाना ट्रेंच की गहराइयों में गोता लगाया है। जैसे-जैसे वे नीचे उतरे, उन्होंने अंधकार में दीप्ति बिखेरने वाले जीव (bioluminescent organisms) देखे; जो हरी, पीली और नारंगी चमक बिखेर रहे थे। समुद्र के पेंदे (ocean floor) पर पहुंचने पर टीम ने जब रोशनी चालू की, तो उन्हें एक विस्मयकारी नीली दुनिया दिखाई दी, जहां प्लवकों (plankton) की भरमार थी।
यह खोज मैरियाना ट्रेंच पर्यावरण और पारिस्थितिकी अनुसंधान (MEER – Mariana Trench Ecology and Environment Research) परियोजना का हिस्सा है, जिसके तहत किए गए अध्ययन सेल पत्रिका (cell journal) में प्रकाशित हुए हैं। इस शोध की सबसे चौंकाने वाली खोज 7000 से अधिक नए सूक्ष्मजीवों (new microbes, deep-sea bacteria) की पहचान है, जिनमें से 89 प्रतिशत विज्ञान के लिए पूरी तरह नए हैं। ये सूक्ष्मजीव हैडल ज़ोन (hadal zone – 6000 से 11,000 मीटर की गहराई) की कठोर परिस्थितियों में जीवित रहने के लिए विकसित हैं।
गौरतलब है कि कुछ सूक्ष्मजीवों (microorganisms) के जीनोम (genome sequencing)बहुत कुशल होते हैं, जो सीमित कार्यों के लिए अनुकूलित होते हैं। जबकि कुछ अन्य के जीन (genes) अधिक जटिल होते हैं, जिससे वे बदलते पर्यावरण के अनुसार खुद को ढाल सकते हैं। हैरानी की बात यह है कि इनमें से कुछ सूक्ष्मजीव कार्बन मोनोऑक्साइड (carbon monoxide metabolism) जैसी गैसों को अपना भोजन बनाते हैं। यह क्षमता उन्हें पोषक तत्वों की कमी (nutrient-poor environment) वाले समुद्री वातावरण में जीवित रहने में मदद करती है।
आगे के इस अध्ययन में एम्फिपॉड्स (amphipods – छोटे झींगे जैसे जीव) पर ध्यान दिया गया, जो समुद्री खाइयों (deep-sea trench) में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। वैज्ञानिकों (scientists) ने पाया कि ये जीव गहरे समुद्र में रहने वाले बैक्टीरिया (deep sea symbiotic bacteria) के साथ सहजीवी सम्बंध रखते हैं। उनकी आंतों में सायक्रोमोनास (Psychromonas bacteria) नामक बैक्टीरिया काफी संख्या में मिले, जो ट्राइमेथिइलएमाइन एन-ऑक्साइड (TMAO – Trimethylamine N-oxide) नामक एक यौगिक का निर्माण करने में मदद करते हैं। TMAO गहरे समुद्र के अत्यधिक दाब (extreme pressure adaptation)से जीवों की रक्षा करने में अहम भूमिका निभाता है।
शोध के तीसरे चरण में यह समझने की कोशिश की गई कि गहरे समुद्र की मछलियां (deep-sea fish) अत्यधिक दाब और ठंडे तापमान में कैसे जीवित रहती हैं। जेनेटिक विश्लेषण (genetic analysis) से पता चला कि 3000 मीटर से अधिक गहराई में रहने वाली मछलियों में एक विशेष जेनेटिक परिवर्तन (genetic mutation) होता है, जो उनकी कोशिकाओं को अधिक कुशलता से प्रोटीन बनाने (protein synthesis) में मदद करता है। यह अनुकूलन उन्हें समुद्री दाब से बचने में सहायता करता है।
शोध से यह भी पता चला कि विभिन्न जीवों ने गहरे समुद्र में कब शरण (deep-sea migration) ली होगी। मसलन, ईल मछलियां (eel fish) शायद लगभग 10 करोड़ साल (100 million years ago) पहले गहरे समुद्र में चली गई होंगी जिसकी वजह से वे डायनासौर विलुप्ति (dinosaur extinction) वाली घटना से बच गई होंगी। इसी तरह स्नेलफिश (Snailfish) लगभग 2 करोड़ साल पहले (20 million years ago) समुद्र की गहरी खाइयों में पहुंच गई होगीं। यह वह समय था जब पृथ्वी पर टेक्टोनिक हलचल (tectonic activity) सबसे अधिक थी यानी धरती के भूखंड तेज़ी से इधर-उधर भटक रहे थे।
ये निष्कर्ष इस बात को नुमाया करते हैं कि गहरा समुद्र (deep sea) लंबे समय से जलवायु परिवर्तन और ऑक्सीजन के उतार-चढ़ाव के दौरान कई जीवों को पनाह देता रहा है।
इन रोमांचक खोजों के साथ-साथ वैज्ञानिकों ने गहरे समुद्र में कुछ चिंताजनक चीज़ें (deep-sea pollution) भी देखीं; उन्हें मैरियाना ट्रेंच (Mariana Trench)और याप ट्रेंच (Yap Trench) में प्लास्टिक बैग(plastic pollution), बीयर की बोतलें (beer bottles), सोडा कैन (soda can) और एक टोकरी (basket) भी मिली है। यह दर्शाता है कि मानव गतिविधियों का असर (human activities impact) दूरस्थ और दुगर्म क्षेत्रों तक पहुंच चुका है।
हालांकि, वैज्ञानिकों ने पाया कि कुछ बैक्टीरिया (bacteria) इन प्रदूषकों (pollutants) का इस्तेमाल ऊर्जा स्रोत (energy source) के रूप में करने में सक्षम हैं। इससे लगता है कि भविष्य में समुद्री बैक्टीरिया (marine bacteria) पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकते हैं।
बहरहाल, समुद्र की अधिकांश गहराइयां अब भी अनदेखी हैं। संभव है कि वहां भी असंख्य अनजाने जीव (undiscovered species) हैं। MEER की योजना आगे भी ऐसे अध्ययन जारी रखने की है। (स्रोतफीचर्स)
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समुद्री कछुए (Sea Turtles) अपने भोजन स्थलों को याद रखने के लिए पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s Magnetic Field) का उपयोग करते हैं। नेचर पत्रिका (Nature Journal) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, लॉगरहेड कछुए (Loggerhead Turtles – Caretta caretta) खास चुंबकीय संकेतों को पहचान सकते हैं, जिससे वे भोजन के स्थान को याद रख पाते हैं, ठीक जीपीएस (GPS-like navigation) की तरह।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 62 लॉगरहेड कछुओं का अध्ययन किया। उन्हें पानी से भरे कटोरे में रखा गया, जिसके चारों ओर विद्युत-चुंबक (electromagnets) लगे थे जो विशिष्ट चुंबकीय क्षेत्र बनाते थे। प्रत्येक कछुए को एक विशेष चुंबकीय क्षेत्र में रखा गया और उसे स्वादिष्ट भोजन (स्क्विड और न्यूट्रिएंट जेल) (squid and nutrient gel) दिया गया जिसके नतीजे में कछुओं ने उत्साह में टर्टल डांस (मुंह खोलना (opening mouth), पानी में उछलना (leaping in water), और शरीर को बाहर निकालना (raising body out of water)) किया।
भोजन न मिलने पर भी, जब कछुओं को वही चुंबकीय क्षेत्र (magnetic signals memory) दोबारा अनुभव कराया गया तो उन्होंने खुशी से अपना टर्टल डांस किया। इससे पता चला कि वे भोजन से जुड़े चुंबकीय संकेतों (food-associated magnetic fields) को याद रखते हैं। हैरानी की बात यह है कि उनमें यह याददाश्त कम से कम चार महीने तक बरकरार रही।
अधिक गहराई से समझने के लिए, वैज्ञानिकों ने रेडियोफ्रिक्वेंसी तरंगों (radio frequency waves) का उपयोग किया, जो जीवों की चुंबकीय दिशा-सूचना को बाधित करती हैं। इसके उपयोग से कछुए भ्रमित (turtle disorientation) हुए और दिशा पहचानने में असफल रहे, लेकिन जब भोजन से जुड़े चुंबकीय संकेत (food-related magnetic cues) दिए गए तो वे फिर से नृत्य करने लगे। इससे यह पता चलता है कि कछुए दो अलग-अलग जैविक प्रणालियों (biological navigation systems) का उपयोग कर सकते हैं – एक दिशा पहचानने के लिए और दूसरी भोजन स्थलों जैसी महत्वपूर्ण जगहों को याद रखने के लिए।
इस खोज से यह भी स्पष्ट होता है कि पक्षी (birds) और उभयचर (amphibians) जैसे कई प्रवासी जीव (migratory species) भोजन, प्रजनन स्थल और अनुकूल जलवायु खोजने के लिए दोहरी चुंबकीय प्रणाली का उपयोग कर सकते हैं।
लॉगरहेड कछुए का मनमोहक नृत्य देखने के लिए: https://phys.org/news/2025-02-sea-turtles-secret-gps-loggerheads.html (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/content/article/watch-sea-turtles-dance-joy-when-they-magnetically-sense-it-s-snack-time
आपको कहीं कोई परिचित दिख जाए तो कभी हाव-भाव से, तो कभी पलकें झपका आप उससे दुआ-सलाम कर लेते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। कई बार पलकें झपकाकर किसी बात पर सहमति भी जता देते हैं। कुल मिलाकर हम हाव-भाव से और पलकें झपकाकर अपने साथियों से कई बातें कर लेते हैं। वो भी बिना सोचे-विचारे। यह बरबस ही अनुक्रिया के तौर पर हो जाता है। इस तरह से संवाद करना मनुष्यों और अन्य प्राइमेट्स (primates) में दिखाई देता है। अब, रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन (scientific study) बताता है कि कुत्ते भी पलकें झपकाकर आपस में संवाद करते हैं।
शोधकर्ताओं को यह तो पहले से ही पता था कि पालतू कुत्ते (pet dogs) जब दूसरे कुत्तों के आसपास होते हैं तो पलकें ज़्यादा झपकाते हैं। ऐसा भी लगता है कि जब तनाव (stress) या टकराव की स्थिति बढ़ती दिखाई देती है तो वे अपने साथी कुत्तों और इंसानों के साथ भी शांति बनाए रखने के लिए पलकें झपकाते हैं। इसके अलावा, कुत्ते अन्य कुत्तों के जम्हाई लेने और खुशमुमा चेहरे बनाने पर वही व्यवहार दोहराते हैं, जिससे लगता है वे संवाद करने और रिश्ते बनाने के लिए चेहरे के भावों की नकल (फेस मिमिक्री- face mimicry) करते हैं।
कुत्तों में बार-बार पलकें झपकाने का व्यवहार देख पर्मा विश्वविद्यालय की वैकासिक जीवविज्ञानी (evolutionary biologist) चिआरा कैनोरी को लगा कि क्या पलकें झपकाने का यह व्यवहार फेस मिमिक्री (facial mimicry) का हिस्सा है या कुछ अलग है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए कैनोरी और उनके साथियों ने टेरियर (terrier), कॉकर स्पैनियल (cocker spaniel), और बॉर्डर कोली (border collie) कुत्तों के 12-12 सेकंड लंबे कई वीडियो बनाए। उनके सामने कोई खिलौना या खाने का सामान रखा गया था।
कुछ वीडियो क्लिप्स (video clips) में शोधकर्ताओं ने देखा कि कुत्ते पलकें झपका रहे थे, जबकि कुछ में नहीं झपका रहे थे। शोधकर्ताओं को कुछ वीडियो ऐसे भी मिले जिनमें कुत्ते नाक चाट रहे थे और लालसा या झुंझलाहट का भाव दिखा रहे थे। इसके बाद शोधकर्ताओं ने वीडियो को संपादित किया और उनसे 71 सेकंड लंबी एक वीडियो क्लिप (video footage) बनाई जिसमें कुत्ते हर 4 सेकंड के अंतराल पर पलक झपकाने और नाक चाटने की हरकत करते दिखाई दे रहे थे।
इसे उन्होंने एक बड़े पर्दे पर रेंडम तरीके से चुने हुए विभिन्न नस्लों के 54 वयस्क पालतू कुत्तों (adult pet dogs) को दिखाया। हां, चुनाव करते समय शोधकर्ताओं ने इस बात का ध्यान ज़रूर रखा था कि वीडियो में दिख रहे कुत्ते इन 54 कुत्तों से पहले कभी न मिले हों। वीडियो दिखाते समय शोधकर्ताओं ने दर्शक कुत्तों के भावों को पढ़ने के लिए उन पर हार्ट मॉनिटर (heart monitor) लगाए और उनकी प्रतिक्रियाओं का वीडियो भी बनाया।
इन सभी रिकॉर्डिंग (recordings) का विश्लेषण करने पर पाया गया कि कुछ दर्शक कुत्ते तो वीडियो से ऊब गए और सो गए, लेकिन बाकी ने कुछ प्रतिक्रियाएं दिखाईं। दर्शक कुत्तों ने दो अन्य प्रकार के हाव-भाव की तुलना में पलक झपकाने के वीडियो के प्रति औसतन 16 प्रतिशत अधिक पलकें झपकाईं। पलकें अधिक बार झपकाने से लगता है कि कुत्ते शायद पलक झपकाने की नकल करते हैं।
हालांकि शोधकर्ता इन परिणामों को थोड़ा सावधानी से समझने को कहते हैं। उनका कहना है कि अधिक बार पलकें झपकाने का मतलब यह नहीं है कि कुत्ते सोच-समझकर पलकें अधिक बार झपका रहे हैं। यह हमारी तरह का मामला हो सकता है। हम मनुष्यों की तरह कुत्ते भी शायद अवचेतन रूप से संवाद (subconscious communication) कर रहे होंगे।
भले ही पलक झपकाना पूरी तरह से सोच-समझकर प्रत्युत्तर देने का व्यवहार न हो, लेकिन परिणाम बताते हैं कि कुत्ते इसे सार्थक तरीकों से उपयोग करने लगे हैं। पलक झपकाना एक संकेत (non-verbal signal) हो सकता है कि मैं शांत हूं, तुम भी शांत रहो।
इसके विपरीत, अध्ययन में यह भी देखा गया कि दर्शक कुत्तों ने वीडियो के कुत्तों को नाक चाटते देखकर अपनी नाक नहीं चाटी, बल्कि उन्होंने अपनी आंखों का श्वेत पटल (स्क्लेरा (sclera)) अधिक दिखाया। यह अवलोकन थोड़ा हैरत में डालता है क्योंकि वैज्ञानिक (scientists) अब तक इस प्रतिक्रिया को कुत्तों के किसी सशक्त भावावेग – सकारात्मक या नकारात्मक – के प्रदर्शन से जोड़कर देखते आए हैं। इस मामले में साफ है कि इन कुत्तों ने ऐसे किसी भावावेग की अनुपस्थिति में यह प्रतिक्रिया दी।
यह अवलोकन इस बात को रेखांकित करता है कि हमें जानवरों के संवाद (animal communication) को समझना जितना आसान लगता है, उतना है नहीं, बल्कि यह पेचीदा और टेढ़ा मामला है। लोग अक्सर कहते हैं कि अरे, कुत्तों के ऐसा करने का मतलब यह है, वैसा करने का मतलब वह है, फलाना तनाव (dog stress signals) का संकेत है, ढिमकाना खुशी (dog happiness signs) का संकेत है वगैरह-वगैरह। लेकिन इस अवलोकन से लगता है कि इस तरह के सामान्यीकरण करते हुए बहुत सतर्कता की ज़रूरत है।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z6v2wss/abs/_20250218_on_dog_blinking.jpg
हाल में करंट बायोलॉजी (Current Biology) में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2004 में आइवरी कोस्ट (Ivory Coast) के ताई नेशनल पार्क (Tai National Park) में शिकारियों ने जब चिम्पैंज़ियों (chimpanzees) के एक समूह के अंतिम दो वयस्क नरों में से एक को गोली मार दी थी तो उसके साथ-साथ चिम्पैंज़ियों के उस समूह की ‘बोली’ का एक इशारा (भाव-भंगिमा) भी खत्म हो गया।
वैसे तो कई अध्ययनों से हमें चिम्पैंज़ियों के व्यवहार (chimpanzee behavior)/औज़ारों के इस्तेमाल वगैरह में विविधता के बारे में काफी कुछ पता चला है। हम यह भी जानते हैं चिम्पैंज़ी समुदाय (chimpanzee community) किस तरह से औज़ारों/साधनों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन यह अध्ययन पहली बार इस बात के प्रमाण प्रस्तुत करता है कि चिम्पैंज़ियों के अलग-अलग समूह एक ही चाहत या संवाद के लिए अलग-अलग हाव-भाव (gestures) का इस्तेमाल करते हैं और मनुष्यों के हस्तक्षेप या गतिविधियों के कारण उनके समूह के ये विशिष्ट व्यवहार विलुप्त हो रहे हैं।
दरअसल नर चिम्पैंज़ी जब मादा के लिए अन्य नरों के साथ होने वाले टकराव और लड़ाई को टालना चाहते हैं तो वे गुपचुप संभोग (mating) के लिए मादा को चुपके से इशारा करते हैं। ये इशारे आम तौर पर संभोग आमंत्रण (mating invitation) के लिए दिए जाने वाले इशारों से अलग होते हैं। ये इशारे इतने चुपके से किए जाते हैं कि बस पास मौजूद मादा का ही इन पर ध्यान जाए, अन्य नरों का नहीं।
स्विस सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च (Swiss Center for Scientific Research) के संरक्षण जीवविज्ञानी (conservation biologist) चिम्पैंज़ियों के इन्हीं इशारों और उनके मायनों में विविधता का अध्ययन कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने ताई जंगल (Tai forest) में रहने वाले चार चिम्पैंज़ी समुदायों के 495 इशारों का अध्ययन किया और पाया कि एक ही बात के लिए प्रत्येक समूह के इशारों में अंतर होता है, हालांकि कुछ इशारे एक समान भी होते हैं। जैसे संभोग के लिए आग्रह करने के लिए चारों समुदायों के नर किसी एक डाली को आगे-पीछे हिलाते हैं या अपनी एड़ी को ज़मीन पर पटकते हैं। लेकिन सिर्फ दक्षिणी और पूर्वी समुदाय के चिम्पैंज़ी चुपके से संभोग के इशारे के लिए पत्तियों को चीरते हैं, और केवल पूर्वोत्तर समुदाय के चिम्पैंज़ी उंगलियों के जोड़ से पेड़ या किसी सख्त सतह को ठोंकते हैं जैसे हम दरवाज़े को खटखटाते हैं। इस इशारे को नकल नॉक (knuckle knock) कहते हैं।
वहीं हज़ारों किलोमीटर दूर युगांडा (Uganda) के चिम्पैंज़ी इनमें से किसी इशारे का इस्तेमाल नहीं करते बल्कि वे अपने दोनों हाथों से किसी वस्तु पर तबला जैसे बजाते हैं, और यह इशारा आइवरी कोस्ट (Ivory Coast) के चिम्पैंज़ियों में नहीं देखा गया था।
जब शोधकर्ता इन इशारों का अध्ययन कर रहे थे तब दल की फील्ड असिस्टेंट होनोरा नेने कपाज़ी का ध्यान चिम्पैंज़ियों के पूर्वोत्तर समूह द्वारा किए जाने वाले एक इशारे की ओर गया। उनके ध्यान में यह बात पिछले 30 से अधिक वर्षों से चिम्पैंज़ियों के साथ किए गए उनके काम के अनुभव के चलते आई। कपाज़ी ने पाया कि चिम्पैंज़ियों के पूर्वोत्तर क्षेत्र के समूह द्वारा किए गए इस नकल नॉक (knuckle knock) इशारे का उपयोग उत्तरी क्षेत्र के समुदायों में भी काफी आम हुआ करता था, लेकिन यह इशारा अब वहां से नदारद है।
दरअसल, उत्तरी क्षेत्र के चिम्पैंज़ियों की संख्या में 1990 के दशक की शुरुआत में इबोला (Ebola) के कारण कमी आनी शुरू हुई थी। फिर 1999 में मनुष्यों से चिम्पैंज़ियों में एक श्वसन रोग (respiratory disease) फैला, जिसके कारण वहां उस समूह में मात्र दो वयस्क नर सदस्य बचे। फिर 2004 में शिकारियों ने उन दो नरों में से एक नर, मारियस, को गोली मार दी। बचा मात्र एक नर चिम्पैंज़ी। और जब समूह में एक ही नर बचा तो मादा के लिए टकराव या लड़ाई की गुंजाइश ही नहीं रही, और जब मादा के लिए कोई प्रतिद्वंदी ही नहीं तो संभोग के लिए चुपके से इशारा कर बुलाने की कोई ज़रूरत ही नहीं रही। नतीजतन, मारियस की मृत्यु के साथ ही नकल नॉक (knuckle knock) का इशारा भी खत्म हो गया।
वास्तव में, चिम्पैंज़ियों में कई तरह के जन्मजात इशारे (innate gestures) होते हैं, जो सभी समुदाय के नर चिम्पैंज़ी कर सकते हैं – लेकिन अलग-अलग समुदायों के इन इशारों के अर्थ अलग-अलग होते हैं। और यह अध्ययन संरक्षण प्रयासों (conservation efforts) में इसी विविधता के महत्व पर ध्यान दिलाता है।
हम जानते हैं कि शिकारी जंगलों से चिम्पैंज़ियों समेत तमाम जीव-जंतुओं का सफाया कर रहे हैं। इसके चलते चिम्पैंज़ियों की जेनेटिक विविधता (genetic diversity) खतरे में है। जेनेटिक विविधता पर्यावरणीय बदलावों (environmental changes) के साथ अनुकूलन को संभव बनाती है। सांस्कृतिक विविधता (cultural diversity) भी उतनी ही महत्वपूर्ण है; इसका विनाश चिम्पैंज़ियों में बदलते पर्यावरण के प्रति अनुकूलन की क्षमता प्रभावित करेगा।(स्रोतफीचर्स)
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