एक पक्षी की अनोखी प्रणयलीला

वैसे तो कई सारे नर मादा को रिझाने के लिए तरह-तरह के तरीके अपनाते हैं। कई अपने रंग-रूप से लुभाते हैं, कुछ अपनी शक्ति से, कुछ गाकर (bird song), तो कुछ नाच कर (bird dance)। लेकिन बॉवरबर्ड कुल (Bowerbird species) के सदस्यों के नर की प्रणयलीला का अंदाज़ निराला है। अपनी मादाओं को नर बॉवरबर्ड रिझाते तो नाच-गाकर ही हैं, लेकिन इसके लिए वे पहले पूरा मंच (stage setup) बनाते हैं, उसे सजाते हैं। और तो और, हालिया अध्ययन बताता है कि वे अपने मंच में ऐसा इंतज़ाम करते हैं कि उनका गाना (song performance) मादाओं को मोहित करने के लिए एकदम सही सुरों में सुनाई दे। इतना ही नहीं, वे अपने दर्शकों (female birds) के लिए परफॉर्मेंस देखते-देखते खानपान की व्यवस्था भी करते हैं। यानी मूवी के साथ पॉपकॉर्न भी! 

वास्तव में, अनूठी प्रणयलीला के चलते बॉवरबर्ड के प्रदर्शन पर काफी अध्ययन (behavioral studies) हुए हैं। लेकिन ये सभी अध्ययन दृश्य इंतज़ामों और प्रदर्शन तक सीमित थे। पता चला था कि बॉवरबर्ड टहनियां वगैरह इकट्ठी करके मेहराबदार सुरंगनुमा बॉवर (bower structure) या ऊंची कुटिया बनाते हैं। इसके द्वार से सटे आंगन की सजावट वे कंकड़-पत्थर (pebbles), शंख (shells), हड्डियों और कांच या प्लास्टिक के रंगीन टुकड़ों से करते हैं। जब यह कुटिया बनकर तैयार हो जाती है तो नर तेज़, कर्कश आवाज़ें (loud calls) निकालकर इसके बारे में मादाओं को सूचना देते हैं। अगर कोई मादा इस पुकार को सुनकर चली आती है, और कुटिया की बनावट और सजावट उसे भा जाती है तो वह अंदर प्रवेश करती है। 

बस फिर क्या, नर उड़कर (flight display) आंगन में आ जाता है और अपनी कलाकारी का प्रदर्शन शुरू कर देता है। मादा सुरंगनुमा कुटिया के दरवाज़े से आंगन में खड़े नर बॉवरबर्ड का केवल सिर ही देख पाती है। नर का प्रदर्शन भी उसी के अनुरूप होता है। 

नर बॉवरबर्ड तेज़, कर्कश, हिस्स्सकारती हुई आवाज़ में गाना गाता है। गाने के साथ वह मादा को लुभाने के लिए संटियां, फल जैसी विभिन्न वस्तुएं चोंच से उछाल-उछाल कर दिखाता है, और गर्दन घुमाकर अपने सिर के पीछे बने गुलाबी पंखों का मुकुट (pink crest feathers) भी दिखाता है। 

लेकिन, जैसा कि ऊपर भी कहा गया है कि ये सारे अवलोकन बॉवरबर्ड की दृश्य गतिविधियों पर केंद्रित थे। डीकिन युनिवर्सिटी के प्रकृति-इतिहासकार जॉन एंडलर (John Endler) जानना चाहते थे कि क्या कुटिया की बनावट और आंगन की सजावट ‘गाने’ (courtship song) को मादा के लिए रुचिकर बनाने कोई भूमिका निभाते हैं? 

अपने अध्ययन के लिए उन्होंने उत्तरी ऑस्ट्रेलिया के निवासी ग्रेट बॉवरबर्ड (Great Bowerbird – *Chlamydera nuchalis*) को चुना। पहले तो उनकी टीम ने उत्तरी क्वींसलैंड के वनों में नर बॉवरबर्ड्स के ‘प्रेमालाप’ (courtship behavior) की रिकॉर्डिंग की। इसके बाद, उन्होंने कुटिया के प्रवेश द्वार (जहां नर होता है) पर स्पीकर को रखकर इस रिकॉर्डिंग को चलाया, और जहां आम तौर पर मादा का सिर होता है वहां माइक्रोफोन लगाकर ध्वनियों को रिकॉर्ड किया ताकि यह समझा जा सके कि कुटिया के आकार (bower architecture) के कारण नर का प्रेमगीत मादा को कैसा सुनाई देता है।फिर, टीम ने व्यवस्थित रूप से कुटिया के आंगन में सजाई गई विभिन्न सजावटी वस्तुओं को हटाया और पता किया कि प्रत्येक सामग्री से कुटिया के अंदर सुनाई पड़ने वाली ध्वनि पर कैसा प्रभाव पड़ता है। 

बिहेवियोरल इकोलॉजी (Behavioral Ecology) में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि नर ग्रेट बॉवरबर्ड बेहतरीन साउंड इंजीनियर (sound engineers) होते हैं। कुटिया का आकार नर के गीत को ऊंचा कर देता है, जिससे अंदर मौजूद मादा को यह ज़्यादा तेज़ सुनाई देता है। आंगन की सजावट भी आवाज़ को प्रभावित करती है; शंख (shells) जैसी सख्त सतह भी टकराने वाली आवाज़ को तेज़ कर देती हैं। 

नर ग्रेट बॉवरबर्ड मादा के लिए न सिर्फ आकर्षक भवन, गीत और नृत्य प्रदर्शन (dance display) का इंतज़ाम करते हैं बल्कि वे शो के दौरान खाने की चीज़ों का इंतज़ाम भी करते हैं। वे कुटिया की दीवारों को लार और वनस्पतियों से रंगते हैं, और उनके प्रदर्शन को देखते हुए मादा इसे चबाती हैं। रिझाने के लिए एक और पैंतरा! 

देखा जाए तो यह अध्ययन अपने-आप में काफी दिलचस्प है लेकिन इस संदर्भ में कई और चीज़ें समझना बाकी हैं। जैसे मादा कर्कश या मृदु आवाज़ों या मोटी-पतली आवाज़ों में गाए गए प्रेमगीतों पर कैसी प्रतिक्रिया देती हैं।(स्रोत फीचर्स)

नर बॉवरबर्ड का प्रदर्शन यहां देखें : https://oup.silverchair-cdn.com/oup/backfile/Content_public/Journal/beheco/PAP/10.1093_beheco_arae070/1/arae070_suppl_supplementary_data.mp4?Expires=1731151727&Signature=eATlb5ZRlsI~yzL9ymUwXbQIxDbt95izhSI2-MwQwT9Dy1smV-O81-o6Uk~lswxmxr89jIXkc3WayCqFKcQP9L1QgME0Wq5jBxYbF0mpmgp9bZDEOOF~owdr-flr6rXJQeyvivY~SXUoEkrdyKvRPke3T43d4BIVrQW2NtcN0JszD5e8TjdfiiO2Qvhyq4iq6HnN71-qDJRIX-y65U~rb-V1CVKreVX5j0bfnskYpFhC6iO-PuJ6kBgW-fffREDQKjdPxyzxu46EAxHNDpHwBqFScu-wtA6dsWU6PeIaLFbgYXFJwAHVsojDLjcvtv9XpgexWlUO5q~sAaGwR-j6uA__&Key-Pair-Id=APKAIE5G5CRDK6RD3PGA

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चींटियों ने कीटभक्षी पक्षियों को ऊपरी इलाकों में खदेड़ा

दक्षिण एशिया के निचले इलाकों में, फलभक्षी (fruit-eating birds) और मकरंदभक्षी पक्षी तो खूब दिखाई देते हैं, लेकिन कीटभक्षी पक्षी (insect-eating birds) यहां दुर्लभ हैं। इकोलॉजी लेटर्स (Ecology Letters) में प्रकाशित एक अध्ययन ने इस विषय पर प्रकाश डाला है और बताया है कि कीटभक्षी पक्षियों के नदारद होने के पीछे बुनकर चींटियों (weaver ants) का हाथ है। निचले जंगलों में रहने वाली बुनकर चींटियां गुबरैले और पतंगों जैसे जीवों को खा जाती हैं। दिक्कत यह है कि यही जीव कीटभक्षी पक्षियों के भी भोजन (insect prey) हैं। चूंकि चींटियां इन पक्षियों के भोजन को खत्म कर देती हैं, मजबूरन पक्षी ऊंचे इलाकों (higher elevations) पर चले जाते हैं, जहां ये चींटियां नहीं पाई जातीं। 

दरअसल, कई पर्वत शृंखलाओं में समुद्रतल से लगभग 1000 से 1500 मीटर की ऊंचाई को ‘एंट लाईन’ (ant line) या चींटी रेखा कहा जाता है। इस रेखा के ऊपर छोटे अकशेरुकी जीव (invertebrates) कम मिलने लगते हैं। वैसे तो बुनकर चींटियां उत्तरी ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणपूर्वी एशिया से लेकर अफ्रीका तक व्यापक रूप से फैली हैं, लेकिन 2020 में, हिमालय क्षेत्र में किए गए एक अध्ययन ने ऐसा संकेत दिया था कि निचले इलाके के जंगलों में सात भाई (sibling species) और फुदकी जैसे कीटभक्षी पक्षियों के न होने का कारण संभवत: बुनकर चींटियां ही हैं। जब शोधकर्ताओं ने एशियाई बुनकर चींटियों (Oecophylla smaragdina) को अध्ययन क्षेत्र से हटाया और उन्हें पेड़ पर चढ़ने से रोक दिया, तो गुबरैले और पतंगों (beetles and moths) जैसे कीटों की संख्या बढ़ गई थी। ये कीट सॉन्गबर्ड्स (songbirds) जैसे कीटभक्षी पक्षियों के भोजन का मुख्य स्रोत हैं। 

इस आधार पर शोधकर्ताओं ने यह परिकल्पना (hypothesis) बुनी कि बुनकर चींटियों के साथ प्रतिस्पर्धा निचले इलाकों के जंगलों में कीटभक्षी पक्षियों की संख्या कम होने के लिए ज़िम्मेदार हो सकती है। 

इस परिकल्पना से प्रेरित होकर भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science) के पारिस्थितिकीविद उमेश श्रीनिवासन और उनके दल ने यह देखने की कोशिश की कि क्या इसी तरह के पैटर्न अन्यत्र भी दिखते हैं। इसके लिए उन्होंने दुनिया भर के पहाड़ी पक्षियों (mountain birds) की ऊंचाई के मुताबिक उपस्थिति का विश्लेषण किया। इस विश्लेषण से पता चला कि जिन इलाकों में बुनकर चींटियां नदारद थीं, वहां कीटभक्षी पक्षियों की विविधता (bird diversity) कम ऊंचाई पर काफी अधिक होती है और ऊंचे इलाकों में कम होती जाती है। लेकिन बुनकर चींटियों की मौजूदगी वाले क्षेत्रों में, पक्षियों की विविधता 1000 मीटर से ऊंचे इलाकों में अत्यधिक थी। 

लेकिन फलभक्षी (fruit-eating birds) या अन्य भोजन पर आश्रित पक्षियों में ऐसा कोई पैटर्न नहीं दिखा। यह पैटर्न और नतीजे काफी दिलचस्प हैं, लेकिन वास्तविक परिस्थितियों में इस परिकल्पना को जांचकर देखने की ज़रूरत है कि क्या वास्तव में ऐसे नतीजे मिलते हैं। यदि यह पैटर्न सामान्य है, तो यह काफी रोचक है कि चींटियां जैव विविधता (biodiversity) को इस कदर प्रभावित करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शिकारियों से बचने के लिए बुलबुले का सहारा

कोस्टा रिका और पनामा के वर्षा वनों में वॉटर एनोल (Anolis aquaticus) नामक एक छोटी, अर्ध-जलीय छिपकली में जान बचाने के लिए अनोखी रणनीति विकसित हुई है। यह पानी के अंदर हवा के बुलबुले (air bubbles) बनाकर उन्हें ऑक्सीजन टैंक (oxygen tank) की तरह इस्तेमाल करती है। इस तकनीक से छिपकली लंबे समय तक पानी में छिपकर पक्षियों और सांप (predators like birds and snakes) जैसे शिकारियों से स्वयं को सुरक्षित रखती है।

गौरतलब है कि वैज्ञानिक लंबे समय से इन छिपकलियों को हवा के बुलबुले बनाते हुए देखते आए हैं। बुलबुले पानी में गोता लगाने के दौरान छिपकलियों के नथुने से चिपके रहते हैं, इन बुलबुलों की हवा का उपयोग कर वे लगभग 16 मिनट तक पानी के नीचे रह सकती हैं। यह समय किसी भी अन्य छिपकली की तुलना में अधिक है। लेकिन शोधकर्ताओं को यह स्पष्ट नहीं था कि ये बुलबुले वास्तव में उन्हें पानी में लंबे समय तक गोता लगाने में मदद करते हैं या यह एक संयोग मात्र है। 

इसे समझने के लिए जीवविज्ञानियों (biologists) ने प्राकृतिक स्थिति में रह रही कुछ वाॉटर एनोल के थूथन पर मॉइश्चराइज़र (moisturizer) लगाया ताकि उन्हें बुलबुले बनाने से रोका जा सके और फिर यह देखा कि छिपकलियां कितने समय तक पानी में डूबी रह सकती हैं। बुलबुले बनाने वाली छिपकलियां, बुलबुले न बनाने वाली छिपकलियों की तुलना में एक मिनट से ज़्यादा समय तक पानी के नीचे रहीं। शोधकर्ताओं के अनुसार गोता लगाने के समय (dive time) को बढ़ाने की क्षमता उनके अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है, क्योंकि यह उन्हें शिकारियों से छिपने के समय में बढ़त देती है। 

इस अध्ययन से कुछ नए सवाल भी उठते हैं। जैसे ये बुलबुले कैसे काम कर रहे होंगे। शोधकर्ता फिलहाल यह देखना चाहते हैं कि क्या बुलबुले आसपास के पानी के साथ गैस का आदान-प्रदान (gas exchange) भी करते हैं। यदि छिपकलियां अतिरिक्त ऑक्सीजन लेकर कार्बन डाईऑक्साइड बाहर निकालती हैं तो यह बुलबुला और भी अधिक कुशल हो सकता है। 

अपनी अनोखी रणनीति से परे, जल एनोल मानव प्रौद्योगिकी के लिए प्रेरणा हो सकते हैं। इन छिपकलियों तथा कीटों (aquatic insects) जैसे अन्य जलीय जीवों द्वारा बुलबुले का उपयोग करने के तरीके का अध्ययन करके, इंजीनियर (engineers) ऐसी नई सामग्री विकसित कर सकते हैं जो पानी के नीचे हवा को कैद करके रख सकती है, साफ रह सकती है या तरल पदार्थों में अधिक आसानी से घूम सकती है। (स्रोत फीचर्स)

छिपकली को बुलबुला बनाते हुए देखने के लिए लिंक – https://www.science.org/content/article/these-lizards-blow-bubbles-underwater-and-use-them-scuba-tanks)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या बिल्लियों को अपनी कद-काठी का अंदाज़ा होता है?

बिल्लियां इतनी लचीली होती हैं कि लोगों ने उन्हें पानी की उपमा दे डाली है जो कितनी भी कम जगह से बाहर निकल जाता है, किसी भी आकार में ढल जाता है। बिल्लियों के ऐसे करतब कभी न कभी आपने भी देखे होंगे।

लेकिन क्या बिल्लियां खुद को लचीला मानती हैं? क्या वे किसी छोटे छेद (small hole) या संकरी संद (narrow space) में से गुज़रने के पहले अपने शरीर के आकार (body size) को ध्यान में रखकर यह सोचती हैं कि वे इसमें से निकल पाएंगी या नहीं? कुल मिलाकर सवाल है कि क्या बिल्लियों को अपने डील-डौल (cat’s body awareness) के बारे में बोध होता है?

ओटवोस लोरैंड विश्वविद्यालय के पीटर पोंग्रेज़, जिन्होंने कुत्तों और बिल्लियों की समझ-बूझ (cognitive understanding) पर काफी शोध किए हैं, ने इस बार बिल्लियों पर अध्ययन के लिए यही सवाल चुना। अध्ययन के लिए उन्होंने 30 पालतू बिल्लियां (domestic cats) चुनी। बिल्लियों के साथ प्रयोगशाला में अध्ययन करना बहुत मुश्किल होता है, इसलिए अध्ययन उन्होंने सभी बिल्लियों के घर जा-जाकर किए।

अध्ययन के लिए उन्होंने कमरे में एक ऐसा लकड़ी के पैनल का पार्टीशन (wooden partition) लगाया जिसमें एक आयताकार छेद बना हुआ था, और इस आयताकार छेद को (लंबाई और चौड़ाई में) छोटा-बड़ा किया जा सकता था। इस छेद के अलावा, कमरों की सारी ऐसी जगहों को ठीक से बंद कर दिया गया था, जहां से बिल्लियों के निकलने की संभावना हो सकती थी। पार्टीशन के एक तरफ बिल्ली को रखा जाता था और दूसरी तरफ बैठे उनके मालिक उन्हें पुकारते थे।

इस पुकार प्रक्रिया में, जब पैनल में छेद बड़ा था – इतना बड़ा कि छेद की ऊंचाई और चौड़ाई बिल्लियों की ऊंचाई (height of the cat) और चौड़ाई (width of the cat) से अधिक थी – तो बिल्लियां बेहिचक फर्राटे से उसमें से निकल रही थीं। फिर छेद की चौड़ाई को उतना (आरामदायक) ही रखा, लेकिन ऊंचाई थोड़ी-थोड़ी कम की गई और दूसरी ओर से बिल्लियों के मालिक उन्हें पुकारते रहे। अब बिल्लियां थोड़ा हिचकिचाने लगीं, शायद उन्हें लग रहा था कि उनका कद (cat’s size) इस छेद से बहुत अधिक है। लेकिन हिचकिचाहट के बाद भी वे इस छेद से निकलने की कोशिश करती रहीं; तब भी जब छेद उनके कद का आधा था। इससे लगता है कि बिल्लियों को अपने शरीर के साइज़ (size perception) के बारे में कुछ तो अंदाज़ा है।

लेकिन चौड़ाई के मामले में नतीजे अलग रहे। शोधकर्ताओं ने ऊंचाई को आरामदायक स्थिति में स्थिर रखकर चौड़ाई को थोड़ा-थोड़ा कम किया। छेद चाहे कितना भी संकरा क्यों न हो गया हो – यहां तक कि बिल्लियों की चौड़ाई का आधा भी – बिल्लियां छेद से निकलने से पहले कभी नहीं हिचकिचाई। छेद से निकलने में उनकी गति ज़रा भी धीमी नहीं हुई। इससे लगता है कि बिल्लियां अपनी चौड़ाई का अंदाज़ा (cat’s width awareness) नहीं लगा पातीं; वे तो बस अपने लचीले शरीर (flexible body) का फायदा उठाती हैं, कोशिश करती रहती हैं और संकरी से संकरी जगह (narrow spaces) से निकल लेती हैं।

ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि बिल्लियां अधिक लचीली (flexibility in cats) होती हैं, इसलिए उन्हें केवल कुछ ही मामलों में अपने शरीर के आकार का ध्यान रखना होता होगा। लेकिन वास्तव में बिल्लियां अपने शरीर की साइज़ (body size awareness in cats) के बारे में क्या सोचती हैं यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाया है।

फिलहाल जितना भी पता चला है, उस जानकारी का इस्तेमाल बिल्लियों के मालिक उनके लिए घर, खेल के मैदान वगैरह को सुरक्षित रखने (safety for cats) में कर सकते हैं, ताकि बिल्लियां किसी छोटी-संकरी जगह में न फंस जाएं। ये नतीजे आईसाइंस (iScience journal) में प्रकाशित हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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सिर पटककर बंबलबी ज़्यादा परागकण प्राप्त करती है

करंट बायोलॉजी (Current Biology) में प्रकाशित एक अध्ययन में पता चला है कि बंबलबी (Bumblebee) जिन फूलों का परागण (pollination) करती है, उन पर ज़्यादा माथा पटकती है। परिणाम यह होता है कि परागकोशों में भरे परागकण (pollen grains) ज़्यादा मात्रा में बाहर निकलते हैं। यह सही है कि कई फूलों में परागकोशों में परागकण बाहर ही होते हैं और यहां सिर पटकने की ज़रूरत नहीं होती। लेकिन कई फूलों में परागकण कोश के अंदर होते हैं। ऐसे फूलों के मामले में परागण की क्रिया बहुत आसान नहीं होती। यहां गुंजन परागण (buzz pollination) काम आता है। गुंजन परागण का मतलब होता है कि बंबलबी ध्वनि कंपन (vibration) पैदा करती है ताकि उस फूल में कंपन हो और परागकोश के अंदर भरे परागकण बाहर आ जाएं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग 9 प्रतिशत पौधे इसी तरह के परागण (pollination process) के भरोसे हैं और इनमें आलू (potato), टमाटर (tomato) व मटर (pea) जैसे कई फसली पौधे भी शामिल हैं।

वैसे कीटों (insects) के लिए गुंजन-परागित फूलों के परागकणों को बटोरना आसान नहीं होता। क्योंकि ऐसे फूलों में परागकण नलीनुमा परागकोशों (tube-like anthers) में भरे होते हैं और इनमें एक बारीक सा सुराख होता है। लेकिन कुछ मधुमक्खियां (bees) (बंबलबी सहित) ऐसे फूलों पर बैठ जाती हैं और अपने पंखों को जमकर फड़फड़ाती हैं। यानी वे गुंजन (buzzing) करती हैं और इसके कंपन परागकोश को कंपायमान कर देते हैं। ऐसा होने पर परागकण बाहर छलकने लगते हैं।

वैज्ञानिक यह तो दर्शा चुके हैं कि कोई मधुमक्खी (bee) जितने अधिक कंपन (vibration) पैदा करती है, उतने ही अधिक परागकण (pollen grains) उसे हासिल होते हैं। लेकिन यह एक रहस्य था कि बंबलबी कंपन पैदा करने में इतनी कुशल कैसे होती है। इसे समझने के लिए उपसला विश्वविद्यालय (Uppsala University) के चार्ली वुडरो ने बंबलबी के व्यवहार को बारीकी से देखा। अधिकांश शोधकर्ता मानते आए थे कि मधुमक्खियां गुनगुनाते समय खुद को स्थिरता प्रदान करने के लिए कभी-कभार फूलों को काटती हैं। लेकिन इसी व्यवहार के हाई स्पीड वीडियो (high-speed video) में नज़र आया कि ये कीट तो अपने सिर और वक्ष को तेज़ी से हिलाते रहते हैं।

तो, वुडरो और उनके साथियों ने एक बंबलबी (Bombus terrestris) का वीडियो बनाया। उन्होंने खास तौर से उस समय के वीडियो रिकॉर्ड किए जब वे दो तरह के गुंजन-परागित फूलों के परागकोशों पर पहुंचीं।

इस तरह की वीडियोग्राफी (videography) में शोधकर्ता यह भी मापन कर पाए कि बंबलबी के कंपनों (vibrations) के जवाब में फूलों में कितने कंपन हुए। पता चला कि जब गुनगुनाती बंबलबी परागकोश को काटती हैं तो तीन गुना अधिक कंपन फूलों तक पहुंचते हैं। यह भी देखा गया कि काटने वाली बंबलबी ने परागकोश से ज़्यादा परागकण छलकाए।

अलबत्ता, इन अवलोकनों ने कई नए सवालों को भी जन्म दिया है। जैसे बंबलबी फूलों पर पहुंचकर लगातार परागकोशों को काटती नहीं रहती हैं। यह पता करना रोचक होगा कि वे कब ऐसा करती हैं। दूसरा अवलोकन यह था कि जब वे काटती हैं तो उनका सिर ‘सिर चकरा देने’ (head spinning) की हद तक कंपन करता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि वे ऐसा कैसे कर पाती हैं। यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि क्या बंबलबी के व्यवहार का फूल के प्रकार (flower type) से भी कुछ सम्बंध है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत के नमकीन रेगिस्तान में जीवन – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारत के कच्छ का रण तब विकसित हुआ था जब अरब सागर के पानी ने इस क्षेत्र में घुसपैठ की थी। यह करीबन 15-20 करोड़ वर्ष पहले की घटना है। भूगर्भीय उथल-पुथल के कारण एक भूभाग ऊपर उठा, जिसने कच्छ बेसिन को समुद्र से अलग कर दिया। कच्छ के रण का एक हिस्सा ‘लिटिल रण ऑफ कच्छ’ (Little Rann of Kutch) कच्छ की खाड़ी के अंत में स्थित है और 5000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र, मुख्य रूप से गुजरात के सुरेंद्रनगर ज़िले, में फैला है। 

वर्ष के अधिकांश समय, इस भूभाग में नमक के विशाल, बंजर और सफेद मैदान दिखाई देते हैं। जब मानसून आता है तो यहां का भूदृश्य एकदम से बदल जाता है; यह सफेद रण एक उथली आर्द्रभूमि (wetland) में तबदील हो जाता है। भूमि के लगभग 75 ऊंचे-ऊंचे टीले टापुओं में तबदील हो जाते हैं, जिन्हें स्थानीय अगरिया और मालधारी समुदाय बेट कहते हैं। 

लिटिल रण ऑफ कच्छ में जंगली गधा अभयारण्य (Wild Ass Sanctuary) भी है। यह अभयारण्य भारतीय जंगली गधे (Indian Wild Ass) [Equus hemionus khur] का एकमात्र प्राकृतवास बचा है। रेतीले और भूरे रंग वाले इन जानवरों की संख्या इस क्षेत्र में लगभग 6000 है। ये जिस तरह के स्थान (habitat) पर रहते हैं, वहां की परिस्थिति वर्ष के अधिकांश समय दूभर रहती है, और वहां की वनस्पति शुष्क पादप और कंटीली वनस्पति होती है। खुर और इनके जैसे एसिनस उप-प्रजाति (Asinus subspecies) के अन्य गधों में उजाड़ जगहों पर भी भोजन खोजने की उल्लेखनीय क्षमता होती है। उनका पाचन तंत्र सबसे शुष्क (कंटीली) वनस्पतियों को भी पचाने में माहिर होता है। खुर के चीता (cheetah) और शेर (lion) जैसे शिकारी लुप्त हो चुके हैं, इन्हें इस क्षेत्र में आखिरी बार 1850 के दशक में देखा गया था। 

खुर आकार में लगभग ज़ेबरा जितना बड़ा होता है, और इसका जीवनकाल 21 साल का होता है। खुर के स्थायी समूहों में मादा खुर और उनके शावक होते हैं। नर खुर अकेले रहते हैं, खासकर प्रजनन के मौसम में। रण के सपाट भूभाग पर वे 70 कि.मी. प्रति घंटे तक की रफ्तार से दौड़ सकते हैं। मादा खुर के लिए यहां जीवन मुश्किल हो सकता है क्योंकि गर्भधारण की अवधि लंबी होती है, 11 से 12 महीने। और कभी-कभी तो गर्भावस्था के दौरान भी स्तनपान कराते हुए मादा देखी गई हैं। 

विलुप्ति से वापसी

ये खुर बीमारियों की चपेट में आने कारण विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे, लेकिन हाल ही में ये इस संकट से बाहर निकल आए हैं। संक्रामक अफ्रीकी हॉर्स सिकनेस (African Horse Sickness) और सर्रा (Sarra) [Trypanosoma evansi] के कारण होने वाला रोग जो काटने वाले कीटों से फैलता है, ने खुरों के कई झुंडों का सफाया कर दिया था। 1960 के दशक में केवल कुछ सौ बचे होने का अनुमान था। 

अमरावती स्थित गवर्मेंट विदर्भ इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के वैज्ञानिकों ने खुर के माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (mitochondrial DNA) का विश्लेषण किया है। विश्लेषण में उन्हें जेनेटिक विविधता (genetic diversity) बहुत ही कम होने के संकेत मिले हैं। यह बीमारी के प्रकोप के कारण होने वाली जेनेटिक बाधा के कारण है; बीमारी के कारण केवल कुछ ही खुर जीवित बचे हैं। लगातार संरक्षण प्रयासों (conservation efforts) की बदौलत, हाल के दशकों में खुर की आबादी में वृद्धि देखी गई है। 

मनुष्यों के साथ संघर्ष

नमक के दलदल (salt marshes) मानव उद्यमियों को आकर्षित करते हैं – भारत के 30 प्रतिशत नमक की आपूर्ति लिटिल रण से होती है। हर साल, मौसमी प्रवास इस मरीचिका जैसे परिदृश्य को बदल देता है, जिसमें 5000 परिवार यहां आते हैं और यहां भारी वाहनों का आवागमन बढ़ जाता है। मनुष्यों और साथ में उनके मवेशियों की यह आमद, जो खूब चरते हैं, मिलकर यहां के नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) और उसके वन्यजीवों (wildlife) के लिए एक बड़ा खतरा बन गई है। सिंचाई नहरें (irrigation canals), जो लिटिल रण के दक्षिणी किनारे तक पानी ले जाती हैं, भी मिट्टी में खारेपन को बढ़ा सकती हैं। 

कृषि (agriculture) और नमक की खेती (salt farming), दोनों के चलते बढ़ती मानवीय उपस्थिति ने खुरों को छितरा दिया है। खुर के झुंड गुजरात और यहां तक कि राजस्थान के आसपास के इलाकों में देखे जाते हैं। इस कारण जंगली गधों को फसल चट करने वालों (crop raiders) का दर्जा दे दिया गया है। नीलगाय (nilgai) और जंगली सूअर (wild boar) जैसे अन्य जानवर फसलों को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन दोषी खुरों को ही ठहराया जाता है। अभयारण्य के बेहद खूबसूरत परिदृश्य (landscape) और मानव-बहुल क्षेत्रों को बाकायदा अलग-अलग रखना दोनों के लिए बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वयस्क फलमक्खी भी बनती है शिकार 

ततैया की तकरीबन 200 प्रजातियां परजीवी हैं। इनकी मादाएं अपने अंडे किसी अकशेरुकी जीव के अंदर देती हैं। अंडों से निकलने के बाद ततैया के लार्वा अपने मेजबान को अपना भोजन बनाते हैं, और अंतत: उसे काल के हवाले कर खुद उसके शरीर से बाहर निकल आते हैं। 

अंडे देने के लिए अधिकतर ततैया की पहली पसंद फलमक्खियों  (ड्रॉसोफिला) (fruit flies) के जीवित लार्वा-प्यूपा होते हैं। लार्वा या प्यूपा को चुनने का एक कारण यह होता है कि ये छोटे होते हैं, आसानी से पकड़ में आ जाते हैं और शिकार बन जाते हैं; वयस्क मेजबान एक तो आकार में बड़े होते हैं, ऊपर से उनके पास मुकाबला करने, डराने या बच निकलने की क्षमताएं भी होती हैं। इसलिए वयस्कों में अंडे देना ज़रा मुश्किल काम है। (कितना मुश्किल है इसका अंदाज़ा इस वीडियो (parasitoid wasps attack video) को देखकर लगाया जा सकता है: 

बहरहाल, हाल ही में जीवविज्ञानियों (biologists) ने एक ऐसी ततैया पहचानी है जो वयस्क फलमक्खियों को अपना शिकार बनाती है और उनमें अंडे देती हैं। 

इस ततैया को शोधकर्ताओं ने सिनट्रेटस पर्लमैनी (Syntretus perlmani) नाम दिया है। इस नई ततैया को यह नाम परजीवियों (parasites research) पर भरपूर शोध करने वाले स्टीव पर्लमैन के नाम पर दिया है। 

दरअसल शोधकर्ता मिसिसिपी स्थित अपनी प्रयोगशाला (Mississippi lab research) के कैंपस में फैलाए गए जाल में फंसी फलमक्खियों में कृमि संक्रमण की पड़ताल कर रहे थे। इसी दौरान उन्हें ऐसी वयस्क नर फलमक्खी मिली जिसके अंदर ततैया का लार्वा था। अब शोधकर्ता जानना चाहते थे कि एस. पर्लमैनी ततैया वास्तव में कितनी वयस्क फलमक्खियों को शिकार बनाती हैं। इसके लिए शोधकर्ताओं ने करीब 6000 नर फलमक्खियां और करीब 500 मादा फल मक्खियों की पड़ताल की। 

अंडे देने के 7 से 18 दिन के बाद, बिना किसी चीरफाड़ के नर फलमक्खी में तो आसानी से दिख जाता है कि किनके अंदर ततैया का लार्वा है और किनके अंदर नहीं। दूसरी ओर, मादा फलमक्खी में लार्वा होने की पुष्टि चीरफाड़ करके ही की जा सकी। 

विश्लेषण में पाया गया कि एस. पर्लमेनी ततैया हर साल 0.5-3 प्रतिशत तक वयस्क नर मक्खियों को अपना मेज़बान बनाती है। इसके विपरीत मात्र एक मादा फलमक्खी में ततैया के लार्वा मिले। 

शोधकर्ताओं का विचार है कि संभवत: वयस्क मक्खी को शिकार बनाने के कुछ फायदे होंगे। जैसे लार्वा-प्यूपा की तुलना में वयस्क फलमक्खी ततैयों के लार्वा की सुरक्षा (wasp larvae protection) कर सकते हैं; यह भी संभव है कि वयस्क फलमक्खियों की प्रतिरक्षा प्रणाली लार्वा की तुलना में कम प्रभावी हो और इसके चलते लार्वा को बाहर धकेले जाने का खतरा कम होता हो। और वयस्कों को मेज़बान बनाने से लार्वा-प्यूपा के लिए प्रतिस्पर्धा कम हो जाती होगी। 

नेचर (Nature journal) में प्रकाशित ये नतीजे ततैया के व्यवहार में विविधता को उजागर करते हैं और आगे के अध्ययन के लिए ज़मीन बनाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ईल कैसे शिकारी के पेट से भाग निकलती है

यह तो हम जानते हैं कि कई जीव-जंतुओं में शिकारियों (predators) से अपने बचाव के लिए कई तरीके विकसित हुए हैं। कुछ का रंग-रूप या काया आसपास के पर्यावरण (environment) से घुल-मिल जाती है, तो कोई किसी दूसरे खतरनाक जीव सी काया धर लेता है। या गुलाब जैसे पौधों या साही जैसे जीवों में कांटे विकसित हुए हैं कि शिकारी उनसे दूर ही रहें। ये तो हुए शिकार बनने से बचने के तरीके, लेकिन शिकार बन जाएं तब क्या?

कार्टून वगैरह में तो ऐसा बहुत देखा होगा कि हीरो चरित्र शिकारी के पेट में गुदगुदी करके, उछल-कूद मचाकर या ऐसे ही किसी तरीके से उसे परेशान करके उसके पेट से सलामत बाहर निकल आता है। हाल ही में, ऐसा ही कुछ मामला हकीकत में होता दिखा है। करंट बायोलॉजी (Current Biology) में प्रकाशित अध्ययन का एक्स-रे वीडियो (X-ray video) खुलासा करता है कि जापानी ईल (Anguilla japonica) अपने शिकारी मछली के पेट से कैसे बाहर निकल जाती है।

दरअसल, पूर्व में नागासाकी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया था कि जापानी ईल अपने शिकारी के पेट से गलफड़ों (gills) के रास्ते बाहर निकल आती है। लेकिन वह ऐसा करती कैसे है यह उन्हें ठीक-ठीक नहीं मालूम था।

इस बात को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 32 शिशु ईल में एक ऐसा पदार्थ (barium sulfate) डाला जो एक्स-रे की नज़र की पकड़ में आ जाए। फिर उन्होंने ईल को डार्क स्लीपर (Odontobutis obscura) नामक एक शिकारी मछली के साथ छोटे टैंक (tank) में रखा।

जब ये ईल शिकार बने तो उन सभी ईल ने शिकारी के पेट से भागने की कोशिश की। एक्स-रे की मदद से पता चल पाया कि इनमें से कुछ ईल ने बाहर का रास्ता तलाशने के लिए शिकारी के पेट में चक्कर लगाया। लेकिन सभी ईल भागने में सफल नहीं हो पाई। सिर्फ 9 ईल ही बाहर निकल पाईं। जो बाहर निकलने में सफल हो पाईं, वे तैरकर वापिस शिकारी की ग्रासनली (esophagus) में गईं और फिर गलफड़ों के ज़रिए सरसराते हुए पूंछ को पहले बाहर निकालते हुए पूरी की पूरी सलामत बाहर निकलने में सफल हो गईं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नर जुगनुओं को धोखे से फांसती छलिया मकड़ी

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

घात लगाकर हमला करने वाले शिकारी जंतु (predator animals) शिकार को पकड़ने के लिए अनेक प्रकार की रणनीतियां (hunting strategies) अपनाते हैं। विशेषकर मकड़ियों (spiders) के पास शिकार पकड़ने की अद्भुत रणनीतियां होती हैं, जिनमें महज़ घात लगाने से लेकर रेशमी जाले (silk webs) में फांसने तक के जटिल तरीके अपनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए बोलस मकड़ी (Bolas spider) प्रजाति-विशेष के नर पतंगों (male moths) को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रेशमी धागे के अंतिम छोर पर चिपचिपी और फेरोमोन्स युक्त बूंद लटका देती है। नर पतंगें उसे मादा समझकर चिपक जाते हैं और मकड़ी के शिकार बन जाते हैं। 

कुछ पायरेट मकड़ियां (pirate spiders) अन्य मकड़ियों के जालों में इस प्रकार के कंपन उत्पन्न करती हैं जिससे मेज़बान को यह विश्वास हो जाए कि जाल में कोई कीट (insect) फंसकर छटपटा रहा है। जैसे ही मेज़बान मकड़ी पास आती है, पायरेट मकड़ी उसे अपना शिकार बना लेती है। 

फूलों पर पाई जाने वाली क्रेब मकड़ी (crab spider) लंबे समय तक बिना हिले-डुले फूलों पर घात लगाकर बैठी रहती है। जैसे ही फूलों का मकरंद लेने के लिए कोई कीट आता है वे तुरंत आक्रमण करके उसका शिकार कर लेती हैं। 

लाल चींटों जैसी दिखने वाली एमिशिया मकड़ी (ant-mimicking spider) चींटों जैसी बनावट और व्यवहार अपना लेती है तथा अपनी पहचान छुपा कर रहती है, और फिर उनका ही शिकार करती हैं। 

सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जीवविज्ञानी दाईकिन ली, हुआझोंग कृषि विश्वविद्यालय में जीवविज्ञानी शिन्हुआ फू और साथियों ने हाल ही में करंट बायोलॉजी (Current Biology) में मकड़ी पर एक शोध पत्र प्रकाशित किया है। शोध में यह देखा गया कि मकड़ियां नर जुगनू (male fireflies) को मादा जुगनू की तरह जगमगाने पर मजबूर करती हैं जिससे बड़ी संख्या में नर जुगनू आकर्षित होते हैं तथा मकड़ी को अधिक शिकार मिलते हैं। 

प्रायः सभी वैज्ञानिक खोजों में अवलोकन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। चीन के वुहान शहर में अपनी फील्ड ट्रिप के दौरान जीव विज्ञानी शिन्हुआ फू को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कई मकड़ियों के जाले ऐसे थे जिनमें केवल नर जुगनू शिकार हुए थे। सवाल था कि क्या मकड़ियां कोई ऐसी जुगत या तरकीब लगा रही हैं जिससे वे नर जुगनू को आकर्षित करके शिकार कर रही हों। 

जुगनू की प्रणय लीला (Mating Behavior of Fireflies)

प्रत्येक जंतु में विपरीत लिंग को प्रजनन के लिए आकर्षित करने के तरीके भिन्न-भिन्न होते हैं। जुगनुओं में यह कार्य उदर में उपस्थित विशेष अंगों से उत्पन्न प्रकाश को चमकाकर (light signals) किया जाता है। सूर्यास्त होते ही नर जुगनू उदर से एक निश्चित क्रम में प्रकाश-चमक के संकेतों से मादाओं को आकर्षित करते हैं। घास में नीचे बैठी मादा जुगनू अपनी प्रजाति के नरों की चमक के पैटर्न को देखकर अपनी प्रजाति के साथी को पहचान जाती है। अब मादा प्रत्युत्तर में रोशनी चमकाकर चयनित नर को आकर्षित करती हैं। संभोग के बाद, मादा गीली मिट्टी में 500 तक अंडे देती है। 

उष्णकटिबंधीय एशियाई जुगनू प्रजाति एब्सकॉन्डिटा टर्मिनेलिस में, नर और मादा, दोनों ही प्रणय के लिए साथी तलाशने के लिए चमक फेंकते हैं। लेकिन उनकी चमक एक जैसी नहीं होती। मादाएं अपने उदर में एकल प्रकाश स्रोत से धीमे-धीमे टिमटिमाती हैं, जबकि नर अपने उदर के दो प्रकाश स्रोतों से उतने ही समय में अधिक बार टिमटिमाते हैं। 

मकड़ियों की चालाकी (Spider’s Deception)

एरेनियस वेंट्रिकोसस (Araneus ventricosus) नामक मकड़ी निशाचर होती है और कार के पहिए के आकार के बड़े और गोलाकार जाले बुनती है। जाला बुनने वाली मकड़ियों की देखने की क्षमता जाला न बुनने वाली मकड़ियों की तुलना में कमज़ोर होती है। उन्हें वस्तुएं केवल तभी दिखाई देती हैं जब वे अपेक्षाकृत उनके करीब होती हैं। इन मकड़ियों के जाले में जब नर जुगनू फंस जाता है तो उसकी चमक से मकड़ी नर को पहचान जाती है और उसे जाले में लपेटते हुए अनेक बार विष दंतों से काट कर उसे मादा जुगनू जैसे प्रकाश संकेत निकालने पर मजबूर कर देती है। बंदी नर जुगनू विष के प्रभाव से मादा जैसे टिमटिमाने लगता है, जिससे कई नर भ्रमित होकर ‘मादा’ से संभोग की उम्मीद में मकड़ी के जाल में प्रवेश करते हैं और शिकार हो जाते हैं। इस प्रकार नर जुगनू मकड़ी के जाले में फंसे देखे जा सकते हैं। 

शोध के निष्कर्ष बताते हैं कि कुछ जंतु विशेष प्रकार के जंतुओं का शिकार करने के लिए शिकार के तरीके में हेरफेर करने में सक्षम होते हैं तथा शिकार को छद्म संकेत (false signals) उत्पन्न करने को विवश कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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परजीवी कृमियों की क्रूर करतूतें

एक सूक्ष्म चपटा कृमि है जो क्लोनिंग (cloning) के ज़रिए हज़ारों कृमियों की फौज बना लेता है। हैप्लोर्किस प्यूमिलियो (Haplorchis pumilio) नामक ये कृमि घोंघे को संक्रमित (infect) करते हैं और उसके प्रजनन अंगों की दावत उड़ाते हैं। अंतत: वह घोंघा वंध्या हो जाता है। ये चपटे कृमि दो-चार हफ्ते नहीं, सालों तक वहां बने रहते हैं और घोंघे के खून में से पोषण चूसते रहते हैं और अपने क्लोन बनाते रहते हैं। यानी यह घोंघा परजीवी-निर्माण कारखाना (parasite factory) बनकर रह जाता है। 

और क्रूरता यहीं समाप्त नहीं होती। जहां अधिकांश कृमि प्रजनन के बाद अपने लार्वा (larvae) को झीलों या नदी-नालों (ponds or rivers) में छोड़ देते हैं ताकि वे नए शिकार तलाश सकें, वहीं इस परजीवी के कुछ लार्वा प्रजनन के अयोग्य होते हैं और पानी में जाने की बजाय वहीं बने रहते हैं। ये सैनिकों (soldiers) के रूप में भूमिका निभाते हैं और इनके गले बड़े-बड़े होते हैं। 

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (Proceedings of the National Academy of Sciences) में शोधकर्ताओं (researchers) ने बताया है कि ये अन्य प्रतिस्पर्धी परजीवियों के शरीर में छेद कर देते हैं और उनकी आंतों को चूस लेते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह इन कृमियों में सामाजिक व्यवस्था (social structure) का द्योतक है। वैसे तो मधुमक्खियों और चींटियों जैसे जंतुओं में सामाजिक विभेदन देखने को मिलता है लेकिन ट्रेमेटोडा वर्ग (Trematoda class) के कृमियों में यह पहली बार देखा गया है। पहले के शोधकर्ताओं का विचार था कि ये सैनिक कृमि जीवन में कभी ना कभी प्रजनन करते होंगे। 

हैप्लोर्किस प्यूमिलियो को लेकर यह खोज संयोग और सोच-समझकर किए गए प्रयोगों (experiments) का मिला-जुला परिणाम है। एक झील के पास टहलते हुए परजीवी वैज्ञानिक (parasitologist) डैन मेट्ज़ की नज़र एक अजीब से घोंघे पर पड़ी। उन्होंने इसे पहचान लिया – यह मलेशिया मूल का ट्रम्पेट घोंघा (Melanoides tuberculata) था। वे इसे प्रयोगशाला (laboratory) में ले आए। वहां जब उसे सूक्ष्मदर्शी के नीचे एक तश्तरी में रखा तो देखा कि उसमें से परजीवी निकल-निकल कर आसपास तैर रहे हैं। 

मेट्ज़ ने पहचान कर ली कि ये परजीवी एच. प्यूमिलियो हैं। जांच करने पर पता चला कि कृमि के अंदर बच्चे भरे हुए हैं। खुद कृमि लगभग 1 मिली मीटर लंबा था। कुछ छोटे कृमि भी थे जो सामान्य साइज़ का मात्र 5 प्रतिशत थे यानी 1 मिलीमीटर का बीसवां भाग। लेकिन छोटे होने के बावजूद उनके मांसल गले विशाल थे – पूरे शरीर का लगभग एक-चौथाई। मेट्ज़ का विचार था कि ये सैनिक होंगे। 

अगला कदम था परजीवियों की कुश्ती। मेट्ज़ ने एच. प्यूमिलियो के सैनिकों को अन्य परजीवी कृमि प्रजातियों (parasite species) के साथ रखा। वे प्रजातियां भी आम तौर पर घोंघों को संक्रमित करती हैं। सैनिक इन पराए कृमियों के पास गए, अपना मुंह उनसे चिपकाया और गले को फुलाया। इसकी वजह से निर्वात उत्पन्न हुआ जिसके चलते बड़े परजीवियों के शरीर में छेद हो गए। इस छेद के ज़रिए सैनिकों ने उस परजीवी की आंतों को चूसकर बाहर निकाला और खा गए। लेकिन अजीबोगरीब बात यह देखी गई कि जब इन सैनिकों को उन्हीं की प्रजाति के अन्य सदस्यों के साथ रखा गया तो उन्होंने अपने प्रजननक्षम सहोदरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। 

इन सैनिकों में प्रजनन अंग (reproductive organs) भी नहीं पाए जाते और आजीवन वे वंध्या अवस्था में ही रहते हैं। यानी ये इसी रक्षात्मक भूमिका (defensive role) के लिए तैयार हुए हैं। इसके आधार पर मेट्ज़ का विचार है कि यह वास्तविक सामाजिक व्यवस्था का लक्षण है जैसी कि मधुमक्खियों, चींटियों, दीमकों वगैरह में पाई जाती है। 

एच. प्यूमिलियो का यह फौजी जमावड़ा (military group) काफी मददगार साबित होता है। 2021 में मेट्ज़ और उनके साथियों मे 3164 एम. ट्यूबरकुलेटा घोंघों का सर्वेक्षण किया था। उन्होंने देखा कि एच. प्यूमिलियो ने घोंघों पर पूरा कब्ज़ा कर लिया था। ऐसे मामले बिरले ही थे जहां घोंघों को किन्हीं अन्य प्रजातियों ने संक्रमित किया हो। और तो और, जिन मामलों में अन्य प्रजातियों ने घोंघों को संक्रमित किया था, उनमें भी एच. प्यूमिलियो का ही वर्चस्व (dominance) दिखा।  लड़ाइयों में एच. प्यूमिलियो सैनिक कभी नहीं मारे गए, बल्कि वे ही हमेशा किसी और को मारते दिखे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zngo9b5/abs/_20240729_on_soldier-parasite_v2.jpg