ओरांगुटान अतीत के बारे में बात करते हैं

ह तो जानी-मानी बात है कि कई स्तनधारी व पक्षी किसी शिकारी या खतरे को देखकर चेतावनी की आवाज़ें निकालते हैं जिससे अन्य जानवरों और पक्षियों को सिर पर मंडराते खतरे की सूचना मिल जाती है और वे खुद को सुरक्षित कर लेते हैं। मगर ओरांगुटान में एक नई क्षमता की खोज हुई है।

ओरांगुटान एक विकसित बंदर है जो जीव वैज्ञानिकों के अनुसार वनमानुषों की श्रेणी में आता है। वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि जब ओरांगुटान किसी शिकारी को देखते हैं तो वे चुंबन जैसी आवाज़ निकालते हैं। इससे शेर या अन्य शिकारी को यह सूचना मिल जाती है ओरांगुटान ने उन्हें देख लिया है। साथ ही अन्य ओरांगुटान को पता चल जाता है कि खतरा आसपास ही है।

सेन्ट एंड्रयूज़ विश्वविद्यालय के एक पोस्ट-डॉक्टरल छात्र एड्रियानो राइस ई लेमीरा ओरांगुटान की इन्हीं चेतावनी पुकारों का अध्ययन सुमात्रा के घने केटांबे जंगल में कर रहे थे। उन्होंने एक आसान-सा प्रयोग किया। एक वैज्ञानिक को बाघ जैसी धारियों, धब्बेदार या सपाट पोशाक पहनकर किसी चौपाए की तरह चलकर एक पेड़ के नीचे से गुज़रना था। इस पेड़ पर 5-20 मीटर की ऊंचाई पर मादा ओरांगुटानें बैठी हुई थीं। जब पता चल जाता कि उसे देख लिया गया है तो वह वैज्ञानिक 2 मिनट और वहां रुकता और फिर गायब हो जाता था। इतनी देर में ओरांगुटान को चेतावनी की पुकार उत्पन्न कर देना चाहिए थी।

पहला परीक्षण एक उम्रदराज़ मादा ओरांगुटान के साथ किया गया। उसके पास एक 9-वर्षीय पिल्ला भी था। मगर इस परीक्षण में ओरांगुटान ने कोई आवाज़ नहीं की। वह जो कुछ भी कर रही थी, उसे रोककर अपने बच्चे को उठाया, टट्टी की (जो बेचैनी का एक लक्षण है) और पेड़ पर और ऊपर चली गई। पूरे दौरान वह एकदम खामोश रही। लेमीरा और उनके सहायक बैठे-बैठे इन्तज़ार करते रहे। पूरे 20 मिनट बाद उसने पुकार लगाई। और एक बार चीखकर चुप नहीं हुई, पूरे एक घंटे तक चीखती रही।

बहरहाल, औसतन ओरांगुटान को चेतावनी पुकार लगाने में 7 मिनट का विलंब हुआ। ऐसा नहीं था वे सहम गए थे। वे बचाव की शेष क्रियाएं भलीभांति करते रहे – बच्चों को समेटा, पेड़ पर ऊपर चढ़े वगैरह। लेमीरा का ख्याल है कि ये मादाएं खामोश रहीं ताकि उनके बच्चे सुरक्षित रहें क्योंकि उन्हें लगता है कि शिकारी से सबसे ज़्यादा खतरा बच्चों के लिए होता है। जब शिकारी नज़रों से ओझल हो गया और वहां से चला गया तभी उन्होंने आवाज़ लगाई। लेमीरा का मत है कि चेतावनी पुकार को वास्तविक खतरा टल जाने के बाद निकालना अतीत के बारे में बताने जैसा है। उनके मुताबिक यह भाषा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कि आप अतीत और भविष्य के बारे में बोलते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मनुष्य का शिशु असहाय क्यों? – गंगानंद झा

कुछ ऐसे सवाल हमारे अवचेतन में बने रहते हैं, जिनके जवाब हमें नहीं मालूम। फिर भी हम परेशान नहीं रहते। कोई किताब पढ़ते वक्त या लोगों की बात सुनते वक्त जब इन सवालों के जवाब उभर आते हैं तो हम चमत्कृत हो उठते हैं।

करीब 30 साल पहले छात्रों के साथ विकासवाद और प्राकृतिक वरण की चर्चा के दौरान एक सवाल उठा। सारे स्तनधारियों के शिशु मां का दूध पीना छोड़ने के बाद जल्दी ही अपने भोजन के लिए खुदमुख्तार हो जाते हैं, लेकिन मनुष्य के शिशु मां का दूध छोड़ने के बाद भी कई सालों तक भोजन तथा सुरक्षा के लिए मां-बाप पर निर्भर बने रहते हैं। इस अवधि में उनकी परवरिश न हो तो उनके जीवित रहने की संभावना बहुत ही कम रहती है। मानव शिशु अपने हाथ पांव पर नियंत्रण हासिल करने में ही साल भर से अधिक वक्त लगाता है। उसके बाद भी उसे देखभाल, प्रशिक्षण, शिक्षा और परवरिश के लिए दो दशकों से अधिक की अवधि की दरकार होती है। देखा जाए, तो मानव शिशु असहाय होता है।

क्या यह अटपटा नहीं लगता? इसको कैसे समझा जा सकता है? अपने विद्यार्थियों, साथियों और सहकर्मियों से पूछा पर कोई सुराग नहीं मिला। अनेक सवालों की तरह यह भी खो गया।

मानव जीवन का एक और प्रमुख लक्षण है: लगभग सभी जीवों की आयु उनकी प्रजनन-आयु के समाप्त होने के साथ ही समाप्त हो जाती है, किंतु मनुष्य इसके बाद भी काफी समय तक जीवित रहता है।

अगली पीढ़ी में अपने जीन्स का स्थानांतरण किसी भी जीव की अभिप्रेरणा होती है। अगली पीढ़ी में अपने जीन्स का संचरण प्रजनन सफलता कहलाती है। माता-पिता द्वारा संतान की सघन परवरिश अगली पीढ़ी में उन संतानों के जीन्स के स्थानांतरण और सुरक्षा को सुनिश्चित करती है। ऐसी परवरिश अतिरिक्त उत्तरजीविता संभव बनाती है। मनुष्य ने यह गुण प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में पाया है।

कई साल बीत गए। मैं सेवानिवृत्त हो गया। फिर एक किताब पढ़ने को मिली – जेरेड डायमंड लिखित दी थर्ड चिम्पैंज़ी (The Third Chimpanzee)। इस किताब में और मुद्दों के साथ-साथ इस सवाल पर भी चर्चा की गई है। इसमें एक सुझाव दिया गया है कि मानव शिशु की असहायता ने मानव परिवार और समाज की उत्पति एवं विकास की बुनियाद रखी।

शिशु के जीवित रहने में परवरिश की भूमिका निर्णायक होती है। लंबी अवधि तक चौबीस घंटे निगरानी की ज़रूरत के कारण मां-बाप के बीच सहयोग अनिवार्य हो जाता है। परवरिश में मां के साथ भागीदारी के ज़रिए संतान का पिता अपने जीन्स का अगली पीढ़ी में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है। मां तो जानती है कि वह अपनी ही संतान की परवरिश कर रही है, लेकिन पिता को अपनी मादा के साथ घनिष्ठ भागीदारी के ज़रिए ही यह आश्वस्ति मिल सकती है। अन्यथा वह किसी अन्य पुरुष के जीन्स की पहरेदारी करता रह जाएगा। इस ज़रूरत ने परिवार नामक संस्था की नींव रखी। संतान की परवरिश में लंबे समय तक पुरुष-स्त्री के बीच भागीदारी ने इनके बीच श्रम विभाजन को ज़रूरी बनाया। परिवार के बाद कबीला, कबीले के बाद समाज के विकास के साथ तब्दीलियों का सिलसिला चलता जा रहा है।

लेकिन अभी भी एक गुत्थी बनी हुई थी। प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में ऐसा क्यों हुआ? मानव शिशु असहाय क्यों होता है? जवाब नहीं मिल रहा था।

कई सालों के बाद एक किताब देखी – युवाल नोआ हरारी लिखित सैपिएंस  (Sapiens) जिसमें जवाब मिला।

प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में चौपाया प्राइमेट पूर्वज से दो पांवों पर चलने वाले मनुष्य का विकास हुआ। इन चौपाया पूर्वजों के सिर तुलनात्मक रूप से छोटे हुआ करते थे। इनके लिए दो पांवों पर सीधे खड़ी स्थिति में अनुकूलित होना काफी कठिन चुनौती थी, खासकर तब जबकि धड़ पर अपेक्षाकृत काफी बड़ा सिर ढोना हो।

दो पांवों पर खड़े होने से मनुष्य को अधिक दूर तक देखने और अपने लिए भोजन जुगाड़ करने की सुविधा हासिल हुई लेकिन विकास के इस कदम की कीमत मनुष्य को चुकानी पड़ी है। अकड़ी हुई गर्दन और पीठ में दर्द की संभावना के साथ रहने को बाध्य हुआ है वह।

औरतों को और भी अधिक झेलना पड़ा है। सीधी खड़ी मुद्रा के कारण उनके नितम्ब संकरे हुए। इसके नतीजे में प्रसव मार्ग संकरा हुआ। दूसरी ओर, शिशु के सिर के आकार बढ़ते जा रहे थे। फलस्वरूप प्रसव के दौरान मौत का जोखिम औरतों की नियति हो गई। यदि प्रसव समय से थोड़ा पहले होता,जब बच्चे का सिर छोटा और लचीला रहता है, तो प्रसव के दौरान मृत्यु का खतरा तुलनात्मक रूप से कम होता था। जिसे हम आजकल निर्धारित समय पर प्रसव कहते हैं वह वास्तव में जीव वैज्ञानिक दृष्टि से समय-पूर्व ही है। बच जाने वाली औरतें और बच्चे प्रसव कर पातीं। फलस्वरूप प्राकृतिक वरण में समय पूर्व प्रसव को प्राथमिकता मिली। हकीकत है कि दूसरे जानवरों की तुलना में मनुष्य का जन्म उसके शरीर की अनेक महत्वपूर्ण प्रणालियों के पूर्ण विकसित होने के पहले ही होता है। बछड़ा जन्म के तुरंत बाद उछल-कूद कर सकता है, बिल्ली का बच्चा कुछ ही सप्ताह में मां को छोड़कर अपने भोजन का इंतज़ाम करने निकल पड़ता है। लेकिन मनुष्य का बच्चा भोजन, देखभाल, हिफाज़त और प्रशिक्षण के लिए अपने से बड़ों पर सालों तक निर्भर रहता है। गर्भ से बाहर आने के बाद भी उसे सुरक्षा की ज़रूरत रहती है।

एक शिशु को मनुष्य बनाने में पूरे समाज का सहयोग रहता है। चूंकि मनुष्य जन्म से अविकसित होता है, उसे शिक्षित करना, दूसरे जानवरों की तुलना में अधिक सहज है। उसे सिखाया जा सकता है कि अन्य जीवों के साथ कैसे सम्पर्क बनाया जाए।

यह तथ्य मनुष्य की असामान्य सामाजिक और सांस्कृतिक क्षमता की बुनियाद में है। उसकी अनोखी समस्याओं के लिए भी यही तथ्य ज़िम्मेदार है।(स्रोत फीचर्स)

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ज़िद से नहीं, जज़्बे से बचेंगे एशियाई शेर -जाहिद खान

गुजरात के गिर अभयारण्य में पिछले दिनों एक के बाद एक 23 शेरों की रहस्यमय ढ़ंग से हुई मौत ने वन्य प्राणियों के चाहने वालों को हिलाकर रख दिया है। समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों ये शेर एक के बाद एक मर रहे हैं। मरने वाले ज़्यादातर शेर अमरेली ज़िले के गिर फॉरेस्ट नेशनल पार्क के पूर्वी हिस्से डालखानिया रेंज के हैं।

इन शेरों की मौत पर पहले तो राज्य का वन महकमा चुप्पी साधे रहा। लेकिन जब खबर मीडिया के ज़रिए पूरे देश में फैली, तब वन महकमे के आला अफसर नींद से जागे और उन्होंने स्पष्टीकरण देना ज़रूरी समझा। स्पष्टीकरण भी ऐसा जिस पर शायद ही किसी को यकीन हो। प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक का दावा है कि डालखानिया रेंज में बाहरी शेरों के घुसने से हुई वर्चस्व की लड़ाई में इन शेरों की मौत हुई है। सवाल उठाया जा सकता है कि इतने बड़े जंगल के केवल एक ही हिस्से में इतने बड़े पैमाने पर लड़ाइयां क्यों हो रही है?

इस बीच मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया है। शीर्ष अदालत ने हाल ही में सुनवाई करते हुए गुजरात सरकार को इस पूरे मामले की जांच करने का आदेश दिया है। 

जिस तरह से इन शेरों की मौत हुई है, उससे यह शंका जताई जा रही है कि कहीं इन शेरों की मौत केनाइन डिस्टेंपर वायरस (सीडीवी) और विनेशिया प्रोटोज़ोआ वायरस से तो नहीं हुई है। सीडीवी वायरस वही खतरनाक वायरस है जिससे प्रभावित होकर तंजानिया (अफ्रीका) के सेरेंगेटी रिज़र्व फॉरेस्ट में साल 1994 के दौरान एक हज़ार शेर मर गए थे। इस बारे में तमाम वन्य जीव विशेषज्ञ 2011 से लगातार गुजरात के वन महकमे को आगाह कर रहे हैं। पर राज्य के वन महकमे ने इससे निपटने के लिए कोई माकूल बंदोबस्त नहीं किए। यदि वायरस फैला तो गिर में और भी शेरों को नुकसान पहुंच सकता है; सिंहों की यह दुर्लभ प्रजाति विलुप्त तक हो सकती है।

दुनिया भर में एशियाई शेरों का अंतिम रहवास माने जाने वाले गिर के जंगलों में फिलहाल शेरों की संख्या तकरीबन 600 होगी। साल 2015 में हुई पांच वर्षीय सिंहगणना के मुताबिक यहां शेरों की कुल संख्या 523 थी। सौराष्ट्र क्षेत्र के चार ज़िलों गिर सोमनाथ, भावनगर, जूनागढ़ और अमरेली के 1800 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैले गिर के जंगलों की आबोहवा एशियाई शेरों को खूब रास आती है। एक समय एशियाई शेर पूरे भारत और एशिया के दीगर देशों में भी पाए जाते थे, लेकिन धीरेधीरे इनकी आबादी घटती गई। आज ये सिर्फ गुजरात के पांच वन स्थलों गिर राष्ट्रीय उद्यान, गिर वन्यजीव अभयारण्य, गिरनार वन्यजीव अभयारण्य, मटियाला अभयारण्य और पनिया अभयारण्य में सीमित रह गए हैं। इस बात को भारत सरकार ने गंभीरता से लिया और साल 1965 में गिर वन क्षेत्र को संरक्षित घोषित कर दिया। इन जंगलों का 259 वर्ग कि.मी. क्षेत्र राष्ट्रीय उद्यान घोषित है जबकि बाकी क्षेत्र संरक्षित अभयारण्य है।

डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीसवीं सदी बाघों के लिए अति खतरनाक रही। वही हालात अब भी जारी हैं। संगठन का कहना है कि बीती सदी में इंडोनेशिया में बाघों की तीन उप प्रजातियां (बाली, कैस्पेन और जावा) पूरी तरह लुप्त हो गर्इं।

वन्य जीवों के लिए खतरे के मामले में पूरी दुनिया में हालात एक समान हैं। दक्षिणी चीनी बाघ प्रजाति भी तेज़ी से विलुप्त होने की ओर बढ़ रही है। संगठन का कहना है कि सरकारी और गैरसरकारी संरक्षण प्रयासों के बावजूद विपरीत परिस्थितियां निरीह प्राणियों की जान ले रही हैं। बाघों और शेरों की जान कई बार अभयारण्यों में बाढ़ का पानी भर जाने से चली जाती है, तो कई बार सुरक्षित स्थानों की ओर भागने के प्रयास में वे वाहनों से कुचले जाते हैं या शिकारियों का निशाना बन जाते हैं।

भारतीय वन्यजीव संस्थान ने आज से तीस साल पहले एक अध्ययन में बताया था कि एशियाई शेरों में अंत:जननके चलते आनुवंशिक बीमारी हो सकती है। अगर ऐसा हुआ, तो इन शेरों की मौत हो जाएगी और उसके चलते एशिया से शेरों का अस्तित्व भी खत्म हो सकता है। बीमारी से आहिस्ताआहिस्ता लेकिन कम समय में ये सभी शेर मारे जा सकते हैं। इसी आशंका के चलते वन्यजीव संस्थान ने सरकार को इन शेरों में से कुछ शेरों को किसी दूसरे जंगल में स्थानांतरित करने की योजना बनाकर दी थी। संस्थान का मानना था कि अंत:जनन के चलते अगर एक जगह किसी बीमारी से शेरों की नस्ल नष्ट हो जाती है, तो दूसरी जगह के शेर अपनी नस्ल और अस्तित्व को बचा लेंगे। गुजरात के एक जीव विज्ञानी रवि चेल्लम ने भी 1993 में कहा था कि दुर्लभ प्रजाति के इन शेरों को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें किसी और जगह पर भी बसाना ज़रूरी है।

बहरहाल डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. की सलाह और एशियाई शेरों पर हुए शोधों के आधार पर भारतीय वन्यजीव संस्थान ने साल 1993-94 में पूरे देश में सर्वेक्षण के बाद कुछ शेरों को मध्य प्रदेश के कूनोपालपुर अभयारण्य में शिफ्ट करने की योजना बनाई। इन शेरों के पुनर्वास के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार और भारतीय वन्यजीव संस्थान के सहयोग से मध्य प्रदेश में 1996-97 से एक कार्य योजना प्रारंभ की गई। लेकिन गुजरात सरकार अपने शेर ना देने पर अड़ गई। गुजरात सरकार की दलील है कि कूनोपालपुर का पारिस्थितिकी तंत्र एशियाई शेर के अनुकूल नहीं है और यदि वहां शेर स्थानांतरित किए गए, तो मर जाएंगे। यह आशंका पूरी तरह से निराधार है। कूनोपालपुर अभयारण्य में शेरों की इस प्रजाति के लिए हर तरह का माकूल माहौल है। साल 1981 में स्थापित कूनोपालपुर वनमंडल 1245 वर्ग कि.मी. में फैला हुआ है। इसमें से 344 वर्ग कि.मी. अभयारण्य का क्षेत्र है। इसके अलावा 900 वर्ग कि.मी. क्षेत्र अभयारण्य के बफर ज़ोन में आता है।

गुजरात सरकार की हठधर्मिता का ही नतीजा था कि मध्य प्रदेश सरकार को आखिरकार अदालत का रुख करना पड़ा। इस मामले में राज्य सरकार ने साल 2009 में एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की। जिसमें उसने एशियाई शेरों को कूनोपालपुर अभयारण्य लाने की मांग की। उच्चतम न्यायालय में चली लंबी सुनवाई के बाद फैसला आखिरकार मध्य प्रदेश सरकार के हक में हुआ। अप्रैल, 2013 में अदालत ने गुजरात सरकार की तमाम दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि इस प्रजाति के अस्तित्व पर खतरा है और इनके लिए दूसरे घर की ज़रूरत है। लिहाज़ा एशियाई शेरों को गुजरात से मध्य प्रदेश लाकर बसाया जाए। अदालत ने इस काम के लिए सम्बंधित वन्यजीव अधिकारियों को छह महीने का समय दिया था। लेकिन अफसोस, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी गुजरात सरकार ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और मध्य प्रदेश को शेर देने से साफ इंकार कर दिया। इस मामले में गुजरात सरकार ने शीर्ष अदालत में पुनरीक्षण याचिका दायर कर रखी है। दूसरी ओर, हकीकत यह है कि पिछले ढाई साल में 200 से ज़्यादा शेरों की मौत हो चुकी है। इनमें कई मौतें अप्राकृतिक हैं। सरकार का यह दावा पूरी तरह से खोखला निकला है कि गिर के जंगलों में शेर पूरी तरह से महफूज़ है। दुर्लभ एशियाई शेर भारत और दुनिया भर में बचे रहें, इसके लिए समन्वित प्रयास बेहद ज़रूरी हैं। एशियाई शेर ज़िद से नहीं, बल्कि जज़्बे से बचेंगे। जज़्बा यह होना चाहिए कि किसी भी हाल में हमें जंगल के इस बादशाह को बचाना है। गुजरात सरकार अपनी ज़िद छोड़े और इन शेरों में से कुछ शेर तुरंत कूनोपालपुर को स्थानांतरित करे, तभी जाकर शेरों की यह दुर्लभ प्रजाति हमारे देश में बची रहेगी।(स्रोत फीचर्स)

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खतरे में है ओरांगुटान की नई प्रजाति – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

रांगुटान हमारे करीबी रिश्तेदार हैं क्योंकि इनका जीनोम और मानव जीनोम 96.4 प्रतिशत समान है। ये अपने खास लाल फर के लिए पहचाने जाते हैं तथा पेड़ों पर रहने वाले सबसे बड़े स्तनधारी हैं। ये लंबी तथा शक्तिशाली भुजाओं से एक से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाते हैं और इस दौरान हाथ और पैरों से मज़बूत पकड़ बनाए रखते हैं।

ब्रुनेई, इंडोनेशिया, मलेशिया तथा सिंगापुर में बोली जाने वाली मलय भाषा में ओरांगुटान का मतलब होता है जंगल का मानव। ये निचले भूभाग के जंगलों में अकेले रहना पसंद करते हैं। लीची, मैंगोस और अंजीर जैसे जंगली फल इनकी खुराक हैं। रात होने के पूर्व ये वृक्ष की शाखाओं का घोंसला बनाकर सोते हैं। 90 कि.ग्रा. के भारी भरकम नर ओरांगुटान को उनके गालों के गद्दे (फ्लेंज) तथा ज़ोरदार लंबी आवाज लगाने के लिए गले की थैली से आसानी से पहचाना जा सकता है।

ब्रुनेई तथा सुमात्रा में पाए जाने वाले ओरांगुटान व्यवहार तथा दिखने में कुछ भिन्न होते हैं। सुमात्रा के ओरांगुटान के परिवार में सदस्यों का एकदूसरे से जुड़ाव ज़्यादा होता है तथा चेहरे के बाल लंबे होते हैं। ब्रुनेई के ओरांगुटान पेड़ों को छोड़कर बेझिझक ज़मीन पर भी आ जाते हैं। हाल ही के वर्षों में दोनों प्रजातियों की आबादी में बेहद ज़्यादा गिरावट देखी गई है। एक शताब्दी पूर्व ही ब्रुनेई तथा सुमात्रा में इनकी संख्या 2,30,000 थी। अब ब्रुनेई में कुल जमा 1,04,700 तथा सुमात्रा में लगभग 7500 ओरांगुटान बचे हैं और इन्हें क्रमश: संकटग्रस्त व लुप्तप्राय श्रेणियों में रखा गया है। 2017 में तपानुली ओरांगुटान के नाम की नई प्रजाति उत्तरी सुमात्रा से खोजी गई है जिनकी संख्या केवल 800 है। यह वनमानुषों में सबसे कम है। नई प्रजाति सुमात्रा के बटांग तोरू के परिस्थितिक तंत्र में 1225 वर्ग कि.मी. के ऊंचाई पर स्थित घने जंगलों में पेड़ों पर मिलती है। ऐसा अनुमान है कि लगभग 10-20 हज़ार साल पहले ही बाकी ओरांगुटान प्रजातियों से अलग होकर तपानुली ओरांगुटान प्रजाति अस्तित्व में आई है। इनके आवास का क्षेत्रफल छोटा, बिखरा हुआ तथा संरक्षण से वंचित रहा है। इनके आवास क्षेत्र के अधिकांश हिस्से कृषि, सड़क या रेल मार्ग, शिकार, पनबिजली परियोजनाओं तथा बाढ़ के कारण सिकुड़ गए हैं।

यद्यपि इक्कीसवीं सदी में वनमानुष की नई प्रजाति खोजना उत्साहजनक है परंतु इनको संरक्षित करने की कार्रवाई तुरंत की जानी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि नई खोजी गई प्रजाति हमारे सामने ही विलुप्त हो जाए। (स्रोत फीचर्स)

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विलुप्त होने की कगार पर गिद्ध – डॉ. दीपक कोहली

गिद्धों का हमारे पारिस्थतिकी तंत्र में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कई धर्मों में भी इसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। गिद्ध एक अपमार्जक (सफाई करने वाला) पक्षी है। इनकी कुल 22 प्रजातियां होती हैं। भारत में गिद्ध की पांच प्रजातियां पाई जाती हैं भारतीय गिद्ध (Gyps indicus), लंबी चोंच का गिद्ध (Gyps tenuirostris), लाल सिर वाला गिद्ध (Sarcogyps calvus), बंगाल का गिद्ध (Gyps bengalensis), सफेद गिद्ध (Neophron percnopterus)

गिद्ध की चोंच लंबी एवं अंकुश नुमा होती है जिससे वे मृत जानवर के शव को नोचकर खाने के बाद भी स्वच्छ रहते हैं। गिद्ध भोजन करने के पश्चात तुरंत स्नान करना पसंद करते हैं जिससे भोजन के दौरान शरीर पर लगे रक्त को पानी से धो सकें और ऐसा करके वे कई बीमारियों से अपना बचाव करते हैं।

गिद्ध बड़े कद के पांच से दस किलो वज़न के पक्षी हैं जो गर्म हवा के स्तम्भों पर विसर्पण द्वारा सकुशल उड़ान भरने में दक्ष होते हैं। आसमान की ऊंचाई से उनकी तीक्ष्ण दृष्टि भोजन हेतु जानवरों के शव ढूंढ लेती है। हमारे देश में गिद्ध विशेष रूप से बहुत अधिक संख्या में पाए जाते थे क्योंकि कृषि प्रधान देश में मवेशियों के पर्याप्त शवों की उपलब्धता के कारण गिद्धों के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध रहता था। गिद्धों के सिर व गर्दन पंख विहीन होते हैं। गिद्ध चार से छ: वर्ष की आयु में प्रजनन योग्य वयस्क पक्षी बन जाते हैं एवं 37-40 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त करते हैं। पक्षीविदों के अनुसार पृथ्वी के सभी भागों में गिद्धों की संख्या स्थिर बनी हुई थी किंतु लगभग 10-15 वर्ष पूर्व से दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में इनकी संख्या में तीव्र गिरावट आनी शुरू हुई। इस पक्षी की कई प्रजातियां आज लुप्त होने की कगार पर  हैं। एक अनुमान के मुताबिक 1952 से आज तक इस पक्षी की संख्या में 99 प्रतिशत कमी हुई है।

कुछ वर्षों पहले तक प्राय: हर स्थान पर, जहां किसी पशु का मृत शरीर पड़ा रहता था, वहां शव भक्षण करते गिद्ध हम सभी ने देखे हैं किंतु अब यह दृश्य दुर्लभ हो गए हैं। पशुओं के मृत शरीर कई दिनों तक लावारिस पड़े रहकर वायुमंडल में दुर्गंध व प्रदूषण फैलाते रहते हैं। इसका मुख्य कारण दिन प्रतिदिन गिद्धों की घटती संख्या है।

सुप्रसिद्ध पक्षीविद डॉक्टर सालिम अली ने अपनी पुस्तक इंडियन बर्ड्स में गिद्धों का वर्णन सफाई की एक कुदरती मशीन के रूप में किया है। गिद्धों का एक समूह एक मृत सांड को मात्र 30 मिनट में साफ कर सकता है। अगर गिद्ध हमारी प्रकृति का हिस्सा न होते तो हमारी धरती हड्डियों और सड़े मांस का ढेर बन जाती। गिद्ध मृत शरीरों का भक्षण कर हमें कई तरह की बीमारियों से बचाते हैं। गिद्धों की तेज़ी से घटती संख्या के साथ हम अपने पर्यावरण की खाद्य कड़ी के एक महत्वपूर्ण जीव को खोते जा रहे हैं, जो हमारी खाद्य शृंखला के लिए घातक है। 

गिद्धों की घटती संख्या के कारण जहां मृत शरीरों के निस्तारण की समस्या जटिल हो गई है वहीं अन्य अपमार्जकों की संख्या में वृद्धि हुई है। आवारा कुत्तों तथा चूहों की संख्या बढ़ी है लेकिन ये गिद्ध जितने कुशल नहीं है। इनकी बढ़ती संख्या के कारण रेबीज़ आदि रोगों के फैलने की समस्या बनी रहती है। कुत्तों की बढ़ती संख्या से वन्य प्राणियों को क्षति पहुंचने की भी आशंका रहती है।

गिद्धों की घटती संख्या का कारण ज्ञात करने के निरंतर प्रयास किए गए हैं। 1950 और 60 के दशक में धारणा थी कि पशुओं के मृत शरीर में डीडीटी का अंश बढ़ने के कारण डीडीटी गिद्धों के शरीर में भी पहुंच रहा है तथा इसके कारण उनके अधिकांश अंडे परिपक्व होने से पूर्व ही टूट जा रहे हैं। यह धारणा कालांतर में त्याग दी गई क्योंकि अन्य पक्षियों में इस तरह का कोई असर नहीं देखा गया। कुछ विशेषज्ञों का मत था कि गिद्धों पर किसी विषाणु का आक्रमण हो गया है जिस कारण वे सुस्त हो जाते हैं। गिद्ध अपने शरीर का तापमान कम करने के लिए ऊंची उड़ान भरते हैं, ऊंचाई में वायुमंडल में ऊपर तापमान कम होता है तथा वहां जाकर गिद्ध ठंडक प्राप्त करते हैं। विषाणु से उत्पन्न सुस्ती के कारण ये उड़ान नहीं भर पाते हैं तथा बढ़ते तापमान के कारण शरीर में पानी की कमी हो जाती है इससे यूरिक एसिड के सफेद कण इनके ह्रदय, लीवर, किडनी में जम जाते हैं और अंतत: इनकी मृत्यु हो जाती है।

आधुनिक व सघन अनुसंधान के उपरांत अकाट्य प्रमाण मिला है कि पशु चिकित्सा में बुखार, सूजन एवं दर्द आदि के लिए उपयोग की जाने वाली डायक्लोफेनेक औषधि गिद्धों की संख्या में कमी के लिए उत्तरदायी है। किसी पालतू पशु का उपचार डायक्लोफेनेक द्वारा करने पर उस पशु के शव गिद्ध द्वारा खाए जाने पर उसके मांस के माध्यम से डायक्लोफेनेक औषधि गिद्ध के शरीर में प्रवेश कर विषैला प्रभाव डालती है। डायक्लोफेनेक गिद्ध के गुर्दे में गाउट नामक रोग उत्पन्न करता है, जो गिद्धों के लिए प्राण घातक होता है।

कारण चाहे जो भी हो, गिद्धों की संख्या कम होना वास्तव में गंभीर चिंता का विषय है और यदि यह क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब गिद्ध भी डोडो की तरह केवल पुस्तकों में ही सीमित होकर रह जाएंगे।

गिद्धों का संरक्षण व उनकी संख्या में वृद्धि के प्रयासों में जीवित गिद्धों का वृहद स्तर पर सर्वे, बाड़ों में रखकर प्रजनन व उसकी सहायता से गिद्धों का पुनर्वास एवं सबसे महत्वपूर्ण कदमडायक्लोफेनेक औषधि पर पूर्ण प्रतिबंध जैसे प्रयास शामिल हैं। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी जैसे कुछ संगठनों के अथक प्रयासों से इस दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी हासिल हुई है। भारतीय औषधि महानियंत्रक ने सभी राज्यों में पशुचिकित्सा में डायक्लोफेनेक औषधि पर प्रतिबंध के निर्देश दिए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्राकृतिक सफाईकर्मी को विलुप्त होने से बचाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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पेंगुइंस की घटती आबादी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पृथ्वी के दक्षिणी हिस्से में बर्फ से आच्छादित भाग में बहुत कम प्राणी जीवित रह पाते हैं। किंतु दो पैरों पर डोलते हुए चलने वाले, बर्फीले वातावरण के अनुकूल व उड़ने में असमर्थ पक्षी पेंगुइन के लिए यह स्वर्ग है। पेंगुइन का नाम सुनते ही हम कालेसफेद रंग के शरीर वाले छोटे आकार के जंतु की कल्पना करने लगते हैं। वास्तव में ये पक्षी अनेक आकार और रंग वाले भी होते हैं। कलगीदार (क्रेस्टेड) पेंगुइन को ही लीजिए जिनके सर पर नीले रंग के पंख मुकुट जैसे दिखते हैं। एंपरर और किंग पेंगुइन के चेहरे की पार्श्व सतह पर नारंगी और पीले रंग की आभा, काले चेहरे तथा सफेद छाती इन्हें बेहद सुंदर बना देती है। फिओर्डलैंड, स्नेयर, रॉयल तथा रॉकहॉपर पेंगुइंस की सफेद और पीले रंग के लंबे रेशों वाली भौहें इन्हें बाकी पेंगुइंस से अधिक आकर्षक बना देती है। येलो आइड पेंगुइन की आंखें पीले रंग से घिरी रहती है। कुल मिलाकर पेंगुइन की 17 प्रजातियां हैं।

सबसे छोटे आकार की पेंगुइन प्रजाति लिटिल ब्लू लगभग 12 इंच की होती है तथा सबसे लंबी प्रजाति एंपरर पेंगुइन 44 इंच लंबी होती है।

कहां रहते हैं पेंगुइंस?

पेंगुइंस उड़ तो नहीं सकते परंतु चप्पू जैसे रूपांतारित हाथ इन्हें बेहद माहिर तैराक बनाते हैं। ये अपने जीवन का 80 प्रतिशत समय समुद्र में तैरते हुए ही बिताते हैं। सभी पेंगुइन दक्षिणी गोलार्ध में रहते हैं हालांकि यह एक आम मिथक है कि वे सभी अंटार्कटिका में ही रहते हैं। वास्तव में दक्षिणी गोलार्ध में हर महाद्वीप पर पेंगुइन पाए जा सकते है। यह भी एक मिथक है कि पेंगुइन केवल ठंडे इलाकों में पाए जाते हैं। गैलापगोस द्वीपसमूह में पाए जाने वाले पेंगुइन भूमध्य रेखा के उष्णकटिबंधीय समुद्री किनारों पर रहते हैं।

क्या खाते हैं पेंगुइन?

पेंगुइन मांसाहारी हैं। उनका आहार समुद्र में पाए जाने वाले छोटे क्रस्टेशियन जीव, स्क्विड और मछलियां हैं। पेंगुइन बहुत पेटू भी होते हैं। कई बार तो इनके समूह इतना खाते हैं कि इनकी आबादी के आसपास का क्षेत्र भोजन रहित हो जाता है। प्रत्येक दिन कुछ पेंगुइन तो औसत 200 बार गोता लगाकर समुद्र में 120 फीट नीचे तक भोजन की तलाश में चले जाते हैं।

पेंगुइन के बच्चे

पेंगुइन के समूह को कॉलोनी कहते हैं। प्रजनन ऋतु में पेंगुइन समुद्र के किनारों पर आकर बड़े समूहों में एकत्रित हो जाते हैं। इन समूहों को रूकरी कहते हैं। अधिकाश पेंगुइंस मोनोगेमस होते हैं अर्थात प्रत्येक प्रजनन ऋतु में एक नर और एक मादा का जोड़ा बनता है और पूरे जीवनकाल तक साथसाथ रहकर प्रजनन करता है।

लगभग पांच साल की उम्र में मादा पेंगुइन प्रजनन के लिए परिपक्व हो जाती है। ज़्यादातर प्रजातियां वसंत और ग्रीष्म के दौरान प्रजनन करती हैं। आम तौर पर नर पेंगुइन प्रजनन में पहल करते हैं। मादा पेंगुइन को प्रजनन के लिए मनाने के पूर्व ही नर घोंसले के लिए एक अच्छी जगह का चयन कर लेते हैं।

प्रजनन के बाद मादा एंपरर तथा किंग पेंगुइन केवल एक ही अंडा देती है। पेंगुइन की सभी अन्य प्रजातियां दो अंडे देती हैं। एंपरर पेंगुइन को छोड़कर अन्य सभी प्रजातियों में अंडों को सेने का कार्य मातापिता दोनों बारीबारी से करते हैं। इसके लिए वे घोंसले में अंडे को पैरों के बीच रखकर बैठते हैं। एंपरर पेंगुइन में अंडा नर के ज़िम्मे सौंपकर मादा कई सप्ताह के लिए भोजन की तलाश में दूर निकल जाती है। पेंगुइन के बच्चे बड़े होकर जब अंडे से निकलने की तैयारी में होते हैं तो वे अपनी चोंच की सहायता से अंडे को तोड़कर बाहर आते हैं। बच्चों को भोजन देने का कार्य नर एवं मादा दोनों करते हैं। भोजन को चबाकर पुन: मुंह से निकालकर बच्चों को दिया जाता है। बच्चों की आवाज़ से मातापिता उन्हें खोज लेते हैं।

खतरे में पेंगुइन

पेंगुइन की अधिकांश प्रजातियां खतरे में है। अंटार्कटिक साइंस में प्रकाशित हाल ही में किए गए शोध के अनुसार अफ्रीका और अंटार्कटिका के बीच दक्षिणी हिंद महासागर के पिग द्वीप पर पेंगुइंस के बड़े समूह में से 88 प्रतिशत तक पेंगुइन घट गए हैं। विश्व के किंग पेंगुइंस की एक तिहाई जनसंख्या यहीं पाई जाती है। पिछले पांच दशकों से वैज्ञानिकों का एक दल हवाई और उपग्रह तस्वीरों से पेंगुइन की कालोनी के आकार में परिवर्तन पर निगाहें जमाए हुए था। 1980 में विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाले किंग पेंगुइन के पांच लाख प्रजनन जोड़े घटकर 2018 में केवल 60,000 जोड़े तक सीमित हो गए हैं। वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि किंग पेंगुइन की जनसंख्या 1990 से गिरना प्रारंभ हुई थी। यह वही समय था जब अलनीनो प्रभाव हुआ था। भूमध्य रेखा के आसपास के क्षेत्र में प्रशांत महासागर के वातावरण में अलनीनो एक अस्थायी परिवर्तन है। इसके कारण पेंगुइन का भोजन, जैसे मछली तथा अन्य प्राणी उनकी कालोनी से दूर दक्षिण में चले जाते हैं। आसानी से मिलने वाला भोजन अलनीनो प्रभाव के कारण दूभर हो जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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व्हेल में भक्षण की छन्ना विधि कैसे विकसित हुई

ब्लू व्हेल और उसके नज़दीकी रिश्तेदार ही चंद ऐसे जीव हैं जो भोजन प्राप्त करने के लिए बेलीन का उपयोग करते हैं। बेलीन केरेटीन नामक पदार्थ की कंघीनुमा रचनाएं है जिनकी मदद से व्हेल अपना सूक्ष्मजीव भोजन हासिल करती है। ये व्हेल करती यह हैं कि पानी में मुंह खोलकर ढेर सारा पानी मुंह में भर लेती हैं और फिर बेलीन को बंद करके पानी को बाहर फेंकती हैं। पानी तो निकल जाता है लेकिन छोटेछोटे जीव अंदर रह जाते हैं जो व्हेल का भोजन बन जाते हैं। एक तरह से बेलीन छानकर भोजन प्राप्त करने का एक तरीका है।

वैसे व्हेल के शुरुआती पूर्वजों में आज की किलर व्हेल की तरह दांत होते थे। वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे कि व्हेल में बेलीन कैसे विकसित हुए। एक परिकल्पना यह है कि बेलीन का विकास दांतों से ही क्रमिक रूप से हुआ है। जैसे कि वाशिंगटन में मिले 3 करोड़ वर्ष पुराने व्हेल के एक जीवाश्म के अध्ययन के मुताबिक इनमें पैने, बागड़नुमा दांत थे। इनके बीच में थोड़ी जगह खाली होती थी, जिससे वे भोजन अलग करती होंगी। एक अन्य परिकल्पना के अनुसार व्हेल कुछ समय तक भोजन प्राप्त करने के लिए दांतों और बेलीन दोनों का उपयोग करती रही होंगी।

मगर हाल ही में कशेरुकी जीवाश्म विज्ञान की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत व्हेल की एक लगभग समूची खोपड़ी के जीवाश्म का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया जो इन दोनों परिकल्पनाओं को झुठला देता है।

जॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय के पुराजीव वैज्ञानिक कार्लोस पेरेडो और उनके साथी मार्क उहेन कहना है कि ओरेगन में 1970 के दशक में मिले व्हेल के जीवाश्म के अध्ययन से पता चलता है कि पहले व्हेल ने अपने दांत गंवा दिए थे और बाद में स्वतंत्र रूप से उनमें बेलीन विकसित हुए। ये दो संरचनाएं कभी साथसाथ नहीं रहीं।

शोधकर्ताओं ने 3 करोड़ साल पुरानी व्हेल की खोपड़ी के अंदर वाले हिस्से का सीटी स्कैन किया। इसमें ना तो उन्हें दांत मिले और ना ही बेलीन को सहारा देने वाली हड्डी। मगर और बारीकी से अध्ययन करने पर पाया कि इसमें भोजन हासिल करने का अलग ही तंत्र मौजूद था: चूषण तंत्र।

पहले तो उन्हें इस बात पर यकीन नहीं हुआ किंतु खोपड़ी के आकार ने बात साफ कर दी। खोपड़ी का यह आकार शक्तिशाली मांसपेशियों को सहारा देता होगा जो चूसने में मददगार रही होंगी। पूरी बात की पुष्टि इस आधार पर हुई कि यह जीवाश्म दांत वाली व्हेल और बेलीन वाली व्हेल के बीच के समय का है। अर्थात बेलीन के विकास से पहले व्हेल अपने दांत गंवा चुकी थी।

मोनाश यूनिवर्सिटी के वैकासिक जीवाश्म विज्ञानी एलिस्टेयर इवांस का कहना है कि वे भी ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुंचे थे। उन्होंने 2016 में दांत वाली बेलीन व्हेल पर अध्ययन किया था। इस अध्ययन के अनुसार व्हेल अपने दांतों की जगह चूसकर भोजन ग्रहण करती थी। उनका कहना है कि ओरेगन में मिला व्हेल का जीवाश्म हमारे अनुमान को पुख्ता करता है। और बेलीन के विकास की कड़ी जोड़ता है। उनके अनुसार बेलीन का विकास अधिक भोजन हासिल करने के लिए हुआ है। पेरेडो का कहना है कि यह लगभग 2.3 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ होगा। (स्रोत फीचर्स)

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सीने में छुपा पक्षियों की मधुर आवाज़ का राज़

कई पक्षियों की मधुर आवाज़ उनके सीने में छुपे एक रहस्यमयी अंग से आती है जिसे सिरिंक्स कहते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि जैव विकास की प्रक्रिया में सिरिंक्स केवल एक बार विकसित हुआ है और यह विकास से सर्वथा नवीन रचना के निर्माण का दुर्लभ उदाहरण है क्योंकि अन्य किसी सम्बंधित जीव में ऐसी कोई रचना नहीं पाई जाती जिससे सिरिंक्स विकसित हो सके।

सरीसृप, उभयचर और स्तनधारी सभी में ध्वनि के लिए लैरिंक्स होता है जो सांस नली के ऊपरी हिस्से में होता है। इसके ऊतकों की तहों (वोकल कॉर्ड) में कम्पन्न से मनुष्यों की आवाज़, शेर की दहाड़ या सुअरों के किंकियाने की आवाज़ पैदा होती है। पक्षियों में भी लैरिंक्स होता है। लेकिन ध्वनि निकालने के लिए वे इस अंग का उपयोग नहीं करते। वे सिरिंक्स का उपयोग करते हैं। सिरिंक्स सांस नली में थोड़ा नीचे की ओर वहां स्थित होता है जहां सांस नली दो भागों में बंटकर अलगअलग फेफड़ों की ओर जाती है।

टेक्सास विश्वविद्यालय की जीवाश्म विज्ञानी जूलिया क्लार्क और उनका समूह जानना चाहता था कि पक्षियों में यह विचित्र अंग कैसे विकसित हुआ। उन्होंने आधुनिक सरीसृपों और पक्षियो में सिरिंक्स और लैरिंक्स के विकास की तुलना की। उन्होंने पाया कि ये दोनों अंग बहुत अलग हैं। वोकल कॉर्ड के काम करने के लिए लैरिंक्स उसकी उपास्थि से जुड़ी मांसपेशियों पर निर्भर होता है। लेकिन सिरिंक्स उन मांसपेशियों पर निर्भर करता है जो अन्य जानवरों में जीभ के पीछे से हाथों को जोड़ने वाली हड्डियों से जुड़ी रहती हैं। अब तक यह माना जाता था कि दोनों अंग की संरचना समान है। ये दोनों अंग अलगअलग तरह से विकसित हुए हैं। लैरिंक्स मेसोडर्म और न्यूरल क्रेस्ट कोशिकाओं से बनता है, जबकि सिरिंक्स सिर्फ मेसोडर्म कोशिकाओं से बनता है।

क्लार्क और उनके साथियों का अनुमान है कि आधुनिक पक्षियों के पूर्वजों में लैरिंक्स मौजूद था। पक्षियों के आधुनिक रूप में आने के समय फेफड़ों के ठीक ऊपर श्वासनली की उपास्थि ने फैलकर सिरिंक्स का रूप ले लिया। हो सकता है कि इस प्रसार ने श्वासनली को अतिरिक्त सहारा दिया होगा। अंतत: इसमें मांसपेशियों के छल्ले विकसित हुए जिससे ध्वनि पैदा होती है। धीरेधीरे ध्वनि उत्पादन का काम लैरिंक्स से हटकर सिरिंक्स के ज़िम्मे आ गया। सिरिंक्स विभिन्न तरह की ध्वनि निकालने के लिए अधिक उपयुक्त भी है। सिरिंक्स की एक खासियत यह है कि यह दो भागों से बना है और पक्षी एक साथ दो तरह की ध्वनियां निकाल सकते हैं।

क्लार्क और उनके सहयोगियों ने अपने निष्कर्ष गत दिनों प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित किए हैं। सिरिंक्स विकास में एकदम नई संरचना है जिसमें पहले से मौजूद विशेषताओं या संरचनाओं से जुड़ी कोई स्पष्ट कड़ी नहीं हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन अन्य जीवों, जैसे कछुओं और मगरमच्छों की ध्वनि संरचना समझने में मददगार साबित हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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सबसे बड़ा जीव 770 हैक्टर बड़ा है

1980 के दशक के अंत में, शोधकर्ताओं ने मिशिगन के ऊपरी प्रायद्वीप पर एक विशालकाय फफूंद की खोज की थी। आर्मिलेरिया गैलिका नामक यह फफूंद आकार में किसी मॉल के बराबर थी और 37 हैक्टर क्षेत्र में फैली थी। इसे दुनिया का सबसे बड़ा जीव माना गया। लेकिन हाल में वैज्ञानिकों ने एक और आर्मिलेरिया गैलिका फफूंद खोजी है जो पिछली खोज से लगभग चार गुना बड़ी और उससे दुगनी उम्र की है। यह फफूंद हनी मशरूम को जन्म देती है।

अन्य फफूंद की तरह आर्मिलेरिया पतले भूमिगत धागों के रूप में पनपती है। लेकिन अधिकांश फफूंद के विपरीत, ये धागे जूते के फीतों जैसी मोटीमोटी रस्सियां बना लेते हैं जो मृत या कमज़ोर लकड़ी का उपभोग करते हुए काफी दूरी तक फैलते जाते हैं। विशाल भूमिगत नेटवर्क का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने दूर तक फैले 245 ऐसे रेशों के नमूनों का जेनेटिक विश्लेषण किया।  बायोआरकाईव में प्रकाशित पर्चे के अनुसार इस जांच में पाया गया कि ये दूरदूर फैले रेशे एक ही फफूंद के हिस्से थे। इसके तेज़ी से बढ़ने के आधार पर अनुमान लगाया गया कि यह फफूंद कम से कम 2500 वर्ष पुरानी है।

शोधकर्ताओं ने 15 समान रूप से वितरित नमूनों के जीनोम को अनुक्रमित करके देखा कि हनी मशरूम में समय के साथ बदलाव कैसे होता है। उन्हें जीनोम के 10 करोड़ क्षारों में से केवल 163 आनुवंशिक परिवर्तन देखने को मिले जो काफी धीमी गति है। उत्परिवर्तन की दर से यह पता लगाया जाता है कि एक जीव कितनी तेज़ी से विकसित हो सकता है। शोधकर्ता उत्परिवर्तन की इतनी धीमी दर को लेकर असमंजस में हैं और अभी यह नहीं कह सकते कि उत्परिवर्तनों पर अंकुश कैसे लगाया जा रहा है। वैसे उन्हें लगता है कि एक भलीभांति विकसित डीएनए मरम्मत की व्यवस्था या फिर भूमिगत रहते हुए सूरज की रोशनी से दूर रहना उत्परिवर्तन की धीमी दर का एक कारण हो सकता है।

यह अब दुनिया का सबसे पुराना और सबसे बड़ा जीव है जिसकी उम्र 8000 वर्ष से भी अधिक है और यह 770 हैक्टर के लंबेचौड़े क्षेत्र में फैला है। (स्रोत फीचर्स)

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खरपतवारनाशी – सुरक्षित या हानिकारक

ग्लायफोसेट, दुनिया में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला खरपतवारनाशी यानी हर्बीसाइड है। ऐसा बताया गया था कि यह जंतुओं के लिए हानिकारक नहीं है। लेकिन शायद यह मधुमक्खियों के लिए घातक साबित हो रहा है। यह रसायन मधुमक्खियों के पाचन तंत्र में सूक्ष्मजीव संसार को तहस-नहस करता है, जिसके चलते वे संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं। इस खोज के बाद दुनिया में मधुमक्खियों की संख्या में गिरावट की आशंका और भी प्रबल हो गई है।

ग्लायफोसेट कई महत्वपूर्ण एमिनो अम्लों को बनाने वाले एंज़ाइम की क्रिया को रोककर पौधों को मारता है। जंतु तो इस एंज़ाइम का उत्पादन नहीं करते हैं, लेकिन कुछ बैक्टीरिया द्वारा अवश्य किया जाता है।

टेक्सास विश्वविद्यालय की एक जीव विज्ञानी नैंसी मोरन ने अपने सहकर्मियों के साथ एक छत्ते से लगभग 2000 मधुमक्खियां लीं। कुछ को चीनी का शरबत दिया और अन्य को चीनी के शरबत में मिलाकर ग्लायफोसेट की खुराक दी गई। ग्लायफोसेट की मात्रा उतनी ही थी जितनी उन्हें पर्यावरण से मिल रही होगी। तीन दिन बाद देखा गया कि ग्लायफोसेट का सेवन करने वाली मधुमक्खियों की आंत में स्नोडग्रेसेला एल्वी नामक बैक्टीरिया की संख्या कम थी। लेकिन कुछ परिणाम भ्रामक थे। ग्लायफोसेट का कम सेवन करने वाली मक्खियों की तुलना में जिन मधुमक्खियों ने अधिक का सेवन किया था उनमें 3 दिन के बाद अधिक सामान्य दिखने वाले सूक्ष्मजीव संसार पाए गए। शोधकर्ताओं को लगता है कि शायद बहुत उच्च खुराक वाली अधिकांश मधुमक्खियों की मृत्यु हो गई होगी और केवल वही बची रहीं जिनके पास इस समस्या से निपटने के तरीके मौजूद थे।

मधुमक्खी में सूक्ष्मजीव संसार में परिवर्तन घातक संक्रमण से बचाव की उनकी प्रक्रिया को कमजोर बनाते हैं। परीक्षणों में ग्लायफोसेट का सेवन करने वाली केवल 12 प्रतिशत मधुमक्खियां ही सेराटिया मार्सेसेंस के संक्रमण से बच सकीं। सेराटिया मार्सेसेंस मधुमक्खियों के छत्तों में पाए जाने वाले आम जीवाणु हैं। दूसरी ओर, ग्यालफोसेट से मुक्त 47 प्रतिशत मधुमक्खियां ऐसे संक्रमण से सुरक्षित रहीं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में प्रकाशित इस शोध ने मधुमक्खियों की तादाद में कमी के लिए एक संभावित कारण और जोड़ दिया है।

यह खोज मानव तथा जंतुओं पर ग्लायफोसेट के प्रभाव पर भी सवाल उठाती है। क्योंकि मानव आंत और मधुमक्खी की आंत में सूक्ष्म जीवाणुओं की भूमिका में कई समानताएं हैं। इस खोज ने विवादास्पद खरपतवारनाशी को दोबारा से शोध का विषय बना दिया है।(स्रोत फीचर्स)

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