क्या टीके की दूसरी खुराक में देरी सुरक्षित है?

सार्स-कोव-2 महामारी को नियंत्रित करने के प्रयासों में एक बड़ी समस्या टीकों की कमी और उसका वितरण है। ऐसे में कुछ वैज्ञानिकों ने दूसरी खुराक को स्थगित करने का सुझाव दिया है ताकि अधिक से अधिक लोगों को पहली खुराक मिल सके। अमेरिका में अधिकृत फाइज़र टीके की दो खुराकों के बीच 21 दिन और मॉडर्ना के लिए 28 दिन की अवधि तय की गई थी। अब सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने 42 दिन के अंतराल के निर्देश दिए हैं। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी-एस्ट्राज़ेनेका द्वारा निर्मित टीके की दो खुराकों के बीच 12 सप्ताह के अंतराल का सुझाव दिया गया है और दावा है कि यह शायद बेहतर होगा। तो टीके की एक खुराक के बाद आप कितने सुरक्षित हैं और यदि दूसरी खुराक न मिले तो क्या होगा? ऐसे ही कुछ सवालों पर चर्चा।             

दो खुराक क्यों ज़रूरी?

वास्तव में टीकों को प्रतिरक्षा स्मृति बनाने की दृष्टि से तैयार किया जाता है। इसकी मदद से हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को हमलावर वायरसों की पहचान करने और उनसे बचाव करने की क्षमता मिलती है, भले ही प्रणाली ने पहले कभी इनका सामना न किया हो। अधिकांश कोविड टीके नए कोरोनावायरस स्पाइक प्रोटीन की प्रतियों के माध्यम से प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित करते हैं। दो खुराक देने का मतलब अधिक सुरक्षा प्रदान करना है। ड्यूक ह्यूमन वैक्सीन इंस्टिट्यूट के मुख्य परिचालन अधिकारी थॉमस डेनी के अनुसार पहली खुराक प्रतिरक्षात्मक स्मृति शुरू करती है, तो दूसरी खुराक इसे और ठोस बनाती है। उदाहरण के लिए फाइज़र टीके की एक खुराक से लाक्षणिक संक्रमण के जोखिम में लगभग 50 प्रतिशत की कमी आ सकती है जबकि मॉडर्ना टीके की एक खुराक से यह जोखिम 80 प्रतिशत कम हो जाता है। दोनों खुराकें मिलने पर दोनों टीकों के द्वारा जोखिम लगभग 95 प्रतिशत कम हो जाता है।      

42 दिन के अंतर अनुमति क्यों?

सीडीसी के अनुसार दो खुराकों के बीच 42 दिनों तक की अनुमति का निर्णय इस फीडबैक के आधार पर लिया गया है कि तारीखों का लचीलापन लोगों के लिए मददगार है। जहां यूके में दो खुराकों के बीच की अवधि को बढ़ाने का उद्देश्य अधिक लोगों का टीकाकरण करना है, वहीं सीडीसी का मानना है कि इससे दूसरी खुराक की जटिलता कम होगी। गौरतलब है कि अमेरिका में टीकाकरण देर से शुरू हुआ है और पहली खुराक मिलने के दो महीने बाद मात्र 3 प्रतिशत लोगों को ही दूसरी खुराक मिल पाई है। टीका निर्माता मांग को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में पूरा टीकाकरण करने में कुछ समझौते तो करने ही होंगे। वैज्ञानिकों के अनुसार पर्याप्त मात्रा में टीके उपलब्ध होने पर अलग रणनीति अपनाई जा सकती है लेकिन फिलहाल उपलब्ध संसाधनों से ही काम चलाना होगा।           

42 दिनों तक आप कितने सुरक्षित हैं

फाइज़र और मॉडर्ना के परीक्षण के आकड़ों के अनुसार लोगों में पहली खुराक के लगभग 14 दिनों बाद सुरक्षा देखी गई है। इस दौरान टीकाकृत लोगों में मरीज़ों की संख्या में कमी और गैर-टीकाकृत लोगों में मरीज़ों की संख्या में वृद्धि देखी जा सकती है। देखा जाए तो दोनों ही टीकों की पहली खुराक कोविड के मामलों को रोकने में 50 प्रतिशत (फाइज़र) और 80 प्रतिशत (मॉडर्ना) प्रभावी थे। परीक्षण किए गए अधिकांश लोगों को दूसरी खुराक 21 या 28 दिन में मिली थी। बहुत थोड़े से लोगों (0.5 प्रतिशत) को 42 दिन इंतज़ार करना पड़ा। इतनी छोटी संख्या के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना कठिन है।    

क्या आंशिक प्रतिरक्षा अधिक खतरनाक वायरस पैदा करेगी?

चूंकि महामारी की शुरुआत में इस वायरस के विरुद्ध किसी तरह की प्रतिरक्षा नहीं थी इसलिए नए कोरोनावायरस के विकसित होने की संभावना बहुत कम थी। लेकिन वर्तमान में लाखों लोगों के संक्रमित होने और एंटीबॉडी विकसित होने से उत्परिवर्तित वायरसों के विकास की संभावना काफी बढ़ गई है। रॉकफेलर युनिवर्सिटी के रेट्रोवायरोलॉजिस्ट पॉल बीनियाज़ के अनुसार टीके किसी भी तरह लगाए जाएं, एंटीबॉडी के जवाब में वायरस विकसित होता ही है।

जिस तरह से एंटीबायोटिक दवाओं का पूरा कोर्स न करने पर एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया विकसित होने लगते हैं, उसी तरह ठीक से टीकाकरण न होने पर आपका शरीर एंटीबॉडी-प्रतिरोधी वायरस के लिए स्वर्ग बन जाता है। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार नए-नए वायरसों के पैदा होने की गति सिर्फ प्रतिरक्षा प्रणाली के मज़बूत या कमज़ोर होने पर नहीं, बल्कि जनसंख्या में उपस्थित वायरस की कुल संख्या पर भी निर्भर करती है। बड़े स्तर पर टीकाकरण के बिना नए संस्करणों की संख्या बढ़ने का खतरा है।   

क्या पहली और दूसरी खुराक के बीच लंबा अंतराल टीके को अधिक प्रभावी बना सकता है?

ऐसी संभावना से इन्कार तो नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो सभी कोविड टीके एक समान नहीं हैं और खुराक देने का तरीका भी विशिष्ट डिज़ाइन पर निर्भर करता है। कुछ टीके mRNA टीके अस्थिर आनुवंशिक सामग्री पर आधारित होते हैं, कुछ स्थिर डीएनए पर तो कुछ अन्य प्रोटीन अंशों पर निर्भर होते हैं। इनको छोटी वसा की बूंदों या फिर निष्क्रिय चिम्पैंज़ी वायरस के साथ दिया जाता है।

ऐसी भिन्नताओं को देखते हुए डीएनए आधारित ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका टीके की दो खुराकों के बीच 12 सप्ताह के अंतराल के बाद भी प्रभाविता बनी रही। यह mRNA आधारित मॉडर्ना और फाइज़र की अनुशंसित अवधि की तुलना में लगभग तीन से चार गुना अधिक है। उम्मीद है कि समय के साथ-साथ शोधकर्ता टीके की खुराक देने की ऐसी योजना बना पाएंगे जो नैदानिक परीक्षणों के दौरान निर्धारित खुराक योजना से भिन्न होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फूलों की गंध खुद के लिए हानिकारक

ई फूलों में मीठी-मीठी गंध होती है जो परागणकर्ताओं को आकर्षित करती है और पौधे को अपनी अगली पीढ़ी तैयार करने में मदद करती है। लेकिन ये सुगंधित अणु यदि फूल की कोशिकाओं में जमा हो जाएं तो हानिकारक भी हो सकते हैं। इसलिए फूलों को ऐसी कुछ व्यवस्था करनी होती है कि यह गंध बाहर उड़ती रहे। हाल में नेचर केमिकल बायोलॉजी में प्रकाशित एक शोध पत्र में इस व्यवस्था का खाका प्रस्तुत हुआ है। सारे प्रयोग पेटुनिया के फूलों पर किए गए थे।

फूलों में गंध कुछ वाष्पशील कार्बनिक पदार्थों के कारण होती है। कोशिका में पैदा होने के बाद ये अणु कोशिका द्रव्य में से होते हुए कोशिका की झिल्ली और उसके आसपास मौजूद कोशिका भित्ती तक पहुंचते हैं। यहां से ये कोशिका के बाहर उपस्थित एक मोमी परत क्यूटिकल में पहुंच जाते हैं जहां से ये बाहर हवा में फैलकर सुगंध फैलाते हैं। ऐसा माना जाता था कि इन वाष्पशील अणुओं की यह यात्रा विसरण नामक क्रिया की बदौलत सम्पन्न होती है जिसमें अणु अधिक सांद्रता से कम सांद्रता की ओर बढ़ते हैं। लेकिन फिर 2015 में कंप्यूटर अनुकृति से पता चला कि यदि यह यात्रा सिर्फ विसरण के दम पर चले तो ये कार्बनिक अणु बहुत तेज़ी से कोशिका के बाहर नहीं निकल पाएंगे और अंदर बने रहे तो नुकसान करेंगे।

2017 में पर्ड्यू विश्वविद्यालय की जैव रसायनविद नतालिया डुडरेवा और उनके साथियों ने इस संतुलन को बनाए रखने की तकनीक का खुलासा किया था। उन्होंने पाया कि जब फूल खिलते हैं और गंध तीक्ष्ण हो जाती है, तो PhABCG1 नामक एक प्रोटीन की मात्रा बढ़ने लगती है। यदि इस प्रोटीन के जीन की अभिव्यक्ति कम हो जाए तो गंध-अणुओं का बाहर निकलना भी कम हो जाता है। ये अणु कोशिका में जमा होने लगते हैं और कोशिका की झिल्ली का क्षय होने लगता है। इसके आधार पर डुडरेवा का निष्कर्ष था कि गंध-अणुओं को झिल्ली के पार पहुंचाने का काम PhABCG1 करता है।

फिर डुडरेवा की टीम नो यह पता लगाया कि ये गंध-अणु फूल की पंखुड़ी में कहां अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। पता चला कि इनमें से अधिकांश (लगभग 50 प्रतिशत) पंखुड़ियों की क्यूटिकल में जमा होते हैं। जब शोधकर्ताओं ने किसी प्रकार से मोम में से पार पहुंचाने वाले प्रोटीन PhABCG12 की मात्रा कम कर दी तो फूल की क्यूटिकल की मोटाई कम हो गई। और इसके साथ ही गंध-अणुओं का उत्सर्जन भी कम हो गया, उत्पादन भी गिर गया और क्यूटिकल में इन अणुओं का जमावड़ा भी कम हो गया। जब यह प्रयोग एक ऐसे रसायन के साथ दोहराया गया जो क्यूटिकल की मोटाई को कम करता है, तो भी ऐसे ही असर देखे गए।

यह बात थोड़ी विचित्र जान पड़ती है कि क्यूटिकल की मोटाई कम होने से गंध-अणुओं का उत्सर्जन कम हो जाता है क्योंकि सामान्य तौर पर हम मानते हैं कि जितनी पतली रुकावट होगी उत्सर्जन उतना अधिक होना चाहिए। जब और अधिक विश्लेषण किया गया तो पता चला कि यदि क्यूटिकल बहुत पतली हो तो वाष्पशील कार्बनिक अणु कोशिका में जमा होने लगते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसा होने पर कोशिका किसी प्रकार से वाष्पशील कार्बनिक अणुओं का उत्पादन कम कर देती है। यानी क्यूटिकल इन फूलों की गंध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। (स्रोत फीचर्स)

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त्वरित डैटा ट्रांसमिशन – संजय गोस्वामी

वैज्ञानिकों ने ऐसा सिस्टम तैयार किया है जो 5G मोबाइल नेटवर्क्स की तुलना में 10 गुना ज़्यादा रफ्तार से डैटा ट्रांसमिट कर सकता है। इससे न सिर्फ डाउनलोड स्पीड बढ़ेगी बल्कि इन-फ्लाइट नेटवर्क कनेक्शंस की स्पीड भी बढ़ेगी। जापान की हिरोशिमा युनिवर्सिटी और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ इन्फर्मेशन एंड कम्यूनिकेशंस टेक्नॉलजी ने टेराहर्ट्ज़ (THz) ट्रांसमिटर बनाने की जानकारी दी है। यह सिंगल चैनल पर 300 गीगाहर्ट्ज़ बैंड का इस्तेमाल करते हुए एक सेकंड में 100 गीगाबिट्स के रेट पर डिजिटल डैटा ट्रांसमिट करता है। THz बैंड नया है और भविष्य में अल्ट्राहाई-स्पीड वायरलेस कम्यूनिकेशंस में इस्तेमाल होगा। रिसर्च ग्रुप का बनाया एक ट्रांसमिटर 290 GHz से 315 GHz फ्रिक्वेंसी रेंज पर 105 गीगाबिट्स प्रति सेकंड की स्पीड से ट्रांसमिशन कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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संयुक्त अरब अमीरात का अल-अमल मंगल पर पहुंचा

विगत 9 फरवरी को संयुक्त अरब अमीरात का अल-अमल (यानी उम्मीद) ऑर्बाइटर मंगल पर पहुंच गया। किसी अरब राष्ट्र द्वारा किसी अन्य ग्रह पर भेजा गया यह पहला यान है। अल-अमल मंगल की कक्षा में चक्कर काटते हुए वहां के वायुमंडल और जलवायु का अध्ययन करेगा। यदि सभी प्रणालियां ठीक से काम करती रहीं तो यूएसए, सोवियत संघ, युरोप और भारत के बाद संयुक्त अरब अमीरात मंगल पर यान भेजने वाले देशों में शरीक हो जाएगा जबकि अमीरात ने अंतरिक्ष एजेंसी वर्ष 2014 में ही शुरू की है।

ऑर्बाइटर को कक्षा में प्रवेश कराने के लिए अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपक 30 मिनट के लिए सक्रिय होंगे जो यान की रफ्तार को 1,21,000 किलोमीटर प्रति घंटे से कम करके 18,000 किलोमीटर प्रति घंटे पर लाएंगे, ताकि ऑर्बाइटर मंगल ग्रह के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में पहुंच जाए। अगले कुछ महीनों में अल-अमल धीरे-धीरे मंगल की कक्षा में एक अण्डाकार पथ अपना लेगा। इस तरह ऑर्बाइटर कभी मंगल की सतह से दूर (43,000 किलोमीटर) तो कभी पास (20,000 किलोमीटर) होगा। अब तक अन्य मिशन के ऑर्बाइटर मंगल की सतह के बहुत करीब स्थापित किए गए हैं जिस कारण वे एक बार में छोटे स्थान को देख पाते हैं। लेकिन अल-अमल ऑर्बाइटर एक ही स्थान पर विभिन्न समयों पर नज़र रख सकेगा।

मंगल ग्रह के वायुमंडल की पड़ताल करने के लिए इस ऑर्बाइटर में तीन उपकरण हैं। इनमें से दो उपकरण हैं इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर और अल्ट्रावायलेट स्पेक्ट्रोमीटर। और तीसरा उपकरण, इमेजिंग कैमरा, मंगल की रंगीन तस्वीरें लेगा। इस तरह ऑर्बाइटर से एकत्र डैटा से पता चलेगा कि मंगल पर चलने वाली आंधियों की शुरुआत कैसे होती है और वे प्रचण्ड रूप कैसे लेती हैं। इसके अलावा यह जानने में भी मदद मिलेगी कि अंतरिक्ष के मौसम में होने वाले बदलावों, जैसे सौर तूफान के प्रति मंगल ग्रह का वायुमंडल किस तरह प्रतिक्रिया देता  है। यह भी पता चलेगा कि कैसे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसें निचले वायुमंडल से निकलकर अंतरिक्ष में पलायन कर जाती हैं। इसी प्रक्रिया से मंगल का पानी उड़ गया और अतीत की जीवन-क्षमता को प्रभावित किया।

न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के खगोल वैज्ञानिक दिमित्र अत्री कहते हैं कि मंगल पर भेजे गए पिछले प्रोब, जैसे नासा का मावेन, भी अच्छे थे लेकिन वे एक समय में एक छोटे क्षेत्र का ही डैटा जुटाते थे। अल-अमल विहंगम अवलोकन करेगा।

संयुक्त अरब अमीरात को अपने मंगल मिशन से उम्मीद है कि यह इस क्षेत्र के युवाओं को विज्ञान को करियर के रूप में अपनाने को प्रेरित करेगा।

इसी बीच, चीन का पहला मंगल यान तियानवेन-1 भी अपने ऑर्बाइटर, लैंडर और रोवर के साथ 10 फरवरी को मंगल ग्रह पर पहुंच गया। 18 फरवरी को नासा का परसेवरेंस रोवर जेज़ेरो क्रेटर के ठीक ऊपर था। (स्रोत फीचर्स)

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क्या टीकों का मिला-जुला उपयोग हो?

फिलहाल 9 टीके हैं जो कोविड-19 की गंभीर बीमारी और मृत्यु की रोकथाम में असरदार पाए गए हैं। लेकिन टीकों की आपूर्ति में कमी को देखते हुए वैज्ञानिक इस सवाल पर विचार और परीक्षण कर रहे हैं कि क्या दो खुराक देने के लिए टीकों का मिला-जुला उपयोग किया जा सकता है। यानी पहली खुराक किसी टीके की दी जाए और बूस्टर किसी अन्य टीके का? यदि ऐसे कुछ सम्मिश्रण कारगर रहते हैं तो आपूर्ति की समस्या से कुछ हद तक निपटा जा सकेगा। यह भी सोचा जा रहा है कि क्या दो अलग-अलग टीकों के मिले-जुले उपयोग से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।

ऐसे मिश्रित उपयोग का एक परीक्षण चालू भी हो चुका है। इसमें यह देखा जा रहा है कि रूस के गामेलाया संस्थान द्वारा विकसित स्पूतनिक-5 का उपयोग एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड द्वारा बनाए गए टीके के बूस्टर डोज़ के साथ किया जा सकता है। इसी प्रकार के अन्य परीक्षण में एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीके और फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा बनाए गए टीके के मिले-जुले उपयोग पर काम चल रहा है। ये दो टीके अलग-अलग टेक्नॉलॉजी का उपयोग करते हैं। कुछ अन्य परीक्षण अभी विचार के स्तर पर हैं। अलबत्ता, इन परीक्षणों के परिणाम आने तक सावधानी बरतना ज़रूरी है।

अतीत में भी टीकों के मिले-जुले उपयोग के प्रयास हो चुके हैं। जैसे एड्स के संदर्भ में दो टीकों का इस्तेमाल करके ज़्यादा शक्तिशाली प्रतिरक्षा प्राप्त करने के प्रयास असफल रहे थे। ऐसा ही परीक्षण एबोला के टीकों को लेकर भी किया गया था। कुछ मामलों में स्थिति बिगड़ भी गई थी। कोविड-19 के टीकों के मिले-जुले उपयोग की कुछ समस्याएं भी हैं। जैसे हो सकता है कि दो में से एक टीके को मंज़ूरी मिल चुकी हो लेकिन दूसरे को न मिली हो। एक समस्या यह भी हो सकती है कि दो टीके अलग-अलग टेक्नॉलॉजी पर आधारित हों – जैसे एक एमआरएनए पर आधारित हो और दूसरा प्रोटीन पर आधारित हो।

अलबत्ता, टीकों के ऐसे मिश्रित उपयोग का एक फायदा भी है। हरेक टीका प्रतिरक्षा तंत्र के किसी एक भाग को सक्रिय करता है। तो संभव है कि दो अलग-अलग टीकों का उपयोग करके हम दो अलग-अलग भागों को सक्रिय करके बेहतर सुरक्षा हासिल कर पाएं।

जैसे स्पूतनिक-5 टीके में दो अलग-अलग एडीनोवायरस (Ad26, Ad5) का उपयोग सम्बंधित जीन को शरीर में पहुंचाने के लिए किया गया है। दूसरी ओर, एस्ट्राज़ेनेका टीके में प्रमुख खुराक और बूस्टर दोनों में चिम्पैंज़ी एडीनोवायरस (ChAd) का ही उपयोग हुआ है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि एक खुराक से उत्पन्न प्रतिरक्षा को दूसरी खुराक स्थगित कर दे। ऐसे में स्पूतनिक और एस्ट्राज़ेनेका के मिले-जुले उपयोग से यह समस्या नहीं आएगी। यह फायदा कई अन्य मिश्रणों में भी संभव है। वैसे सबसे बड़ी बात तो यह है कि ऐसा संभव हुआ तो आपूर्ति की समस्या से निपटा जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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दुनिया का सबसे ऊष्मा-सह पदार्थ – संजय गोस्वामी

पिछले वैज्ञानिकों ने एक ऐसे पदार्थ की पहचान कर ली है जो लगभग 4000 डिग्री सेल्सियस के तापमान को सहन कर सकता है। यह खोज बेहद तेज़ हायपरसोनिक अंतरिक्ष वाहनों के लिए बेहतर ऊष्मा प्रतिरोधी कवच बनाने का रास्ता खोल सकती है।

इंपीरियल कॉलेज, लंदन के शोधकर्ताओं ने खोज की है कि हैफ्नियम कार्बाइड का गलनांक अब तक दर्ज किसी भी पदार्थ के गलनांक से ज़्यादा है। टैंटेलम कार्बाइड और हैफ्नियम कार्बाइड रीफ्रेक्ट्री सिरेमिक्स हैं; अर्थात ये असाधारण रूप से ऊष्मा-सह हैं। अत्यधिक ऊष्मा को सहन कर सकने की इनकी क्षमता का अर्थ है कि इनका इस्तेमाल तेज़ गति के वाहनों में ऊष्मीय सुरक्षा प्रणाली में और परमाणु रिएक्टर के बेहद गर्म पर्यावरण में र्इंधन के आवरण के रूप में किया जा सकता है। इन दोनों ही यौगिकों के गलनांक के परीक्षण प्रयोगशाला में करने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी। अत:, शोधकर्ताओं ने इन दोनों यौगिकों की गर्मी सहन कर सकने की क्षमता के परीक्षण के लिए लेज़र का इस्तेमाल करके तेज़ गर्मी पैदा करने वाली एक नई प्रौद्योगिकी विकसित की है। उन्होंने पाया कि इन दोनों यौगिकों के मिश्रण का गलनांक 3990 डिग्री सेल्सियस था। लेकिन दोनों यौगिकों के अलग-अलग गलनांक अब तक ज्ञात इस तरह के यौगिकों से ज़्यादा पाए गए (टैंटेलम कार्बाइड 3880 डिग्री सेल्सियस, हैफ्नियम कार्बाइड 3928 डिग्री सेल्सियस)। ये पदार्थ तेज़ अंतरिक्ष यानों में उपयोगी होंगे (स्रोत फीचर्स)

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न्यूटन की प्रिंसिपिया मैथमैटिका नीलाम – संजय गोस्वामी

र आइज़ैक न्यूटन के मशहूर गति के तीन नियमों की व्याख्या करने वाली और उनके मौलिक काम को प्रस्तुत करने वाली एक किताब को 37 लाख डॉलर (करीब 25 करोड़ रुपए) में नीलाम किया गया है। इसके साथ ही यह किसी ऑक्शन में बेची गई अब तक की सबसे महंगी मुद्रित वैज्ञानिक किताब बन गई है। प्रिंसिपिया मैथमैटिका नामक यह किताब साल 1687 में लिखी गई थी। इस किताब की बिक्री का काम देखने वाले नीलामी घर क्रिस्टीस ने उम्मीद की थी कि बकरी की खाल के कवर वाली इस किताब के 10 से 15 लाख डॉलर मिल जाएंगे। बोली लगाने वाले एक व्यक्ति ने इसे लगभग 37 लाख डॉलर में खरीद लिया। लाइव साइंस की खबर के अनुसार, प्रिंसिपिया मैथेमेटिका में न्यूटन के गति के तीन नियमों की व्याख्या की गई है। इसमें बताया गया है कि किस तरह से चीज़ें बाहरी बलों के प्रभाव में गति करती हैं। लाल रंग की इस 252 पेज की किताब की लंबाई नौ इंच और चौड़ाई सात इंच है। इनमें कई पन्नों पर लकड़ी के चित्र भी हैं। पुस्तक में एक मुड़ सकने वाली प्लेट भी है। पिछले 47 साल में न्यूटन के सिद्धांतों की एक ही अन्य मौलिक प्रति बेची गई है। उस प्रति को किंग जेम्स द्वितीय (1633-1701) को उपहार स्वरूप दिया गया था। उसे दिसंबर 2013 में क्रिस्टीस न्यूयॉर्क में 25 लाख डॉलर में खरीदा गया था। (स्रोत फीचर्स)

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जीवन ज़मीन पर कैसे आया

गभग 700 साल पहले, एक डच प्रकृतिविद जैकब वान मेरलैन्ट ने एक ऐसी मछली की कल्पना की थी जिसके हाथ रहे होंगे और जो पानी से निकलकर ज़मीन पर जीवन की शुरुआत करने को तैयार होगी। और लगता है उनकी कल्पना में कुछ वास्तविकता थी।

शोधकर्ताओं ने उंगली के बराबर की ज़ेब्राफिश (Danio rerio) में एक ऐसा उत्परिवर्तन पाया है जिससे ज़ेब्राफिश के सामने के फिन (मीनपक्ष) में अतिरिक्त हड्डियां पैदा होने लगती हैं। यही उत्परिवर्तन मनुष्यों में उन जीन्स को सक्रिय करता है जिनसे हमारी भुजाएं बनती हैं। इससे पता चलता है कि शुरुआती जीवों में भी भूमि पर छलांग लगाने की संभावनाएं मौजूद थीं।

वैज्ञानिक लंबे समय से यह जानने की कोशिश करते रहे हैं कि जीवन जल से निकलकर ज़मीन पर कैसे पहुंचा था। मीनपक्ष हाथों में कैसे रूपांतरित हो गए? पुराजीव विज्ञानी तो इन सवालों का जवाब जीवाश्मों में खोजते रहे हैं। लेकिन हारवर्ड मेडिकल स्कूल के एम. ब्रेंट हॉकिन्स ने ज़ेब्राफिश के विकास का अध्ययन करते हुए कुछ सुराग देखे हैं।

दरअसल, हॉकिन्स बोस्टन चिल्ड्रन्स अस्पताल की एक प्रयोगशाला में ज़ेब्राफिश के डीएनए में उत्परिवर्तन करके यह पता करने की कोशिश कर रहे थे कि कौन-से जीन कंकाल में गड़बड़ियों के लिए ज़िम्मेदार हैं। आम तौर पर ये उत्परिवर्तन हड्डियों की विकृति या हड्डियां न बनने का कारण बनते हैं। विचार यह था कि मनुष्यों में भी इसी तरह की गड़बड़ियों के जीन्स खोजे जाएं। इस प्रयोग के दौरान एक ज़ेब्राफिश के सामने (वक्ष) वाले हिस्से में मीनपक्ष के साथ अतिरिक्त हड्डी देखकर वे हैरान रह गए।

यह जानने के लिए कि इस उत्परिवर्तन के लिए कौन-सा जीन ज़िम्मेदार है, उन्होंने जीन संपादन विधि क्रिस्पर की मदद ली। शोधकर्ताओं ने पाया कि फिन में अतिरिक्त हड्डी के लिए दो अलग-अलग गुणसूत्रों पर उत्परिवर्तित दो जीन vav2 और waslb ज़िम्मेदार हैं। सेल पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि ये जीन सिर्फ हड्डियां नहीं बनाते बल्कि हड्डियों के काम करने के लिए ज़रूरी रक्त वाहिकाएं, जोड़ और मांसपेशियों का भी निर्माण करते हैं। ज़ेब्राफिश में हड्डियों के निर्माण की यह प्रक्रिया हमारे बांह की एक लंबी हड्डी के निर्माण की प्रक्रिया जैसी है।

ये दोनों जीन्स Hox11 नामक प्रोटीन की गतिविधि को नियंत्रित करने वाले प्रोटीन को कोड करते हैं। स्तनधारियों में यह प्रोटीन भुजाओं की दो हड्डियों के निर्माण को दिशा देता है। मछलियों में आम तौर पर Hox11 प्रोटीन अन्य प्रोटीन द्वारा निष्क्रिय रखा जाता है, लेकिन यदि इन प्रोटीन्स के जीन में उत्परिवर्तन हो जाए तो फिर Hox11 उनमें भी इन्हीं भुजाओं का निर्माण शुरू कर देता है। लगभग 40 करोड़ वर्ष पूर्व मछलियों का विकास दो भिन्न दिशाओं में होना शुरू हुआ था – एक ओर मछलियों से भूमि पर रहने वाले जीव विकसित हुए, तथा दूसरी ओर जिनसे आज की ज़ेब्राफिश व अन्य जीव विकसित हुए। इससे लगता है कि यह जीन वर्तमान की लगभग सभी अस्थियुक्त मछलियों के पूर्वजों में भी मौजूद था। और जब इस जीन को सक्रिय होने का मौका मिला तो इसने पानी से ज़मीन पर जीवन संभव बनाया। (स्रोत फीचर्स)

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अधिक संक्रामक कोविड-19 वायरस से खलबली

डेनमार्क में कोविड-19 संक्रमण दर में कमी राहत के संकेत देते हैं। देशव्यापी लॉकडाउन से दैनिक मामलों में काफी कमी आई है। दिसंबर 2020 के मध्य में प्रतिदिन 3000 मामले अब घटकर कुछ सौ रह गए हैं। लेकिन महामारी मॉडलिंग विशेषज्ञों की प्रमुख कैमिला होल्टन मोलर के अनुसार ये परिणाम आने वाले समय में एक तूफान से पहले की शांति के संकेत हो सकते हैं।

कोविड-19 का ग्राफ वास्तव में दो महामारियों को दर्शाता है। पहली तो वह है जो सार्स-कोव-2 के पुराने संस्करण के कारण हुई और अब तेज़ी से खत्म भी हो रही है। लेकिन यूके में पहली बार पहचाने गए बी.1.1.7 संस्करण का प्रकोप धीरे-धीरे बढ़ रहा है और तीसरी लहर के रूप में नज़र आ रहा है। यदि बी.1.1.7 संस्करण डेनमार्क में इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो यह इस माह के अंत तक वायरस का एक प्रमुख संस्करण बन जाएगा और एक बार फिर कोविड-19 मामलों की संख्या में वृद्धि होने लगेगी।      

ऐसे में अन्य देशों में भी इसी तरह के हालात की संभावना जताई जा रही है। तथ्य यह है कि 58 लाख आबादी वाले डेनमार्क में अन्य देशों की तुलना में व्यापक वायरस-अनुक्रमण तकनीक से कोविड-19 के नए संस्करण का पता चल सका। इन परिणामों के बाद सभी की नज़रें फिलहाल डेनमार्क पर हैं। डैनिश वैज्ञानिकों का अनुमान है कि बी.1.1.7 संस्करण पिछले संस्करणों की तुलना में 1.55 गुना तेज़ी से फैलता है। इस परिस्थिति में जब तक पर्याप्त लोगों को टीका नहीं लग जाता तब तक देश में एक बार फिर लॉकडाउन या अन्य नियंत्रण उपायों को अपनाना होगा। स्थितियों को देखते हुए कुछ महामारी विज्ञानियों का तो मत है कि समाज के अत्यधिक कमज़ोर वर्ग के टीकाकरण के बाद लॉकडाउन खोल देना चाहिए, भले नए मामलों में वृद्धि क्यों न होती रहे।

इस सम्बंध में जनवरी माह के परिणाम काफी चिंताजनक रहे। जनवरी की शुरुआत में ही हर सप्ताह बी.1.1.7 के मामलों में दुगनी रफ्तार से वृद्धि होती गई। इस स्थिति के पहले ही स्कूल और रेस्तरां बंद कर दिए गए, इस नए खतरे से बचने के लिए 10 लोगों के एक साथ इकट्ठा होने की अनुमति को कम करके 5 कर दिया गया, सामाजिक दूरी भी एक मीटर की बजाय दो मीटर कर दी गई। इन सावधानियों से कुल प्रसार दर 0.78 रह गई जो एक अच्छा संकेत है। लेकिन बी.1.1.7 की अनुमानित प्रसार दर 1.07 है जो तेज़ी से बढ़ रही है। इस बीच कुल संक्रमितों में नए संस्करण से संक्रमितों का प्रतिशत दिसंबर 2020 में 0.5 प्रतिशत था और जनवरी के अंत तक बढ़कर 13 प्रतिशत हो गया है।       

फिलहाल डेनमार्क में एक बार फिर लोगों को घर से काम करने के आदेश जारी किए जा सकते हैं और साथ ही कांटेक्ट ट्रेसिंग भी की जा सकती है। इसके साथ ही त्वरित परीक्षण और रोगियों को स्वयं आइसोलेट होने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। वैज्ञानिकों को ऐसी उम्मीद है कि इस तरह की सावधानियों से बी.1.1.7 लहर को रोका जा सकता है। हालांकि कई लोगों का ऐसा मानना है कि इस लहर को रोका नहीं जा सकता है। यूके में बी.1.1.7 के मामलों में कमी का कारण लोगों का पहले से ही इस वायरस से संक्रमित होना है जो अब इस संस्करण के प्रति अतिसंवेदनशील नहीं हैं। फिलहाल डेनमार्क को इस संस्करण के लिए प्रसार दर को एक से कम रखने की कोशिश करना होगा जिससे उम्मीद है कि अप्रैल तक स्थिति को पूरी तरह से नियंत्रण में किया जा सकता है। उस समय तक मौसम भी मददगार होगा।

लेकिन लंबे समय तक देश भर में लॉकडाउन लगाना काफी कठिन हो सकता है। वर्तमान में जनता ने नए मामलों में कमी आने के बाद भी सरकार के लॉकडाउन के फैसले को स्वीकार कर लिया है लेकिन भविष्य में इसे खत्म करने का दबाव आने की संभावना है। ऐसे में 8 फरवरी से कक्षा 1 से लेकर 4 तक के स्कूल शुरू करते हुए लॉकडाउन में ढील देने की शुरुआत की जा चुकी है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार लॉकडाउन को देर से खत्म करना काफी महंगा पड़ सकता है। इसकी बजाय वैज्ञानिकों का सुझाव है कि 50 वर्ष से अधिक और अन्य अतिसंवेदनशील समूहों के टीकाकरण के बाद लॉकडाउन को खत्म करना अधिक उचित होगा। इस स्थिति में कोविड के मामलों में वृद्धि तथा कुछ लोगों की मौत की भी संभावना रहेगी।     

लेकिन इस तरीके को कुछ वैज्ञानिकों ने अभी भी पसंद नहीं किया है। उनका मानना है कि इस तरह से मामलों में वृद्धि होने देना सही उपाय नहीं है। अधिक संक्रमण का मतलब और अधिक उत्परिवर्तित वायरसों के खतरे को बढ़ाना है। ऐसे में हल्के संक्रमण वाले लोगों में दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुत्तों को पालतू किसने, कब बनाया?

पिछले हिमयुग के अंत में मनुष्यों के समूह उत्तर-पूर्वी साइबेरिया के विशाल घास के मैदानों में नुकीले पत्थर-जड़े भालों के साथ बाइसन और मैमथ का शिकार किया करते थे। भेड़िये जैसा एक जीव भी उनके साथ दौड़ा करता था। ये भेड़िए अपने पूर्वजों की तुलना में अधिक सौम्य थे तथा अपने मनुष्य-साथियों की मदद करने को तैयार रहते थे – शिकार करने में भी और शिकार को वापस अपने शिविर तक लाने में भी। ये जीव ही विश्व के सबसे पहले कुत्ते थे जिनके वंशज युरेशिया से लेकर अमेरिका और दुनिया में सभी ओर फैलते गए।  

इस परिदृश्य ने कुत्तों और मनुष्यों, दोनों के डीएनए डैटा के एकसाथ अध्ययन का रास्ता सुझाया। दी प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित विश्लेषण का उद्देश्य कुत्तों के पालतू बनाए जाने के स्थान और समय की लंबी बहस का समापन करना है। इससे यह भी समझने में मदद मिल सकती है कि कैसे सतर्क भेड़िए मनुष्य के वफादार साथी में बदल गए।

अध्ययन के महत्व को देखते हुए वैज्ञानिकों ने विभिन्न सुझाव दिए हैं। युनिवर्सिटी ऑफ केंसास की मानव आनुवंशिकी विज्ञानी जेनिफर रफ के अनुसार निष्कर्षों की पुष्टि करने के लिए प्राचीन कुत्तों और लोगों के अधिक से अधिक जीनोम की आवश्यकता होगी।

इस अध्ययन की शुरुआत इस बात से हुई थी कि कुछ आनुवंशिक और पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि उत्तरी अमेरिका के प्राचीन कुत्तों की उत्पत्ति 10,000 वर्ष पुरानी है। तो इनकी उत्पत्ति कहां व कब हुई थी। इस संदर्भ में सदर्न मेथोडिस्ट युनिवर्सिटी के पुरातत्व विज्ञानी डेविड मेल्टज़र ने सुझाव दिया कि कुत्तों और मनुष्यों के डीएनए की तुलना करना उपयोगी होगा। इसके लिए यह पता करना भी ज़रूरी है कि कैसे और कब साइबेरिया में रहने वाले मनुष्य विभिन्न समूहों में बंटने के बाद उत्तरी अमेरिका पहुंच गए। इसी तरह से यदि कुत्तों के डीएनए में समान पैटर्न मिलते हैं तो कुत्तों के पालतूकरण की शुरुआत का पता लगाया जा सकता है।         

अपने इन अनुमानों की बारीकी से जांच करने के लिए शोधकर्ताओं की टीम ने विश्व भर के 200 से अधिक कुत्तों के माइटोकॉन्ड्रियल जीनोम का विश्लेषण किया जिनमें से कुछ 10,000 साल पूर्व के थे। गौरतलब है कि माइटोकॉण्ड्रिया नामक कोशिकांग का अपना डीएनए होता है जो किसी जीव को सिर्फ उसकी मां से मिलता है।

अध्ययन से पता चला कि सभी प्राचीन अमरीकन कुत्तों में एक जेनेटिक चिंह पाया जाता है। इसे A2b नाम दिया गया। और ये कुत्ते लगभग 15,000 वर्ष पूर्व चार समूहों में उत्तरी अमेरिका के विभिन्न हिस्सों में फैल गए। टीम ने पाया कि कुत्तों के ये समूह और इनकी भौगोलिक स्थिति प्राचीन मूल अमरीकियों के समूहों से मेल खाती है। ये सभी लोग एक ऐसे समूह के वंशज हैं जिन्हें वैज्ञानिक पैतृक मूल अमरीकी कहते हैं। यह समूह लगभग 21,000 वर्ष पहले साइबेरिया का निवासी था। टीम का निष्कर्ष है कि मनुष्य 16,000 वर्ष पूर्व अमेरिका में प्रवेश करते समय कुत्तों को भी अपने साथ लाए होंगे। ऐसा अनुमान है कि प्राचीन अमेरिकी कुत्ते अंतत: गायब हो गए। जब युरोपवासी अमेरिका आए तब वहां के कुत्ते अमेरिका में फैल गए।

शोधकर्ताओं द्वारा आनुवंशिक अतीत का और गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि A2b कुत्ते 23,000 वर्ष पूर्व साइबेरिया में पाए जाने वाले कुत्तों के वंशज हैं। टीम का अनुमान है कि प्राचीन कुत्ते संभवत: उन मानव समूहों के साथ रहते थे जिन्हें प्राचीन उत्तर साइबेरियाई के रूप में जाना जाता है। 31,000 वर्ष पूर्व में पाया जाना वाला यह मानव समूह हज़ारों वर्षों से पूर्वोत्तर साइबेरिया के अपेक्षाकृत समशीतोष्ण इलाकों में रहता था। सख्त मौसम के कारण ये समूह बहुत अधिक पूरब या पश्चिम में नहीं जा पाए। वे यहां आज पाए जाने वाले कुत्तों के सीधे पूर्वज मटमैले भेड़िये के साथ रहा करते थे।

कुत्तों के पालतूकरण का आम सिद्धांत तो यह है कि मटमैले भेड़िये भोजन की तलाश में मानव शिविरों के अधिक से अधिक करीब आते गए। इनमें से कुछ दब्बू भेड़िये सैकड़ों से हज़ारों वर्षों में विकसित होते-होते पालतू कुत्ते बन गए। अलबत्ता, यह प्रक्रिया उस स्थिति की व्याख्या नहीं करती जब मनुष्य काफी दूर-दूर यात्रा करने लगे। ऐसे में उनको हमेशा भेड़ियों की नई आबादी का सामना करना होगा। यदि टीम के निष्कर्षों को सही माना जाए तो इन दोनों प्रजातियों ने साइबेरिया में काफी लंबा समय साथ-साथ बिताया है।    

इसके अलावा कुछ आनुवंशिक साक्ष्य यह सुझाव देते हैं कि प्राचीन उत्तर साइबेरिया के लोग अमेरिका प्रवास करने से पहले पैतृक मूल के अमरीकियों के संपर्क में आ चुके थे। ऐसा अनुमान है कि प्राचीन कुत्तों के प्रजनकों ने मूल अमरीकी लोगों के साथ इस जीव का लेन-देन किया होगा। यही कारण है उत्तरी अमेरिका और युरोप दोनों जगह कुत्ते 15,000 वर्ष पूर्व से ही पाए जाने लगे थे। पूर्व में वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि कुत्तों को एक से अधिक बार पालतू बनाया गया था जबकि टीम के अनुसार सच तो यह है कि सभी कुत्ते 23,000 वर्ष पूर्व के साइबेरियाई कुत्तों के वंशज हैं।  

रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी, स्टॉकहोम के आनुवंशिकीविद पीटर सवोलैनेन यह तर्क देते रहे हैं कि कुत्तों का पालतूकरण दक्षिण पूर्व एशिया में हुआ है। लिहाज़ा वे इस अध्ययन के निष्कर्षों को लेकर शंकित हैं। पीटर के अनुसार A2b चिंह, जिसके बारे में टीम ने दावा किया है कि वह विशिष्ट रूप से अमरीकी कुत्तों में पाया जाता है, वह विश्व में अन्य जगहों पर भी पाया गया है। यह तथ्य उपरोक्त आनुवंशिक विश्लेषण पर सवाल खड़े करता है। अत: सवोलैनेन के मुताबिक इस अध्ययन के आधार पर कुत्तों के पालतूकरण के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है।

लेकिन जेनिफर रफ के अनुसार प्राचीन लोगों के बारे में वे जितना जानती हैं उस आधार पर यह अध्ययन मूलत: सही मालूम होता है। लेकिन माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए किसी जीव के जीनोम का छोटा-सा अंश होता है। रफ का कहना है कि बिना नाभिकीय डीएनए की मदद से पूरी जानकारी प्राप्त करना मुश्किल है। गौरतलब है कि मूल अमेरिकी पूर्वजों के लिए भी यही बात सही हो सकती है जिन्होंने कुत्तों को अमेरिका के कोने-कोने तक फैलाया है। कई वैज्ञानिक इस अध्ययन को एक अच्छी प्रगति के रूप में तो देखते हैं लेकिन मानते हैं कि निष्कर्ष अधूरे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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