गुज़रे दिनों मानव गतिविधियों पर लगी पाबंदी से जीव-जंतुओं की
हलचल बढ़ने की खबरें मिली हैं। शहरों में छाई अचानक शांति में लोगों ने गौर किया कि
गोरैया पक्षी कितनी तेज़ आवाज़ निकालते हैं। जबकि साइंस पत्रिका में प्रकाशित
अध्ययन में पाया गया कि वास्तव में उनके गीतों की आवाज़ मंद पड़ी थी। गोरैयों ने
बैंडविड्थ बढ़ाकर अपने गीतों में नीचे सुरों को शामिल किया था, जो
शोधकर्ताओं के मुताबिक मादाओं को ज़्यादा लुभाते हैं।
दरअसल टेनेसी विश्वविद्यालय की जंतु
संप्रेषण विज्ञानी एलिज़ाबेथ डेरीबेरी काफी समय से सफेद मुकुट वाली नर गोरैया (ज़ोनोट्रीकिया
ल्यूकोफ्रिस) के गीतों का अध्ययन करती रही हैं। उन्होंने सैन फ्रांसिस्को के
आसपास के शोर भरे शहरी वातावरण में रहने वाली गोरैया और शांत ग्रामीण वातावरण में
रहने वाली गोरैया के गीतों की तुलना की थी। (मादा गोरैया शायद ही कभी गाती हों)।
उन्होंने पाया था कि ग्रामीण इलाकों की गोरैया की तुलना में शहरी गोरैया ऊंची आवाज़
में और उच्च आवृत्ति पर गाती हैं। शायद इसलिए कि यातायात और मानव जनित शोर के बीच
साथियों तक उनकी आवाज़ पहुंच सके।
तालाबंदी के दौरान शहरों के शोर में आई कमी
के कारण गोरैया के गीतों पर पड़े प्रभावों को जानने के लिए डेरीबेरी और उनके
साथियों ने उन्हीं स्थानों पर गोरैया के गीतों का अध्ययन किया। तुलना के लिए पहले
की रिकॉर्डिंग थी ही।
चूंकि डेरीबेरी सैन फ्रांसिस्को में नहीं
थीं इसलिए उनकी साथी जेनिफर फिलिप ने उन्हीं स्थानों पर गोरैयों की आवाज़ और शोर
रिकार्ड करके डेरीबेरी को भेजा। ध्वनि के विश्लेषण में देखा गया कि ग्रामीण इलाकों
के शोर के स्तर में खास कमी नहीं आई थी लेकिन शहरी इलाके के शोर में कमी आई थी, और
वह लगभग ग्रामीण इलाकों जैसे हो गए थे। यानी इस दौरान शहरी और ग्रामीण दोनों
इलाकों का शोर का स्तर लगभग समान हो गया था।
यह भी देखा गया कि जब शहरों का शोर कम हुआ
तो शहरी गोरैया की आवाज़ भी मद्धम पड़ गई। उनकी आवाज़ में लगभग 4 डेसिबल की कमी देखी
गई। उनके गीतों की आवाज़ मंद हो जाने के बावजूद उनके गीत स्पष्ट और अधिक दूरी तक
सुनाई दे रहे थे, क्योंकि उनकी आवाज़ में आई कमी शहर के शोर में आई कमी से कम
थी। स्पष्ट है कि तालाबंदी के दौरान पक्षी ज़ोर से नहीं गाने लगे थे।
आवाज़ कम होने के अलावा, गोरैया
के गीतों की बैंडविड्थ भी बढ़ गई थी। खासकर उन्होंने निचले सुर वाले गीत गाए, जो
पहले शोर भरे माहौल में गुम हो जाते थे। पूर्व के अध्ययनों में यह देखा गया है कि
मादा गोरैया को वे नर अधिक आकर्षित करते हैं जो जिनके गीतों की बैंडविड्थ अधिक
होती है।
हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस वसंत
में परिवर्तित गीतों के कारण शहरी गोरैया की प्रजनन सफलता प्रभावित हुई है या
नहीं। लेकिन यह अध्ययन बताता कि प्राकृतिक तंत्र मानव हस्तक्षेप में कमी आने पर
तुरंत प्रतिक्रिया देना शुरू कर देता है।
भले ही शोरगुल फिर बढ़ने लगा है लेकिन उम्मीद है कि इन नतीजों को देखकर लोग शोर कम करने की सोचें। संभवत: वे अधिक घर से काम करने के बारे में सोचें, या ध्वनि रहित इलेक्ट्रिक वाहन लेने पर विचार करें।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/67966/aImg/39610/sparrow-l.jpg
आमाशय के अल्सर या आहार नाल के अन्य घावों से कई लोग पीड़ित
होते हैं। इलाज के पारंपरिक तरीकों के साथ कुछ ना कुछ समस्याएं हैं। अब
वैज्ञानिकों ने जैविक मुद्रण की मदद से अल्सर के उपचार का रास्ता सुझाया है।
दरअसल पेट के घावों के उपचार में दी जाने
वाली दवाइयां धीरे-धीरे काम करती हैं, और कभी-कभी तो उतनी प्रभावी भी नहीं होती।
एंडोस्कोपिक सर्जरी केवल छोटे घावों को ठीक कर पाती है। और एंडोस्कोपिक विधि से
दिए गए स्प्रे रक्तस्राव तो रोक पाते हैं लेकिन घावों की मरम्मत नहीं कर पाते।
जैविक मुद्रण की मदद से जटिल अंगों को
विकसित करने के प्रयास कई शोधकर्ता कर रहे हैं। लेकिन दिल्ली अभी दूर है। फिलहाल
इसकी मदद से शरीर की अन्य सरल संरचनाएं जैसे बोन ग्राफ्ट विकसित कर प्रत्यारोपित
करने के प्रयोग किए गए हैं। अभी तरीका यह है कि पहले कोशिकाओं को शरीर के बाहर
विकसित करके प्रत्यारोपित किया जाता है। इसके लिए बड़े चीरे लगाने पड़ते हैं, जो
संक्रमण की संभावना बढ़ाते हैं और ठीक होने में लंबा वक्त लेते हैं।
इसलिए कुछ शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में
कोशिकाओं को सीधे शरीर के अंदर प्रिंट करने के प्रयास किए। लेकिन प्रिंटिंग उपकरण
बड़े होने के कारण मामला सिर्फ बाहरी अंगों पर प्रिंटिंग तक सीमित हैं, पाचन
तंत्र या शरीर के अन्य अंदरूनी अंगों में जैविक मुद्रण इन उपकरणों से संभव नहीं।
बीज़िंग स्थित शिनहुआ युनिवर्सिटी के
बायोइंजीनियर ताओ शू और उनके साथियों ने जैविक मुद्रण की मदद से पेट के अल्सर के
उपचार के लिए एक लघु रोबोट तैयार किया, ताकि शरीर में चीरफाड़ कम हो और प्रिंटिंग
उपकरण शरीर में आसानी से प्रवेश कर जाए। यह लघु रोबोट गुड़ी-मुड़ी अवस्था में महज़
सवा 4 सेंटीमीटर लंबा और 3 सेंटीमीटर चौड़ा है। शरीर में प्रवेश के बाद यह खुलकर 6
सेंटीमीटर लंबा हो जाता है, और फिर जैविक मुद्रण शुरू कर सकता है।
जैविक मुद्रक एक ऐसा उपकरण होता है जिसमें स्याही के स्थान पर जीवित कोशिकाएं एक
जेल में मिलाकर भरी होती हैं। सही स्थान पर पहुंचकर जेल के साथ सजीव कोशिकाओं को
परत-दर-परत जमाया जाता है।
परीक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने पेट का एक
पारदर्शी प्लास्टिक मॉडल तैयार करके लघु रोबोट को एंडोस्कोपी की मदद से उसमें
सफलतापूर्वक प्रवेश कराया। वहां उन्होंने पेट के अस्तर और पेट की मांसपेशियों की
कोशिकाओं को प्रिंट किया। बायोफेब्रिकेशन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार
मुद्रित कोशिकाओं में कोई क्षति नहीं हुई और 10 दिनों में उनमें काफी वृद्धि हुई।
लेकिन प्रयोग में शोधकर्ताओं के सामने कुछ
चुनौतियों भी आर्इं। उन्होंने पाया कि जो प्रिटिंग ‘स्याही’ इस्तेमाल की गई वह कम
तापमान पर ही स्थायी रहती है, शरीर के सामान्य तापमान पर तरल हो जाती है
जिससे उसे ढालना मुश्किल हो जाता है। इसका समाधान ओहायो स्टेट युनिवर्सिटी के
डेविड होएज़्ले द्वारा विकसित स्याही कर सकती है,
जो शरीर के सामान्य
तापमान पर स्थायी रहती है और दृश्य प्रकाश की मदद से गाढ़ी की जा सकती है।
जैविक मुद्रण की एक चुनौती यह है कि मुद्रित
कोशिकाओं को अंगों और ऊतकों के साथ प्रभावी ढंग से कैसे जोड़ा जाए। होएज़्ले की टीम
ने एक संभावित समाधान खोजा है, जिसमें 3-डी प्रिंटर की नोज़ल घाव में पहले प्रिंटिंग
स्याही से एक छोटी घुंडी बनाएगी, जो इसे बायोप्रिंटेड संरचना से जोड़ देगी।
बहरहाल, शोधकर्ताओं की योजना इससे भी छोटा (लगभग सवा सेंटीमीटर चौड़ा) रोबोट तैयार करने की है, जिसमें वे कैमरा और अन्य सेंसर भी जोड़ना चाहते हैं।(स्रोत फीचर्स)
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वैसे तो यहां जिन मिथकों की चर्चा की गई है, वे मूलत: संयुक्त राज्य अमेरिका के सोशल मीडिया पर किए गए शोध और अन्य जानकारियों पर आधारित हैं। लेकिन थोड़े अलग रूप में ये भारत के सोशल मीडिया में भी नज़र आ जाते हैं।
कोरोनावायरस महामारी के साथ-साथ विश्व एक और महामारी से लड़
रहा है जिसे ‘इंफोडेमिक’ का नाम दिया गया है। इस ‘सूचनामारी’ के चलते लोग रोग की
गंभीरता को कम आंकते हैं और सुरक्षा के उपायों को अनदेखा करते हैं। यहां इस
महामारी से सम्बंधित कुछ मिथकों पर चर्चा की गई है।
मिथक 1: नया कोरोनावायरस चीन की प्रयोगशाला
में तैयार किया गया है
चूंकि इस वायरस का सबसे पहला संक्रमण चीन
में हुआ था, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बिना किसी सबूत के यह
दावा कर दिया कि इसे चीन की प्रयोगशाला में तैयार किया गया है। हालांकि अमेरिकी
खुफिया एजेंसियों ने इन सभी दावों को खारिज करते हुए कहा है कि न तो यह मानव
निर्मित है और न ही आनुवंशिक फेरबदल से बना है। साइंटिफिक अमेरिकन में
प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार चीनी वायरोलॉजिस्ट शी ज़ेंगली और उनकी टीम द्वारा इस
वायरस के डीएनए अनुक्रम की तुलना गुफावासी चमगादड़ों में पाए जाने वाले कोरोनावायरसों
से करने पर कोई समानता नज़र नहीं आई। इस वायरस के प्रयोगशाला में तैयार न किए जाने
पर ज़ेंगली ने एक विस्तृत आलेख साइंस पत्रिका में प्रकाशित भी किया है।
गौरतलब है कि ट्रम्प ने ज़ेंगली की प्रयोगशाला पर वायरस विकसित करने का इल्ज़ाम
लगाया था। इस मुद्दे पर स्वतंत्र जांच की मांग को देखते हुए चीन ने विश्व
स्वास्थ्य संगठन के शोधकर्ताओं को भी आमंत्रित किया है। लेकिन सबूत के आधार पर यही
कहा जा सकता है कि सार्स-कोव-2 को प्रयोगशाला में तैयार नहीं किया गया है।
मिथक 2: उच्च वर्ग के लोगों ने ताकत और
मुनाफे के लिए वायरस को जानबूझकर फैलाया है
जूडी मिकोविट्स नामक एक महिला ने सोशल
मीडिया पर 26 मिनट की षडयंत्र-सिद्धांत आधारित फिल्म ‘प्लानडेमिक’ और अपने ही
द्वारा लिखित एक किताब में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इन्फेक्शियस डिसीज़ के
निर्देशक एंथोनी फौसी और माइक्रोसॉफ्ट के सह-संस्थापक बिल गेट्स पर इल्ज़ाम लगाया
है कि उन्होंने इस बीमारी से फायदा उठाने के लिए अपनी ताकत का उपयोग किया है। यह
वीडियो कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर 80 लाख से अधिक लोगों ने देखा।
साइंस और एक अन्य वेबसाइट politifact ने जांच करने के बाद इस दावे को झूठा
पाया। हालांकि इस वीडियो को अब सोशल मीडिया से हटा लिया गया है लेकिन इससे स्पष्ट
है कि गलत सूचनाएं बहुत तेज़ी से फैलती हैं।
मिथक 3: कोविड-19 सामान्य फ्लू के समान ही
है
महामारी के शुरुआती दिनों से ही राष्ट्रपति
ट्रम्प ने बार-बार दावा किया कि कोविड-19 मौसमी फ्लू से अधिक खतरनाक नहीं है।
लेकिन 9 सितंबर को वाशिंगटन पोस्ट ने ट्रम्प के फरवरी और मार्च में लिए गए
साक्षात्कार की एक रिकॉर्डिंग जारी की जिससे पता चलता है कि वे (ट्रम्प) जानते थे
कि कोविड-19 सामान्य फ्लू से अधिक घातक है लेकिन इसकी गंभीरता को कम करके दिखाना
चाहते थे।
हालांकि कोविड-19 की मृत्यु दर का सटीक
आकलन तो मुश्किल है लेकिन महामारी विज्ञानियों का विचार है कि यह फ्लू की तुलना
में कहीं अधिक है। फ्लू के मामले में टीकाकरण या पूर्व संक्रमण के कारण कई लोगों
में कुछ प्रतिरोधक क्षमता तो है, जबकि अधिकांश विश्व ने अभी तक कोविड-19 का
सामना ही नहीं किया है। ऐसे में कोरोनावायरस सामान्य फ्लू के समान तो नहीं है।
मिथक 4: मास्क पहनने की ज़रूरत नहीं है
हालांकि सीडीसी और डब्ल्यूएचओ द्वारा मास्क
के उपयोग पर प्रारंभिक दिशानिर्देश थोड़े भ्रामक थे लेकिन अब सभी मानते हैं कि
मास्क का उपयोग करने से कोरोनावायरस को फैलने से रोका जा सकता है। काफी समय से पता
रहा है कि मास्क का उपयोग किसी संक्रमण को फैलने से रोकने में काफी प्रभावी है। अब
तो यह भी स्पष्ट है कि कपड़े से बने मास्क भी कारगर हैं। फिर भी कई साक्ष्यों के
बावजूद कुछ लोगों ने मास्क को नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए पहनने से
इन्कार कर दिया।
मिथक 5: हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन एक प्रभावी
उपचार है
फ्रांस में किए गए एक छोटे अध्ययन के आधार
पर सुझाव दिया गया कि मलेरिया की दवा हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का उपयोग इस बीमारी
के इलाज में प्रभावी हो सकता है। इसकी व्यापक आलोचना और इसके प्रभावी न होने के
साक्ष्य के बावजूद ट्रम्प और अन्य लोगों ने इसे जारी रखा। फूड एंड ड्रग
एडमिनिस्ट्रेशन ने भी शुरुआत में अनुमति देने के बाद ह्रदय सम्बंधी समस्याओं के
जोखिम के कारण इसे नामंज़ूर कर दिया। कई अध्ययनों से पर्याप्त साक्ष्य मिलने के बाद
भी ट्रम्प ने इस दवा का प्रचार जारी रखा।
मिथक 6: ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ प्रदर्शन के
कारण संक्रमण में वृद्धि हुई है
अमेरिका में पुलिस द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की
हत्या के बाद मई-जून में अश्वेत अमरीकियों के विरुद्ध हिंसा के खिलाफ बड़े स्तर पर
लोगों ने सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन किया। कई लोगों ने दावा किया कि इन प्रदर्शनों
में भीड़ जमा होने से कोरोनावायरस के मामलों में वृद्धि हुई। लेकिन नेशनल ब्यूरो ऑफ
इकॉनोमिक रिसर्च द्वारा अमेरिका के 315 बड़े शहरों में हुए विरोध प्रदर्शनों के एक
विश्लेषण से ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले हैं जिससे यह कहा जा सके कि इन प्रदर्शनों
के कारण कोविड-19 मामलों में वृद्धि हुई है या अधिक मौतें हुई हैं। वास्तव में
प्रदर्शन करने वाले लोगों में संचरण का जोखिम बहुत कम था और अधिकांश
प्रदर्शनकारियों ने मास्क का उपयोग किया था।
मिथक 7: अधिक परीक्षण के कारण कोरोनावायरस
मामलों में वृद्धि हुई है
राष्ट्रपति ट्रम्प ने यह दावा किया कि
अमेरिका में कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों का कारण परीक्षण में हो रही वृद्धि है।
यदि यह सही है तो परीक्षणों में पॉज़िटिव परिणामों के प्रतिशत में कमी आनी चाहिए
थी। लेकिन कई विश्लेषणों ने इसके विपरीत परिणाम दर्शाए हैं। यानी वृद्धि वास्तव
में हुई है।
मिथक 8: संक्रमण फैलेगा तो झुंड प्रतिरक्षा
प्राप्त की जा सकती है
महामारी की शुरुआत में यूके और स्वीडन ने
झुंड प्रतिरक्षा के तरीके को अपनाया। इस तकनीक में वायरस को फैलने दिया जाता है जब
तक आबादी में झुंड प्रतिरक्षा विकसित नहीं हो जाती है। लेकिन इस दृष्टिकोण में एक
बुनियादी दोष है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि झुंड प्रतिरक्षा हासिल करने के लिए
60 से 70 प्रतिशत लोगों का संक्रमित होना आवश्यक है। कोविड-19 की उच्च मृत्यु दर
को देखते हुए झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त करते-करते करोड़ों लोग मारे जाते। इसी कारण
इस महामारी में यूके की मृत्यु दर सबसे अधिक है। यूके और स्वीडन में लोगों की जान
और अर्थव्यवस्था का भी काफी नुकसान हुआ। देर से ही सही,
यू.के. सरकार ने इस
गलती में सुधार किया और लॉकडाउन लागू किया।
मिथक 9: कोई भी टीका असुरक्षित होगा और
कोविड-19 से अधिक घातक होगा
एक ओर वैज्ञानिक निरंतर टीका विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं ये चिंताजनक रिपोर्ट्स भी सामने आ रही हैं कि शायद कई लोग इसे लेने से इन्कार कर देंगे। संभावित टीके को साज़िश के रूप में देखा जा रहा है। प्लानडेमिक फिल्म में तो यह भी दावा किया गया है कि कोविड-19 का टीका लाखों लोगों की जान ले लेगा। साथ ही यह दावा भी किया गया है कि पहले भी टीकों ने लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। लेकिन तथ्य यह है कि टीकों ने करोड़ों जानें बचाई हैं। यदि उपरोक्त दावा सही है, तो अलग-अलग चरणों में परीक्षण के दौरान लोगों की मौत हो जानी चाहिए थी। टीका-विरोधी समूहों द्वारा प्रस्तुत एक अन्य साज़िश-सिद्धांत में तो कहा गया है कि बिल गेट्स एक गुप्त योजना बना रहे हैं जिसके तहत टीकों के माध्यम से लोगों में माइक्रोचिप लगा दी जाएगी। इससे इतना तो स्पष्ट है कि टीके के निरापद होने की बात पर अत्यधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है, अन्यथा ऐसी बातों को तूल मिलेगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/E4027069-A4E4-41E2-8E1556539BCCC03E_source.jpg?w=590&h=800&9E43B90F-9523-4D32-B59E75B0645A6602
दवाओं के विपरीत, लगभग सभी तरह के टीकों को उनके परिवहन से
लेकर उपयोग के ठीक पहले तक कम तापमान (सामान्यत: 2 से 8 डिग्री सेल्सियस के बीच)
पर रखने की आवश्यकता होती है। अधिक तापमान मिलने पर अधिकतर टीके असरदार नहीं रह
जाते। एक बार अधिक तापमान के संपर्क में आने के बाद इन्हें पुन: ठंडा करने से कोई
फायदा नहीं होता। इसलिए निर्माण से लेकर उपयोग से ठीक पहले तक इनके रख-रखाव और
परिवहन के लिए कोल्ड चैन (शीतलन शृंखला) बनाना ज़रूरी होता है। यदि हम सामान्य
तापमान पर रखे जा सकने और परिवहन किए जा सकने वाले टीके बना पाएं, जिनके
लिए कोल्ड चैन बनाने की ज़रूरत ना पड़े, तो यह बहुत फायदेमंद होगा।
बैंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) के राघवन वरदराजन के नेतृत्व में एक भारतीय समूह ने ऐसे
ही ‘वार्म वैक्सीन’ पर काम किया है। इसमें उनके सहयोगी संस्थान हैं त्रिवेंदम
स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (IISER), फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल स्वास्थ्य विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी संस्थान (THSTI) और IISc प्रायोजित स्टार्टअप Mynvax। Biorxive प्रीप्रिंट में प्रकाशित उनके शोधपत्र का शीर्षक है सार्स-कोव-2 के स्पाइक
के ताप-सहिष्णु, प्रतिरक्षाजनक खंड का डिज़ाइन। यहhttps://doi.org/10.1101/2020.08.18.25.237 पर उपलब्ध है।
कोविड वायरस की सतह पर एक प्रोटीन रहता है
जिसे स्पाइक कहते हैं। यह लगभग 1300 एमिनो एसिड लंबा होता है। इस स्पाइक में 250
एमीनो एसिड लंबा अनुक्रम – रिसेप्टर बाइंडिंग डोमेन (RBD) – होता है। यह RBD मेज़बान कोशिका से जाकर जुड़ जाता है और संक्रमण की शुरुआत करता है। शोधकर्ताओं
ने प्रयोगशाला में पूरे स्पाइक प्रोटीन की बजाय RBD की 200 एमीनो एसिड
की शृंखला को संश्लेषित किया। फिर इस खंड की
संरचना (इसकी त्रि-आयामी बनावट या वह आकार जो इसे मेज़बान कोशिका की सतह पर ठीक ताला-चाबी
की तरह आसानी से फिट होने की गुंजाइश देता है) का अध्ययन किया। इसके अलावा इसकी
तापीय स्थिरता भी देखी गई कि क्या यह प्रयोगशाला की सामान्य परिस्थितियों के
तापमान से अधिक तापमान पर काम कर सकता है?
खुशी की बात है कि
शोधकर्ताओं ने पाया कि इस तरह ठंडा करके सुखाने (फ्रीज़-ड्राइड करने) पर यह काफी
स्थिर होता है। यह बहुत थोड़े समय के लिए 100 डिग्री सेल्सियस से अधिक तक का तापमान
झेल सकता है, और 37 डिग्री सेल्सियस पर एक महीने तक भंडारित किया जा सकता
है। इससे लगता है कि इस अणु को सुरक्षित रखने के लिए कोल्ड चैन की ज़रूरत नहीं
पड़ेगी।
प्रसंगवश बता दें कि पिछले 70 सालों से
भारत किसी प्रोटीन की संरचना या बनावट से उसके कार्यों के बारे में पता करने के
क्षेत्र में अग्रणी रहा है। और आज भी है। उदाहरण के लिए,
कैसे कोलेजन की तिहरी
कुंडली संरचना, जिसे दिवंगत जी. एन. रामचंद्रन ने 1954 में खोजा था,से पता चल जाता है कि
यह त्वचा और कंडराओं में क्यों पाया जाता है। यह त्वचा और कंडराओं को रस्सी जैसी
मज़बूती प्रदान करता है। प्रो. रामचंद्रन ने यह भी बताया था कि किसी प्रोटीन के
एमीनो एसिड अनुक्रम के आधार पर हम किस तरह यह अनुमान लगा सकते हैं कि वह कैसी
त्रि-आयामी संरचना बनाएगा। इस समझ के आधार पर जैव रसायनज्ञ प्रोटीन के एमीनो एसिड
अनुक्रम में बदलाव करके प्रोटीन से मनचाहा कार्य करवाने की दिशा में बढ़े।
उपरोक्त अध्ययन में भी शोधकर्ताओं ने यही
किया है। उन्होंने अभिव्यक्ति के लिए RBD के खंड को ध्यानपूर्वक चुना, और
दर्शाया कि परिणामी प्रोटीन ताप सहन कर सकता है। यह प्रोटीन संरचना के विश्लेषण और
जेनेटिक इंजीनियरिंग की क्षमता की मिसाल है।
RBD प्रोटीन को काफी मात्रा में स्तनधारियों की कोशिकाओं में भी बनाया गया और पिचिया
पैस्टोरिस (Pichia pastoris) नामक एक यीस्ट में भी। यह यीस्ट बहुत किफायती और सस्ता
मेज़बान है। जब उन्होंने दोनों प्रोटीन की तुलना की तो पाया कि यीस्ट में बने
प्रोटीन में बहुत अधिक विविधता थी, और जंतु परीक्षण में देखा गया यह वांछित
एंटीबॉडी भी नहीं बनाता। उन्होंने RBD प्रोटीन को बैक्टीरिया मॉडल ई.कोली
में भी बनाकर देखा, लेकिन इसमें बना प्रोटीन भी कारगर नहीं रहा।
बहरहाल,
अब हमारे पास
ताप-सहिष्णु RBD है, तो क्या इससे टीका बनाने की कोशिश की जा सकती है? एक
ऐसा टीका जो एंटीबॉडी बनाकर वायरस के स्पाइक प्रोटीन को मेज़बान कोशिका के ग्राही
से न जुड़ने दे और संक्रमण की प्रक्रिया को रोक दे?
आम तौर पर प्रतिरक्षा
विज्ञानी टीके (कोशिका या अणु) के साथ एक सहायक भी जोड़ते हैं। जब यह टीके के साथ
शरीर में जाता है तो प्रतिरक्षा प्रणाली को उकसाता है और टीके की कार्य क्षमता
बढ़ाता है। आम तौर पर इसके लिए एल्यूमीनियम लवण उपयोग किए जाते हैं।
शोधकर्ताओं ने अपने प्रारंभिक टीकाकरण के
लिए गिनी पिग को चुना, क्योंकि माइस की तुलना में गिनी पिग सांस की बीमारियों के
लिए बेहतर मॉडल माने जाते हैं। सहायक के रूप में उन्होंने MF59
के एक जेनेरिक संस्करण का उपयोग किया। MF59 मनुष्यों के लिए सुरक्षित पाया गया है।
फिर गिनी पिग में RBD नुस्खा प्रविष्ट कराया। दो खुराक के बाद गिनी पिग में
वांछित ग्राहियों को अवरुद्ध करने वाली एंटीबॉडी की पर्याप्त मात्रा दिखी। तो, यह
काम कर गया।
वे बताते हैं कि कई अन्य समूहों ने RBD, या संपूर्ण स्पाइक प्रोटीन, या
एंटीजन बनाने वाले नए आरएनए-आधारित तरीकों का उपयोग किया है। कोविड-19 के इन सारे
टीकों (जो परीक्षण के विभिन्न चरणों में हैं) के लिए कोल्ड चैन की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन
इस विशिष्ट ताप-सहिष्णु RBD खंड (और शायद अन्य RBD खंड भी) को कुछ समय के लिए सामान्य तापमान पर रखा जा सकता है।
शोधकर्ता अब जंतुओं में इसकी वायरस से संक्रमण के विरुद्ध सुरक्षा क्षमता की जांच कर रहे हैं और साथ ही साथ मनुष्यों पर नैदानिक परीक्षण करने के पहले इसकी सुरक्षा और विषाक्तता का आकलन कर रहे हैं। हम कामना करते हैं कि टीम को इसमें सफलता मिले।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/sites/btmt/images/stories/vaccine_660_040920115131.jpg
रेफ्रिजरेटर, बॉयलर और यहां तक कि बल्ब अपने आसपास के
वातावरण में निरंतर ऊष्मा बिखेरते हैं। सैद्धांतिक रूप से इस व्यर्थ ऊष्मा को
बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है। गाड़ियों के इंजिन और अन्य उच्च-ताप वाले स्रोतों
के साथ तो ऐसा किया जाता है लेकिन इस तकनीक का उपयोग घरेलू उपकरणों के लिए थोड़ा
मुश्किल होता है क्योंकि ये काफी कम ऊष्मा छोड़ते हैं।
लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक ऐसा
उपकरण तैयार किया है जो तरल पदार्थों का उपयोग करके निम्न-स्तर की ऊष्मा को बिजली
में परिवर्तित कर सकता है। गौरतलब है कि वैज्ञानिक काफी समय से ऐसे पदार्थों के
बारे में जानते हैं जो ऊष्मा को बिजली में परिवर्तित कर सकते हैं। यह कार्य विशेष
अर्धचालकों द्वारा किया जाता है जिन्हें ताप-विद्युत पदार्थ कहते हैं। जब इनसे बनी
चिप्स का एक सिरा गर्म और दूसरा ठंडा होता है तब इलेक्ट्रान गर्म से ठंडे सिरे की
ओर बहने लगते हैं। कई चिप्स को एक साथ जोड़ने पर एक स्थिर विद्युत प्रवाह उत्पन्न
होता है।
लेकिन जो पदार्थ अभी ज्ञात हैं वे महंगे
हैं और तापमान में सैकड़ों डिग्री सेल्सियस के अंतर पर काम करते हैं। ऐसे में यह
तकनीक रेफ्रिजरेटर जैसे निम्न-स्तर के ताप स्रोतों के लिए बेकार है। इस समस्या को
दूर करने के लिए हुआज़हौंग युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के भौतिक विज्ञानी
जून ज़ाऊ और उनके सहयोगियों ने थर्मोसेल्स की ओर रुख किया। इन उपकरणों में गर्म से
ठंडे की ओर विद्युत आवेश को प्रवाहित करने के लिए ठोस की बजाय तरल पदार्थों का
उपयोग किया जाता है। इनमें इलेक्ट्रॉन्स का नहीं बल्कि आयनों का स्थानांतरण होता
है।
थर्मोसेल्स कम तापमान अंतर को बिजली में
परिवर्तित करने में सक्षम होते हैं लेकिन विद्युत धारा बहुत कम होती है। कारण यह
है कि इलेक्ट्रॉन्स की तुलना में आयन सुस्त होते हैं। इसके अलावा इलेक्ट्रॉन के
विपरीत आयन अपने साथ ऊष्मा का भी प्रवाह करते हैं जिससे दोनों सिरों के बीच तापमान
का अंतर कम हो जाता है।
ज़ाऊ की टीम ने एक छोटी थर्मोसेल से शुरुआत
की जिसके निचले व ऊपरी सिरों पर इलेक्ट्रोड थे। निचले और ऊपरी इलेक्ट्रोड के बीच
50 डिग्री सेल्सियस का अंतर बनाए रखा गया। उन्होंने इस चैम्बर में फैरीसाइनाइड
नामक आयनिक पदार्थ भर दिया।
गर्म इलेक्ट्रोड के नज़दीक हों तो
फैरीसाइनाइड आयन एक इलेक्ट्रान छोड़ते हैं और चार ऋणावेश युक्त Fe(CN)6-4 से तीन ऋणावेश युक्त Fe(CN)6-3 में बदल जाते हैं।
मुक्त इलेक्ट्रॉन्स एक बाहरी सर्किट के माध्यम से गर्म से ठंडे इलेक्ट्रोड की ओर
बहते हुए सर्किट में लगे छोटे उपकरणों को उर्जा प्रदान करते हैं। ये इलेक्ट्रान जब
ठंडे इलेक्ट्रोड तक पहुंचते हैं तब ये Fe(CN)6-3 के साथ जुड़ जाते
हैं। इससे पुन: Fe(CN)6-4 आयन उत्पन्न होते हैं जो फिर से गर्म इलेक्ट्रोड की ओर
चले जाते हैं और यह चक्र निरंतर चलता रहता है।
इन गतिमान आयनों द्वारा वाहित गर्मी को कम
करने के लिए ज़ाऊ की टीम ने फैरीसाइनाइड में एक धनावेशित कार्बन यौगिक गुआनिडिनियम जोड़
दिया। ठंडे इलेक्ट्रोड पर गुआनिडिनियम ठंडे Fe(CN)6-4 आयनों को क्रिस्टल्स में परिवर्तित कर देता है। क्योंकि तरल पदार्थों की
तुलना में ठोस पदार्थों की ऊष्मा चालकता कम होती है,
वे गर्म से ठंडे
इलेक्ट्रोड की ओर जाने वाली गर्मी को सोख लेते हैं। गुरुत्वाकर्षण के कारण ये
क्रिस्टल्स गर्म इलेक्ट्रोड की ओर चले जाते हैं जहां गर्मी के कारण ये वापिस तरल
बन जाते हैं।
साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार थर्मोसेल के पिछले संस्करणों की तुलना में इलेक्ट्रोड के उतने ही क्षेत्रफल के लिए यह थर्मोसेल पांच गुना अधिक बिजली उत्पन्न करती है। यह एक सामान्य व्यावसायिक उपकरण से दो गुना अधिक दक्षता प्रदान करता है। टीम के अनुसार एक 20 थर्मोसेल वाले पुस्तक के आकार के मॉड्यूल से एक एलईडी लाइट और एक पंखे को ऊर्जा प्रदान की जा सकती है। साथ ही एक मोबाइल फोन भी चार्ज किया जा सकता है। टीम के लिए अगला कदम इस उपकरण को और सस्ता बनाना और ऐसी सामग्री का उपयोग करना है जो अधिक से अधिक ऊष्मा को अवशोषित कर सके। इसकी सहायता से हम अपने आसपास के वातावरण में उपलब्ध गर्मी से छोटे गैजेट्स को उर्जा देने में सक्षम हो सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/heater_1280p.jpg?itok=z6PYd5GP
क्यूबा वैसे तो एक छोटा-सा देश है किंतु कृषि व स्वास्थ्य जैसे
कुछ क्षेत्रों में उसकी उपलब्धियां विश्व स्तर पर चर्चा का विषय बनती रही हैं।
विशेषकर कृषि विकास की बहस में हाल के समय में क्यूबा का नाम बार-बार आता है। कारण
कि आज विश्व का ध्यान पर्यावरण की रक्षा आधारित खेती पर बहुत केंद्रित है व क्यूबा
ने इस संदर्भ में उल्लेखनीय सफलताएं प्राप्त की हैं।
विश्व स्तर पर रासायनिक खाद व
कीटनाशक/जंतुनाशक दवाओं के अधिक उपयोग से प्रदूषण बढ़ा है,
मिट्टी के प्राकृतिक
उपजाऊपन पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा है, किसान के मित्र अनेक जीवों व सूक्ष्म जीवों
की बहुत क्षति हुई है व जलवायु बदलाव का खतरा भी बढ़ा है। इन पर निर्भरता कम करने
की व्यापक स्तर पर इच्छा है। पर प्राय: नीति स्तर पर यह चाह आगे नहीं बढ़ पाती है
क्योंकि इस वजह से कृषि उत्पादन कम होने की आशंका व्यक्त की जाती है।
इस संदर्भ में क्यूबा की उपलब्धि निश्चय ही
उल्लेखनीय है। यहां खाद्य उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि ऐसे तौर-तरीकों से प्राप्त
की गई है जिनसे रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं के उपयोग को काफी हद तक कम किया गया।
दूसरे शब्दों में, पिछले लगभग 25 वर्षों में यहां रासायनिक खाद व कीटनाशक
दवाइयों का उपयोग पहले से कहीं कम करते हुए खाद्य व कृषि उत्पादन में वृद्धि
प्राप्त की गई।
वर्ष 1990 तक क्यूबा में रासायनिक खाद व
कीटनाशक दवाओं का अधिक उपयोग होता था। इन्हें मुख्य रूप से सोवियत संघ से आयात
किया जाता था। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के चलते यह आयात व खाद्य आयात दोनों
रुक गए। इस तरह यहां खाद्य व कृषि संकट उत्पन्न हुआ। वैज्ञानिकों,किसानों व सरकार के
आपसी विमर्श से यह राह निकाली गई कि एग्रोइकॉलॉजी या पर्यावरण की रक्षा पर आधारित
खेती की राह अपनाई जाए।
इसके लिए परंपरागत व आधुनिक विज्ञान, इन
दोनों उपायों से सीखा गया। अनेक किसानों ने अपने पुरखों के तरीकों, जिन्हें
वे छोड़ चुके थे, उन्हें नए सिरे से अपनाया व वैज्ञानिकों ने इन्हें सुधारने
में मदद की। मिश्रित खेती व उचित फसल चक्र को अपनाया गया। पशुपालन व कृषि में
बेहतर समन्वय किया गया। एक उत्पादन प्रणाली से दूसरी उत्पादन प्रणाली के लिए पोषण
प्राप्त किया गया। जैसे मुर्गीपालन व पशुपालन से कृषि के लिए गोबर की खाद व
वृक्षों से पत्तियों की खाद प्राप्त की गई। हानिकारक कीड़ों को दूर रखने की कई
परंपरागत व नई तकनीकें अपनाई गर्इं जबकि खतरनाक रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता
निरंतर कम की गई।
पर्यावरण आधारित कृषि को राष्ट्रीय नीति के
स्तर पर अपनाया गया व साथ में किसान संगठनों को इसके लिए निरंतर प्रोत्साहित भी
किया गया। वैज्ञानिकों ने किसानों के साथ मिलकर,
उनकी ज़रूरतों को
समझते हुए, नई वैज्ञानिक जानकारियों का योगदान दिया। परंपरा व आधुनिक
विज्ञान से, किसानों व वैज्ञानिकों ने एक-दूसरे से सीखा, सहयोग
किया।
इस तरह के कृषि विकास के उत्साहवर्धक
परिणाम मात्र छ:-सात वर्षों में मिलने लगे। 10 प्रमुख खाद्य उत्पादों के लिए वर्ष
1996-97 में रिकार्ड उत्पादन प्राप्त हुआ। वर्ष 1988 की तुलना में वर्ष 2007 में
सब्ज़ियों का उत्पादन 145 प्रतिशत रहा जबकि कृषि-रसायनों में 72 प्रतिशत की कमी आई।
वर्ष 1988 की तुलना में वर्ष 2007 में बीन्स (फलियों) का उत्पादन 351 प्रतिशत रहा
जबकि कृषि रसायनों में 55 प्रतिशत कमी आई।
पर्यावरण रक्षा आधारित खेती अधिक श्रम-सघन
होती है व इसमें रचनात्मक जुड़ाव की संभावना अधिक होती है। अत: रोज़गार उपलब्धि की
दृष्टि से भी यह क्यूबा के लिए बेहतर रही है।
विश्व के अधिकांश देश व वहां के किसान यही
चाहते हैं कि उनके खर्च कम हों और उनकी भूमि का प्राकृतिक उपजाऊपन बना रहे। क्यूबा
के अनुभव ने बताया है कि उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ ये उद्देश्य भी प्राप्त किए जा
सकते है। पर्यावरण की रक्षा के साथ किसानों का खर्च कम करने की दृष्टि से भी
क्यूबा का हाल का, विशेषकर पिछले 25 वर्षों का,
अनुभव उत्साहवर्धक
रहा।
यदि भारत के दृष्टिकोण से देखें तो हाल के दशकों में किसानों का बढ़ता खर्च व कर्ज़ बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं। इसके कारण किसानों में असंतोष भी फैला है। समय-समय पर कर्ज़ में राहत देने से भी इस समस्या का समाधान नहीं हुआ है। उधर मिट्टी का प्राकृतिक उजाऊपन भी तेज़ी से कम होता जा रहा है। अन्य संदर्भों में भी कृषि से जुड़ा पर्यावरण का सकंट बढ़ता जा रहा है। अत: क्यूबा के इन अनुभवों से भारत भी सही कृषि नीतियां अपनाने के लिए बहुत कुछ सीख सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://news.virginia.edu/sites/default/files/article_image/cuba_leaders_field_3-2.jpg
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी पहली नज़र में हास्यापद लगने वाली लेकिन महत्वपूर्ण खोजें इगनोबेल पुरस्कार से नवाज़ी गईं। फर्क इतना था कि कोरोना संक्रमण के चलते इस वर्ष समारोह ऑनलाइन सम्पन्न हुआ, जिसकी मेज़बानी विज्ञान की हास्य पत्रिका एनल्स ऑफ इंप्रॉबेबल रिसर्च ने की। इस वर्ष समारोह की थीम थी इंसेक्ट (कीट)। समारोह में पहले से रिकॉर्ड किए गए भाषण, संगीत और द्रुत व्याख्यान प्रस्तुत किए।
इस वर्ष कीट विज्ञान में इगनोबेल पुरस्कार
उस अध्ययन को दिया गया जिसमें इस बात का पता लगाया गया था कि क्यों कई कीट
विज्ञानी भी मकड़ियों से डरते हैं। यह अध्ययन 2013 में अमेरिकन एंटोमोलॉजिस्ट
पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, शीर्षक था सर्वे ऑफ एरेक्नोफोबिक
एंटोमोलॉजिस्ट्स। शोधकर्ता जानना चाहते थे कि क्यों तिलचट्टा और भुनगा जैसे
जीवों के साथ काम करने वाले कुछ कीट विज्ञानी स्वयं मकड़ियों से डरते हैं। उन्होंने
पाया कि मकड़ियों का फुर्तीला होना, उनकी अप्रत्याशित चाल और पैरों की अधिक
संख्या कुछ कीट विज्ञानियों को अधिक विचलित करती है।
श्रवण विज्ञान यानी एकूस्टिक्स में
पुरस्कार उन शोधकर्ताओं को दिया गया जिन्होंने मगरमच्छों की आवाज़ों का अध्ययन किया
था। मगरमच्छ की चिंघाड़ काफी तेज़ होती है, प्रजनन काल में यह और भी तीव्र हो जाती है।
शोधकर्ताओं ने मगरमच्छों के ध्वनि मार्ग में अनुनाद के बारे में पता करने के लिए
दो भिन्न माध्यम (साधारण हवा, और हीलियम-ऑक्सीजन मिश्रण) में उनकी चिंघाड़
की तुलना की। हीलियम की उपस्थिति में ध्वनि की तीव्रता बढ़ जाती है और श्वसन
सामान्य रहता है। इसके लिए उन्होंने पहले मगरमच्छ को एक एयरटाइट चैंबर में रखा।
चैंबर में पहले सामान्य हवा और फिर हीलियम और ऑक्सीजन का मिश्रण (हीलिऑक्स) भरा
गया। दोनों माध्यम में ध्वनि की गति की गणना की और उनके सिर की लंबाई के हिसाब से
ध्वनि मार्ग की लंबाई का अनुमान लगाया। 2015 में जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल
बायोलॉजी में शोधकर्ताओं ने बताया कि हीलिऑक्स माध्यम में मगरमच्छ की ध्वनि की
तीव्रता बढ़ गई थी जो यह दर्शाता है कि गैर-पक्षी सरीसृपों में आवाज़ ध्वनि मार्ग
में कंपन के अनुनाद से उत्पन्न होती है।
मनोविज्ञान में पुरस्कार उन अमरीकी
शोधकर्ताओं की जोड़ी को दिया गया जिन्होंने 2018 में जर्नल ऑफ पर्सनैलिटी
में प्रकाशित अपने अध्ययन के ज़रिए बताया था कि लोग विशेष तरह की भौंहों को ‘घोर
आत्ममुग्धता’ का संकेत मानते हैं। इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने
कुछ फोटो लिए और लोगों को दिखाए। फोटो इस तरह दिखाए गए थे कि चेहरे के अलग-अलग
हिस्से ओझल कर दिए गए थे। प्रतिभागियों के जवाबों का विश्लेषण करने पर पता चला कि
जो लोग अपनी भौंहे लंबी व घनी रखते हैं उन्हें प्रतिभागियों ने प्राय: आत्ममुग्ध
माना। प्रतिभागियों का मानना था ये लोग अपनी भौंहे खास तरह से इसलिए रखते हैं
क्योंकि वे सबकी नज़रों में आना चाहते हैं और सबसे जुदा दिखना चाहते हैं।
चिकित्सा का इगनोबेल पुरस्कार एक मनोविकार, मिसोफोनिया, के
लिए नए नैदानिक मानदंड बताने वाले शोधकर्ताओं को दिया गया। मिसोफोनिया से पीड़ित
लोगों को कुछ आवाज़ों, जैसे सांस की, चबाने की,
गटकने आदि की आवाज़ से
चिढ़ होती है। मिसोफोनिया को अब तक मनोविकार की तरह नहीं देखा जाता था और इसकी
पर्याप्त व्याख्या नहीं की गई थी। इसका ठीक तरह से उपचार हो सके इसलिए साल 2013
में शोधकर्ताओं ने मिसोफोनिया से पीड़ित 42 लोगों पर अध्ययन कर इसके कुछ नैदानिक
मानदंड बताए थे। प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित उनके मानदंडों के अनुसार
मिसोफोनिया से पीड़ित व्यक्ति सिर्फ मानव जनित आवाज़ों और उससे सम्बंधित दृश्य के
प्रति गुस्सा, चिढ़ और आक्रामता व्यक्त करता है। इससे पीड़ित व्यक्ति
सार्वजनिक स्थलों पर जाने से बचकर, कानों को बंद कर,
या किसी अन्य तरह की
आवाज़ पैदा कर इस स्थिति से बचने की कोशिश में वे अन्य लोगों से कटने लगते हैं।
अर्थशास्त्र की श्रेणी का पुरस्कार उस
अध्ययन को मिला जो बताता है कि जिन देशों में आर्थिक असमानता अधिक है वहां प्रेमी
युगल चुंबन (फ्रेंच किस, जिसमें जीभों का संपर्क होता है) अधिक लेते
हैं। नेचर पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 13 देशों के
2988 प्रतिभागियों पर एक सर्वे किया। जिसमें उनसे प्रश्नपत्र के माध्यम से कुछ
सवाल पूछे गए थे। जैसे कि वे कब और कितनी बार अपने साथी का चुंबन लेते हैं।
उन्होंने पाया कि जिन देशों में आर्थिक असमानता अधिक होती है वहां लोग अपने साथी
का अधिक चुंबन लेते हैं। अध्ययन के अनुसार उन माहौल में अधिक फ्रेंच किस होते हैं
जहां लोगों के पास सहारे कम होते हैं और चुंबन रिश्ते में प्रतिबद्धता दर्शाता है।
इसके अलावा यह व्यवहार सिर्फ चुंबन के मामले में दिखा,
प्रेम के किसी अन्य
प्रदर्शन में नहीं। उन्होंने यह भी पाया कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं ‘अच्छा’
चुंबन चाहती है।
पदार्थ विज्ञान में पुरस्कार से उस अध्ययन
को नवाज़ा गया जिसने इस दावे की सत्यता की जांच की जो कहता था कि एक एस्किमो पुरुष
ने कुत्ते को मारने-काटने के लिए अपने जमे हुए (फ्रोज़न) मल से चाकू बनाया था।
शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में फ्रोज़न विष्ठा से चाकू बनाया और नियंत्रित
परिस्थिति में इसकी कारगरता जांची। उन्होंने पाया कि फ्रोज़न मानव विष्ठा से कारगर
चाकू बनाना संभव नहीं है।
इगनोबेल पुरस्कार विजेताओं को 10 ट्रिलियन जिम्बाब्वे मुद्रा दी गई (जो मात्र 50 पैसे के बराबर है)। ट्रॉफी के तौर उन्हें 6 पन्नों की पीडीएफ फाइल मेल की गई, जिसका प्रिंट लेकर विजेता उससे अपने लिए एक घनाकार ट्रॉफी बना सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Ignoble_ChineseAlligator_1280x720.jpg?itok=4BFTk7gk
प्रत्येक राष्ट्र के अपने राष्ट्रीय पशु, पक्षी, पुष्प
आदि होते हैं। इनका चयन इन क्षेत्र के विशेषज्ञों और सरकार द्वारा कई पहलुओं और
तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए किया जाता है। अभी हमारे देश में राष्ट्रीय तितली के
चयन की प्रक्रिया की जा रही है और जल्द ही हमें राष्ट्रीय तितली भी मिल जाएगी। इस
बार राष्ट्रीय प्रतीक के चयन की मुख्य विशेषता यह है कि देश में पहली बार
राष्ट्रीय प्रतीक का चयन आम लोगों के द्वारा किया जा रहा है। इसलिए हमें इस अवसर
का लाभ उठाना चाहिए।
तितलियों के चयन की बात से पहले यह समझने
का प्रयास करते हैं कि भारत के राष्ट्रीय पक्षी का खिताब मोर (Pavocristatus) को क्यों दिया गया।
अद्भुत सौंदर्य रखने वाले मोर पक्षी
दक्षिणी और दक्षिण पूर्वी एशिया में पाए जाते हैं। ये खुले वनों में वन्य पक्षी की
तरह रहना पसंद करते हैं। नर अपनी रंग बिरंगी पूंछ खोलकर प्रणय निवेदन के लिए नाचता
है। जब यह पक्षी पंख फैलाकर नाचता है तो इसका अनोखा नाच मन मोह लेता है और इसके
खुले हुए सुंदर पंख हीरे-जड़ित पोशाक की भांति लगने लगते हैं। नीला मोर भारत और
श्रीलंका का राष्ट्रीय पक्षी है।
किंतु मोर को भारत का राष्ट्रीय पक्षी के
रूप में चुने जाने का कारण सिर्फ उसका अद्भुत सौंदर्य ही नहीं रहा बल्कि अन्य कई
कारण हैं। जब देश के राष्ट्रीय पक्षी का चयन किया जा रहा था तब मोर के अलावा कई
पक्षियों के नाम भी शामिल थे। 1961 में माधवी कृष्णन ने अपने लेख में लिखा था कि
उटकमंड में भारतीय वन्य प्राणी बोर्ड की बैठक हुई थी। इस बैठक में सारस क्रैन, ब्राह्मणी
काइट, बस्टर्ड, और हंस के नामों पर भी चर्चा हुई थी। लेकिन
इन सब में मोर को चुना गया।
राष्ट्रीय तितली के चयन में भागीदारी करें ऑनलाइन चयन की प्रक्रिया 11 सितम्बर 2020 से वन्यजीव सप्ताह के अंत यानी 8 अक्टूबर 2020 तक चलेगी। इस तरीके से हो रहे राष्ट्रीय तितली चयन में भागीदारी करने के लिए इस लिंक पर जा कर अपनी पसंदीदा तितली को वोट कर सकते हैं: https://forms.gle/u7WgCuuGSYC9AgLG6
दरअसल, इसके
लिए जो गाइडलाइन्स बनाई गई थी उसके अनुसार राष्ट्रीय पक्षी घोषित किए जाने के लिए
उस पक्षी का देश के सभी हिस्सों में पाया जाना ज़रूरी है। साथ ही आम आदमी इसे पहचान
सके व इसे किसी भी सरकारी प्रकाशन में चित्रित किया जा सके। इसके अलावा यह पूरी
तरह से भारतीय संस्कृति और परंपरा का हिस्सा होना चाहिए। इन सब विशेषताओं के साथ
मोर को 26 जनवरी 1963 को भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर दिया गया।
अब राष्ट्रीय तितली के चयन की प्रक्रिया।
भारत में पाई जाने वाली 1500 तरह की तितलियों में से तितली विशेषज्ञों की टीम ने
इनके संरक्षण और पारिस्थितिकी उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए वोटिंग के लिए सात
तितलियों को चुना है। आम लोग इन सात तितलियों में से किसी एक तितली को ऑनलाइन
वोटिंग के ज़रिए चुन सकते है। सर्वाधिक वोट प्राप्त करने वाली प्रथम तीन तितलियों
में से किसी एक तितली को केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की एक विशेषज्ञ समिति
द्वारा राष्ट्रीय तितली चुना जाएगा।
ऐसा करने से आम लोगों में तितलियों के
प्रति रुचि बढ़ेगी और वे इनका संरक्षण भी करेंगे। जैविक महत्व के साथ ही तितलियों
की कोमलता, सुंदरता व सादगी से इन्हें राष्ट्रीय पहचान मिलना हम सभी के
लिए गर्व की बात होगी।
तितलियां प्रकृति संरक्षण में राजदूत की भूमिका निभाती हैं। साथ ही वे महत्वपूर्ण जैविक संकेतक भी हैं जो हमारे पर्यावरण के बेहतर स्वास्थ्य को प्रतिबिंबित करती हैं। राष्ट्रीय तितली होने से लोगों में तितलियों के प्रति जागरूकता पैदा होगी। आम लोग भी तितलियों को उनके नाम से जान सकेंगे व इनसे प्रेम करेंगे।
राष्ट्रीय तितली के सर्वेक्षण के लिए
प्रजातियों की अंतिम सूची कैसे तैयार की गई:
1. उस तितली का राष्ट्र के साथ-साथ
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक, पारिस्थितिक और संरक्षण महत्व हो।
2. वह करिश्माई होना चाहिए।
3. उसमें कोई ऐसा जैविक पहलू होना चाहिए जो लोगों को आकर्षित करे।
4. उसे आसानी से पहचाना, देखा और याद रखा जा सके।
5. उसकी प्रजातियों के कई रूप नहीं होने चाहिए।
6. उसके कैटरपिलर हानिकारक नहीं होने चाहिए।
7. वह बहुत आम नहीं होनी चाहिए।
8. वह उन प्रजातियों के अलावा होना चाहिए जो पहले से ही किसी राज्य
की तितली घोषित है।
उपरोक्त मानदंडों को
ध्यान में रखते हुए टीम ने लगभग 50 तितली प्रजातियों की अंतिम सूची तैयार की। फिर
टीम के सदस्यों ने मतदान में स्कोरिंग प्रणाली का उपयोग करके निम्नलिखित सात
प्रजातियों की अंतिम सूचि बनाई।
1. फाइव बार स्वॉर्डटेल (Graphiumantiphates): इस प्रजाति को पहली बार 1775 में पीटर क्रैमर द्वारा वर्णित किया गया था। यह पश्चिमी घाट के सदाबहार वनों, पूर्वी हिमालय एवं उत्तर-पूर्वी भारत में पाई जाती है। इसके पीछे के पंखों पर काली तलवार के समान पूंछ जैसी संरचना से इसे पहचाना जाता है। पंखों पर काले सफेद पट्टे पर हरे-पीले रंग का विन्यास होता है।
2. इंडियन जेज़बेल या कॉमन जेज़बेल (Delias eucharis): सामान्य आकार की यह तितली पूरे भारत में पाई जाती है। इसे उद्यानों में आसानी से देखा जा सकता है। इसके पंखों की ऊपरी सतह सफेद और निचली सतह पीली होती है। पंखों पर काली धारियां होती हैं और किनारों पर नारंगी धब्बे भी होते है।
3. इंडियन नवाब या कॉमन नवाब (Charaxesbharata/Polyurabharata): लगभग पूरे भारत के नम जंगलों में पाई जाती है। तेज़ी से उड़ने और पेड़ों के ऊपरी हिस्सों में रहने के कारण आम तौर पर कम दिखाई देती है। ऊपरी पंख काले एवं नीचे के पंख चॉकलेटी होते हैं। पंखों के बीच हल्के पीले रंग की टोपी सामान संरचना के कारण इसे नवाब कहा जाता है।
4. कृष्णा पीकॉक (Papiliokrishna): अपने बड़े पंख के लिए प्रसिद्ध और उन्हीं से पहचानी जाने वाली यह तितली उत्तर-पूर्वी भारत व हिमालय में पाई जाती है। इसके पंख काले होते हैं एवं इनमें पीले रंग की धारी होती है। इनके निचले पंख पर नीले लाल रंग के पट्टे होते हैं।
5. ऑरेंज ओकलीफ (Kallimainachus): यह पश्चिमी घाट एवं उत्तर -पूर्व के जंगलों में पाई जाती है। पंखों पर नारंगी पट्टा और गहरा नीला रंग होता है। बंद होने पर पंख एक सूखी पत्ती जैसा दिखता है। पंख खुले होते हैं तो एक काला एपेक्स, एक नारंगी डिस्कल बैंड और गहरा नीला आधार प्रदर्शित होता है। जो बहुत आकर्षक लगता है।
6. नॉर्थन जंगल क्वीन (Stichophthalmacamadeva): यह अरुणाचल प्रदेश में पाई जाती है। बड़े आकार की होती है। पंख चॉकलेटी ब्राउन के साथ सफेद धब्बेदार होते हैं। पंखों पर चॉकलेटी गोल घेरे होते हैं। यह फ्लोरेसेंट कलर में भी देखी जाती है। इस पर हल्की नीली धारियां होती है जिससे यह अधिक सुंदर लगती है।
7. येलो गोर्गन (Meandrusapayeni): यह पूर्वी हिमालय और उत्तर पूर्व भारत में पाई जाती है। इसका आकार मध्यम होता है। इसके पंखों से कोण बनता है। इसके अनूठे पंखों से इसकी पहचान है। पंखों की आंतरिक सतह गहरी पीली होती है। यह तेज़ी से ऊंचा उड़ सकती है।(स्रोत फीचर्स)
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इस साल 25 मई को बोत्सवाना के ओकावांगो पैनहैंडल के ऊपर
विमान से निगरानी करते हुए वन संरक्षकों की टीम को 169 मृत हाथी दिखाई दिए। और
अधिक खोज करने पर 356 हाथी मृत पाए गए। हत्यारों की खोज में जुटे विशेषज्ञों को
कुछ खास सुराग नहीं मिल रहा था। चूंकि इतने सारे हाथियों का एक साथ मरना कोई
सामान्य घटना तो थी नहीं, इसलिए संदेह था कि या तो उन्हें ज़हर देकर
मारा गया है या इलाके में कोई अज्ञात बीमारी फैली है।
दुनिया भर के एक-तिहाई हाथी बोत्सवाना में
पाए जाते हैं। हाथी और गेंडे के अवैध शिकार की कुछेक छुटपुट घटनाओं के अलावा
बोत्सवाना हाथियों के संरक्षण के लिए सुरक्षित एवं महत्वपूर्ण ठिकाना साबित हुआ
है।
किसी भी हाथी के शरीर में गोलियों के निशान
नहीं थे और हाथी दांतों का ना निकाला जाना भी इस बात का सबूत था कि शायद इनका
शिकार बहुमूल्य दांतों के लिए नहीं किया गया है। ज़मीन में पाए जाने वाले एंथ्रेक्स
बैक्टीरिया के संक्रमण को भी बोत्सवाना की शासकीय प्रयोगशाला ने नकार दिया था।
प्रारंभ में बोत्सवाना सरकार द्वारा देश के
बाहर से सहायता ना लेने और चुप्पी साधने के कारण हाथियों की हत्याओं का रहस्य
बरकरार था।
फिर महीनों तक जिम्बाब्वे, दक्षिण
अफ्रीका, कनाडा और अमेरिका के विशेषज्ञों ने मामले की जांच की।
बोत्सवाना के अधिकारियों ने बताया कि हाथियों की मृत्यु का कारण सायनोबैक्टीरिया
द्वारा उत्पन्न तंत्रिका विष है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि
यह विष पीने के पानी के साथ हाथियों के शरीर में पहुंचा और उसने मस्तिष्क की
कोशिकाओं पर बुरा असर डाला। नीले-हरे शैवाल के रूप में मशहूर सायनोबैक्टीरिया
ठहरे हुए पानी में पाए जाते हैं और सायनोटॉक्सिन नामक विष बनाते हैं, जो
मानव व जंतुओं को गंभीर रूप से बीमार कर सकता है। गर्मी बढ़ने से तथा फॉस्फोरस की
उपलब्धता में सायनोबैक्टीरिया तेज़ी से वृद्धि करते हैं और सायनोटॉक्सिन
अधिक मात्रा में उत्पन्न करते हैं। सायनोटॉक्सिन तंत्रिका तंत्र के अलावा
लीवर और त्वचा पर भी गंभीर प्रभाव डालता है।
यद्यपि अधिकारिक घोषणा में सायनोबैक्टीरिया को हाथियों की मृत्यु का कारण बताया गया परंतु पानी पीने के स्थानों पर अन्य जानवरों की लाशें प्राप्त नहीं हुर्इं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि शायद हाथी सायनोटॉक्सिन के प्रति अति संवेदनशील होते हैं और दूसरे जानवर प्रतिरोधी। इसके अलावा हाथी एक बार में 150 लीटर पानी पी जाते हैं, इसलिए छोटे जंतुओं की तुलना में उनके शरीर में सायनोटॉक्सिन की मात्रा अधिक गई होगी। यह भी हो सकता है कि कीचड़ में लोटने और पानी से ज़्यादा देर खेलने के कारण विष त्वचा को भेदकर शरीर में फैल गया हो। परंतु गिद्धों वगैरह में विष का प्रभाव नहीं देखा गया। इसके जवाब में यह कहा जा रहा है कि तंत्रिका विष तो मस्तिष्क एवं मेरु रज्जू में जमा हुआ होगा जिसे जानवर नहीं खाते हैं। बहरहाल, उक्त निष्कर्ष को लेकर संदेह भी व्यक्त किए गए हैं। जैसे केन्या के एक संरक्षणकर्ता कैथ लिंडसे कहते हैं कि बोत्सवाना सरकार द्वारा पड़ताल के प्रारंभिक चरण में अन्य संस्थाओं से सहयोग न लेने के कारण हम एक रहस्य को उजागर करने में पीछे रह गए हैं।(स्रोत फीचर्स)
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वुडरैट चूहे जैसा एक जंतु होता है जो अपने बिल में प्राय:
टहनियां वगैरह जमा करता है। फ्लोरिडा के निकट छोटे-छोटे टापुओं पर पाए जाने वाले की
लार्गो वुडरैट्स जंगल में फेंकी गई पुरानी कारों,
नौकाओं और छोटे
प्लास्टिक घरों में अपने घोंसले बनाने लगे हैं। उनके आवास गंदगी से घिरे होने के
कारण, उनका जीवन जोखिमपूर्ण लगता है। लेकिन हाल के एक अध्ययन से
सर्वथा विपरीत स्थिति सामने आई है। उनके घोंसले ना सिर्फ कृंतकों यानी कुतरने वाले
जंतुओं में होने वाले आम रोगों से मुक्त थे,
बल्कि उनमें
एंटीबायोटिक बनाने वाले बैक्टीरिया भी थे।
1800 के अंत में,
अनानास की खेती के
लिए की लार्गो के जंगलों को साफ किया गया था। तब वुडरैट बचे-खुचे जंगलों
में रहने लगे लेकिन जिन पेड़ों पर वे अपने बिल बनाते थे वे अधिकांश नष्ट हो चुके
थे। 1980 के आसपास द्वीप के उत्तरी छोर पर फिर से जंगल पनपना शुरू हुआ, और
अब वहां 1000 हैक्टर से भी कम संरक्षित क्षेत्र में कुछ हज़ार वुडरैट बसे हैं।
लेकिन द्वीप पर सीमित जगह होने की वजह से
यह जंगल पुरानी कारों और वाशिंग मशीन का डंपिंग ग्राउंड बन गया। तब अप्रत्याशित
रूप से वुडरैट्स इस डंपिंग ग्राउंड में बसने लगे। कबाड़ बन चुकी कारों में वुडरैट्स
लकड़ी और पत्तियों से अपने घोंसले बनाने लगे। संरक्षणकर्ताओं ने इस ओर ध्यान दिया
और जिन इलाकों में घोंसला बनाने की प्राकृतिक सामग्री कम थी वहां उन्हें कबाड़
मुहैया कराया। और प्लास्टिक पाइप और पत्थरों से 1000 से अधिक कृत्रिम घोंसले भी
तैयार किए।
यह जानने के लिए कि कृत्रिम घोंसलों में
रोगजनक सूक्ष्मजीव तो नहीं पनप रहे, कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के सूक्ष्मजीव
पारिस्थितिकीविद मेगन थेम्स और उनके साथियों ने 10 कृत्रिम घोंसलों में पनपने वाले
सूक्ष्मजीवों का पता लगाया। इसकी तुलना उन्होंने लकड़ियों और पत्तियों से बने 10
‘प्राकृतिक’ घोंसलों, उनके आसपास के स्थानों की मिट्टी और वुडरैट्स की त्वचा से
लिए गए नमूनों से की। उन्होंने बैक्टीरिया के डीएनए का अनुक्रमण भी किया।
शोधकर्ताओं को किसी भी घोंसले में
बैक्टीरिया जनित कोई रोग नहीं मिला। यहां तक कि चूहों में आम तौर पर फैलने वाली
बीमारी प्लेग और लेप्टोस्पायरोसिस भी घोंसलों से नदारद थी। इकोस्फीयर
पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि वुडरैट्स में भी बीमारियों का प्रसार कम दिखा।
वहीं वुडरैट के कृत्रिम और प्राकृतिक दोनों घोंसलों में ऐसे बैक्टीरिया मिले जो
एरिथ्रोमाइसिन सहित कई एंटीबायोटिक बनाते हैं। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि
एंटीबायोटिक बनाने वाले ये बैक्टीरिया ही रोगजनकों को घोंसलों से दूर रखते हैं।
लेकिन घोंसले में सूक्ष्मजीवों की विविधता और प्रचुरता एक कारक ज़रूर हो सकता है।
अध्ययन रेखांकित करता है कि जीवों के
संरक्षण प्रयास में यह जानना महत्वपूर्ण है कि संरक्षण के प्रयास जानवरों और
पर्यावरण के सूक्ष्मजीव संसार की विविधता को किस तरह प्रभावित करते हैं। सौभाग्यवश
वुडरैट के संरक्षण के फलस्वरूप कृत्रिम आवास में उनका सूक्ष्मजीव संसार नहीं बदला
था। शोधकर्ता यह जानना चाहते हैं कि वुडरैट्स के घोंसलों मे एंटीबायोटिक बनाने
वाले बैक्टीरिया आते कहां से हैं।
अन्य स्तनधारियों में रोगजनकों का सफाया करने वाले सूक्ष्मजीव किस तरह कार्य करते हैं इसे समझना मनुष्यों के अपने रोगों के खिलाफ लड़ने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि में मददगार हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Neo001-1280×720.jpg?itok=aMlzrhbw