अनियंत्रित जलवायु परिवर्तन के प्रकोप हम सभी झेल रहे हैं। हाल
ही में एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि आर्कटिक में समुद्री बर्फ
सिकुड़ने के कारण ध्रुवीय भालू सदी के अंत तक शायद विलुप्त ही हो जाएंगे।
अलास्का में ब्यूफोर्ट सागर से लेकर
साइबेरियाई आर्कटिक तक ध्रुवीय भालू की आबादी वाले 19 क्षेत्रों में लगभग 25 हज़ार
ध्रुवीय भालू पाए जाते हैं। यह हिस्सा नवंबर से मार्च तक बर्फ से ढंका रहता है।
यहां दिन का तापमान ऋण 15 से ऋण 1 डिग्री सेल्सियस होता है। मांसाहारी ध्रुवीय
भालू शिकार के लिए पूरी तरह समुद्री बर्फ पर निर्भर होते हैं और सील का शिकार करते
हैं। किंतु प्रति वर्ष वैश्विक तापमान बढ़ने से समुद्री बर्फ में कमी उनकी भोजन
आपूर्ति में बाधा डालती है और वे प्रति वर्ष भूखे रह जाते हैं।
टोरोन्टो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ.
पिटर मोलनर ने हाल ही में नेचर क्लाइमेट चेंज में छपे शोध में कहा है कि
बर्फ की कमी के कारण शिकार खोजने के लिए भालुओं को लंबी दूरी तक जाना पड़ता है और
लगातार भोजन की कमी उनका अंत कर देगी।
आर्कटिक समुद्र पर जमी बर्फ में सील की
खुशबू खोजते-खोजते ये उन स्थानों पर पहुंच जाते हैं जहां बर्फ के मैदानों में छेद
होते हैं। भालू को देखते ही सील छेदों से समुद्र के अंदर चली जाती है परंतु कुछ
समय पश्चात उन्हें सांस लेने के लिए सतह पर आना ही होता है। सील के शिकार के लिए
छेद के मुहाने पर बैठे भालू को इसी पल का इंतज़ार रहता है और वे सील का शिकार कर
भोजन प्राप्त करते हैं। बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण अब लंबे समय तक बर्फ नहीं
जमती और सील के शिकार के लिए भालू को खूब भटकना पड़ता है जिससे वे भूखे और कमज़ोर हो
जाते हैं और समुद्री किनारों पर भोजन खोजने लगते हैं। सील के शिकार से भालुओं को
अत्यधिक वसा मिलती है जो उन्हें वर्ष के बाकी समय भूखा रहने पर भी बचा लेती है।
आर्कटिक में हाल के दशकों में तापमान बढ़ा
है। 1981 की तुलना में 2010 में गर्मियों के दौरान बर्फ 13 प्रतिशत कम रही।
आर्कटिक के वे स्थान जहां पहले गर्मियों में भी बर्फ पाई जाती थी, वहां
बर्फ गायब है। डॉ. मोलनर और सहयोगियों ने ध्रुवीय भालू की 13 उप-आबादियों, जो
कुल ध्रुवीय भालू की आबादी का 80 प्रतिशत है,
पर अध्ययन करके
भालुओं की ऊर्जा आवश्यकता पता की। जैसे, मादा भालू अकेले रहने या बच्चे पालने के
दौरान कितने दिनों तक भूखा रह सकती है?
वैश्विक गरमाहट की इसी दर और बर्फ न जमने वाले दिनों को जोड़कर वर्ष 2100 के जलवायु-मॉडल अनुमानों को एक साथ देखने पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 2100 में भालूओं को लंबे समय तक भूखा रहना पड़ेगा जो उनकी बर्दाश्त के बाहर होगा। भालुओं के लिए एक समय ऐसा भी आएगा जब भुखमरी के कारण वे ऊर्जा विहीन हो जाएंगे। ऐसे में भोजन खोजना तथा प्रजनन के लिए साथी खोजना और कठिन हो जाएगा एवं अनेक उप-आबादियां खत्म हो जाएगी। पिछले कुछ सालों में भालू वैकल्पिक खाद्य स्रोत के रूप में व्हेल को भोजन बनाकर ऊर्जा प्राप्त कर रहे हैं किंतु वैश्विक गरमाहट के कारण व्हेल भी मिलना बंद हो जाएगी। स्थिति इतनी गंभीर है कि अगर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का स्तर सामान्य रहा तो भी ध्रुवीय भालुओं का बचना असंभव है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://thelogicalindian.com/h-upload/2020/07/22/177671-polar-bear-web.jpg
जुलाई माह में सेंटर आफ ग्लोबल हेल्थ रिसर्च द्वारा सर्पदंश
सम्बंधी अध्ययन से पता चला है कि भारत में सांप के काटने से प्रति वर्ष 58 हज़ार
मौतें होती हैं। इससे तीन गुना अधिक लोग इस कारण अपंगता या गंभीर क्षति से
प्रभावित होते हैं। इस अध्ययन में भारतीय शोधकर्ता भी जुड़े हैं। अध्ययन के अनुसार
वर्ष 2000 के बाद भारत में लगभग 12 लाख मौतें सर्पदंश से हुई व एक वर्ष का औसत
लगभग 58 हज़ार रहा।
इन मौतों को पूरी तरह नहीं रोका जा सकता है
पर इनमें बड़ी कमी अवश्य लाई जा सकती है। सर्पदंश की अधिक वारदातें जून से सितंबर
के महीनों में व रात के समय होती हैं। खेत में रात को देखरेख या सिंचाई आदि के लिए
जाना हो या घर के आसपास निकलना हो तो अच्छी रोशनी वाली टार्च का उपयोग करना मुख्य
सावधानी होगी। खेत, बाग या वन में, दुर्गम रास्ते पर,
किसी भी कार्यस्थल पर
जहां सांप की अधिक संभावना है, मोटे जूते या दस्ताने का उपयोग करना उपयोगी
है।
सांप के काटने पर प्राथमिक उपचार के साथ
शीघ्र से शीघ्र अस्पताल ले जाना आवश्यक है। प्राथमिक उपचार की विज्ञान-सम्मत
जानकारी बहुत कम है व दूर के गांवों से निकटतम अस्पताल पहुंचने में समय लगता है।
इस कारण बहुत-सी ऐसी मौतें होती हैं जिन्हें रोका जा सकता है। झाड़-फूंक में समय
व्यर्थ करने से समस्या और बढ़ जाती है।
अनेक अस्पतालों में सर्पदंश की दवा की कमी
रहती है। प्राय: सर्पदंश की दवा (एंटी स्नेक वेनम) सांप की चार प्रमुख ज़हरीली
प्रजातियों को ध्यान में रखकर दी जाती है पर कुछ विशेष क्षेत्रों में सांप की अन्य
प्रजातियां पाई जाती हैं। अत: इन क्षेत्रों के लिए उचित दवाओं की व्यवस्था ज़रूरी
है।
सरकारी आंकड़ों में सर्पदंश की केवल वे
मौतें ही दर्ज़ होती हैं जो अस्पताल में होती हैं। तथ्य यह है कि सर्पदंश से
प्रभावित कई लोग तो अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। अत: सर्पदंश की
समस्या की जानकारी का सही आधार तैयार नहीं हो पाता है। इस संदर्भ में नवीनतम
अध्ययन में एक सुझाव यह आया है कि सर्पदंश को ‘नोटिफाइड डिसीज़’ घोषित कर दिया जाए
ताकि रोग निरीक्षण के समग्र कार्यक्रम के अंतर्गत इसकी जानकारी नियमित रूप से
उपलब्ध होती रहे।
फिलहाल जितनी जानकारी उपलब्ध है उसके आधार
पर भी सर्पदंश से होने वाली मौतों में कमी लाने का एक समग्र कार्यक्रम तैयार किया
जा सकता है। विशेषकर ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रमों व स्वास्थ्य मिशन में इस पर
अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है।
तमिलनाडु में सपेरों का एक सहकारिता आधारित
उद्यम स्थापित हुआ है। चेन्नई स्थित इरुला संपेरा औद्योगिक सहकार सोसायटी ने दवा
उद्योग से सम्बंध स्थापित किए व दवा बनाने की अनेक कंपनियां उनसे दवा की ज़रूरी
सामग्री लेती हैं। उत्तर भारत में भी संपेरों की अनेक बस्तियां हैं। उनका परंपरागत
व्यवसाय कम होता जा रहा है। अत: इरुला मॉडल पर उन्हें भी दवा उपलब्ध करवाने या
अन्य उपयोगी गतिविधियों से जोड़ा जा सकता है।
सर्वेक्षणों में यह पाया गया है कि मेडिकल शिक्षा शहरी स्वास्थ्य ज़रूरतों पर अधिक आधारित है व उसमें सर्पदंश के इलाज पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता है। अत: जहां ज़रूरी हो, वहां सर्पदंश के इलाज का प्रशिक्षण नए सिरे से देना चाहिए। ज़रूरी सावधानियों से जुड़ी जानकारी सरल भाषा में लिखित पर्चों व अन्य प्रसार माध्यमों से विशेषकर मानसून के महीनों में प्रसारित करनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thenational.ae/image/policy:1.173325:1499300473/image/jpeg.jpg?f=16×9&w=1200&$p$f$w=dfa40e8
हाल ही में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की पैथॉलॉजिस्ट निस्सी
वर्की ने बताया कि मनुष्य जिन घातक रोगों (जैसे टाइफॉइड,
हैज़ा, गलसुआ, काली
खांसी, गनोरिया वगैरह) से पीड़ित होता है,
वे कपियों और अन्य
स्तनधारी जीवों को नहीं होती। हमारी कोशिका में घुसने के लिए ये रोगाणु शर्करा
अणुओं (सियालिक एसिड) का उपयोग करते हैं। और यह देखा गया है कि कपियों का सियालिक
एसिड मनुष्यों से भिन्न होता है।
और अब वर्की और उनकी टीम ने आधुनिक मानव
जीनोम और हमारे विलुप्त सम्बंधियों – निएंडरथल और डेनिसोवन्स – के डीएनए का
विश्लेषण कर पता लगाया है कि लगभग 6 लाख साल पहले हमारे पूर्वजों की प्रतिरक्षा
कोशिकाओं में परिवर्तन होना शुरू हुआ था। जीनोम बायोलॉजी एंड इवोल्यूशन में
शोधकर्ता बताते हैं कि जेनेटिक परिवर्तनों ने तब सियालिक एसिड का इस्तेमाल करने
वाले रोगजनकों से सुरक्षा दी थी, लेकिन साथ ही नई दुर्बलताओं को भी जन्म
दिया था। जिस सियालिक एसिड की मदद से आज रोगजनक हमें बीमार करते हैं किसी समय यही
सियालिक एसिड हमें रोगों से सुरक्षा देता था।
चूंकि सियालिक एसिड कोशिकाओं की ऊपरी सतह
पर लाखों की संख्या में होते हैं इसलिए हमलावर रोगजनकों से इनका सामना सबसे पहले
होता है। मानव कोशिकाओं पर Neu5Ac सियालिक एसिड का आवरण होता है जबकि वानरों
और अन्य स्तनधारियों में Neu5Gc सियालिक एसिड होता है।
कई आणविक घड़ी विधियों से पता चला है कि कोई
20 लाख साल पहले गुणसूत्र-6 के CMAH जीन में हुए
उत्परिवर्तन ने हमारे पूर्वजों में Neu5Gc बनना असंभव कर दिया था। और उनमें Neu5Ac
अधिक बनने लगा था। इस परिवर्तन से कुछ रोगों के प्रति सुरक्षा विकसित हुई। लेकिन
अगले कुछ लाख सालों में Neu5Ac कई अन्य रोगजनकों के लिए मानव कोशिका में
प्रवेश करने का साधन बना गया।
सिग्लेक्स (यानी सियालिक एसिड-बाइंडिंग इम्यूनोग्लोबुलिन-टाइप
लेक्टिन) सियालिक एसिड की जांच करते हैं। यदि सिग्लेक्स द्वारा सियालिक एसिड
क्षतिग्रस्त या गायब पाया जाता है तो वे प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सक्रिय होने संकेत
देते हैं। यदि सियालिक एसिड सामान्य दिखाई देता है तो सिग्लेक्स प्रतिरक्षा तंत्र
को अपने ही ऊतकों पर हमला करने से रोक देते हैं।
शोधकर्ताओं को मनुष्यों, निएंडरथल
और डेनिसोवन्स के गुणसूत्र-19 के CD33 जीन में 13 सिग्लेक्स कोड में से 8
सिग्लेक्स के जीनोमिक डीएनए में परिवर्तन दिखे। यह परिवर्तन केवल सिग्लेक जीन में
दिखे निकटवर्ती अन्य जीन में नहीं। इससे लगता है कि प्राकृतिक चयन इन परिवर्तनों
के पक्ष में था, संभवत: इसलिए क्योंकि तब वे ऐसे रोगजनकों से लड़ने में मदद
करते थे जो Neu5Gc को
निशाना बनाते थे। लेकिन जो सिग्लेक्स रोगजनकों से बचाते हैं, वे
अन्य बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार भी हो सकते हैं। परिवर्तित सिग्लेक्स में से कुछ
सूजन और अस्थमा जैसे ऑटोइम्यून विकार से जुड़े हैं।
कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि यह शोध व्यापक वैकासिक सिद्धांतों को रेखांकित करता है। इससे पता चलता है कि प्राकृतिक चयन हमेशा इष्टतम समाधान के लिए नहीं होता, क्योंकि इष्टतम समाधान हर समय बदलता रहता है। जो परिवर्तन आज के लिए बेहतर हैं, हो सकता है वे आने वाले समय के लिए सही साबित ना हों।(स्रोत फीचर्स)
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वृक्ष मेंढक चटख हरे होते हैं। लेकिन उन्हें हरा बनाता कौन है? ताज़ा
शोध बताता है कि उनकी चमड़ी के नीचे उपस्थित नीला पदार्थ उन्हें हरा बनाता है। यह
हरा रंग उन्हें अपने आसपास के परिवेश में घुल-मिलकर ओझल होने में मदद करता है।
लेकिन यह एक पहेली रही है कि कैसे ये मेंढक यह हरा रंग अपनी चमड़ी के नीचे जमा करके
रखते हैं जबकि यह अत्यंत विषैला होता है।
दरअसल,
शोधकर्ता यही समझने
की कोशिश कर रहे थे कि वृक्ष मेंढकों की सैकड़ों प्रजातियां कैसे इस विषैले हरे
रंजक बिलिवर्डिन को इतनी भारी मात्रा में जमा करके रख पाती हैं। अधिकांश प्राणियों
के लिए बिलिवर्डिन इतना विषैला होता है कि इसे तत्काल नष्ट कर दिया जाता है अथवा
उत्सर्जित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए,
मनुष्यों में जब लाल
रक्त कोशिकाएं नष्ट होती हैं तो बिलिवर्डिन बनता है। कभी-कभी खरोचों पर जो हरापन
दिखता है वह इसी के कारण होता है।
लेकिन वृक्ष मेंढक इतनी भारी मात्रा में
बिलिवर्डिन जमा करते हैं तो उन्हें कोई नुकसान क्यों नहीं होता? होता
यह है कि इन मेंढकों में बिलिवर्डिन छुट्टा नहीं छोड़ा जाता। शोधकर्ताओं ने आठ
प्रजातियों में से यह रंजक प्राप्त किया और पाया कि यह काफी टिकाऊ भी था और
हानिरहित भी। टीम ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ में
बताया है कि इन मेंढकों में बिलिवर्डिन एक अन्य प्रोटीन सर्पिन के साथ जुड़कर एक
संकुल बना लेता है। यह संकुल उन्हें लसिका ग्रंथियों,
मांसपेशियों और त्वचा
जैसे सारे अंगों में मिला। मज़ेदार बात है कि यह संकुल नीला होता है। और मेंढक हरे
इसलिए दिखते हैं कि उनकी त्वचा थोड़ी पीली होती है और नीला व पीला मिलकर हरा बना
देते हैं। इसीलिए जिन हिस्सों की त्वचा में पीलापन नहीं होता, वहां
मेंढक नीला ही नज़र आता है। जैसे मेंढक के पेट वाला हिस्सा।
और तो और, नीले-पीले का यह मिश्रण दिन भर एक-सा नहीं रहता। दिन के समय नीला रंजक पूरे शरीर में फैल जाता है, जिससे मेंढक परिवेश में नज़र नहीं आता और मज़े से सो सकता है। दूसरी ओर, रात के समय यह प्रोटीन-संकुल मेंढक की टांगों और आंतों में इकट्ठा हो जाता है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में साइन्स में प्रकाशित एक शोध पत्र से यह आशा
पैदा हुई है कि जो लोग व्यायाम करने में असमर्थ होते हैं,
उन्हें व्यायाम के
फायदे एक गोली के रूप में दिए जा सकेंगे।
यह बात तो भलीभांति ज्ञात है कि व्यायाम
करने से दिमागी स्वास्थ्य में सुधार आता है। देखा गया है कि जो बुज़ुर्ग लोग
शारीरिक रूप से सक्रिय रहते हैं, उनमें स्मृतिलोप जैसी समस्याएं कम देखी
जाती हैं। चूहों पर किए गए प्रयोगों से भी पता है कि व्यायाम करने वाले चूहों का
संज्ञानात्मक प्रदर्शन बेहतर होता है। शोधकर्ता यह भी दर्शा चुके थे किसी युवा
चूहे का खून बुज़ुर्ग चूहे को देने पर उसके दिमाग तथा मांसपेशियों की हालत में
सुधार आता है।
लेकिन अब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के
वृद्धावस्था शोधकर्ता सौल विलेडा ने बताया है कि यदि नियमित व्यायाम करने वाले
चूहों का खून निठल्ले चूहों को दे दिया जाए तो उनका दिमाग भी बेहतर काम करने लगता
है। यानी बात सिर्फ युवा खून की नहीं है, बल्कि व्यायाम के लाभ की भी है। और अब
शोधकर्ताओं ने व्यायाम करने वाले (सक्रिय) चूहों के खून में एक प्रोटीन खोज निकाला
है जो इस असर के लिए ज़िम्मेदार है।
प्रयोग के लिए चूहों के दो दड़बे बनाए गए।
इनमें से एक में एक पहिया रखा गया था। ऐसा करने पर निष्क्रिय चूहे भी रात भर में
कई मील दौड़ लेते थे। शोधकर्ताओं ने उन चूहों (बुज़ुर्ग और अधेड़) का खून लिया जिनके
दड़बे में छ: सप्ताह तक पहिया रखा गया था। यह खून उन चूहों को दिया गया जिनके दड़बे
में पहिया नहीं था। तीन सप्ताह की अवधि में आठ बार यह खून देने पर ये निठल्ले चूहे
सीखने व स्मृति के परीक्षणों में लगभग पहिए वाले चूहों के समकक्ष आ गए। यह भी देखा
गया कि सक्रिय चूहों का खून मिलने के बाद निठल्ले चूहों के दिमाग के हिप्पोकैम्पस
वाले हिस्से में तंत्रिकाएं भी ज़्यादा बनी थीं। चूहों का एक समूह और भी था जिसे
उतनी ही उम्र के निष्क्रिय चूहों का खून दिया गया था लेकिन इनमें कोई परिवर्तन
नहीं देखा गया।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने व्यायाम करने वाले
चूहों के खून में प्रोटीन्स का विश्लेषण किया। पता चला कि लीवर में बनने वाला एक
एंज़ाइम (Gpld1) इनमें ज़्यादा था। जब इस एंज़ाइम का जीन
निठल्ले चूहों के लीवर में पहुंचाया गया तो वहां यह एंज़ाइम ज़्यादा बनने लगा और वे
लगभग उन चूहों के समकक्ष पहुंच गए जिन्हें तीन सप्ताह तक व्यायाम करने वाले चूहों
का खून दिया गया था।
टीम ने यह भी पाया कि नियमित रूप से
व्यायाम करने वाले इंसानों में Gpld1 का स्तर ज़्यादा था।
इसका मतलब है कि चूहों पर मिले नतीजे शायद मनुष्यों पर लागू हो सकते हैं।
अब विलेडा की टीम का विचार है कि इसके आधार पर एक औषधि तैयार की जाए, जो उन लोगों की मदद कर सकेगी जो उम्र या किसी अन्य कारण से व्यायाम नहीं कर सकते। लेकिन साथ ही वे कहते हैं कि सामान्य नियमित व्यायाम का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि औषधि शायद किसी एक घटक पर काम करती है। व्यायाम से मिलने वाला लाभ कई कारकों का मिला-जुला रूप हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)
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एक पतंगे का कैटरपिलर है जिसका सिर थोड़ा अजीब सा दिखता है –
लगता है कि उसने हैट पहनी है। इसी वजह से इसका नाम पड़ा है पगला हैटरपिलर। और यह
हैट बनी होती है उसके पुराने सिरों से।
दरअसल,
उरबा लुगेन्स (Urabalugens) की इल्ली यानी कैटरपिलर जब वृद्धि करता
है तो अन्य कीटों के समान यह भी अपनी त्वचा का प्रमोचन करता है और साथ में अपने बाह्य कंकाल का भी। ऐसा यह 13 बार तक करता है और अंत में प्यूपा
में तबदील हो जाता है। फिर प्यूपा वयस्क कीट में कायांतरित हो जाता है।
चौथी बार के प्रमोचन के बाद यह अपने सिर की
त्वचा व कंकाल अलग तो करता है लेकिन उसे छोड़ता नहीं। हर प्रमोचन के बाद पहले वाला
सिर वहीं का वहीं बना रहता है और धीरे-धीरे सिरों की एक मीनार बन जाती है।
यह पतंगा मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया और
न्यूज़ीलैंड में पाया जाता है। इसका एक नाम गम लीफ स्केलेटनाइज़र भी है। कारण यह है
कि यह कैटरपिलर युकेलिप्टस की पत्तियों को इस तरह कुतरता है कि अंत में उनकी
शिराओं का कंकाल ही बच जाता है।
क्वींसलैंड के अकशेरुकी संसाधन केंद्र मिनीबेस्ट वाइल्डलाइफ के एलन हेंडरसन का कहना है कि यह मीनारनुमा रचना सिर्फ सजावट की वस्तु नहीं है। यह मीनार कैटरपिलर की रक्षा भी करती है। कैटरपिलर इसकी मदद से शिकारियों को खदेड़ने का काम करता है।(स्रोत फीचर्स)
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जब कोविड-19 का टीका बनकर तैयार होगा, वैश्विक
आवश्यकता की तुलना में इसकी आपूर्ति सीमित होगी। कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना
है कि टीका सबसे पहले दुनिया भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को, फिर
गंभीर जोखिम वाले लोगों को, फिर उन क्षेत्रों को जहां बीमारी तेज़ी से
फैल रही है, और आखिर में बाकी लोगों को मिलना चाहिए। टीका वितरण की यह
रणनीति सबसे अधिक ज़िंदगियां बचाएगी और संक्रमण के प्रसार को रोकेगी। यह बेतुका
होगा कि टीका दक्षिण अफ्रीका के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की बजाय अमीर देशों के कम
जोखिम वाले लोगों को पहले मिले।
फिर भी पैसा और राष्ट्रीय हित जीत सकते
हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोप पहले ही टीका निर्माताओं को करोड़ों खुराक का
ऑर्डर दे रहे हैं जिससे शायद दुनिया के गरीब देशों के लिए बहुत कम टीके बचेंगे। इस
स्थिति से बचने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने
टीके के समतामूलक वितरण का एक तरीका निकाला है: कोविड-19 वैक्सीन ग्लोबल एक्सेस (COVAX) फेसिलिटी। वे अमीर देशों से इस पर हस्ताक्षर करवा कर टीकों पर उनकी अनुचित
दावेदारी के खतरे को कम करना चाहते हैं।
वैसे टीका या औषधि वितरण का इतिहास आशाजनक
नहीं रहा है। 1996 में एचआईवी संक्रमण के उपचार में एंटीवायरल औषधि ने पश्चिम
देशों में कई ज़िंदगियां बचाई, लेकिन इसे व्यापक रूप से अफ्रीका तक
पहुंचने में 7 साल लग गए। 2009 में H1N1
इन्फ्लूएंज़ा महामारी के दौरान कई देशों को बहुत कम संख्या में टीके मिले थे वह भी
लंबे इंतज़ार के बाद।
इस बार भी अमीर देशों की चिंता अपने
नागरिकों तक सीमित है। यूएस ने टीका कंपनियों के साथ 6 अरब डॉलर के समझौते किए हैं
और युरोपीय संघ ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ 40 करोड़ टीके खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर
किए हैं। यूके ने भी यही रणनीति अपनाई है।
COVAX के पीछे विचार यह है कि विभिन्न 12 टीकों में निवेश किया जाए और उन तक आसान
पहुंच सुनिश्चित की जाए। 2021 के अंत तक टीकों की 2 अरब खुराक प्राप्त करने का
लक्ष्य है: 95 करोड़ उच्च व उच्च-मध्यम आय वाले देशों के लिए, 95
करोड़ निम्न व निम्न-मध्यम आय वाले देशों के लिए और 10 करोड़ आपात उपयोग के लिए।
COVAX के अधिकारी जानते हैं कि COVAX से जुड़ने के बावजूद कई अमीर देश टीका
निर्माता कंपनियों के साथ सौदे तो करेंगे। लेकिन COVAX अनुबंध एक प्रकार का
बीमा है कि यदि उनके खरीदे टीके असफल रहे तो COVAX के माध्यम से उनकी
पहुंच अन्य टीकों तक रहेगी।
टीकों के असफल होने के जोखिम को कम करने के
लिए COVAX की योजना विभिन्न प्रकार के टीकों में निवेश करने की है। इसके अलावा COVAX विभिन्न देशों की कंपनियों से टीके लेना चाहता है ताकि कोई भी देश उनका
निर्यात रोक ना सके।
अब तक, 70 से अधिक देशों ने COVAX में रुचि दिखाई है। यह बात और है कि वे इस पर हस्ताक्षर करते हैं या नहीं। वहीं युरोपीय संघ के कुछ देश, जो अक्सर वैश्विक एकजुटता के महत्व पर बल देते हैं, COVAX को वित्तीय मदद देने का इरादा रखते हैं लेकिन COVAX के माध्यम से खुद के लिए टीके नहीं लेंगे। डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एक्सेस अभियान की टीका विशेषज्ञ कैट एल्डर का कहना है कि COVAX समतामूलक वितरण का अच्छा तरीका है लेकिन यह अधिक पारदर्शी होना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0703NID_Procesing_COVID_Samples_online.jpg?itok=kmbFiq0l
पक्षी जगत बड़ी विचित्रताओं से लबरेज है। जहां अधिकतर पक्षी
घोंसला बनाने, अंडों को सेने व चूज़ों की परवरिश का ज़िम्मा स्वयं उठाते हैं, वहीं
ऐसे भी पक्षी हैं जो यह काम दूसरे पक्षियों को सौंप देते हैं। ऐसे पक्षियों को
घोंसला परजीवी कहते हैं। घोंसला परजीवियों में कोयल और पपीहे के अलावा चातक भी
हैं।
चातक के बारे में किंवदंती है कि यह मानसून
में स्वाति नक्षत्र का ही पानी पीता है। यह किंवदंती क्यों पड़ी होगी? मानसून
के दौरान चातक का प्रजनन काल होता है। इस दौरान यह जोड़ा बांधता है। नर चातक मादा
को लुभाने के लिए हवा में अठखेलियां करता है। हवा में उड़ते हुए यह पिहु-पिहु की
आवाज़ निकालता है। इस दौरान इसकी चोंच आसमान की ओर खुली हुई होती है। ऐसा लगता है
मानो यह बरसात की बूंदों को चोंच में ग्रहण कर रहा हो।
परजीवीपन का यह उदाहरण दुनिया भर की लगभग
80 पक्षी प्रजातियों में देखा गया है। इनमें से तीन पक्षी भारत में देखे गए हैं –
कोयल, चातक (क्लैमेटर जर्कोबिनस) व पपीहा। चातक कोयल
परिवार (cuculinae) का सदस्य है जो जो पेसेराइन (passerine) प्रजातियों के घोंसलों में अंडे देते
हैं। चातक बैब्लर पक्षी यानी ‘सात भाई’ (Turdoidesaffinis) के घोंसलों में अंडे देता है। चातक के
अंडों का रूप-रंग सात भाई पक्षियों के अंडों से काफी मेल खाता है।
चातक सामान्य मैना के आकार का पक्षी है
जबकि पूंछ मैना की पूंछ से लंबी होती है। इसकी पीठ व पंख काले और पेट, छाती
व गर्दन वाला हिस्सा सफेद होता है। सिर पर चोटी निकली होती है। काले पंखों में ऊपर
की ओर एक अंडाकार सफेद पट्टा-सा होता है जो उड़ते वक्त साफ देखा जा सकता है। नर और
मादा एक समान ही होते हैं।
चातक हमारे यहां का बारहमासी पक्षी नहीं
है। यह अफ्रीका से भारत में मई के अंत में या जून के पहले सप्ताह में प्रवास करके
आता है। इस दौरान यह यहां पर प्रजनन करता है।
चातक का जीव वैज्ञानिक नाम क्लैमेटर
जर्कोबिनस है। प्रजनन विस्तार के अनुसार इसकी तीन उप प्रजातियां देखी गई है:
क्लैमेटर जर्कोबिनस सेरेटस दक्षिण अफ्रिका व दक्षिणी ज़ांबिया में, क्लैमेटेर
जर्कोबिनस पाइका सहारा के दक्षिण में उत्तर ज़ांबिया और मलावी, उत्तर-पश्चिम
भारत से नेपाल और म्यांमार तक तथा क्लैमेटर जर्कोबिनस जैकोबिनस दक्षिण भारत, श्रीलंका, दक्षिण
म्यांमार में प्रजनन करती हैं। चातक पक्षी की दो उप-प्रजातियां भारत में मिलती
हैं। हमारे यहां जो चातक मानसून में दिखाई देता है वह क्लैमेटर जर्कोबिनस सेरेटस
है। यह उप-प्रजाति मानसून में अफ्रीका से भारत में प्रजनन के लिए आती है। दूसरी
छोटे आकार की जैकोबिनस श्रीलंका व दक्षिण भारत की स्थानीय उप-प्रजाति है।
चातक संपूर्ण भारत समेत पाकिस्तान, बांग्लादेश
श्रीलंका तथा बर्मा में पाया जाता है। हिमालय में 8000 फीट की ऊंचाई तक देखा गया
है। चातक अधिकतर घने वृक्षों व खुले जंगलों,
कस्बों व गांवों की
सीमा के भीतर बाग-बगीचों में दिखता है। इसे शहरों में पेड़ों पर भी देखा गया है।
इनकी मौजूदगी एक से दूसरे पेड़ पर नर और मादा के बीच पकड़ा-पकड़ी के रूप में देखने को
मिलती है। इस दौरान ये पिहू, पिहू… की आवाज़ करते हैं। इनकी आवाज़ को
मैंने रात में भी सुना है। ये पूरी तरह से वृक्षवासी हैं जो झाड़ियों व ज़मीन पर
कीड़ों को चुगने के लिए चंद पल के लिए उतरते हैं और फिर से उड़कर वृक्ष पर चले जाते
हैं। चातक आम तौर पर कीटों व इल्लियों व बेरी फलों को खाते हैं।
चातक का प्रजनन काल जून से अगस्त के दौरान
होता है। यह दिलचस्प है कि परजीवी चातक ने अपने अंडों-चूज़ों की परवरिश का ज़िम्मा
बैब्लर पक्षी को सौंप दिया है। बैब्लर को हिंदी में सात भाई व अंग्रेज़ी में सेवन
सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है। आपने अपने आसपास सात भाई पक्षी को ज़रूर देखा
होगा। सात भाई छह या अधिक के झुंड में रहते हैं। बैब्लर असम को छोड़कर पूरे भारत
में पाए जाते हैं। ये सूखे खुले देहाती क्षेत्रों और कंटीले झाड़-झंखाड़ वाली जगहों
में रहना पसंद करते हैं। ये झाड़ियों, बाग-बगीचों में भी देखने को मिलते हैं। आम
तौर पर सात भाई ज़मीन पर ही फुदकते दिखते हैं। खतरा होने पर ही ये अपने झुंड के साथ
थोड़ी दूरी की उड़ान भरते हैं। इनकी आवाज व्हिच,
व्हिच, व्हिक, रि-रि-रि
जैसी होती है। सात भाई झाड़ियों में घास-फूस का प्यालेनुमा घोंेसला बनाते हैं। इनके
घोंसलों में चातक के अलावा भारतीय मूल का स्थाई निवासी पपीहा भी अंडे देता है।
घोंसला परजीविता प्रजनन की एक रणनीति है।
घोंसला परजीवी पक्षी दूसरे के घोंसले में अंडे देकर परवरिश के झंझट से मुक्त हो
जाते हैं। घोंसला बनाने, अंडों को सेहने व चूज़ों की देखभाल में काफी
ऊर्जा खर्च होती है। चातक ने यह ज़िम्मेदारी बैब्लर को सौंप दी। ऐसा नहीं है कि
परजीवी प्रजाति का पक्षी किसी भी पक्षी का घोंसला देखे और उसमें अंडे दे दे।
मादा बैब्लर घोंसला बनाकर अंडे देती है।
इसी दौरान मादा चातक ताक में होती है और मौका देखकर उसके घोंसले में अंडे दे देती
है। रोचक बात यह है कि परजीवी पक्षियों के अंडों का रंग-रूप मेज़बान पक्षी के अंडों
से काफी मिलता-जुलता होता है। इतना ही नहीं परजीवी पक्षी का अपने मेज़बान पक्षी के
घोंसला बनाने व अंडे देने के वक्त के साथ भी तालमेल दिखता है। जब मेज़बान पक्षी
अंडे देगा उसी दौरान परजीवी पक्षी भी अंडे देगा। यह तालमेल जैव विकास की प्रक्रिया
में कई पीढ़ियों में पनपा होगा।
मेज़बान पक्षी परजीवी पक्षी के चूज़ों के साथ
किस प्रकार का बर्ताव करते हैं, यह शोध का विषय रहा है। चातक के अंडों से
चूज़े निकलते हैं तो मेज़बान पक्षी का रवैया सौतेला नहीं होता। उल्टे मेज़बान पक्षी
इन पराए चूज़ों का खासा ख्याल रखते हैं। चातक व बैब्लर के अंडों से निकले चूज़ों के
अवलोकन से पता चला है कि बैब्लर चातक के चूज़ों की अधिक देखभाल करते हैं।
शोधकर्ताओं ने श्रीलंका में बैब्लर व चातक
के चूज़ों के कुछ अवलोकन लिए। ज़मीन पर चातक पक्षी के चूज़े को बैब्लर के झुंड द्वारा
चुगाते हुए देखा गया। वहां बैब्लर के चूज़े भी थे। यह भी देखा गया कि चातक का चूज़ा
ज़्यादा उड़ भी नहीं पा रहा था। बैब्लर के चूज़े अधिक सक्रिय थे। प्रतीत हो रहा था कि
चातक के चूज़ों की तुलना में उनकी अधिक वृद्धि हुई है। दिलचस्प अवलोकन यह भी था कि
जंगली बैब्लर का झुंड चातक के चूज़े का खतरों से बचाव भी कर रहा था। कुल दस मिनट के
अवलोकन में जंगली बैब्लर ने चातक के चूज़े को दो बार चुगाया।
इसी प्रकार का एक और अवलोकन किया गया। यह अवलोकन शाम के वक्त का है। नारियल के बगीचे में वयस्क जंगली बैब्लर के साथ अवयस्क चूज़े देखे गए। इस समूह में दो चूज़े चातक के भी थे। जंगली बैब्लर को उड़ते हुए देख चातक के चूज़े कुलांचे भरने लगे और उड़ने लगे। वे लगातार चुग्गे (भोजन) की मांग कर रहे थे। वे लंबी उड़ान भरकर शाखा पर बैठ नहीं पा रहे थे। इस दौरान भी जंगली बैब्लर्स चातक के चूज़ों का अधिक ख्याल रख रहे थे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://blog.nationalgeographic.org/wp-content/uploads/2018/04/PiedJacobins-Cuckoo-Clamator-jacobinus-being-fed-by-Jungle-Babbler-Turdoides-striata-Location-Jawai-Bandh-Rajsthan-India-Photographer-Shaurya-Shashwat-Shukla-720×467.jpg
शंघाई के एक अस्पताल से फरवरी में डिस्चार्ज हुए कोरोना के
हल्के संक्रमण वाले 175 लोगों की जांच में बुज़ुर्गों में युवाओं के मुकाबले वायरस
निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडी ज़्यादा पाई गई हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि अधेड़ उम्र से
लेकर बुज़ुर्ग मरीज़ों के प्लाज़्मा में निष्क्रियकारी और स्पाइक से जुड़ने वाली
एंटीबॉडी का स्तर तुलनात्मक रूप से ज़्यादा था। 30 फीसदी युवाओं में तो उम्मीद के
उलट एंटीबॉडी का स्तर मानक से कम पाया गया। 10 में तो इनका स्तर इतना कम था कि ये
पकड़ में ही नहीं आ पार्इं। वहीं, सिर्फ 2 मरीज़ों में एंटीबॉडी का स्तर बहुत
अधिक था।
वैज्ञानिकों को मरीज़ों के नमूनों से वायरल
डीएनए का पता न लग पाने के कारण इनमें संक्रमण के स्तर का सही आकलन नहीं हो पाया।
इसलिए यह भी स्पष्ट नहीं हो पाया है कि क्या युवाओं में संक्रमण हल्का होने के
कारण ही एंटीबॉडी कम बनी थीं।
इस परिणाम से वैज्ञानिक भी चकित हैं। दरअसल, अधिक
एंटीबॉडी होने के बाद भी बुज़ुर्ग जल्दी ठीक नहीं हो पाए थे। यानी बुज़ुर्ग और युवा
मरीज़ों को ठीक होने में एक समान समय लगा। ठीक हुए इन लोगों की बीमारी की औसत अवधि
21 दिन, अस्पताल में भर्ती रहने का औसत समय 16 दिन और औसत आयु 50
साल थी।
वैज्ञानिकों का कहना है कि बुज़ुर्गों में
एंटीबॉडी का अधिक स्तर उनके मज़बूत प्रतिरक्षा तंत्र के कारण भी हो सकता है।
हालांकि, सिर्फ एंटीबॉडी की अधिक उपस्थिति के कारण उनमें गंभीर
संक्रमण से बचाव के पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं। दुनिया भर में तो देखा गया है कि
कोरोना के प्रति बुज़ुर्ग ज़्यादा कमज़ोर हैं।
शोधकर्ताओं ने मरीज़ों में संक्रमण के 10-15 दिन में ही कोरोना वायरस के लिए बनने वाली निष्क्रियकारी एंटीबॉडी ढूंढ ली थी, जिनका स्तर बाद तक भी स्थिर ही रहा। युवाओं में कम एंटीबॉडी के चलते उनके दोबारा संक्रमित होने की आशंका पर शोधकर्ताओं ने गहन अध्ययन की ज़रूरत बताई है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/width-1200,height-900,imgsize-697596,resizemode-1,msid-74787760/news/politics-and-nation/why-covid-19-is-more-severe-in-older-people-than-young-decoded.jpg
हीरा तराश रॉबर्ट फिलिप्स ने 2018 में अपने 90वें जन्मदिन पर
इतिहास की एक अनमोल धरोहर युनाइटेड किंगडम को लौटाने का फैसला लिया था। यह धरोहर
प्रसिद्ध समारक स्टोनहेंज के केंद्र में स्थित एक शिला का 91 सेंटीमीटर लंबा
बेलनाकार हिस्सा है। और अब इस हिस्से का विश्लेषण कर पुरातत्वविदों ने इस बात की
पुष्टि की है कि स्मारक की सबसे बड़ी शिला का पत्थर लगभग 25 किलोमीटर दूर स्थित
जंगल मार्लबोरो डाउंस से लाया गया था।
स्टोनहेंज का निर्माण अनुष्ठान स्थल के रूप में लगभग 3000 ईसा पूर्व शुरू हुआ था। यह बड़ी और छोटी शिलाओं को एक वृत्त में जमा कर बना है। इस स्मारक में 25 टन वजनी, 52 विशाल सिलिका शिलाएं हैं जिन्हें सारसेन्स कहा जाता है। शोधकर्ताओं का मानना था कि सारसेन्स शिलाएं मार्लबोरो डाउंस से लाई गईं थी। जबकि स्टोनहेंज के केंद्र में स्थित अन्य छोटी शिलाएं, जिन्हें ब्लूस्टोन्स कहा जाता है, लगभग 150 किलोमीटर दूर वेल्स के विभिन्न स्थलों से लाईं गई थीं।
दरअसल 1958 में फिलिप्स एक ऐसे दल का
हिस्सा थे जो स्टोनहेंज की तीन सारसेन्स शिलाओं को फिर से खड़ा करने का काम कर रहा
था। जब शिला क्रमांक 58 को उठाया गया तो पता चला कि वह टूट चुकी थी। इसे जोड़ने के
लिए उन्होंने शिला के बीच में एक सुराख किया और धातु के बोल्ट की मदद से कस दिया।
सुराख से जो टुकड़ा निकला था उसे फिलिप्स ने अपने पास रख लिया था।
चूंकि अब जब स्टोनहेंज के अवशेषों को किसी
भी तरह की क्षति पहुंचाना प्रतिबंधित है, तो जब फिलिप्स ने यह टुकड़ा लौटाया तो ब्राइटन
युनिवर्सिटी के पुरातत्वविद और भूगोलविद डेविड नैश और उनके साथियों को सारसेन्स
शिलाओं के मूल स्थान के बारे में पता लगाने का महत्वपूर्ण साधन मिल गया।
शोधकर्ताओं ने पोर्टेबल एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर की मदद से सभी 52 सारसेन्स शिलाओं की रासायनिक संरचना पता की, उन्हें नुकसान पहुंचाए बगैर। शिलाओं में 99 प्रतिशत से अधिक सिलिका के अलावा एल्यूमीनियम, कार्बन, लोहा, पोटेशियम और मैग्नीशियम सहित अन्य तत्व मौजूद थे। सभी 52 में से 50 शिलाओं की रासायनिक रचना एकदम समान थी, जिससे लगता है कि सभी शिलाएं एक ही जगह से लाई गईं थी।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक्स-रे
स्पेक्ट्रोमेट्री से भी अधिक बारीकी से रासायनिक पहचान के लिए फिलिप्स द्वारा
लौटाए टुकड़े के आधे हिस्से को चूर-चूर किया और इसका रासायनिक विश्लेषण किया। इसकी
तुलना उन्होंने दक्षिणी और पूर्वी इंग्लैंड के 20 विभिन्न क्षेत्रों से लिए गए
चट्टान के नमूनों से की। उन्होंने पाया कि सारसेन्स शिला का वह टुकड़ा वेस्ट वुड
चट्टानी क्षेत्र के नमूने से पूरी तरह से मेल खाता है। यह क्षेत्र मार्लबोरो डाउंस
के दक्षिण पूर्व में स्थित है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन के नतीजे साइंस
एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित किए हैं।
कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि तुलना के लिए अधिक इलाकों के नमूने लिए जाने चाहिए थे। लेकिन यह खुशी की बात है कि लंबे समय से शोध का केंद्र बने ब्लूस्टोन शिलाओं के इतर सारसेन्स शिलाओं का अध्ययन किया गया। शोध के मामले में सारसेन्स शिलाएं लंबे समय से उपेक्षित थीं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Stonehenge_1280x720.jpg?itok=SWPf9JJW