फूलों में छुपकर कीटनाशकों से बचाव

गुलाब का फूल और उसकी खूशबू कई लोगों को आकर्षित करती है। इसके व्यासायिक महत्व के चलते विश्व में कई जगह इसकी खेती भी की जाती है। लेकिन गुलाब की कलियों पर रहने वाली घुन पौधों को रोज़ रोज़ेट नामक वायरस से ग्रस्त कर देती हैं जिसके कारण पौधे को काफी नुकसान होता है। वैज्ञानिक अब तक गुलाब पर रहने वाली इस घुन पर काबू नहीं कर पाए थे।

लेकिन हाल ही में जर्नल ऑफ एनवायरनमेंटल हार्टिकल्चर में प्रकाशित शोध कहता है कि वैज्ञानिकों ने इस बात का पता कर लिया है कि क्यों इस घुन तक पहुंचना और उस पर काबू पाना मुश्किल था। शोध के अनुसार ये घुन गुलाब के आंतरिक अंगों में छिपकर अपने आपको हानिकारक रसायनों और कीटनाशकों के छिड़काव से बचाने में सफल हो जाती हैं।

नमक के एक कण से भी छोटी घुन (Phyllocoptes fructiphilus) गुलाब के फूलों से अपना भोजन लेते समय फूलों में रोज़ रोज़ेट वायरस पहुंचा देती हैं जिससे पौधा रोग-ग्रस्त हो जाता है। इस रोग के कारण गुलाब के पौधे पर बहुत अधिक कांटे उग आते हैं, फूलों का आकार बिगड़ जाता है और पौधों में बहुत पास-पास कलियां खिलने लगती हैं जिसके कारण पौधा बदरंग और अनुपयोगी हो जाता है। इसके कारण पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

पौधों में यह रोग सबसे पहले कैलिफोर्निया में दिखा था और उसके बाद यह लगभग 30 प्रांतों में फैल गया। वैज्ञानिक पौधे में हुए इस रोग पर काबू पाने की कोशिश में लगे हुए थे। लेकिन पौधों पर किसी भी तरह के रसायन और कीटनाशकों का असर नहीं हो रहा था।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने 10 अलग-अलग राज्यों से रोग-ग्रस्त और स्वस्थ दोनों तरह के पौधों के तने, पत्ती और फूलों का बारीकी से अध्ययन किया। उन्होंने पौधे के विभिन्न अंगो की आवर्धित तस्वीरें खीचीं। तस्वीरों के अध्ययन में उन्होंने पाया कि ये घुन फूलों की अंखुड़ियों की महीन रोमिल संरचना में धंसी रहती हैं। इस तरह ये कीटनाशक और हानिकारक रसायनों के छिड़काव से बच निकलती हैं। उम्मीद है कि इस शोध से गुलाब की फसलों में फैलने वाले रोज़ रोज़ेट रोग पर काबू पाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विलुप्त होती हड्डी दोबारा उभरने लगी

वैज्ञानिकों का मानना था कि मनुष्य के घुटने पर उभरने वाली हड्डी फेबेला विकास क्रम में विलुप्त होने लगी थी। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि फेबेला फिर उभरने लगी है। इम्पीरियल कॉलेज की मिशेल बर्थोम और उनके साथियों का यह अध्ययन जर्नल ऑफ एनॉटॉमी में प्रकाशित हुआ है।

सेम की साइज़ की यह हड्डी सीसेमॉइड हड्डी है, जिसका मतलब है कि यह कंडरा के बीच धंसी रहती है। समय के साथ यह हड्डी कैसे विलुप्त हुई यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने 27 अलग-अलग देशों के 21,000 घुटनों के एक्स-रे, एमआरआई और अंग-विच्छेदन का अध्ययन किया। इन सभी से प्राप्त डैटा को एक साथ किया और उनका सांख्यिकीय विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि लगभग एक शताब्दी पूर्व की तुलना में वर्तमान समय में यह हड्डी तीन गुना अधिक मामलों में दिखती है। अध्ययन के अनुसार साल 1875 में लगभग 17.9 प्रतिशत लोगों में फेबेला उपस्थित थी जबकि वर्ष 1918 में यह लगभग 11.2 लोगों में उपस्थित थी। और 2018 में यह 39 प्रतिशत लोगों में देखी गई।

पूर्व में फेबेला बंदरों में नी कैप (घुटनों के कवच) की तरह काम करती थी। मनुष्य में विकास के साथ फेबेला की ज़रूरत कम होती गई। और यह विलुप्त होने लगी। लेकिन यह मनुष्यों में पुन: दिखने लगी है। ऐसा माना जाता है कि इस हड्डी की उपस्थित का सम्बंध घुटनों के दर्द वगैरह से है। फेबेला को गठिया या घुटनों की सूजन, दर्द और अन्य समस्याओं के साथ जोड़कर देखा जाता है। वास्तव में हड्डियों के गठिया से पीड़ित लोगों में सामान्य लोगों के मुकाबले फेबेला अधिक देखी गई है। तो आखिर किस वजह से यह लोगों में फिर उभरने लगी है।

मिशेल का कहना है कि सीसेमॉइड हड्डियां समान्यतः किसी यांत्रिक बल की प्रतिक्रिया स्वरूप विकसित होती हैं। आधुनिक मनुष्य अपने पूर्वजों की तुलना में बेहतर पोषित है, यानी पूर्वजों की तुलना में हम अधिक लंबे और भारी हैं। अधिक वज़न से घुटनों पर अधिक ज़ोर पड़ता है जिसके फलस्वरूप लोगों में फेबेला उभरने लगी है। (स्रोत फीचर्स)

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कोशिका भित्ती बंद, बैक्टीरिया संक्रमण से सुरक्षा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पृथ्वी पर बैक्टीरिया लगभग 3.8 से 4 अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आए थे। पर्यावरण ने जीवित रहने और प्रजनन करने के लिए जो कुछ भी उपलब्ध कराया, वे उसी से काम चलाते रहे हैं। उनकी तुलना में मनुष्य पृथ्वी पर बहुत बाद में अस्तित्व में आए, कुछ लाख साल पहले। वर्तमान में पृथ्वी पर मनुष्य की कुल आबादी लगभग 7 अरब है। जबकि पृथ्वी पर बैक्टीरिया की कुल आबादी लगभग 50 लाख खरब खरब है। ब्राहृांड में जितने तारे हैं उससे भी कहीं ज़्यादा बैक्टीरिया पृथ्वी पर हैं।

कई बैक्टीरिया मनुष्यों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं। इनमें से कई बैक्टीरिया मनुष्यों के लिए निरापद ही नहीं बल्कि फायदेमंद भी हैं। मनुष्य की आंत में लगभग 100 खरब बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो हमारी वृद्धि और विकास में मदद करते हैं। लेकिन कुछ बैक्टीरिया हमें बीमार कर देते हैं और यहां तक कि जान भी ले लेते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य ने जड़ी-बूटियों और औषधियों की मदद से इनके संक्रमण से निपटने के तमाम तरीके अपनाए हैं। इसी संदर्भ में डॉ. रुस्तम एमिनोव ने फ्रंटियर्स इन माइक्रोबॉयोलॉजी में प्रकाशित अपने शोघ पत्र “A brief history of the antibiotic era: Lessons learned and challenges for the future” (एंटीबायोटिक युग का संक्षिप्त इतिहास: सबक और भविष्य की चुनौतियां) में बताया है कि प्राचीन काल में मिरुा के लोग संक्रमण से निपटने के लिए फफूंद लगी ब्रोड की पुल्टिस लगाते थे। सूडान में पाए गए कंकालों में एंटीबायोटिक ट्रेट्रासायक्लीन के अवशेष मिले हैं, जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वे लोग सूक्ष्मजीव से हुए संक्रमण के इलाज में किसी बूटी का उपयोग करते थे।

एक हालिया रास्ता

आधुनिक चिकित्सा आधारित उपचार कुछ ही वर्ष पुराना है। सन 1909 में डॉ. हारा ने सिफलिस संक्रमण से लड़ने के लिए आर्सफेनामाइन यौगिक खोजा था। फिर सन 1910 में डॉ. बर्थाइम ने इसका संश्लेषण किया और सेलवार्सन नाम दिया। इसके बाद 1928 में एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन की खोज की थी। पेनिसिलीन कई सारे संक्रामक बैक्टीरिया को मार सकती थी।

बैक्टीरिया से लड़ने के लिए हम जितनी नई दवाएं और रसायन खोजते हैं, उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के ज़रिए उतनी ही तेज़ी से बैक्टीरिया की जेनेटिक संरचना बदल जाती है और बैक्टीरिया उस दवा के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं। इस तरह वैज्ञानिक और बैक्टीरिया के बीच यह रस्साकशी चलती ही रहती है। अब हम यह समझ गए हैं कि जब तक हम बैक्टीरिया संक्रमण फैलने में शामिल बुनियादी जीव वैज्ञानिक चरणों को नहीं समझ नहीं लेते तब तक हम बैक्टीरिया पर विजय नहीं पा सकेंगे।

बैक्टीरिया के जीव विज्ञान को समझने की दिशा में सूक्ष्मजीव विज्ञानी एशरीशिया कोली (ई. कोली) नामक बैक्टीरिया पर अध्ययन कर रहे हैं। अब हम जानते हैं कि बैक्टीरिया की कोशिका एक रक्षात्मक कोशिका भित्ती से घिरी होती है। यह कोशिका भित्ती एक बड़ी थैली-नुमा संरचना से बनी होती है जिसे पेप्टीडोग्लायकेन या PG कहते हैं। जिस PG का उपयोग बैक्टीरिया करते हैं, वह सिर्फ बैक्टीरिया में पाया जाता है, अन्यत्र कहीं नहीं।

PG थैलीनुमा संरचना होती है जो दो शर्करा अणुओं (NAG और NAM) की शृंखलाओं से निर्मित कई परतों से मिलकर बनी होती हैं। ये परतें आपस में एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और बैक्टीरिया की कोशिका के इर्द-गिर्द एक निरंतर परत का निर्माण करती हैं। अर्थात जब बैक्टीरिया का आकार बढ़ता है तो ज़रूरी होता है कि यह PG थैली भी फैलती जाए। PG थैली फैलने के लिए पहले परतों के बीच की कड़िया खुलेंगी, फिर नए पदार्थ जुड़ेंगे और एक बार फिर ये परतें आपस में कड़ियों के माध्यम से जुड़ जाएंगी। तभी तो बैक्टीरिया की वृद्धि हो पाएगी।

 

निर्णायक चरण

बैक्टीरिया पर काबू पाने की दिशा में हैदराबाद स्थित कोशिकीय व आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB) की डॉ. मंजुला रेड्डी और उनके साथियों ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है। उन्होंने इस बात का बारीकी से अध्ययन किया है कि बैक्टीरिया कैसे कोशिका भित्ती बनाता है और वृद्धि को संभव बनाने के लिए कैसे PG थैली खोलता है, और इस थैली को खोलने में कौन से रसायन मदद करते हैं। अध्ययन में उन्होंने PG थैली खुलने के लिए एंज़ाइम्स के खास समूह को ज़िम्मेदार पाया है (उनके शोध पत्र इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं https://doi.org/10.1073/pnas.1816893116)। उनके अनुसार, यदि जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से बैक्टीरिया में से इनमें से किसी एक या सभी एंज़ाइम को हटा दिया जाए तो PG थैली नहीं खुलेगी, और बैक्टीरिया भूखा मर जाएगा।

इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि यदि हम ऐसे कोई अणु या तरीके ढूंढ लेते हैं जिनकी मदद से हम इन एंज़ाइम्स को रोकने में सफल हो जाते हैं तो हम जीवाणुओं को उनके सुरक्षा कवच यानी कोशिका भित्ती को बनाने से रोक पाएंगे। इस तरह से संक्रमण पर काबू पा सकेंगे और सुरक्षित हो सकेंगे।

अन्य तरीके

प्रसंगवश, एंटीबायोटिक पेनिसिलीन भी उन्हीं एंज़ाइम्स को रोकती है जो कोशिका भित्ती खुलने के बाद उसे बंद करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। भित्ती बंद ना हो पाने के कारण जीवाणु कमज़ोर हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। तो यह तरीका हुआ “भित्ती बंद ना होने देना”। CCMB के शोधकर्ताओं द्वारा सुझाया तरीका है “कोशिका भित्ती हमेशा बंद रहे, कभी ना खुले”। वर्तमान में लोकप्रिय एंटीबायोटिक औषधियां जिन्हें फ्लोरोक्विनोलॉन्स कहते हैं (जैसे सिप्रॉफ्लॉक्सेसिन) कोशिका भित्ती पर सीधे असर नहीं करती लेकिन उन एंज़ाइम्स को रोकती हैं जो बैक्टीरिया के डीएनए को खुलने और प्रतियां बनाने में मदद करता है। इस तरह की औषधियां संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया को अपनी प्रतियां बनाकर संख्यावृद्धि करने और अपने जीन्स की मरम्मत करने से रोकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बायोमेट्रिक पहचान भी चुराई जा सकती है

कंप्यूटर और इंटरनेट के बढ़ते उपयोग से आजकल लोगों की गोपनीय जानकारी स्मार्टफोन, कंप्यूटर या किसी अन्य जगह पर डिजिटल रूप में स्टोर रहती है। जहां एक ओर लोग इन जानकारियों को महफूज़ रखने के प्रयास में होते हैं वहीं दूसरी ओर हैकर इन जानकारियों तक पहुंचने के प्रयास में होते हैं।

आजकल डैटा या उपकरणों की सुरक्षा के लिए बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली का उपयोग किया जा रहा है। भारत में तो बड़े पैमाने पर बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली आधार से नागरिकों की ज़रूरी जानकारी (बैंक अकाउंट, आयकर सम्बंधी सूचना वगैरह) को जोड़ा जा रहा है। किन्हीं भी दो व्यक्तियों की बायोमेट्रिक पहचान – फिंगरप्रिंट, चेहरा और आंखों की पुतली की संरचना – एक जैसी नहीं होती और ऐसा माना जाता है कि किसी व्यक्ति का फिंगरप्रिंट, चेहरा या आइरिस कोई चुरा नहीं सकता इसलिए उपकरणों और डैटा की सुरक्षा के लिए व्यक्ति की बायोमेट्रिक पहचान उपयोग करने का चलन बढ़ा है।

लेकिन हाल के शोध में पता चला है कि बायोमेट्रिक सुरक्षा प्रणाली को भी हैक किया जा सकता है।

बायोमेट्रिक सुरक्षा प्रणाली कितनी सुरक्षित है यह जांचने के लिए न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक एल्गोरिद्म बनाई है। यह एल्गोरिद्म ना सिर्फ जाली फिंगरप्रिंट बना लेती है बल्कि यह एक मास्टर एल्गोरिद्म है यानि एक ऐसा फिंगरप्रिंट तैयार करती है जो किसी भी फिंगरप्रिंट के लिए काम करता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी भी ताले को खोलने के लिए एक मास्टर चाबी होती है। इस एल्गोरिद्म को डीपमास्टरप्रिंट नाम दिया है।

पहले चरण में विभिन्न फिंगरप्रिंट का विश्लेषण करके एल्गोरिद्म को फिंगरप्रिंट की विशेषता, उसकी बनावट के बारे में सीखना था। अगले चरण में एल्गोरिद्म ने कुछ मास्टर फिंगरप्रिंट के नमूने बनाए। फिर अलग-अलग सुरक्षा स्तर (निम्न, मध्यम और उच्च सुरक्षा स्तर) के फिंगरप्रिंट स्कैनर में इन मास्टर फिंगरप्रिंट की जांच की गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि मध्यम सुरक्षा स्तर पर स्कैनर हर 5 में से एक बार यानि 20 प्रतिशत मामलों में बेवकूफ बन गया था।

मिशिगन स्टेट युनिवर्सिटी के एरन रोश का कहना है स्मार्ट फोन जैसे उपकरणों का सुरक्षा स्तर निम्न होता है। इन उपकरणों में फिंगरप्रिंट स्कैनर का सेंसर बहुत छोटा होता है। इसलिए सेंसर द्वारा पूरा फिंगरप्रिंट एक साथ मैच करने की बजाए फिंगरप्रिंट के छोटे-छोटे हिस्सों को मैच किया जाता है। यदि ये टुकड़े मैच हो जाते हैं तो उपकरण खुल जाता है। इसिलिए ये उपकरण विशेष रूप से असुरक्षित हैं।

स्विटज़रलैंड स्थित आइडिएप रिसर्च इंस्टीट्यूट के सेबेस्टियन मार्शेल की टीम भी बायोमेट्रिक सुरक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए काम कर रही है। सेबेस्टियन मार्शेल का कहना है कि सोशल मीडिया, इंटरनेट पर लोगों द्वारा अपनी निजी तस्वीरें साझा किए जाने के कारण हैकर द्वारा बायोमेट्रिक पहचान तक पहुंचना आसान हो गया है। लेकिन लोगों की बायोमैट्रिक पहचान के साथ अन्य फैक्टर जैसे उनका रक्त प्रवाह, शरीर का तापमान या कुछ अंक वगैरह, जोड़कर डैटा को और अधिक सुरक्षित किया जा सकता है। पर ज़ाहिर है कि बायोमेट्रिक सुरक्षा अनुलंघनीय नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन मानव प्रजाति ‘हॉबिट’ से भी छोटी थी

फिलीपींस के एक द्वीप की गुफा में प्राचीन मानव प्रजाति की हड्डियां और दांत मिले हैं। मनुष्यों का यह रिश्तेदार आकार में हॉबिट से भी छोटा होता था।

लूज़ोन द्वीप पर पाए जाने के कारण इस नई प्रजाति का नाम होमो लुज़ोनेंसिस रखा गया है। यह प्रजाति इस द्वीप पर लगभग 50,000 से अधिक साल पहले प्लायस्टोसिन काल में पाई जाती थी। 4 फीट (1.2 मीटर) से कम ऊंचाई वाला होमो लुज़ोनेंसिस दूसरा ज्ञात बौना मानव है। इससे पहले होमो फ्लोरेसेंसिस (जिसे हॉबिट भी कहते हैं) के अवशेष 2004 में इंडोनेशियाई द्वीप फ्लोर्स पर पाए गए थे।

भले ही होमो लुज़ोनेंसिस आकार में छोटे हैं लेकिन इनकी कई विशेषताएं अन्य प्राचीन मानव रिश्तेदारों से मेल खाती हैं। इनके पैर और उंगलियों की हड्डियां ऑस्ट्रेलोपिथेकस (मानव और चिम्पैंजी के बीच की एक प्रजाति) की तरह घुमावदार हैं, दांतों का आकार ऑस्ट्रेलोपिथेकस, होमो हैबिलिस और होमो इरेक्टस के सामान हैं, और छोटे दांत आधुनिक मनुष्यों या होमो सेपियंस के समान दिखते हैं।

अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता और नेशनल म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री, पेरिस के पुरा-मानव विज्ञानी फ्लारेंस डाइट्रॉइट के अनुसार इन जीवाश्म घटकों में शारीरिक विशेषताओं का एक ऐसा मिश्रण दिखाई देता है जो होमो वंश की अन्य प्रजातियों में नहीं दिखाई देता। इसलिए यह एक नई प्रजाति लगती है। इससे पहले 2007 में लूज़ोन की कैलाओ गुफा में पैर के पंजे की 67,000 वर्ष पुरानी हड्डी मिली थी और उसके बाद से ही खुदाई का काम शुरू कर दिया गया। इस दौरान कुल मिलाकर 13 जीवाश्म हड्डियां और दांत मिले जो दो प्राणियों के थे। इनमें से एक 50,000 वर्ष पुराने जीवाश्म से पता चला कि होमो लुज़ोनेंसिस दरअसल होमो सेपिएंस, निएंडरथल, डेनिसोवांस और होमो फ्लोरेसेंसिस सहित अन्य मानव प्रजातियों के साथ अस्तित्व में थे।

फिलहाल यह कह पाना तो संभव नहीं है कि होमो लुज़ोनेंसिस दिखते कैसे होंगे लेकिन उनके छोटे-छोटे दांतों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस प्रजाति का आकार छोटा ही होगा। साथ ही घुमावदार पंजे और उंगलियों से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे पेड़ पर चढ़ने के साथ-साथ ज़मीन पर सीधा चलने में भी माहिर थे। होमो प्रजातियां 20 लाख वर्ष पहले दो पैरों पर चलने लगी थीं, इसलिए यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि होमो लुज़ोनेंसिस वापिस पेड़ों पर चढ़ गए थे। शायद एक अलग द्वीप पर रहने के कारण उनमें यह विशेषता उभरी।

हालांकि कुछ ऐसी संभावनाएं हैं जिन पर अक्सर बात होती रही है। जैसे लूज़ोन पर 7,00,000 साल पहले के साक्ष्य से पता चला है कि कुछ एशियाई होमो इरेक्टस किसी प्रकार समुद्र पार करके यहां बस गए और लूज़ोन द्वीप के प्रभाव के कारण होमो लुज़ोनेंसिस में परिवर्तित हो गए। हालांकि वैज्ञानिक फिलिपींस की गीली और गर्म जलवायु के चलते हड्डियों से किसी भी डीएनए को निकालने में असमर्थ रहे, लेकिन फिर भी हड्डियों में मौजूद प्रोटीन से उत्पत्ति का पता लगाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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गर्म खून के जंतुओं में ह्रदय मरम्मत की क्षमता समाप्त हुई

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि जो जंतु गर्म खून वाले होते हैं उनमें ह्दय की मरम्मत की क्षमता कम होती है। गर्म खून वाले जंतु से आशय उन जंतुओं से है जिनके खून का तापमान स्थिर रहता है, चाहे आसपास के पर्यावरण में कमी-बेशी होती रहे। शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि गर्म खून का विकास और ह्दय की मरम्मत की क्षमता का ह्यास परस्पर सम्बंधित हैं।

सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी गुओ हुआंग और उनके साथियों ने विभिन्न जंतुओं के ह्दय का अध्ययन करके उक्त निष्कर्ष साइन्स शोध पत्रिका में प्रस्तुत किया है।

हुआंग की टीम दरअसल यह देखना चाहती थी कि विभिन्न जंतुओं के ह्दय की कोशिकाओं में कितने गुणसूत्र होते हैं। यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि जंतुओं के शेष शरीर की कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम की दो प्रतियां पाई जाती हैं किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाओं में गुणसूत्रों की 4-4, 6-6 प्रतियां होती हैं।

जंतु कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति मां से और दूसरी पिता से आती है। इन कोशिकाओं को द्विगुणित कहते हैं। किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाएं बहुगुणित होती हैं। इनमें दो या दो से अधिक प्रतियां पिता से और दो या दो से अधिक प्रतियां माता से आती हैं।

हुआंग की टीम को पता यह चला कि जब आप मछली से शुरू करके छिपकलियों, उभयचर जीवों और प्लेटीपस जैसी मध्यवर्ती प्रजातियों से लेकर स्तनधारियों की ओर बढ़ते हैं वैसे-वैसे ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात बढ़ता है। यह तथ्य तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब आप यह देखें कि ज़्यादा द्विगुणित कोशिकाओं वाले ह्रदय  – जैसे ज़ेब्रा मछली का ह्रदय  – में पुनर्जनन हो सकता है और मरम्मत हो सकती है। जैसे-जैसे बहुगुणित कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है (जैसे चूहों और मनुष्यों में) तो मरम्मत की क्षमता कम होने लगती है।

अब सवाल यह है कि किसी ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात कौन तय करता है। यह सवाल वैसे तो अनुत्तरित है किंतु हुआंग की टीम को एक जवाब मिला है। उन्होंने पाया है कि इस मामले में थायरॉइड हारमोन की कुछ भूमिका हो सकती है। थायरॉइड हारमोन शरीर क्रियाओं (मेटाबोलिज़्म) को नियंत्रित करता है और हमें गर्म खून वाला बनाता है। टीम ने देखा कि जब उन्होंने ज़ेब्रा मछली के टैंक में अतिरिक्त थायरॉइड हारमोन डाल दिया तो उनके ह्रदय  में पुनर्जनन नहीं हो पाया। दूसरी ओर, उन्होंने ऐसे चूहे विकसित किए जिनके ह्रदय  थायरॉइड के प्रति असंवेदी थे तो चोट लगने के बाद उनके ह्रदय  दुरुस्त हो गए। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि अभी कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि इस संदर्भ में थायरॉइड शायद अकेला ज़िम्मेदार नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)

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बीमारी के इलाज में वायरसों का उपयोग

वैसे तो बैक्टीरिया जनित रोगों के इलाज में वायरसों के उपयोग का विचार कई दशकों पहले उभरा था और कुछ चिकित्सकों ने इस पर हाथ भी आज़माए थे किंतु एंटीबायोटिक दवाइयों की आसान उपलब्धता के चलते यह विचार उपेक्षित ही रहा। यह आम जानकारी है कि वायरस स्वयं कई बीमारियां पैदा करते हैं। तो यह सवाल अस्वाभाविक नहीं है कि फिर इनका उपयोग बैक्टीरिया से लड़ने में कैसे होगा।

बरसों पहले यह पता चल चुका था कि कई वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित करके उन्हें मार डालते हैं। ऐसे वायरसों को बैक्टीरिया-भक्षी वायरस या बैक्टीरियोफेज कहते हैं। इसके आधार पर यह सोचा गया था कि यदि आपके पास सही बैक्टीरिया-भक्षी है तो आप बैक्टीरिया संक्रमण से निपट सकते हैं। प्रत्येक बैक्टीरिया के लिए विशिष्ट भक्षी होता है। अत: सबसे पहले तो आपको भक्षी की खोज करना होती है। ये प्रकृति में हर जगह पाए जाते हैं किंतु सही भक्षी की खोज करना आसान नहीं होता। इसके बाद समस्या यह आती थी कि एक भक्षी सारे मरीज़ों के लिए कारगर नहीं होता था। और सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि एक बार एकत्रित करने के बाद इन वायरसों को सहेजना पड़ता था। इन सब मामलों में एंटीबायोटिक कहीं ज़्यादा सुविधानक थे। इसलिए वायरस उपचार की बात चली नहीं।

मगर आज बड़े पैमाने पर बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाइयों के प्रतिरोधी हो चले हैं। दुनिया भर में यह चिंता व्याप्त है कि एंटीबायोटिक के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध के चलते कहीं हम उस युग में न लौट जाएं जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं। यदि वैसा हुआ तो आधुनिक चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा खतरे में पड़ जाएगी। इस माहौल में एक बार फिर वायरस चिकित्सा की चर्चा शुरू हुई है।

हाल ही में कुछ अस्पतालों में वायरस-उपचार के सफल उपयोग के समाचार मिले हैं। टेक्नॉलॉजी के स्तर पर भी हम काफी आगे बढ़े हैं। भक्षी वायरसों को पहचानना, एकत्रित करना और सहेजना अब ज़्यादा आसान हो गया है। अत: वायरस-उपचार अनुसंधान में तेज़ी आई है। (स्रोत फीचर्स)

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मात्र शत प्रतिशत ग्रामीण विद्युतीकरण पर्याप्त नहीं है – एन. श्रीकुमार, मानबिका मंडल, एन. जोसी

एक भरोसेमंद बिजली आपूर्ति काफी महत्वपूर्ण है। वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) को सामाजिक और वाणिज्यिक दोनों गतिविधियों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए। इस लेख के लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से संबंधित हैं। यह भारतीय ऊर्जा क्षेत्र के सामने चुनौतियों पर तीन लेखों में से पहला है

स बात की काफी संभावना है कि केंद्र सरकार घोषित करे कि देश के सभी घरों में बिजली कनेक्शन उपलब्ध है। सौभाग्य वेबसाइट पर प्रकाशित ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, छत्तीसगढ़ में केवल 20,000 परिवार ऐसे हैं जिनके पास बिजली कनेक्शन नहीं है। लेकिन इस बात की खुशी मनाते हुए यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि यह अच्छी शुरुआत भर है। कनेक्शन प्रदान करने की चुनौती को तो शायद पूरा कर लिया गया है, लेकिन बिजली आपूर्ति प्रदान करने की चुनौती अभी भी बनी हुई है। जीवन स्तर में सुधार और आर्थिक गतिविधियों में सहायता के लिए, सस्ती और भरोसेमंद बिजली आपूर्ति ज़रूरी है।

घरेलू कनेक्शन और गांव के विद्युतीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के चक्कर में बिजली आपूर्ति के लक्ष्य की उपेक्षा हुई है। बिजली आपूर्ति का प्रबंधन पैसों की तंगी वाली वितरण कंपनियों द्वारा किया जाता है जिनके पास गरीब ग्रामीणों को बिजली आपूर्ति देने का कोई वित्तीय प्रलोभन नहीं होता है।

इस समस्या को दूर करने के लिए आपूर्ति-केंद्रित ग्रामीण विद्युतीकरण अभियान की आवश्यकता है। आपूर्ति और सेवा के वर्तमान घटिया स्तर से मुक्त होने के लिए ऐसा अभियान आवश्यक है। एक बार उल्लेखनीय सुधार हो गया, तो उपभोक्ताओं की ओर से  आपूर्ति की गुणवत्ता के लिए वितरण कंपनियों को जवाबदेह बनाने का दबाव रहेगा, और यह जोश जारी रहेगा।

कनेक्शन से एक कदम आगे 

चूंकि पूरा ध्यान कनेक्शनों पर केंद्रित रहा है, इसलिए आपूर्ति की गुणवत्ता को लेकर हमारे पास बहुत कम जानकारी है। जो भी आंकड़े उपलब्ध हैं, उनसे पता चलता है कि शिकायतों की सूची में मीटरिंग, बिलिंग और भुगतान सम्बंधी शिकायतें प्रमुख हैं। नए कनेक्शन वाले घरों के बिल जारी करने में अनावश्यक विलंब होता, बिलों में गलतियां होती है, मीटर में खामियां हैं और बिल भुगतान में कठिनाइयां हैं। बिलों में विलंब या गलतियों से बिल काफी अधिक आता है, जिससे छोटे उपभोक्ताओं को भुगतान करने में मुश्किल होती है और उनके कनेक्शन कट जाते हैं।

दूसरी शिकायत बिजली कटौती को लेकर है। सरकारी रिपोट्र्स में ग्रामीण इलाकों में 16 से 24 घंटे की बिजली आपूर्ति की बात कही गई है। उपभोक्ता सर्वेक्षण और अन्य अध्ययन इससे बहुत कम घंटे बिजली आपूर्ति रिपोर्ट करते हैं। स्मार्टपॉवर के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि आधे घरों में एक दिन में आठ घंटे बिजली कटौती होती है और लगभग आधे ग्रामीण उद्यम गैर-ग्रिड विकल्प का उपयोग करते हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा 2017 के राष्ट्रव्यापी ग्राम सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि केवल आधे गांवों में ही 12 घंटे से अधिक बिजली आपूर्ति होती है।

प्रयास ऊर्जा समूह द्वारा 23 राज्यों में 200 मॉनिटरिंग केंद्रों से एकत्रित डैटा के अनुसार ग्रामीण इलाकों के आधे स्थानों में प्रति माह 15 घंटे से अधिक कटौती और प्रति दिन 2-4 बार व्यवधान का अनुभव होता है।

सामुदायिक सेवाएं

घरों के अलावा, ग्रामीण विद्युतीकरण को कृषि, छोटे व्यवसाय और सामुदायिक सेवाओं जैसे स्ट्रीट लाइटिंग, स्कूलों, आंगनवाड़ियों और स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंच सुनिश्चित करनी चाहिए। कृषि क्षेत्र के लिए ज़्यादातर राज्यों में केवल सात से आठ घंटे की आपूर्ति प्रदान की जाती है। यह बिजली आपूर्ति ज़्यादातर रात के समय और अक्सर रुक-रुककर दी जाती है। बार-बार होने वाली रुकावटें ग्रामीण क्षेत्रों में वाणिज्यिक उद्यमों के संचालन को हतोत्साहित करती हैं।

वितरण कंपनी का राजस्व सिर्फ तभी बढ़ सकता है जब ऐसे उपभोक्ता अधिक बिजली का उपभोग करें। इससे पहले कि उपभोक्ता ग्रिड द्वारा आपूर्ति में विश्वास खो दें, बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता में सुधार के लिए कदम उठाना आवश्यक है। सरकारी सर्वेक्षणों की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में, 40 प्रतिशत स्कूलों और 25 प्रतिशत स्वास्थ्य उप-केंद्रों में बिजली कनेक्शन नहीं थे। ग्रामीण वितरण के बुनियादी ढांचे को सुधारना आवश्यक है, जो फिलहाल मात्र घरेलू मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त है।

बिजली आपूर्ति अभियान

कनेक्शन-उपरांत के मसलों पर ध्यान देना ज़रूरी है। जैसे प्रथम बिल जारी होना, बिजली आपूर्ति के घंटे, वितरण ट्रांसफॉर्मर की विफलता दर और गैर-घरेलू उपभोक्ता कनेक्शन में बढ़ोतरी। एकीकृत उर्जा विकास योजना (आईपीडीएस) वर्तमान में शहरों पर केंद्रित है; इसे ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ाया जाना चाहिए। बेकार पड़ी बिजली उत्पादन क्षमता, पुराने पड़ चुके उर्जा संयंत्रों और अप्रयुक्त क्षमता से उत्पन्न बिजली डिस्कॉम्स को रियायती दरों पर दी जा सकती है। इसका उपयोग वे निर्धारित ग्रामीण क्षेत्रों में भरोसेमंद आपूर्ति हेतु कर सकती हैं।

राज्य वितरण कंपनियां मीटरिंग और बिलिंग में सुधार कर सकती हैं और बिल भुगतान के लिए ज़्यादा केंद्र स्थापित कर सकती हैं। इसमें वे पंचायत कार्यालयों, डाकघरों या स्वास्थ्य केंद्रों की मदद ले सकती हैं। मोबाइल ऐप्लिकेशन और जन सुनवाई के माध्यम से शिकायत निवारण प्रक्रियाओं को सरल बनाया जा सकता है।

घटिया बिजली आपूर्ति के लिए वितरण कंपनियों को नियामक आयोगों द्वारा आर्थिक रूप से दंडित किया जाना चाहिए। आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देने के लिए, लगभग 300 युनिट की खपत वाले छोटे उद्यमों को सस्ते शुल्क का आश्वासन दिया जाना चाहिए।

स्वास्थ्य केंद्रों जैसी सामुदायिक सुविधाओं के लिए जहां विश्वसनीय आपूर्ति महत्वपूर्ण है, बैटरी बैकअप वाले छोटे सौर संयंत्र लगाने की योजना बनाई जा सकती है। प्रीपेड मीटर, स्मार्ट मीटर और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसे प्रयासों को बढ़ावा देने से पहले पायलट परियोजनाओं के रूप में आज़माया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

*यह लेख अंग्रेज़ी में “द हिन्दू बिज़नेस लाइन” में “100% rural electrification is not enough” नाम से प्रकाशित हो चुका है। इसका लिंक यहां दिया गया है
https://www.thehindubusinessline.com/opinion/100-rural-electrification-is-not-enough/article26645721.ece

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.thehindubusinessline.com/opinion/w23se2/article26645720.ece/alternates/WIDE_615/BL27THINKPOWER

पाई (π) के कुछ रोचक प्रसंग – संकलन: ज़ुबैर

प्राथमिक कक्षाओं से ही वृत्त के क्षेत्रफल और परिधि मापन के लिए हमने पाई (π) का इस्तेमाल किया है। वास्तव में π किसी भी वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात है। यह एक अपरिमेय संख्या है, इसलिए इसे निश्चित भिन्न के रूप में नहीं लिखा जा सकता। इसकी बजाय, यह एक अंतहीन भिन्न है और इसके दशमलव के बाद के अंकों में दोहराव नहीं होता।

लेकिन इस अपरिमेय संख्या की खोज कैसे की गई? अध्ययन के हज़ारों वर्षों के बाद भी क्या इस संख्या में अभी भी कोई रहस्य छिपा है? आइए इस संख्या के उद्गम पर चर्चा करते हैं और देखते हैं कि क्या आज भी यह अपने गर्भ में कुछ रहस्य छिपाए है।

  1. π और पाइलिश भाषा

p को सबसे अधिक संख्या तक याद रखने का रिकॉर्ड भारत में वेल्लोर के राजीव मीणा के नाम दर्ज है। गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड के अनुसार उन्होंने 21 मार्च 2015 को π के दशमलव के बाद 70,000 अंक सुनाने का रिकॉर्ड बनाया है। इससे पहले यह रिकॉर्ड चीन के चाऊ लु के नाम दर्ज था जिन्होंने वर्ष 2005 में दशमलव के बाद 67,890 अंक मुंहज़बानी सुनाए थे।

निम्नलिखित पंक्तियों में प्रत्येक शब्द में अक्षरों की संख्या क्रमश: पाई के मान के अंकों की द्योतक है। प्रथम उदाहरण में पहले 10 अंकों का समावेश है जबकि दूसरे उदाहरण में पहले 31 अंक नज़र आते हैं।

1.        How I need a drink, alcoholic in nature, after the heavy lectures involving quantum mechanics!

2.         But a time I spent wandering in bloomy night;

Yon tower, tinkling chimewise, loftily opportune.

Out, up, and together came sudden to Sunday rite,

The one solemnly off to correct plenilune.

किसी ने तो इस शैली में 10,000 शब्दों का एक उपन्यास भी लिख डाला है।

एक अनधिकृत रिकॉर्ड अकीरा हरगुची के नाम पर भी दर्ज है जिन्होंने 2005 में π के मान को 1,00,000 दशमलव स्थानों तक और फिर हाल ही में एक वीडियो के माध्यम से 1,17,000 से भी अधिक दशमलव स्थानों तक प्रस्तुत कर दिखाया।

संख्या के प्रति कुछ उत्साही लोगों ने तो π के कई अंकों को याद करने के लिए मेमोरी एड्स का उपयोग किया है तो कई लोगों ने पाईफिलोलॉजी नेमोनिक तकनीक का इस्तेमाल कर इस संख्या को याद किया है। अक्सर, वे पद्यों का उपयोग करते हैं (जिसमें प्रत्येक शब्द में अक्षरों की संख्या क्रमश: π के अंकों से मेल खाती है)। इसे पाइलिश शैली भी कहा जाता है। ऐसे पद्यों के कुछ उदाहरण बॉक्स में देखिए।

2. अंकों में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि

π एक अनंत संख्या है, हम कभी भी इसके सारे अंकों का निर्धारण नहीं कर सकते। फिर भी, खोज के बाद से दशमलव स्थानों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है। 2000 ई.पू. में बेबीलोन के लोगों ने इसे ‘तीन सही एक बटा आठ’ के रूप में उपयोग किया, जबकि प्राचीन चीनी लोगों और ओल्ड टेस्टामेंट के रचयिता 3 के पूर्णांक का उपयोग करके खुश थे। 1665 में, आइज़ैक न्यूटन ने 16 दशमलव स्थानों तक π की गणना की। 1719 तक, फ्रांसीसी गणितज्ञ थॉमस फेंटेट डी लैगी ने 127 दशमलव स्थानों तक π की गणना की थी।

कंप्यूटरों के आने के बाद से π के ज्ञान में काफी सुधार हुआ। 1949 और 1967 के बीच, π के ज्ञात दशमलव स्थानों की संख्या 5,00,000 हो गई। पिछले वर्ष, स्विस कंपनी डेक्ट्रिस लिमिटेड के वैज्ञानिक पीटर ट्रूएब ने π के 2,24, 59,15,77,18, 361 अंकों की गणना के लिए एक विशेष कंप्यूटर प्रोग्राम का उपयोग किया।

3. हाथों से π की गणना करना

जो लोग पुरानी तकनीक से  की गणना करना चाहते हैं, वे एक स्केल, एक गोलाकार चूड़ी, धागे के एक टुकड़े की मदद से यह काम कर सकते हैं या चांदे और पेंसिल का इस्तेमाल कर सकते हैं। चूड़ी विधि की सफलता के लिए आवश्यक होगा कि चूड़ी एकदम गोलाकार हो, और सटीकता इस बात पर निर्भर करेगी कि उसकी परिधि पर धागे को कितनी सही तरह से लपेटा गया है। चांदे की मदद से वृत्त बनाकर उसका व्यास नापने में काफी निपुणता और सटीकता की आवश्यकता होती है।

ज़्यादा सटीक गणना ज्यामिति की मदद से की जा सकती है। इसमें एक वृत्त को पिज़्ज़ा की फांक की तरह कई खंडों में विभाजित किया जाता है। फिर, एक सीधी रेखा की लंबाई की गणना की जाती है जो हर एक खंड को समद्विबाहु त्रिभुज में बदल दे। सभी खंडों को जोड़ने पर π का अनुमान लगाया जाता है। जितनी अधिक फांक बनाएंगे, π का मान उतना ही सटीक होगा।

4. π की खोज

प्राचीन बेबीलोन के लोगों को आज से लगभग 4000 साल पहले p जैसे एक अनुपात के अस्तित्व का पता था। 1900 ई.पू. से 1680 ई.पू. के बीच की एक बेबीलोनी तख्ती पर π की गणना 3.125 देखी गई है। 1650 ईसा पूर्व के प्रसिद्ध गणितीय दस्तावेज़, रिंद गणितीय पैपायरस, में p को 3.1605 दर्ज किया गया है। किंग जेम्स बाइबल में π की संख्या को क्यूबिट्स में दर्शाया गया है। क्यूबिट उस समय दूरी नापने की इकाई थी जो लगभग एक हाथ के बराबर होती थी। आर्किमिडीज़ (287-212 ई.पू.) ने पायथागोरस प्रमेय का उपयोग करके π की गणना की थी।

5. π का चिन्ह और नामकरण

वृत्त के एक स्थिरांक के रूप में स्थापित होने से पहले, गणितज्ञों को π की बात करते हुए काफी कुछ समझाना पड़ता था। पुरानी गणित की किताबों में π को निम्न वाक्य में व्यक्त किया जाता था: ‘quantitas in quam cum multiflicetur diameter, proveniet circumferencia’, अर्थात ‘वह संख्या, जिसमें वृत्त के व्यास का गुणा करने पर, परिधि प्राप्त होती है।’

यह संख्या तब काफी प्रचलित हुई जब स्विस बहुविद् लियोनहार्ड यूलर ने 1737 में त्रिकोणमिति में इसका उपयोग किया। हालंकि इसका ग्रीक संकेत यूलर ने नहीं दिया था। π का पहला उल्लेख गणितज्ञ विलियम जोन्स ने 1706 में अपनी पुस्तक में किया था। जोन्स ने संभवत: π चिन्ह का इस्तेमाल वृत्त की परिधि को दर्शाने के लिए किया था।

देखा जाए तो π काफी अजीब संख्या है। गणितज्ञों ने समय-समय पर इस संख्या के कई रहस्यों पर से पर्दा उठाया है लेकिन अभी भी कई सवालों के जवाब मिलना बाकी है। जैसे, गणितज्ञ अभी भी नहीं जानते कि क्या π तथाकथित सामान्य संख्याओं के समूह में है यानी क्या π में विभिन्न अंकों की आवृत्ति बराबर है या क्या विभिन्न अंक इसमें बराबर बार प्रकट होते हैं। 2016 में आरकाइव्स में प्रकाशित शोध पत्र में पीटर ट्रूएब के अनुसार पहले 2.24 खरब अंकों में 0 से 9 अंकों की आवृत्ति देखें तो लगता है कि π एक सामान्य संख्या है। किंतु इस बात को गणितीय ढंग से प्रमाणित करके ही पक्का कहा जा सकता है।

6. बहुगुणी है π

अट्ठारवीं सदी के एक गणितज्ञ जोहान हाइरिश लैम्बर्ट ने π की अपरिमेयता का प्रमाण दिया था। आगे चलकर यह भी साबित किया गया कि यह न सिर्फ अपरिमेय है बल्कि ट्रांसेन्डेंटल भी है। गणित में ट्रांसेन्डेंटल संख्या का मतलब होता है कि वह किसी ऐसी समीकरण का उत्तर नहीं हो सकता जिसमें परिमेय संख्याएं हों।

7. π का विरोध

जहां एक ओर π को लेकर कई गणितज्ञ आसक्त हैं, वहीं दूसरी ओर इसको लेकर प्रतिरोध भी है। कुछ लोगों का तर्क है कि पाई एक व्युत्पन्न संख्या है, और टाऊ (t, दो π के बराबर) एक अधिक सहज अपरिमेय संख्या है।

τ मैनिफेस्टो के लेखक माइकल हार्टल के अनुसार τ सीधे तौर पर परिधि को त्रिज्या से जोड़ता है, जिसका अधिक गणितीय मूल्य है। τ त्रिकोणमितीय गणनाओं में भी बेहतर काम करता है, उदाहरण के तौर पार टाऊ/4 रेडियन वह कोण है जो वृत्त के एक चौथाई हिस्से को घेरता है।

8. π दिवस

1988 में, भौतिक विज्ञानी लैरी शॉ ने सैन फ्रांसिस्को स्थित विज्ञान संग्रहालय में π-दिवस की शुरुआत की। हर साल, 14 मार्च (3/14) π-दिवस मनाया जाता है। उद्देश्य गणित और विज्ञान में रुचि बढ़ाना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गणित की एक पुरानी पहेली सुलझाई गई

णितज्ञों को जो बातें परेशान करती हैं, वे कई बार बहुत विचित्र होती हैं। जैसे 64 साल पुरानी एक पहेली को ही लें। गणितज्ञों का सवाल था कि क्या हरेक संख्या को तीन संख्याओं के घन के जोड़ के रूप में लिखा जा सकता है। अर्थात, क्या हरेक संख्या k के लिए निम्न समीकरण लिखी जा सकती है:

x3 + y3 + z3 = k

यह सवाल वैसे तो एलेक्ज़ेण्ड्रिया के गणितज्ञ डायोफेंटस ने किया था और उक्त समीकरण को डायोफेंटाइन समीकरण कहते हैं। चुनौती यह है कि 1 से अनंत तक किसी भी संख्या (k) के लिए ऐसी तीन संख्याएं खोजें जो उक्त समीकरण को पूरा करें। जैसे यदि संख्या (k) 8 हो तो उसके लिए एक समीकरण निम्नानुसार होगी:

23 + 13 + (-1)3 = 8

आप देख ही सकते हैं कि x, y और z कोई भी संख्या (धनात्मक या ऋणात्मक) हो सकती है। विभिन्न संख्याओं के लिए खोज करते-करते गणितज्ञों को धीरे-धीरे पता चल गया कि सभी संख्याओं के लिए ऐसी समीकरणें लिखना संभव नहीं है। एक नियम यह पता चला कि यदि किसी संख्या में 9 का भाग देने पर शेष 4 या 5 रहे तो उसके लिए ऐसी समीकरण नहीं बन सकती। इस नियम के आधार पर 100 से कम की 22 संख्याएं बाहर हो जाती हैं। शेष 76 संख्याओं के लिए ऐसी समीकरणें बना ली गई हैं किंतु 2 संख्याओं ने गणितज्ञों को खूब छकाया है – 33 और 42।

अब ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के एंड्रयू बुकर ने 33 के लिए समीकरण बना ली है। उन्होंने एक कंप्यूटर सूत्रविधि विकसित की जो इस समीकरण को x, y और z  के मान 1016 तक लेकर समीकरण का हल निकाल सकती है। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि इसकी मदद से कंप्यूटर उन्हें 33 के लिए ऐसी डायोफेंटाइन समीकरण उपलब्ध करा देगी। कुछ सप्ताह की मेहनत के बाद जो समीकरण उन्हें मिली वह थी:

(8,866,128,975,287,528)3 + (-8,778,405,442,862,239)3 + (-2,736,111,468,807,040)3 = 33

बुकर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मज़ेदार बात यह रही कि उनकी पत्नी को समझ में नहीं आया कि वे इतने खुश क्यों हैं। शायद हममें से भी कई को यह खुशी समझ में नहीं आएगी। मगर 100 से कम की एक संख्या अभी बची है (42) और उम्मीद की जा सकती है कि जल्दी ही कोई और गणितज्ञ खुशी से उछलेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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