एक कृमि को मॉडल बनाने वाले ब्रेनर नहीं रहे

हाल ही में प्रमुख आणविक जीव विज्ञानी सिडनी ब्रेनर का निधन 92 वर्ष की आयु में हुआ। ब्रेनर युरोपियन मॉलीक्यूलर बायोलॉजी ऑर्गेनाइज़ेशन के संस्थापक सदस्य थे।

ब्रेनर की प्रमुख उपलब्धि यह रही कि उन्होंने एक कृमि सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस को मानव रोगों पर अनुसंधान का प्रमुख मॉडल जीव बनाया। इस कार्य के लिए उन्हें वर्ष 2002 का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। ब्रेनर ने सी. एलेगेंस को एक मॉडल जीव के रूप में इसलिए चुना था क्योंकि यह बैक्टीरिया जैसे अन्य जीवों के मुकाबले अधिक जटिल है और इसका अध्ययन करना आसान है। उनके इसी कार्य का परिणाम है कि आज भी यह कृमि जीव विज्ञान में एक प्रमुख मॉडल जीव है और पिछले एक दशक में तकरीबन 15,000 शोध पत्रों में इसका ज़िक्र हुआ है।

ब्रेनर मेसेंजर (यानी संदेशवाहक) आरएनए की खोज में भी शरीक रहे। गौरतलब है कि कोशिकाओं में प्रोटीन निर्माण के निर्देश डीएनए नामक अणु के रूप में संचित होते हैं। इन निर्देशों के आधार पर प्रोटीन बनाने का काम संदेशवाहक आरएनए अणु करवाते हैं। संदेशवाहक मेसेंजर दरअसल डीएनए में उपस्थित सूचना को उस प्रणाली तक पहुंचाते हैं जो वास्तव में प्रोटीन बनाने का काम करती है।

ब्रेनर आणविक जेनेटिक विज्ञान की इस महत्वपूर्ण खोज में भी प्रमुखता से शामिल थे कि डीएनए का अणु तीन-तीन न्यूक्लियोटाइड की तिकड़ियों से बना होता है। ऐसी प्रत्येक इकाई को कोडॉन कहते हैं और प्रत्येक कोडॉन एक अमीनो अम्ल का संकेत होता है। इस तरह कोडॉन के क्रमानुसार अमीनो अम्ल व्यवस्थित हो जाते हैं और फिर जुड़कर प्रोटीन बनते हैं।

ब्रेनर विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थानों से जुड़े रहे। वे प्रमुख रूप से सिंगापुर में वैज्ञानिक अनुसंधान से जुड़े रहे और सिंगापुर की शोध क्षमता के निर्माण में प्रमुख योगदान दिया। गौरतलब है कि वे सिंगापुर के मानद नागरिक भी थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चौपाया व्हेल करती थी महाद्वीपों का सफर

शोधकर्ताओं ने कुछ समय पहले ही पेरू के समुद्र तट पर चार पैरों वाली प्राचीन व्हेल की हड्डियां खोज निकाली हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित पेपर के अनुसार यह जीव राइनो और समुद्री ऊदबिलाव के मिश्रित रूप जैसा दिखता होगा। इसका सिर छोटा, लंबी मज़बूत पूंछ और चार छोटे मगर मोटे खुरदार पैर एवं झिल्लीदार पंजे रहे होंगे। एक नए अध्ययन का अनुमान है कि ये जीव आज के युग की व्हेल के पूर्वज रहे होंगे जो लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले पाए जाते थे। 

रॉयल बेल्जियन इंस्टिट्यूट ऑफ नेचुरल साइंस, ब्रसेल्स के जंतु विज्ञानी और इस अध्ययन के प्रमुख ओलिवियर लैम्बर्ट के अनुसार यह प्रशांत महासागर में मिलने वाली चार पैरों वाली व्हेल का सबसे पहला प्रमाण है। 

जीवाश्म विज्ञानी पिछले एक दशक से भी अधिक समय से प्राचीन समुद्री स्तनधारियों के जीवाश्म की खोज करने के लिए पेरू के बंजर तटीय क्षेत्रों के आसपास खुदाई कर रहे थे। लैम्बर्ट और उनकी टीम को अधिक सफलता मिलने की उम्मीद नहीं थी लेकिन एक बड़े दांतों वाला जबड़ा मिलने के बाद उन्होंने खुदाई को आगे भी जारी रखा।

ये हड्डियां कई लाख वर्ष पुरानी थीं और कई टुकड़ों में टूटी हुई थीं, लेकिन काफी अच्छे से संरक्षित थीं और आस-पास की तलछट में इन्हें ढूंढना भी काफी आसान था। जब पूरा कंकाल इकट्ठा कर लिया गया तो कमर और भुजा वाले भाग को देखकर यह ज़मीन पर चलने वाले जीव सरीखा मालूम हुआ लेकिन इसके लंबे उपांग और पूंछ की बड़ी-बड़ी हड्डियों से इसके कुशल तैराक होने का अनुमान लगाया गया। लैम्बर्ट का ऐसा मानना है कि उस समय ये जीव ज़मीन पर चलने में भी सक्षम थे और साथ ही तैरने के लिए अपनी पूंछ का भी उपयोग करते होंगे।     

टीम ने इन तैरने और चलने वाली व्हेल प्रजाति को पेरेफोसिटस पैसिफिकस नाम दिया है जिसका अर्थ प्रशांत तक पहुंचने वाली यात्री व्हेल है।  

अब तक, वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि प्राचीन व्हेल अफ्रीका से निकलकर पहले उत्तरी अमेरिका की ओर गर्इं और उसके बाद दक्षिणी अमेरिका और दुनिया के अन्य हिस्सों में फैली। लेकिन जीवाश्म की उम्र और स्थान को देखते हुए लैम्बर्ट और उनके साथियों का अनुमान है कि यह उभयचर व्हेल दक्षिण अटलांटिक महासागर को पार करते हुए पहले दक्षिण अमेरिका पहुंचीं और फिर उत्तरी अमेरिका और अन्य स्थानों पर।

अलबत्ता, शोधकर्ताओं के मुताबिक महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे किस दिशा में गर्इं, बल्कि यह काफी दिलचस्प है कि ये प्राचीन चार पैर वाले जीव अपनी शारीरिक रचना से इतना सक्षम थे कि दुनिया भर में फैल गए। आगे चलकर इस जीवाश्म से और अधिक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जीवों में अंगों का फिर से निर्माण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

छिपकली को जब भी किसी खतरे का अंदेशा होता है तो वह अपने बचाव में अपने शरीर से पूंछ अलग कर गिरा देती है और वहां से भाग जाती है। अगले 60 दिनों के भीतर छिपकली के शरीर पर नई पूंछ आ जाती है। लेकिन नई पूंछ कैसे और क्यों आती है? एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के डॉ. केनरो कुसुमी और उनके साथियों ने अपने शोध में इसी सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की। उन्होंने पाया कि दोबारा पूंछ विकसित करने के लिए छिपकली अपने शरीर के किसी खास हिस्से के जीनोम में लगभग 326 जीन्स को सक्रिय कर देती है। इसके अलावा वे ‘सैटेलाइट कोशिकाओं’ को भी सक्रिय कर देती हैं, जो विकसित होकर कंकाल की पेशियों और अन्य ऊतकों में तबदील हो सकती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि चूंकि मनुष्यों में भी सैटेलाइट कोशिकाएं होती हैं इसलिए संभावना है कि इन्हें सक्रिय करके मनुष्यों में भी पेशियों और उपास्थियों को पुन: विकसित किया जा सके।

छिपकली जैव विकास के क्रम में काफी देर से अस्तित्व में आई थीं। छिपकली लगभग 31-32 करोड़ साल पहले अस्तित्व में आई जबकि उनसे पहले केंचुए लगभग 51 करोड़ वर्ष पूर्व और चपटे कृमि लगभग 84 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तिस्व में आ चुके थे। अरस्तू ने इन्हें ‘पृथ्वी की आंत’ और डार्विन ने ‘प्रारंभिक जुताई करने वाले’ की उपमा दी थी। प्रोसिडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी में प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यह पता किया है कि कृमियों की 35 विभिन्न प्रजातियां शरीर का कोई हिस्सा कटकर अलग हो जाने पर उसे पुन: विकसित (या अंग पुनर्जनन) कैसे करती हैं। जैसे कम-से-कम चार तरह के कृमि अपने सिर को दोबारा विकसित कर लेते हैं। तो छिपकली की तरह इन जीवों की जीव वैज्ञानिक कार्यप्रणाली का अध्ययन अंग पुनर्जनन की बेहतर समझ बनाने में मददगार होगा।

सवाल यह है कि ऐसा क्यों है कि विकास क्रम में पहले अस्तित्व में आए कृमि, अपना सिर तक पुन: विकसित कर पाते हैं जबकि उनके बाद अस्तित्व में आर्इं छिपकलियां सिर्फ पूंछ दोबारा बना पाती हैं। और उनके भी बाद आए ‘ऊंचे दर्जे के जानवर’ तो कोई भी अंग फिर से नहीं बना पाते। इस मामले में दो तरह के तर्क दिए जाते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड की प्रोफेसर एलेक्सेन्ड्रा बेली ने अपनी समीक्षा इवॉल्यूशनरी लॉस ऑफ एनिमल रीजनरेशन: पैटर्न एंड प्रोसेस (विकास के दौरान जीवों में अंग-पुनर्जनन क्षमता की हानि: पैटर्न और प्रकिया) में बताया है कि पुनर्जनन में नई कोशिकाएं, ऊतक और आंतरिक अंग तो बन सकते हैं लेकिन भुजाओं जैसी रचनाओं के पुनर्जनन पर उम्र, लिंग, पोषण और अन्य कारकों का नियंत्रण होता है। या क्या यह भी हो सकता है कि पुनर्जनन इसलिए समाप्त हो गया क्योंकि जीवों ने मरम्मत में ऊर्जा खर्च करने की बजाय उसे वृद्धि में लगाया। अंग-पुनर्जनन में लगने वाली ऊर्जा और उससे मिलने वाले लाभ के आधार पर इस प्रक्रिया को फिर से समझने की ज़रूरत है।

युनिवर्सिटी ऑफ बाथ के डॉ. जोनाथन स्लैक द्वारा इएमबीओ रिपोर्ट में एक अध्ययन एनिमल रीजनरेशन: एंसेस्ट्रल केरेक्टर ऑर इवॉल्यूशनरी नॉवेल्टी? (जंतु पुनर्जनन: पूर्वजों की विरासत या वैकासिक नवीनता?) प्रकाशित किया गया था। इस अध्ययन में उन्होंने जेनेटिक विश्लेषण के आधार पर बताया था कि सभी जीवों (छिपकली से लेकर मानवों तक) में आनुवंशिक गुण दो मुख्य जीन, Wnt और BMP, के व्यवहार के कारण दिखते हैं। Wnt जीन कोशिकाओं की तेज़ी से वृद्धि और स्व-नवीनीकरण संकेत देने में मददगार होता है। BMP जीन सभी जीवों में शरीर और अंगों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये जीन सभी जीवों की सभी कोशिकाओं में मौजूद होते हैं, इसलिए सैद्धांतिक रूप से ऐसा लगता है कि अंग-पुनर्जनन सभी जीवों में संभव है।

इसके बावजूद, कुत्ते या बिल्ली की पूंछ कटने के बाद दोबारा नहीं आती। वे अपनी कटी पूंछ के साथ ही रहना सीख जाते हैं। डॉ. बेली के अनुसार इन जीवों में, पूंछ को दोबारा विकसित में लगने वाली ऊर्जा के बदले पूंछ के बिना जीना ज़्यादा फायदेमंद या सार्थक लगता है। (जबकि छिपकली के मामले में उसकी पूंछ जीवित बचने और विकास में अहम अंग है।)

छिपकली पर लौटते हैं। छिपकली में दोबारा जो पूंछ विकसित होती है वह दरअसल मूल पूंछ जैसी नहीं होती बल्कि उसकी अधूरी नकल होती है। इस नकली पूंछ में कोई हड्डी नहीं होती बल्कि इसमें उपास्थि होती है और यह मूल पूंछ की तुलना में अधिक नरम और लचीली होती है। कलकत्ता के डॉ. शुक्ल घोष के शब्दों में यह वास्तविक अंग-पुनर्जनन नहीं बल्कि क्षतिपूर्ति वृद्धि है।

स्टेम सेल तकनीक

हालांकि एरिज़ोना के कुसुमी और उनके साथियों को छिपकली की पुन: विकसित पूंछ के ऊतकों में कोई प्रोजीनेटर कोशिका या स्टेम कोशिका नहीं मिली, लेकिन उभरती हुई स्टेम कोशिका तकनीक से इस क्षेत्र में काफी उत्साह बढ़ा है। इस तकनीक में स्टेम कोशिका की मदद से किसी अन्य अंग की कोशिका या ऊतक प्रयोगशाला में विकसित किए जा सकते हैं। इस तकनीक की मदद से मूत्राशय विकसित किया गया है और एक युवा को लगाया गया, जिसका मूत्राशय क्षतिग्रस्त हो गया था। वर्तमान में किसी भी कोशिका को, चार चुने हुए जीन की मदद से, स्टेम कोशिका बनने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। इस तरह प्रेरित बहुसक्षम स्टेम कोशिकाएं, प्रयोगशाला में मनचाहे ऊतक और ऑर्गेनाइड (मूल अंग की तुलना में छोटे अंग) बनाने के लिए उपयोग किए जा रही हैं। हालांकि अभी यह इस तकनीक का आगाज़ है लेकिन भविष्य में इसकी मदद से अंग बनाए जा सकेंगे और इनका उपयोग अंग-पुनर्जनन के लिए किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हम छठी व्यापक जैव विलुप्ति की कगार पर हैं – सोमेंद्र सिंह खरोला

क्या तूफान आपके अंधत्व का लिहाज़ करके थमता है? – सुधींद्रनाथ दत्त की कविता उत्पाखी (शुतुरमुर्ग) से

जैव मंडल की तुलना एक बहुत बड़ी दीवार से की जा सकती है, मनुष्य जिसके ऊपर बैठा है। अगर इस जैव मंडल में से हम जानवरों की कुछ प्रजातियां गंवा भी देते हैं, तो दीवार से महज़ कुछ र्इंटें गुम होंगी, दीवार तो फिर भी खड़ी रहेगी। परंतु यदि अधिकाधिक जानवर विलुप्त होते जाएंगे, तो पूरी दीवार भी दरक सकती है। सवाल है कि र्इंटों को हटा कौन रहा है?

व्यापक जैविक विलोपन ऐसी वैश्विक घटना को कहते हैं जिसके दौरान पृथ्वी के 75 प्रतिशत से अधिक वन्य जीव विलुप्त हो जाते हैं। पिछले 50 करोड़ वर्षों में, इस तरह के व्यापक विलोपन की पांच घटनाएं हुई हैं। इनमें से सबसे हालिया विलोपन ने डायनासौर को हमेशा के लिए खत्म कर दिया था। लेकिन कितने लोग यह जानते हैं कि हाल ही में किए गए कई शोध अध्ययनों ने समय-समय पर यह दावा किया है कि पृथ्वी एक और व्यापक विलोपन घटना की गिरफ्त में है: छठा व्यापक विलोपन।

दरअसल, पिछले 100 वर्षों में, रीढ़धारी प्राणियों की 200 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। प्रजातियों के विलुप्त होने की यह दर (प्रति वर्ष 2 प्रजातियां), आपको शायद मामूली लगे और शायद चिंता का विषय भी न हो। शायद आप कहें कि जीव तो हर समय विलुप्त होते रहते हैं, यह तो प्रकृति का तरीका है। लेकिन पिछले बीस लाख वर्षों में विलोपन की दर को देखें तो 200 प्रजातियों को विलुप्त होने में सौ नहीं बल्कि दस हज़ार साल लगना चाहिए थे। दूसरे शब्दों में, विलुप्त होने की दर पहले के युगों की तुलना में पिछले मात्र 100 वर्षों लगभग 100 गुना बढ़ गई है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में हाल ही में प्रकाशित एक शोध आलेख छठे व्यापक विलोपन के अपने दावों के साथ एक कदम और आगे बढ़ता है।

यह अध्ययन बताता है कि न केवल छठा व्यापक विलोपन एक वास्तविकता है, बल्कि इसके परिणाम हमारे सोच से कहीं अधिक गंभीर होंगे। इसके अलावा यह अध्ययन इसके लिए पूरी तरह मनुष्यों को ज़िम्मेदार ठहराता है। यह काफी दिलचस्प बात है कि पहला व्यापक विलोपन, जो मनुष्य के अस्तित्व में आने से बहुत पहले हुआ था, वह भी उल्काओं की बौछार या ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण नहीं बल्कि जीवों के द्वारा ही हुआ था।

अपने शोध पत्र में लेखक – गेरार्डो सेबालोस, पॉल आर. एह्यलिच, रोडोल्फो दिर्ज़ो लिखते हैं कि “पिछले कुछ दशकों में, प्राकृतवासों की हानि, अतिदोहन, घुसपैठी जीव, प्रदूषण, विषाक्तता, और हाल ही में जलवायु की गड़बड़ी, तथा इन कारकों के बीच परस्पर क्रियाएं आम एवं दुर्लभ कशेरुकी आबादियों की संख्या और उनके आकार दोनों में भयावह गिरावट का कारण बनी है।” इसके अलावा, अध्ययन के अनुसार, पिछले सौ वर्षों में, “हमारे साथ पृथ्वी पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की 50 प्रतिशत संख्या खत्म हो चुकी है”, और इस तरह से जीवों की आबादी का ऐसा भयावह पतन इस ओर संकेत देता है कि छठा व्यापक विलोपन शुरू हो चुका है।

लेकिन इस व्यापक विलोपन के कारण यदि 75 प्रतिशत से अधिक जीव भी खत्म हो जाएं मनुष्य होने के नाते  हम क्यों परवाह करें? क्योंकि पारिस्थितिक तंत्र में विभिन्न जीव एक दूसरे पर निर्भर हैं, शृंखला प्रभाव की तरह मनुष्यों पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

उदाहरण के लिए, कीट-पतंगों को ही लीजिए। पर्यावरण कीटों की अनुपस्थिति के अनुकूल हो पाए यदि उससे पहले ही कीटों की हज़ारों प्रजातियां विलुप्त हो जाएं, तो पेड़ों की हज़ारों प्रजातियां भी गायब हो जाएंगी, क्योंकि पेड़ों की कई प्रजातियां परागण के लिए कीटों पर निर्भर होती हैं। अगर पेड़ गायब हो जाते हैं, तो मानव जाति के लिए यह मौत की दस्तक होगी। हमारी धरती की हवा गंदी और ज़हरीली तो होगी ही, पृथ्वी का तापमान कई डिग्री बढ़ जाएगा। भू-क्षरण की दर बढ़ेगी जिससे कृषि योग्य भूमि का नुकसान होगा। वर्षा गंभीर रूप से प्रभावित होगी, जिसके फलस्वरूप मीठे पानी के स्रोतों की गुणवत्ता पर भी असर होगा। निश्चित रूप से, मानव पर नकारात्मक वार होगा।

यह देखते हुए कि यह बड़े पैमाने का विलोपन मानव अस्तित्व के लिए एक वास्तविक खतरा साबित हो सकता है, यह काफी निराशाजनक है कि इस विलोपन के प्राथमिक कारण – यानी हम – इससे बेखबर हैं। इसकी ओर ध्यान न देने के दो कारण हैं।

पहला कारण है, औसतन हर साल गायब होने वाली दो प्रजातियां ऐसी होती हैं जो या तो हमारे लिए आकर्षक नहीं हैं (शेर की तरह आकर्षक नहीं हैं) या दुनिया के अलग-थलग कोनों में रहती हैं, इसलिए हम उस नुकसान को महसूस नहीं करते हैं।

उदाहरण के लिए, क्या आपने कैटरीना पपफिश का नाम सुना है? या क्रिसमस आइलैंड पिपिस्ट्रेल का? या पायरेनियन आइबेक्स का? हाल ही के दिनों में ये तीनों प्रजातियां हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी हैं, लेकिन हममें से कितने लोग इस तथ्य से अवगत हैं?

विलोपन के खतरे की सूचना से हमें अनभिज्ञ रखने वाला दूसरा कारण यह है कि पृथ्वी के वन्य जीवन के स्वास्थ्य का आकलन करने हेतु शोध अध्ययनों का पूरा ध्यान केवल ‘अंतिम बिंदु’ पर रहा है – यानी जीवों की प्रजातियों का पूरी तरह विलुप्त हो जाना। और वर्तमान अध्ययन यही बताता है कि ‘अंतिम बिंदु’ आधारित उन अध्ययनों ने व्यापक विलोपन के परिमाण को कम करके आंका है। अगले हिस्से में इस बात को विस्तार में स्पष्ट किया गया है।

तर्क को आगे बढ़ाने के लिए, एक जीव प्रजाति ‘X’ पर विचार करते हैं। यह जीव ‘X’ एशिया के पंद्रह अलग-अलग देशों में फैला हुआ है। दूसरे शब्दों में, इस जीव की ‘वैश्विक आबादी’ पंद्रह अलग-अलग देशों में फैली हुई ‘स्थानीय आबादियों’ से मिलकर बनी है। किसी भी देश में, इस जीव की स्थानीय आबादी में एक निश्चित संख्या में जीव होंगे; किसी अन्य देश में एक निश्चित संख्या की स्थानीय आबादी होगी, और इसी तरह सब देशों में अलग अलग स्थानीय आबादियां होंगी।

मान लीजिए, एक साल के बाद, पंद्रह स्थानीय आबादियों में से चौदह खत्म हो जाती हैं और केवल एक अंतिम स्थानीय आबादी बची रह जाती है।

ऐसे परिदृश्य में, अगर हम केवल ‘अंतिम बिंदु’ – यानी इस जीव प्रजाति का पूर्ण विलोपन – पर ध्यान केंद्रित करेंगे, तो हर साल हम जीव ‘X’ के सामने एक टिक मार्क लगाकर इसे ‘विलुप्त नहीं’ की श्रेणी में डाल देंगे क्योंकि एक स्थानीय आबादी तो बची हुई है।

‘विलुप्त’ या ‘विलुप्त नहीं’ का यह सख्त विभाजन जंगल में उपस्थित किसी प्रजाति के वास्तविक स्वास्थ्य को समझने का एक अपरिष्कृत तरीका है। इस मामले में, उदाहरण के लिए, केवल जीव ‘X’ को ‘विलुप्त नहीं’ के रूप में अंकित करके, हम जीव ‘X’ की सोचनीय स्थिति जैसी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने में विफल हो जाते हैं। इसकी स्थानीय आबादियों की संख्या में भारी गिरावट आई है। इस काल्पनिक परिदृश्य में यह संख्या 15 से घटकर एक तक आ पहुंची है। अर्थात व्यापक विलोपन को कम करके आंका जा रहा है।

इसलिए, वर्तमान अध्ययन के अनुसार, वर्तमान व्यापक विलोपन की घटना का सही अनुमान लगाने के लिए, यह ज़रूरी है कि प्रजातियों की स्थानीय आबादियों के विलुप्त होने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाए, न कि केवल वैश्विक विलुप्ति पर। कोई जीव जीवित है इसका मतलब यह नहीं कि वह फल-फूल रहा है।

पिछले सभी अध्ययनों में इसी दोषपूर्ण रास्ते को अपनाया गया है जिनमें केवल ‘अंतिम बिंदु’ पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। इस प्रकार ये अध्ययन इस गलतफहमी के शिकार हैं कि जैव विविधता के नुकसान का दौर शुरू ही हो रहा है, और मानव जाति के पास इसका मुकाबला करने के लिए कई दशकों का समय उपलब्ध है। विलुप्त होने की दर केवल दो जीव प्रति वर्ष ही तो है। लेकिन वर्तमान अध्ययन इसका ज़ोरदार विरोध करता है: “हम इस बात पर ज़ोर देते हैं कि छठा सामूहिक विलोपन शुरू हो चुका है और प्रभावी कार्रवाई के लिए वक्त बहुत कम है, शायद दो या तीन दशक।” शायद, इससे भी कम।

बेशक, यह कहना सही नहीं है कि मानव जाति कुछ दशकों के भीतर विलुप्त हो जाएगी; लेकिन अगर हमने अभी कार्य करना शुरू नहीं किया तो यह व्यापक विलोपन दो या तीन दशकों के भीतर अपरिवर्तनीय साबित होगा। नतीजतन, इसके साथ ही मानव जाति के विलोपन की संभावना शुरू हो जाएगी।  

इस तरह के मज़बूत दावे का समर्थन करने के लिए, यह अध्ययन एक नए दृष्टिकोण का अनुसरण करता है। पूर्व अध्ययनों के विपरीत, यह दो महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में रखता है जो ‘अंतिम बिंदु’ – अर्थात किसी जीव प्रजाति के संपूर्ण वैश्विक विलोपन – से ठीक पहले सामने आते हैं। पहला है, जैसा कि ऊपर कहा गया, पिछले सौ वर्षों में विभिन्न जीव प्रजातियों की स्थानीय आबादियों में कमी। दूसरा है, इसी अवधि में उनके भौगोलिक आवास में कमी। (नोट: इस अध्ययन के लिए, 27,600 कशेरुकी जीवों की स्थानीय आबादियों पर ध्यान दिया गया, जो दुनिया की कुल लगभग 87 लाख जीव प्रजातियों का एक छोटा-सा अंश है।)

अध्ययन बताता है कि पिछले सौ वर्षों में विभिन्न जानवरों की एक अरब स्थानीय आबादियां विलुप्त हो चुकी हैं। जी हां, एक अरब। इसका मतलब यह नहीं है कि दुनिया में एक अरब जीव प्रजातियां विश्व स्तर पर पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी हैं, बल्कि यह है कि विभिन्न प्रजातियों की कुल एक अरब स्थानीय आबादियां दुनिया के कुछ क्षेत्रों में हमेशा के लिए खत्म हो गई है, जबकि ये जीव अभी भी दुनिया के अन्य क्षेत्रों में मौजूद है। अर्थात, इन प्रजातियों का ‘स्थानीय’ विलोपन हुआ है।

उदाहरण के लिए, एक समय में एशियाई शेर की हज़ारों स्थानीय आबादियां पूरे भारत में पाई जाती थी। लेकिन समय के साथ, ये सभी स्थानीय आबादियां, अन्य जीवों की एक अरब स्थानीय आबादियों के साथ विलुप्त हो गर्इं। आज, एशियाई शेरों की अंतिम कुछेक स्थानीय आबादियां गुजरात में एक अलग-थलग भाग (गिर वन) में पाई जाती है। जब ये चंद अंतिम स्थानीय आबादियां विलुप्त हो जाएंगी, तो एशियाई शेर को ‘विश्व स्तर पर विलुप्त’ घोषित कर दिया जाएगा। तब यह विश्व में कहीं भी नहीं पाया जाएगा। 

अध्ययन एक और विचलित करने वाला तथ्य बताता है।

पिछले सौ वर्षों में, पृथ्वी की रीढ़धारी प्रजातियों में से 32 प्रतिशत की आबादी के आकार और भौगोलिक विस्तार में कमी आई है। अध्ययन में विश्लेषण किए गए सभी 177 स्तनधारियों ने अपने भौगोलिक क्षेत्रों का 30 प्रतिशत या उससे अधिक हिस्सा खो दिया है। और 40 प्रतिशत से अधिक प्रजातियों की सीमा 80 प्रतिशत से अधिक घट गई है। और तो और, जीवों की जिन प्रजातियां को ‘कम चिंता’ की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, वे भी इसी तरह के संकटों से पीड़ित हैं और लगातार ‘लुप्तप्राय’ श्रेणी की ओर बढ़ रही हैं।

“हमारा डैटा बताता है कि प्रजातियों के विलुप्त होने से परे, पृथ्वी स्थानीय आबादियों में गिरावट और विलुप्त होने की एक विशाल घटना का सामना कर रही है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य और सेवाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यह पारिस्थितिकी तंत्र सभ्यता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण होता है। अंतत: मानवता इस ब्राहृाण्ड में जीवन के एकमात्र समुच्चय के उन्मूलन की बहुत बड़ी कीमत चुकाएगी।”

इसलिए, भले ही विश्व स्तर पर हर साल ‘मात्र दो’ प्रजातियां विलुप्त हो रही हों, यह ‘मात्र दो’ की संख्या दुनिया भर में विभिन्न जीव प्रजातियों की सैकड़ों-हज़ारों स्थानीय आबादियों के कठोर और व्यापक विलोप का संकेत देती है। आखिरकार, इस तरह स्थानीय आबादियों और प्राकृतवासों का नुकसान कुछ ही समय में हज़ारों जीव प्रजातियों के वैश्विक विलोप का कारण बन जाएगा: जिसको व्यापक विलोपन कहते हैं।

तो, हम स्थानीय आबादियों के विलोपन की इस लहर का मुकाबला कैसे करें और छठे सामूहिक विलोपन को कैसे रोकें?

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए चाहें तो वन्य जीव संरक्षण कार्यक्रमों, लोक निकायों, राष्ट्रीय नीतियों, अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी वगैरह की बात कर सकते हैं। लेकिन इस सवाल का असली जवाब वह है जो हम – और हाई स्कूल का कोई भी छात्र – लंबे समय से जानते हैं। यह एक ऐसा जवाब है जिसे इतनी बार दोहराया गया है कि ऐसा लगता है कि इसकी धार बोथरी हो गई है: उपभोग में कमी करें, जनसंख्या पर लगाम कसें।

हालांकि, अध्ययन के नापसंद दावों को देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कई वैज्ञानिकों ने इसके निष्कर्षों पर सवाल उठाए हैं।

इन वैज्ञानिकों को लगता है कि यह अध्ययन फालतू में ‘भेड़िया आया, भेड़िया आया’ का शोर मचाने जैसा है, क्योंकि व्यापक विलुप्ति की घटनाओं के इरादे कहीं अधिक सख्त होते हैं। इन शंकालुओं का मानना है कि व्यापक विलुप्ति की घटनाएं लाखों वर्षों में सामने आती हैं। इसलिए यह मान लेना जल्दबाज़ी होगी कि पानी सिर से ऊपर जा चुका है। आखिरकार इस अध्ययन में मात्र पिछले 100 वर्षों में केवल रीढ़धारी जीवों की विलुप्ति की संख्या पर ही तो विचार किया गया है। यह अवधि पिछले बड़े पैमाने पर विलोपन घटनाओं की तुलना में पलक झपकाने जैसी है। कीटों और अन्य गैर-कशेरुकी जीवों का क्या? केवल 27,600 कशेरुकी जीवों पर ध्यान केंद्रित करके (जो कुल 87 लाख जीव प्रजातियों का अंश-मात्र है) यह अध्ययन व्यापक विलुप्ति की घटना की एक ऐसी तस्वीर खींचता है जो वास्तविकता से कहीं अधिक गंभीर और अतिरंजित बन गई है।

इसके अलावा, एक यह तर्क भी दिया जा सकता है कि विलोपन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए मनुष्य नामक प्राणि कोई न कोई समाधान खोज निकालेगा। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, यह ध्यान रखना समझदारी होगी कि जैविक व्यापक विलोपन की घटना अचानक होने वाली घटना नहीं है जो पूरी मानव जाति को एक झपट्टा मारकर समाप्त कर देगी। यह सही है कि ऐसी घटना के दौरान अल्पावधि में हज़ारों जीव प्रजातियां उच्च दर से विलुप्त हो जाती हैं, लेकिन यह अल्पावधि लाखों वर्षों में फैली होती है। यह लंबी अल्पावधि मनुष्य को पेड़ों में परागण के लिए रोबोट विकसित करने के लिए पर्याप्त हो सकती है। उसी तरह यदि विश्व के मत्स्य भंडार प्रभावित होते हैं, तो यह अल्पावधि कृत्रिम मांस तैयार करने के लिए काफी है। यहां तक कि ऐसी प्रौद्योगिकियों का निर्माण करने के लिए भी यह पर्याप्त समय हो सकता है, जिससे विलुप्त पेड़-पौधों की नकल कर वायुमंडलीय ऑक्सीजन और अन्य गैसों की निश्चित मात्रा को बरकरार रखा जा सके। तब तक, हम अन्य ग्रहों पर बस ही चुके होंगे। तो, व्यापक विलोपन का खतरा उतना बुरा नहीं हो सकता है जितना लगता है, कम से कम मनुष्यों के लिए तो नहीं।

फिर भी, यह अध्ययन दावा करता है कि अगर हम अभी, दो या तीन दशकों के अंदर, कार्रवाई नहीं करते हैं तो सामूहिक विलोपन स्थायी होगा। नतीजतन, स्थानीय आबादियों के विलुप्त होने की दर कैंसर की तरह बढ़ सकती है। इसके परिणामस्वरूप जैव विविधता में गिरावट आएगी और मानव अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।

लेकिन क्या जैव विविधता में गिरावट हमारे तकनीकी विकास को पछाड़ देगी? खतरे की घंटी बजाने से पहले इस सवाल पर विचार करना ज़रूरी है।

फिर भी, मैं कहना चाहूंगा कि हमने पिछले सौ वर्षों में 50 प्रतिशत कशेरुकी जीवों का सफाया तो कर दिया है, अगर अब कुछ नहीं किया गया तो हम जल्द ही बचे हुए 50 प्रतिशत को भी खो सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से, विलुप्त होने की गति को देखते हुए, मेरे मन में सवाल आता है कि क्या मानव के पास, प्रौद्योगिकी या अन्य माध्यम से, इसका सामना करने के लिए पर्याप्त समय होगा। इसके अलावा, जैव विविधता के नुकसान की ऐसी दर पहले हो चुकी विलोपन की घटनाओं से कहीं अधिक विनाशकारी साबित हो सकती है।

मेरे साथ बातचीत के दौरान अध्ययन के प्रमुख लेखक गेरार्डो सेबलोस ने कहा था कि ‘इससे यह और भी ज़रूरी हो जाता है। पिछले सभी व्यापक विलोपन की घटनाएं लाखों वर्षों में फैली हुई थीं, लेकिन वर्तमान व्यापक विलोपन केवल कुछ सौ वर्षों में फैला हुआ है!’

उन्होंने बात को जारी रखते हुए कहा: ‘और आप कितना संदेह करेंगे? मैं केवल दो वैज्ञानिकों को जानता हूं जो कहते हैं कि छठा व्यापक विलोपन कुछ नहीं है। अगर हम अगले दो या तीन दशकों के भीतर इस व्यापक विलोपन की घटना पर कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, तो हमारा विनाश निश्चित और पूर्ण होगा। वास्तव में, इस बात में क्या तुक है कि आप व्यापक विलोपन के और गंभीर होने की प्रतीक्षा करें ताकि आपको यकीन हो जाए कि व्यापक विलोपन सचमुच हो रहा है? उस समय तक कुछ भी करने का समय बीत चुका होगा। विलोपन की प्रतीक्षा करना और फिर कहना कि ‘अरे, यह तो वास्तव में हो गया’ बेकार है, क्योंकि तब तक हम जा चुके होंगे। हमको कोई कदम उठाना चाहिए। अभी।’ (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दृष्टिबाधितों की सेवा में विज्ञान – नवनीत कुमार गुप्ता

दृष्टिबाधितों को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दुनिया के लगभग चार करोड़ नेत्रहीनों में से डेढ़ करोड़ भारत में रहते हैं। दृष्टिहीन होने का तात्पर्य सामान्यतया देख सकने में पूरी तरह असमर्थता है। हालांकि दृष्टिहीनता में देख सकने की क्षमता के विभिन्न स्तर और कभी-कभी भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में शामिल होते हैं।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसे कार्य हो रहे हैं जो दृष्टिबाधितों के जीवन के लिए सहायक साबित हो रहे हैं। यहां दो ऐसी ही प्रौद्योगिकियों की चर्चा की जा रही है।

डॉटबुक

आधुनिक समय में दृष्टिबाधितों के समक्ष एक बड़ी चुनौती कंप्यूटर या लैपटॉप तथा उनके ज़रिए इंटरनेट जैसी सुविधाओं का इस्तेमाल करना है। दृष्टिबाधितों को ये सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए आई.आई.टी., दिल्ली ने कुछ अन्य संस्थाओं की मदद से भारत का पहला ब्रोल लैपटॉप (डॉटबुक) आरम्भ किया है। इस उपकरण में उभरे हुए डॉट के रूप में ब्रोल लिपि है।

दृष्टिबाधितों के सशक्तिकरण के लिए उनमें स्वयं सीखने की क्षमता विकसित करना आवश्यक है, जिसमें ब्रोल लिपि काफी मददगार है। डॉटबुक पढ़ने, लिखने, सुनने, ब्रााउज़ करने तथा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों का संपादन करने में सक्षम है। इसे लैपटॉप, कंप्यूटर, वेब, मोबाइल के तार, वाईफाई तथा ब्लूटूथ के साथ भी जोड़ा जा सकता है। डॉटबुक स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में लोगों को आवश्यक सामग्रियां उपलब्ध कराएगा। डॉटबुक  के द्वारा स्कूली छात्रों को डिजिटल रूप में नोट्स उपलब्ध होंगे। ब्रोल लिपि के ऑनलाइन रुाोेतों के द्वारा पुस्तकें भी डाउनलोड की जा सकती हैं।

टीम ने देश भर के 10 से अधिक स्थलों पर विभिन्न संगठनों के 200 उपयोगकर्ताओं के साथ इसका अध्ययन किया है। इसने ऐसे लोगों के लिए दुनिया के साथ आसान संचार का रास्ता खोल दिया है, जो ब्रोल लिपि में लिख-पढ़ सकते हैं।

दिव्य नयन

चंडीगढ़ स्थित सीएसआईआर के केंद्रीय वैज्ञानिक उपकरण संगठन द्वारा दिव्य नयन नामक एक उपकरण विकसित किया गया है जिसकी मदद से दृष्टिहीन व्यक्ति भी पढ़ सकेंगे। दिव्य नयन यानी हैंड-हेल्ड स्टेप स्कैनिंग डिवाइस (एचएचएसएस)। यह ‘बोलने वाली आंखों’ की तरह काम करता है।

एचएचएसएस एक हस्तधारित उपकरण है जिसमें कोई भी गतिशील पुर्जा नहीं है, जिससे यह काफी हल्का होता है और उपयोग के लिए आसान हो जाता है। यह किसी पुस्तक के आकार का एक फील्ड व्यू प्रदान करता है।

यह उपकरण स्टैंड अलोन, पोर्टेबल और पूरी तरह से तार रहित है और आईओटी सक्षम है। वर्तमान में यह हिंदी और अंग्रेज़ी में उपलब्ध है, लेकिन अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओं के लिए भी अनुकूल है। इस उपकरण में 32 जीबी का इंटरनल स्टोरेज है, यह वायरलेस कम्युनिकेशन फीचर से सुसज्जित है। विभिन्न संस्थानों और गैर सरकारी संगठनों में दिव्य नयन का सफल परीक्षण आयोजित किया गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक खोजी की अनोखी यात्रा – डॉ. अरविंद गुप्ते

7 जुलाई 2003 को एक खोजी 50 करोड़ किलोमीटर लम्बी यात्रा पर 20 हज़ार किलोमीटर प्रति घंटा की गति से चल पड़ा। यह यात्री कोई मनुष्य नहीं, अमेरिका द्वारा मंगल ग्रह की ओर भेजा गया यान अपॉर्चुनिटी (संक्षेप में ऑपी) था। साढ़े पांच महीनों की लम्बी यात्रा के दौरान ऑपी सोता रहा और जनवरी 2004 को वह अपने लक्ष्य के पास पहुंचा। फिर उसे भेजने वाले वैज्ञानिकों ने उसकी गति छह मिनटों में शून्य कर दी। इसके बाद वह तेज़ी से मंगल ग्रह पर गिरने लगा। किंतु इसके पहले कि वह लाल ग्रह से टकराता, उसके पैराशूट और झटकों से बचाने वाले एअर बैग खुल गए और वह मंगल की सतह पर आराम से उतर गया।

मंगल ग्रह पर उल्का पिंड टकराते रहते हैं और छोटे-बड़े गड्ढे बनते रहते हैं। ऐसे ही एक गड्ढे में उतरने के चार घंटे बाद ऑपी को नींद से जगाया गया। जब ऑपी ने अपनी आंखें खोली तब उसकी आंखों से दिख रहे दृश्य को देख वैज्ञानिक हैरान रह गए। उस गड्ढे की दीवार तलछटी चट्टानों से बनी थी। तलछटी चट्टानें केवल समुद्र जैसे बड़े जलाशयों में ही बनती हैं। पानी में निलंबित गाद पेंदे में बैठ जाती है और धीरे-धीरे चट्टानों में बदल जाती है। ऐसा नज़ारा पृथ्वी को छोड़ कहीं और नहीं देखा गया था। ऑपी ने उतरते ही सिक्सर लगा दिया था। वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला कि यह तलछट किसी खारे पानी के समुद्र के सूखने से बनी थी। किसी भी ग्रह-उपग्रह पर जीवन लायक परिस्थितियों की खोज इस बात पर निर्भर करती है कि क्या उस ग्रह पर पानी है या कभी था।

ऑपी को कुछ लक्ष्य दिए गए थे:

1. चट्टानों और मिट्टियों का परीक्षण करके यह पता लगाना कि क्या मंगल पर कभी पानी था?

2. उतरने के स्थान के आसपास की भूमि पर उपस्थित खनिजों, चट्टानों और मिट्टी का परीक्षण करके उनके संघटन का निर्धारण करना।

3. यह निर्धारित करना कि किन भूगर्भीय प्रक्रियाओं ने ग्रह की सतह को आकृति दी है और उसकी रासायनिक बनावट को प्रभावित किया है। इन प्रक्रियाओं में पानी या हवा से अपरदन, तलछटीकरण, ज्वालामुखीय गतिविधि आदि शामिल हैं।

4. मंगल ग्रह का चक्कर लगाने वाले उपग्रहों द्वारा किए गए अवलोकनों का सत्यापन करना।

5. लौह-युक्त खनिजों की खोज करना और ऐसे विशिष्ट खनिजों की पहचान करके उनकी मात्रा का निर्धारण करना जिनमें पानी हो सकता है या जो पानी में बने थे, जैसे लौह के कार्बन-युक्त यौगिक।

6. चट्टानों और मिट्टियों का परीक्षण करके यह पता करना कि उनका निर्माण किन प्रक्रियाओं से हुआ था।

7. उन भूगर्भिक संकेतों को खोजना जिनसे यह पता चले कि जब मंगल ग्रह पर पानी था तब पर्यावरणीय परिस्थितियां कैसी थीं और यह मूल्यांकन करना कि क्या वे परिस्थितियां जीवन के लिए अनुकूल थीं।

ऑपी से 20 दिन पहले अमेरिका का दूसरा खोजी यान (स्पिरिट) मंगल ग्रह की दूसरी बाजू पर उतर चुका था, किंतु यहां हम केवल ऑपी की ही चर्चा करेंगे। उपरोक्त भारी-भरकम कार्य के लिए ऑपी को केवल 90 सोल यानी पृथ्वी के लगभग 3 माह का समय दिया गया था। (मंगल ग्रह का एक दिन पृथ्वी के 24 घंटे और 40 मिनिट के बराबर होता है और इसे सोल कहते हैं।)

पहले लगभग दो महीनों तक (56 सोल) ऑपी उतरने की जगह के आसपास ही घूमता रहा। उसने अपने कई कैमरों से लगातार फोटो लिए, एक बरमे से ज़मीन में छेद किए, एक पहिए को ज़मीन पर रगड़ कर नाली खोद डाली और विभिन्न खनिजों के वर्णक्रमों का मापन किया।

57वें सोल पर ऑपी अपने गड्ढे से बाहर निकला और एक किलोमीटर दूर दूसरे, अधिक गहरे गड्ढे की ओर चल पड़ा। बड़े गड्ढे में उतरने के बाद उसने और खोजबीन की। इसके बाद ऑपी को निर्देश दिया गया कि वह उस गड्ढे की खोजबीन करे जो स्वयं उसके उष्णतारोधी आवरण के गिरने की वजह से बना था। इस आवरण ने उसे मंगल पर उतरते समय जल जाने से बचाया था। रास्ते में उसे एक उल्कापिंड मिल गया जो निश्चित रूप से किसी अन्य ग्रह से आ कर या अंतरिक्ष में अकेले भटकते हुए मंगल से टकरा गया था। फिर ऑपी ने मंगल के कई चंद्रमाओं में से एक (फोबोस) का फोटो खींचा।

सोल 946 पर ऑपी विक्टोरिया नामक विशाल गड्ढे के पास पहुंचा। ऑपी को इस यात्रा में कई संकटों का सामना करना पड़ा। एक बार वह रेत में फंस गया। कई सोल बाद वह मुश्किल से निकल पाया। फिर उसे मोड़ने वाली मोटरों में से एक खराब हो गई। उसके हाथ के जोड़ ने काम करना बंद कर दिया। फिर विक्टोरिया गड्ढे में उसे भयंकर तूफान का सामना करना पड़ा जिसके चलते उसके सौर पैनल मिट्टी से ढंक गए और पृथ्वी तथा सूर्य से उसका सम्पर्क कट गया। किंतु फिर एक ऐसा तूफान आया जिसने पैनलों पर जमी मिट्टी को उड़ा दिया। अब ऑपी को सौर ऊर्जा मिलने लगी और वह फिर चल पड़ा। आगे जाने पर ऑपी को एक घाटी दिखाई दी जिसके तल की ओर उतरते समय एक और तूफान आया और ऑपी के सौर पैनल फिर मिट्टी से ढंक गए और उसका पृथ्वी और सूर्य से सम्पर्क टूट गया। इस बार वैज्ञानिकों की लाख कोशिशों के बावजूद पैनलों से मिट्टी हटाई नहीं जा सकी और 12 फरवरी 2019 को अंतत: ऑपी को मृत घोषित कर दिया गया।

इस प्रकार, वैज्ञानिकों द्वारा जीवन की अवधि केवल 90 सोल माने जाने के बावजूद यह बहादुर यंत्र 5111 सोल (पंद्रह वर्ष से अधिक) तक जीवित रहा और मंगल ग्रह की और आगे होने वाली खोजों के लिए मज़बूत नींव रखकर हमेशा के लिए सो गया। (स्रोत फीचर्स)

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क्षुद्रग्रह रीयूगू पर विस्फोटक गिराया

पिछले वर्ष, अंतरिक्ष खोजी यान हयाबुसा-2 ने क्षुद्रग्रह रीयूगू पर गोली से हमला करने जैसे कई अतिरंजित जांच की हैं। लेकिन हाल ही में अब तक की सबसे साहसी आतिशबाज़ी का प्रदर्शन किया गया है। इस खोजी यान ने क्षुद्रग्रह की सतह पर एक छोटा गड्ढा बनाने के लिए विस्फोटक गिराया है।

मिशन से जुड़ी टीम ने अभी तक विस्फोट की पुष्टि नहीं की है। यदि यह कामयाब रहा तो यह क्षुद्रग्रह की कुछ अंदरुनी परतों को उजागर करेगा जिसको खोजी यान उतरने के बाद एकत्रित करेगा। यह कार्यवाही 5 अप्रैल, 2019 को अंजाम दी गई। खोजी यान ने क्षुद्रग्रह की सतह से 500 मीटर ऊपर पहुंचकर एक विस्फोटक गिराया गया। फिर थोड़ा ऊपर जाने के बाद एक उपकरण की मदद से कैमरा भी गिराया गया।

सगामिहारा स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस एंड एस्ट्रोनॉटिकल साइंस (आईएसएएस) के इंजीनियर ओसामु मोरी के अनुसार विस्फोटक गिराने वाला प्रयोग थोड़ा अलग था। रीयूगू के कमज़ोर गुरुत्वाकर्षण के कारण बम को सतह तक पहुंचने में लगभग 40 मिनट लगे। इसी बीच अंतरिक्ष यान क्षुद्रग्रह के पीछे एक सुरक्षित क्षेत्र में पहुंच गया। इस तरह विस्फोट के कारण यान को नुकसान नहीं पहुंचा। एक कैमरा अभी भी लक्षित जगह के ऊपर स्थित है जो तस्वीरें मुख्य यान को भेजेगा जिनसे पुष्टि की जा सकेगी कि विस्फोट से कितना बड़ा गड्ढा बना है। इस प्रयोग से खगोलविदों को क्षुद्रग्रह की सतह के नीचे की सामग्री का अध्ययन करने का अवसर मिलेगा जिससे सौर मंडल के शुरुआती समय की जानकारी मिल सकती है।

आने वाले हफ्तों में खोजी यान थोड़ी ऊंचाई से गड्ढे की तस्वीरें लेगा। इसके बाद यान को आगे की जांच के लिए गड्ढे में उतारकर नमूना एकत्र किया जाएगा। यह रियूगू से एकत्र किया गया दूसरा नमूना होगा। इससे पहले यान ने एक गोली से हमला करके थोड़ा मलबा एकत्रित किया था।

हयाबुसा-2 वर्ष 2014 के अंत में पृथ्वी से रवाना होकर जून 2018 में रियूगू पहुंचा। सितंबर और अक्टूबर में दो अलग-अलग चरणों में, इसने सतह पर तीन छोटी-छोटी जांच कीं। हयाबुसा का 2019 के अंत से पहले पृथ्वी पर वापस लौटना निर्धारित है। एक साल बाद, फिर से एक प्रवेश कैप्सूल प्रयोगशाला में अध्ययन हेतु नमूने लेगा।

अंतरिक्ष एजेंसियां पहले भी ऐसे प्रयोग कर चुकी हैं। 2005 में, नासा के डीप इम्पैक्ट मिशन ने टेम्पल 1 नामक धूमकेतु पर उच्च गति पर एक टक्कर करवाई थी। चांद की सतह पर टक्कर करवाई गई हैं और उनके प्रभावों का अध्ययन किया गया है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या बिल्लियां अपना नाम पहचानती हैं?

बिल्लियां इंसानों के प्रति थोड़े उदासीन स्वाभाव के लिए जानी जाती हैं। कई बिल्लियों के मालिकों को लगता है कि जब वे उन्हें पुकारते हैं तो वे प्रतिक्रिया नहीं देती। लेकिन हाल ही में साइंटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित अध्ययन कहता है कि पालतू बिल्लियां अपना नाम पहचानती हैं और पुकारे जाने पर अपना सिर घुमाकर या कान खड़े कर उस पर प्रतिक्रिया भी देती हैं।

बिल्लियां अपना नाम पहचानती हैं या नहीं? यह जानने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ टोक्यो के अत्सुतो साइतो और उनके साथियों ने जानवरों के व्यवहार के अध्ययन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक (हैबीचुएशन-डिसहैबीचुएशन) की मदद से बिल्लियों पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने घरेलू पालतू बिल्लियों (फेलिस कैटस) के मालिकों से बिल्लियों के नाम से मिलती-जुलती और उतनी ही लंबी 4 संज्ञाएं पुकारने को कहा। अंत में मालिकों को बिल्ली का नाम पुकारना था।

शोधकर्ताओं ने संज्ञाओं के पुकारे जाने पर बिल्लियों की प्रतिक्रिया का बारीकी से अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि पहली संज्ञा पुकारे जाने पर बिल्लियों ने अपना सिर या कान घुमाकर थोड़ी-सी प्रतिक्रिया दिखाई थी लेकिन चौथी संज्ञा आते-आते बिल्लियों की प्रतिक्रिया में कमी आई थी। और जब पांचवी बार बिल्लियों का अपना नाम पुकारा गया तब 11 में से 9 बिल्लियों की प्रतिक्रिया फिर से बढ़ गई थी।

लेकिन सिर्फ इतने से साबित नहीं होता कि वे अपना नाम पहचानती हैं। अपने नाम के प्रति प्रतिक्रिया देने के पीछे एक संभावना यह भी हो सकती है कि अन्य पुकारे गए शब्दों (नामों) की तुलना में उनके नाम वाला शब्द ज़्यादा जाना-पहचाना था। इस संभावना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने एक और प्रयोग किया। इस बार उन्होंने उन बिल्लियों के साथ अध्ययन किया जहां एक घर में पांच या उससे ज़्यादा पालतू बिल्लियां थीं। बिल्लियों के मालिकों को शुरुआती 4 नाम अन्य साथी बिल्लियों के पुकारने थे और आखिरी नाम बिल्ली का पुकारना था।

शोधकर्ताओं ने पाया कि आखिरी नाम पुकारे जाने तक 24 में से सिर्फ 6 बिल्लियों की प्रतिक्रिया में क्रमिक कमी आई थी, अन्य बिल्लियां सभी नामों के प्रति सचेत रहीं। इस परिणाम से लगता है कि बिल्लियां जाने-पहचाने नामों (शब्दों) के साथ कोई अर्थ या इनाम मिलने की संभावना देखती हैं इसलिए सचेत रहती हैं। लेकिन अध्ययन में जिन 6 बिल्लियों ने अन्य नामों के प्रति उदासीनता दिखाई उन्होंने अपना नाम पुकारे जाने पर अत्यंत सशक्त प्रतिक्रिया दी। इससे लगता है कि कुछ बिल्लियां अपने नाम और अन्य नामों के बीच अंतर कर पाती हैं।

इस बात की पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने कैट कैफे की बिल्लियों के साथ एक और अध्ययन किया, जहां लोग आकर बिल्लियों के साथ वक्त बिताते हैं। इस अध्ययन में बिल्लियों ने अपने नाम के प्रति अधिक प्रतिक्रिया दिखाई। इन सभी अध्ययनों के परिणामों के मिले-जुले विश्लेषण से लगता है कि बिल्लियों के लिए उनका अपना नाम उनके लिए कुछ महत्व रखता है।

युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल के जॉन ब्रेडशॉ का कहना है कि बिल्लियां कुत्तों की तरह सीखने में माहिर होती हैं। लेकिन उन्होंने जो सीखा उसका वे प्रदर्शन नहीं करती। (स्रोत फीचर्स)

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कृत्रिम बुद्धि के लिए पुरस्कार

र्ष 2018 का ट्यूरिंग पुरस्कार तीन शोधकर्ताओं को संयुक्त रूप से दिया गया है। ये वे शोधकर्ता हैं जिन्होंने कृत्रिम बुद्धि (एआई) की वर्तमान प्रगति की बुनियाद तैयार की थी। गौरतलब है कि ट्यूरिंग पुरस्कार को कंप्यूटिंग का नोबेल पुरस्कार माना जाता है। एआई के पितामह कहे जाने वाले योशुआ बेन्जिओ, जेफ्री हिंटन और यान लेकुन को यह पुरस्कार एआई के एक उपक्षेत्र डीप लर्निंग के विकास के लिए दिया गया है। इन तीनों द्वारा बीसवीं सदी के अंतिम और इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में ऐसी तकनीकें विकसित की गई हैं जिनकी मदद से कंप्यूटर दृष्टि और वाणी पहचान जैसी उपलब्धियां संभव हुई हैं। इन्हीं के द्वारा विकसित तकनीकें ड्राइवर-रहित कारों और स्व-चालित चिकित्सकीय निदान के मूल में भी हैं।

हिंटन अपना समय गूगल और टोरोंटो विश्वविद्यालय को देते हैं, बेन्जिओ मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और लेकुन फेसबुक के एआई वैज्ञानिक हैं तथा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। इन तीनों ने उस समय काम किया जब एआई के क्षेत्र में ठहराव आया हुआ था। तीनों ने खास तौर से ऐसे कंप्यूटर प्रोग्राम्स पर ध्यान केंद्रित किया जिन्हें न्यूरल नेटवर्क कहते हैं। ये ऐसे कंप्यूटर प्रोग्राम होते हैं जो डिजिटल न्यूरॉन्स को जोड़कर बनते हैं। वर्तमान एआई की बुनियाद के ये प्रमुख अंश हैं। इन तीनों शोधकर्ताओं ने दर्शाया था कि न्यूरल नेटवर्क अक्षर पहचान जैसे कार्य कर सकते हैं।

तीनों शोधकर्ताओं का ख्याल है कि एआई का भविष्य काफी आशाओं से भरा है। उनका कहना है कि शायद मनुष्य के स्तर की बुद्धि तो विकसित नहीं हो पाएगी लेकिन कृत्रिम बुद्धि मनुष्य के कई काम संभालने लगेगी। (स्रोत फीचर्स)

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हिमनद झील के फूटने के अनुमान की तकनीक

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु के वैज्ञानिकों ने हिमनद झीलों के फैलने और फूटने की भविष्यवाणी करने की एक नई तकनीक विकसित की है। वास्तव में हिमनद झीलें तब बनती हैं जब हिमनद खिसकने से खोखली जगहों में बर्फ के बड़े जमाव रह जाते हैं जिनके पिघलने से झीलों का निर्माण होता है।

अध्ययन के लिए सिक्किम की सबसे बड़ी झील, दक्षिण ल्होनाक झील, पर इस नई तकनीक को लागू किया गया। वैसे तो यह झील पहले से ही संभावित खतरे की श्रेणी में है और इस तकनीक के उपयोग से इस बात कि पुष्टि भी हो गई। नेचर इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज के वैज्ञानिक रेम्या नंबूदिरी ने सिक्किम स्टेट काउंसिल ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के साथ किए गए अध्ययन में बताया कि इस झील का आकार तेज़ी से बढ़ रहा है जो आने वाले संभावित खतरे की ओर इशारा करता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 51.4 मीटर गहरी झील का आयतन 2015 में लगभग 6 करोड़ क्यूबिक मीटर था जो बढ़कर 9 करोड़ क्यूबिक मीटर होने की संभावना है। यदि यह झील फूट गई तो इतनी बड़ी मात्रा में पानी के अचानक बहाव से निचले इलाके में खतरनाक हालात बन सकते हैं। पूर्व में हिमालयी क्षेत्र में कई बार प्रलय की स्थिति बन चुकी है। जैसे 1926 का जम्मू-कश्मीर जलप्रलय, 1981 में किन्नौर घाटी, हिमाचल प्रदेश में बाढ़ और 2013 में केदारनाथ, उत्तराखंड का प्रकोप।

हिमनद में छिपी इन झीलों पर उपग्रहों की मदद से लगातार नज़र रखी जा रही है। किंतु रिमोट सेंसिंग से न तो झीलों की गहराई का पता लगाया जा सकता है और न ही आपदा के संभावित समय का, इसलिए शोधकर्ताओं ने झीलों के आयतन और उसके विस्तार का अनुमान और असुरक्षित स्थानों की पहचान करने के लिए हिमनद की सतह का वेग, ढलान और बर्फ के प्रवाह जैसे मापदंडों का उपयोग करते हुए एक तकनीक विकसित की है।

उन्होंने इस क्षेत्र में नौ अन्य हिमनद झीलों और तीन स्थलों का भी चित्रण किया है जहां भविष्य में नई झीलें बन सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसार, इस तकनीक का उपयोग हिमालय के अन्य हिमनदों की निगरानी के लिए भी किया जा सकता है ताकि लोगों को अचानक आने वाली बाढ़ के बारे में पहले से  चेतावनी दी जा सके। फिलहाल तो भारत के पास हिमनद झील के फूटने की कोई चेतावनी प्रणाली नहीं है लेकिन इस तकनीक की मदद से प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली को एक ऐसे मॉडल के साथ जोड़ा जा सकता है जो आकस्मिक बाढ़ के आगमन के समय की भविष्यवाणी करने में सक्षम हो। (स्रोत फीचर्स)

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