जॉर्ज फ्लॉयड की शव परीक्षा की राजनीति

25 मई मिनीपोलिस पुलिस ने जॉर्ज फ्लॉयड नाम के एक अश्वेत अमरीकी को धर दबोचा और एक पुलिसकर्मी डेरेक चाउविन ने जॉर्ज की गरदन पर लगभग 9 मिनट तक अपना घुटना बलपूर्वक रखे रखा, जिससे जॉर्ज की मौत हो गई। पुलिस द्वारा की गई इस हत्या को लोगों ने खुद अपनी आंखों से देखा और इसका वीडियो वायरल हुआ।

लेकिन जॉर्ज फ्लॉयड की प्रारंभिक शव परीक्षा रिपोर्ट के बारे में पूरी दुनिया के लोगों को इस तरह जानकारी दी गई कि उन्हें लगे कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं देखा था और उनमें खुद पर संशय पैदा हो जाए।

इस तरह किसी व्यक्ति की बातों, अनुभवों, और फैसलों को झुठलाकर, अपने आप पर संशय पैदा करके आत्मविश्वास या समझ में कमी लाने या उसका मनौविज्ञान बदल देने को गैसलाइटिंग कहते हैं। गैसलाइटिंग एक तरह का भावनात्मक खिलवाड़ है। गैसलाइटिंग शब्द 1938 के नाटक, और उसके बाद आई एक फिल्म से आया है, जिसमें एक वहशी पति अपनी पत्नी को पागलखाने भेजने के लिए एक साज़िश रचता है। वह अपने घर में गैसलाइट की रोशनी कम कर देता है, और जब उसकी पत्नी रोशनी कम होने की बात कहती है तो वह जानबूझकर उसकी बात से इन्कार कर देता है, फिर इसे उसके पागलपन के सबूत के तौर पर उपयोग करता है।

अमेरिका में व्याप्त अश्वेत-विरोधी हिंसा को सुनियोजित गैसलाइटिंग की तरह देखा जा रहा है। जब आवासीय योजनाओं का ऋण ना चुकाने पर किसी अश्वेत के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है तो उनकी साख को ढाल बनाकर सफाई पेश की जाती है; जब अश्वेत युवाओं को अकारण रोककर खानातलाशी की जाती है तो कहा जाता है कि पूरी प्रक्रिया रैंडम है और कहा जाता है कि यह उनकी सुरक्षा के लिए ही किया जा रहा है।

और, जब पुलिस द्वारा अश्वेत लोगों की हत्या की जाती है तो उनके चरित्र, और यहां तक कि उनकी शारीरिक बनावट को ज़िम्मेदार ठहराकर, हत्यारों को रिहा कर दिया जाता है। राज्य-स्तरीय मृत्यु प्रमाण पत्र के राष्ट्रीय डैटाबेस के एक विश्लेषण में पाया गया था कि कानून के अनुपालन में की गई हत्याओं में से आधी से भी कम हत्याएं दर्ज की जाती हैं। इसके अलावा, पुलिस द्वारा की गई बर्बरता से हुई मौत के वास्तविक कारण की बजाय कहा जाता है कि मृत्यु ‘दुर्घटनावश’ या ‘अज्ञात’ कारण से हुई। जबकि मौत का वास्तविक कारण नस्लवाद होता है।

जॉर्ज के मामले में भी 29 मई को लोगों से कहा गया कि जॉर्ज की शव परीक्षा में ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है जो यह बताती हो कि मृत्यु दम घुटने की वजह से हुई, और कहा गया कि मृत्यु नशे और पहले से मौजूद दिल की बीमारी से हुई है। यहां स्पष्ट कर दें कि ये कारण ऑटोप्सी करने वाले चिकित्सक ने नहीं दिए थे बल्कि चिकित्सकीय जानकारी की राजनैतिक व्याख्या करने वाले आरोप पत्र के हैं।

मानक चिकित्सीय जांच के तहत फ्लॉयड के स्वास्थ्य और शरीर में विष की उपस्थिति की जांच भी की गई थी। ये सामान्य परीक्षण हैं जो मृत्यु के कारण के बारे में नहीं बताते लेकिन फिर भी सुर्खियों में बने हुए हैं। आरोप पत्र में फ्लॉयड की मृत्यु के लिए उसे रही ह्रदय-धमनी रोग की दिक्कत और उच्च रक्तचाप की समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था, जो वास्तव में लंबी अवधि में स्ट्रोक और दिल का दौरा पड़ने के जोखिम को बढ़ाती है ना कि कुछ मिनटों में। अन्य चिकित्सक बताते हैं कि एस्फिक्सिया – यानी घुटन – में हमेशा शरीर परसंकेत दिखाई पड़ें, ऐसा ज़रूरी नहीं है।

इस तरह लोगों के सामने मृत्यु के वास्तविक कारणों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया, और उन्हें इसे आंखों देखी हत्या के साथ सामंजस्य बैठाने छोड़ दिया गया। रिपोर्ट में जॉर्ज की पुरानी बीमारियों की भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया, नशीले पदार्थों के बारे में अनावश्यक ज़िक्र किया गया लेकिन यह साफ तौर पर नहीं कहा गया कि यदि उस दिन पुलिस वाला जॉर्ज की गर्दन को घुटने से दबाकर न रखता तो जॉर्ज जीवित होता।

अलबत्ता, राजनैतिक दबाव के चलते, 1 जून को लोगों के सामने जॉर्ज की शव परीक्षा की दो रिपोर्ट आर्इं। एक उस शव परीक्षा की रिपोर्ट थी जो जॉर्ज के परिवार ने एक निजी चिकित्सक से करवाई थी। दूसरी रिपोर्ट सरकारी थी। दोनों में ही इसे हत्या बताया गया था।

स्पष्ट है कि आरोप पत्र में मृत्यु के कारणों के बारे में भ्रम पैदा किया गया और लोगों को अपनी आंखों देखी वास्तविकता पर संदेह करने को उकसाया गया। उसमें अश्वेत लोगों के प्रति व्याप्त धारणाओं को पुष्ट करने की कोशिश की गई।

चिकित्सा विज्ञान लंबे समय से पीड़ितों की बजाय सत्ताधारी उत्पीड़कों के पक्ष में उपयोग किया जाता रहा है। अश्वेत मांओं की प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है, और कोविड-19 की वजह से मरने वालों में अश्वेत अमरीकियों की अधिक संख्या के लिए उनके हार्मोन रिसेप्टर्स या थक्का जमाने वाले कारक में अंतर को दोष दिया जा रहा है।

चिकित्सकों को ध्यान रखना चाहिए कि चिकित्सा विज्ञान कभी वस्तुनिष्ठ नहीं रहा है। इस पर हमेशा सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी प्रभाव रहा है और रहेगा। आपराधिक न्यायिक मामलों को चिकित्सकीय जांच नियंत्रित करती है; ज़हर के बारे में पड़ताल रोगी की आजीविका पर प्रभाव डालती है; दूसरी ओर, ठीक तरह से किए जाएं तो वैज्ञानिक परीक्षण लिंगभेदी और नस्लवादी रूढ़ियों को खत्म कर सकते हैं।

चिकित्सा का क्षेत्र गैसलाइटिंग के लिए एक योग्य जगह है। सफेद कोट और स्टेथोस्कोप की कथित ताकत और वैधता की आड़ में निदान और निष्कर्ष में वास्तविकता को छुपाने की ताकत है। यह बात जॉर्ज के मामले में स्पष्ट नज़र आई है।

ज़रूरत है कि चिकित्सक इस पर आवाज़ उठाने के लिए प्रतिबद्ध हों।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वास्थ्य क्षेत्र की व्यापक चुनौतियां – भारत डोगरा

हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने अस्पतालों को विशेष निर्देश दिए कि गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों के समुचित इलाज की व्यवस्था इन दिनों भी बनाए रखी जाए और उसमें कोई कमी न आए। उनके इस निर्देश को इस संदर्भ में देखना चाहिए कि देश के विभिन्न भागों से कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड मरीज़ों की बढ़ती समस्याओं के समाचार प्राप्त हो रहे हैं।

इतना ही नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी दिशानिर्देश जारी किए थे कि सभी देशों में कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड स्वास्थ्य समस्याओं व बीमारियों के इलाज के लिए सुचारु व्यवस्था बनाए रखना कितना ज़रूरी है। चेतावनी के तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह भी बताया कि 2014-15 के एबोला प्रकोप के दौरान पश्चिम अफ्रीका में जब पूरा स्वास्थ्य तंत्र एबोला का सामना करने में लगा था तो खसरा, मलेरिया, एचआईवी और तपेदिक से मौतों में इतनी वृद्धि हुई कि इन चार बीमारियों से होने वाली अतिरिक्त मौतें एबोला से भी अधिक थीं। अत: यदि गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों की उपेक्षा हुई तो यह बहुत महंगा पड़ सकता है।

यदि हम आंकड़े देखें तो, जब से भारत में कोविड-19 की मौतों का सिलसिला शुरू हुआ तब से लेकर 1 जून तक कोविड-19 से लगभग 93 दिनों में 5500 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में तो कोविड-19 से प्रतिदिन औसतन 60 मौत हुर्इं। इसी दौरान अन्य कारणों से प्रतिदिन औसतन लगभग 27,000 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में इन मौतों की तुलना में कोविड-19 मौतें मात्र 0.2 प्रतिशत हैं। इन आंकड़ों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र की अन्य गंभीर समस्याओं पर समुचित ध्यान देते रहना कितना ज़रूरी है।

आज विश्व स्तर पर जो स्थिति है उसमें गैर-कोविड मरीज़ों की समस्याएं अनेक कारणों से बढ़ सकती हैं।

आजीविका अस्त-व्यस्त होने की समस्याओं के बीच कई मरीज़ों के पास सामान्य समय की तुलना में नकदी की अत्यधिक कमी है। सामान्य समय में दोस्त व रिश्तेदार प्राय: सहायता के लिए आपातकाल में एकत्र हो जाते थे पर अब लॉकडाउन के समय ऐसा संभव नहीं है।

आपातकालीन स्थिति में अस्पताल जाने के लिए किसी परिवहन के मिलने में लॉकडाउन के समय बहुत कठिनाई होती है और कर्फ्यू या लॉकडाउन पास बनवाने में अच्छा खासा समय लगता है। अब अगर जैसे-तैसे गैर-कोविड मरीज़ अस्पताल पहुंच भी जाता है तो कई बार पता लगता है कि कोविड-19 की प्राथमिकताओं के बीच अन्य स्वास्थ्य सेवाएं आधी-अधूरी हैं या चालू ही नहीं हैं। यहां तक कि कुछ गंभीर मरीज़ों को कोविड प्राथमिकताओं के कारण उपचार के बीच ही अस्पताल छोड़ने को कहा जाता है। कई मरीज़ों की गंभीर सर्जरी को या अन्य चिकित्सा प्रक्रियाओं को स्थगित कर दिया जाता है। निर्धनता, बेरोज़गारी, भूख एवं कुपोषण ने बीमार पड़ने की संभावना को वैसे ही और बढ़ा दिया है।

नौकरी खोने, अनिश्चित भविष्य, बढ़ती निर्धनता और भूख व साथ ही अपने दोस्तों व रिश्तेदारों से संपर्क न होने की स्थिति में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं और इसके कारण अन्य बीमारियों की संभावना बहुत बढ़ जाती है। ऐसी स्थितियों में हिंसक व्यवहार व आत्महत्या करने के प्रयास की संभावना भी बढ़ जाती है।

कुछ स्थानों पर आवश्यक जीवन रक्षक दवाइयों और चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति की शृंखला टूट जाती है। यहां तक कि जब दवाओं की ऐसी गंभीर कमी नहीं होती तब भी स्थानीय स्तर पर, विशेषकर दूर-दराज गांवों में मरीज़ों को दवाएं और चिकित्सा साज-सामान नहीं मिलते हैं।

कुछ अस्पतालों में बाह्य रोगी विभागों (ओपीडी) के बंद हो जाने के कारण गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित रोगियों को समय पर रोगों के निदान एवं उपचार मिलने की संभावना भी कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त ब्लड बैंक में रक्त व रक्त दाताओं की कमी भी लॉकडाउन के कारण हो जाती है। लॉकडाउन के चलते प्रवासी मज़दूर परिवारों को बच्चों सहित दूर-दूर तक पैदल जाने की मजबूरी हुई। इस कारण उनमें स्वास्थ्य समस्याओं के बढ़ने की संभावना अधिक है।

इन समस्याओं से स्पष्ट है कि गैर-कोविड मरीज़ों पर ध्यान देना कितना ज़रूरी है। साथ में इस ओर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि अस्पतालों, डाक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा इस व्यापक ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए अनुकूल संसाधन और सुविधाएं बढ़ाना भी आवश्यक है। सामान्य समय में भी देश के अनेक भागों में स्वास्थ्य का ढांचा कमज़ोर होने के कारण गंभीर मरीज़ों को अनेक कठिनाइयां आती रही हैं जो कोविड के दौर में तो निश्चय ही बढ़ गई हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी और गणित – दीपक थानवी

कोरोना वायरस महामारी से पूरा विश्व प्रभावित हो चुका है। इस अभूतपूर्व आपदा से निपटने के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान दे रहा है। स्वास्थ्यकर्मियों, प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों से लेकर घर में बंद सामान्य व्यक्ति तक। गैर-सरकारी संस्थाएं और समाजसेवी भी अपने स्तर पर नागरिकों की सेवा कर रहे हैं। दूसरी ओर वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी संस्थाएं इस महामारी को समझने की कोशिश कर रही हैं। वे परीक्षण करने की मानक विधि को लगातार विकसित कर रही हैं और मरीज़ों के उपचार के लिए दवा-टीके की खोज भी कर रही हैं।

अभी एक महत्त्वपूर्ण काम महामारी से प्रभावित होने वाले भविष्य का विश्लेषण करना है। और यह संभव हो पाता है गणित की मदद से। इतिहास गवाह है कि आपदाओं से निपटने में गणित ने एक साधन की भूमिका निभाई है। गणितीय सिद्धान्तों को कंप्यूटर मॉडल में उपयोग किया जाता है। फिर कंप्यूटर मॉडल इन सिद्धान्तों की सहायता से डैटा पर कार्य करता है और परिणाम देता है। इन मॉडल्स को गणितीय मॉडल्स भी कहा जाता है।

वैज्ञानिक अलग-अलग समस्याओं के लिए अलग-अलग गणितीय मॉडल्स का उपयोग करते हैं। इन गणितीय मॉडल्स का उपयोग महामारी से सम्बंधित जानकारी पता करने के लिए होता है। जैसे – किसी देश, क्षेत्र या शहर में महामारी से संक्रमित होने वाले मरीज़ों की संख्या कितनी हो सकती है? बदतर स्थिति में कितने आईसीयू बिस्तर और वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ सकती है? और कब हमारा स्वास्थ्य-तंत्र नाकाम होने लगेगा?

कोरोना वायरस महामारी से संक्रमित मरीज़ों की संख्या बहुत ही तेज़ी से बढ़ रही है। सभी देश संक्रमण की वृद्धि दर को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। इस महामारी से लड़ने के लिए सभी देश अलग-अलग गणितीय मॉडल्स की सहायता ले रहे हैं। एक ही महामारी से लड़ने के लिए इतने सारे मॉडल्स होने के कई कारण हैं। मॉडल डैटा के आधार पर काम करता है। जनसंख्या, संक्रमित मरीज़ों की संख्या, ठीक हो चुके मरीज़ों की संख्या, संक्रमण दर आदि सभी कारक हर देश के लिए समान नहीं हो सकते हैं। अत: हर देश का अपना डैटा व मॉडल होता है।

इन सारे मॉडल्स का आधार एसआईआर (SIR) मॉडल है। इस मॉडल को करमैक और मैक्केन्ड्रिक ने स्थापित किया था। 1920 के दशक में, दोनों ने देखा कि किसी संक्रमण के संपर्क में जो आबादी है, उसे तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है – संवेदनशील, संक्रमित, और संक्रमण-मुक्त। संवेदनशील लोग वे हैं जिन्हें अभी तक बीमारी नहीं हुई है। संक्रमित लोग वे हैं जो वर्तमान में संक्रमित हैं। संक्रमण-मुक्त लोग वे हैं जो पहले बीमार थे और अब स्वस्थ हो गए हैं।

करमैक और मैक्केन्ड्रिक ने इनमें से प्रत्येक समूह में गणितीय रूप से संख्याओं को प्रदर्शित करने का एक तरीका खोजा। उन्होंने अपने इस विचार को अवकल समीकरणों के रूप में लिखा। इससे यह पता लगाया जा सकता था कि जनसंख्या का कौन-सा अंश, भविष्य में किसी एक समूह से दूसरे समूह में प्रवेश करेगा।

निश्चित रूप से एसआईआर मॉडल महामारी के फैलने की जानकारी देता है। मॉडल को पहले से ही कुछ मान्यताएं बता दी जाती हैं। फिर उसके अनुसार वह डैटा को समूहों में विभाजित करके भविष्य में होने वाले संक्रमण के अनुमान को चित्रों और आंकड़ों में दर्शाता है। एक बुनियादी मान्यता यह भी होती है कि संक्रमित समूह वाला व्यक्ति संवेदनशील समूह वाले व्यक्ति के साथ बातचीत करके, उसे संक्रमित करके संक्रमित समूह में भी परिवर्तित कर सकता है। जब संक्रमित समूह बढ़ता है तब संवेदनशील समूह घटता है। संक्रमित व्यक्ति ठीक भी हो सकता है। इस स्थिति में मॉडल संक्रमित व्यक्ति के डैटा को संक्रमित समूह से हटाकर संक्रमण-मुक्त समूह में डाल देता है।

संक्रमण का संवेदनशील समूह से संक्रमित समूह की ओर जाने के कई कारण हो सकते हैं। संक्रमण का फैलाव संक्रमित व्यक्ति के सीधे संपर्क में आने से हो सकता है। संक्रमण पानी, हवा या किसी वस्तु की सतह के माध्यम से भी हो सकता है। इसके अलावा, रोग की गतिशीलता का अध्ययन विभिन्न पैमानों पर किया जा सकता है: एकल व्यक्ति, लोगों के छोटे समूह और संपूर्ण आबादी के रूप में। उपलब्ध आंकड़ों की जटिलता के आधार पर विभिन्न मॉडल्स को चुना जाता है।

कभी-कभी बुनियादी मॉडल के लिए अतिरिक्त समूह भी बनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, कोई संक्रमित व्यक्ति जो कोई लक्षण प्रदर्शित नहीं कर रहा है वह एक नया समूह बन सकता है। कभी-कभी उम्र जैसे अतिरिक्त कारकों को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता होती है।

रोग से सम्बंधित जानकारी और इसके फैलाव की विधि के आधार पर बने डैटा पर एसआईआर मॉडल को निर्भर रहना पड़ता है। लेकिन जब कोई बीमारी नई होती है – मौजूदा महामारी के मामले में ‘नए कोरोनावायरस’ के ‘नया’ होने के कारण विश्वसनीय डैटा मिलना मुश्किल हो जाता है। और यह पारंपरिक एसआईआर मॉडल सामाजिक दूरी और घर में बंद रहने के आदेशों जैसे व्यवहार और नीतिगत बदलावों को ध्यान में नहीं रखता है।

इसलिए मौजूदा स्थितियों का आकलन करते हुए गणितज्ञ और वैज्ञानिक मिलकर नए गणितीय मॉडल्स का उपयोग कर रहे हैं और सुविधानुसार मॉडल्स विकसित भी कर रहे हैं। इन मॉडल्स की सहायता से सरकार को नीतियां बनाने में मदद मिल रही है। गणित और कंप्यूटर की यह शक्तिशाली जोड़ी हमारे स्वास्थ्य तंत्र को इस अभूतपूर्व महामारी से लड़ने में बहुत मदद कर रही है। और सरकारों को संकेत भी कर रही है कि कोरी राजनीति करने की बजाय शिक्षा और स्वास्थ्य के विकास पर ज़ोर देना आवश्यक है। आज की तारीख में कई देशों में स्थिति नियंत्रण में आ गई है। उम्मीद है कि जल्द ही पूरे विश्व के गलियारों और बगीचों में, स्कूलों और मैदानों में, सड़कों और सांस्कृतिक स्थलों पर फिर से चहल-पहल शुरू हो जाएगी।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19: नस्लवाद पर वैज्ञानिक चोला

कोविड-19 महामारी ने तमाम किस्म की गैर-वैज्ञानिक धारणाओं को जन्म दिया है। अमेरिका में इस बात ने काफी ज़ोर पकड़ा है कि कोविड-19 की वजह से मरने वालों में अश्वेत लोगों की तादाद बहुत ज़्यादा इसलिए है क्योंकि उनमें ऐसे जीन्स पाए जाते हैं, जो उन्हें कोरोनावायरस के प्रति दुर्बल बनाते हैं। फ्लोरिडा विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान के प्रोफेसर क्लेरेंस ग्रेवली ने मामले का विश्लेषण किया है। प्रस्तुत है उसका सार।

वैसे तो कोविड-19 पर हमारी समझ अभी भी काफी कम है फिर भी इस महामारी से जुड़े एक तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। एक अनुमान है कि 27 मई तक कोविड-19 से मरने वाले अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों की तादाद श्वेत-अमेरिकी लोगों की तुलना में 2.4 गुना अधिक थी। इस असमानता पर रोष स्वाभाविक था। इसके सही कारण (व्यवस्थागत असमानता और उत्पीड़न के चलते जैविक क्षति) पर ध्यान देने की बजाय कुछ लोगों ने इसका पूरा दोषारोपण अफ्रीकी अमरीकियों में उपस्थित एक अज्ञात जीन पर कर दिया जो उन्हें संक्रमण के प्रति दुर्बल बनाता है।

वास्तव में यह नस्लवादी विचार राजनेताओं, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों और अन्य लोगों से आता है कि कालापन लोगों को निहित रूप से रोगों के प्रति दुर्बल बनाता है। ऐसे विचार वैज्ञानिकों ने लैंसेट और हेल्थ अफेयर जैसी कई प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित भी किए हैं।

जीव विज्ञान का नस्लीय दृष्टिकोण न केवल गलत है बल्कि हानिकारक भी है। यदि अन्य प्राइमेट्स से तुलना की जाए तो मनुष्यों में बहुत ही कम आनुवंशिक विविधता नज़र आती है। कारण यह है कि मनुष्य हाल ही में अस्तित्व में आए हैं। जितनी विविधता दिखती है वह जेनेटिक नहीं बल्कि भौगोलिक कारणों से है। त्वचा के रंग के जीन और रोगों के प्रति दुर्बल बनाने वाले जीन्स में कोई सम्बंध नहीं है।

तो फिर हम ‘श्वेत’ और ‘अश्वेत’ लोगों में रक्तचाप, मधुमेह या कोविड-19 जैसी समस्याओं की संभावना में अंतर की बात कैसे करते हैं? कारण यह है मानव जीव शास्त्र मात्र जीनोम नहीं है। वास्तव में हमारा वातावरण, हमारे अनुभव और रोगों से संपर्क का हमारे शारीरिक विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है जो हमारी आनुवंशिक संभावनाओं को साकार रूप देता है। सुनियोजित नस्लीय भेदभाव शारीरिक बनावट को उतना ही प्रभावित करता है जितना कि जीनोम। स्वस्थ भोजन तक सीमित पहुंच, विषैले प्रदूषकों से संपर्क, पुलिस की हिंसा का डर या नस्लीय भेदभाव के ज़ख्म किसी की भी उच्च रक्तचाप, मधुमेह और कोविड-19 जैसी गंभीर जटिलताओं से ग्रस्त होने की संभावना को बढ़ा सकते हैं।

बदकिस्मती से, यह दृष्टिकोण जीव विज्ञान में गायब ही रहा है। जैसे 2006 में हुआ तांग और सहयोगियों द्वारा ह्यूमन जेनेटिक्स में प्रकाशित एक पेपर को देखिए। इस पेपर में शोधकर्ताओं ने पारिवारिक रक्तचाप कार्यक्रम के डैटा का विश्लेषण किया। इस कार्यक्रम में यह देखने की कोशिश की गई थी कि क्या मेक्सिकन अमरीकियों और अफ्रीकी अमरीकियों में बॉडी मॉस इंडेक्स और रक्तचाप के आधार पर जेनेटिक वंशावली का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। इस अध्ययन का निष्कर्ष था कि अफ्रीकी और गैर-अफ्रीकी मूल के लोगों के बीच आनुवंशिक अंतर रक्तचाप को प्रभावित करते हैं, हालांकि पर्यावरणीय कारक शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण हों।

तांग के अध्ययन ने भी इस निराधार धारणा को हवा दी कि अफ्रीकी मूल के लोगों में रक्तचाप की समस्या होने की संभावना ज़्यादा है। और कोविड-19 से होने वाली मृत्यु दर में यह धारणा काफी महत्वपूर्ण हो गई है।

वेंडरबिल्ट युनिवर्सिटी में रसायन विज्ञान की प्रोफेसर रेना रॉबिन्सन बताती हैं कि अफ्रीकी अमरीकी लोगों में संभवत: ऐसे जेनेटिक कारक हैं जो उनको नमक के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं। यह रक्तचाप के लिए व्यापक रूप से फैलाई गई एक निराधार व अब खंडित संकल्पना है। इसमें कहा जाता है कि अटलांटिक दास व्यापार के दौरान कुछ ऐसी परिस्थितियां विकसित हुर्इं जिसने गुलाम अफ्रीकियों में नमक को बनाए रखने वाले जीनोटाइप को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रखा। गौरतलब है कि ह्रदय रोग और नस्ल के सम्बंधों के लिए आनुवंशिक कारक खोजने के लिए अरबों डॉलर खर्च किए गए थे लेकिन कोई नतीजा सामने नहीं आया।        

तांग के अध्ययन में दो सामान्य त्रुटियां नज़र आती हैं जिनके चलते नस्लीय-आनुवंशिक सोच टिकी हुई है।

पहली, इस अध्ययन में अफ्रीकी जेनेटिक समूह और रक्तचाप के बीच सांख्यिकी रूप से कोई महत्वपूर्ण सम्बंध नहीं पाया गया। लेकिन तांग ने फिर भी यह निष्कर्ष निकाला जो उनके आंकड़ों से नहीं निकला था। वैज्ञानिक शोध के प्रस्तुतीकरण में यह समस्या बहुत बिरली नहीं है।

और दूसरी यह कि यदि उनकी टीम ने आनुवंशिक वंश और रक्तचाप के बीच सम्बंध पाया भी तो उन्होंने अकारण मान लिया कि इसका कारण कुछ अज्ञात जेनेटिक अंतर है जो

1. उच्च रक्तचाप के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाता है; और

2. वह अफ्रीकी मूल के लोगों में ज़्यादा पाया जाता है।

इन धारणाओं का न तो उन्होंने कोई परीक्षण किया और न ही इस वैकल्पिक संभावना पर विचार किया कि जैविक गुणधर्मों पर सामाजिक-सांस्कृतिक अंतरों का असर हो सकता है।  

तांग का अध्ययन सामने आने के कुछ समय बाद ही युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा की एमी नॉन ने पारिवारिक रक्तचाप कार्यक्रम के आकड़ों पर दोबारा बारीकी से विचार किया। उन्होंने इस बार विश्लेषण में आनुवंशिक वंश और रक्तचाप के साथ-साथ शैक्षिक वर्षों (जो व्यवस्थित नस्लीय भेदभाव का एक जाना-माना परिणाम है) को भी शामिल किया। अमेरिकन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित इस विश्लेषण की रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा के प्रत्येक अतिरिक्त वर्ष के साथ रक्तचाप में औसतन 0.51 मि.मी. मर्क्यूरी की कमी देखने को मिली। जबकि आनुवंशिक वंश से इसका कोई सम्बंध नहीं था।  

कोविड-19 महामारी के दौर में इस अध्ययन से पता चलता है कि आनुवंशिक वंश का असर केवल हमारी मान्यताओं के कारण होता है। यदि हम किसी को ‘श्वेत’ या ‘अश्वेत’ के रूप में वर्गीकृत करते हैं तो इसके परिणामस्वरूप हम वही जैविक अंतर पैदा कर देते हैं जिसको हम मानना चाहते हैं। यह हमारे डीएनए में किसी गहरे अंतर के कारण नहीं बल्कि हमारी सामाजिक संरचनाओं और व्यवहार पर निर्भर करता है जो कुछ को तो महत्व देता है और अन्य को तुच्छ समझता है।(स्रोत फीचर्स)

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छरहरे बदन का जीन

वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीन का पता लगाया है जिसका उत्परिवर्तित रूप तो कैंसर का कारण बनता है लेकिन उसका सामान्य रूप व्यक्ति को अपने शरीर की ज़्यादा चर्बी को जलाकर छरहरा बने रहने में मदद करता है।

यह देखा गया है कि कुछ लोग खूब खाएं, जो मर्ज़ी खाएं, तो भी मोटे नहीं होते। आम तौर पर जब मोटापे की बात होती है तो ध्यान इस बात पर होता है कि व्यक्ति क्या व कितना खाता है। लेकिन सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित नया शोध बताया है कि मोटापे और छरहरेपन का नियंत्रण जेनेटिक स्तर पर भी होता है।

ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के जेनेटिक विज्ञानी जोसेफ पेनिंजर और उनके साथियों ने मोटापे के जेनेटिक आधार खोजने के प्रयास किए। इसके लिए उन्होंने एस्टोनिया के जीनोम सेंटर में उन लोगों की जीनोम सम्बंधी जानकारी को खंगाला जो सबसे दुबले-पतले बताए गए थे। इसमें से उन्होंने उन लोगों को छांटकर अलग कर दिया जिनके बारे में कहा गया था कि उनमें भूख न लगने (एनोरेक्सिया) या ऐसी किसी अन्य दिक्कत थी जिसकी वजह से वे दुबले रह जाते हैं।

शेष छरहरे लोगों में उन्होंने जेनेटिक समानता के चिंह खोजना शुरू किया। इस संदर्भ में एक खास जीन ने उनका ध्यान आकर्षित किया – एक एंज़ाइम एनाप्लास्टिक लिम्फोमा काइनेज़ यानी ALK का जीन। यह तो पहले से पता था कि डीएनए के इस खंड का उत्परिवर्तित रूप कैंसर से सम्बंधित है। लेकिन मज़ेदार बात यह थी कि किसी ने नहीं सोचा था कि इसका सामान्य रूप क्या काम करता है।

तो पेनिंजर और उनके साथियों ने उत्परिवर्तित फल मक्खी और उत्परिवर्तित चूहों का निर्माण किया। वे यह दर्शाना चाहते थे कि जो जीन मनुष्यों को छरहरा रखता है वह मक्खियों और चूहों में भी वैसा ही असर दिखाता है। देखा गया कि ALK जीन की उपस्थिति की वजह से ये उत्परिवर्तित मक्खियां और चूहे दुबले बने रहते हैं, हालांकि वे कम तो बिलकुल नहीं खाते।

शोधकर्ताओं का मत है कि ALKजीन मस्तिष्क पर क्रिया करता है जिसके असर से मस्तिष्क वसा कोशिकाओं को ज़्यादा वसा जलाने का निर्देश देता है। चूंकि यह जीन मक्खियों, चूहों और मनुष्यों, सबमें कारगर होता है, इसलिए ऐसा लगता है कि यह जैव विकास के इतिहास में बहुत समय से मौजूद रहा है। यह दुबलेपन के अनुसंधान में नया अध्याय जोड़ सकता है।

वर्तमान में भी ऐसी दवाइयां उपलब्ध हैं, जो कैंसरकारी ALK की क्रिया को बाधित करती हैं। यानी ALK को औषधियों के लिए एक उपयुक्त लक्ष्य माना जाता है। तो हो सकता है कि इसके आधार पर हमें छरहरे बने रहने के लिए गोली मिल जाए।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 प्लाज़्मा थेरेपी

13मार्च को जॉन हॉपकिंस युनिवर्सिटी के संक्रामक रोग विशेषज्ञ आर्टूरो कसाडेवल और एक अन्य साथी द्वारा दी जर्नल ऑफ क्लीनिकल इंवेस्टीगेशन में प्रकाशित शोध पत्र में कोविड-19 के प्रभावी उपचार के लिए इस रोग से उबर चुके लोगों के रक्त प्लाज़्मा के उपयोग पर चर्चा की गई थी। इनके प्लाज़्मा में विकसित एंटीबॉडी से नए रोगियों का इलाज किया जा सकता है।

हाल ही में अमेरिका के कई अस्पतालों में 16,000 रोगियों पर प्रायोगिक तौर पर इस उपचार का उपयोग किया गया। इसके अलावा चीन और इटली में किए गए कुछ छोटे अध्ययनों से भी काफी आशाजनक नतीजे मिले। पूर्व में इसका उपयोग अन्य रोगों के लिए किया जा चुका है। चीन, इटली तथा अन्य देशों में किए गए प्रयोगों के परिणाम भी आशाजनक रहे हैं।

अलबत्ता, कुछ परिणाम निराशाजनक भी हैं। 2015 में युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर हैम्बर्ग द्वारा गिनी में 84 एबोला रोगियों पर किए गए अध्ययन में प्लाज़्मा उपचार के कोई लाभ नज़र नहीं आए थे। इसके अलावा प्लाज़्मा प्रत्यारोपण में रक्त-जनित संक्रमण का जोखिम भी रहता है। कुछ मामलों में तो फेफड़ों को गंभीर नुकसान भी हो सकता है। कई बार रोगी का शरीर रक्त की अतिरिक्त मात्रा के अनुकूल नहीं हो पाता जिससे मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है। फिलहाल शोधकर्ताओं द्वारा एकत्र किए गए डैटा से ऐसे गंभीर मामलों की संख्या काफी कम पाई गई है। यूएस में शुरुआती 5000 लोगों का प्लाज़्मा उपचार करने पर केवल 36 मामले गंभीर पाए गए हैं।

बोस्टन युनिवर्सिटी के संक्रामक रोग चिकित्सक नाहिद भादेलिया के अनुसार यदि यह उपचार कारगर साबित हो जाता है तो बड़े स्तर पर उपचार के लिए प्लाज़्मा की आवश्यकता को पूरा करना एक चुनौती बन सकता है। एक बार में एक व्यक्ति से लगभग 690-880 मिलीलीटर प्लाज़्मा मिलता है जो मात्र एक-दो रोगियों के लिए ही पर्याप्त होगा। वैसे ठीक होने के बाद एक व्यक्ति कई बार प्लाज़्मा दान कर सकता है और इसकी उपलब्धता को लेकर कोई समस्या होने की संभावना कम है।

एक समस्या यह हो सकती है कि विभिन्न दाताओं की एंटीबॉडी के घटकों और सांद्रता में काफी भिन्नता होती है यही वजह है कि प्लाज़्मा उपचार के संदर्भ में प्रमाण काफी कमज़ोर हैं। इसके लिए जापानी औषधि कंपनी टेकेडा कई अन्य सहयोगियों के साथ हाइपरइम्यून ग्लोब्युलिन नामक एक उत्पाद पर काम कर रही है। इसमें सैकड़ों ठीक हुए रोगियों के रक्त को मिलाकर एंटीबॉडी का सांद्रण किया जाएगा। हाइपरइम्यून ग्लोब्युलिन को प्लाज़्मा की तुलना में अधिक समय तक रखा जा सकता है। चूंकि कुल आयतन बहुत कम होता है, इसलिए साइड प्रभावों का जोखिम भी कम रहता है।  

आखिरी बार टेकेडा ने हाइपरइम्यून ग्लोब्युलिन का उत्पादन 2009 में एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा के लिए किया था। कंपनी ने 16,000 लीटर प्लाज़्मा की मदद से एंटीबॉडी का संकेंद्रण किया था जिससे हज़ारों रोगियों का उपचार संभव हो सकता था। लेकिन फ्लू स्ट्रेन उम्मीद से काफी कमज़ोर निकला और इस उपचार का उपयोग कभी करना ही नहीं पड़ा। उम्मीद है कि इस बार स्वस्थ हो चुके मरीज़ों की एंटीबॉडी ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खराब प्रतिरक्षा कोशिकाएं हमें बूढ़ा बना सकती हैं

हाल ही में चूहों पर किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि शरीर में उपस्थित टी-कोशिकाएं हमें रोगाणुओं से बचाने के अलावा उम्र बढ़ने की गति को भी तेज़ कर सकती हैं।

देखा जाए तो आयु में वृद्धि के साथ टी-कोशिकाओं की रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता भी कम हो जाती है। इसके कारण वृद्धजन संक्रमण के प्रति अधिक और टीकों के प्रति कम संवेदनशील हो जाते हैं। टी-कोशिकाओं के कमज़ोर होने का एक कारण उनके माइटोकांड्रिया की सक्रियता में कमी है, जो कोशिकाओं को शक्ति प्रदान करने का काम करते हैं। लेकिन टी-कोशिकाओं के आधार पर न सिर्फ बुढ़ापे का अनुमान लगाया जा सकता है बल्कि ये बुढ़ापे को तेज़ करने में मदद भी करती हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि टी-कोशिकाएं शोथ-उत्तेजक अणु छोड़ती हैं जिससे बुढ़ाने की प्रक्रिया तेज़ हो जाती है।    

इन परिकल्पनाओं का परीक्षण करने के लिए युनिवर्सिटी हॉस्पिटल 12 की प्रतिरक्षा विज्ञानी मारिया मिटलब्रान और उनके सहयोगियों ने कुछ चूहों में आनुवंशिक रूप से ऐसा बदलाव किया कि उनके माइटोकांड्रिया में एक प्रोटीन समाप्त हो गया। इसकी वजह से ये कोशिकाएं माइटोकांड्रिया-आधारित कुशल ऊर्जा तंत्र की बजाय मजबूरन एक कम कार्यकुशल प्रणाली का उपयोग करने लगती हैं। साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस परिवर्तन के बाद चूहों में 7 माह की आयु, जो उनकी युवावस्था होती है, में ही बुढ़ापे के लक्षण नज़र आने लगे। वे सुस्त हो गए थे, मांसपेशियां कमज़ोर हो गई थीं और संक्रमण के प्रति प्रतिरोध भी कम हो गया था।

वैज्ञानिकों ने देखा कि परिवर्तित चूहों की टी-कोशिकाएं ऐसे अणु छोड़ रही थीं जो शोथ पैदा करते हैं। इससे लगता है कि इन चूहों के शारीरिक क्षय में टी-कोशिकाओं की भी भूमिका है।

तो वैज्ञानिकों ने उम्र बढ़ने की गति को धीमा करने के लिए इससे उल्टे प्रयोग भी करके देखे। सबसे पहले उन्होंने ट्यूमर नेक्रोसिस फैक्टर अल्फा (टीएनएफ-अल्फा) को ब्लॉक करने वाली दवा दी। टीएनएफ-अल्फा वास्तव में टी-कोशिकाओं द्वारा छोड़ा जाने वाला शोथ-उत्प्रेरक अणु है। टीएनएक-अल्फा को ब्लॉक करने से चूहों की पकड़ मज़बूत हुई, भूलभुलैया में रास्ता खोजने में उनका प्रदर्शन बेहतर हुआ और ह्मदय की क्षमता में भी वृद्धि हुई।

इसके अलावा मिटलब्रन ने चूहों को एक ऐसा पदार्थ भी दिया जो एनएडी नामक अणु के स्तर को बढ़ाता है। यह अणु कोशिकाओं को भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के सक्षम बनता है और उम्र के साथ इसके स्तर में कमी आती है। लेकिन चूहों में इसका स्तर बढ़ाने से वे अधिक सक्रिय बन गए और उनके ह्मदय भी मज़बूत हो गए।

वर्तमान में रुमेटाइड आथ्र्राइटिस और क्रोहन रोग जैसी बीमारियों के लिए टीएनएफ-अल्फा का उपयोग किया जा रहा है और कई कम्पनियां एनएडी का स्तर बढ़ाने वाली औषधियां बेचती हैं। इसलिए मिटलब्रान का सुझाव है कि इनके क्लीनिकल परीक्षण करना चाहिए कि क्या ये बुढ़ाने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती हैं। वैसे कई शोधकर्ताओं को इन परिणामों की प्रासंगिकता पर संदेह है। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बकरियों का पालतू गुण

करियां सख्तजान होती हैं। इन्होंने कोलंबस के साथ अटलांटिक महासागर की लंबी यात्राएं कीं और मेफ्लावर तीर्थ यात्रियों के साथ रहीं – इस दौरान सूखे और परजीवियों का सामना किया। हाल ही में एक शोध ने इनकी सहनशीलता की उत्पत्ति का खुलासा किया है। प्राचीन समय में कुछ हेराफेरी के ज़रिए इस पालतू प्रजाति (Capra aegagrushircus) में जंगली बकरी से एक जीन आया जो इसे कृमि संक्रमण से बचाता है। अन्य जीन्स के साथ जुड़कर इस जीन ने बकरी को सबसे पहला पालतू जानवर बनाने में मदद की। स्मिथसोनियन संस्थान के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में मानव विज्ञानी पुरातत्वविद मेलिंडा ज़ेडर का कहना है कि इस खोज से पालतूकरण के शुरुआती दिनों में जंगली प्रजातियों के साथ परस्पर प्रजनन का महत्व स्पष्ट होता है।

कई शोधकर्ता मानते हैं कि बकरियां प्रथम पालतू पशु हैं। इन्हें लगभग 11 हज़ार साल पहले फर्टाइल क्रीसेंट में पालतू बनाया गया था। माना जाता है कि तुर्की और ईरान में मनुष्य ने सबसे पहले पालतू बकरियों के जंगली वंशज बेजोर को बाड़ों में पालना शुरू किया था। लेकिन तब से लेकर अब तक क्या हुआ यह एक रहस्य ही रहा है।

नॉर्थवेस्ट ए एंड एफ युनिवर्सिटी के पशु आनुवंशिकीविद ज़ियांग यू और एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने दुनिया भर की 88 पालतू बकरियों, 6 जंगली बकरी प्रजातियों और 4 बकरी जीवाश्मों के जीनोम की तुलना 131 अन्य पालतू, जंगली और प्राचीन बकरियों की पहले से उपलब्ध जीनोमिक जानकारी के साथ की। वे यह देखना चाहते थे जीनोम के कौन-से महत्वपूर्ण हिस्से से बकरी का पालतू बनना तय हुआ था।

ज़ियांग और उनके साथियों ने साइंस एडवांसेस में बताया है कि विशेष रूप से एक जीन MU6 महत्वपूर्ण है। आज लगभग हर पालतू बकरी में इस जीन का संस्करण मौजूद है। यह वेस्ट कॉकेशियन टुर नामक जंगली बकरी से आया है। संभवत: यह जीन संस्करण संभवत: परस्पर प्रजनन के ज़रिए 7200 साल पहले पालतू बकरी में पहुंचा था।

MU6 जीन आंत के अस्तर के एक प्रोटीन का कोड है। अन्य जंतुओं में यह प्रतिरक्षा तंत्र का हिस्सा है। यह देखने के लिए कि यह परजीवियों से रक्षा कर सकता है या नहीं, शोधकर्ताओं ने जंगली टुर के जीन संस्करण वाली और इसके अन्य संस्करणों वाली पालतू बकरियों के मल का विश्लेषण किया। देखा गया कि टुर संस्करण वाली बकरियों के मल में कृमियों के अंडों की संख्या बहुत कम थी। अर्थात जीन का टुर संस्करण कुछ सुरक्षा प्रदान करता है।

ज़ियांग कहते हैं कि यह बात समझ में आती है क्योंकि टुर काले समुद्र के तट पर रहती थी जहां का मौसम उमस वाला था, यहां परजीवियों के संक्रमण का खतरा अन्य जगहों की बकरियों से ज़्यादा था। आजकल की बकरियों का मूल स्थान दक्षिण-पश्चिम एशिया का सूखा क्षेत्र था।

कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि पालतू बनाने के लिए सबसे मूल्यवान कारक दूध का उत्पादन या शारीरिक बनावट होते हैं। लेकिन इस अध्ययन में यह पता चलता है कि शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण यह था कि पालतू जानवर भीड़भाड़ वाली जगहों में जीवित रह सकें जहां पर संक्रमण का खतरा ज़्यादा होता है। ज़ियांग का कहना है कि स्वस्थ मवेशी पाने की इच्छा और टुर के इस जीन संस्करण के फायदों के चलते यह 1000 वर्षों में ही 60 प्रतिशत पालतू बकरियों में फैल गया।

टीम को पालतू बकरियों में कई और जीन्स मिले हैं जिनका सम्बंध शायद बकरियों के दब्बू व्यवहार से हो लेकिन और शोध के बगैर कुछ कहा नहीं जा सकता।(स्रोत फीचर्स)

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जीवाश्म पर अधिकार भू-स्वामि का

हाल ही में मोन्टाना के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने जीवाश्म विज्ञानियों को राहत दी है। कोर्ट ने फैसले में कहा है कि जीवाश्म कानूनी रूप से सोने-चांदी जैसे खनिजों से भिन्न हैं। इन पर आधिपत्य उसका होगा जिसकी भूमि पर वे मिले हैं, ना कि भूमि के नीचे के खनिज भंडार मालिकों का।

दरअसल, मामला पूर्वी मोन्टाना के भूभाग में साल 2006 में प्राप्त डायनासौर के दो जीवाश्मों से जुड़ा है। मरे दम्पति ने पूर्वी मोन्टाना में सेवरसन बंधुओं से ज़मीन खरीदी थी। उन्होंने निजी जीवाश्म खोजियों के साथ मिलकर उस भूखंड से टायरानेसौरस रेक्स के कंकाल सहित कई बड़ी खोजें कीं। जिसमें सबसे अनोखी खोज थी डायनासौर के कंकालों की एक जोड़ी, जिसे देखने पर लगता है कि वे दोनों लड़ते हुए मारे गए थे।

ज़मीन बेचते समय सेवरसन बंधु ने उक्त भूमि के नीचे दबे खनिज पर दो तिहाई मालिकाना हक अपने पास रखा था। इसलिए इस खोज के बाद उन्होंने इन जीवाश्म पर आंशिक मालिकाना हक का दावा किया। गौरतलब है कि यूएस के कुछ प्रांतों में भूमि का स्वामित्व और उसके नीचे दबे तेल, गैस या अन्य खनिजों का स्वामित्व अलग-अलग लोगों या संस्थाओं का हो सकता है। इस मामले में संघीय जिला अदालत ने मरे दम्पति के पक्ष में फैसला सुनाया। लेकिन सेवरसन बंधु की याचिका पर तीन सदस्यों की एक अदालत में दो सदस्यों ने कहा कि जीवाश्म पर अधिकार खनिज मालिकों का है। पुन: सुनवाई की गुहार लगाने पर अदालत ने सुनवाई के पहले मामला मोन्टाना सुप्रीम कोर्ट भेज दिया। शीर्ष अदालत ने पिछले फैसले को पलटते हुए कहा कि उसमें ‘जीवाश्म’ और ‘खनिज’ को एक श्रेणी में रखने की गलती की गई थी। शब्दों के सामान्य और व्यावहारिक अर्थ के अनुसार मरे दम्पति की भूमि पर प्राप्त डायनासौर के जीवाश्म खनिज नहीं हैं।

यह फैसला वैज्ञानिकों के लिए एक जीत है। वैज्ञानिकों की चिंता थी कि यदि जीवाश्मों को खनिज अधिकारों के साथ जोड़कर देखा जाएगा तो खुदाई करने की अनुमति प्राप्त करना मुश्किल हो सकता है और जो जीवाश्म पहले प्राप्त हो चुके हैं उनके मालिकाना हक पर भ्रम पैदा हो सकता है।

हालांकि 2019 में ही मोन्टाना विधायिका ने एक कानून पारित कर दिया था जिसके तहत कहा गया था कि जीवाश्म पर अधिकार भू-स्वामियों का होगा। अब कोर्ट का यह फैसला हक की इस जंग का अंतिम वार रहा।

इंडियाना युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानी डेविड पॉली कहते हैं कि हालांकि यह फैसला अन्य राज्यों पर लागू नहीं होता लेकिन यह फैसला इस मायने में अहमियत रखता है कि यदि ऐसे मुद्दे फिर उठे तो इस फैसले को नज़ीर के तौर पर पेश किया जा सकता है।

इस फैसले से उक्त जीवाश्म की बिक्री का रास्ता साफ हो जाएगा जिसका अनुबंध मरे दम्पति ने एक म्यूज़ियम से किया है। इससे वैज्ञानिकों को एक और बड़ी राहत मिलेगी कि डायनासौर के जीवाश्म निजी संग्रहकर्ताओं के हाथ में जाने से बच जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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सांपों की धींगामुश्ती: प्रणय या युद्ध – कालू राम शर्मा

स गर्मी का मौसम जब उतार पर होता है तब अक्सर दो सांपों का आपस में लिपटना हर किसी का ध्यान आकर्षित करता है। लगता है, दोनों लिपटते हुए नृत्य कर रहे हों।

सांपों द्वारा निर्मित ये दृश्य अक्सर अखबारों की सुर्खियां भी बनते हैं। एक अखबार के ब्यूरो चीफ ने मुझसे सांपों के बीच चलने वाली इस दिलचस्प लीला के बारे जानना चाहा। उन्होंने यह भी पूछा कि क्या यह सच है कि नर और मादा सांपों के बीच यह प्रणय लीला है? उनके पास आपस में लिपटे हुए दो विशाल सांपों का चित्र छपने के लिए आया था। वे उस चित्र का चंद पंक्तियों में कैप्शन देना चाह रहे थे। आम तौर पर इस घटना को नर और मादा का समागम समझा जाता है जो वाकई में मिथ्या है। यह तो दो प्रतिद्वंदी नर सांपों के बीच युद्ध है। दरअसल, धामन नामक सांप की प्रजाति (Ptyas mucosa) के नर सदस्यों के बीच यह दृश्य देखा जाना आम बात है।

धामन आम तौर पर खेतों, जंगलों, झाड़ियों में बहुतायत से पाया जाता है और चूहे खाता है। इसकी अधिकतम लंबाई 8 फीट तक हो सकती है। यह एक अत्यंत सक्रिय सांप है और प्रजनन काल में इसकी सक्रियता का बढ़ना स्वाभाविक ही है।

इस प्रकार के दृश्य अक्सर गर्मी के उतार और मानसून की बौछार के साथ शहरों व कस्बों के खुले मैदानों में अधिक दिखने लगते हैं। इसमें दो सांप रस्सी में एंठन की तरह लिपट जाते हैं। दोनों का सिर वाला हिस्सा ऊपर की ओर उठा होता है। दोनों एक दूसरे को पटखनी देने की जी-तोड़ कोशिश करते हैं। इस युद्ध में वे एक दूसरे से लिपटते हैं और अपने थूथन से एक दूसरे पर वार करते हैं। युद्ध लगभग घंटे भर तक चलता रहता है जब तक कि एक नर दूसरे को पटखनी न दे दे। इस युद्ध में जो सांप पस्त होकर ज़मीन पर गिर जाता है वह समझो हार चुका होता है। युद्ध में जीतने वाला नर सांप फिर आसपास मौजूद मादा के साथ समागम करता है। इसके बाद मादा धामन किसी सुरक्षित जगह पर 6 से 15 की संख्या में अंडे देती है।

सांपों में इस युद्ध को लेकर अधिक अध्ययन नहीं हुए हैं। अमेरिका में सांपों की कई प्रजातियों में यह व्यवहार देखने को मिलता है जिनमें इंडिगो स्नेक, रेटल स्नेक, और कॉटनमाउथ सांप प्रमुख हैं। इन प्रजातियों में मादाओं की तुलना में नर बड़े होते हैं। दो नरों की लड़ाई में वे ज़मीन के लंबवत खड़े होते हैं। इस दौरान सांप एक दूसरे को काटते नहीं।

त्रुटिवश धामन सांप में इस घटना को नर और मादा के समागम के रूप में समझा जाता है। लेकिन समागम की प्रक्रिया में नर और मादा इस तरह से आपस में खड़े होकर लिपटते नहीं हैं। नर सांप मादा के शरीर पर रेंगता है। कभी-कभी नर सांप मादा के सिर को दांतों से काटता है। माना जाता है कि यह काटना महज़ मादा के प्रति प्यार दर्शाना हो सकता है। सर्प विज्ञानी युद्ध और प्रणय की इन दोनों घटनाओं की बारीकियों को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

प्रजनन काल में नर सांपों के बीच शक्ति प्रदर्शन के लिए होने वाला युद्ध सर्प के दो परिवारों बोइडी व कोल्यूब्राोइडी की लगभग 70 प्रजातियों में देखा गया है। शोधकर्ताओं को क्रिटेशियस काल के बोइडी व कोल्यूब्राोइडी के साझा पूर्वजों में ऐसे व्यवहार के प्रमाण मिले हैं। हालांकि इस दिशा में अभी और सुराग हाथ लगना बाकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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