लंबे समय से शोधकर्ता फेसबुक डैटा का अध्ययन कर यह समझना
चाहते थे कि हालिया राजनैतिक घटनाओं के दौरान दुनिया भर के लोगों ने कैसे
जानकारियां और गलत जानकारियां साझा की थीं। उनका यह इंतज़ार अब खत्म हुआ है। फेसबुक
ने 13 फरवरी 2020 को अपना डैटा शोधकर्ताओं को अध्ययन के लिए उपलब्ध करा दिया है।
हालांकि डैटा तक पहुंच के साथ शोधकर्ताओं को डैटा ठीक से ना पढ़ पाने सम्बंधी
मुश्किलें भी मिली हैं।
दरअसल फेसबुक ने अप्रैल 2018 में यह घोषणा की थी कि वह जल्द ही समाज
वैज्ञानिकों को लोगों द्वारा साझा की गई लिंक का डैटा उपलब्ध कराएगा। लेकिन घोषणा
के बाद फेसबुक के डैटा विशेषज्ञों ने पाया कि इस तरह डैटा उपलब्ध कराना
उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता के साथ समझौता होगा। इस दिक्कत को सुलझाने के लिए फेसबुक
ने डैटा उपलब्ध कराने के पूर्व, डैटा पर डिफ्रेंशियल प्रायवेसी
विधि प्रयोग कर उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता सुनिश्चित की। यह हाल ही में विकसित एक
गणितीय विधि है जो डैटा को अनाम रखती है।
जो डैटा फेसबुक ने उपलब्ध कराया है उसमें जनवरी 2017 से लेकर जुलाई 2019 के
बीच फेसबुक उपयोगकर्ताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से साझा की गई 3 करोड़ 80 लाख लिंक
और उससे सम्बंधित जानकारियां हैं। ये बताती हैं कि क्या फेसबुक उपयोगकर्ता इन लिंक
को फर्जी या नकारात्मक मानते थे, या क्या उन्होंने लिंक खोल कर
देखी या उन्हें पसंद किया। इसके अलावा फेसबुक ने इन लिंक को साझा करने, पढ़ने और पसंद करने वाले लोगों की उम्र, स्थान, लिंग सम्बंधी जानकारी और उनके राजनैतिक रुझान सम्बंधी जानकारी भी शोधकर्ताओं
को दी है।
न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में राजनीति और रूसी अध्ययन के प्रोफेसर जोशुआ टकर
इसे एक बड़ा कदम मानते हैं। इस डैटा की मदद से वे अपने अध्ययन, राजनैतिक रूप से प्रेरित खबरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किस तरह फैलती हैं, को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
लेकिन लोगों की पहचान गोपनीय रखने सम्बंधी फेसबुक के समाधान ने शोधकर्ताओं के
लिए थोड़ी मुश्किल भी पैदा कर दी है। दरअसल गोपनीयता बनाए रखने के लिए फेसबुक ने
डैटा को थोड़ा तोड़-मरोड़ दिया है, जिससे शोधकर्ताओं को जूझना पड़ेगा।
अब यह शोधकर्ताओं पर है कि वे इस बिगड़े स्वरूप के डैटा को अर्थपूर्ण बनाने के लिए क्या तरीके अपनाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.washingtonpost.com/wp-apps/imrs.php?src=https://arc-anglerfish-washpost-prod-washpost.s3.amazonaws.com/public/NVJ3VZJKQFGKFPBK4QPPOUA3VU.jpg&w=767
लगभग 100 वर्ष पहले डूबे एक जहाज़ के मलबे ने बरमुडा त्रिकोण
के मिथक को एक बार फिर धराशायी कर दिया है। यह कहा गया था कि 1925 में एसएस
कोटोपैक्सी नामक जो मालवाहक जहाज़ डूबा था उसमें बरमुडा त्रिकोण की भूमिका थी। यह
मालवाहक अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंच सका था।
बरमुडा त्रिकोण उत्तरी अटलांटिक सागर में एक अपरिभाषित-से क्षेत्र को कहते
हैं। इसे शैतान का तिकोन भी कहा जाता है। यह बरमुडा से फ्लोरिडा और प्यूएर्टो रिको
के बीच स्थित है। इसके बारे में कहा जाता रहा है कि यहां कई जहाज़, हवाई जहाज़ वगैरह डूबे हैं और इसका कारण पारलौकिक शक्तियों या अन्य ग्रहों के
निवासियों को बताया जाता है। तथ्य यह है कि यहां कई जहाज़ नियमित रूप से पार होते
हैं और कई हवाई जहाज़ इस क्षेत्र के ऊपर से होकर उड़ते हैं।
हाल ही में एक समुद्री जीव वैज्ञानिक और गोताखोर माइकेल बार्नेट ने उस जहाज़
कोटोपैक्सी का मलबा ढूंढ निकाला है। बार्नेट पिछले कई वर्षों से डूबे हुए जहाज़ों
के मलबे खोजने का काम करते रहे हैं। इसी दौरान उन्हें पता चला कि उत्तरी फ्लोरिडा
के सेन्ट ऑगस्टीन के तट से करीब 65 कि.मी. की दूरी पर एक बड़ा जहाज़ डूबा था जिसे
स्थानीय लोग बेयर रेक के नाम से जानते हैं। यह वास्तव में बहुत बड़ा था।
तो बार्नेट ने गोताखोरी करके उस जहाज़ के मलबे का नाप जोख किया, अखबारों में उस समय छपे लेखों का जायज़ा लिया और साथ ही बीमा के रिकॉर्ड भी
देखे और जहाज़ के मलबे से मिली वस्तुओं का मुआयना किया। उनकी तहकीकात से लगता था कि
वह जहाज़ शायद कोटोपैक्सी ही था। तो उन्होंने खबर फैलाई कि एसएस कोटोपैक्सी शायद
अटलांटिक महासागर के पेंदे में पड़ा है।
कोटोपैक्सी दक्षिण कैरोलिना के चार्ल्सटन बंदरगाह से कोयला भरकर हवाना के लिए
रवाना हुआ था। रास्ते में एक तूफान ने इसे डुबो दिया और इस पर सवार 32 कर्मचारियों
का कोई अता-पता नहीं मिला था। बाद में पता चला कि कोटोपैक्सी में कई खामियां थीं
और इसकी मरम्मत का काम होने वाला था। जांच-पड़ताल में यह भी सामने आया कि
कोटोपैक्सी ने डूबने से पहले एसओएस संदेश भी प्रसारित किए थे और फ्लोरिडा स्थित
जैकसनविले स्टेशन ने ये संदेश पकड़े भी थे।
मज़ेदार बात है कि जहाज़ का मलबा सेन्ट ऑगस्टीन के तट से कुछ दूरी पर मिला है जो बरमुडा त्रिकोण के आसपास भी नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/yp6mEvWV6smXikWNe5258Z-1200-80.jpg
अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने पृथ्वी पर एक नए युग का
अनुमोदन किया है। दक्षिणी जापान के चिबा प्रांत में पाई गई तलछट की एक परत के आधार
पर इस नए युग की घोषणा की गई है। यह युग लगभग 7 लाख 70 हज़ार वर्ष पूर्व से लेकर 1
लाख 26 हज़ार वर्ष के बीच रहा था।
इस अवधि की विशेष बात यह है कि इस दौरान पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र ने पलटी
मारी थी। पृथ्वी के इतिहास में कई बार ऐसा हुआ है कि उत्तरी व दक्षिणी चुंबकीय
ध्रुवों की अदला-बदली हुई है। जब ऐसा होता है तो इसके निशान पृथ्वी की उन चट्टानों
पर रह जाते हैं जो उस दौरान ठोस बन रही थीं। ऐसा माना जा रहा है कि इस स्थल पर पाई
गई तलछट चुंबकीय उथल-पुथल का बहुत अच्छा रिकॉर्ड उपलब्ध कराएगी।
चुंबकीय ध्रुवीय पलट को ब्रुनहेस-मातुयामा पलटी कहते हैं और यह आज भी विवाद का
विषय है। 2014 में जियोफिज़िकल जर्नल इंटरनेशनल में प्रकाशित एक शोध पत्र
में इटली में पाई गई तलछट की एक परत से प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा गया था कि
चुंबकीय पलटी में मात्र कुछ दशकों का समय लगता है। दूसरी ओर, 2019 में हवाई में प्राचीन लावा के प्रवाह से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर कहा
गया था कि इसमें लगभग 22,000 साल लग जाते हैं। इस पलटी के बढ़िया रिकॉर्ड के साथ
चिबा की तलछट शायद बहस को विराम देने का काम करेगी।
ध्रुवों के पलटने के अध्ययन से हम यह समझ पाएंगे कि इस वक्त क्या हो रहा है। हाल के वर्षों में पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुवों में थोड़ा स्थान परिवर्तन हो रहा है। वैज्ञानिक यह नहीं समझ पाए हैं कि ध्रुव क्यों भटक रहे हैं। शायद चिबा की चट्टानें कुछ मदद करें। (स्रोत फीचर्स)
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डेढ़ सौ साल पुराने प्लैंकटन (सूक्ष्म जलीय वनस्पति) के अध्ययन
के आधार पर किंग्सटन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन के बारे में
काफी महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं।
सन 1872-76 तक चले एचएमएस चैलेंजर अभियान के दौरान एकत्रित किए गए
एक-कोशिकीय,
कवच बनाने वाले जीव फोरामिनीफेरा लंदन स्थित म्यूज़ियम ऑफ
नेचुरल हिस्ट्री में रखे हुए थे। सूक्ष्मजीवाश्म विज्ञानी लिंडसे फॉक्स ने इन
फोरामिनीफेरा नमूनों का अध्ययन किया और पाया कि वर्तमान फोरामिनीफेरा की तुलना में
प्राचीन फोरामिनीफेरा के कवच कहीं अधिक मोटे थे। उनका निष्कर्ष है कि कवच की मोटाई
में यह परिवर्तन समुद्री पानी के तेज़ी से अम्लीय होने की वजह से हुआ है।
वैसे तो वैज्ञानिक इस बात को पहले से जानते थे कि वातावरण में मौजूद अतिरिक्त
कार्बन डाईआऑक्साइड के समुद्र में घुलने के परिणामस्वरूप महासागर अम्लीय होते जा
रहे हैं जिसके कारण समुद्री जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अम्लीय पानी
कैल्शियम कार्बोनेट और जीवों के बाह्र कंकाल को झीना कर देता है और उनके लिए इस
तरह की संरचना बना पाना ही मुश्किल हो जाता है। लेकिन अधिकांश नतीजे प्रयोगशाला
में किए गए प्रयोगों से मिले थे जो बहुत लंबी अवधि के नहीं होते। वैज्ञानिक खुले
समुद्र में अम्लीय होते महासागरों के दीर्घकालिक प्रभाव जांचने में सक्षम नहीं थे।
तुलना के लिए शोधकर्ताओं ने दो प्रजातियों Neogloboquadrina
dutertrei और Globigerinoidesruber को चुना। एचएमएस चैलेंजर द्वारा एकत्रित नमूनों के सटीक स्थान और समय
के बारे में जानकारी प्राप्त की और इनकी तुलना उन्होंने साल 2011 में प्रशांत
महासागर में चले तारा अभियान से प्राप्त उन्हीं प्रजातियों के नमूनों से की।
उन्होंने सी.टी. स्कैन की मदद से इनके कवच का 3-डी मॉडल बनाया। उन्होंने पाया
कि प्राचीन नमूनों की तुलना में औसतन सभी आधुनिक कवच झीने थे। N.
dutertreiका आवरण तो 76 प्रतिशत झीना था। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित शोध
पत्र में बताया गया है कि कुछ वर्तमान कवच तो इतने पतले थे कि उनका 3-डी मॉडल तक
बनाना मुश्किल था।
शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसी संभावना है कि कवच समुद्रों की बढ़ती अम्लीयता के
कारण झीने हुए हों। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि इसमें महासागरों के बढ़ते तापमान
और ऑक्सीजन की कमी की भी भूमिका हो सकती है।
फॉक्स ऐसी ही तुलना संग्रहालयों में रखे हज़ारों प्लैंकटन जीवाश्मों के साथ करना चाहती हैं। वे उम्मीद करती हैं कि यह अध्ययन अन्य वैज्ञानिकों को भी संग्रहालयों की पड़ताल करने को प्रेरित करेगा। (स्रोत फीचर्स)
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नया कोरोनावायरस कुछ समय से विश्व भर में सुर्खियों में छाया
है,
लेकिन एक ऐसा वायरस संक्रमण भी है जो कई देशों में फैला हुआ
है जिसे हम मौसमी फ्लू कहते हैं। तो इनकी तुलना करना उपयोगी होगा।
इस नए कोरोनावायरस को अब नाम मिल गया है – COVID-19। इससे अब तक चीन में 427
लोगों की मौत हो चुकी है जबकि 20,000 लोग बीमार हैं। लेकिन यह संख्या मौसमी फ्लू
की तुलना में कुछ भी नहीं है। यूएस के सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन
(सीडीसी) के अनुसार अमेरिका में इस मौसम में फ्लू के कारण 10,000 लोगों की मौत हो
चुकी है और लगभग 2 करोड़ लोग इससे संक्रमित हुए हैं। इनमें से 1.8 लाख लोग इलाज के
लिए अस्पताल में भर्ती किए गए हैं।
वैज्ञानिक कई दशकों से मौसमी फ्लू का अध्ययन कर रहे हैं, इसलिए इसके बारे में काफी जानकारी है और हम यह तय कर पाते हैं कि आने वाले
मौसम में हमें क्या करना है। लेकिन इसके विपरीत COVID-19 एक नए प्रकार का वायरस है। वैज्ञानिक COVID-19 को अच्छी तरह से जानने और समझने की कोशिश कर रहे हैं।
उपलब्ध जानकारी के आधार पर नए कोरोनावायरस की तुलना फ्लू से की गई है।
दोनों ही प्रकार के वायरस संक्रामक हैं जो श्वसन सम्बंधी बीमारी को जन्म देते
हैं। साधारण फ्लू के लक्षण बुखार, खांसी, गले
में खराश,
मांसपेशियों में दर्द, सिरदर्द, बंद नाक,
थकान और कभी-कभी उल्टी और अतिसार वगैरह होते हैं। वैसे तो
फ्लू से ग्रस्त अधिकांश लोग दो सप्ताह से भी कम समय में ठीक हो जाते हैं लेकिन कुछ
लोगों में फ्लू निमोनिया का रूप लेकर काफी जटिल हो जाता है।
COVID-19 के लक्षणों और गंभीरता को समझने की कोशिश जारी है। चूंकि इसके अधिकतर लक्षण
मौसमी फ्लू से मिलते-जुलते हैं, इसको विभिन्न श्वसन सम्बंधी
वायरसों से अलग करना काफी मुश्किल है। 100 लोगों पर किए गए एक अध्ययन में बुखार, खांसी और सांस लेने में तकलीफ जैसे लक्षण पाए गए थे। केवल 5 प्रतिशत लोगों में
गले की खराश और बंद नाक के लक्षण पाए गए, 1-2 प्रतिशत लोगों में
अतिसार और उल्टी जैसे लक्षण पाए गए। WHO के अनुसार चीन में 20,000 दर्ज मामलों में से 14 प्रतिशत लोगों की स्थिति को
गंभीर माना गया है।
सीडीसी के अनुसार अमेरिका में इस वर्ष फ्लू ग्रस्त लोगों में से 0.05 प्रतिशत
लोगों की मौत हुई है। जबकि COVID-19 के कारण मृत्यु दर अभी भी स्पष्ट नहीं है, फिर भी
फ्लू की तुलना में यह अधिक प्रतीत होती है। इसकी शुरुआत से लेकर अब तक के आंकड़ों
के अनुसार लगभग 2 प्रतिशत की मृत्यु दर दर्ज की गई है।
वायरस फैलने की तेज़ी को मापने के लिए वैज्ञानिक यह देखते हैं कि औसतन कोई व्यक्ति कितनों को संक्रमित करता है। दी न्यू यॉर्क टाइम्स के अनुसार फ्लू के लिए यह संख्या 1.3 है। न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन के अनुसार COVID-19 के लिए यह संख्या 2.2 है (यानि एक संक्रमित व्यक्ति से 2.2 लोगों में यह वायरस फैलता है)। फिलहाल श्वसन सम्बंधी वायरस से बचने के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं: पानी और साबुन से कम से कम 20 सेकंड तक हाथ धोना, बिना धुले हाथों से नाक और आंखों को छूने से बचना, जो लोग बीमार हैं उनसे निकट संपर्क से बचना। इसके अलावा बीमार होने पर घर पर रहना तथा अक्सर उपयोग होने वाली चीज़ों को साफ रखना भी महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)
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कुपोषण व अल्प-पोषण की समस्या को देखते हुए भारत में पोषण
योजनाओं व अभियानों का विशेष महत्व है। इस संदर्भ में भारत सरकार का हाल का
बहुचर्चित कार्यक्रम ‘पोषण अभियान’ है। इस अभियान के अंतर्गत वित्तीय संसाधनों का
आवंटन तो काफी हद तक उम्मीद के अनुरूप हुआ है, पर
वास्तविक उपयोग में काफी कमी के कारण इसका समुचित लाभ प्राप्त नहीं हो पा रहा है।
एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव (सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च) के एक आकलन के अनुसार
वित्तीय वर्ष 2017-18 से 2019-20 वित्तीय वर्ष में 30 नवंबर तक, इस कार्यक्रम के लिए जारी किया गया मात्र 34 प्रतिशत धन वास्तव में खर्च हुआ।
इस अभियान में नई दिशा दिखाने वाली सफल प्रयोगात्मक परियोजनाओं के लिए विशेष
अनुदान का प्रावधान है। इसका उपयोग 30 नवंबर 2019 तक मात्र 12 राज्यों में ही हो
सका। वित्तीय वर्ष 2019-20 में नवंबर तक इस अभियान के लिए 15 राज्यों में कोई धन
रिलीज़ ही नहीं हुआ।
इस अभियान के बारे में यह भी समझना ज़रूरी है कि इसमें सूचना तकनीक, स्मार्टफोन खरीदने, सॉफ्टवेयर, मॉनीटरिंग, व्यवहार में बदलाव सम्बंधी आयोजनों आदि पर अधिक खर्च होता है और एकाउंटिबिलिटी
इनिशिएटिव के अनुसार 72 प्रतिशत खर्च ऐसे मदों पर है। यह बताना इसलिए ज़रूरी है
क्योंकि पोषण अभियान से लोग यही समझते हैं कि इसके अंतर्गत अधिकतर धन का उपयोग भूख
व कुपोषण से पीड़ित लोगों व बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करने में खर्च
होता है।
इस कार्यक्रम के लिए धन भारत सरकार के अतिरिक्त राज्यों व केन्द्र शासित
प्रदेशों से आता है और विश्व बैंक व बहुपक्षीय बैंक अंतर्राष्ट्रीय सहायता भी
उपलब्ध करवाते हैं।
बच्चों के लिए पोषण का सबसे बड़ा कार्यक्रम आई.सी.डी.एस. (आंगनवाड़ी) है। इस
कार्यक्रम पर वर्ष 2014-15 में 16,664 करोड़ रुपए खर्च हुए थे व 2019-20 का संशोधित
अनुमान 17,705 करोड़ रुपए है। अर्थात महंगाई का असर कवर करने लायक भी वृद्धि नहीं
हुई है जबकि 5 वर्षों में इसके कवरेज में आने वाले बच्चों की संख्या तो निश्चय ही
काफी बढ़ी है।
वर्ष 2019-20 में इसके लिए बजट अनुमान 19,834 करोड़ रुपए था व वर्ष 2020-21 का
बजट अनुमान 20,532 करोड़ रुपए है, जिससे पता चलता है कि बहुत
मामूली वृद्धि है जो महंगाई के असर की मुश्किल से पूर्ति करेगी।
इतना ही नहीं, वर्ष 2019-20 में इस स्कीम के लिए मूल
आवंटन तो 19,834 करोड़ रुपए का था, पर संशोधित अनुमान तैयार करते
समय ही इसे 17,705 करोड़ रुपए पर समेट दिया गया था यानि 2129 करोड़ रुपए की कटौती इस
पोषण के कार्यक्रम में की गई जो बहुत चिंताजनक है।
इसी तरह किशोरी बालिकाओं के स्वास्थ्य व पोषण की स्कीम ‘सबला’ के लिए 2019-20
के मूल बजट में 300 करोड़ रुपए का प्रावधान था जिसे संशोधित बजट में मात्र 150 करोड़
रुपए कर दिया गया यानी इसे आधा कर दिया गया। वर्ष 2020-21 के बजट में 250 करोड़
रुपए का प्रावधान है।
प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना को सरकार ने स्वयं विशेष महत्व की योजना माना है।
किंतु वर्ष 2018-19 के बजट में इसके लिए जो मूल प्रावधान था, वास्तव में उसका मात्र 44 प्रतिशत ही खर्च किया गया। ज़्यां ड्रेज़ और रीतिका
खेरा के एक अध्ययन में बताया गया है कि इस योजना के लिए योग्य मानी जाने वाली
मात्र 51 प्रतिशत माताओं तक ही इसका लाभ पहुंच सका। जिनको लाभ मिला उनमें से मात्र
61 प्रतिशत को तयशुदा तीनों किश्तें प्राप्त हो सकीं (कुल 5000 रुपए)।
वर्ष 2019-20 में इस योजना के लिए 2500 करोड़ रुपए का मूल प्रावधान था। इसे
संशोधित अनुमान में 2300 करोड़ रुपए कर दिया गया।
स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील का कार्यक्रम महत्वपूर्ण है। इस पर वर्ष
2014-15 में वास्तविक खर्च 10,523 करोड़ रुपए था। वर्ष 2019-20 का इस कार्यक्रम का
संशोधित अनुमान 9,912 करोड़ रुपए है यानि 5 वर्ष पहले के बजट से भी कम, जबकि महंगाई कितनी बढ़ गई है।
वर्ष 2019-20 के बजट में इस कार्यक्रम का मूल प्रावधान 11,000 करोड़ रुपए का था, पर संशोधित अनुमान में इसे 9,912 करोड़ रुपए कर दिया गया। वर्ष 2020-21 के बजट
में फिर 11,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है।
इस तरह पोषण कार्यक्रमों पर कम आवंटन, बड़ी कटौतियों, समय पर फंड जारी न होने आदि का प्रतिकूल असर पड़ता रहा है। इस स्थिति को सुधारना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले दिनों कोरोनावायरस सुर्खियों में रहा है। चीन के
समुद्री खाद्य पदार्थों के बाज़ार वुहान से निकला यह वायरस एक आतंक का पर्याय-सा बन
गया है। शुरू-शुरू में इसे अस्थायी नाम 2019- nCoV दिया गया था लेकिन अब
इसे एक स्थायी नाम भी मिल गया है – COVID-19।
इसके संक्रमण से लगभग फ्लू जैसे लक्षण पैदा होते हैं – बुखार, खांसी,
जुकाम, थकान, और
कभी-कभी उल्टी-दस्त हालांकि COVID-19 कुछ ही मरीज़ों में नाक बहना तथा और भी कम मरीज़ों में उल्टी-दस्त की शिकायत
रिपोर्ट हुई है। साधारण फ्लू और COVID-19,
दोनों ही मामलों में मृत्यु की भी आशंका रहती है।
COVID-19 वायरस मनुष्य से मनुष्य
में फैलता है। फ्लू वायरस के बारे में कहा जाता है कि यदि रोकथाम के कोई उपाय
(जैसे मास्क लगाना वगैरह न किए जाएं) तो कोई भी फ्लू संक्रमित व्यक्ति औसतन 1.3
व्यक्तियों तक यह वायरस पहुंचा पाता है। यानी यदि 100 लोग फ्लू वायरस से संक्रमित
हैं तो वे 130 लोगों को संक्रमित कर देंगे। COVID-19 के बारे में एक अनुमान है कि 100 संक्रमित व्यक्ति 220
लोगों को यह संक्रमण संचारित करेंगे। वैसे इन सब मामलों में मुख्य दिक्कत यह है कि
COVID-19 एक नया वायरस है और इसके
बारे में अनुमान दिन-ब-दिन बदलते जाएंगे। अभी तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे
अंतर्राष्ट्रीय चिंता का स्वास्थ्य संकट घोषित किया है।
इसी नवीनता की वजह से वैज्ञानिक अभी असमंजस में हैं कि COVID-19 से निपटने के सबसे कारगर
तरीके क्या होंगे। इसलिए फिलहाल मोटे तौर पर यही सलाह दी जा रही है कि लोगों से ज़्यादा
निकट संपर्क से बचें, खांसते-छींकते समय मुंह और नाक को ढंककर
रखें,
पास में कोई खांसता-छींकता हो, तो
अपनी नाक पर कपड़ा रख लें, हाथों को बार-बार धोएं वगैरह।
COVID-19 की प्रमुख चुनौती उसकी
नवीनता है। उदाहरण के लिए जहां फ्लू के खिलाफ टीका उपलब्ध है (जो रोकथाम का एक
प्रमुख उपाय है),
वहीं COVID-19 के खिलाफ हमारे पास फिलहाल कोई टीका नहीं है। लेकिन यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट
ऑॅफ हेल्थ के शोधकर्ता COVID-19 के खिलाफ टीका विकसित करने की दिशा में काम कर रहे हैं और उम्मीद है कि
तीन महीने के अंदर टीके का परीक्षण शुरू हो जाएगा।
इलाज के उपाय
अब तक हमारे पास COVID-19 का
कोई विशिष्ट इलाज नहीं है। अत: फिलहाल लक्षणों का ही इलाज किया जा रहा है। इसका
मतलब यही है कि मरीज़ को सांस लेने में सहायता मिले, बुखार
पर नियंत्रण रखा जाए और पर्याप्त तरल शरीर में पहुंचाए जाएं। फिर भी विशेषज्ञों ने
कुछ उपाय सुझाए हैं और कुछ प्रगति की है। इस मामले में दो रास्ते अपनाए जा रहे
हैं।
पहला रास्ता है कि पुरानी वायरस-रोधी दवाइयों को COVID-19 के उपचार में इस्तेमाल करने की कोशिश करना। वैसे भी अभी
हाल तक हमारे पास सचमुच कारगर वायरस-रोधी दवाइयां बहुत कम थीं। खास तौर से ऐसे
वायरसों के खिलाफ औषधियों की बहुत कमी थी जो जेनेटिक सामग्री के रूप में डीएनए की
बजाय आरएनए का उपयोग करते हैं, जिन्हें रिट्रोवायरस कहते हैं।
कोरोनावायरस इसी किस्म का वायरस हैं। और COVID-19 तो एक नया वायरस या किसी पुराने वायरस की नई किस्म है।
लेकिन हाल के वर्षों में अनुसंधान की बदौलत हमारे वायरस-रोधी खज़ाने में काफी
वृद्धि हुई है।
लेकिन फिर भी सर्वथा नई दवा का निर्माण करना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए
पैसा और समय दोनों की ज़रूरत होती है। तो यह तरीका ठीक ही लगता है कि नई दवा का
इन्तज़ार करते हुए पुरानी दवाओं को आज़माया जाए।
दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक
रिपोर्ट के मुताबिक वॉशिंगटन में COVID-19 से संक्रमित एक व्यक्ति के उपचार के लिए वायरस-रोधी औषधि रेमडेसिविर का
उपयोग किया गया। यह दवा मूलत: एबोला वायरस के उपचार के लिए विकसित की गई थी और इसे
COVID-19 के संदर्भ में मंज़ूरी नहीं
मिली है। विशेष मंज़ूरी लेकर यह दवा दी गई और वह व्यक्ति स्वस्थ हो गया।
वैज्ञानिकों ने रेमडेसिविर को प्रयोगशाला में जंतु मॉडल्स में अन्य कोरोनावारस
के खिलाफ भी परखा है। लेकिन यह नहीं दर्शाया जा सका है कि यह दवा सुरक्षित है और न
ही यह कहा जा सकता है कि यह कारगर है।
हाल ही में कुछ शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में कई सारी वायरस-रोधी दवाइयों का
परीक्षण COVID-19 पर किया है। यह पता चला है
कि रेमडेसिविर कम से कम प्रयोगशाला की तश्तरी में तो इस वायरस को प्रजनन करने से
रोक देती है। इसी प्रकार से यह भी पता चला है कि आम मलेरिया-रोधी औषधि क्लोरोक्वीन
प्रयोगशाला में COVID-19 को मानव कोशिकाओं में आगे
बढ़ने से रोकती है। ऐसा माना जा रहा है कि ये दोनों दवाइयां आगे परीक्षण के लिए
उपयुक्त उम्मीदवार हैं।
जहां तक नई दवा खोजने का सवाल है, तो कुछ प्रगति तो हुई है
लेकिन इसमें कई दिक्कतें हैं। जब कोई वायरस शरीर में प्रवेश करता है तो उसे
कोशिकाओं के अंदर पहुंचना पड़ता है। कोशिकाओं में प्रवेश पाने के लिए वह कोशिका की
सतह पर किसी प्रोटीन से जुड़ता है। यह प्रोटीन ग्राही-प्रोटीन कहलाता है। इसके बाद
कोशिका की झिल्ली पर एक थैली-सी (एंडोसोम) बनती है जिसमें समाकर वायरस कोशिका के
अंदर पहुंच जाता है। इसी थैली में बैठे-बैठे वायरस अपना आरएनए कोशिका के कोशिका
द्रव्य में पहुंचा देता है। इसके बाद इस आरएनए की मदद से वायरस कोशिका पर पूरा
कब्जा कर लेता है और उससे वह वायरस प्रोटीन बनवाता है जो खुद उसकी प्रतिलिपि बनाने
के लिए ज़रूरी होते हैं। इस प्रोटीन का उपयोग करके वह अपने एंज़ाइम की मदद से अपने
आरएनए की प्रतिलिपियां बना लेता है। अंत में प्रोटीन और आरएनए इस तरह पैकेज होते
हैं कि वायरस उस कोशिका से बाहर निकलकर किसी अन्य कोशिका में घुसने को तैयार हो
जाता है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो पूरी प्रक्रिया में कई चरण होते हैं और हम इनमें से
किसी भी चरण में बाधा पहुंचाकर वायरस का प्रसार रोक सकते हैं। उदाहरण के लिए
क्लोरोक्वीन के बारे में पता चला है कि वह वायरस को एंडोसोम में से अपना आरएनए
बाहर भेजने से रोकती है। दूसरी ओर, रेमडेसिविर
वायरस के आरएनए से जुड़ जाती है और वहां ऐसी त्रुटियां पैदा कर देती है कि आरएनए
किसी काम का नहीं रहता।
2003 के सार्स प्रकोप के समय वायरस के लिए स्वीकृत एक दवा का उपयोग किया गया
था। दरअसल यह दवाइयों का एक समूह है जिसे प्रोटिएस इनहिबिटर कहते हैं। इसे अब COVID-19 के खिलाफ इस्तेमाल करने के
लिए परीक्षण चल रहे हैं।
चीन सरकार ने इसी समूह की दो अन्य दवाइयों के उपयोग का सुझाव दिया था। सुझाव
था कि COVID-19 से संक्रमित व्यक्तियों को
रोज़ाना लोपिनेविर/राइटोनेविर की दो गोलियां दी जाएं और उन्हें दिन में दो बार
अल्फा-इंटरफेरॉन सूंघने को कहा जाए। ये दवाइयां कोशिकाओं को ऐसे रसायन स्रावित
करने को उकसाती हैं जो अन्य कोशिकाओं के लिए चेतावनी का काम करते हैं कि शरीर में
कोई संक्रमण मौजूद है।
वायरसों के साथ दो समस्याएं और भी हैं। पहली है कि वायरस में बहुत विविधता पाई
जाती है। दूसरी दिक्कत है कि वायरस आपकी अपनी कोशिका की मशीनरी का उपयोग करते हैं।
इस वजह से वायरस के कामकाज में बाधा डालते हुए खतरा यह भी रहता है कि कहीं आपकी
कोशिकीय मशीनरी प्रभावित न हो। इस मामले में अनुसंधान ज़ोर-शोर से जारी है कि
कोशिका की सतह के उन अणुओं की पहचान की जाए जो COVID-19 को कोशिका से जुड़ने और प्रवेश करने में मदद करते हैं।
वैसे कई अन्य समूह COVID-19 के
लिए टीका बनाने का प्रयास भी कर रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक ऐसी किसी दवा के
विकास में कम से कम दो साल का समय लगेगा।
इस बीच भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने 29 जनवरी को एक स्वास्थ्य सलाह जारी की
है जिसमें COVID-19 के उपचार हेतु होम्योपैथी
तथा अन्य पारंपरिक औषधियों के उपयोग की वकालत की गई है। इसके अंतर्गत होम्योपैथी
औषधि आर्सेनिकम एल्बम 30-सी लेने तथा रोज़ाना सुबह दोनों नथुनों में 2-2 बूंद तिल
का तेल डालने को कहा गया है। इसके अलावा, यूनानी औषधियों के उपयोग
की भी सलाह दी गई है। आयुष मंत्रालय की केंद्रीय होम्योपैथी अनुसंधान परिषद
(सीसीआरएच) के अध्यक्ष अनिल खुराना का कहना है कि 2009 में आर्सेनिकम एल्बम 30-सी
को स्वाइन फ्लू की रोकथाम में उपयोगी पाया गया था। वैसे उन्होंने यह भी स्पष्ट
किया है कि मात्र आर्सेनिकम एल्बम लेने से काम नहीं चलेगा, बाकी
के रोकथाम के उपाय जारी रखने होंगे और लक्षण प्रकट होते ही अस्पताल जाना बेहतर
होगा। वैसे चिकित्सा समुदाय के कई लोगों ने इस सलाह की आलोचना की है।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि COVID-19 तेज़ी से फैल रहा है, कोई पक्का इलाज उपलब्ध नहीं है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि आने वाले दिनों में यह बीमारी क्या रुख अख्तियार करेगी। अत: इसे फैलने से रोकने के उपाय करना ही बेहतर होगा। एक अच्छी बात यह है कि बीमारी के लक्षण वाले व्यक्तियों में बच्चों की संख्या कम है। आंकड़े बताते हैं कि अधिकांश मरीज़ 49 से 56 वर्ष के बीच हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.npr.org/assets/img/2020/01/22/sciencesource_ss2413465-bd5e295079f203794a6d35a99a4db82fa5615d4d-s800-c85.jpg
बरसों से दुनिया जिन ऊर्जा स्रोतों को र्इंधन के रूप में
उपयोग करती आ रही है, वे सीमित हैं। जहां एक ओर उनको बनने में
लाखों साल लग जाते हैं, वहीं उनके अत्यधिक दोहन से समय के साथ-साथ
वे चुक जाएंगे। ऐसे में आशा की एक नई किरण वैकल्पिक र्इंधन के रूप में सामने आई
है। वैकल्पिक र्इंधन देश के कच्चे तेल के आयात बिल को कम करने में मदद कर सकते
हैं। वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था के मुख्य चालक डीज़ल और पेट्रोल हैं अर्थात
भारत की अधिकतम ऊर्जा ज़रूरतें डीज़ल और पेट्रोल से पूरी होती हैं। अब स्थिति को
बदलने की दिशा में काम हो रहा है।
वैश्विक स्तर पर वैकल्पिक र्इंधन के रूप में मेथेनॉल का उत्पादन और उपयोग बढ़
रहा है। इसके मुख्य कारण हैं कोयले और प्राकृतिक गैस जैसे सस्ते माल की कमी, तेल की कीमतों में वृद्धि, तेल आयात बिल में कमी करने की
ख्वाहिश और प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय मुद्दे।
र्इंधन के रूप में और रासायनिक उद्योग में मध्यवर्ती पदार्थ रूप में मेथेनॉल
का उपयोग ऑटोमोबाइल और उपभोक्ता क्षेत्रों में तेज़ी से बढ़ रहा है। मेथेनॉल अपने
उच्च ऑक्टेन नंबर के कारण एक कुशल र्इंधन माना जाता है और यह गैसोलीन की तुलना में
सल्फर ऑक्साइड्स (एसओएक्स), नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (एनओक्स)
और कणीय पदार्थ व गैसीय प्रदूषक तत्व कम उत्सर्जित करता है।
‘मेथेनॉल अर्थव्यवस्था’ का शाब्दिक अर्थ ऐसी अर्थव्यवस्था से है जो डीज़ल और
पेट्रोल की बजाय मेथेनॉल के बढ़ते प्रयोग पर आधारित हो। मेथेनॉल अर्थव्यवस्था की
अवधारणा को सक्रिय रूप से चीन, इटली, स्वीडन, इस्राइल,
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और कई अन्य युरोपीय देशों द्वारा लागू किया गया है। वर्तमान में चीन में
लगभग 9 प्रतिशत परिवहन र्इंधन के रूप में मेथेनॉल का इस्तेमाल किया जा रहा है।
इसके अलावा इस्राइल, इटली ने पेट्रोल के साथ मेथेनॉल के 15
प्रतिशत मिश्रण की योजना बनाई है।
भारतीय र्इंधन में मेथेनॉल की शुरुआत अप्रत्यक्ष रूप से हुई थी, जब बॉयोडीज़ल,
मेथेनॉल और गैर खाद्य पौधों से बने तेल जैसे रतनजोत तेल को
2009 में जैव र्इंधन हेतु राष्ट्रीय नीति में शामिल किया गया था। मेथेनॉल
अर्थव्यवस्था बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य देश की अर्थव्यवस्था के विकास को टिकाऊ
बनाना है ताकि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भावी पीढ़ियों की
ज़रूरतों के साथ कोई समझौता न हो।
गैसोलीन में 15 प्रतिशत तक सम्मिश्रण के लिए मेथेनॉल अपेक्षाकृत एक आसान
विकल्प है। यह वाहनों, स्वचालित यंत्रों या कृषि उपकरणों में कोई
बदलाव किए बिना वायु गुणवत्ता सम्बंधी तत्काल लाभ प्रदान करता है। हालांकि दो अन्य
अनिवार्यताओं,
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और र्इंधन आयात से विदेशी
मुद्रा के बहिर्वाह में कमी के संदर्भ में भारत में अधिक मेथेनॉल क्षमता स्थापित
करना आवश्यक होगा।
मोटे तौर पर देखा जाए तो मेथेनॉल र्इंधन हो या आजकल का मूल स्रोत हाइड्रोकार्बन
हो इनमें वनस्पति जगत का मुख्य योगदान है। स्पष्ट है कि तमाम कार्बनिक पदार्थों के
विश्लेषण से मेथेनॉल प्राप्त करना संभव है। जैव पदार्थ का बेहतरीन उपयोग कर 75
प्रतिशत तक मेथेनॉल प्राप्त किया जा सकता है। धरती की हरियाली से प्राप्त मेथेनॉल
की उपयोगिता को भारतीय वैज्ञानिकों ने समझा और उसका उपयोग वाहनों को गति देने के
लिए कर दिखाया। परीक्षणों में पाया गया है कि मेथेनॉल को 12 प्रतिशत की दर से मूल
र्इंधन में मिलाकर वाहन चलाना संभव है।
वर्ष 1989 में नई दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में वैज्ञानिकों
ने पेट्रोल में मेथेनॉल मिलाकर एक स्कूटर पहले आईआईटी कैम्पस में बतौर परीक्षण और
फिर दिल्ली की सड़कों पर चलाया। इस सफलता से प्रेरित होकर भारतीय पेट्रोलियम
संस्थान के वैज्ञानिकों ने मेथेनॉल-पेट्रोल के मिश्रण से पहली खेप में 15 स्कूटर
और बाद में कई स्कूटर चलाए। इससे प्रभावित होकर कई निजी कंपनियां सामने आर्इं।
वड़ोदरा में तो इनकी प्रायोगिक तौर पर बिक्री भी की गई।
पेट्रोल के अलावा मेथेनॉल को डीज़ल में मिलाकर भी कुछ सफलता प्राप्त हुई है।
डीज़ल-मेथेनॉल के इस रूप को ‘डीज़ोहॉल’ नाम दिया गया है। भारतीय पेट्रोलियम संस्थान द्वारा डीज़ल में 15 से 20 प्रतिशत
तक मेथेनॉल मिलाकर बसें भी चलाई जा चुकी हैं। भारत सहित कई अन्य देशों में डीज़ोहॉल
को लेकर व्यावसायिक परीक्षण भी किए जा रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि डीज़ोहॉल
अधिक ऊर्जा क्षमता वाला र्इंधन होने के अलावा प्रदूषण भी कम पैदा करता है। कहना न
होगा कि यह आर्थिक रूप से बेहतर और पर्यावरण हितैषी भी है।
वर्तमान में भारत को प्रति वर्ष 2900
करोड़ लीटर पेट्रोल और 9000 करोड़ लीटर डीज़ल की ज़रूरत होती है। भारत दुनिया
में छठवां सबसे ज़्यादा तेल उपभोक्ता देश है। 2030 तक यह खपत दुगनी हो जाएगी और
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश बन जाएगा।
इसके अलावा भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जक देश है।
दिल्ली जैसे शहरों में लगभग 30 प्रतिशत प्रदूषण वाहनों से होता है और सड़क पर कारों
और अन्य वाहनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण की इस स्थिति को आने वाले दिनों में और भी
विकट बनाएगी। इसलिए बढ़ते आयात बिल और प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए भारत का
नीति आयोग देश की अर्थव्यवस्था को मेथेनॉल अर्थव्यवस्था में बदलने पर विचार कर रहा
है।
हमारे देश में मेथेनॉल अर्थव्यवस्था एक व्यावहारिक, आवश्यक
और किफायती रूप लिए उभर रही है। गर्व की बात है कि हमने प्रति वर्ष दो मीट्रिक टन
मेथेनॉल पैदा करने की क्षमता हासिल कर ली है। उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2030 तक
भारत के र्इंधन बिल में 30 प्रतिशत तक की कटौती हो जाएगी, जो
मेथेनॉल के दम पर ही संभव होगी। भारत द्वारा मूल र्इंधन में 15 प्रतिशत मेथेनॉल
मिलाए जाने का कार्यक्रम बनाया जा रहा है। इसके लिए इस्राइल जैसे देशों से मदद
लेने की भी संभावना है। नीति आयोग द्वारा मेथेनॉल अर्थव्यवस्था फंड भी निर्धारित
करने की योजना है जिसमें मेथेनॉल आधारित परियोजनाओं के लिए चार-पांच हज़ार करोड़
रुपए का प्रावधान है।
देश में बढ़ते प्रदूषण और कच्चे तेल के बढ़ते आयात बिल को देखते हुए भारत के लिए मेथेनॉल का उपयोग न सिर्फ ज़रूरी है बल्कि पर्यावरण की मांग भी है। यदि मेथेनॉल का उपयोग भारत में व्यापक पैमाने पर शुरू कर दिया जाता है तो भारत में होने वाला विकास टिकाऊ विकास हो जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://microgridnews.com/wp-content/uploads/2019/03/KamuthiSolarPark_800.jpg
भारत ही नहीं, पूरी दुनिया
में औद्योगिक विकास और बढ़ते शहरीकरण के चलते वन्य जीवों के सामने चुनौतीपूर्ण
हालात उत्पन्न हो गए हैं। उनके संरक्षण एवं पुनर्वास की अनेक कोशिशों के बावजूद न
तो संरक्षण की स्थिति संतोषजनक हुई है और न ही गिरवन के सिंह जैसे दुर्लभ
प्राणियों का पुनर्वास कूनो-पालपुर अभयारण्य में संभव हो पाया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने 74 साल
पहले भारत में पूरी तरह लुप्त हो चुके चीते के पुनर्वास की अनुमति मध्यप्रदेश
सरकार के वन विभाग को दी थी। टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त मध्यप्रदेश में इन
चीतों को दक्षिण अफ्रीका के नमीबिया से लाकर सागर जिले के नौरादेही अभयारण्य में
नया ठिकाना बनाया जाएगा। यहां पिछले एक दशक से चीतों को बसाने के लिए अनुकूल
परिस्थितियां बनाई जा रही हैं। दरअसल, चीते को घास के मैदान वाले जंगल पसंद हैं और नौरादेही इसी के लिए जाना जाता
है। हालांकि इन्हें बसाने के विकल्प के रूप में श्योपुर ज़िले का कूनो-पालपुर
अभयारण्य और राजस्थान के शाहगढ़ व जैसलमेर के थार क्षेत्र भी तलाशे गए थे,
लेकिन इन वनखंडों में चीतों के अनुकूल प्राकृतिक आहार,
प्रजनन व आवास की सुविधा न होने के कारण नौरादेही को ज़्यादा
श्रेष्ठ माना गया। यह अनुमति राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की याचिका
पर दी गई है।
एक समय था जब चीते की रफ्तार
भारतीय वनों की शान हुआ करती थी। लेकिन 1947 आते-आते चीतों की आबादी पूरी तरह
लुप्त हो गई। 1948 में अंतिम चीता छत्तीसगढ़ के सरगुजा में देखा गया था जिसे मार
गिराया गया था। चीता तेज़ रफ्तार का आश्चर्यजनक चमत्कार माना जाता है। अपनी विशिष्ट
लोचपूर्ण देहयष्टि के लिए भी इस हिंसक वन्य जीव की अलग पहचान थी। शरीर में इसी
चपलता के कारण यह सबसे तेज़ धावक था। इसलिए इसे जंगल की बिजली भी कहा गया।
मध्यप्रदेश में चीतों की बसाहट
की जाती है तो नौरादेही के 53 आदिवासी बहुल ग्रामों को विस्थापित करना होगा। इस
अभयारण्य के विस्तार के लिए 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र प्रस्तावित है। यह इलाका
सागर, नरसिंहपुर एवं छतरपुर
ज़िलों में फैला हुआ है। सबसे ज़्यादा विस्थापित किए जाने वाले 20 गांव सागर ज़िले
में हैं। इनमें से 10 गांवों का विस्थापन पहले ही किया जा चुका है। शेष छतरपुर व
नरसिंहपुर ज़िलों के राजस्व ग्राम हैं, जिनका विस्थापन होना है। अर्थात जितना कठिन चीतों का पुनर्वास है,
उससे ज़्यादा कठिन व खर्चीला काम गांवों का विस्थापन है। देश
में चीतों एवं सिंहों के पुनर्वास के प्रयत्न अब तक असफल ही रहे हैं।
दरअसल, 1993 में चार चीते दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से दिल्ली के
चिड़ियाघर में लाए गए थे। वैसे चीतों द्वारा चिड़ियाघरों में प्रजनन अपवाद घटना होती
है लेकिन चिड़ियाघर में इनके आवास, परवरिश व प्रजनन के पर्याप्त उपाय किए गए थे। लिहाज़ा उम्मीद थी कि ये
वंशवृद्धि करेंगे और इनकी संतानों को देश के अन्य चिड़ियाघरों व अभयारण्यों में
स्थानांतरित किया जाएगा। बदकिस्मती से, प्रजनन से पहले ही चीते मर गए।
बीती सदी में चीतों की संख्या
एक लाख तक थी, लेकिन
अफ्रीका के खुले घास वाले जंगलों से लेकर भारत सहित लगभग सभी एशियाई देशों में पाए
जाने वाला चीते अब पूरे एशियाई जंगलों में गिनती के रह गए हैं। राजा चीता (एसिनोनिक्स
रेक्स) जिम्बाब्वे में मिलता है। अफ्रीका के जंगलों में भी गिने-चुने चीते रह
गए हैं। तंजानिया के सेरेंगटी राष्ट्रीय उद्यान और नमीबिया के जंगलों में भी गिनती
के चीते ही हैं।
प्रजनन के तमाम आधुनिक व
वैज्ञानिक उपायों के बावजूद जंगल की इस फुर्तीली नस्ल की संख्या बढ़ाई नहीं जा पा
रही है। ज़ुऑलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया में 91
प्रतिशत चीते 1991 में ही समाप्त हो चुके थे। अब पूरी दुनिया में केवल 7100 चीते
बचे हैं। एशिया के ईरान में केवल 50 चीते शेष हैं। अफ्रीकी देश केन्या के
मासाईमारा क्षेत्र को चीतों का गढ़ माना जाता था, लेकिन अब वहां इनकी संख्या गिनती की रह गई है।
इस सदी के पांचवे दशक तक चीते
अमेरिका के चिड़ियाघरों में भी थे। प्राणि विशेषज्ञों की अनेक कोशिशों के बाद इन
चीतों ने 1956 में शिशुओं को जन्म भी दिया था। पर किसी भी शिशु को बचाया नहीं जा
सका। चीते द्वारा किसी चिड़ियाघर में जोड़ा बनाने की यह पहली घटना थी,
जो नाकाम रही। जंगल के हिंसक जीवों का प्रजनन चिड़ियाघरों
में आश्चर्यजनक ढंग से प्रभावित होता है, इसलिए शेर, बाघ,
तेंदुए व चीते चिड़ियाघरों में जोड़ा बनाने की इच्छा नहीं
रखते हैं।
भारत में चीतों की अंतिम पीढ़ी
के कुछ सदस्य 1947 में बस्तर-सरगुजा के घने जंगलों में देखे गए थे। प्रदेश अथवा
भारत सरकार इनके संरक्षण के ज़रूरी उपाय करने हेतु हरकत में आती,
इससे पहले ही चीतों के इन अंतिम वंशजों को भी शिकार के
शौकीन राजा-महाराजाओं ने मार गिराया। इस तरह भारतीय चीतों की नस्ल पर पूर्ण विराम
लग गया।
हमारे देश के राजा-महाराजाओं
को घोड़ों और कुत्तों की तरह चीते पालने का भी शौक था। चीता-शावकों को पालकर इनसे
जंगल में शिकार कराया जाता था। राजा लोग जब जंगल में आखेट के लिए जाते थे,
तो प्रशिक्षित चीते को बैलगाड़ी में बिठाकर साथ ले जाते थे। उसकी
आंखों पर पट्टी बांध दी जाती थी, ताकि वह किसी मामूली वन्य जीव पर न झपटे। जब शिकार राजाओं की दृष्टि के दायरे
में आ जाता, तो चीते की
आंखों की पट्टी खोलकर शिकार की दिशा में हाथ से इशारा कर दिया जाता था। पलक झपकते
ही शिकार चीते के कब्जे में होता। शिकार का यह अद्भुत करिश्मा देखना भी रोमांच की
बात रही होगी।
भारत के कई राजमहलों में पालतू
चीतों से शिकार करवाने के अनेक चित्र अंकित हैं। मुगल काल में अकबर ने सैकड़ों
चीतों को बंधक बनाकर पाला। मध्यप्रदेश में मांडू विजय से लौटने के बाद अकबर ने
चंदेरी और नरवर (शिवपुरी) के जंगलों में चीतों से वन्य प्राणियों का शिकार कराया।
नरवर के जंगलों में अकबर ने जंगली हाथियों का भी खूब शिकार किया। ग्वालियर रियासत
में सिंधिया राजा ने भी चीते पाले हुए थे, लेकिन चीतों को पाले जाने का शगल ग्वालियर रियासत में
उन्नीसवीं सदी के अंत तक ही संभव रहा।
मार्को पोलो ने तेरहवीं
शताब्दी के एक दस्तावेज़ के हवाले से बताया है कि कुबलई खान ने अपने कारोबारी पड़ाव
पर एक हज़ार से भी अधिक चीते पाल रखे थे। इन चीतों के लिए अलग-अलग अस्तबल थे। चीते
इस पड़ाव की चौकीदारी भी करते थे। बड़ी संख्या में चीतों को पालतू बनाने से इनके
प्रकृतिजन्य स्वभाव और प्रजनन क्रिया पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ा। गुलामी की ज़िंदगी
व सईस के हंटर की फटकार की दहशत ने इन्हें मानसिक रूप से दुर्बल बना दिया। जब चाहे
तब भेड़-बकरियों की तरह हांक लगा देने से भी इनकी सहजता प्रभावित हुई। चीतों की
ताकत में कमी न आए इसके लिए इन्हें मादाओं से अलग रखा जाता था। बैलों की तरह नर
चीतों को बधिया करने की क्रूरताएं भी राजा-महाराजाओं ने खूब अपनार्इं।
चीते की लंबाई साढ़े चार से
पांच फीट होती है। बिल्ली प्रजाति के प्राणियों में चीते की पूंछ सबसे ज़्यादा लंबी
होती है। पूंछ की लंबाई तीन से साढ़े तीन फीट होती है। इसकी टांगें लंबी और कमर
पतली होती है। पूरे तन पर छोटे-बड़े काले गोल-गोल धब्बे होते हैं। इसकी आंखों की
कोरों से काली धारियां निकलकर इसके मुख तक आती हैं। ये धारियां बिल्ली प्रजाति के
अन्य प्राणियों में नहीं होतीं। इसके गालों का हिस्सा उभरा हुआ होता है तथा सिर
शरीर के अनुपात में थोड़ा छोटे होने के साथ धनुषाकार होता है,
जिससे दौड़ते वक्त फेफड़ों से छोड़ी गई हवा के आवागमन कोई
बाधा उत्पन्न नहीं होती।
चीते की तेज़ गति में सबसे
ज़्यादा सहायक है इसकी छल्लों युक्त रीढ़ की हड्डी। इन्हीं छल्लों के कारण रीढ़ की
हड्डी में ज़बरदस्त लोच होता है। गति पकड़ने के लिए अगले व पिछले पैर फेंकते वक्त यह
आश्चर्यजनक ढंग से झुक जाती है व स्प्रिंग की तरह फैल जाती है। इसी विशिष्टता के
कारण चीता जब दौड़ने की शुरुआत करता है, तो दो सेकंड के भीतर 72 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पकड़ लेता है। बाद में
इसकी यह रफ्तार 115 से 120 किलोमीटर प्रति घंटा तक पहुंच जाती है। यह क्षमता जंगल
के किसी अन्य प्राणी में नहीं पाई जाती। लेकिन चीते की यह रफ्तार कुछ गज़ की दूरी
तक ही स्थिर रह पाती है। अपनी इसी रफ्तार के कारण चीता काला हिरण को दबोचने वाला
एकमात्र हिंसक प्राणी था। काला हिरण शाकाहारी प्राणियों में सबसे तेज़ दौड़ने वाले
प्राणी है। अब खुले जंगल में काले हिरण को पकड़ने का बीड़ा बिल्ली प्रजाति का कोई भी
प्राणि नहीं उठाता।
चीता बिल्ली प्रजाति के अन्य
प्राणियों की तरह अपना शिकार रात में न करके दिन में करता है। इसके ज़्यादातर शिकार
छोटे प्राणी होते हैं। शिकार दृष्टिगत होते ही चीता शिकार की तरफ दबे पैरों से
आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता है और जैसे ही शिकार इसकी तूफानी गति के दायरे में आ जाता है,
यह तत्परता से गति में आकर शिकार को दबोच लेता है। यह कार्रवाई
इतनी आनन-फानन में होती है कि शिकार संभल भी नहीं पाता। चीता अपनी कोशिश में
यदा-कदा ही नाकाम होता है। इसके प्रिय शिकार काला हिरण और चिंकारा हैं। शिकार से
उदरपूर्ति करने के बाद चीता चट्टानों की गहरी गुफाओं अथवा घने जंगलों में आराम
फरमाता है।
चीते दो-तीन के झुंडो में भी
रह लेते हैं, और अकेले भी,
लेकिन ज़्यादातर अकेले रहना पसंद करते हैं। इनके जोड़ा बनाने
का समय तय नहीं होता। ये पूरे साल जोड़ा बनाने में सक्षम होते हैं।
शिशुओं की उम्र तीन माह की हो
जाने के बाद ही इनके बदन पर काले धब्बे उभरना शुरू होते हैं। चिड़ियाघरों में चीतों
की आयु 15-16 वर्ष तक देखी गई है। इनकी औसत आयु 20 साल तक होती है।
दरअसल, एक ओर तो हम विलुप्त होते प्राणियों के संरक्षण में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ आधुनिक विकास इनके प्राकृतिक आवास उजाड़ रहा है। पर्यटन से हम आमदनी की बात चाहे जितनी करें, लेकिन पर्यटकों को बाघ, तेंदुआ व अन्य दुर्लभ प्राणियों को निकट से दिखाने की सुविधाएं, इनके स्वाभाविक जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती है। यहां चीते जैसे प्राणियों के आचार-व्यवहार के साथ संकट यह भी है कि ये नई जलवायु में आसानी से ढल नहीं पाते हैं। अत: यह आशंका बरकरार है कि कहीं कूनो-पालपुर की तरह करोड़ों रुपए खर्च करने और 22 ग्रामों को विस्थापित करने के बाद भी नौरादेही में चीते की चाल स्वप्न बनकर ही न रह जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://k6u8v6y8.stackpathcdn.com/blog/wp-content/uploads/2018/12/Leopard.jpg
मिस्र के पुरावशेष मंत्रालय द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के
अनुसार हाल ही में पुरातत्वविदों ने एक विशाल कब्रगाह खोज निकाला है। इस कब्रगह
में प्राचीन मिस्र के मुख्य पुरोहितों के साथ उनके सहायकों की कब्रें पाई गई हैं।
अभी तक पुरातत्वविद 20 पाषाण-ताबूत निकाल पाए हैं जो उच्च कोटि के चूना पत्थर से
तैयार किए गए थे। मिस्र की सुप्रीम काउंसिल ऑफ एंटीक्विटीज़ के महासचिव मुस्तफा
वज़ीरी के अनुसार यह स्थान काहिरा से लगभग 270 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है।
इसके अलावा खुदाई में सोने और कीमती पत्थर से बने 700 तावीज़, चमकदार मिट्टी से बनी 10,000 से अधिक शाबती (ममीनुमा) मूर्तियां भी प्राप्त
हुई हैं। प्राचीन मिस्रवासियों का ऐसा मानना था कि शाबती मूर्तियां मरणोपरांत
मृतकों की सेवा करती हैं। शोधकर्ताओं को अभी तक इन ममियों की कुल संख्या के बारे
में तो कोई जानकारी नहीं है लेकिन अभी भी खुदाई का काम जारी है और आगे इस तरह के
और ताबूत मिलने की संभावना है।
ऐसा माना जा रहा है कि यह प्राचीन कब्रें ‘उत्तर काल’ (664-332 ईसा पूर्व) के
दौर की हैं जब प्राचीन मिस्र के लोग नूबियन, असीरियन
और ईरानी लोगों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। ये कब्रें इस
काल के शुरुआत की लगती हैं (लगभग 688 से 525 ईसा पूर्व) जिस समय उन्होंने नूबियन
शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की थी।
यह उत्तर काल 332 ईसा पूर्व में सिकंदर की सेनाओं के मिस्र में प्रवेश करने के साथ समाप्त हुआ। सिकंदर की मृत्यु के बाद 323 ईसा पूर्व में सिकंदर के एक जनरल टोलेमी प्रथम और उसके वंशजों ने लगभग तीन शताब्दियों तक मिस्र पर शासन किया। इसके बाद 30 ईसा पूर्व से रोम साम्राज्य ने मिस्र पर शासन किया। भले ही कई विदेशी शक्तियों ने मिस्र पर राज किया था फिर भी वहां की धार्मिक परंपरा लगातार फलती-फूलती रही। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि रोमन सहित विभिन्न विदेशी शासकों ने मिस्र की प्राचीन धार्मिक परंपराओं का हमेशा से सम्मान किया था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/u3qU9Sc2RnvfhYXQwPLyMK-1200-80.jpg