नए साल में इसरो के नए इरादे – जाहिद खान

ए साल में इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन (इसरो) ने अपने नए इरादे ज़ाहिर किए हैं। महीने की शुरुआत में ही एक पत्रकार वार्ता में इसरो प्रमुख के. सिवन ने मीडिया को बतलाया था कि इसरो ने अंतरिक्ष में भारत के पहले मानव मिशन ‘गगनयान’ की तैयारी कर ली है। ‘गगनयान’ के डिज़ाइन को अंतिम रूप दिया जा चुका है। ‘गगनयान’ के लिए चार अंतरिक्ष यात्रियों के चयन की प्रक्रिया पूरी हो गई है। चारों यात्री वायुसेना के हैं। इन पायलटों को मेडिकल टेस्ट के बाद, भारत और रूस में इस मिशन सम्बंधी ट्रेनिंग दी जाएगी। अंतरिक्ष यात्रियों को ले जाने के लिए 3.7 टन का अंतरिक्ष यान डिज़ाइन किया गया है। अंतरिक्ष यात्रियों को इस मिशन के लिए प्रशिक्षित करने और क्रू कैप्सूल में लाइफ सपोर्ट सिस्टम बनाने के लिए रूस की मदद ली जाएगी।

गगनयान के अलावा सरकार ने मिशन ‘चंद्रयान-3’ को भी मंज़ूरी दे दी है। इससे जुड़ी सभी गतिविधियां सुचारु रूप से चल रही हैं। यदि सब कुछ योजना के मुताबिक चला, तो यान अगले साल चांद की सतह को छूने के अपने सफर पर निकल सकता है। इसरो की गतिविधियों में तेज़ी लाने के लिए एक और महत्वपूर्ण निर्णय हुआ है। देश का दूसरा अंतरिक्ष प्रक्षेपण केंद्र, तमिलनाडु के थुथुकुडी में बनेगा। केन्द्र के लिए भूमि अधिग्रहण का काम शुरू कर दिया गया है। अभी अंतरिक्ष में उपग्रह, यान और रॉकेट प्रक्षेपित करने का पूरा भार आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन स्पेस सेंटर पर ही है।

बीते साल की तरह, नए साल में भी इसरो के अंतरिक्ष अभियान जारी रहेंगे। साल 2020 के लिए उसने तकरीबन 25 अभियान तय किए हैं। साल 2019 में जो मिशन अधूरे रह गए थे, उन्हें भी मार्च 2020 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। इस दिशा में शुरुआत करते हुए इसरो ने हाल ही में उच्च गुणवत्ता वाले संचार उपग्रह जीसैट-30 का फ्रेंच गुयाना से सफल प्रक्षेपण किया। जीसैट-30 इनसैट/जीसैट शृंखला का उपग्रह है और यह 12 सी और 12 केयू बैंड ट्रांस्पॉन्डरों से लैस है। जीसैट-30 इनसैट-4 ए की जगह लेगा और इसकी कवरेज क्षमता भी अधिक होगी। इस उपग्रह से देश को बेहतर दूरसंचार एवं प्रसारण सेवाएं मिलेंगी। भारत अंतरिक्ष में पहली ही कोशिश में मानव यात्री भेजने वाला दुनिया का पहला देश होगा। बाकी देशों ने किसी वस्तु या जानवर को भेजा था। हालांकि, मानव मिशन भेजने से पहले यान कई दौर की आज़माइश से गुज़रेगा। ‘गगनयान’ की पहली मानवरहित उड़ान इसी साल आयोजित करने की योजना है। मानवरहित ‘गगनयान’ के लिए इसरो के वैज्ञानिकों ने एक महिला रोबोट बनाया है। जिसका नाम ‘व्योममित्र’ है। इस रोबोट का नाम संस्कृत के दो शब्दों ‘व्योम’ यानी अंतरिक्ष और मित्र को मिलाकर रखा गया है। गगनयान की उड़ान से ठीक पहले इसरो ‘व्योममित्र’ को अंतरिक्ष में भेजेगा और अध्ययन करेगा। यह इंसानी महिला रोबोट अंतरिक्ष से इसरो को अपनी रिपोर्ट भेजेगी। इसरो ने हाल ही में व्योममित्र को दुनिया के सामने पेश किया और इसकी खूबियों के बारे में बताया। इसरो का कहना है कि व्योममित्र अंतरिक्ष में एक मानव शरीर की एक्टिविटी का अध्ययन करेगी और हमारे पास रिपोर्ट भेजेगी। यह अंतरिक्ष में अंतरिक्ष यात्रियों की साथी होगी और उनसे बातचीत करेगी। यह महिला रोबोट जांच करेगी कि सभी प्रणालियां सही ढंग से काम कर रही हैं या नहीं।

मिशन गगनयान और चंद्रयान-3, दोनों का काम एक साथ चल रहा है। ‘चंद्रयान-3’ की संरचना बहुत हद तक ‘चंद्रयान-2’ जैसी होगी। फर्क सिर्फ इतना रहेगा कि ‘चंद्रयान-2’ में ऑर्बाइटर, लैंडर और रोवर मौजूद था, जबकि ‘चंद्रयान-3’ को लैंडर व रोवर के अलावा प्रोपल्शन मॉड्यूल से भी लैस किया जाएगा। यानी इस बार ऑर्बाइटर नहीं जाएगा। मिशन ‘चंद्रयान-3’ की कुल लागत 600 करोड़ रुपए अनुमानित है। इसरो ने पिछले साल अपने महत्वाकांक्षी मिशन ‘चंद्रयान-2’ की बहुत अच्छी तैयारी की थी। लेकिन चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम लैंडर की सॉफ्ट लैंडिंग कराने के दौरान, मून लैंडर विक्रम का इसरो से उस समय संपर्क टूट गया, जब वह चंद्रमा की सतह से महज दो किलोमीटर की दूरी पर था। यानी मिशन कामयाब होते-होते रह गया। भले ही चंद्रयान-2 सफलतापूर्वक लैंड नहीं कर सका लेकिन ऑर्बाइटर अभी भी काम कर रहा है। इससे अगले सात वर्षों के लिए वैज्ञानिक डैटा के उत्पादन करने का काम होता रहेगा।

चंद्रयान-3 और गगनयान के बाद इसरो का अंतरिक्ष में अपना स्पेस स्टेशन बनाने का इरादा है। स्पेस स्टेशन से इसरो की अंतरिक्ष के साथ-साथ पृथ्वी की निगरानी की क्षमता बढ़ेगी। इस स्टेशन पर भारतीय वैज्ञानिक कई तरह के प्रयोग कर पाएंगे। स्पेस स्टेशन में लगे कैमरों से वे अच्छी गुणवत्ता वाली तस्वीरें लेने के अलावा जो देखना चाहेंगे, उसे आसानी से देख सकेंगे। इससे अंतरिक्ष में बार-बार निगरानी उपग्रह भेजने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी और खर्च में भी कमी आएगी।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन  की योजना है कि पृथ्वी की निचली कक्षा यानी पृथ्वी की सतह से 400 किलोमीटर की ऊंचाई पर परिक्रमा करने वाले इस स्पेस स्टेशन में तीन अंतरिक्ष यात्री 15-20 दिन तक रह सकें। गगनयान की कामयाबी के बाद इस मिशन पर सिलसिलेवार काम शुरू होगा जिसे पांच से सात साल में पूरा किए जाने की संभावना है। अभी इसकी योजना-निर्माण पर काम शुरू ही हुआ है। इसरो के अध्यक्ष के. सिवन के मुताबिक यह स्टेशन महज 20 टन का होगा।

इसरो यदि स्पेस स्टेशन बनाने में कामयाब हुआ तो अंतरिक्ष में उसकी धाक जम जाएगी। अंतरिक्ष अनुसंधान और उपग्रह प्रक्षेपण के क्षेत्र में उसका काम और भी बढ़ेगा। वर्तमान में वैश्विक अंतरिक्ष उद्योग का आकार 350 अरब डॉलर है। साल 2025 तक इसके बढ़कर 550 अरब डॉलर होने की संभावना है। ज़ाहिर है, दुनिया में अंतरिक्ष एक महत्वपूर्ण बाज़ार के तौर पर विकसित हो रहा है। बीते एक दशक में अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसरो ने निश्चित तौर पर महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन भारत का अंतरिक्ष उद्योग अभी भी 7 अरब डॉलर के आस-पास है, जो वैश्विक बाज़ार का सिर्फ 2 फीसदी है। अंतरिक्ष उद्योग में भारत को अपनी भागीदारी बढ़ाना है, तो उसे और भी ज़्यादा गंभीर प्रयास करने होंगे। ना सिर्फ उसे इसरो का सालाना बजट बढ़ाना होगा, बल्कि नए वैज्ञानिकों को भी अंतरिक्ष अभियान में जोड़ना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष – नवनीत कुमार गुप्ता

नस्पतियों के महत्व को देखते हुए वर्ष 2020 को अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष घोषित किया गया है जिसका उद्देश्य पादप जगत एवं उसके संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करना है।

जीवन को संभव बनाने वाले कारकों में वनस्पतियों की अहम भूमिका है। वनस्पतियां, भूमि ही नहीं समुद्रों तक में जीवन को पनाह दिए हुए हैं। पेड़-पौधों से हमें जीवनदायी ऑक्सीजन मिलती है। वनस्पतियां हमारे और अन्य जीवों के आहार का मुख्य स्रोत हैं। पेड़-पौधे औषधि, वस्त्र, साज-सज्जा, शृंगार सहित अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। ये करोड़ों लोगों की आजीविका का साधन भी हैं।

2015 में, पादप स्वच्छता सम्बंधी आयोग के 10वें सत्र में, फिनलैंड ने वर्ष 2020 को अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष के रूप में मनाए जाने का प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव को उस सम्मेलन में ज़ोरदार समर्थन मिला, जिसे देखते हुए वर्ष 2020 को फिनलैंड के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष मनाए जाने पर विचार किया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ आम सभा ने दिसंबर 2018 में वर्ष 2020 को अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की। इसके उपरांत विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन और अंतर्राष्ट्रीय पादप सुरक्षा परिषद के विशेष सत्र में अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष का शुभारंभ हुआ। यह वर्ष हमें इस बात के प्रति सचेत करता है कि किस प्रकार वनस्पतियों के स्वास्थ्य पर ध्यान देकर हम भुखमरी, गरीबी से उबरते हुए पर्यावरणीय और आर्थिक विकास को गति दे सकते हैं।

वनस्पतियों की प्रचुरता सम्पन्नता लाती है। वनस्पतियों से घिरा क्षेत्र सुंदरता को जन्म देता है। हम जो ऑक्सीजन लेते हैं उसका 98 प्रतिशत हिस्सा वनस्पतियों से आता है। पिछले एक दशक में वनस्पतियों पर आधारित व्यापार में तीन गुना की वृद्धि हुई है।

भारत को फसलों की विविधता का का एक केंद्र माना जाता है। यह फसली वनस्पतियों की उत्पत्ति के 12 केंद्रों में से एक है। भारत चावल, अरहर, आम, हल्दी, अदरक, गन्ना, गूज़बेरी आदि की 30-50 हज़ार किस्मों के विकास का केंद्र है। भारत की असीम जैव विविधता के मद्देनज़र युनेस्को ने भारत के पांच संरक्षित क्षेत्रों को वनस्पतियों एवं प्राणियों के अनोखेपन के लिए विश्व विरासत स्थल घोषित किया है।

विश्व खाद्य संगठन के अनुसार वर्ष 2050 तक कृषि उत्पादन में 60 प्रतिशत की वृद्धि करने की आवश्यकता होगी ताकि बढ़ी हुई जनंसख्या के लिए पर्याप्त आहार की व्यवस्था की जा सके। वनस्पतियों को बीमारियों, कीटों और खरपतवारों से बचाने के लिए विज्ञान का सहारा लेना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्यों कुछ क्षेत्रों में महिलाओं से अधिक पुरुष हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व भर में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और चिकित्सा (STEM) के क्षेत्र में महिलाओं की तुलना में पुरुष अधिक हैं। इस लिंग-आधारित बंटवारे के पीछे के क्या सामाजिक कारण हैं? शोध बताते हैं कि चाहे श्रम बाज़ार हो या उच्च योग्यता वाले क्षेत्र, इनमें जब महिला और पुरुष दोनों ही नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तब पुरुष उम्मीदवार स्वयं का खूब प्रचार करते हैं और अपनी शेखी बघारते हैं जबकि समान योग्यता वाली महिलाएं ‘विनम्र’ रहती हैं और स्वयं को कम प्रचारित करती हैं। और उन जगहों पर जहां महिला और पुरुष सहकर्मी के रूप में होते हैं, वहां पुरुषों की तुलना में महिलाओं के विचारों या मशवरों को या तो अनदेखा कर दिया जाता है या उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है। नतीजतन, पुरुषों की तुलना में महिलाएं स्वयं की क्षमताओं को कम आंकती हैं, खासकर सार्वजनिक स्थितियों में, और अपनी बात रखने में कम सफल रहती हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन की डॉ. सपना चेरियन और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में उपरोक्त अंतिम बिंदु को विस्तार से उठाया है। साइकोलॉजिकल बुलेटिन में प्रकाशित अपने शोध पत्र, ‘क्यों कुछ चुनिंदा STEM क्षेत्रों में अधिक लिंग संतुलन है?’ में वे बताती हैं कि अमेरिका में स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएच.डी. में जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान विषयों में 60 प्रतिशत से अधिक उपाधियां महिलाएं प्राप्त करती हैं जबकि कंप्यूटर साइंस, भौतिकी और इंजीनियरिंग में सिर्फ 25-30 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। सवाल है कि इन क्षेत्रों में इतना असंतुलन क्यों है? चेरियन इसके तीन सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारण बताती हैं (1) मर्दाना संस्कृति, (2) बचपन से लड़कों की तुलना में लड़कियों की कंप्यूटर, भौतिकी या सम्बंधित विषयों तक कम पहुंच, और (3) स्व-प्रभाविता में लैंगिक-विषमता।

रूढ़िगत छवियां

‘मर्दाना संस्कृति’ क्या है? रूढ़िगत छवि है कि कुछ विशिष्ट कामों के लिए पुरुष ही योग्य होते हैं और महिलाओं की तुलना में पुरुष इन कामों में अधिक निपुण होते हैं, और महिलाएं ‘कोमल’ और ‘नाज़ुक’ होती हैं इसलिए वे ‘मुश्किल’ कामों के लिए अयोग्य हैं। इसके अलावा महिलाओं के समक्ष पर्याप्त महिला अनुकरणीय उदाहरण भी नहीं हैं जिनसे वे प्रेरित हो सकें और उनके नक्श-ए-कदम पर चल सकें। (866 नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से सिर्फ 53 महिलाएं हैं। यहां तक कि जीव विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में अब तक दिए गए 400 से भी अधिक लास्कर पुरस्कारों में से भी सिर्फ 33 महिलाओं को मिले हैं।)

दूसरा बिंदु (यानी बचपन से लड़कियों की कुछ नियत क्षेत्रों में कम पहुंच) की बात करें तो कंप्यूटर का काम करने वालों के बारे में यह छवि बनाई गई है कि वे ‘झक्की’ होते हैं और सामाजिक रूप से थोड़े अक्खड़ होते हैं, जिसके चलते महिलाएं कतराकर अन्य क्षेत्रों में चली जाती हैं।

तीसरा बिंदु, स्व-प्रभाव उत्पन्न करने में लैंगिक-खाई, यह उपरोक्त दो कारणों के फलस्वरूप पैदा होती है। इसके कारण लड़कियों और महिलाओं के मन में यह आशंका जन्मी है कि शायद वास्तव में वे कुछ चुनिंदा ‘नज़ाकत भरे’ कामों या विषयों (जैसे सामाजिक विज्ञान और जीव विज्ञान) के ही काबिल हैं। उनमें झिझक की भावना पैदा हुई है। यह भावना स्पष्ट रूप से प्रचलित मर्दाना संस्कृति के कारण पैदा हुई है और इसमें मर्दाना संस्कृति झलकती है।

फिर भी यदि हम जीव विज्ञान जैसे क्षेत्रों की बात करें तो, जहां विश्वविद्यालयों और अनुसंधान प्रयोगशालाओं के पद और तरक्की के लिए महिला और पुरुष दोनों ही दावेदार होते हैं, वहां भी लैंगिक असामनता झलकती है। विश्लेषण बताते हैं कि शोध-प्रवण विश्वविद्यालय कम महिला छात्रों को प्रवेश देते हैं। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि कई काबिल महिला वैज्ञानिकों ने, यह महसूस करते हुए कि उनके अनुदान आवेदन खारिज कर दिए जाएंगे, नेशनल इंस्टीट्यूटट ऑफ हैल्थ जैसी बड़ी राष्ट्रीय संस्थाओं में अनुदान के लिए आवेदन करना बंद कर दिया है। इस संदर्भ में लेर्चेनमुलर, ओलेव सोरेंसन और अनुपम बी. जेना का एक पठनीय व विश्लेषणात्मक पेपर Gender Differences in How Scientists Present the Importance of their Research: Observational Study (वैज्ञानिकों द्वारा अपने काम का महत्व प्रस्तुत करने में लैंगिक अंतर) दी ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के 16 दिसम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है (नेट पर मुफ्त उपलब्ध है)। अपने पेपर में उन्होंने 15 वर्षों (2002 से 2017) के दौरान पबमेड में प्रकाशित 1 लाख से ज़्यादा चिकित्सीय शोध लेख और 62 लाख लाइफ साइंस सम्बंधी शोध पत्रों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि चिकित्सा फैकल्टी के रूप में और जीव विज्ञान शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों में महिलाओं की संख्या कम है। पुरुष सहकर्मियों की तुलना में महिलाओं को कम वेतन दिया जाता है, कुछ ही शोध अनुदान मिलते हैं और उनके शोध पत्रों को कम उद्धरित किया जाता है।

भारत में स्थिति

 भारत में भी पुरुषों का ही बोलबाला है। लेकिन क्यों? महिलाओं की तुलना में पुरुष अपने काम की तारीफ में भड़कीले शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, और अपने काम को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। लेखकों ने ऐसे 25 शब्द नोट किए हैं, इनमें से कुछ शब्द तो बार-बार दोहराए जाते हैं जैसे अनूठा, अद्वितीय, युगांतरकारी, मज़बूत और उल्लेखनीय। जबकि इसके विपरीत महिलाएं विनम्र रहती हैं और खुद को कम आंकती हैं। लेकिन अफसोस है कि इस तरह अपनी शेखी बघारने के कारण पुरुषों को अधिक अनुदान मिलते हैं, जल्दी पदोन्नती मिलती है, वेतनवृद्धि होती है और निर्णायक समिति में सदस्यताएं मिलती है। इस तरह खुद को स्थापित करने को चेरियन ने अपने पेपर में मर्दानगी कहा है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित चेरियन के उपरोक्त पेपर के नतीजे कई नामी अखबारों में भी छपे थे, जिनमें से एक का शीर्षक था – पुरुष वैज्ञानिक ऊंचा बोलकर महिलाओं को चुप करा देते हैं!

तो क्या भारतीय वैज्ञानिक भी इसके लिए दोषी हैं? उक्त 62 लाख शोध पत्रों में निश्चित रूप से ऐसे शोधपत्र भी होंगे जिनका विश्लेषण करके भारतीय वैज्ञानिकों की स्थिति को परखा जा सकता है। भारतीय संदर्भ में अनुदान प्रस्तावों, निर्णायक दलों और प्रकाशनों के इस तरह के विश्लेषण की हमें प्रतीक्षा है। सेज पब्लिकेशन द्वारा साल 2019 में प्रकाशित नम्रता गुप्ता की किताब Women in Science and Technology: Confronting Inequalities (विज्ञान व टेक्नॉलॉजी में महिलाएं: असमानता से सामना) स्पष्ट करती है कि इस तरह की असमानता भारत में मौजूद है। वे बताती हैं कि भारत के पितृसत्तात्मक समाज में यह धारणा रही है कि महिलाओं को नौकरी की आवश्यकता ही नहीं है। यह धारणा हाल ही में बदली है। आगे वे बताती हैं कि आईआईटी, एम्स, सीएसआईआर और पीजीआई के STEM विषयों के शोधकर्ताओं और प्राध्यापकों में सिर्फ 10-15 प्रतिशत ही महिला शोधकर्ता और अध्यापक हैं। निजी शोध संस्थानों में भी बहुत कम महिला वैज्ञानिक हैं। अर्थात भारत में भी स्थिति बाकी दुनिया से बेहतर नहीं है।

भारतीय वैज्ञानिकों को प्राप्त सम्मान और पहचान की बात करें तो इस बारे में जी. पोन्नारी बताते हैं कि विज्ञान अकादमियों में बमुश्किल 10 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। अब तक दिए गए 548 भटनागर पुरस्कारों में से सिर्फ 18 महिलाओं को ही यह पुरस्कार मिला है। और 52 इंफोसिस पुरस्कारों में से 15 महिलाएं पुरस्कृत की गई हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन पुरस्कारों की निर्णायक समिति (जूरी) में एक भी महिला सदस्य नहीं थी।

भारतीय संदर्भ में राष्ट्रीय एजेंसियों (जैसे DST, DBT, SERB, ICMR, DRDO) द्वारा दिए गए अनुसंधान अनुदान में लैंगिक अनुपात का अध्ययन करना रोचक हो सकता है। साथ ही लेर्चेनमुलर के अध्ययन की तर्ज पर, नाम और जानकारी गुप्त रखते हुए, दिए गए अनुदान के शीर्षक और विवरण का विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि यह देखा जा सके कि क्या भारतीय पुरुष वैज्ञानिक भी हो-हल्ला करके हावी हो जाते हैं? (स्रोत फीचर्स)

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प्रथम परोपकारी पक्षी

पने परिजनों की रक्षा करना और अजनबियों को आश्रय देना मानवता का एक ऐसा अनिवार्य भाग है जिसको हमने व्यापक रूप से विकसित किया है। मनुष्यों के अलावा ओरांगुटान और बोनोबो जैसे कुछ ही अन्य जीवों में स्वेच्छा से दूसरों की मदद करने का गुण देखा गया है। अब वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने ऐसे गैर-स्तनपायी प्राणि खोज निकाले हैं जो परोपकारी होते हैं।

गौरतलब है कि पूर्व में हुए अध्ययनों से पक्षियों में बुद्धिमत्ता के प्रमाण तो मिले हैं लेकिन अफ्रीकी मटमैला तोता (Psittacus erithacus) एक ऐसा पक्षी है जो परोपकारी भी है। मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट फॉर ओर्निथोलॉजी के पशु संज्ञान वैज्ञानिकों ने असाधारण मस्तिष्क वाले अफ्रीकन मटमैले तोते और नीले सिर वाले मैकॉ (Primolius couloni) की कुछ जोड़ियों पर अध्ययन किया। सबसे पहले शोधकर्ताओं ने पक्षियों को सिखाया कि वे एक टोकन के बदले पुरस्कारस्वरूप एक काजू या बादाम प्राप्त कर सकते हैं। इस परीक्षा में दोनों प्रजाति के पक्षी सफल रहे।

लेकिन अगली परीक्षा में केवल अफ्रीकी मटमैले तोते ने बाज़ी मारी। इस परीक्षा में शोधकर्ताओं ने जोड़ी के एक ही पक्षी को टोकन दिया और वह भी ऐसे पक्षी को जो किसी भी तरह से शोधकर्ता तक या पुरस्कार तक नहीं पहुंच सकता था। अलबत्ता वह एक छोटी खिड़की से टोकन अपने साथी पक्षी को दे सकता था। और वह साथी टोकन के बदले पुरस्कार प्राप्त कर सकता था। लेकिन इसमें पेंच यह था कि काजू-बादाम जो भी मिलता उसे वही दूसरा पक्षी खाने वाला था। 

दोनों प्रजातियों में, जिन पक्षियों को टोकन नहीं मिला, उन्होंने हल्के से चिंचिंयाकर दूसरे साथी का ध्यान खींचने की कोशिश की। ऐसे में नीले सिर वाले मैकॉ अपने साथी को नज़रअंदाज़ करते हुए निकल गए लेकिन अफ्रीकी मटमैले तोतों ने पुरस्कार की चिंता किए बिना अपने साथी पर ध्यान दिया। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पहले ही परीक्षण में 8 में से 7 मटमैले तोतों ने अपने (वंचित) साथी को टोकन दे दिया। जब इन भूमिकाओं को पलट दिया गया तब तोतों ने अपने पूर्व सहायकों की भी उसी प्रकार मदद की। इससे लगता है कि उनमें परस्परता का कुछ भाव होता है।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि यदि उनका साथी कोई करीबी दोस्त या रिश्तेदार नहीं है तब भी उनमें उदारता दिखी। और यदि वह उनका करीबी रिश्तेदार है तब तो वे और अधिक टोकन दे देते थे। मैकॉ के व्यवहार से तो लगता था कि उन्हें साथी चाहिए ही नहीं। बल्कि अपने खाने का कटोरा साझा करना भी उन्हें पसंद नहीं था।  

शोधकर्ताओं का मानना है कि इन दोनों प्रजातियों के बीच का अंतर उनके अलग-अलग सामाजिक माहौल के कारण हो सकता है। जहां अफ्रीकी मटमैले तोते अपने झुंड बदलते रहते हैं वहीं मैकॉ छोटे समूहों में रहना पसंद करते हैं। वैसे कुछ अन्य पक्षी वैज्ञानिकों को लगता है कि तोतों के परोपकार के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है किवे शायद आपस में भाई-बहन रहे हों, जिनके बीच आधे जीन तो एक जैसे होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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उल्टी चलती चींटियां घर कैसे पहुंचती हैं?

चींटियों को भोजन का छोटा टुकड़ा मिले तो वे उसे धकेलकर अपनी बांबी तक ले जाती हैं। लेकिन यदि टुकड़ा बड़ा हो तो वे उसे खींचकर ले जाती हैं। सवाल यह है कि इस तरह उल्टे चलते हुए उन्हें दिशा का अंदाज़ कैसे लगता है। पहले वैज्ञानिक सोचते थे कि चींटियों को अपने सामने की ओर कुछ परिचित चिंह देखना पड़ते हैं और उन्हीं की मदद से वे अपनी मंज़िल तक पहुंच पाती हैं। लेकिन अब एक अनुसंधान दल ने स्पष्ट किया है कि उल्टे चलते हुए भी वे पुराने परिचित दृश्यों को पहचान सकती हैं।

बात स्पैनिश रेगिस्तानी चींटियों (Cataglyphis velox) की है। ये जब उल्टी चलती हैं तो दिशा निर्धारण के लिए ‘पाथ इंटीग्रेशन’ नामक रणनीति का इस्तेमाल करती हैं। वे यह याद रखती हैं कि घर से किसी जगह तक पहुंचने में वे कितने कदम चली थीं और रास्ते में कितने मोड़ या पेंच आए थे। वे अपनी स्थिति को याद रखने के लिए सूर्य से बनने वाले कोण की भी मदद लेती हैं। और वे घर से किसी जगह तक चलते हुए मुड़-मुड़कर देखती रहती हैं और नज़र आने वाले पहचान चिंहों को याद रखती हैं जो वापसी यात्रा में मददगार हो सकते हैं।

लेकिन अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि उल्टे चलते हुए उन्हें पता कैसे चलता है कि वे कहां जा रही हैं। कभी-कभी चींटियां भोजन को नीचे रखकर मुड़कर देख भी लेती हैं। पौल सेबेटियर विश्वविद्यालय के सेबेस्टियन श्वार्ज़ और उनके साथी इसी का अध्ययन करना चाहते थे। उन्होंने उन चींटियों को चुना जो रेगिस्तान में अपने घर से निकलकर गंतव्य तक पहुंच चुकी थीं। यानी पाथ इंटीग्रेशन के ज़रिए उन्हें मालूम था कि वे कहां हैं। शोधकर्ताओं ने घर के एकदम बाहर से कुछ ऐसी चींटियां भी पकड़ी जिन्हें लगता था कि वे घर पहुंच चुकी हैं। इन सब चींटियों को उन्होंने बांबी से थोड़ी दूर उनके पसंदीदा भोजन के टुकड़ों के पास छोड़ दिया।

जब चींटियां भोजन को लेकर घर की ओर चलीं, तो कभी-कभी शोधकर्ता दृश्यों में थोड़ा फेरबदल कर देते। जब ऐसे बदले हुए पहचान चिंहों से सामना हुआ तो चींटियों ने 8 मीटर के रास्ते में 3.2 मीटर चलने के बाद मुड़कर देखा जबकि परिचित रास्ते पर चींटियां बगैर मुड़े 6 मीटर तक चलती रह सकती हैं। इससे पता चलता है कि वे उल्टे चलते हुए अपने आसपास के परिवेश पर ध्यान देती हैं और समय-समय पर पीछे मुड़कर देखती हैं।

उम्मीद के मुताबिक, उन चींटियों का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहा जिन्हें पहले से पता था कि वे कहां हैं। वे बगैर मुड़े ज़्यादा दूरी तय कर पार्इं और अपना भोजन लेकर घर भी ज़्यादा संख्या में पहुंचीं। जिन चींटियों के पास रास्ते की जानकारी नहीं थी, उनमें से कुछ तो भटक गर्इं लेकिन शेष चींटियां घर पहुंच गर्इं जबकि उनके पास पाथ इंटीग्रेशन द्वारा मिली जानकारी नहीं थी। वे शायद अपनी दृश्य स्मृतियों अथवा सूर्य से बने कोण की मदद से घर पहुंची थीं।

चींटियों की आंखें काफी विस्तृत दृश्य देख पाती हैं – वे सिरे को घुमाए बगैर लगभग 360 डिग्री का क्षेत्र देखती हैं जबकि मनुष्य अपने आसपास का एक हिस्सा ही देख पाते हैं। श्वार्ज़ का कहना है कि संभवत: कीट घर से दूर जाते समय अपने बाजू और पीछे के दृश्य की जानकारी भी हासिल करते रहते हैं और वापसी में इसका उपयोग कर लेते हैं।

श्वार्ज़ इस संदर्भ में कुछ और प्रयोग करने को उत्सुक हैं। जैसे वे कोशिश कर रहे हैं कि चींटी की एक आंख को बंद करके देखा जाए या उनके लिए एक ट्रेडमिल बनाई जाए। (स्रोत फीचर्स)

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श्वसन सम्बंधी रहस्यमयी वायरस

हाल ही में वायरल निमोनिया के एक अज्ञात रूप ने चीन के वुडान शहर में कई दर्जन लोगों को प्रभावित किया है। इससे देश भर में सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (SARS) के प्रकोप की संभावना व्यक्त की जा रही है।

यूएस सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार, इससे पहले वर्ष 2002 और 2003 में SARS छब्बीस देशों में फैला था जिसने 8000 लोगों में गंभीर फ्लू जैसी बीमारी के लक्षण पैदा किए थे। इसके कारण लगभग 750 लोगों की मृत्यु भी हुई थी। उस समय इस प्रकोप की शुरुआत चीन में हुई थी जिसके चलते चीन में 349 और हांगकांग में 299 लोगों की जानें गई थीं।

जब कोई SARS संक्रमित व्यक्ति छींकता या खांसता है तब संभावना होती है कि वह अपने आसपास के लोगों और चीजों को दूषित कर देगा।

हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2004 में चीन को SARS मुक्त घोषित कर दिया था लेकिन हाल की घटनाओं ने इस बीमारी की वापसी के संकेत दिए हैं।

अभी तक सामने आए 40 मामलों में से 11 मामले गंभीर माने गए हैं। संक्रमित लोगों में से अधिकतर लोगों की हुआनन सीफूड थोक बाज़ार में दुकान हैं, उनकी दुकानें स्वास्थ्य अधिकारियों ने अगली सूचना तक बंद कर दी हैं। इसके अलावा हांगकांग, सिंगापुर और ताइवान के हवाई अड्डों पर भी बुखार से पीड़ित व्यक्तियों की स्क्रीनिंग शुरू कर दी गई है।  

वैसे अभी तक इस संक्रमण का कारण अज्ञात है, लेकिन वुडान नगर पालिका के स्वास्थ्य आयोग ने इन्फ्लुएंज़ा, पक्षी-जनित इन्फ्लुएंज़ा, एडेनोवायरस संक्रमण और अन्य सामान्य श्वसन रोगों की संभावना को खारिज कर दिया है। WHO के चीनी प्रतिनिधि के मुताबिक कोरोनावायरस की संभावना की न तो अभी तक कोई पुष्टि की गई है और न ही इसे खारिज किया गया है।

गौरतलब है कि इस दौरान वुडान पुलिस द्वारा SARS से जुड़ी अपुष्ट खबरें फैलाने के ज़ुर्म में आठ लोगों को दंडित किया गया है। चाइनीज़ युनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग की प्रोफेसर एमिली चैन यिंग-येंग का मानना है कि यदि यह वास्तव में SARS है तो उन्हें इससे निपटने का तज़ुर्बा है लेकिन यदि यह कोई नया वायरस या वायरस की कोई नई किस्म है तो इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 2002 में मृत्यु दर युवाओं में अधिक थी, इसलिए यह देखना भी आवश्यक है कि इस बार वायरस का अधिक प्रभाव युवाओं पर है या बुज़ुर्गों पर।  

2002 की महामारी के विपरीत अब तक व्यक्ति-से-व्यक्ति रोग-प्रसार का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला है, नहीं तो यह संक्रमण एक सामुदायिक प्रकोप के रूप में उभरकर आता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चांद को छूने की नई होड़ – प्रदीप

ज से तकरीबन पचास साल पहले 21 जुलाई 1969 को नील आर्मस्ट्रांग ने जब चंद्रमा पर कदम रखा था, तब उन्होंने कहा था कि “मनुष्य का यह छोटा-सा कदम, मानवता के लिए एक बड़ी छलांग है।” अपोलो मिशन के तहत अमेरिका ने 1969 से 1972 के बीच चांद की ओर कुल नौ अंतरिक्ष यान भेजे और छह बार इंसान को चांद पर उतारा।

अपोलो मिशन खत्म होने के तीन दशक बाद तक चंद्र अभियानों के प्रति एक बेरुखी-सी दिखाई दी थी। मगर चांद की चाहत दोबारा बढ़ रही है। बीता साल चंद्र अभियानों के लिहाज़ से बेहद खास रहा। 16 जुलाई, 2019 को इंसान के चांद पर पहुंचने की पचासवीं वर्षगांठ थी। जनवरी 2019 में एक चीनी अंतरिक्ष यान चांग-4 ने एक छोटे से रोबोटिक रोवर के साथ चांद की सुदूर सतह पर उतरकर इतिहास रचा।

भारत ने अपने महत्वाकांक्षी चंद्र अभियान चंद्रयान-2 को चांद पर भेजा हालांकि इसको उतनी सफलता नहीं मिली जितनी अपेक्षित थी। बीते साल इस्राइल ने भी एक छोटा रोबोटिक लैंडर चंद्रमा की ओर भेजा था, लेकिन वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने भी साल 2023-24 तक चांद पर इंसानी मिशन भेजने के प्रयास तेज़ करने के संकेत दिए हैं।

अंतरिक्ष में हमारा सबसे नज़दीकी पड़ोसी चांद प्राचीन काल से ही कौतुहल का केंद्र रहा है। पिछली सदी के उत्तरार्ध से पहले हम चंद्रमा सम्बंधी अपनी जिज्ञासा को दूरबीन और उसके ज़रिए ली गई तस्वीरों से शांत करने पर मजबूर थे। पहली बार साल 1959 में रूसी (तत्कालीन सोवियत संघ) अंतरिक्ष यान लूना-1 ने चंद्रमा के काफी नज़दीक पहुंचने में कामयाबी हासिल की थी। इसके बाद रूसी यान लूना-2 पहली बार चंद्रमा की सतह पर उतरा। सोवियत संघ ने 1959 से लेकर 1966 तक एक के बाद एक कई मानवरहित अंतरिक्ष यान चंद्रमा की धरती पर उतारे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध जब अपने उत्कर्ष पर था, तभी 12 अप्रैल 1961 को सोवियत संघ ने यूरी गागरिन को अंतरिक्ष में पहुंचाकर अमेरिका से बाज़ी मार ली। इससे अमेरिकी राष्ट्र के अहं तथा गौरव पर कहीं न कहीं चोट पहुंची थी। उसके बाद अमेरिका ने अंतरिक्ष अन्वेषण में अपनी श्रेष्ठता को साबित करने के लिए आर्थिक और वैज्ञानिक संसाधन झोंक दिए। अंततोगत्वा नील आर्मस्ट्रांग चंद्रमा की सतह पर कदम रखने वाले पहले इंसान के रूप में इतिहास में दर्ज हुए।

अपोलो मिशन के ज़रिए दो दर्जन इंसानों को चंद्रमा तक पहुंचाया गया। शीतयुद्ध की राजनयिक, सैन्य विवशताओं और मिशन के बेहद खर्चीला होने के कारण अपोलो-17 के बाद इसे समाप्त कर दिया गया। तब से लेकर आधी सदी तक अंतरिक्ष कार्यक्रमों को मंज़ूरी देने वाले नियंताओं की आंखों से चांद मानो ओझल हो गया।

मगर आज चांद पर पहुंचने के लिए जिस तरह से विभिन्न देशों में होड़ लगती हुई दिखाई दे रही है, यही कहा जा सकता है कि चांद फिर निकल रहा है! इसरो को चंद्रयान-2 मिशन की आंशिक विफलता ने उन्नत संस्करण चंद्रयान-3 के लिए नए जोश के साथ प्रेरित किया है, चीन इस मामले में वैश्विक ताकत बनने को इच्छुक है, वहीं 2024 तक नासा चंद्रमा पर अपने अंतरिक्ष यात्री को उतारने की तैयारी कर रहा है। रूस 2030 तक चांद पर अपने अंतरिक्ष यात्री को उतारने की तैयारी में है।

चांद के प्रति यह आकर्षण सिर्फ राष्ट्रों तक सीमित नहीं है। कई निजी कंपनियां चांद पर उपकरण पहुंचाने और प्रयोगों को गति देने के उद्देश्य से नासा का ठेका हासिल करने की कतार में खड़ी हैं। अमेज़न के संस्थापक जेफ बेजोस की रॉकेट कंपनी ब्लू ओरिजिन एक विशाल लैंडर विकसित करने के काम में लगी है, जो अंतरिक्ष यात्रियों और माल को चांद की सतह तक ले जा सके। कंपनी की योजना यह लैंडर नासा को बेचने की है। तकरीबन दो दशकों से अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां चांद पर पर्यटन करवाने से लेकर कॉलोनी बनाने तक की महत्वाकांक्षा दिखा चुकी हैं। धरती से चांद की दूरी सिर्फ पौने चार लाख किलोमीटर के करीब है जो किसी भी अन्य ग्रह की तुलना में बहुत कम है। इस दूरी को सिर्फ तीन दिन में तय किया जा सकता है। इसके अलावा, चांद से धरती पर रेडियो संवाद करने में महज एक-दो सेकंड का फर्क आता है। इसीलिए भी स्पेस कंपनियां अंतरिक्ष में पर्यटन की योजनाओं पर धड़ल्ले से काम कर रही हैं।

ध्यान देने की बात यह है कि बीते पचास सालों में किसी भी देश ने चांद पर पहुंचने के लिए कोई बड़ा सफल-असफल प्रयास नहीं किया, तो फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि हम इंसानों को वहां पर जाने की दोबारा ज़रूरत महसूस होने लगी है। इसके लिए अलग-अलग देशों के पास अपनी-अपनी वजहें हैं। मसलन, भारत जैसे देशों की बात करें तो उनके लिए चंद्र अभियान खुद को तकनीकी तौर पर उत्कृष्ट दिखाने का सुनहरा मौका होगा। दूसरी तरफ चीन अपने ग्रह के बाहर खुद को ताकतवर दिखाकर विश्व शक्ति बनने की दिशा में और आगे बढ़ जाना चाहता है। इनसे अलग अमेरिका के लिए चांद पर जाना, मंगल पर पहुंचने से पहले आने वाला एक अहम पड़ाव मात्र है।

चांद के प्रति दुनिया के बढ़ते आकर्षण का प्रमुख कारण पानी भी है। दरअसल हालिया अध्ययनों में चांद के ध्रुवीय गड्ढों के नीचे बर्फ होने की संभावना जताई गई है। यह भविष्य में चांद पर पहुंचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिए बेशकीमती पेयजल का स्रोत तो हो ही सकता है, कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण के जरिए पानी को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में तोड़ा भी जा सकता है। जहां ऑक्सीजन सांस लेने के काम आएगी, वहीं हाइड्रोजन का उपयोग रॉकेट र्इंधन के रूप में किया जा सकता है। इस तरह चांद पर एक रिफ्यूलिंग स्टेशन भविष्य में अंतरिक्ष यानों के लिए पड़ाव का काम कर सकता है, जहां रुककर अपने टैंक भरकर वे आगे जा सकते हैं।

विभिन्न देशों की नज़र चंद्रमा के कई दुर्लभ खनिजों, जैसे सोने, चांदी, टाइटेनियम के अलावा उससे टकराने वाले क्षुद्र ग्रहों के मलबों की ओर तो है ही, मगर वैज्ञानिकों की विशेष रुचि चंद्रमा के हीलियम-3 के भंडार में है। हीलियम-3 हमारी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के साथ-साथ खरबों डॉलर भी दिला सकता है। हीलियम-3 नाभिकीय रिएक्टरों में इस्तेमाल किया जा सकने वाला एक बेहतरीन और साफ-सुथरा र्इंधन है।

बहरहाल, आगामी दशकों में चांद इंसानी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बनेगा क्योंकि यहां होटल से लेकर मानव बस्तियां तक बसाने की योजनाओं पर काम चल रहा है। चंद्रमा की दुर्लभ खनिज संपदा ने इसे सबका चहेता बना दिया है। चांद तक पहुंचने की इस रेस में भारत, जापान, इस्राइल, उत्तर और दक्षिण कोरिया जैसे देश भी शामिल हैं।

कुल मिलाकर, आने वाले वक्त में जल्दी ही चांद पर पहुंचने के लिए भगदड़ मचती दिख सकती है। देखना है, चांद को छू लेने की यह नई होड़ क्या गुल खिलाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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माया सभ्यता का महल खोजा गया

मेक्सिकन नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एंथ्रोपोलॉजी एंड हिस्ट्री के पुरातत्वविदों को माया सभ्यता का पत्थरों से बना एक महल मिला है जो कुछ हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना है। माया सभ्यता वर्तमान के दक्षिणी मेक्सिको से लेकर ग्वाटेमाला, बेलीज़ और होंडुरास तक फैली हुई थी। इस सभ्यता को ऊंचे-ऊंचे पिरामिड, धातुकला, सिंचाई प्रणाली तथा कृषि के साथ-साथ जटिल चित्रलिपि के लिए जाना जाता है।

पुरातत्वविदों का मानना है कि यह महल खास तौर पर समाज के अभिजात्य वर्ग के लोगों के लिए तैयार किया गया था। गौरतलब है कि वैज्ञानिक कई वर्षों से महल के आस-पास माया सभ्यता स्थल की खुदाई और इमारतों के जीर्णोद्धार का कार्य कर रहे थे। यह पुरातात्विक स्थल मशहूर शहर कानकुन से लगभग 160 किलोमीटर पश्चिम में कुलुबा में है।

वैज्ञानिकों ने इस महल पर अध्ययन हाल ही में शुरू किया है। महल में 180 फीट लंबे, 50 फीट चौड़े और 20 फीट ऊंचे छह कमरे हैं। चूंकि यह महल काफी बड़ा था इसलिए इसे पूरी तरह से बहाल करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। पुरातत्वविदों की टीम के प्रमुख अल्फ्रेडो बरेरा रूबियो के अनुसार इस महल में कमरों के साथ अग्नि-वेदिका, भट्टी और रिहायशी कमरों के अलावा सीढ़ियां भी मौजूद थीं। महल का अध्ययन करने से मालूम चलता है कि दो अलग-अलग समय के दौरान लोग यहां रहे – एक तो 900 से 600 ईसा पूर्व के दौरान और दूसरा 1050 से 850 ईसा पूर्व के दौरान। इस क्षेत्र की स्थापत्य विशेषताओं की जानकारी के अभाव में मुख्य उद्देश्य इस सांस्कृतिक विरासत की बहाली और वास्तुकला का अध्ययन करना था। 

अध्ययन के दौरान टीम को कुछ द्वितीयक कब्रें भी मिलीं, यानी पहले कहीं दफन किए शव को निकालकर इन कब्रों में फिर से दफनाया गया था। इनकी मदद से आगे चलकर इस सभ्यता के लोगों की उम्र, लिंग और उनकी तंदुरुस्ती के बारे में पता लगाया जा सकेगा।

हालांकि इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि 800 से 1000 ईसा पूर्व के बीच यह सभ्यता का खत्म क्यों हुई, फिर भी कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि वनों की कटाई और सूखे के कारण यह सभ्यता नष्ट हुई होगी। (स्रोत फीचर्स)

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पेशाब पर ज़िन्दा चींटियां

स्ट्रेलिया के कंगारु द्वीप पर वन्य जीवों का अध्ययन करने वाली सोफी पेटिट का सामना एक विचित्र जीव से हुआ। दरअसल जीव तो जाना-पहचाना था – शकर चींटी (Camponotus terebrans) लेकिन उसके व्यवहार ने पेटिट को अचंभित कर दिया।

कंगारु द्वीप का वातावरण रेगिस्तानी है। सूखी रेत और उस पर उगे सूखे झाड़-झंखाड़। यहां कंगारु खूब पाए जाते हैं। पेटिट ने देखा कि उस स्थान पर बड़ी संख्या में शकर चींटियां मंडरा रही हैं जहां कोई दो घंटे पहले उन्होंने पेशाब की थी। उससे भी ज़्यादा अचरज की बात थी कि वे चींटियां उसी जगह पर कई रातों तक आती रहीं। पेटिट जानना चाहती थीं कि चींटियों को वहां क्या मिल रहा है।

कुछ महीनों बाद वही सवाल लेकर वे अपने एक अन्य साथी को लेकर वहां पहुंच गर्इं। आखिर पेशाब में इन चींटियों को क्या मिलता है? रासायनिक दृष्टि से देखें तो पानी के अलावा पेशाब में मुख्य रूप से यूरिया होता है। यूरिया एक नाइट्रोजनी यौगिक है और नाइट्रोजन तो समस्त जीवों के लिए अनिवार्य है। तो शोधकर्ताओं ने यूरिया के अलग-अलग घोल बनाए। किसी में मनुष्य या कंगारु के पेशाब में पाया जाने वाला 2.5 प्रतिशत यूरिया मिलाया तो किसी घोल में 10 प्रतिशत। इसके अलावा शकर के अलग-अलग सांद्रता वाले घोल भी बना लिए। इन अलग-अलग घोलों को रेत पर अलग-अलग स्थानों पर उंडेलकर इंतज़ार करते रहे।

पूरे एक महीने तक अवलोकन करने के बाद एक निष्कर्ष स्पष्ट था – घोल में यूरिया की सांद्रता जितनी अधिक होती है, शकर चींटियां भी उतनी ही अधिक संख्या में आती हैं। और तो और, ऑस्ट्रेलियन इकॉलॉजी पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि ये चींटियां शकर के घोल की बजाय यूरिया के घोल को तरजीह देती हैं।

यूरिया को पसंद करने तक तो ठीक था क्योंकि कई जीव यूरिया से पोषण प्राप्त करते हैं किंतु आश्चर्य की बात तो यह थी कि ये चींटियां पेशाब के सूख जाने के बाद भी रेत को खोदती रहीं। वे तो पेशाब के हल्के से दाग को भी खोदने लगती थी। यह पहली बार है कि किसी जीव द्वारा सूखे यूरिया का उपयोग पोषण प्राप्त करने के लिए होता देखा गया है। (स्रोत फीचर्स)

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साढ़े पांच हज़ार वर्ष पुरानी चुर्इंगम – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

चुर्इंगम को चबाते हुए हमने कई अठखेलियां की हैं। हाल ही में दक्षिणी डेनमार्क से 5700 वर्ष पूर्व इंसानों द्वारा चबाए गए टार के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। बर्च नामक पेड़ की छाल को चबाने से बनी चिपचिपी एवं काली टार की इस चुर्इंगम को चबाते-चबाते उन लोगों ने अपने कई रहस्य उसमें कैद कर दिए। इनकी मदद से आज के वैज्ञानिक उनके रहन-सहन और खान-पान की आदतों का पता लगा सकते हैं।

5700 वर्ष पूर्व के प्राचीन डेनमार्क निवासी शिकार करके अपना जीवन यापन करते थे। वे तीर के सिरे पर नुकीले पत्थर चिपकाने के लिए या पत्थरों के सूक्ष्म औजारों को लकड़ी पर चिपकाने के लिए चिपचिपे टार का उपयोग करते थे। टार प्राप्त होता था बर्च नामक पेड़ की छाल को चबाने से। लगातार चबाने से टार चुर्इंगम के समान नरम हो जाता था और औज़ारों को चिपकाने-सुधारने के काम आता था। शायद, टार में पाए जाने वाले एन्टिसेप्टिक तेल और रसायन का उपयोग दांत दर्द से राहत पहुंचाने के लिए भी किया जाता हो। यह भी हो सकता है कि आज के बच्चों के समान उस समय के बच्चे भी टार की चुर्इंगम से खिलवाड़ करते रहे हों। टार की चुर्इंगम को चबाते-चबाते मुंह के अंदर की टूटी कोशिकाएं, भोजन के कण एवं सूक्ष्मजीव भी उसमें संरक्षित हो गए थे। यह प्राचीन चुर्इंगम वैज्ञानिकों को प्राचीन मानव के डीएनए का अध्ययन करने का बेहतरीन अवसर दे रही है।

नेचर कम्यूनिकेशन में दी एनशियंट डीएनए (प्राचीन डीएनए) नामक शोध पत्र में बताया गया है कि प्राचीन चुर्इंगम से प्राप्त डीएनए उस क्षेत्र में बसे लोगों की शारीरिक रचना तथा उनके भोजन और दांतों पर पाए जाने वाले जीवाणु के सुराग देता है।

कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के पुरातत्ववेत्ता हेंस श्रोडर ने बताया है कि अक्सर वैज्ञानिक डीएनए अध्ययन के लिए हड्डियों का उपयोग करते हैं क्योंकि उनका कठोर आवरण अंदर नाज़ुक कोशिकाओं और डीएनए को संरक्षित कर लेता है। परंतु, इस शोध में वैज्ञानिकों ने हड्डियों के बजाय प्राचीन टार की चुर्इंगम का उपयोग किया। उन्होंने यह भी बताया कि टार की चुर्इंगम से बहुत से जीवाणुओं के संरक्षित डीएनए भी प्राप्त हुए हैं।

शोधकर्ताओं को टार की चुर्इंगम पिछले साल खोजबीन के दौरान एक सुरंग से प्राप्त हुई थी। डॉ. श्रोडर ने कहा कि इस स्थान से प्राप्त जीवाश्म के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस इलाके के रहने वाले लोग मुख्य रूप से मछली पकड़ने, शिकार करने और जंगली बेर और फल खाकर अपना जीवन यापन करते थे। यद्यपि, आसपास के इलाकों में लोगों ने खेती और पशुपालन भी प्रारंभ कर दिया था।

जब शोधकर्ताओं ने 5700 साल पुरानी टार की चुर्इंगम में संरक्षित मानव डीएनए का विश्लेषण किया तो पाया कि जिसने उसे चबाया था वह एक महिला थी जो शिकारी समुदाय से अधिक निकटता रखती थी। वैज्ञानिकों ने उस महिला का नाम लोला रखा। लोला के डीएनए को पूरा पढ़ने के बाद उसी क्षेत्र की वर्तमान आबादी के डीएनए आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण करके वैज्ञानिकों का अनुमान है कि लोला की त्वचा का रंग गहरा था, बाल भी गहरे रंग के थे तथा आंखों का रंग नीला था। वह लेक्टोस असहिष्णुता से ग्रसित थी जिसके कारण वह दूध की शर्करा का पाचन नहीं कर सकती थी।

डीएनए में क्षारों के अनुक्रम को पढ़कर व्यक्ति के रंग-रूप, कद-काठी एवं अन्य लक्षणों से चेहरे और शरीर का पुनर्निर्माण करना अब कोई आश्यर्चजनक कार्य नहीं रह गया है। वैज्ञानिकों ने कुछ ही समय पहले दस हज़ार वर्ष पुराने ब्रिटिश व्यक्ति (चेडर मेन) के कंकाल को देखकर और डीएनए को पढ़कर शारीरिक लक्षणों का अंदाज़ लगाया था।

टार की चुर्इंगम से प्राप्त कुछ अन्य डीएनए नमूनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि लोला ने टार की चुर्इंगम को चबाने से पहले हेसलनट तथा बतख खाई थी। बर्च टार से बैक्टीरिया एवं वायरस का डीएनए भी प्राप्त हुआ है। हम सभी के मुंह और आंत में बैक्टीरिया, वायरस और फफूंद होती हैं। अत: प्राप्त सबूतों से लोला के मुंह में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

लोला की चुर्इंगम से कई बैक्टीरिया भी प्राप्त हुए हैं जो दांतों में प्लाक और जीभ पर भी पाए जाते हैं। चुर्इंगम से प्राप्त एक बैक्टीरिया पोकायरोमोनास जिंजिवेलिस मसूड़ों की बीमारी का द्योतक है। चुर्इंगम में स्ट्रेप्टोकोकस न्यूमोनिया जैसे अन्य प्रकार के बैक्टीरिया एवं वायरस भी प्राप्त हुए हैं जो लोला के स्वास्थ्य का सुराग देते हैं।

छोटे से गम के टुकड़े से जानकारी का खजाना प्राप्त करना उत्कृष्ट शोध का नमूना है। अलबत्ता, वैज्ञानिक लोला की उम्र ज्ञात नहीं कर पाए हैं। और निश्चित तौर पर यह भी कहा नहीं जा सकता कि लोला ने चुर्इंगम को क्यों चबाया (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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