कई
लोगों का मानना है कि भारत अपने उच्च सकल घरेलू उत्पाद के साथ एक महाशक्ति बनने की
उम्मीद कर सकता है। चाहे कोई महाशक्ति बनने की इस लालसा में साझेदार न हो,
लेकिन इतना लगभग निश्चित है कि देश को निश्चित रूप से एक
ज्ञान-संपन्न
अर्थव्यवस्था होना चाहिए, भले ही वह ज्ञान-संचालित न हो। और
ज्ञान उत्पन्न करने और इस ज्ञान का सृजन करने व उपयोग करने वाली प्रतिभा का पोषण
करने का नज़दीकी सम्बंध शिक्षा प्रणाली से है। इसलिए चलिए हम अपनी शिक्षा प्रणाली
पर विचार करें और अन्यत्र विचारकों द्वारा सामान्य रूप से शिक्षा पर की गई
टिप्पणियों पर नज़र डालें।
जाने
माने जीव विज्ञानी ग्रेगरी पेट्सको ने कुछ वर्ष पहले स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ
न्यूयॉर्क (एसयूएनवाय) के अध्यक्ष को एक
व्यंग्यात्मक खुला पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने एसयूएनवाय में क्लासिक्स,
फ्रेंच, इतालवी,
रूसी और थिएटर के विभागों को बंद करने के फैसले पर अपने
विचार रखे थे। (क्लासिक्स
से आशय प्राचीन ग्रीक व लैटिन साहित्य, दर्शन
और इतिहास के अध्ययन से है।) पेट्सको ने बताया कि जीव विज्ञान में आने से पहले किस
प्रकार उन्होंने क्लासिक्स में शिक्षा प्राप्त की थी और फिर अपना ध्यान जीव
विज्ञान की ओर मोड़ा था और आगे चलकर वे जैव रसायन और रसायन विज्ञान के प्रोफेसर बने
थे। उन्होंने कहा कि क्लासिक्स में प्रशिक्षण उनकी शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण
घटकों में से एक था। उस प्रशिक्षण ने उन्हें सोचने, विश्लेषण
करने और लिखने की समझ प्रदान की जो उन्हें विज्ञान शिक्षा से प्राप्त नहीं हुई थी।
इन्हीं की मदद से वे एक बेहतर वैज्ञानिक बन सके। जीनोम बायोलॉजी में पेट्सको के
वैचारिक आलेख काफी जाने-माने
हैं, और क्लासिक्स में उनके प्रशिक्षण और रुचि
के चलते उन्हें विज्ञान और समाज के बारे में लिखने में मदद मिलती रही है। कई सारे
वैज्ञानिक यह नहीं कर पाते हैं। यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के सदस्य होने के
अलावा उन्हें दी अमेरिकन फिलॉसॉफिकल सोसाइटी का सदस्य भी चुना गया जो किसी
वैज्ञानिक के लिए एक दुर्लभ सम्मान है।
कुछ
मुख्य बिंदु जो पेट्सको ने अपने पत्र में उठाए थे, वे
इस प्रकार हैं: (क) विश्वविद्यालय के
किसी विभाग को केवल इसलिए बंद नहीं कर देना चाहिए क्योंकि वह प्रासंगिक नहीं
दिखता। यही सोचकर अमेरिका में कई वायरोलॉजी (वायरस विज्ञान) विभाग बंद कर दिए गए थे,
और जब एचआईवी/एड्स संकट आया तो इस बीमारी से निपटने के लिए अमेरिका को
देश में बचे-खुचे
वायरोलॉजिस्ट खोजने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। (ख) किसी विभाग को केवल इसलिए भी बंद नहीं कर
देना चाहिए क्योंकि वह आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं हो सकता। किसी विश्वविद्यालय
का उद्देश्य केवल ज्ञान उत्पन्न करना नहीं होता है बल्कि ज्ञान संरक्षण भी होता
है। अमेरिका के अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों में अरबी और फारसी भाषा के पाठ्यक्रम
या सामान्यत: मध्य-पूर्व में कोई रुचि
नहीं ली जाती थी, लेकिन 11 सितम्बर 2011 के बाद अचानक सबको
लगा कि काश उनके पास इस मामले में ज़्यादा जानकारी होती तो वे समझ पाते कि हो क्या
रहा है। (ग) यदि एसयूएनवाय केवल
व्यावहारिक उपयोगिता के पाठ्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करे,
तो उसे खुद को एक हुनर शाला या व्यावसायिक स्कूल कहना चाहिए,
विश्वविद्यालय तो कदापि नहीं।
अब
मैं एक बेहतरीन दार्शनिक और तर्कशास्त्री बरट्रैंड रसेल की बात करना चाहूंगी। अपने
शोध कार्यों से हटकर, उनकी रुचि सामाजिक
मुद्दों पर भी रही और उन्होंने काफी विवादास्पद दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किए। प्रथम विश्व
युद्ध का विरोध करने के कारण उनको एक गद्दार के रूप में देखा गया और उन्हें कुछ
समय के लिए जेल भी जाना पड़ा। लेकिन कुछ ही वर्षों बाद,
उनकी गिनती 20वीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में हुई और 1950 में उन्हें नोबेल
पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दिलचस्प बात यह है कि यह पुरस्कार उनके अपने
विषयगत शोध कार्य के लिए नहीं बल्कि विचारों की स्वतंत्रता की हिमायत के लिए मिला
था। 1950 में
रसेल ने निबंधों का एक संग्रह (रसेल, बी., अनपॉपुलर
एसेस, रूटलेज क्लासिक्स,
भारतीय पुनर्मुद्रण, 2010) प्रकाशित किया था,
जिसमें एक लेख का शीर्षक ‘दी फंक्शन्स ऑफ ए टीचर’ था। उसके कुछ बिंदु
इस प्रकार हैं: आधुनिक
समय का शिक्षक एक लोक सेवक बन गया है जो सरकार का प्रचारक है। उन्होंने कहा कि
हालांकि शिक्षण के दौरान बच्चों को आवर्त सारणी जैसी निर्विवाद जानकारी पढ़ाना
ज़रूरी है लेकिन इससे केवल तकनीकी रूप से कुशल छात्र ही तैयार होंगे। और इस तरह का
शिक्षण तो शिक्षा का वह बुनियादी पहलू है जिसे शिक्षकों को पूरा करना चाहिए।
सरकारें यह जानती हैं कि शिक्षक कितने शक्तिशाली होते हैं,
आखिर वे युवाओं को सिखाते हैं कि कैसे सोचें। अब इसमें या
तो विवादास्पद विषयों पर खुली सोच प्रदान की जा सकती है,
जैसा कि अपेक्षाकृत खुली सोच वाले समाजों में होता है,
या फिर एक विशेष दृष्टिकोण की घुट्टी पिलाई जा सकती है जैसा
नाज़ी जर्मनी में हुआ करता था। शिक्षक को खोजबीन की भावना को बढ़ावा देना चाहिए,
और यदि ऐसा करते हुए एक ऐसी समझ उभरती है जो राज्य से भिन्न
है तो इसके लिए कोई दंड नहीं होना चाहिए।
हमारे
अपने विश्वविद्यालयों में क्या स्थिति है? प्रसिद्ध
शिक्षाविद और टिप्पणीकार, दिल्ली विश्वविद्यालय
के कृष्ण कुमार ने दी हिन्दू (2 अगस्त, 2012) में प्रकाशित एक लेख ‘युनिवर्सिटीज़,
अवर्स एंड देयर्स’ में पश्चिमी और भारतीय विश्वविद्यालयों के
परिदृश्य की तुलना की थी। उन्होंने दोनों को अलग करने वाले कई अंतरों की पहचान
करते हुए हर एक पर टिप्पणी की थी। उन्होंने सबसे पहले उत्कृष्टता पर ज़ोर की बात को
लिया। पश्चिमी प्रणाली में यह सुनिश्चित करने की विस्तृत प्रक्रियाएं हैं जिससे विश्वविद्यालय
में फैकल्टी के तौर पर सबसे बढ़िया उपलब्ध प्रतिभा को भर्ती किया जाए। यह भर्ती
प्रक्रिया बाहरी दबाव से परे है जो इसको कमज़ोर कर सकता है। यह प्रक्रिया उम्मीदवार
में बहु-विषयी
या विषय-पार
रुचि पर ज़ोर देती है। भारतीय विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को नियम-कानूनों और बाहरी
प्रभावों में इतना उलझा दिया जाता है कि इसका असर चयन की उत्कृष्टता पर पड़ता है।
उदाहरण के लिए, यदि कोई बहु-विषयी योग्यता वाला
उम्मीदवार एक आयु सीमा पार कर चुका होता है तो चयन प्रक्रिया उसके लिए बाधक बन
जाती है। दूसरा अंतर यह है कि भारत में इस बात पर काफी ज़ोर दिया जाता है कि कोई
शिक्षक कक्षा में प्रति सप्ताह कितने घंटे बिताता है। इसी तरह छात्रों की उपस्थिति
पर काफी ज़ोर दिया जाता है। ऐसे नियम दोनों के ही लिए हैं और हर कोई इन नियमों का
पालन करता है, यह जाने बिना कि
वास्तव में कक्षा के अंदर होता क्या है। कृष्ण कुमार ब्रिटेन में एक शिक्षण
संस्थान द्वारा संचालित पाठ्यक्रम की मूल्यांकन समिति के सदस्य रहे थे। अपने उस
अनुभव के आधार पर उन्होंने अपने यहां की उक्त प्रणाली पर टिप्पणी की है। समिति ने
पाठ्यक्रम से संबंधित दस्तावेज़ों – उस वर्ष प्रत्येक कक्षा सत्र का विवरण और छात्रों की लिखित
प्रतिक्रिया – के
अध्ययन के अलावा पाठ्यक्रम के विभिन्न पहलुओं पर अलग-अलग छात्रों और प्राध्यापकों से व्यापक
चर्चा की। उन्होंने पाया कि कक्षा को उत्साहवर्धक और संभवत: मनोरंजक होना चाहिए। यह तो संभव ही नहीं है
कि यदि कोई शिक्षक अपने अध्यापन में पर्याप्त ज्ञान,उत्साह
और नवीनता न लाए, तो उसे छात्रों से
अच्छी प्रतिक्रिया मिलेगी। तीसरा अंतर पश्चिमी देशों के लगभग सभी महाविद्यालयों
में अनुसंधान पर ज़ोर देने से सम्बंधित है। कृष्ण कुमार ने देखा कि विश्वविद्यालय
द्वारा निर्धारित एक निश्चित पाठ्यक्रम का सवाल ही नहीं उठता जो कई दशकों तक जस का
तस चलता रहे, जैसा कि अक्सर भारत
में देखने को मिलता है। इसके अलावा, हमारे
यहां प्रचलित रटंत आधारित परीक्षाएं ब्रिटेन में नहीं हैं। नितिन पाई ने बिज़नेस
स्टैण्डर्ड में 13 जुलाई
2018 के
एक आलेख में एक दिलचस्प बात बताई है कि चीन में महाविद्यालय में प्रवेश का आवेदन
देने से पहले छात्रों को एक विचार आधारित परीक्षा, गाओकाओ,
देनी होती है। प्राध्यापक जिस क्षेत्र में अनुसंधान करते
हैं वे उसी क्षेत्र से जुड़े विषय पढ़ाते हैं ताकि छात्रों को ऐसे सवाल पूछने को
प्रेरित कर सकें जिनके जवाब अनुसंधान से दिए जा सकें। यह केवल पूर्व ज्ञान अर्जित
करने की शिक्षा नहीं है बल्कि उस ज्ञान को बनाने में मदद करने या उस ज्ञान को
उत्पन्न करने की प्रक्रिया में भाग लेने की बात है जो शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण
है।
एक
अन्य लेख (दी
ब्लेक न्यू एकेडमिक सिनारियो, दी
हिन्दू, 26 मई 2017) में कृष्ण कुमार ने उदारीकरण की प्रक्रिया
के बाद से भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति पर ध्यान केंद्रित किया है। हालांकि,
तब तक केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र
में काफी बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन जब 1991 में भारत को कर्ज़
देने वालों को लगा कि भारत की अर्थव्यवस्था में ढांचागत समायोजन की ज़रूरत है,
तब जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि उच्च शिक्षा को बड़े पैमाने
पर खुद को संभालना होगा। इस शर्त ने स्वाभाविक रूप से उन पाठ्यक्रमों की पेशकश
करने को प्रेरित किया जो बिक्री योग्य कौशल प्रदान करते हैं। जैसे-जैसे विश्वविद्यालयों
ने वित्तीय संकट महसूस किया, उन्होंने अपनी आय
बढ़ाने के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों की ओर रुख किया। इसके अलावा,
‘स्थायी’ प्राध्यापकों की सिकुड़ती संख्या की वजह से शिक्षकों की जो
कमी हुई उसे भरने के लिए तदर्थ शिक्षकों को जोड़ा गया। (यह स्थिति फिनलैंड से कितनी अलग है,
जहां शिक्षक होना सबसे प्रतिष्ठित काम है। और हो भी क्यों न,
आखिर वे अगली पीढ़ी को शिक्षित कर रहे हैं जो देश कि संपदा
का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है)। कोई विश्वविद्यालय जिस हद तक अपने छात्रों में सोचने,
विश्लेषण करने, और
अपने मतों के लिए जानकारी एकत्र करने की कुशलता को तराशने के लिए विचार-विमर्श और असहमति को
बढ़ावा देता है, उसी हद तक वह
स्वतंत्र आवाज़ों वाले युवा तैयार करता है। ये आवाज़ें अक्सर उनके आसपास की दुनिया
के लिए महत्वपूर्ण होती हैं। ये आवाज़ एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकती हैं लेकिन
भारत के राजनेता आम तौर पर ऐसे विश्वविद्यालयों को लेकर बिदकते रहे हैं जो दुनिया
के व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ इस तरह की उदार शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं। यह
बात तो स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा जितनी अधिक स्व-वित्तपोषण के भरोसे होती जाएगी उतने ही कम
युवा इस तरह से प्रशिक्षित हो पाएंगे क्योंकि ऐसे में शिक्षा केवल उपयोगितावादी
होकर रह जाएगी। अलबत्ता, पिछले कुछ दशकों से विश्वविद्यालयों
को ऐसी बिगड़ती स्थिति से बचाने के लिए किसी भी सरकार या राजनैतिक दल द्वारा कोई
प्रयास नहीं किया गया है।
अपनी
बात खत्म करने से पहले मैं एक मानव विज्ञानी के एक लेख के बारे में बताना चाहूंगी
जो किसी सर्वथा भिन्न विषय पर लिखा गया था। “… काला आदमी समझ गया कि… गोरों के बीच उसे अपने ऊपर आरोपित स्थान के
अनुरूप ही व्यवहार करना पड़ेगा और उसे बार-बार ‘उसकी हैसियत याद दिलाई जाती थी’। उसने सीखा कि गोरे
लोगों के बीच आक्रोश, निराशा,
असंतोष, गर्व,
महत्वाकांक्षा या हसरतों की भावनाएं दिखाना अस्वीकार्य है
और उन वास्तविक भावनाओं को मासूमियत, अज्ञानता,
बचकानेपन, आज्ञाकारिता,
विनम्रता और सम्मान के मुखौटे के पीछे छिपाना पड़ेगा।” ( थॉमस कोचमैन,
‘रैपिंग इन दी ब्लैक घेटो’, दी प्लेज़र्स ऑफ
एन्थ्रोपोलॉजी, 1983 में)। हमारी कक्षाओं और प्रयोगशालाओं में यह
घटना कितनी आम है और ज्ञान उत्पन्न करने के संदर्भ में इसकी क्या कीमत है?
यदि भारत गंभीरता से महाशक्ति बनने की इच्छा रखता है, तो इसकी संभावना केवल एक शीर्ष ज्ञान उत्पादक देश बनकर ही हो सकती है। ऐसा देश बनने के लिए उसे अपने लोगों में बचपन से ही स्वतंत्र खोजबीन की आदतें विकसित करनी होंगी, इस बात की परवाह किए बगैर कि यह खोजबीन उन्हें कहां ले जाएगी। अगर ऐसी खोजबीन के बाद छात्र इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारत को निकट भविष्य में महाशक्ति बनने का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए और उससे पहले हासिल करने को कई सारे महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं, तो यह बड़ी विडंबना होगी, हालांकि मेरे लिए कोई अचंभे की बात नहीं होगी।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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