दा विंची की पेंटिंग के पीछे छिपी तस्वीर

लंदन के नेशनल आर्ट म्यूज़ियम में रखी लियोनार्डो दा विंची की बेजोड़ पेंटिंग – दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स – के पीछे एक और तस्वीर छिपी है। हाल ही में उस ओझल तस्वीर के बारे में नई जानकारी सामने आई है। इस पेंटिंग में वर्जिन मैरी, शिशु जीसस और शिशु सेंट जॉन और एक फरिश्ता हैं।

दरअसल 2005 में नेशनल आर्ट गैलरी ने दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स पेंटिंग की इंफ्रारेड रिफ्लेक्टोग्राफी की मदद से इमेंज़िंग की थी जिसमें उन्हें पता चला था कि एक अन्य चित्र इस पेंटिंग के पीछे छिपा हुआ है जिसमें मैरी की आंखे बिलकुल अलग जगह पर बनी हुई थीं जिसे बाद में बनाए गए चित्र के रंगों से पूरा ढंक दिया गया था।

और अब पेंटिंग के पीछे ढंके चित्र के बारे में तफसील से जानने के लिए नेशनल आर्ट गैलरी ने तीन तकनीकों – इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी, एक्स-रे फ्लोरोसेंस स्केनिंग और हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग – की मदद ली है।

इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी में डाले गए इंफ्रारेड प्रकाश में ऊपरी रंगों के पीछे छिपे वे सभी ब्रश स्ट्रोक भी दिखाई देते हैं जो सामान्य प्रकाश में दिखाई नहीं देते। इनसे पता चलता है कि इस पेंटिंग में कलाकार ने पहले मैरी को बार्इं ओर बनाया था जो शिशु जीसस की ओर देख रही थी, और फरिश्ता दार्इं ओर था। चित्रों से लगता है कि दा विंची ने अंतत: जो पेंटिंग बनाई उसकी दिशा शुरुआती पेंटिंग से एकदम विपरीत है।

इसके अलावा एक्स-रे फ्लोरोसेंस करने पर पता चला कि पीछे छिपे चित्र के रंगो में ज़िंक था। दरअसल ज़िंक के कण एक्स-रे प्रकाश डालने पर चमकने लगते हैं। हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग में किसी चीज़ से आने वाली विद्युत-चुम्बकीय ऊर्जा का पता लगता है।

हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि दा विंची ने नीचे वाले चित्र को नई पेंटिंग से क्यों ढंका? वैसे यह पेंटिंग मूल पेंटिंग का दूसरा संस्करण है। उन्होंने अपनी मूल पेंटिंग चर्च के लिए बनाई थी जो किसी विवाद के बाद उन्होंने पेरिस में रहने वाले एक ग्राहक को बेच दी थी। उन्होंने दूसरी पेंटिंग हू-ब-हू पहली पेंटिंग की तरह बनाने की बजाय उसमें थोड़े बदलाव किए थे। जैसे दूसरी पेंटिंग में रंगों से उन्होंने अलग प्रकाश प्रभाव दिया है। चित्र में मौजूद लोगों की मुद्राएं भी थोड़ी अलग हैं। इमेंज़िंग से प्राप्त चित्रों का प्रदर्शन नवंबर से जनवरी के बीच किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेज़न के जंगल बचाना धरती की रक्षा के लिए ज़रूरी – भारत डोगरा

व्यक्तिगत, ब्राज़ील के अमेज़न वर्षा वनों के व्यापक पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए इन्हें बचाना सदा ज़रूरी रहा है, पर जलवायु बदलाव के इस दौर में तो यह पूरे विश्व के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इन घने जंगलों में बहुत कार्बन समाता है व इनके कटने से इतने बड़े पैमाने पर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन होगा कि विश्व स्तर के जलवायु सम्बंधी लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। अत: जब ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावन में क्षति की बात होती है तो पूरे विश्व के पर्यावरणविद चौकन्ने हो जाते हैं।

इसके अतिरिक्त अमेज़न वर्षावनों की रक्षा से ब्राज़ील के आदिवासियों का जीवन भी बहुत नज़दीकी तौर पर जुड़ा है। 274 भाषाएं बोलने वाले लगभग 300 आदिवासी समूहों की आजीविका और दैनिक जीवन भी इन वनों से नज़दीकी तौर पर जुड़े हुए हैं।

इस महत्व को देखते हुए ब्राज़ील के 1988 के संविधान में आदिवासी समुदायों के संरक्षित क्षेत्रों की पहचान व संरक्षण की व्यवस्था की गई थी। फुनाय नाम से विशेष सरकारी विभाग आदिवासी हकदारी की रक्षा के लिए बनाया गया। अमेज़न के आदिवासियों को इतिहास में बहुत अत्याचार सहने पड़े हैं, अत: बचे-खुचे लगभग नौ लाख आदिवासियों की रक्षा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जर्मनी और नार्वे की सहायता से इन वनों की रक्षा के लिए संरक्षण कोश भी स्थापित किया गया है।

जहां ब्राज़ील में कुछ महत्वपूर्ण कदम सही दिशा में उठाए गए थे, वहीं दूसरी ओर इससे भी बड़ा सच यह है कि अनेक शक्तिशाली तत्व इन वनों को उजाड़ने के पीछे पड़े हैं। इसमें मांस (विशेषकर बीफ) बेचने वाली बड़ी कंपनियां हैं जो जंगल काटकर पशु फार्म बना रही हैं। कुछ अन्य कंपनियां खनन व अन्य स्रोतों से कमाई करना चाहती हैं। पर इनका सामान्य लक्ष्य यह है कि जंगल काटे जाएं व आदिवासियों को उनकी वन-आधारित जीवन पद्धति से हटाया जाए।

इन व्यावसायिक हितों को इस वर्ष राष्ट्रपति पद पर जैर बोल्सोनारो के निर्वाचन से बहुत बल मिला है क्योंकि बोल्सोनारो उनके पक्ष में व आदिवासियों के विरुद्ध बयान देते रहे हैं। बोल्सोनारो के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासी हितों की संवैधानिक व्यवस्था को बहुत कमज़ोर किया गया है तथा वनों पर अतिक्रमण करने वाले व्यापारिक हितों को बढ़ावा दिया गया है।

उपग्रह चित्रों से प्राप्त आरंभिक जानकारी के अनुसार जहां वर्ष 2016 में 3183 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पर वन उजड़े थे, वहीं इस वर्ष सात महीने से भी कम समय में 3700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर वन उजड़ गए हैं। वन विनाश की गति और भी तीव्र हो रही है। 2017 में जुलाई महीने में 457 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े थे, जबकि इस वर्ष जुलाई के पहले तीन हफ्तों में ही 1260 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े।

इसके साथ आदिवासी हितों पर हमले भी बढ़ गए हैं। हाल ही में वाइअपी समुदाय के मुखिया की हत्या कर दी गई। इस समुदाय के क्षेत्र में बहुत खनिज संपदा है। इस हत्या की संयुक्त मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कड़ी निंदा की है। इस स्थिति में ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावनों तथा यहां के आदिवासियों की आजीविका व संस्कृति की रक्षा की मांग को विश्व स्तर पर व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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5जी शुरु होने से मौसम पूर्वानुमान पर असर

मरीका में जल्द ही शुरू होने वाली 5जी सेवाओं पर मौसम विज्ञानियों की चिंता है कि यदि आवंटित स्पेक्ट्रम पर 5जी सेवाएं शुरू हुर्इं तो मौसम सम्बंधी भविष्यवाणी का काम प्रभावित होगा।

मार्च 2019 में फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) द्वारा 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन किया गया था, जिसके बाद वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्ट्ज़ पर 5जी सेवाएं देना शुरु कर सकती हैं। 5जी शुरू होने के बाद सेवा की रफ्तार 100 गुना तक बढ़ जाएगी।

वहीं नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) के प्रमुख नील जैकब्स की आशंका है कि 5जी का उपयोग मौसम पूर्वानुमान की सटीकता को 30 प्रतिशत तक कम कर सकता है। तब मौसम भविष्यवाणी की स्थिति वैसी हो जाएगी जैसे 1980 के दशक में हुआ करती थी। जिससे तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों को 2-3 दिन देर से चेतावनी मिल पाएगी। विसकॉन्सिन मेडिसन युनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी जॉर्डन गर्थ का कहना है कि दरअसल वायुमंडल में जलवाष्प मौजूदगी बताने वाले संकेत 23.6 गीगा हर्ट्ज़ से 24 गीगा हर्टज़ के बीच काम करते हैं और 5जी नेटवर्क 24 गीगा हर्ट्ज़ पर शुरू होगा। तो 5जी से होने वाला प्रसारण इन सेंसरों को आसानी से प्रभावित कर सकता है जैसे कोई शोरगुल करने वाला पड़ोसी हो।

लेकिन सेल्युलर टेलीकम्युनिकेशन इंडस्ट्री संघ (CTIA) के उपाध्यक्ष ब्राड गिलेन का कहना है कि मौसम पूर्वानुमान पर 5जी के प्रभाव पर जो गंभीर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं वे गलत हैं। जो लोग 5जी के उपयोग पर रोक लगाना चाहते हैं वे यह सोच रहे हैं कि यह मौसम के बारे में अनुमान देने वाले सेंसर, कोनिकल माइक्रोवेव इमेजर साउंडर (CMIS) को प्रभावित करेगा। लेकिन तथ्य यह है कि इन्हें (CMIS) को 2006 में ही खारिज कर दिया गया था ये कभी इस्तेमाल ही नहीं किए गए हैं।

इस पर गर्थ का कहना है कि CMIS के उन्नत तकनीक के सेंसर (एडवांस्ड टेक्नॉलॉजी माइक्रोवेव साउंडर, ATMS) मौसम पूर्वानुमान में उपयोग किए जाते हैं जो 23.8 गीगा हर्ट्ज़ पर काम करते हैं जो 5जी की सीमा के नज़दीक ही है। इस पर CTIA के निक ल्युडलम का कहना है कि CMIS की तुलना में ATMS सेंसर काफी छोटे हैं और उनकी रेंज सीमित है जिससे यह आसपास की स्पेक्ट्रम के प्रति कम संवेदी है।  

5जी के उपयोग के मसले पर मोबाइल कंपनियों और अमरीकी सरकार के बीच असहमति और बहस तो कई महीनों से चल रही है लेकिन यह उजागर कुछ समय पहले हुई है। लोग चाहते हैं कि 28 अक्टूबर को मिरुा में होने वाली वर्ल्ड कम्युनिकेशन कॉन्फ्रेंस के पहले इस मुद्दे पर चल रही बहस को सुलझा लिया जाए। 

वैसे यदि 5जी किसी अन्य स्पेक्ट्रम पर शुरू होता है तो वह भी नई बहस शुरू कर सकता है। गर्थ का कहना है कि 5जी के उपयोग पर विवाद तो 36-37 गीगा हर्ट्ज पर भी हो सकता है जिसका उपयोग बारिश और बर्फ गिरने के अनुमान के लिए किया जाता है या 50 गीगाहर्ट्ज़ पर भी हो सकता है जिस पर वायुमंडलीय तापमान का पता किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)
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कानों की सफाई के लिए कपास का इस्तेमाल सुरक्षित नहीं

साफ-सफाई का ध्यान रखना शरीर के लिए काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन एक महिला की कान साफ करने की दैनिक आदत ने उसकी खोपड़ी में जानलेवा संक्रमण पैदा कर दिया।

एक 37 वर्षीय ऑस्ट्रेलियाई महिला जैस्मिन को रोज़ रात को रूई के फोहे से अपने कान साफ करने की आदत थी। इसी आदत के चलते उसके बाएं कान से सुनने में काफी परेशानी होने लगी। शुरुआत में डॉक्टर को लगा कि कान में संक्रमण है जिसके लिए एंटीबायोटिक औषधि दी गई। लेकिन सुनने की समस्या बनी रही। कुछ ही दिनों बाद कानों को साफ करने के बाद रूई के फोहे में खून नज़र आने लगा।    

तब कान, नाक और गले के विशेषज्ञ ने सीटी स्कैन सुझाव दिया जिसमें एक भयावह स्थिति सामने आई। जैस्मिन को एक जीवाणु संक्रमण था जो उसके कान के पीछे उसकी खोपड़ी की हड्डी को खा रहा था। विशेषज्ञ ने सर्जरी का सुझाव दिया।

आखिरकार जैस्मिन के संक्रमित ऊतकों को हटाने और उसकी कर्ण नलिका को फिर से बनाने में 5 घंटे का समय लगा। चिकित्सकों ने बताया कि उसके कान में रूई के रेशे जमा हो गए थे और संक्रमित हो गए थे।

आम तौर पर लोग मानते हैं कि रूई से कान साफ करना सुरक्षित है लेकिन अमेरिकन एकेडमी ऑफ ओटोलैंरिगोलॉजी के अनुसार अपने कानों में चीज़ों को डालने से बचना चाहिए। कान को रूई के फोहे से साफ करना वास्तव में एक गलत तरीका है। इससे कान साफ होने के बजाय मैल कान में और अंदर चला जाता है। रूई या कोई अन्य उपकरण कान में जलन पैदा कर सकते हैं, कान के पर्दे को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

इसी वर्ष मार्च में, इंग्लैंड के एक व्यक्ति की कर्ण नलिका में भी रूई फंसने के बाद उसकी खोपड़ी में संक्रमण विकसित हो गया। सर्जरी के बाद जैस्मिन के संक्रमण का इलाज तो हो गया लेकिन उसकी सुनने की क्षमता सदा के लिए जाती रही। जैस्मिन अब रूई से कान साफ करने के खतरों से सभी को सचेत करती हैं। हमारा कान शरीर का एक नाज़ुक और संवेदनशील अंग हैं जिसकी देखभाल करना काफी आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

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विशाल क्षुद्रग्रह पृथ्वी के पास से गुज़रने वाला है

वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक विशाल क्षुद्र ग्रह 14 सितंबर के दिन पृथ्वी के नज़दीक से गुज़रेगा। गुज़रते समय इसकी रफ्तार 23000 कि.मी. प्रति घंटा रहेगी। इस क्षुद्रग्रह यानी एस्टीरॉइड का नाम है 2000QW7 और यह दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा से थोड़ा ही छोटा है – इसका व्यास 300-650 मीटर के बीच आंका गया है। यह जानकारी जेट प्रपल्शन लैबोरेटरी के सेंटर फॉर नीयर अर्थ ऑब्जेक्ट्स ने दी है।

खगोल शास्त्र की भाषा में उन सारे पिंडों और क्षुद्रग्रहों को नीयर अर्थ ऑब्जेक्ट यानी पृथ्वी निकट पिंड कहा जाता है जो पृथ्वी से 1.3 खगोलीय इकाई से कम दूरी से गुज़रते हैं। गौरतलब है कि पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी को एक खगोलीय इकाई कहते हैं और यह 14.96 करोड़ किलोमीटर है। यानी कोई भी पिंड यदि पृथ्वी से 19 करोड़ किलोमीटर से कम दूरी पर गुज़रे तो उसे नज़दीकी पिंड कहा जाएगा। सेंटर फॉर नीयर अर्थ ऑब्जेक्ट के मुताबिक 2000QW7 पृथ्वी से 0.03564 खगोलीय इकाई (53 लाख कि.मी.) की दूरी से गुज़रेगा जो चांद की हमसे दूरी के मुकाबले लगभग 14 गुना है।

यह क्षुद्रग्रह भी सूर्य के चक्कर काटता है और कई वर्षों में एकाध बार इसका परिक्रमा पथ पृथ्वी की कक्षा को काटता है। पिछली बार ऐसी घटना 1 सितंबर 2000 के दिन हुई थी। 14 सितंबर के बाद 2000QW7 फिर से 19 अक्टूबर 2038 को हमारे पास से गुज़रेगा। (स्रोत फीचर्स)

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ओज़ोन परत पर एक और हमला – एस. अनंतनारायणन

मारे वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद ओज़ोन परत, सूरज से आने वाले पराबैंगनी विकिरण से पृथ्वी की रक्षा करती है। इस सुरक्षा कवच पर खतरा पैदा हुआ था, लेकिन मॉन्ट्रियल संधि के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई की बदौलत इसे बचा लिया गया। संधि में इस बात को पहचाना गया था कि कुछ मानव निर्मित रसायन, मुख्य रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन, ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस संधि ने इन पदार्थों के उपयोग और वायुमंडल में इनके उत्सर्जन में कटौती करने के लिए एक वैश्विक अभियान को गति दी थी।

क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उपयोग के मामले में मुख्य रूप से एयरोसोल स्प्रे, औद्योगिक विलायकों और शीतलक तरल पदार्थों को दोषी माना गया और इस अभियान का केंद्रीय मुद्दा उन्हें हटाना था। क्लोरोफॉर्म जैसे कुछ अन्य पदार्थ भी ओज़ोन परत को प्रभावित करते हैं, लेकिन ये बहुत तेज़ी से विघटित हो जाते हैं, इसलिए इन्हें संधि में शामिल नहीं किया गया था। यह संधि काफी सफल रही और उम्मीद की गई थी कि अंटार्कटिक के ऊपर बन रहा ‘ओज़ोन छिद्र’ 2050 तक खत्म हो जाएगा।

एमआईटी, कैलिफोर्निया और ब्रिस्टल विश्वविद्यालयों, दक्षिण कोरिया के क्युंगपुक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के दी क्लाइमेट साइंस सेंटर और एक्सेटर के दी मेट ऑफिस के वैज्ञानिकों के एक समूह ने नेचर जियोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र में बताया है कि क्लोरोफॉर्म जैसे पदार्थों के स्तर में वृद्धि जारी है और इसके चलते ‘ओज़ोन छिद्र’ में हो रहे सुधार की गति धीमी पड़ सकती है।

ओज़ोन का ह्रास

ओज़ोन गैस ऑक्सीजन का ही एक रूप है जो वायुमंडल में काफी ऊंचाई पर बनती है। गैस की यह परत सूरज से आने वाली पराबैंगनी किरणों को सोखकर पृथ्वी की रक्षा करती है। ऑक्सीजन के परमाणु में बाहरी इलेक्ट्रॉन शेल अधूरा होता है जिसकी वजह से ऑक्सीजन का परमाणु अन्य परमाणुओं के साथ संयोजन करता है। ऑक्सीजन का अणु दो ऑक्सीजन परमाणुओं से मिलकर बनता है। ये दो परमाणु बाहरी शेल के इलेक्ट्रॉनों को साझा करके एक स्थिर इकाई बनाते हैं। वायुमंडल की ऊपरी परतों में पराबैंगनी प्रकाश के ऊर्जावान फोटोन ऑक्सीजन अणुओं को घटक परमाणुओं में विभक्त कर देते हैं। एक अकेला परमाणु उच्च ऊर्जा स्तर पर होता है और स्थिरता के लिए उसे बंधन बनाने की आवश्यकता होती है। वे अन्य ऑक्सीजन अणुओं के साथ बंधन बनाकर ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं वाला ओज़ोन का अणु बनाते हैं। ओज़ोन अणु फिर पराबैंगनी प्रकाश को अवशोषित करते हैं और एक ‘अकेला’ ऑक्सीजन परमाणु मुक्त करते हैं, जो फिर से ऑक्सीजन अणुओं के साथ गठबंधन करके ओज़ोन बनाते हैं। और यह प्रक्रिया ऐसे ही चलती रहती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक अकेले परमाणुओं की संख्या कम नहीं हो जाती। ऐसा तब होता है, जब दो अकेले परमाणु ऑक्सीजन का अणु बना लेते हैं।

इस प्रकार से ओज़ोन निर्माण और विघटन की एक प्रक्रिया चलती है। यह शुरू होती है पराबैंगनी प्रकाश द्वारा ऑक्सीजन अणुओं के विभाजन के साथ। इस क्रिया में उत्पन्न अकेले ऑक्सीजन परमाणु ऑक्सीजन के अणुओं के साथ गठबंधन करके ओज़ोन का निर्माण करते हैं। ओज़ोन में से एक बार फिर ऑक्सीजन परमाणु मुक्त होते हैं और ये ऑक्सीजन परमाणु आपस में जुड़कर ऑक्सीजन बना लेते हैं। इस तरह वायुमंडल में ऊंचाई पर ओज़ोन की मात्रा का एक संतुलन बना रहता है। यह ओज़ोन पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके और उसे पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से दूर रखने की प्रक्रिया जारी रखती है। सतह पर पराबैंगनी विकिरण जितना कम होगा उतना मनुष्यों और अन्य जंतुओं के लिए बेहतर है।

लेकिन ओज़ोन की इस संतुलित सुकूनदायक स्थिति में परिवर्तन तब आता है जब ओज़ोन को ऑक्सीजन में तोड़ने वाले पदार्थ ऊपरी वायुमंडल में पहुंच जाते हैं। इनमें से सबसे प्रमुख हैं पानी के अणु का ऋणावेशित OH हिस्सा, नाइट्रिक ऑक्साइड का NO हिस्सा, मुक्त क्लोरीन या ब्रोमीन परमाणु। ये पदार्थ ओज़ोन से अतिरिक्त ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचने में सक्षम होते हैं और फिर ये ऑक्सीजन परमाणुओं को अन्य यौगिक बनाने के लिए छोड़ते हैं। इसके बाद ये पदार्थ अन्य ओज़ोन अणुओं से ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचते हैं और लंबे समय तक ऐसा करते रहते हैं। ऊंचाई पर इनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्लोरीन है और एक क्लोरीन परमाणु 1,00,000 ओज़ोन अणुओं के साथ प्रतिक्रिया करते हुए दो साल तक सक्रिय रहता है।

ओज़ोन का विघटन करने वाले पदार्थों को वायुमंडल में भेजने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाएं बहुत कम हैं। लेकिन फिर भी 1970 के दशक के बाद से ऊंचाइयों पर ओज़ोन परत में गंभीर क्षति देखी गई है। इसका कारण विभिन्न क्लोरोफ्लोरोकार्बन यौगिकों का वायुमंडल में छोड़ा जाना पहचाना गया था जिनका उपयोग उस समय उद्योगों में बढ़ने लगा था। ये यौगिक वाष्पशील होते हैं और वायुमंडल की ऊंचाइयों तक पहुंच जाते हैं और क्लोरीन के एकल परमाणु मुक्त करते हैं। ये क्लोरीन परमाणु ओज़ोन परत पर कहर बरपाते हैं।

पराबैंगनी विकिरण को सोखने वाली ओज़ोन परत हज़ारों सालों से ही मौजूद रही है और जीवन का विकास ओज़ोन की मौजूदगी में ही हुआ है। हो सकता है कि थोड़ा पराबैंगनी विकिरण जीवन की उत्पत्ति के लिए एक पूर्व शर्त रहा हो। लेकिन अब ओज़ोन की कमी और पराबैंगनी विकिरण में वृद्धि के गंभीर स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभाव हैं जिसका एक उदहारण त्वचा कैंसर की घटनाओं में वृद्धि में देखा जा सकता है। अंटार्कटिक के ऊपर के वायुमंडल में ओज़ोन में भारी कमी यानी ‘ओज़ोन छिद्र’ का पता लगने के परिणामस्वरूप मॉन्ट्रियल संधि अस्तित्व में आई और यह अनुमान लगाया गया कि सीएफसी उपयोग पर रोक लगाई जाए तो 2030 तक त्वचा कैंसर के 20 लाख मामलों को रोका जा सकेगा।

रुझान पलटा

जैसा कि हमने बताया, सीएफसी को ओज़ोन क्षति का मुख्य कारण माना गया था और इसलिए संधि में क्लोरोफॉर्म जैसे अन्य कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया। ऐसा माना गया था कि वे ‘अत्यंत अल्पजीवी पदार्थ’ (या वीएसएलएस) हैं और यह भी माना गया था कि ये मुख्य रूप से प्राकृतिक स्रोतों से उत्पन्न होते हैं। फिर भी, नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार निचले समताप मंडल में वीएसएलएस का स्तर बढ़ता जा रहा है। अध्ययन के अनुसार दक्षिण ध्रुव के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म का स्तर 1920 में 3.7 खरबवां हिस्सा था जो बढ़ते-बढ़ते 1990 में 6.5 खरबवें हिस्से तक पहुंचा और फिर इसमें गिरावट देखने को मिली। इसी अवधि में उत्तर घ्रुव के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म 5.7 खरबवें भाग से बढ़कर 17 खरबवें भाग तक बढ़ने के बाद इसमें कमी आई। गिरावट का यह रुझान 2010 तक अलग-अलग अवलोकन स्टेशनों पर जारी रहा। लेकिन एक बार फिर यह बढ़ना शुरू हो गया। 2015 तक के आकड़ों के अनुसार यह वृद्धि मुख्य रूप से उत्तरी गोलार्ध में हुई है। शोध पत्र के अनुसार इससे पता चलता है कि वायुमंडल में प्रवेश करने वाले क्लोरोफॉर्म का मुख्य स्रोत उत्तरी गोलार्ध में है।

ऑस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका और युरोप के पश्चिमी तट के स्टेशनों के अनुसार 2007-2015 के दौरान निकटवर्ती स्रोतों से उत्सर्जन के कारण क्लोरोफॉर्म स्तर में वृद्धि अधिक नहीं थी। दूसरी ओर, 2010-2015 के दौरान जापान और दक्षिण कोरिया के स्टेशनों पर काफी वृद्धि दर्ज की गई थी।

इस परिदृश्य का आकलन करने के लिए, शोधकर्ताओं ने संभावित स्रोतों से प्रेक्षण स्थलों तक क्लोरोफॉर्म के स्थानांतरण का पता करने के लिए मॉडल का उपयोग किया। इस अध्ययन से पता चला कि 2010 के बाद से पूर्वी चीन से उत्सर्जन में तेज़ी से वृद्धि हुई है, जबकि जापान और दक्षिण कोरिया दूसरे स्थान पर हैं। अन्य पूर्वी एशियाई देशों से कोई महत्वपूर्ण वृद्धि देखने को नहीं मिली है। चीन में वृद्धि ऐसे क्षेत्रों में है जहां घनी आबादी के साथ-साथ औद्योगीकरण के कारण क्लोरोफॉर्म गैस का उत्सर्जन करने वाले कारखाने हैं। शोध पत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि हवा में क्लोरोफॉर्म का एक बड़ा हिस्सा उद्योगों से आता है और क्लोरोफॉर्म के स्तर में वृद्धि मानव निर्मित है।

शोध पत्र के अनुसार क्लोरोफॉर्म जैसे अत्यंत अल्पजीवी पदार्थों में वृद्धि का वर्तमान स्तर, ओज़ोन छिद्र के सुधार में कई वर्षों की देरी कर सकता है। नेचर जियोसाइंस में जर्मनी के जियोमर हेल्महोल्ट्ज़ सेंटर फॉर ओशन रिसर्च के सुसैन टेग्टमीयर ने टिप्पणी की है कि “यह निष्कर्ष मानव-जनित अत्यंत अल्पजीवी पदार्थों के उत्सर्जन का नियमन करने की चर्चा को शुरू करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।” (स्रोत फीचर्स)
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वनों में जीएम वृक्ष लगाने देने की अपील

ई देशों में आजकल लकड़ी से बनी चीज़ों पर इस बात का प्रमाण अंकित किया जाता है कि वह लकड़ी ऐसे जंगल से प्राप्त हुई है जिसका प्रबंधन टिकाऊ ढंग से किया जा रहा है। इस तरह का प्रमाणन जर्मनी में फॉरेस्ट स्टुआर्डशिप कौंसिल (एफएससी) करती है तो स्विटज़रलैंड में प्रोग्राम फॉर दी एंडोर्समेंट ऑफ फॉरेस्ट सर्टिफिकेशन (पीईएफसी) द्वारा किया जाता है। इस प्रमाणीकरण से पूर्व जंगल से सम्बंधित कई सारे पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को परखा जाता है। इन दो संस्थाओं ने मिलकर आज तक 44 करोड़ हैक्टर जंगल को टिकाऊ रूप से प्रबंधित जंगल का प्रमाण पत्र दिया है। इस वर्ष भारत में ऐसी एक व्यवस्था को अंतिम रूप दिया गया है और पीईएफसी ने इसका अनुमोदन कर दिया है।

प्रमाणन की एक शर्त यह है कि प्रमाणित वन में जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) पेड़ नहीं होने चाहिए। संस्थाओं के अनुसार यह शर्त इस आधार पर लगाई गई थी कि ऐसे पेड़ों के कारण पर्यावरणीय जोखिम अनिश्चित है। एफएससी के निदेशक स्टीफन साल्वेडोर का कहना है कि यह प्रतिबंध जेनेटिक इंजीयरिंग टेक्नॉलॉजी के प्रति गहरी आशंकाओं का भी द्योतक है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि टिकाऊ प्रबंधन का प्रमाण पत्र प्राप्त जंगलों में जीएम पेड़ लगाने की अनुमति न देने का मतलब है कि आप नई टेक्नॉलॉजी से हासिल हुए रोग-प्रतिरोधी वृक्षों को अनुमति नहीं दे रहे हैं। वैज्ञानिकों ने उक्त दो संस्थाओं को लिखे अपने पत्र में साफ किया है कि जीएम वृक्ष पर्यावरण की दृष्टि से उतने ही निरापद हैं जितने सामान्य संकर पेड़ होते हैं। और वे कई रोगों से लड़ने की क्षमता से भी लैस होते हैं। एक उदाहरण के रूप में वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक रोग के कारण अमेरिकन चेस्टनट (शाहबलूत) का लगभग सफाया हो गया था। अब इस पेड़ में जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे परिवर्तन किए गए हैं कि यह रोग प्रतिरोधी हो गया है। वैज्ञानिकों ने अपील की है कि प्रमाणित वनों में जीएम वृक्ष लगाने की अनुमति दी जाए। उनके मुताबिक प्रतिबंध के कारण शोध कार्य में दिक्कत आती है।

पीईएफसी के प्रवक्ता का कहना है कि प्रमाणन की शर्तों को हर पांच साल में संशोधित किया जाता है। अगला संशोधन 2023 में होगा। तब शर्तों में परिवर्तन के हिमायती संशोधन प्रक्रिया में भाग ले सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या बिजली-वाहन प्रदूषण कम करने में कारगर होंगे? – कुमार सिद्धार्थ

देश के महानगरों और शहरों में जिस तेज़ी से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, उसमें सबसे ज्यादा योगदान वाहनों से होने वाले प्रदूषण का है। इस मुद्दे पर वर्षों से चिंता जताई जा रही है, लेकिन ठोस परिणाम देखने में नहीं आ रहे हैं। वहीं देश में दो-पहिया और चार-पहिया वाहनों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है और रोज़ाना लाखों नए वाहन पंजीकृत हो रहे हैं। आज देश में पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले करोड़ों वाहन हैं, और इनसे निकलने वाला काला धुआं कार्बन उत्सर्जन का बड़ा कारण है।

पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते भारत सरकार ने सन 2030 तक बिजली से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा देने के लिए एक वृहद योजना तैयार की है। उम्मीद की जा रही है कि पूरे देश में विद्युत वाहनों का उपयोग बढ़ने से बिजली क्षेत्र में बड़ा बदलाव आएगा और उत्सर्जन में 40 से 50 प्रतिशत की कमी आएगी। इससे देश में कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी।

इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नीति आयोग की अगुवाई में विद्युत गतिशीलता के मिशन को मंज़ूरी दी है। ध्यान रहे कि विद्युत गतिशीलता को सार्वजनिक परिवहन से जोड़ने के लिए केंद्र सरकार ने 2015 में हाइब्रिाड (बिजली और र्इंधन दोनों से चलने वाले) और इलेक्ट्रिक वाहनों को तेज़ी से अपनाने और उनके निर्माण की नीति शुरू की थी – फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हायब्रिाड एंड इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (एफएएमई)। इसका पुनरीक्षण किया जा रहा है। इसके तहत नीति आयोग ने बिजली से चलने वाले वाहनों की ज़रूरत, उनके निर्माण और इससे सम्बंधित ज़रूरी नीतियां बनाने की शुरुआत की है।

दरअसल, भारत विद्युत वाहनों के लिए दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार है। भारत में इस वक्त लगभग 4 लाख इलेक्ट्रिक दो-पहिया वाहन और 1 लाख ई-रिक्शा हैं, कारें तो हज़ारों की संख्या में ही हैं। सोसाइटी ऑफ मैन्युफैक्चरर्स ऑफ इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (एसएमईवी) के अनुसार, भारत में 2017 में बेचे गए आंतरिक दहन इंजन वाहनों में से एक लाख से भी कम बिजली से चलने वाले वाहन थे। इनमें से 93 प्रतिशत से अधिक इलेक्ट्रिक तीन-पहिया वाहन और 6 प्रतिशत दो-पहिया वाहन थे।

भारत भले ही इलेक्ट्रिक कारों में दूसरे देशों से पीछे हो, लेकिन बैटरी से चलने वाले ई-रिक्शा की बदौलत भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है। रिपोर्ट्स के मुताबिक मौजूदा समय में भारत में करीब 15 लाख ई-रिक्शा चल रहे हैं। कंसÏल्टग फर्म ए.टी. कर्नी की एक की रिपोर्ट में बताया गया है कि हर महीने भारत में करीब 11,000 नए ई-रिक्शा सड़कों पर उतारे जा रहे हैं। भारत में अभी इलेक्ट्रिक गाड़ियों को चार्ज करने के लिए कुल 425 पॉइंट बनाए गए हैं। सरकार 2022 तक इन प्वाइंट्स को 2800 करने वाली है।

गौरतलब है कि देश में बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग भी बढ़ रही है। उद्योग मंडल एसोचैम और अन्स्र्ट एंड यंग एलएलपी के संयुक्त अध्ययन में कहा गया है कि सन 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग 69.6 अरब युनिट तक पहुंचने का अनुमान है।

आलोचकों का तर्क यह भी है कि भारत में 90 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयले से होता है। ऐसे में इलेक्ट्रिक कारों से प्रदूषण कम करने की बात बेमानी लगती है। नॉर्वे के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की ओर से कराए गए एक शोध के मुताबिक बिजली से चलने वाले वाहन पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले वाहनों से कहीं ज्यादा प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि यदि बिजली उत्पादन के लिए कोयले का इस्तेमाल होता है तो इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसें डीज़ल और पेट्रोल वाहनों की तुलना में कहीं ज़्यादा प्रदूषण फैलाती हैं। यही नहीं, जिन फैक्ट्रियों में बिजली से चलने वाली कारें बनती हैं वहां भी तुलनात्मक रूप में ज़्यादा विषैली गैसें निकलती हैं। हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि इन खामियों के बावजूद कई मायनों में ये कारें फिर भी बेहतर हैं। लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि ये कारें उन देशों के लिए फायदेमंद हैं जहां बिजली का उत्पादन अन्य स्रोतों से होता है।

अपने देश में इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के लिए पर्याप्त बिजली मिल सके, अभी इस पर काम किया जाना है। उसके लिए बुनियादी सुविधाओं, संसाधनों और बजट का प्रावधान किया जाना है। वाहन निर्माता कंपनियों का कहना है कि अगर सरकार बैटरी निर्माण और चार्जिंग स्टेशनों की समस्या का समाधान कर दे तो बिजली चालित वाहन बड़ी तादाद में उतारे जा सकते हैं। ज़ाहिर है, बुनियादी सुविधाओं का बंदोबस्त सरकार को करना है और इसके लिए ठोस दीर्घावधि नीति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंगों की उपलब्धता बढ़ाने के प्रयास

अंग प्रत्यारोपण के लिए अंगों का इंतज़ार करने वालों की कतार बढ़ती ही जा रही है। इस समस्या से निपटने के लिए कुछ कंपनियां कोशिश कर रही हैं कि सूअरों को जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिए इस तरह बदल दिया जाए उनके अंग मनुष्यों के काम आ सकें। अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिक एक सर्वथा नए तरीके पर प्रयोग कर रहे हैं।

वैसे यह विचार तकनीकी रूप से अत्यंत कठिन है और नैतिकता के सवालों से घिरा हुआ है लेकिन फिर भी वैज्ञानिक यह कोशिश कर रहे हैं कि एक प्रजाति की स्टेम कोशिकाएं किसी दूसरी प्रजाति के भ्रूण में पनप सकें, फल-फूल सकें। हाल ही में यूएस के एक समूह ने रिपोर्ट किया था कि उन्हें चिम्पैंज़ी की स्टेम कोशिकाओं को बंदर के भ्रूण में पनपाने में सफलता मिली है। और तो और, जापान में नियम-कायदों में मिली छूट के चलते कुछ शोधकर्ताओं ने अनुमति चाही है कि मानव स्टेम कोशिकाओं को चूहों जैसे कृंतक जीवों और सूअरों में पनपाएं। कई शोधकर्ताओं का मत है कि चिम्पैंज़ी-बंदर शिमेरा का निर्माण करना अंग प्रत्यारोपण के लिए अंगों की उपलब्धता बढ़ाने की दिशा में एक कदम है। गौरतलब है कि शिमेरा उन जंतुओं को कहते हैं जिनमें एक जीव के शरीर में दूसरे की कोशिकाएं मौजूद होती हैं।

अंतत: विचार यह है कि किसी व्यक्ति की कोशिकाओं को उनके विकास की शुरुआती अवस्था में लाया जाए, जो लगभग किसी भी ऊतक में विकसित हो सकती हैं। इन कोशिकाओं (जिन्हें बहु-सक्षम स्टेम कोशिकाएं कहते हैं) को किसी अन्य प्रजाति के भ्रूण में रोप दिया जाएगा और उस भ्रूण को किसी अन्य जीव की कोख में विकसित होने दिया जाएगा। इस भ्रूण के अंग बाद में प्रत्यारोपण के लिए तैयार मिलेंगे। सबसे अच्छा तो यही होगा कि जिस व्यक्ति को अंग लगाया जाना है उसी की स्टेम कोशिकाओं का उपयोग किया जाए।

फिलहाल यह शोध मात्र कृंतक जीवों पर किया गया है। वर्ष 2010 में टोक्यो विश्वविद्यालय के हिरोमित्सु नाकाउची के दल ने रिपोर्ट किया था कि वे एक चूहे के पैंक्रियास को एक माउस में विकसित करने में सफल रहे थे। इस पैंक्रियास को चूहे में प्रत्यारोपित करके उसे डायबिटीज़ से मुक्ति दिलाई गई थी। दूसरी ओर, 2017 में कोशिका जीव वैज्ञानिक जुन वू और उनके साथियों ने रिपोर्ट किया कि जब उन्होंने मानव स्टेम कोशिकाएं एक सूअर के भ्रूण में इंजेक्ट की तो आधे से ज़्यादा भ्रूण विकसित नहीं हो पाए थे किंतु जो भ्रूण विकसित हुए उनमें मानव कोशिकाएं जीवित थीं। वू यह देखने का भी प्रयास कर रहे हैं कि मानव स्टेम कोशिकाएं प्रयोगशाला में अन्य प्रायमेट जंतुओं की स्टेम कोशिकाओं के साथ पनप पाती हैं या नहीं। ज़ाहिर है कि इन सारे प्रयोगों के साथ नैतिकता के सवाल जुड़े हैं। (स्रोत फीचर्स)

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पेड़ भोजन-पानी में साझेदारी करते हैं

न्यूज़ीलैण्ड से मिले एक समाचार के मुताबिक पेड़ एक-दूसरे के साथ पोषण और पानी जैसे संसाधन मिल-बांटकर इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, शोधकर्ताओं को न्यूज़ीलैण्ड के नॉर्थ आईलैण्ड के वाइटाकेरे जंगल में एक पेड़ का ठूंठ मिला। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उस ठूंठ में न तो कोई शाखा थी और न ही पत्तियां मगर वह जीवित था।

उपरोक्त कौरी पेड़ (Agathis australis) का ठूंठ पारिस्थिकीविद सेबेस्टियन ल्यूज़िंगर और मार्टिन बाडेर की नज़रों में संयोगवश ही आया था। वे देखना चाहते थे कि क्या यह ठूंठ आसपास के पड़ोसियों के दम पर ज़िन्दा है। वैसे वैज्ञानिक बरसों से यह सोचते आए हैं कि कई पेड़ों के ठूंठ अपने पड़ोसियों के दम पर ही बरसों तक जीवित बने रहते हैं मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं था।

शोधकर्ताओं के लिए यह उक्त विचार की जांच का अच्छा मौका था। एक बात तो उन्होंने यह देखी कि इस ठूंठ में रस का प्रवाह हो रहा था जिसकी अपेक्षा आप किसी मृत पेड़ में नहीं करते। जब उन्होंने उस ठूंठ और आसपास के पेड़ों में पानी के प्रवाह का मापन किया तो पाया कि इनमें कुछ तालमेल है। इससे लगा कि संभवत: आसपास के पेड़ों ने इस ठूंठ को जीवनरक्षक प्रमाणी पर रखा हुआ है। यह आश्चर्य की बात तो थी ही, मगर साथ ही इसने एक सवाल को जन्म दिया – आखिर आसपास के पेड़ ऐसा क्यों कर रहे हैं?

यह ठूंठ तो अब उस जंगल की पारिस्थितिकी का हिस्सा नहीं है, कोई भूमिका नहीं निभाता है, तो पड़ोसियों को क्या पड़ी है कि अपने संसाधन इसके साथ साझा करें। ल्यूज़िंगर के दल का ख्याल है कि इस ठूंठ का जड़-तंत्र आसपास के पेड़ों के साथ जुड़ गया है। पेड़ों में ऐसा होता है, यह बात तो पहले से पता थी। ऐसे जुड़े हुए जड़-तंत्र से पेड़ पानी व अन्य पोषक तत्वों का लेन-देन कर सकते हैं और पूरे समुदाय को एक स्थिरता हासिल होती है।

जीवित पेड़ों के बीच इस तरह की साझेदारी से पूरे समुदाय को फायदा होता है मगर एक ठूंठ के साथ साझेदारी से क्या फायदा। शोधकर्ताओं का मत है कि इस ठूंठ का यह जुड़ाव उस समय बना होगा जब वह जीवित पेड़ था। पेड़ के मर जाने के बाद भी वह जुड़ाव कायम है और ठूंठ को पानी मिल रहा है। है ना जीवन बीमा का मामला – जीवन में भी, जीवन के बाद भी। iScience शोध पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन से लगता है कि पेड़ों के बीच कहीं अधिक घनिष्ठ सम्बंध होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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