नई सौर तकनीक से स्वच्छ पेयजल का उत्पादन

युनिसेफ के अनुसार, दुनिया भर में  78करोड़ से ज़्यादा लोगों (हर 10 में से एक) के पास साफ पेयजल उपलब्ध नहीं है। ये लोग प्रतिदिन कुल मिलाकर 20 करोड़ घंटे दूर-दूर से पानी लाने में खर्च करते हैं। भले ही दूषित पानी को शुद्ध करने के लिए तकनीकें मौजूद हैं, लेकिन महंगी होने के कारण ये कई समुदायों की पहुंच से परे है।

टैंकनुमा उपकरण (सोलर स्टिल) में रखे गंदे पानी को वाष्पन की मदद से साफ करने की प्रक्रिया काफी समय से उपयोग की जा रही है। सोलर स्टिल पानी से भरा एक काला बर्तन होता है जिसे कांच या प्लास्टिक से ढंक दिया जाता है। काला बर्तन धूप को सोखकर पानी को गर्म करके वाष्प में बदलता है और दूषित पदार्थों को पीछे छोड़ देता है। वाष्पित पानी को संघनित करके जमा कर लिया जाता है।

लेकिन इसका उत्पादन काफी कम है। धूप से पूरा पानी गर्म होने तक वाष्पीकरण की प्रक्रिया शुरू नहीं होती।  एक वर्ग मीटर सतह हो तो एक घंटे में 300 मिलीलीटर पानी का उत्पादन होता है। व्यक्ति को पीने के लिए एक दिन में औसतन  3 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। एक छोटे परिवार के लिए पर्याप्त पानी के लिए लगभग 5 वर्ग मीटर सतह वाला बर्तन चाहिए।

टेक्सास विश्वविद्यालय, ऑस्टिन के पदार्थ वैज्ञानिक गुहुआ यू और सहयोगियों ने हाल ही में इसके लिए एक रास्ता सुझाया है। इसमें हाइड्रोजेल और पोलीमर के मिश्रण से बना एक छिद्रमय जल-अवशोषक नेटवर्क होता है। टीम ने इस तरह का एक स्पंज तैयार किया जो दो पोलीमर से मिलकर बना है – एक पानी को बांधकर रखने वाला (पीवीए) और दूसरा प्रकाश सोखने वाला (पीपीवाय)। स्पंज को सौर स्टिल में पानी की सतह के ऊपर रखा जाता है।

स्पंज में पानी के अणुओं की एक परत पीवीए से हाइड्रोजन बांड के ज़रिए कसकर बंधी होती है। लेकिन पीवीए के साथ बंधे होने के कारण पानी के अणु आस-पास के अन्य पानी के अणुओं से शिथिल रूप से बंधे होते हैं। इन कमज़ोर रूप से जुड़े पानी के अणुओं को यू ‘मध्यवर्ती पानी’ कहते हैं। ये अपने आसपास के अणुओं के साथ कम बंधन साझा करते हैं, इसलिए वे अधिक तेज़ी से वाष्पित होते हैं। इनके वाष्पित होते ही स्टिल में मौजूद पानी के अन्य अणु इनकी जगह ले लेते हैं। नेचर नैनोटेक्नॉलॉजी में पिछले वर्ष प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस तकनीक का उपयोग करते हुए, यू ने एक घंटे में प्रति वर्ग मीटर 3.2 लीटर पानी का उत्पादन किया था।

अब यू की टीम ने इसे और बेहतर बनाया है। उन्होंने स्पंज में चिटोसन नाम का एक तीसरा पोलीमर जोड़ा है जो पानी को और भी मज़बूती से पकड़ता करता है। इसको मिलाने से मध्यवर्ती पानी की मात्रा में वृद्धि होती है। साइंस एडवांसेज़ की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार नए स्पंज के उपयोग से 1 वर्ग मीटर से प्रतिदिन 30 लीटर स्वच्छ पेयजल मिल सकता है। हाइड्रोजेल में उपयोग किए गए तीनों पोलीमर व्यावसायिक रूप से उपलब्ध और सस्ते हैं। मतलब अब ऐसे इलाकों में भी साफ पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है जहां इसकी सबसे अधिक ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चट्टान भक्षी ‘कृमि’ नदियों के मार्ग बदल सकते हैं

अठारवीं सदी में शिपवर्म (एक प्रकार का कृमि) ने लोगों को काफी परेशान किया था। जहाज़ों को डुबाना, तटबंधों को खोखला करना और यहां तक कि समुद्र की लहरों से बचाव करने वाले डच डाइक को भी खा जाना इस कृमि की करामातें थी। लकड़ी इनकी खुराक है। शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक ऐसे शिपवर्म की खोज की है जिसका आहार लकड़ी नहीं बल्कि पत्थर है। मीठे पानी में पाया जाने वाला यह मोटा, सफेद, और कृमि जैसा दिखने वाला जीव एक मीटर तक लंबा हो सकता है। शोधकर्ताओं ने इस प्रजाति (Lithoredo abatanica) को पहली बार 2006 में फिलीपींस स्थित अबाटन नदी के चूना पत्थर में अंगूठे की साइज़ के बिलों में देखा था। लेकिन इस जीव का विस्तार से अध्ययन 2018 में किया गया।

चट्टान को चट करने वाला यह शिपवर्म लकड़ीभक्षी शिपवर्म से काफी अलग है। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सभी शिपवर्म वास्तव में कृमि नहीं बल्कि क्लैम होते हैं। इनमें दो सिकुड़े हुए कवच रूपांतरित होकर बरमे की तरह काम करते हैं। लकड़ी खाने वाले कृमि के कवच पर सैकड़ों तेज़ अदृश्य दांत होते हैं वहीं चट्टान खाने वाले कृमि में दजऱ्न भर मोटे, मिलीमीटर साइज़ के दांत होते हैं जो चट्टान को खरोंचने में सक्षम होते हैं।

लकड़ीभक्षी समुद्री शिपवर्म में विशेष पाचक थैली होती है जहां बैक्टीरिया लड़की को पचाते हैं। अन्य शिपवर्म की तरह चट्टान खाने वाले शिपवर्म भी कुतरे हुए पदार्थ को निगलते ज़रूर हैं लेकिन इसमें पाचक थैली और बैक्टीरिया का अभाव रहता है। चट्टान के चूरे से इन्हें कोई पोषण नहीं मिलता। पोषण के लिए वे पिछले सिरे से चूसे गए भोजन के भरोसे रहते हैं जिसे गलफड़ों में उपस्थित बैक्टीरिया पचाते हैं। बहरहाल, लकड़ीभक्षी और चट्टानभक्षी शिपवर्म में एक समानता है। दोनों काफी नुकसान कर सकते हैं। लकड़ीभक्षी ने तो जहाज़ों और लकड़ी से बनी अन्य रचनाओं को तहस-नहस किया था और दूसरा चट्टान को खोखला कर नदी के रास्ते को भी बदल सकता है। लेकिन इसका एक उजला पक्ष भी है। कृमि द्वारा बनाई गई दरारें केकड़ों, घोंघों और मछलियों के लिए बेहतरीन घर होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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रक्त समूह A को O में बदलने की संभावना

आम तौर पर दुनिया में चार तरह के रक्त समूह (A, B, AB, और O) होते है। हर व्यक्ति इनमें से किसी एक रक्त समूह का होता है। इन रक्त समूहों की पहचान लाल रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट या उन पर मौजूद एंटीजन से होती है। किसी व्यक्ति को ज़रूरत पड़ने पर सही समूह का रक्त चढ़ाना ज़रूरी होता है अन्यथा शरीर की एंटीबॉडी लाल रक्त कोशिकाओं पर उपस्थित एंटीजन को भांपकर उसे बाहरी समझकर मार देती है। यह जानलेवा साबित हो सकता है।

चूंकि O रक्त समूह की कोशिकाओं पर कोई एंटीजन मौजूद नहीं होता इसलिए इस समूह का रक्त किसी भी व्यक्ति को चढ़ाया जा सकता है। और इसी कारण कई बार आपात स्थिति में ज़रूरी होने पर मरीज़ के रक्त समूह की जांच किए बिना O समूह का रक्त चढ़ा दिया जाता है। अर्थात इस समूह का रक्त अत्यंत कीमती है। यह रक्त समूह और भी सहजता से उपलब्ध हो सके, इसके लिए शोधकर्ता पिछले कुछ वर्षों से A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन को हटाकर इसे O रक्त समूह में परिवर्तित करने की कोशिश कर रहे हैं। और इस दिशा में हाल ही में वेन्कूवर स्थित ब्रिाटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी के स्टीफन वीथर्स ने दो ऐसे एंज़ाइम्स की पहचान की है जो A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन को पचाने में सक्षम है।

शोधकर्ताओं ने देखा कि मानव आंत में मौजूद कुछ बैक्टीरिया म्यूसिन का पाचन करते हैं। म्यूसिन दरअसल श्लेष्मा में पाया जाने वाला एक ग्लायकोप्रोटीन है जिसकी बनावट A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन के समान होती है। इसलिए शोधकर्ताओं ने अपना ध्यान मानव आंत में मौजूद उन बैक्टीरिया पर केन्द्रित किया जिनमें म्यूसिन पचाने की क्षमता थी।

उन्होंने मानव मल से डीएनए के उन हिस्सों को अलग किया जिनमें म्यूसिन पचाने वाले जीन मौजूद थे। फिर हर हिस्से को ई. कोली बैक्टीरिया के साथ जोड़ दिया और देखा कि क्या कोई बैक्टीरिया A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन को पचाने वाला एंज़ाइम बनाता है। उन्होंने पाया कि ऐसे दो एंजाइम का एक साथ उपयोग करने पर वे A रक्त समूह के एंटीजन को हटाने में सक्षम थे। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन के बारे में शोध पत्रिका नेचर माइक्रोबायोलॉजी में बताया है कि इन एंजाइम्स का निर्माण फ्लेवोनिफ्रेक्टर प्लॉटी नामक बैक्टीरिया द्वारा किया जाता है। इसके बाद उन्होंने रक्त के नमूनों साथ भी यही परीक्षण दोहराया और उन्हें संतोषजनक परिणाम मिले। हालांकि अभी इस बात की पुष्टि बाकी है कि इन एंजाइम्स द्वारा सारे एंटीजन हटा दिए जाते हैं या नहीं। साथ ही इस बात की पुष्टि की भी ज़रूरत है कि ये एंजाइम्स लाल रक्त कोशिकाओं की सतह से एंटीजन हटाने के अलावा कोई अन्य फेरबदल तो नहीं करते। (स्रोत फीचर्स)

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खोपड़ी में इतनी हड्डियां क्यों?

अनुमान लगाइए आपकी खोपड़ी में कितनी हड्डियां होंगी। शायद आपका अनुमान दो, या शायद कुछ अधिक हड्डियों का हो। लेकिन वास्तव में मानव खोपड़ी में अनुमान से कहीं अधिक हड्डियां होती हैं। नेशनल सेंटर फॉर बॉयोटेक्नॉलॉजी इंफॉर्मेशन के मुताबिक मानव खोपड़ी में हड्डियों की संख्या 22 होती है: 8 हड्डियां कपाल में और 14 हड्डियां चेहरे की।  

अलग-अलग जीवों की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अलग-अलग होती है। ओहायो युनिवर्सिटी के शोधकर्ता के मुताबिक मगरमच्छ की खोपड़ी में 53 हड्डियां होती हैं। अब तक खोपड़ी में सबसे अधिक हड्डियां लुप्त हो चुकी एक मछली के जीवाश्म में मिली है (156)। सामान्यत: मछलियों की खोपड़ी में तकरीबन 130 हड्डियां होती हैं।

विभिन्न रीढ़धारी जीवों में जन्म के समय खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अधिक होती है, लेकिन कुछ में युवावस्था आने तक कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं जबकि कुछ जीवों में ये हड्डियां अलग-अलग बनी रहती हैं। जैसे स्तनधारी जीवों के भ्रूण की खोपड़ी में लगभग 43 हड्डियां होती हैं, लेकिन उम्र के साथ इनमें से कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं। मानव शिशु में जन्म के समय के माथे की दो हड्डियां होती हैं जो उम्र बढ़ने पर जुड़कर एक हो जाती हैं।

प्रत्येक रीढ़धारी जीव की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या, आगे चलकर कितनी हड्डियां जुड़ेंगी, जुड़ाव का स्थान और समय में विविधता होती है। और इससे पता लगता है कि उस जीव की खोपड़ी का उपयोग कैसा है, और खोपड़ी में कितने लचीलेपन की ज़रूरत है। जीव की खोपड़ी जितनी अधिक लचीली होगी, उसकी खोपड़ी में उतनी अधिक हड्डियां होंगी। मसलन मछिलयों की खोपड़ी बहुत लचीली होती है और उनकी खोपड़ी में हड्डियों की संख्या बहुत अधिक होती है और उनमें बहुत कम हड्डियां आपस में जुड़ती हैं। वैसे ज़मीन पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की तुलना में मछलियों को अपने सिर का संतुलन बनाए रखने के लिए गुरुत्व बल से जूझना नहीं पड़ता, इसलिए उनकी हड्डियां हल्की और लचीली होती हैं। पक्षियों की भी खोपड़ी काफी लचीली होती है। जैव विकास में जीवों की खोपड़ी अलग-अलग तरह से विकसित हुर्इं हैं। खोपड़ी की हड्डियों में यह विविधता जीव विकास की समृद्ध प्रक्रिया के बारे में बताती है। (स्रोत फीचर्स)

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दबाव की परिभाषा और मापन बदलने की तैयारी

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय नाप-तौल ब्यूरो ने कई राशियों की बदली हुई परिभाषाएं स्वीकार कर ली हैं। लंबाई, द्रव्यमान वगैरह की परिभाषाओं को किसी वास्तविक वस्तु से तुलना करके मापने की बजाय इन्हें कतिपय प्राकृतिक स्थिरांकों के आधार पर परिभाषित किया गया है। इससे प्रेरित होकर यूएस के कुछ शोधकर्ता दबाव की परिभाषा को बदलने तथा दबाव नापने का तरीका बदलने पर काम कर रहे हैं।

पांरपरिक तौर पर दबाव को प्रति इकाई क्षेत्रफल पर लगने वाले बल के रूप में परिभाषित किया जाता है। लगभग 400 वर्ष पूर्व टॉरिसेली ने पारद-आधारित दाबमापी (मैनोमीटर) का आविष्कार किया था और तब से आज तक वही हमारा दबाव नापने का मानक तरीका रहा। इस उपकरण में छ आकार की एक नली में पारा भरा जाता है और नली की दोनों भुजाओं में पारे की ऊंचाई की तुलना से दबाव ज्ञात किया जाता है। दबाव की अंतर्राष्ट्रीय रूप से मान्य इकाई न्यूटन प्रति वर्ग मीटर है।

अब यूएस के नेशनल इंस्टीट्यूटऑफ स्टैण्डर्डस एंड टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिक दबाव के लिए सर्वथा नई परिभाषा प्रस्तुत कर रहे हैं। इस तकनीक का सार यह है कि किसी गुहा यानी कैविटी में लेज़र की मदद से गैस के परमाणुओं की गणना की जाए, जिससे गैस का घनत्व पता चल जाएगा और इसके आधार पर दबाव की गणना की जा सकेगी। एनआईएसटी के इस नए दाबमापी का नाम है फिक्स्ड-लेंथ ऑप्टिकल कैविटी (फ्लॉक)। जिस गैस का दबाव नापना हो उसे एक कैविटी में भरकर उसमें से लेज़र किरणपुंज भेजा जाता है और उसकी चाल पता की जाती है। इस चाल की तुलना उस कैविटी में निर्वात में लेज़र की चाल से करने पर घनत्व पता चल जाता है क्योंकि लेज़र की चाल गैस के घनत्व पर निर्भर है। इसके आधार पर भौतिकी के कुछ स्थिरांकों की मदद से दबाव की गणना कर ली जाती है।

अभी स्थिति यह है कि सटीकता के मामले में यह तकनीक मैनोमीटर तकनीक से उन्नीस ही बैठती है। इसकी सटीकता फिलहाल दस लाख में 6 भाग के बराबर है जबकि पांरपरिक मैनोमीटर में त्रुटि की संभावना दस लाख में 3 भाग होती है। नई तकनीक गैस में परमाणुओं/अणुओं की संख्या पर आधारित है। इसका मतलब है कि इस पर अशुद्धियों या समस्थानिकों की उपस्थिति से फर्क पड़ेगा। इसके अलावा एक सवाल यह भी है कि प्रयोग के दौरान स्वयं कैविटी में कितनी विकृति उत्पन्न होती है।

बहरहाल, पहले तो एनआईएसटी के शोधकर्ताओं को पारंपरिक विधि और उनकी नई विधि के परिणामों के तुलनात्मक आंकड़े प्रकाशित करने होंगे। उसके बाद इसे अंतर्राष्ट्रीय नाप-तौल ब्यूरो के सामने रखा जाएगा। ब्यूरो इसे परीक्षण के लिए जर्मनी स्थित एक संस्थान को भेजेगा। इसके अलावा एक और प्रयोगशाला को फ्लॉक यंत्र तैयार करना पड़ेगा और दोनों की तुलना की जाएगी। कुल मिलाकर फ्लॉक तकनीक को मानक तकनीक बनने में अभी काफी समय लगेगा। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर कोशिकाओं को मारने हेतु लेज़र

अर्कान्सास आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक नई तकनीक विकसित की है जिसकी मदद से खून में से उन कैंसर कोशिकाओं को नष्ट किया जा सकेगा जो किसी कैंसर गठान से टूटकर अलग हुई हैं। ऐसी कोशिकाएं शरीर में कैंसर के फैलने की प्रमुख वजह होती हैं। यह तकनीक एक विशेष किस्म के लेज़र पर आधारित है।

फिलहाल कैंसर के फैलने का पता लगाने के लिए डॉक्टर रक्त के नमूनों का परीक्षण करके उनमें कैंसर कोशिकाओं की उपस्थिति का पता लगाते हैं। किंतु यह परीक्षण तभी सही परिणाम देता है जब रक्त में ऐसी कोशिकाओं की संख्या काफी ज़्यादा हो, जिसका मतलब है कि उस समय तक कैंसर काफी फैल चुका होता है।

शोध के प्रमुख व्लादिमिर ज़ारोव द्वारा विकसित तकनीक को सायटोफोन नाम दिया गया है। इसमें त्वचा पर लेज़र प्रकाश के पुंज दागे जाते हैं ताकि रक्त की कोशिकाएं गर्म हो जाएं। लेज़र की खूबी यह होती है कि वह सिर्फ मेलेनोमा कोशिकाओं को गर्म करता है, स्वस्थ कोशिकाओं को नहीं। मेलेनोमा एक किस्म का कैंसर होता है। इसकी कोशिकाओं में मेलेनीन नामक रंजक पाया जाता है जो लेज़र किरणों को अवशोषित कर कोशिका को गर्म कर देता है। जब ये पर्याप्त गर्म हो जाती हैं, तो इस ऊष्मन प्रभाव से उत्पन्न सूक्ष्म ध्वनि तरंगों को सायटोफोन द्वारा पकड़ा जाता है।

साइंस ट्रासंसलेशन मेडिसिन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि तकनीक का परीक्षण सबसे पहले हल्के रंग की त्वचा वाले मरीज़ों पर किया गया। इनमें से 28 को मेलेनोमा था जबकि 19 स्वस्थ थे। उन्होंने इनके हाथों पर लेज़र चमकाया और पाया कि 10 सेकंड से 60 मिनट के अंदर वे 28 में से 27 के रक्त प्रवाह में भटकती कैंसर कोशिकाओं को पहचानने में सफल रहे। सबसे अच्छी बात यह रही कि इस तकनीक ने एक भी स्वस्थ व्यक्ति के बारे में मिथ्या पॉजि़टिव परिणाम नहीं दिए। इसके कोई साइड प्रभाव भी नहीं देखे गए।

गौरतलब बात है कि त्वचा की कोशिकाओं में भी मेलेनीन पाया जाता है किंतु परीक्षण के दौरान उन कोशिकाओं को कोई क्षति नहीं पहुंची। कारण यह है कि लेज़र पुंज को इस तरह फोकस किया गया था कि वह त्वचा पर नहीं बल्कि थोड़ी गहराई में जाकर रक्त वाहिनियों पर केंद्रित होता है।

परीक्षण का एक अनपेक्षित परिणाम यह रहा कि परीक्षण के बाद मरीज़ों के शरीर में रक्त प्रवाह में भटकती कैंसर कोशिकाओं की संख्या में कमी आई। अर्थात यह तकनीक कैंसर कोशिकाओं को खत्म करने में भी उपयोगी साबित हो सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब मेलेनीन लेज़र द्वारा उत्पन्न ऊष्मा को सोखता है तो कोशिका में उसके आसपास उपस्थित पानी वाष्पित होने लगता है और एक बुलबुला बना लेता है। यह बुलबुला पहले तो फैलता है और फिर पिचक जाता है। इस प्रक्रिया में कोशिका मारी जाती है।

अभी इस तकनीक का परीक्षण गहरे रंग की त्वचा वाले व्यक्तियों पर नहीं किया गया है, जिनकी त्वचा कोशिकाओं में मेलेनीन काफी अधिक होता है।

अभी यह तकनीक सिर्फ मेलेनोमा से उत्पन्न कोशिकाओं पर आज़माई गई है। शोधकर्ता दल इसे अन्य किस्म की कैंसर कोशिकाओं के लिए भी विकसित करना चाहता है। इनमें मेलेनीन तो होता नहीं, इसलिए पहले इनको किसी मार्कर से चिंहित करना होगा।

टीम का कहना है कि अभी इस तकनीक को नैदानिक तकनीक में विकसित करने में समय लगेगा। वैसे उन्होंने प्रयोगशाला में उपलब्ध स्तन कैंसर की कोशिकाओं पर इसे कारगर साबित किया है। (स्रोत फीचर्स)

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आंखों पर इतने बैक्टीरिया का अड्डा क्यों है?

आजकल यह बात तो आम जानकारी का विषय है कि हमारी आंतों में बड़ी संख्या में सूक्ष्मजीव निवास करते हैं और इनमें से कई हमें स्वस्थ रहने में मदद करते हैं। हमारी आंतों का यह सूक्ष्मजीव जगत असंतुलित हो जाए तो कई तकलीफों का सबब बन जाता है। मगर यह बात नई है कि हमारी आंखों का भी अपना सूक्ष्मजीव जगत (माइक्रोबायोम) होता है और इसमें असंतुलन कई बीमारियों को जन्म दे सकता है।

हाल ही में एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि हमारी आंख की सतह पर रहने वाले कुछ बैक्टीरिया प्रतिरक्षा तंत्र को प्रोत्साहित करते हैं। पिछले दशक में आंखों की तंदुरुस्ती में सूक्ष्मजीवों की भूमिका विवादास्पद थी। और तो और, वैज्ञानिकों का ख्याल था कि आंखों में कोई सुगठित सूक्ष्मजीव संसार नहीं होता है। अध्ययन बताते थे कि हवा से, हाथों से आंखों पर बैक्टीरिया पहुंच सकते हैं जिन्हें आंसुओं के साथ बहा दिया जाता है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि आंखों में एक सूक्ष्मजीव संसार बसता है और इसका संघटन उम्र, भौगोलिक क्षेत्र, जनजातीय सम्बद्धता, कॉन्टैक्ट लेंस पहनने और आंखों की बीमारी से निर्धारित होता है। आंखों के इस सूक्ष्मजीव संसार का ‘प्रमुख हिस्सा’ बैक्टीरिया के चार वंशों से मिलकर बनता है: स्टेफिलोकॉकस, डिफ्थेरॉइड्स, प्रोपियोनीबैक्टीरिया और स्ट्रेप्टोकॉकस। इनके अलावा एक वायरस (टॉर्क टेनो वायरस) भी इस सूक्ष्मजीव संसार का मूल निवासी है।

इसका पहला मतलब तो यह है कि नेत्र विशेषज्ञों को एंटीबायोटिक दवाइयां देते समय इस सूक्ष्मजीव संसार का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि एंटीबायोटिक कुछ लाभदायक बैक्टीरिया को भी मार डालें। यू.एस. के करीब साढ़े तीन लाख मरीज़ों पर किए एक अध्ययन में पता चला था कि कंजंक्टिवाइटिस के 60 प्रतिशत मामलों में एंटीबायोटिक्स का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया जबकि यह बीमारी एक वायरस के कारण होती है और स्वत: ठीक हो जाती है।

2016 में रेशेल कास्पी और उनके साथियों द्वारा किए गए एक अध्ययन में पता चला था कि चूहे की आंखों में एक बैक्टीरिया सी. मास्ट पाया जाता है जो प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सूक्ष्मजीवरोधी रसायन बनाने को प्रेरित करता है। ऐसे और अध्ययनों की आवश्यकता है ताकि सूक्ष्मजीव संसार के असर को परखा जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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आवर्त सारणी की 150वीं वर्षगांठ- डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दुनिया लोग सदियों से सोना, चांदी, पारा, लोहा, फॉस्फोरस जैसे कई पदार्थों के बारे में जानते थे और उनका उपयोग करते थे। कीमियागरों ने भी ‘सस्ती’ धातुओं से सोना बनाने की कई कोशिशें कीं मगर नाकाम रहे। लेकिन साल 1808 में अंग्रेज़ अध्यापक जॉन डाल्टन ने ‘रासायनिक दर्शन की नई प्रणाली’ प्रस्तुत की जिसमें उन्होंने बताया कि सभी रासायनिक तत्व परमाणुओं से बने होते हैं; कोई भी तत्व एक ही प्रकार के परमाणुओं से मिलकर बना होता है और हर परमाणु का अपना एक निश्चित भार होता है; और दो अलग-अलग तत्वों के परमाणुओं के परस्पर संयोग के फलस्वरूप ही रासायनिक क्रियाएं होती हैं। इंग्लैंड के डाल्टन और थॉमस थॉमसन ने हाइड्रोजन परमाणु के भार को 1 निर्धारित किया (या इकाई माना) जबकि युरोप के बर्जीलियस ने ऑक्सीजन का परमाणु भार 100 माना। आगे इन्हीं इकाइयों के आधार पर अन्य तत्वों के परमाणु भार पता किए गए। 1860 के दशक तक कई ज्ञात तत्वों के परमाणु भार पता किए जा चुके थे।

उस वक्त रासायनज्ञों के मन में एक सवाल घूम रहा था कि क्या किसी वर्ग के तत्वों (जैसे लीथियम, सोडियम और पोटेशियम) के गुणधर्मों में समानता और उनके परमाणु भारों को देखकर कोई पैटर्न (या तर्क) निकाला जा सकता है? 1817 में जर्मनी के जॉहेन डॉबराइनर ने पाया कि यदि समान गुणधर्म वाले तत्वों की तिकड़ी को लें तो बीच वाले तत्व का परमाणु भार अन्य दो तत्वों के परमाणु भार के औसत के करीब होता है। उदाहरण के तौर पर सोडियम का परमाणु भार (23) लीथियम (परमाणु भार 7) और पोटेशियम (परमाणु भार 39) के औसत के करीब है। इसी तरह ब्राोमीन का परमाणु भार (80), क्लोरीन (35) और आयोडीन (127) के मध्य है। और फिर 1865 में रसायनज्ञ जॉन न्यूलैंड्स ने ‘अष्टक का नियम’ प्रतिपादित किया था, जिसके अनुसार यदि तत्वों को उनके परमाणु भार के अनुसार बढ़ते क्रम में जमाया जाए तो हर आठवें तत्व के गुणधर्म पहले तत्व के समान होंगे (जैसे लीथियम और सोडियम, या कार्बन और सिलिकॉन)।

इसी संदर्भ में साल 1865 में ही रूस के सेंट पीट्सबर्ग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दीमित्री मेंडलीव भी काम कर रहे थे। वे उस वक्त की मौजूदा पाठ्यपुस्तकों से संतुष्ट नहीं थे, इसलिए स्वयं एक पाठ्यपुस्तक लिख रहे थे। लेकिन किताब लिखने के लिए उन्हें तत्वों को व्यवस्थित और तार्किक क्रम में जमाना था। साइंस न्यूज़ के 9 जनवरी 2019 के अंक में डॉ. टॉम सीगफ्राइड लिखते हैं कि मेंडलीव ने उस वक्त तक ज्ञात सभी 69 तत्वों और उनके गुणधर्मों को अलग-अलग कार्ड पर लिखा। फिर इन कार्डस को एक खड़ी रेखा में बढ़ते परमाणु भार के क्रम में जमाया। उन्होंने पाया कि परमाणु भार के आधार पर एक क्रम में जमाने पर एक निश्चित अंतराल पर तत्वों में गुणों का दोहराव दिखाई देता है और “किसी तत्व के परमाणु भार से उस तत्व के गुणधर्म निर्धारित होते हैं।” उन्होंने अपनी इस खोज को 1 मार्च 1869 को रशियन केमिकल सोसायटी में प्रस्तुत किया था। और इस तरह आवर्त सारणी अस्तित्व में आई। (इस संदर्भ में, सीगफ्राइड का उपरोक्त उम्दा, स्पष्ट और पठनीय लेख ‘How the periodic table went from a sketch to an enduring masterpiece’ इंटरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध है।

भविष्यवाणी की ताकत

मेंडलीव की आवर्त सारणी ने ना केवल डॉबराइनर और न्यूलैंड्स के इस विचार की पुष्टि की कि हर आठवां तत्व गुणधर्मों को दोहराता है, बल्कि इससे आगे गई। इस आवर्त सारणी के आधार पर उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि सिलिकॉन जैसे गुणधर्मों वाले एक तत्व की खोज होगी जिसका परमाणु भार 72 होगा (इसे उन्होंने एका-सिलिकॉन नाम दिया था)। आगे जाकर साल 1886 में यह तत्व खोजा गया और इसे जर्मेनियम नाम दिया गया। इसी तरह उन्होंने एका-एल्यूमिनियम नामक तत्व के बारे में पूर्वानुमान लगाया था, जिसे साल 1875 में खोजा गया और इसे नाम दिया गया गैलियम। गैलियम में वे सारे गुणधर्म थे जिनके होने की भविष्यवाणी मेंडलीव ने की थी।

सीगफ्राइड लिखते हैं कि “मेंडेलीव की आवर्त सारणी ने रसायन शास्त्र को मध्ययुगीन जादुई रहस्यवादी किमियागरी से आधुनिक रसायन विज्ञान की गहनता प्रदान की। आवर्त सारणी ना सिर्फ पदार्थ के घटकों का प्रस्तुतीकरण है बल्कि यह समस्त विज्ञान की अकाट्य तार्किकता और तर्कसंगतता का भी प्रतिनिधित्व करती है।”

डॉल्टन और मेंडेलीव के अनुसार परमाणु किसी तत्व की वह सूक्ष्मतम इकाई है जिसे और विभाजित नहीं किया जा सकता। लेकिन 1900 के दशक में आधुनिक भौतिकी ने दर्शाया कि परमाणु में एक केंद्रीय नाभिक (जिसमें प्रोटॉन और न्यूट्रॉन होते हैं) होता है और इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों और विभिन्न कक्षाओं में चक्कर लगाते रहते हैं, कुछ हद तक वैसे ही जैसे ग्रह सूर्य के चारों और चक्कर लगाते हैं। किसी परमाणु में प्रोटॉन की संख्या को परमाणु संख्या कहते हैं। इस विचार ने रसायनज्ञों को तत्वों को परमाणु संख्या के आधार पर व्यवस्थित करने की प्रेरणा दी। परमाणुओं की बाहरी कक्षा में स्थित इलेक्ट्रॉन तत्व के रासायनिक गुण निर्धारित करते हैं।

परमाणु की कक्षाएं बढ़ते स्तर में व्यवस्थित की गई हैं। यह आवर्तता मेंडेलीव की आवर्त सारणी की व्यवस्था और उनके पूर्वानुमान से मेल खाती है। देखा जाए तो मेंडेलीव भविष्यदृष्टा थे। और आवर्त सारणी तत्वों को एक व्यवस्थित क्रम में जमाने का शानदार विचार था, जिसकी इस वर्ष (2019 में) हम 150वीं वर्षगांठ मना रहे हैं।

इस अवसर पर, चेन्नई के इलेक्ट्रोकेमिकल रिसर्च इंस्टीट्यूटके डॉ. अशोक के. आर. पॉल ने आवर्त सारणी को एक काव्यात्मक श्रद्धांजलि दी है। आवर्त सारणी पर लिखी गई कविता का आनंद आप नीचे दी गई लिंक पर पढ़कर ले सकते हैं – https://euroscientist.com/ode-to-the-periodic-table/ (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुछ लोगों को मच्छर ज़्यादा क्यों काटते हैं?

यह तो जानी-मानी बात है कि कुछ लोगों को मच्छर बहुत ज़्यादा काटते हैं जबकि कुछ लोग खुले में बैठे रहें तो भी मच्छर उन्हें नहीं काटते। वैज्ञानिकों का मत है कि मच्छरों द्वारा व्यक्तियों के बीच यह भेदभाव उन व्यक्तियों के आसपास उपस्थित निजी वायुमंडल के कारण होता है। मच्छर इस वायुमंडल में छोटे-छोटे परिवर्तनों का लाभ उठाते हैं।

सबसे पहले तो मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की मदद से अपने शिकार को ढूंढते हैं। हम जो सांस छोड़ते हैं उसमें कार्बन डाईऑक्साइड अधिक मात्रा में होती है। यह कार्बन डाईऑक्साइड तुरंत आसपास की हवा में विलीन नहीं हो जाती बल्कि कुछ समय तक हमारे आसपास ही टिकी रहती है। मच्छर इस कार्बन डाईऑक्साइड के सहारे आपकी ओर बढ़ते हैं।

मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता की ओर रुख करके उड़ते रहते हैं जो उन्हें आपके करीब ले आता है। देखा गया है कि मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता की मदद से 50 मीटर दूर के लक्ष्य को भांप सकते हैं। यह तो हुई सामान्य सी बात – कार्बन डाईऑक्साइड के पैमाने पर तो सारे मनुष्य लगभग बराबर होंगे। इसके बाद आती है बात व्यक्तियों के बीच भेद करने की।

वैज्ञानिकों का मत है कि इस मामले में मच्छर कई चीज़ों का सहारा लेते हैं। इनमें त्वचा का तापमान, व्यक्ति के आसपास मौजूद जलवाष्प और व्यक्ति का रंग महत्वपूर्ण हैं। मगर सबसे महत्वपूर्ण अंतर उन रसायनों से पड़ता है जो व्यक्ति की त्वचा पर उपस्थित सूक्ष्मजीव हवा में छोड़ते रहते हैं। त्वचा पर मौजूद बैक्टीरिया हमारे पसीने के साथ निकलने वाले रसायनों को वाष्पशील रसायनों में तबदील कर देते हैं जो हमारे आसपास की हवा में तैरते रहते हैं। जब मच्छर व्यक्ति से करीब 1 मीटर दूर पहुंच जाता है तो वह इन रसायनों की उपस्थिति को अपने गंध संवेदना तंत्र से ग्रहण करके इनके बीच भेद कर सकता है। सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पन्न इस रासायनिक गुलदस्ते में 300 से ज़्यादा यौगिक पाए गए हैं और यह मिश्रण व्यक्ति की जेनेटिक बनावट और उसकी त्वचा पर मौजूद सूक्ष्मजीवों से तय होता है। तो यह है आपकी युनीक आइडेंटिटी मच्छर के दृष्टिकोण से।

2011 में प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि जिन इंसानों की त्वचा पर सूक्ष्मजीवों की ज़्यादा विविधता पाई जाती है, उन्हें मच्छर कम काटते हैं। कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले लोग मच्छरों को ज़्यादा लुभाते हैं। और तो और, यह भी देखा गया कि कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरीर पर निम्नलिखित बैक्टीरिया पाए गए: लेप्टोट्रिचिया, डेल्फ्टिया, एक्टिनोबैक्टीरिया जीपी3, और स्टेफिलोकॉकस। दूसरी ओर, भरपूर सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरी़र पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया में स्यूडोमोनास और वेरिओवोरेक्स ज़्यादा पाए गए।

वॉशिगटन विश्वविद्यालय के जेफ रिफेल का कहना है कि इन रासायनिक गुलदस्तों के संघटन में छोटे-मोटे परिवर्तनों से मच्छरों द्वारा काटे जाने की संभावना में बहुत अंतर पड़ता है। वही व्यक्ति बीमार हो तो यह संघटन बदल भी सकता है। वैसे रिफेल यह भी कहते हैं कि सूक्ष्मजीव विविधता को बदलने के बारे में तो आप खास कुछ कर नहीं सकते मगर अपने शोध कार्य के आधार पर उन्होंने पाया है कि मच्छरों को काला रंग पसंद है। इसलिए उनकी सलाह है कि बाहर पिकनिक मनाने का इरादा हो, तो हल्के रंग के कपड़े पहनकर जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अनुचित है किसानों को जीएम फसलों के लिए उकसाना – भारत डोगरा

हाल ही में महाराष्ट्र में अपने को किसानों का हितैषी घोषित करते हुए कुछ व्यक्तियों ने किसानों को जीएम फसल उगाने के लिए उकसाना आरंभ कर दिया है। इतना ही नहीं, उन जीएम फसलों को उगाने के लिए भी उकसाया जा रहा है जिन्हें अभी उचित कानूनी प्रक्रिया से स्वीकृति भी नहीं मिली है।

यह केवल अवैध ही नहीं, बेहद अनैतिक भी है क्योंकि विश्व स्तर पर जीएम फसलों के विरुद्ध बहुत प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध है। भारत के कई शीर्ष वैज्ञानिक भी इन फसलों के विरुद्ध चेतावनी दे चुके हैं।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त फसलों को संक्षेप में जी.ई. फसल या जी.एम. (जेनेटिकली मॉडीफाइड) फसल कहते हैं। सामान्यत: एक ही पौधे की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती रही हैं। जैसे गेहूं की दो किस्मों से एक नई किस्म तैयार कर ली जाए। पर जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी पौधे या जंतु के जीन या आनुवंशिक गुण का प्रवेश किसी अन्य पौधे या जीव में करवाया जाता है। जैसे आलू के जीन का प्रवेश टमाटर में या सूअर के जीन का प्रवेश टमाटर में या मछली के जीन का प्रवेश सोयाबीन में या मनुष्य के जीन का प्रवेश सूअर में करवाना आदि।

जी.एम. फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं तथा यह असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को कई देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों की इंडिपेंडेंट साइंस पैनल ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है: “जी.एम. फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं तथा ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अत: जी.एम. फसलों व गैर-जी.एम. फसलों का सह अस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जी.एम. फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की क्षति होगी जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती। जी.एम. फसलों को अब दृढ़ता से खारिज कर देना चाहिए।”

इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा व दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम कुछ नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर इनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण पर्यावरण में चला जाए तो वह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है।

ऐसी ही एक जी.एम. फसल (बीटी कपास) या उसके अवशेष खाने के बाद या ऐसे खेत में चरने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने व अनेक पशुओं के बीमार होने के समाचार मिले हैं। डॉ. सागरी रामदास ने इस मामले पर विस्तृत अनुसंधान किया है। उन्होंने बताया है कि ऐसे मामले विशेषकर आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक व महाराष्ट्र में सामने आए हैं। पर अनुसंधान तंत्र ने इस पर बहुत कम ध्यान दिया है और इस गंभीर चिंता के विषय को उपेक्षित किया है। भेड़ बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया कि सामान्य कपास के खेतों में चरने पर ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं पहले नहीं देखी गर्इं थीं। हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी कपास के बीज व खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने व प्रजनन की गंभीर समस्याएं सामने आर्इं।

जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश महत्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं तथा वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं।

कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टेक्नॉलॉजी मात्र छ:-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी कंपनियों या उप-कंपनियों) के हाथों में हैं। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है।

हाल ही में देश के महान वैज्ञानिक प्रोफेसर पुष्प भार्गव का निधन हुआ है। वे सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बॉयोलाजी हैदराबाद के संस्थापक निदेशक रहे व नेशनल नॉलेज कमीशन के उपाध्यक्ष रहे। उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियां बहुचर्चित रही हैं। उन्हें श्रद्धांजलि देने के साथ यह भी ज़रूरी है कि जिन बहुत गंभीर खतरों के प्रति उन्होंने बार-बार चेतावनियां दीं, उन खतरों के प्रति हम सावधान रहें। विशेषकर जीएम फसलों के विरुद्ध उनकी चेतावनी महत्वपूर्ण है।

सुप्रीम कोर्ट ने प्रो. पुष्प भार्गव को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जी.ई.ए.सी) के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था। जिस तरह जी.ई.ए.सी. ने बीटी बैंगन को जल्दबाज़ी में स्वीकृति दी, डॉ. पुष्प भार्गव ने उसे अनैतिक व गंभीर गलती बताया था।

प्रो. पुष्प भार्गव ने बहुत प्रखरता से जी.एम. फसलों का स्पष्ट और तथ्य आधारित विरोध किया। इस संदर्भ में अपने एक लेख में उन्होंने लिखा, “आज संदेह से परे कई प्रमाण हैं कि जीएम फसलें मनुष्यों व अन्य जीवों के स्वास्थ्य के लिए, पर्यावरण व जैव विविधता के लिए हानिकारक हैं। (इनमें) प्रयोग होने वाला बीटी जीन कपास या बैंगन के पौधों में प्रवेश कर उनके विकास को प्रतिकूल प्रभावित करता है। जी.एम. खाद्यों के बारे में यह भी सिद्ध हुआ है कि इनसे चूहों में कैंसर होता है।”

एक अन्य लेख में प्रो. भार्गव ने लिखा कि लगभग 500 अनुसंधान प्रकाशनों ने जी.एम. फसलों के मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व पौधों के स्वास्थ्य पर हानिकारक असर को स्थापित किया है। ये सभी शोध पत्र ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठा है। उन्होंने आगे लिखा कि दूसरी ओर जी.एम. फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने कान्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट स्वीकार किया है या जिनकी विश्वसनीयता व ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं।

प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधान का आकलन कर यह स्पष्ट बता दिया कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया कि जिन वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी न किसी स्तर पर जीएम बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं या प्रभावित रहे हैं।

इसी लेख में प्रो. भार्गव ने यह भी लिखा है कि केंद्रीय सरकार के कुछ विभाग जी.एम. तकनीक के दुकानदारों जैसा व्यवहार करते रहते हैं तथा संभवत: उन्होंने जी.एम. बीज बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सांठ-गांठ से ऐसा किया है।

प्रो. भार्गव का सवाल है कि जब अधिकतर देशों ने व विशेषकर युरोप के देशों ने जीएम फसलों से इन्कार किया है तो हमारी सरकार को इन खतरनाक फसलों को अपनाने की जल्दी क्यों है।

ट्रिब्यून में प्रकाशित अपने लेख में विश्व ख्याति प्राप्त इस वैज्ञानिक ने चेतावनी दी है कि जीएम फसलों को आगे बढ़ाने के इस प्रयास का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि व खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त करना है। उन्होंने कहा कि इस षड्यंत्र से जुड़ी एक मुख्य कंपनी का कानून तोड़ने व अनैतिक कार्यों का चार दशक का रिकार्ड है।

आज जब शक्तिशाली स्वार्थों द्वारा जीएम खाद्य फसलों को भारत में स्वीकृति दिलवाने के प्रयास अपने चरम पर हैं, तब यह बहुत ज़रूरी है कि इस विषय पर प्रो. पुष्प भार्गव की तथ्य व शोध आधारित चेतावनियों पर समुचित ध्यान दिया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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