कई ततैयों को काबू में करती है क्रिप्ट कीपर

ई परजीवी अपने मेज़बान के व्यवहार में बदलाव करते हैं ताकि वे अपना जीवन चक्र पूरा कर सकें। अब तक ऐसा लगता था कि कोई भी परजीवी एक मेज़बान या मेज़बानों की करीबी प्रजातियों के व्यवहार में ही बदलाव करते हैं। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि क्रिप्ट कीपर नाम की ततैया (Euderus set) 6 से भी अधिक प्रजातियों की ततैयों को अपना मेज़बान बनाती है और उनके व्यवहार में परिवर्तन करती है।

आम तौर पर क्रिप्ट कीपर ततैया बैसेटिया पैलिडा (Bassettia pallida) नामक ततैयों को अपना मेज़बान बनाती है। बैसेटिया पैलिडा ओक के पेड़ की शाखाओं या तने पर अंडे देती है, और उस स्थान पर गॉल (ट्यूमरनुमा उभार) बना देती है। गॉल के अंदर ही इस ततैया के लार्वा बड़े होते हैं और वयस्क होने पर ये गॉल की दीवार भेदकर बाहर निकल आते हैं।

लेकिन बैसेटिया पैलिडा के इस सामान्य व्यवहार में फर्क तब पड़ता है जब क्रिप्ट कीपर ततैया इन गॉल में अपने अंडे दे देती है। क्रिप्ट कीपर के लार्वा या तो बैसेटिया पैलिडा के लार्वा साथ ही बड़े होते हैं या उसके लार्वा के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। जब बैसेटिया पैलिडा गॉल की दीवार को भेदकर बाहर आने के लिए छेद बनाती है तो क्रिप्ट कीपर ततैया के लार्वा बैसेटिया पैलिडा के दिमाग पर नियंत्रण कर या उन्हें कमज़ोर कर उनके व्यवहार में इस तरह बदलाव करते हैं कि वह बाहर निकलने वाला छेद छोटा बनाती हैं। इस छोटे छेद में बैसिटिया पैलिडा का सिर बॉटल में कार्क की तरह फंस जाता है और वह उस छेद से बाहर नहीं निकल पाती। तब क्रिप्ट कीपर के लार्वा उस ततैया के शरीर को चट करके उसके सिर को भेद कर बाहर निकल आते हैं। क्रिप्ट कीपर ततैया के लार्वा के लिए गॉल की तुलना में सिर को भेदना ज़्यादा आसान होता है क्योंकि गॉल की तुलना में सिर ज़्यादा नर्म होता है।

यह जानने के लिए कि क्रिप्ट कीपर ततैया के कितने मेज़बान हैं, शोधकर्ताओं ने कुछ क्रिप्ट कीपर ततैया और 23,000 गॉल एकत्रित किए जिनमें ओक गॉल ततैया की 100 से भी अधिक प्रजातियां थीं। शोधकर्ताओं ने इन गॉल में क्रिप्ट कीपर ततैयों को बड़ा किया। बॉयोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक 6 अलग-अलग प्रजातियों की 305 से भी अधिक ततैयों को क्रिप्ट कीपर ने मेज़बान बनाया था जो एक-दूसरे की करीबी प्रजातियां नहीं थीं। यह भी देखा गया कि क्रिप्ट कीपर ततैया उन गॉल को खास तवज्जो देती है जिन पर फर या कांटे ना हों। (स्रोत फीचर्स) 
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या रंगों को सब एक नज़र से देखते हैं

म तौर पर पीले रंग को खुशी और उमंग जैसी भावनाओं के साथ जोड़कर देखा जाता है। लेकिन जर्नल ऑफ एनवॉयरमेंटल साइकोलॉजी में प्रकाशित ताज़ा अध्ययन बताता है कि सभी लोग पीले रंग को सुखद एहसास या अनुभूति के साथ जोड़कर नहीं देखते।

दरअसल शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि रंगों के साथ भावनाओं के जुड़ाव में कौन से कारक भूमिका निभाते हैं। यह जानने के लिए उन्होंने एक नई परिकल्पना को जांचा कि क्या किसी खास रंग से उमड़ने वाली भावनाओं को आसपास का भौतिक परिवेश प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए क्या ठंडे या बरसाती इलाके फिनलैंड में रहने वाले व्यक्ति में पीले रंग से जो भावनाएं उमड़ती हैं, वे सहारा रेगिस्तान में रहने वाले व्यक्ति से अलग होंगी?

शोधकर्ताओं ने 55 देशों के लगभग 6625 लोगों पर हुए सर्वे के डैटा को देखा। इस सर्वे में लोगों को 12 अलग-अलग रंगों को इस आधार पर अंक देने को कहा गया था कि वे खुशी, गौरव, डर और शर्म जैसी भावनाओं का सम्बंध किस रंग से जोड़ते हैं। 

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने सिर्फ पीले रंग से जुड़े डैटा का इस आधार पर विश्लेषण किया कि विभिन्न कारक जैसे धूप की अवधि, दिन की रोशनी की अवधि और वर्षा की मात्रा कैसे लोगों द्वारा रंगों के लिए बताई गई भावनाओं से जुड़ी हैं। लोग पीले रंग के प्रति कैसा अनुभव करते हैं इसका सबसे अधिक सम्बंध दो बातों से देखा गया: वे जहां रहते हैं वहां सालाना कितनी बारिश होती है और वह स्थान भूमध्य रेखा से कितनी दूरी पर है। शोधकर्ताओं ने पाया कि पीले रंग को उमंग से जोड़कर देखने वाले लोगों की संख्या वर्षा वाले इलाकों में अधिक थी और भूमध्य रेखा के नज़दीक कम। इसके अलावा भूमध्य रेखा से दूर रहने वाले लोगों ने उजले रंगों की अधिक सराहना की। मिरुा (गर्म स्थान) में सिर्फ 5.7 लोगों ने पीले रंग को खुशी के साथ जोड़ा जबकि बर्फीले फिनलैंड के 87.7 प्रतिशत लोगों ने पीले रंग को खुशी से जोड़कर देखा। मध्यम जलवायु वाले यू.एस. में पीले रंग और खुशी का जुड़ाव 60-70 प्रतिशत लोगों ने जोड़ा। 

अध्ययन में मौसम परिवर्तन के साथ रंगों में बदलती रुचि पर भी गौर किया गया – क्या किसी इलाके में लोग गर्मियों की बजाय सर्दियों में पीले रंग को ज़्यादा पसंद करते हैं? पाया गया कि रंगों को लेकर लोगों की राय साल भर लगभग एक जैसी ही रहती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घरेलू ऊर्जा उपभोग: विहंगावलोकन – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000 घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019 में एक सर्वेक्षण किया था। पिछले आलेखों में सर्वेक्षण के आधार पर विभिन्न कार्यों में ऊर्जा खपत की अलग-अलग चर्चा की गई थी। इस आलेख में ऊर्जा के घरेलू उपयोग के मुद्दों को समग्र रूप में प्रस्तुत किया गया है।

र्थिक सर्वेक्षण (2018-19) के अनुसार भारत की वार्षिक प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 0.6 टन तेल के तुल्य है, जो वैश्विक औसत का लगभग एक तिहाई है। इस सर्वेक्षण में आगे बताया गया है कि यदि भारत को मानव विकास सूचकांक (HDI) को 0.8 तक पहुंचाना है, जो काफी अधिक माना जाता है, तो ऊर्जा खपत को चार गुना बढ़ाना होगा।

आय में वृद्धि, शहरीकरण और टेक्नॉलॉजी में तेज़ी से विकास के चलते आवासीय ऊर्जा उपभोग के स्तर और पैटर्न में काफी बदलाव आने की उम्मीद है। इसलिए इन उभरते हुए पैटर्न का अध्ययन करना काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये न सिर्फ मांग को प्रभावित करेंगे बल्कि बढ़ती मांग की आपूर्ति हेतु संसाधनों के नियोजन को भी प्रभावित करेंगे। फिलहाल, इस बात को लेकर जानकारी बहुत कम है कि भारतीय परिवार ऊर्जा का उपयोग कैसे करते हैं।

भारत में राष्ट्रीय स्तर पर आवासीय ऊर्जा खपत सर्वेक्षण (आरईसीएस) नहीं किया जाता है। ऐसे सर्वेक्षणों से कई देशों को अपने परिवारों, घरों की विशेषताओं और खपत के पैटर्न को समझने में काफी मदद मिली है। हमारे यहां जनगणना और उपभोक्ता वस्तुओं से सम्बंधित नमूना सर्वेक्षण जैसे राष्ट्रीय स्तर के सर्वेक्षणों के माध्यम से विभिन्न उपकरणों के स्वामित्व और अलग-अलग कामों के लिए र्इंधन के अंतिम उपयोग का डैटा इकट्ठा किया जाता है। अलबत्ता, इनमें उपकरणों की दक्षता, प्रकार, आयु और उपयोग की विस्तृत जानकारी एकत्र नहीं की जाती है और न ही यह पता किया जाता है कि इस मामले में सम्बंधित नीतियों के प्रति जागरूकता कितनी है और उनका प्रभाव क्या है। यह जानकारी विभिन्न अंतिम उपयोगों के उपकरणों के स्वामित्व और उनके उपयोग के पैटर्न का आकलन करने और सरकारी नीतियों/कार्यक्रमों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने लिए ज़रूरी है।  

प्रयास (ऊर्जा समूह) द्वारा उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के 3000 अद्र्ध शहरी और ग्रामीण परिवारों में विस्तृत आवासीय ऊर्जा खपत सर्वेक्षण के निष्कर्ष कुछ जानकारी व समझ प्रदान करते हैं जो नीतिगत निर्णयों में सहायक हो सकती है। कुल मिलाकर, सर्वेक्षण के निष्कर्षों से पता चलता है कि बुनियादी ज़रूरतों के लिए उपयोग की जाने वाली ऊर्जा की मात्रा परिवार की आय, भौगोलिक स्थिति और आवास के स्थान के आधार पर अलग-अलग होती है। बुनियादी ज़रूरतों में प्रकाश व्यवस्था, घर को ठंडा रखना, रेफ्रिजरेशन और खाना पकाना शामिल हैं। यह भी देखा गया कि घरों में ऊर्जा की खपत बिजली आपूर्ति की विश्वसनीयता, उपकरण की दक्षता और खाना पकाने के लिए स्वच्छ र्इंधन की उपलब्धता से तय होती है।  

प्रकाश व्यवस्था बिजली का सबसे बुनियादी उपयोग है और इस संदर्भ में सकारात्मक बात यह सामने आई है कि उत्तर प्रदेश में 80 प्रतिशत से अधिक और महाराष्ट्र में 60 प्रतिशत घरों में कार्यक्षम एलईडी का उपयोग किया जाता है। उजाला कार्यक्रम ने प्रकाश उपकरण के बाज़ार में एलईडी के प्रति जागरूकता बढ़ाकर और इसके बाज़ार मूल्य को नीचे लाकर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हमारे सर्वेक्षण में अधिकतर परिवारों ने एलईडी खरीदने का प्राथमिक कारण उनकी गुणवत्ता को बताया। इसलिए बाज़ार के इस बदलाव को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्ब की उपलब्धता सुनिश्चित करने पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

घर को ठंडा रखने के लिए छत के पंखे सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले उपकरण हैं। वैसे, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में मध्यम और उच्च आय वाले घरों में एयर कूलर और एयर कंडीशनर की उपस्थिति भी देखी गई है। यह मानकर कि जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती जाएगी, घरों में माहौल को अनुकूल बनाने के उपकरणों की आवश्यकता बढ़ेगी। चूंकि छत के पंखे और एयर कूलर स्थानीय स्तर पर बनाए और बेचे जाते हैं, इनके प्रदर्शन का मूल्यांकन और सुधार करने के लिए विशिष्ट प्रयासों की आवश्यकता होगी।

हालांकि रेफ्रिजरेटर का स्वामित्व काफी अधिक है, उनका उपयोग खाना पकाने के तरीकों से निर्धारित होता है। हमारे सर्वेक्षण से पता चलता है कि रेफ्रिजरेटर की उपस्थिति तो काफी अधिक है लेकिन उनका उपयोग सीमित ही है।

खाना पकाने के लिए ऊर्जा घरों की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में से एक है और इस ज़रूरत की आपूर्ति विभिन्न र्इंधनों से हो रही है। सर्वेक्षण के मुताबिक दोनों राज्यों में 90 प्रतिशत से अधिक सर्वेक्षित घरों में एलपीजी कनेक्शन हैं। लेकिन विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के कई घरों में खाना बनाने के लिए आंशिक रूप से या पूर्णत: ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है। उत्तर प्रदेश के लगभग 45 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 12 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में खाना पकाने के लिए आंशिक रूप से या पूरी तरह ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। अधिकांश परिवारों को लगता है कि पूरा खाना पकाने की दृष्टि से एलपीजी काफी महंगा है। कई परिवारों ने बताया कि उन्हें चूल्हे पर पका खाना पसंद है। खाना पकाने के लिए ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करके उनकी जगह एलपीजी या अन्य स्वच्छ र्इंधनों के उपयोग को बढ़ावा देने और उन्हें एकमात्र र्इंधन बनाने हेतु आर्थिक और व्यवहारगत दोनों तरह के हस्तक्षेपों की आवश्यकता है।

इसके साथ ही, इन घरों में पानी गर्म करने के लिए आम तौर पर ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है जो अंदरूनी या स्थानीय (गांव स्तर के) वायु प्रदूषण का कारण बनता है। उत्तर प्रदेश के लगभग 37 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 91 प्रतिशत घरों में पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है जबकि इन घरों में खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है। बिजली, एलपीजी या सौर वाटर हीटर जैसे विकल्पों को बढ़ावा देने के लिए हस्तक्षेप करने से पहले सावधानीपूर्वक इनका मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।

इस तरह की सूझबूझ से विस्तृत आवासीय ऊर्जा खपत सर्वेक्षण का महत्व स्पष्ट है। समय-समय पर राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी प्रतिनिधिमूलक जानकारी एकत्र करना भारत में तेज़ी से बदलती ऊर्जा की घरेलू मांग के प्रबंधन के लिए नीतियों के निर्माण और उनका मूल्यांकन करने के लिए महत्वपूर्ण है। नवगठित राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, जिसमें राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन शामिल है, समय-समय पर इस तरह के व्यापक सर्वेक्षण कर सकता है, जैसे वह पारिवारिक खर्च, आवास की स्थिति, स्वास्थ्य और अन्य मामलों में करता है।

प्रथम दृष्टि में इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि दोनों राज्यों के घरों में लगभग 60 प्रतिशत ऊर्जा खपत खाना पकाने, लगभग 16 प्रतिशत पानी गर्म करने और 9 प्रतिशत घर को ठंडा रखने के लिए खर्च की जाती है। इस बात का विश्लेषण आगे किसी लेख में करेंगे कि ऊर्जा की यह मांग र्इंधन के प्रकार, परिवार की आमदनी और उसके ग्रामीण या शहरी होने के साथ कैसी नज़र आती है।  (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या शिक्षा प्रणाली भारत को महाशक्ति बना पाएगी? – डॉ. गायत्री सबरवाल

ई लोगों का मानना है कि भारत अपने उच्च सकल घरेलू उत्पाद के साथ एक महाशक्ति बनने की उम्मीद कर सकता है। चाहे कोई महाशक्ति बनने की इस लालसा में साझेदार न हो, लेकिन इतना लगभग निश्चित है कि देश को निश्चित रूप से एक ज्ञान-संपन्न अर्थव्यवस्था होना चाहिए, भले ही वह ज्ञान-संचालित न हो। और ज्ञान उत्पन्न करने और इस ज्ञान का सृजन करने व उपयोग करने वाली प्रतिभा का पोषण करने का नज़दीकी सम्बंध शिक्षा प्रणाली से है। इसलिए चलिए हम अपनी शिक्षा प्रणाली पर विचार करें और अन्यत्र विचारकों द्वारा सामान्य रूप से शिक्षा पर की गई टिप्पणियों पर नज़र डालें।

जाने माने जीव विज्ञानी ग्रेगरी पेट्सको ने कुछ वर्ष पहले स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क (एसयूएनवाय) के अध्यक्ष को एक व्यंग्यात्मक खुला पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने एसयूएनवाय में क्लासिक्स, फ्रेंच, इतालवी, रूसी और थिएटर के विभागों को बंद करने के फैसले पर अपने विचार रखे थे। (क्लासिक्स से आशय प्राचीन ग्रीक व लैटिन साहित्य, दर्शन और इतिहास के अध्ययन से है।) पेट्सको ने बताया कि जीव विज्ञान में आने से पहले किस प्रकार उन्होंने क्लासिक्स में शिक्षा प्राप्त की थी और फिर अपना ध्यान जीव विज्ञान की ओर मोड़ा था और आगे चलकर वे जैव रसायन और रसायन विज्ञान के प्रोफेसर बने थे। उन्होंने कहा कि क्लासिक्स में प्रशिक्षण उनकी शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण घटकों में से एक था। उस प्रशिक्षण ने उन्हें सोचने, विश्लेषण करने और लिखने की समझ प्रदान की जो उन्हें विज्ञान शिक्षा से प्राप्त नहीं हुई थी। इन्हीं की मदद से वे एक बेहतर वैज्ञानिक बन सके। जीनोम बायोलॉजी में पेट्सको के वैचारिक आलेख काफी जाने-माने हैं, और क्लासिक्स में उनके प्रशिक्षण और रुचि के चलते उन्हें विज्ञान और समाज के बारे में लिखने में मदद मिलती रही है। कई सारे वैज्ञानिक यह नहीं कर पाते हैं। यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के सदस्य होने के अलावा उन्हें दी अमेरिकन फिलॉसॉफिकल सोसाइटी का सदस्य भी चुना गया जो किसी वैज्ञानिक के लिए एक दुर्लभ सम्मान है।

कुछ मुख्य बिंदु जो पेट्सको ने अपने पत्र में उठाए थे, वे इस प्रकार हैं: (क) विश्वविद्यालय के किसी विभाग को केवल इसलिए बंद नहीं कर देना चाहिए क्योंकि वह प्रासंगिक नहीं दिखता। यही सोचकर अमेरिका में कई वायरोलॉजी (वायरस विज्ञान) विभाग बंद कर दिए गए थे, और जब एचआईवी/एड्स संकट आया तो इस बीमारी से निपटने के लिए अमेरिका को देश में बचे-खुचे वायरोलॉजिस्ट खोजने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। (ख) किसी विभाग को केवल इसलिए भी बंद नहीं कर देना चाहिए क्योंकि वह आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं हो सकता। किसी विश्वविद्यालय का उद्देश्य केवल ज्ञान उत्पन्न करना नहीं होता है बल्कि ज्ञान संरक्षण भी होता है। अमेरिका के अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों में अरबी और फारसी भाषा के पाठ्यक्रम या सामान्यत: मध्य-पूर्व में कोई रुचि नहीं ली जाती थी, लेकिन 11 सितम्बर 2011 के बाद अचानक सबको लगा कि काश उनके पास इस मामले में ज़्यादा जानकारी होती तो वे समझ पाते कि हो क्या रहा है। (ग) यदि एसयूएनवाय केवल व्यावहारिक उपयोगिता के पाठ्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करे, तो उसे खुद को एक हुनर शाला या व्यावसायिक स्कूल कहना चाहिए, विश्वविद्यालय तो कदापि नहीं।

अब मैं एक बेहतरीन दार्शनिक और तर्कशास्त्री बरट्रैंड रसेल की बात करना चाहूंगी। अपने शोध कार्यों से हटकर, उनकी रुचि सामाजिक मुद्दों पर भी रही और उन्होंने काफी विवादास्पद दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किए। प्रथम विश्व युद्ध का विरोध करने के कारण उनको एक गद्दार के रूप में देखा गया और उन्हें कुछ समय के लिए जेल भी जाना पड़ा। लेकिन कुछ ही वर्षों बाद, उनकी गिनती 20वीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में हुई और 1950 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दिलचस्प बात यह है कि यह पुरस्कार उनके अपने विषयगत शोध कार्य के लिए नहीं बल्कि विचारों की स्वतंत्रता की हिमायत के लिए मिला था। 1950 में रसेल ने निबंधों का एक संग्रह (रसेल, बी., अनपॉपुलर एसेस, रूटलेज क्लासिक्स, भारतीय पुनर्मुद्रण, 2010) प्रकाशित किया था, जिसमें एक लेख का शीर्षक ‘दी फंक्शन्स ऑफ ए टीचर’ था। उसके कुछ बिंदु इस प्रकार हैं: आधुनिक समय का शिक्षक एक लोक सेवक बन गया है जो सरकार का प्रचारक है। उन्होंने कहा कि हालांकि शिक्षण के दौरान बच्चों को आवर्त सारणी जैसी निर्विवाद जानकारी पढ़ाना ज़रूरी है लेकिन इससे केवल तकनीकी रूप से कुशल छात्र ही तैयार होंगे। और इस तरह का शिक्षण तो शिक्षा का वह बुनियादी पहलू है जिसे शिक्षकों को पूरा करना चाहिए। सरकारें यह जानती हैं कि शिक्षक कितने शक्तिशाली होते हैं, आखिर वे युवाओं को सिखाते हैं कि कैसे सोचें। अब इसमें या तो विवादास्पद विषयों पर खुली सोच प्रदान की जा सकती है, जैसा कि अपेक्षाकृत खुली सोच वाले समाजों में होता है, या फिर एक विशेष दृष्टिकोण की घुट्टी पिलाई जा सकती है जैसा नाज़ी जर्मनी में हुआ करता था। शिक्षक को खोजबीन की भावना को बढ़ावा देना चाहिए, और यदि ऐसा करते हुए एक ऐसी समझ उभरती है जो राज्य से भिन्न है तो इसके लिए कोई दंड नहीं होना चाहिए।

हमारे अपने विश्वविद्यालयों में क्या स्थिति है? प्रसिद्ध शिक्षाविद और टिप्पणीकार, दिल्ली विश्वविद्यालय के कृष्ण कुमार ने दी हिन्दू (2 अगस्त, 2012) में प्रकाशित एक लेख ‘युनिवर्सिटीज़, अवर्स एंड देयर्स’ में पश्चिमी और भारतीय विश्वविद्यालयों के परिदृश्य की तुलना की थी। उन्होंने दोनों को अलग करने वाले कई अंतरों की पहचान करते हुए हर एक पर टिप्पणी की थी। उन्होंने सबसे पहले उत्कृष्टता पर ज़ोर की बात को लिया। पश्चिमी प्रणाली में यह सुनिश्चित करने की विस्तृत प्रक्रियाएं हैं जिससे विश्वविद्यालय में फैकल्टी के तौर पर सबसे बढ़िया उपलब्ध प्रतिभा को भर्ती किया जाए। यह भर्ती प्रक्रिया बाहरी दबाव से परे है जो इसको कमज़ोर कर सकता है। यह प्रक्रिया उम्मीदवार में बहु-विषयी या विषय-पार रुचि पर ज़ोर देती है। भारतीय विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को नियम-कानूनों और बाहरी प्रभावों में इतना उलझा दिया जाता है कि इसका असर चयन की उत्कृष्टता पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बहु-विषयी योग्यता वाला उम्मीदवार एक आयु सीमा पार कर चुका होता है तो चयन प्रक्रिया उसके लिए बाधक बन जाती है। दूसरा अंतर यह है कि भारत में इस बात पर काफी ज़ोर दिया जाता है कि कोई शिक्षक कक्षा में प्रति सप्ताह कितने घंटे बिताता है। इसी तरह छात्रों की उपस्थिति पर काफी ज़ोर दिया जाता है। ऐसे नियम दोनों के ही लिए हैं और हर कोई इन नियमों का पालन करता है, यह जाने बिना कि वास्तव में कक्षा के अंदर होता क्या है। कृष्ण कुमार ब्रिटेन में एक शिक्षण संस्थान द्वारा संचालित पाठ्यक्रम की मूल्यांकन समिति के सदस्य रहे थे। अपने उस अनुभव के आधार पर उन्होंने अपने यहां की उक्त प्रणाली पर टिप्पणी की है। समिति ने पाठ्यक्रम से संबंधित दस्तावेज़ों – उस वर्ष प्रत्येक कक्षा सत्र का विवरण और छात्रों की लिखित प्रतिक्रिया – के अध्ययन के अलावा पाठ्यक्रम के विभिन्न पहलुओं पर अलग-अलग छात्रों और प्राध्यापकों से व्यापक चर्चा की। उन्होंने पाया कि कक्षा को उत्साहवर्धक और संभवत: मनोरंजक होना चाहिए। यह तो संभव ही नहीं है कि यदि कोई शिक्षक अपने अध्यापन में पर्याप्त ज्ञान,उत्साह और नवीनता न लाए, तो उसे छात्रों से अच्छी प्रतिक्रिया मिलेगी। तीसरा अंतर पश्चिमी देशों के लगभग सभी महाविद्यालयों में अनुसंधान पर ज़ोर देने से सम्बंधित है। कृष्ण कुमार ने देखा कि विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित एक निश्चित पाठ्यक्रम का सवाल ही नहीं उठता जो कई दशकों तक जस का तस चलता रहे, जैसा कि अक्सर भारत में देखने को मिलता है। इसके अलावा, हमारे यहां प्रचलित रटंत आधारित परीक्षाएं ब्रिटेन में नहीं हैं। नितिन पाई ने बिज़नेस स्टैण्डर्ड में 13 जुलाई 2018 के एक आलेख में एक दिलचस्प बात बताई है कि चीन में महाविद्यालय में प्रवेश का आवेदन देने से पहले छात्रों को एक विचार आधारित परीक्षा, गाओकाओ, देनी होती है। प्राध्यापक जिस क्षेत्र में अनुसंधान करते हैं वे उसी क्षेत्र से जुड़े विषय पढ़ाते हैं ताकि छात्रों को ऐसे सवाल पूछने को प्रेरित कर सकें जिनके जवाब अनुसंधान से दिए जा सकें। यह केवल पूर्व ज्ञान अर्जित करने की शिक्षा नहीं है बल्कि उस ज्ञान को बनाने में मदद करने या उस ज्ञान को उत्पन्न करने की प्रक्रिया में भाग लेने की बात है जो शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।

एक अन्य लेख (दी ब्लेक न्यू एकेडमिक सिनारियो, दी हिन्दू, 26 मई 2017) में कृष्ण कुमार ने उदारीकरण की प्रक्रिया के बाद से भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति पर ध्यान केंद्रित किया है। हालांकि, तब तक केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन जब 1991 में भारत को कर्ज़ देने वालों को लगा कि भारत की अर्थव्यवस्था में ढांचागत समायोजन की ज़रूरत है, तब जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि उच्च शिक्षा को बड़े पैमाने पर खुद को संभालना होगा। इस शर्त ने स्वाभाविक रूप से उन पाठ्यक्रमों की पेशकश करने को प्रेरित किया जो बिक्री योग्य कौशल प्रदान करते हैं। जैसे-जैसे विश्वविद्यालयों ने वित्तीय संकट महसूस किया, उन्होंने अपनी आय बढ़ाने के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों की ओर रुख किया। इसके अलावा, ‘स्थायी’ प्राध्यापकों की सिकुड़ती संख्या की वजह से शिक्षकों की जो कमी हुई उसे भरने के लिए तदर्थ शिक्षकों को जोड़ा गया। (यह स्थिति फिनलैंड से कितनी अलग है, जहां शिक्षक होना सबसे प्रतिष्ठित काम है। और हो भी क्यों न, आखिर वे अगली पीढ़ी को शिक्षित कर रहे हैं जो देश कि संपदा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है)। कोई विश्वविद्यालय जिस हद तक अपने छात्रों में सोचने, विश्लेषण करने, और अपने मतों के लिए जानकारी एकत्र करने की कुशलता को तराशने के लिए विचार-विमर्श और असहमति को बढ़ावा देता है, उसी हद तक वह स्वतंत्र आवाज़ों वाले युवा तैयार करता है। ये आवाज़ें अक्सर उनके आसपास की दुनिया के लिए महत्वपूर्ण होती हैं। ये आवाज़ एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकती हैं लेकिन भारत के राजनेता आम तौर पर ऐसे विश्वविद्यालयों को लेकर बिदकते रहे हैं जो दुनिया के व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ इस तरह की उदार शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं। यह बात तो स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा जितनी अधिक स्व-वित्तपोषण के भरोसे होती जाएगी उतने ही कम युवा इस तरह से प्रशिक्षित हो पाएंगे क्योंकि ऐसे में शिक्षा केवल उपयोगितावादी होकर रह जाएगी। अलबत्ता, पिछले कुछ दशकों से विश्वविद्यालयों को ऐसी बिगड़ती स्थिति से बचाने के लिए किसी भी सरकार या राजनैतिक दल द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया है।

अपनी बात खत्म करने से पहले मैं एक मानव विज्ञानी के एक लेख के बारे में बताना चाहूंगी जो किसी सर्वथा भिन्न विषय पर लिखा गया था। “… काला आदमी समझ गया कि… गोरों के बीच उसे अपने ऊपर आरोपित स्थान के अनुरूप ही व्यवहार करना पड़ेगा और उसे बार-बार ‘उसकी हैसियत याद दिलाई जाती थी’। उसने सीखा कि गोरे लोगों के बीच आक्रोश, निराशा, असंतोष, गर्व, महत्वाकांक्षा या हसरतों की भावनाएं दिखाना अस्वीकार्य है और उन वास्तविक भावनाओं को मासूमियत, अज्ञानता, बचकानेपन, आज्ञाकारिता, विनम्रता और सम्मान के मुखौटे के पीछे छिपाना पड़ेगा।” ( थॉमस कोचमैन, ‘रैपिंग इन दी ब्लैक घेटो’, दी प्लेज़र्स ऑफ एन्थ्रोपोलॉजी, 1983 में)। हमारी कक्षाओं और प्रयोगशालाओं में यह घटना कितनी आम है और ज्ञान उत्पन्न करने के संदर्भ में इसकी क्या कीमत है?

यदि भारत गंभीरता से महाशक्ति बनने की इच्छा रखता है, तो इसकी संभावना केवल एक शीर्ष ज्ञान उत्पादक देश बनकर ही हो सकती है। ऐसा देश बनने के लिए उसे अपने लोगों में बचपन से ही स्वतंत्र खोजबीन की आदतें विकसित करनी होंगी, इस बात की परवाह किए बगैर कि यह खोजबीन उन्हें कहां ले जाएगी। अगर ऐसी खोजबीन के बाद छात्र इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारत को निकट भविष्य में महाशक्ति बनने का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए और उससे पहले हासिल करने को कई सारे महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं, तो यह बड़ी विडंबना होगी, हालांकि मेरे लिए कोई अचंभे की बात नहीं होगी।(स्रोत फीचर्स)

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व्याख्यान के दौरान झपकी क्यों आती है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

भारत सितंबर महीना खत्म होने को है और भारत में सेमीनार और सम्मेलनों के आयोजन का मौसम शुरू हो गया है। आम तौर पर कॉन्फ्रेंस में एक व्यापक विषयवस्तु पर विविध विषयों के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है। दूसरी ओर, सेमीनार में किसी एक खास विषय या उपविषय के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है जो मिलकर उस विषय पर विचारों का आदान-प्रदान और समीक्षा करते हैं। सम्मेलनों में श्रोता या प्रतिभागी किसी ऐसे विषय पर तकरीरें सुनते हैं जिससे वे परिचित नहीं हैं। इस तरह से यह उनके लिए सीखने का एक अवसर होता है। विशेष-थीम पर केंद्रित सेमीनार में प्रतिभागी सेमीनार में मात्र श्रोता नहीं होते, वे उस विषय से परिचित होते हैं और विषय की बारीकियां सुनते हैं, जिसमें से वे कुछ नया सीखते हैं, सराहते हैं और उससे कुछ ग्रहण करते हैं। इस तरह सम्मेलन और सेमीनार दोनों उपयोगी होते हैं।

लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू भी है। प्रस्तुतीकरण या तकरीर के दौरान कुछ या कई श्रोता सिर हिलाते-हिलाते ऊंघने लगते हैं और झपकी ले लेते हैं। इसे नॉड ऑफ कहते हैं। इस संदर्भ में 15 साल पहले (दिसंबर 2004 में) केनेडियन मेडिकल एसोसिएशन जर्नल में के. रॉकवुड और साथियों द्वारा प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया था कि व्याख्यानों के दौरान श्रोता ऐसा क्यों करते हैं, कितनी दफा करते हैं और झपकी आने के क्या कारक हैं। इस हास्यपूर्ण और व्यंग्यात्मक शोधपत्र में उन्होंने बताया था कि कैसे उन्होंने चुपके से एक ही समूह का लगातार (कोहॉर्ट) अध्ययन किया जिसमें उन्होंने पता लगाया कि वैज्ञानिक मीटिंग के दौरान श्रोता-चिकित्सक कितनी बार झपकी लेते हैं, और झपकी आने के पीछे क्या कारक हो सकते हैं।

एक दो-दिवसीय व्याख्यान, जिसमें तकरीबन 120 लोग शामिल हुए थे, के अध्ययन में उन्होंने पाया कि प्रत्येक 100 प्रतिभागी पर प्रति व्याख्यान झपकी की संख्या (नॉडिंग ऑफ इवेंट पर लेक्चर, एनओईएल) 15-20 मिनट के व्याख्यान के दौरान 10 रही, लेकिन व्याख्यान 30-40 मिनट का होने पर बढ़कर तकरीबन 22 हो गई थी। अर्थात जितना लंबा व्याख्यान उतनी अधिक झपकी संख्या (एनओईएल)।

अध्ययन में यह भी पता चला कि झपकी-प्रेरित सिर हिलाना और वक्ता की बात से सहमति पर सिर हिलाना एकदम अलग-अलग हैं। इनमें सिर हिलाने का तरीका, समय और आवृत्ति अलग-अलग होती है।

ऐसा क्यों होता है? और किन कारणों से होता है? इसके कई कारक सामने आए और ये कारक हैं माहौल (जैसे मद्धिम रोशनी, कमरे का तापमान, आरामदायक बैठक व्यवस्था), दृश्य-श्रव्य गड़बड़ी (जैसे खराब स्लाइड, माइक्रोफोन पर ना बोलना), शरीर की दैनिक लय (सुबह-सुबह के समय, भोजन के बाद या भारी नाश्ता या लंच के बाद नींद आना) और वक्ता सम्बंधी कारण (जैसे नीरस तरीके से बोलना या उबाऊ भाषण)।

आजकल तो सेमीनार या सम्मेलनों में कई श्रोता मोबाइल, लैपटॉप वगैरह साथ लेकर जाते हैं। हालांकि आयोजकों की ओर से निर्देश दिए जाते हैं कि व्याख्यान के दौरान मोबाइल फोन या तो बंद कर दिए जाएं या साइलेंट मोड पर रखे जाएं लेकिन व्याख्यान उबाऊ लगने पर श्रोता अपने मोबाइल या लैपटॉप में मशगूल हो जाते हैं, जिससे व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या (एनओईएल) में कमी दिखती है। जब आयोजकों ने व्याख्यान के दौरान मोबाइल या लैपटॉप का इस्तेमाल ना करने पर सख्ती दिखाई तो व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या में वृद्धि भी देखी गई।

अध्ययन में आगे अध्ययनकर्ताओं ने झपकी लेने वालों को टोका और अदब के साथ उनसे पूछा कि उन्हें झपकी क्यों आई। पहले तो जब उन्हें यह बताया गया कि इस व्याख्यान के दौरान सिर्फ उन्हें ही नहीं अन्य लोगों को भी झपकी आई तो उनमें से कई लोगों को इस बात की तसल्ली हुई कि यह उनका दोष नहीं था। जब उनसे यह पूछा गया कि इस तरह के व्याख्यान में क्या वे आगे भी शामिल होंगे तो कुछ ने लोगों ने हां में जवाब दिया और कहा कि उन्हें हमेशा एक झपकी की ज़रूरत रहती है, कुछ ने कहा कि यदि इसके लिए उन्हें भुगतान किया जाएगा तो वे शामिल होंगे और कुछ ने जवाब में दांत दिखा दिए। जब उनसे यह पूछा गया कि झपकी आने के पीछे गलती किसकी थी तो अधिकतर लोगों ने कहा कि पूरी गलती वक्ता की थी जबकि सिर्फ कुछ ही लोगों ने कहा कि गलती उनकी थी।

वक्ताओं को इस अध्ययन से क्या सीखना चाहिए? कैसे वे व्याख्यान में श्रोताओं की रुचि बनाए रखें? स्लाइड, पीपीटी या वीडियो दिखाते समय हॉल की मद्धिम रोशनी जैसे कारकों को तो हटाया नहीं जा सकता। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस सम्बंध में काफी उपयोगी सलाह देती है। इसके अनुसार एक आदर्श वक्तव्य में 37 प्रतिशत टेक्स्ट, 29 प्रतिशत चित्र और 33 प्रतिशत वीडियो होना चाहिए। व्याख्यान के इस तरह के बंटवारे को अमल में लाना फायदेमंद हो सकता है और देखा जा सकता है कि यह कैसे काम करता है। व्याख्यान में पीपीटी के चित्र या टेक्स्ट की ऊंचाई-चौड़ाई का अनुपात सही हो (5 × 3), बड़े अक्षर उपयोग किए जाएं ताकि आसानी से पढ़े जा सकें, टेक्स्ट और पृष्ठभूमि के रंग में साफ अंतर हो (काला या नीला पटल होने पर उस पर स्पष्ट दिखते किसी अन्य रंग से लिखा टेक्स्ट)। इसके अलावा वक्ता आहिस्ता, स्पष्ट और माइक पर बोलें। आप कुछ उपयोगी सुझाव इस लिंक पर पढ़ सकते हैं: http://www.med-ed-online.org)

और अब इन झपकियों के पीछे के मस्तिष्क-विज्ञान को बेहतर समझ लिया गया है। चीनी और जापानी वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार मस्तिष्क में न्यूक्लियस एक्यूम्बेंस नामक हिस्से में यह क्षमता होती है कि वह अणुओं के एक समूह (A2A रिसेप्टर) को सक्रिय कर झपकी प्रेरित कर सकता है। नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित इस शोध पत्र के मुताबिक मुख्य अणु एडिनोसीन है जो A2A रिसेप्टर को सक्रिय कर देता है और नींद आने लगती है। एडिनोसीन के अलावा अन्य नींद-प्रेरक अणु भी A2A रिसेप्टर पर कार्य करते हैं। नींद की प्रचलित दवाइयां भी A2A रिसेप्टर को सक्रिय करती हैं और नींद लाती हैं। इसके विपरीत कॉफी और चाय में मौजूद कैफीन इस रिसेप्टर को अवरुद्ध करते हैं और आपको जगाए रखते हैं।

तो अगली बार व्याख्यान सुनने जाएं तो एक प्याला कॉफी पीकर जाएं और जागे रहें। और यदि आप व्याख्याता हैं तो उपरोक्त लिंक पर दिए गए सुझावों का लाभ लें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पानी गर्म करने में खर्च ऊर्जा की अनदेखी – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

भारत में वर्तमान ऊर्जा नीति में नहाने के लिए पानी गर्म करने में खर्च होने वाली ऊर्जा को अनदेखा किया गया है। ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करने के उद्देश्य से किए जाने वाले हस्तक्षेपों का ध्यान मूलत: खाना पकाने पर केंद्रित रहा है। अतीत की नीतियों में सौर वॉटर हीटरों पर काफी ध्यान दिया गया था, लेकिन 2014 में सौर वॉटर हीटरों पर सब्सिडी देने वाले एक राष्ट्रीय कार्यक्रम को भी बंद कर दिया गया। दूसरी ओर, ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) के पास स्टोरेज इलेक्ट्रिक वॉटर हीटर के लिए अनिवार्य मानक और लेबलिंग (एस-एंड-एल) कार्यक्रम ज़रूर है। इस आलेख में, हम सर्वेक्षित घरों में पानी गर्म करने के पैटर्न की चर्चा करेंगे और यह देखेंगे कि इनका नीतिगत हस्तक्षेपों के लिए क्या निहितार्थ हो सकता है।

आम तौर पर, महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश में सर्दियां अधिक ठंडी होती हैं। लेकिन सर्वेक्षित परिवारों में उत्तर प्रदेश में 34 प्रतिशत जबकि महाराष्ट्र में 92 प्रतिशत घरों में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, उत्तर प्रदेश में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग औसतन साल में केवल 2 महीने किया जाता है जबकि महाराष्ट्र में ऐसा 6 महीने किया जाता है। उत्तर प्रदेश में नहाने के लिए गर्म पानी के कम उपयोग के कई कारक हो सकते हैं। संभवत: आमदनी एक कारण हो सकता है – जहां निम्न आय वाले 25 प्रतिशत घरों में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग किया जाता है वहीं उच्च आय वाले घरों में यह आंकड़ा 50 प्रतिशत है। इसमें कुछ सामाजिक प्रथाओं का भी योगदान है। एक बात यह कही जाती है कि लोग सर्दियों में नहाने के लिए गुनगुने भूजल का उपयोग करते हैं। हालांकि, यह संभावना हो सकती है कि जैसे-जैसे आय में वृद्धि होगी और सामाजिक प्रथाओं में बदलाव आएगा, वैसे-वैसे पानी गर्म करने के लिए ऊर्जा के उपयोग में भी वृद्धि होगी। इसकी और जांच करने की आवश्यकता है।

जो परिवार नहाने के लिए पहले से ही गर्म पानी का उपयोग कर रहे हैं वे अलग-अलग र्इंधन का इस्तेमाल करते हैं। उत्तर प्रदेश के लगभग 35 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 52 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों में पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है। दिलचस्प बात तो यह है कि इनमें से उत्तर प्रदेश के लगभग 37 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 91 प्रतिशत घरों में पानी गर्म करने के लिए तो ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है लेकिन खाना बनाने के लिए एलपीजी का इस्तेमाल होता है। इससे लगता है कि पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग समाप्त करने के लिए सावधानीपूर्वक विकसित कार्यक्रमों की आवश्यकता है। आंगन में रखे ठोस र्इंधन बायलर या खुली हवा में चूल्हे का उपयोग महाराष्ट्र के घरों में काफी आम है। इससे अंदरूनी घरेलू प्रदूषण तो नहीं होगा लेकिन यह स्थानीय प्रदूषण में योगदान अवश्य दे सकता है।

पानी को गर्म करने के लिए एलपीजी दूसरे नंबर का मुख्य र्इंधन है, खास तौर पर अर्ध-शहरी क्षेत्रों में। उत्तर प्रदेश में लगभग 39 प्रतिशत और महाराष्ट्र में लगभग 33 प्रतिशत अर्ध-शहरी सर्वेक्षित परिवारों में पानी गर्म करने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है। जिन घरों में पानी गर्म करने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है वहां सिलेंडर की खपत अन्य परिवारों की तुलना में थोड़ी अधिक होती है। इसके लिए उत्तर प्रदेश में औसतन 2 सिलेंडर और महाराष्ट्र में 0.7 सिलेंडर अधिक उपयोग किए जाते हैं। उत्तर प्रदेश में लगभग 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 7 प्रतिशत परिवार एलपीजी इंस्टेंट वॉटर हीटर का उपयोग करते हैं। अन्य परिवार पानी गर्म करने के लिए एलपीजी स्टोव का उपयोग करते हैं जिसका उपयोग वे खाना पकाने के लिए भी करते हैं।

कुछ घरों में पानी गर्म करने के लिए बिजली का उपयोग भी किया जाता है – उत्तर प्रदेश में लगभग 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 8 प्रतिशत घरों में पानी गर्म करने के लिए बिजली का उपयोग होता है। उत्तर प्रदेश के 92 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 82 प्रतिशत ऐसे घरों में पानी गर्म करने के लिए इमर्शन रॉड का उपयोग किया जाता है। इसकी वजह से बिजली के झटके और आग जैसी दुर्घटनाओं का खतरा बना रहता है।

सौर वॉटर हीटर का उपयोग दोनों ही राज्यों में न के बराबर है। पानी गर्म करने के लिए एक ही घर में अलग-अलग र्इंधनों का उपयोग नहीं किया जाता जैसे खाना पकाने के लिए किया जाता है।

यदि पानी गर्म करके उपयोग किया जाता है तो कुल घरेलू ऊर्जा खपत में इसका काफी योगदान रहता है। ठोस र्इंधन के आम उपयोग के परिणामस्वरूप अंदरूनी और स्थानीय वायु प्रदूषण होता है जिससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। खाना पकाने के लिए ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करने के लिए जिस ढंग के हस्तक्षेप किए गए हैं, वे शायद इस मामले में कारगर न रहें। बिजली, एलपीजी और सौर वॉटर हीटर जैसे विकल्पों को अपनाने का आग्रह करने से पहले उनका सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करना होगा।

अगले आलेख में हम अपने सर्वेक्षण के नतीजों और प्रत्येक कार्य में कुल उर्जा खपत के योगदान का आकलन करके इस शृंखला का समापन करेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वास्थ्य सम्बंधी अध्ययन प्रकाशित करने पर सज़ा

हाल ही में इस्तांबुल की एक अदालत ने एक तुर्की वैज्ञानिक बुलंद शेख को 15 महीने जेल में बिताने की सज़ा इसलिए सुनाई क्योंकि उन्होंने पर्यावरण व स्वास्थ्य सम्बंधी एक अध्ययन के नतीजे अखबार में प्रकाशित किए थे।

दरअसल बुलंद शेख ने अप्रैल 2018 में एक तुर्की अखबार जम्हूरियत में एक स्वास्थ्य सम्बंधी अध्ययन के नतीजे प्रकाशित किए थे, जो वहां के स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा करवाया गया था। इस अध्ययन में वे यह देखना चाहते थे पश्चिमी तुर्की में बढ़ते कैंसर के मामलों और मिट्टी,पानी और खाद्य के विषैलेपन के बीच क्या सम्बंध है। अकदेनिज़ युनिवर्सिटी के खाद्य सुरक्षा और कृषि अनुसंधान केंद्र के पूर्व उप-निदेशक बुलंद शेख भी इस अध्ययन में शामिल थे। पांच साल चले इस अध्ययन में शेख और उनके साथियों ने पाया कि पश्चिमी तुर्की के कई इलाकों के पानी और खाद्य नमूनों में हानिकारक स्तर पर कीटनाशक, भारी धातुएं और पॉलीसायक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन मौजूद हैं। कुछ रिहायशी इलाकों का पानी एल्युमीनियम, सीसा, क्रोम और आर्सेनिक युक्त होने का कारण पीने लायक भी नहीं है।

2015 में अध्ययन पूरा होने के बाद शेख ने एक मीटिंग के दौरान सरकारी अफसरों से इन नतीजों पर ज़रूरी कार्रवाई करने की बात की। 3 साल बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने यह अध्ययन अखबार में चार लेखों की शृंखला के रूप में प्रकाशित किया।

इस मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय की आपत्ति इस बात पर नहीं थी कि प्रकाशित अध्ययन सही है या नहीं, बल्कि उनकी आपत्ति इस बात पर थी कि यह जानकारी गोपनीय है कि लोगों के स्वास्थ्य पर खतरा है।

बुलंद शेख के वकील कैन अतले ने अपनी दलीलें पूरी करते हुए कहा था कि शेख ने एक नागरिक और एक वैज्ञानिक होने के नाते अपना फर्ज़ निभाया है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग किया है।

तुर्की नियम के मुताबिक शेख यदि किए गए अध्ययन के प्रकाशन पर खेद व्यक्त करते तो उन्हें जेल की सज़ा ना देकर पद से निलंबित भर किया जा सकता था, लेकिन शेख ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया।

शेख के मुताबिक शोध से प्राप्त डैटा छिपाने से समस्या के हल को लेकर हो सकने वाली एक अच्छी चर्चा बाधित होती है। उन्होंने अपने बयान में कहा कि मेरे लेखों का उद्देश्य जनता को उनके स्वास्थ्य पर किए गए अध्ययन के नतीजों से वाकिफ कराना था, जिन्हें गुप्त रखा गया था और उन अधिकारियों को उकसाना था जिन्हें इस समस्या को हल करने के लिए कदम उठाने चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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नई खोजी गई ईल मछली का ज़ोरदार झटका

वैज्ञानिक मानते आए थे कि करंट मारने वाली इलेक्ट्रिक ईल नामक मछली की एक ही प्रजाति है। लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं की एक टीम ने दक्षिण अमेरिका के अमेज़न बेसिन में ईल की तीन प्रजातियां देखीं। इनमें से एक प्रजाति जीव जगत में अब तक का सबसे ज़ोरदार करंट मारती है।  

इस जीव के वंशवृक्ष का सटीक निर्धारण करने के लिए शोधकर्ताओं ने ब्राज़ील, सूरीनाम, फ्रेंच गियाना और गुयाना से 107 ईल को पकड़कर उनका अध्ययन किया। इस अध्ययन में ईल के डीएनए का विश्लेषण, शरीर और हड्डियों की संरचना को देखा गया और यह देखा गया कि उसे कहां से पकड़ा गया था। नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं ने पाया कि ईल के तीन अलग-अलग जेनेटिक समूह हैं जिनका भौगोलिक क्षेत्र भी सर्वथा अलग-अलग है। ये तीन प्रजातियां हैं: सुदूर उत्तर (गुयाना और सुरीनाम) में रहने वाली इलेक्ट्रोफोरस इलेक्ट्रिकस, उत्तरी ब्राज़ील के अमेज़न बेसिन के निचले इलाके में पाई जाने वाली ई.वैराई और दक्षिण ब्राज़ील में पाई जाने वाली ई.वोल्टेई। 

वैसे इन सभी प्रजातियों का रंग भूरा और त्वचा झुर्रीदार होती है और त्योरी चढ़ा चेहरा होता है और इनके आधार पर इनके बीच भेद कर पाना तो असंभव था। लेकिन टीम ने उनकी खोपड़ी के आकार और शरीर की संरचना में थोड़ा अंतर पाया। जैसे ई.इलेक्ट्रिकस और ई.वोल्टेई की खोपड़ी थोड़ी दबी हुई थी जो शायद पथरीली नदी में चट्टानों के नीचे भोजन खोजने के लिए या तेज़ बहते पानी में कुशल तैराकी में मददगार साबित होती हो।

इसके बाद वैज्ञानिकों ने इन तीनों के बिजली के झटकों की ताकत नापने के लिए छोटे स्विमिंग पूल का उपयोग किया। नई खोजी गई प्रजाति ई.वोल्टेई ने 860 वोल्ट का झटका दिया जो घरेलू बिजली के वोल्टेज से 4 गुना अधिक है। ई.इलेक्ट्रिकस के झटके का अधिकतम रिकॉर्ड 650 वोल्ट का था।  

शोधकर्ताओं के अनुसार 30 लाख वर्ष से भी अधिक पहले ये प्रजातियां अमेज़न बाढ़ क्षेत्र बनने के बाद एक-दूसरे से अलग हो गई होंगी। अभी यह परीक्षण तो नहीं किया गया है कि यदि इन अलग-अलग प्रजातियों को मौका दिया जाए तो वे आपस में प्रजनन कर सकेंगी या नहीं, लेकिन लाखों वर्षों के अलगाव के बाद इसकी संभावना कम ही है। (स्रोत फीचर्स)

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एक जेनेटिक प्रयोग को लेकर असमंजस

ब्राज़ील में मच्छरों पर नियंत्रण पाने के लिए एक प्रयोग किया गया था। उस प्रयोग को 6 साल हो चुके हैं और अब इस बात को लेकर वैज्ञानिकों के बीच बहस चल रही है कि उस प्रयोग में कितनी सफलता मिली और किस तरह की समस्याएं उभरने की संभावना है।

इंगलैंड की एक जैव-टेक्नॉलॉजी कंपनी ऑक्सीटेक ने 2013 से 2015 के दौरान जेनेटिक रूप से परिवर्तित एडीस मच्छर करोड़ों की संख्या में ब्राज़ील के जेकोबिना शहर में छोड़े थे। इन मच्छरों की विशेषता यह थी कि ये मादा मच्छरों से समागम तो करते थे मगर उसके तुरंत बाद स्वयं मर जाते थे। इसके अलावा, इस समागम के परिणामस्वरूप संतानें पैदा नहीं होती थीं। यदि कोई संतान पैदा होकर जीवित भी रह जाती थी (लगभग 3 प्रतिशत) तो वह आगे संतानोत्पत्ति में असमर्थ होती थी। उम्मीद थी कि इस तरह के मच्छर स्थानीय मादा मच्छरों से समागम के मामले में स्थानीय नर मच्छरों से प्रतिस्पर्धा करेंगे और स्वयं मर जाएंगे और मृत संतानें पैदा करेंगे यानी मच्छरों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आएगी।

कंपनी ने पूरे 27 महीनों तक प्रति सप्ताह साढ़े चार लाख जेनेटिक रूप से परिवर्तित एडीस मच्छर छोड़े थे। शोधकर्ताओं के एक स्वतंत्र दल ने पूरे मामले का अध्ययन किया तो पाया कि इन मच्छरों के कारण जेकोबिना में मच्छरों की संख्या में 85 प्रतिशत गिरावट आई है। दल ने उस इलाके से प्रयोग शुरू होने के 6, 12 और 27 महीनों बाद स्थानीय आबादी के मच्छरों के नमूने भी एकत्रित किए। इन मच्छरों के जेनेटिक विश्लेषण से पता चला है कि उनमें बाहर से छोड़े गए मच्छरों के जीन पहुंच गए हैं। इसका मतलब है कि उन मच्छरों और स्थानीय मच्छरों से उत्पन्न संकर मच्छर न सिर्फ जीवित हैं बल्कि संतानें भी पैदा कर रहे हैं।

शोधकर्ता दल का मत है कि स्थानीय मच्छरों में इस तरह जीन का पहुंचना इस बात का संकेत है कि इनमें कुछ नए गुण पैदा हो रहे हैं और शायद ये नए संकर मच्छर ज़्यादा खतरनाक साबित होंगे। अलबत्ता, कंपनी का कहना है कि जीन का स्थानांतरण तो हुआ है लेकिन ज़रूरी नहीं कि वह किसी खतरे का द्योतक हो। एक बात तो स्पष्ट है कि इस तरह के जेनेटिक हस्तक्षेप में ज़्यादा सावधानी की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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खाना पकाने में ठोस ईंधन बनाम एलपीजी – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

भारत खाना पकाना घर की सबसे बुनियादी उर्जा ज़रूरतों में से एक है। वर्ष 2011 में, भारत में लगभग 70 प्रतिशत घरों में खाना पकाने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता था। एक अनुमान के मुताबिक 2015 में ठोस ईंधन के उपयोग से घरों में अंदरूनी वायु प्रदूषण के कारण लगभग 1 लाख लोगों की मृत्यु हुई जिसमें अधिकतर महिलाएं और बच्चे थे।

ठोस ईंधन के उपयोग को कम करने के लिए सब्सिडी वाले निर्धूम चूल्हों से लेकर एलपीजी कनेक्शन देने तक कई कदम उठाए गए हैं। सबसे हालिया कार्यक्रम प्रधानमंत्री उज्जवला योजना के तहत 2016 से 2019 के बीच गरीब परिवारों को 8 करोड़ मुफ्त एलपीजी कनेक्शन प्रदान किए जा चुके हैं।

हमारे सर्वेक्षण के निष्कर्षों से पता चलता है कि दोनों राज्यों में एलपीजी का स्वामित्व काफी अधिक है। उत्तर प्रदेश में लगभग 91 प्रतिशत और महाराष्ट्र में लगभग 96 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में  एलपीजी कनेक्शन मौजूद हैं। उत्तर प्रदेश की तुलना में महाराष्ट्र के घरों में काफी लंबे समय से एलपीजी का उपयोग किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के लगभग 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र के मात्र 2 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों ने 2016 में उज्ज्वला कार्यक्रम शुरू होने के बाद एलपीजी कनेक्शन लिए हैं। इसलिए, हमारे सर्वेक्षण में उज्ज्वला लाभार्थियों का हिस्सा काफी कम है।

दोनों राज्यों में खाना पकाने के लिए एलपीजी का वास्तविक उपयोग भी काफी अधिक दिखा। उत्तर प्रदेश में लगभग 67 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 95 प्रतिशत परिवार अधिकांश खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग करते हैं। यह विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के लिए काफी सराहनीय परिवर्तन है जहां एलपीजी कनेक्शन अपेक्षाकृत हाल ही में लगे हैं।

बहरहाल, ठोस ईंधन का उपयोग पूरी तरह से बंद नहीं हुआ है। कई अध्ययनों से पता चला है कि ज़्यादातर घरों में कई तरह के ईंधन का उपयोग किया जा रहा है। कारण यह है कि एलपीजी सिलेंडर महंगे हैं और आसानी से उपलब्ध नहीं होते। यह हमारे सर्वेक्षण में भी देखा गया है। उत्तर प्रदेश के 45 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 12 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में अभी भी खाना पकाने या उसके कुछ भाग के लिए ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। उत्तर प्रदेश में ठोस ईंधन का उपयोग करने वाले लगभग 82 प्रतिशत घरों में एलपीजी कनेक्शन मौजूद हैं। कम आय वाले घरों में 41 प्रतिशत ऐसे परिवार हैं जहां एलपीजी कनेक्शन होने के बाद भी खाना पकाने के लिए अधिकतर ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। शेष 24 प्रतिशत खाना पकाने के लिए केवल ठोस र्इंधन का उपयोग करते हैं। उत्तर प्रदेश के अन्य आय वर्ग के परिवार एलपीजी का उच्च उपयोग करने लगे हैं। अर्ध-शहरी क्षेत्रों के मध्य और उच्च आय वर्ग के 80-90 प्रतिशत परिवार अधिकांश खाना एलपीजी पर पकाते हैं। महाराष्ट्र में भी स्थिति लगभग ऐसी ही है जहां सभी आय वर्गों और अर्ध-शहरी/ग्रामीण क्षेत्रों के 90 प्रतिशत से अधिक परिवार अधिकांश खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग करते हैं।

एलपीजी सिलेंडर रीफिल करवाने की संख्या खाना पकाने के लिए एलपीजी के उपयोग का एक और संकेतक है। उत्तर प्रदेश में, यह संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि परिवार सिर्फ एलपीजी का उपयोग करता है या एलपीजी और किसी अन्य ईंधन का मिला-जुला उपयोग करता है और इस बात पर भी निर्भर करती है कि परिवार ग्रामीण है या अर्ध-शहरी। खाना पकाने के लिए मात्र एलपीजी का उपयोग करने वाले परिवार औसतन साल भर में 9 बार सिलेंडर रीफिल कराते हैं। रीफिल करने की यह संख्या उन परिवारों की तुलना में दोगुनी है जो एलपीजी कनेक्शन होने के बाद भी अधिकांश खाना ठोस ईंधन पर पकाते हैं। अर्ध-शहरी क्षेत्रों के परिवार ग्रामीण परिवारों की तुलना में सालाना एक सिलेंडर अधिक उपयोग करते हैं। यह संख्या महाराष्ट्र में भी लगभग ऐसी ही है जहां ग्रामीण और अर्ध-शहरी दोनों तरह के परिवार औसतन हर साल 9 बार सिलेंडर रीफिल करवाते हैं (रेंज 7 से 9.5 के बीच है)।

यहां दो बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। पहला, उत्तर प्रदेश के परिवार (प्रति परिवार 6.9 व्यक्ति) महाराष्ट्र के परिवारों (प्रति परिवार 4.7 व्यक्ति) की तुलना में काफी बड़े हैं। दूसरा, जहां महाराष्ट्र में 31 प्रतिशत परिवार नहाने का पानी गर्म करने के लिए एलपीजी का उपयोग करते हैं वहीं उत्तर प्रदेश में यह संख्या 13 प्रतिशत है। अगली कड़ी में हम पानी गर्म करने से सम्बंधित मुद्दों पर चर्चा करेंगे। एलपीजी की वास्तविक आवश्यकता और खाना पकाने के लिए इसके उपयोग पर इन कारकों के असर की जांच ज़रूरी है।

हमने परिवारों से यह भी पूछा कि वे ठोस ईंधन का उपयोग जारी क्यों रखे हुए हैं। दोनों राज्यों में बिना एलपीजी कनेक्शन वाले परिवारों की संख्या 10 प्रतिशत से कम है। ये मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों के निम्न आय वाले परिवार हैं। इनमें से आधे परिवारों ने एलपीजी के महंगे होने का कारण बताया तो शेष आधों ने एलपीजी गैस की अनुपलब्धता की बात कही। उत्तर प्रदेश के 70 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 67 प्रतिशत बिना एलपीजी कनेक्शन वाले परिवारों ने उज्ज्वला कार्यक्रम के बारे में सुना है।

एलपीजी कनेक्शन वाले ऐसे परिवार जो खाना पकाने के लिए इसका अधिक उपयोग नहीं करते उनका कारण कुछ अलग ही है। इनमें से अधिकतर परिवार उत्तर प्रदेश के हैं। इनमें से लगभग 55 प्रतिशत परिवारों को खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग काफी महंगा लगता है। एलपीजी के उपयोग को महंगा बताने वाले लगभग 60 प्रतिशत परिवारों को सब्सिडी कभी नहीं या कभी-कभार मिली है। कुल मिलाकर, उत्तर प्रदेश के 54 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 85 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों को नियमित रूप से सब्सिडी प्राप्त हो रही है। इसके अलावा एलपीजी महंगा बताने वाले 60 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिन्हें ठोस ईंधन मुफ्त में प्राप्त हो जाता है। इससे एलपीजी के महंगे होने की धारणा और मज़बूत होती है। इसके अलावा, एलपीजी कनेक्शन वाले 20 प्रतिशत परिवारों, जो ठोस र्इंधन का भी उपयोग करते हैं, ने महंगेपन और उपलब्धता के अलावा अन्य कारण बताए। सबसे आम कारण चूल्हे पर पके खाने का स्वाद पसंद होना है।

दोनों राज्यों में एलपीजी कनेक्शन का उच्च स्वामित्व खाना पकाने के लिए ठोस ईंधन के उपयोग को खत्म करने की क्षमता रखता है, जिसके परिणामस्वरूप ठोस र्इंधन से स्वास्थ्य पर होने वाले प्रतिकूल प्रभाव भी कम होंगे। यह काफी उत्साहजनक है कि भले ही उत्तर प्रदेश के 60 प्रतिशत से अधिक परिवारों को 2010 के बाद एलपीजी कनेक्शन मिला हो, लेकिन ग्रामीण निम्न आय परिवारों को छोड़कर इन घरों में एलपीजी का उपयोग काफी अधिक है। फिर भी, इन घरों में एलपीजी के निरंतर उपयोग और उसे एकमात्र र्इंधन बनाने के लिए हस्तक्षेप की आवश्यकता है। चूंकि अधिकांश परिवारों में महंगा होने के कारण एलपीजी का उपयोग नहीं किया जा रहा है, इसलिए सब्सिडी की राशि और उसके वितरण को और अधिक प्रभावी बनाने की ज़रूरत है। एलपीजी को अपनाने में जेंडर, व्यवहार और सांस्कृतिक बाधाओं को संबोधित करने की भी आवश्यकता है। हो सकता है कि एलपीजी सभी घरों के लिए पसंदीदा या उपयुक्त विकल्प न हो, ऐसे में बिजली, बायोगैस और प्राकृतिक गैस जैसे अन्य स्वच्छ र्इंधनों का उपयोग किया जा सकता है। इनका उपयोग न के बराबर देखा गया। इनको अपनाने के लिए कार्यक्रम विकसित किए जा सकते हैं। हालांकि, महाराष्ट्र में अधिकांश घरों में खाना पकाने के लिए एलपीजी अपनाया गया है, फिर भी पानी गर्म करने के लिए ठोस ईंधन का उपयोग जारी है जिससे स्थानीय स्तर पर वायु प्रदूषण हो रहा है। अगले लेख में इस पर और चर्चा की जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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