पूर्वी भारत के एक गांव
में 22 जुलाई के दिन शायद एक छोटा-सा उल्कापिंड चावल में खेत में गिरा है। समाचार
एजेंसी सीएनएन के अनुसार, बिहार
के महादेव गांव में चावल के खेत में भरे पानी में लगभग 14 किलोग्राम वज़नी एक
फुटबॉल के आकार की अजीब-सी चट्टान गिरी और खेत में इसकी वजह से गड्ढा बन गया।
फिलहाल इस रहस्यमयी चट्टान को बिहार के एक संग्रहालय में
रखा गया है, लेकिन
जल्द ही इसे बिहार के श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र में स्थानांतरित कर दिया जाएगा,
ताकि विशेषज्ञ यह पता लगा सकें कि यह
वास्तविक उल्कापिंड है या कोई मामूली पत्थर।
उल्कापिंड अंतरिक्ष की चट्टानें हैं जो हमारे वातावरण में
घुसने के बाद पूरी तरह भस्म हो जाने से बचकर पृथ्वी पर गिरती हैं। आम तौर पर इस
तरह के पिंडों में चुंबकीय गुण होते हैं क्योंकि वे अक्सर लौह व निकल धातुओं से
बने होते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री कार्यालय से जारी एक बयान के अनुसार इस
संभावित उल्कापिंड में चुंबकीय गुण पाए गए हैं।
यूं तो हमारे ग्रह पर प्रतिदिन लगभग 100 टन से अधिक धूल और
रेत के आकार के उल्कापिंडों की बौछार होती है लेकिन बड़े पिंड बहुत कम गिरते हैं।
नासा के अनुसार, पिछले
वर्ष एक कार के आकार का क्षुद्रग्रह एक बड़े आग के गोले के रूप में वायुमंडल में
दाखिल होकर ज़मीन से टकराया था।
हर दो-एक हज़ार साल में, फुटबॉल के मैदान के आकार का उल्कापिंड पृथ्वी से टकराता है और स्थानीय स्तर पर नुकसान पहुंचाता है। हर बीसेक लाख सालों में ही में कोई इतना विशाल उल्कापिंड पृथ्वी से टकराता है जिसमें पूरी मानव सभ्यता को नष्ट करने की क्षमता होती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://c.ndtvimg.com/2019-07/1b8fhdm_bihar-madhubani-meteorite-afp_625x300_26_July_19.jpg https://img.purch.com/w/660/aHR0cDovL3d3dy5saXZlc2NpZW5jZS5jb20vaW1hZ2VzL2kvMDAwLzEwNi82MzUvb3JpZ2luYWwvR2V0dHlJbWFnZXMtMTE1NzYyNDU0OS5qcGc=
हालिया समाचार रिपोर्ट
के अनुसार उत्तरी कैरोलिना के स्थानीय वॉटर पार्क के तालाब में तैराकी के बाद एक
59 वर्षीय व्यक्ति की दुर्लभ ‘मस्तिष्क-भक्षी’ अमीबा के संक्रमण से मृत्यु हो गई।
नार्थ कैरोलिना डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेज़
(एनसीडीएचएच) द्वारा जारी किए गए एक बयान के अनुसार उस व्यक्ति में एक एककोशिकीय
जीव नेगलेरिया फाउलेरी पाया गया। यह जीव कुदरती रूप से झीलों और नदियों के गर्म
मीठे पानी में पाया जाता है। इस प्रकार का संक्रमण अक्सर अमेरिका के दक्षिणी
राज्यों में पाया जाता है जहां लंबी गर्मियों में पानी का तापमान बढ़ जाता है।
गौरतलब है कि पानी में उपस्थित नेगलेरिया फाउलेरी को निगलने
से तो संक्रमण नहीं होता, लेकिन
अगर यह पानी नाक से ऊपर चला जाए तो अमीबा मस्तिष्क में प्रवेश कर सकता है। यह
मस्तिष्क में ऊतकों को नष्ट कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप मस्तिष्क में सूजन के बाद आम तौर पर मौत
हो जाती है।
वैसे तो यह अत्यंत दुर्लभ संक्रमण है;
1962 से लेकर 2018 तक अमेरिका में
नेगलेरिया फाउलेरी के सिर्फ 145 मामले सामने आए हैं। लेकिन इस बीमारी की मृत्यु दर
काफी उच्च है। अभी तक के 145 मामलों में सिर्फ 4 लोग ही बच पाए हैं।
भारत में भी इसके कुछ मामले सामने आए हैं। अन्य इलाकों के
अलावा, मई 2019 में केरल के
मालापुरम ज़िले के एक 10 वर्षीय बच्चे की मृत्यु भी इसी परजीवी के कारण हुई। वैसे
कई रोगियों को तात्कालिक निदान द्वारा बचा भी लिया गया। नार्थ कैरोलिना में यह
समस्या पानी में तैरने के कारण हुई जबकि भारत में अधिकांश संक्रमण वाटर-पार्क में
दूषित पानी के इस्तेमाल से हुए हैं।
सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के
अनुसार पानी में नेगलेरिया फाउलेरी की उपस्थिति का पता लगाने का कोई त्वरित
परीक्षण नहीं है। इस जीव की पहचान करने में कुछ सप्ताह लग सकते हैं। महामारीविद्
डॉ. ज़ैक मूर का सुझाव है कि लोगों को यह जानकारी होना चाहिए कि यह जीव उत्तरी
केरोलिना में गर्म मीठे पानी की झीलों, नदियों और गर्म झरनों में मौजूद है, इसलिए ऐसी जगहों पर जाएं तो विशेष ध्यान रखना चाहिए।
एनसीडीएचएच ने लोगों को सुझाव दिया है कि जब भी झील वगैरह के गर्म मीठे पानी में तैरने के लिए जाएं तो सावधानी बरतें कि नाक से पानी अंदर न जाएं। लोग विशेष रूप से पानी के उच्च तापमान और कम स्तर के दौरान गर्म ताज़े पानी में तैरने से बचकर भी इस जोखिम को कम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.purch.com/h/1400/aHR0cDovL3d3dy5saXZlc2NpZW5jZS5jb20vaW1hZ2VzL2kvMDAwLzEwNi83MjIvb3JpZ2luYWwvbmFlZ2xlcmlhLWZvd2xlcmkuanBn
पिछली एक शताब्दी से
अधिक समय से हर वर्ष भारतीय विज्ञान कांग्रेस का आयोजन किया जा रहा है जिसका मुख्य
उद्देश्य भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान और वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहन देना है। आम
तौर पर ऐसे आयोजनों के बारे में चर्चा कम ही होती है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वेद-पुराणों से विज्ञान को
जोड़कर देखने वाले दावों के कारण यह सुर्खियों में है। ऐसा नहीं है कि अवैज्ञानिक
और अतार्किक दावे पहले नहीं किए जाते थे लेकिन पिछले कुछ वर्षों से अधिक देखने को
मिल रहे हैं।
वर्ष 2015 में इसी आयोजन में आनंद बोड़स और उनके साथी अमेय
जाधव ने वैदिक युग में विमानन पर एक ‘शोध पत्र’ प्रस्तुत किया था। उनका दावा था कि
केवल एक दिशा में उड़ने वाले आज के आधुनिक विमानों की तुलना में प्राचीन भारत के
विमान अधिक उन्नत थे और हर दिशा में उड़ने में सक्षम थे। ये विमान काफी विशाल थे
और अन्य ग्रहों पर भी उड़ान भर सकते थे। यह दावा करने वाले बोड़स स्वयं पायलट
प्रशिक्षण स्कूल, कोलकाता
के प्रधानाचार्य रहे हैं और फिलहाल एक स्कूल में शिक्षक हैं। उन्होंने अपने शोध
पत्र में प्रमाण के रूप में वैमानिकी
प्रकरण (वैमानिक शास्त्र) नामक ग्रंथ का हवाला दिया था।
जब भी हवाई जहाज़ के अविष्कार की बात होती है तो इसका श्रेय
राइट बंधुओं को दिया जाता है। लेकिन भारतीय विज्ञान कांग्रेस के इस पर्चे और फिर
कुछ न्यूज़ चैनलों और एक फिल्म (हवाईज़ादा) में बताया गया कि यह आविष्कार एक
भारतीय ने किया था। टी.वी. न्यूज़ चैनलों में बताया गया कि राइट बंधुओं ने हवाई
जहाज़ का आविष्कार 17 दिसंबर 1903 को किया था जबकि उससे लगभग आठ साल पहले शिवकर
बापूजी तलपदे नाम के एक मराठा ने 1895 में हवाई जहाज़ तैयार कर लिया था। बताया गया
कि यह हवाई जहाज़ 1500 फीट ऊपर उड़ा और फिर वापस नीचे गिर गया। इसका परीक्षण मुंबई
के एक समुद्र तट पर किया गया था।
तो सच्चाई क्या है? यहां दो सवाल हैं – पहला कि क्या तलपदे ने ऐसा कोई आविष्कार
किया था और दूसरा कि क्या उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा या जानकारी किसी प्राचीन
(वैदिक) ग्रंथ से मिली थी। इसी से जुड़ा तीसरा सवाल यह भी है कि क्या ऐसा कोई
वैदिक ग्रंथ अस्तित्व में भी है।
उड़ान के विवरण
शिवकर बापूजी तलपदे के जीवन और उनके आविष्कार का विवरण काफी
उलझा हुआ है। कुछ विवरणों के अनुसार, उन्होंने वैदिक ग्रंथ वैमानिकी प्रकरण में उल्लेखित विमानन
के विचारों को अपनाकर एक विमान बनाया था और बड़ौदा के तत्कालीन महाराज और कई अन्य
लोगों की उपस्थिति में 1895 में उड़ाया था। कुछ विवरण बताते हैं कि यह प्रयोग
उन्होंने मुंबई के नज़दीक मड टापू पर किया था जबकि अन्य विवरण गिरगांव चौपाटी को
मौका-ए-वारदात बताते हैं। कुछ ने दावा किया है कि तलपदे ने र्इंधन के रूप में पारे
का इस्तेमाल किया था, जबकि
अन्य का कहना है कि इसमें किसी प्रकार के मूत्र का उपयोग किया गया था।
तलपदे के जीवन पर सबसे विस्तृत विवेचन वास्तुविद इतिहासकार
प्रताप वेलकर ने लगभग 20 साल पहले लिखी अपनी किताब महाराष्ट्रचा उज्जवल इतिहास में
किया है। वेलकर ने बड़ौदा के महाराज के उपस्थित होने की बातों को खारिज करते हुए
कहा है कि यह एक खेल आयोजन की तरह था जिसमें तलपदे के कुछ साथी मौजूद थे।
वेलकर के अनुसार, तलपदे का विमान ‘मारुतसखा’ (कहीं-कहीं इसे ‘मारुतशक्ति’ भी
कहा गया है) बांस से बनी एक बेलनाकार संरचना थी। यह पंखों वाला ग्लाइडर नहीं था
जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है। ईंधन के रूप में तरल पारा इस्तेमाल किया गया था।
वेलकर के मुताबिक पारा सूर्य के प्रकाश के साथ अभिक्रिया करता है तो उससे
हाइड्रोजन उत्पन्न होती है। चूंकि हाइड्रोजन हवा की तुलना में हल्की है,
यह विमान को उड़ने में मदद करती है। वैसे
बाद में किसी ने यह भी कहा है कि दरअसल पारे का उपयोग पारे के आयनों की मदद से
विमान को उड़ाने का था। वेलकर कहते हैं कि विमान न तो बहुत ऊंचा उड़ा और ना ही हवा
में बहुत लंबे समय तक रहा। यह सिर्फ थोड़ी ऊंचाई तक गया और कुछ ही मिनटों में
दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस कथा के कई अलग-अलग विवरण उपलब्ध हैं।
हवाईज़ादा
वर्ष 2016 में इस विषय पर हवाईज़ादा नाम से एक बॉलीवुड
फिल्म रिलीज़ हुई थी। कहानी को रोचक बनाने के लिए कुछ और बाहरी विचारों को भी
शामिल किया गया। फिल्म के मुताबिक यह उड़ान सफल रही थी, और इसके आविष्कारक ने खुद इसे उड़ाया था। दूसरी ओर,
इस घटना के विवरणों में यह भी कहा गया है
कि कोशिश तो मानव रहित विमान बनाने की थी।
हवाईज़ादा के निर्देशक विभु पुरी का दावा है कि उन्होंने
करीब चार साल तक शोध किया है। उनके अनुसार कुछ चीज़ें विरोधाभासी लगीं,
इसलिए उन्होंने एक काल्पनिक संस्करण बनाया।
उनका कहना है कि उनकी फिल्म एक बायोपिक तो नहीं है लेकिन सच्ची घटनाओं पर आधारित
है। फिल्म में बापू तलपदे का किरदार निभाने वाले आयुष्मान खुराना का कहना है कि
हवाईज़ादा कोई डाक्यूमेंट्री नहीं है बल्कि मनोरंजन के लिए बनाई गई फिल्म है।
वैमानिक शास्त्र
कथित रूप से जिस वैमानिकी प्रकरण को पढ़कर व जिसके आधार पर
तलपदे ने मारुतसखा बनाया था उसके बारे में कहा जाता है कि हज़ारों साल पहले
भारद्वाज नाम के एक ऋषि ने उसकी रचना की थी। इसमें आठ अध्यायों में लगभग 3000
श्लोक हैं और दावा है कि वैदिक महाकाव्यों में वर्णित ‘विमान’ उन्नत स्तर की उड़ने
वाली मशीनें थीं।
इस विषय पर एक मराठी पुस्तक के लेखक आर्य समाज,
पुणे के सचिव माधव देशपांडे का दावा है कि
उन्हें तलपदे द्वारा हस्तलिखित कुछ नोट्स मिले हैं। देशपांडे का कहना है कि वायु
वेदनाओं का सिद्धांत हमारे वेदों में मौजूद था और बापू तलपदे ने उसी सिद्धांत को
साकार रूप प्रदान किया था।
दूसरी ओर, 1974
में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलुरु
के वैज्ञानिकों ने ग्रंथ में वर्णित सिद्धांतों की जांच करने के बाद एक अध्ययन
प्रकाशित किया, और
निष्कर्ष निकाला कि यह रचना प्राचीन तो कदापि नहीं है। उनके अनुसार यह ग्रंथ 1904
से पहले का कदापि नहीं है।
ग्रंथ के अध्ययन से यह भी साफ हो जाता है कि इसमें प्रस्तुत
अधिकांश सिद्धांत कामकाजी स्तर पर असंभव हैं। तलपदे द्वारा बनाए गए मॉडलों में कोई
भी उड़ने में सफल नहीं हुआ। शोधकर्ताओं के अनुसार ग्रंथ में वर्णित विमानों में
कोई वास्तविकता नहीं है बल्कि सब कुछ मनगढ़ंत है। आगे उनका कहना है कि ग्रंथ में
वर्णित किसी भी विमान में उड़ान भरने के गुण या क्षमताएं नहीं हैं। उड़ान के
दृष्टिकोण से इनकी संरचना अकल्पनीय रूप से भयावह है और प्रणोदन के जो सिद्धांत
इसमें प्रस्तुत किए गए हैं, वे
उड़ान में मदद करने के बजाय इसका प्रतिरोध करते हैं।
इसमें ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक अध्याय में तो यह भी कहा गया
है कि इस ज्ञान का उपयोग बुरे उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाने लगे इसलिए इसके
निर्माण और अन्य विशेषताओं का विस्तृत वर्णन नहीं दिया जा सकता है। वैज्ञानिकों का
निष्कर्ष था कि “इतिहास में हमें दुर्भाग्यपूर्ण बात यह लगती है कि अतीत में कुछ
भी मिल जाए, तो
कुछ लोग बगैर किसी प्रमाण के उसका महिमामंडन और गुणगान करने लगते हैं। हमें लगता
है कि प्रकाशन से जुड़े लोग ही पांडुलिपियों के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने या
छिपाने के लिए पूर्णत: दोषी हैं।”
वेलकर बताते हैं कि चौपाटी पर शो की विफलता के बाद,
तलपदे ने एक और विमान बनाने के लिए धन
जुटाने की कोशिश की। उन्होंने बड़ौदा के तत्कालीन महाराजा और अहमदाबाद में
व्यवसायियों के एक समूह से अपील भी की थी जिसका रिकॉर्ड भी मौजूद है। कुछ
संस्करणों में बताया गया है कि चौपाटी शो में इस्तेमाल किया गया क्षतिग्रस्त विमान
मुंबई के मलाड इलाके में एक गोदाम में रखा गया था। बाद में विमान को टाटा कंपनी के
रैलिस ब्रादर्स को बेच दिया गया था, जबकि कुछ अन्य लोगों के अनुसार इसे बैंगलुरु में हिंदुस्तान
एयरोनॉटिक्स को दे दिया गया था। जब वेलकर ने इसकी और जानकारी प्राप्त करने की कोशिश
की तो पता चला कि इससे जुड़े कागज़ात केंद्रीय रक्षा मंत्रालय में हैं। जिस अंतिम
व्यक्ति ने इनका विस्तार से अध्ययन किया था उन्होंने बताया कि तलपदे असफल रहे थे।
उड़ने की कल्पना तो बहुत लोगों ने की है। शिवकर बापूजी
तलपदे का काम भले ही कामयाब न रहा हो लेकिन वास्तव में विमान तैयार करना कोई
मामूली बात नहीं। हो सकता है उनका विमान कथित वैमानिक शास्त्र में हवाई जहाज़ के
कथित वर्णन से प्रेरित था, मगर
मुख्य बात यह है कि उन्होंने इस पर काम किया था, इसे साकार रूप देने की कोशिश की थी। वेलकर के अनुसार विमान
तैयार करने के लिए बापूजी तलपदे ने काफी कोशिश की होगी।
उनकी इस कहानी को स्कूल सिलेबस में शामिल करवाने के लिए एक
ऑनलाइन हस्ताक्षर अभियान चलाया गया था। कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि अंग्रेज़
नहीं चाहते थे कि कोई भारतीय पहले हवाई जहाज़ का निर्माण करे,
इसलिए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि तलपदे
का काम असफल रहे और वे इस विषय में शोध जारी ना रख सकें।
यह बात तो सही है कि ऐसे योगदान पर चर्चा ज़रूर होनी चाहिए
और इसे किताबों के माध्यम से छात्रों को बताने में भी कोई हर्ज नहीं है। लेकिन
मुख्य बात तो यह है कि छात्रों को इस बारे में क्या पढ़ाया जाए। ठोस सबूतों के
अभाव में, हम यह नहीं कह सकते
कि यह प्रयास सफल रहा था। लेकिन यह सिखाना भी गलत न होगा कि तलपदे ने कोशिश की थी,
जो अधिक महत्वपूर्ण है।
जब कभी भी ‘प्राचीन प्रौद्योगिकी’ के शिक्षण की बात हो तो लगन और उद्यमिता की भावना को विकसित करना चाहिए। आज के हज़ारों-लाखों शिवकर बापूजी तलपदे को कोशिश करने और असफल होने के लिए तैयार होना चाहिए क्योंकि कई असफलताएं ही सफलता के एक दुर्लभ क्षण को संभव बनाती हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.huffingtonpost.com/asset/5c3515392400003300c3ff41.jpeg?ops=scalefit_630_noupscale https://img.huffingtonpost.com/asset/5c3515392400003500c3ff3f.jpeg?ops=scalefit_630_noupscale https://img.huffingtonpost.com/asset/5c3515393c00005006102633.jpeg?ops=scalefit_630_noupscale
अभी कुछ महीनों पहले
खबर आई थी कि वैज्ञानिकों ने अब तक की सबसे बड़ी अभाज्य (प्राइम) संख्या ढूंढ ली
है। यह संख्या है 28,25,89,933-1। इस संख्या में 2 करोड़ 48 लाख 62
हज़ार 48 अंक हैं। यदि इस संख्या को साधारण कॉपी पर लिखें तो तकरीबन 40 पन्ने भर
जाएंगे। ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिकों ने पहली बार बहुत बड़ी प्राइम संख्या पता की
हो। इसके पहले उन्होंने जो संख्या पता की थी वह 27,72,32,917-1 थी।
लेकिन क्यों वे बड़ी-से-बड़ी अभाज्य संख्याएं पता करना चाहते हैं।
इसे जानने से पहले हम थोड़ा अभाज्य संख्या के बारे में समझ
लेते हैं। अभाज्य संख्या वह प्राकृत संख्या है जो सिर्फ 1 और स्वयं उसी संख्या द्वारा
विभाजित होती है, इन
संख्याओं में अन्य किसी संख्या से पूरा-पूरा भाग नहीं जाता। जैसे – 2,
3, 5, 7,
11, 17…। अभाज्य संख्याएं अनंत हैं। इन संख्याओं की कुछ
खूबियां भी हैं। जिनके कारण इनकी उपयोगिता है।
वैसे जब हमें स्वास्थ्य, चिकित्सा, नई
तकनीक आदि से जुड़ी खोज या आविष्कार की खबरें मिलती हैं तो हमारे मन में कभी यह
सवाल नहीं उठता कि इनकी खोज की क्या ज़रूरत है। लेकिन जब यह सुनने में आता है कि
वैज्ञानिकों ने अब और भी बड़ी अभाज्य संख्या पता की है तो मन में सवाल उठता है कि
इतनी बड़ी संख्या पता करने की क्या ज़रूरत है जबकि हम अपनी आम ज़िंदगी में इतनी
बड़ी संख्याओं के साथ काम भी नहीं करते और वे भी अभाज्य संख्या।
सच्चाई इसके विपरीत है। सीधे तौर पर ना सही,
लेकिन वर्तमान में इन संख्याओं का हम अपनी ज़िंदगी
में भरपूर उपयोग करते हैं। आज अधिकतर लोग टेलीफोन, इंटरनेट सेवाओं, स्टोरेज डिवाइस, क्रेडिट कार्ड, एटीम, स्मार्ट
फोन, ऐप्स,
गेम्स, व्हाट्सऐप जैसे मेसेंजर ऐप्स वगैरह कई तकनीकों का उपयोग
करते हैं और इनका उपयोग दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। यदि हम इन तकनीकों का निश्चितता
से और सुरक्षित ढंग से उपयोग कर पाते हैं, तो इसका श्रेय काफी हद तक अभाज्य संख्याओं को जाता है।
जितनी तेज़ी से इंटरनेट सुविधाओं, कंप्यूटर जैसी तकनीकों का उपयोग बढ़ रहा है,
उतना अधिक हमारा महत्वपूर्ण डैटा डिजिटल
रूप में स्टोर और ट्रांसफर हो रहा है। सूचना या डैटा महत्वपूर्ण है तो उसे
सुरक्षित रखने की भी ज़रूरत है। इसलिए डैटा को सुरक्षित रखने के लिए विभिन्न कूटलेखन
सूत्रविधियों (एल्गोरिदम) का सहारा लिया जाता है। (कूटलेखन किसी संदेश को कूट
संदेश यानी सीक्रेट मैसेज में बदलने का तरीका है ताकि वांछित व्यक्ति ही उसे पढ़
सके।) और इन कूटलेखन सूत्रविधियों में अभाज्य संख्याओं की अहम भूमिका है।
सुरक्षित तरीके से संदेश भेजने में अक्सर आरएसए एल्गोरिद्म
का उपयोग किया जाता है। आरएसए एल्गोरिदम का आविष्कार मूलत: तीन गणितज्ञों ने
संयुक्त रूप से किया था: रॉन रिवेस्ट, अदी शमीर और लियोनार्ड एडलमैन। तब से इसमें कई सुधार हो
चुके हैं।
इस एल्गोरिद्म में दो कुंजियों (key) का इस्तेमाल किया जाता है: सार्वजनिक या पब्लिक कुंजी और
निजी या प्रायवेट कुंजी। जैसा कि नाम से ज़ाहिर है सार्वजनिक कुंजी सभी को उजागर
होती है जबकि निजी कुंजी गुप्त रखी जाती है। जिसे संदेश भेजा जाना है उसकी
सार्वजनिक कुंजी से संदेश को कूटबद्ध किया जाता है। और संदेश पाने वाला उसे अपनी
निजी कुंजी की मदद से पढ़ लेता है। ये दोनों कुंजियां संदेश प्राप्त करने वाले
द्वारा बनाई जाती हैं। वह सार्वजनिक कुंजी तो जगज़ाहिर कर देता है लेकिन निजी
कुंजी गुप्त रखता है।
कुंजियां
सार्वजनिक कुंजी वास्तव में दो संख्याएं होती है। इसमें
पहली संख्या किन्हीं भी दो प्राइम संख्याओं का गुणनफल होती है,
और दूसरी संख्या इन दोनों प्राइम संख्याओं
के आधार पर तय की जाती है। इसी तरह निजी कुंजी भी दो संख्याएं होती हैं।
यहां एक उदाहरण की मदद से इन कुंजियों के निर्माण की
प्रक्रिया को समझने की कोशिश करते हैं। यहां हम सार्वजनिक कुंजी को N व e से और निजी कुंजी को d से प्रदर्शित करेंगे।
N का चुनाव
1. पहले कोई भी दो प्राइम संख्याएं चुनी जाती हैं। माना कि
हमने यहां 11 और 17 चुनी।
2. फिर N की गणना के लिए इन
दोनों प्राइम संख्याओं का आपस में गुणा किया जाता है (11 × 17)। और प्राप्त गुणनफल
N
होता है। यानि N = 187।
e का चुनाव
1. सबसे पहले चुनी गई दोनों प्राइम संख्याओं (11 और 17) में
से एक-एक घटाते हैं।
2. इस तरह प्राप्त संख्याओं (10 और 16) का आपस में गुणा
करते हैं (प्राप्त गुणनफल को हम Q कहेंगे)।
3. e के लिए एक ऐसी संख्या चुनी जाती है जो Q से छोटी हो और उसका Q में पूरा-पूरा भाग
ना जाता हो। यहां Q = 160। तो e के लिए 160 से छोटी कोई भी संख्या चुनी जा सकती है जिसका
160 में पूरा-पूरा भाग ना जाता हो। चलिए e के लिए 7 चुन लेते
हैं। तो सार्वजनिक कुंजी हुई (N =187, e = 7)
d का चुनाव
1. सबसे पहले Q में 1 जोड़ा जाता है, 160 अ 1 = 161।
2. अब इस प्राप्त संख्या में e से भाग दिया जाता
है। प्राप्त भागफल d होता है। यहां, 161 में 7 का भाग देने पर प्राप्त भागफल 23 है। तो निजी
कुंजी यानी d है 23।
कूटलेखन
संदेश भेजने की प्रक्रिया में सबसे पहले जो भी संदेश भेजा
जाना है उसे किसी एल्गोरिद्म की मदद से संख्या में बदला जाता है। फिर सार्वजनिक
कुंजी की सहायता से संदेश कूट किया जाता है। माना कि भेजा जाने वाला संदेश है 3।
सार्वजनिक कुंजी 187 व 7 है।
1. संदेश कूट करने के लिए पहले (संदेश संख्या)e की गणना की जाती है।
यहां e = 7
है। इस प्रकार 37 (3×3×3×3×3×3×3) हल करने पर मिला 2187।
2. अब प्राप्त संख्या में N से भाग दिया जाता
है। फिर जो शेषफल बचता है वही संदेश के रूप में भेजा जाता है। यहां 2187 में 187
का भाग देने पर शेषफल बचा 130। तो भेजा जाने वाला कूट संदेश है 130।
3. निजी कुंजी (d) की मदद से संदेश पढ़ा जाता है। यहां हमारी निजी कुंजी है
23। तो संदेश पढ़ने के लिए सबसे पहले (प्राप्त संदेश)d हल किया जाता है,
यहां (130)23। इसका मतलब है कि
130 में 130 का गुणा 23 बार किया जाएगा।
4. हल करने पर प्राप्त संख्या में N से भाग दिया जाता
है। भाग देने पर जो शेषफल मिलता है वही संदेश होता है। यहां हल करने पर मिला
41753905 × 1041। इसे 187 से भाग देने पर जो शेषफल मिला वह 3 होगा। और
यही हमारा वास्तविक संदेश था।
गौर करने वाली बात है कि हमने उदाहरण के लिए छोटी अभाज्य
संख्याओं का चुनाव किया, वास्तव
में ये संख्याएं काफी बड़ी होती हैं।
लेकिन बड़ी प्राइम संख्याएं ही क्यों?
दरअसल एक से बड़ी किसी भी संख्या के
गुणनखंड अभाज्य संख्याओं के रूप में प्राप्त किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए 70 को
2×5×7 के रूप में लिखा जा सकता है। इन्हें अभाज्य गुणनखंड कहते हैं। गणितज्ञों के
अनुसार किन्हीं भी दो बड़ी अभाज्य संख्याओं का गुणनफल पता करना तो आसान है लेकिन
अभाज्य गुणनखंड पता करना काफी मुश्किल है, यहां तक कि सुपर कंप्यूटर के लिए भी। ऐसा नहीं है कि बहुत
बड़ी संख्याओं के अभाज्य गुणनखंड पता नहीं किए जा सकते। पता तो किए जा सकते हैं
लेकिन बहुत अधिक समय लगता है, शायद
कई वर्ष। इसलिए अभाज्य संख्याएं जितनी बड़ी होंगी डैटा उतना अधिक सुरक्षित रहेगा।
कूटलेखन का उपयोग इंटरनेट के ज़रिए पैसों के लेन-देन की
सुरक्षा में, नियत
समय में संदेश पहुंचाने में, सूचना
भेजे जाने वाले व्यक्ति के प्रमाणीकरण या सत्यापन (डिजिटल सिग्नेचर) में,
क्रेडिट कार्ड, एटीएम, ई-मेल,
स्टोरेज डिवाइस की सुरक्षा वगैरह में होता
है। इन सभी जगह प्राइम संख्या का उपयोग होता है।
इसके अलावा प्राइम संख्याएं रैंडम नंबर पैदा करने वाली
एल्गोरिद्म में उपयोग होती हैं। यानी जहां भी संख्याओं में बेतरतीबी की ज़रूरत
होती है वहां ये एल्गोरिद्म काम करती हैं। जैसे सुरक्षित लेन-देन के लिए ओटीपी
नंबर (वन टाइम पासवर्ड) में, ऑनलाइन
कैसिनो में पत्ते निकालने या पांसे पर आने वाली संख्या तय करने में। इंटरनेट पर
बने किसी भी एकाउंट में लॉग-इन करते वक्त पासवर्ड का मिलान किया जाता है,
चूंकि इस मिलान को कम-से-कम समय में अंजाम
देना होता है इसलिए यहां हैश-टेबल की मदद ली जाती है। और हैश-टेबल में भी प्राइम
संख्या का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा हैश टेबल सर्फिंग या सर्चिंग जैसे
किसी शॉपिंग साइट में चीज़ों को जल्दी ढूंढ निकालने में भी मददगार होती है।
कई खेलों को बनाने में भी अभाज्य संख्याओं का उपयोग किया
जाता है। जैसे कैंडी क्रश खेल में कई गणितीय अवधारणाओं का उपयोग किया गया है और
इनमें अभाज्य संख्याओं का उपयोग किया गया है। तो जब भी हम इनमें से किन्हीं भी
सुविधाओं का उपयोग कर रहे होते हैं तब अनजाने में अभाज्य संख्या का भी उपयोग करते
हैं।
वैसे प्रकृति में भी अभाज्य संख्याएं दिखाई देती हैं। जैसे सिकाडा कीट लंबे समय तक ज़मीन के अंदर रहते हैं और 13 या 17 साल बाद ज़मीन से बाहर निकलते हैं और प्रजनन करते हैं ताकि वे अपने शिकारियों से सुरक्षित रहें। आप स्वयं सोचिए कि इससे सुरक्षा कैसे मिलती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://inteng-storage.s3.amazonaws.com/images/NOVEMBER/sizes/New_Lock_Code_resize_md.jpg
धरती के तापमान में वृद्धि (ग्लोबल
वार्मिंग) में योगदान के लिए उड्डयन उद्योग को जि़म्मेदार ठहराया जाता रहा है, खास तौर से विमानों
से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड के कारण। लेकिन हालिया शोध बताते हैं कि उड़ते
विमान के पीछे जो एक लंबी सफेद लकीर नज़र आती है, वह भी तापमान को
बढ़ाने में खासी भूमिका निभाती है।
अक्सर ऊंचाई पर उड़ान भरने के दौरान या कई अन्य
परिस्थितियों में विमान ऐसी लकीर छोड़ते हैं। जिस ऊंचाई पर ये विमान उड़ते हैं
वहां की हवा ठंडी और विरल होती है। जब इंजन में से कार्बन के कण निकलते हैं तो
बाहर की ठंडी हवा में उपस्थित वाष्प इन कणों पर संघनित हो जाती है। यह एक किस्म का
बादल होता है जो लकीर के रूप में नज़र आता है। इसे संघनन लकीर कहते हैं। ये बादल
कुछ मिनटों से लेकर कई घंटों तक टिके रह सकते हैं। ये बादल इतने झीने होते हैं कि
सूर्य के प्रकाश को परावर्तित तो नहीं कर पाते किंतु इनमें मौजूद बर्फ के कण ऊष्मा
को कैद कर लेते हैं। इसकी वजह से तापमान में वृद्धि होती है। इस शोध के मुताबिक
साल 2050 तक संघनन लकीरों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि तीन गुना हो जाएगी।
साल 2011 में हुए एक शोध के मुताबिक
विमान-जनित बादलों का कुल प्रभाव,
विमानोंद्वारा छोड़ी गई कार्बन डाईऑक्साईड की तुलना में
तापमान वृद्धि में अधिक योगदान देता है। अनुमान यह है कि 2050 तक उड़ानों की
संख्या चौगुनी हो जाएगी और परिणाम स्वरूप तापमान में और अधिक बढ़ोतरी होगी।
उक्त अध्ययन में शामिल जर्मन एयरोस्पेस
सेंटर की उलरिके बुर्खार्ट जानना चाहती थीं कि भविष्य में ये विमान-जनित बादल
जलावयु को किस तरह प्रभावित करेंगे। इसके लिए उन्होंने अपने साथियों के साथ एक
बिलकुल नया पर्यावरण मॉडल बनाया जिसमें विमान-जनित बादलों को सामान्य बादलों से
अलग श्रेणी में रखा गया था। शोधकर्ताओं ने साल 2006 के लिए विश्व स्तर पर
विमान-जनित बादलों का मॉडल तैयार किया क्योंकि सटीक डैटा इसी वर्ष के लिए उपलब्ध
था। फिर उन अनुमानों को देखा कि भविष्य में उड़ानें कितनी बढ़ेंगी और उनके कारण
कितना उत्सर्जन होगा। इसके आधार पर 2050 की स्थिति की गणना की। एटमॉस्फेरिक
केमेस्ट्री एंड फिजि़क्स पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि
साल 2050 तक विमान-जनित बादलों के कारण तापमान में होने वाली वृद्धि तीन गुना हो
जाएगी।
इसके बाद उन्होंने 2050 में एक अलग परिस्थिति के लिए मॉडल बनाया जिसमें उन्होंने यह माना कि विमानों से होने वाले कार्बन कण उत्सर्जन में 50 प्रतिशत कमी की जाएगी और उसके प्रभाव को देखा। उन्होंने पाया कि इतनी कमी करने पर इन बादलों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि में बस 15 प्रतिशत की कमी आती है। बुर्खार्ट का कहना है कि कार्बन कणों में 90 प्रतिशत कमी करने पर भी हम 2006 के स्तर पर नहीं पहुंच पाएंगे। वैसे बहुत संदेह है कि इस दिशा में कोई कार्य होगा क्योंकि आज भी हम कार्बन डाईऑक्साइड पर ही ध्यान दे रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/1127588194-1280×720.jpg?itok=FclbRZio https://insideclimatenews.org/sites/default/files/styles/icn_full_wrap_wide/public/article_images/contrails-germany-900_nicolas-armer-afp-getty%20.jpg?itok=-Z65PHF1
एजेंसी
फ्रांस प्रेस के अनुसार 19 जुलाई को चीनी अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-2 अपनी कक्षा
छोड़ धरती पर गिर गया। लेकिन पिछली बार के विपरीत,
इस दौरान पूरे समय इस पर चीन के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का
नियंत्रण रहा।
चीनी
राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन (CNSA)
पहले ही यह बता चुका था कि चीन का दूसरा प्रायोगिक अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-2
अपनी कक्षा छोड़ने वाला है और पृथ्वी के वायुमंडल में पुन: प्रवेश करने वाला है।
प्रशासन के अनुसार पुन: प्रवेश के दौरान तियांगोंग-2 वायुमंडल में पूरी तरह जल
जाएगा और यदि कुछ बचा तो वह प्रशांत महासागर के पाइंट नेमो नामक इलाके में गिरेगा।
लेकिन यह स्थिति चीन के पहले अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-1 से भिन्न है। उसने भी अप्रैल
2018 में अपनी कक्षा छोड़ दी थी और पृथ्वी पर अनियंत्रित तरीके से आ गिरा था।
लेकिन तियांगोंग-1 पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया था। हालांकि संयोग से तियांगोंग-1
भी प्रशांत महासागर के इसी इलाके में गिरा था।
तियांगोंग-2 उत्तरी बॉटलनोज़ व्हेल से थोड़ा बड़ा, 10 मीटर लंबा और 8600 किलोग्राम वज़नी था। इस अंतरिक्ष स्टेशन में 18 मीटर लंबे सौलर पैनल थे जिससे यह अजीब-सी व्हेल मछली की तरह दिखता था।
अंतरिक्ष प्रशासन के अधिकारियों का कहना है कि तियांगोंग-2 ने अपने सारे प्रयोग पूरे कर लिए थे। और इसने अपनी 2 साल की तयशुदा उम्र से एक साल अधिक कार्य किया। स्पेस डॉटकॉम के मुताबिक इस दौरान तियांगोंग-2 ने एक बार (अक्टूबर-नवंबर 2016 में) दो अंतरिक्ष यात्रियों और कई रोबोटिक मिशन की मेज़बानी की थी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thesun.co.uk/wp-content/uploads/2018/01/nintchdbpict000378766354.jpg?strip=all&w=700
पृथ्वी की संरचना विभिन्न
परतों से बनी है। सतह से चलें तो एक के बाद एक कई परत पार करने के बाद धरती के
केंद्र में अत्यधिक गर्म क्षेत्र है जिसे कोर कहा जाता है। कई दशकों से
वैज्ञानिकों में इस सवाल पर मतभेद रहा है कि क्या कोर और पृथ्वी की अन्य परतों
(खासकर मैंटल) के बीच पदार्थ का आदान-प्रदान होता है या नहीं। हालिया अध्ययन से
मालूम चला है कि कोर से कुछ रिसाव मैंटल में हो रहा है। इसका कुछ हिस्सा पृथ्वी की
सतह पर भी पहुंच रहा है।
दी कंवर्सेशन में प्रकाशित
अध्ययन के अनुसार यह रिसाव लगभग 2.5 अरब वर्षों से हो रहा है। इस निष्कर्ष तक
पहुंचने में मुख्य भूमिका टंगस्टन (W) नामक तत्व की रही। खास तौर पर टंगस्टन के दो समस्थानिक मददगार रहे – W-182 और W-184। गौरतलब है कि
किसी भी तत्व के समस्थानिक उन्हें कहते हैं जिनकी परमाणु संख्या तो एक ही होती है
किंतु परमाणु भार अलग-अलग होते हैं।
टंगस्टन धातु सिडरोफाइल है
यानी यह लौहे से आकर्षित होती है। पृथ्वी का कोर मुख्य रूप से लोहे और निकल से बना
है, इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि उसमें काफी मात्रा
में टंगस्टन पाया जाता है।
एक अन्य तत्व, हाफनियम (Hf), जो लिथोफाइल है यानी चट्टानों से आकर्षित होता है, पृथ्वी के सिलिकेट-समृद्ध मैंटल में ज़्यादा मात्रा में पाया जाता है।
हाफनियम का एक समस्थानिक Hf-182 है। यह रेडियोसक्रिय होता है और टूटकर W-182 में बदलता रहता है। इसके हिसाब से वैज्ञानिकों ने
अनुमान लगाया कि कोर की तुलना में मैंटल में W-182:W-184 अनुपात अधिक
होना चाहिए क्योंकि मैंटल में Hf-182 टूट-टूटकर W-182 में बदलता रहा होगा।
पृथ्वी की उम्र के साथ
समुद्री द्वीपों के बैसाल्ट (एक प्रकार की आग्नेय चट्टान) में 182W/184W के अनुपात में अंतर
से कोर और मैंटल के बीच रासायनिक आदान-प्रदान का पता लगाया जा सकता है। लेकिन यह
अंतर बहुत कम होने की संभावना था।
एक मुश्किल और थी। कोर लगभग
2900 किलोमीटर की गहराई पर शुरू होता है, जबकि हम अभी तक 12.3 कि.मी.
गहराई तक ही खोद पाए हैं।
इसलिए शोधकर्ताओं ने उन
चट्टानों का अध्ययन किया जो पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पिलबारा क्रेटन, हिंद महासागर स्थित रियूनियन द्वीप और केग्र्यूलन द्वीपसमूह में गहरे मैंटल से
पृथ्वी की सतह तक पहुंची थीं।
पृथ्वी के जीवनकाल की
अलग-अलग अवधियों में, मैंटल में टंगस्टन के समस्थानिकों का अनुपात
बदलता रहा है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मालूम चला कि आधुनिक चट्टानों की तुलना में
पृथ्वी की सबसे पुरानी चट्टानों में W-182 का अनुपात अधिक है। इसका मतलब यही हो सकता है कि कोर में से टंगस्टन
निकलकर मैंटल में पहुंचा है। चूंकि कोर में W-182 कम और W-184 अधिक होता है
इसलिए यदि वहां से टंगस्टन रिसकर मैंटल में पहुंचेगा तो मैंटल में भी W-182 का अनुपात कम होता जाएगा।
उपरोक्त अध्ययन में टंगस्टन के समस्थानिकों के अनुपात में अंतर करीब 2.5 अरब वर्ष पूर्व की चट्टानों में दिखे हैं, उससे पहले की चट्टानों में नहीं। यानी माना जा सकता है कि कोर से मैंटल में रिसाव 2.5 अरब वर्ष पूर्व ही शुरू हुआ है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : http://hotworldreport.com/wp-content/uploads/2019/07/ccelebritiesfoto1689262-820×410.jpg
लॉस एंजेल्स,
कैलिफोर्निया के अधिकारी जल्द ही एक सौदा करने वाले हैं जो
सौर ऊर्जा को पहले से कहीं अधिक सस्ता कर देगा और उसकी एक प्रमुख खामी से भी
निपटेगा – सौर ऊर्जा तभी उपलब्ध होती है जब सूरज चमक रहा हो। इस सौदे के तहत एक
विशाल सौर फार्म स्थापित किया जाएगा जहां दुनिया की एक सबसे बड़ी बैटरी का
इस्तेमाल किया जाएगा। 2023 तक यह शहर को 7 प्रतिशत बिजली प्रदान करेगा। इसकी लागत
होगी बैटरी के लिए 1.3 सेंट प्रति युनिट और सौर ऊर्जा के लिए 1.997 सेंट प्रति
किलोवाट घंटा। यह किसी भी जीवाश्म र्इंधन से उत्पन्न उर्जा से सस्ता है।
स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी,
कैलिफोर्निया के वायुमंडलीय वैज्ञानिक मार्क जैकबसन के
अनुसार बड़े पैमाने पर उत्पादन के चलते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और बैटरियों की
कीमतें नीचे आती रहती हैं।
बैटरी भंडारण के मूल्य में
तेज़ी से गिरावट के चलते नवीकरण को प्रोत्साहन मिला है। मार्च में ब्लूमबर्ग न्यू
एनर्जी फाइनेंस द्वारा 7000 से अधिक वैश्विक भंडारण परियोजनाओं के विश्लेषण से
मालूम चला है कि 2012 के बाद से लीथियम बैटरी की लागत में 76 प्रतिशत की कमी आई और
पिछले 18 महीनों में 35 प्रतिशत कम होकर 187 डॉलर प्रति मेगावाट-घंटा हो गई। एक
अन्य अध्ययन के अनुसार 2030 तक इसकी कीमतें आधी होने का अनुमान है जो 8-मिनट सोलर
एनर्जी नामक कंपनी के अनुमान से भी कम है।
यही कंपनी नवीन
सौर-प्लस-स्टोरेज कैलिफोर्निया में तैयार करने जा रही है। इस परियोजना से प्रतिदिन
400 मेगावाट सौर संयंत्रों का जाल बनाया जाएगा, जिससे सालाना लगभग 8,76,000 मेगावॉट घंटे (MWh) बिजली पैदा होगी।
यह दिन के समय 65,000 से अधिक घरों के लिए पर्याप्त होगी। इसकी 800 मेगावॉट घंटे
की बैटरी सूरज डूबने के बाद बिजली भंडार करके रखेगी, जिससे प्राकृतिक गैस जनरेटर की ज़रूरत कम हो जाएगी।
बड़े पैमाने पर बैटरी भंडारण आम
तौर पर लीथियम आयन बैटरी पर निर्भर करता है। लेकिन बैटरी ऊर्जा भंडारण आम तौर पर
केवल कुछ घंटों के लिए बिजली प्रदान करते हैं। इसको बादल आच्छादित मौसम या
सर्दियों की स्थिति में लंबे समय तक चलने के लिए विकसित करने की आवश्यकता है।
100 प्रतिशत नवीकरणीय वस्तुओं
पर जाने के साथ-साथ साथ स्थानीय कंपनियां भी ग्रिड बैटरियों की ओर तेज़ी से बढ़ा
रही हैं। जैकबसन के अनुसार, 54 देशों और आठ अमेरिकी राज्यों को 100 प्रतिशत नवीकरणीय बिजली की ओर जाने की
आवश्यकता है।
लॉस एंजेल्स परियोजना वैसे तो सस्ती लगती है, लेकिन ग्रिड को पूरी तरह से नवीकरणीय संसाधनों से उर्जा प्रदान करने से लागत बढ़ सकती है। पिछले महीने ऊर्जा अनुसंधान कंपनी वुड मैकेंज़ी ने अनुमान लगाया था कि इसके लिए अकेले यूएस ग्रिड के लिए 4.5 ट्रिलियन डॉलर की लागत होगी, जिसमें से लगभग आधी लागत 900 बिलियन वॉट या 900 गीगावॉट (GW) बैटरी और अन्य ऊर्जा भंडारण प्रौद्योगिकियों के स्थापित करने के लिए उपयोग हो जाएगी। ( स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/684160330/960×0.jpg?fit=scale
इस साल जून में यदि आपने अत्यधिक गर्मी का अहसास किया है तो आपका एहसास एकदम
सही है। वास्तव में जून 2019 पृथ्वी पर अब तक का सर्वाधिक गर्म जून रहा है। साथ ही
यह लगातार दूसरा महीना था जब अधिक तापमान के कारण अंटार्कटिक सागर में सबसे कम
बर्फ की चादर दर्ज की गई।
नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के नेशनल सेंटर फॉर एनवॉयरमेंटल
इंफरमेशन के अनुसार विगत जून में भूमि और सागर का औसत तापमान वैश्विक औसत तापमान
(15.5 डिग्री सेल्सियस) से 0.95 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह पिछले 140 वर्षों
में जून माह में दजऱ् किए गए तापमान में सर्वाधिक था। 10 में से 9 सबसे गर्म जून
माह तो साल 2010 के बाद रिकॉर्ड किए गए हैं।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों, मेक्सिको खाड़ी के देशों, युरोप,
ऑस्ट्रिया, हंगरी और जर्मनी में इस वर्ष का
जून सर्वाधिक गर्म जून रहा। वहीं स्विटज़रलैंड में दूसरा सर्वाधिक गर्म जून रहा।
यही हाल यूएस के अलास्का में भी रहा। यहां भी 1925 के बाद से अब तक का दूसरा सबसे
गर्म जून दर्ज किया गया।
जून में पूरी पृथ्वी का हाल ऐसा था जैसे इसने गर्म कंबल ओढ़ रखा हो। इतनी अधिक
गर्मी के कारण ध्रुवों पर बर्फ पिघलने
लगी। जून 2019 लगातार ऐसा बीसवां जून रहा जब आर्कटिक में औसत से भी कम बर्फ दर्ज
की गई है। और अंटार्कटिक में लगातार चौथा ऐसा जून रहा जब वहां औसत से भी कम बर्फ
आच्छादन रहा। अंटार्कटिक में पिछले 41 सालों में सबसे कम बर्फ देखा गया। यह 2002
में दर्ज सबसे कम बर्फ आच्छादन (1,60,580 वर्ग किलोमीटर) से भी कम था।
क्या इतना अधिक तापमान ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है? जी हां।
युनिवर्सिटी ऑफ पीट्सबर्ग के जोसेफ वर्न बताते हैं कि कई सालों में लंबी अवधि के
मौसम का औसत जलवायु कहलाती है। कोई एक गर्म या ठंडे साल का पूरी जलवायु पर बहुत कम
असर पड़ता है। लेकिन जब ठंडे या गर्म वर्ष का दोहराव बार-बार होने लगता है तो यह
जलवायु परिवर्तन है।
पूरी पृथ्वी पर अत्यधिक गर्म हवाएं (लू) अधिक चलने लगी हैं। पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ता जा रहा है, ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नज़रअंदाज करना मुश्किल है। नेचर क्लाईमेट चेंज पत्रिका के जून अंक के अनुसार यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम नहीं किया गया तो हर साल झुलसा देने वाली गर्मी बढ़ती जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://s.yimg.com/uu/api/res/1.2/1U8x9FYvsbdZExBSN.gJ6g–~B/aD0xMDY3O3c9MTYwMDtzbT0xO2FwcGlkPXl0YWNoeW9u/https://o.aolcdn.com/images/dims?crop=1104,736,0,0&quality=85&format=jpg&resize=1600,1067&image_uri=https://s.yimg.com/os/creatr-uploaded-images/2019-07/ae970c60-a7d8-11e9-bdff-cf6a07805be6&client=a1acac3e1b3290917d92&signature=ec3459062006001b9237a4608daa6039b00b7f87
यह
आलेख डॉ. सी. सत्यमाला के ब्लॉग डेपो-प्रॉवेरा एंड एच.आई.वी. ट्रांसमिशन: दी
ज्यूरी इस स्टिल आउट का अनुवाद है। मूल आलेख को निम्नलिखित लिंक पर पढ़ा जा सकता
है: https://issblog.nl/2019/07/23/depo-provera-and-hiv-transmission-the-jurys-still-out-by-c-sathyamala/
एड्स वायरस (एच.आई.वी.) के प्रसार और डेपो-प्रॉवेरा नामक एक गर्भनिरोधक
इंजेक्शन के बीच सम्बंध की संभावना ने कई चिंताओं को जन्म दिया है। एक प्रमुख
चिंता यह है कि यदि इस गर्भनिरोधक इंजेक्शन के इस्तेमाल से एच.आई.वी. संक्रमण का
खतरा बढ़ता है तो क्या उन इलाकों में इसका उपयोग किया जाना चाहिए जहां एच.आई.वी.
का प्रकोप ज़्यादा है। जुलाई के अंत में विश्व स्वास्थ्य संगठन इस संदर्भ में
दिशानिर्देश विकसित करने के लिए एक समूह का गठन करने जा रहा है ताकि हाल ही में
सम्पन्न एक अध्ययन के परिणामों पर विचार करके डेपो-प्रॉवेरा की स्थिति की समीक्षा
की जा सके। अलबत्ता, जिस अध्ययन के आधार पर यह समीक्षा करने का प्रस्ताव है, उसके अपने नतीजे स्पष्ट नहीं हैं। इसलिए ज़रूरी होगा कि जल्दबाज़ी न करते हुए
विशेषज्ञों,
सम्बंधित देशों के स्वास्थ्य अधिकारियों और सामाजिक संगठनों
के प्रतिनिधियों को अपनी राय व्यक्त करने हेतु पर्याप्त समय दिया जाए।
जुलाई 29-31 को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) एक दिशानिर्देश विकास समूह का गठन
करने जा रहा है जो “एच.आई.वी. का उच्च जोखिम झेल रही” महिलाओं के लिए गर्भनिरोधक
विधियों के बारे में मौजूदा सिफारिशों की समीक्षा करेगा। इस समीक्षा में खास तौर
से एक रैंडमाइज़्ड क्लीनिकल ट्रायल के नतीजों पर ध्यान दिया जाएगा। एविडेंस फॉर
कॉन्ट्रासेप्टिव ऑप्शन्स एंड एच.आई.वी. आउटकम्स (गर्भनिरोधक के विकल्प और
एच.आई.वी. सम्बंधी परिणाम, ECHO) नामक इस अध्ययन के परिणाम
पिछले महीने लैन्सेट नामक पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं। ECHO ट्रायल चार अफ्रीकी
देशों (दक्षिण अफ्रीका, केन्या, स्वाज़ीलैंड और ज़ाम्बिया) में
किया गया था। इसका मकसद लंबे समय से चले आ रहे उस विवाद का पटाक्षेप करना था कि
डेपो-प्रॉवेरा इंजेक्शन लेने से महिलाओं में एच.आई.वी. प्रसार की संभावना बढ़ती
है। गौरतलब है कि डेपो-प्रॉवेरा एक गर्भनिरोधक इंजेक्शन है जो महिला को तीन महीने
में एक बार लेना होता है।
डेपो-प्रॉवेरा कोई नया गर्भनिरोधक नहीं है। 1960 के दशक में अमरीकी दवा कंपनी
अपजॉन ने गर्भनिरोधक के रूप में इसके उपयोग का लायसेंस प्राप्त करने के लिए आवेदन
किया था। तब से ही यह विवादों से घिरा रहा है। डेपो-प्रॉवेरा को खतरनाक माना जाता
है क्योंकि इसके कैंसरकारी, भ्रूण-विकृतिकारी और
उत्परिवर्तनकारी असर होते हैं।
अलबत्ता,
1992 में मंज़ूरी मिलने के बाद इस बात के प्रमाण मिलने लगे
थे कि इसका उपयोग करने वाली महिलाओं में एच.आई.वी. संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है।
2012 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी जारी की थी कि इसका उपयोग करने वाली
महिलाओं को “स्पष्ट सलाह दी जानी चाहिए कि वे हमेशा कंडोम का उपयोग भी करें।”
अवलोकन आधारित अध्ययनों के परिणामों में अनिश्चितताओं को देखते हुए एक रैंडमाइज़्ड
ट्रायल डिज़ाइन करने हेतु 2012 में ECHO संघ का गठन किया गया। रैंडमाइज़ का मतलब
होता है सहभागियों को दिए जाने उपचार का चयन पूरी तरह बेतरतीबी से किया जाता है।
चूंकि इस ट्रायल में तीन अलग-अलग गर्भनिरोधकों का उपयोग किया जाना था, इसलिए रैंडमाइज़ का अर्थ होगा कि बेतरतीब तरीके से प्रत्येक महिला के लिए
इनमें से कोई तरीका निर्धारित कर दिया जाएगा।
शुरू से ही इस ट्रायल लेकर कई आशंकाएं भी ज़ाहिर की गर्इं। जैसे यह कहा गया कि
रैंडमाइज़ेशन समस्यामूलक है क्योंकि इसके ज़रिए कुछ सहभागियों को एक ऐसे
गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करवाया जाएगा जो एच.आई.वी. संक्रमण की संभावना को बढ़ा
सकता है। ऐसी सारी शंकाओं के बावजूद कक्क्तग्र् संघ ने 2015 में ट्रायल का काम
किया। अपेक्षाओं के विपरीत, पर्याप्त संख्या में महिलाएं इस
अध्ययन में शामिल हो गर्इं और उन्होंने स्वीकार कर लिया कि उन्हें बेतरतीबी से तीन
में से किसी एक गर्भनिरोधक इस्तेमाल करने वाले समूह में रख दिया जाएगा। ये तीन
गर्भनिरोधक थे: डेपो-प्रॉवेरा, लेवोनोजेस्ट्रल युक्त त्वचा के
नीचे लगाया जाने वाला एक इम्प्लांट और कॉपर-टी जैसा कोई गर्भाशय में रखा जाने वाला
गर्भनिरोधक साधन। पूरा अध्ययन डेपो-प्रॉवेरा के बारे में तो निष्कर्ष निकालने के
लिए था। शेष दो गर्भनिरोधक इसलिए रखे गए थे ताकि एच.आई.वी. प्रसार के साथ
डेपो-प्रॉवेरा के सम्बंधों की तुलना की जा सके। कई लोगों ने कहा है कि इतनी संख्या
में महिलाओं को अध्ययन में भर्ती कर पाना और उन्हें बेतरतीबी से विभिन्न
गर्भनिरोधक समूहों में बांट पाना इसलिए संभव हुआ है क्योंकि उन पर दबाव डाला गया
था और ट्रायल के वास्तविक मकसद को छिपाया गया था। इस दृष्टि से ECHO ट्रायल ने विश्व
चिकित्सा संघ के हेलसिंकी घोषणा पत्र के एक प्रमुख बिंदु का उल्लंघन किया है।
हेलसिंकी घोषणा पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि “यह सही है कि चिकित्सा अनुसंधान का
मुख्य उद्देश्य नए ज्ञान का सृजन करना है किंतु यह लक्ष्य कभी भी अध्ययन के
सहभागियों के अधिकारों व हितों के ऊपर नहीं हो सकता।” स्पष्ट है कि संघ ने महिलाओं
को पूरी जानकारी न देकर अपने मकसद को उनके अधिकारों व हितों से ऊपर रखा।
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अध्ययन में सैम्पल साइज़ (यानी उसमें कितनी
महिलाओं को शामिल किया जाए) का निर्धारण यह जानने के हिसाब से किया गया था कि क्या
डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. के प्रसार के जोखिम में 30 प्रतिशत से
ज़्यादा की वृद्धि होती है। जोखिम में इससे कम वृद्धि को पहचानने की क्षमता इस
अध्ययन में नहीं रखी गई थी। इसका मतलब है कि यदि त्वचा के नीचे लगाए जाने वाले
इम्प्लांट के मुकाबले डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से एच.आई.वी. प्रसार की दर 23-29
प्रतिशत तक अधिक होती है, तो उसे यह कहकर नज़रअंदाज़ कर
दिया जाएगा कि वह सांख्यिकीय दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं है। जो महिला डेपो-प्रॉवेरा
का इस्तेमाल करती है या ट्रायल के दौरान जिसे डेपो-प्रॉवेरा समूह में रखा जाएगा, उसकी दृष्टि से यह सीमा-रेखा बेमानी है। यह सीमा-रेखा सार्वजनिक स्वास्थ्य
सम्बंधी निर्णयों की दृष्टि से भी निरर्थक है।
विभिन्न परिदृश्यों को समझने के लिए मॉडल विकसित करने के एक प्रयास में देखा
गया है कि यदि डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से एच.आई.वी. का प्रसार बढ़कर 1.2 गुना
भी हो जाए,
तो इसकी वजह से प्रति वर्ष एच.आई.वी. संक्रमण के 27,000 नए
मामले सामने आएंगे। इसकी तुलना प्राय: गर्भ निरोधक के रूप में डेपो-प्रॉवेरा के
इस्तेमाल से मातृत्व सम्बंधी कारणों से होने वाली मौतों में संभावित कमी से की
जाती है। डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से मातृत्व सम्बंधी मृत्यु दर में जितनी कमी
आने की संभावना है, उससे कहीं ज़्यादा महिलाएं तो इस गर्भनिरोधक का उपयोग करने
की वजह से एच.आई.वी. से संक्रमित हो जाएंगी। ऐसा नहीं है कि कक्क्तग्र् टीम इस बात
से अनभिज्ञ थी। उन्होंने माना है कि उनकी ट्रायल में 30 प्रतिशत से कम जोखिम पता
करने की शक्ति नहीं है।
पूरे अध्ययन का एक और पहलू अत्यधिक चिंताजनक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का
कहना है कि डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. संक्रमण का खतरा बढ़ने के कुछ
प्रमाण हैं। संगठन का मत है कि जिन महिलाओं को एच.आई.वी. संक्रमण का खतरा अधिक है
वे इसका उपयोग कर सकती हैं क्योंकि गर्भनिरोध के रूप में जो फायदे इससे मिलेंगे वे
एच.आई.वी. के बढ़े हुए जोखिम से कहीं अधिक हैं। साफ है कि इस ट्रायल में शामिल
एक-तिहाई महिलाओं को जानते-बूझते इस बढ़े हुए जोखिम को झेलना होगा। दवा सम्बंधी
अधिकांश ट्रायल में जो लोग भाग लेते हैं उन्हें कोई बीमारी होती है जिसके लिए
विकसित दवा का परीक्षण किया जा रहा होता है। मगर गर्भनिरोध का मामला बिलकुल भिन्न
है। गर्भनिरोधकों का परीक्षण स्वस्थ महिलाओं पर किया जाता है। बीमार व्यक्ति को एक
आशा होती है कि बीमारी का इलाज इस परीक्षण से मिल सकेगा लेकिन इन महिलाओं को तो
मात्र जोखिम ही झेलना है।
इसी संदर्भ में ECHO ट्रायल की एक और खासियत है। इस अध्ययन का एक जानलेवा
अंजाम ही यह है कि शायद वह महिला एच.आई.वी. से संक्रमित हो जाएगी। यही जांचने के
लिए तो अध्ययन हो रहा है कि क्या डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. संक्रमित
होने की संभावना बढ़ती है। यह शायद क्लीनिकल ट्रायल के इतिहास में पहली बार है कि
कुछ स्वस्थ महिलाओं को जान-बूझकर एक गर्भनिरोधक दिया जा रहा है जिसका मकसद यह
जानना नहीं है कि वह गर्भनिरोधक गर्भावस्था को रोकने/टालने में कितना कारगर है
बल्कि यह जानना है कि उसका उपयोग खतरनाक या जानलेवा है या नहीं। यानी ट्रायल के
दौरान कुछ स्वस्थ शरीरों को बीमार शरीरों में बदल दिया जाएगा।
इस सबके बावजूद मीडिया में भ्रामक जानकारी का एक अभियान छेड़ दिया गया है। इस अभियान को स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन के इस वक्तव्य से हवा मिली है कि ट्रायल में इस्तेमाल की गई गर्भनिरोधक विधियों और एच.आई.वी. प्रसार का कोई सम्बंध नहीं देखा गया है। इससे तो लगता है कि डेपो-प्रॉवेरा को उच्च जोखिम वाली आबादी में उपयोग के लिए सुरक्षित घोषित करने का निर्णय पहले ही लिया जा चुका है। हकीकत यह है कि ECHO ट्रायल ने मुद्दे का पटाक्षेप करने की बजाय नई अनिश्चितताएं उत्पन्न कर दी हैं। लिहाज़ा, यह ज़रूरी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन का दिशानिर्देश विकास समूह जल्दबाज़ी में कोई निर्णय न करे। बेहतर यह होगा कि विशेषज्ञों, सम्बंधित देशों के स्वास्थ्य अधिकारियों और सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों को समय दिया जाए कि वे कक्क्तग्र् और इसके नीतिगत निहितार्थों को उजागर कर सकें। तभी एक ऐसे मुद्दे पर जानकारी-आधारित निर्णय हो सकेगा जो करोड़ों महिलाओं को प्रभावित करने वाला है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.bmj.com/sites/default/files/sites/defautl/files/attachments/bmj-article/2019/07/depo-provera-injection.jpg